दिनांक
4 अक्टूबर, 1974
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
एक
लंबी और थकान भरी
यात्रा में, तीन मुसाफिर
साथ हो लिये।
उन्होंने
अपने पाथेय से
लेकर सुख-दुख,
सबकी
साझेदारी कर
ली।
कई
दिनों के बाद उन्हें
मालूम हुआ कि
अब उनके पास
सिर्फ कौर भर
रोटी और घूंट
भर पानी बचा
है और वे इस
बात के लिये
झगड़ने लगे कि
यह पूरा भोजन
किसको मिले? नहीं बात
बनी, तो
उन्होंने
रोटी और पानी
को बांटने की
कोशिश की। फिर
भी वे किसी
निष्कर्ष पर
नहीं पहुंच सके।
जब
रात उतरी तब
एक ने सो जाने
का सुझाव
दिया। तय किया
कि जागने पर
वह व्यक्ति
निर्णय करेगा
जो रात में सबसे
बढ़िया स्वप्न
देखेगा।
दूसरी
सुबह
सूर्योदय के
साथ तीनों
मुसाफिर नींद
से उठे।
पहले
ने कहा, 'यह मेरा
स्वप्न है।
मैं ऐसे
स्थानों में
ले जाया गया, जिनका वर्णन
नहीं हो सकता।
वे ऐसे अपूर्व,
अदभुत और
प्रशांत थे।
और मुझे एक
ज्ञानी पुरुष
मिला, जिसने
मुझे कहा कि
तुम भोजन के
हकदार हो, क्योंकि
तुम्हारा
व्यतीत और
भावी जीवन, योग्य और
सराहनीय है।'
दूसरे
ने कहा, 'आश्चर्य की
बात है, स्वप्न
में मैंने
अपने पूरे
अतीत और
भविष्य को देखा।
और मेरे
भविष्य में
मुझे एक
सर्वज्ञ पुरुष
मिला, जिसने
कहा कि अपने
मित्रों से
बढ़कर तुम रोटी
के हकदार हो, क्योंकि तुम
अधिक विद्वान
और धैर्यवान
हो। तुम्हारा
पोषण ठीक से
होना चाहिए, क्योंकि तुम
निश्चित
मनुष्यों के
नेता बनने वाले
हो।'
तीसरे
यात्री ने कहा, 'मेरे स्वप्न
में मैंने न
कुछ देखा, न
कुछ सुना, और
न कुछ कहा।
मैंने एक दुर्निवार
वर्तमान का
अनुभव किया, जिसने मुझे
मजबूर कर दिया
कि मैं उठूं, रोटी और
पानी की तलाश
करूं और
तत्क्षण उनका
भोग करूं। और
मैंने वही
किया।'
भगवान!
