दिनांक: 19 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
सुख
में सुमिरन ना
किया, दुख
में कीया
याद।
कह
कबीर ता दास
की, कौन सुने
फरियाद।।
सुमिरन
सुरत लगाइके, मुख ते कछू
न बोल।
बाहर
के पट देइकै, अंतर के पट
खोल।।
माला
कर कर में फिरै, जीभ फिरै
मुख माहिं।
मनुआं
तो दहुदिसि
फिरै, यह तो सुमिरन
नाहिं।।
जाप
मरै अजपा मरै, अनहद
भी मरि
जाय।
सुरत
समान सब्द
में, ताहि काल नहिं खाय।।
तूं तूं करता तूं भया, मुझ में रही
न हूं।
आनंद
की खोज है।
किसकी नहीं है? कौन है जो
आनंद नहीं
चाहता?
सत्य
की भी खोज है।
और ऐसा कौन है
जो असत्य में
न उठ जाना
चाहे—अंधेरे
से प्रकाश में, संसार से
परमात्मा में?
नास्तिक भी
वही चाहता है,
चाहे उसे
पता भी न हो।
और जितने जोर
से कोई नास्तिक
कहता है कि
मुझे ईश्वर
में भरोसा
नहीं, उतनी
ही प्रगाढ़ता
से बात साफ हो
जाती है कि
भीतर बड़ी खोज
है ईश्वर की।
उस खोज को
दबाने का ही
यह उपाय है—यह
नास्तिकता।
वह अपने को ही
समझा रहा है
कि जो है ही
नहीं उसकी खोज
पर क्या जाना;
लेकिन भीतर
कोई गहन चाह
है जो धक्के
मार रही है।
उस चाह को ही
वह दबा रहा
है।
नास्तिकता
आस्तिकता का
दमन है।
क्योंकि ऐसा तो
कोई आदमी हो
ही नहीं सकता
जो आनंद न
चाहे। और
जिसने भी आनंद
को खोजा, आखिर
में वह पाता
है कि उसकी
खोज परमात्मा
की खोज में
बदल गई; क्योंकि
परमात्मा के
सिवाय और कोई
आनंद नहीं।
उससे कम पर
तुम नाच न
सकोगे।
परमात्मा से
कम पर तुम
आनंदित न हो
सकोगे। उससे
कम के लिए तुम बने
ही नहीं हो। वह
परम ही प्रकट
हो, वह परम
ही तुम्हारे
चारों ओर
बरसने लगे—तभी
संतृप्ति
होगी, तभी
परितोष होगा;
तभी
तुम्हारे घर
के भीतर जो
सतत रुदन चल
रहा है, वह
बंद होगा, आंसू
सूखेंगे;
तुम पहली
बार हंसोगे; तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व
पहली बार खिल
सकेगा—एक फूल
की भांति!
इतनी
खोज है! सभी की
खोज है। लेकिन
मिलन तो बहुत
थोड़े—से लोगों
का हो पाता
है।
अंगुलियों पर
गिने जा सकें, ऐसे लोग
उसके मंदिर
में प्रवेश कर
पाते हैं। मामला
क्या है? इतने
लोग खोजते हैं,
सभी खोजते
हैं—फिर यह
खोज थोड़े—से
लोगों की
क्यों पूरी
होती है? उसके
कारण को ठीक
से समझ लेना
जरूरी है, क्योंकि
वही कारण
तुम्हें भी
बाधा डालेगा।
उसे अगर न
समझा तो तुम
खोजते भी
रहोगे और पा
भी न सकोगे।
और वह कारण
बड़ा सीधा—साफ
है। लेकिन कई
बार सीधी—साफ
बातें दिखाई
नहीं पड़तीं।
कारण है कि
लोग गलत
मनोदशा में
उसे खोजते हैं:
दुख में तो
उसकी याद करते
हैं, और
सुख में उसे
भूल जाते हैं।
बस यही सूत्र
है—इतने लोग
नहीं उसे
उपलब्ध हो
पाते—उसका।
दुख का
स्वभाव
परमात्मा के
स्वभाव से
बिलकुल मेल
नहीं खाता।
दुख तो उससे
ठीक विपरीत
दशा है। वह है
परम आनंद, सच्चिदानंद।
दुख में तुम
उसे खोजते हो।
दुख का अर्थ
है कि तुम पीठ
उसकी तरफ किए
हो, और खोज
रहे हो। कैसे
तुम उसे पा
सकोगे? जैसे
कोई सूरज की
तरफ पीठ कर ले
और फिर खोजने
निकल जाए—खोजे
बहुत, चले
बहुत लेकिन
सूरज के दर्शन
न हों; क्योंकि
पहले ही पीठ
कर ली।
दुख है
परमात्मा की
तरफ पीठ की
अवस्था। दुख
में तुम हो ही
इसलिए कि तुमने
पीठ कर रखी
है। और उसी
वक्त जब
तुम्हारी पीठ
परमात्मा की
तरफ होती है, तभी तुम्हें
उसकी याद आती
है। जब तुम
सुख में होते
हो तब तुम उसे
भूल जाते हो।
परमात्मा
सुख भी नहीं
है, दुख भी
नहीं है; लेकिन
परमात्मा से
दुख बहुत दूर
है, सुख
थोड़ा निकट है।
दुख है परमात्मा
की तरफ पीठ
करके खड़े होना,
और सुख है
परमात्मा की
तरफ मुंह करके
खड़े होना।
जिन्होंने
सुख में खोजा,
उन्होंने
पाया; जिन्होंने
दुख में खोजा,
वे भटके।
दुख का तालमेल
नहीं है
परमात्मा से। वहां
तुम रोते हुए
न जा सकोगे।
वह द्वार सदा
रोती हुई
आंखों के लिए
बंद है। वहां
रुदन का
प्रवेश नहीं;
नहीं तो
अपने रोने को
उसके प्राणों
में भी गुंजा
दोगे।
अस्तित्व
के द्वार बंद
हैं उनके लिए, जो दुखी हैं;
अस्तित्व
अपने द्वार
खोलता है केवल
उन्हीं के लिए
जो नाचते, गीत
गाते, गुनगुनाते
आते हैं।
अस्तित्व
उत्सव है; वहां
मरघटी
सूरत लेकर नहीं
जाया जा सकता।
अस्तित्व परम
जीवन है; वहां
उदासी का कोई
काम नहीं है।
लेकिन
जब दुख आता है
तब तुम याद
करते हो। वह
याद व्यर्थ हो
जाती है। वही
तो क्षण थे जब
याद का कोई
अर्थ ही नहीं
है। लेकिन
तुम्हारी भी
तकलीफ मैं
समझता हूं:
दुख में तुम
याद करते हो
ताकि दुख हट
जाए। वह भी
परमात्मा की
याद नहीं है, सुख की
आकांक्षा है।
जब तुम दुख
में उसे पुकारते
हो तो तुम उसे
नहीं पुकारते,
तुम सुख को
पुकारते हो।
तुम उसे
पुकारते हो इसलिए
ताकि सुख मिल
जाए, यह
दुख हटे।
इसीलिए तो तुम
सुख में नहीं
पुकारते कि अब
जरूरत ही क्या
रही; जो पाना
था वह मिल ही
गया, अब
परमात्मा की
क्या जरूरत
रही।
इसलिए
दुख में अगर
तुम पुकारो
तो तुम सुख की
आकांक्षा
करते हो। सुख
की आकांक्षा
से प्रार्थना
का कोई संबंध
नहीं। सुख में
जब पुकारों तब
परमात्मा की
आकांक्षा
करते हो; क्योंकि
सुख तो था ही।
सुख के लिए तो
पुकार ही नहीं
सकते थे—अब तो
तुम परमात्मा
को उसी के लिए
पुकार रहे हो।
और जब तुम उसी
के लिए
पुकारते हो, तभी सुनी
जाती है
प्रार्थना; उसके पहले
नहीं सुनी जा
सकती। सुख में
जिसने पुकारा,
उसका अर्थ
हो गया कि उसे
सुख काफी नहीं
है; उसने
समझ ली सुख की
व्यर्थता, तभी
तो पुकारा:
उसने जान लिया
कि सुख
क्षणभंगुर है;
अभी है, अभी
गया; इसमें
ज्यादा रमने
की जरूरत नहीं,
इसमें
उलझने का कोई उर्थ
नहीं। उसने
सुख की
व्यर्थता को
जान लिया तभी तो
पुकारा।
दुख की
व्यर्थता तो
सभी जानते हैं; जो सुख की
व्यर्थता जान
लेता है वही
संन्यस्त हो
जाता है। दुख
को तो सभी
छोड़ना चाहते
हैं; जो
सुख को भी
छोड़ने को
तत्पर हो जाता
है, उसकी
ही प्रार्थना
सुनी जाती है।
अब वह प्रौढ़ हुआ।
दुख
छोड़ने की बात
तो बचकानी है।
कांटा गड़ जाए—कौन
है जो उसे
नहीं निकाल
देना चाहता? लेकिन जब
फूल गड़ता
है, जब तुम
फूल को भी
निकालकर फेंक देने
को तत्पर हो
जाओ...। और फूल
भी गड़ता
है। कांटे तो गड़ते ही
हैं, फूल
भी गड़ता
है। लेकिन फूल
की गड़न को
जानने के लिए
बड़ी
संवेदनशील
चेतना चाहिए। फूल
की चुभन को
जानने के लिए
बड़ा होश
चाहिए। कांटा गड़ता है तो
नींद में पड़े
आदमी को भी
पता चलता है; शराब पिये
आदमी को भी
पता चलता है।
फूल गड़ता
है, यह तो
तभी पता चलेगा,
जब तुमने
ध्यान के
मार्ग पर दो
चार कदम उठाए
हों, और
तुम
संवेदनशील
बने होओ, और
तुमने जीवन को
जागकर
देखना शुरू
किया हो, थोड़ा
होश आया हो—तब
तुम पाओगे कि
फूल भी गड़ता
है। तब जो
प्रार्थना
उठेगी, वही
प्रार्थना पहुंचती
है उसके द्वार
तक। और इस
प्रार्थना
में रुदन नहीं
होगा। इस
प्रार्थना
में आंखों में
आंसू नहीं
होंगे। इस
प्रार्थना
में सुख की मांग
नहीं होगी। यह
प्रार्थना
भिखारी की
प्रार्थना
नहीं होगी। यह
प्रार्थना
सम्राट की प्रार्थना
होगी; क्योंकि
अब जिसे सुख
की भी आकांक्षा
न रही। वही
सम्राट है।
भिखारी
लौटा दिए जाते
हैं।
रहीम
ने कहा है, बिन मांगे
मोती मिलें, मांगे मिले
न चून। वह इसी
घड़ी के लिए
कहा है कि परमात्मा
के द्वार पर
जो बिना मांगे
खड़ा हो जाता
है, उसे तो
सब मिल जाता
है, मोती
बरस जाते हैं;
और जो
भिखारी की तरह
खड़ा होता है, उसे दो रोटी
के टुकड़े भी
नहीं मिलते।
असल में भिखारियों
की अस्तित्व
में कोई जगह
नहीं है; वहां
तो जगह केवल
सम्राटों की
है।
इसलिए
तो सारे
ज्ञानियों ने
कहा है, तुम
इच्छारहित हो
जाओ, तुम
मांगो मत, तुम
जरा रुको, मांगो
मत—और देखो कि
कितना मिलता
है! मांग—मांगकर
ही तुम गंवाए
जा रहे हो।
जितना तुम
मांगते हो
उतना कम मिलता
है; जितना
कम मिलता है
उतनी
तुम्हारी
मांग बढ़ती जाती
है; उतना
ही और कम
मिलता जाता
है। जिस दिन
मांग पूरी हो
जाती है, मिलना
बंद हो जाता
है। उस दिन
तुम परम दीन
हो जाते हो।
इससे
उलटी है
यात्रा।
मांगो
कम, मिलता
ज्यादा। बिन
मांगे मोती
मिलें। और जिस
दिन तुम्हें
यह सूत्र समझ
में आ जाता है,
उस दिन
प्रार्थना
में मांग खो
जाती है; प्रार्थना
हृदय का
उच्छ्वास हो
जाती है। उसमें
कुछ मांग नहीं
होती।
दुखी
आदमी तो बिना
मांगे कैसे
प्रार्थना
करेगा?
