दिनांक 1 जनवरी 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
योग—सूत्र
(अथ
विभूतिपाद:)
विभूतिपाद
देशबन्धश्चित्तस्या
धारणा।। 1।।।
जिस पर
ध्यान किया
जाता हो उसी
में मन को
एकाग्र और
सीमित कर देना
धारणा है।
तत्र
प्रत्ययैकतानता
ध्यानम्।। 2।।
ध्यान
के विषय में
जुड़ी मन की
अविच्छिन्नता, उसकी और
बहता मन का
सतत प्रवाह ध्यान
है।
तदेवार्थमान्न्निर्भासं
स्वरूपशून्यमिव
समाधि:।। 3।।
जब मन
विषय के साथ एक
रूप हो जाता
है तो वह
समाधि है।
त्रयमेकत्र
संयम:।। 4।।
धारणा, ध्यान
और समाधि—तीन
का एकत्रीकरण
निर्मित करता
है संयम को।
तज्जयात्प्रज्ञालोक:।।
5।।
उसे
वशीभूत करने
से उच्चतर चेतना
के प्रकाश का
आविर्भाव
होता है।
एक बार एक झेन
गुरु ने अपने
शिष्यों को
प्रश्नों के
लिए आमंत्रित
किया। एक
शिष्य ने पूछा, 'जो लोग
अपनी शिक्षा
के लिए
परिश्रम करते
हैं, वे
भविष्य में
मिलने वाले
कौन—कौन से
पुरस्कारों
की आशा कर
सकते हैं?'
गुरु
ने उत्तर दिया, 'वही
प्रश्न पूछो
जो स्वयं के
केंद्र के
निकट हो।’
दूसरा
शिष्य जानना
चाहता था, 'मैं अपनी
पहले की
मूढ़ताओं को
कैसे रोकु जो
मुझे दोषी
सिद्ध करती
हैं?'
गुरु
ने फिर वही
बात दोहरा दी, 'वही
प्रश्न पूछो
जो स्वयं के
केंद्र के
निकट हो।’
तीसरे
शिष्य ने पूछा, 'गुरु जी
हम नहीं समझते
कि स्व—केंद्र
के निकट का
प्रश्न पूछने
का क्या मतलब
होता है?'
'दूर
देखने के पहले
अपने निकट
देखो।
वर्तमान क्षण
के प्रति सचेत
रहो, क्योंकि
वह अपने में
भविष्य और
अतीत के उत्तर
लिए रहता है।
अभी तुम्हारे
मन में कौन सा
विचार आया? अभी तुम मेरे
सामने
विश्रांत
अवस्था में
बैठे हो या
तुम्हारा
शरीर
तनावपूर्ण ही
है? अभी
तुम्हारा
पूरा ध्यान
मेरी ओर है या
थोड़ा बहुत ही
है? इस तरह
के प्रश्न
पूछकर
स्व—केंद्र के
निकट आओ। निकट
के प्रश्न ही
दूर के
उत्तरों तक ले
जाते हैं।’
यही है
जीवन के प्रति
योग का
दृष्टिकोण।
योग कोई
तत्वमीमांसा
नहीं है। वह
दूर के, सुदूर के
प्रश्नों की
फिकर नहीं
करता—पिछला जन्म,
आने वाला
जन्म, स्वर्ग
—नर्क, परमात्मा
और इस तरह की
बातों की योग
फिकर नहीं
करता। योग का
संबंध
स्व—केंद्र के
निकट के प्रश्नों
से है। जितने
निकट का
प्रश्न होता
है, उतनी
ही अधिक
संभावना उसे
सुलझाने की
होती है। अगर
व्यक्ति अपने
निकट से निकट
का प्रश्न पूछ
सके, तो
पूरी संभावना
है कि पूछने
मात्र से ही
वह सुलझ जाए।
और जब तुम
निकट का
प्रश्न सुलझा
लेते हो, तो
पहला कदम उठ
गया। तब तीर्थ
—यात्रा का
प्रारंभ हो
जाता है। तब
धीरे— धीरे उन
प्रश्नों को
सुलझाना आसान
होता जाता है,
जो दूर के
होते हैं
—लेकिन योग की
पूरी प्रक्रिया
तुम्हें अपने
केंद्र के
निकट ले आने
की है।
इसलिए
अगर तुम
पतंजलि से
परमात्मा के
संबंध में
पूछो, तो
वे उत्तर न
देंगे।
वस्तुत: तो वे
तुम्हें मूढ़
ही समझेंगे।
योग सारे तत्वमीमांसकों,
सिद्धांतवादियो
को मूढ़ मानता
है; ये लोग
उन समस्याओं
पर अपना समय
नष्ट कर रहे हैं
जिन्हें
सुलझाया नही
जा सकता, क्योंकि
वे बहुत दूर
की है, व्यक्ति
की पहुंच के
बाहर की हैं।
अच्छा हो वहीं
से आरंभ करो
जहां कि तुम
हो। तुम वहीं
से आरंभ कर
सकते हो जहां
तुम हो।
यात्रा वहीं
से आरंभ हो
सकती है जहां
तुम हो। दूर
के बौद्धिक, तात्विक
प्रश्न मत
पूछो, भीतर
के प्रश्न
पूछो।
यह
पहली बात है
योग के विषय
में समझ लेने
की : योग एक
विज्ञान है।
योग एकदम
यथार्थ और अनुभव
पर आधारित है।
यह विज्ञान की
प्रत्येक कसौटी
पर खरा उतरता
है। असल में
हम जिसे
विज्ञान कहते
हैं वह कुछ और
बात है, क्योंकि
विज्ञान
केंद्रित
होता है विषय
—वस्तुओं पर।
और योग का
कहना है कि जब
तक तुम उस तत्व
को नहीं समझ
लेते जो कि
स्वभाव है, जो कि निकट
से भी निकटतम
है, तब तक
तुम कैसे विषय
—वस्तु को समझ
सकते हो? अगर
व्यक्ति
स्वयं को ही
नहीं जानता, तो अन्य सभी
बातें
जिन्हें वह
जानता है, भ्रांतिपूर्ण
ही होंगी, क्योंकि
आधार ही नहीं
है। अगर भीतर
ज्योति नहीं
हो, अगर
भीतर प्रकाश
नहीं हो, तो
तुम गलत भूमि
पर खड़े हो, तो
जो भी प्रकाश
तुम बाहर लिए
खड़े हो, वह
तुम्हारी कोई
मदद नहीं कर
सकेगा। और अगर
भीतर प्रकाश
हो, तो फिर
कहीं कोई भय
नहीं है, बाहर
कितना ही
अंधकार हो, तुम्हारा
प्रकाश
तुम्हारे लिए
पर्याप्त होगा।
वह तुम्हारा
मार्ग
प्रकाशित
करेगा।
तात्विक
बातें किसी
तरह की मदद
नहीं करती हैं, वे और
उलझा देती
हैं।
ऐसा
हुआ : जब मैं विश्वविद्यालय
में
विद्यार्थी
था, मैंने
एथिक्स, नीति
—शस्त्र लिया
था। मैं उस
विषय के
प्रोफेसर के
केवल एक ही
लेक्चर में
उपस्थित हुआ।
मुझे तो
विश्वास ही
नहीं आ रहा था
कि कोई
व्यक्ति इतना
पुराने
विचारों का भी
हो सकता है।
वे सौ साल
पहले जैसी
बातें कर रहे
थे, उन्हें
जैसे कोई
जानकारी ही
नहीं थी कि
नीति —शास्त्र
में क्या—क्या
परिवर्तन
होचुके हैं।
फिर भी उस बात
को मैं नजर अंदाज
कर सकता था।
वे प्रोफेसर
एकदम उबाऊ आदमी
थे, और
जैसे कि
विद्यार्थियों
को बोर करने
की उन्होंने
कसम ही खा ली
थी। लेकिन वह
भी .कोई खास बात
न थी, क्योंकि
मैं उस समय सो
सकता था।
लेकिन इतना ही
नहीं वे
झुंझलाहट भी
पैदा कर रहे
थे, उनकी
कर्कश आवाज, उनके तौर
—तरीके, उनका
ढंग, सब
बड़ी झुंझलाहट
ले आने वाले
थे। लेकिन
उसके भी
अभ्यस्त हुआ
जा सकता है।
वे स्वयं बहुत
उलझे हुए
इंसान थे। सच
तो यह है
मैंने कभी कोई
ऐसा आदमी नहीं
देखा जिसमें
इतने सारे गुण
एक साथ हों।
मैं
उनकी कक्षा
में फिर कभी
दुबारा नहीं
गया। निश्चित
ही, वे
इस बात से
नाराज तो हुए
ही होंगे, लेकिन
उन्होंने कभी
कुछ कहा नहीं।
वे ठीक समय का
इंतजार करते
रहे, क्योंकि
उन्हें मालूम
तो था ही कि एक
दिन मुझे
परीक्षा में
बैठना है।
मैं
परीक्षा में
बैठा। वे तो
और भी चिढ़ गए, क्योंकि
पंचानबे
प्रतिशत अंक
मुझे मिले। उन्हें
तो इस बात पर
भरोसा ही नहीं
आया।
एक दिन
जब मैं
यूनिवर्सिटी
की कैंटीन से
बाहर आ रहा था
और वे कैंटीन
के भीतर जा
रहे थे, उन्होंने
मुझे पकड़
लिया। मुझे
रोककर वे बोले,
सुनो! तुमने
यह सब कैसे
मैनेज किया? तुम तो केवल
मेरे एक ही
लेक्चर में आए
थे, और
पूरे साल
मैंने
तुम्हारी शकल
नहीं देखी। आखिर
तुम पंचानबे
प्रतिशत अंक
पाने में सफल
कैसे हुए?
मैंने
कहा, 'ऐसा
आपके पहले
लेक्चर के ही
कारण हुआ।’
वे
थोड़े से
परेशान से
दिखायी पड़े।
वे बोले, 'मेरा पहला
लेक्चर? मात्र
एक लेक्चर के
कारण?' 'मुझे
धोखा देने की
कोशिश मत करो,'
वे बोले, 'मुझे सच —सच
बताओ कि आखिर
बात क्या है?'