इस सूफी
प्रबोध कथा को
हमें समझाने
की करुणा
करें।
मनुष्य
का मन, या तो
अतीत में
भटकता है या
भविष्य में।
और जीवन है
अभी और यहीं।
जीवन है सदा
वर्तमान।
जीवन को हम
चूकते हैं इसी
कारण कि मन
वहां होता है
जहां जीवन
नहीं। और जहां
जीवन है वहां
मन कभी होता
नहीं। तुम या
तो सोचते हो
वह जो घट चुका,
या सोचते हो
वह जो घटेगा।
जो घट चुका है
वह अब कहीं भी
नहीं, और
जो घटेगा वह
भी अभी कहीं
नहीं। है तो
केवल वही, जो
अभी है, यहीं
है, इस
क्षण है। जो न
तो घट चुका है
और न घटेगा, बल्कि जो घट
रहा है।
जरा
तुम चूके कि
उससे तुम भटक
जाओगे।
क्योंकि वर्तमान
का क्षण बड़ा
संकरा है।
अनंत का वह
द्वार है, लेकिन द्वार
बड़ा संकरा है।
जीसस ने कहा
है, 'नैरो इज दि गेट'--द्वार बहुत
संकरा है।
यद्यपि अनंत
का है। अगर तुम
उसमें कूद गये,
तो शाश्वत
जीवन
तुम्हारा
होगा। अगर तुम
उससे डांवाडोल
रहे, इस
तरफ उस तरफ
भटकते रहे, तो
क्षणभंगुर
जीवन तुम्हारा
होगा; यह
बड़ा
विरोधाभास
है। अगर
वर्तमान क्षण
में कोई उतर
जाये, तो
शाश्वत से
मिलन होता है।
और अगर
वर्तमान क्षण
से कोई चूक
जाये, तो
क्षणभंगुर से
मिलन होता है।
और
वर्तमान का
क्षण इतना
छोटा मालूम
पड़ता है, शायद
इसीलिए तुम
उसे छोड़ देते
हो। अतीत बहुत
लंबा है। भविष्य
भी बहुत लंबा
है। भ्रांति
होती है कि अतीत
और भविष्य
दोनों को मिला
दें, तो
शाश्वत बन
जाता है।
इसलिए मन
सोचता है अतीत
में जाओ, भविष्य
में जाओ, वर्तमान
में क्या रखा
है? वहां
जगह कहां? वहां
जरा सा भी तो
स्थान नहीं
है। वहां तुम
जैसे ही सजग
होते हो, वैसे
ही वर्तमान जा
चुका होता है।
द्वार का पता
चलते ही द्वार
पीछे हट जाता
है।
वहां
तो केवल वे ही
प्रवेश कर
सकते हैं, जिनके मन
में एक भी
विचार न हो।
जो इतने शून्य
हों कि चूकने
का कोई कारण
ही न बचे; एक
विचार भी चुका
देगा।
विचार
से भी ज्यादा
संकरा है
वर्तमान का
द्वार। और
समस्त ध्यान, बस एक ही बात
की कोशिश है
कि कैसे
तुम्हें पीछे
से यहां ले
आयें। कैसे
तुम्हें आगे न
जाने दें, कैसे
तुम यहीं ठहर
जाओ, कैसे
तुम थिर हो
जाओ, कैसे
निर्विचार हो
जाओ कि द्वार
तुम्हें दिखाई
पड़ जाये। और
द्वार सदा
खुला है।
विचार के कारण
आंखें बंद हैं।
यही इस सूफी
कथा का सार
है।
अब इस
कथा को हम
समझने की
कोशिश करें।
क्योंकि सूफी
जब कोई कथा
कहते हैं तो
यों ही कहानी
के लिए नहीं, मनोरंजन के
लिए नहीं, मन-बहलाव
के लिए नहीं, मन से
मुक्ति के
लिए। साधारण
कथा में और
सूफी, झेन,
हसीद, कथाओं
में यही फर्क
है। साधारण
कथा मन का
बहलाव है, मनोरंजन
है और धार्मिक
कथा, मन से
मुक्ति की
व्यवस्था है।
एक
लंबी और थकान
भरी यात्रा
में तीन
मुसाफिर साथ
हो लिए।
और
जीवन से बड़ी
लंबी और थकान
भरी क्या
यात्रा हो
सकती है? कितने
समय से तुम चल
रहे हो! और इस
यात्रा पर, लंबी यात्रा
पर, जो भी
साथ हो लेता
है वही संगी
हो जाता है।
कौन है
तुम्हारी
पत्नी? कौन
है तुम्हारा
पति? कौन
है तुम्हारा
भाई? कौन
मां, कौन
पिता? लंबी
यात्रा पर साथ
हो गये
सहयात्री!
