मां आनंदमयी से एक भेंट वार्ता:
‘‘अरे!
विकल इनसे
मिलकर तो मेरे
सारे प्रश्न
ही हल होने
वाले थे। इसका
संकेत पहले ही
मुझे मिल ही
चुका था।’’ और
मा ने फिर खुद
के हृदय की 'उस' आतुर
अवस्था की और
मुझे पुन: मोड़
दिया।’’जप,
तपस्या, व्रत,
ध्यान, भक्ति
आदि सब जैसा भी
मैं जानती थी
वह सब मैंने
किया। परन्तु
बेचैनी बढ़ती
गई। कोई लाभ
नहीं मिला।
विवाह के बाद
मुझे मेरी
मनःस्थिति से
बड़ी ही घबराहट
होने लगी।
मुझे ऐसा लगता
रहता कि अगर
इसी
मनःस्थिति
में और रही तो
मैं धार्मिक
कभी नहीं बन
सकती। मैं तो
आज तक पूर्ण
आसक्त रही हूं।
मुझे सुंदर—सुंदर
लोग अच्छे
लगते थे।
अच्छे घर, सुगन्ध
अच्छी लगती थी
और ये तो
विरक्ति के मार्ग
मैं पाप की
निशानियां
हैं। विकल, जो आसक्ति
और विरक्ति की
परिभाषाएं
परम्परा से
चली आ रही थी
उन सब के
प्रति मन कुछ
डगमगाता सा
महसूस करता।
मां अब
अर्धशती पीछे
के अतीत में
पूर्णत: उतर
चुकी थी।
''अब
जैसे प्रणय
संबंधी बातों
मे तो मुझे और
भी अधिक रस
अनुभव होता था।
इन सब बातों
को देखते हुए
मुझे ऐसा लगता
था.. जैसे कोई
शराबी रोज मन
में यह सोचे
कि मेरी शराब छूट
जाय क्योंकि
शराब कोई
अच्छी चीज
नहीं है, परंतु
उससे छोड़ते ही
नहीं बनती है
वह। ठीक ऐसी
ही दशा मेरी
थी। ये सब
आकर्षण मैं
छोड़ना चाहकर
भी नहीं छोड़
पा रही थी।
वैसे एक बात
ये भी थी कि
मुझे संसार
में बुरी कोई
भी वस्तु नजर
ही नहीं आती
थी! जिने संसार
पापी या निम्न
या बुराई के
नाम से
सम्बोधित
करता है वैसा
बुरा रूप तो मैं
भी अपने में कई
बार अनुभव कर
चुकी थी। मैं
सोचती.......यही
मनःस्थिति तो
मेरी भी है।
किसी हिंसक
व्यक्ति को
देखती तो उसके
प्रति पूणा का
भाव कभी
उत्पन्न नहीं
हुआ। किसी
वेश्या को
देखती तो उसके
प्रति पूणा के
स्थान पर
करूणा ही
उत्पन्न हुई
सदा। मुझे
लगता इसका बीज
तो मुझमें ही
है। इस वेश्या
और मुझमें बड़ा
ही सूक्ष्म अंतर
दिखता था मुझे।’’
‘'और
वेश्या के
जीवन के
संदर्भ को
लेकर मुझे विवाह
के कुछ दिनों
बाद की एक
घटना याद आती
है।’’ और मा
फिर अतीत के
सागर से
स्मृतियों के
कोष से कोई अमूल्य
रत्न चुनकर
पुन: मेरी
झोली में
डालने को
उत्सुक दिखीं।
‘‘मेरी
उम्र बहुत ही
छोटी होने पर
भी मैं वह घटना
आज तक नहीं
भूल पाती।
रूढ़िवादी और
परम्परावादी
खानदान में
मेरी ससुराल
थी। मेरे
विवाह में
बहुत बड़े—बड़े
और भारी गहने
चढ़ाए गए थे।
मेरा ससुराल
नये जमाने में
नहीं ढला था
तब तक के
गहनों और
कपड़ों के मामले
में। घूंघट भी
लेना ही पड़ता
था। परन्तु
इसके लिए मुझे
उस समय उन
परम्पराओं को
स्वीकार करने
में
हिचकिचाहट
नहीं हुई।
गहनों में कोई
बदलाव नहीं
आया था और
मुझे कोई 2००,
3०० तोले
सोने चांदी के
बड़े—बड़े गहनों
के बोझ में
लाद दिया था।’’
‘'मैं
सोचती थी.