दुख के
स्वभाव को थोड़ा
समझ लें।
दुख का
पहला लक्षण है
कि दुख आदमी
को सिकोड़ता
है। तुमने भी
अनुभव किया
होगा: जब तुम
दुखी होते हो
तो सब सिकुड़
जाता है—जैसे
प्राण सिकुड़
गए—जम गया
पत्थर की तरह
सब कुछ। जब
तुम दुख में
होते हो तो
तुम चाहते हो
कि एक कोने
में छिप जाओ; कोई तुम्हें
मिले न, कोई
तुमसे बोले न।
इसीलिए
तो बहुत दुख
की अवस्था में
लोग आत्मघात
कर लेते हैं।
आत्मघात का
मतलब इतना ही
है कि वे कब्र
में छिप जाना चहते हैं; अब कोई उपाय
नहीं देना
चाहते कि कोई
दूसरा उनसे
मिले; अब
जीवन से
बिलकुल टूट
जाना चाहते
हैं।
दुख सिकोड़ता
है। दुख बंद करता
है। दुख चाहता
है कि अंधेरे
में डूब जाओ। दुख
आत्मघात
सिखाता है। और
परमात्मा है
विस्तार और
दुख है सिकुड़ना—उनका
तालमेल नहीं।
परमात्मा का
अर्थ है: यह जो
फैला हुआ है
सब ओर; यह जो
अनंत तक फैलता
चला गया है; जिसकी कोई
सीमा नहीं; जिसके कण—कण
में पद—चिह्न
हैं, और
पत्ती—पत्ती
पर जिसकी छाप
है। लेकिन तुम
उसकी सीमा न
पा सकोगे, जो
सब तरफ फैलता
ही चला गया
है।
परमात्मा
का स्वभाव
विस्तार है।
हिंदुओं ने जो
शब्द
परमात्मा के
लिए चुना है—वह
है: ब्रह्म।
ब्रह्म का
अर्थ होता है:
विस्तीर्ण; जो फैलता ही
चला गया है।
और दुख सिकोड़ता
है; और
परमात्मा है
फैलाव। तुम
विपरीत हो गए,
तुम मेल न
खा सकोगे।
सुख
फैलता है। सुख
में तुम थोड़े
फैलते हो। सुख
में तुम दूसरे
से मिलना
चाहते हो; भोज देते हो
मित्रों को, प्रियजनों
को, और
परिवार को
निकट बुलाते
हो; हंसते
हो, गाते
हो; मिलते
हो, जुलते
हो। सुखी आदमी
अपने सुख को
बांटना चाहता
है, क्योंकि
सुख अकेले
नहीं भोगा जा
सकता। दुख अकेले
भोगा जा सकता
है। उसके लिए
दूसरे की
जरूरत ही नहीं
है। दुख
बिलकुल निजी
है। सुख फैलाव
मांगता है, और भी प्राण
मांगता है
आसपास, जिनमें
इस सुख का
प्रतिबिंब
बने, झलक
उठे। सुख
फैले। इसलिए
सुख सदा बंटता
है, बंटना
चाहता है। सुख
में तुम्हारे
प्राण थोड़ा—सा
आयाम लेते हैं;
तुम थोड़े—से
फैलते हो।
यह
थोड़ा—सा फैलना
प्रार्थना का
क्षण बन सकता
है; क्योंकि
अभी तुम
परमात्मा
जैसे हो—बड़े
छोटे अर्थों
में! अगर वह
विराट है—सागर,
तो तुम एक
छोटी बूंद हो।
लेकिन अभी
तुम्हारा
स्वभाव, गुणधर्म
एक जैसा है:
तुम भी फैल
रहे हो, परमात्मा
भी फैल रहा
है। अभी तुम
एक कदम उसके साथ
चल सकते हो; और जो एक कदम
उसके साथ चल
लिया, वह
फिर कभी वापस
नहीं लौटता।
उसके साथ एक
कदम चल लेना
इतनी
परिपूर्ण
तृप्ति है, ऐसे अपरिसीम
धन की उपलब्धि
है कि फिर कौन
पीछे लौटता है,
फिर कौन
देखता है।
एक कदम
उठ जाए, मंजिल
आधी पूरी हो
गई। एक कदम उठ
जाना ही काफी है।
स्वाद आ गया।
फिर तो तुम
फैलते ही चले
जाओगे। फिर
तुम भूल ही
जाओगे सिकुड़ना।
फिर हजार सिकुड़ने
की स्थितियां
खड़ी हो जाएं, तुम छलांग
लगाकर बाहर हो
जाओगे। तुम
कहोगे, मैं
सिर्फ फैलना
जानता हूं, मैंने फैलने
का रस ले लिया
है; अब मैं
वह पागल नहीं
जो सिकुड़े,
कि कोई गाली
दे और मैं
दुखी होकर
सिकुड़ जाऊं। अब
सिकुड़ना
मैं चाहता ही
नहीं। अब तुम
कुछ भी करो, तुम मुझे
सिकोड़ न
सकोगे। अब तुम
गाली दोगे, मैं धन्यवाद
देकर फैलकर
आगे बढ़ जाऊंगा।
जिसने
एक बार स्वाद
ले लिया
परमात्मा के
साथ एक कदम
चलने का, वही
जानता है, प्रार्थना
क्या है। वह
एक कदम चलना
सुख में हो
सकता है। यह
तुम्हें बहुत
जटिल लगेगा।
मगर इसी कारण
तुम चूक रहे
हो। तुम दुख
में पुकारते हो—तब
तुम्हारा कदम
उठने को तैयार
ही नहीं, पक्षाघात
से भरा है; तब
तुम चलने की
कोशिश करते
हो। और जब
तुम्हारे
प्राणों में
जोश है और जब
तुम्हारे पैर
में ऊर्जा है,
और जब तुम
नाच सकते हो, दौड़ सकते हो—तब
तुम भूल ही
जाते हो कि यह
वक्त था जब
मैं परमात्मा
के साथ हो
लेता। सुख में
विस्मरण हो जाता
है। दुख में
याद होती है—इसलिए
तालमेल नहीं
बैठता; तुम
चूकते चले
जाते हो।
दुख का
स्वभाव
अंधेरा है।
आनंद का
स्वभाव प्रकाश
है, परम
प्रकाश है।
अंधेरे से उठी
प्रार्थना
प्रकाश के लोकों
तक नहीं पहुंच
सकती, अंधेरे
में ही भटकती
है। अंधेरे से
उठी प्रार्थना
भी अंधेरी
होती है; वह
रोशनी के जगत
में प्रवेश
नहीं कर सकती।
तुमने
कभी अंधेरे के
टुकड़े की
रोशनी में
प्रवेश करते
देखा है कि
तुम घर में
बैठे हो, दीया
जला है, सब
रोशन है, और
देखा है कि
खिड़की से एक
अंधेरे का
टुकड़ा भीतर
चला आ रहा है? कभी ऐसा
तुमने देखा है
कि एक छोटी बदली
जैसा अंधेरे
का टुकड़ा आ
गया घर में?
रोशनी
आ सकती है
अंधेरे में; अंधेरा
रोशनी में
नहीं जा सकता।
तुम घर में बैठे
हो अंधेरे
में: यह हो
सकता है, राह
से गुजरता
राहगीर
लालटेन लिए हो
तो उसकी रोशनी
तुम्हारे
कमरे में आ
जाएगी, तैर
जाएगी। लेकिन
अंधेरा
प्रकाश में नहीं
आ सकता। रोशनी
प्रकाश में जा
सकती है।
तो यह
तो हो सकता है
कि परमात्मा
तुममें आ जाए, जब तुम
अंधेरे से भरे
हो; लेकिन
यह नहीं हो
सकता कि
अंधेरे में
उठी प्रार्थना
परमात्मा में
चली जाए। और
जब तुम अंधेरे
में हो और दुख
में हो, परमात्मा
आ जाए तो तुम
उसे पहचान न
सकोगे। वह आता
भी है, लेकिन
दुख में भरी
आंखें सब तरफ
अंधेरा देखता हैं
और रोशनी को
पहचान नहीं
सकतीं। वे मान
ही नहीं
सकतीं।
बहुत
बार इस पृथ्वी
पर परमात्मा
चला है, बहुत
रूपों में चला
है: कभी बुद्ध,
कभी कृष्ण,
कभी
क्राइस्ट के
रूप में। उसने
तुम्हारे द्वार
पर दस्तक भी
दी है, लेकिन
तुम पहचान
नहीं पाए; तुमने
हजार बहाने
खोज लिए हैं
अपने अंधेरे
में, और
तुमने अपने को
समझा लिया है
कि यह भी
हमारे जैसा ही
आदमी है—होगा
थोड़ा ज्यादा
समझदार! वह भी
बड़ी मुश्किल से
तुमने उतनी
स्वीकृति दी
है।
प्रकाश
अंधेरे में आए
भी तो तुम आंख बंद
कर लेते हो।
तुम अंधेरे के
आदी हो। और
दूसरी बात तो
हो ही नहीं
सकती कि
अंधेरे में
उठी प्रार्थना, और प्रकाश
के लोक में
प्रवेश कर
जाए। जो अंधेरे
से उठता है, अंधेरे का
स्वभाव है
उसमें।
जब तुम
सुख में मग्न
हो, जब तुम
सुख में ऐसे
मगन हो कि तुम
बांटना चाहते
हो, उसी
क्षण अगर
तुमने
प्रार्थना की
तो सुख का स्वभाव
परम प्रकाश का
तो नहीं है; वह कोई महासूर्य
नहीं है सुख; छोटा मिट्टी
का दीया है—लेकिन
मिट्टी के
दीये में भी
ज्योति जलती
है, उसका
स्वभाव तो
सूरज का ही
है। इसीलिए तो
सुख की इतनी
आकांक्षा है।
सुख की
आकांक्षा में
वस्तुतः आनंद
की आकांक्षा
छिपी है। किसी
दिन तुम खोज
लोगे कि सुख
की आकांक्षा
में वास्तविक
आकांक्षा
क्या है।
इसलिए तो तुम
सुख को रोकना
चाहते हो। वह
तो क्षणभंगुर
है। मिट्टी का
दीया कितनी
देर चलेगा।
ज्योति तो बुझेगी,
तेल तो
चुकेगा।
इसलिए तो तुम
सुख को जोर से पकड़ते हो
कि खो न जाए; शाश्वत हो
जाए सुख। सुख
शाश्वत नहीं
हो सकता; यद्यपि
शाश्वत सुख भी
है। लेकिन
तुम्हारी आकांक्षा
साफ है कि तुम
सुख को शाश्वत
बनाना चाहते
हो। तुम समझ
नहीं पा रहे
हो—तुम आनंद
की तलाश में
हो।
आनंद
शाश्वत सुख
है। सुख आनंद
की एक झलक है—इस
लोक में उतरी।
ऐसा
समझो कि आकाश
में चांद है, और झील के
पानी पर उसका
प्रतिबिंब
बनता है—बस
ऐसा ही आकाश
में आनंद भरा
है और
तुम्हारे मन
की तरंगों से
भरी झील पर
उसका
प्रतिबिंब
बनता है—वह
सुख है। और जब
वह भी खो जाता
है—प्रतिबिंब
भी खो जाता है—तब
दुख है। जब
प्रतिबिंब बन