मैंने
कहा, 'आप
मेरे
प्रोफेसर हैं,
अत: यह
मर्यादा के
अनुकूल न
होगा।’
वे
बोले, 'मर्यादा
की बात भूल
जाओ। बस मुझे
सच—सच बात
बताओ। मैं
बुरा नहीं
मानूंगा।’
मैंने
कहा, 'मैंने
तो सच बात बता
दी है, लेकिन
आप समझे नहीं।
अगर मैं आपके
पहले लेक्चर
में उपस्थित
न हुआ तो मुझे
सौ प्रतिशत
अंक मिले
होते। अपने
मुझे कन्फ्यूज
कर दिया, उसी
के कारण मैंने
पांच प्रतिशत
अंक गंवा दिए।’
तत्वमीमांसा, दर्शन, सभी रूखे
—सूखे विचार
व्यक्ति को
उलझा देते हैं।
वे कहीं नहीं
ले जाते। वे
मन को उलझन
में डाल देते
हैं। वे सोचने
के लिए और — और
बातें दे देते
हैं, और
जागरूक होने
के लिए उनसे
कोई मदद नहीं
मिलती। सोचना
—विचारना कोई
मदद नहीं कर
सकता, केवल
ध्यान ही मदद
कर सकता है।
और इसमें भेद
है जब तुम सोचते
हो, तो तुम
विचारों में
उलझ जाते हो।
और जब तुम ध्यान
करते हो, तब
तुम ज्यादा
जागरूक होते
हो।
दर्शनशास्त्र
का संबंध मन
से है। योग का
संबंध चेतना
से है। मन वह
है जिसके
प्रति जागरूक
और सचेत हुआ
जा सकता है।
सोचने
—विचारने को
देखा जा सकता
है। विचारों
को आते — जाते
देखा जा सकता
है, भावों
को आते —जाते
देखा जा स कता
है, सपनों
को मन के
क्षितिज पर
बादलों की तरह
बहते हा! देखा
जा सकता है।
नदी के प्रवाह
की भांति वे
बहते जाते हैं;
यह एक सतत
प्रवाह है। और
वह जो कि यह सब
देख सकता है, वही चैतन्य
है।
योग का
पूरा प्रयास
उसे पा लेने
का है, जिसे
विषय —वस्तु
नहीं बनाया जा
सकता है, जो
कि हमेशा
देखने वाला
है। उसे देखना
संभव नहीं है,
क्योंकि
वही देखने
वाला है। उसे
पकड़ा नहीं जा सकता,
क्योंकि जो
कुछ पकड़ में आ
सकता है, तुम
नहीं हो।
मात्र इसीलिए
कि तुम उसको
पकड़ सकते हो, वह तुमसे
अलग हो जाता
है। यह चैतन्य
जो कि हमेशा
पकड़ के बाहर
है, और जो
भी प्रयास इसे
पकड़ने के लिए
किए जाते हैं,
वे सभी
प्रयास असफल
हो जाते
हैं—इस चैतन्य
से कैसे
जुड़ना—इसी की
तो बात योग
करता है।
योगी
होने का कुल
मतलब ही इतना
है कि अपनी
संभावनाओं को
उपलब्ध हो
जाना। योग द्रष्टा
और जागरूक हो
जाने का
विज्ञान है।
जो अभी तुम
नहीं हो और जो
तुम हो सकते
हो इसके बीच भेद
करने का
विज्ञान योग
है। यह सीधा
—सीधा स्वयं
को देखने का
विज्ञान है
ताकि तुम
स्वयं को देख
सको। और एक
बार व्यक्ति
को उसके
स्वभाव की झलक
मिल जाती है, कि वह कौन
है, तो फिर
पूरा देखने का
ढंग, पूरा
संसार ही बदल
जाता है। तब
तुम ससार में
रहोगे, और
संसार
तुम्हारा
ध्यान भंग
नहीं करेगा।
तब कोई बात
भ्रमित नहीं
कर सकती; तब
तुम केंद्रित
हो जाते हो।
तब फिर कहीं
भी जाओ, स्वयं
में थिर और केंद्रित
रहते हो, क्योंकि
अब उस शाश्वत
से पहचान हो
गई है, जो
परिवर्तनीय
नहीं है, जो
अपरिवर्तनीय
है।
आज हम
पतंजलि के योग
— सूत्रों का
तीसरा चरण 'विभूतिपाद'
आरंभ कर रहे
हैं। यह बहुत
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
चौथा और अंतिम
चरण 'कैवल्यपाद'
तो परिणाम
की उपलब्धि
है। जहां तक
साधनों
का संबंध है, प्रणालियों
का संबंध है, विधियों का
संबंध है
तीसरा चरण 'विभूतिपाद'
अंतिम है।
नौ था चरण तो
प्रयास का
परिणाम है।
केवल्य
का अर्थ है.
अकेले होना, अकेले
होने की परम
स्वतंत्रता; किसो
व्यक्ति, किसी
चीज पर निर्भरता
नहीं — अपने से
पूरी तरह
संतुष्ट यही
योग का लक्ष्य
है। चौथे भाग
में हम केवल
परि'गाम के
विषय में बात
करेंगे, लेकिन
अगर तुम तीसरे
को चूक गए, तो
चौथे को नहीं
समझ पाओगे।
तीसरा आधार
है।
अगर
पतंजलि के
योग—सूत्र का
चौथा अध्याय
नष्ट भी हो
जाए, तो
भी कुछ नष्ट
नहीं होगा, क्योंकि जो
भी तीसरा
प्राप्त कर
लेगा, उसे
चौथा अपने आप
प्राप्त
होगा। चौथा
अध्याय छोड़ा
भी जा सकता
है। वस्तुत:
एक ढंग से तो
वह अनावश्यक
ही है, उसकी
कोई जरूरत
नहीं है, क्योंकि
वह अंतिम की, लक्ष्य की
बात करता है।
जो भी कोई भी
मार्ग का अनुसरण
करेगा, वह
मंजिल तक
पहुंच ही जाता
है, उसके
बारे में बात
करने की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
पतंजलि
तुम्हें
सहयोग करने के
लिए उसकी बात
करते हैं, क्योंकि
तुम्हारा मन
जानना चाहेगा
कि तुम कहां
जा रहे हो? तुम्हारा
लक्ष्य क्या
है? तुम्हारा
मन आश्वस्त
होना चाहेगा।
और पतंजलि
आस्था, श्रद्धा
में विश्वास
नहीं करते। वे
शुद्ध वैज्ञानिक
हैं। वह तो बस
लक्ष्य की झलक
दे देते हैं
लेकिन सारा
आधार, सारा
मूलभूत आधार
तीसरे में है।
अब तक
हम इसी 'विभूतिपाद'
के लिए
तैयारी कर रहे
थे। अब तक के
दो अध्यायों
में हम उन
साधनों की
विवेचना कर
रहे थे जौ कि यात्रा
में सहयोगी तो
थे, लेकिन
वे बाह्य साधन
थे। पतंजलि
उन्हें 'बहिरंग',
'परिधि पर
रहने वाले ' कहते हैं।
अब इन तीन को —
धारणा, ध्यान,
समाधि—इन
तीनों को वे ' अंतरंग', 'आंतिरिका'
कहते हैं।
पहले तुम्हें
तैयार करते
हैं —शरीर को, चरित्र को
परिधि पर
तैयार करते हैं
—ताकि तुम्हें
भीतर उतरना
आसान हो। और
पतंजलि एक —एक
कदम आगे बढ़ते
हैं। यह धीरे —
धीरे बढ़ने वाला
विज्ञान है।
इसमें संबोधि
अचानक नहीं मिल
जाती है, इसमें
एक —एक कदम
चलकर ही
संबोधि की
उपलब्धि होती
है। पतंजलि एक
—एक कदम पर
व्यक्ति का
मार्ग—दर्शन
करते हुए चलते
हैं।
पहला
सूत्र:
'जिस
पर ध्यान किया
जाता हो उसी
में मन को
एकाग्र और
सीमित कर देना
धारणा है।’
दृश्य, द्रष्टा,
और इन दोनों
के भी पार —इन
तीनों को याद
रखना है। जैसे
तुम मेरी ओर
देखते हो मैं
दृश्य हूं; वह जो मेरी
ओर देख रहा है,
द्रष्टा
है। और अगर
तुम थोड़े संवेदनशील
होते तो तुम
स्वयं को मेरी
तरफ देखते हुए
देख सकते हो
यही है बियांड,
पार के भी
पार। तुम मेरी
ओर देखते हुए
भी स्वयं को
देख सकते हो।
थोड़ी कोशिश
करना। मैं
दृश्य हूं,
तुम मेरी तरफ
देख रहे हो।
जो मेरी तरफ
देख रहा है, वह द्रष्टा
है। तुम अपने
भीतर एक ओर खड़े
हो कर देख
सकते हो। तुम
देख सकते हो
कि तुम मेरी
ओर देख रहे
हो। वही है
बियांड।
पहली
तो बात, व्यक्ति को
किसी विषय पर
ध्यान एकाग्र
करना पड़ता है।
एकाग्रता का
अर्थ होता है
मन को सिकोड़ना।
साधारणत: तो
मन में हमेशा
विचारों की
भीड़ चलती ही
रहती है
—हजारों विचार
भीड़ की तरह, उत्तेजित
भीड़ की तरह
चलते ही रहते
हैं। इतने विचारों
में व्यक्ति
उलझा रहता
है कि उन
विचारों की
भीड़ में
खंड—खंड हो
जाता है। इतने
ज्यादा
विचारों में
तुम बहुत सारी
दिशाओं में एक
साथ जा रहे
होते हो।
विचार के इतने
विषय कि उसमें
व्यक्ति लगभग
विक्षिप्तता की
हालत में
पहुंच जाता
है। व्यक्ति
की हालत वैसी
ही होती है
जैसे कि
प्रत्येक
दिशा से उसे खींचा
जा रहा हो और
सब कुछ अधूरा
हो। जाना हो बायीं
तरफ, और
कोई तुम्हें
दायीं ओर
खींचे, जाना
दक्षिण हो, और कोई
उत्तर की ओर
खींचे। ऐसी
हालत में तुम
कहीं नहीं
पहुंचते। बस एक
अस्त —व्यस्त
ऊर्जा, एक
भंवर और हलचल
जिसमें सिवाय
दुख, पीड़ा
और संताप के
कुछ भी नहीं
मिलता।
यह तो
साधारण मन की
अवस्था है
—इतने अधिक
विषय होते हैं
कि आत्मा तो
लगभग ढंक ही
जाती है। तुम्हें
इस बात की
अनुभूति ही
नहीं होती कि
तुम कौन हो, क्योंकि
तुम इतनी
चीजों से एक
साथ जुड़े होते
हो कि
तुम्हारे पास
कोई अंतराल ही
नहीं होता
स्वयं को
देखने के लिए।
भीतर कोई
थिरता, और
अकेलापन नहीं
होता। तुम सदा
भीड़ में रहते
हो। तुम्हारे
पास स्वयं के
लिए कोई रिक्त
समय, और
स्थान ही नहीं
होता जहां कि
तुम स्वयं में
उतर सको। और
विषय जो कि
निरंतर ध्यान
पाने की मांग
करते हैं, प्रत्येक
विचार ध्यान
पाने की मांग
कर रहा होता
है, या
कहें कि विवश
ही करता है कि
उस पर ध्यान
दिया ही जाए।
