मां आनंदमयी एक परिचय—
अनाभिव्यक्त
संबंधों को
अभिव्यक्त
करने के लिए
लेखनी को
कितनी—कितनी
अग्नि
परीक्षाओं से
गुजरना पड़ता
है यह आज
अनुभूत हो रहा
है मुझे। मां
आनंदमयी से
जाने कितनी
बार मैं मिला
हूं। जाने
कितने जन्मों
में मिले और
बिछुड़े हैं हम।
सुशीला (मां
की छोटी
पुत्री) के
विवाह मैं आचार्य
रजनीश आनेवाले
हैं ऐसा सुन
रखा था। मुझे
सुशीला ने अपनी
सहेली कला के
पड़ोसी मित्र
के रूप में
कौतूहलवश 'आमंत्रित
कर रखा था।
मां से मेरा
परिचय सुशीला
ने कराया...''मां
सा. ये अपनी
कला कपूर के पड़ोसी
प्रोफेसर
विकल गौतम हैं।’‘
मा
मेरी आंखों
में गहराई तक
देखती रही।
मैंने उन्हें
प्रणाम किया।
उनका वरदहस्त
मेरे शीश पर
विवाह के उस
भीड़ भड़क्के
में भी कुछ
क्षणों तक
स्पर्शित
होता रहा था।
1967 के
उन दिनों
भगवान रजनीश
भी आए थे।
सुशीला को
उपहार में एक
सितार भेंट की
थी उन्होंने।
मैं भगवान को
देखने लगा और
साथ ही मां को
भी। मां एकटक
मुझे देखे जा
रही थी... .वहीं
पास खड़ी दुबली
पतली सी लड़की
कला को उसने
उस भीड़ भरे
माहौल में
अपने पास
बुलाया और
मेरे पास खड़ी
रहने का 'आदेश
दिया। ‘‘बहुत
सुंदर जोड़ी
बनेगी री कला!
इस विकल को
बांध लेना, छोड़ना मत। ''
ऐसे
माहौल में भी
इतनी
उम्मुक्तता और
इतनी
प्रेममयी
बातों से, मैं तो
अभिभूत ही हो
गया। सुशीला के
विवाह के एक
वर्ष बाद मुझे
बांध दिया गया
कला के साथ और
सबसे अधिक बंध
गया श्रीमती
मदनकुंवर
पारख के साथ। फिर
उस घर में
मेरा आना जाना
बार—बार होने
लगा। कला का
अपनी सहेली के
घर आना जाना
कम होता गया और
मेरा क्रमश:
बढ़ता ही चला
गया। आजीविका
के लिए
प्राध्यापक के
रूप में
अमरावती जाना
पड़ा, परंतु
चंद्रपुर तो
अक्सर ही जाना
होता रहा।
चंद्रपुर
जाने का मेरे
लिए सलसे बड़ा आकर्षण
मा मदनकुंवर
पारख होती थी।
जबसे मुझे लात
हुआ कि मां
आनंदमयी ही
मदनकुंवर
पारख हैं तबसे
हमारे सबंधों
में अधिक
प्रगाढ़ता और
गुढ्ता का
समावेश होता
गया। मा और
मैं घंटो—घंटे!
भगवान रजनीश
की चर्चा में
डूबे रहते। कब
शाम हो गयी और
कब रात आ जाती
पता ही नहीं
चलता। मां
आनंदमयी का
सम्पूर्ण
व्यक्तित्व
प्रारंभ से
बड़ा ही
गरिमामय— रहा
है। ओशो के, शरीर में
रहते हुए उनके
साथ उनके
संबंधों की गहराई
उनके पत्रों
से हमें ज्ञात
तो आगे होगी ही।
लोग मां
आनंदमयी कौ
चंद्रपुर में
श्रीमती मदनकुंवर
पारख के नाम
से जानते रहे
हैं।
विक्रम
संवत् 1976 को
कार्तिक सुदी
12 उत्तरा
भाद्रपद नक्षत्र
के चौथे चरण (5
नवम्बर 1919) को
चंद्रपुर
जिले की वरोरा
नामक तहसील
में उनके नाना
के यहां उनका
जन्म हुआ है।
बचपन मुंगेली
(छत्तीसगढ़)
में उनकी मौसी
के यहां बीता।
ढाई वर्ष की
उम्र की सारी
बातें आज भी
उन्हें ज्यों
की त्यों
स्मरण हैं।
बचपन बड़ा ही
नटखटपूर्ण
