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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--48)

अध्‍याय—(अड़तालीसवां)

मिट्टी के तेल से जलने वाले इस स्टोव को जलाना वाकई मुश्किल काम है। यह बड़ी तकलीफ दे रहा है। इसके निप्पल को मुझे बार—बार एक पिन से साफ करना पड़ता है, और फिर कुछ देर पंप करते रहने के बाद यह भभककर जल उठता है।
पहले मैं चाय तैयार करती हूं और फिर टोस्ट बनाने के लिए ढ़क्‍कन को सीधा ही स्टोव पर रख देती हूं। ओशो रसोई के एक कोने में रखी छोटी सी मेज पर रखा—नाश्ता कर रहे हैं। मैं मिट्टी के तेल की गंध को बाहर करने के लिए रसोई का दरवाजा खुला रखती हूं।
एक सुंदर सा मुस्‍लिम नौजवान जो यहां का चौकीदार है, आज खुले दरवाजे के पास आकर ओशो की ओर झुककर कहता है, वालेकुम सलाम।ओशो प्यारी—सी मुस्कान से उसका स्वागत करते हैं और मुझसे उसे टोस्ट व चाय देने को कहते हैं। इस समय आ टपकने के कारण मैं इस युवक से कुछ खिन्न हो जाती हूं क्योंकि मुझे चाय दोबारा बनानी पड़ेगी। मैं अपने आप को यही कहकर सांत्वना देती हूं कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। मैं उसे बिठाकर चाय व टोस्ट देती हूं।
लेकिन हैरानी की बात तो यह कि अगली सुबह भी वह चौकीदार फिर उसी समय हाजिर हो जाता है। और पूरी घटना फिर से दोहरायी जाती है। अब मुझे पूरा यकीन हो जाता है कि हमारे यहां —ठहरने तक यह सिलसिला —हर रोज दोहराया जायेगा।
मेरा पूर्वानुमान गलत नहीं होता, प्रतिदिन वह अपने चाय व टोस्ट के लिए आने लगता है। और मैं देखती हूं कि ओशो इसका खूब आनन्द ले रहे हैं। मुझे लगता है कि ओशो को इस व्यक्ति के प्रति मेरे आन्तरिक विक्षोभ व क्रोध पता चल रहा होगा और वे सीधे मुझसे एक भी शब्द कहे बिना उसे बाहर लाने की कोशिश कर रहे हैं।
आज प्रवचन में मैं सुनती हूं कि वे बेशर्त प्रेम की, अजनबियों को अकारण प्रेम करने की बात —कर रहे हैं। यह सुनकर, सुबह वाली घटना मुझे याद आती है और अपनी मूढ़ता का अहसास होता है। और कुछ मेरे भीतर कौंध जाता है।
अगली सुबह मैं पहली बार उस चौकीदार का खुले हृदय से स्वागत करती हूं और प्रेम से उसे चाय व टोस्ट बनाकर देती हूं। ओशो यह देख रहे हैं, और जब मैं उनकी ओर देखती हूं तो वे मुझे एक मीठी सी मुस्कान से देखते हैं। चौकीदार के प्रति मेरे व्‍यवहार में परिवर्तन पर प्रसन्नता जाहिर करते हैं।

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