मां आनंदमयी से एक भेंट वार्ता:
मां ने
भगवान से
प्रथम मिलन की
भूमिका बना
पुन: कहना
प्रारंभ किया—
‘‘उन
दिनों विवेकानंद
का बड़ा जोर था।
अभी तक उनका
कोई साहित्य
मैंने नहीं
पढ़ा था और फिर
सबसे पहले
उनका 'राजयोग'
पढ़ा।
पतंजलि—योग
दर्शन की बड़ी
सुंदर
व्याख्या की
है उसमें।’’
‘‘यात्रा
से चांदा
लौटकर आईं तो
वरोरा मेरे
ननिहाल से एक
तपश्चर्या के
उत्सव में
सम्मिलित होने
का निमंत्रण मिल
पाया। मैं
उत्सव में
सम्मिलित
होने के लिए
पैसेंजर गाड़ी
से अकेली ही
रवाना हुई।
चांद! के पास
ही थोड़ी दूर
पर एक माजरी
नामक छोटा सा
जक्शन स्टेशन
है।
वहां कुछ
देर के लिए
पैसेंजर गाड़ी
रूकी। स्टेशन
के एक तरफ एक
छोटी सी इमारत
है और दूसरी और
लम्बे—लम्बे
खुले खेतों का
फैलाव है। मैं
रेलगाड़ी में
खिड़की की और
बैठी थी। समय
बिताने के लिए
मेरे हाथ में 'राजयोग' पुस्तक
थी। उसमें
मैंने एक
पंक्ति अभी—अभी
पढ़ी ही थी
जिसमें कहा
गया था कि कोई
भी वस्तु अपने
आप में
सुखात्मक या
दुःखात्मक
गुणों से
पूर्ण नहीं
होती। इतना
पढ़ने के
उपरांत: जब
रेलगाड़ी रुकी
तो खिड़की के
बाहर खेतों की
हरियाली की और
मेरी दृष्टि
मुड़ गई। खेतों
में बहुत से
मजदूर काम में
मग्न थे। ठीक
मेरी खिड़की के
सामने ही एक
नाग और नागिन
अपनी पूछ के
सहारे मुझे
खड़े दिखाई दिए।
बिलकुल तांबे
के रंग के
भूरे से वे
रेशमी चमक लिए
मेरे मन को
मोहने लगे। उन
दोनों की
नजरें मेरी
नजरों से एक
साथ मिलीं।’’
‘‘छटपन
से ही मुझे
नागों से
प्रेम रहा है।
सांप मुझे बड़े
प्यार और
भगवान की
अद्मुत
कलाकृति' लगते थे।
छुटपन में जो
भी सपेरे आते
तो मैं उनसे
उनको स्पर्श
कर छूकर देखने
का आग्रह सदा
करती थी। दूर
से देखने में
चमकीले, सुंदर
और कोमल लगते
किन्तु छूकर
देखने में
पत्थर से कठोर
बदन वाले लगते
थे। मैं दबाकर
देखती तो बड़ा
मजा आता था।
शायद बचपन के
सौंदर्य का ही
आकर्षण रहा
होगा जो मैं
उस नाग और
नागिन की
दृष्टि में
अपने को बंधा
अनुभव कर रही
थी। मैं देखकर
बड़ी आनंदमग्न हो
रही थी। लेकिन
खुशी भी तो
आदमी एकाकी
बर्दाश्त
नहीं कर पाता
है।’’
और
अचानक मा की
वाणी से मानव
मनोविज्ञान
की अत्यंत
गहरी बात बड़ी
सहजता से
प्रगट हो गई।’’इसलिए
मैं इस आनंद
के सौंदर्य को
अन्य में भी बांटना
चाहती थी। उठे
हुए फन के उस
जादू को अचानक
पास बैठी एक मुसलमान
स्त्री को
मैंने बताने
के लिए
भावावेश में
उसे इशारा
किया। प्रभु
की चमत्कार
लीला का वह
सुंदरतम
दृश्य उसे फिर
से झकझोर कर
दिखलाया तो वह
देखते ही 'हाय—अल्लाह।’
कहकर बेहोश
सी होने लगी
और तब अचानक
पुस्तक की जो
पंक्ति मैं पढ़
रही थी इन
क्षणों में
कितनी सत्य
प्रतीत हो रही
थी। विधाता की
बनाई उस
कलात्मक जीव
के सौंदर्य को
मैं निहारे जा
रही थी। उसमें
एक को जीवन का
अमृत दिखाई दे
रहा था और उसी
कलाकृति में
दूसरे को मौत
का हलाहल।
दर्शन
की ऐसी अनबूझ
गहराई भरी
विचार सरणी को
मन ही मन, मा हल भी
करती जा थी।
उस दृश्य की स्मृति
वरोरा उत्सव
से लौटकर भी
हृदय के गहरे सागरतल
में जम गई।
चांदा में
श्यामसुंदर
जी शुक्ला
विनोबा भावे
के शिष्य हमारे
घर में ही
रहते थे।
बाह्य सामाजिक
जीवन में
कार्य करने की
प्रेरणा और
उत्साह सदा
उनकी और से ही
प्राप्त होता
रहता था मुझे।
सत जैसे
व्यक्तित्व
की गरिमा
उनमें अटूट थी।
माजरी स्टेशन
का वह अनूठा
सर्प सौंदर्य
मैंने ज्यों
का त्यों
उन्हें सुना दिया।’’
तब इस
पर शुक्ला जी
ने कहा — ‘‘बाई सा, इसमें,
आपके जीवन
में कोई
सर्वोपरि और सर्वोकृष्ट
इच्छा पूरी
होने का कुछ
संकेत है। तभी
ऐसे स्वर्गिक
दृश्य दिखाई
पड़ते हैं।’’ ‘'मैंने
मन में सोचा, कि भाई।
मेरी तो सबसे
बड़ी इच्छा तो
अपने पुत्र से
मिलने की है।
खेर......देखेंगे।
यह सब घटनाएं
और संकेत मिल
ही रहे थे, और
सन् 1960 का वर्ष
लगा ही था कि
वर्धा से वही 'जैन महामंडल'
वाला
निमंत्रण
मुझे मिला।’’
और: जब
उस अड़सठ
वर्षीय नारी
की तेजस्वी आंखें
अपार ऊर्जा से
दमकने लगीं।
जब वे
मुस्कराती
हैं तो ऐसा
प्रतीत होता
है मानों
उसमें कोई
रहस्यमयता
