अकंप
चित्त में
सत्य का
उदय—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक
22 सितंबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
दो
साधु एक झंडे
के बारे में
विवाद कर रहे
थे।
एक
ने कहा: 'झंडा
डोल रहा है।'
दूसरे
ने कहा: 'हवा
डोल रही है।'
तभी
छठे कुलगुरु
वहां से गुजर
रहे थे।
उन्होंने
कहा: 'न
हवा, न
झंडा, मन
डोल रहा है।'
भगवान!
इस झेन लघुकथा
का अर्थ क्या
है?
इस
बोध कथा में
प्रवेश के
पहले मन के
संबंध में कुछ
बातें समझ
लेनी चाहिए।
पहली बात, कितना ही
तेज तूफान हो,
सागर की सतह
ही कंपित होती
है, सागर
का अंतस्तल
नहीं। ऊपर
आंधियां बहें,
तो भी लहरें
ही डोलती हैं।
सागर का अंतस
केंद्र बिना
डोला ही रहता
है।
वहां तक
हवाओं का कोई प्रवेश
नहीं। वहां तक
उनकी कोई चोट
भी नहीं पड़ती।
चोट पड़ भी
नहीं सकती।
सतह ही डोलती
है। सीमा ही
डोलती है।
केंद्र सदा
अकंप, अडोल
है।
मन सतह
है तुम्हारे
व्यक्तित्व की।
वह तुम्हारी
आत्मा नहीं।
तुम्हारी
सीमा है, जहां
से तुम दूसरों
से अलग होते
हो। जहां से तुम
और पड़ोसी अलग
होता है, वहीं
तुम्हारा मन
है। अगर तुम
अकेले हो इस
पृथ्वी पर, तब कोई भी मन
न होगा। इसलिए
जिनको मन को
मिटाना है, वे अकेले
होने में लग
जाते हैं। भरे
संसार में भी
अपने को अकेला
समझने में जो
लग जाता है, जल्दी ही
उसका मन खो
जाता है। मन
का अर्थ है तुम
और दूसरे के
बीच जो
सीमा-रेखा है,
वही
तुम्हारी सतह
है। ध्यान रहे,
सतह के लिए
दूसरा जरूरी
है। इसलिए
परमात्मा का
कोई मन नहीं
हो सकता। उसकी
कोई सतह नहीं
हो सकती। उससे
दूसरा कोई
नहीं है जो
सीमा बनाये।
असीम
अकंप होगा, सीमित कंपित
होगा। मन
सीमित है, तुम
असीम हो। मन
सतह है, जहां
से दूसरा पृथक
होता है। तुम
वह निमज्जन हो,
जहां मैं और
तुम दोनों ही
खो जाते हैं।
तुम्हारी
गहराई में कभी
कोई तूफान
नहीं गया। और
ध्यान रखना
जहां तक तूफान
पहुंच जाये, समझ लेना कि
वहां तक गहराई
नहीं, सतह
ही है। जो
व्यक्ति
स्वयं की खोज
में निकलते
हैं, आत्मज्ञान
की खोज में, जो दीये के
तले अंधेरे को
मिटाना चाहते
हैं, उनकी
खोज का सबसे
महत्वपूर्ण
हिस्सा इसी
बात की पहचान
है, कि
कहां तक बाहर
की चीजें मुझे
कंपाती हैं।
कौन सी सीमा
है, जहां
तक बाहर मुझे
आंदोलित करता
है। जहां तक बाहर
मुझे आंदोलित
करता है, वहां
तक मन है। एक
ऐसी जगह भी है
तुम्हारे भीतर
जहां कोई
आंदोलन कभी
प्रवेश नहीं
कर सकता।
ऐसा
हुआ; एक जर्मन
विचारक हेरिगेल
ने अपना
संस्मरण लिखा
है। वह एक
झेन-गुरु के
पास वर्षों तक
रहा। जापान के
एक तीन मंजिल
मकान में, तीसरी
मंजिल पर उसकी
विदाई समारोह
का आयोजन किया
था। हेरिगेल
वापस लौट रहा
था। उसके बहुत
मित्र, साथी,
परिचित, सहयात्री,
गुरु के
अन्य शिष्य, जिन सबसे वह
निकट हो गया
था, सभी
बुलाये गये
थे। गुरु को
भी उसने आमंत्रित
किया था।
संयोग
की बात! जब
भोजन चलता था, अचानक भूकंप
आ गया। जापान
में भूकंप
आसान है। लकड़ी
का मकान भयानक
रूप से कंपने
लगा। किसी भी
क्षण
गिरा...गिरा।
लोग भागे। हेरिगेल
भी भागा।
सीढ़ियों पर
भीड़ हो गई।
उसे खयाल आया गुरु
का। उसने लौट
कर देखा, गुरु
आंख बंद किए
अपनी जगह पर
बैठा है। हेरिगेल
का एक मन तो
हुआ कि भाग
जाये और एक मन
हुआ कि गुरु
को निमंत्रित
किया है मैंने,
मैं ही
उन्हें छोड़कर
भाग जाऊं, शोभायुक्त
नहीं। फिर जो
गुरु का होगा
वही मेरा
होगा। और जब
वे इतने अकंप
और निश्चिंत
बैठे हैं, तो
मुझे इतना
भयभीत होने की
क्या जरूरत!
वह भी रुक गया,
गुरु के पास
बैठ गया। हाथ
पैर कंपते रहे,
जब तक कि
कंपन समाप्त न
हो गया। बड़ा
भयंकर उत्पात
हो गया था।
अनेक मकान गिर
गये थे। सड़क
पर कोलाहाल
था, लोग
पागल थे।
जैसे
ही भूकंप रुक
गया, गुरु ने
आंख खोली और
जहां बात टूट
गई थी भूकंप के
आने और लोगों
के भागने के
कारण, वहीं
से बात शुरू
कर दी, जैसे
बीच में कुछ
भी न हुआ। हेरिगेल
ने कहा, 'अब
तो मुझे याद
भी नहीं, कि
हम क्या बात
करते थे। बीच
में बड़ी घटना
घट गई। बड़ा
फासला पड़ गया।
मैं तो भूल ही
गया हूं कि पहले
आपने क्या कहा
था। अब वह
सवाल
महत्वपूर्ण भी
नहीं है। अब
तो मैं कुछ और
ही पूछना
चाहता हूं। यह
जो भूकंप हुआ
इस संबंध में
कुछ कहें।' तो गुरु ने
कहा, 'वह
सदा बाहर ही
बाहर है। और
जो भीतर न हो
उसका कोई भी
मूल्य नहीं
है। बाहर सब
कंप गया। मैं
वहां सरक गया
भीतर, जहां
कोई कंपन कभी
नहीं जाता।'
यही तो
सारी आत्मज्ञान
की कला है।
अपने भीतर उस
जगह सरक जाना, जहां कोई
कंपन कभी नहीं
जाता।
तुम
अगर उद्विग्न
हो, परेशान
हो, बेचैन
हो, संतप्त
हो, तो
उसका एक ही
कारण है कि
परिधि के साथ
तुमने अपने को
एक समझा। तुम
उस जगह खड़े हो,
जहां सभी
तूफान आते हैं,
हवायें कंपाती हैं,
आग जलाती है,
सुख-दुख
घेरते हैं, प्रशंसा-निंदा
छूती है। और
तुम वहीं खड़े
होकर इस कोशिश
में लगे हो कि
कैसे वह घड़ी आ
जाये, कि
निंदा परेशान
न करे, प्रशंसा
हर्षोन्माद
से न भरे; सुख
दीवाना न
बनाये, दुख
आंसू न लाये।
खड़े
तुम परिधि पर
और वहां इस
कोशिश को
करोगे, तुम
हारोगे। अनंत
जन्मों से तुम
वहीं परिधि पर
खड़े हारते चले
आ रहे हो।
वहां तो कोई
भी खड़ा रहेगा
तो हवायें
छुएंगी।
दुख आयेंगे।
तुम खुश
होओगे। दुख
आयेंगे तो तुम
दुखी होओगे, सुख आयेंगे
तो सुखी
होओगे। वहां
बचने का कोई उपाय
नहीं है, वहां
शरण नहीं है।
शरण भीतर है।
असली सवाल यह
नहीं है कि
वहीं खड़े-खड़े
कैसे तुम दुख
में गैर-दुखी
हो जाओ। उसके
भी उपाय हैं, लेकिन वे
उपाय बड़े
महंगे हैं।
उनसे बीमारी
बेहतर! औषधि
और भी खतरनाक
है।
ऐसा हो
सकता है कि
परिधि पर
खड़े-खड़े भी
दुख तुम्हें न
छुए, लेकिन तब
तुम्हें अपने
को बिलकुल
निर्जीव कर
लेना होगा। तब
तुम्हें सारी
संवेदना, सेंसिटिविटि खो देनी
होगी। तब
तुम्हें
करीब-करीब ऐसे
हो जाना होगा
जैसे पत्थर की
चट्टान। तब
तुम आत्मा नहीं
हो। क्योंकि
आत्मा तो
संवेदनशीलता
की आत्यंतिक
घड़ी है। वह तो
आखिरी ऊंचाई
है संवेदना
की। वहां तो
बोध सघन से
सघन होता चला
जायेगा।
लेकिन परिधि
पर खड़े रह कर
एक तरकीब है, वह तरकीब
लोग कर रहे
हैं।
जिनको
तुम साधु
संन्यासी
आमतौर से कहते
हो, उनमें और
तुममें एक ही
फर्क है कि
तुम जरा ज्यादा
जीवित, वे
जरा कम जीवित।
तुम ज्यादा
जीवित हो।
तुम्हें
चीजें ज्यादा
छूती हैं। वे
मर गए हैं। और
उनका मरना कोई
उपाय नहीं, आत्मघात है।
जैसे एक मरी
हुई लाश को
तुम बाजार में
रख दो तो
बाजार का
शोरगुल उसे
परेशान न करेगा।
लेकिन यह कोई
उपलब्धि न
हुई!
इसलिए
जिसको तुम
साधु कहते हो
उसकी सारी
कोशिश क्या है? उसकी पूरी
साधना क्या है?
कैसे
संवेदनशीलता
को मार ले! तो
वह कांटे के
बिस्तर पर
सोया हुआ है...मूढ़ता है।
और आत्मघाती मूढ़ता है।
क्योंकि अगर
तुम कांटे के
बिस्तर पर
सोते ही रहे, जिद तुमने
की, तो
थोड़े ही दिनों
में कांटों की
चुभन बंद हो जायेगी।
इसलिए नहीं, कि तुम बदल
गये, बल्कि
इसीलिए कि
स्पर्श की जो
संवेदनशीलता
थी, वह खो
गई। स्पर्श
मुर्दा हो
गया। तुमने एक
इंद्रिय मार
डाली।
और
स्पर्श सबसे
बड़ी इंद्रिय
है। क्योंकि
सबसे पहले
बच्चे के जीवन
में स्पर्श
आविर्भूत होता
है। क्योंकि
मां के पेट
में बच्चा
सबसे पहले
चमड़ी होता है।
फिर बाकी और
सब इंद्रियां
चमड़ी के ही स्पेशलाइजेशन
हैं। उसी के
विशेषीकरण
हैं।
तुम्हारी आंख
चमड़ी है।
लेकिन उसने एक
विशेष ढंग सीख
लिया है देखने
का। तुम्हारे
कान भी चमड़ी
हैं; उन्होंने
एक विशेष
उपयोग कर लिया
है सुनने का।
तुम्हारी जीभ
भी चमड़ी है; लेकिन उसने
स्वाद का एक
विशेष
प्रशिक्षण ले
लिया।
तुम्हारी नाक
भी चमड़ी है; उसने सूंघने
की कला सीख
ली। वे एक्सपर्ट्स
हैं।
उन्होंने कुछ
विशेष कला में
अपने को दीक्षित
कर लिया। पर
सभी चमड़ी है।
इसलिए
स्पर्श सबसे
मौलिक
इंद्रिय है।
इसीलिए साधु
सबसे पहले
स्पर्श को
मारने में
लगता है। नंगा
हो जायेगा, धूप में खड़ा
रहेगा, सर्दी
में खड़ा रहेगा,
बर्फ पर
बैठेगा, आग
जला कर बैठा
रहेगा। धूप है,
गर्मी है, वह धूनी रमायेगा।
वह क्या कर
रहा है? उसके
भीतर एक ही
कोशिश चल रही
है। चाहे उसे
पता हो या न
हो। नहीं ही
होगा पता; क्योंकि
पता हो, तो
ऐसी मूढ़ता
कोई भी न
करेगा। और
तुम्हें भी
पता नहीं है, नहीं तो इस
तरह की मूढ़ताओं
को तुम आदर न
दोगे। वह कर
क्या रहा है? वह यह कर रहा
है कि चमड़ी
धीरे-धीरे जड़
हो जाये। हो
जाती है! तुम
जानते हो, इसमें
कुछ साधु होने
की जरूरत
नहीं।
तुम्हारे पैर
के नीचे भी
चमड़ी है, लेकिन
वह जड़ हो गई है,
क्योंकि
चलना पड़ता है।
वहां संवेदनशीलता
ज्यादा हो तो
तुम चल ही न
पाओगे। कभी कंकड़ भी पड़
जाता है तो
पता नहीं
चलता। जो लोग
बिना जूते के
ही चलते हैं
उनकी पैर की
चमड़ी बिलकुल ही
मर जाती है।
एक
घटना मैंने
सुनी है कि एक
पहाड़ी
आदिवासी बैठकर
अपनी चिलम पी
रहा है। उसकी
पत्नी थोड़े ही
पास कुछ काम
कर रही है खड़ी, और उससे वह
कहता है कि
देख, तूने
अंगारे पर पैर
रख दिया है, पैर हटा। वह
स्त्री अपना
काम करती रहती
है। वह कहती
है कौन सा पैर,
बांया कि
दांया?