रहा है तब तो
तुम असली चांद
की तलाश में
निकल सकते हो,
क्योंकि
तुम्हारे बीच
और असली चांद
के बीच थोड़ा—सा
नाता है—प्रतिबिंब
का ही सही।
बहुत सपनीला
है; जरा—सा
कोई हिला दे
झील को, मिट
जाएगा। लेकिन
अगर झील शांत
हो तो तुम
अपने बनते
प्रतिबिंब की
राह से ही
असली चांद तक
भी पहुंच सकते
हो।
सुख
झलक है
परमात्मा की
संसार में।
दुख उसका अभाव
है। जब उसकी
झलक है, तभी
पुकार लेना, तब वह करीब
है, तब
कहीं आसपास
है। झलक झूठी
है; लेकिन
जिसकी झलक है,
वह सच है।
जब झलक से तुम
भरे हो, तब
सब काम छोड़कर
प्रार्थना
में लीन हो
जाना। यही बड़ी
कठिनाई है:
सुख में तो
जरूरत ही मालूम
नहीं पड़ती।
एक मां
अपने छोटे
बेटे को कह
रही थी कि मैं
दो दिन से देख
रही हूं कि
तूने रात की
प्रार्थना नहीं
की, परमात्मा
को धन्यवाद
नहीं दिया।
समझाने के लिए
उसने कहा, कि
देख इस गांव
में गरीब
बच्चे हैं
जिनको दो जून
रोटी भी नहीं
मिलती, कपड़े
फटे—चीथड़े
पहने हुए हैं।
तुझे भगवान ने
सब कुछ दिया
है। धन्यवाद
देना जरूरी
है। उस लड़के
ने सिर हिलाया।
उसने कहा कि
यही तो मैं
सोचता हूं। तो
प्रार्थना
उनको करनी
चाहिए कि
मुझको? जिनको
न रोटी है, न
कपड़े हैं, मैं
किसलिए
प्रार्थना
करूं? सब
मिला ही हुआ
है और बिना ही
प्रार्थना
किए हुए मिला
हुआ है—तो
मुझे क्यों
झंझट में
डालना? प्रार्थना
उनको करनी
चाहिए जिनको
कुछ नहीं मिला
है।
यह
बच्चा
तुम्हारे
सबके मन की
बात कह रहा
है। यही तुम
कह रहे हो। जब
तुम दुख में
हो, तब
प्रार्थना; जब तुम सुख
में हो तब
क्या जरूरत
है। इसलिए सुख
में आदमी सहज
ही भूल जाता
है। जब मौका
था नाव को छोड़
देने का सागर में,
तब तो तुम
भूल जाते हो
और जब मौका
बिलकुल नहीं था
सागर में नाव
को छोड़ने का—तूफान
था सागर में, ज्वार उठा
था, भयंकर
आंधी चलती थी
और हवाएं
प्रतिकूल थीं—तब
तुम अपनी छोटी—सी
नाव को लेकर
सागर के
किनारे
पहुंचते हो।
तुमने डूबने
की तैयारी ही
कर ली। और जब
सागर में अनुकूल
हवा थी कि
पतवार भी न
चलानी पड़ती, सिर्फ पाल
तान देते, और
सागर की हवा
ही तुम्हें ले
जाती, डूबने
का कोई खतरा न
था, न
तूफान था न
आंधी थी, सागर
में छोटी—छोटी
लहरें थीं, जिनमें बड़ा
निमंत्रण था—तब
तुम भूल ही
जाते हो कि
यात्रा पर
निकलना है।
तुम
गलत मौका
चुनते हो, इसलिए
परमात्मा से
चूके हुए हो।
जब आदमी बीमार
होता, अस्वस्थ
होता, तब
वह प्रार्थना
करता है।
बीमारी में
परमात्मा की
याद कठिन है।
हां, जिसने
जान लिया, उसको
तो हर घड़ी
संभव है; उसको
तो उसकी याद
ही है, और
कुछ याद नहीं
रह जाता।
लेकिन जो
यात्रा पर निकल
रहा है, उसको
बीमारी में
परमात्मा की
याद करनी कठिन
है। क्योंकि
जब शरीर रुग्ण
होता है तो
शरीर ही ध्यान
को आकर्षित
करता है। सिर
में दर्द हो
तो सिर का
दर्द ही याद
आता है। उस
वक्त तुम
कितना ही राम—राम
जपो, हर
राम के पीछे
सिरदर्द होगा,
दो राम के
बीच में
सिरदर्द होगा,
आगे—पीछे सब
तरफ सिरदर्द
होगा। और राम—राम
जपने से और
सिरदर्द
बढ़ेगा, जब
शरीर रुग्ण है
तब शरीर
मांगता है
सारा ध्यान।
उस समय तुम
प्रार्थना
करने बैठे हो।
जब शरीर स्वस्थ
है तब शरीर
भूला जा सकता
है।
स्वास्थ्य की
परिभाषा ही
यही है। जिन
क्षणों में
तुम शरीर को
बिलकुल भूल
सको, वही
स्वास्थ्य का
क्षण है; क्योंकि
जब भी शरीर
बीमार होगा तो
तुम पूरा नहीं
भूल सकते।
जहां बीमारी
है, वहां
शरीर तुमको
चाट मारता
रहेगा। सिर
में दर्द है तो
वह याद दिलाता
रहेगा। और यह
स्वाभाविक है,
नहीं तो
सिरदर्द को
तुम मिटाओगे
कैसे? शरीर
कहता है, यहां
तकलीफ है, इसको
मिटाओ।
वह सूचन कर
रहा है। वह
खबर भेज रहा
है कि सिर में
तकलीफ है, यह
पहले जरूरी है,
इसको मिटाओ;
प्रार्थना
वगैरह पीछे कर
लेना; अभी
अस्पताल जाओ,
यह वक्त
मंदिर जाने का
नहीं है। वह
यह कह रहा है
कि शरीर बड़ी
तकलीफ में है।
और
शरीर
तुम्हारा
आधार है। अगर
उसकी याद भूल
जाए तो शरीर सड़ ही
जाएगा। तो
शरीर
तुम्हारा
ध्यान
आकर्षित करता
है। इसलिए
समस्त साधना—पद्धतियां
चाहती हैं कि
तुम पहले
स्वस्थ हो जाओ।
लेकिन जैसे
तुम स्वस्थ
होते हो, वैसे
ही तुम
प्रार्थना को
एक तरफ रख
देते हो। तब
दूसरे ज्यादा
जरूरी काम
तुम्हें करने
जैसे मालूम
पड़ते हैं। असल
में जब तुम
स्वस्थ होते
हो, तब तुम
शरीर को भोगना
चाहते हो। तब
कौन प्रार्थना
करे! जब रुग्ण
होते हो, जब
तुम शरीर को
भोग नहीं सकते,
तब तुम
प्रार्थना
करते हो। तब
प्रार्थना हो
नहीं सकती। जब
स्वस्थ होते
हो तब तुम
कहते हो, कर
लेंगे
प्रार्थना।
अभी कोई जल्दी
है? अभी तो
जवान हैं। आने
दो बुढ़ापा,
कर लेंगे
प्रार्थना।
अभी कौन समय
खराब करे! अभी
जिंदगी हरी—भरी
है। अभी सब
तरफ निमंत्रण
है। अभी बहुत कुछ
भोगने को है।
उमरखैयाम
ने लिखा है कि
सुबह—सुबह
मैंने जाकर
मधुशाला के
द्वार पर
दस्तक दी।
भीतर से आवाज
आई, अभी
मधुशाला
खुलने का समय
नहीं है। तो
मैंने कहा, सुनो समय—असमय
की बात नहीं, सूरज निकल
चुका है, सांझ
होने में देर
कितनी लगेगी;
थोड़ा ही समय
हाथ में है; जितना पी
सकूं, पी
लेने दो।
जब तुम
स्वस्थ हो, तब लगता है
थोड़ा ही समय
हाथ में है, जल्दी ही
सांझ हो
जाएगी। तब तुम
मधुशाला की तरफ
दौड़ते हो। जब
तुम दौड़ नहीं
सकते, पंगु
हो, बिस्तर
पर पड़े हो, जब
कुछ और करने
को नहीं सूझता,
तब तुम
प्रार्थना
करते हो।
प्रार्थना
ऐसी मालूम
पड़ती है कि
तुम्हारे
जीवन—व्यवस्था
की फेहरिश्त
पर आखिरी चीज
है। जब कुछ
करने को नहीं
होता, तब
तुम
प्रार्थना
करते हो। तुम
किसे धोखा दे
रहे हो?
प्रार्थना
तुम्हारी फेहरिश्त
पर जब प्रथम
होगी तभी सुनी
जा सकेगी।
वस्तुतः तो
प्रार्थना ही
जब अकेली
तुम्हारी फेहरिश्त
हो जाएगी, जब
प्रार्थना ही
तुम्हारा भोग,
जब
प्रार्थना ही
तुम्हारा
प्रेम, जब
प्रार्थना ही
तुम्हारा धन,
जब
प्रार्थना ही
तुम्हारा पद,
तुम्हारी
प्रतिष्ठा
होगी, जब
प्रार्थना ही
सर्वस्व होगी,
तभी सुनी जा
सकेगी। जब
पूरे प्राणपण
से एक लपट की
भांति
प्रार्थना उठेगी,
तभी वह
ज्योति
परमात्मा के
चरणों तक
पहुंच पाती
है।
लेकिन
जब तुम दीन—हीन
होते हो, रुग्ण,
अस्वस्थ, अस्पताल में
पड़े, टांग—हाथ
बंधे, तब
तुम
प्रार्थना
करते हो।
तुम्हें
प्रार्थना के
लिए और कोई
समय नहीं
मिलता। जब तुम
बूढ़े हो जाते
हो, जीवन
चुक जाता है, हाथ से समय
खो गया होता
है, सब
अवसर तुमने
मिट्टी कर दिए,
जब जीवन की
आखिरी घड़ी आने
लगी और मौत की
पगध्वनि
सुनाई पड़ने
लगी—तब तुम
भयभीत, भय—कातर,
प्रार्थना
में संलग्न हो
जाते हो।
नहीं, अस्वस्थ दशा
में प्रार्थनानहीं
हो सकती।
प्रार्थना के
लिए एक
आधारभूत
स्वास्थ्य की
जरूरत है। यह
तो ऐसे ही है
जैसे कि किसी
वृक्ष को पानी
न मिले, जमीन
सूख गई हो, धूप
भयंकर पड़ती हो,
वृक्ष का तन—प्राण
कुम्हला गया
हो—और तब
वृक्ष फूलों
को लाने की
कोशिश करे।
कैसे फूल
आएंगे? फूल
तो वृक्ष के
स्वास्थ्य से
उत्पन्न होते
हैं। फूल तो
वृक्ष के भीतर
के स्वास्थ्य
की खबर हैं।
फूल तो वृक्ष
का अपरिसीम
दान है—आनंद
का। फूल तो यह
कह रहे हैं कि
वृक्ष अब इतना
भर गया है
ऊर्जा से कि
बांटने को
तत्पर है। और
वृक्ष के पास
अब इतना है कि
वह देगा। वह
अपनी सुवास से
अपने को बांटेगा।
अनजान—अपरिचित
हवाएं ले
जाएं अब उसकी
वास को, पहुंचा
दें दूर—दिगंत
तक!