पर्दों के
पीछे से झिलमिलाती
हुई अपने
आकर्षण में
बांधने की कोशिश
कर रही हो और
जब मुक्त
हास्य करती तो
आसपास का
वातावरण
सहस्रों
दामिनी की दमक
से दीप्त हो
उठता था।
लगातार मेरी आंखों
के भाव पढ़ते—पढ़ते
वे एकाएक, बड़ी ही
रहस्यमयी
मुस्कान से
मुझे देखकर
मेरे अंतर को
नहला गई। जैसे
मेरे
चिरप्रतीप्तिपात
प्रश्नों की
भूमिका समापन
कर भोजपत्रों
पर अंकित
अक्षरों से एक—एक
का परिचय मुझे
कराना चाह रही
हो।
‘‘बुलढाणा
निवासी श्री भीकमचंदजी
दशहरा दिन चांदा
पधारे और
वर्धा उत्सव
में सम्मिलित
होने का आग्रह
किया। मैंने
दृढ़ निश्चय से,
प्राथनापूर्ण
अपनी बात उनके
सामने रखी—जब
तक वह मेरा
(बिछड़ा हुआ
पुत्र) पुत्र
मुझे नहीं
मिलता मैं चांदा
का निवास छोड़कर
कहीं भी नहीं
जाना चाहती।
जब तक मेरे
जीवन के
प्रश्न हल
नहीं होते
मुझे यह शहर
छोड़ना ही नहीं
हे। मैं जो
छोटे—मोटे
कार्य अपने मन
बहलाव के लिए
कर रही हूं
उसी कार्य को
लोग महान समझ
लेते हैं।
किन्तु यह
महानता थोथी
है। मिथ्या है
यह झूठा दंभ अब
बरदाश्त नहीं
होता। जब तक
अंतर से वह
महानता अनुभूत
न होने लगे तब
तक लोगों की
नजरों में
महान बनकर क्या
हो जायेगा। यह
तो ढोंग ही
होगा।’
उनके
चेहरे के
भावों मैं अलग
दृढ़ अस्तित्व
की झलक सी
झिलमिला उठी थी
ऐसा कहकर। इस
पर देशलहराजी
ने अपना आखिरी
पासा मेरे
सामने फेंका — 'जब तक
आपका पुत्र
आपको नहीं
मिलेगा तब तक
आपकी बेचैनी
दूर नहीं होगी
ना? तो जब
तक आप ढूंढेगी
ही नहीं, खोज
ही नहीं
करेंगी तो वह
आपका पुत्र
आपको कैसे
मिलेगा?' इस
तरह मुझे उन्होंने
हकाना चाहा था
किन्तु उनका
यही छलावा
मेरे जीवन में
बहुत ही बड़ी
क्रांति का
क्षण ला सका।
उन्होंने फिर
कहा — 'देखो
बाई सा, चलो.....शायद
वहीं मिल जाय।’
मैंने
अविश्वास से
कहा— 'मिल
गए।’ इस पर
पारख साहब ने
भी मुझे वर्धा
जाने के लिए प्रेरित
किया। इस तरह
आने वाले से
ही तो दस तरह
के लोगों से
परिचय होता है।
आपका सम्पर्क
जब नये—नये
व्यक्तियों
से होगा तो
आपको 'बाल
सेवा मंदिर' (अनाथालय) को
भी एक नया
स्वरूप
प्राप्त होगा।
मेरी
जाने की
अनिच्छा को
मेरे पति ने
पुन: एक नया
मोड़ दिया।
उनकी प्रेरणा
से ही मैं सदा
किसी कार्य को
आगे बढ़ाने में
उत्साह अनुभव
करती थी।’’
और
इतना कहकर एक
क्षण के लिए
मौन हो गई। उस
मौन में भी हम
कुछ क्षण
वार्तालाप
करते रहे
‘‘इस
तरह पैसेंजर
गाड़ी से ही
चांदा से हम
वर्धा के लिए
रवाना हुए।
प्रात: छ: साढ़े
छ: बजे ट्रेन
वर्धा
पहुंचती है।’’
वर
देने वाला यह
वर्धा शहर
कितनी देर से
मेरी प्रतीक्षा
में था। अब तक
मैंने भी
दृढ़ता से सोच
लिया था—जब तक
स्वयं मा हमें
वरदान देने
वर्धा नहीं पहुंचती
है, मैं
उनसे वर्धा ले
चलने का जिक्र
भी नहीं करूगा।
जहां जिस शहर
में मा का
भगवान से
सर्वप्रथम
साक्षात्कार
हुआ था वह
वरदायक नगर' हम प्रेम के
प्यासों के
लिए कितनी
आतुरता से हमारी
प्यास जागृत
कराये हुआ था
और मैं अत्यंत
सजग होकर मा
की आंखों से
भगवान श्री के
प्रथम
साक्षात्कार
करने के लिए
आतुर हो उठा।
‘‘सुबह—सुबह
ही हम
बजाजवाड़ी
पहुंचे। जैसे
ही बजाजवाड़ी
की तीसरी सीढ़ी
पर मैंने कदम
रखा वैसे ही
एक अत्यंत
तेजस्वी अपनी
विशाल आंखों
में जाने कोन
सी मोहिनी लिए
एक दाढ़ीवाला
पुरूष धोती
पहने हुए और
शरीर पर एक
शुभ्र दुपट्टा
सा ओढ़े हुए
बाथरूम से
निकलकर मेरे
ठीक सामने खड़ा
हो गया। हम
सभी आए हुए
अतिथियों पर
से घूमती हुई
उनकी झील से
गहरी आंखें
मुझ पर आकर
टिक गई।’’ मैं
भी इस दृश्य
को देखने में
तल्लीन था। मा
की वाणी भी
कुछ देर के
लिए उस स्थान
पर स्थिर हो
गई। देर पुन:
उस अतीत के
चित्र को
टकटकी बांधे
हुए कुछ क्षण
देखने की कामना
में डूब गई।
सब कुछ रूक
गया था। पंखे
की ध्वनि और
पास ही घड़ी
टिक—टिक भर
सुनाई पड़ रही
थी। सब कुछ लय
हो गया था।
प्रश्न. डूब
गए थे। उत्तर
भी तिरोहित हो
गए थे। मां की आंखें
मेरे चहरे पर
जमीं थीं और
मैं उनकी आंखों
की गहराई में
डूबा
अस्तित्व में
लीन था। आज उस
विराटता की एक
झलक पाकर' मुझे
यह अनुमान हुआ
कि......