आदिवासी
के पैर की
चमड़ी इतनी ही
मरी होती है।
यही
साधु कोशिश कर
रहा है कि
पूरा शरीर पैर
की चमड़ी जैसा
मृत हो जाये।
इसलिए धूप, गर्मी, सर्दी
को सह रहा है।
परिधि नहीं
बदल रहा है, परिधि पर ही
खड़ा है। स्वाद
मर जाये इसकी
चेष्टा चलती
है। अस्वाद को
साधुओं ने
व्रत बना रखा है।
गांधी जी के
ग्यारह
व्रतों में
अस्वाद खास
व्रत है। तो गांधीजी
खाने के
साथ-साथ नीम
की चटनी भी
खाते थे, स्वाद
को मारने के
लिए।
अमरीकी
विचारक लुई फिशर
गांधी के घर
मेहमान था।
उसकी थाली में
भी उन्होंने
चटनी रखी। सभी
की थाली में
रखते थे। एक बात
ध्यान रखना, जो आदमी खुद
को कष्ट देगा
वह सभी को
कष्ट बांटेगा।
वह उसका रस हो
जायेगा। वही
कसौटी हो
जायेगी। लुई फिशर ने
चटनी चखी, सब
जहर हो गया
मुंह। भला
आदमी! सुसंस्कारशील!
उसने सोचा, कुछ कहना
उचित नहीं है।
गांधी ने इतने
प्रेम से रखी
है, और वे
बगल में ही
बैठे खाना खा
रहे हैं। और
वह भी उस चटनी
को बड़े रस से
ले रहे हैं।
तब कुछ कहना उचित
नहीं। शायद
अभद्रता हो!
और फिर इस
चटनी के साथ
भोजन करने का
मतलब पूरा
भोजन जहर हो
जाये। उसने
सोचा बेहतर
इसको इकट्ठा
ही निगल जाओ; एक दफा में।
ताकि कम से कम
भोजन पूरा
खराब न हो। वह
पूरी चटनी को
इकट्ठा निगल
गया। गांधी ने
कहा, 'देखो,
मैंने पहले
ही कहा था लुई फिशर पसंद
करेगा। और ले
आओ।'
तुम्हारे
सब साधु
तुम्हारे
भोजन में नीम
की चटनी रख
रहे हैं। न
तुम्हें होश
है, न उन्हें
होश है, कि
हो क्या रहा
है! स्वाद को
मारना है। रोज
अगर नीम की
चटनी खाते
रहेंगे तो
स्वाद मर
जायेगा। इसमें
कुछ हैरानी की
बात नहीं।
चमड़ी की जो
विशेषता है
जीभ की, जो
उसने बड़ी कला
से सीखी है वह
मर जायेगी, खो जायेगी।
तुम्हारी
चमड़ी साधारण
चमड़ी हो जायेगी।
जीभ हाथ की
चमड़ी हो
जायेगी। हाथ
पर तुम नीम
रखो कि मिठाई
रखो, कुछ
पता नहीं
चलता।
लेकिन
यह उपलब्धि
हुई कि नुकसान
हुआ? लाखों-लाखों
वर्ष की कोशिश
के बाद जीभ की
चमड़ी स्वाद को
लेने में
समर्थ हो पाई है।
यह एक महान
उपलब्धि है।
इस उपलब्धि को
थोड़ा समझो कि
चमड़ी इतनी
संवेदनशील हो
गई है कि स्वाद
को भी लेने
में कुशल हो
गई है। नाक
सूंघने में
सफल हो गई।
गंध का नया
आयाम खुल गया
है।
तुम
देखते हो, मेहतर सिर
पर पाखाने
की टोकरी लिए
जाता है, उसे
कुछ अड़चन नहीं
होती। वह महासाधु
है! तुम उसकी
पूजा करो
क्योंकि उसे
सुगंध बिलकुल
नहीं आती। तुम
सोचते होओगे
कितनी दुर्गंध
में जी रहा
है। पास से
निकलते हो तो
तुम नाक पर
रूमाल रख लेते
हो। और वह मजे
से गपशप करता
चला जा रहा
है। किसी से
बात कर रहा है,
गाना
गुनगुना रहा
है। तुम गलती
में हो। उसकी
नाक मर चुकी
है। निरंतर
अगर पाखाना ढोना
पड़ेगा तो नाक
कितनी देर
जिंदा रहेगी?
बहुत
सूक्ष्म हैं;
नासापुटों
में छिपे हुए
जो अणु हैं
जिनसे गंध मिलती
है, बहुत
सूक्ष्म हैं
और बहुत डेलिकेट,
नाजुक हैं।
उन पर अगर
बहुत चोट की
तो वे मर जाते
हैं। इसलिए इस
आदमी को कोई
गंध नहीं आती।
क्या तुम इसे
साधु कहोगे? न इसे गंध
आती है, न
इसे दुर्गंध
आती है। एक
इंद्रिय और मर
गई।
सूरदास
की कहानी बड़ी
प्रतीकात्मक
है। मैं नहीं
जानता सूरदास
ने ऐसा किया
हो। किया हो
तो वह आदमी
बेकार। दो कौड़ी
की कीमत का
नहीं। न किया
हो तो ही कुछ
सूरदास के
पदों में अर्थ
हो सकता है।
कहते हैं कि एक
सुंदर स्त्री
को देखकर
उन्होंने
आंखें फोड़
लीं। न रहेंगी
आंखें, न
सौंदर्य
दिखाई
पड़ेगा।
यही तो
गणित है
आत्महत्या
करनेवाले का।
न रहेगा जीवन, न कोई
बेचैनी होगी।
लेकिन यह कोई
उपलब्धि है? न रहेगा
मरीज, न बीमारी
बचेगी।
अस्पतालों
में तुम बड़ी
गलती कर रहे
हो, मरीजों
को मार डालो!
जब तक वे हैं
तब तक बीमारी
का डर।
यही
तुम्हारे
साधु-संत
हजारों साल से
कर रहे हैं।
उनसे ज्यादा
जीवन में जहर
डालने वाले
लोग खोजना
कठिन है। वे
ही पाइजनस
हैं।
उन्होंने सब
विषाक्त कर
दिया है। न
तुम्हें
स्वाद लेने
देते ठीक
से--उसमें नीम
डाल दी। न
तुम्हें गंध
लेने देते ठीक
से--उसमें पाप
डाल दिया है।
न तुम्हें
स्पर्श करने
देते हैं ठीक
से। क्योंकि
स्पर्श? वही
तो सब नरक का
द्वार है। न
तुम्हें
सौंदर्य को
देखने देते
हैं।
उन्होंने सभी
सूक्ष्म संवेदनाओं
को मिटा डाला
है।
नहीं, मैं तुमसे
यह नहीं
कहूंगा। मैं
जीवन का पक्षपाती
हूं, आत्महत्या
का नहीं। मैं
तुम्हें मरने
को नहीं
कहूंगा। और
किसी ज्ञानी
ने कभी नहीं
कहा है। इसे
तुम ज्ञानी की
परीक्षा समझ
लेना। यह कसौटी
है। ज्ञानी
तुम्हें अमृत
देगा, जहर
नहीं। तुम्हारे
पास जो है वह
नहीं छीनेगा।
तुम्हारे पास
जो नहीं है वह
तुम्हें
देगा। निश्चित
ही जब
तुम्हारे पास
और विराट होगा
तो क्षुद्र
छूटता
जायेगा।
मैं
तुम्हें इतना
स्वाद दूंगा
कि भोजन की
जरूरत न रह
जाये। मैं
तुम्हें इतनी
गंध देना चाहता
हूं कि तुम
इतने सूक्ष्म
हो जाओ गंध
में, कि सारा
जगत एक गंध का
प्रवाह हो
जाये। यहां तुम
उठो, बैठो,
डोलो तो जगत
की सूक्ष्मतम
गंध तुम्हें
पकड़ ले। मैं
तुम्हारे
कानों को बहरा
नहीं करना
चाहता, उन्हें
ऐसी ध्वनि
चाहता हूं
देना कि इस
जगत में छिपा
हुआ जो परम
निनाद है, ओंकार--वह
तुम्हें
सुनाई पड़ जाये।
चारों तरफ वह
निनाद चल रहा
है। हर हवा के झोंके
में उसी की
खबर है। हर
फूल के खिलने
में उसी का
सौंदर्य है।
हर आंख से वही
झांक रहा है।
और जब तुम
किसी को
स्पर्श करते
हो, तो
तुमने उसी को
छुआ है। तुम
जानो या न
जानो, यह
दूसरी बात है।
तुम्हारी
सारी
इंद्रियां इतनी
सतेज हो जायें
कि पदार्थ के
भीतर छिपे परमात्मा
को तुम अनुभव
कर सको।
तब
क्या करना पड़े? क्योंकि
जितनी
इंद्रियां
सतेज होती हैं
उतनी ही चिंता
पैदा होती है।
जितना
संवेदनशील व्यक्ति
होगा उतना ही
चिंतित होगा। मूढ़ों को
कभी तुमने
चिंतित देखा
है? वे तो
परमहंस मालूम
होते हैं। वे
अपना सिर लटकाये
अपने घरों के
सामने बैठे
हैं। उन्हें
कोई चिंता
नहीं छूती।
क्या तुम भी
वैसी ही
अवस्था चाहते
हो? तो
साधु-संन्यासियों
के पीछे चले
जाओ। आज नहीं
कल वे तुम्हें
मूढ़ बना
देंगे। अच्छा
होगा कभी
पागलखाने में
जा कर किसी इडियट
को, किसी मूढ़ को
देखो। उसे कुछ
चिंता नहीं
छूती। ऐसा भी,
कि अगर आग
भी लग जाये तो
भी वह
निश्चिंत
बैठा रहेगा।
लेकिन
इस
निश्चिंतता
में और झेन
गुरु की निश्चिंतता
में--जो तीन
मंजिल मकान पर
भूकंप के समय
शांत बैठा
रहा--बड़ा फर्क
है। मौलिक
फर्क है। गुणात्मक
फर्क है। ये
दोनों एक
घटनायें नहीं
हैं। क्योंकि
झेन की सारी
शिक्षा
इंद्रियों को
संवेदनशील
बनाने की है।
इसलिए अगर तुम
झेन गुरुओं का
आश्रम देखोगे
तो तुम चकित
हो जाओगे।
गांधी
तो उस आश्रम
को देखकर
कहेंगे, 'यह
कोई आश्रम हुआ?
यह तो भोग
विलास है।' इसलिए गांधी
ने वर्धा
चुना। इस
मुल्क में
सबसे ज्यादा
कुरूप जगह
उनके खयाल में
आई आश्रम
बनाने के लिए।
तप्त धूल के
सिवाय कुछ भी नहीं।
इस मुल्क में
सुंदर पहाड़ियां
हैं, वृक्ष
हैं, सुंदर
ऋतुओंवाली
जगहें हैं, वे गांधी ने
नहीं चुने।
झेन
गुरु पहाड़ में, झील के तट पर,
वृक्षों के
पास आश्रम को
बनाता है। उसके
आश्रम में फूल
खिलते हैं, फल लगते हैं,
पक्षी गीत
गाते हैं। ऐसे
ही हिंदुओं के
गुरुकुल थे
कभी। वहां
पक्षी थे, वृक्ष
थे, फूल
थे। जैनों और
बौद्धों की
नासमझी से सब
नष्ट हुआ।
उन्होंने सब
सुखा डाला।
फूल देख कर
उन्हें घबड़ाहट
लगती है।
सौंदर्य से डर
पैदा होता है,
क्योंकि
सौंदर्य
तत्क्षण
उन्हें
कामवासना की
याद दिलाता
है।
यह
आश्चर्य की
बात है कि जो
भी सुखद है
उससे भय क्यों
पैदा होता है? उससे तुम
भागना क्यों
चाहते हो? भागने
से ही पता
चलता है कि
तुम चेष्टा
परिधि पर कर
रहे हो।
वह झेन
गुरु जो तीसरी
मंजिल पर बैठा
था, मैं
तुमसे कहता
हूं भागा वह
भी। लेकिन
उसके भागने का
ढंग बहुत
दूसरा है। हट
वह भी गया
वहां से। और
यही उसने कहा
भी। उसने कहा
यह कि भागे तो
तुम भी, लेकिन
तुम जहां भाग
रहे थे वहां
भी भूकंप था। उसमें
अर्थ क्या है?
तुम्हारा
भागना
अर्थहीन है।
कोई इसी मकान
में थोड़े ही भूकंप
आया हुआ था!
