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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--57)

अध्‍याय—(सत्‍तावनवां)  

मैं कमरे से बाहर निकलती हूं तो देखती हूं चैतन्य भारती अपना कैमरा लिए खड़े हैं। मैं उनसे पूछती हूं कि क्या वे प्रवचन के बाद ओशो के साथ मेरी तस्वीर खींच सकते हैं, उन्होंने सहमति भर दी। मैं उन्हें कहती हूं कि प्रवचन के बाद मैं ओशो के पास जाऊंगी, जहां वह तैयार रहें। मैं पोडियम के पास ही जाकर जमीन पर अपनी आंखें बन्द कर बैठ जाती हूं।
मैं बिलकुल मस्ती में हूं। मुझे कुछ पता नहीं कि क्या हो रहा है। कोई 400 से 500 लोग बिलकुल मौन बैठे हुए अपने सदगुरू का इंतजार कर रहे हैं। कुछ ही मिनटों में मैं ओशो की मौजूदगी को महसूस करती हूं और आंखें खोल लेती हूं। वे बिलकुल मेरे सामने खड़े हुए हाथ जोड़कर सभी मित्रों को नमस्कार कर रहे हैं। मैं अपनी अनंत प्यास को तृप्त करने के लिए एक बार फिर उनके चेहरे की. ओर देखती हूं। वे भांति—भांति के प्रश्नों के उत्तर देते हुए लगभग दो घंटे, तक बोलते हैं।
प्रवचन के बाद मैं उनके पास जाकर कहती हूं, 'ओशो, मैं आपके साथ एक तस्वीर खिंचवाना चाहती हूं।वे इसके लिए एकदम से राजी हो जाते हैं और मैं उनके दाई ओर खडी हो जाती हूं। कुछ ही सैकंड में चैतन्य भारती अपना कैमरा क्लिक कर देते हैं। यह चित्र मेरी असली संपदा है। जब मुझे यह चित्र दिल्ली की डाक से मिलता है तो मैं उसे ओशो को दिखाने ले जाती हूं।
ओशो एक क्षण चित्र की ओर देखते हैं फिर अपने हस्ताक्षरों के साथ यह संदेश उस पर लिख देते है : जो सब तरह की पकड़ छोड़ देता है वही असली संन्यासी है।

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