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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--58)

अध्‍याय—(अट्ठावनवां)

 ये भगवा कपड़े दो दिन पहनने के बाद मैं उन्हें धो देती हूं और सुबह के प्रवचन में अपने साधारण कपड़ों में ही जाती हूं। जब वे मेरी ओर देखते हैं तो मुझे लगता है कि मेरे दूसरे कपड़े पहनने से वे खुश नहीं हैं। उनकी नजरों में एक सवाल है, तेरे भगवा कपड़ों को क्या हुआ?'

मैं यह समझ नहीं पाती। उन्हीं एक जोड़ी कपड़ों को मैं तीन दिन तक कैसे पहन सकती हूं?
प्रवचन के बाद मुझे उनके कमरे में बुलाया जाता है। मैं बहुत डर जाती हूं जैसे कि मैंने कोई अपराध किया हो और अब मुझे कोर्ट में जाकर जज का सामना करना पड़ेगा। मैं एक भेड़ की तरह उनके कमरे में प्रवेश करती हूं। वे आंख बंद करके कुर्सी पर बैठे हुए हैं, और मैं उनके चरणों के पास जमीन पर बैठ जाती हूं। उनकी अदृश्य सुंगध में लिपटी हुई, मैं शांत होने लगती हूँ। मैं उनके दमकते हुए चेहरे को अपलक निहारने से स्वयं को रोक नहीं पाती। वे अपनी आंखें खोलते हैं और मुझे देखकर मस्कराते हैं। मेरा सारा भय मिट जाता है।
वे कहते हैं, तुझे अपने सारे दूसरे कपड़े अपने मित्रों में बांट देने हैं और सिर्फ भगवा ही पहनने हैं।मैं उनसे पूछती हूं 'भगवा कपड़ों में मैं ऑफिस कैसे जा सकती हूं? लोग हंसेंगे और समझेंगे कि मैं पागल हो गई हूं।वे हंस पड़ते हैं और कहते हैं, तु पागल तो है ही। लोगों को हंसने दे, तू भी उनके साथ—साथ हंस लेना।मुझे असमंजस में देखकर वे कहते हैं, यह तेरे ऊपर निर्भर है। तू ही फैसला कर कि तू संन्सासिनी बनना चाहती है या नहीं।उनका स्वर ओजस्वीं है और संन्यास के प्रति वे सच में ही गंभीर हैं। वे उठकर बाथरूम मैं चले जाते हैं, मैं पूरी तरह असमंजस में पड जाती हूं।
शाम को उनके कमरे में एक विशेष मीटिंग बुलाई जाती है, जिसमें वे हमें अपने नव सन्यास आंदोलन के विषय में बताते हैं। मैं भारी हृदय लिए मीटिंग से लौटती हूं। मैं इस तगड़ी खुराक को नहीं मचा पा रही हूं। हमें अपने घरों में ही रहना है, अपना काम जारी रखना है और भगवा कपड़े व गले में माला पहननी है। यह आसान तो लगता है लेकिन प्रेक्टिकल नहीं लगता। मैं रात भर सो नहीं पाती। जब मैं अपने घर और ऑफिस भगवा कपड़ों में जाने के दृश्य की कल्पना करती हूं तो मेरा मन हड़बड़ा उठता है।
अपने बिस्तर पर लेटे हुए, मैं अपने मन को ओशो के साथ कुश्ती करते हुए देख रही हूं 1 अंतत: ओशो के प्रति मेरा प्रेम और मेरी श्रद्धा जीत जाते हैं। द्वन्द्वग्रस्त मन अपने को पूरी तरह हारा हुआ पाकर सदगुरू के सामने समर्पण कर देता है। मैं स्वयं से ही कहती हूं 'ओ मेरे प्रियतम, तेरी ही मर्जी पूरी हो।



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