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सोमवार, 31 अगस्त 2015

अंतयार्त्रा--(ध्‍यान शिविर)--प्रवचन--07

ह्रदय—वीणा के सूत्र—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 5 फरवरी, 1968; सुबह।
ध्‍यान शिविर आजोल।
विचार का, थिंकिग का केंद्र मस्तिष्क है; और भाव का, फीलिंग का केंद्र हृदय है; और संकल्प का, विलिंग का केंद्र नाभि है। विचार, चिंतन, मनन मस्तिष्क से होता है। भावना, अनुभव, प्रेम, घृणा और क्रोध हृदय से होते हैं। संकल्प नाभि से होते हैं। विचार के केंद्र के संबंध में कल थोड़ी सी बातें हमने कीं।
पहले दिन मैंने आपको कहा था कि विचार के तंतु बहुत कसे हुए हैं, उन्हें शिथिल करना है। विचार पर अत्यधिक तनाव और बल है। मस्तिष्क अत्यंत तीव्रता से खिंचा हुआ है। विचार की वीणा के तार इतने खिंचे हुए हैं कि उनसे संगीत पैदा नहीं होता, तार ही टूट जाते हैं, मनुष्य विक्षिप्त हो जाता है और मनुष्य विक्षिप्त हो गया है। यह विचार की वीणा के तार थोड़े शिथिल करने अत्यंत जरूरी हो गए हैं, ताकि वे सम—स्थिति में आ सकें और संगीत उत्पन्न हो सके।

विचार से ठीक उलटी स्थिति हृदय की है। हृदय के तार बहुत ढीले हैं। उन्हें थोड़ा कसना जरूरी है, ताकि वे भी सम—स्थिति में आ सकें और संगीत पैदा हो सके। विचार के तनाव को कम करना है और हृदय के ढीले तारों को थोड़ा कसाव देना है।
विचार और हृदय के दोनों तार अगर सम अवस्था में आ जाएं, मध्य में आ जाएं, संतुलित हो जाएं, तो वह संगीत पैदा होगा जिस संगीत के मार्ग से नाभि के केंद्र तक की यात्रा की जा सकती है।
विचार कैसे शिथिल हों, वह हमने कल बात की है। भाव, हृदय के तार कैसे कसे जा सकें वह बात हमें आज सुबह करनी है।
इसके पहले कि हम ठीक से हृदय के संबंध में, भाव के संबंध में कुछ समझें, मनुष्य—जाति एक बहुत लंबे अभिशाप के नीचे जी रही है, उसे समझ लेना जरूरी है। उसी अभिशाप ने हृदय के तारों को बिलकुल ढीला कर दिया है। और वह अभिशाप यह है कि हमने हृदय के सारे गुणों की निंदा की है।
हृदय की जो भी क्षमताएं हैं, उन सबको हमने अभिशाप समझा है, वरदान नहीं समझा। और यह भूल इतनी संघातक है और इस भूल के पीछे इतनी नासमझी और इतना अज्ञान है जिसका कोई हिसाब नहीं है। क्रोध की हमने निंदा की है, अभिमान की हमने निंदा की है, घृणा की हमने निंदा की है, राग की हमने निंदा की है, हर चीज की हमने निंदा की है। और बिना यह समझे हुए कि हम जिन चीजों की प्रशंसा करते हैं वे इन्हीं चीजों के रूपांतरण हैं।
हमने क्षमा की प्रशंसा की है और क्रोध की निंदा की है, और बिना इस बात को समझे हुए कि क्षमा क्रोध की शक्ति का ही परिवर्तित रूप है। हमने घृणा की निंदा की है और प्रेम की प्रशंसा की है, और बिना यह समझे कि घृणा में जो ऊर्जा प्रकट होती है वही रूपांतरित होकर प्रेम में प्रकट होती है। उन दोनों के पीछे प्रकट होने वाली शक्ति भिन्न—भिन्न नहीं है। हमने अभिमान की निंदा की है और विनम्रता की प्रशंसा की है बिना यह समझे हुए कि अभिमान में जो ऊर्जा प्रकट होती है वही विनम्रता बन जाती है। उन दोनों चीजों में बुनियादी विरोध नहीं है, वे एक ही चीज के परिवर्तित बिंदु हैं।
जैसे वीणा के तार बहुत ढीले हैं या बहुत कसे हैं, उन्हें छूता है संगीतज्ञ तो उनसे बेसुरा संगीत पैदा होता है जो कानों को अखरता है और चित्त को घबड़ाता है। वह जो बेसुरापन पैदा हो रहा है, अगर उसके विरोध में आकर कोई तारों को तोड़ डाले और वीणा को पटक दे और कहे कि इस वीणा से बहुत बेसुरा संगीत पैदा होता है, यह तो तोड़ देने जैसी है, तो वीणा तो वह तोड़ सकता है, लेकिन वह भी याद रख ले कि संगीत भी उसी वीणा से पैदा हो सकता था जिससे बेसुरे स्वर पैदा हो रहे थे। बेसुरापन वीणा का कसूर न था, वीणा अव्यवस्थित थी, इस बात की भूल थी। वही वीणा सुव्यस्थित होती, तो जिन तारों से बेसुरापन पैदा होता था, उन्हीं से प्राणों को मुग्ध कर देने वाला संगीत पैदा हो सकता था।
स्वर और बेस्वर एक ही तार से पैदा होने वाली चीजें हैं, यद्यपि बिलकुल विरोधी मालूम होती हैं और दोनों के परिणाम विरोधी हैं। और दोनों में एक आनंद की तरफ ले जाती है, एक दुख की तरफ ले जाती है, लेकिन दोनों के बीच में एक ही तार है और एक ही वीणा है। वीणा अव्यवस्थित हो, अराजक हो, तो बेसुरापन पैदा होता है। मनुष्य के हृदय से क्रोध पैदा होता है; अगर मनुष्य का हृदय सुव्यवस्थित, संयोजित, संतुलित नहीं है। वही हृदय संतुलित हो जाए, तो जो शक्तियां क्रोध में प्रकट होती हैं, वे ही शक्तियां क्षमा में प्रकट होनी शुरू हो जाती हैं। क्षमा क्रोध का ही रूपांतरण है।
अगर कोई बच्चा बिना क्रोध के पैदा हो जाए तो एक बात निश्चित है, उस बच्चे के जीवन में क्षमा कभी भी प्रकट नहीं हो सकती। अगर किसी बच्चे के हृदय में घृणा की कोई संभावना न हो, तो उस बच्चे के हृदय में प्रेम की भी कोई संभावना नहीं रह जाएगी।
लेकिन हम इस भूल के नीचे जीए हैं अब तक कि ये दोनों विरोधी चीजे हैं और इसमें एक का विनाश करेंगे तो दूसरा विकसित होगा। यह बिलकुल ही भूल भरी बात है, इससे ज्यादा खतरनाक कोई शिक्षा नहीं हो सकती, अमनोवैज्ञानिक, अत्यंत अबुद्धिपूर्ण यह बात है। क्रोध के विनाश से क्षमा उत्पन्न नहीं होती, क्रोध के रूपांतरण से, क्रोध के ट्रांसफामेंशन से, क्रोध के परिवर्तन से क्षमा उपलब्ध होती है। क्षमा क्रोध का नष्ट हो जाना नहीं है, बल्कि क्रोध का संतुलित और संगीतपूर्ण हो जाना है।
इसलिए अगर हम क्रोध के विरोध में हैं और क्रोध को नष्ट करने का उपाय कर रहे हैं, तो हम वीणा को ही तोड्ने का उपाय कर रहे हैं। और एक ऐसा मनुष्य पैदा होगा जो अत्यंत दीन—हीन होगा, जिसके हृदय की कोई भी शक्तियां विकसित नहीं हो पाएंगी। यह वैसे ही है जैसे किसी आदमी ने अपने घर के पास खाद का ढेर लगा रखा हो, तो उसके घर के आस—पास गंदगी फैल रही हो, बदबू फैल रही हो, और वह आदमी परेशान हो कि माली तो कहता था कि खाद लाने से फूल पैदा होते हैं और फूलों से सुगंध आती है, और हमारे घर में हमने खाद लाकर रख ली है तो दुर्गंध फैल रही है, घर बदबू से भरा जा रहा है, जीना मुश्किल हुआ जा रहा है।