कोई तीसरी
मंजिल पर ही
थोड़े ही भूकंप
आया हुआ था! वह
तो दूसरी पर
भी था, पहली
पर भी था, सड़क
पर भी था। तुम
भाग कहां रहे
थे? तुम एक
भूकंप के
स्थान से
दूसरे भूकंप
के स्थान पर
ही भाग रहे
थे। वह कोई
बचाव नहीं था।
असली बचाव तो
मैंने किया।
भागा तो मैं
भी। परिधि से
केंद्र की तरफ
भागा। अपने भीतर
सरक गया, जहां
कोई भूकंप कभी
नहीं
पहुंचता। वह
झेन गुरु
बुद्धिमान
है।
तुम जब
तक भागोगे एक
परिधि से
दूसरी परिधि
पर, क्या
अंतर पड़ेगा? घर रहो कि
आश्रम, बाजार
में रहो कि
हिमालय, अगर
तुम परिधि पर
हो तो परिधि
पर ही रहोगे।
वहां भी भूकंप
है। सब तरफ
भूकंप है।
क्योंकि सब
तरफ तुम्हारी
परिधि को, कुछ
न कुछ छुएगा, आंदोलन पैदा
होंगे। तब एक
सीधा रास्ता
दिखाई पड़ता
है--परिधि को
मार डालो।
कोई तरह का एनेस्थेसिया
खोज लो ताकि
परिधि बिलकुल
जड़ हो जाये।
तुम्हें कुछ
पता न चले। यह
कोई क्रांति न
हुई। यह तो
तुम्हें जो
मिला था वह भी
खो दिया और जो
मिल सकता था
उसकी संभावना
भी समाप्त हो
गई।
इसलिए
तुम ऐसे
साधुओं को, जो लेटे हैं
सड़कों पर, पैर
उठाये खड़े हैं,
दस वर्ष से
बैठे नहीं हैं,
लेटे नहीं
हैं, कांटों
पर लेटे हैं, पत्थरों पर
पड़े हैं, ठंडी
रात में पानी
में खड़े
हैं--इन
साधुओं को जरा
गौर से देखना।
इनकी आंखों
में तुम्हें
गहराई न दिखाई
पड़ेगी। इनसे
ज्यादा छिछले
आदमी खोजने
मुश्किल हैं।
क्योंकि ये
बिलकुल परिधि
पर जकड़ गये
हैं। और सारा
संघर्ष इतना
ही है कि
परिधि को किसी
तरह मार डालो।
न होगी
संवेदना, न
आयेगी चिंता।
लेकिन यह हल
नहीं है।
जाओ
केंद्र पर, जहां कोई
चिंता कभी
नहीं
पहुंचती।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
तुम्हारी
परिधि पर कंपन
बंद हो जायेंगे।
यह झेन गुरु
अपने भीतर चला
गया तो भी यह
मकान तो कंप
ही रहा है।
शरीर तो कंपेगा
ही।
झेन
गुरु रिंझाई
मरा। उसका जो
प्रमुख शिष्य
था वह रोने
लगा। तो लोगों
ने कहा रोओ मत।
लाखों लोग
इकट्ठे थे।
लोग देखेंगे
तो क्या कहेंगे? क्योंकि हम
तो सोचते हैं
कि तुम ज्ञान
को उपलब्ध हो
गये हो। और
तुम रो रहे
हो। रोते
अज्ञानी हैं।
वह
शिष्य आंख
खोला और बोला, 'अज्ञानी को
इतनी
स्वतंत्रता
और ज्ञानी को
इतनी भी नहीं,
कि मैं रो
भी न सकूं? और
तुम कह क्या
रहे हो मुझसे?
तुम यह कह
रहे हो कि लोग
तुम्हें आदर
करते हैं, वे
आदर वापिस ले
लेंगे अगर तुम
रोये।'
उस
शिष्य ने कहा, 'भाड़ में
जाये उनका
आदर। उनका आदर
मैंने मांगा कब?'
उसने कहा, 'जब मेरा
गुरु मर गया
है तो रोने
में बड़ा आनंद
है। मैं उसे
बिदा दे रहा
हूं और आंसूओं
से बेहतर और
क्या होगा? मैं दुखी
नहीं हूं।
भीतर केंद्र
पर तो सब सन्नाटा
है। वहां कौन
गुरु, कौन
शिष्य? कौन
मरता, कौन
जीता? कैसा
जन्म? कैसी
मृत्यु? वह
केंद्र पर है,
आंसू तो
परिधि पर हैं।
ये कोई मेरी
आत्मा से नहीं
आ रहे हैं।
मेरी परिधि पर
हैं, शरीर
के हिस्से
हैं।'
किसी
ने कहा, 'लेकिन
तुम्हें तो
भलीभांति पता
है कि कोई मरता
नहीं। गुरु
मरे नहीं हैं,
फिर क्यों
रोते हो?'
तो
उसने कहा, 'मुझे पता है
कि आत्मा नहीं
मरती, लेकिन
शरीर जो मर
गया, वह भी
बड़ा प्यारा
था। और ऐसा
शरीर अब
दुबारा देखने
में न आयेगा।'
एक तो, जीवन के परम
स्वीकार में
से आंसुओं का
भी स्वीकार, हंसने का भी
स्वीकार, रोने
का भी
स्वीकार--परिधि
पर। उससे
चिंतित होने
की कोई जरूरत
नहीं, न
उसको दबाने का
कोई कारण है।
इतनी ही जरूरत
है, कि तुम
परिधि के साथ
तादात्म्य मत
रखो।
हवा
आयेगी तो
वृक्षों में
कंपन होगा।
होना ही चाहिए।
सिर्फ मरा हुआ
वृक्ष नहीं
हिलेगा जिसके
सब पत्ते सूख
गये हैं।
जीवित वृक्ष
तो कंपेगा
और जोर से कंपेगा।
और कंपन से
कोई नुकसान
नहीं होने
वाला है। हवा
चली जायेगी, धूल झड़
जायेगी, वृक्ष
ताजा और नया
होगा। रोना, जब रोना हो।
हंसना, जब
हंसना हो।
स्वाद लेना।
जीवन में कुछ
भी छोड़ने जैसा
नहीं है।
छोड़ने जैसा
होता तो
परमात्मा उसे
बनाता ही
नहीं। तुम
परमात्मा से
ज्यादा बुद्धिमान
होने की कोशिश
में लगे हो।
जीवन में सभी
अपरिहार्य है,
अनिवार्य
है, उस
सबसे गुजरना,
लेकिन
केंद्र पर बने
रहना। सब छुये
फिर भी न छू
पाये। नाचना
तुम, लेकिन
भीतर कोई
कंपित ही न
हो। डोलना तुम,
लेकिन भीतर
अडोल बने
रहना। अगर तुम
इस द्वंद्व के
बीच दोनों को
साध सके तो
तुम्हारे
जीवन में जो
फूल खिलेगा उस
फूल में रस
होगा, अर्थ
होगा, संगीत
होगा। क्योंकि
उस फूल में
विरोधी
स्वरों का
समन्वय होगा।
तुमने
देखा है आर्केस्ट्रा? पचास वाद्य
बजते हैं
लेकिन एक
संगीत पैदा
होता है। तुम
ऐसा भी कर
सकते हो कि
पचास पागलों
को वाद्य दे
दो। फिर एक
उपद्रव पैदा
होगा। संगीत पैदा
नहीं होगा, शोरगुल मचेगा।
विक्षिप्त
करने वाला शोरगुल
मच जायेगा। तब
क्या करना
चाहिए? वाद्यों
को तोड़ देना
चाहिए? या
इन वाद्यों के
भीतर जो संगीत
की क्षमता है,
तालमेल की,
हारमनी की, वह सीखनी
चाहिए?
तुम्हारी
पांचों
इंद्रियों के
कारण तुम्हारे
जीवन में बड़ा
उपद्रव मचा
है। क्योंकि
तुम पांचों को
केंद्र के साथ
जोड़ने
में सफल नहीं
हो पाये।
अन्यथा जीवन
एक आर्केस्ट्रा
है। और जब एक
इंद्रिय इतना
रस दे सकती है, तो पांचों
इंद्रियां
मिल कर जब
संगीत को पैदा
करती हैं, उस
संगीत का नाम
ही समाधि है।
जब पांचों
इंद्रियां
मिल जाती हैं
और एक ही गीत
गाती हैं और
एक ही नृत्य
चलता है और उस
नृत्य के बीच
में तुम्हारा
केंद्र थिर होता
है, न
हिलता है, न
डोलता; तब
तुम उस अवस्था
में आ गये, जिसको
हिंदुओं ने
रास कहा है।
कृष्ण खड़े हैं
बीच में और गोपियां
नाच रही हैं।
गोपी इंद्रिय
का प्रतीक है,
कृष्ण
केंद्र के
प्रतीक हैं।
रास का अर्थ
है परिधि नाच
रही है और
केंद्र थिर
है। बस, और
रास से बड़ा
अनुभव इस जगत
में कोई दूसरा
नहीं।
मन के
संबंध में कुछ
और बातें समझ
लें।
दूसरी
बात, मन के
कारण जो भी
तुम्हें
दिखाई पड़ता है
वह एक विशेष
रंग में रंग
जाता है। तुम
नहीं देखते, बीच में मन
खड़ा है। जहां
भी तुम आंख ले
जाते हो, तुम्हारी
आंख का शुद्ध
प्रत्यक्षीकरण
नहीं होता है।
क्योंकि बीच
में मन खड़ा
है। तुम मन के
द्वारा देखते
हो। और मन का
अर्थ क्या
होता है? मन
का अर्थ है
अतीत अनुभव, स्मृतियां,
जो तुमने
सीखा, सुना,
पढ़ा, लिखा,
जाना, वह
सब इकट्ठा है।
उसकी पर्त तुम
पर जमी है। जैसे
धूल जम गई हो
दर्पण पर। फिर
तुम उसमें
जाकर अपना
चेहरा देखते
हो। वह चेहरा
साफ-साफ दिखाई
नहीं पड़ता।
कुछ का कुछ
दिखाई पड़ता
है।
मन धूल
है, क्योंकि
मन अतीत है।
और धूल परिधि
पर ही जमती है।
भीतर तो जा
नहीं सकती। जब
तुम यात्रा से
लौटते हो, स्नान
कर लेते हो, बात समाप्त
हो गई। और
जाकर डाक्टर
को नहीं कहते
कि आपरेशन करो
मेरे भीतर।
धूल निकालो।
धूल परिधि पर
पड़ती है।
लेकिन
शरीर के संबंध
में तुम
ज्यादा
होशियार हो।
रोज स्नान कर
लेते हो, लेकिन
रोज ध्यान
नहीं करते।
ध्यान स्नान
है मन का, कि
उस पर कुछ धूल
जमे न।
रोज-रोज उसे झाड़
देना है। ताकि
मन साफ-सुथरा,
पारदर्शी
बना रहे। और
मन पर जो
प्रतिबिंब
जगत के बनते
हैं, वे
विकृत न हों।
अभी हम जो भी
देख रहे हैं
वह सभी विकृत
है। तुम कुछ
भी ठीक से
नहीं देख पाते,
क्योंकि हर
चीज के बीच
में तुम्हारी धारणायें
खड़ी हो जाती
हैं।
मैंने
सुना है, पता
नहीं कहां तक
सही है, न
हो सही तो
अच्छा! सुना
है कि तुलसीदास
राम की बड़ी
प्रार्थना-पूजा
में लीन हैं।
फिर वे
वृंदावन गये
और कृष्ण के
मंदिर में
गये। तो जो
मित्र उन्हें
ले गये थे
कृष्ण के
मंदिर में, वे बड़े चौंके।
क्योंकि तुलसीदास
खड़े रहे, झुके
नहीं। और
उन्होंने कहा
कि जब तक, कृष्ण
को कहा, जब
तक धनुषबाण
हाथ में न
लोगे, तब
तक मैं झुकने
वाला नहीं।
मैं राम का
भक्त हूं।
क्या
मतलब हुआ इसका? इसका मतलब
हुआ कि अगर
परमात्मा भी
आकर तुम्हारे
सामने खड़ा हो
तो तुम्हारा
मन कहेगा कि
मेरी धारणा के
अनुकूल! अगर
तुम्हारी
धारणा है कि
उसके हजार हाथ
हैं तो एक
हजार एक तुम
बर्दाश्त न
करोगे, एक
काट दोगे। और
अगर दो ही हाथ
का हुआ तो तुम
बिलकुल घर के
बाहर करोगे। 'तुम जाओ, सहस्रबाहु
हो कर आओ तभी
मैं झुकूंगा।'
परमात्मा
के सामने भी
झुकने में मन
की शर्त है।
तो तुम नहीं
झुक रहे हो, तुम
परमात्मा को
झुका रहे हो। तुलसीदास
कह क्या रहे
हैं? वे यह
कह रहे हैं, 'मैं झुकूंगा
तब, जब तुम
मेरी शर्त
पूरी करो।'
झुकने
में भी शर्त
है। समर्पण
में भी शर्त
है। वह भी कंडीशनल
है, कि धनुषबाण
हाथ लो। पहले
तुम झुको, तब
मैं झुकूं।
आदमी एक दूसरे
के सामने भी
इतना अशिष्ट नहीं
होता।
परमात्मा के
सामने भी मन
अशिष्ट होगा
क्योंकि मन
परमात्मा का
दुश्मन है। वह
कहता है सब
मेरे अनुकूल
होना चाहिए।
जो मेरे अनुकूल
है वह सत्य
है। और फिर मन
ऐसे-ऐसे तर्क
देता है, कि
तुम विश्वास
ही न कर सको।
लेकिन
तुम्हारा मन
भी यही कर रहा
है।
ओ
हेनरी की एक
छोटी सी कहानी
है कि एक गांव
में हत्या हो
गई। यह तो
पक्का हो गया
कि आदमी ने
