पत्र पाथय—03
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
पद—स्पर्श!
आपका आशीष—पत्र
मिला। जो आनंद
हुआ—कैसे कहूं? आनंद—अनुभूति
शब्दों में
नहीं बंधती है।
शब्द हैं बहुत
असमर्थ, अपाहिज
और अपंग—जीवन
उनमें नहीं समाता
है। जो भी
जीवित है वह
उनमें प्रगट
नहीं हो पाता
है। मन पर ही
उनकी सत्ता और
जड़—पार्थिव
के लिए ही
अभिव्यक्ति
की उनकी
क्षमता है।
एक
जगह जाकर शब्द
चुप हो जाते
हैं और एक नई
ही जीवन्त
भाषा प्रारंभ
हो जाती है।
मौत की भाषा, शांति की
भाषा, प्रीति
की भाषा। यहां
कहां नहीं
जाता पर अनकहा
ही संदेश
पहुंच जाता है।
प्रभु भी तो
इसी भाषा में
बोलता हैं—लहरों
की गतिमयता से,
तारों के
प्रकाश से, फूलों की
प्रफुल्लता
से। और जो चुप
हैं, मौन
हैं, वे
इसे समझ पाते
हैं। शब्द
नहीं है पर
क्या अर्थ
बिना उनके ही
नहीं पहुंच
जाता है? …...शब्दों
के प्रति मेरी
जो कंजूसी
आपको दिखी, उसका यही
कारण है। जीवन
की श्रेष्ठ
अनुभूतियों
की
अभिव्यंजना.......
में शब्द साधक
नहीं, बाधक
हे। मैं जो
कहना चाहता हूं
उसे शब्दों
में कम और बीच
के रिक्त
स्थान में कहीं
ज्यादा प्रकट
पाता हूं!
गांव
में आया हूं।
शहर की अशांति
से थोड़ा
विश्राम मिला
है। दो—चार
दिन यहां
रुकने का मन
है। सुबह
खेतों में
घूमने गया था।
मिट्टी की
सौंधी सुगंध
में डूबा था
कि अचानक आप
दीख पड़ी। बहुत
निकट, बहुत
निकट कि चाहता
तो छू लेता—
सबको
मेरे विनम्र
प्रणाम
रजनीश
के प्रणाम
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