यह है साधारण
अवस्था। यह
लगभग विक्षिप्तता
ही है।
वैसे
तो कौन पागल
है और कौन
पागल नहीं है
इसमें भेद
करना अच्छा
नहीं है। भेद
केवल मात्रा
का ही होता
है। भेद
गुणवत्ता का
नहीं है, भेद केवल
मात्रा का ही
है। शायद तुम
निन्यानबे
प्रतिशत पागल
हो और दूसरा
व्यक्ति उसके
पार चला गया
हो—सौ प्रतिशत
पर पहुंच गया
हो। जरा स्वयं
का निरीक्षण
करना। कई बार
तुम भी सीमा
पार कर जाते
हो जब तुम
क्रोध में
होते हो तो
पागल हो जाते
हो —क्रोध में
वे काम कर
जाते हो
जिन्हें करने
की तुम सोच भी
नहीं सकते थे।
क्रोध में कुछ
कर लेते हो, फिर बाद में
पछताते हो।
क्रोध में ऐसे
काम कर जाते
हो, फिर
बाद में तुम
कहते हो, 'यह
मेरे बावजूद
हो गया।’ बाद
में तुम कहते
हो, 'जैसे
कि किसी ने
मुझे यह करने
के लिए मजबूर
कर दिया, जैसे
कि मैं यह
करने के लिए
वशीभूत हो
गया। किसी
बुरी आत्मा ने,
किसी शैतान
ने मुझे ऐसा
करने को विवश
कर दिया। मैं
ऐसा बिलकुल
नहीं करना
चाहता था।’ बहुत बार
तुम भी सीमा
पार कर जाते
हो, लेकिन
तुम फिर अपनी
साधारण
अवस्था पर लौट
आते हो।
किसी
पागल को जाकर
जरा ध्यान से
देखो.। लोग पागल
आदमी को देखने
से हमेशा डरते
हैं, क्योंकि
पागल आदमी को
देखते —देखते,
तुम्हें
अपना पागलपन
दिखाई देने
लगता है। तुरंत
ऐसा होता है
क्योंकि तुम
देख सकते हो
कि अधिक से
अधिक मात्रा
का ही भेद
होता है, पागल
आदमी तुम से
थोड़ा आगे होता
है, लेकिन
तुम भी उसके
पीछे ही हो।
तुम भी उसी
कतार में खड़े
हो।
विलियम
जेम्स एक बार
एक पागलखाने
में गया, जब वह वापस
लौटा तो बहुत
उदास था, और
एक कंबल ओढकर
लेट गया। उसकी
पत्नी को कुछ
समझ न आया कि
आखिर बात क्या
है। उसकी
पत्नी ने उससे
पूछा, 'तुम
इतने उदास
क्यों लग रहे
हो?' क्योंकि
विलियम जेम्स
एक
प्रसन्नचित्त
आदमी था।
विलियम
जेम्स कहने
लगा, 'मैं
एक पागलखाने
में गया था।
अचानक मुझे
ऐसा लगा कि इन
पागल लोगों
में और मुझ
में कुछ बहुत
ज्यादा फर्क
नहीं है। फर्क
तो है, लेकिन
कुछ ज्यादा
नहीं। और कई
बार मैं भी उस
सीमा को पार
कर जाता हूं।
कई बार जब मैं
क्रोधित होता हूं, या मुझे लोभ
पकड़ता है, या
मैं चिंता, निराशा में
होता हूं तो
मैं भी सीमा
पार कर जाता
हूं। अंतर
केवल इतना ही
है कि वे वहीं
पर ठहर गए हैं
और वापस नहीं
आ सकते, और
मैं अभी भी
वापस आ सकता
हूं। लेकिन
किसे मालुम है? एक दिन ऐसा
हो सकता है कि
मैं भी वापस न
आ सकूं। पागलखाने
में उन पागलों
को देखते हुए
मुझे खयाल आया
कि ये लोग
मेरा भविष्य
हैं। इसीलिए
मैं बहुत
निराश और उदास
हो गया हूं।
क्योंकि जिस ढंग
से मैं चल रहा हूं, एक न एक दिन
देर — अबेर
उनसे आगे निकल
ही जाऊंगा।’
पहले
अपने को देखना, और फिर
जाकर किसी
पागल आदमी को
देखना पागल
आदमी अकेला ही
अपने से बातें
करता रहता है।
तुम भी बातें
कर रहे हो।
लेकिन तुम
अप्रकट रूप से
बोलते हो, बहुत
जोर से नहीं
बोलते, लेकिन
अगर कोई ठीक
से तुम्हें
देखे, तो
वह तुम्हारे
ओंठों को
हिलता हुआ देख
सकता है। अगर
ओंठ नहीं भी
हिल रहे हों, तो भी तुम
अपने भीतर
निरंतर बोल
रहे हो। एक
पागल आदमी जोर
से बोल रहा है,
तुम कुछ
धीरे बोल रहे
हो। अतर
मात्रा का है।
किसको मालूम
है, किसी
दिन तुम भी
जोर से बोल
सकते हो! कभी
सड़क के किनारे
एक तरफ खड़े हो
जाना और लोगों
को आफिस से
आते —जाते हुए
देखना। तुम देख
सकोगे कि उन
में से कई लोग
भीतर ही भीतर
अपने से ही
बातचीत कर रहे
हैं, और
तरह—तरह की
मुद्राएं बना
रहे हैं।
यहां
तक कि
मनोविश्लेषक
या
मनोचिकित्सक
जो तुम्हारी
मदद करने की
कोशिश करते
हैं,वे भी उसी
नाव में सवार
हैं। यही कारण
है कि मनोविश्लेषक
दूसरे अन्य
पेशेवर लोगों
की अपेक्षा
अधिक पागल
होते हैं।
पागल होने में
कोई भी दूसरे
पेशे के लोग
मनोविश्लेषकों
का मुकाबला
नहीं कर सकते
हैं। ऐसा शायद
इसीलिए होता
है कि पागल
व्यक्तियों
के पास रहते, उनके ऊपर
काम करते, धीरे
— धीरे उनका
पागल होने का
भय समाप्त हो
जाता है, और
धीरे — धीरे एक
दिन ऐसा आता है
जब उनके बीच
की दूरी
समाप्त हो
जाती है।
मैं एक
घटना पढ़ रहा
था:
एक
आदमी डॉक्टर
के पास अपनी
जांच करवाने
गया।
डॉक्टर
ने उससे पूछा, 'क्या
तुम्हारी आंखों
के सामने
धब्बे नजर आते
हैं?'
'हां,
डॉक्टर।’
'सिरदर्द
रहता है?' डॉक्टर
ने पूछा।
'हां,'
मरीज ने
कहा।
'पीठ
में दर्द रहता
है?'
'हां,
डॉक्टर।’
'मेरे
साथ भी ऐसा ही
है,' डॉक्टर
ने बताया।’मैं
हैरान हूं कि
आखिर यह क्या
बला है!
डॉक्टर
और मरीज दोनों
एक ही नाव में
सवार हैं। कोई
भी परेशानी का
कारण नहीं
जानता है।
पूरब में
हमने एक विशेष
कारण से कभी
मनोविश्लेषकों
का व्यवसाय
खड़ा नहीं
किया।’ हमने पूरी तरह
एक अलग ढ़ंग
के मनुष्य का
निर्माण किया
: योगी।
मनोचिकित्सक
नहीं। योगी गुणात्मक
रूप से दूसरे
लोगों से अलग
होता है।
मनोविश्लेषक गुणात्मक
रूप से अन्य
लोगों अलग
नहीं होता है।
वह तो उसी नाव
में सवार होता
है जिसमें
दूसरे लोग
सवार हैं, वह
तुम्हारे
जैसा ही होता
है। वह किसी
भी ढंग से अलग
नहीं होता है।
भेद केवल इतना
ही होता है, जितना जानते
हो उससे वह
थोड़ा अधिक
तुम्हारे
पागलपन को और
अपने पागलपन
को जानता है।
पागलपन, और
मनोविक्षिप्तताओं
के बारे में
उनकी थोड़ी
अधिक जानकारी
होती है।
बौद्धिक रूप
से
मनोविश्लेषक
मनुष्य के मन
और मनुष्य
जाति की
सामान्य
अवस्था के
बारे में अधिक
जानता है
लेकिन वह कुछ
अलग नहीं है।
लेकिन योगी
गुणात्मक रूप
से एकदम अलग
होता है। जिस
पागलपन में एक
सामान्य
व्यक्ति जीता
है, वह उस
पागलपन से
बाहर आ गया
है।
और जिस
ढंग से आज
पश्चिम में
विक्षिप्तता
के लिए कारण
खोजे जा रहे
हैं, मानवता
की सहायता
करने के तरीके
और साधन खोजे जा
रहे हैं, वे
सभी प्रारंभ
से ही गलत
मालूम होते
हैं। वे
कारणों को अभी
भी बाहर खोज
रहे हैं—और
जबकि कारण
भीतर हैं।
कारण कहीं
बाहर, संबंधों
में, बाह्य
संसार में
नहीं हैं। वे
व्यक्ति के
गहन अचेतन में
हैं। वे
विचारों में
और स्वप्नों में
नहीं हैं।
सपनों का या
विचारों का
विश्लेषण कोई
बहुत अधिक मदद
नहीं कर
सकेगा। अधिक
से अधिक यह
व्यक्ति को
स्वाभाविक से
अस्वाभाविक
बना देगा, उससे
कुछ अधिक
नहीं।
इसका
आधारभूत कारण
तो यह है कि
तुम विचारों
की भीड़ के शोर
के प्रति सजग
नहीं हो, तुम विचारों
के साथ एक हो
जाते हो, विचारों
से पृथक, अलग—
थलग नहीं रह
पाते हो —तुम
विचारों को
दूर से, तटस्थ
रहकर साक्षी
होकर, जागरूक
होकर नहीं देख
पाते हो। और
जब कारण को गलत
दिशा में खोजा
जाता है, तो
वर्षों विश्लेषण
चलता है, जैसा
कि आज पश्चिम
में हो रहा
है।
वर्षों
मनोविश्लेषण
चलता है — — और
उससे परिणाम
कुछ भी नहीं
निकलता है।
खोदते पहाड़
हैं और चूहा
भी नहीं
मिलता। पहाड़
खोद लेते हैं —
परिणाम कुछ भी
हाथ नहीं आता
है। लेकिन इस
तरह से
मनोविश्लेषक
खोदने में कुशल
हो जाते हैं
और उनके
न्यस्त
स्वार्थ इसमें
जुड़ जाते हैं
तो पूरा जीवन
वे लोगों का
मनोविश्लेषण
ही करते रहते
हैं। स्मराग
रहे, जब
सही दिशा में
व्यक्ति
देखना भूल
जाता है, तो
वह गलत दिशा
में ही आगे
बढ़ता चला जाता
है —फिर कभी
वापस घर लौटना
नहीं हो
सकेगा।
ऐसा
हुआ:
दो
आयरिश आदमी
न्यूयार्क
पहुंचे। वे
वहा पर अधिक
नहीं घूमे थे, इसलिए
उन्होंने
रेलगाड़ी में
यात्रा करने
की सोची। जब
वे रेल में
यात्रा कर रहे
थे, तो एक
लड़का फल बेचने
के लिए आया।
संतरे और सेव को
तो उन्होंने
पहचान लिया, लेकिन वहां
पर कुछ ऐसे फल
भी थे जो
उन्होंने' पहले
कभी देखे ही
नहीं थे। अत:
उन्होंने उस
फल बेचने वाले
लड़के से पूछा,
'यह कौन—सा
फल है?'