मेरे पैर इतने
सुंदर है और
इन्हें छोटे—छोटे
गहनों से
क्यों न सजाऊ?
ये संवारने
का भाव मन में
उठता तो था
परन्तु ऐसा
लगता था जैसे
मैं कोई पाप
कर रही हूं।
एक दिन
मैंने अपने
पति (श्री
रेखचंदजी
पारख) से कहा— 'मेरे लिए
थोड़े छोटे—छोटे
और पतले—पतले
गहन बनवा
दीजिएगा। इन
गहनों से मैं
दूसरी औरतों
से अलग—अलग सी
दिखती हूं।
वड़ा गवांरपन
सा लगता है
इन्हें पहनते
हुए। हां और
ये बड़े—बड़े
इतने से गहने
वेश्याओं
जैसे भी लगते
हैं।’ पारखजी
अपने पिताजी
और काकाजी के
बीच अकेले ही
बेटे थे और
बड़े लाड़ले भी
थे। मेरे पति
ने कहा— 'ठीक
है, मैं आज
ही पिताजी से
पतले गहनों को
बनाने के लिए
कहूंगा' और
उन्होंने भी
बिना किसी भय
और हिचक के मेरी
बात ज्यों की
त्यों मेरे
ससुरजी के
सामने दोहरा
दी। अपने
पिताजी के पास
से लौटकर दूत
बने हुए तुम्हारे
भैप्याजी
(श्री पारखजी)
मेरे पास आए
और कहा कि— 'मेरी
बात मान ली गई
है।’ मुझे
उनके इस
भोलेपन पर
बहुत जोर की
हंसी आई। और मां
की मुक्त
खनकती हंसी 'आनंद' क चप्पे—चप्पे
में फैल गई।’’
'मैंने
हंसते हुए ही
उनसे प्रश्न
किया— 'सच
बताइये
मुझमें और
वेश्या में
क्या फर्क हे?'
उन्होंने
चौंक कर पूछा— 'आप ऐसा कैसे
कहती हैं?' मैंने
कहा— 'चौंकिए
मत। चमकिए मत ''थोड़ा
गंभीरता से
विचार कीजिए।’
एक क्षण के
लिए उनके इस
दुस्साहसी
प्रश्न से मैं
भी चौंक पड़ा
था फिर ऐसी
रूढ़िवादी और
परम्परावादी
परिवार की नव
विवाहिता
पत्नी द्वारा
उनके पति का
चौंक उठना कितना
स्वाभाविक
रहा होगा।
उनकी अतीत कथा
में मुझे भी —उत्सुकता
महसूस हो रही
थी। ऐसे
परिवार में आई
यह नारी
प्रारंभ से ही
कितनी साहसी
और बेलाब बात
करने वाली
नारी रही होगी।
और
बिना मेरी
प्रतिक्रिया
जाने
उन्होंने अपनी
बात जारी रखी।’’मुझे मालूम
था कि व
चोंकेगे जरूर
और पहले से ही
अपने मन में
उनके चौंकने
पर खुद का
प्रत्युत्तर
भी सोच रवा था।
मैं उनका निराकरण
तो करूंगी।’’
‘‘इस
पर पारखजी ने
पूछा— 'मैं
सोच नहीं पाया
आप ही समझाइए।’
मां ने
जिज्ञासु पति की
सांत्वना के लिए
कहना शुरू किया—
'देखिए.......जिस
मकसद से
वेश्या गहने
पहनती है। ठीक
उसी मकररद से
मैं भी पहनती हूं।
मैं आपको
रिझाती हूं वह
चार को रिझाती
हैं। जहां तक
रिझाने के मकसद'
का सवाल है
हम दोनों
बराबर है। ये
बात अलग है कि
वह चार को आकर्षित
करती है और
मैं एक को
आकर्षित करती
हूं। जहां तक 'रिझाना' शब्द
आता है वहां
तक मैं और
वेश्या भी
किसी सीमा तक
समान है। कहिए
ठीक ना? इस
पर उन्होंने
कहा — 'ये
बात तो मुझे
भी जंची। यहां
तक तो ये बात
ठीक है।’ और
फिर पारख जी
ने हम दोनों
के बीच का
वार्तालाप
ज्यों का त्यों
पिताजी के
सामने दोहरा
दिया। मुझे मालूम
था किं इस मामले
में वे बड़े नि:संकोची
और 'एक्टिव'
रहे हैं। ये
बातें कहकर वे
