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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--59)

अध्‍याय—(उन्‍नष्‍ठवां)

मैं बंबई भगवा कपड़ों और माला में लौटने से डर रही हूं। मैं बॉम्बे ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करती हूं जो पूरी बंबई में बसें चलाने वाली एक बड़ी ऑर्गेनाइजेशन है। कोलाबा स्थित मुरव्य ऑफिस में मेरे साथ हजारों लोग काम करते हैं। मैं जब भी छुट्टी पर जाती हूं कभी समय से नहीं लौटती।

घर पर तो मुझे कोई बहुत मुश्किल नहीं आती। मेरे पिताजी इसे साधारण ढंग से ही लेते हैं—क्योंकि मैं आर्थिक रूप से उन पर आश्रित नहीं हूं। किसी तरह साहस जुटाकर मैं भगवा लुंगी—कुर्त्ते व बड़ी सी माला में अपने ऑफिस पहुंचती हूं। जो भी मुझसे मिलता है वह चकित होकर मुझे देखता है। कई लोग सोचते हैं कि मैं हिप्पी बन गई हूं। मेरे सभी साथी घेरकर मुझसे भगवा कपड़ों व माला के बारे में प्रश्न करने लगते हैं। मेरे बॉस इस सारे दिखावे ' के लिए मुझसे नाराज हो जाते हैं। मैं इन मित्रों के बीच खुद को अजनबी महसूस करने लगती हूं।


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