रहा था उनका।
हर वस्तु हर
घटना और हर
व्यक्ति के
व्यक्तिव की
तह में जाने
की जिज्ञासा
ने ही उन्हें
खोजी
प्रवृत्ति
प्रदान की थी।
श्वेताम्बर
जैन परिवार
में उनका जन्म
हुआ था।
अत: दस वर्ष की
आयु से ही संत
समागम के
प्रति, दिनों दिन
उनकी अभिरुचि
बढ़ने लगी थी।
नृत्य, संगीत,
गायन, संस्कृत
भाषा, तत्वज्ञान,
ज्योतिष, आयुर्वेद
का अभ्यास
बचपन से करती
रहीं थीं। दस
वर्षीय
मदनकुंवर की
छोटी सी उम्र
से उनके अचेतन
मस्तिष्क में
सदा एक ऐसा विचार
उन्हें मथता
रहता कि मेरा
कोई पुत्र खो
गया है जिसे
उन्हें जल्दी
ही खोजना है।
दिन, माह, वर्ष बीतते
गये। विवाह हुआ,
गृहस्थी
बनी, सन्तानें
पैदा हुईं
लेकिन एक
विचार सदा बना
रहा कि कोई
बिछुड़ा बेटा
उन्हें शीध्र
ही मिलने वाला
है। श्रीमती
मदनकुंवर
पारख चंद्रपुर
रुढ़िवादी और
परम्परावादी
श्वेताम्बर
जैन परिवार
में रहकर भी
विचारधारा से
बड़ी ही विद्रोहिणी
और सामाजिक
कार्यकर्ता
रही है। घर
में ही लगभग 300
बच्चों की
देखभाल एक
अनाथालय भी
कुशलता से चलाती
रही हैं। इस
कार्य में
उनके पति श्री
रेखचंदजी
पारख भी उनके
सहयोगी रहे
हैं।
1960 में
वर्धा जिला
में जैन
महामंडल की और
से एक उत्सव
में आचार्य
रजनीश से उनकी
सर्वप्रथम
भेंट हुई।
प्रातःकाल की
स्वर्णिम
बेला में
रजनीश स्नानगृह
से सद्य:स्नान
आये ही थे कि
सीढियों के
पास एक दूसरे
से अपने हृदय
में कुछ
गहराईयों का
अनुभव किया।
दृष्टि अपलक
एक दूसरे को
निहारती रही।
रजनीश पहचानी
सी मुद्रा
लेकर खड़े रहे
और हृदय सागर
पूरे वेग से
सभी बांध तोड़कर
उमड़ आया। उस
प्रथम
साक्षात्कार
में जो भी
स्थिति हुई वह
रजनीश और
श्रीमती
मदनकुंवर के अतिरिक्त
कोई कैसे जान
सकता है?
फिर तो
यह सिलसिला जो
शुरू हुआ तो
चलता ही रहा।
उनके संबंधों
की गरिमा को
उनके पत्रों
से हम समझ
सकते हैं। कई
वर्षों तक सतत
पत्राचार
चलता रहा।
रजनीश को ओशो
के रूपांतरण
में एक लम्बी
प्रक्रिया से
गुजरना पड़ा है
इस प्रक्रिया
में मां
आनंदमयी की
प्रेरणा ने भी
अपना सहयोग, प्रत्यक्ष
एवं अप्रत्यक्ष
रूप में अवश्य
ही पहुंचाया
है।
ओशो जब
रजनीश थे, तब अपने
स्नेहियों को
स्वयं ही अपने
हाथों से पत्र
लिखा करते थे।
ऐसे
प्रेमियों की
यह संख्या
हजारों में
होने लगी, तब
मां आनंदमयी
ने उन्हें एक
सर्वप्रथम
टाईपराइटर
उपहार में
दिया था। इससे
उन्हें पत्र लेखन
में काफी मदद
मिली। इसी
प्रकार
आचार्य रजनीश
के प्रवचनों
को सुनने की
उन दिनों धूम
मचने लगी थी।
जो लोग नहीं
सुन पाते उनके
लिए
पुस्तकाकार
रूप में
उन्हें
संकलित करने
की योजना
रजनीश के प्रेमियों
ने की थी।
उनके मित्र और
सहयोगी उनके
प्रवचनों को
सिलसिलेवार
पहले स्मृति
में संजोते
फिर हाथों से
लिखने का
प्रयास करते
रहते थे। फिर
भी बहुत सी बातें
जो अपने.