आत्महत्या नहीं
की है, किसी
ने मारा है।
लेकिन किस ने
मारा है कुछ
पता न चले, कोई
सुराग न मिले,
तो एक बड़े
जासूस को
बुलाया गया।
बड़ा जासूस आया
उसने
खुर्दबीन से
लाश का एक-एक
हिस्सा देखा।
कोट पर पड़ा
हुआ एक बाल
मिल गया।
उसने
कहा, पहेली हल
हो गई। अब
छोटी सी बात
करने की है; वह यह, कि
यह बाल किस
आदमी का है? उसी ने इसको
मारा है। उसने
कहा पहेली हल
हो गई। राज
मिल गया। जिस
आदमी ने भी
इसे मारा है, उसका बाल
इसके कंधे पर
है। यह बाल
इसका नहीं है।
बस, अब
इतना ही करना
है कि उस आदमी
को खोजना है, जिसका एक
बाल खो गया
हो।
जासूस
बड़ा था, उसकी
बड़ी ख्याति
थी।
अधिकारियों
ने सुना तो थोड़े
तो हैरान हुए,
पर
उन्होंने कहा,
कोशिश
करें। चार दिन
न्यूयॉर्क
में वह जासूस गली-कूचे,
गली-कूचे
भटकता
रहा--होटल, स्टेशन,
एयरपोर्ट।
चौथे दिन एक
आदमी को उसने
जहाज पर चढ़ते
देखा, बंदरगाह
पर। वह आदमी
संदिग्ध
मालूम पड़ा
उसकी चाल से, उसके
कपड़े-लत्तों
से। और उसने
एक टोपी पहन
रखी थी।
जिसमें उसका
सारा सिर ही
नहीं बल्कि
कान भी ढंके
हुए थे। उसने
कहा, हो न
हो यही आदमी
है। भागने की
कोशिश कर रहा
है। जासूस
भागा हुआ उसके
पीछे पहुंचा
और जोर से चिल्लाया
'पकड़ो इस
आदमी को।' अधिकारियों
ने उसे पकड़
लिया जहाज के।
और जासूस ने
कहा कि बस, यही
आदमी है। इसकी
चाल से साफ
होता है। अब
इतना ही है, कि बाल का
मेल करना है
कि इसका बाल
है या नहीं। इसकी
टोपी उतारो।
टोपी
उतारी तो बड़ी
मुश्किल हो गई; वह बिलकुल
गंजा था। एक
बाल भी नहीं
था। इसलिए बिचारा
छिपाये हुए
था। कोई
संदिग्ध आदमी
नहीं था। अपनी
खोपड़ी छिपाये
हुए था कोई
और...। अधिकारी
मन ही मन
हंसे। वे समझे
कि हम पहले ही
जानते थे कि
यह बात मूढ़तापूर्ण
है। लेकिन
जासूस ने क्या
कहा? कि
इससे सिद्ध
होता है, कि
इसने एक ही
हत्या नहीं की,
कम-से-कम दस
लाख लोगों की
हत्या इसके
सिर पर है।
ऐसा मन
का तर्क है।
वह कभी अपने
तर्क से पीछे
नहीं हटता। वह
तर्क की अंतिम
सीमा तक जाता
है। और हर
तर्क अपनी
अंतिम सीमा पर
बेहूदा हो
जाता है, रिडिकुलस हो जाता है।
तुम किसी भी
तर्क को
खींचते चले
जाओ उसकी आखिरी
सीमा पर, तुम
पाओगे कि वह मूढ़तापूर्ण
हो गया। जो
चीज अंत में मूढ़तापूर्ण
हो जाती है वह
पहले से ही मूढ़तापूर्ण
थी, सिर्फ
तुम देख न
पाये।
इसलिए
तर्क के साथ
एक बात करनी
जरूरी है कि
तुम उसे
खींचते हुए
अंत तक ले
जाओ। पागल यही
करते हैं, इसलिए वे
पागल हैं।
पागल तुमसे
ज्यादा तार्किक
होता है।
एक
आदमी को मैं
जानता हूं जो
दिन भर हाथ
धोने में लगा
रहता था। उसको
मेरे पास लाया
गया। मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
ऐसा आदमी
विक्षिप्त है।
तो उस आदमी को
मैंने पूछा कि
'क्या मामला
है?' उसने कहा,
'मामला क्या
है! आप भी
मानेंगे कि
अगर हाथ गंदा हो
जाये तो साफ
करना चाहिए।'
मैं भी मानूंगा।
तो उसने पूछा,
'कितनी दफा
साफ करना
चाहिए?' तो
मैं समझा कि
उसका तर्क साफ
है। उससे
मैंने कहा 'एक दफा।' उसने
कहा, 'अगर न
हो पाये पूरी
तरह साफ?' तो
कहा, 'दो
दफा।' 'वही
तो मैं कर रहा
हूं। मैं पाता
हूं कि दूसरी
दफा भी पूरी
तरह साफ नहीं
हो पाया, तो
तीनत्तीन
सौ दफा! और ये
सब लोग मुझे
पागल समझ रहे
हैं। और मैं
केवल
स्वच्छता का
प्रेमी हूं।'
एक दफा
हाथ धोना समझ
में आता है।
तीन सौ दफा हाथ
धोना समझ में
नहीं आता है।
क्यों? तर्क
को वह खींचकर
उसकी आखिरी
सीमा पर ले
गया।
एक घर
में मैं कुछ
दिनों तक
मेहमान था। उस
घर में बड़ी
मुसीबत थी।
महिला बड़ी ही
स्वच्छता की प्रेमी
थी। तो दरवाजे
बंद ही रखती
थी। कोई आ भी जाये, तो पहले
खिड़की से
देखती थी, कि
भीतर लाने
योग्य है या
नहीं। उसके
पति भी सोफा
वगैरह पर नहीं
बैठ सकते थे।
इतनी सफाई का
सारा मामला
था। उसका खुद
भी, चौबीस
घंटे सफाई में
बीतता था।
उसका लाभ कुछ
हो ही नहीं
सकता था।
क्योंकि जीना
है तो थोड़ी बहुत
धूल तो आ ही
जायेगी। अगर
मरना ही हो तो
कब्र ही साफ
रह सकती है, घर तो थोड़ा
बहुत...लोग
आयेंगे-जायेंगे,
बच्चे
खेलेंगे-कूदेंगे।
उसने बच्चों
को जन्म नहीं
दिया सफाई की
वजह से। उसने
कहा, 'कौन
उपद्रव लेगा।'
उसने शादी
की यही
चमत्कार है।
पति भी ऐसे
डरते हुए उसके
घर में चलते
थे।
मैं जब
मेहमान हुआ
उनके घर, तो
मैंने कहा वह
महिला तो किसी
को भी पागल कर
दे। क्योंकि
आप बैठें
तो वह आपको
ऐसा देखे
अपराधी भाव से
नीचे से ऊपर
तक, कि
कहीं कोई धूल,
कोई कचरा, या उसकी
गद्दी पर कोई
गड़बड़ तो नहीं
हो जायेगी।
लेकिन अगर इस
महिला से तर्क
करो, तो
तुम हारोगे।
क्योंकि वह
कहती, कि
स्वच्छता
क्या बुरी बात
है? स्वच्छता
बिलकुल अच्छी
बात है। खींचो
इसको आखिरी तक
और तुम मरे!
तुम
अपने
साधु-संतों को
देखो।
उन्होंने जो
बातें अच्छी
हैं, उनको
आखिरी तक खींच
के मुसीबत खड़ी
कर दी है। वह
तर्क का आखिरी
परिणाम है।
खींचते चले
गये हैं, और
बात बेहूदी हो
गई। हर चीज को
अगर तुम मध्य
से खींचोगे
इस कोने या उस
कोने, मूढ़ हो जाओगे।
मध्य यह है कि
भूख लगे तो
पेट भरो। अतियां
ये हैं कि
इतना भर लो कि
वमन करना पड़े,
और या इतना
खाली छोड़ दो
कि भूखे मरने
लगो। दोनों
तरह के लोग
हैं इस दुनिया
में। ज्यादा
खाने वाले लोग,
उपवास करने
वाले लोग।
दोनों अतियों
पर चले गये
हैं। और दोनों
तर्कनिष्ठ
हैं। वह जो
ज्यादा खाता
है...।
जैसे
नीरो हुआ
सम्राट। वह
इतना खाता था, कि उसने चार
डाक्टर रख
छोड़े थे, जो
खाने के बाद
उसको उलटी
करवाते। वह
दिन में कोई
बीस, पच्चीस
कभी तीस बार
खाता था।
डाक्टर उसको
तत्क्षण खाने
के बाद वमन
करवा देते थे।
क्योंकि वमन
के बिना दुबारा
नहीं खा सकता
था। नीरो कहता
था कि जब खाने
में इतना मजा
एक दफे में
आता है, तो
चार दफा में
और ज्यादा
आयेगा, आठ
दफा में और
ज्यादा
आयेगा। और जब
खाने में इतना
मजा आता है, तो जिंदगी
खाने के लिए
है। तो चार
डाक्टर रख छोड़े
हैं।
इसको
तुम पागल
कहोगे। लेकिन
तुम्हारे
उपवास करने
वाले
साधु-संत...वे
सिर के बल खड़े
नीरो हैं।
शीर्षासन
करते हुए
नीरो! वे कहते
हैं कि खाने
से इंद्रियों
को शक्ति
मिलती है। इसी
से तो जीवन का
चक्र चलता है।
इसी से तो
वासना पैदा
होती है। न
होगी शक्ति, न होगी
वासना। जब
शक्ति ही न
होगी, निर्बलता
होगी, तो
कैसे काम
उठेगा? कैसे
वासना उठेगी?
तो बस, बंद
कर दो
खाना-पीना।
कुछ
हैं, जिन्होंने
गाड़ी में पूरा
पेट्रोल भर
लिया है। खुद
के बैठने की
जगह ही नहीं
है। कुछ हैं
जो गाड़ी में
पेट्रोल ही
नहीं डालते।
बस, वे
हैंडल पर बैठे
रहते हैं।
गाड़ी उनकी
चलती ही नहीं।
कुछ हैं, इतना
पेट्रोल भर
लिया है, वे
बाहर खड़े हैं।
क्योंकि भीतर
आने की जगह
नहीं है, जितनी
जगह है, उतने
में तो
पेट्रोल डाल
दिया है।
ये दो
जो हैं, अतियां
हैं।
बुद्धिमान
आदमी सदा मध्य
में है। पर एक
बड़े मजे की
बात है मन के
संबंध में कि
मध्य में ही
तुम रहो कि मन
मर जाता है; अति पर जाओ
कि मन बड़ा
होने लगता है।
मध्य में मन
हो ही नहीं
सकता। इस
सूत्र को
जितनी गहराई में
ले सको, ले
लेना। ठीक
मध्य बिंदु पर
मन नहीं हो
सकता। इसलिए
मन तुम्हें
मध्य बिंदु पर
कभी नहीं रहने
देता। या तो
खाओ खूब, या
तो उपवास करो।
दोनों से वह
राजी है। या
तो पागल होकर
संसारी हो जाओ,
या पागल
होकर
संन्यासी हो
जाओ, दोनों
से राजी है। 'सम्यकत्व'--मध्य में भर
मत आना। बीच
में भर मत खड़े
होना। या तो
अतीत की
सोचो--राजी; या भविष्य
की
सोचो--राजी।
वर्तमान में
मत खड़े होना।
क्योंकि
वर्तमान में
सोच कैसे
सकोगे? वर्तमान
में सोच बंद
हो जाता है।
इसी क्षण, वर्तमान
के क्षण में
कैसे विचार
चलेगा? वर्तमान
में विचार चल
ही नहीं सकता।
या तो अतीत, या भविष्य।
वे दो
अतियां हैं।
मन मध्य से
डरता है। और
जो मध्य में आ
जाते हैं वे
मन से मुक्त
हो जाते हैं।
मन के मालिक
हो जाते हैं।
और मन ही कंपा
रहा है। और
जितनी अति पर
तुम जाते हो, उतना ही कंपाता
है। उपवास
करता हुआ आदमी
कंपता हुआ
आदमी है; थिर
हो कैसे सकता?
अति पर कोई
कभी थिर नहीं
हो सकता।
क्योंकि अति
का अर्थ ही यह
है, कि
जीवन-ऊर्जाओं
को तुम इतनी
अतिशयोक्ति
पर खींच दिये
हो, कि
वहां तुम शांत
नहीं हो सकते।
ज्यादा खा कर
भी तुम शांत
नहीं हो सकते।
चौबीस घंटे
दूकान पर ही
डूब जाओ, तो
भी तुम शांत
नहीं हो सकते
और दूकान को
छोड़ कर तुम
जंगल भाग जाओ,
तो भी तुम
शांत नहीं हो
सकते।
क्रिया
और अक्रिया के
मध्य में कहीं
खड़ा होना होगा।
इसलिए बुद्ध
ने अपने मार्ग
को 'मज्झिम निकाय' कहा
है, 'दि मिडल
वे।' और मज्झिम
निकाय का अर्थ
है। मध्य
मार्ग का अर्थ
है। क्योंकि
मन मध्य में
मर जाता है, अभी तुम जो
भी देखोगे
उसमें मन के
कंपन हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
शराबघर
पहुंचा। ऐसे
ही काफी पीये
था, घर से ही
पीकर चला था।
दूकानदार ने
भी देखा कि
इतना ज्यादा
पीये है। उसने
कहा कि, 'आज
तुम्हें न
दूंगा।' तो
नसरुद्दीन
ने कहा, 'तुमने
क्या समझा है?