खाद लाने से जरूर फूल पैदा हो सकते हैं, लेकिन घर में खाद को भर लेने से नहीं। खाद का रूपांतरण होता है। बीजों के माध्यम से खाद फूलों में प्रवेश करती है और खाद की जो दुर्गंध थी वह एक दिन फूलों की सुगंध में परिवर्तित हो जाती है। लेकिन खाद को घर में भर लेने से तो कोई पागल हो जाएगा और खाद को फेंक देने से उसके फूल निर्जीव हो जाएंगे, निस्तेज हो जाएंगे। लेकिन खाद का रूपांतरण है, दुर्गंध सुगंध में परिवर्तित हो सकती है।
इसी कीमिया, इसी केमिस्ट्री का, इसी अल्केमी का नाम योग है। इसी अल्केमी का नाम धर्म है। जो जीवन में व्यर्थ है उसको सार्थक की दिशा में परिवर्तित करने की जो कला है वही धर्म है।
लेकिन धर्म के नाम पर हम आत्मघात कर रहे हैं, सुसाइड कर रहे हैं। धर्म के नाम पर हमारी चेतना परिवर्तित नहीं होती है। कोई बुनियादी भूलों के भीतर हम जी रहे हैं, कोई गहरी अभिशाप की छाया हमको पकड़े हुए है। हृदय इसलिए अविकसित रह गया कि हृदय के मौलिक गुणों के ही विरोध में हम खड़े हो गए। यह बात थोड़ी समझ लेनी जरूरी है।
मैं देख पाता हूं कि मनुष्य का अगर ठीक—ठीक विकास हो तो उसके जीवन में क्रोध का भी अपना अनिवार्य स्थल है, क्रोध की भी अपनी जगह है, उसके संपूर्ण जीवन के चित्र में क्रोध का भी अपना रंग है। और अगर उसे हम बिलकुल अलग कर दें तो उसके जीवन का चित्र किन्हीं न किन्हीं अर्थों में अधूरा रह जाएगा, उसमें कोई रंग की कमी रह जाएगी। लेकिन बचपन से ही हम सिखाना शुरू करते हैं कि इन सारी चीजों को अलग कर देना है, और अंधों की तरह हम बच्चों के पीछे पड़ जाते हैं इन सारी चीजों को अलग कर देने के लिए। अलग करने का कुल एक ही परिणाम हो सकता है कि जो—जो हम बुरा कहते हैं बच्चा उसे दबा कर बैठ जाए, अपने भीतर सप्रेस कर ले, दमन कर ले। दमित हृदय शिथिल हृदय होगा, उसके तार ठीक—ठीक खिंच नहीं पाएंगे, और फिर यह जो दमन होगा, यह होगा बुद्धि के द्वारा, क्योंकि सब शिक्षा बुद्धि से गहरे नहीं जाती।
आप किन्हीं भी बच्चे को सिखाएं कि क्रोध बुरा है, तो आपकी यह शिक्षा हृदय तक पहुंचने वाली नहीं है। हृदय के पास सुनने के लिए कोई कान नहीं है और हृदय के पास सोचने के लिए कोई शब्द नहीं है। यह सारी शिक्षा बुद्धि में जाएगी और बुद्धि हृदय को परिवर्तित नहीं कर सकती है, तो एक कठिनाई पैदा हो जाएगी। बुद्धि सोच लेती है कि क्रोध करना बुरा है।
आप रोज क्रोध करते हैं और पीछे पछताते हैं कि क्रोध करना बुरा है, आगे मैं क्रोध नहीं करूंगा। लेकिन यह बुद्धि का केंद्र सोच रहा है और हृदय के केंद्र को इस बात की कोई खबर नहीं कि क्रोध बुरा है और अब आगे क्रोध नहीं करूंगा। कल फिर सुबह आप उठते हैं और जरा सी बात से क्रोध फिर शुरू हो जाता है। आप बहुत हैरान होते हैं कि मैंने पच्चीसों दफे तय किया कि मैं अब क्रोध नहीं करूंगा, यह क्रोध फिर क्यों आ जाता है! मैं कितनी बार पश्चात्ताप कर चुका, फिर भी क्रोध क्यों आ जाता है?
आपको पता ही नहीं है कि क्रोध करने वाला केंद्र अलग और पश्चात्ताप और विचार करने वाला केंद्र बिलकुल अलग है। जो केंद्र निर्णय करता है कि मैं क्रोध नहीं करूंगा वह बिलकुल भिन्न है और जो केंद्र क्रोध करता है वह बिलकुल भिन्न है। ये बिलकुल दो अलग केंद्र हैं, इसलिए पश्चात्ताप और निर्णय का कोई परिणाम आपके क्रोध पर कभी भी नहीं पड़ता। आप क्रोध भी किए जाते हैं और पश्चात्ताप भी किए जाते हैं और दुखी भी हुए चले जाते हैं। जीवन भर आपको खयाल में भी नहीं आता कि कहीं ये दोनों केंद्र इतने पृथक तो नहीं हैं कि इनका एक का निर्णय दूसरे तक पहुंच ही नहीं पाता।
आदमी एक आंतरिक विघटन में, एक डिसइटीग्रेशन में पड़ जाता है। हृदय का केंद्र और ही तरह से काम करता है, उस केंद्र के विकास के लिए कुछ और ही रास्ते हैं। बुद्धि उस केंद्र में बाधा देगी तो वह केंद्र केवल शिथिल और अस्त—व्यस्त होगा, अनार्किक होगा। और हम सबका हृदय का केंद्र बिलकुल ही अराजक हो गया है, बिलकुल अव्यवस्थित हो गया है।
पहली बात, निश्चित ही क्रोध रूपांतरित होना चाहिए, लेकिन नष्ट नहीं।
यह पहला सूत्र हृदय के तारों को कसने के लिए यह है हृदय के गुणों का विकास, विध्वंस नहीं। यह पहला सूत्र ठीक से समझ लेने की जरूरी है। हृदय के सारे गुणों का विकास, विध्वंस नहीं। आप थोड़े मुश्किल में पड़ेंगे, थोड़ा सोच में पड़ेंगे कि क्रोध का भी विकास करना चाहिए? मैं आपको कहूंगा निश्चित ही विकास होना चाहिए, क्योंकि विकसित क्रोध ही फिर एक दिन रूपांतरित होकर क्षमा बन सकता है, अन्यथा कभी भी क्षमा जीवन में उत्पन्न नहीं हो सकती। क्रोध की अपनी गरिमा और अपना गौरव है। दुनिया में जो बड़े से बड़े क्षमाशाली लोग हुए हैं, अगर आप उनका जीवन पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि वे अपने प्राथमिक दिनों में बड़े से बड़े क्रोधी लोग थे।
दुनिया में जो बड़े से बड़े ब्रह्मचारी हुए हैं, अगर आप उनका जीवन पढ़ेंगे तो पाएंगे कि अपने प्राथमिक जीवन में उनसे ज्यादा कामुक, उनसे ज्यादा सेक्सुअल और कोई भी नहीं था। गांधी के जीवन में इतना ब्रह्मचर्य फलित हुआ, यह गांधी के प्राथमिक जीवन की अति कामुकता का फल है। गांधी अति कामुक थे।
जिस दिन गांधी के पिता की मृत्यु हुई, चिकित्सकों ने कह दिया था कि पिता आज रात बच नहीं सकेंगे, उस रात भी गांधी अपनी पत्नी से दूर नहीं रह सके। वह अंतिम रात थी। बाप के मरने की रात थी। उस रात पिता के पास बैठना सहज ही स्वाभाविक था, क्योंकि अंतिम विदा थी, इसके बाद पिता से फिर मिलना नहीं हो सकेगा। लेकिन आधी रात गए गांधी अपनी पत्नी के पास पहुंच गए। वहां पिता मरे, तब पत्नी के पास बिस्तर पर ही गांधी थे। इसकी एक बहुत तीव्र चोट गांधी के चित्त पर पहुंची। गांधी का बाद का सारा ब्रह्मचर्य इसी चोट से विकसित हुआ। यह जो अति कामुक चित्त था, यह ठीक, इसकी सारी ऊर्जा और सारी शक्ति ब्रह्मचर्य की तरफ फलित हो गई।
यह कैसे हो सका? यह इसलिए हो सका कि शक्तियां हमेशा तटस्थ होती हैं, सिर्फ दिशाओं का परिवर्तन होता है। जो शक्ति सेक्स की तरफ बहती थी, वह सारी शक्ति विपरीत दिशा की तरफ बहनी शुरू हो गई। लेकिन शक्ति थी तो विपरीत बह सकी और शक्ति ही न हो तो विपरीत क्या खाक बहेगी! शक्ति हो तो दूसरी दिशा में भी जा सकती है, लेकिन शक्ति ही न हो तो दूसरी दिशा में क्या जाएगा, कौन सी चीज जाएगी?