प्रतिमा
में जीवता सी
बस गई
सुछवि आंखों
में
थी एक लकीर
हृदय में
जो अलग
रही लाखों में।
उस एक
लकीर को हृदय
के केमरे से
क्लिक किए
बैठे ही थे कि मां
का दो वर्ष का नन्हा
सा पोता उस आनंद
के लोक में
प्रवेश कर
अपनी
किलकारियों
से दादी मां
को अपने सम्मोहन
मैं बांधने को
उतावला हो रहा
था। वह मेरे
पास भी आया, और टेप
रिकार्डर की
बटन दबाकर उसे
बद कर दिया।
जैसे हमारा
वार्तालाप बद
कराके वह
अस्तित्व के
इतने सुंदर
दृश्य में
कुछ देर और
डूबे रहने का
आदेश हमें दे
रहा हो। मैं
भी उसके
घुंघराले
बालों से
खेलने लगा और मां
भी उससे कुछ
बातें कर उसको
सांत्वना
देने में हिल—मिल
गई। अपनी अतीत
की स्मृतियों
का तारतम्य वे
नहीं तोड़ना चाहती
थीं। इसलिए
अपने नन्हे
पोते को
फुसलाने के
लिए तरह—तरह के
बहाने खोजने
लगी।
ऐसे
क्षणों में
उनकी
पुत्रवधु
ज्योति ने
प्रसंग की
नजाकत को समझ, अपने
बालकृष्ण को बहला—फुसलाकर
दादी के
सान्निध्य से
थोड़ी देर के
लिए दूर ले गई।
और फिर मां को
जिन
पंक्तियों को
कहकर कुछ क्षण
के लिए रूके
रहना पड़ा था, उन्होंने
उसी प्रसंग को
आगे बढ़ाया......।
हां, तो धोती
लपेटे एक
दाढ़ीवाले
तेजस्वी
पुरूष को मैंने
देखा था। उस
समय उनसे मेरा
कोई परिचय
नहीं था तो
विकल, उन्होंने
जैसे ही पहली
बार मुझे देखा,
उनकी आंखों
में मुझे यह
भाव लगा कि वे
मुझे देखकर
थोड़े क्षणों
के लिए जैसे
चौंक गए और
उसी क्षण मुझे
भी कुछ—कुछ
बड़ी ही अजीब
सी अनुभूति सी
हुई। ऐसा लगा
मेरे शरीर के
सारे रक्त का
प्रवाह
सिमटकर मेरी
छातियों में
होने लगा हो।
मैं भी चौंकी,
उस
दीर्घनयनों
वाले उस दाढ़ीबाले
व्यक्ति के
व्यक्तित्व
से क्यों
चौंकी? ये
नहीं मालूम? वह क्षण मैं
भूल ही नहीं सकती।''
लहराते हुए
अस्तित्व को
सामने एकाएक
पाकर उस क्षण
में मां की
भाव दशा जानने
के लिए मैंने
पूछा—''जब
आपने एक दूसरे
को देखा होगा।
वे क्षण तो निश्चय
ही अविस्मरणीय
रहे होंगे? बिना शब्दों
की वाणी में, मौन की भाषा
में अनबुझा
वार्तालाप! सचमुच कितने,
करोड़ों
सागर की गहराई
नाप रहे होंगे
आप दोनों?''
''हां.....वे
असाधारण
नजरें थीं।
कुछ चौंकाने
का भाव दौनों
की ही नजरों
में था वहां।
पलक झपकते ही
यह सब हो चुका
था। मैं तो
मंत्रबिद्ध
हरिणी सी
युगपुरूष
शिकारी के सामने
खड़ी थी। इतने
में ही
भीकमचंदजी
देशलहरा ने
परिचय कराया....'बाई सा, 'आप
आचार्य रजनीश
जी है।
राबर्टसन
कॉलेज (महाकोशल
महाविद्यालय)
जबलपुर में
दर्शन शस्त्र
के विद्वान
प्रोफेसर है।
और आप....चांदा
से आई समाज
सेविका
श्रीमती मदन
कुंवर पारख है।'
इसके
बाद....हाथ
जोड़े....वे
अपने रास्ते
चले गए और हम
अपनी राह पर।''
'’ यह
था सबसे पहला
क्षण। अब इस
क्षणिक मिलन
के बाद मेरे
मन में उस
अजूबे से व्यक्ति
से फिर एक बार मिलकर
बातें करने की
इच्छा हुई।
परन्तु अब
मिलूं कैसे? वे कहां ठहरे
है? में
केस खोज
सकूंगी इतनी
भीड़—भाड़ में? यही
उत्सुकता बनी
रही और मेरी नजरे
उन्हें ही ढ़ढती
रहीं। तब मन
ने समझाया—'और कहीं
नहीं तो भोजन
के समय तो मिलेंगे
ही' और
मैरी
प्रतीक्षातुर
आंखें सेकड़ों
चेहरों में
उन्हीं दौ आंखों
की खोजती रही।
किन्तु वे
नहीं दिखे। हम
सभी
निमंत्रित
मेहमान थे
किन्तु हमारे
बीच 'वह' निमंत्रित
मेहमान नहीं
था जिसे भी
वहां होना
चाहिए था। तब
मैंने इन्दौर
से आई हुई
श्रीमती
पारसरानी मेहता
से पूछा—वह
व्यक्ति कहो
हैं? दाढ़ी
वाले बाबा?'' मां की इस
बालसुलभ
चपलता और
सहजता से मुझे
बहुत जोरों की
हंसी आ गई।
‘‘हां!