वह
लड़का बोला, 'यह केला
है।’
'क्या
यह खाने में
अच्छा है?'
वह
लड़का बोला, 'एकदम
बढ़िया है।’
'तुम
इसे खाते कैसे
हो?' उन्होंने
पूछा।
उस
लड़के ने केला
छीलकर उन्हें
दिखाया तो उन
दोनों ने
एक—एक केला
खरीद लिया।
उनमें से एक
ने थोड़ा सा ही
केला खाया था
कि उसी वक्त
रेल एक सुरंग
में प्रवेश कर
गई।
वह आयरिश
आदमी कहने लगा, 'हे
परमात्मा!
मित्र अगर तुमने
वह बेहूंदी
चीज अभी तक
नहीं खाई हो, तो अब खाना
भी मत। मैंने
खाई और मैं
अंधा हो गया।’
संयोग
कारण नहीं हुआ
करते हैं; और
पश्चिमी
मनोविज्ञान
संयोगों में
ही छान—बीन कर
रहा है। कोई
व्यक्ति उदास
है और तुम तुरंत
कोई सांयोगिक
घटना खोजना
शुरू कर देते
हो —कि वह उदास
क्यों है।
उसके बचपन में
जरूर कुछ न
कुछ गलत हो
गया होगा।
उसके
पालन—पोषण में
कुछ गलती रही
होगी। बच्चे
और मां के बीच,
या बच्चे और
पिता के बीच
के संबंध में
जरूर कुछ
गड़बड़ी रही
होगी। जरूर
कहीं न कहीं
कुछ न कुछ गलत
रहा है, बच्चे
के परिवेश में
ही कुछ न कुछ
गलत रहा है। हम
सांयोगिक
घटनाओं को ही
खोज रहे हैं।
कारण
भीतर है। योग
का यह
प्राथमिक कदम
है, कि
तुम अभी भी
गलत दिशा की
तरफ देख रहे
हो, गलत
दिशा में खोज
रहे हो इसीलिए
तुमको सही मदद
नहीं मिल
सकेगी। तुम
उदास हो, क्योंकि
तुम उदासी के
प्रति सचेत
नहीं हो। तुम
अप्रसन्न हो,
क्योंकि
तुम
अप्रसन्नता
के प्रति
होशपूर्ण नहीं
हो। तुम दुखी
हो, क्योंकि
तुम नहीं
जानते हो कि
तुम कौन हो।
अन्य सभी
बातें तो
सांयोगिक
घटनाए हैं।
अपने
भीतर देखो।
तुम दुखी हो, क्योंकि
तुम अभी स्वयं
से मिले नहीं
हो, तुम
स्वय को ही
चूक रहे हो।
और जो पहली
बात है करने
की, वह है 'धारणा'।
मन में बहुत
सारी चीजें
पड़ी रहती हैं,
मन एक भीड़
है। उन सभी
बातों को एक
—एक कर के गिरा देना,
अपने मन को
सिकोड़ते जाना,
और मन को
सिकोड़ते—सिकोड़ते
वहां तक ले
आना जहां केवल
एक ही विषय
शेष रहे।
क्या
तुमने कभी
किसी चीज पर
एकाग्रता को
साधा है? एकाग्रता का
अर्थ है, पूरा
का पूरा मन एक
ही जगह
केंद्रित हो
जाए। मान लो
किसी गुलाब के
फूल पर मन को
एकाग्र किया।
गुलाब के फूल
को हम बहुत
बार देखते हैं,
लेकिन फिर
भी कभी पूरा
ध्यान गुलाब
पर केंद्रित
नहीं होता।
अगर गुलाब के
फूल पर दृष्टि
एकाग्र हो जाए,
तो गुलाब का
फूल ही
संपूर्ण
संसार बन जाता
है। मन
सिकुड़ता जाता
है, सिकुड़ता
जाता है, अंत
में टार्च की
रोशनी की तरह
एक ही जगह पर
केंद्रित हो
जाता है, और
वह गुलाब का
फूल बड़े से
बड़ा होता चला
जाता है। जब
गुलाब अन्य हजारों
—लाखों चीजों
में से एक चीज
था तुम्हारे
लिए, तब वह
बहुत छोटा सा
था। अब वही
गुलाब का फूल
सब कुछ है, समग्र
संसार है।
अगर
तुम अपना
ध्यान एक
गुलाब के फूल
पर केंद्रित
करो, तो
वह गुलाब ऐसी
—ऐसी
गुणवत्ताओं
को उदघाटित करेगा
जिन्हें
तुमने पहले
कभी नहीं देखा
था। उसमें ऐसे
—ऐसे रंग
दिखाई देंगे
जिन्हें तुमने
पहले कभी नहीं
देखा था। उस
गुलाब में से
ऐसी सुगंधें
आएंगी, जो
कि मौजूद तो
पहले से ही
थीं, लेकिन
उन्हें अनुभव
करने के लिए
संवेदनशीलता
नहीं थी। अगर
गुलाब के फूल
पर पूरी तरह
से ध्यान
केंद्रित
किया जाए तो
नासापुटों
में केवल
गुलाब की ही
सुगंध रह जाती
है —चेतना से
और .सभी कुछ हट
जाता है, केवल
गुलाब ही रह
जाता है।
चेतना से जैसे
सब कुछ अलग हो
जाता है, सारा
संसार बाहर
छूट जाता है, केवल गुलाब
ही संसार बन
जाता है।
बौद्ध
साहित्य में
एक बड़ी सुंदर
सी कथा है। एक
बार बुद्ध ने अपने
एक शिष्य
सारिपुत्त से
कहा, हंसी
के ऊपर ध्यान
केंद्रित
करो।
सारिपुत्त ने
पूछा, मैं
ऐसा किसलिए
करूं?' बुद्ध
बोले, तुम्हें
किसी विशेष
कारण से ऐसा
नहीं करना है।
बस, तुम
हंसी पर ध्यान
केंद्रित
करो। और हंसी
से जो कुछ भी
हो, तुम
मुझे बताना।
सारिपुत्त
ने पूरा विवरण
बुद्ध को जाकर
बताया।
सारिपुत्त के
पहले और
सारिपुत्त के
बाद कभी भी
किसी व्यक्ति
ने हंसी को
इतनी गहराई से
नहीं समझा।
सारिपुत्त ने
हंसी को छह
कोटियों में
विभक्त किया
है जिसमें
हंसी की महिमा
के सभी अच्छे
और बुरे रूपों
का वर्णन किया
है।
सारिपुत्त के
सामने हास्य
ने अपना पूरा
का पूरा रूप
उदघाटित कर दिया।
पहली
कोटि को उसने
कहा सिता : एक
धीमी, लगभग
अदृश्य
मुस्कान, जो
कि सूक्ष्मतम
भाव —मुद्रा
में
अभिव्यक्त होती
है। अगर
व्यक्ति सचेत
हो, तभी उस
हास्य को देखा
जा सकता है, सारिपुत्त
ने उसे सिता
कहा।
अगर
तुम बुद्ध के
चेहरे को
ध्यान से देखो, तो तुम
इसे वहा
पाओगे। यह
हंसी बहुत ही
सूक्ष्म और
परिष्कृत
होती है। केवल
एकाग्र चित्त
होकर ही उसे
देखा जा सकता
है, वरना
तो उसे चूक
जाओगे, क्योंकि
वह केवल भाव
में
अभिव्यक्त
होती है। यहां
तक कि ओंठ भी
नहीं हिलते
हैं। सच तो यह
बाहर से कुछ
दिखाई ही नहीं
पड़ता है बस, वह एक न
दिखाई पड़ने
वाली हंसी
होती है।’
शायद इसी
कारण से ईसाई
लोग सोचते हैं
कि जीसस कभी हैंसे
नहीं, वह
'सिता' जैसी
बात ही होगी।
ऐसा कहा जाता
है कि सारिपुत्त
ने बुद्ध के
चेहरे पर 'सिता'
को देखा। यह
बहुत ही
दुर्लभ घटना
है, क्योंकि
'सिता' को
देखना
सर्वाधिक
परिष्कृत बात
है। आत्मा जब
उच्चतम शिखर
पर पहुंचती है,
केवल तभी 'सिता' का
आविर्भाव
होता है। तब
यह कुछ ऐसा
नहीं है जिसे
कि करना होता
है तब तो यह बस
होती है। और
जो व्यक्ति थोड़ा
भी संवेदनशील
होगा, वह
इसे देख सकता
है।
दूसरे
को सारिपुत्त
ने कहा 'हसिता'।
वह मुस्कान, वह हंसी, जिसमें.
ओंठों का
हिलना शामिल
होता है और जो
दांतों के
किनारे से
स्पष्ट रूप से
दिख रही होती है।
तीसरे को उसने
कहा, 'विहसिता'। एकदम चौड़ी
—खुली मुस्कान,
जिसके साथ
थोड़ी सी हंसी
भी शामिल होती
है। चौथे को
उसने कहा 'उपहसिता'। जोरदार
ठहाकेदार
हंसी, जिसमें
जोर की आवाज
होती है।
जिसके साथ सिर
का, कंधों
का और बाहों
का हिलना
—डुलना जुड़ा
होता है।
पांचवें को
उसने कहा 'अपहसिता'। इतने जोर
की हंसी कि
जिसके साथ आंसू
आ जाते हैं।
और छठवें को
उसने कहा 'अतिहसिता'। सबसे तेज, शोर भरी हंसी।
जिसके साथ
पूरे शरीर की
गति जुड़ी रहती
है। शरीर
ठहाकों के साथ
दुहरा हुआ
जाता है, व्यक्ति
हंसी से लोट
—पोट हो जाता
है।
जब
हंसी जैसी
छोटी सी चीज
पर भी ध्यान
केंद्रित
किया जाए, तो वह भी
एक अद्भुत और
एक विराट चीज
में बदल जाती
है —कहना
चाहिए कि पूरा
संसार ही बन
जाती है।
एकाग्रता
तुम्हारे
सामने ऐसी
बातों को उदघाटित
कर देती है, जो कि
साधारणतया
दिखाई भी नहीं
देती हैं।
साधारणतया तो
तुम अधूरे —
अधूरे ही जीते
हो। तुम ऐसे
जीए? चले
जाते हो जैसे
कि सोए हुए हो —
देख रहे हो, और नहीं भी
देख रहे होते
हो; सुन
रहे हो, और
नहीं भी सुन
रहे होते हो।
एकाग्रता आंखों
में ऊर्जा ले
आती है। अगर
किसी चीज को
एकाग्रचित्त
होकर देखो, तो अन्य सभी
कुछ
दिखाई पड़ना
बंद हो जाता
है, तो
अचानक उस छोटी
सी चीज में वह
दिखाई देने लगता
है जो कि वहां सदा
से ही मौजूद
थी और
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रही थी।
पूरा का
पूरा विज्ञान
और कुछ भी
नहीं, बस
कनसनट्रेशन है।
किसी
वैज्ञानिक को
कभी काम करते
हुए देखना वह अपने
कार्य में
पूरी तरह से
एकाग्र होता
है।
पास्तर
के विषय में
एक कथा है कि
एक बार जब वह
अपने माइक्रोस्कोप
से देख रहा था, तो वह
इतना मौन और शांत
था कि कोई
उससे मिलने के
लिए आया। आने
वाले सज्जन
बड़ी देर तक
प्रतिक्षा
करते रहे —और
वह पास्तर की शांति
और मौन में
विध्न भी
डालने से घबरा
रहा था। मानो
उस के आसपास
कोई अलौकिकता
छायी हुई थी।
जब
पास्तर अपनी
एकाग्रता से बाहर
आया, तो
उसने उस आने
वाले सज्जन से
पूछा, आप
कितनी देर से
प्रतीक्षा कर
रहे हैं? आपने
मुझे पहले
बताया क्यों
नहीं?