भी शायद
पिताजी को
अपनी नई बहूं
के बारे में
चौंकाने वाली
बात ही करना
चाहते होंगे।’’
मुझे
तो ऐसा लगता
है विकल कि
तुम्हारे भैय्या
जी (श्री
पारखजी) और
मैं जन्मों—
जन्मों से साथ—साथ
रहे हैं। और
ऐसे ही साथ
मिलकर अनेक
कार्य किए हैं
जीवन में।
मेरे और उनके
विचारों में
कहीं भी मुझे
अन्तर्विरोध
नहीं महसूस
हुआ। हम दोनों
के विचारों की
समानता तो
मैंने अपने
जीवन में
किन्हीं पति—पत्नियों
के बीच नहीं
देखी। फर्क
थोड़ा—सा ही था
हम दोनों में
कि मैं
विचारों की
गहराई तक
शीघ्र पहुंच
जाती थी और वे
थोड़ा रूककर समय
लेकर, उस
गहराई की थाह पाते
थे। मैं
विचारों और
भाढ़ों के धरातल
की गहराई तक
पहुंचकर जब
उन्हें
चौंकाती थी तो
वे थोड़ा रूककर
चौंक से जाते
थे आर फिर
कहते थे कि 'जरा इसका
खुलासा करके
बताइए' और
फिर हमारी
बहुत सी रातें
इस तरह की
दर्शन
सम्बन्धी
विचारधाराओं
और भावनाओं की
बातों में
कटती थी।
और इस
तरह गहनेवाली
बात को भी
उन्होंने
उतनी गहराई से
अनुभव कर अपने
पिताजी को भी
मेरी बातों की
गहराई का
परिचय कराया।
इस तरह उस
परिवार में
मेरे निडर एव
अलग विचारवाली
नसि की थोड़ी
छाप पड़ी। अपने
पति का इसके
लिए मुझे
भरपूर सहयोग
एवं साहचर्य
प्राप्त हो
सका तभी तो मैं
घूंघट की आडू
छोड़, सामाजिक
कार्यों में
उतर सकी थी।’’
इस
संदर्भ में
भगवान रजनीश
का पत्र
उद्धृत करने
का मोह मैं संवरण
नहीं कर पा
रहा हूं जहां
पर भगवान ने
भी यह अनुभव
किया है कि मा
को इस सीमा तक
लाने में
पारखजी का
कितना बड़ा
योगदान रहा था।
मां को
लिखे गए एक
पत्र के
परिशिष्ट में
भगवान लिखते
हैं,.. 5
जनवरी 69
पारखजी
को..... मां लिखी
हैं कि आप
मेरी भेजी
किताबें
ध्यान से पढ़
रहे हैं। इसे
जानकर मैं
बहुत खुश हूं।
आपसे मिलना एक
गहरा आनंद
मेरे लिए रहा
है। आप
अधिकांशत: चुप
थे पर बातें
तो सबसे
ज्यादा आपसे
ही हुई हैं। मा
के निर्माण
में भी आपकी
लिखावट को पढ़
लिया हूं। वह
छिपी नहीं रह
सकती है। मौन
शांत एक आदमी
क्या कर सकता
है, यह
मुझे अनुभव
हुआ। इतना
सुखद.......इतना
मुक्त
दाम्पत्य
जीवन मैंने
कहीं और नहीं
देखा है। इसके
निश्चय ही
आपको धन्यता
अनुभव होनी
चाहिए। मैं
जितने समय
आपके यहां रहा
मेरे मन में
यही
प्रार्थना
प्रभु से चलती
रही कि काश।
भारत का
प्रत्येक
परिवार ऐसा
जीवन जी सके।
प्रभु की धनी
अनुकम्पा आप
पर है।
रजनीश
के प्रणाम।
मा
पारखजी की
अतीत
स्मृतियों
में खो चुकी
थीं और थोड़े
विश्राम के
बाद 'रजनीश—
टाइम्स' के
पाठकों की
जिज्ञासा
पूर्ति के लिए
पूर्व प्रश्न,
मैंने पुन:
दोहएकर वर्तमान
में उन्हें लोटाना
चाहा। मैंने
उनसे वही
प्रश्न पुन:
दोहराया।. ‘‘मां! जब
भगवान रजनीश
से आपका प्रथम
साक्षात्कार
हुआ। आपके उस
महामिलन का
क्षण कोन सा
था। कुछ तो
शेष रहे होंगे
उस महा मिलन