हां!! मैंने
ठीक इन्हीं
शब्दों में
तुम्हारे
भगवान के बारे
में सबसे पहले
पूछा था कि वै
दाढ़ीवाले
साधु महाराज
कहां हैं? वे
तो यहां कहीं
भी नहीं दिखाई
दे रहे हैं? '' इस पर पारसरानी
मेहता ने
प्रत्युत्तर
में कहा—
''अरे!
अब क्या बताएं
दादीजी,?. वे
तो विवेकानंद
का ही दूसरा
रूप है। अब वो
क्यों आयेंगे
हमारे साथ
जीमने (भोजन
करने) होंगे
वे कहीं एकांत
में किसी कमरे
में, नहीं
तो मंदिर मैं
ध्यान में
बैठे होंगे।’’
‘‘तब
पारसरानी के
कहे हुए
शब्दों में
मुझे लगा—चलो,
एक पागल
व्यक्ति यहां
भी मिला है।
दूर—दूर रहने
वाला व्यक्ति
मुझे जरा भी
पसंद नहीं। सत
बनकर समाज से
भागों मत।
यहीं समाज में
रहकर काम करो
और मुझे लगा, ये भी ऐसे ही
भगोड़े
संन्यासियों
में से एक हैं।
फिर भी, मन ने
सोचा.. ऐसे
भगोड़ेपन वाले
व्यक्ति भी
हों तो मिलना
तो जरूर है।
देखेंगे क्या
होता है। उनके
भगोड़ेपन को 'चैलेन्ज' तो करेंगे
ही ऐसा सोच—जहां
भोजन के
पश्चात् सारे
लोग हॉल में
बैठे गपशप कर
रहे थे वहां
जाकर देखा तो
वहां भी इनका
कोई अता—पता
नहीं मिला।
वहां अधिकतर
नेताओं की
बातों के माध्यम
बना, राजनीतिक
बातें हो रही
थीं। मुझे इन
राजनीतिक
बातों में जरा
भी दिलचस्पी नहीं
थी। तो सोचा—यहां
से छूटो और
वहां के किसी
कमरे में
उन्हें खोजो
कि किस कमरे
में वे 'दढ़ियल
बाबाजी' बंद
हैं। यहां तो
बेकार ही समय
नष्ट हो रहा
था। इसलिए
चुपचाप खिसको यहां
से।’’
‘‘यह
सोचकर मैं वहां
से दबे पांव
निकली और अन्य
कमरे देखती
हुई तीसरे
कमरे में
पहुंची तो, देखा अरे।
ये महाराज तो
यहां बैठे हुए
हैं।’’
मैंने
कहा—‘‘बजाजवाड़ी
की तीसरी सीढ़ी
से, तीसरे
कमरे तक आखिर
पहुंच गईं आप मां!
उस इमारत की
तीसरी सीढ़ी पर
कदम रखते ही
भगवान का
सर्वप्रथम और
अब तीसरे कमरे
मैं सम्पूर्ण
एकांत में
आपने उनके
दूसरी बार
दर्शन किये।
है ना अजीब
संयोग?'‘‘ 'हां.....उनके
पास ही उनके
कमरे में ही
फडके गुरूजी (चांदा
के ही मां के
एक परिचित)
सोये हुए थे
और चि. रजनीश वहां
उस एकांत में
बैठे हुए दूर
शून्य में
एकटक देख रहे
थे।’’
‘‘वे
किस मुद्रा
में बैठे थे?'' मैं भी मां
के साथ—साथ
उनके अतीत की
फिल्म को 'रिवर्स'
कर देखना
चाहता था, इसलिए
भगवान का एक—एक
हाव—भाव, मुख—मुद्रा
और सारे
व्यक्तित्व
को आंखों से
पी लेना चाहता
था। मां ने हूंबहूं
भगवान की उस
बैठी मुद्रा
का अभिनय कर
मुझे बता दिया।
दोनों पैरों
को घुटेने से
मोड़कर किसी
विशिष्ट
चिंतन में लीन
मुंद्रा को
उन्होंने
स्वीकार कर
बता दिया।
’’विकल,
मुझे शुरू
से ही
शास्त्रों की
एक बात से
विरोध रहा है।
हमारे जैन
शास्त्रों
में तो नारी
को नरक का
द्वार और काली
नागिन तक कहा
गया है। ऐसे
ही हिन्दू—धर्म—ग्रन्थों
में नारी की
लांछना के तो
अनेक किस्से
लिखे पड़े हैं।
मुझे ये
प्रश्न बड़े
तीखे लगते थे,
कि नरक के
द्वार से
भगवान कैसे
पैदा हो जाते
हैं? और
काली नागिन से
तो काला
विषभरा नाग पैदा
होना चाहिए
भगवान और साधु
महात्मा और
इन्सान कैसे
पैदा होते हैं?
ऐसे तर्क
सदा चलते रहते
थे मन में। शास्त्रों
की परम्परा से
चली आई इस
विचारधारा से
मेरा मन बड़ा क्षुब्ध
होता था। मौका
पाते ही मैं
तथाकथित साधु
संन्यासियों से
भिड़ जाने में
नहीं
हिचकिचाती थी।'‘ ‘'सामने
एक संन्यासी
से मिलने के
पूर्व मेरे मन
में इन्हीं
विचारों का ही
द्वंद्व चल
रहा था, इसलिए
उस बजाजवाड़ी
के तीसरे कमरे
की देहरी के
बाहर ही मैं
खड़ी हो गई।
क्यौंकि
स्वाभिमानी
तो थी ही, सो,
सोचा—खुद ही
अपना अपमान
क्यों कराऊं
क्योंकि ये भी
अन्य साधु
महात्माओं
जैसे ही मौनी
बाबा हैं। ये
भी नरक का
द्वार समझकर
नारी की परछाई
से दूर भागते
होंगे। मैं एक
नारी ठहरी और
ये तो
संन्यासी हैं।
कहीं मेरी
परछाई भी पड़
गई तब क्या
होगा? यही
सोच भीतर एकदम
प्रवेश नहीं
किया।
पूर्वाग्रह
के कारण
व्यंग्यात्मक
एवं उलाहने
भरे स्वरों
में चौखट के
बाहर से ही
पूछा—
''क्या
मैं अंदर आ
सकती हूं.'''
''हां
आप आ सकती है।‘’
रजनीश ने कहा।
''उनके
लहजे से ऐसा लगा
जैसे सर्वसामान्य
अन्य और कोई
नारी नहीं आ
सकती....'में
आ सकती हूं।' सुन तो लिए थे
ये शब्द किंतु
मेरी बुद्धि ने
स्वीकारे ये शब्द!
आखिर अभी ये
ऐसा बिभाजन
क्या?'' ....कि, हां ‘आप’ आ सकती है।''
'’ मैने
सोचा--अभी तो
मैं आकर खड़ी
ही हूं यहां।
यह विवाद अभी नहीं
करना है और फिर
चुपचाप भीतर
आकर बैठ गई।
खैर, मुझे
तो मेरे
प्रश्न
मिटाने थे।
जिसे ढूंढ रही
हूं इतने—इतने
जन्मों से, ये वही व्यक्ति
हैं या नहीं।
मेरा पिछले
जन्मों का ये
बेटा ही हो
शायद? इम्तहान
होने के विचार
से भीतर आई थी।
आकर बैठने के
बाद उन्होंने
अपनी बड़ी—बड़ी पलको
को उठाकर मेरी
और निहारा।''
‘‘आप कोई
साधना कर रहे
हैं?'' मैंने
बात करने के
उद्देश्य से
पूछा उनसे।
‘‘हां, कर तो रहा
हूं?'' मुस्करा
उन्होंने
संक्षिप्त
उत्तर दिया।
'' आप जो
साधना कर रहे
हैं क्या मैं
भी कर सकती
हूं?'' मैंने
वार्तालाप को
थोड़ा बढ़ाने के
उद्देश्य से
अगला प्रश्न
कर दिया।
उन्होंने
प्रत्युत्तर
दिया—''हां,
जो मैं कर
रहा हूं, वह
तो आप भी कर
सकती हैं, लेकिन
आप जो, इन
दिनों पढ़ रही
हैं, वह
नहीं कर सकती।''
‘‘मुझे बडा
आश्चर्य हुआ
कि इन्हें कैसे
मालूम हुआ कि
मैं इन दिनों
क्या पढ़ रही
हूं। उन दिनो
विवेकानंद के
साहित्य में
थोड़ी रूचि बढ़
रही थी। फिर
भी मैंने बात
को वहीं
छोड्कर कहा—ठीक
है, लेकिन
एक प्रश्न
आपसे मुझे
पूछना है।’’
'ठीक
है, पूछिए'।
रहस्यपूर्ण
मुस्कान से
परिपूर्ण हो
उन्होंने कहा।
इस पर मैंने
पूछा— ‘‘इंसान
जो होना चाहता
है वह होता
क्यों नही उससे।
मैंने इस—
अधिक खुलासा
कर कहा— अब
जैसे मान लो, कोई अपमान
की भावना है
और वह ये चाहे
कि यह 'अपमान
की भावना उसे
महसूस न हो तो
उसे अपने लिए
चाहकर भी ये
बात पूरी
क्यों नहीं कर
पाता। जो
बातें हम नहीं
चाहते कि हमारे
भीतर आएं वे न
चाहकर भी
क्यों चली आती
हैं? ''
इस
प्रश्न के लिए
भगवान का क्या
उत्तर था? मैं थोड़ा
उत्सुक हुआ
जानने के लिए।
उन्होंने कहा—
‘‘क्या आप
होश में रहती
हैं? ''
‘‘मैंने
कहा— 'बिलकुल
होश में रहती हूं।
बेहोश जिंदगी
में कभी हुई
ही नहीं।’ मैंने
जोश में कह तो
दिया और ऐसा
कहकर मैंने
अपनी पहली
वाली बैठी हुई
मुद्रा बदल दी
थी।’’
इस पर
चि. रजनीश ने
कहा— ‘‘देखिए,
आप प्रश्न
पूछने के पहले
इस तरह पैर
किए बैठी थीं
और प्रश्न का
उत्तर देते समय
आपने हाथ—पांव,
और मुख की
मुद्रा जो
बदली वह क्या
योजना पूर्वक
होश में बदली
या अपने आप वह
बदल गई? ''
‘‘होश
में किया या
अपने आप हो
गया। यह वाक्य
मेरे हृदय में
अनेक
प्रतिध्वनियां
करते हुए बहुत
गहराई तक
उतरता चला गया।
सिर्फ वह
वाक्य कछ देर
तक गुंजता
रहा....गुंजता
रहा... और फिर
शब्द भी खो गए....
सिर्फ ध्वनि मात्र
होता रही....और
फिर मुझे ऐसा
भास होता रहा मानो
वह ध्वनि भी
खोती हुई एक
मौन सन्नाटा
बन चुकी थी।
मुझे एक क्षण
में मानों यह
महसूस सा हुआ
जैसे कोई
प्रश्न ही
नहीं रह गया।
मेरे सारे
प्रश्न हल हो
गए हों।’’
‘‘उनकी
वाणी के एक—एक
अक्षरों से
मेरा रोम—रोम
झंकृत सा हो
गया था। मैंने
सोचा —व्यक्ति
निश्चय ही वही
है। पूरा का
पूरा फल लिया
था मैंने। सब
कुछ मिल गया
था। पांडित्य
तो पहले था।
तत्वज्ञान भी
शब्दों से
ग्रहण किये
बैठी थी मैं।
बीज तो पड़े ही
थे पर अब
अंकुरित होते
से जान पड़े।
मैंने महसूस
कर लिया।’’
‘‘हम
जिस अवस्थ मैं
रहते हैं वह
अवस्था होश
में न होने से
जौ भी घटनाए हमारे
साथ घटित हो
जाती हैं और
हमें पता हौ
नहीं लग पाता।
मन पर पहरा न
होने से ये
हमें पता नहीं
चलता।’’ मां
से मैंने पूछा—
‘‘अपने होश
के संदर्भ में
जितने जोश में
आकर आपने भगवान
को उत्तर दिया।
उस क्षण आपका
सारा अहंकार
धराशायी हो
गया होगा आपका
वहां?’’