सारी शक्तियां ठीक—ठीक विकसित होनी चाहिए। मनुष्य को नैतिक शिक्षाओं के भ्रम ने अत्यंत दीन— हीन, इंपोटेंट, अत्यंत वीर्यहीन बना दिया है। पुराने लोग हमसे ज्यादा गहरे अर्थों में जीवन को अनुभव करते थे।
अकबर के दरबार में दो राजपूत युवक आए। दोनों भाई थे। और अकबर से जाकर उन्होंने कहा कि हम कोई नौकरी खोजने की तलाश में निकले हैं। अकबर ने कहा तुम करना क्या जानते हो? उन्होंने कहा हम और तो कुछ नहीं करना जानते, लेकिन हम बहादुर लोग हैं। हो सकता है हमारी आपको कोई जरूरत हो। अकबर ने कहा बहादुरी का प्रमाण—पत्र लाए हो कोई? क्या सबूत कि तुम बहादुर हो? वे दोनों हंसने लगे। और उन्होंने कहा बहादुरी का भी कोई प्रमाण—पत्र होता है? हम बहादुर हैं। अकबर ने कहा बिना प्रमाण—पत्र के नौकरी नहीं मिल सकती। वे दोनों हंसे, उन्होंने तलवारें निकालीं और एक—दूसरे की छाती में एक सेकेंड में वे तलवारें घुस गईं। अकबर तो देखता ही रह गया। वे दोनों जवान जमीन पर पड़े थे, लहू का फव्वारा बह रहा था, लेकिन वे हंस रहे थे। उन्होंने कहा कि अकबर, तुझे पता ही नहीं कि बहादुरी का एक ही प्रमाण—पत्र हो सकता है, और वह मौत है। और तो कोई प्रमाण—पत्र नहीं हो सकता। वे दोनों मर गए। अकबर की आंख में आंसू आ गए। उसकी कल्पना भी न थी कि यह ऐसी घटना घट जाएगी।
एक राजपूत सेनापति को उसने बुला कर कहा कि एक बड़ी दुर्घटना हो गई। दो राजपूत लड़ कर हत्या कर लिए। मैंने पूछ लिया प्रमाण—पत्र! उस राजपूत ने कहा आपने बात ही गलत पूछी। यह तो किसी भी राजपूत के खून को खौला देगी। बहादुरी का कोई और प्रमाण—पत्र हो सकता है, सिवाय मौत के! सिर्फ कायर और कमजोर सर्टिफिकेट ला सकते हैं कि हां यह बहादुरी का सर्टिफिकेट हमारे पास लिखा हुआ रखा है। हम फलां आदमी से लिखवा कर लाए हैं कि यह बहादुर है। क्योंकि कोई बहादुर किसी आदमी से लिखवा सकता है कि मैं बहादुर हूं! कोई कैरेक्टर सर्टिफिकेट ला सकता है! आपने बात ही गलत पूछी। आपको पता ही नहीं है कि राजपूत से कैसे पूछना चाहिए! ठीक किया, और यही हो सकता था, और कोई रास्ता ही नहीं था। यही सीधा विकल्प था।
यह जो, यह जो इतना तीव्र क्रोध है, जो इतनी तेजस्विता है, यह व्यक्तित्व की बड़ी महिमापूर्ण गरिमा है। इससे सारी मनुष्य—जाति हीन होती चली जाती है। आदमी की सारी तेजस्विता, सारा वीर्य नष्ट होता चला जाता है और हम समझते हैं कि हम बहुत अच्छी शिक्षाओं के अंतर्गत यह कर रहे हैं। यह बहुत अच्छी शिक्षाओं के अंतर्गत नहीं हो रहा है। बच्चों का सारा विकास गलत नियमों के अनुकूल हो रहा है, उनके भीतर पुरुष का कुछ भी विकसित नहीं हो पाता।
एक बहुत प्रसिद्ध लामा ने अपनी आत्म—कथा में लिखा है कि जब मैं पांच वर्ष का था, तो मुझे विद्यापीठ में पढ़ने के लिए भेजा गया। रात को मेरे पिता ने मुझसे कहा—तब मैं कुल पांच वर्ष का था— रात को मेरे पिता ने मुझसे कहा कि कल सुबह चार बजे तुझे विद्यापीठ भेजा जाएगा। और स्मरण रहे, सुबह तेरी विदाई के लिए न तो तेरी मां होगी और न मैं मौजूद रहूंगा। मां इसलिए मौजूद नहीं रखी जा सकती कि उसकी आंखों में आंसू आ जाएंगे। और रोती हुई मां को छोड़ कर तू जाएगा तो तेरा मन पीछे की तरफ, पीछे की तरफ होता रहेगा और हमारे घर में ऐसा आदमी कभी पैदा नहीं हुआ जो पीछे की तरफ देखता हो। मैं इसलिए मौजूद नहीं रहूंगा कि अगर तूने एक भी बार घोड़े पर बैठ कर पीछे की तरफ देख लिया, तो तू फिर मेरा लड़का नहीं रह जाएगा, फिर इस घर का दरवाजा तेरे लिए बंद हो जाएगा। नौकर तुझे विदा दे देंगे सुबह। और स्मरण रहे, घोड़े पर से पीछे लौट कर मत देखना। हमारे घर में कोई ऐसा आदमी नहीं हुआ जो पीछे की तरफ लौट कर देखता हो। और अगर तूने पीछे की तरफ लौट कर देखा, तो समझ लेना इस घर से फिर तेरा कोई नाता नहीं।
पांच वर्ष के बच्चे से ऐसी अपेक्षा? पांच वर्ष का बच्चा सुबह चार बजे उठा दिया गया और घोड़े पर बिठा दिया गया। नौकरों ने उसे विदा कर दिया। चलते वक्त नौकर ने भी कहा बेटे होशियारी से! मोड़ तक दिखाई पड़ता है, पिता ऊपर से देखते हैं। मोड़ तक पीछे लौट कर मत देखना। इस घर में सब बच्चे ऐसे ही विदा हुए, लेकिन किसी ने पीछे लौट कर नहीं देखा। और जाते वक्त नौकर ने कहा कि तुम जहां भेजे जा रहे हो वह विद्यापीठ साधारण नहीं है। वहां देश के जो श्रेष्ठतम पुरुष......उस विद्यापीठ से पैदा होते हैं। वहां बड़ी कठिन परीक्षा होगी प्रवेश की। तो चाहे कुछ भी हो जाए, हर कोशिश करना कि उस प्रवेश—परीक्षा में प्रविष्ट हो जाओ। क्योंकि वहां से असफल हो गए तो इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं रह जाएगी।
पांच वर्ष का लड़का, उसके साथ ऐसी कठोरता! वह घोड़े पर बैठ गया और उसने अपनी आत्म—कथा में लिखा है कि मेरी आंखों में आंसू भरने लगे, लेकिन पीछे लौट कर कैसे देख सकता हूं उस घर को, पिता को......जिस घर को छोड़ कर जाना पड़ रहा है मुझे अनजान में। इतना छोटा हूं। लेकिन लौट कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि मेरे घर में कभी किसी ने लौट कर नहीं देखा। और अगर पिता ने देख लिया तो फिर इस घर से हमेशा के लिए वंचित हो जाऊंगा, इसीलिए कड़ी हिम्मत रखी और आगे की तरफ देखता रहा, पीछे लौट कर नहीं देखा।
इस बच्चे के भीतर कोई चीज पैदा की जा रही है। इस बच्चे के भीतर कोई संकल्प जगाया जा रहा है, जो इसके नाभि—केंद्र को मजबूत करेगा। यह बाप कठोर नहीं है, यह बाप बहुत प्रेम से भरा हुआ है। और हमारे सब मां—बाप गलत हैं जो प्रेम से भरे हुए दिखाई पड़ रहे हैं, वे भीतर के सारे केंद्रों को शिथिल किए दे रहे हैं। भीतर कोई बल, कोई संबल खड़ा नहीं किया जा रहा है।
वह स्कूल में पहुंच गया। पांच वर्ष का छोटा सा बच्चा, उसकी क्या सामर्थ्य और क्या हैसियत! स्कूल के प्रधान ने, विद्यापीठ के प्रधान ने कहा कि यहां की प्रवेश—परीक्षा कठिन है। दरवाजे पर आंख बंद करके बैठ जाओ और जब तक मैं वापस न आऊं तब तक आंख मत खोलना, चाहे कुछ भी हो जाए। यही तुम्हारी प्रवेश— परीक्षा है। अगर तुमने आंख खोल ली तो हम वापस लौटा देंगे, क्योंकि जिसका अपने ऊपर इतना भी बल नहीं है कि कुछ देर तक आंख बंद किए बैठा रहे, वह और क्या सीख सकेगा? उसके सीखने का दरवाजा खत्म हो गया, बंद हो गया। फिर तुम उस काम के लायक नहीं हो, फिर तुम जाकर और कुछ करना। पांच वर्ष के छोटे से बच्चे को...!
वह बैठ गया दरवाजे पर आंख बंद करके। मक्खियां उसे सताने लगीं, लेकिन आंख खोल कर नहीं देखना है, क्योंकि आंख खोल कर देखा तो मामला खत्म हो जाएगा। छोटे—मोटे जो दूसरे बच्चे स्कूल में आ— जा रहे हैं, कोई उसे धक्का देने लगा है, कोई उसको परेशान करने लगा है, लेकिन आंख खोल कर नहीं देखना है, क्योंकि आंख खोल कर देखा तो मामला फिर खराब हो जाएगा। और नौकरों ने आते वक्त कहा है कि अगर प्रवेश—परीक्षा में असफल हो गए तो यह घर भी तुम्हारा नहीं।
एक घंटा बीत गया, दो घंटे बीत गए, वह आंख बंद किए बैठा है और डरा हुआ है कि कहीं भूल से भी आंख न खुल जाए और आंख खोलने के सब टेम्पटेशन मौजूद हैं वहां। रास्ता चल रहा है, बच्चे निकल रहे हैं, मक्खियां सता रही हैं, कोई बच्चे उसे धक्के देते जा रहे हैं, कोई बच्चा कंकड़ मार रहा है। और उसे आंख खोलने का सब मन होता है कि देखे......कि अब तक गुरु नहीं आया। एक घंटा, दो घंटा, तीन घंटा, चार घंटा—उसने लिखा है कि छह घंटे!