वृक्ष
में जैसे फूल
हैं वैसे ही
जीवन में प्रार्थना
है। जब तुम
भरे—पूरे हो, जब सब तरफ
ऊर्जा
प्रवाहित
होती है, जब
सब तरफ भीतर
युवापन होता
है—तभी जीवन
के फूल, तभी
प्रार्थना के
फूल संभव होते
हैं।
लेकिन
तुम उलटे क्षण
चुनते हो।
ध्यान कोई
थैरेपी
या चिकित्सा
नहीं है।
चिकित्सा के
लिए अस्पताल
है, मंदिर
नहीं।
चिकित्सा के
लिए डॉक्टर है,
गुरु नहीं।
गुरु के पास
तो तुम
परिपूर्ण
स्वस्थ होकर
आना, तो वह
तुम्हें अनंत
की यात्रा पर
सरलता से ले जा
सकेगा। लेकिन
तुम गुरु के
पास ऐसे आते
हो, जैसे
वह कोई डॉक्टर
हो।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं। वे
कहते हैं, बीस साल से
मिर्गी आती है,
वह मिटती
नहीं। उसके
लिए डॉक्टर है,
उसके लिए
अस्पताल है।
यहां मैं
मिर्गी ठीक करने
को नहीं हूं।
और मिर्गी ठीक
हो जाएगी, फिर
करोगे क्या? जिनकी ठीक
है, वे
क्या कर रहे
हैं? वही
करोगे न? मिर्गी
में खुद ही
उलझे हो, मिर्गी
ठीक होगी तो
दस—पांच को और
उलझा दोगे। और
क्या करोगे?
जीसस
के जीवन में
उल्लेख है कि
जीसस एक गांव
में आए, और
उन्होंने एक
आदमी को, युवा
आदमी को, सुंदर
आदमी को एक
वेश्या के
पीछे भागते
देखा। वे
पहचान गए उस
आदमी को, क्योंकि
वह आदमी पहले
अंधा था और
जीसस ने ही
हाथ से छूकर
उसकी आंखें
ठीक की थीं।
तो उसे पकड़ा
और कहा कि
नासमझ, क्या
मैंने तुझे
आंखें इसलिए
दी थीं कि तू
वेश्याओं का पीदा कर? उस आदमी ने
बड़े क्रोध से
जीसस की तरफ
देखा और कहा, आंखों का
उपयोग ही क्या
है? यह तो
तुम्हें देने
के पहले ही
सोच लेना था।
आखिर आंख मैं
चाहता किसलिए
था?—इसलिए
कि रूप देखूं।
अब आंख देकर
शिकायत कर रहे
हैं?
जीसस
को उसने चौंका
दिया होगा।
उन्होंने सोचा
था कि शायद
आंख देने से
आंख परमात्मा
की तरफ उठेगी।
लेकिन बहुत
आंख वाले हैं; किसकी आंख
परमात्मा की
तरफ उठ रही है?
अंधा जब तक
था, तब तक
शायद वह
प्रार्थना
करता रहा हो, और परमात्मा
की स्तुति
गाता रहा हो; जब आंख मिल
गई तो आदमी
वेश्या की तरफ
जाता है। आदमी
बहुत अदभुत
है।
वे
गांव के भीतर घुसे।
उन्होंने एक
शराबघर के
बाहर, एक
शराबी को बड़ा
उत्पात मचाते
देखा, शोरगुल
मचा रहा है, अनाप—शनाप
गालियां बक
रहा है, मुंह
से फसूकर
गिर रहा है।
वे उसको भी
पहचान गए।
उन्होंने कहा,
अरे मेरे
भाई, तू तो
बिस्तर पर पड़ा
था, हड्डी—हड्डी
हो गया था—भूल
गया। उस आदमी
ने भी गौर से
जीसस को देखा
और कहा, हां
ठीक, मैं
पहचानता हूं।
तुम्हीं ने
मुसीबत खड़ी
की। मैं तो
अपनी शांति से
अपने बिस्तर
पर पड़ा था। अब तुमने
मुझे स्वस्थ
कर दिया; अब
स्वास्थ्य का
क्या करूं?
स्वास्थ्य
हो तो आदमी
शराब—घर जाता
है, बीमार हो
तो सदगुरु
की तलाश करता
है। जीसस उदास
होकर गांव के
बाहर निकल गए।
अपने ही किए
पर पछतावा
होने लगा होगा
कि, यह मैंने
क्या किया!
मैं तो सोचता
था कि स्वस्थ
आदमी पूजा—प्रार्थना
में लीन होगा;
और वह मुझ
पर नाराज हो
रहा है कि अब
क्या करूं।
गांव
के बाहर जाते
थे तो
उन्होंने एक
आदमी को देखा, जो एक वृक्ष
से फंदा लगाकर
अपनी फांसी
लगाने की
कोशिश कर रहा
था। उन्होंने
उसे रोका कि
रुको, यह
क्या कर रहे
हो? जब वह
पास आया तो
देखा यह भी
पुराने
परिचितों में
से था। यह
आदमी मर चुका
था, जीसस
ने इसको जिंदा
किया था। उस
आदमी ने कहा, तुम मेरे
दुश्मन हो, मित्र नहीं।
मैं तो मर गया
था, तो
शांति हो गई
थी; तुमने
मुझे मरे से
उठा दिया। और
यह उपद्रव इतना
ज्यादा है कि
मैं अब जीना
नहीं चाहता।
तो मैं मरने
का इंतजाम कर
रहा हूं। और
जो भूल मेरे
साथ की, दूसरे
के साथ मत
करना। जो मर
जाए, उसको
मर ही जाने
देना।
क्योंकि
जिंदगी इतना
उत्पात है
आखिर जीवन का करोगे
भी क्या? इसे
थोड़ा समझ लेना,
क्योंकि
अनेकों को ऐसी
भ्रांति है कि
सदगुरु
कोई चिकित्सक
है। है
चिकित्सक, लेकिन
बीमारियों की
चिकित्सा
नहीं करता, स्वस्थों की
चिकित्सा
करता है। वह
चिकित्सा
स्वस्थ आदमी
की है, बीमार
की नहीं।
बीमार के लिए
तो दूसरे लोग
हैं, वे कर
लेते हैं।
उसके लिए झंझट
में पड़ने की सदगुरु को
कोई जरूरत
नहीं है। सदगुरु
तो स्वस्थ की
चिकित्सा
करता है; क्योंकि
एक और महास्वास्थ्य
है, एक और महाजीवन
है—जो, जब
तुम स्वस्थ हो,
तभी उसी
यात्रा पर
निकल सकोगे।
लेकिन अगर तुम
स्वस्थ हो जाओ
तो तुम सदगुरु
के पास आते ही
नहीं।
मेरे
पास लोग आते
हैं: बीमार
हैं या अशांत
हैं—शरीर से
बीमार हैं या
मन के बीमार
हैं। वे कहते
हैं, बड़ी
अशांति है, कोई मार्ग
बताइए। जब
चित्त
तुम्हारा
अशांत है, तब
तो ध्यान करना
बहुत मुश्किल
होगा। तुम करीब—करीब
विक्षिप्त
दशा में हो।
तुम्हारी
अवस्था ऐसी
नहीं है कि
मैं तुमसे
कहूं कि तुम
पांच क्षण के
लिए शांत बैठ
जाओ तो तुम
बैठ सको। मैं
पूछता हूं, जब शांत थे, तब क्यों न
आए? वे
कहते हैं, जब
शांत थे तब
जरूरत ही क्या
थी? अशांत
हैं, इसलिए
आए हैं।
इस बात
का बहुत मूल्य
है। स्मरण
रखना जरूरी है, क्योंकि
जितने शांत
तुम मेरे पास
आओगे, उतनी
आसानी से काम
हो सकेगा।
नहीं तो मेरी
ऊर्जा और
तुम्हारी
ऊर्जा पहले तो
तुम्हें शांत
करने में लगती
है। व्यर्थ
समय तो उसमें
जाता है। और
यह भी पक्का
नहीं है कि
शांत होने के
बाद तुम टिकोगे।
शांत होकर तुम
भागोगे बाजार
में, क्योंकि
शांति तुम
इसलिए चाहते
हो कि जरा मन शांत
रहे तो धन
थोड़ा और कमा
लें; जरा
मन शांत रहे
तो आनेवाला
इलैक्शन लड़
लें। अब मन
इतना अशांत है
कि कहां जाएं,
क्या करें—मुसीबत
है!
मन की
शांति तुम
चाहते इसलिए
हो कि संसार
में थोड़ी
सफलता और मिल
जाए? और संसार
के कारण ही
अशांति हो रही
है। और शांति
भी तुम इसीलिए
चाहते हो कि
संसार में और
थोड़ी सफलता
मिल जाए। अगर
तुम शांत हो
भी गए तो तुम उस
शांति को नई
अशांति को
पाने में ही
लगाओगे, और
करोगे भी क्या?
इसलिए
मेरी कोई
उत्सुकता
नहीं है कि
तुम शांत हो
जाओ। मेरी
उत्सुकता तो
इसमें है कि
तुम ठीक से
समझ लो कि
तुम्हारी
अशांति के
कारण क्या हैं? और तुम कारणों
को छोड़ दो।
शांत होने की
फिक्र मत करो;
जड़ को पकड़
लो कि अशांत
होने के कारण
क्या हैं।
कारण
हैं
महत्त्वाकांक्षा...कि
बहुत धन इकट्ठा
कर लें; कि
बहुत बड़े पद
पर हो जाएं; कि जिंदगी
में लोगों को
करके दिखा दें
कि कुछ हैं; कि इतिहास
में नाम छूट
जाए। यह तो
तुम्हें अशांत
कर रही है
बात। अगर तुम
सामान्य जीवन
के लिए राजी
हो जाओ, तो
अशांति की
जरूरत क्या है?
रोटी तुम
कमा लेते हो।
दिल्ली
दिक्कत दे रही
है! दिल्ली
पहुंचना है।
बिस्तर
तुम्हारे पास
सोने का है, नींद
तुम्हें ठीक आ
सकती है; लेकिन
बिस्तर पर
नींद नहीं आ
सकती है।, क्योंकि
मन दिल्ली में
है और तुम
यहां पूना में
सोते हो।
फासला बहुत
रहता है। मन
दिल्ली में, तुम पूना
में। दोनों एक
साथ सोओ तो ही
सो सकते हो।
तनाव बना रहता
है। इतना तो
काफी है कि
तुम पानी पी
लो, खाना
खा लो, छप्पर
बना लो। हर
आदमी के लिए
काफी है। अगर
जरूरतें पूरी
करनी हों तो
पृथ्वी काफी
है। लेकिन अगर
वासनाएं पूरी
करनी हैं तो
यह पृथ्वी
क्या, अनंत
पृथ्वियां
हों तो भी
काफी नहीं। तब
अशांति पैदा
होती है। जब
तुम किसी ऐसी
चीज के पीछे
जाते हो जो कि
व्यर्थ है, तब अशांति
पैदा होती है।
होनी ही
चाहिए।
मैं
शांत करके और
तुम्हें
मुसीबत में
नहीं
डालूंगा।
तुम्हें
अशांत होना ही
चाहिए, तभी
तो तुम
जागोगे।
तुम्हारी
अशांति ही तो
तुम्हें एक
दिन इस बात का
बोध दिलाएगी
कि जो कर रहे
हो, वह ऐसा
है कि उससे अशांतति
होगी ही। अब
तुम हाथ आग
में डाल रहे
हो और हाथ जलता
है और तुम
कहते हो कि
कुछ उपाय बता
दीजिए कि हाथ
न जले, और
आग में तुम
डाले ही जाते
हो। जलना ही
चाहिए, क्योंकि
जलेगा तो ही
तुम शायद खींचोगे।
अशांति
में तुम ध्यान
करने को
उत्सुक होते
हो। शांति में
ध्यान करने को
उत्सुक हो तो
ही ध्यान लग
पाएगा।
अशांति को
हटाने के लिए
कारण अलग कर
दो।
महत्त्वाकांक्षा
छोड़ दो। कुछ
होने का कुछ
सार नहीं है।
ना—कुछ होने
को राजी हो
जाओ: अशांति
ऐसे विदा हो जाएगी
जैसे सुबह की
ओस सूरज के
उगते ही विदा
हो जाती है।
अशांति को
मिटाने के लिए
किसी ध्यान की
जरूरत नहीं
है। अशांति को
मिटाने के लिए
तो सिर्फ
नासमझी को देख
लेने की जरूरत
है। सिकंदर
होना है, हिटलर
होना है—तो
अशांत रहोगे
ही। इसमें
किसी का कोई
कसूर नहीं है।
तुम्हारी
आकांक्षा यह
है कि तुम
हिटलर भी हो
जाओ और शांत
रहते हुए हो
जाओ। इसलिए
तुम ध्यान की
तरफ आते हो।
ध्यान
तुम्हारे
किसी काम न
पड़ेगा। ध्यान
तुम्हारा
लगेगा भी
नहीं।
एक
राज्य के
मिनिस्टर
मेरे पास आते
हैं। उनको चीफ
मिनिस्टर
होना है। और
वे बड़ी कोशिश
करते हैं कि
कुछ भी रास्ता
बता दें शांत
होने का, सब
गुरुओं के पास
जाते हैं कि
शांति को कोई
रास्ता...!