वह
सज्जन कहने
लगे, 'सच
पूछा जाए तो
मैंने आपसे कई
बार बात करने
की कोशिश की, क्योंकि मैं
जल्दी में था।
मुझे कहीं और
जाना था, और
आपको कुछ
संदेशा देना
था। लेकिन आप
अपने कार्य
में इतने तल्लीन
थे, जैसे
कि आप
प्रार्थना ही
कर रहे हों
—मैं आपकी शांति
में विध्न
नहीं डालना
चाहता था।
क्योंकि आप
जिस शांत
अवस्था में थे
उसमें मैंने
बाधा डालना
उचित नहीं
समझा।’
पास्तर
ने कहा, ' आप ठीक कह
रहे हैं। काम
ही मेरी प्रार्थना
है। जब कभी
मैं बहुत अशांत,
परेशान 'चिंतित
और विचारों से
घिरा हुआ
अनुभव करता हूं, तो मैं अपने
माइक्रोस्कोप
को उठाकर
उसमें से देखने
लगता हूं
—मेरी सभी
चिंताएं और
परेशानी दूर
हो जाती हैं, और मैं
एकाग्र हो
जाता हूं।’
ध्यान
रहे, एक
वैज्ञानिक का
पूरा कार्य
एकाग्रता का
होता है। विज्ञान
योग का प्रथम
चरण बन सकता
है, क्योंकि
एकाग्रता योग
का प्रथम आंतरिक
चरण है। अगर
प्रत्येक
वैज्ञानिक
विकसित होता
चला जाए और
अगर वह
एकाग्रता पर
ही न अटक जाए, तो वह योगी
बन सकता है।
क्योंकि वह
मार्ग पर ही
होता है, वह
योग की पहली
शर्त, एकाग्रता
को पूरा कर
रहा होता है।
'जिस
पर ध्यान किया
जाता हो, उसी
में मन को
एकाग्र और
सीमित कर देना
धारणा है।’
'ध्यान
के विषय से
जुड़ी मन की
अविच्छिन्नता,
उसकी ओर
बहता मन का
सतत प्रवाह
ध्यान है।’
प्रथम
एकाग्रता :
विषय—वस्तुओं
की भीड़ को
गिरा देना, और एक ही
विषय को चुन
लेना। जब एक
बार तुमने एक विषय
को चुन लिया
और एक विषय को
धारण करके अपनी
चेतना में रह
सकते हो, तब
तुमने
एकाग्रता को
प्राप्त कर
लिया होता है।
फिर
दूसरा चरण है :
ध्यान के विषय
की ओर चेतना का
सतत प्रवाह।
जैसे कि टार्च
से अबाधित रूप
से निरंतर
प्रकाश आ रहा
हो।
और फिर
तुमने देखा? तुम एक
बर्तन से
दूसरे बर्तन
में पानी
डालते हो, तो
उसका प्रवाह
सतत नहीं होता;
वह
अविच्छिन्न
नहीं होता।
तुम एक बर्तन
से दूसरे
बर्तन में तेल
डालते हो तो
प्रवाह सतत
एवं
अविच्छिन्न
होगा, उसका
प्रवाह
टूटेगा नहीं।
ध्यान
का अर्थ है.
चेतना बिना
किसी अवरोध के, बिना किसी
बाधा के ध्यान
के विषय पर
उतर रही होती
है —क्योंकि
अवरोध को मतलब
है कि ध्यान
भंग हो गया, तुम कहीं और
चले गए। अगर
पहला चरण
उपलब्ध हो जाए,
तो फिर
दूसरा चरण
उतना मुश्किल
नहीं। अगर
पहला चरण ही
उपलब्ध न हो
सके, तो
फिर दूसरा तो
असंभव है। एक
बार जब
विषय—वस्तु
गिर जाती है, और एक हो
विषय रह जाता
है, तब
चेतना के सभी
छिद्र बंद हो
जाते हैं, चेतना
की सारी भ्रांतिया
गिर जाती हैं,
बस तब एक ही
विषय पर पूरी
चेतना
केंद्रित हो
जाती है।
जब तुम
अपनी चेतना एक
ही विषय पर
केंद्रित करते
हो तो वह विषय
अपनी सभी
गुणवत्ताओं
को प्रकट कर देता
है। छोटा सा
विषय, और
परमात्मा के
सभी राज प्रकट
हो जाते हैं।
टेनीसन
की एक कविता
है। एक सुबह
वह सैर के लिए जा
रहा था, रास्ते में
उसे एक पुरानी
दीवार दिखाई
पड़ी, जिस
पर घास उगी
हुई थी, और
उस पर एक छोटा
सा फूल खिला
हुआ था।
टेनीसन ने उस
फूल की तरफ
देखा। सुबह का
समय था, और
संभव है कि वह
अपने को बहुत
शांत अनुभव कर
रहा होगा सुबह
का समय और
सूर्योदय
अचानक उसके मन
में एक खयाल
आया—उस छोटे
से फूल की ओर
देखते हुए वह
बोला, ' अगर.
मैं तुम्हें
जड़ से लेकर
तुम्हारे
पूरे अस्तित्व
को समझ सकूं
तो मैं
संपूर्ण
ब्रह्मांड को
समझ जाऊंगा।
क्योंकि इस
अस्तित्व का
छोटा सा अंश
भी, अपने
में एक छोटी
सी सृष्टि ही
है।’
छोटा
सा अंश भी
अपने में पूरी
सृष्टि को
समाए हुए है, जैसे कि
प्रत्येक
बूंद अपने में
सागर को समाए होती
है। अगर सागर
की एक बूंद को
समझ लिया तो
सागर को समझ
लिया, अब
एक—एक बूंद को
जानने —समझने
की जरूरत नहीं
है, एक ही
बूंद को समझना
पर्याप्त है।
एकाग्रता बूंद
के गुणों को
प्रकट कर देती
है, और फिर
बूंद ही सागर
बन जाती है।
ध्यान
चेतना की
गुणवत्ताओं
को प्रकट कर
देता है, और फिर
व्यक्ति—चेतना
समिष्ट—चेतना
बन जाती है।
पहला चरण विषय
को प्रकट करता
है, दूसरा
चरण आत्मा को
उदघाटित करता
है। किसी विषय
की ओर
प्रवाहित
होने वाला सतत
प्रवाह.. उस. सतत
प्रवाह में, बिना किसी
बाधा के बस उस
प्रवाह में, नदी की
भांति
प्रवाहित
होना, बिना
विचलित हुए.
अचानक पहली
बार तुम अपने
अंतर्तम के
प्रति जागरूक
होते हो, जो
कि तुम्हारे
पास ही है: जो
कि तुम हो।
चेतना
के इस
अविच्छिन्न
सतत प्रवाह
में अहंकार
विसर्जित हो
जाता है। तुम
आत्मरूप हो
जाते हो, अहंकार बिदा
हो जाता है, केवल आत्मा
ही रह जाते
हो। तब तुम
सागर बन जाते
हो।
दूसरा
ध्यान का
मार्ग कलाकार
का है। प्रथम
एकाग्रता, वैज्ञानिक
का मार्ग है।
वैज्ञानिक का
संबंध बाह्य
संसार से होता'
है, स्वयं
से नहीं।
कलाकार अपने
से संबंधित
होता है, बाह्य
संसार से
नहीं। जब
वैज्ञानिक
किसी चीज को
निर्मित करता
है, तो वह
उसे
विषय—वस्तु के
संसार से निर्मित
करता है। जब
कलाकार कुछ
सृजन करता है,
तो वह उसका
सृजन स्वयं के
भीतर से करता
है। कविता को
वह स्वयं के
भीतर से रचता
है। स्वयं के भीतर
ही गहरे खोदकर
वह चित्र
बनाता है। किसी
भी कलाकार को
विषयगत होने
के लिए मत
कहना। कलाकार
आत्मनिष्ठ
होता है।
क्या
तुमने वानगाग
के बनाए हुए
वृक्षों को
देखा है? वे आकाश को
छूते हुए
मालूम पड़ते
हैं : वे चांद—
तारों को छूते
हैं। अगर
वानगाग का वश
चलता तो वह
चांद—तारों के
भी पार गए
होते। वैसे वृक्ष
केवल वानगाग
की पेंटिंग्स
में ही देखने
को मिलते हैं,
यथार्थ में
कहीं देखने को
नहीं मिलते। वानगाग
की पेंटिंग्स
में चांद
—तारे छोटे
हैं और वृक्ष
बड़े होते हैं।
किसी ने
वानगाग से
पूछा, 'आपने
ऐसे वृक्ष
कहां पर देखे
हैं? हमने
तो ऐसे वृक्ष
कभी नहीं
देखे।’ वानगाग
बोला, 'क्योंकि
मेरे देखे, वृक्ष आकाश
से मिलने की
पृथ्वी की
आकांक्षा
हैं।’
आकाश
से मिलने की
पृथ्वी की आकांक्षा, अभीप्सा—तब
वृक्ष पूरी
तरह से बदल
जाता है। तब
तो एक
रूपांतरण
घटित हो जाता
है। तब वृक्ष
कोई विषयगत
चीज या वस्तुगत
रूप नहीं रह
जाता
है, तब वह आत्मनिष्ठ
रूप बन जाता
है। जैसे कि
कलाकार वृक्ष
को पहचान लेता
है और स्वयं
ही वृक्ष हो
जाता है।
झेन
गुरुओं के
संबंध में बडी
सुंदर कथाएं
हैं, क्योंकि
झेन —गुरु
अक्सर या तो
चित्रकार या
बड़े कलाकार
हुआ करते थे।
यह झेन की
सुंदरतम बात है।
अन्य कोई धर्म
सृजनात्मक
नहीं है, और
अगर धर्म
सृजनात्मक
नहीं है, तो
वह धर्म समग्र
नहीं हो सकता
है —किसी न किसी
बात का अभाव
उसमें रहता
है।
एक झेन
गुरु अपने
शिष्यों से
कहा करते थे, ' अगर तुम
किसी बांस की
पेंटिंग
बनाना चाहते
हो, तो
बांस ही बन
जाओ।’
इसके
अतिरिक्त
बांस की
पेंटिंग
बनाने का और कोई
उपाय नहीं है।
अगर तुमने
बांस को भीतर
से अनुभव नहीं
किया तो कैसे
तुम एक बांस
को चित्रित कर
सकते हो? अगर तुमने
यह अनुभव नहीं
किया कि किस
तरह से एक
बांस आकाश के
सामने खड़ा
होता है हवा
का सामना करता
है, वर्षा
की बौछारों
में कैसे
झूमता —नाचता
है, सूर्य
की ऊष्मा में
किस गर्व के
साथ वह खड़ा होता
है, अगर
तुमने उसे
अनुभव नहीं
किया, तो
तुम एक बांस
की पेंटिंग
कैसे बना
सकोगे? अगर
तुमने बास से
गुजरती हवाओं
को उस तरह से नहीं
सुना, जिस
तरह कोई बांस
सुनता है, अगर
तुमने बांस पर
पड़ती वर्षा की
फुहारों को वैसे
नहीं जाना, जैसे बांस
जानता है, तो
कैसे तुम बांस
को पेंटिंग
में उतार
सकोगे? एक
कोयल की आवाज को
बास किस
प्रकार से
सुनेगा, अगर
तुमने नहीं
सुना, तो
तुम कैसे बांस
की पेंटिंग
बना सुकोगे? तब तुम बौस
की पेंटिंग एक
फोटोग्राफर
की तरह बनाओगे
तब तुम एक
कैमरा हो सकते
हो लेकिन एक
कलाकार नहीं।
कैमरा
विज्ञान की
देन है। कैमरा
वैज्ञानिक उपकरण
है। वह तो
केवल बांस के
बाह्य रूप को
ही दिखाता है।