और छह घंटे बाद गुरु आया और उसने कहा बेटे, तेरी प्रवेश—परीक्षा पूरी हो गई। तू भीतर आ, तू संकल्पवान युवक बनेगा। तेरे भीतर संकल्प है, तेरे भीतर विल है, तू जो चाहे कर सकता है। पांच—छह घंटे इस उम्र में आंख बंद करके बैठना बड़ी बात है। उसने उसे छाती से लगा लिया और उसने उसे कहा तू हैरान मत होना, वे बच्चे तुझे सताने नहीं.. सता नहीं रहे थे, वे बच्चे भेजे गए थे। उन्हें कहा गया था कि तुझे थोड़ा परेशान करेंगे ताकि तेरा आंख खोलने का खयाल आ जाए।
उस लामा ने लिखा है. उस वक्त तो मैं सोचता था मेरे साथ बड़ी कठोरता बरती जा रही है, लेकिन अब जीवन के अंत में मैं धन्यवाद से भरा हूं उन लोगों के प्रति जो मेरे प्रति कठोर थे। उन्होंने मेरे भीतर कुछ सोई हुई चीजें पैदा कर दीं, कोई सोया हुआ बल जग गया।
लेकिन हम उलटा कर रहे हैं—बच्चे को डांटना भी मत, मारना भी मत! और अभी तो सारी दुनिया में कार्पोरल पनिशमेंट बिलकुल बंद कर दिया गया है। बच्चे को कोई चोट नहीं पहुंचाई जा सकती, कोई शारीरिक दंड नहीं दिया जा सकता। यह निहायत बेवकूफी से भरी बात है, क्योंकि जिन बच्चों को किसी तरह का दंड नहीं दिया जा सकता—दंड अत्यंत प्रेमपूर्ण था, वह शत्रुता नहीं थी बच्चों के प्रति—क्योंकि उनके भीतर सोए हुए कुछ सेंटर्स उसी के अंतर्गत जागते थे। उनके भीतर रीढ़ खड़ी होती थी, मजबूत होती थी। उनके भीतर कोई बल पैदा होता था। उनके भीतर क्रोध भी जगता था और अभिमान भी जगता था और उनके भीतर कोई रीढ़ खड़ी होती थी।
हम बेरीढ़ के आदमी पैदा कर रहे हैं, जो जमीन पर सरक सकते हैं, लेकिन बाज पक्षियों की तरह आकाश में नहीं उड़ सकते। एक सरकता हुआ, रेंगता हुआ आदमी हम पैदा कर रहे हैं जिसके पास कोई रीढ़ नहीं। और हम सोचते हैं कि हम दया और प्रेम और नीति के अंतर्गत यह कर रहे हैं। और उसको भी हम यही सिखाते हैं कि क्रोध मत करना, उसको भी हम यही सिखाते हैं कि तेरे भीतर कोई तेजस्विता प्रकट न हो, तू बिलकुल शांत और ढीला—ढाला आदमी बनना, शिथिल।
इस आदमी के जीवन की कोई आत्मा नहीं हो सकती, इस आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा के लिए जैसी तीव्र सारे हृदय की भावनाएं होनी चाहिए, वे उसके भीतर कोई भी नहीं होने वाली हैं।
एक मुसलमान खलीफा था, उमर। एक शत्रु से बारह वर्षों से उसका युद्ध चलता था। बामुश्किल आखिरी लड़ाई में उसने शत्रु के घोड़े को मार डाला और उसकी छाती पर सवार हो गया, शत्रु के। उसने भाला उठाया और वह छाती में छेदने को था, तभी उस शत्रु ने उमर के ऊपर यूक दिया। उमर ने भाला अलग फेंक दिया, उठ कर खड़ा हो गया। वह शत्रु हैरान हुआ। उसने कहा कि उमर, बारह वर्षों के बाद ऐसा अवसर तुम्हें मिला था, इसे क्यों चूकते हो? उमर ने कहा. मैं तो सोचता था कि तू मेरे मुकाबले का दुश्मन है, लेकिन यूक कर तूने मेरे मुंह पर ऐसी नीचता प्रकट की है कि अब तुझे मारने का कोई सवाल नहीं रहा। तूने ऐसी मीननेस जाहिर की है, जो एक बहादुर का लक्षण नहीं है। मैं तो सोचता था कि तू मेरे मुकाबले का आदमी है, इसलिए बारह साल से लड़ाई चलती थी।
लेकिन जब भाला उठा कर मैं तेरे ऊपर मारने लगा, तूने मेरे ऊपर यूक दिया, जो एक बहादुर का लक्षण नहीं है। तो तुझे मार कर मारने का पाप लेने वाला मैं नहीं हूं— दुनिया क्या कहेगी कि कमजोर आदमी को मारा, जो थूकने की ताकत रखता था और कोई ताकत नहीं। इसलिए बात खत्म हो गई, अब तुझे मारने का पाप मैं लेने वाला नहीं हूं।
ये जो लोग थे, अदभुत लोग थे। दुनिया में अस्त्र—शस्त्रों और मशीनों की ईजाद ने आदमी के भीतर जो भी महत्वपूर्ण था, उस सबको नष्ट कर दिया। सीधी लड़ाइयों का अपना मूल्य था। मनुष्य के भीतर छिपी हुई चीजों को वे प्रकट कर देती थीं। आज एक सैनिक कोई सीधी लड़ाई नहीं लड़ता। हवाई जहाज में उड़ कर बम पटक देता है, उससे बहादुरी का कोई संबंध नहीं। उससे भीतर के गुणों का कोई वास्ता नहीं। एक मशीनगन पर बैठ कर बटन दबाता रहता है, उससे कोई वास्ता नहीं।
तो आदमी की जिंदगी में जो भी छिपा हुआ था, उसके जगने की सारी संभावना क्षीण हो गई है और तब आदमी इतना दीन—हीन, इतना दुर्बल दिखाई पड़ता है तो कोई आश्चर्य नहीं है! उसका ऑथेंटिक बींइग पैदा ही नहीं हो पाता। उसके भीतर सारे तत्व जुड़ कर खड़े नहीं हो पाते।
और हमारी शिक्षाएं सब हैरानी से भरने वाली हैं। मेरी दृष्टि में मनुष्य के भीतर के सारे गुणों का तीव्रतम, चरम विकास होना चाहिए, पहली बात। और चरम विकास हो तो ही इस चरम बिंदु पर ट्रांसफामेंशन हो सकता है। सब परिवर्तन चरम बिंदुओं पर होते हैं, नीचे कोई परिवर्तन नहीं होते। पानी को हम गर्म करते हैं तो पानी कुनकुना होकर भाप नहीं बनता। कुनकुना पानी भी पानी ही होता है, लेकिन सौ डिग्री पर जब चरम, अपनी गर्मी को उपलब्ध होता है तो एक क्रांति होती है। पानी भाप बनना शुरू हो जाता है। पानी सौ डिग्री पर भाप बनता है, और उसके पहले भाप नहीं बनता; कुनकुना पानी भाप नहीं बनता है।
हम सब कुनकुने आदमी हैं, हमारी जिंदगी में भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकते। हमारी जिंदगी में भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकते, क्योंकि एक विशिष्ट डिग्री तक हमारे चित्त की, हमारे हृदय की सारी शक्तियां विकसित होनी चाहिए, तो उनमें क्रांति हो सकती है, तो उनमें परिवर्तन हो सकता है। क्रोध की एक ठीक—ठीक तेजस्विता उपलब्ध हो तो ही क्षमा में परिवर्तन हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता।
लेकिन हम तो क्रोध के शत्रु है, हम तो लोभ के शत्रु हैं, हम तो राग के शत्रु हैं, तो हम कुनकुने आदमी हो जाते हैं, ल्‍यूकवॉर्म आदमी हो जाते हैं। बस कुनकुना—कुनकुनी जिंदगी रहती है, उसमें कोई क्रांति कभी नहीं हो पाती। और इस कुनकुनेपन का इतना घातक मनुष्य के ऊपर असर हुआ है जिसका कोई हिसाब नहीं है।
मेरी दृष्टि में, इसलिए पहली बात ध्यान में लेने की है कि हमारे व्यक्तित्व के, हमारे हृदय के सारे गुण ठीक से विकसित हों और ठीक से विकसित क्रोध भी एक अपना सौंदर्य रखता है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। ठीक से विकसित क्रोध का भी अपना सौंदर्य है, ठीक से विकसित क्रोध का भी व्यक्तित्व में अपना तेज है, अपनी ऊर्जा है, अपना अर्थ है, अपना मीनिंग है। वह व्यक्तित्व को अपने ढंग का सहयोग देता है, अपना कंट्रीब्यूशन करता है, व्यक्तित्व को अपना दान देता है। हृदय की जितनी भावनाएं हैं, वे सब तीव्रतम रूप से विकसित होनी चाहिए।
और, पहली बात, विध्वंस नहीं, उनका विकास।
दूसरी क्या बात है! दूसरी बात है, दमन नहीं, दर्शन। क्योंकि जितना हम हृदय की भावनाओं का दमन करते हैं उतना ही हृदय हमारा अचेतन और अनकांशस होता चला जाता है।
जिस चीज को हम दबाते हैं वह हमारी आंख से ओझल और अंधेरे में सरक जाती है। हृदय की सारी शक्तियों का स्पष्ट दर्शन होना चाहिए। अगर आपको क्रोध आ जाए तो राम—राम जप कर उसको दबाने की कोशिश मत करिए। क्रोध आ जाए तो एकांत कमरे में बैठ कर द्वार बंद करके क्रोध पर ध्यान करिए। उस क्रोध को पूरी तरह देखिए कि यह क्रोध क्या है? यह क्रोध की शक्ति क्या है? मेरे भीतर यह क्रोध कहां से पैदा होता है, क्यों पैदा होता है, किस भांति मेरे चित्त को घेर लेता है और मुझे प्रभावित कर देता है?
एकांत में मेडिटेशन करिए क्रोध पर, ध्यान करिए क्रोध पर। क्रोध को पूरा देखिए, समझिए, पहचानिए— कहां से पैदा होता है? क्यों पैदा होता है? तो आप धीरे— धीरे क्रोध के मालिक हो जाएंगे। और जो आदमी अपने क्रोध का मालिक हो जाता है, उसके हाथ में एक बड़ी शक्ति आ गई, उसके हाथ में एक बड़ा बल आ गया। वह आदमी बलशाली हो गया, वह आदमी आत्मबली हो गया।
तो क्रोध से लड़ने का उतना सवाल नहीं है, जितना क्रोध को जानने का सवाल है। क्योंकि स्मरण रखें, ज्ञान से बड़ी कोई भी शक्ति नहीं है और अपनी ही शक्तियों से लड़ने से बड़ी कोई मूर्खता नहीं है। क्योंकि जो अपनी ही शक्तियों से लड़ता है वह इसी तरह की गलती कर रहा है, जैसे कोई आदमी अपने ही दोनों हाथों को लड़ाने लगे। तो दोनों हाथ लड़ेंगे, कोई हाथ जीत नहीं सकेगा कभी भी, क्योंकि दोनों हाथ मेरे ही हैं, दोनों हाथों के पीछे से मैं ही लड़ रहा हूं। दोनों हाथों में मेरी ही शक्ति प्रवाहित हो रही है, तो दोनों हाथों की लड़ाई में मेरी ही शक्ति नष्ट हो रही है। कोई जीत नहीं सकता। दोनों हाथों में न तो बायां जीतेगा, न तो दायां जीतेगा। एक बात तय है कि दोनों हाथों की लड़ाई में मैं हार जाऊंगा। मेरी सारी शक्ति व्यर्थ और अपव्यय हो जाएगी।
जब आप क्रोध से लड़ते हैं तो क्रोध में जो शक्ति है वह किसकी है? वह आपकी ही है। क्रोध में जो शक्ति प्रकट हो रही है वह आपकी है, जो लड़ रहा है वह आप हैं। आप अपने को ही तोड़ कर लड़ेंगे तो आप खंडित से खंडित होते चले जाएंगे, डिसइंटीग्रेशन इसका परिणाम होगा, आप अखंड व्यक्ति नहीं रह जाएंगे। और अपने ही भीतर जो व्यक्ति अपने से ही लड़ता है, पराजय के अतिरिक्त उसके जीवन में कोई उपलब्धि कभी नहीं होती है। हो ही नहीं सकती, वह असभंव है। लडिए मत, जानिए अपनी शक्तियों को, पहचानिए, उनसे परिचित हो जाइए। इसलिए दूसरा सूत्र है दमन नहीं, दर्शन। सप्रेस मत करिए। जब भी, जो भी शक्ति भीतर उठती है—हम एक अपरिचित शक्तियों का समूह हैं। हम बहुत अनजान शक्तियों का केंद्र हैं, जिन शक्तियों का हमें कोई परिचय नहीं, कोई बोध नहीं। हजारों साल पहले भी आकाश में बिजली चमकती थी, आदमी डरता था, भयभीत होता था, हाथ जोड़ कर बैठ जाता था, कि भगवान आप नाराज हो गए हैं, यह क्या हो गया है, घबड़ाता था! बिजली जो थी वह भय का कारण थी। लेकिन आज हम जानते हैं, बिजली हमने बांध ली है, आज बिजली भय का कारण न रही, सेवक बन गई। आज घर—घर में उससे प्रकाश होता है, बीमार का इलाज होता है, मशीन चलती है। आदमी की सारी जिंदगी आज उससे प्रभावित है, उससे संचालित है, उसकी मालिक हो गई। लेकिन हजारों साल तक आदमी सिर्फ डरता था, क्योंकि बिजली को जानता नहीं था कि बिजली क्या है। एक बार जान लिया कि क्या है, तो हम उसके मालिक हो गए।
ज्ञान मालिक बना देता है। हमारे भीतर भी बहुत बिजलियों से भी बड़ी ताकतें प्रज्वलित हैं, चमकती हैं। क्रोध चमकता है, घृणा चमकती है, प्रेम चमकता है, हम घबड़ा जाते हैं, डर जाते हैं कि यह क्या हो रहा है, क्योंकि इन सारी शक्तियों को हम जानते नहीं कि ये क्या हैं!
अपनी जिंदगी को एक प्रयोगशाला बनाइए और भीतर की उन सारी ताकतों को जानने, निरीक्षण करने, पहचानने के प्रयास में संलग्न हो जाइए। भूल कर भी दमन तो करिए मत, भूल कर भयभीत मत होइए, लेकिन जो भी भीतर है उसे जानने की फिकर करिए। क्रोध आ जाए तो सौभाग्य समझिए और जो आदमी क्रोध में आपको ला दे उसको धन्यवाद दीजिए कि उसने एक मौका दिया है। आपके भीतर एक ताकत जग गई है, अब आप उसको देख सकेंगे। और एकांत में उस ताकत को शांति से देखिए, पहचानिए, खोजिए—वह क्या है?
जितना आपका यह जानना बढ़ेगा, जितनी आपकी यह अंडरस्टैंडिंग गहरी होगी, उतने ही आप अपने क्रोध के मालिक हो जाएंगे, उतना ही आप पाएंगे, वह आपके हाथ में खेलने वाली एक ताकत हो गई है। और जिस दिन आप क्रोध के मालिक हैं उस दिन आप क्रोध को परिवर्तित कर सकते हैं, उसको बदल सकते हैं। जिसके हम मालिक हैं उसे हम बदल सकते हैं, जिसके हम मालिक नहीं उसे हम बदलेंगे कैसे? और जिससे आप लड़ते हैं, ध्यान रखें, उसके आप मालिक कभी भी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि शत्रु का मालिक होना असंभव है, केवल मित्र का ही मालिक हुआ जा सकता है, और अपने ही भीतर की ताकतो के अगर आप शत्रु हो गए, तो आप कभी उनके मालिक नहीं हो सकते हैं।
प्रेम के अतिरिक्त कोई विजय नहीं है। तो यह जो भीतर सारी शक्तियों का अनंत भंडार है— न तो घबडाइए इससे, न इसकी निंदा करिए, इसको पहचानने चलिए कि क्या—क्या छिपा है आदमी के भीतर?
आदमी के भीतर इतना छिपा है जिसका कोई हिसाब नहीं। हम अभी आदमी की शुरुआत भी नहीं हैं। दस—पच्चीस हजार साल में शायद जो आदमी होगा, हम उससे उतने ही फासले पर हो जाएंगे जैसे बंदर हमसे फासले पर हो गए हैं। वह बिलकुल नई जाति हो सकती है, क्योंकि आदमी के भीतर कितनी शक्तियां हैं उनका अभी हमें कोई बोध नहीं है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क का अभी कोई आधे से ज्यादा हिस्सा बिलकुल बेकार पड़ा हुआ है, उसका कोई उपयोग ही नहीं हो रहा है। मस्तिष्क का थोड़ा सा हिस्सा काम कर रहा है, बाकी सारा हिस्सा बंद पड़ा हुआ है। यह जो बाकी हिस्सा है, यह व्यर्थ तो नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। हो सकता है आदमी का अनुभव, आदमी का ज्ञान विकसित हो, तो यह बंद पड़ा हुआ हिस्सा भी सक्रिय हो जाए और काम करे। और तब मनुष्य और क्या जान सके, उसके लिए हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं।
एक आदमी अंधा है तो उसके लिए प्रकाश जैसी चीज दुनिया में नहीं रह जाती फिर। प्रकाश है ही नहीं उसके लिए। आंख नहीं है तो प्रकाश नहीं है। जिन प्राणियों के पास आंख नहीं है, उन्हें पता भी नहीं हो सकता है कि प्रकाश है भी जगत में। उन्हें कल्पना भी नहीं हो सकती, वे सपना भी नहीं देख सकते कि प्रकाश भी है जगत में। हमारे पास पांच इंद्रियां हैं। कौन कह सकता है कि छठवी इंद्रिय होती तो हम कुछ और चीजें जानते जो कि जगत में हों, कौन कह सकता है कि सात इंद्रियां होतीं तो हम और भी चीजें जानते जो कि जगत में हों! और कौन कह सकता है कि इंद्रियों की कितनी सीमा है, वे कितनी हो सकती हैं!
हम जो जानते हैं वह अत्यल्प है, और हम जो जीते हैं वह उससे भी अत्यल्प है। तो हमारे भीतर हम जितना जानेंगे, जितना भीतर प्रवेश करेंगे, जितने परिचित होंगे, उतना ही ज्यादा हमारी जीवन—शक्ति विकसित होती है और हमारी आत्मा सघन होती है।
दूसरा सूत्र ध्यान में लेने जैसा है कि हम अपनी किसी भी शक्ति का दमन न करें, बल्कि उसे जानें, पहचानें, खोजें, देखें। और इसी के साथ एक हैरानी का अनुभव आपको होगा कि अगर आप क्रोध को जानने गए, अगर आपने बैठ कर शांति से क्रोध को देखने और दर्शन का प्रयास किया, तो आप एक हैरानी से भर जाएंगे कि जैसा आप दर्शन करने को प्रवृत्त होंगे, वैसा ही क्रोध विलीन होगा। जैसे आप क्रोध को निरीक्षण करेंगे, वैसा ही क्रोध तिरोहित हो जाएगा। तब आपको एक बात दिखाई पड़ेगी कि क्रोध आपको पकड़ता है मूर्च्छा में। जब आप होश से भरते हैं तो क्रोध विलीन होता है। अगर आपके मन में कामुक भावना उठी है और आप उसका निरीक्षण करने चले गए हैं तो आप पाएंगे वह विसर्जित हो गई है। तब आप पाएंगे कि काम पैदा होता है मूर्च्छा में और निरीक्षण करने से विलीन हो जाता है।

 तो आपके हाथ में एक अदभुत सूत्र उपलब्ध हो जाएगा। वह यह कि मूर्च्छा के अतिरिक्त क्रोध और काम और लोभ का मनुष्य के ऊपर कोई बल नहीं है। और जैसे ही वह निरीक्षण करता है, होश से भरता है, अवेअरनेस से भरता है, वैसे ही क्रोध विलीन हो जाता है।
एक मेरे मित्र थे, उनको बहुत क्रोध की बीमारी थी। वे मुझसे कहे कि मैं तो बहुत परेशान हो गया हूं और अब मेरे वश के बाहर है यह बात। आप ही कुछ रास्ता मुझे बता दें। मुझे कुछ भी न करना पड़े, क्योंकि मैं तो हैरान हो गया हूं। मुझे अब आशा नहीं रही कि मैं कुछ कर सकता हूं इस क्रोध के बाहर हो सकता हूं।
मैंने उन्हें एक कागज पर लिख कर दे दिया एक छोटा सा वचन कि 'अब मुझे क्रोध आ रहा है।और मैंने कहा इस कागज को अपनी खीसे में रखें और जब भी आपको क्रोध आए, निकाल कर कृपा करके इसको पढ़ लें और फिर वापस रख दें। मैंने कहा इतना तो आप कर ही सकते हैं। इससे ज्यादा तो......यह तो इतना अत्यल्प है कि इससे कम और करने के लिए क्या आपसे प्रार्थना की जाए। इस कागज को पढ़ लिया करें और वापस रख लिया करें। उन्होंने कहा ही, यह मैं कोशिश करूंगा।
कोई दो—तीन महीने बाद मुझे मिले। मैंने कहा क्या हिसाब? उन्होंने कहा मैं तो हैरान हो गया। इस कागज ने तो मंत्र का काम किया। क्रोध आता और मैं इसको निकालता......निकालता हूं तभी मेरे हाथ—पैर ढीले हो जाते। हाथ खीसे में डाला और मुझे खयाल आया कि क्रोध आ रहा है। कुछ, कुछ बात ढीली हो जाती है, भीतर से वह पकड़ चली जाती है, वह जो ग्रिप है क्रोध की, वह जो प्राणों को पकड़ लेने की बात है पंजे में, वह बात एकदम ढीली पड़ जाती है। हाथ खीसे में गया और उधर हाथ ढीला पड़ा। और अब तो पढ़ने की भी जरूरत नहीं पड़ती, क्रोध आने का खयाल आता है कि वह भीतर खीसे में पड़ी चिट दिखाई पड़ने लगती है।
वह मुझसे पूछने लगे कि इस चिट का ऐसा कैसे परिणाम हुआ है, इसका क्या रहस्य है? मैंने कहा इसमें कोई भी रहस्य नहीं है, सीधी सी बात है। चित्त की जो भी विकृतियां हैं, चित्त की जो भी अराजकताएं हैं, चित्त का जो भी असंतुलन है वह मूर्च्छा में ही पकड़ता है, होश आया कि वह विलीन हो जाता है।
तो निरीक्षण के दो फल होंगे ज्ञान विकसित होगा इन सारी शक्तियों का, और जान मालिक बनाता है। और दूसरा परिणाम होगा कि ये शक्तियां जिस रूप में अभी पकड़ती हैं पागल की तरह, उस रूप में इनके पकड़ने की सामर्थ्य क्षीण हो जाएगी, शिथिल हो जाएगी। और धीरे— धीरे आप पाएंगे कि पहले तो क्रोध आ जाता है तब आप निरीक्षण करते हैं, फिर धीरे— धीरे आप पाएंगे, क्रोध आता है और साथ ही निरीक्षण आ जाता है। फिर धीरे— धीरे आप पाएंगे, क्रोध आने को होता है और निरीक्षण आ जाता है। और जिस दिन क्रोध के पहले निरीक्षण का बोध आ जाता है उस दिन क्रोध के पैदा होने की कोई संभावना नहीं रह जाती, कोई विकल्प नहीं रह जाता।
पश्चात्ताप मूल्य का नहीं है, पूर्व—बोध मूल्य का है। क्योंकि पश्चात्ताप होता है पीछे। पीछे कुछ भी नहीं किया जा सकता, पीछे रोना— धोना बिलकुल ही व्यर्थ है, क्योंकि जो हो चुका उसे अब न करना असंभव है, जो हो चुका उसे अन—डन करना असंभव है। क्योंकि अतीत की तरफ लौटने की कोई गुंजाइश नहीं, कोई मार्ग नहीं, कोई द्वार नहीं। लेकिन जो नहीं हुआ, उसे बदला जा सकता है। पश्चात्ताप का मतलब ही यह है कि पीछे जो जलन पकड़ लेती है। वह उसका कोई मतलब नहीं है, वह बिलकुल नासमझी से भरा हुआ है। क्रोध किया वह गलती हो गई और फिर पश्चात्ताप किया वह दोहरी गलती हो रही है। वह व्यर्थ ही आप परेशान हो रहे हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। पूर्व—बोध, पूर्व—बोध तब विकसित होगा जब हम निरीक्षण करें, धीरे— धीरे चित्त की सारी वृत्तियों का निरीक्षण करें।

दूसरा सूत्र है दर्शन, दमन नहीं।
र तीसरा सूत्र है रूपांतरण, ट्रांसफामेंशन। चित्त की प्रत्येक वृत्ति रूपांतरित होती है, हो सकती है। हर चीज के अनेक रूप हैं, हर चीज अपने से विपरीत रूपों में भी परिवर्तित हो सकती है। ऐसी कोई भी वृत्ति नहीं है, ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है जो शुभ की दिशा में, मंगल की दिशा में प्रवाहित न की जा सके। और स्मरण रखें कि जो चीज अशुभ बन सकती है, वह अनिवार्यरूपेण शुभ बन सकती है। जो चीज अमंगल बन सकती है, वह अनिवार्यरूपेण मंगल बन सकती है। मंगल और अमंगल, शुभ और अशुभ दिशाएं हैं। सिर्फ रूपांतरित, सिर्फ दिशा परिवर्तित हो और सारी चीज दूसरी हो जाती है।
एक आदमी दिल्ली के पास से भागा चला जा रहा था, और उसने किसी को पूछा कि दिल्ली कितनी दूर है? उस आदमी ने कहा अगर आप सीधे ही भागे चले जाते हैं तो सारी पृथ्वी का चक्कर लगाएंगे तब दिल्ली उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि दिल्ली की तरफ आपकी पीठ है। और अगर आप पीछे लौट पड़ते हैं तो दिल्ली से ज्यादा निकट और कोई भी गांव नहीं है। दिल्ली केवल लौटने, पीछे देखने की बात है और आप दिल्ली पहुंच जाते हैं। वह आदमी भागे जा रहा है जिस दिशा में, उस दिशा में पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करे तो ही पहुंच सकता है। और लौट पड़े तो पहुंचा ही हुआ है, अभी और यहीं पहुंच सकता है।
हम जिन दिशाओं में बहे जाते हैं उन दिशाओं में ही बहते रहें तो हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते, पृथ्वी की परिक्रमा लेकर भी नहीं पहुंच सकते। क्योंकि पृथ्वी छोटी है और चित्त बड़ा है। पृथ्वी की परिक्रमा एक आदमी पूरी भी कर ले, लेकिन चित्त की परिक्रमा असंभव है, वह बहुत बड़ा है, बहुत विराट है, बहुत अनंत है। पृथ्वी की परिक्रमा पूरी भी हो जाएगी एक दिन, वह आदमी वापस दिल्ली आ सकता है, लेकिन चित्त और भी बड़ा है पृथ्वी से, उसकी पूरी परिक्रमा बहुत लंबी है।
तो फिर लौटने का बोध, दिशा परिवर्तन का, वापस लौटने का, रूपांतरण का बोध—तीसरी बात ध्यान में रखने की है।
अभी हम जैसे भी बहे जा रहे हैं, हम गलत बहे जा रहे हैं। तो गलत का क्या सबूत है? गलत का सबूत है कि हम जितने बहते हैं उतने खाली होते हैं, जितने बहते हैं उतने दुखी होते हैं, जितने बहते हैं उतने अशांत होते हैं, जितने बहते हैं उतने अंधकार से भरते हैं, तो निश्चित ही हम गलत बहे जा रहे हैं।
आनंद एकमात्र कसौटी है जीवन की। जिस जीवन में आप बहे जा रहे हैं अगर वहां आनंद उपलब्ध नहीं होता है, तो जानना चाहिए आप गलत बहे जा रहे हैं। दुख गलत होने का प्रमाण है और आनंद ठीक होने का प्रमाण है, इसके अतिरिक्त कोई कसौटियां नहीं हैं। न किसी शास्त्र में खोजने की जरूरत है, न किसी गुरु से पूछने की जरूरत है। कसने की जरूरत है कि मैं जहां बहा जा रहा हूं वहां मुझे आनंद बढ़ता जा रहा है, गहरा होता जा रहा है, तो मैं ठीक जा रहा हूं। और अगर दुख बढ़ता जा रहा है, पीड़ा बढ़ती जा रही है, चिंता बढ़ती जा रही है, तो मैं गलत जा रहा हूं।
इसमें किसी को मान लेने का भी सवाल नहीं है। अपनी जिंदगी में खोज कर लेने का सवाल है कि हम रोज दुख की तरफ जाते हैं या रोज आनंद की तरफ जाते हैं। अगर आप अपने से पूछेंगे तो कठिनाई नहीं होगी। बूढ़े भी कहते हैं कि हमारा बचपन बहुत आनंदित था। इसका मतलब क्या हुआ कि वे गलत बह गए? क्योंकि बचपन तो शुरुआत थी जिंदगी की, और वे आनंदित थे और अब वे दुखी हैं। शुरुआत आनंद थी और अंत दुख ला रहा है तो जीवन गलत बहा। होना उलटा चाहिए था। होना यह चाहिए था कि बचपन में जितना आनंद था वह रोज—रोज बढ़ता चला जाता। बुढ़ापे में आदमी कहता कि बचपन सबसे दुख की स्थिति थी, क्योंकि वह तो जीवन का प्रारंभ था, वह तो जीवन की पहली कक्षा थी।
अगर एक विद्यार्थी विश्वविद्यालय में पढ़ने जाए और कहे कि पहली कक्षा में ज्यादा ज्ञान था और अब धीरे— धीरे ज्ञान कम होता जा रहा है तो हम कहेंगे कि तुम पढ़ रहे हो, तुम ज्ञान की तरफ बढ़ रहे हो? हद हैरानी की बात है! पहली कक्षा में अज्ञान ज्यादा था यह समझ में आने वाली बात थी, ज्ञान कम था यह समझ में आने वाली बात है, और अब ज्ञान बढ़ना था, अज्ञान कम होना था।
जीवन की पहली कक्षा में लोग कहते हैं कि बहुत सुख था। कवि गीत गाते हैं कि बचपन बड़ा आनंदपूर्ण था। पागल होंगे ये कवि। क्योंकि अगर बचपन आनंदपूर्ण था तो जिंदगी तुमने गवाई या जिंदगी उपलब्ध की! तो अच्छा था कि तुम बचपन में मर जाते तो तुम सुखी मर जाते। अब तुम व्यर्थ ही दुखी भरोगे। तो धन्यभागी हैं वे जो बचपन में मर गए।
जो आदमी जितना जिंदा रह रहा है उतना आनंद बढ़ना चाहिए, लेकिन हमारा आनंद घटता है। वे कवि गलती नहीं कहते, वे जीवन के अनुभव की बात कह रहे हैं बेचारे! ठीक ही कह रहे हैं। हमारा आनंद घटता ही चला जाता है। रोज—रोज हमारा सब घटता चला जाता है, रोज बढ़ना था। तो हम कुछ गलत जाते हैं। हमारी जीवन—दिशा कुछ भूल भरे मार्गों पर प्रवाहित होती है। हमारी ऊर्जा कुछ गलत प्रवाहित होती है। इसकी निरंतर खोज—बीन, इसका परीक्षण, इसकी कसौटी मन में साफ होनी चाहिए। और अगर आपको साफ हो जाए कसौटी और खोज स्पष्ट हो जाए कि मैं गलत बह रहा हूं र तो ठीक बहने के लिए दुनिया में कोई आपको बाधा नहीं दे रहा है सिवाय आपके। अतिरिक्त आपके इस जगत में आपको ठीक बहने के लिए कोई भी बाधा नहीं दे रहा है।
दो फकीर एक संध्या अपने झोपड़े पर पहुंचे। वे चार महीने से बाहर थे और अब वर्षा आ गई थी तो अपने झोपड़े पर वापस लौटे थे। लेकिन झोपड़े के करीब आकर, जो आगे युवा फकीर था, वह एकदम क्रोध से भर गया और दुखी हो गया। वर्षा की हवाओं ने आधे झोपड़े को उड़ा दिया था, आधा ही झोपड़ा बचा था। वे चार महीने भटक कर आए थे इस आशा में कि वर्षा में अपने झोपड़े में विश्राम कर सकेंगे, पानी से बच सकेंगे, यह तो मुश्किल हो गई। झोपड़ा आधा टूटा हुआ पड़ा था, आधा छप्पर उड़ा हुआ था।
उस युवा संन्यासी ने लौट कर अपने बूढ़े साथी को कहा कि यह तो हद हो गई। इन्हीं बातों से तो भगवान पर शक आ जाता है, संदेह हो जाता है। महल खड़े हैं पापियों के नगर में, उनका कुछ बाल बांका नहीं हुआ। हम गरीबों की झोपड़ी, जो दिन—रात उसी की प्रार्थना में समय बिताते हैं, वह आधी छप्पर टूट गई। इसीलिए मुझे शक हो जाता है कि भगवान है भी! यह प्रार्थना है भी! क्या हम सब गलती में पड़े हैं, हम पागलपन में पड़े हैं? हो सकता है पाप ही असली सचाई हो, क्योंकि पाप के महल खड़े रह जाते हैं और प्रार्थना करने वालों के झोपड़े उड़ जाते हैं।
वह क्रोध से भर गया और निंदा से भर गया और उसे अपनी सारी प्रार्थनाएं व्यर्थ मालूम पड़ी। लेकिन वह जो का साथी था, वह हाथ आकाश की तरफ जोड़ कर खड़ा हो गया और उसकी आंखों से आनंद के आंसू बहने लगे। वह युवक तो हैरान हुआ! उसने कहा क्या करते हैं आप? उस बूढ़े ने कहा मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूं क्योंकि जरूर ही... आंधियों का क्या भरोसा था, पूरा झोपड़ा भी उड़ा कर ले जा सकती थीं। भगवान ने ही बीच में कोई बाधा दी होगी, इसलिए आधा छप्पर बचा। नहीं तो आंधियों का क्या भरोसा था, पूरा छप्पर भी उड़ सकता था। हम गरीबों की भी उसे फिकर है और खयाल है, तो उसे धन्यवाद दे दूं। हमारी प्रार्थनाएं सुनी गई हैं, हमारी प्रार्थनाएं व्यर्थ नहीं गईं। नहीं तो आधा छप्पर बचना मुश्किल था।
फिर वे रात दोनों सोए। सोच ही सकते हैं आप, दोनों अलग—अलग ढंग से सोए। क्योंकि जो क्रोध और गुस्से से भरा था और जिसकी सारी प्रार्थनाएं व्यर्थ हो गई थीं, वह रात भर करवट बदलता रहा और रात भर उसके मन में न मालूम कैसे—कैसे दुखस्वप्न चलते रहे, चिंताएं चलती रहीं। वह चिंतित था। वर्षा ऊपर खड़ी थी, बादल आकाश में घिर गए थे, आधा छप्पर उड़ा हुआ था, आकाश दिखाई पड़ रहा था। कल वर्षा शुरू होगी, फिर क्या होगा?
दूसरा बहुत गहरी नींद सोया, क्योंकि जिसके प्राण धन्यवाद से भरे हैं और ग्रेटिटयूड़ से और कृतज्ञता से उसकी निद्रा जैसी सुखद निद्रा और किसकी हो सकती है! वह सुबह उठा और नाचने लगा और उसने एक गीत गाया और उस गीत में उसने कहा कि हे परमात्मा! हमें पता भी न था कि आधे झोपड़े का इतना आनंद हो सकता है। अगर हमें पहले से पता होता तो हम तेरी हवाओं को कष्ट भी न देते, हम खुद ही आधा छप्पर अलग कर देते। ऐसी आनंददायी नींद तो मैं कभी सोया ही नहीं। आधा छप्पर नहीं था, तो जब भी रात आंख खुली तो तेरे आकाश के तारे भी दिखाई पड़े, तेरे घिरते हुए बादल भी दिखाई पड़े। अब तो बड़ा आनंद होगा, वर्षा आने को है, कल से पानी पड़ेगा, हम आधे छप्पर में सोए भी रहेंगे और रात तेरी बूंदों की आवाज, तेरी बूंदों का संगीत भी हमारे पास ही पड़ता रहेगा। हम पागल रहे अब तक। हमने कई वर्षाएं ऐसे ही पूरे छप्पर के भीतर छिपे हुए बिता दीं। हमें पता भी न था कि आधे छप्पर का भी कोई आनंद हो सकता है। अगर हमें मालूम होता, हम तेरी आंधियों को तकलीफ भी न देते, हम खुद ही आधा छप्पर अलग कर देते।
उस दूसरे युवक ने पूछा कि मैं यह क्या सुन रहा हूं यह सब क्या बकवास है? यह क्या पागलपन है? यह तुम क्या कहते हो?
तो उस के ने कहा मैंने बहुत खोजा और मैंने यह अनुभव कर लिया कि जिस बात से दुख बढ़ता हो वह जीवन—दिशा गलत है और जिस बात से आनंद बढ़ता हो वह जीवन—दिशा सही है। मैंने भगवान को धन्यवाद दिया, मेरा आनंद बढ़ा। तुमने भगवान पर क्रोध किया तुम्हारा दुख बढ़ा। तुम रात बेचैन रहे, मैं रात शांति से सोया। अभी मैं गीत गा पा रहा हूं और तुम क्रोध से जले जा रहे हो। बहुत पहले मुझे समझ में आ गया कि जो आनंद बढ़ाता है वही जीवन—दिशा सही है। और मैंने अपनी सारी चेतना को उसी तरफ प्रवाहित किया है। मुझे पता नहीं भगवान है या नहीं, मुझे पता नहीं उसने हमारी प्रार्थनाएं सुनी या नहीं सुनीं। लेकिन सबूत है मेरे पास कि मैं आनंदित हूं और नाच रहा हूं और तुम रो रहे हो और क्रोधित हो और परेशान हो। मेरा आनंद, मैं जैसा जी रहा हूं र उसके सही होने का सबूत है। तुम्हारा दुख, तुम जैसे जी रहे हो, उसके गलत होने का सबूत है।
तीसरी बात है. निरंतर इस बात का परीक्षण कि किन दिशाओं से मेरा आनंद घनीभूत होता है। किसी से पूछने जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह रोज—रोज की जिंदगी में, रोज—रोज कसौटी हमारे पास है। आनंद की कसौटी है। जैसे पत्थर पर सोने को कसते हैं और जांच लेते हैं, क्या सही है और गलत है। और सुनार फेंक देता है जो गलत है उसे एक तरफ और जो सही है उसे तिजोरी में रख लेता है।
आनंद की कसौटी पर रोज—रोज कसते रहें, क्या है सही और क्या है गलत। जो गलत है वह फिक जाएगा, जो सही है उसकी संपदा धीरे— धीरे इकट्ठी हो जाती है।
ये तीन सूत्र सुबह के लिए। फिर रात्रि इस संबंध में कुछ और बात शेष होगी, तो वह आपसे बात की जा सकेगी।

 अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
थोड़े फासले पर एक—दूसरे से बैठ जाएंगे तो ठीक होगा। थोड़े फासले से, एक—दूसरे से कोई छूता हुआ न हो। दो बात समझ लें, शायद कुछ मित्र नये हों।
बहुत सीधी सी, सरल सी बात है जो करनी है। पर अक्सर ऐसा होता है कि जो सरल बातें होती हैं, वे ही करने में कठिन मालूम पड़ती हैं। क्योंकि हमें सरल बातें करने की कोई आदत ही नहीं है। कठिन बातें करने की तो हम सबको आदत है, लेकिन सरल बातें करने की कोई आदत नहीं है। यह बड़ी सरल सी और सीधी सी बात है कि हम थोड़ी देर के लिए शरीर को बिलकुल शिथिल और शांत छोड़ कर, आंखों को आहिस्ता से बंद करके बस बैठे रहेंगे, कुछ करेंगे नहीं। और फिर चुपचाप आस—पास जो आवाजें होंगी उनको सुनते रहेंगे—सिर्फ सुनते रहेंगे। और सिर्फ सुनना, जस्ट लिसनिंग, भीतर एक शांति को और गहराई को पैदा करना शुरू कर देती है।
जापान में तो ध्यान के लिए वे जो शब्द उपयोग करते हैं, वह शब्द भी बड़ा मजे का है। उस शब्द को वे कहते हैं झाझेन। और झाझेन का मतलब होता है जस्ट सिटिंग, डूइंग नथिंग। इतना ही मतलब होता है, कुछ नहीं करना और चुपचाप बैठे रहना। ध्यान के लिए जो शब्द है जापानी में वह है—झाझेन—कुछ नहीं करना, बस बैठे रहना। बड़ा अर्थपूर्ण है। कुछ भी नहीं करना है, चुपचाप बैठे रहना है।
आंखें बंद हैं, कान खुले हुए हैं तो कान सुनते रहेंगे, तो चुपचाप सुनते रहें। चुपचाप सुनते रहें, सुनते रहें और सुनते ही सुनते आप पाएंगे कि भीतर एक गहरी शांति और शून्य पैदा होना शुरू हो गया है। उसी शून्य में निरंतर गति करनी है— गहरे से गहरे, गहरे से गहरे। उसी शून्य के द्वार से किसी दिन उसके दर्शन हो जाते हैं जो पूर्ण है। शून्य के मार्ग से उसकी उपलब्धि हो जाती है जो पूर्ण है। और ऐसे शांत होते—होते, होते—होते, पक्षियों को सुनते—सुनते, बाहर की आवाजों को सुनते—सुनते एक दिन वह आवाज सुनाई पड़ने लगती है जो भीतर की आवाज है। तो चुपचाप बैठ कर हम सुनेंगे।
पहली बात, शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। आराम से, आंख आहिस्ता से बंद कर लें। आंख की पलक धीरे से छोड़ दें, कोई भार न पड़े आंख पर। आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ दें। बिलकुल शांत बैठे जाएं। सिर्फ बैठे हुए हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। फिर ये चारों तरफ पक्षी हैं और आवाजें हैं, इनको चुपचाप सुनते रहें। सुनें......चारों तरफ की आवाज को सुनते रहें। बस सुनते रहें और कुछ भी नहीं करना है। धीरे— धीरे भीतर कोई चीज शांत होती जाएगी, कोई चीज सेटल होती चली जाएगी। सुनते रहें, बस सुनते रहें, भीतर शांति उतरती आएगी। दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रहें। बिलकुल आराम से सुनते रहें......सुनते रहें......मन शांत होता जाता है......मन शांत हो रहा है......मन शांत हो रहा है......मन शांत हो रहा है......मन शांत हो रहा है......सुनते रहें......मन शांत होता जाता है...।
सुनते रहें......मन शांत होता जा रहा है......मन बिलकुल शांत होता जा रहा है......मन शांत होता जा रहा है.. मन शांत होता जा रहा है......मन शांत होता जा रहा है......मन एक गहरे सन्नाटे में उतर जाएगा।
एक—एक आवाज सुनते रहें... पक्षी बोल रहे हैं, सुनें......एक—एक आवाज सुनते रहें......चिड़िया गीत गा रही हैं, सुनें. मन शांत होता जा रहा है......।

आज सुबह कि बैठक समाप्‍त।

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