चाहे
तुम वर्षों भी
साथ क्यों न
रहो, यह साथ, यात्रा पर
थोड़ी देर को
रास्ते पर मिल
गये लोगों का
संग-साथ है।
वर्षों भी, पूरे जीवन
भी, तुम
किसी के साथ
चलते रहो तो
भी तुम अकेले
हो। दूसरा
तुम्हारे साथ
है अपने
स्वार्थ के
लिए, तुम
भी उसके साथ
हो अपने
स्वार्थ के
लिए। तुम दोनों
एक दूसरे का
शोषण कर रहे
हो। संसार में
संग-साथ शोषण
की व्यवस्था
से ज्यादा कुछ
भी नहीं।
और
इसलिए मित्र
का पता दुख
में चलता है, सुख में
नहीं। सुख को
तो बांटने को
सभी राजी हैं।
दुख को बांटने
को कौन राजी
है? दुख
में सभी मित्रतायें
टूट जाती हैं।
जैसे-जैसे दुख
गहरा होता है,
वैसे-वैसे
मित्र हटते
जाते हैं।
दुखी आदमी बिलकुल
अकेला रह जाता
है। इसलिए दुख
बड़ा उदघाटक
है। अकेला
होना अगर सत्य
है तो दुख बड़ा उदघाटक
है। सुख में
तुम भटकते हो,
क्योंकि
सुख में साथी
होते हैं। और
साथी भ्रम देते
हैं कि तुम
अकेले नहीं हो,
हम साथ हैं।
दुख में कोई
तुम्हारा
साथी है?
और यह
जरा समझने की
बात है। सुख
तो ऊपर-ऊपर है, उसे बांटा
भी जा सकता
है। दुख को
बांटने का भी
उपाय नहीं।
तुम्हारे पास
धन हो, तो
तुम बांट सकते
हो, निर्धनता
कैसे बांटोगे?
क्योंकि
निर्धनता तो
केवल अभाव है,
कैसे
बांटोगे तुम
अभाव को? दुख
तो अभाव है।
इसलिए दुख में
अचानक तुम
अकेले रह जाते
हो। तुम्हारे
निकट भी कोई
खड़ा हो, तो
भी तुम्हारे
दुख को नहीं
बांट सकता।
कितनी ही
सहानुभूति
प्रगट करे, कितनी ही
सांत्वना दे,
फिर भी तो
तुम्हारे दुख
को कोई नहीं
बांट सकता।
इसलिए
दुख बड़ा कीमती
है, उसे
मुफ्त मत गंवा
देना। दुख में
तुम्हें पता चलता
है कि तुम
अकेले हो। कोई
साथ नहीं।
इसीलिए तो दुख
में तुम
परमात्मा को
याद करते हो, सुख में लोग
भूल जाते हैं।
क्योंकि सुख
में यहीं साथी
मिल जाते हैं;
उस बड़े साथी
को पुकारने की
क्या जरूरत!
दुख में तुम
इतने अकेले हो
जाते हो कि
प्रार्थना
उठने लगती है।
जुन्नैद
कहा करता था, 'हे परमात्मा
मुझे सुख मत
देना, क्योंकि
सुख में मैं
अक्सर तुझे
भूल गया हूं। तू
मुझे दुख दिए
जाना, क्योंकि
दुख में ही
तेरी तरफ मेरे
प्राण बहते हैं।'
लेकिन
दुख में अगर
परमात्मा की
तरफ प्रार्थना
हो रही हो, तो फिर
तुमने
संगी-साथी की
तलाश शुरू कर
दी। एक
काल्पनिक
साथी तुमने
खोज लिया। अब
तक जो साथी थे,
वे भी
काल्पनिक थे,
कौन पत्नी
है? कौन
पति है? क्या
है संबंध? सिवाय
कल्पना के और
क्या है! कोई
सात चक्कर लगा
लेने से, कोई
गले में माला
डाल देने से, कोई
पति-पत्नी हो
जायेगा?