''हां!
वह मिथ्या अहं
और जोश समाप्त
हो गया था।
वहां बेहोशी
थी और मुझे
ज्ञात हुआ कि
यदि मैं सदा
होश में रहूं
तो मेरे सवाल
हल हो सकते
हैं। मुझे एक
राह अत्यंत प्रकाश्मश्यी
मिल गई।''
''अपने
जीवन को ऊंचाई
पर लाने में
कितने—कितने
तरीके, कितने
साधु
महात्माओं ने,—सुझाये थे।
किसी ने
तपश्चर्या, किसी ने
भक्ति, किसी:
ने जाप और
किसा ने उपवास
इत्यादि भिन्न
बातें कहीं
थीं, लेकिन
किसी ने भी
होश में रहने
की बात नहीं
बताई थी। यह
योजना प्रभु
की पहले से ही
थी मानो।
ऐसा
लगा मानो....किसी
बहुत बड़े
खजाने की चाबी
मिल गई।''
''इसके
बाद क्या हुआ मां?''
मैंने उनसे
पूछा—
''और
भी कई बातें
हुईं। बात
करते समय मेरे
हृदय के कोने
में यह तो दृढ़
निश्चय हो गया
कि ये है तो
मेरा ही बेटा
लेकिन इसने
मुझे 'मां'
क्यों नहीं
कहा? इसको
भी मेरे मां
होने की
प्रतीति हुई
या नहीं? मैं
तो यह जान गई
कि मैं इसकी मां
हूं किन्तु
इसे भी ये महसूस
हुआ या नहीं? ये प्रश्न
फिर मेरे हृदय
को कचोटते रहे।
मैं छिपा गई
इस बात को नि, मैं तेरी मां
हूं।''
और अब मैंने
उनसे एक दूसरा
ही प्रश्न
किया—''ठीक
है बात समझ
में आई आपकी। लेकिन
दूसरे
संन्यासियों
की तरह आप भी
क्या हिमालय
भाग जायेंगे क्या?''
''इन्होंने
पाया हे, ये
तो मुझे अनुभव
हुआ लेकिन ज्ञान
की समझ के बाद
कहीं ये भी दूसरों
की तरह भगोड़े
महात्मा तो नहीं
है, इसी
कारण मैंने
थोड़ी
व्यंग्यभरी
बात कही।''
इस पर चि.
रजनीश ने उत्तर
दिया— ''यदि
आप नहीं मिलती
तो श्याद चला
जाता।''
इस
वाक्य का स्पष्ट
अर्थ मैं नहीं
जान सकी। यदि
आप नहीं मिलती
तो चला जाता। कुछ
पहेली सरीखी बात
लगी। मुझसे कछ
छिपा रहे है ये, यह भी
महसूस हुआ।
इन्हें भी मुझ
सरीखी कोई भावनात्मक
प्रतीति हुई होगी
क्या? यह भी
मैंने सोचना
चाहा। फिर मन
न खुद को ही सांत्वना
दी कि जब ये
खुद खुलकर
नहीं बोलना चाहते,
तो मैं ही
क्यों बोलूं? अभी चुप ही
रहूंगी मैं तो।'‘ ‘'मैंने
बात को दूसरा
मोड़ दिया.....आप
सबके साथ भी नहीं
बैठे, भोजन
में भी साथ
नहीं थे, सबसे
दूर—दूर ही बने
रहे, आखिर
ऐसा क्यों?'' उन्होंने कहा—मुझे
ये सब बातें
कचरा सी, व्यर्थ
की लगती हैं
और वहां बैठे
बेकार बतियाने
वाले भी कचरा ही
लगते है।''
मुझे मन
में चोट भी
पहुंची कि ये
अजीब आदमी हैं
सबको कचरा—अकरा
बना दिया। मैंने
कहा ठीक है। बात
को थोड़ा और
आगे बढ़ाने के
उद्देश्य से
अगला प्रश्न ऐसे
ही कर दिया—‘’आपकी
उम्र क्या हे?''
तो इस पर
कहने लगे—''आपको
उम्र से क्या
करना है।''
इसके
बाद मेंने
बिना लाग लपेट
के उनसे चांदा
चलने का आग्रह
कर दिया। तो
कहने लगे—‘’ आना ही
पडेगा।''
मैंने
कहा— ''अभी
चलिए मेरे साथ।’’
तो
प्रत्युत्तर
में बोले— ‘‘नहीं, अभी
छुट्टियां
नहीं हैं।’’
इतनी
बातों के हो
चुकने पर मैं
वहां से उठने
का उपक्रम कर
रही थी.. कि
उन्होंने कहा—
‘‘कविता
सुनाइये।’’
‘‘मैं
बड़ी चौंकी।
कविता का नाम
सुनकर मेरा
चौंकना बड़ा
स्वाभाविक था।
क्योंकि वहां
आए लोगों ने
मुझे पहले ही
बता दिया था
कि रजनीश
कविताओं की 'क्रिटिसाइज'
रात को काफी
कर चुके थे।
इसलिए मुझसे
कविता सुनने
की बात से मुझे
आश्चर्यचकित
होना स्वाभाविक
था। मैंने
उनसे कहा—आप
मुझसे कविता
सुनना चाहते
हैं, लेकिन
मैंने तो सुना
है कि आप
कविता को पसंद
ही नहीं करते।
फिर आप मेरी
कविता क्यों
सुनना चाहते
हैं?'' इस पर
कहने लगे— ‘‘उन
लोगों की
कविता का 'क्रिटिसाइज'
किया था।
आपकी कविता
मैं सुनना चाहूंगा।’’
‘‘इस
पर मैंने उनसे
कहा कि ठीक है,
शाम को कवि
गोष्ठी में
पढूंगी आप
अवश्य आइएगा।’’
''और
फिर रात को, लगभग पौन
घटा रजनीश का
भाषण हुआ। बड़ा
ही सुन्दर
भाषण लगा।
उनके विचार
सुनकर मुझे
उसी क्षण ऐसा
लगा कि 'अरे'
यही सब कुछ
तो मैं भी सोचती
रही हूं अपने
मन में।’’
‘‘इनके
भाषण के बाद
बजाजवाड़ी के
ही एक हॉल में
काव्य गोष्ठी
का आयोजन किया
गया था।
अधिकांशत:
स्थानिय
कवियों को ही
आमंत्रित किया
गया था।
गोष्ठी
प्रारंभ हम
करने ही वाले
थे कि रजनीश भी
हॉल में आकर
बैठ गए। कवि