मैंने उनसे
पूछा, तुम्हें
करना क्या है
शांति से? उन्होंने
कहा कि न रात
नींद ठीक से
आती है, दिन
में चित्त
अशांत रहता है,
किसी भी काम
में मन नहीं
लगा पाता—इसलिए
पिछड़ा जा रहा
हूं। दूसरे
लोग मिनिस्टर होते
जाते हैं, चीफ
मिनिस्टर
होते जाते
हैं। और मैं आज
पंद्रह साल से
बस मिनिस्टर
के पद पर ही
उलझा हूं। अब
तक मुझसे पीछे
आनेवाले लोग
चीफ मिनिस्टर
हो गए और मेरी
अपनी उलझनें
हैं कि कहीं सिरदर्द,
कहीं नींद न
आना, कहीं
यह बीमारी, कहीं वह
बीमारी। मैं
ज्यादा सफर भी
नहीं कर सकता,
शरीर कमजोर
है। तो मैं
पिछड़ा जा रहा हूं।
आप कुछ रास्ता
बता दें कि
चित्त शांत हो
जाए।
चित्त
शांत हो जाए
तो उन्हें चीफ
मिनिस्टर होना
है। अभी
मिनिस्टर
होने में इतना
अशांत है और
चीफ मिनिस्टर
होकर और भयंकर
अशांति होगी।
अशांति तो
सिर्फ देखने
की बात है, देख लो, समझ
लो अपने भीतर,
पैदा हो रही
है तो उसका
अर्थ है कि
तुम प्रकृति
के प्रतिकूल
चल रहे हो।
उसका अर्थ है,
तुम्हें जो
होना चाहिए
तुम वैसा नहीं
हो। जो करना
चाहिए वह नहीं
कर रहे हो, इसलिए
अशांत हो।
अशांति
तुम्हारा फल
है, तुम्हारा
कर्मफल है।
मेरा कोई कसूर
नहीं है कि
मैं उसे शांत
करूं। शांत हो
जाओ, फिर
मेरे पास आओ, क्योंकि मैं
तुम्हें शांत
अवस्था में ही
किसी महान
यात्रा पर भेज
सकता हूं; अशांत
हो तो
मनोचिकित्सक
है, उसके
पास जाओ।
बीमार हो तो
चिकित्सक है,
उसके पास
जाओ। जब मन
शांत हो, शरीर
स्वस्थ हो, तब मेरे पास
आ जाना। तब
सागर शांत है,
लहरों में
निमंत्रण है—तुम्हारी
छोटी—सी नाव
को परमात्मा
की यात्रा पर
भेजा जा सकता
है। मेरी
उत्सुकता
उसमें है।
लेकिन
शांत आदमी
कहता है कि
आएं ही क्यों, हम तो शांत
हैं। स्वस्थ
आदमी कहता है,
अभी आने की
क्या जरूरत है;
जब अस्वस्थ
हो जाएंगे, आ जाएंगे।
जवान आदमी
कहता है कि
अभी तो जवान
हैं, अभी
तो भोग लें, बाजार में
बड़ा रस है; जब
बूढ़े हो
जाएंगे तब आ
जाएंगे।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप जवान
लोगों को संन्यास
देते हैं? संन्यास तो
बुढ़ापे के लिए
है। जब मर ही
गए तब के लिए
संन्यास है? जब कुछ बचा
ही न करने को, हाथ—पैर भी न
हिलने को रहे,
तब के लिए
संन्यास है? तो संन्यास
तुम्हारे
जीवन का
हिस्सा नहीं
है। संन्यास
तो तब जब जीवन
की ऊर्जा अपनी
प्रगाढ़ता
में हो, अपने
शिखर पर हो, तभी यात्रा
पर निकल पाओगे,
क्योंकि
यात्रा बड़ी
है।
सुखी
आदमी भोग में
लीन होता है, और दुखी
आदमी
प्रार्थना की
कोशिश करता है—इसीलिए
लोग भटकते हैं
और पहुंच नहीं
पाते। सुखी
पहुंच सकता है,
अगर वह
प्रार्थना
में लीन हो।
शांत पहुंच
सकता है, अगर
वह प्रार्थना
में लीन हो।
अब हम
इन पदों को
समझने की
कोशिश करें।
सुख
में सुमिरन न
किया, दुखा में कीया
याद।
कह
कबीर ता दास
की, कौन
सुने
फरियाद।।
सुख ही
सुमिरन बन सके, इसकी चेष्टा
करो। जब तुम
पाओ—और अनेक
बार तुम पाते
हो—कि मन बड़ा
प्रसन्न है, उस क्षण
क्लब—घर मत
जाओ। जब मन
बड़ा प्रसन्न
है तब होटल
में मत जाओ।
जब मन बड़ा
प्रसन्न है तब
रेडियो या टी.वी.
खोलकर मत
बैठो। यह
बहुमूल्य
क्षण मुश्किल
से मिलता है।
यह बहुमूल्य
क्षण ऐसा
बाजार के कचरे
में फेंक देने
के योग्य नहीं
है। हीरे को
मत फेंको। जब
भी तुम पाओ कि
शांत क्षण आया
है, भागो मंदिर की
तरफ—यह हीरा
परमात्मा के
चरणों में चढ़ाने
जैसा है; यह
किसी वेश्या
के चरणों में
मत चढ़ा आना।
जब पाओ कि
चित्त स्वस्थ
है, हलका
है, उदास
नहीं, एक
भीतरी प्रफुल्ल्ता
है—तब हजार
काम छोड़ देना:
यह वक्त
प्रार्थना का
है।
प्रार्थना
को क्रियाकांड
मत बनाओ कि
रोज सुबह उठकर
कर लेंगे; क्योंकि कभी
क्षण होगा, कभी नहीं
होगा। मेरे
हिसाब में जब
तुम सुख में
हो तभी सुबह
है; वही
ब्रह्ममुहूर्त
है। घड़ी से पता
नहीं चलता
ब्रह्ममुहूर्त
तुम्हारे
भीतर की घड़ी
की बात है।
भरी दुपहर में
तुम अचानक पाते
हो कि चित्त
बड़ा प्रसन्न
है इस क्षण
में, अकारण
प्रसन्न है:
द्वार—दरवाजे
बंद कर दो—यह
मौका खोने का
नहीं; अभी
प्रार्थना
में डूब जाओ, अभी कर लो
स्मरण। यह
छोटा—सा क्षण
मिला है, इसका
कर लो उपयोग।
यह ज्यादा देर
न रहेगा, लेकिन
अगर इसका
प्रार्थना
में उपयोग
किया तो यह
टिकेगा, काफी
टिकेगा, यह
गहरा होगा।
अगर
तुमने सुख में
प्रार्थना की
तो तुम पाओगे कि
तुम्हारे सुख
के क्षण बढ़ने
लगे, रोज
ज्यादा होने
लगे, और
सुख की गहराई
भी बढ़ने लगी।
अगर तुमने सुख
का क्षण
प्रार्थना के
लिए उपयोग कर
लिया और
परमात्मा को चढ़ाया, तो
तुम्हारी
भेंट स्वीकार
हो जाएगी। तुम
जल्दी ही
पाओगे कि उसका
प्रसाद
तुम्हें
मिलने लगा, और सुख
बरसने लगा।
जितना सुख
बरसेगा, उतनी
ही प्रार्थना
तुम करने लगे
ज्यादा, उतना
ही ध्यान में
लीन होने लगे।
जल्दी ही तुम
पाओगे कि सुख
चौबीस घंटे
थिर होने लगा
और चौबीस घंटे
स्मरण चलने लगा।
अब अलग बैठने
की कोई जरूरत
भी न रही। अब तुम
जहां हो वहीं
उसकी याद है।
सुख के
साथ जोड़ लो
प्रार्थना को, तो इसी जन्म
में यात्रा
पूरी नहीं हो
सकती है। दुख
के साथ मत जोड़ो।
दुख तुम्हें
पसंद नहीं, परमात्मा को
भी पसंद नहीं।
दुख किसी को
भी पसंद नहीं।
उदास शक्लें
और गंभीर लंबे
चेहरे लेकर मत
परमात्मा के
पास जाओ।
एक
छोटा बच्चा
चर्च से घर
लौटा। वह पहली
ही दफा चर्च
गया था। उसकी
मां ने कहा, कैसा लगा? उसने कहा कि
गीत तो बहुत
अच्छे थे:
प्रवचन बहुत उबानेवाला
था। और उसने
पूछा कि एक
सवाल मेरे मन
में उठता रहा
कि जो लोग
वहां बैठे थे,
ये लोग क्या
रोज चर्च आते
हैं? उसकी
मां ने कहा कि
हां, ये जो
लोग वहां बैठे
थे, ये
वर्षों से
चर्च आते हैं;
ये बड़े
धार्मिक लोग
हैं, गांव
के सब धार्मिक
लोग हैं। तो
उसने कहा कि
परमात्मा
इनके चेहरे
देख—देखकर ऊब
गया होगा। ऐसे
बैठे हैं मरे—मराए।
परमात्मा भी
थक गया होगा
रोज—रोज इनके
चेहरे देख—देखकर।
चर्चों, मंदिरों, मस्जिदों से
परमात्मा भाग
खड़ा हुआ है।
वहां सब तरह
के रोगी
इकट्ठे हो
जाते हैं।
मंदिर तो
उत्सव का होना
चाहिए। मंदिर
तो इंद्रधनुष
के रंगों का
होना चाहिए।
मंदिर में तो
फूलों की गंध
और तितलियों
के पंख होने
चाहिए। मंदिर
में तो प्रवेश
करते ही नृत्य
पकड़ लेना
चाहिए। तो ही
मंदिर मंदिर
है। लेकिन
कठिनाई है, क्योंकि
दुखी लोग
मंदिर जाते
हैं, सुखी
लोग मंदिर
जाते नहीं। तो
धीरे—धीरे
मंदिर उदास
होता जाता है।
और जो लोग
दुखी हैं, वे
मंदिर जाकर यह
कहते हैं कि
जो लोग सुखी
हैं, वे सब
नरक जाने की
तैयारी कर रहे
हैं। स्वभावतः
दुखी आदमी
सुखी आदमी को
बर्दाश्त
नहीं कर सकता।
और दुखी आदमी
चाहता है कि
कोई हर्ज नहीं,
आज हम दुख
झेल रहे हैं, कल तुम
झेलोगे; हमने
अपना झेल लिया,
तुमने नहीं
झेला—झेलोगे।
दुखी लोगों ने
मंदिरों और मस्जिदों
में बैठकर नरक
की धारणा की
है: सुख अपने
लिए, और जो
सुखी हैं आज
संसार में, दुख उनके
लिए, महा
नरक। दुखी
आदमी किसी को
सुखी नहीं
देखना चाहता,
और दुखी
आदमी सुखी से बड़ीर् ईष्या
करता है।
इसलिए
तो तुम्हारे
मंदिर—मस्जिदों
में बैठे गुरु
और साधु और
संत सिखा रहे
हैं। वे सिखा
रहे हैं
तुम्हें कि
उदास हो जाओ।
वे सिखा रहे
हैं कि उदासी
प्रार्थना
है। वे सिखा
रहे हैं कि
गंभीर हो जाओ।
वे सिखा रहे
हैं कि तुम जितना
ही गंभीर और मुदों
चेहरा लेकर
आओगे, उतनी
ही तुम्हारी
गहरी
प्रार्थना
होगी।
तो जरा
बाहर जगत की
तरफ देखो—परमात्मा
के बनाए जगत
को! वहां तुम
