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मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

दस हजार बुद्धो की एक सौ गाथाएं--(अध्‍याय--41)

अध्‍याय—(इक्‍कतालीसवां)

 ट्ठारह दिन के लिए कश्मीर में ''महावीर'' पर एक प्रवचन माला आयोजित की गई है।
ओशो जबलपुर से दिल्ली गाड़ी में आएंगे और फिर दिल्ली से श्रीनगर प्लेन द्वारा। बंबई से हम कोई तीस मित्र हैं जो उन्हें वहां मिलेंगे इसके अलावा दिल्ली से बीस और मित्रों का ग्रुप श्रीनगर आ रहा है।
श्रीनगर में, डल झील के पास छोटी सी पहाड़ी पर बनी कॉटेजेज्ज चश्मे—शाही' में पूरे ग्रुप के ठहरने की व्यवस्था की गई है।
बंबई का ग्रुप वहां अपेक्षाकृत पहले पहूंच जाता है और हमें अपनी—अपनी कॉटेज का चुनाव करने का अवसर मिल जाता है। यह बहुत ही सुंदर स्थान है। मैं चारों ओर घूमकर ऐसी कॉटेज खोजने लगती हूं जिसमें से सबसे सुंदर दृश्य दिखाई देता हो। हर कॉटेज में दो बैडरूम, एक बाथरूम, और एक बड़ा सा लिविंग रूम है।
मैं आखिरी किनारे की कॉटेज चुनती हूं। इसमें पीछे की ओर एक खुला बरामदा है। यहां से चारों ओर का दृश्य भी सबसे सुहावना दिखाई पड़ता है। एक तरफ झील है और दूसरी ओर पहाड़ों से घिरे बड़े—बड़े खेत। मैं सोचती हूं यह जगह ओशो के लिए बहुत अच्छी रहेगी, यहां वे आराम से बैठकर बिना किसी व्यवधान के, प्रकृति का मजा ले सकते हैं। मैं बाथरूम चेक करती हूं, टॉयलेट फ्तश करके देखती हूं और देखती हूं कि गर्म पानी आ रहा है या नहीं। सब कुछ ठीक पाकर मेरी मित्र शीलू और मैं इस कॉटेज के एक कमरे में रुक जाते हैं, इस खयाल के साथ कि जब ओशो आएंगे तो हम यह कमरा खाली कर देंगे। दूसरे कमरे में बंबई के एक दंपति आ गए हैं।
दिल्ली के मित्र भी पहुंच गए हैं। सभी खुश नजर आ रहे हैं। ओशो के साथ लगातार अट्ठारह दिन तक रहने का यह बड़ा अपूर्व अवसर है। दो कारें ओशो को लेने एयरपोर्ट गई हुई हैं। बंबई से हमारे साथ एक रसोइया भी आया है, जो एक हट में रसोई का सामान जमा रहा है। दोपहर 2 बजे ओशो दिल्ली के एक मित्र की कार में क्रांति के साथ पहुंचते हैं। वे यात्रा से बड़े थके हुए लग रहे हैं, लेकिन फिर भी बिना जल्दबाजी के एक—एक व्यक्ति से मिल रहे हैं। दिल्ली के मित्र ओशो को एक कॉटेज में आमंत्रित करते हैं, जो उन्होंने उनके लिए आरक्षित की हुई है। मैं चुपचाप उनके पीछे—पीछे चलने लगती हूं। मुझे लगता है कि ओशो में कोई चुंबकीय ऊर्जा है जो मुझे सदा उनकी ओर खींचती है। जब भी मैं उनके ऊर्जा—क्षेत्र में प्रवेश करती हूं; मैं शिथिल और शांत हो जाती हूं। वे कॉटेज में प्रवेश करते हैं और चारों ओर देखकर मुझे बाथरूम चैक करने को कहते हैं। मैं बाथरूम में जाती हूं और यह पाकर बहुत खुश हो जाती हूं कि वह। गर्म पानी नहीं आ रहा है। वापस आकर मैं उन्हें यह सुझाव देती हूं कि मैंने जो कॉटेज चुनकर रखी है, वे चलकर एक बार उसे देख भी लें और वहां स्नान भी कर लें। दिल्ली के मित्र मुझसे नाराज हो जाते है लेकिन मैं तो सिर्फ ओशो की सुविधा का ख्याल कर रही हूं। मैं उन मित्रों की उपेक्षा करती हूं। ओशो सहमत हो जाते हैं और मैं उन्हें उस कॉटेज में ले जाती हूं जो मैंने चुनकर रखी है। काफी गर्मी है और हमें कोई पांच मिनट धूप में चलना है। वे अपना सिर एक नेपकिन से ढक लेते हैं। मैं अपने पर गर्व महसूस करती हुई उनके साथ—साथ चल रही हूं। वे मुझसे कहते हैं, एयरपोर्ट पर दो कारें देखकर ही मैं समझ गया था कि बंबई और दिल्ली के मित्रों में यह झंझट तो होने ही वाली है।हम कॉटेज पर पहुंच जाते हैं। वे चारों ओर नजर दौड़ाते हैं, पीछे का बरामदा देखते हैं और फिर मेरी ओर देखकर मुस्कुरा देते हैं। हम कमरे में वापस आते हैं, जहां आकर वे बिस्तर पर बैठ जाते हैं और कहते हैं, मैं यही ठहरूंगा।मैं तो यह सुनकर फूली नहीं समाती। किसी को उनका सूटकेस लाने के लिए भेज दिया जाता है। इस बीच मैं अपना सूटकेस बिस्तर के नीचे से निकालकर लिविंगरूम में ले जाती हूं। वे मुझसे पूछते हैं, र्तृ कहां ठहरेगी?' मैं कहती हूं 'ओशो, मुझे पता नहीं। मैं किसी दूसरी कॉटेज में चली जाऊंगी।
वे मुस्कुराकर कहते हैं, कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। तू लिविगरूम में रह सकती है।ओशो की ओर से प्रेम के इस अप्रत्याशित उपहार के मिलने पर मैं तो विश्वास ही नहीं कर पाती। मेरा हृदय आनंद से नाचने लगता है और अहोभाव से आंसू बहने लगते हैं। मैं उनके चरण छूती हूं और वे अपना हाथ मेरे सिर पर रखकर कहते हैं, बहुत बढ़िया।

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