भाषणों में
आचार्य रजनीश
कहते थे इन मित्रों
से छूट ही
जाती थीं। इस
कार्य को आधुनिक
स्वरूप देने
में मा आनंदमयी
ने अद्भुत
सहयोग दिया था।
ओशो के जीवन
में सबसे पहला
टेप—रिकार्डर
जर्मनी का 'गुरंटेक' मां ने ही
उन्हें उनके
सहयोगियों को
भेंट स्वरूप प्रदान
किया था।
एक युग
रहा है जब
पूरे विश्व
में 'रोल्स
रॉयल' की
संख्या रखने
में ओशो की
बराबरी कोई
नहीं कर सकता
था। गिँनीज
बुक में. भी
संभवत: रोल्स
रॉयल रखने
वाले व्यक्ति
के रूप में
उनका नाम लिखा
गया होगा तो भी
कोई अतिश्योक्ति
नहीं होगी।
किंतु यह भी
उतना ही सच है
कि अपने पुत्र
के व्यस्ततम
कार्यक्रमों
की दौड़धूप को
देखकर
उन्होंने
उनके कार्यक्रमों
को समय से एव
निश्चित
स्वरूप देने
के लिए उन्हें
सर्वप्रथम अपनी
और से कार
सौगात में दी थी।
5 अक्टूबर से 13
अक्टूबर 1973 में
माउंट 'आबू
में लगे ध्यान
शिविर में
लगभग 300
शिविरार्थियों
की उपस्थिति
में भगवान
रजनीश ने
मदनकुंवर
पारख के
चरणस्पर्श कर
उन्हें संन्यास
दिया और अपने
पूर्व जन्म की
मां के रूप
में घोषणा की।
जब भी
चंद्रपुर वे
आते मां
आनंदमयी के
साथ रात्रि के
एकांत में कई
विषयों पर वार्तालाप
किया करते थे।
मां का आदेश उनके
लिए पत्थर की
लकीर होती थी।
माउंट आबू के
शिविर के
उपरांत मां ने
ओशो को
परामर्श दिया—''रजनीश अब
तुम खुद शिविर
लेना बंद कर
दो।'' उसके
बाद से
शिविरों में
खुद जाना ओशो
ने छोड़ दिया।
मां ने एक दिन
पूछा—''मैं तुम्हें
क्या सहयोग दे
सकती हूं
रजनीश?'' तब
ओशो अपने
विदेशी
संन्यासियों
की 15—15, 20—20
टोलियों में
चंद्रपुर मां
के पास भेजते
रहे थे। मां
आनंदमयी उन
विदेशी
संन्यासियों
को भारत की संस्कृति,
रीतिरिवाज,
और यहां के
भौजन इत्यादि
बातों से
परिचित कराती
रहती थी।
चद्रपुर के
पास ही सावली
नामक ग्राम
में उनकी—
खेती थी वे
तहां रहकर
उन्हें यहां
की खेती के
तरीके से भी
परिचय कराती
रहती थी। यह
कार्य 1973 से
लेकर 1977 तक वे
सतत करती रही
थीं।
ओशो के
पत्रों का
उत्तर मां
अक्सर कविताओ के
माध्यम से ही
दिया करती थी।
मां का पत्र पहुचने
मैं भले हो
देरी हो जाये
परंतु ओशो मां
को पत्र लिखने
के लिए अत्यंत
आतुर ही रहा
करते शै।
प्रिय
मां, सोम....
मंगल...बुध और
अब तो बुध भी
जा चुका। वाट
है और पत्र का
पता नहीं है। किस
काम में लगी
हैं? क्या
पत्र की
प्रतीक्षा का
आनंद देने का आपका
भी मन हुआ है।
पर नहीं।
जानता हूं —यह आप
न कर सकेंगी।
कोई उलझन है
इससे चिंतित
हूं। एकांत
रात्रि।
बहुत्व से
चित्र उभरते
हैं।
वर्धा
में
सद्य:स्नाता
आप द्वार पर उस
खड़ी हुई हैं।
वह चित्र
भूलता नहीं।
बहुत सजीव
होकर मन मैं
बैठ गया है।
बार—बार लौट
आता है। तीन
दिन साथ था।
पर चित्र का
जोड़ नहीं है।
बहुत सरल..
बहुत
पवित्र....बहुत
पारदर्शी।
उसमें आप पूरी
की पूरी दिख आईं
थीं।
आज भी
वैसे ही द्वार
पर खड़ी हुईं
हैं। मधुर
मुस्कुराहट
फैलती जाती है
और मुझे घेर
लेती है। फिर
सोचता हम.....पत्र
न सही....आप तो
हैं।
मैं
प्रसन्न
हूं...शांत और
स्वस्थ।
प्रभु की उनंत
अनुकम्पा है
और कृतज्ञता
का भी पार
नहीं है।
कृतज्ञता का
यह बोध ही
जीवन के
कांटों भरे रास्तों
को फूलों से
भर देता है।
मेरा
रास्ता फूलों और
गीतों से भर
गया है।
आशीर्वाद
की प्रतीक्षा मैं
आपका ही
रजनीश
ओशो
ने मा को
प्रात:, दोपहर, संध्या, रात्रि,
अर्धरात्रि,
स्टेशन, विश्रामालय,
ट्रेन
यात्रा से, ऐसे अनेक स्थानों
से पत्र लिखे
हैं। उनकी
यात्रा कहां
है, और कब
किस स्थान पर
मां को आना है,
इत्यादि
सारी—बातों वे
सूक्ष्म लिखकर
भेजते रहे थे
अपने पत्रों में।
मां
का संक्षिप्त
परिचय मैंने
देने का प्रयास
किया है।
परन्तु उनका
यथार्थ परिचय
तो ओशो के
पत्रों के
माध्यम से ही
होगा। इसीलिए
उन पत्रों को
प्रकाशित
करने का यह
उपयुक्त अवसर
हमने चुना है।
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