के चिह्न? मेरी
प्यास को, कुछ
अमृतमयी
बूंदों का दान
दो मा।’’
मां के
चेहरे पर फिर
बिजली सी कौंध
गयी।
मुस्कराते
हुए उन्होंने
बात आगे बढ़ाई।
’’खोज
तो पहले से ही
थी मेरी। मन
में नाना
प्रकार के
प्रश्न उठते
थे, गिरते
थे। मैंने ये
जो घटनाए बताई
ना तुम्हें? इसी प्रकार
की आसक्तियों
एव विरक्तियो
के प्रश्नों के
लिए मो मन में
एक अजीब सी
वेदना होती
रहती थी। चोर,
वेश्या और
ऐसी ही सामाजिक
जीवन में
जिन्हें
बुराई कहते
हैं, जो
उदाहरण मैंने
तुम्हें दिए
ये सब उन सभी
प्रश्नों की
शुरूआत थी। अब
जैसे मेरे पति
अपनी कमाई में
से इन्कम
टैक्स बचाने
के लिए नाना
प्रकार के बही
खाते रखते थे,
ये भी तो एक
प्रकार की
चोरी ही थी।
चोरी एक पैसे
की हो अथवा
लाखों की वह
मूल रूप से
चोरी तो कही
जायेगी न? सिर्फ
मात्रा के
फर्क से यह
चोरी की मूल
कृति तो नहीं
बदल गई ना? इस
तरह ऐसे अनेक
प्रश्न थे, कई
जिज्ञासाएं
थी जो मेरे मन
को सदा चोट
पहुंचाते
रहती थी।
वृत्तियां तो
प्रत्येक
मनुष्य के मूल
रूप में समान
ही रहती है ना।
इन सब बातों
के प्रति मेरे
पति ने मेरे
विचारों को एक
स्वतंत्र रूप
देकर मेरे
जीवन को ही नई
गति दे दी थी। —बड़े
उदार मन रहे
मेरे पति।
परिस्थितियों
के अन्तर से
ही ये 'कु' और 'सु' की विचार
सरणी
निर्धारित
होती है शायद?
और फिर मुझे
मनुष्य—मनुष्य
में कोई फर्क
ही महसूस नहीं
हुआ।
इस तरह
इन सब
प्रश्नों की
जकड़न में मुझे
यह लगने लगा
कि मेरी
मनःस्थिति भी
किसी सीमा तक
पापाचरण की है
धमा,चरण
की नहीं।
इन्हीं जैसे सेकड़ों
प्रश्नों के
जाल में एक केद
सी महसूस कर
छटपटाती रहती
थी और मन में
एक अव्यक्त
अदम्य प्यास
सी सदा जागृत
रहती थी। इनसे
मुक्त होने के
लिए मेरी खोज
बढ़ती ही जा
रही थी।
खोज थी
इस बात कि......बैटा
मिलेगा तो मेरे
प्रश्नों के
हल भी मिलेंगे
और प्रश्न हल होंगे
तो मैं विरक्त
हो सकूंगी, उसे जान
सकूंगी।
इसलिए पुत्र
की खोज में ही
मेरा मन रमता
गया। कहां
होगा? कैसा
होगा? मेरा
पुत्र जो मेरे
हृदय के अमृत
को पहचान
पायेगा? फिर
तो मैं और भी
बेचैन हो उठी।’’
अचानक
मेरे मन में
एक प्रश्न उठा
और मैं पूछ
बैठा— ‘‘आपकी
क्या उम्र रही
होगी तब मां?'' ‘‘इन
प्रश्नों के
हल करने के
लिए तो मैं
बचपन में बारह
तेरह वर्षों
की आयु में ही
अपने को अलग प्रश्नों
'भरी
दुनिया में
पाती थी। चौदह
पंद्रह वर्ष
की उम्र में
विवाह हो गया
था। विवाह के,
बाद मन के
जो विकार थे
उन पर थोड़ा
काबू सा पा
लेती थी मैं।
जैसे क्रोध और
लोभ जैसे विकार
के समय मन की
अवस्था को
थोड़ा—थोड़ा
पहचानने लगी
थी। क्रोध को
पाती तो समझ लेती
थी, मन को सांत्वना
दे लेती थी।
लोभ के क्षणों
में मन कभी
ललचाया नहीं। किंतु
अपमान की
भावना मुझे
सहन नहीं होती
थी। आंखों के
भावों से मैं
पहचान लेती थी