लेकिन जब कोई
गुरु बांस को
देखता है, तो वह
उसका बाह्य
रूप ही नहीं
देख रहा होता
है। वह धीरे—
धीरे स्वयं को
गिराता जाता
है। उसकी
चेतना का
संपूर्ण
प्रवाह बांस
में समा जाता है,
बास पर उतर
आता है. तब वे
अलग — अलग नहीं
रहते, वे
एक —दूसरे में
समाहित हो
जाते हैं, दोनों
एक हो जाते
हैं। फिर यह
कहना बहुत
कठिन होता है
कि कौन बांस
है और कौन
चेतना है —सब
कुछ एक—दूसरे
में समा जाता
है, घुल—मिल
जाता है, दोनों
की सीमाएं
समाप्त हो
जाती हैं।
दूसरा चरण
ध्यान का कला
का मार्ग है।
इसीलिए कई बार
कलाकारों को
रहस्यदर्शियों
जैसी झलकें
मिलती हैं। इसलिए
कई बार काव्य
वह कह देता है,
जिसे गद्य
में कभी नहीं
कहा जा सकता, जिसे कहने
का उपाय ही
नहीं है; और
कई बार
पेंटिंग्स
ऐसी झलक दे
देती हैं, जिसे
अभिव्यक्त
करने का और
कोई उपाय ही
नहीं है। किसी
धार्मिक
व्यक्ति की
अपेक्षा एक
कलाकार
रहस्यदर्शी
के कहीं अधिक
निकट होता है।
अगर
कोई, व्यक्ति
कवि होने पर
ही रुक गया, तो उसका
विकास रुक
जाता है, कवि
को तो सतत
बहना होता है,
आगे बढ़ना
होता है. पहले
एकाग्रता से
ध्यान तक और
फिर ध्यान से
समाधि तक। उसे
तो चलते ही
जाना है, आगे
बढ़ते ही जाना
है।
ध्यान
विषय की ओर
बहते हुए मन
का
अविच्छिन्न प्रवाह
है। थोड़ा इसे
अनुभव करना।
और अच्छा होगा
कि ध्यान के
लिए कोई ऐसा
विषय चुनना
जिसे कि तुम
प्रेम करते
हो। अपने
प्रेमी या प्रेमिका
को, या
किसी बच्चे को
या किसी फूल
को चुन सकते
हो—कोई भी चीज
जिसे तुम
प्रेम करते
हों—क्योंकि
जिससे प्रेम
होता है उसके
साथ बिना किसी
बाधा के विषय
में उतरना
आसान होता है।
कभी
अपने प्रेमी
या प्रेमिका
की आंखों में
झांकना। पहले
पूरे संसार को
भूल जाना, अपने
प्रेमी या
प्रेमिका को
ही पूरा संसार
बन जाने देना।
फिर उसकी आंखों
में झांकते
हुए एक सतत
प्रवाह बन
जाना, अविच्छिन्न
प्रवाह—जैसे
एक बर्तन से
दूसरे बर्तन
में तेल डाला
जा रहा हो। जब
एक बर्तन से दूसरे
बर्तन में तेल
डाला जाता है,
तो बीच में
थोड़ा भी
अंतराल नहीं
आता है, कोई
तारतम्य नहीं
टूटता है। ठीक
ऐसे ही चेतना के
सतत प्रवाह
में अचानक तुम
देख पाओगे कि
तुम कौन हो, पहली बार
तुम अपने
आत्मरूप को
देख पाओगे।
लेकिन
ध्यान रहे, यह अंत
नहीं है।
बाह्य विषय और
अंतर आत्मा, ये दोनों एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
दिन और रात एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
जीवन और मृत्यु
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
वस्तुनिष्ठता
बाह्य संसार
है, आत्मनिष्ठता
भीतरी, जब
कि तुम न तो
बाह्य हो और न
भीतरी तुम
दोनों ही नहीं
हो।
इसे
समझना बहुत
कठिन है, क्योंकि
साधारणत: कहा
जाता है, 'अपने
भीतर जाओ।’ जबकि वह भी
एक अस्थायी
अवस्था है।
उसके भी पार
जाना है, उसके
भी बियांड
जाना है।
बाह्य और
भीतर—दोनों ही
बाहर हैं। तुम
वह हो, जो
बाहर भी जा
सकता है और जो
भीतर भी जा
सकता है। तुम
वह हो, जो
इन दोनों
ध्रुवों के
बीच में
गतिमान हो सकते
हो। तुम उन
दोनों के पार
हो। वही तीसरी
अवस्था समाधि
है।
'जब
मन विषय 'हे
साथ एकरूप हो
जाता है तो वह
समाधि है।’
जब दृश्य
विलिन हो जाता
है द्राटा मैं, और
द्रष्टा
विलीन हो जाता
है दृश्य में,
जब न तो कोई
देखने वाला
बचता है, न
कोई देखे जाने
वाला, जब
द्वैत ही नहीं
बचता, तब
एक अदभुत शांति
और मौन छा
जाता है। तब
यह नहीं बताया
जा सकता कि
क्या बचता है,
क्योंकि यह
कहने, बताने
को कोई बचता
ही नहीं।
समाधि के बारे
में कुछ भी कहा
नहीं जा सकता,
क्योंकि
समाधि के बारे
में कुछ भी
कहना न कहने
जैसा ही होगा।
क्योंकि उस
बारे में जो
भी कहा जाए वह
या तो
वैज्ञानिक
होगा या
काव्यात्मक होगा।
धर्म के लिए
कुछ कहा नहीं
जा सकता, वह
हमेशा अकथनीय
और अनिर्वचनीय
है।
तो दो
तरह से
धार्मिक
अभिव्यक्ति
हो सकती है। पतंजलि
का प्रयास
वैज्ञानिक
परिभाषा के
लिए है।
क्योंकि धर्म
के पास स्वयं
कोई पारिभाषिक
शब्दावली
नहीं है।’समग्र' को
अभिव्यक्त
नहीं किया जा
सकता है।
अभिव्यक्त
करने के लिए
उसे या तो
विषय—वस्तु की
भांति बताना
पड़ेगा या फिर
आत्मरूप की
भांति। उसे
विभक्त करना
ही पड़ेगा।
उसके बारे में
कुछ भी कहना उसे
विभाजित करना
है। पतंजलि ने
वैज्ञानिक शब्दावली
का चुनाव किया
है, बुद्ध
ने भी
वैज्ञानिक
शब्दावली का
उपयोग किया
है। लाओत्सु,
जीसस ने
अभिव्यक्ति
के लिए
काव्यात्मक
ढंग चुना है।
लेकिन दोनों
हैं शब्दगत
ही। यह
व्यक्ति के मन
पर निर्भर
करता है।
पतंजलि का ढंग
वैज्ञानिक है;
तर्क में, विश्लेषण
में उनकी गहरी
पैठ है। जीसस
काव्यात्मक
हैं, लाओत्सु
कवि हैं। उनकी
अभिव्यक्ति
का ढंग काव्यात्मक
है। लेकिन
स्मरण रहे, दोनों ही
ढंग अधूरे
हैं। इनके भी
पार जाना है।
'जब
मन विषय के
साथ एकरूप हो
जाता है तो वह
समाधि है।’
जब मन
चला जाता है
और ध्यान ही
बचता है, तब न तो कोई
जानने वाला
होता है और न
ही जाना जाने
वाला ही बचता
है। दोनों ही
चले जाते हैं,
तब समाधि
फलित होती है।
और जब
तक उसको नहीं
जान लो —उस 'जानने' को, जो
जानने वाला और
जाना जाने
वाले से परे
होता है —तुम
जीवन को जानने
से चूक गए। हो
सकता है तितलियों
के पीछे भाग
रहे हो, स्वप्नों
में थोड़ा—बहुत
सुख मिल भी
रहा हो, लेकिन
फिर भी तुम उस
परम आनंद को
चूक रहे हो। एक
शहद से भरा
बर्तन किसी के
कमरे में लुढ़क
गया, शहद
की मीठी—मीठी
गंध से बहुत
सारी
मक्खियां खिंची
चली आयीं।
उन्होंने खूब
शहद खाया। जब
शहद खाते
—खाते उनके
पैर शहद में
चिपक गए, तो
फिर उनके लिए
उड़ना भी
मुश्किल हो
गया, और उड़
न पाने के
कारण उनका दम
घुटने लगा। जब
वे मरने ही
वाली थीं, तो
उनमें से एक
मक्खी आह भरते
हुए बोली, ' आह,
हम कितने
मूढ़ हैं। थोड़े
से सुख के लिए
हमने स्वयं को
नष्ट कर लिया।’
ध्यान
रहे, ऐसा
तुम्हारे साथ
भी हो सकता
है। तुम्हारी
भी पृथ्वी से
इतनी अधिक पकड़
हो सकती है कि
तुम अपने
पंखों का
उपयोग ही न कर
सको। छोटे
—मोटे सुखों
में डूबकर उस
परम आनंद के
विषय में सब
कुछ भूल जाते
हो, जो कि
सदा से
तुम्हारा है।
बस उसके स्मरण
भर की देर है।
ध्यान रहे, समुद्र के
किनारे पड़े
हुए कंकड़, पत्थर
और सीपियों को
इकट्ठा करते
—करते ही तुम
अपनी पूरी
जिंदगी को
गंवा सकते हो,
अपने
अस्तित्व के
आनंद और
अमूल्य खजाने
को चूक सकते
हो, और ऐसा
ही हो रहा है।
केवल कभी —कभी
ही कोई व्यक्ति
इस बात के
प्रति जागरूक
हो पाता है कि
जीवन की इस
साधारण कैद की
पकड़ में नहीं
आता है, जीवन
का खजाना तो
स्वयं के भीतर
ही छिपा है।
मैं
ऐसा नहीं कह
रहा कि आनंद
और उत्सव मत
मनाओ। सूरज की
रोशनी सुंदर
है, फूल
और तितलियां
भी सुंदर हैं,
लेकिन उन
में ही मत खो
जाना। उनसे
आनंदित होना,
उसमें कुछ
भी गलत नहीं
है, लेकिन
हमेशा ध्यान
रहे, परम
सौंदर्य
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा है। कभी—कभी
सूरज की धूप
में विश्राम
कर लेना, लेकिन
इसे ही जीवन
की शैली मत
बना लेना। कभी
—कभी समुद्र
के तट पर
विश्राम भी कर
लेना और कंकड़
—पत्थरों से
खेल भी लेना।
इसमें कुछ भी
गलत नहीं है।
कभी —कभी
छुट्टी या
पिकनिक मनाने
की तरह यह ठीक
है, लेकिन
इसे ही अपनी
जीवन शैली मत
बना लेना। नहीं
तो तुम बुरी
तरह से चूक
जाओगे।
और
ध्यान रहे, जहां
कहीं भी तुम
अपने ध्यान को
केंद्रित
करके जीने
लगते हो, वही
तुम्हारे
स्जीवन की
वास्तविकता
बन जाती है, वही
तुम्हारे
जीवन का
यथार्थ बन
जाता है। अगर तुम
अपना ध्यान
कंकड़—पत्थरों
पर लगा देते
हो, तो वे
ही तुम्हारे
लिए हीरे बन
जाते
हैं—क्योंकि
जहां कहीं भी
तुम्हारा
ध्यान
केंद्रित हो जाता
है, वहीं
तुम्हारे लिए
खजाना हो जाता
है।
मैंने
सुना है, एक बार ऐसा
हुआ.