तुम एक ही
दूकान हो इस
गांव में? किस
अकड़ में भूले
हो? दुबारा
पैर न रखूंगा।
देते हो या
नहीं?' दूकानदार
ने कहा, 'तुम
जाओ। जब होश
में हो तब
आना।'
नसरुद्दीन लड़खड़ाता
बाहर निकला।
बड़ी देर खोजने
के बाद दूसरी
दूकान खोजी; वह उसी
दूकान का
दूसरा दरवाजा
था। शराबी
आदमी! उसको
बड़ी देर लग गई
टटोलते। इधर
गया, उधर
गया, गोल-गोल
घूमा, परिक्रमा
की, पहुंचा।
बड़ी
प्रसन्नता से
भीतर गया और
कहा कि 'क्या
समझा है उन
लोगों ने? दूसरे
दूकान वाले
अकड़ गये हैं।
ग्राहक पर ही
जीते हैं और
अकड़ से मरे जा
रहे हैं।' उस
दूकानदार ने
कहा, 'नसरुद्दीन तुम फिर
वहीं आ गये हो
और आज तुम्हें
न मिलेगी।'
नसरुद्दीन
बाहर निकला, फिर
खोजा-बीना।
आधी रात गये, तीसरे
दरवाजे से उसी
दूकान के भीतर
प्रवेश हुआ।
उसने कहा, कि
बड़ी मुसीबत हो
गई इतनी
दूकानें
दूर-दूर। तो एक
दूकान वाला न
दे, तो
दूसरे पर जाने
में घंटों लग
जाते हैं, तब
उसने गौर से
देखा और कहा, 'क्या मामला
है? क्या
तुमने सब
दूकानें खरीद
लीं और हर जगह
तुम्हीं
मौजूद हो?'
मन इस
दरवाजे से घुसे, तो भी उसी
दूकान पर जाता
है; दूसरे
दरवाजे से घुसे
तो भी उसी
दूकान पर जाता
है, मन
कहीं और जा ही
नहीं सकता। एक
अति भी वहीं
ले जायेगी, दूसरी अति
भी वहीं ले
जायेगी। मन
मध्य से कभी प्रवेश
नहीं करता।
क्योंकि वहां
मौत है। इसलिए
मन एक अति से
दूसरी अति पर
डोलता है, घड़ी
की पेंडुलम
की भांति। इस
डोलने में ही
मन का
अस्तित्व है।
तुम
अति मत चुनना, अन्यथा
मुश्किल में
पड़ोगे। और
जीवन में हर
जगह हर चीज का
मध्य खोजना।
कठिन नहीं है।
क्योंकि जब
तुम अति खोज
लेते हो, मध्य
खोजना कैसे
कठिन होगा? दोनों
अतियों के बीच
में रुक जाना।
न तो भोग के
पीछे पागल हो
जाना, न
त्याग के पीछे
पागल हो जाना।
न शरीर के
गुलाम हो जाना,
न शरीर के
दुश्मन हो
जाना। न तो
इंद्रियों
में इतने
लिप्त हो जाना
कि तुम बचो ही
न, और न
इतनी लड़ाई
करने लगना कि
इंद्रियों को
काट ही डालो
और वे बचें ही
न। दोनों के
मध्य।
मध्य
बड़ा कठिन है।
बड़ी कुशलता
चाहिए। और
सारे जीवन की
कला इसमें है
कि कैसे तुम
मध्य को खोज
लो!
मेरे
पास कोई आता
है; अगर वह
ज्यादा खाता
है, तो वह
कहता है, 'मुझे
उपवास पर भेज
दें।' मैं
उससे कहता हूं
कि तू थोड़ा कम
खा। उसके लिए वह
राजी नहीं
होता। उपवास
के लिए वह
राजी है। उससे
मैं कहता हूं
कि सम्यक भोजन
कर। जितना जरूरी
है उतना खा।
उसके लिए वह
राजी नहीं
होता। वह कहता
है, बड़ा
कठिन है।
उपवास के लिए
वह राजी है।
क्यों? उपवास
के लिए क्यों
राजी है? ज्यादा
खाकर भी वह
शरीर को नष्ट
कर रहा था। उपवास
करके भी वह
शरीर को नष्ट
करेगा। वह
शरीर का
दुश्मन है।
ये
तरकीबें अलग
हैं, दरवाजे
अलग हैं, दूकान
एक ही है। इधर
वह स्त्रियों
के पीछे दौड़-दौड़
कर, पुरुषों
के पीछे
दौड़-दौड़ कर
परेशान हो रहा
था। दौड़ थी।
डॉन
जुआन हैं, वे दौड़ रहे
हैं। कहते हैं,
बायरन कोई
साठ
स्त्रियों के
प्रेम में था
एक साथ। जरूर
कहीं न कहीं
कोई
विक्षिप्तता
होनी चाहिए।
क्योंकि
प्रेम हो तो
एक स्त्री का
भी काफी, और
न हो तो छः
हजार का भी
काफी नहीं।
मेरे
एक मित्र हैं, उनके घर मैं
मेहमान था।
उनकी बैठक में
बैठा था। एक
लड़के को वे
डांट रहे थे।
उसको वे कह
रहे थे, 'तूने
मेरी लड़की का
अपमान किया।
तूने रात उससे
शादी का
प्रस्ताव
किया और मुझे
पता चला है कि रात
ही तू दूसरी
लड़की के भी घर
गया और उससे
भी तू शादी का
प्रस्ताव
किया। और इतना
ही नहीं, तू
तीसरी लड़की के
भी घर गया और
उससे भी शादी
का प्रस्ताव
किया। यह तूने
कैसे किया?' उस लड़के ने
कहा, 'इसमें
क्या अड़चन है
बाबूजी? मेरे
पास साइकिल जो
है!'
साठ
स्त्रियों से
बायरन का
संबंध! प्रेम
विक्षिप्त
मालूम होता
है। कहीं कोई
रोग है। यह
प्रेम के पीछे
कहीं कोई और
ही बात है, जो बायरन
पूरी करना चाह
रहा है। प्रेम
से कोई संबंध नहीं
है। शायद
प्रेम अहंकार
की यात्रा है।
कितनी
स्त्रियों को
जीत लूं।
कितनी
स्त्रियों पर
कब्जा कर
लूं--अहंकार!
और अहंकार
प्रेम का दुश्मन
है। यह तृप्ति
कभी न होगी।
सारी दुनिया की
स्त्रियां
मिल जायें तो
भी यह आदमी अतृप्त
होगा।
तो एक
तो डॉन जुआन
टाइप है, बायरन
टाइप है, जो
सारी
स्त्रियों को
भोगना चाहता
है। परेशान
है। उसका शरीर
टूटता है, नष्ट
होता है। फिर
कभी भी यह डॉन
जुआन टाइप जब थक
जाता है, परेशान
हो जाता है, तो यही है जो
फिर
ब्रह्मचर्य
के गुणगान
गाता है। जो
फिर सारे शरीर
का दुश्मन हो
जाता है। फिर
यह किसी को बर्दाश्त
नहीं कर सकता
है, कि कोई
प्रेम में है।
जो भी प्रेम
में है उसको यह
नरक में डाल
कर सड़ाने
की योजना
बनाता है। 'वहां आग
जलेगी, वहां
सड़ोगे।'
ये डॉन
जुआनों
ने ही
तुम्हारे
शास्त्र लिखे
हैं। ये पहले
स्त्रियों के
पीछे भागते
रहे, अब
स्त्रियों के
दुश्मन हो गये
हैं। क्योंकि वहां
कुछ पाया
नहीं। न पाने
का कारण खुद
हैं, स्त्रियां
नहीं। अन्यथा
इस जगत में हर
जगह परमात्मा
है; स्त्री
में न होगा? कण-कण में वे
कहते हैं
परमात्मा है;
स्त्री से
सावधान रहना।
स्त्री अदभुत
है! परमात्मा
को खूब हराया
उसने! सब पर
जीत गया
परमात्मा, स्त्री
के भीतर
प्रवेश न कर
पाया। कहते
हैं, 'अभय
रखना। लेकिन
स्त्री से
सावधान रहना।'
स्त्री से
डर रहे हो और
किससे अभय
रखोगे?
सदा मन
देखता है कि
दूसरे पर
जिम्मेवारी
थोप दो। अगर
तुम भटक रहे
हो तो कोई
भटका रहा है।
जागो!
कोई तुम्हें
भटका नहीं रहा
है। तुम भटक
रहे हो, तो
तुम्हीं कारण
हो। न कोई
स्त्री
तुम्हें खींच
रही है, न
कोई धन
तुम्हें
पुकार रहा है।
न कोई पद तुम्हारे
लिए आतुर है
कि आओ और विराजो।
कोई तुम्हें
नहीं परेशान
कर रहा है।
तुम खुद ही
परेशान हो रहे
हो। और जब तुम
बहुत परेशान
हो जाते हो, तो तत्क्षण
तुम विपरीत
चुन लेते हो।
अब तुम विपरीत
से परेशान
होओगे।
इधर
लोगों को मैं
देखता हूं
स्त्रियों से
परेशान हैं।
उधर मैं
साधुओं को
देखता हूं वे
स्त्रियों के
न होने से
परेशान हैं।
साधु मेरे पास
आते हैं। वे
कहते हैं, 'क्या करें!
स्त्री
कठिनाई है।' और मेरे पास
गृहस्थ आते
हैं वे भी यही
कहते हैं, 'क्या
करें! स्त्री
कठिनाई है।'
तब मैं
बड़ा चकित होता
हूं, कि ये
दोनों आदमी
विपरीत हैं और
कठिनाई एक है।
ये आदमी दोनों
विपरीत हो
नहीं सकते, नहीं तो
कठिनाई एक
कैसे होती? अलग-अलग दरवाजों
से एक ही
दूकान में घुस
रहे हैं।
अन्यथा कठिनाई
अलग होनी
चाहिए।
और
आश्चर्य तो यह
है कि तुमसे, गृहस्थ से, ज्यादा
परेशान साधु
है। क्योंकि
तुमने कम से कम
प्राकृतिक
अति चुनी।
उसने
अप्राकृतिक
अति चुनी है।
ध्यान
रहे, ज्यादा
खाने वाला भी
आज नहीं मर
जायेगा। कम से
कम पचास साल
जिंदा रहेगा।
परेशानी में
रहेगा, लेकिन
पचास साल।
उपवास
करनेवाला तीन
महीने में मर
जायेगा। वह
अति
अप्राकृतिक
है। मगर कोई भी
अति हो, उससे
मन बढ़ता है।
उसी के सहारे
मन खड़ा रहता
है। तो मन के
संबंध में यह
भी खयाल रख
लें कि वह अतियों
में जीता है।
अति, मन का भोजन
है। तुम मध्य
में आये कि मन
गया।
अब हम
इस छोटी सी
कहानी को
समझें।
दो
साधु एक झंडे
के बाबत विवाद
कर रहे थे...।
एक झेन
आश्रम में लगा
है झंडा। सुबह
की हवा ने उसे
फहराया है। दो
साधु गुजरते
हैं। वे खड़े
हो गये हैं, और विवाद
शुरू हो गया।
मन बड़ा
विवादी है, कोई भी
बहाना--और
विवाद शुरू हो
जाता है। अब
झंडे से क्या
लेना-देना!
लेकिन मन
विवाद में रस
लेता है।
इसलिए बहाना
कोई भी, बहाना
है। तुम चाहे
ईश्वर के
संबंध में
विवाद करो, चाहे कौन सी
फिल्म
अभिनेत्री
सबसे ज्यादा
सुंदर है; कोई
फर्क नहीं।
विवाद
का रस! विवाद का
रस क्या है? दूसरे को
हराना है।
आदमी
सुसंस्कृत हो
गया है, लेकिन
उसके भीतर का
जानवर मर नहीं
गया है; जिंदा
है। लट्ठ नहीं
मारता, तर्क
मारता है।
किसी के सिर
पर लकड़ी मारो,
पुलिस पकड़
लेगी। उसका
हमने इंतजाम
कर रखा है। लेकिन
तर्क मारो, कोई नहीं
पकड़ सकता।
लेकिन रस वही
है, कि
दूसरे को झुका
देना, गिरा
देना। 'मैं
ठीक हूं, तुम
गलत हो' इसमें
इतना रस क्यों
है? क्यों
हिंदू कहता है
मुसलमान से कि
तुम गलत हो? क्यों
मुसलमान कहता
है कि
तुम्हारा वेद
गलत है? क्यों
जैन कहता है
कि कुछ नहीं
रखा है
तुम्हारे
वेदों में? क्यों हिंदू
कहते हैं कि
क्या सार है
इन महावीर में?