कि ये मेरा
सम्मान है या
अपमान है।
विवाह के बाद
ससुराल में
ऐसी घटनाएं हो
जाना साधारण बातें
थीं और इन
परिस्थितियों
से रूढ़िवादी मारवाड़ी
परिवार की बहूं
का
साक्षात्कार
होने के लिए
ये स्थितियां
सदा ही सामने
पाती थी मैं।
दूसरे शब्दों
में कहूं तो
स्वाभिमान
मुझे दुख दे
रहा था। इतना
अधिक स्वाभिमान
जागृत था, कि
यदि कहीं मेरे
मन की
गहराईयों में
वह शायद मेरा
अहंकार ही
होगा जो 'स्वाभिमान'
के
झिलमिलाते
परदों में बड़ा
सुंदर सा रूप
धारण किए बैठा
था और मानव
स्वभाव के अतर
के परदों को मा
ने मानो एक
साथ उघाड़कर
अस्तित्व की
एक झलक से
साक्षात्कार
बड़े ही सीधे
सरल शब्दों
में करा दिया
था।
कोई
कुछ भी कहे, चाहे
प्रशंसा करे
या सम्मान दे।
यदि कोई कलंक
लगाए या
मिथ्या
दोषारोपण करे।
हर परिस्थिति
में समभाव
लाना चाहती थी
मैं। इन सब विकारों
से छूटना
चाहती थी मैं।’’
पुन:
मैंने मा की
विचारधारा को, भगवान के
प्रथम
साक्षात्कार
के दर्शन के
प्रति मोडने
का प्रयत्न
किया और फिर
से मैंने अपना
प्रश्न
दोहराया।’’ भगवान से
आपका
साक्षात्कार
वर्धा में हुआ
था, ये तो
आपने पहले
इंगित किया था
परन्तु अपनी वह
बात तो अधूरी
ही '
और
मेरी बात को
वही पुन:
काटकर, मा ने अपने
हृदय में चल
रही आधी और
तूफान में तिनके
के समान मुझे
बहा ले जाने
में कोई कसर
नहीं छोड़ी।
‘‘मेरे
मन के
प्रश्नों की आंधी
'उसके' मिलने
पर शांत होगी।
वह कहा है? और
कब और कैसे
मिलेगा? इसकी
खोज में कमर
कस के करूंगी
तभी सफलता
मिलेगी। चि.
रजनीश के
वर्धा में
मिलने के
पूर्व के संकेत
बड़े अनूठे हैं।
वर्धा में
रजनीश के
मिलने के
पूर्व मैं
अपने परिवार
के बच्चों के
साथ कश्मीर, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि
कई स्थानों
में प्रकृति
के सान्निध्य
में बिताने
जाया करती थी।’’
इतने में
ही 'आनंद'
(कमरे) में
फोन की घंटी
घनघना उठी और थोड़ी
देर के लिए मा
की भाव धारा
खंडित सी हो
गई। मेरे
कानों में तब
पास के आंगन
में मां के
नाती का रूदन
सुनाई पड़ा और
गोशाला में
बंधी गाय के
रंभाने की
ध्वनि भी मेरे
कानों में टकराई।
मैं सोचने लगा।
मा के सम्पर्क
में समय तो
भान ही नहीं
होता। समय
कितना जाता है।
यह अवस्था समय
के बाहर है और
तब भगवान श्री
का एक वाक्य
स्मरण हो आता
है..... ''और
वहां समय नहीं
है।’’ प्रभु
के राज्य में
समय कहां है? उसे हमने
घड़ियों की
सूईयों में केद
करने की कोशिश
जरूर की है? किन्तु समय
के पार जाने
में घड़ियों का
क्या मूल्य? फोन पर
बातें समाप्त
कर वे भगवान
श्री की फोटो
के नीचे उसी
स्थान पर पुन:
आ बैठी और
उनकी यादों के
गुलाब फिर से
महकने को
बेताब हो उठे।
‘‘लुधियाना
में जैन धर्म
के आचार्य
श्री आत्मारामजी
महाराज हैं, उन्होंने 'अभयबिल' (एक
प्रकार की जैन
धर्म की
तपश्चर्या) और