ये तो
सारी औपचारिकतायें
हैं, जिनसे
भ्रांति पैदा
होती है, जिनसे
लगता है संबंध
पक्का हो गया।
अदालत भी
सील-मुहर लगा
दे तो भी
संग-साथ पक्का
नहीं होता। ये
तो सिर्फ ऊपर
के धोखे हैं, जिनसे
तुम्हें
एहसास होने
लगता है, भ्रांति
होने लगती है
कि अब संग-साथ
पक्का हुआ।
अदालत की मुहर
लग गई, समाज
ने कह दिया, विवाहित हो
गये। लेकिन, कल्पना का
ही संबंध है।
क्या
है तुम्हारा
प्रेम? कहां
से पैदा होता
है? गौर
करोगे तो
पाओगे
तुम्हारी
कल्पना से ही
उसका जन्म है,
तुम्हारे
सपनों से ही
पैदा होता है।
उस प्रेम का
तो तुम्हें
कोई भी पता
नहीं है जो
सत्य से पैदा
होता है।
तुम्हें सत्य
का ही पता
नहीं; सत्य
के द्वार को
तो तुम चूकते
ही चले जाते
हो।
इसलिए
मैं कहता हूं:
केवल बुद्ध, क्राइस्ट और
कृष्ण प्रेम
कर सकते हैं, तुम प्रेम
नहीं कर सकते।
क्योंकि
प्रेम तो परम-स्थिति
में ही संभव
है। अभी तो
तुम कल्पना कर
रहे हो; अभी
तो तुम उस
भिखारी की तरह
हो जो सपना
देख रहा है कि
मैं सम्राट हो
गया। लेकिन
सपने में सब
भूल जाता है और
लगता है, सपना
सच है।
तुम्हारा
संग-साथ सपना
है। फिर जब
दुख में यह टूटता
है, तो तुम एक
नया सपना खड़ा
करते हो कि
परमात्मा साथ
है। कोई भी न
हो साथ, तो
भी प्रभु मेरे
साथ है; वह
भी तुम्हारी
कल्पना है।
परमात्मा
का साथ मिलता
है, लेकिन
कल्पना से
नहीं।
परमात्मा का
साथ मिलता है
जब सब कल्पना
छूट जाती है।
जब तुम ठहर
जाते हो; मन
कहीं जाता ही
नहीं, कोई
यात्रा पर
नहीं निकलता,
जहां सब
यात्रा रुक
जाती है, तत्क्षण
साथ मिल जाता
है। लेकिन वह
साथ बड़ा अनूठा
है, क्योंकि
उसमें दो नहीं
होते; यही
कसौटी है।
जब तक
दो हों, समझना
कि साथ कल्पना
का है। जब एक
ही रह जाये, या तो तुम
बचो परमात्मा
न बचे, या
परमात्मा बचे
तुम न बचो। एक
ही बचे भीतर, तभी संग-साथ
पक्का हुआ; अब इसे कोई
भी न तोड़
सकेगा। जब एक
ही बचा तो कौन अलग
करेगा? जब
तक दो हैं तब
तक तो अलग
होने की
गुंजाइश बनी
है, तुम
बार-बार अलग
होओगे। फिर
सुख आ जायेगा,
फिर तुम
परमात्मा से
छूट जाओगे; फिर दुख आ
जायेगा, फिर
परमात्मा से जुड़ोगे।
एक ऐसा
जोड़ भी है, जो टूटता
नहीं, वह
जोड़ अद्वैत का
है।
एक
लंबी और थकान
भरी यात्रा पर
तीन मुसाफिर
साथ हो लिए।
उन्होंने अपने
पाथेय से लेकर
सुख-दुख सबकी
साझेदारी कर ली।
यही तो
हम कहते हैं
एक दूसरे से
कि सुख-दुख
में साथी
होंगे। होते
हम सुख के ही
साथी हैं। दुख
में साथ होंगे
यह सिर्फ
बहाना है, कहते हैं, क्योंकि दुख
में साथ कोई
हो नहीं सकता।
दुख नितांत
निजी है।
सांत्वना, मलहम-पट्टी
कोई कर सकता
है, उससे
भी थोड़ी राहत
मिलती है।
लेकिन, राहत
मुक्ति नहीं
है।
उन
तीनों
यात्रियों ने
कहा, सुख-दुख
में हम सब
साझेदार
होंगे, बांटेगे,
साथ होंगे,
अकेले हम
नहीं हैं। कई
दिनों के बाद
उन्हें मालूम
हुआ कि अब
उनके पास
सिर्फ कौर भर
रोटी और घूंट
भर पानी बचा
है।
बस!