उदासी देखते
हो? अगर आदमी
को हटा दो तो
सिवाय उत्सव
के वहां कुछ
भी नहीं।
परमात्मा
थकता ही नहीं।
फिर—फिर बसंत
आ जाता है।
फिर—फिर मेघ
घिर जाते हैं।
फिर—फिर नाद
गूंजने लगता
है मेघों का।
प्रपात बहते
जाते हैं परम
निनाद में।
अगर
परमात्मा की
तरफ देखो।
उसकी कृति की
तरफ देखो। और
ध्यान रखो, कृति की तरफ
देखकर ही तुम
उसके कर्ता की
तरफ आंख उठा पाओगत अगर
तुम चित्रकार
को समझना
चाहते हो, उसके
चित्रों को दे,ो। और क्या
ढंग है इस
चित्रकार को
समझने का? उसके
चित्रों में
अगर तुम्हें
फूल दिखाई पड़ते
हैं और
तितलियां
दिखाई पड़ती
हैं और गीत
दिखाई पड़ते
हैं, तो
जाहिर है कि
परमात्मा के
मन में उत्सव
है, उदासी
नहीं। लेकिन
उदास आदमी, दुखी आदमी, पीड़ित—परेशान,
उत्सुक
होता है
प्रार्थना में;
क्योंकि वह
सोचता है शायद
प्रार्थना से
ये सब चीजें
मिट जाएं, और
वह सारे
मंदिरों को
अपने साथ डुबा
लेता है।
सुख
में सुमिरन ना
किया, दुख
में कीया
याद।
कह
कबीर ता दास
की, कौन
सुने
फरियाद।।
आनंद
में कही गई
प्रार्थना ही
सुनी जाती है, क्योंकि
आनंद
परमात्मा का स्वर
है, वह
परमात्मा की
भाषा है। दुख
तुम्हारी
भाषा है।
परमात्मा उस
भाषा को समझता
ही नहीं। दुख
तुमने अपना
पैदा किया है।
परमात्मा ने
तो तुम्हें भी
फूल की तरह
नाचने और गाने
को ही पैदा
किया है। दुख
तुम्हारी
कृति है, वह
तुम्हारा
कर्म है। वह
तुम्हारी
संभावना नहीं
है, संभावना
तो तुम्हारे
आनंद की है।
दुख की भाषा परमात्मा
को समझ ही
नहीं आती।
इसलिए जीसस ने
कहा है, जो
छोटे बच्चों
की भांति
होंगे, वे
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश पा
सकेंगे। छोटे
बच्चों की
भांति नाचते,
कूदते, प्रफुल्लित!
सुमिरन
सुरत लगाइके, मुख ते कछू
न बोल।
प्रार्थना
कोई बोलना
नहीं है।
प्रार्थना में
कुछ कहना नहीं
है। तुम जो भी
कहोगे, वह
गलत होगा। तुम
गलत हो। तुम
जो भी कहोगे, वह अंधेरे
का हिस्सा
होगा।
तुम्हारी
सारी वाणी
तुम्हारे मन
से आती है—जो
अंधकार है, अज्ञान है।
इसलिए
कबीर कहते हैं, सुमिरन सुरत
लगाइके—प्रभु
की याद करके, मुंह को बंद
करके शांत हो
रहो। मुख ते कछू न बोल—कुछ
कहने की जरूरत
नहीं है, परमात्मा
समझता है।
तुम्हारे
चिल्ला—चिल्लाकर
कहने की कोई
जरूरत नहीं
है।
एक
मुल्ला अजान
लगा रहा था
मस्जिद पर, कबीर पास से
निकले, तो
उन्होंने
चिल्लाकर कहा,
क्या कर रहा
है? क्या
बहरा हुआ खुदा?
इतने जोर से
क्यों चिल्ला
रहा है? क्या
खुदा बहरा हो
गया है?
शब्द
की तो कोई
जरूरत नहीं
है। तुम तो
अपने हृदय को
उसके सामने
खोलकर रख दो।
तुम यह भी मत
कहो कि मुझे
यह चाहिए, वह चाहिए; क्योंकि
तुम्हारी चाह
गलत ही होगी।
तुम खुद ही पछताओगे
पीछे। अगर
तुम्हारी चाह
भी पूरी हो
जाए, तो
तुम रोओगे, पछताओगे, छाती पीटोगे।
मिदास
की यूनान में
एक कथा है।
उसने पूजा की, प्रार्थना
की और किसी
देवता को राजी
कर लिया, तो
उसने कहा, मांग
ले वरदान। तो मिदास ने
कहा, मैं
जो भी छुऊं, वह सोना हो
जाए। शुरू हो
गया दूसरे दिन
से; जो भी
छुए, सोना
होने लगा। फिर
छाती पीटने
लगा और चिल्लाने
लगा; क्योंकि
पत्नी को छुआ
और वह सोना हो
गई; बेटे—बेटी
भाग गए घर
छोड़कर; दरबारी
फासले पर खड़े
होकर वहां
इतने दूर से
बात करने लगे,
क्योंकि
अगर छू दे, तो
मारे गए। भोजन
करे, सोना
हो जाए। पानी
पिए, सोना
हो जाए। बहुत
चिल्लाने लगा
कि क्षमा कर दो,
भूल हो गई।
तुमने
भी मांगी
होती...! चाह
अज्ञान से
निकली होगी तो
ऐसा ही होगा।
मांगते वक्त
तो बड़ी समझदारी
की लगी थी।
बड़े मजे का था, सीधा मामला
था—जो भी छुआ, सोना हो
जाए। अब इससे
बड़ा और क्या
हो सकता था? महल छुआ, सोना
हो गया; पहाड़
छुआ, सोना
हो गया—अब
तुम्हारे धन
का, धान्य
का क्या अंत
था! लेकिन
अज्ञान देख
नहीं सकता
पूरी स्थिति।
भूखा मरने लगा
मिदास।
पानी न पी सके,
खाना न खा
सके। पत्नी मर
गई; बच्चे
घर छोड़कर भाग
गए, सारा
गांव दुश्मन
हो गया। सोना
तो हो गईं
चीजें; लेकिन
सोने को खाओगे
या पीओगे?
और मिदास
की कथा अधिक
लोगों की कथा
है। जिंदगी भर
कोशिश करके
आखिर में तुम
थोड़ा बहुत
सोना इकट्ठा
कर लेते हो; उसमें पत्नी
भी मर गई, बच्चे
भी भाग गए, उसी
उपद्रव में—सोना
करने में।
उसमें तुम भी
भूखे रहे, प्यासे
रहे, कभी
ठीक से सो न
सके, कभी
दो क्षण चैन
के न पाए।
आखिर में सोना
हो गया इकट्ठा—तुम
मरने को
तैयार।
मिदास
ने आत्महत्या
कर ली। और
करने को कुछ
बचा नहीं। चाह
पूरी हो तो
ऐसी मुसीबत
आती है।
नहीं, तुम कुछ
मांगना मत।
सुमिरन
सुरत लगाइके...।
और ये शब्द
सुमिरन सुरत
समझ लेने जैसे
हैं। ये कबीर
के पारिभाषिक
शब्द हैं।
सुरति
शब्द आता है
बुद्ध से।
बुद्ध जिसको
सम्यक स्मृति
कहते थे, वही
शब्द लोक—भाषा
में आते—आते
स्मृति से
सुरति हो गया।
स्मृति का
अर्थ है: माइंडफुलनेस,
समग्र होश,
होशपूर्वक।
होशपूर्वक
बैठ जाना।
प्रार्थना की
कोई जरूरत
नहीं। मुख से
कुछ बोलना
नहीं है।
सिर्फ शांत
रहना। स्मृति
का क्या अर्थ
है, जिसे
कबीर ने कहा
है? कई बार
वे एक ही
प्रतीक का बार—बार
उपयोग करते
हैं, क्योंकि
वह उन दिनों
बड़ा सार्थक
प्रतीक था। वे
कहते हैं, गांव
की स्त्रियां
पनघट से पानी
भरकर लाती हैं,
तो वे सिर
पर दो—दो तीनत्तीन
घड़े रख
लेती हैं, हाथ
से पकड़ती
भी नहीं, दोनों
हाथ खुले
छोड़कर गपशप, बातचीत करती
हुई गांव के
भीतर आती हैं—लेकिन
उनकी सुरति घड़ों में
लगी रहती है।
हाथ से पकड़ा
नहीं है, सुरति
से पकड़ा है।
याद घड़े
की बनी रहती
है। होश घड़े
का बना रहता
है कि घड़ा गिर
न जाए। कुछ
शब्द की भी
जरूरत नहीं
रहती। ऐसा कुछ
बार—बार वे
दोहराती नहीं
हैं कि घड़ा
गिर न जाए। न शब्द
की कोई जरूरत
नहीं, सिर्फ
होश... और घड़ा
नहीं गिरता।
घड़ा सम्हला
रहता है।
बातचीत करती
रहती हैं, गीत
गाती रहती हैं,
उछलती—कूदती
गांव की तरफ
वापस लौटती
हैं। अब तो
वैसे दृश्य न
रहे क्योंकि
पनघट भी न
रहे। नलघट
हैं, और उन
पर सिवाय
उपद्रव के, झगड़े के और
कुछ भी नहीं।
लेकिन वह
प्रतीक सार्थक
है। भीतर एक
होश बना है, होश से
सम्हाला हुआ
है घड़े
को।
कबीर
कहते हैं, ऐसे ही शांत
होकर बैठ जाना,
सिर्फ होश
रह जाए, भीतर
का दीया जलता
रहे। कुछ
बोलना मत।
सुमिरन
सुरत लगाइके, मुख ते कछू
न बोल।
लेकिन
यह तभी होगा
जब तुम सुख
में, जब तुम
शांति में, जब तुम
स्वस्थ हो, तभी होगा।
नहीं तो
अशांति घूमती
रहेगी; मुख
न बोलेगा तो
अशांति घूमेगी।
इसलिए सुख के
क्षण को खोजो।
सुख आता है, क्योंकि एक
नियम है जीवन
का: जब दुख आता
है तो सुख भी
उसके साथ का
पहलू है। तुम्हें
पता न चलता हो
आपाधापी में,
लेकिन थोड़ा
तुम खोजोगे
तो पा लोगे।
जैसे दिन के
पीछे रात है, रात के पीछे
दिन है—ऐसा हर
दुख के बार
सुख है, हर
सुख के बाद
दुख है, एक रिदम, एक
लयबद्धता है
जीवन में।
तुम
दुख को देखते
रहते हो, कितने
परेशान हो
जाते हो दुख
में कि उसके
पीछे आता सुख
तुम्हें याद
ही नहीं पड़ता,
दिखाई भी
नहीं पड़ता।
जरा होश
सम्हालकर अगर
तुमने जागृत
होकर देखा तो
तुम जल्दी ही
पा लोगे कि
चौबीस घंटे
में कई क्षण
आते हैं, जब
मन में एक रस
होता है, जब
सब शांत होता
है। उसी क्षण:
सुमिरन सुरत लगाइके, मुख ते कछू
न बोल। बाहर
के पट देइकै,
अंतर के पट
खोल।।
अब
बाहर के पट
बंद कर लो।
सुख है भीतर।
सम्हाल लो।
बाहर के सब पट
बंद कर दो कि
कहीं बह न
जाए। पुरानी
आदत है: सुख जब
भी आता है, बाहर बहता