क्या कारण
है कि सारे
दुनिया के लोग
विवाद में लीन
रहते हैं? जरूर
विवाद में कोई
गहरा रस होना
चाहिए। और कोई
भी बहाना...।
और
कभी-कभी तो
ऐसे व्यर्थ के
बहाने, कि
तुम अगर बाहर
हो विवाद के
तो हंसोगे।
भीतर हो, तो
बड़े गंभीर रहोगे।
क्या है
श्वेतांबरों-दिगंबरों
का विवाद? कि
महावीर ने
वस्त्र पहने
या नहीं। अब
विवाद चल रहा
है। इस पर सिर
फूट रहे हैं
ढाई हजार साल
से। अदभुत
गधापच्चीसी
है। महावीर ने
पहने या नहीं
पहने यह उनके
लिए झंझट की
बात होगी।
किसी और को
इसमें क्या
प्रयोजन है? क्या रस है? महावीर ने
शादी की या
नहीं, इस
पर श्वेतांबर-दिगंबरों
में विवाद चल
रहा है। और
बड़े पंडित लगे
हैं। और बड़े
तर्क खोजते
हैं, की या
नहीं की! तो
महावीर की
झंझटों में
तुम कैसे
उतरते हो? की
होगी तो उनने
भोगा होगा।
नहीं की होगी
तो उनने भोगा
होगा। तुम
कहां आते हो?
लेकिन
नहीं, यह तो
बात ही नहीं
है। असली बात
यह नहीं कि
हवा हिल रही
है, कि
झंडा हिल रहा
है। इस पर सिर
फूट सकते हैं।
इसको अति पर
खींचते जाते
हैं लोग।
हिंदू, मुसलमानों
की मस्जिदें
जलाते रहे
हैं। मुसलमान,
हिंदुओं की
मूर्तियां
तोड़ते रहे।
जिस
आदमी में थोड़ा
भी बोध है, वह अपने
जीवन को सम्हालेगा।
किस मंदिर को
तोड़ने में
शक्ति को
लगानी है? किस
मस्जिद को
तोड़ने में
लगानी है? कुछ
बनाने में लगा
रहे हैं, कुछ
तोड़ने में लगा
रहे हैं।
लेकिन दोनों
बाहर उलझे हैं
और भीतर जीवन
चुकता जा रहा
है। हद की मूढ़ता
है! लेकिन मन मूढ़ता में
रस लेता है।
प्रयोजन यह है,
कि किसी भी
तरह दूसरे को
हराना है।
कितनी
तरकीबें आदमी
ने निकाली
हैं। वे सब
सुसंस्कृत
उपाय हैं
पशुता को
सिद्ध करने
के। शतरंज खेल
रहे हैं।
हाथी-घोड़े
चलाना
मुश्किल है। असली
हाथी-घोड़े
चलाओ तो झंझट
में पड़ोगे।
पालना भी
मुश्किल है
असली हाथी-घोड़े।
तो नकली बना
रखे हैं। हाथी
हैं, घोड़े हैं,
पिद्दी हैं,
सम्राट है।
और शतरंज
खेलने वाले को
देखो, कैसा
गंभीर है!
जीवन दांव पर
लगा है। इसे
पता नहीं है
यह क्या कर
रहा है। सब्स्टीटयूट
है, परिपूरक
है।
हमने
हत्या बाहर
बंद कर दी, लेकिन भीतर
हत्यारा छिपा
है। हम
आदमियों की
गर्दनें भीतर
से नहीं काट
सकते; क्योंकि
वह महंगा धंधा
है। तो हमने
सुलभ उपाय खोजे
हैं। देखें, कोई फुटबॉल
खेल रहा है।
लाखों लोग
देखने पहुंच
गये। चकित
होने की बात
है, कि
आदमी के भीतर
कोई रोग चल
रहा है भारी।
कहीं क्रिकेट
चल रहा है, करोड़ों
लोग टेलीविजन
और रेडियो के
पास खपे
बैठे हैं।
जैसे उनके
जीवन दांव पर
लगे हैं!
एक
सज्जन को मैं
जानता हूं, वे जिस टीम
में उत्सुक थे
वह हार गई, तो
उन्होंने
रेडियो गिरा
कर तोड़ दिया, इतने जोश
में आ गये।
देखो जाकर।
अगर तुम्हें पागल
देखने हैं तो
रेसकोर्स में
देखो। घोड़े दौड़
रहे हैं, ये
परेशान हैं! घोड़ों को
तुम राजी करो,
आदमियों की
रेस करवाओ,
एक घोड़ा न
आयेगा। एक
घोड़ा रस न
लेगा, कि
मरो! तुम दौड़ो,
तुम्हारा
क्या करना।
लेकिन आदमी
घोड़े पर दांव
लगा रहा है।
प्रयोजन घोड़ा
नहीं है।
प्रयोजन यह है,
कि किसी भी
तरह मैं घोषित
करूं कि मैं जीत
गया। दूसरा
हारा, मैं
जीता। जीत का
इतना रस!
हम कोई
भी बहाना खोज
लेते हैं। फिर
सभी बहाने बराबर
हैं। भीतरी
वृत्ति को
पहचानना। अब
क्या प्रयोजन
हो सकता है दो
साधुओं को? एक झंडे के
बारे में
विवाद कर रहे
थे।
एक ने
कहा, 'झंडा डोल
रहा है।'
दूसरे
ने कहा, 'हवा
डोल रही है।'
अब यह
विवाद बड़ा
कठिन है तय
करना। यह वैसे
ही है, जैसे
अंडा-मुर्गी--कौन
पहले आया! इस
पर बड़े-बड़े विद्वान
और दार्शनिक
विवाद करते
रहे हैं। तुम
हंसोगे कभी, कि बड़े-बड़े
दार्शनिक भी
इसमें क्यों
उलझे हैं? पहले
मुर्गी पैदा
हुई, कि
पहले अंडा?
राहुल सांकृत्यायन
एक बहुत बड़े
बौद्ध
दार्शनिक थे।
आखिर में उन्होंने
सिद्ध ही कर
दिया है अपनी
किताब में, कि अंडा ही
पहले हुआ। पर
किसको
प्रयोजन है? मुर्गी को
मतलब नहीं है,
हम क्यों
परेशान हैं? और दोनों ही
गलत हैं।
इसलिए हल नहीं
हो पाता। ध्यान
रखना, जिन-जिन
चीजों में
विवाद का हल
नहीं होता, वहां दोनों
ही गलत होंगे।
ईश्वर
के संबंध में
अब तक तय नहीं
हो पाया है कि
वह है या
नहीं। करोड़ों
वर्ष से आदमी
लड़ रहा है। न
आस्तिक
नास्तिक को
हरा पाता है, न नास्तिक
आस्तिक को हरा
पाता है। जरूर
बात कुछ ऐसी
है, कि वह मूढ़तापूर्ण
है और तय नहीं
हो सकती। कुछ
प्रश्न ही ऐसा
है, कि
उसमें कोई भी
उत्तर देने से
गड़बड़ होगी।
जैसे
यह समझो, कि
कोई तुमसे
पूछने लगे, कि लाल रंग
की सुगंध क्या
है? प्रश्न
तो बिलकुल ठीक
लगता है।
भाषाशास्त्री
कोई गलती नहीं
निकाल सकते।
व्याकरण साफ
सुथरी है। 'लाल रंग की
सुगंध क्या है?'
और दो जवाब
देनेवाले मिल
जायेंगे। वे
हमेशा मिल
जायेंगे। फिर
विवाद शुरू हो
जाए, फिर
हल कुछ भी न हो
पायेगा।
लोग
कहते हैं कि
ईश्वर है या
नहीं। यह
विवाद ऐसा ही
है। क्योंकि
तुम कैसे
सिद्ध करोगे
कि वह है? अगर
वह असीम है, तो उसकी तरफ
कोई इशारा
नहीं किया जा
सकता। अगर वह
अदृश्य है, तो उसे किसी
को बताया नहीं
जा सकता। तुम
कैसे सिद्ध
करोगे कि वह
है?
अगर
उसने जगत
बनाया तो एक
बात पक्की है, कि बनाते
वक्त तुम
मौजूद नहीं
थे। कोई
साक्षी नहीं
है, कोई
गवाह नहीं है।
और इतना बड़ा
कृत्य बिना
गवाह के कौन
मानेगा? इतना
बड़ा उपद्रव!
उसने भी फिर
यह भूल दुबारा
नहीं की बनाने
की।
कहते
हैं लोग, कि
उसने सब पशु
बनाये--ईसाइयों
की कथा है--झाड़
बनाये, पौधे,
पृथ्वी, चांद,
तारे; छठवें
दिन आदमी
बनाया। और फिर
उसके बाद उसने
कुछ नहीं
बनाया। तो लोग
पूछते हैं, फिर क्यों
कुछ नहीं
बनाया? तो
उसने कहा कि
वह आदमी से
इतना ज्यादा
घबड़ा गया देख
कर, कि यह
क्या कर बैठे!
फिर उसने
बनाना ही बंद
कर दिया। यह
आखिरी कृति
है।
लेकिन
गवाह तो कोई
भी नहीं है।
बातचीत सब हवा
में है। इसलिए
बुद्ध जैसे
पुरुष जवाब
नहीं देते।
तुम उनसे पूछो, 'ईश्वर है या
नहीं?' वे
कहते हैं, 'व्यर्थ
की बातें मत
उठाओ। कुछ
सार्थक बात
पूछो।' और
जो कहता है 'नहीं है' वह
भी सिद्ध नहीं
कर सकता है
निर्णायक रूप
से। कैसे
सिद्ध करोगे
कि नहीं है? जब तक एक-एक
कण खोज न लिया
जाये अनंत का,
और कहीं भी
उसे न पाया
जाये, तब
तक तुम कैसे
सिद्ध करोगे
कि वह नहीं है?
यह कभी
होने वाला
नहीं है।
क्योंकि
विस्तार अनंत
है। कुछ न कुछ
बाकी रह ही
जायेगा। सदा
बाकी रहेगा।
जानने को सदा
बाकी रहेगा।
आदमी का
मस्तिष्क
छोटा है, अस्तित्व
विराट है।
इसलिए जो
आस्तिक है वह
कहेगा, जब
तक तुमने पूरा
नहीं जाना तब
तक कम से कम
चुप रहो। कहीं
छिपा होगा।
कहीं कोने कांतर
में बैठा
होगा।
विवाद
चलता रहेगा।
कैसे तय करोगे
कि मुर्गी पहले
कि अंडा पहले? कठिनाई
प्रश्न में
छिपी है, इसे
समझ लो।
क्योंकि
तुम्हारे
बहुत से प्रश्न,
करीब-करीब
सभी, इसी
तरह के हैं।
जैसे ही कोई
कहे कि मुर्गी
पहले पैदा हुई,
सवाल उठ आता
है कि बिना अंडे
के कैसे होगी?
जैसे ही
किसी ने कहा
अंडा पहले
पैदा हुआ, सवाल
उठ आता है कि
जब मुर्गी ही
न थी अंडा
रखने को, तो
अंडा रखेगा
कौन?
भूल
सवाल में है।
भूल देखने में
है। मुर्गी और
अंडा दो चीजें
नहीं हैं।
मुर्गी अंडे
का एक रूप है।
अंडा मुर्गी
का एक रूप है।
दोनों अलग किए
नहीं जा सकते।
वह एक ही घटना
है। एक छोर पर अंडा, दूसरे छोर
पर मुर्गी। वे
दो हैं नहीं।
क्या तुम
पक्का बता
सकते हो? कहां
तक अंडा, और
कहां से
मुर्गी, कहां
सीमा रेखा खींचोगे?
कोई सीमा
रेखा नहीं
खींची जा
सकती। अंडा
प्रतिपल
मुर्गी हो रहा
है। मुर्गी
प्रतिपल अंडा
हो रही है।
तुम दो मान
लेते हो कि
अंडा अलग, मुर्गी
अलग। इससे
सवाल उठता है।
ठीक
वैसी ही
स्थिति
सृष्टि और
स्रष्टा की
है। वे दो
नहीं हैं, इसलिए सवाल
गलत है और सब
जवाब गलत हैं।
यह अस्तित्व,
यह सृष्टि
हो नहीं सकती
बिना स्रष्टा
के। और स्रष्टा
हो नहीं सकता
बिना सृष्टि
के। अर्थात
किस अर्थ का
स्रष्टा होगा,
जब सृष्टि
ही नहीं है? वे दोनों एक
ही घटना के दो
हिस्से हैं, दो छोर हैं।
स्रष्टा
प्रतिपल
सृष्टि हो रहा
है, सृष्टि
प्रतिपल
स्रष्टा हो
रही है। जैसे
मुर्गी अंडा
हो रही है, अंडा
मुर्गी हो रहा
है। एक
वर्तुलाकार
वृत्त है, जिसमें
दो नहीं हैं।
अब बड़ा
कठिन है तय
करना कि झंडा
हिल रहा है, या हवा डोल
रही है। दोनों
अपने पक्ष में
तर्क खोज सकते
हैं। बड़े मजे
की बात यह है, कि असत्य के
संबंध में
तर्क खोजा जा
सकता है। तर्क
को असत्य से
कुछ विरोध
नहीं है, तर्क
सिर्फ असंगति
के विरोध में
है। असत्य के विरोध
में बिलकुल
नहीं है तर्क।
तर्क असंगति के
विरोध में है।
वह कहता है कि
एक संगति होनी
चाहिए। एक सुसंबद्धता
होनी चाहिए।
और बड़ी कठिनाई
यही है, कि
जीवन असंगत
है। सत्य
असंगत है। और
तर्क संगति के
पक्ष में है--कंसिस्टेंसी।
अब जो
आदमी कहता है
कि झंडा डोल
रहा है वह
कहेगा, कि
हवा दिखाई भी
कहां पड़ रही
है? जो
दिखाई ही नहीं
पड़ रही है वह
उस झंडे को
कैसे डुला
सकेगी जो
दिखाई पड़ रहा
है? अदृश्य,
दृश्य को
कैसे छुएगा? दोनों का
संबंध कैसे
होगा? तुम
हवा को दिखाओ
कहां है? और
जो दिखाई ही
नहीं पड़ती तुम
उसको क्यों
आधार मानते हो?
