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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--49)

अध्‍याय—(उन्‍नचासवां)

दोपहर को भोजन के बाद ओशो. अपने कमरे में आराम कर रहे हैं और मैं बरामदे में बैठी दे रही हूं। तीन मुस्लिम बुजुर्ग आते हैं और कहते हैं, हमें पीर बाबा से मिलना है।मैं उन्हें बताती हूं वह अभी आराम कर रहे हैं, आप वापस 3 बजे आ सकते हैं।
वे लोग ओशो के बारे में जानने के उत्सुक हैं। बातचीत की शुरुआत करने के लिए उनमें से एक बुजुर्ग पूछता है कि क्या मैं ओशो की बेटी हूं।
बेकार की बातचीत से बचने के लिए मैं बस हां कह देती हूं। लेकिन यहां मुझसे गलती हो गई। बातचीत से बचना उतना आसान नहीं है, जितना मैं सोच रही थी। दूसरा व्यक्ति पूछता है, तुम्हारी मां कहां है?' अब मैं पशोपेश में पड़ जाती हूँ मुझे कुछ नहीं सूझता कि क्या कहूं। मेरी वास्तविक मां तो अब जीवित नहीं है। उसके बारे में ही सोचती हुई मैं कह देती हूं मेरी मां मर चुकी है।उनके साथ बैचेनी महसूस करते हुए मैं भीतर जाने के लिए उठ खड़ी होती हूं कि तभी उनमें से एक कहता है, मेहरबानी करके और एक प्रश्न। क्या तुम्हारे कुछ और भाई—बहन हैं?' मैं एक गहरी सांस लेती हूं। बात असलियत से काफी दूर जा चुकी है एक झूठ से शुरुआत करने के कारण मुझे अपनी मूर्खता का अहसास होता है। मैं खामोशी से उन लोगों की ओर देखने लगती हूं।
जब वे चल पड़ते हैं, तो मुझे बड़ी राहत मिलती है। उनमें से एक को मैं कहते सुनती हूं बेचारी, इसकी मां मर गई है और अब यही अपने बाप की देखभाल कर रही है।
जब मैं ओशो को पूरा वार्तालाप सुनाती हूं तो वे हंसकर कहते हैं, तो अब तुझे पता चला कि कैसे एक झूठ से दूसरा झूठ निकलता है। शुरु से ही उसके प्रति जागरूक रहना अच्छा है।

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