है। सुखा आया
कि भागे कि
चलो किसी मित्र
को पकड़कर
ताश ही खेलें।
सुख आया कि
भागे, चलो
मित्र के पास
बैठकर गांजा
पी लें। सुख
आया कि तुम
भागे—अब सुख
को कहीं व्यय
कर लें। सुख
को व्यय मत करो।
सुख को बचाओ।
उससे बड़ी कोई
संपदा नहीं
है। उस
लयबद्धता का
तुम तरंग की
तरह उपयोग करो
कि वह तरंग
तुम्हें
परमात्मा में
ले जाए।
बाहर
के पट देइकै, अंतर के पट
खोल। अब तुम
बाहर की बात
ही भूल जाओ।
सुख को भीतर
सम्हाल लो।
शांत बैठ जाओ।
कुछ करने का
नहीं है, कुछ
कहने का नहीं
है; परमात्मा
समझता है। तुम
जितना अपने—आप
को समझते हो, उससे ज्यादा
वह तुम्हें
समझता है।
उसने तुम्हें
बनाया है। तुम
उससे आए हो।
वह तुम्हारे रोएं—रोएं
को समझता है।
तुम तो अपनी
सतह को ही
जानते हो; वह
तुम्हारे
केंद्र को भी
जानता है। तुम
तो सिर्फ अपनी
ऊपर—ऊपर की
खोल को
पहचानते हो; वह तुम्हारे
भीतर के
अंतरतम को
जानता है। इसलिए
तुम कुछ मत
करो। तुम
सिर्फ बाहर के
पप बंद कर
दो, अंतर
के पट खुले कर
दो। हृदय को
खोल दो परमात्मा
के सामने। बस।
माला
तो कर में फिरै, जीभ फिरै
मुख माहिं।
मनुआं
तो दहुदिसि
फिरै, यह तो
सुमिरन
नाहिं।।
न तो
जरूरत है कि
तुम हाथ में
लेकर माला
फेरो। क्योंकि
हाथ में फिरती
माला का क्या
परमात्मा से
संबंध है? माला तो कर
में फिरै—और
तुम अगर
प्रार्थना कर
रहे हो कि तुम
पतित पावन हो
और मैं पतित
हूं, और
तुम यह हो और
मैं वह हूं—इस
सब बकवास में
अगर तुम लगे
हो, जैसा
कि भक्तगण
लगे रहते हैं;
जीभ फिरै
मुख माहिं,—यह तो सिर्फ
जीभ फिर रही
है मुख में, इसमें हो
क्या रहा है? मनुआं तो दहुदिसि
फिरै—और
मन तो दसों
दिशाओं में
घूम रहा है।
ग्यारह
दिशाएं हैं।
मन दस दिशाओं
में घूम सकता
है, ग्यारहवीं
में नहीं।
ग्यारहवीं
तुम हो। आठ दिशाएं
चारों तरफ, एक नीचे
जानेवाली
दिशा, एक
ऊपर जाने वाली
दिशा—दस
दिशाएं, और
एक भीतर
जानेवाली
दिशा है। तो
मन दस दिशाओं
में घूम सकता
है। ग्याहरवीं
दिशा में डूब
जाओ, न तो
हाथ में माला
फेरने की
जरूरत है, न
मुंह में जीभ
फेरने की
जरूरत है, न
मन को दसों
दिशा भटकाने
की जरूरत है।
मन की कल्पनाओं
की भी कोई
जरूरत नहीं
है।
बहुत
से लोग मन की
कल्पना करते
हैं। जब
प्रार्थना
करने बैठते
हैं, तब वे
सोचते हैं कि
प्रकाश दिखाई
पड़ रहा है, कि
कुंडलिनी जग
रही है, कि
परमात्मा
सामने खड़े हैं—बांसुरी
बजा रहे हैं, कि रामचंद्र
खड़े हैं धनुष्य
लिए। इस सब
में कुछ सार
नहीं है। यह
तो मन दस दिशाओं
में भटक रहा
है। मन के
बनाए राम, कि
कृष्ण, कि
क्राइस्ट कुछ
काम न आएंगे।
वह तो कल्पना
का जाल है।
कुछ भी मत करो,
क्योंकि
तुमने कुछ
किया कि तुम
बाहर गए। अनकिये
हुए रहो।
अकर्ता बन
जाओ।
जाप
मरै अजपा मरै, अनहद भी मरि
जाय।
सुरत
समानी सब्द में, ताहि काल नहिं खाय।।
तुम
कुछ भी करोगे
वह सब मरनेवाला
है। तुम्हारे
कर्तृत्व से
जो भी पैदा
होता है, वह
सब मर जाएगा।
तुम्हारा
शरीर मरणधर्मा
है। माला फेरोगे
मरणधर्मा
से, अमृत
में नहीं ले
जाएगी। मरणधर्मा
की यात्रा
अमृत में कैसे
ले जा सकती है?
तुम्हारे
ओंठ, जीभ
भी मर जाएंगे।
तो उन ओंठ और
जीभ की तड़फड़ाहट
से पैदा हुए
शब्दों का उस परमात्मा
तक कैसे
पहुंचना हो
सकता है? जाप
जिनसे पैदा
होता है वही
कल मिट्टी में
मिल जाएंगे।
तो और जो उनसे
पैदा हुआ था, वह भी
मिट्टी में खो
जाएगा।
तुम्हारा
मन भी मरणधर्मा
है, प्रतिपल
मरता है। उसकी
कल्पनाओं का
कुछ सार नहीं
है। तुम
क्षणभंगुर को
मत पकड़ो।
इसलिए कबीर एक
बड़ी
क्रांतिकारी
बात कहते हैं।
कहते हैं, जाप
मरै—अगर
तुमने जाप की,
जाप मर
जाएगी; अजपा
मरै—अगर
तुमने अजपा
किया तो वह भी
मर जाएगा।
क्योंकि अजपा
जाप का ही
सूक्ष्म रूप
है। पहले तुम
जाप करते हो
कि तुम राम, राम, राम,
राम
दोहराते हो।
पहले जोर से
दोहराते हो, वह स्थूल
रूप है। फिर
तुम होंठ बंद
कर लेते हो।
भीतर दोहराते
हो—राम, राम,
राम, राम—वह
सूक्ष्म रूप
है। वह जाप
है। फिर तुम
वह भी बंद कर
देते हो, कि
तुम दोहराते
नहीं, होंठ
में भी नहीं
दोहराते, जीभ
भी नहीं हिलती,
होंठ भी
नहीं हिलते; सिर्फ मन
में ही राम, राम, राम,
राम—वह और
भी सूक्ष्म
रूप है। लेकिन
सभी के पीछे तुम्हारा
कर्तृत्व
छिपा है।
जाप
मरै, अजपा मरै,
अनहद भी मरि
जाए।
और तुम
जिस अनहद को
सुन लेते हो, वह भी ऐसी
घड़ी भी आ जाती
है जब तुम्हें
जाप करने की
जरूरत नहीं
रहती। भीतर भी
नहीं रहती, मन में भी ओम
को दोहराने की
जरूरत नहीं
रहती। ओम तुम
में इस तरह समाविष्ट
हो जाता है कि
तुम बिलकुल
शब्द बंद कर दो
तो भी ओम
गूंजता रहता
है। वह
प्रतिध्वनि
है। उसको लोग
अनहद समझ लेते
हैं। ऐसा समझो
कि हम एक घंटा
बजाएं; घंटा
बंद हो गया
लेकिन थोड़ी
देर उसकी
प्रतिध्वनि गूंजती रह
जाती है। धीरे—धीरे
धीरे—धीरे
प्रतिध्वनि
खोती है।
अगर
तुम वर्षों तक
ओम का पाठ
करते रहो, तो तुम्हारे
भीतर इतना मोमेन्टम
इकट्ठा हो
जाएगा कि तुम
अगर पाठ न भी
करो, तुम
जाप भी छोड़ दो,
अजपा भी छोड़
दो, सिर्फ
आंख बंद करके
बैठ जाओ फिर
वह जो वर्षों तक
जाप किया है, वह तुम्हारे
रोएं—रोए
में तुम्हारे
कण—कण में समा
गया है। उसमें
प्रतिध्वनि गूंजेगी।
अब तुम अचानक
पाओगे कि ओम
का तो जाप
अपने आप हो
रहा है। यह भी
मर जाएगा। यह
भी
प्रतिध्वनि है।
जब मूल ही मर
गया तो
प्रतिध्वनि
कितनी देर रह
जाएगी। इसलिए
कबीर कहते हैं,
अनहद भी मरि
जाए।
अनहद
का अर्थ है:
ओंकार।
सुरत
समानी सब्द में, ताहि काल नहिं खाय।।
सिर्फ
एक ही चीज
बचती है, उसी
को पकड़ लो, वही
सहारा है।
उसके
अतिरिक्त
तुमने कुछ और
पकड़ा कि तुम
डूबे। सुरत समानी सब्द
में—तुम्हारी
जो स्मृति की
क्षमता है, जागरण की
क्षमता है, होश की
क्षमता है, होश की
क्षमता है, यह तुम्हारे
भीतर...। सबद
पारिभाषिक
शब्द है। बाइबिल
में कहा है, इन दि बिगिनिंग
देअर वाज़
वर्ड; ओनली दि वर्ड एक्ज़िस्टेड
एंड नथिंग
ऐल्स।
शुरू में सबद
था। उस सबद से
ही सब पैदा
हुआ। उस सबद
के अतितिक्त
शुरू में कुछ
भी न था। इस
सबद को तुम
शब्द मत समझ
लेना।
जैसा
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
सारे
अस्तित्व की
मूल ऊर्जा
विद्युत है, सभी चीजें
विद्युत—कणों
से बनी हैं—वैसे
ही ज्ञानियों
ने कहा है कि
सभी चीजों की मूल
ऊर्जा ध्वनि
है, विद्युत
नहीं। और सभी
चीजें ध्वनि
से बनी हैं।
और इन दोनों
में बड़ा
तालमेल है। और
दोनों सही हो
सकते हैं।
क्योंकि
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
विद्युत से ही
ध्वनि बनी है।
और ज्ञानी कहते
हैं कि ध्वनि
का ही संघात
विद्युत को
पैदा करता है।
दोनों सही हो
सकते हैं। दो
तरफ से एक ही
चीज को देखने
का ढंग मालूम
होता है। अगर
तुम एक ही
ध्वनि का
उच्चार करते
रहो तो ताप
पैदा हो जाता
है। इतना ताप
भी पैदा हो सकता
है कि तुम
कल्पना भी न
कर सको।
तिब्बत
में उसके बड़े
प्रयोग किए गए
हैं और एक खास
योग की साधना
है तिब्बत में
ताप पैदा करने
की। तो तिब्बत
में बर्फ जमी
रहती है, चारों
तरफ बर्फ पड़ती
रहती है, और
उस योग का
साधक नग्न खड़ा
रहता है बर्फ
में और पसीना
चूता रहता है।
नग्न खड़ा रहता
है और शरीर से
पसीना झरता
रहता है। वह
कुछ भी नहीं
करता, वह
सिर्फ भीतर, तिब्बत का
एक मंत्र है।
"ॐ मणि पद्मे
हुम्'—ओंकार
का ही एक रूप
है—वह उसका
भीतर पाठ करता
है। वह उसकी
जोर से रटन करता
है। वह रटन इतनी
गहन हो जाती
है, उसकी
