(अध्याय—उन्नतालीसवां)
गाड़ी अब
कल्याण
स्टेशन से
गुजर रही है
और वह व्यक्ति
दोबारा आया है।
मैं सीट से उठ
खड़ी होती हूं,
और उसे वहां
बैठने को कहती
हूं। वह मुझे
अपना सीट नंबर
देता है, जहां
जाकर मैं बैठ
सकती हूं।
मैं
कुछ मिनट वहां
खड़ी रहती हूं।
ओशो आंखें
खोलते हैं और
उस व्यक्ति का
हाथ अपने
हाथों में
लेकर उसका
स्वागत करते
हैं। मैं अपनी
घड़ी की ओर
देखकर समय नोट
कर लेती हूं।
मैं जैसे ही
सीट से दूर
जाने लगती हूं
मुझे लगता है
मैं एक अलग
संसार में
प्रवेश कर रही
हूं। पूरी
गाड़ी की तरंगें
व ऊर्जा उस
जगह से बिलकुल
ही अलग हैं, जहां
मैं बैठी हुई
थी।
यदि मैं
सारा समय ओशो
के पास बैठी
रहती तो मुझे
यह कभी पता ही
न चल पाता।
मैं उस
व्यक्ति की
सीट पर जाकर आंखें
बंद करके बैठ
जाती हूं।
बाहर बहुत शोर
है, लेकिन
मुझे लगता है
कि जैसे सारी
आवाजें कहीं बहुत
दूर से आ रही
हैं। मैं एक
तंद्रा जैसी
स्थिति में
हूं। अचानक, मेरे बाजू
में खिड़की
वाली सीट—पर
बैठा हुआ
व्यक्ति बाहर
निकलने की
कोशिश करता है
और उसका पैर
मेरे पैर पर
पड़ जाता है।
मैं झटके से
चौंककर उठती
हूं और अपनी
घड़ी की ओर
देखती हूं।
ठीक दस मिनट
हो चुके हैं।
मैं उठकर
जल्दी से अपनी
सीट की ओर आती
हूं। ओशो उस
व्यक्ति से
बात कर रहे
हैं, और
मुझे आता हुआ
देखकर मेरी ओर
मुस्कुराते
हैं। मैं पास
आकर खड़ी हो
जाती हूं और
कुछेक मिनट प्रतीक्षा
करती हूं। जब
वह व्यक्ति
चला जाता है
तो मैं ओशो को
उस व्यक्ति के
बारे में
बताती हूं
जिसका पांव
पड़ने से मेरी
नींद खुली।
ओशो हंसकर
कहते हैं, 'अस्तित्व
बड़े
चमत्कारपूर्ण
ढंग से काम
करता है।’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें