(ओशो द्वाराझेन और सूफी बोध कथाओं पर 21 सितंबर से 10 अक्टूबर, 1974 तक श्री रजनीश आश्रम, पूना में दिये गये बीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)
यह
अंधेरा कब तक
रहेगा? जब
तक तुमने
स्वयं को शरीर
माना है, यह
अंधेरा
रहेगा। जब तक
दीया है, तब
तक अंधेरा
रहेगा।
ज्योति अकेली
हो, फिर
उसके नीचे कोई
अंधेरा नहीं
रहेगा। ज्योति
सहारे से है।
थोड़ी देर को
सोचो, ज्योति
मुक्त हो गई
अकेली आकाश
में, उसके
चारों तरफ
प्रकाश होगा।
लेकिन ज्योति
दीये के सहारे
है। दीया तो
ज्योति नहीं
है। जितनी जगह
दीया घेरेगा,
उतनी तो
अंधेरे में
रहेगी। इसलिए
बड़ी विरोधाभासी
घटना घटती है।
दीया सबको
प्रकाशित कर
देता है और
खुद अंधेरे
में डूबा रह
जाता है। तुम
सब को देख
लेते हो, बस
खुद ही का
दर्शन नहीं हो
पाता। तुम
सबको समझ लेते
हो, बस एक
ही अनसमझा
रह जाता है--वह
तुम स्वयं हो।
तुम सबकी
सहायता कर
देते हो, बस
एक ही असहाय
रह जाता है--वह
भीतर। तुम
चारों तरफ
संपत्ति के
ढेर लगा लेते
हो, बस
भीतर एक
खालीपन, एक
निर्धनता रह
जाती है।
ओशो
शरीर से तादात्म्य के कारण आत्मिक दीये के तले अँधेरा—(प्रवचन—पहला)
दिनांक
21 सितंबर, 1974;
श्री ओशो
आश्रम,
पूना।
भगवान!
'पथ
के प्रदीप' में आपका
वचन है:
'मनुष्य
की सबसे बड़ी
कठिनाई
मनुष्य का
अपने प्रति ही
अज्ञान है।
दीये के नीचे
जैसे अंधेरा होता
है, वैसे
ही मनुष्य उस
सत्ता के
प्रति अंधकार
में होता है
जो कि उसकी
आत्मा है। हम
स्वयं को ही नहीं
जानते हैं। और
तब यदि हमारा
सारा जीवन ही
गलत दिशाओं
में चला जाता
है, तो
आश्चर्य करना
व्यर्थ है।'
भगवान!
मिट्टी के
दीये तले
अंधेरे का
इकट्ठा होना
तो कुछ समझ
में आता है; लेकिन यह
आत्मिक दीये
के नीचे जो
घना अंधकार है,
उससे हम
बिलकुल
अपरिचित हैं।
वह क्या है, क्यों है, और कैसे दूर
हो सकता है, यह हमें
विस्तार से
समझाने की
कृपा करें।
जीवन
के कुछ मूलभूत
नियम समझ लेने
जरूरी हैं। पहला
नियम: जो हमें
मिला ही हुआ
है उसे भूल
जाना एकदम
आसान है। जो
हमें नहीं
मिला है उसकी
याद बनी रहती
है। अभावों का
पता चलता है।
खाली जगह दिखाई
पड़ती है। एक
दांत टूट जाये
तो जीभ खाली
जगह पर बार-बार
पहुंच जाती
है। जब तक
दांत था शायद
कभी वहां न गई
थी, दांत था
तो जाने की
जरूरत ही न
थी। खालीपन
अखरता है।
आत्मा से तुम
सदा से ही भरे
हुए हो। ऐसा कभी
भी न था, कि
वह न हो गई हो।
वह दांत टूटने
वाला नहीं। वह
जगह कभी खाली
नहीं हुई। सदा
ही आत्मा रही
है और सदा
रहेगी। यही
कठिनाई है।
जिसका
कभी अभाव नहीं
हो; उसका
स्मरण नहीं
आता। जब तक
तुम्हारे पास
धन हो, तब
तक धन की क्या
जरूरत? निर्धनता
में धन याद
आता है। जब तक
तुम स्वस्थ हो,
शरीर का पता
भी नहीं चलता।
जब बीमारी आती
है तब
शरीर...शरीर ही
शरीर दिखाई
पड़ता है।
बीमारी की
परिभाषा ही
यही है कि जब
शरीर का पता
चले। स्वास्थ्य
की परिभाषा
यही है कि जब
शरीर का बिलकुल
पता न चले।
पूर्ण स्वस्थ
व्यक्ति ऐसे
होगा जैसे
शरीर है ही
नहीं। शरीर
कभी बीमार
होता है, कभी
स्वस्थ होता
है। आत्मा कभी
बीमार नहीं
होती, कभी
स्वस्थ नहीं
होती। आत्मा
जैसी है एकरूप,
वैसी ही बनी
रहती है। उसका
तुम्हें पता
कैसे चलेगा? उसकी
तुम्हें
स्मृति कैसे
आयेगी? यह
पहली कठिनाई
है।
इसलिए
जन्म-जन्म लग
जाते हैं उसे
खोजने में, जो तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। बड़ा उल्टा
लगता है यह
कहना कि
जन्म-जन्म लग
जाते हैं उसे
खोजने में, जिसे खोजने
की कोई जरूरत
न थी। जो सदा
ही मिला हुआ
था। जिसे
तुमने कभी
खोया ही नहीं
था। जिसे तुम
चाहते तो भी
खो न सकते थे।
जिसे खोने का
कोई उपाय ही
नहीं। इस कारण
दीये के तले
अंधेरा हो
जाता है; यह
पहली बात।
दूसरी
बात: जीवन
चौबीस घंटे
संघर्ष है।
जहां-जहां
संघर्ष है, वहां-वहां
हमें सजग रहना
पड़ता है; वहां
डर है। तुम भय
के कारण ही
सजग होते हो।
अगर सब भय मिट
जायें, तो
तुम सो जाओगे।
कोई भय न हो तो
तुम पैर तान
लोगे, गहरी
नींद में चले
जाओगे। भय
होता है तो
तुम जगते हो।
भय होता है, तो सुरक्षा
के लिए तुम
खड़े रहते हो।
तुम सोते नहीं।
आत्मा के तल
पर कोई भय
नहीं है। अभय
उसका स्वभाव
है। शरीर के
तल पर सब तरह
के भय हैं। अभय
शरीर का
स्वभाव नहीं
है। भय उसका
गुणधर्म है।
अगर तुम जरा
भी वहां सोये
तो शरीर से
छूट जाओगे। वह
संपदा
तुम्हारी
नहीं है। वह
संपदा क्षण भर
को ही
तुम्हारी है।
आई, और गई; वहां
तुम्हें
जागते ही रहना
पड़ेगा।
देखो, जिनकी
संपत्ति है वे
तो रात सोये
रहते हैं लेकिन
चोर रात भर
जागता है।
मैंने सुना है,
एक चोर ने
एक बार बहुत
धन इकट्ठा कर
लिया। चोर अक्सर
कर लेते हैं।
लेकिन रात वह
सोता नहीं था।
घूम कर चक्कर
लगाता था।
उसके मित्रों
ने कहा, नासमझ!
अब तुझे चक्कर
लगाने की कोई
जरूरत नहीं
है। रात भर
जागने की कोई
जरूरत नहीं
है। चोर ने
कहा, पुरानी
आदत है। और
फिर डर भी
लगता है कि
अगर मैंने
चोरी की तो
कोई मेरा न ले
जाये।
चोर
सदा भयभीत
होता है। अचोर
ही सो सकता
है। चोर भयभीत
होगा। उसे
अच्छी तरह पता
है, कि किस
तरह दूसरे लोग
सो रहे थे तब
वह चोरी कर ले
गया। उनकी
नींद ही तो
चोरी का
रास्ता बनी।
बहुत
बड़ा विचारक
हुआ आस्कर
वाइल्ड। किसी
मित्र ने उससे
पूछा, एक
किताब मुझे
पढ़ने की जरूरत
है। बाजार में
मिलती नहीं है,
लाइब्रेरियों में मौजूद
नहीं। मैंने
सुना है कि वह
किताब तुम्हारे
पास है।
वाइल्ड ने कहा,
निश्चित।
लेकिन मैं
दूंगा नहीं।
मित्र हैरान
हुआ। पुराना
संबंध! सिर्फ
पढ़ने को किताब
मांगता हूं, किताब दोगे
नहीं? वाइल्ड
ने कहा, उसका
कारण है। ये
सब किताबें
मैंने
मांग-मांग कर
इकट्ठी की
हैं। ये सब
चुराई हुई
हैं। ये जो हजारों
किताबें मेरी
लाइब्रेरी
में दिखाई पड़ती
हैं, मैंने
एक भी खरीदी
नहीं है। अब
तुम मुझसे मत
मांगो।
चोर
सदा डरा होता
है। जो उसने
किया है वही
उसके साथ हो
सकता है। तो
तुम धन के
प्रति तो जागे
रहते हो।
तिजोरी भरी हो
तो तुम होश से
बैठे रहते हो।
मकान बड़ा हो, तुम पहरा
लगा कर बैठे
रहते हो। तुम
जो भी कमा लेते
हो उस पर तो
तुम्हें जीते
और मरते पहरा
देना पड़ता है।
कहावत है कि
धनी मर जाये
तो अपनी संपत्ति
पर सांप हो कर
बैठ जाता है।
कहावत बड़ी अच्छी
है। उसका कुल
मतलब इतना है,
कि जिंदा भी
तुम पहरा दोगे,
मरकर भी तुम
पहरा दोगे।
लेकिन
आत्मा की
संपदा न तो
तुमने चुराई, न तुमने
किसी से छीनी।
वह संपदा सदा
ही तुम्हारी
रही है। और
वहां कोई भय
व्याप्त नहीं
होता; तो
तुम जागोगे
क्यों? जहां
भय नहीं वहां
तुम जागोगे
क्यों? इसीलिए
दीये के तले
अंधेरा
इकट्ठा हो
जाता है।
तीसरी
बात: जो
शाश्वत है, जो सदा है और
सदा रहेगा
उसके लिए
जल्दी भी क्या
है? जो
क्षणभंगुर है,
अभी है और
अभी खो जायेगा,
वहां बड़ी
जल्दी है, बड़ी
आपाधापी है।
देखो, पूरब
और पश्चिम में
एक फर्क है।
पश्चिम में लोग
बहुत तेजी में
हैं। रोज
नई-नई व्यवस्था
करते हैं कि
तेज
रफ्तार...और
तेज रफ्तार
कैसे हो जाये।
कितनी तेजी से
हम पहुंच जायें।
कितनी तेजी से
काम कर लें।
नई विधियां
खोजते हैं, नये उपकरण
खोजते हैं। और
भयंकर
तीव्रता में जीते
हैं।
पूरब
में लोग इतनी
जल्दी में
नहीं हैं।
आहिस्ता चलते
हैं। कहीं पहुंचने
का कोई बहुत
आग्रह नहीं
है। पहुंच गये
तो ठीक, न
पहुंचे तो
ठीक। पश्चिम
और पूरब के
लोग एक दूसरे
को समझ भी
नहीं पाते।
पश्चिम में
अगर किसी ने
कहा कि मैं
पांच बजे
मिलने आता हूं
तो वह पांच
बजे ही मिलने
आयेगा। पूरब
में किसी ने
कहा आता हूं
मिलने, तो
तुम पक्का मत
करना कि वह आज
आयेगा, कल
आयेगा, कि
परसों आयेगा,
आयेगा कि
नहीं आयेगा।
इसका कारण यह
नहीं है, कि
पूरब कोई
विश्वासघाती
है। इसका कारण
यह है कि पूरब
में समय की
त्वरा नहीं
है।
और
गहरे में खोजोगे
तो पाओगे, पश्चिम में
जो धर्म
प्रचलित हैं--ईसाईयत, यहूदी, इस्लाम,
वे तीनों
धर्म एक ही
जीवन को मानते
हैं। वे कहते
हैं, आगे
फिर कोई जीवन
नहीं है। बस, यहीं जीवन
समाप्त। इससे
जल्दी पैदा हो
गई। सब खोया
जा रहा है।
भोग लो, सब
जा रहा है हाथ
के बाहर। इसके
पहले कि निकल
जाये, चूस
लो, उसका
रस ले लो। वह
तुम्हारे लिए
रुका नहीं रहेगा।
अगर तुमने
देर-अबेर की, तो तुम्हीं भटकोगे।
समय लौट कर न
आयेगा।
एक मारवाड़ी
ने उन्नीस सौ
पचास के एक करोड़
कैलेंडर
खरीद लिए। एक
पैसे के चार
मिल रहे थे।
अब उन्नीस सौ
पचास के कैलेंडर
का कोई उपयोग
भी नहीं है।
नहीं बिक पाये
होंगे। पड़े रह
गये थे। तो
कोई उससे पूछा
कि पागल! माना, कि बहुत
सस्ते हैं, एक पैसे के
चार मिले, लेकिन
उनका करेगा
क्या? उसने
कहा कि कभी न
कभी तो उन्नीस
सौ पचास लौट कर
आयेगा; तब
देखना। तब
करोड़ों बरस
जायेंगे।
पूरब
में लोग
वर्तुलाकार
समय को मानते
हैं। हर चीज
फिर लौट कर
आयेगी। कोई
चीज सदा के
लिए नहीं खो
जाती। आज खो
गई, कल मिल
सकती है, परसों
मिल सकती है।
इस जन्म में
खो गई, अगले
जन्म में मिल
जायेगी। इस
जन्म में
जवानी को खो
दिया, घबड़ाओ मत। बहुत
बार मिलेगी।
इसलिए तेजी
नहीं है, भागदौड़
नहीं है।
पश्चिम
में एक ही
जन्म की धारणा
है। जन्म से लेकर
मृत्यु तक--बस, इतनी ही
सत्तर साल की
यात्रा है।
फिर सदा के लिए
समाप्त।
इसलिए कितनी
ही तेजी से
रफ्तार करो, कितनी तेजी
से उत्पादन
करो, आदमी
का कितना समय
बच जाये, कि
वह जीवन को
भोग ले। और
आदमी आखिरी दम
तक भोगता रहे
इसकी
व्यवस्था
करो। यह सारी
धारणा पैदा
हुई। यह मैं
क्यों कह रहा
हूं? यह
मैं इसलिए कह
रहा हूं, कि
जहां समय कम
मालूम पड़े
वहां तुम जोर
से भागोगे, पकड़ोगे। भोगने में
उत्सुक हो
जाओगे। और
जहां समय शाश्वत
है वहां कोई
जल्दी नहीं।
आज न देखा, हर्ज
नहीं। कल भी न
देखा, हर्ज
नहीं।
जन्मों-जन्मों
न देखा, तो
भी हर्ज नहीं।
कभी भी देख
लेंगे।
आत्मा
शाश्वत तत्व
है, शरीर
शाश्वत नहीं
है। इसलिए तुम
शरीर को पकड़ते
हो, देखते
हो, सम्हालते
हो, खोजते
हो। शरीर के
सुखों की
चिंता करते
हो। इसलिए
दीया तले
अंधेरा
इकट्ठा हो
जाता है।
शरीर
मरेगा। तुम
चाहे स्वीकार
करो या न करो।
तुम्हारे
चित्त में यह
तीर छुपा ही
है, चुभा ही है कि
शरीर मरेगा।
आत्मा अमृत
है। तुमने जानी
हो, न जानी
हो; उसका
अमृत स्वर
तुम्हारे
भीतर
प्रतिध्वनित हो
रहा है। तुम
पहचानो, न
पहचानो; सुनो,
न सुनो। वह
स्वर वहां
गूंज ही रहा
है। जो अमृत है
उसे भूलना
आसान है। जो मरणधर्मा
है उसे भूलना
कठिन है। जो मरणधर्मा
है उसे जल्दी
भोग लो। गणित
सीधा और साफ
है। आत्मा
अमृत है, शाश्वत
है। वह संपदा खोनेवाली
नहीं है। वहां
कभी कोई
बीमारी
प्रविष्ट
नहीं होती। इन
सब कारणों के
कारण दीये तले
अंधेरा है।
बुद्ध
कितना ही कहें, 'जल्दी करो' तो भी जल्दी
नहीं होती।
कृष्ण कितना
ही समझायें, तुम समझ
लेते हो फिर
जा कर अपने
संसार में लग
जाते हो। यह
बात इतने लोग
समझाते हैं, फिर भी समझ
में नहीं आती।
शरीर के संबंध
में कोई भी
नहीं समझा रहा
है, फिर भी
समझ में आता
है कि भोग लो।
यह धारा सदा न रहेगी।
ये
सारे कारण अगर
ठीक से देख
लोगे, तुम्हें
समझ में आयेगा
कि क्यों
चेतना की धारा
बाहर की तरफ
बह रही है और
भीतर की तरफ
नहीं। क्यों
तुम बाहर की
तरफ देख रहे
हो और भीतर
नहीं। क्यों
तुम धन खोज
रहे हो, पद
खोज रहे हो, संसार खोज
रहे हो; आत्मा,
परमात्मा, मोक्ष नहीं।
यह बिलकुल
स्वाभाविक
घटा है। यह दीया
तले अंधेरा
बिलकुल
स्वाभाविक
है। यह वैसे
ही है, जैसे
साधारण
मिट्टी के
दीये के नीचे
अंधेरा होता
है। ऐसे ही
तुम्हारे
नीचे अंधेरा
है।
यह
अंधेरा कब तक
रहेगा? जब
तक तुमने
स्वयं को शरीर
माना है, यह
अंधेरा
रहेगा। जब तक
दीया है, तब
तक अंधेरा
रहेगा।
ज्योति अकेली
हो, फिर
उसके नीचे कोई
अंधेरा नहीं
रहेगा। ज्योति
सहारे से है।
थोड़ी देर को
सोचो, ज्योति
मुक्त हो गई
अकेली आकाश
में, उसके
चारों तरफ
प्रकाश होगा।
लेकिन ज्योति
दीये के सहारे
है। दीया तो
ज्योति नहीं
है। जितनी जगह
दीया घेरेगा,
उतनी तो
अंधेरे में
रहेगी। इसलिए
बड़ी विरोधाभासी
घटना घटती है।
दीया सबको
प्रकाशित कर
देता है और
खुद अंधेरे
में डूबा रह
जाता है। तुम
सब को देख
लेते हो, बस
खुद ही का
दर्शन नहीं हो
पाता। तुम
सबको समझ लेते
हो, बस एक
ही अनसमझा
रह जाता है--वह
तुम स्वयं हो।
तुम सबकी
सहायता कर
देते हो, बस
एक ही असहाय रह
जाता है--वह
भीतर। तुम
चारों तरफ
संपत्ति के ढेर
लगा लेते हो, बस भीतर एक
खालीपन, एक
निर्धनता रह
जाती है।
जब तक
ज्योति शरीर
के सहारे है, जब तक तुमने
समझा है कि
मैं शरीर हूं,
जब तक
ज्योति को यह
भ्रांति है कि
वह दीया, मिट्टी
का दीया है; जब तक
ज्योति ने साफ-साफ
नहीं पहचान
लिया कि दीया
मिट्टी है और
मैं मिट्टी
नहीं, आत्मा
अग्निधर्मा
है, शरीर
मिट्टी है...।
तुमने
देखा, कि
अग्नि का एक
स्वभाव है वह
सदा ऊपर की
तरफ जाती है, ऊपर...ऊपर।
तुम दीये को
उल्टा भी कर
दो, तो भी
ज्योति ऊपर की
तरफ जायेगी।
तुम ज्योति को
उल्टा न कर
पाओगे। अग्नि
का स्वभाव है
ऊर्ध्वगमन। इसलिए
सारे ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्तियों
ने आत्मा को अग्निधर्मा
कहा है। इसलिए
जरथुस्त्र को माननेवाले
चौबीस घंटे
दीये को जलाये
रखते हैं
मंदिर में। वह
सिर्फ इस बात
की खबर है कि
अग्नि
तुम्हारा
स्वभाव है।
इसलिए सारी
दुनिया में
अग्नि की पूजा
पैदा हुई।
हिंदू सूर्य को
नमस्कार करते
हैं। वह
नमस्कार
सिर्फ अग्नि के
ऊर्ध्वगामी
स्वभाव को है।
जिस
दिन महावीर को
निर्वाण
उपलब्ध हुआ उस
दिन जैन
दीपावली
मनाते हैं।
महा-निर्वाण
हुआ उस दिन वे, उनकी ज्योति
दीये से मुक्त
हुई, उस
दिन करोड़ों-करोड़ों
दीये जलाते
हैं। हिंदुओं
की बजाय जैनों
की दीवाली
ज्यादा
सार्थक है।
हिंदू तो
लक्ष्मी की
पूजा के लिये
दीवाली मनाते
हैं। बड़ी उल्टी
है। तुम अग्नि
को भी लक्ष्मी
की पूजा में लगाते
हो? जो
ऊर्ध्वगामी
है, उसको
भी अधोगामी की
तरफ लगाते हो?
तुम दीये भी
जलाते हो तो
भी संसार को
प्रकाशित
करने के लिये।
जैनों
की दीवाली
ज्यादा
अर्थपूर्ण
है। वे इसलिए
मनाते हैं
दीवाली, कि
उस रात महावीर
महानिर्वाण
को उपलब्ध
हुए। अमावस की
रात महावीर ने
ठीक रात चुनी।
बुद्ध ने
पूर्णिमा की
रात ज्ञान उपलब्ध
किया, पर
महावीर ने
ज्यादा ठीक
रात चुनी।
अमावस की
अंधेरी रात!
सब तरफ अंधकार
है और महावीर
प्रकाश हो
गये। उस
अंधकार में वह
प्रकाश, ठीक
विरोध के कारण
प्रगाढ़
होकर दिखाई
पड़ा। एक दीया
जलाओ, तो
जब पूर्णिमा
की रात हो, उसका
कुछ पता भी न
चलेगा।
अंधेरी अमावस
में एक दीया
जलाओ, उसकी
रोशनी बड़ी प्रगाढ़
होगी।
जैनों
की दीवाली
ज्यादा
सार्थक है, लेकिन कोई
जैन उसको
मनाता नहीं।
सब जैन हिंदुओं
की दीवाली मना
रहे हैं। कब
उन्होंने भी
लक्ष्मी की
पूजा शुरू कर
दी, कहना
मुश्किल है।
मन तो हिंदुओं
का ही है। उसमें
कोई बहुत फर्क
नहीं पड़ता। वे
भी धन की ही पूजा
कर रहे हैं।
आदमी जैसा है,
वह सभी
चीजों को
मिट्टी की तरफ
नियोजित कर
देता है। यही
कारण है कि
हमारी चेतना
बाहर की तरफ देखती
है। यह कुछ
स्वाभाविक
है।
बच्चा
पैदा होता है, तो
स्वाभाविक है,
कि पहले
बाहर देखे।
जैसे ही बच्चे
का जन्म है तो
वह आंख खोलेगा,
बाहर का
संसार दिखाई
पड़ेगा। कान
खुलेंगे, बाहर
की ध्वनियां
सुनाई
पड़ेंगी। हाथ फैलायेगा,
मां को छुयेगा,
स्पर्श
करेगा, बाहर
की यात्रा
शुरू हो गई।
फिर प्रतिपल
की जरूरतें
हैं। बच्चे को
भूख लगेगी तो रोयेगा, चिल्लायेगा।
भूख भीतर तो
नहीं भर सकती
है। बाहर से
भरनी पड़ेगी।
प्यास लगेगी
तो रोयेगा।
पानी तो बाहर
से मांगना
पड़ेगा। भीतर
तो कोई जल के स्रोत
नहीं हैं।
बाहर में
धीरे-धीरे
निमज्जित
होता जायेगा।
धीरे-धीरे
बाहर ही सब
कुछ हो जायेगा।
भीतर की कोई
याद ही न
आयेगी। तुम
भूल ही जाओगे
कि तुम भी हो।
प्यास
ही नहीं है, जिसको प्यास
लगती है वह भी
है। भूख ही
नहीं है, जिसको
भूख दिखाई
पड़ती है, वह
भी है। यह हाथ,
जो तुम्हें
छूता है यही
नहीं है, तुम्हीं
नहीं हो, जिन्हें
छूता हूं, इस
हाथ के भीतर
जो छिपा है, जिसके बिना
हाथ हिल भी न
सकेगा वह भी
है। वह धीरे-धीरे
भूल जायेगा।
तुम उसके आदी
हो जाओगे। और
वह इतना शांत
है कि उसका
तुम्हें पता
भी न चलेगा।
उसकी आवाज
इतनी धीमी है,
कि इस बड़े
कोलाहल में जो
बाहर हो रहा
है, वह
आवाज खो
जायेगी। ऐसे
ही है, जैसे
कोई बाजार में
धीमे-धीमे गीत
गाता हो।
दो
फकीर रास्ते
से गुजरते थे।
अचानक एक फकीर
ने कहा कि
सुना? अजान
का समय हो
गया। मस्जिद
से अजान की
आवाज आई। सांझ
का वक्त! उस
दूसरे फकीर ने
कहा, हैरान
कर दिया
तुमने। इस
बाजार के
कोलाहल में, जहां हजारों
लोग भाव कर
रहे हैं, चीजें
बेच रहे हैं, चिल्ला रहे
हैं, जहां
कुछ समझ में
नहीं आता, तुम्हें
अजान मस्जिद
की कैसे सुनाई
पड़ी? उस
दूसरे फकीर ने
कहा, 'जिस
तरफ ध्यान लगा
हो, वह
कहीं भी सुनाई
पड़ जायेगा।' उसने कहा, 'देख, तुझे
मैं
प्रत्यक्ष
प्रमाण देता
हूं।' खीसे
से एक रुपया
निकाला, जोर
से रास्ते पर
पटका। खन की
आवाज हुई। वे
सब जो बड़ा
शोरगुल मचा
रहे थे, दूकानदार,
ग्राहक, चिल्लानेवाले सब एकदम दौड़
पड़े।
रुपया!
उन सबका ध्यान, आवाज वे
कहीं भी लगा
रहे हों, लेकिन
रुपये पर लगा
है। उसी के
लिए तो सारी
आवाज चल रही
है। उन्हें
अजान सुनाई न
पड़ी, जो कि
रुपये की आवाज
से बहुत तेज
थी। रुपये की आवाज
तत्क्षण
सुनाई पड़ गई।
वहां ध्यान
लगा है। भीतर
तो सतत रुपये
के लिए धुन चल
रही है। उसका
जाप चल रहा
है। वही
तुम्हारा
महामंत्र है।
तुम
वही देख पाते
हो जिस तरफ
तुम्हारी
वासना दौड़ रही
है। तुम वही
सुन पाते हो
जिस तरफ तुम्हारे
कान लगे हैं।
तुम वही पकड़
पाते हो जो
तुम चाहते हो।
एक बड़ा
चित्रकार
शास्त्रीय
चित्रों के
संबंध में एक
सभा में बोल
रहा था। उसने
कोई दो घंटे तक
चित्रकला की
बड़ी
सूक्ष्मतम
गहराइयों में प्रवेश
किया।
चित्रकला के
बड़े सूक्ष्म
पहलू उघाड़े
और समझाये।
मंत्रमुग्ध
थे लोग। और
अंत में उसने
पूछा कि कोई
सवाल? कुछ
पूछने को न था।
क्योंकि उसने
करीब-करीब जो
भी पूछा जा
सकता था, सब
कह दिया था।
लोग तो चुप
रहे, लेकिन
एक बूढ़ी औरत
खड़ी हो गई।
उसने कहा, एक
सवाल है। इस
फर्श को साफ
करने के लिए
किस पॉलिश
का उपयोग किया
गया है? वह
जिस हाल में
सभा हो रही थी,
इसमें कौन
सा तेल लगाया
गया है, कि
इतनी चमचमाहट
मालूम हो रही
है?
चित्रकला
की लंबी कथा, चित्रों के
रहस्य का सारा
निवेदन
व्यर्थ गया।
यह स्त्री
पूरे वक्त
फर्श को ही
देखती रही होगी।
और इसने सोचा
कि यह आदमी
रंगों और
चित्रों के
संबंध में
इतना जानता है
कि फर्श पर
कौन सा तेल
लगाकर इसको
चमकाया गया है,
जरूर जानता
होगा। यह औरत
घर में फर्श
चमकाने में
लगी रहती
होगी। कुछ
औरतें हैं
जिनका दिमाग इसी
में खराब हो
जाता है। वे
फर्श ही
चमकाती रहती
हैं। उनको खुद
को चमकाने का
मौका ही नहीं आता।
वे घर की ही
सफाई में लगी
रहती हैं।
उन्हें भीतर
की सफाई का
समय ही नहीं
मिलता।
पर जिस
तरफ ध्यान लगा
हो, वह बात
तत्क्षण समझ
में आ जाती
है। तुम चूंकि
बाहर की तरफ
में ध्यान
लगाये हुए हो,
बाहर समझ
में आता है।
कब तुम
भीतर की तरफ
ध्यान लगाओगे? क्या होगा? क्या बुद्ध
तुम्हें, बुद्धपुरुष तुम्हें
भीतर की तरफ
ध्यान लगवा
सकते हैं? अगर
लगवा सकते, तो यह बात
कभी की घट गई
होती। कोई
तुम्हारे ध्यान
को भीतर की
तरफ नहीं लगवा
सकता, जब
तक कि तुम
बाहर से ऊब न
जाओ। जब तक कि
तुम बाहर से
ऐसे विपन्न न
हो जाओ, इतने
क्षुब्ध न हो
जाओ, बाहर
इतना व्यर्थ न
दिखाई पड़ने
लगे, कि
तुम खुद ही
पूछो कि कोई
और यात्रा भी
है? कि
बाहर की
यात्रा
समाप्त हुई।
लेकिन
अभी वह घड़ी
नहीं आई, अन्यथा
तुम भीतर झांक
कर देख लेते।
मेरे पास लोग
आते हैं। वे
कहते हैं, बड़ी
कठिनाई है
ध्यान लगाने
में। कठिनाई
जरा भी नहीं
है। अभी बाहर
की वासना नहीं
मरी, वही
कठिनाई है। और
समाज ने जैसा
तुम्हें ढांचा
दिया है, उसमें
वह बाहर की
वासना मर नहीं
पाती।
इसे
थोड़ा समझना।
यह थोड़ा कठिन
है। समाज ने
तुम्हें जो
ढांचा दिया है, उसके कारण
बाहर की वासना
न तो तृप्त हो
पाती है और न
मर पाती है।
तृप्त हो जाये
तो मर जाये। क्योंकि
सभी तृप्ति
तुम्हें ऊबा
जाती है। अगर तुम
ऐसे समाज में
रहते हो, जहां
स्त्रियां
बुरका ओढ़े
हुए हैं, तो
हर स्त्री जो
रास्ते से
निकलेगी
उसमें तुम्हारी
उत्सुकता
होगी। वह चाहे
भीतर कुरूप हो,
लेकिन
बुरका
उत्सुकता जगायेगा।
पश्चिम में
लोग
स्त्रियों
में इतने
उत्सुक नहीं
हैं। समुद्र
तट पर
स्त्रियां
नग्न लेटी रहती
हैं। पास से
लोग गुजर रहे
हैं, कोई
देख भी नहीं
रहा है। किसी
को प्रयोजन
नहीं है।
स्त्री उघड़ा
हुआ सत्य हो
गई है। अब
उसमें कुछ
छिपाने को नहीं
है।
पूरब
के लोग ज्यादा
चालबाज थे।
घूंघट कुरूप स्त्री
को भी सुंदर
बनाये रखता
है। रस कायम
रहता है। और
तुम्हारे
समाज में सब
चीजों पर
घूंघट डाल
दिया है। जहां
भी तुम जाओ
वहां ही कुछ
खुला नहीं है।
सब छिपा हुआ
है। उस छिपे
होने के कारण
जिंदगी भर तुम
सिर फोड़ते हो
लेकिन ऊब नहीं
पाते। रस कायम
रहता है। अगर एक
स्त्री से
छुटकारा हो
जाये, तो
दूसरी स्त्री
में रस आ जाता
है। दूसरी से
छुटकारा हो, तो तीसरी
में आ जाता
है। और मन यह
कहे ही चला जाता
है कि तुम्हें
अभी वह स्त्री
नहीं मिली, जिससे
तृप्ति
मिलेगी; जल्दी
वह स्त्री
मिलेगी।
बुद्ध
ऊब गये। बाप
की भूल थी।
क्योंकि बाप
ने सारी सुंदर
स्त्रियां
इकट्ठी कर
दीं। बुद्ध का
जन्म हुआ तो
ज्योतिषियों
ने कहा कि यह
लड़का या तो
तीर्थंकर
होगा, बुद्धपुरुष हो जायेगा
और या
चक्रवर्ती
सम्राट होगा।
स्वभावतः बाप
ने सोचा कि
तीर्थंकर
होने में क्या
सार है? भिक्षु
संन्यासी
होने में क्या
रस है? चक्रवर्ती
सम्राट हो तो
मेरे अहंकार
को रस होगा।
सारी दुनिया
का राजा बन
जायेगा। तो
बाप ने
ज्योतिषियों
से पूछा कि
तुम मुझे बताओ
कि मैं इसे
तीर्थंकर
होने से कैसे
रोकूं?
बस, यहीं भूल हो
गई। अगर मुझसे
पूछा होता तो
मैं कहता कि
सब स्त्रियों
पर घूंघट डाल
दो। सब स्त्रियों
को मुसलमान
बना दो। जहां
भी यह जाये, दरवाजा बंद
पाये। जहां भी
रास्ता मिले,
वहीं लिखा
हो भीतर
झांकना मना
है। इसको
संसार में
भोगने मत
देना। थोड़ा-सा
जाने देना और
ज्यादा अटका
लेना। बिलकुल
भी मत रोकना।
क्योंकि उससे
आदमी
आत्महत्या कर
लेता है। इसे
इतना तो भोजन
देते ही रहना
कि जिंदा रहे,
लेकिन पूरा
भी मत दे
देना।
क्योंकि पूरा
मिलते ही आदमी
ऊब जाता है।
आधे-आधे में लटकाये
रखना।
तो
बुद्ध शायद घर
छोड़कर न भागे
होते। लेकिन
ज्योतिषियों
ने सीधे गणित
की बात कही।
जिंदगी सीधे
गणित को मानती
नहीं। जिंदगी
बड़ी तिरछी है।
उसकी चाल सीधी
नहीं है, बड़ी
रहस्यपूर्ण
है। वह गणित
जैसी--दो और दो
चार होते हैं,
ऐसी नहीं
है। कभी-कभी
दो और दो तीन
होते हैं; कभी
दो और दो पांच
होते है, कभी
दो और दो
कितना ही जोड़ो
जुड़ते ही
नहीं। जिंदगी
बड़ी
रहस्यपूर्ण
है, पहेली
भरी है।
ज्योतिषियों
ने कहा कि सब
सुंदरतम
स्त्रियां
इकट्ठी कर दो
राजमहल में।
इसे कोई कमी न
रहने दो। न
रहेगी कमी, न दौड़ेगा
खोज में। इसके
आसपास साधारण
लोगों को आने
ही मत दो। न यह
कभी बीमार को
देखे, न
कभी बूढ़े को
देखे, न
कभी मुर्दे को
देखे।
क्योंकि न
जीवन में मृत्यु
दिखाई पड़ेगी,
न सवाल
उठेगा। न सवाल
उठेगा, न
यह खोज पर
जायेगा। इसके बगीचे के
फूल-पत्ते भी
सूखने के पहले
अलग कर दो।
क्योंकि हो
सकता है पूछे
कि यह फूल
कैसे सूख गया?
शायद उससे
संकेत मिल
जाये और पूछने
लगे कि क्या
मैं भी आज जो
फूल जैसा खिला
हूं, कल
फूल जैसा सूख जाऊंगा? तो इसे सूखे
फूल मत देखने
दो। सर्दी का
अलग महल बनाओ,
जहां गर्मी
रहे। गर्मी का
अलग महल बनाओ,
जहां सर्दी
रहे। वर्षा के
लिए अलग
इंतजाम करो।
तो
बुद्ध के पिता
ने तीन महल
बनाए। उन
तीनों में
अलग-अलग आयोजन
किया। बुद्ध
जवान हो गये
तब तक
उन्होंने
बूढ़ा आदमी
नहीं देखा, बीमार आदमी
नहीं देखा, मुर्दा नहीं
देखा। उन्हें
पता ही नहीं
था कि कोई
मरता है। फूल
सूखने के पहले
हटा दिये जाते।
पत्ते गिरने
के पहले तोड़
दिए जाते और
समस्त
सुंदरतम लड़कियां
सारे राज्य की
उनके आसपास
इकट्ठी कर
दीं।
बस, यही उपद्रव
हो गया। वे ऊब
गये जल्दी ही।
मन हर चीज से
ऊब जाता है।
संसार से नहीं
ऊब पाता क्योंकि
संसार तुम्हें
मिल ही नहीं
पाता, ऊबोगे कैसे? धनी
ऊब सकता है धन
से; गरीब
कैसे ऊबेगा?
गरीब को तो
रस बना रहता
है। समाज ने
ऐसा ढांचा बनाया
है जिसमें
तुम्हें
जरा-जरा सी
बूंद टपकती
मिलती है जीवन
की। कभी तुम
भरपेट नहीं
जीवन को ले
पाते हो।
भरपेट ले लो, छुटकारा हो
जाये। और सारा
समाज समझाता
है, कि यह
बुरा है। अब
यह बड़ा मजा है,
कि जिस-जिस
को तुम कहते
हो बुरा है, उसी-उसी में
रस पैदा होता
है। जिस चीज
में किसी को
भी रस न हो, उसको
भी तुम कह दो
यह पाप है, उसमें
रस आ जायेगा।
एक
कैथलिक
पुरोहित--शराब
पीने की मनाही
है, शराब पी
नहीं है कभी--शराब
में बड़ा रस
था। जो भी न
भोगा हो उसमें
रस होता है।
क्योंकि उसका
अभाव खलता है।
शराब कभी पी
ही नहीं थी।
उसमें बड़ा रस
था, बड़ा
परेशान था।
चौबीस घंटे बस
शराब का ही
खयाल आता था, कि लोग न
मालूम कैसा
मजा ले रहे
हैं। रास्ते पर
शराबी झूमता
निकलता है।
पता नहीं भीतर
कैसी झूम चल
रही है। मस्ती
चल रही है।
कौन सी
प्रसन्नता है?
कौन सा आनंद
छलका पड़ रहा
है? गीत
गाता निकलता
है। उदास
चेहरे हंसते
हैं। जो कभी
चल भी नहीं
सकता था, वह
भी नाचता
मालूम पड़ता
है। बुझे-बुझे
मुरझाये
चेहरे पर रौनक
आ जाती है।
पता नहीं शराब
भीतर क्या
करती है।
चौबीस घंटे वह
शराब के लिए
ही सोचता था।
अंततः उससे न
सहा गया, तो
उसने शराब
चोरी से चख
ली। बड़ा आनंद
आया। आनंद
इतना आया कि
उसने सोचा कि
अब यह चोरी कब
तक चलाऊंगा?
तो वह
कैथलिक ईसाई
से, प्रोटेस्टेंट ईसाई हो गया
क्योंकि वहां
शराब की
पाबंदी नहीं
थी। वहां दिल
खोल कर शराब
पीने लगा।
कुछ
दिन बाद उसने
अपनी डायरी
में लिखा, कि जो मजा
कैथलिक होकर
शराब पीने में
था, वह प्रोटेस्टेंट
होकर नहीं।
उसने लिखा कि
अब मैं समझा, कि वही चीज
आनंदपूर्ण हो
सकती है, जिसको
समाज पाप कहता
है।
व्यर्थ
की चीज भी
आनंदपूर्ण हो
जायेगी अगर पाप
कह दी जाये।
पाप में जैसा
रस है वैसा
पुण्य में
कहां? छोटे
बच्चों से
पूछो। घर के
पके हुए आम वह
रस नहीं देते,
जो पड़ोसी की
दीवार छलांग
लगा कर कच्चे
आमों के खाने
में आता है।
निश्चित ही
सवाल मिठास का
और खटास का
नहीं है, सवाल
निषेध का है।
तुम उस बच्चे
को कहो कि तुम
पैसे ले लो, बाजार से
खरीद लो। तुम
समझ ही नहीं
रहे हो बात को।
बाजार से तो
आम खरीद लिए
जायेंगे, लेकिन
कैथलिक होकर
शराब में जो
मजा है, वह प्रोटेस्टेंट
होकर कहां? बाजार से आम
तो रोज ही
खरीद कर आ
जाते हैं; वह
बात नहीं है।
तुम समझ ही
नहीं पा रहे
कि बच्चा रस किस
बात का ले रहा
है। बच्चा रस
ले रहा है इस
बात का कि
उसने
प्रतिबंध
तोड़ा, नियम
तोड़ा, स्वतंत्रता
की घोषणा की।
वह मालिक हुआ।
तुम उसे रोक न
पाये। सारी
दुनिया रोकने
की कोशिश कर
रही थी, न
रोक पाई।
मुल्ला
नसरुद्दीन
का बेटा एक
छोटे से पौधे
को खींच रहा
था। आखिर उसने
खींच लिया।
मैंने उससे
कहा, 'तूने गजब
किया। तेरी
अभी इतनी ताकत
नहीं है। फिर
भी तूने पौधा
खींच लिया!' और उसने कहा,
'यह भी तो
देखिए, सारी
दुनिया उस तरफ
लगी थी। सारी
पृथ्वी और मैं
अकेला। सारी
दुनिया उस तरफ
लगी थी खींचने
में और फिर भी
मैंने खींच
लिया।'
अहंकार
को रस मिलता
है नियंत्रण
तोड़ने में।
अहंकार को रस
मिलता है सीमा
के पार जाने
में। अहंकार निर्मित
होता है विरोध
में। तुमने
जितने प्रतिशोध
बनाये, उतना
अहंकार पैदा
किया। और
तुमने
जहां-जहां कहा,
मत जाना, वहां-वहां
तुमने बुलावा
दिया है।
जितने तुम्हारे
निषेघ
हैं, उतने
ही प्रगाढ़
तुम्हारे
निमंत्रण
हैं। इसलिए
छुटकारा नहीं
हो पाता। जा
भी नहीं सकते
पूरे।
अब
क्या कठिनाई
है आम मन की? तुम स्त्री
को प्रेम भी
करोगे और पूरा
कर भी न पाओगे।
पूरा करते, तुम ऊब
जाते। तुम
प्रेम भी करते
हो, करने
से बच भी नहीं
सकते।
क्योंकि पूरा
प्रवाह
जीवन-धारा का
कामुकता से
भरा है। तुम
प्रेम करोगे
भी। न करोगे
तो वही-वही
सोचोगे। सारा चित्त,
मन, वासना
के आसपास
घूमने लगेगा।
स्वप्न भर
जायेंगे उसी
से। कविता
लिखने लगोगे,
चित्र
बनाने लगोगे,
सब तरफ
स्त्री दिखाई
पड़ने लगेगी।
जहां नहीं है,
वहां भी
दिखाई पड़ने लगेगी।
तुम्हारा मन
स्त्री से
लिप्त हो जायेगा,
धक्के
मारेगा।
अगर
स्त्री को
भोगोगे तो
पूरा न
भोगोगे। क्योंकि
भोगते वक्त सब
बुद्ध, महावीर
तुम्हारा
पीछा करेंगे।
उनके वचन तुम्हें
सुनाई
पड़ेंगे। क्या
पाप कर रहे हो?
कैसा अपराध
कर रहे हो? कहां
उलझे हो कीचड़
में, छूटो,
भागो, मुक्त होओ।
यही तो बंधन
है। तुम्हें
सब ज्ञान उसी
वक्त याद
आयेगा, जब
तुम्हें
स्त्री
मिलेगी।
स्त्री न मिले
तो स्त्री याद
आयेगी।
स्त्री मिले
तो ज्ञान याद आयेगा।
तुम स्त्री को
भी आधा-आधा
भोग पाओगे।
वह जो कुनकुनी-कुनकुनी
बुद्धि है वह
छुटकारा नहीं
पा सकती। तुम
पूरे कहीं भी
नहीं हो। मैं
तुमसे कहता हूं:
पूरा भोग लो
और तुम्हें
छुटकारा हो
जाएगा। तुम
बाहर हो
जाओगे। तब तुम
समझ पाओगे कि
बुद्ध के कहने
का क्या अर्थ
है; उसके
पहले नहीं।
तुम भोजन करते
हो, तब तुम
डरते-डरते
करते हो
क्योंकि सब
चिकित्सक याद
आते हैं, जो
कहते हैं कि
ज्यादा मत! वे
निषेध बन कर
खड़े हैं।
गुरजिएफ
ने संस्मरण
लिखा है, उसे
कोई फल खाना
प्रीतिकर था।
इतना ज्यादा
प्रीतिकर था,
कि उसके
कारण वह अक्सर
बीमार पड़ता।
पेट में दर्द
होता। कच्चा
जंगली फल!
आखिर उसके
दादा ने, एक
दिन टोकरी भर
कर वह फल ले
आया। और उसने
कहा, 'आज तू
खा, जितना
खा सके।' गुरजिएफ
ने पूछा, 'जितना
खा सकूं?' जितना
तू खा सके। और
वह दादा डंडा
ले कर उसके पास
बैठ गया। जब
वह पूरा खा
चुका और घबड़ाने
लगा तो उसके
दादा ने कहा, 'आज पूरा ही
करना है।
टोकरी पूरी
खतम करनी है।'
उसने कहा, लेकिन मुझे
अब वमन की हालत
हो रही है।
उसने कहा, 'वह
वमन हो जाये, उसकी फिक्र
नहीं लेकिन
टोकरी पूरी
करनी है, नहीं
तो डंडा है
मेरे पास।' आज हालत
उल्टी हो गई।
रोज डंडा फल न
खाने के लिए
था--कि फल खाया,
कि डंडा
पड़ा। आज डंडा
फल खाने के
लिए था।
उसका
मन भागने लगा।
वह खा रहा है, लेकिन फल
बेस्वाद
मालूम पड़ने
लगा। वह खा
रहा है, लेकिन
फल अब तिक्त
हो गया। वह खा
रहा है, लेकिन
अब उलटी आने
की हालत पैदा
हो गई। और दादा
है, कि
डंडा हिला रहा
है कि तू इस
टोकरी को पूरा
कर। किसी तरह
उसके दादा ने
टोकरी पूरी
करवा दी। गुरिजएफ
ने लिखा है, 'फिर मैं
सत्तर साल
जीया। फिर, फिर भूल कर
वह फल
मैंने...मुझे
दिखाई भी पड़
जाये, तो
मेरे पेट में
दर्द होता है।
क्योंकि वमन
हुई, दस्त
लगे। कोई आठ
दिन तक तकलीफ
रही, बुखार
रहा, लेकिन
उस फल से
छुटकारा हो
गया।'
गुरिजएफ
का दादा बुद्ध
के बाप के
ज्योतिषियों
से ज्यादा
होशियार और
कुशल था।
तुम्हें
जीवन में ऊब
नहीं आई है।
अभी भी रस कायम
है। अभी भी
आशा बनी है।
अभी भी तुम
सोचते हो कि
मिल जायेगा
सुख वहां। अब
तक नहीं मिल
पाया, क्योंकि
तुमने ठीक से
कोशिश नहीं की
है। अब तक
नहीं मिल पाया,
क्योंकि
तुम धीमे-धीमे
चल रहे हो। अब
तक नहीं मिल
पाया, कि दूसरे
लोग चालाक हैं,
वे तो पा
रहे हैं। तुम
सीधे-सादे हो,
तुम नहीं पा
रहे हो। अभी
तुम्हें यह
नहीं दिखाई
पड़ा, कि
वहां रस ही
नहीं है। चाहे
तुम तेज चलो, चाहे धीमे, चाहे तुम
चालाकी करो, चाहे मत
करो। जहां रस
नहीं है, वहां
रस पाया नहीं
जा सकता। तुम
रेत से तेल न निचोड़
पाओगे। तुम
आकाश-कुसुम की
तलाश में हो।
वह फूल कहीं
है ही नहीं।
लेकिन
यह तुम्हें
कैसे दिखाई
पड़े? यह मेरे
कहने से दिखाई
पड़ता तो बड़ी
आसान बात थी।
जिंदगी इतने
आसान रास्ते
नहीं मानती।
यह तुम्हें
अनुभव से
देखना पड़ेगा।
तुम्हें पीड़ा से
गुजरना ही
होगा।
तुम्हें उस
सीमा तक जाना
पड़ेगा, जहां
तुम्हारे सब
सुख, दुख
हो जाएं।
इसे
स्मरण रखो:
जहां
तुम्हारे सब
सुख दुख हो जायें, वहीं
संन्यास का
जन्म है। और
वहीं से दीये
के नीचे का
अंधेरा मिटना
शुरू होता है।
क्योंकि तब
रोशनी भीतर
लौटने लगती
है। तब यह
यात्रा समाप्त
हुई। बाहर कुछ
भी नहीं है।
परिपूर्ण मन
से यह जान कर, कि बाहर कुछ
भी नहीं है, फिर तुम
पूरे के पूरे
भीतर लौट आते
हो।
पूरे
बाहर चले जाओ।
डर क्या है? भयभीत किससे
हो? भय के
कारण बाहर
नहीं जा रहे।
बाहर न जाने
के कारण बाहर
में रस बना
हुआ है। रस
बना है, तो
आशा जगी है।
आशा जगी है, तो भीतर न
मुड़ पाओगे।
आधे-आधे हो
तुम सब जगह। तुम
न मालूम कितनी
नावों पर सवार
हो। तुम सीढ़ी पर
ऊपर भी जाना
चाहते हो, नीचे
भी जाना चाहते
हो। तुमने एक
पैर नीचे की तरफ
रखा हुआ है, एक पैर ऊपर
की तरफ रखा
हुआ है।
तुम्हारा
जीवन बड़े
व्यर्थ के
संकट में अटका
हुआ है।
मैं
तुमसे कहता
हूं: तुम्हें
पाप में रस है, तुम पूरे
पापी हो जाओ।
तुम उसमें ही
पूरे डूबो।
अभी तुम पुण्य
की चिंता छोड़
दो। लेकिन तुम
अपने को ही
धोखा देते हो।
तुम कहते हो
कि दोनों सम्हालना
ज्यादा ठीक
है। थोड़ा
पुण्य भी सम्हाले
रखो, और
थोड़ा पाप भी
सम्हाले रखो।
वेश्या के घर
भी जाते रहो, मंदिर में
दान भी करते
रहो। शराब भी
पीते रहो, मंदिर
में जाकर
कसमें भी खाते
रहो। संकल्प
करते रहो कि
अगले वर्ष सब
ठीक कर लेंगे,
सब छोड़
देंगे। बस, एक ही साल की
बात और है। कि
आज का ही सवाल
है, कल से
तो सब ठीक कर
लेना है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने एक बार कसम
खा ली कि अब
शराब नहीं
पीना है। कुछ
भी हो! शराबघर
के सामने आया, बड़ी बेचैनी
होने लगी। पर
उसने कहा कि
कुछ भी हो
जाये, शराब
मैं पीने वाला
नहीं। कोई बीस
कदम आगे तक गया,
फिर उसने
अपनी पीठ
ठोंकी और कहा,
'शाबाश नसरुद्दीन!
इतनी हिम्मत
की कि शराबघर
के आगे से
निकल गया और
भीतर न गया।
अब इस खुशी में
तुझे पिलवाते
हैं।' तब
उसने जाकर
दुगुनी पी ली।
सभी
कसमें खाने
वालों के साथ
यही हो रहा
है। मंदिर में
कसम खाते हो
ब्रह्मचर्य
की, उसी क्षण
स्त्री इतनी
सुंदर दिखाई
पड़ने लगती है,
जितनी कसम
के पहले न थी।
तुम्हारी कसमें
भी स्वाद को
जगाने का उपाय
तो नहीं? स्त्री
में रस खो रहा
होता है, तो
तुम
ब्रह्मचर्य
की कसम खा
लेते हो। उससे
रस वापिस लौट
आता है। भोजन
से ऊबने लगते
हो, तो
उपवास कर लेते
हो। उससे रस
लौट आता है।
सभी विपरीत
चीजें रस को
जन्माती हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, कि
पति-पत्नी को
एक ही कमरे
में नहीं रहना
चाहिए। उससे
रस क्षीण होता
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, कि
उन्हें दो अलग
कमरों में
रहना चाहिए और
चौबीस घंटे
मिलना-जुलना
नहीं चाहिए।
उससे रस क्षीण
होता है।
इसलिए
पति-पत्नी एक
दूसरे से ऊब
जाते हैं। परेशान
हो जाते हैं।
पत्नी को
कभी-कभी मायके
चले जाना
चाहिए। उससे
रस वापिस लौट
आता है। जिस
चीज से तुम
ऊबने लगो, उससे विपरीत
करने से स्वाद
लौट आता है।
तुम्हारा
जीवन ऐसे ही
है जैसे मिठाई
खाने वाला
नमकीन भी खाता
है। नमकीन से
मीठे का रस
वापिस लौटता
है। विपरीत से
जीभ साफ हो
जाती है।
तुम
भोजन करते हो।
और मैं देखता
हूं इधर, कि
जो ज्यादा
भोजन
करनेवाले लोग
हैं, अक्सर
उपवास में
उत्सुक हो
जाते हैं।
जिन्होंने
ज्यादा खा
लिया है, अब
उपवास के
सिवाय कुछ
बचता भी नहीं
है करने को।
उपवास से उनके
खाने की
वृत्ति फिर
वापिस लौट आती
है। बहुत
कामी-चित्त के
लोग
ब्रह्मचर्य
में उत्सुक हो
जाते हैं। क्योंकि
काम शिथिल हो
जाता है, घबड़ा
जाते हैं।
ब्रह्मचर्य
फिर से रस दे
देता है। जैसे
घड़ी का पेंडुलम
बांये से दांये तरफ
जाता है, दांये
से बांये
तरफ आता है।
जब वह दांए जा
रहा है, तब
तुम्हें पता
नहीं है, बांये
आने की शक्ति
जुटा रहा है।
जितनी लंबी
झूल लेगा दांये
तरफ, उतनी
ही लंबी झूल
लेगा बांये
तरफ।
तुम्हारा
चित्त ऐसे ही
द्वंद्व में
भटकता है। तुम
पूरे भाव से
संसार को भोग
लो, उसी क्षण
मुक्त हो
जाओगे। संसार
इतना व्यर्थ है
कि आश्चर्य है
कि उसमें रस
कायम कैसे रह
जाता है; उसमें
रस कायम रह
जाता होगा, तो उसका
कारण एक ही है
कि तुमने पूरी
आंख खोलकर भी
नहीं देखा।
एक
स्त्री ने
जाकर एक दिन
पुलिस स्टेशन
में रिपोर्ट
लिखवाई कि
मेरे साथ बहुत
अभद्र व्यवहार
हुआ है। एक
आदमी ने मुझे
रास्ते पर पकड़
लिया और मेरा
चुंबन लिया; भरी दुपहरी,
बाजार खुला,
दूकानों पर
लोग काम कर
रहे, सड़कें चलतीं-फिरतीं--सुपरिटेंडेंट
ने कहा, कैसा
आदमी था? उसका
हुलिया लिखवाओ।
कितना लंबा था?
कैसे कपड़े
पहने था? कैसी
शक्ल थी? उस
स्त्री ने कहा,
यह मुझे कुछ
भी पता नहीं। सुपरिटेंडेंट
ने कहा, हैरान
किया तुमने।
भरी दुपहरी है,
अंधेरा नहीं
है, कोई
आदमी ने
तुम्हें पकड़ा,
चुंबन लिया
और तुम यह भी न
देख पाईं कि
उसकी शक्ल
कैसी है? कपड़े
क्या पहने है?
ऊंचाई-लंबाई
क्या है? उस
स्त्री ने कहा,
'बात यह है, कि जब भी कोई
मेरा चुंबन
लेता है तो
मैं आंख बंद
कर लेती हूं।'
स्त्रियां
अक्सर कर लेती
हैं।
तुम संसार
में तो हो, लेकिन आंख
बंद करके या
आधी आंख खोल
कर। तुम संसार
का हुलिया
नहीं पहचान
पाते, राग-रंग
नहीं समझ
पाते। तुम हो
तो संसार में,
लेकिन
पूरे-पूरे
नहीं। और तुम
सोचते हो कि
यह तुम्हारी
धार्मिकता
है। क्योंकि
तुम पूरे-पूरे
नहीं हो। और
जिस दिन तुम
पूरे-पूरे हो
जाओगे उस दिन
तुम हंसोगे, कि कैसी मूढ़ता
है! संसार पाप
नहीं है, अज्ञान
है।
इस बात
को बहुत ठीक
से समझ लो।
मैं संसार को
पाप नहीं कहता
क्योंकि
जिन-जिन ने
उसे पाप कहा है, उन सबने
तुम्हारा रस
बढ़ाया है।
संसार पाप नहीं
है, मूढ़ता है। इसलिए
संसार को
छोड़ना नहीं है;
संसार को
जानना है।
संसार
तुम्हारे
त्याग से नहीं
मिटेगा।
त्याग से तो
संसार का रस
वापिस लौट
आयेगा। जो खो
गया रस, वह
फिर जीवित हो
जायेगा।
संसार त्याग
से नहीं मिटेगा,
संसार
ज्ञान से
मिटेगा।
यह
बहुत
क्रांतिकारी
फर्क है।
संसार अगर पाप
है, तो उसे
छोड़ने में तुम्हारा
अहंकार बढ़ता
है। और जिससे
तुम्हारा अहंकार
बढ़ता है, तुम
उससे कैसे छूटोगे?
मैं तुमसे
कहता हूं कि
संसार मूढ़ता
है। उससे
अहंकार बढ़ाने
का कोई भी
कारण नहीं। उससे
तुम सिर्फ मूढ़
सिद्ध होते
हो। उससे
सिर्फ इतना ही
पता चलता है
कि तुमने आंख
खोलकर देखा भी
नहीं, कि
संसार का
हुलिया क्या
है, ढंग
क्या है, यह
संसार क्या
है! तुम पुलिसथाने
में भला
रिपोर्ट लिखाने
पहुंच गये हो।
तुम भला किसी सदगुरु के
पास पहुंच गये
हो और कहते हो,
छुटकारा दिलाओ इस
संसार से; लेकिन
कोई तुम्हें
छुटकारा नहीं
दिला सकता, तुम्हारी
खुली आंखों के
अतिरिक्त।
भरपूर नजर से
इसे देख लो।
आंख बंद क्यों
करते हो?
पर आंख
बंद करने के
पीछे जाल है।
सबने समझाया है
कि यह बेकार
है। तुम्हारी
खोपड़ी में ये
विचार बैठ गये
हैं कि संसार
बेकार है, क्या भोगना!
तो जब तुम
भोगते हो, आंख
बंद कर लेते
हो। इसलिए
पूरा भोग नहीं
पाते। पूर्ण
भोग त्याग बन
जाता है।
तुम्हें जिस
चीज में रस हो,
तुम किसी की
मत सुनना। तुम
उस रस को पूरा
ही कर लेना।
जिस दिन तुम
पूरा करोगे उस
दिन तुम पाओगे,
कि तुम कैसी
व्यर्थता में
लगे थे।
संसार
व्यर्थ हो
जाये, तत्क्षण
अंतर्यात्रा
शुरू हो जाती
है। तब मिट्टी
का दीया बेकार
हुआ। तब रोशनी
सब तरफ गिरती
है। दीये के
नीचे का
अंधेरा मिटता
है। इसे समस्त
ज्ञानियों ने
आत्मज्ञान
कहा है। लेकिन
आत्मज्ञान के
पहले एक शर्त
है, और वह
है 'संसार-ज्ञान।'
संसार एक
विद्यापीठ है,
एक अनुभव का
विस्तार है।
उस अनुभव को
तुम कच्चा-कच्चा
क्यों लेते हो?
उसे पकने
क्यों नहीं
देते, कि
वह खुद गिर
जाये? कच्चे
फलों को तोड़ना
पड़ता है।
तोड़ने से फल
को भी घाव
लगता है, वृक्ष
को भी घाव
लगता है। पके
फल चुपचाप गिर
जाते हैं।
उन्हें तोड़ना
भी नहीं पड़ता।
आज ही
सुबह मैं देख
रहा था। बादाम
के वृक्ष पर पत्ते
पक गये हैं। पका
पत्ता ऐसा
गिरता है, वृक्ष को भी
पता नहीं चलता,
पत्ते को भी
पता नहीं
चलता। चुपचाप
गिर जाता है।
कहीं कोई घाव
नहीं छूटता।
जिस दिन संसार
का ज्ञान
ठीक-ठीक हो
जाता है--पक
गये! और पका
हुआ त्याग ऐसा
है, जैसे
पका हुआ पत्ता;
पका हुआ
वृक्ष। कहीं
कोई खबर नहीं
होती। तब तुम
जाकर शोरगुल न
मचाओगे, कि मैंने
त्याग कर
दिया। यह
कच्चे टूट गये
फलों का लक्षण
है। तब तुम
जाकर डुंडी
न पीटोगे
गांव में कि 'देखो, मैंने
त्याग कर
दिया।' तब
तुम किसी से न
कहोगे कि 'मेरी
शोभा यात्रा निकालो।
कि मैंने
त्याग कर दिया
है। देखो, मैंने
सब संसार छोड़
दिया।'
अगर सच
में ही
तुम्हें
अनुभव हो गया
है कि संसार
व्यर्थ है, तो क्या तुम
कहोगे कि
मैंने उसे छोड़
दिया है? क्या
तुम्हारे
भीतर त्याग की
अस्मिता
निर्मित होगी?
तुम रोज
अपने घर के
बाहर कचरा
फेंकते हो; क्या तुम
मोहल्ले में
जाकर खबर करते
हो, कि
कचरे का त्याग
कर दिया? आज
फिर किया, फिर
से छोड़ा। अगर
तुम ऐसा करोगे,
तो मुहल्ले
के लोग
तुम्हें
विक्षिप्त
समझेंगे।
मुहल्ले के
लोग समझेंगे
कि कचरा भी
छोड़ते हो, इसका
अर्थ हुआ कि
कचरे में बड़ी
पकड़ है। जब भी
तुम किसी
त्यागी को पाओ,
जो त्याग
में रस ले रहा
हो, तो समझ
लेना कि अधूरा
छूट गया, कच्चा
टूट गया। और
जो कच्चा टूटा
है, उसे
वापिस लौटना
पड़ेगा। पके
बिना छुटकारे
का कोई मार्ग
नहीं है।
नीत्शे
का एक बहुत
प्रसिद्ध वचन
है 'राइपननेस इज ऑल।'
पक जाना सब
कुछ है। मैं
भी तुमसे यही
कहता हूं, कि
पक जाना सब
कुछ है। समय
मत खोओ, पको। परिपक्व
हो जाओ। सुनी
हुई बातों के
कारण नहीं, अपने ही
अनुभव से पाओ
कि व्यर्थ
क्या है! तब छोड़ना
भी नहीं पड़ता।
तुम्हें पता
भी नहीं चलता
कब छूटना शुरू
हो गया।
व्यर्थ छूटता
चला जाता है।
जैसे-जैसे
व्यर्थ छूटता
है, सार्थक
उभरता है, निर्मित
होता है।
व्यर्थ के
हटते ही रोशनी
भीतर लौटनी
शुरू होती है।
यही
प्रयोजन है इस
वचन का।
मनुष्य
की सबसे बड़ी
कठिनाई, मनुष्य
का अपने प्रति
ही अज्ञान है।
दीये के नीचे
जैसे अंधेरा
होता है, वैसे
ही मनुष्य उस
सत्ता के
प्रति अंधकार
में है, जो
कि उसकी आत्मा
है। हम स्वयं
को नहीं
जानते। और तब यदि
हमारा सारा
जीवन ही गलत
दिशाओं में
चला जाये, तो
आश्चर्य करना
व्यर्थ है।
तुम
गलत कामों को
तो बदलने की
कोशिश करते हो, लेकिन तुम
यह कभी नहीं
देखते कि गलत
काम तुमसे
पैदा हो रहे
हैं। तुम एक
गलत काम को
बदलोगे, तुमसे
दूसरा गलत काम
पैदा हो
जायेगा।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं मुझे
सिगरेट पीनी छोड़नी है।
मैं उनसे कहता
हूं कि सवाल
तुम्हारा है। तुम्हारा
सिगरेट पीना छुड़ा
लूंगा, कल
तुम इसकी जगह
और कोई
परिपूरक खोजोगे।
तंबाकू खाओगे,
सुंघनी सूंघोगे,
तुम कुछ न
कुछ करोगे।
क्योंकि सवाल
सिगरेट पीने
का नहीं है।
यह सिगरेट
पीना ऊपर से आ
गया कृत्य
नहीं है, तुममें
लगा फल है।
इसको तुम तोड़
दो, दूसरा
फल लगेगा। तुम
अपने कृत्यों
को बदल कर क्या
करोगे? तुम
अपनी आत्मा को
जानने की
कोशिश करो।
जिस दिन तुम
अपने को
जानोगे, तुम्हारे
कृत्य बदलने
शुरू हो
जायेंगे। लेकिन
अक्सर लोग
कृत्य को बदलने
में लगते हैं
क्योंकि वह
आसान है।
उसमें कोई
अड़चन नहीं है।
तुम
सात बजे सो कर
उठते हो, पांच
बजे उठ सकते
हो; दो-चार,
आठ दिन
परेशानी
होगी। अगर
जिद्दी
स्वभाव के हुए,
थोड़ी लट्ठ
प्रकृति के
हुए, दो, चार, आठ
दिन में पांच
बजे उठने
लगोगे। थोड़ी हठवादिता
रही, दंभी
आदमी हुए, उठने
लगोगे पांच
बजे। लेकिन
तुम्हीं तो
उठोगे न पांच
बजे? सात
बजे तुम उठते
थे, पांच
बजे भी तुम ही
उठोगे। जल्दी
उठने से क्या
फर्क हो
जायेगा? लेकिन
तुम सोचते हो,
हो
जायेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक लड़की के
प्रेम में था।
सभी प्रेमी
अपने प्रेम की
प्रशंसा करते
हैं। उस लड़की
से कह रहा था
कि 'सुबह
उठते ही तेरा
नाम लेता हूं।'
तो उस लड़की
ने कहा, 'यही
तो तुम्हारा
भाई कहता है।'
नसरुद्दीन ने कहा, 'लेकिन
एक बात खयाल
रखना, मैं
उससे पहले सो
कर उठता हूं।'
पहले सोकर उठकर
भी तुम नाम
लोगे भगवान का
इससे क्या फर्क
पड़ता है? सात
बजे लेते कि
पांच बजे लेते,
तुम्हीं
लोगे न? सात
और पांच से
तुममें क्या
फर्क पड़ता है?
कोई भी फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन यह आसान
है। कृत्य को
बदलना आसान
है। क्योंकि
कृत्य ऊपरी
बात है--कपड़े
बदलने जैसा
है। यह पहना, दूसरा पहन
लिया।
स्वयं
को बदलना असली
सवाल है।
लेकिन स्वयं
को बदलने की
पहली शर्त है
कि दीये के
तले का अंधेरा
मिटे। वहां
अंधेरा है, जहां तुम
हो। वहां तुम
जाओगे तो सदा
अंधेरा पाओगे।
समस्त
शास्त्र कहते
हैं, कि
भीतर प्रवेश
कर के बड़े
प्रकाश का
अनुभव होता है।
लेकिन तुम आंख
बंद करो, सिर्फ
अंधेरा दिखाई
पड़ेगा। यह कोई
शाब्दिक बात
नहीं है जो
मैं कह रहा
हूं, कि
दीया तले
अंधेरा है।
समस्त वेद, उपनिषद, कुरान,
बाईबिल, धम्मपद
सभी का एक--एक
बारे में
सहमति है, कि
भीतर अनंत
प्रकाश है।
लेकिन तुम जाओ,
आंख बंद करो,
जैसे ही आंख
बंद करते हो, अंधकार है।
क्या
मामला है? कि ये सारे
लोग भ्रांति
में थे? तुम
जब भी आंख बंद
करते हो, अंधेरा
है। और ये सब
चिल्लाये चले
जाते हैं, अलग-अलग
देशों में
पैदा हुए लोग,
अलग-अलग
समयों में, एक दूसरे से
कोई संबंध भी
नहीं है, एक
दूसरे से
सीखने का उपाय
भी नहीं है, लेकिन समस्त
शास्त्र कहते
हैं, कि
भीतर परम
प्रकाश है।
थोड़ा सोचना कि
क्या होगा
कारण?
परम
प्रकाश भीतर
है; लेकिन
अभी तुम जहां
खड़े हो, वहां
अंधेरा पड़ रहा
है। अभी
तुम्हारी
सारी रोशनी
बाहर जा रही
है। भीतर कुछ
भी नहीं बचती।
अभी तुम ऐसे
हो, कि
सारी गंगा सागर
की तरफ बही जा
रही है, गंगोत्री
में कुछ नहीं
बचता।
गंगोत्री
खाली हो जाती
है। पानी भाग
रहा है--बाहर
की तरफ, बाहर
की तरफ। दूर
जा रहा है
अपने से। भीतर
सब रिक्त होता
जा रहा है। और
ऐसा अगर होता
रहा, तो
कितना ही
प्रकाश
तुम्हारे
भीतर हो, अंधकार
हो जायेगा।
वैज्ञानिक
कहते हैं, कि हमारा जो
सूरज है, यह
चार हजार साल
में बुझ
जायेगा।
क्योंकि रोशनी
बाहर जा रही
है। विराट है,
पृथ्वी से
साठ हजार गुना
बड़ा है, अनंत
क्षमता का है,
लेकिन वह भी
चुक जायेगा।
चार हजार साल
में सूरज भी
खाली हो
जायेगा।
क्योंकि
प्रकाश बाहर
चला जा रहा
है। तुम सूरज
से भी बड़ी
क्षमता के हो।
कबीर ने कहा
है, जैसे
हजारों सूरज
एक साथ जल
जायें, ऐसा
वहां प्रकाश
है। लेकिन वह
भी चुका देते
हो तुम।
बाहर...बाहर...बाहर...खाली
होते जाते हो।
जैसे-जैसे
खाली होते हो,
वैसे-वैसे
दीनता लगती
है। बच्चे को
देखो, बड़े
भाव से भरा
हुआ पैदा होता
है, जैसे
सम्राट है। और
बूढ़े को देखो,
थका-हारा, टूट गया।
जिब्रान
की एक छोटी सी
कहानी है। एक लोमड़ी
सुबह-सुबह
उठी। उसने
अपनी छाया
देखी, सुबह
का सूरज ऊग
रहा था। उसकी
छाया बहुत बड़ी
थी। उसने कहा,
'आज तो एक
ऊंट मिले खाने
को तभी हल
होगा।' इतनी
बड़ी छाया थी।
एक ऊंट से कम
में पेट न
भरेगा। फिर
दोपहर तक उसने
ऊंट की तलाश
की। अब लोमड़ी
को कहीं ऊंट
मिले! और मिल
भी जाये, तो
लोमड़ी
करेगी क्या? लेकिन दोपहर
तक भूखी हो गई,
थक गई। फिर
उसने दुबारा
नीचे छाया की
तरफ देखा, सूरज
सिर पर आ गया
था। अब छाया
बहुत छोटी पड़
रही थी। उसने
कहा, 'अब तो
एक चींटी भी
मिल जाये तो
भी काफी है।'
सभी
बच्चे ऐसे भरे
हुए पैदा होते
हैं। सुबह छाया
बड़ी लंबी पड़ती
है। बूढ़े
होते-होते सब
सिकुड़ जाता
है। ऊंट की
आशा लेकर चलते
हैं, चींटी भी
मिलती नहीं
है। अब तो एक
चींटी भी मिल
जाये तो बहुत
है। सुबह ऊंट
भी मिलने से
काम चलनेवाला
नहीं है। सभी
बच्चे बड़ी
महत्वाकांक्षा
लेकर संसार
में चलते हैं।
और सभी बूढ़े
सिर्फ टूटे
हुए खिलौने
लेकर समाप्त
होते हैं। सब सपने
पैरों तले रूंदे
हुए। सब
इंद्रधनुष
टूटे हुए।
बूढ़े की असली
पीड़ा न तो बुढ़ापा
है, न
मृत्यु है।
बूढ़े की असली
पीड़ा है, सब
सपनों का टूट
जाना। सब महत्वाकांक्षायें
व्यर्थ सिद्ध
हुईं। जो भी
पाना चाहा वह
व्यर्थ गया।
मिला तो भी
व्यर्थ गया, न मिला तो भी
व्यर्थ गया।
जीवन
बड़ा अनूठा है।
यहां सभी हार
जाते हैं।
जीतता यहां
कोई भी नहीं।
जो जीते हुए
दिखाई पड़ते
हैं, वे भी हार
जाते हैं। जो
हारे हुए हैं,
वे तो हारे
हुए हैं ही।
यहां पराजित
और विजेता सब
बराबर हो जाते
हैं। मृत्यु
जैसी
समाजवादी और
कोई घटना नहीं
है। वह बिलकुल
परम साम्यवादी
है। सबको
बराबर कर देती
है। सब
लिखा-पढ़ा साफ
हो जाता है।
जैसे-जैसे
जीवन उतरने
लगता है, वैसे-वैसे
लगता है सब
व्यर्थ गया।
इसके पहले अगर
तुम सजग हो
जाओ, कि यह
जीवन का
स्वभाव ही है
व्यर्थ जाना;
बाहर तुम
संपदा को पा
ही न सकोगे।
और तुम जो भी खोजोगे, अगर भीतर
तुम गलत हो, तो तुम्हारी
सब खोज गलत
होगी।
यात्रा-पथों
का सवाल नहीं
है, यात्री
का सवाल है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि सही मार्ग
क्या है? उनसे
कहता हूं, तुम
मार्ग की
फिक्र छोड़ो।
सही यात्री
गलत मार्ग से
भी पहुंच
जायेगा। और
गलत यात्री
सही मार्ग पर
भी क्या करेगा?
तुम्हारी
आंखों में अगर
नशा हो, तो
तुम जो भी देखोगे,
जहां भी देखोगे,
सब गलत
होगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
और उसका जुड़वां
भाई, दोनों का
जन्मदिन था।
तो दोनों ने
सोचा, जायें
किसी होटल में,
खायें,
पीयें,
मौज करें।
दोनों ने एक
से कपड़े पहने,
एक सी टाई
लगाई, एक
से रंग का कोट,
एक सा जूता,
एक सा रूमाल
खोंसा, दोनों
पहुंचे।
मिठाई खाई, भोजन किया, शराबघर में
पहुंचे। एक से
ग्लासों
में एक सी
शराब बुलाई।
एक शराबी
सामने बैठा आंखें
मीड़-मीड़
कर उनको देखने
लगा। कई बार
आंखें मीड़
के देखा, तो
नसरुद्दीन
हंसा। उसने
कहा, 'परेशान
न होओ। नशे के
कारण तुम्हें
गलत दिखाई पड़
रहा है, ऐसा
मत सोचो। या
एक का दो
दिखाई पड़ रहा
है, ऐसा भी
मत सोचो। हम
दो जुड़वां
भाई हैं।' उस
शराबी ने फिर
से आंख मीड़ी
और कहा कि 'तुम
चारों!' उसको
चार दिखाई पड़
रहे हैं।
तुम्हारी
आंख में अगर
मोह है, तुम
जहां भी देखोगे
वहीं संसार
है। संसार
नहीं है सवाल,
मोह सवाल
है। तुम
परमात्मा को
भी देखोगे,
वहां भी
संसार दिखाई
पड़ेगा।
तुम्हारी आंख
से मोह खो
जाये, तुम
जहां भी देखोगे,
पाओगे
परमात्मा है।
असली सवाल
बाहर क्या है?
यह नहीं है।
असली सवाल:
कौन है भीतर? किस रास्ते
जाते हो, व्यर्थ;
हिंदू, कि
मुसलमान, कि
ईसाई, कि
बौद्ध, कि
जैन--सब
व्यर्थ।
रास्ता सवाल
नहीं है, यात्री
सवाल है।
तुम हो
असली सवाल। और
तुम्हारी दो स्थितियां
हैं। एक तो
स्थिति है कि
प्रकाश बाहर
जाता हुआ--भीतर
अंधेरा; और
दूसरी स्थिति
है, प्रकाश
भीतर आता हुआ
और भीतर कोई
अंधेरा नहीं।
जिस दिन तुम
भीतर प्रकाश
से भर जाते हो,
उस दिन तुम
जहां भी जाओगे
वहीं प्रकाश
है। उस दिन
तुम जहां भी
जाओगे वहीं
परमात्मा है।
उस दिन तुम
जहां देखोगे
वहीं ब्रह्म।
उस दिन तुम
जहां झांकोगे
वहीं उसे
पाओगे। जीसस
ने कहा है, 'तोड़ो
लकड़ी को और
पाओगे तुम
मुझे। उठाओ
पत्थर को, मैं
ही छिपा हूं।'
लेकिन यह
किसके लिए कहा
है? तुम
लकड़ी तोड़ोगे,
ईश्वर को
पाओगे? कुछ
भी न पाओगे।
लकड़ी और टूट
गई। पत्थर
उठाओगे, ईश्वर
को दबा हुआ
पाओगे? असंभव।
तुम
जहां भी जाओगे, जो तुम्हारी
दशा है उसी की
प्रतिध्वनि
पाओगे। संसार
दर्पण है। तुम
अपने को ही देखोगे
और कुछ देखने
का उपाय नहीं।
और दर्पण को
तोड़ने में मत
लग जाना। उससे
कोई फर्क न पड़ेगा।
मैंने सुना है,
एक कुरूप
स्त्री थी। वह
जहां भी दर्पण
देखती, तोड़
देती। लोग
उससे पूछते कि
ऐसा तू क्यों
करती है? तो
वह कहती, 'क्योंकि
दर्पण के कारण
मैं कुरूप हो
जाती हूं।'
दर्पण
किसी को कुरूप
नहीं करते।
दर्पण तो वही
झलका देते हैं, जो तुम हो।
तुम्हारे सब
संबंध--पत्नी,
पति, बेटे,
पिता, मां,
मित्र, शत्रु,
समाज, संसार,
तुम्हीं को
झलकाता है।
सभी दर्पण
हैं। जहां-जहां
तुम देखते हो
कुरूपता, वहीं
से तुम भागते
हो, दर्पण
तोड़ते हो।
दर्पण तोड़ने
से क्या होगा?
अपने को बदलो।
लेकिन अपने को
बदलने का
स्मरण ही तब
आता है, जब
रोशनी भीतर की
तरफ जानी शुरू
हो जाती है।
दो यात्रायें
हैं प्रकाश की; या बाहर की
तरफ, या
भीतर की तरफ।
और जो गहनतम
घटना घटती है,
वह यह है, कि जैसे ही
प्रकाश भीतर
आना शुरू होता
है, जैसे
ही तुम आंख
बंद करते हो
और ध्यान भीतर
आता है...।
कब
आयेगा ध्यान
भीतर? जब
बाहर कोई
वासना न हो।
वासना ध्यान
को आकर्षित
करती है। वह
ध्यान का ऑबजेक्ट
है, विषय-वस्तु
बन जाती है।
उपवास करो, भोजन पर
ध्यान
जायेगा। कभी
नहीं जाता था
भोजन पर।
उपवास के दिन
भोजन पर
जायेगा।
मंदिर में बैठो,
ध्यान दूकान
पर जायेगा।
क्यों ऐसा
होता है? जिस
चीज की भी मन
में वासना है,
चाह है, जब
तुम उसे छोड़ते
हो, तो वह
सारी प्रगाढ़ता
से ध्यान को
आकर्षित करती
है। आंख बंद
करते हो, भीतर
ध्यान क्यों
नहीं जाता? क्योंकि अभी
बाहर चाह कायम
है।
निर्वासना हुए
बिना ध्यान न
होगा।
क्या करोगे? साधु-संत
समझाते हैं, वासना छोड़ो।
काश, इतना
आसान होता! यह
ऐसे ही है, जैसे
किसी को बुखार
चढ़ा है, तुम
बड़े ज्ञानी हो,
उसको कहो, 'बुखार छोड़ो!'
औषधि बताओ
कुछ! यह तो वह
भी चाहता है
कि बुखार छोड़
दे। लेकिन
छोड़े कैसे? तुम कितना
ही कहो कि
तुम्हीं
बुखार को पकड़े
हुए हो, बुखार
तुम्हें नहीं पकड़े हुए
है। फिर भी वह
कहेगा कि मैं
क्या करूं? कैसे छोड़
दूं? बुखार
है, औषधि
चाहिए।
क्या
है औषधि? इस
संसार से चाह
टूट जाये। एक
ही औषधि मैं
अनुभव कर पाता
हूं। और वह यह
है, कि तुम
बहुत सजगता से
संसार को
भोगो। बेहोशी
में भोगोगे, यह संसार
कभी भी तुमसे छूटेगा न।
तुम सजगता से
भोगो।
जहां-जहां
संसार कहे यहां
रस है, वहां-वहां
जाओ, वहां-वहां
पूरा ध्यान
लगा दो। भूल
जाओ परमात्मा
को, भूल
जाओ आत्मा को,
भूल जाओ सदगुरुओं
को, शास्त्रों
को। पूरा
ध्यान वहां
लगा दो और पूरे
ध्यान से भोग
लो।
जिस
चीज को तुम
पूरे ध्यान से
भोग लोगे, वही व्यर्थ
हो जायेगी।
सार्थकता
वहां है ही नहीं।
संसार को
व्यर्थ करो, संसार को
चुका दो, तुम
अचाह से भर
जाओगे।
और जब
अचाह होगी, तब भीतर
ध्यान ले जाने
में क्या अड़चन
है? अड़चन
खतम हो गई।
बाधा कोई न
रही। तब बिना
विधि के भी
ध्यान भीतर
जाता है।
विधियों की तो
जरूरत इसीलिए
है, क्योंकि
तुम बिलकुल
अस्तव्यस्त
हो। तब तुम आंख
बंद करो, ध्यान
भीतर जाता है।
आंख खोलो,
ध्यान बाहर
जाता है। हाथ
से किसी को
छुओ, स्पर्श
दूसरे को
मिलता है। मत
छुओ, थिर
बैठ जाओ, खुद
का स्पर्श
शुरू हो जाता
है। इतना ही
सहज है। लेकिन
चाह टूट जाये।
और चाह के
टूटने का ढंग
है, औषधि
है, कि चाह
को
ध्यानपूर्वक...।
संभोग
करो
ध्यानपूर्वक, स्त्री से
छुटकारा हो
जायेगा, पुरुष
से छुटकारा हो
जायेगा। भोजन
करो ध्यानपूर्वक,
स्वाद से
मुक्ति हो
जायेगी।
सौंदर्य को
देखो ध्यानपूर्वक,
सौंदर्य
समाप्त हो
जायेगा। सुख
को देखो गौर
से, सुख खो
जायेगा। दुख
को देखो गौर
से, दुख खो
जायेगा।
जैसे-जैसे
बाहर की चीजें
व्यर्थ होंगी,
वैसे-वैसे
दीये के नीचे
जो अंधेरा है,
वह मिटेगा,
रोशनी
आयेगी। और जिस
दिन दीये के
नीचे का अंधेरा
मिट जाता है, उस दिन
आत्मज्ञान।
बुद्ध
ने मरते समय
जो अंतिम शब्द
कहे हैं, वे
हैं, 'अप्पदीपो भव।' आनंद
ने पूछा, 'अब
हम क्या
करेंगे? तुम
हमारे दीये
थे। तुम्हारी
रोशनी से हम
चलते थे। तुम
प्रकाश थे, तो अंधेरा न
था। अब रात
अंधेरी हो
जायेगी, अब
हम भटकेंगे।
हम तुम्हारे
प्रकाश में भी
न पहुंच पाये,
हम तुम्हारे
बिना कैसे
पहुंचेंगे? तुम बुझे जा
रहे हो, हमारा
क्या होगा?' बुद्ध ने
कहा, 'अप्पदीपो भव। अपने
दीये बनो
आनंद।'
और
दूसरे की
रोशनी से कोई
कभी नहीं
पहुंचा है।
क्योंकि
दूसरे की
रोशनी भी बाहर
पड़ सकती है। तुम्हारे
भीतर तो सिर्फ
तुम्हारी
रोशनी ही पड़
सकती है। मैं
कितना ही
प्रकाश करूं, वह तुम्हारे
चारों तरफ
होगा।
तुम्हारे
भीतर नहीं जा
सकता। मैं
कितना ही
समझाऊं, वह
समझ तुम्हारे
चारों तरफ से
तुम्हें घेर
लेगी, तुम्हारा
वातावरण बन
जायेगी, तुम्हारे
चारों तरफ एक
आभा का मंडल
बन जायेगी, लेकिन भीतर
नहीं जायेगी।
भीतर तो
तुम्हारा ही
ज्ञान
स्फुरित होगा;
तुम्हारी
ही आत्मा
जलेगी।
तुम्हारा ही
दीया जलेगा
तभी। वह दीया
जल ही रहा है, सिर्फ उसके
नीचे अंधेरा
है।
अंधेरे
के कारण मैंने
तुम्हें
बताये। एक-एक
कारण को तोड़ते
चलो। सबसे बड़ा
कारण यह है, कि तुम्हारा
रस अभी संसार
में कायम है।
तो मैं नहीं
कहूंगा तुमसे
कि रस कायम
रहते हुए तुम
भीतर मुड़ो।
तुम कभी न मुड़
पाओगे। तुम इस
रस को विरस कर डालो। और
विरस करने का
मेरा प्रयोग
बिलकुल भिन्न
है, जो
तुम्हें
दूसरों ने
समझाया है।
दूसरों ने समझाया
है कि विरस कर डालो मतलब,
समझो ऐसा कि
इसमें कोई रस
नहीं है।
विचार करो, इसमें कोई
रस नहीं है।
मैं तुमसे
नहीं कहता कि
विचार करो।
मैं कहता हूं
ध्यान करो।
सोचो मत, कि
रस नहीं है।
सिर्फ ध्यान
को गड़ा कर
देखो। अगर रस
है, तो मिल
जायेगा। रस
नहीं है, तो
मिल जायेगा।
अब तक संसार
में
जिन्होंने ध्यान
से देखा, जिन्होंने
बाहर ध्यान से
देखा
उन्होंने
पाया कि वहां
सब असार है।
यह
असार की
प्रतीति
तुम्हारी
अंतर्यात्रा
का द्वार बन
जाती है।
रोशनी भीतर आ
जाये, तुम
रोशनी के एक
भीतरी वर्तुल
बन जाओ, फिर
तुम्हारे
जीवन में कुछ
गलत न होगा।
तुम जो भी
करोगे वह ठीक।
लोग
कहते हैं कि
साधु वह है, जो ठीक करता
है। जो
ठीक-ठीक करता
है सब काम, जिसका
सब व्यवहार
सम्यक है, वह
साधु है। मैं
नहीं कहता।
मैं तो कहता
हूं, साधु
जो करता है, वही सम्यक
व्यवहार है।
वही ठीक-ठीक
व्यवहार है।
व्यवहार से
कोई साधु नहीं
होता, साधु
से व्यवहार
जन्मता है।
आचरण तो तुम
ठीक-ठीक कर
सकते हो
बिलकुल राम
जैसा, लेकिन
तुम राम न हो
जाओगे। तुम
ज्यादा से
ज्यादा
रामलीला के
राम रहोगे।
यही तो बेचैनी
है। इतने
साधु-संत हैं,
इतने राम, कृष्ण चारों
तरफ मौजूद
हैं। उनमें
अधिकतर अभिनेता
हैं। उनकी मंच
बड़ी है। वे
किसी थियेटर में
नहीं कर रहे
हैं काम, लेकिन
थियेटर में
हैं। आचरण में
सब कुछ है।
भीतर वे भी
परेशान हैं।
साध लिया है
सब, जैसे
तोते ने
कंठस्थ कर
लिया हो।
एक
आदमी एक तोते
को बेचने गया।
एक सर्कस में
पहुंचा। उसने
सर्कस के
मैनेजर को कहा, 'सिर्फ बीस
रुपये दे दें।
यह तोता
असाधारण है। यह
इस तरह बोलता
है, कि कभी
कोई तोता नहीं
बोला।' तो
उस मैनेजर ने
कहा कि, अगर
सच में ही यह
बात है, तो
बीस रुपये में
तुम इसे क्यों
बेच रहे हो? हटाओ इस तोते को
यहां से। बीस
रुपये में कोई
ऐसे अदभुत
तोते को बेचने
आयेगा?
तोता
एकदम उछला
अपने पिंजड़े
में और उसने
कहा, 'महाशय, जल्दी मत
करें। मैं सच
में ही ऐसा
तोता हूं। और
इस आदमी से बुरा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जो मेरा
मालिक है।
इसने मेरे
कारण लाखों
रुपये कमाये
हैं। हिटलर, मुसोलिनी,
चर्चिल, रूजवेल्ट,
सभी ने मुझे
प्रशंसा के
पत्र दिए हैं।
जगह-जगह मुझे स्वर्णपदक
मिले, इसने
सब बेच खाये।
यह मुझे ठीक
से खाना भी
नहीं देता, पानी भी
नहीं पिलाता।
आप थोड़ी दया
करें और मुझे
खरीद लें।'
चौंक
गया वह मैनेजर
तो सर्कस का।
कि ऐसी भाषा, जैसे ठीक
काशी से
शिक्षित
पंडित
हो--शुद्ध और इतनी
संगत! उसने उस
आदमी को कहा 'तू पागल है।
यह तोता लाखों
का है और इसको
तू बीस रुपये
में बेच रहा
है? क्या
कारण है तेरा
बेचने का?' उसने
कहा कि 'और
तो सब ठीक है, मैं इसकी
झूठ से बहुत
ऊब गया हूं।
चौबीस घंटे बकवास!
एक तो बकवास
लगाये रखता
है। और मुझे
पता है कि
सिर्फ तोता
है। तो सिर्फ
बकवास है, भीतर
तो कुछ है
नहीं इसके। और
जो भी सुन
लेता है, दोहराने
लगता है। ये
हिटलर, मुसोलिनी,
न इसने कभी
देखे। तो मैं
इससे थक गया
हूं। इससे मैं
छुटकारा
चाहता हूं।
बीस रुपये तो
सिर्फ बहाना
है, आप
इसको मुफ्त
में भी रख
लें।'
तुमने
कभी अपने मन
की तरफ खयाल
किया कि मन
क्या है? इस
तोते से
ज्यादा है? इसने कुछ
जाना नहीं है।
वेद पढ़ लिए
हैं, उपनिषद
रट लिये हैं, दुहरा सकता
है कबीर को, कुंद कुंद
को, किसी
को भी, पर
यह तोते से
ज्यादा है? और यह तोता
कितना ही कुशल
हो गया हो
बोलने में, बीस रुपये
में भी कोई
लेने को तैयार
होगा?
लेकिन
आश्चर्य कि
तुम इससे अभी
तक ऊबे नहीं।
और इसकी झूठों
से भी तुम ऊबे
नहीं। इसने
जमाने भर के
गोल्ड मेडल
इकट्ठे कर लिए
हैं। यह तुमसे
निरंतर झूठ
बोल रहा है और
तुम भरोसा किए
चले जाते हो।
और इसकी बकवास
चौबीस घंटे चल
रही है। तोता
तो कभी सोता
भी रहा होगा, यह सोता भी
नहीं है। यह
रात भर सपने
चलाता है, दिन
भर विचार चलाता
है। और कुछ भी
सार नहीं।
तुम्हारा
मन भी एक झूठ
है, जो तुमने
उधार ले लिया।
तुम्हारा
आचरण भी एक झूठ
है, जो
तुमने उधार ले
लिया।
तुम्हारे पास
न तो कोई
अंतरात्मा है,
न कोई
अंतःकरण।
आचरण तुमने
दूसरों से सीख
लिया है। जैन
घर में पैदा
हुए, तो
रात खाना नहीं
खाते। हिंदू
घर में पैदा
हुए, तो
मजे से खाते
हो। मुसलमान
घर में पैदा
हुए तो
मांसाहार में
कोई अड़चन नहीं
है। तुम सीखते
हो दूसरों से।
तुम्हारे
चारों तरफ जो
बताया जाता है,
वही तुम पकड़
लेते हो। कोई
फर्क नहीं है
हिंदू-मुसलमान-जैन
में। जो जैन
को बताया गया,
वह उसने पकड़
लिया। जो
मुसलमान को
बताया गया, वह उसने पकड़
लिया। जो
हिंदू को
बताया गया, वह उसने पकड़
लिया। तोतों
में कोई फर्क
नहीं है। जो
बताया गया, वह पकड़
लिया।
तुमने
अपनी चेतना का
कोई उपयोग
किया पकड़ने
में? तुमने
अपनी तरफ से
जीवन को कुछ
साधा? या
जो सुना, अंधे
की तरह तुम उसके
पीछे चले गये?
तुम बिलकुल
उधार हो। और
इस उधारी से
तुम्हारे भीतर
बड़ा अंधकार
है। न चिंता
करो आचरण की, न चिंता करो
व्यवहार की, न चिंता करो
विचार की, चिंता
करो सिर्फ
ध्यान की।
क्योंकि उस एक
के साधने से
सब साध लिया
जायेगा। जैसे
माला के भीतर
धागा
अनुस्यूत है,
ऐसे
तुम्हारे
आचरण, व्यवहार,
विचार, सबमें
ध्यान
अनुस्यूत है।
वह धागा है।
उस एक को पकड़
लो, सब पकड़
में आ जायेगा।
कहां
से पकड़ोगे?--जहां तुम
हो। अभी तुम
बाहर हो, वहीं
ध्यान करो।
भोजन को ध्यान
बना लो, भोग
को ध्यान बना
लो, धन को
ध्यान बना लो,
क्रोध को
ध्यान बना लो।
जो भी हो, जहां
हो, वहीं
ध्यान को लगा
दो। और तुम
बड़े चकित
होओगे। क्रोध
से ध्यान जोड़ा,
कि क्रोध
समाप्त हो
जाता है, ध्यान
ही रह जाता
है। लोभ से
ध्यान जोड़ा, लोभ समाप्त
हो जाता है, ध्यान ही रह
जाता है।
संसार
में ही ध्यान
करते-करते तुम
पाओगे कि संसार
खो गया, ध्यान
रह गया। जैसे
ही ध्यान बचता
है, अंतर्यात्रा
शुरू हो जाती
है। दीये के
नीचे का
अंधेरा मिट
जाता है।
पहुंच जाते हो
तुम उस जगह, जहां हजारों
सूर्य एक साथ
उदित हो रहे
हैं। और जो
कभी डूबते
नहीं, जिनका
कोई अस्त नहीं
है। तुम्हारे
भीतर परम सूर्योदय
छिपा है।
आज इतना
ही।
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