पत्र पाथय—05
संत
तारण तरण
जयंती समारोह
समिति
(सर्व—धर्म—सम्मेलन)
जबलपूर
दिनांक
10 अक्टूबर 1960
प्रिय
मां,
पद—स्पर्श! आपका
प्रीति—पत्र!
एक—एक शब्द
छूता है और आप
बहुत निकट
अनुभव होती हैं।
प्रेम जीवन की
सर्वोत्कृष्ट
अनुभूति है।
उसमें होकर ही
हम प्रभु में
और सत्य में
हो पाते हैं।
प्रेम द्वार
है। ईसा ने तो
कहा है, 'प्रेम
ही प्रभु है।’
इस प्रेम को
विस्तृत करते
जाना है—एक से
अनेक तक, अत
से अनंत तक, अणु से
ब्रह्मांड तक।
इस रहस्यमय
जगत् का एक—एक
कण प्रीति—योग्य
है।
'मिलन
में छुपा हुआ
विरह दिख रहा
है' —ऐसा
आपने लिखा है।
नहीं, मां
ऐसा नहीं है।
प्रेम में
विरह है ही
नहीं। प्रेम
बस मिलन है।
शरीर—बोध से
यह विरह दिखता
है। वह बोध
भ्रान्त है और
दुःख का कारण
है। मैं आप
में मिल गया हूं—अब
अलग होने को ‘‘मैं’‘ कहां
हूं? साधारणत:
मातृत्व
मिलता है
पुत्र को अपने
से अलग करके
पर आप मेरी मां
बनी है। मुझे
अपने में समा
के। मैं आपका
हूं—यह शरीर
भी आपका है।
इसके प्रति
ममता दिखाने
में मैं बाधा कैसे
बन सकता हूं?
मैं 5
दिसम्बर की संध्या
या रात्रि
आपके निकट
पहुंच रहा हूं।
इसके पूर्व 1
सप्ताह तक संत
तारण—तरण
जयंती समारोह
के आयोजनों
में व्यस्त
रहूंगा—
अन्यथा पूर्व
भी पहुंच सकता
था। ट्रेन के
बारे में बाद
में सूचित
करुंगा। शेष
शुभ। शारदा
बहिन को बहुत—बहुत
स्नेह। सबको
मेरे प्रणाम
कहे। साथ में
संत तारण—तरण
पर विगत वर्ष
हुए एक
व्याख्यान का
सार—संक्षिप्त
भी भेज रहा
हूं।
रजनीश
के प्रणाम
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