गोष्ठी का
विधिवत
प्रारंभ संचालक
करने ही वाले
थे कि आते ही
मुझसे कविताएं
सुनाने का
आग्रह रजनीश
करने लगे। उस
क्षण सामाजिक
नियमों का
मुझे भी थोड़ा
विचार आया। मन
को अच्छा नहीं
लगा। क्यौंकि
काव्य
गोष्ठियों के
भी अपने कछ
नियम होते हैं,
कछ
मर्यादाएं
होती हैं।
संचालक के आदेश
पर ही प्रत्येक
कवि क्रमानुसार
कविता करता है।
लेकिन प्रवेश
करते ही अन्य
लोगों के
सामने बड़ी
धृष्टता से
मुझसे ही
कविता सुनाने
की बात सुनकर
बड़ा अटपटा सा
लगा।
आते ही
डायरेक्ट
मुझे कह दिया— 'आप
सुनाइये' इस
अवस्था को
देखते ही
मजबूरन अन्य
बैठे हुए लोगों
ने मुझसे फिर
आग्रह कर दिया।’सुनाइये ना'। इस
परिस्थिति
में मैंने एक
कविता प्रेम
संबंधी
उन्हें सुना
दी। जब पहली समाप्त
हुई तो
उन्होंने
दूसरी सुनाने
का तुरन्त आग्रह
कर दिया।’’
‘‘मैंने
सकुचाते हुए
दूसरी भी पढ़कर
सुना दी। तो
पुन: तीसरी
कविता सुनाने
का आग्रह
रजनीश नै कर
दिया। लोगों के
सामने मुझे
बड़ा ही संकोच
अनुभव हो रहा
था। फिर भी
सबसे नजरें
चुराती हुई
मैंने तीसरी
कविता भी
चुपचाप सुना
दी। इस तीसरी
कविता के
तुरन्त बाद वे
चुपचाप उस हॉल
से उठकर अपने
कमरे में चले
गए और जाने के
बाद फिर सब का
थोड़ा चैन सा
मिला। सब लोग
बड़े बेचैन हो
गए थे, उनके
इस कार्य कलाप
से। रात 12 बजे
तक हमारा कवि
सम्मेलन चलता
रहा। रात को
कवि सम्मेलन
की समाप्ति के
बाद मैंने
सोचा, सवेरे
मिलेंगे
फुरसत से। हम
लोग सुबह उठे
तो दाढ़ीवाले
बाबा नहा—धोकर
जबलपुर रवाना
हो चुके थे।
बहुत सी बातें,
बहुत से भाव,
और
अनेकानेक
विचारों से भरी—भरी
में वर्धा से चांदा
लौट कर आई....।’’
''चांदा
आने के बाद
घरवालों से
मैंने एक बात
कही कि जिसे
मैं ढूंढ रही
थी वह मुझे मिला
तो है, किन्तु
उसने अभी तक
मुझे 'मां'
नहीं कहा।
इसलिए मैं कुछ
निश्चित नहीं
कह सकती अभी।
पारखजी ने कहा
—'उन्हें
चांदा आने का
निमंत्रण दे
देती तो ठीक रहता।’
इस पर मैने
संक्षेप में
उनसे वहां
घटित सारी
बातें बता दी।
मैंने उनसे
कहा — 'देखो
क्या बताऊं 'मुझे उसने मां
नहीं कहा' ऐसी
वेदना और टीस
सी होती है
जैसे कि मेरे
सारे रोम—राम
से खून बह
उठेगा। सारा
रोया—सेना चीख—चीख
कर कह रहा वह
यदि 'वही' है तो फिर
मुझे मा कहकर
क्यों नहीं
पुकारा।’’
''मैरी
शांता और
शारदा दौनों
बेटियां भी
कहने लगी — 'जब
तुम्हें यह
लगा कि यही
तुम्हारा बेटा
है, तो एक
बार घर तो ला
ही सकती थी।’ इस पर मैंने
कहा वो, तुम्हारी
बात तो ठीक है,
लेकिन उसने मां
नहीं कहा! इसी
की तो वेदना
हो रही है अभी
तक! मैं कैसे विश्वास
करू कि ये 'वही'
है?''
‘‘इतने
में शारदा
मेरी बेटी, मेरे हृदय
के भावों का
अवलोकन करते—करते
अचानक कह उठी — 'मा
सा (साहब) आपको
जो व्यक्ति मिले
उनका मैं
हुलिया —बताती
हूं। सही—सही'—बताना क्या
सचमुच 'वे'
भी ऐसे ही
थे?' और
उसने उनकी
ऊंचाई, दाढ़ी,
रग, आंखें
हूंबहूं चित्रण
करके कह दी।
मुझे भी उसकी
कल्पना के इस
व्यक्ति की
शक्ल की समानता
वर्धा।। मिले
उस खादी के
शुभ्र
वस्त्रधारी
दाढ़ीवाले महात्मा
से ज्यों की
त्यों प्रतीत
हुई। ये बातें
सुनकर तो मेरी
आत्मा ही मानों
मेरे शरीर से
दूर होती जान
पड़ी।’’
मैं
चुपचाप उस महिमामयी
की व्यथा, वेदना को
उनके चेहरे पर
बनती—बिगड़ती रेखाओं
के बीच देख
रहा था। उनकी
आत्मकथा जारी
रही—
‘‘दूसरे
दिन मुझे
रजनीश फिर से
स्वप्न में
दिखे। अपने
दोनों हाथों
में मुझे
हल्के से उठाकर
वे धीरे—धीरे आकाश
की और मुझे
उठाते हुए ले
गए। बड़ा अचिह्ना
सा संकेत था।’ फिर भी मुझे
इस अवस्था में
रहता पाकर मन
हल्की सी सिहरन
दें गया। ’यदि
पत्र भी डालू।।
किस पते पर?' मैंने सोचा,
मैं तो
सिर्फ नाम ही
जान पाई थी— 'रजनीश' अता—पता
तक पूछने की
सुधि तक नहीं
रह गई थी और
मेरे मन ने
कहा, परमात्मा
हाल की अवस्था
में ही भक्ति
के सम्मुख
आता है। उसकी
दिव्यता का
प्रकाश आंखों
को इतनी
चकाचौंध से भर
देता है।’ कि
उसका अलौकिक
रूप वह चाहकर
भी पूरा नहीं
देख पाता। फिर
सोचने और
समझने की
इंद्रियों
मैं शक्ति, भी कहां रह
पाती होगी?''