'नमश्क्षुणम'
का पाठ करने
की सलाह दी।
फिर ऋषिकेश, हरिद्वार और
देहरादून
जाते हुए
जयपुर हम लौटे।
प्रात: की
लाली अभी फूटी
ही थी कि सुबह—सुबह
सामने बिना
पलकें झपकाए,
एक साधु
घूरता हुआ
मुझे खड़ा
दिखाई दिया।
किसी ने मानों
पत्थर की दो आंखें
जड़ दी हों
उसके मुख पर
और ऐसे ही
निष्पलक घुरते
हुए कहने लगा।
’जिसे आप
ढूंढ रही हैं
वह तीन महीने
में मिलेगा।'
मैंने मन में
त्यग्य.... से
सोचा—देखो ये
भी
भविष्यवक्ता
है। प्रगट में
उनसे मैंने
निवेदन किया,
देखिए स्वामीजी,
मैं किसी को
छू नहीं रही
हूं। आप ये
आटा दाल सीधे
का सामान
ग्रहण कीजिए और
अपनी
भविष्यवाणी
की दुकान सड़क के
किसी किनारे
लगा लीजिए खूब
चलेगी। बहुत
फायदा होगा कई
लोग आयेंगे।''
''इतने
व्यंग्य
सुनकर भी वो
साधू मुझसे
नाराज नहीं
हुए। उनकी
मुस्कान और
तीखी सी हो
उठी और फिर से
बड़ी ढीठता से
कहने लगा—'भगवान
को मालूम है
कि आप किसे ढूंढ
रही हैं।
उन्होंने ही
मुझे आपके पास
भेजा है कि आप
को हम उनका
संदेश दे दें।
जब वह मिलेगा
तब याद कर
लेना।' मैंने
शिष्टतावश
उनसे पूछा, आपका नाम
क्या है
स्वामीजी? तो
उन्होंने
कहा.....'बालकदास'।''
यह
संकेत सबसे
बड़ा प्रतीत हुआ
मुझे। मैंने
उन्हें बीच
में ही पूछा—''मां, लेकिन
क्या —आपने बालकदास
जी के उस कथन
की बातें
सीरियसली
ग्रहण कीं?''
''हां,
सीरिसयली
लेने को मेरा
मन मजबूर था।
उन दिनों
अनाथालय
चलाया करती थी
में। इसलिए मन
के किसी कोने
में लगा कि हो
सकता है
बालकदास के
रूप में भगवान
ही कोई संकेत दे
रहा हो मुझे।
साधना भी चल
रही थी। मन पर
कंट्रोल भी
रखती थी। खोज
चल रही थी।
प्यास बढ़ रही
थी। कई दर्शन
की पुस्तकें
मैंने पढ़ डाली।''
मां के हृदय
के प्रश्नों को
जानने की अदम्य
लालसा, एक
गहन प्यास सी
बन गई थी।
जिसके संदर्भ
मैं 'भगवान
के द्वारा लिखे
कई पत्रों में
संकेत मिलता हे।
प्रिय
मां
प्रणाम
! कल संध्या
घर से लोटा हूं
और आते ही आपका
पत्र मिला है।
आध्यात्मिक जीवन
की बढ़ती
प्यास ध्यान
का परिणाम है।
ध्यान—साधना
व्यक्ति को उस
परिधि में ले जाती
है जहां आत्मा
का
गुरूत्वाकर्षण
प्रारंभ हो
जाता है। एक
बार ध्यान में
कूद जाने भर की
बात है, फिर
शेष अपने आप
हो जाता है।
हमें केवल एक
छलांग लेनी है
और फिर शेष सब आकर्षण
का आंतरिक
केंद्र अपने
आप कर लेता है।
इससे
ही मैं निरंतर
कह रहा हूं कि, एक ही कदम
उठाना है और
मंजिल पर
पहुंचना हो जाता
है। अप्रबुद्ध
जीवन और
प्रबुद्धता
में बहुत फासला
नहीं है।
फासला केवल एक
ही कदम का है।
विचार
प्रक्रिया से
जागे कि छलांग
लग जाती है और
यह कदम कैसे
आश्चर्य में पहूंचा
देता है। फिर
जो प्रगट होता
है वह शब्द के
बाहर है।
दोपहर 16 अगस्त
1962
रजनीश
के प्रणाम!
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