जो दिखाई पड़
रहा है झंडा, वह साफ सीधा
दिखाई पड़ रहा
है कि डोल रहा
है।
यही तो
सारे
भौतिकवादी और ईश्वरवादियों
का झगड़ा
है--यही हवा और
झंडा--इससे
फर्क नहीं है।
इसलिए कथा बड़ी
प्रीतिकर है
और बड़ी
प्रतीकात्मक
है। क्योंकि वह
सभी
दार्शनिकों
की मूढ़ता
बता रही है।
क्या
कहता है
माक्र्स? वह
यही तो कहता
है कि जो
ईश्वर दिखाई
नहीं पड़ता वह
कैसे इस जगत
का स्रष्टा
होगा? जो
आत्मा दिखाई
नहीं पड़ती वह
इस शरीर को
कैसे चलायेगी?
अच्छा तो
उल्टा होगा, कि जो दिखाई
भी पड़ रहा है
वही उस सब को
चला रहा है, जो दिखाई
नहीं पड़ता।
इसलिए
माक्र्स कहता
है कि जो
चेतना है वह
पदार्थ की
उप-उत्पत्ति
है: 'ए बाई
प्रॉडक्ट आफ
मैटर।' वह
जो तुम्हारी
आत्मा है, वह
पदार्थ की ही
उप-उत्पत्ति
है। वह उस
पदार्थ से ही
पैदा हुई, जो
दिखाई पड़ रहा
है। वही आधार
है जो दिखाई
नहीं पड़ता, वह इसी का ही
उत्पन्न हुआ
एक रूप है।
झंडा
डोल रहा है वह
साफ दिखाई
पड़ता है।
पदार्थवादी
कहेगा कि झंडा
डोल रहा है, और झंडे के
डोलने के कारण
अदृश्य हवा
में तरंगें
पैदा हो रही
हैं।
तुम
पत्थर फेंकते
हो झील में।
पत्थर के कारण
तरंगें झील
में पैदा हो
जाती हैं। फिर
पूरी झील के
अंत तक तरंगें
चली जाती हैं।
क्या तुम यह
कहोगे कि
तरंगों के
कारण पत्थर
फेंका गया? या तुम यह
कहोगे कि
पत्थर फेंका
गया, इसलिए
तरंगें पैदा
हुईं। यह झंडा
डोल रहा है, यह पत्थर की
तरह तरंगें
पैदा कर रहा
है। वे तरंगें
हवा को डुला
रही हैं। और
झंडा दिखाई पड़ता
है, और हवा
दिखाई नहीं
पड़ती।
दूसरा
भी अपने पक्ष
में दलीलें
खोज लेगा। वह
कहेगा जब हवा
नहीं चलती, तब तुम झंडे
को डुला कर
दिखा दो। बिना
कुछ किए, बिना
किसी और के डोलाये
झंडा कभी
डोलता नहीं।
या तो हाथ से डोलाओ तो
डोल सकता है।
झंडा अपने आप
कैसे डोलेगा?
हवा नहीं
होती तब तुम
झंडे से करो
प्रार्थना कि
जरा डोल के
दिखाओ। हवा ही
डुला रही है।
दिखाई नहीं
पड़ती इससे
क्या फर्क
पड़ता है? स्पर्श
तो होता है।
जब हवा तेजी
से चलती है तो हम
भी डोलते हैं,
कपड़े डोलते
हैं, स्पर्श
तो पता चलता
है। स्पर्श भी
तो एक प्रत्यक्ष
है। वह भी तो
देखा जाना है।
हवा डुला रही
है।
और ये
दोनों कभी भी
तय न कर
पायेंगे। ऐसा
कोई निष्कर्ष
नहीं हो सकता, जिस पर ये
दोनों राजी हो
जायें। तुम भी
अगर गौर करोगे
तो दो में से
एक में अपने
को बंटे पाओगे।
तुममें से कई
का मन कह रहा
होगा, 'डुला
तो हवा ही रही
है।' जो तुममें
से अपने को
धार्मिक
समझते हैं, वे कहेंगे, हवा डुला
रही है। जो
तुममें अपने
को वैज्ञानिक
समझते हैं, वे कहेंगे
कि झंडा ही
डोल रहा है।
उन
दोनों का गुरु
अचानक पास से
गुजरता था।
छठे कुलगुरु
वहां से
गुजरते थे।
उन्होंने कहा, 'न हवा, न
झंडा, मन
डोल रहा है।'
अब यह
एक बिलकुल
तीसरा आयाम
है। और यहीं
से धर्म शुरू
होता है। यह
बिलकुल अलग
यात्रा है। और
यहीं से भीतरी
द्वार खुलता
है। झेन गुरु
ने क्या कहा? उसने कई
बातें कहीं।
उसने कहा कि
तुम दोनों ही
बाहर की बात
कर रहे हो। एक
कह रहा है हवा,
एक कह रहा
है झंडा; लेकिन
एक बात तय है, कि दोनों
बाहर। तुम
दोनों के कारण
बाहर हैं। मैं
तुमसे कहता
हूं, कारण
भीतर है। एक
बात, कि
अगर कारण
खोजना है तो
भीतर है।
क्या
कह रहा है झेन
गुरु? झेन
गुरु यह कह
रहा है, कि
तुम उत्सुक हो
कि झंडा डोल
रहा है कि हवा
डोल रही है।
यह उत्सुकता
जहां से आ रही
है, वहीं
सब कंपन है।
तुम ठहर गये, कि सब ठहर
गया।
तुम्हारा
कंपन मिटा, कि सब सवाल
गिर गये।
इसलिए
सच्चा गुरु
तुम्हें जवाब
नहीं देता, केवल
तुम्हें अकंप
होने की कला
देता है। विधि
देता है, कि
तुम कैसे अकंप
हो जाओ। विचार
कंपन है, ध्यान
अकंप होना है।
ध्यान रुकना है।
वह झेन गुरु
यह कहता है, 'बकवास बंद
करो झंडे की
और हवा की।
सदियों से चलती
है। कोई कभी
तय नहीं कर
पाया। कभी तय
कर पायेगा भी
नहीं। बच्चों
का खेल है।'
एक
दूकान पर
मैंने एक
खिलौना देखा, कई टुकड़े
में। जिसे जमा
कर बच्चे पूरा
खिलौना बनायेंगे।
मैंने लाख
कोशिश की उसको
जमाने की, वह
जमे न। तो
मैंने उस
दूकानदार को
कहा कि 'बड़ा
मुश्किल
मामला है। इसे
मैं भी नहीं
जमा पा रहा
हूं। तुमने भी
कभी कोशिश की
है इसको जमाने
की? इसको
कोई बच्चा
कैसे जमायेगा?'
उसने कहा, 'कोशिश तो
मैंने भी की
है, जमता
नहीं। और भी
कई लोग कोशिश
कर चुके हैं।
और जब किसी से
भी नहीं जमा
तो मैंने कंपनी
को लिख कर
पूछा।
उन्होंने कहा
कि वह जमेगा ही
नहीं। वह तो
बच्चे को यह
अनुभव देने के
लिए कि जिंदगी
इस तरह की है, खिलौना
बनाया। वह
जमने वाला है
नहीं। उस खिलौने
का राज ही यही
है कि बच्चे
को यह अकल आनी
शुरू हो जाये,
कि जिंदगी
जमने वाली
नहीं है।'
तुम
कितनी ही
कोशिश करो यह
गैर-जमी
रहेगी। गैर-जमा
होना इसका
स्वभाव है।
बाहर के
प्रश्न और बाहर
के उत्तर कुछ
भी जमा न
पायेंगे।
कितना ही जमाओ!
कितने
दर्शनशास्त्र, कितने विचार
की परंपरायें
हैं। क्या
खाक! कुछ भी
नहीं जम पाया।
एक के पास
उत्तर नहीं
है। और सब
बड़े-बड़े उत्तर
दिए हैं। हां,
अगर तुम उसी
घर में पैदा
हुए हो जिनमें
वह शास्त्र
पूजा जाता है,
तो तुम्हें
शायद उत्तर
दिखाई पड़े।
क्योंकि तुम
बचपन से ही
अंधे किए गए
हो। अन्यथा
अगर तुम जरा
भी छूट जाओ
अपने अंधेपन
से, और घर
की कंडिशनिंग
से, संस्कार
से, तो तुम
पाओगे हर
शास्त्र बड़ी
अजीब सी बात
कह रहा है।
क्योंकि
उसमें मूल तो
प्रश्न का कोई
उत्तर ही नहीं
है।
हिंदू
कहते हैं, परमात्मा ने
जगत बनाया।
क्योंकि बिना
किसी के बनाये
कोई चीज हो
कैसे सकती है?
और तुम कभी
नहीं पूछते कि
परमात्मा को
किसने बनाया?
अगर तुम
पूछो तो वे
कहते हैं यह अतिप्रश्न
हो गया। जहां
उत्तर नहीं है
उनके पास, वहां
अतिप्रश्न
है। मगर पहला
प्रश्न अतिप्रश्न
नहीं था, कि
संसार को
किसने बनाया?
तब तुमने
दलील दी कि
बिना बनाये
कोई चीज हो कैसे
सकती है? अब
तुम्हारी ही
दलील का हम
उपयोग कर रहे
हैं कि
परमात्मा को
किसने बनाया,
तो तुम कहते
हो जबान गिर
जायेगी, अतिप्रश्न मत करो।
याज्ञवल्क्य
जैसा
विचारशील
व्यक्ति भी
जनक के दरबार
में गार्गी से
बोला कि 'तू अतिप्रश्न
कर रही है
गार्गी। तेरा
सिर गिर
जायेगा।' जनक
ने एक दरबार
बुलाया था। और
वहां जो सबसे
बड़ा
ब्रह्मज्ञानी
सिद्ध होगा, उसे उसने
हजार गौएं,
सोने से मढ़े
हुए सींग, हीरे-जवाहरात
से लदी हुई
खड़ी रखी थीं।
करोड़ों का
मूल्य था
उनका। वे उसे
भेंट
मिलेंगी।
याज्ञवल्क्य
ने सभी
पंडितों को
हरा दिया, लेकिन
एक स्त्री को
हराने में बड़ी
मुसीबत हो गई।
उसका
कारण है। क्योंकि
पुरुष के तर्क
की विधि अलग
है, स्त्री
के तर्क की
विधि अलग है।
इसलिए याज्ञवल्क्य
मुश्किल में
पड़ गया।
स्त्री का
तर्क बिलकुल
अलग है। उसमें
शृंखला नहीं
है, छलांग
है। इसलिए पति
की कभी पत्नी
से ठीक से बातचीत
हो ही नहीं
पाती। तुम कुछ
कहते हो, वह
कुछ कहती है। उसमें
कहीं मेल ही
नहीं होता। वह
जमता ही नहीं
है खिलौना।
कितना ही जमाओ।
आखिर में पति
धीरे धीरे चुप
ही हो जाता
है। क्योंकि
उसमें कोई सार
नहीं है।
एक
आदमी अखबार से
पढ़ कर अपनी
पत्नी को सुना
रहा था कि एक
घटना छपी है
इसमें। एक
घोड़े ने एक आदमी
को लात मार दी
और वह बोलने
लगा। तो पत्नी
ने पूछा, 'क्या
वह शादीशुदा
था?' पति ने
कहा 'हां।
इसमें लिखा है,
चार बच्चे
भी थे उसके।' पत्नी ने
कहा, 'इससे
अच्छा होता, वह तलाक ले
लेता।' इससे
ज्यादा सरल
होता बोलने का
ढंग कि तलाक
ले लेता, बजाय
घोड़े की लात
खाने के।
कोई
पति नहीं
बोलता। धीरे-धीरे
बोलना बंद हो
जाता है
क्योंकि सवाल
यह है, कहीं
मेल ही नहीं
पड़ता। बोलते
हैं, कि
झंझट ही बढ़ती
है। स्त्री का
तर्क और है।
उसका तर्क
नहीं है। वह इंटयूटिव
है, अंतःप्रज्ञात्मक है। उसकी
धारा ही अलग
है। पति है
यूक्लिड की ज्यामेट्री
जैसा और
स्त्री है
नॉन-यूक्लिडन
ज्यामेट्री
जैसी। उनकी परिभाषायें,
जीवन के
सोचने के ढंग
ही अलग हैं।
होने ही चाहिए।
क्योंकि
दोनों का
चित्त, शरीर
रसायन, सब
अलग है। उनकी
तर्क की विधि
भी एक नहीं हो
सकती।
सब
पंडितों को तो
हरा दिया
याज्ञवल्क्य
ने, क्योंकि
वे सभी पुरुष
थे। जो बात याज्ञावल्क्य
कहता था उनकी
समझ में पड़ती
थी। लेकिन
गार्गी ने
मुश्किल खड़ी
कर दी। और
याज्ञवल्क्य
को वही करना
पड़ा, जो हर
पति को करना
पड़ता है। यह
बड़े मजे की
बात है, कि
चाहे बुद्धू,
चाहे
बुद्धिमान; स्त्री के
साथ आखिरी
व्यवहार वही
करना पड़ता है।
याज्ञवल्क्य
ने कहा कि, 'संसार को
ब्रह्मा ने
बनाया।' और
गार्गी ने
पूछा कि 'ब्रह्मा
को किसने
बनाया
याज्ञवल्क्य?'