मां
अपनी उसी
अवस्था में, लगातार
उसी अतीत के
द्वारों से
झांकती जा रही
थी। पारखजी
मेरी
मनःस्थिति से
परिचित थे
इसलिए उन्होंने
मुझे सुझाव
दिया— 'यदि
पत्र' आपको
लिखना ही हैं
तो प्रो.
रजनीश जबलपुर
भी लिख कर भेज
दें तो पहुच
जायेगा।’ इस
पर मैंने यह
कह कर उस बात
को टाल दी— ‘‘कि
दो—चार दिनों
में ही लिख
दूंगी।’’
तरह—तरह
के विचार और
भावों की आधी
में उड़ी जा
रही थी कि
रजनीश के
पिताजी श्री
बाबूलाल जी का
एक पत्र आया
जिसमें ये
इच्छा व्यक्त
की थी— ‘‘मैं
रजनीश की मां
के दर्शन करना
चाहता हूं। वह
सौभाग्यशाली मा
केसी हैं? कोन
हैं? जो
रजनीश की मां
है, ऐसी
पुण्यशाली मां
के मैं कब चरण
स्पर्श
करूंगा?''
'वर्धा
से लौटकर
रजनीश ने घर
गाडरवाडा
जाकर सबसे मेरे
सम्बन्ध
में कह दिया
था कि उन्हैं
उनकी
पूर्वजन्म की मा
मिली थी और
देखना अब उनका
पत्र मुझे
बुलाने के लिए
आयेगा। यही
कारण था कि
अचानक
गाडरवाडा से
श्री बाबूलालजी
का वह पत्र
मुझे मिला।’’ इस पर आपकी
क्या
प्रतिक्रिया
हुई मां से
मैंने पूछा।’’इस पत्र के
आते ही मुझे
तो मानों सब
कुछ मिल गया
था। समय जैसे
कुछ देर के
लिए ठहर गया
था। मेरे
आसपास की
आवाजों को मैं
भूल चुकी थी मानों
कोई मुझे
मंत्रों से, अभिमंत्रित
सा कर गया।’’ मैंने मां
की उस अवस्था से
उन्हैं पुन:
वर्तमान मैं
लाना चाहा— ‘‘मां साहब। चांदा
में
सर्वप्रथम
उनका आगमन कब
हुआ था।’’ वैसे
मा को वह घटना,
वह दिन, तारीख
अविस्मरणीय
तो थी ही
इसलिए जैसे ही
मैंने उनसे
प्रश्न किया
तुरन्त ही
उनका उत्तर
मौजूद था— ''3
दिसम्बर 1960
को।’’
‘'आने
के पहले आपको
पत्र द्वारा
सूचना तो दी
ही होगी
उन्होंने।’’ ‘'चांदा
आगमन के पूर्व
दो पत्र आए थे।’’
इस पर मैंने
उन अदृश्य
उंगलियों से
लिखे गए उन
भोजपत्रों को
दिखाने का
आग्रह किया। मां
ने, अलमारी
से लाकर
पत्रों का
पुलिदां मेरे
सामने ला दिया।
मैंने, जाने
कितनी बार उन
पत्रों के
अक्षरों का
स्पर्श किया
होगा। मेरी आंखों
में काली
स्याही से
लिखा गई वह
लिखावट गहराई
तक अंकित हो
चुकी हैं। ’क्रांतिबीज'
नाम से
भगवान रजनीश
के वे पत्र
बहुत पहले
प्रकाशित हो
चुके हैं।
मैंने मां के
पास से लेकर
कछ पत्रों को
पलटना शुरू
किया—
जबलपुर
प्रिय
मां
पद
स्पर्श आपका
आशीष पत्र
मिला। मैं
कितना आनंदित हूं
कैसे कहूं? मा जैसी
अमूल्य वस्तु
निर्मूल्य
मिल जाए और वह
भी मुझ जैसे
अपात्र को तो
इसे प्रभु की
अनुकंपा के
अतिरिक्त और
क्या कहूं? उस अचिन्त्य
और अज्ञेय के
स्नेह प्रसाद
की अनुभूति
जैसे—जैसे मुझ
पर प्रगट होती
जा रही है, वैसे—वैसे
मेरा जीवन, आनंद, शांति
और कृतज्ञता
के अमृत बोध से'
भरता जाता
है। आपको पाने
में भी उसका
करूणामय हाथ
ही पीछे है।
यह मैं स्पष्ट
देख पा रहा
हूं।
.....आपको
देखा उसी क्षण
जो आपने पत्र
में लिखा है
वह मुझे दिख
आया था। पत्र
न इसलिए
अचंभित नहीं
किया, बल्कि लगा
कि मैं तो
जैसे उसकी बाट
ही देख रहा था! आपकी
आंखों मैं मातृत्व
का यह स्नेह
मुझे अनदिखा
नहीं रहा था।
मैं
स्वस्थ और
प्रसन्न हूं
किसी छुट्टी
में आने का
प्रयास
करूंगा। अब तो
आना ही पड़ेगा।
जिस स्नेह में
बाध लिया है
उसका आमंत्रण
तो कभी
अस्वीकृत
नहीं होता है।
पत्र
दें और मेरे
योग्य सेवा
लिखें। मेरे
लिए प्रभु से
सदा
प्रार्थना
करती रहें।
सबको मेरा विनम्र
प्रणाम
बच्चों को
मेरा बहुत—बहुत
स्नेह।
रजनीश
के प्रणाम
22 नव. 1960
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