पत्र पाथय—01
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
पद
स्पर्श आपका
आशीष पत्र
मिला। मैं
कितना आनंदित
हूं कैसे कहूं? मां जैसी
अमूल्य वस्तु
निर्मूल्य
मिल जावे और
वह भी मुझ
जैसे अपात्र
को तो इसे प्रभु
की अनुकंपा के
अतिरिक्त और
क्या कहूं? उस अचिन्त्य
और अज्ञेय के
स्नेह प्रसाद
की अनुभूति
जैसे—जैसे मुझ
पर प्रगट होती
जा रही है, वैसे—वैसे
मेरा जीवन, आनंद, शांति
और कृतज्ञता
के अमृत बोध
से भरता जाता
है। आपको पाने
में भी उसका
करुणामय हाथ
ही पीछे है।
यह मैं स्पष्ट
देख पा रहा हूं।
आपको
देखा उसी क्षण
जो आपने पत्र
में लिखा है वह
मुझे दीख आया
था। पत्र ने
इसलिए मुझे
अचंभित नहीं
किया, बल्कि
लगा कि मैं तो
जैसे उसकी बाट
ही देख रहा था!
आपकी आंखों
में मातृत्व
का यह स्नेह
मुझे अनदेखा
नहीं रहा था।
किसी अतीत
जीवन में आप
मेरी मां थी, ऐसी आपकी
स्मृति है तो
निश्चय ही आप
मेरी मां रही
होंगी। मेरी
तो कामना है
कि नारी मात्र
को मैं अपनी मां
के रूप में
देख पाऊं। इसी
पथ पर चल रहा
हूं और आपका
स्नेह और आशीष
मेरे पदों को
सबल करेगा, ऐसी आशा है।
मैं
स्वस्थ और
प्रसन्न हूं
किसी छुट्टी
में आने का
प्रयास
करूंगा। अब तो
आना ही पड़ेगा।
जिस स्नेह में
बांध लिया है
उसका आमंत्रण
तो कभी
अस्वीकृत
नहीं होता है।
पत्र दें और
मेरे. योग्य
सेवा लिखें।
मेरे लिए
प्रभु से सदा
प्रार्थना
करती रहें।
सबको मेरे
विनम्र
प्रणाम।
बच्चों को
मेरा बहुत—बहुत
स्नेह!
रजनीश
के प्रणाम!
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