और
याज्ञवल्क्य
ने वही किया, जो कोई पति
अपने पत्नी के
साथ करता है, कि उसकी
खोपड़ी पर एक
डंडा मारे, या लड़ने को
खड़ा हो जाये।
याज्ञवल्क्य
ने कहा कि 'यह
अतिप्रश्न
है। अगर तूने
आगे पूछा तो
सिर गिर
जायेगा।'
इसके
बाद क्या हुआ
पता नहीं।
क्योंकि वह
जमात पुरुषों
की थी।
उन्होंने
निर्णय
याज्ञवल्क्य
के पक्ष में
लिया होगा।
जनक की बुद्धि
भी पुरुष की
थी।
लेकिन
बात साफ है, कि प्रश्न
अधूरा रह गया।
और
याज्ञवल्क्य
हार गया।
उत्तर नहीं
है। उत्तर
नहीं होता तभी
क्रोध आता है।
नहीं तो सिर
टूट जाने का
सवाल क्या है?
गार्गी ने
नस पकड़ ली।
आखिरी सवाल
उठा लिया। और
याज्ञवल्क्य
समझ गया कि अब
इसका उत्तर
दिया, कि
मुश्किल में
पड़ोगे।
क्योंकि यह
पूछती ही चली
जायेगी, कि
फिर उसको
किसने बनाया?
फिर उसको
किसने बनाया?
और आखिर में
झंझट आयेगी
ही। क्योंकि
आखिर तो इसका
होनेवाला
नहीं है।
लेकिन
सभी
दर्शनशास्त्र
इसी हालत में
हैं। जैन कहते
हैं, ईश्वर
बनानेवाला
नहीं है। तो
उन्होंने एक
झंझट से बचने
की कोशिश की।
एक
दर्शनशास्त्र
दूसरे
दर्शनशास्त्र
की झंझट से
बचने की कोशिश
करता है, लेकिन
अपनी झंझट में
पड़ जाता है।
वे बच गये एक झंझट
से कि ईश्वर
बनानेवाला
नहीं है, सृष्टि
अपने आप बनी।
लेकिन
तब सवाल यह है
कि आत्मा बंधन
में कैसे पड़ी? बड़ी मुसीबत
है। वे कहते
हैं, 'आत्मा
मुक्त हो
जायेगी।' लेकिन
पूछनेवाला यह
पूछता है कि
मुक्त हो जायेगी
तो समझ लिया
आखिर में, लेकिन
बंधन में तो
शुरुआत में
कैसे पड़ी? अगर
तुम उनसे कहो
कि कर्मों के
कारण; तो
वे कहते हैं
कि कर्मों के
कारण का मतलब
हुआ कि पिछले
जन्म में कर्म
किए, इस
जन्म में पैदा
हुए। लेकिन
बिलकुल
प्रारंभ में,
उसके पहले
तो कर्म का
कोई सवाल ही
नहीं है।
बस, अतिप्रश्न आ गया! और जैन
कहते हैं कि
बस, यह
कुतर्क है।
तुम जो करो वह
तर्क, दूसरा
जो करे वह
कुतर्क?
लेकिन
सभी
दर्शनशास्त्र
में एक छेद
होगा। उस छेद
को भर मत
छूना। अन्यथा
दार्शनिक
नाराज हो जायेगा।
जब तक तुमने
उस छेद को न
छुआ, और वह
तुम्हें इस
तरह चक्कर
देगा कि उस
छेद भर का
तुम्हें पता न
चले। सब तरफ
तुमको भटकायेगा।
सब जवाब देगा।
बस, एक बात
तुम मत पूछना।
उसके पहले ही
अगर तुम थक गये
और कहा कि ठीक
है, झंझट मिटाओ। हम
तुम्हारे
पीछे चलते हैं,
तो वह
प्रसन्न है।
अनुयायी सब
इसी तरह पीछे
हैं।
उन्होंने मूल
छेद नहीं देखा,
जो हर जगह
है। क्योंकि
विचार से कोई
उत्तर न कभी
मिला है, न
मिल सकता है।
सब
दर्शनशास्त्र
विचार का ही फैलाव
हैं। विचार
अंतिम सत्य को
दे नहीं सकता।
विचार तो केवल
धारणाओं को
परिपुष्ट कर
सकता है। और
कोई धारणा
सत्य नहीं है।
धारणाशून्य
चित्त में
सत्य की समझ, सत्य का
अनुभव, सत्य
का प्रकाश
होता है।
गुरु
ने यह कहा है, कि तुम इस
बातचीत में मत
पड़ो।
दोनों बाहर
हो। उत्तर मत
खोजो वहां।
भीतर आओ। कंपन
मन में है। मन
का कंपन मिटाओ।
मन के कंपन
मिट जाने में
उत्तर है। और
जिस दिन तुम न कंपोगे, तुम पाओगे, सारा जगत
ठहर गया है।
जिस दिन तुम
स्वस्थ हुए, उस दिन सारा
जगत स्वस्थ हो
गया। जिस दिन
तुम प्रकाश से
भरे, कहीं
कोई अंधकार
नहीं। बाहर का
अंधकार मिटाते
रहो, मिटाते
रहो, कोई
अंत न आयेगा।
इधर तुम
मिटाओगे, उधर
घना हो
जायेगा। बाहर
की सब खोजबीन
उस गरीब आदमी
के वस्त्र की
भांति है, जो
पैर ढांकता
है तो सिर उघड़
जाता है। सिर ढांकता है
तो पैर उघड़
जाता है। कपड़ा
छोटा है।
तर्क
बड़ा छोटा है, सत्य बहुत
बड़ा है। तर्क
में तुम कभी
भी सत्य को ढांक
न पाओगे। पैर ढांकोगे, सिर उघड़
जायेगा। सिर ढांक लोगे,
पैर उघड़
जायेगा।
तार्किक कहता
है, कि
थोड़े पैर छांट
डालो, थोड़ा
सिर छांट दो, कपड़े के
बराबर हो जाओ।
बिलकुल समा
जाओगे।
कुछ
लोग यह भी
करते हैं।
उन्हीं को हम
पंडित कहते
हैं।
जिन्होंने
सिर भी छांट
दिया, पैर
भी। कपड़े के
अनुसार जो खुद
को बना लेते
हैं वह पंडित।
ज्ञानी वह है,
जो सत्य को
समझ पाता है
कि कपड़ा
मुझे ढांक
ही नहीं पायेगा,
क्योंकि
मैं बड़ा हूं।
यह कपड़ा
बहुत छोटा है।
वह बड़े कपड़े
की तलाश करता
है, जो
मेरे विराट
स्वरूप को ढांक
ले।
परमात्मा
से कम तुम्हें
कोई भी न ढांक
पायेगा, क्योंकि
तुम परमात्मा
हो। उससे तुम
छोटे नहीं।
उससे सब
वस्त्र छोटे
पड़ेंगे। और
अगर तुमने अपने
को काटा, तो
तुम मुर्दा
होते जाओगे।
मैं तुमसे सिकुड़ने
को नहीं कहता;
क्योंकि
वस्त्र छोटा
है तो सिकुड़
जाओ। मैं कहता
हूं तुम फैलो
और इतने बड़े
हो जाओ, जितना
यह विराट है।
तभी यह विराट
तुम्हें ढांक
पायेगा। आकाश
से कम
तुम्हारा
वस्त्र नहीं
हो सकता। और
ब्रह्म से कम
तुम्हारी
क्षमता नहीं
हो सकती। उससे
कम पर तुम
राजी अगर हुए
तो गलती है।
तुम मंजिल के
पहले रुक गये।
ठीक
कहा झेन गुरु
ने: 'न हवा, न
झंडा, मन
डोल रहा है।'
तुम मन
की चिंता में
लगो।
दार्शनिक, प्रश्नों के
उत्तर खोजने
में लगता है।
धार्मिक, उस
मन को शांत
करने में लगता
है, जिससे
प्रश्न उठते
हैं, उत्तर
उठते हैं। जिस
दिन मन शांत
हो जाता है फिर
कोई प्रश्न
नहीं उठते।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि वह जो
परम ज्ञान को
उपलब्ध होता
है, उसके पास
सब उत्तर होते
हैं। इस
भ्रांति में मत
पड़ना।
उसके पास कोई
उत्तर नहीं
होता; न
कोई प्रश्न
होता है। वह निष्प्रश्न,
निरुत्तर, परम शांत
होता है।
लोगों
ने यहां भी
भ्रांति की
है। वे यही
समझते हैं कि
जब महावीर को
ज्ञान हुआ, तो वे
सर्वज्ञ हो
गये। अब उनके
पास सब उत्तर
हैं। तुम उनसे
पूछो कि
साइकिल का
पंक्चर कैसे जोड़ें?
वे
बतायेंगे। न
बता पायेंगे।
और न बता
पायेंगे तो
तुम कहोगे, 'अरे, कैसे
सर्वज्ञ!' बुद्ध
को ज्ञान हुआ,
तो लोग
सोचते हैं सब
ज्ञान हो गया।
तीनों काल पता
हो गये। अब, कब क्या
होगा भविष्य
में, वह भी
बतायेंगे। कब
क्या हुआ अतीत
में वह भी बतायेंगे।
नासमझी की
बातें हैं; कि तुम
पच्चीस सौ साल
बाद, उन्नीस
सौ चौहत्तर
में केले के
छिलके पर फिसल
के गिरोगे
बाजार में, हड्डी में फ्रेक्चर
होगा। यह
बुद्ध
बतायेंगे? तो
फिर उन जैसा
बुद्धू कोई भी
नहीं।
तुम्हारी हड्डियों
का और
तुम्हारे
केले के छिलके
का कौन हिसाब
रखे? किसको
पड़ी है? लेकिन
तुम्हें लगता
है कि जब
ज्ञान हो गया
तो सर्वज्ञ
होना चाहिए।
ज्ञान
का अर्थ
सर्वज्ञता
नहीं है, ज्ञान
का अर्थ है आत्मज्ञता।
ज्ञान का अर्थ
है, स्वयं
को जान लेना।
लेकिन
इसे तुम एक
गहरे अर्थों
में
सर्वज्ञता कह
सकते हो।
क्योंकि
जिसने स्वयं
को जान लिया, उसे जानने
को अब कुछ भी न
बचा। जानने का
मूल जान लिया।
अब जानने को
कुछ भी न बचा।
गंगोत्री पकड़
ली, पूरी
गंगा हाथ आ
गई। बीज हाथ आ
गया, पूरा
वृक्ष हाथ आ
गया। इस
अर्थों में
सर्वज्ञता।
क्योंकि अब न
कोई प्रश्न है,
न कोई उत्तर
है। न कोई
शास्त्र है, न कोई सवाल
है, न कोई
विवाद है।
गुरु
यह कह रहा है
कि तुम्हारा
विवाद जहां से
उठ रहा है, वहीं खोजो।
आंख करो बंद, न झंडा, न
हवा, तुम
उस मन को देखो
जहां से विवाद
उठ रहा है। वही
विवाद
तुम्हारी
तरंगायित
स्थिति है।
वहीं सब
डांवाडोल हो
रहा है। धर्म
का सूत्र है
यह। इस छोटी
सी कथा में
समस्त धर्म
समाया हुआ है।
तुम भी
व्यर्थ के
प्रश्नों में
मत भटको।
परसों
कोई आया और
पूछने लगा कि 'विश्वामित्र
एक हजार साल
तक जीये
कि नहीं?' तुम्हें
क्या मतलब!
गलती की होगी,
उनने की
होगी। नहीं, वे बोलते
हैं, 'जिज्ञासा
है।' जिज्ञासा
का भी क्या
करोगे? सभी
जिज्ञासा
सार्थक थोड़े
ही है! नहीं तो
भटकते ही
रहोगे। जिज्ञासायें
तो उठती ही
चली जायेंगी।
उनका कोई अंत
नहीं है। क्या
प्रयोजन है
इससे? कोई
भी प्रयोजन
नहीं है।
मन
खुजली की तरह
है। खुजलाओ, और खुजली
उठती है। थोड़ी
मिठास भी आती
है और मिठास
की वजह से और
खुजली उठती
है। खुजलाते
चले जाओ और
आखिर में तुम
पाओगे, घाव
पड़ गये। मन के
कुतूहल के
पीछे अगर तुम
चले तो सारी
आत्मा घाव से
भर जायेगी। वह
खुजलाहट है, खुजली है।
वह बीमारी है।
मन
बीमारी है, इसकी ज्यादा
मत सुनो। औषधि
खोजो कि कैसे
मन शांत हो
जाये। और तुम
केंद्र पर थिर
हो जाओ। कैसे
तुम अपने घर
वापिस लौट आओ।
कैसे
मूलस्रोत से
मिलन हो जाये।
और वह स्रोत
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा है।
यही
कहा छठवें
गुरु ने: कि मत
चिंता करो हवा
डोलती है कि
झंडा डोलता
है। एक ही
चिंता करने योग्य
है, कि तुम
अभी डोल रहे
हो। अडोल हो
जाओ, सब
तुम्हें मिल
जायेगा। अडोल
हो जाओ और तुम
स्वयं को पा
लोगे। स्वयं
को पा लेना, सत्य को पा
लेना है।
आज
इतना ही।
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