एक
रेलवे का
कर्मचारी
संयोग से
रेफ्रिजरेटर कार
में फंस गया।
अब न तो वह
उसमें सै भाग
सकता था, और न ही किसी
को आवाज लगाकर
बुला सकता था।
आखिरकार थककर
उसने स्वयं को
—नियति के
हाथों में छोड़
दिया। कार की
दीवार पर उसकी
मृत्यु का विवरण
इन शब्दों में
लिखा
हुआ था 'मैं ठंडा
होता जा रहा हूं, और ठंडा, अब
और भी ठंडा।
सिवाय
प्रतीक्षा
करने के और कुछ
करने को नहीं
है। हो सकता
है ये मेरे
अंतिम शब्द
हों।’ और
वे अंतिम ही
हुए। जब कार
को खोला गया, तो खोलने
वाले लोग उस
कर्मचारी को
मरा हुआ देखकर
चकित रह गए।
उसकी मृत्यु
का कोई
शारीरिक कारण
तो था नहीं।
कार का तापमान
इतना कम भी न
था, छप्पन
डिग्री ही था।
केवल मन में
ही उसे ऐसा लग
रहा था कि वह
ठंडा होता जा
रहा है। और
वहां पर पर्याप्त
मात्रा में
ताजी हवा भी
थी, उसका
दम नहीं घुटा
था।
वह
अपने ही मन की
गलत सोच के
कारण मरा। वह
अपने ही भय के
कारण मरा। वह
अपने ही मन के
कारण मरा। वह
आत्महत्या
थी।
तो
ध्यान रहे, जहां
कहीं भी तुम
ध्यान देते हो,
वही
तुम्हारी
वास्तविकता
वही तुम्हारी
सच्चाई बन
जाती है। और
एक बार जब वह
वास्तविकता
बन जाती है, तब वह
तुम्हें भी और
तुम्हारे
ध्यान को भी
अपनी ओर
खींचने में
समर्थ हो जाती
है। तब तुम
और—अधिक ध्यान
उसकी ओर देने
लगते हो तब एक
दिन वही वास्तविकता
बन जाती है।
और धीरे — धीरे
वह झूठ जो कि
मन के ही
द्वारा गढ़ा
गया है, एकमात्र
वास्तविकता
बन जाता है, और सत्य
पूरी तरह भूल
जाता है।
सत्य
को खोजना होता
है। और सत्य
तक पहुंचने का
एकमात्र
रास्ता यही है
कि पहले सारे
विषयों को गिर
जाने दो, केवल एक
विषय ही रह
जाए। दूसरी
बात, जिससे
भी तुम्हारी
चेतना इधर—उधर
भागती हो, उन
सभी
परिस्थितियों
को गिरा दो, चेतना के
सतत प्रवाह को
एक ही विषय पर
केंद्रित
होने दो। और
फिर तीसरी
घटना अपने से
घटती है। अगर
यह दोनों
बातें पूरी हो
जाती हैं तो
समाधि अपने से
ही फलित हो
जाती है। फिर
अचानक एक दिन
बाह्य और अंतस
दोनों मिट
जाते हैं, अतिथि
और आतिथेय
दोनों बिदा हो
जाते हैं, फिर
मौन का और शांति
का साम्राज्य
चारों ओर छा
जाता है। उस शांति
में ही जीवन
लक्ष्य की
प्राप्ति
होती है।
पतंजलि
कहते हैं:
'धारणा,
ध्यान और
समाधि—इन
तीनों का
एकत्रीकरण
संयम को
निर्मित करता
है।’
पतंजलि
ने संयम की
बहुत ही सुंदर
परिभाषा की है।
साधारणतया
संयम का मतलब
अनुशासन, चरित्र पर
नियंत्रण
रखना समझा
जाता है। लेकिन
ऐसा नहीं है।
संयम तो जीवन
में उस संतुलन
का नाम है, जब
दृश्य और
द्रष्टा
दोनों मिट
जाते हैं, तब
उपलब्ध होता
है। संयम तो शांति
की वह अवस्था
है, जब
भीतर कोई
द्वैत नहीं
बचता है और न
ही भीतर किसी
तरह का कोई
विभाजन ही बचता
है, और तुम
एक हो गए होते
हो।
कभी
—कभी ऐसा
स्वाभाविक
रूप से भी
होता है। क्योंकि
अगर ऐसा
स्वाभाविक
रूप से घटित
नहीं होता, तो
पतंजलि इसकी
खोज नहीं कर
पाते। कई बार
ऐसा
स्वाभाविक
रूप से भी
घटित होता है
—ऐसा तुम्हें
भी घटित हुआ
है। ऐसा
व्यक्ति
खोजना
मुश्किल है
जिसे सत्य की
कोई झलक न
मिली हो।
संयोगवश, कई
बार अनजाने
में, न
जानते हुए, तुम भी
अस्तित्व की
तरंग के साथ
एक हो जाते हो,
और अचानक उस
तरंग पर सवार
होकर तुम भी
उस शांति का, आनंद का
स्वाद ले लेते
हो।
एक
व्यक्ति ने
पत्र लिखकर
बताया है, ' आज मुझे
सत्य की पांच मिनिट
को झलक मिली।’
मुझे उसकी
यह
अभिव्यक्ति
अच्छी लगी 'पाच मिनिट
को सत्य की
झलक।’ मैंने
उससे पूछा, 'ऐसा
कैसे
हुआ?' उसने
बताया कि वह
कुछ दिनों से
बीमार था। और
यह बात
अविश्वसनीय
है, लेकिन
सच है कि बहुत
से लोगों को, कई बार
बीमारी के समय
सत्य की
क्षणिक झलक
मिलती है।
क्योंकि
बीमारी में
रोज का जो
जीवन होता है
वह ठहर जाता
है, थम
जाता है। कुछ
दिन से वह
बीमार था और
उसे बिस्तर से
उठने की
अनुमति न थी, इसलिए वह
बिस्तर पर ही
विश्राम कर
रहा था। उस समय
उसके पास कुछ
और करने को था
भी नहीं। चार
—पांच दिन के
विश्राम के
बाद, अचानक
एक दिन जब वह
बिस्तर पर
लेटा हुआ कमरे
की छत की तरफ
देख रहा था कि
उसे सत्य की
झलक मिली। सब
कुछ जैसे ठहर
गया—समय ठहर
गया, सीमाएं
टूट गईं, कहीं
कोई देखने
वाला न था
—अनायास उसका
तार उस एक के
साथ जुड़ गया, सभी कुछ एक
हो गया।
कुछ
लोगों को
प्रेम के
क्षणों में ऐसा
घटित होता है।
प्रेम के शिखर
अनुभव के साथ
सभी कुछ शांत
और मौन हो
जाता है। तुम
खो जाते हो।
सभी तरह के तनाव
चले जाते हैं, सभी
तूफान थम जाते
हैं, और
अनायास सब कुछ
अखंड था, जैसे
कि एक ही सागर
लहरा रहा हो।
अचानक सत्य उपस्थित
हो जाता है।
कई बार
धूप में टहलते
हुए आनंद के
क्षणों में, या कभी
नदी में तैरते,
नदी के साथ
बहते, कभी—कभी
कुछ न करते
हुए बस रेत पर
लेटे —लेटे, चांद —तारों
को देखते
—देखते ऐसा हो
जाता है —सत्य
की झलक मिल
जाती है।
लेकिन
यह संयोग ही
है। और
क्योंकि वे
संयोग हैं, और चूंकि
वें जीवन
—शैली में फिट नहीं
बैठते हैं, तुम उन्हें
भूल जाते हो।
तुम उनकी ओर
कुछ अधिक
ध्यान नहीं
देते हो। तुम
अपने कंधे
उचकाकर सब कुछ
भूल जाते हो।
वरना हरेक
व्यक्ति के
जीवन में, कभी
न कभी सत्य की
झलकें आती ही
हैं।
जो
केवल संयोग से
घटित होता है
योग के माध्यम
से वही
व्यवस्थित
रूप से घटित
होता है।
संयोग ओर
आकस्मिक
घटनाओं के माध्यम
से जो कुछ
घटित होता है, योग ने
उसके ही
माध्यम से
विज्ञान
निर्मित किया
है।
तीनों
का जोड़ संयम
है। एकाग्रता, ध्यान और
समाधि—ये
तीनों ऐसे हैं,
जैसे कोई
तीन पैर का
स्कूल हो, और
उसके ये तीन
पैर हों
—ट्रिनिटी।
'उसे
वशीभूत करने
से, उच्चतर
चेतना के
प्रकाश का
आविर्भाव
होता है।’
जो
एकाग्रता, ध्यान और
समाधि की इस
ट्रिनिटी को
पा लेते हैं, उन्हें
उच्चतर चेतना
का प्रकाश
घटित होता है।
'ऊंचे
चढ़ो, ऊंची
उड़ान भरो, तुम्हारी
मंजिल आकाश
में हो, तुम्हारी
दृष्टि
चांद—तारों पर
हो।’ लेकिन
यात्रा वहीं
से आरंभ होती
है जहां हम
हैं। एक—एक
कदम : ऊंचे चढ़ो,
ऊंची उड़ान
भरो, मंजिल
आकाश में हो, दृष्टि चांद
—तारों पर हो।
जब तक कि तुम
आकाश जैसे
विराट न हो
जाओ, ठहर
मत जाना, रुक
मत जाना, क्योंकि
यात्रा अभी भी
पूरी नहीं हुई
है। जब तक कि
स्वयं के भीतर
के प्रकाश को
न पा लो, उसके
पहले संतुष्ट
मत हो जाना
उससे पहले
तृप्त मत हो
जाना। दिव्य
असंतोष को
अपने भीतर आग
की तरह जलने
देना, ताकि