चोट इतनी गहरी
पड़ती है कि
सारा शरीर
उत्तप्त हो
जाता है; गिरती
बर्फ में हाथ
से पसीना चूने
लगता है।
दोनों
सही हो सकते
हैं।
संगीतज्ञो
ने बहुत बार
संगीत से दीये
को जलाया है।
जो लोग मिलिटरी
साइंस का
अध्ययन करते
हैं, सैन्य—विद्या
का, उनको पता
है कि पुलों
पर से जब
सैनिक गुजरते
हैं तो उनको
कह दिया जाता
है। कि वे
लयबद्धता से न
गुजरें, एक साथ पैर न
उठाएं, पैरों
की लयबद्धता
तोड़ दें—क्योंकि
बहुत बार बड़े—बड़े
पुल सैनिकों
की लयबद्धता
से गिर गए
हैं। सैनिक
गुजरते हैं तो
उनके पैर लेफ्ट—राइट
करते हुए एक
साथ उठते हैं।
उस चोट से एक
खास तरह की
ध्वनि पैदा
होती है, और
अनेक बार बड़े—से—बड़े
मजबूत पुल जिन
पर से ट्रेनें
गुजर जाती थीं,
ट्रक गुजर
जाते थे, थोड़े—से
सैनिकों के
गुजरने से गिर
गए हैं।
ध्वनि
का एक आघात
है। और अब तो
ध्वनि पर काफी
अध्ययन हो रहा
है। रविशंकर के
सितार पर केनेडा
में प्रयोग िकया गया
है। रविशंकर
सितार बजाते
रहे और दोनों
तरफ दो
क्यारियों
में बीज बाए
गए। वे रोज एक
घंटा वहां
सितार बजाते
हैं और वे बीज
धीरे—धीरे बड़े
होते हैं। वे
सब पौधे सितार
की तरफ झुके
हुए बढ़े—सब
पौधे! एक भी
दूसरी तरफ
नहीं झुका। सब
पौधे—जैसे
सुनने को बहरा
आदमी कान पास
में ले आता है—ऐसे
पौधे सितार
सुनने को कान
पास ले आए। और
सितार के कारण
जो पौधा तीन
महीने में फूल
देने योग्य
होता, वह डेढ़ महीने
में फूल देने
योग्य हो गया।
तो ध्वनि ने
कुछ जीवनत्ताप
पैदा किया, कुछ ऊर्जा
पैदा की, संगीत
ने कुछ किया।
मोज़र्ट
के एक
प्रसिद्ध
संगीत—जिस पर
अनेक मुल्कों
में कानूनी
रूप से रोक लगा
दी गई है।
उसका कोई
उपयोग नहीं
करता, क्योंकि
बहुत—से लोग
उसे सुनते
वक्त मर गए
हैं। तो उसके
एक खास संगीत
"नाइन्थ सिम्फोनी'
पर रोक लगाई
गई है। बाजार
में मिलता
नहीं उसका
रिकार्ड, क्योंकि
वह खतरनाक है।
वह इतना शांति
में ले जाता
है कि आदमी
तत्क्षण
विलीन हो जाता
है। तो शांति
धीरे—धीरे
समाधि बन जाती
है, मौत हो
जाती है।
कबीर
जिसको सबद
कहते हैं, उस सबद का
अर्थ है: इस
जगत की मूल
ध्वनि, जिससे
सारा जगत पैदा
हुआ है; वही
ओंकार है। उसे
तुम्हारे जाप
से सुनने की
जरूरत नहीं
है। जिस दिन
तुम बिलकुल ही
शांत हो जाओगे,
उस दिन वह
सुनाई पड़ेगी।
सुनाई पड़ेगा,
यह कहना भी
ठीक नहीं है, क्योंकि
वहां
सुननेवाला और
सुनाई पड़नेवाली
ध्वनि दो न
होंगे; तुम्हीं
सुनोगे
तुम्हीं को।
तुम्हारा ही
अस्तित्व
ध्वनित होगा।
उस परम ध्वनि
का नाम सबद
है। इसलिए सबद
को मैं सबद ही
कह रहा हूं, शब्द नहीं।
शब्द मत कहना।
सबद कबीर का
लोगोस है, जिसको
दि वर्ड
बाइबिल में
कहा है। वह
जीवन की, अस्तित्व
की परम ध्वनि
है, जिससे
सब चीजें
निर्मित हुई
हैं। कबीर
कहते हैं, सुरत
समानी सब्द में—जब
तुम अपने उस
मूल स्रोत में
समा जाओ, इतने
शांत हो जाओ
कि जैसे गंगा
गंगोत्री में
समा गई हो।
ऐसा
समझो कि वृक्ष
में फल लगे
हैं, फल वापस
फूलों में समा
गए, वापस
पत्तियों में
समा गए, पत्तियां
वापस शाखाओं
में समा गईं, शाखाएं पीड़
में समा गईं, पीड़
जड़ों में समा
गईं, जड़ें वापस
बीज में समा
गईं—वह बीज
सबद। तुमने सब
विस्तार समेट
लिया, सब
पसारा समेट
लिया, और
समाने लगे
भीतर। एक ऐसी
घड़ी आती है, जब तुम्हारी
चेतना, तुम्हारा
होश मूल बीज
में समा जाता
है। कबीर कहते
हैं, वही
एक अमृत है, बाकी तो सब
मर जाएगा।
तुम्हारा
किया कुछ भी न बचेगा।
जो तुम्हारे
से भी पहले से
है, जो
तुम्हारे
करने के पीछे
छिपा है, जो
तुम हो, वही
बचेगा। कृत्य
तो खो जाएंगे,
कर्ता खो
जाएगा, सिर्फ
आत्मा बचेगी।
सुरत
समानी सब्द में, ताहि काल नहिं खाय।।
तूं तूं करता तूं भया, मुझ में रही
न हूं।
और
कबीर कहते हैं
कि समाते—समाते, भीतर सुरति
के डूबते—डूबते—और
उस सारे डूबने
में तेरी ही
याद थी; शब्दों
में कही नहीं,
माला से
फेरी नहीं, होठों पर
दोहराई नहीं,
भीतर जाप न
किया, अजपा
की फिक्र न की—लेकिन
इस सारी
यात्रा में
याद तेरी थी; याद शब्दों
की न थी; प्राणों
की थी। स्मरण
तेरा ही बना
था।
तूं तूं करता तूं भया—और
जितनी यह याद
गहन होने लगी, उतना ही
पाया कि मैं
तो मिटता जा
रहा हूं और तू ही
होता जा रहा
है।
तूं तूं करता तूं भया, मुझ में रही
न हूं।
और एक
दिन अचानक
पाया कि मैं
तो मिटता जा
रहा हूं और तू
ही होता जा
रहा है।
"तूं तूं
करता तूं
भया', मुझ
में रही न
हूं।
और एक
दिन अचानक
पाया कि मैं
तो खो ही गया, हूं भी खो
गई।
"मैं
हूं' हम
कहते हैं।
"मैं'—अहंकार,
अकड़; "हूं'
अकड़ की छाया,
अस्मिता—
उतनी अकड़ नहीं
बड़ी विनम्र।
मैं का आदमी
तो अलग दिखाई
पड़ता है अकड़ा
हुआ, उसको
तुम पहचान
सकते हो—उसकी
चाल, उसकी
आंख, उसका
ढंग: हर घड़ी वह
कर रहा है, अपने
चारों तरफ
संदेश भेज रहा
है, ब्रॉडकास्ट
कर रहा है कि
मैं कुछ हूं; तुमने मुझे
समझ क्या रखा
है? हर घड़ी
वह बतला रहा
है कि मैं कुछ
हूं—कपड़ों से,
उठने—बैठने
से। यह तो
सीधी स्थूल
अहंकार की दशा
है। इसको हमने
अहंकार कहा है।
फिर एक और
अहंकार की दशा
है जो बड़ी
विनम्र है:
साधुओं में
मिलेगी, समाज—सेवकों
में मिलेगी, सज्जन
पुरुषों में
मिलेगी। यह तो
दुर्जन में मिलता
है अहंकार कि
अकड़ा हुआ खड़ा
है। सज्जन झुका
हुआ खड़ा होता
है। वह तो
कहता है, मैं
तो आपके पैरों
की धूल हूं।
वह तो लखनवी होता
है; वह
कहता है, पहले
आप।
ऐसा
मैंने सुना है—पता
नहीं कहां तक
सच है—कि लखनऊ
में ऐसा हो
गया कि एक
महिला
गर्भवती हुई
और पैंतालीस
साल तक उसको
बच्चा पैदा न
हुआ।
चिकित्सक भी
घबड़ा गए। आखिर
ऑपरेशन करना
पड़ा, तो पाया
कि वहां तो ए
बच्चा नहीं, दो बच्चे थे
और पक्के
लखनवी थे, और
उनसे कहा कि
बाहर निकलो।
तो उन्होंने
कहा, यही
तो अड़चन है; मैं इनसे
कहता हूं, पहले
आप; ये
मुझसे कहते
हैं, पहले
आप। निकलना
नहीं हो पाता।
अब यह तो
अहंकार होगा
कि पहले मैं
निकल जाऊं।
तो
विनम्रता है, संस्कृति है,
सभ्यता है—वहां
मैं का स्थूल
रूप तो खो
जाता है लेकिन
अस्मिता रह
जाती है। विनम्र
आदमी का भी एक
अहंकार होता
है कि मुझसे
ज्यादा
विनम्र कोई भी
नहीं; मैं
तो आपके चरणों
की धूल हूं।
कहता वह यही
है, लेकिन
इसमें भी वह
जाहिर कर रहा
है कि मैं कोई साधारण
नहीं हूं, बड़ा
असाधारण
पुरुष हूं:
चरणों की धूल—देखो!
मैं कोई
अहंकारी नहीं
हूं; मैं
तो विनम्र
हूं!
इसको
कबीर कहते
हैं: हूं।
संस्कृत में
उसके लिए शब्द
है: अस्मिता।
अहंकार का
स्थूल रूप है, अस्मिता
सूक्ष्म रूप
है। अहंकार
ठोस है, अस्मिता
छाया है। पहले
अहंकार मिटता
है, फिर
अस्मिता जाती
है।
तूं तूं करता तूं भया, मुझ में रही
न हूं।
और अब
तो छाया भी न
बची मेरी। अब
तो यह भी नहीं
कह सकता कि
मैं नहीं हूं।
अब तो यह भी
नहीं कह सकता—होने
की तो घोषणा
कर ही नहीं
सकता, नहीं
होने की भी
घोषणा नहीं कर
सकता। हूं भी
जा चुकी।
वारी
तेरे नाम पर, जित देखूं
तित तूं।
और अब जहां देखता
हूं, तुझे
ही पाता हूं।
बाहर—भीतर सब
खो गया, तू
ही बचा। अपना—पराया
सब खो गया, तू
ही बचा।
पदार्थ—चेतना
सब विलीन हो
गई, तू ही
बचा। बूंद
सागर में गिर
गई।
यह घड़ी
है समाधि की।
यही घड़ी
तुम्हारी परम
नियति की। और
जब तक तुमने
इसे न पाया तब
तक कुछ भी पा
लो, समझना कि
कुछ पाया
नहीं। और जब
इसे पा लिया
तब कुछ पाने
योग्य बचता
नहीं।
कस्तूरी
कुंडल बसै।
आज
इतना ही।
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