एक दिन
तुम्हारे अथक
प्रयास से
ध्यान का दीपक
जले, और
अंत में केवल
शाश्वत
प्रकाश ही रह
जाए।
'उसे
वशीभूत करने
से, उच्चतर
चेतना के
प्रकाश का
आविर्भाव
होता है।’
जब यह
तीनों—एकाग्रता, ध्यान और
समाधि—सध जाती
हैं, तो
प्रकाश का
आविर्भाव
होता है। और
जब अंतर्प्रकाश
का आविर्भाव
हो जाता है तो
फिर तुम उसी प्रकाश
में जीने लगते
हो. फिर तुमको
अगर मुर्गा
शाम को भी
बांग लगाए, तो उस समय भी
भोर की घोषणा
के स्वर सुनाई
पड़ते हैं, और
मध्य रात्रि
में भी सूर्य
की रोशनी
दिखाई देने
लगती है। तब
रात्रि के गहन
अंधकार में भी
चमकता हुआ
सूर्य
उपस्थित हो
जाता है। जब
अंतर्प्रकाश
हो जाता है, तब कहीं कोई
अंधकार नहीं
बचता है। फिर
कहीं भी जाओ
अंतर्प्रकाश
तुम्हारे साथ
होता है—या कहें
कि तुम प्रकाश
हो जाते हो।
ध्यान
रहे कि
तुम्हारा मन
सदा तुम्हें
वहीं संतुष्ट
रखने की कोशिश
करता है, जहां कि तुम
हो। मन कहता
है, अब
जीवन में और
कुछ नहीं है।
मन यह भरोसा
दिलाने की सतत
चेष्टा करता
रहता है कि
तुम पहुंच ही
चुके हो। मन
दिव्य
असंतुष्टि को
आने ही नहीं
देता। और मन
हमेशा उसके
लिए तर्क खोज
लेता है। उन
कारणों को
सुनना ही मत।
वे वास्तविक
कारण नहीं
हैं। वे मन की
ही चालाकियां
हैं, क्योंकि
मन कभी भी आगे
बढ़ना, सरकना
नहीं चाहता
है। बुनियादी
रूप से मन
आलसी है। मन एक
तरह से
सुनिश्चितता
चाहता है : मन
चाहता है कि
कहीं भी अपना
घर बना लो, चाहे
कहीं भी, लेकिन
घर बना लो। बस
किसी तरह कहीं
टिक ही जाओ, लेकिन इधर
—उधर भटकते मत
रहो।
संन्यासी
होने का अर्थ
है, चेतना
में भ्रमण
करते रहना।
संन्यासी
होने का अर्थ
है, घुमक्कड़—चेतना
के जगत में
—चलते जाना, चलते जाना
और खोजते
जाना।’ऊपर
चढ़ो, ऊंची
उड़ान भरो, मंजिल
आकाश में हो, दृष्टि चांद
—तारों में
हो।’ और मन
की कभी भी मत
सुनना।
एक रात
को ऐसा हुआ एक
पुलिसवाला
देख रहा था कि एक
शराबी व्यर्थ
ही अपने घर की
चाबी को लैंप
पोस्ट में
लगाने की
कोशिश कर रहा
है।
'इससे
कुछ न होगा
भाई,' सिपाही
बोला, 'घर
में कोई है ही
नहीं।’
'यही
तो तुम गलत
सोच रहे हो,' नशे में
झूमते हुए उस
आदमी ने जवाब
दिया, 'देखो
ऊपर की मंजिल
में बिजली जल
रही है।’
मन
डांवाडोल और
नशे में है।
वह कारण बताए
चला जाता है।
वह कहता है, ' अब और
क्या बचा है?' अभी कुछ दिन
पहले एक
राजनीतिज्ञ
मेरे पास आए। वह
कहने लगे, ' अब
पाने को और
क्या है? मैं
एक छोटे से
गांव में, एक
गरीब परिवार
में पैदा हुआ
था। और अब मैं
कैबिनेट
मंत्री बन गया
हूं। अब जीवन
में और क्या
चाहिए?'
कैबिनेट
स्तर का
मंत्री? और वह पूछता
है अब जीवन
में और क्या
चाहिए? वह
अपने मंत्री
होने से
संतुष्ट है।
गांव के एक
गरीब परिवार
में पैदा होकर,
इससे अधिक
और क्या आशा
की जा सकती है?
जबकि पूरा
आकाश उपलब्ध
है, लेकिन
वे कैबिनेट
मंत्री होकर
ही संतुष्ट हैं।
इसी तरह
समाप्त मत हो
जाना। तब तक
संतुष्ट मत हो
जाना, जब
तक कि तुम
परमात्मा ही न
हो जाओ! तब तक
राह के किनारे
कुछ विश्राम
कर लेना, लेकिन
हमेशा ध्यान
रहे. यह केवल
रात का पड़ाव है,
सुबह होते
ही फिर से चल
पड़ना है। कुछ
लोग ऐसे हैं
जो अपनी
सांसारिक
उपलब्धियों
से ही संतुष्ट
हो जाते हैं।
और कुछ ऐसे
लोग भी हैं जो
अपनी
सांसारिक
उपलब्धियों
से ही संतुष्ट
नहीं हैं, लेकिन
जो पंडितों
—पुरोहितों की
दिलाई हुई आशाओं
से संतुष्ट
हैं। यह जो
दूसरी कोटि के
लोग
जिन्हें तुम
धार्मिक कहते
हो। यह लोग भी
कोई धार्मिक
नहीं हैं, क्योंकि
धर्म का कोई
संबंध कानों
से नहीं है।
कोई दूसरा व्यक्ति
तुम्हें धर्म
नहीं दे सकता,
धर्म तो
तुम्हें
अर्जित करना
होता है। धर्म
के नाम पर
पंडित—पुरोहित
केवल आशाएं और
सात्वनाएं ही
देते हैं, और
सभी
सांत्वनाएं
खतरनाक हैं ' क्योंकि वे
एक तरह की
अफीम हैं। वे
व्यक्ति को नशे
से भर देती
हैं।
ऐसा
हुआ:
प्राथमिक
चिकित्सा की
कक्षा की एक
परीक्षा में
एक पादरी से
पूछा गया (वह
भी प्राथमिक
चिकित्सा का
प्रशिक्षण ले
रहा था), ' अगर बेहोशी
की. हालत में
पड़ा कोई आदमी
आपको मिल जाए
तो आप क्या
करोगे?'
'मैं
उसे थोडी
ब्रांडी
पिलाऊंगा,' उस पादरी ने
जवाब दिया।
'और
अगर वहां पर
ब्रांडी न हो
तो?'
'मैं
उसे थोड़ी
ब्रांडी
पिलाने का
वादा करूंगा,'
पादरी ने
कहा।
पंडित—पुरोहित
हमेशा से यही
कहते आए हैं।
पंडित—पुरोहित
आश्वासन देते
हैं, वे
आश्वासन पर
आश्वासन दिए
चले जाते हैं।
वे कहे चले
जाते हैं, 'चिंता
करने की कोई
बात नहीं। दान
दो, चर्च
बनवाओ, गरीब
को पैसा दो, अस्पताल
बनवाओ, यह
करो और वह
करो।’ और
इस तरह से ये
लोग आश्वासन
दिए चले जाते
हैं।
योग
आत्म —प्रयास
है। योग में
व्यक्ति को
स्वयं अपने
ऊपर कार्य
करना होता है।
योग के पास कोई
पंडित
—पुरोहित नहीं
हैं। योग के
पास ऐसे
सदगुरु हैं, जिन्होंने
स्वयं के
प्रयास से
बुद्धत्व को पाया
है—और उनके
प्रकाश में
कोई भी
व्यक्ति स्वयं
को कैसे
उपलब्ध होना,
सीख सकता
है।
पंडित—पुरोहितों
के आश्वासनों
से बचना। पंडित—पुरोहित
इस पृथ्वी पर
सर्वाधिक
खतरनाक लोग
हैं, क्योंकि
वे तुम्हें
असंतुष्ट
नहीं होने
देते हैं। वे
सांत्वना दिए
चले जाते हैं,
और अगर बिना
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए
कोई व्यक्ति
संतुष्ट हो
जाता है, तो
उसे छला गया
है, उसे
धोखा दिया गया
है। योग का
भरोसा स्वयं
की ही कोशिश
और प्रयास में
है। योग के
अनुसार व्यक्ति
को स्वयं को
बुद्धत्व के योग्य
बनाना होता
है। परमात्मा
को पाने के लिए
स्वयं का
मूल्य चुकाना
पड़ता है।
एक बार
किसी ने
भूतपूर्व
प्रिंस ऑफ
वेल्स से पूछा, 'सभ्यता
के बारे में
आपका क्या
विचार है?
'यह
एक अच्छा
विचार है,' प्रिंस
ने जवाब दिया,
'किसी न
किसी को तो
प्रारंभ करना
ही चाहिए।’
योग
विचार नहीं है, योग तो
व्यावहारिक
है। यह तो
अभ्यास है, यह तो एक
अनुशासन है, यह तो आंतरिक
रूपांतरण का
विज्ञान है।
और स्मरण रहे,
कोई दूसरा
तुम्हारे लिए
प्रारंभ नहीं
कर सकता।
तुम्हें ही
स्वयं के लिए
इसे प्रारंभ
करना होता है।
योग स्वयं पर
विश्वास करना
सिखाता है; योग स्वयं
के ऊपर भरोसा,
आस्था और
श्रद्धा करना
सिखाता है।
योग सिखाता है
कि यात्रा
अकेले की है।
गुरु मार्ग
दिखला सकता है,
लेकिन उस पर
चलना तुम्हें
ही है।
आज
इतना ही।
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