उसी दिन
संग-साथ टूटने
की घड़ी आ गई।
जब तक सब ठीक
था तब तक
दोस्ती थी, अब बड़ी
मुसीबत हो गई।
अब तक वे एक
दूसरे की चिंता
करते मालूम
पड़ते थे, अब
पता चला कि
अपने
अतिरिक्त कोई
किसी की चिंता
नहीं करता।
दुख में ही
तुम पहचानोगे,
कौन
तुम्हारा
साथी है।
इसलिए
शास्त्र कहते
हैं गुरु के
अतिरिक्त और
कोई साथी
नहीं।
क्योंकि गुरु
से तुम्हारा
साथ तभी बनता
है जब तुम
परम-दुख में
पड़ जाते हो।
सुख में तो
कोई गुरु को
खोजता नहीं, दुख में लोग
गुरु को खोजते
हैं। जब तुम
बहुत दुखी हो
जाते हो, जब
तुम्हारे
साधारण संबंध
तुम्हें किसी
तरह का संतोष
नहीं दे पाते,
जब तुम पाते
हो भरे बाजार
में बिलकुल
अकेले हो, भीड़
है जरूर चारों
तरफ, लेकिन
भीतर सूनापन
है; तब तुम
गुरु को खोजते
हो।
ये
तीनों अब तक
साथ थे। आज
अड़चन हो गई, क्योंकि एक
कौर रोटी और
एक घूंट पानी
बचा; किसी
मरुस्थल में
होंगे, जहां
न पानी का
उपाय है, न
जहां रोटी का
उपाय है। वे
इस बात के लिए
झगड़ने लगे कि
अब पूरा भोजन
किसको मिले? अब इसे तीन
बांट नहीं
सकते थे। अगर
प्रेम होता तो
तीनों ने
कोशिश की होती
कि दूसरा इसे
ले ले।
प्रेम
का लक्षण ही
यही है कि वह
दान है। और
जहां सवाल
उठेगा बचाने
का, प्रेम
दूसरे को पहले
बचाना
चाहेगा।
प्रेम अपने को
मिटा सकता है,
प्रेम
कुर्बानी है।
लेकिन इस कठिन
घड़ी में पता
चला कि तीनों
अपने को बचाने
में लगे हैं।
तुम भी
जरा गौर करना, जिनसे
तुम्हारा साथ
है, मित्रता
है, प्रेम
है, अगर
कठिन घड़ी होगी
तो वे अपने को
बचाने में लगेंगे
या तुम्हें
बचाने में
लगेंगे? तुम
अपने को बचाने
में लगोगे या
उन्हें बचाने में
लगोगे? घर
में अगर आग लग
जाये तो
पति-पत्नी
दोनों भाग कर
बाहर निकल
जाते हैं। पति
भूल जाता है
उस क्षण में
कि पत्नी को
साथ ले लेना
है; पत्नी
भूल जाती है
कि पति का
क्या हुआ? दोनों
को बाहर जाकर
याद आती है।
लेकिन जब घर
में आग लगी हो
तो तुम अपने
को बचाना
चाहते हो। दुख
ही तुम्हें बतायेगा
कि तुम्हारा
जीवन अहंकार
से ऊपर उठा है
या नहीं। सुख
में कोई पता न
चलेगा, सुख
तो बड़ी गहरी
नींद है।
आज वे
तीनों
अपने-अपने को
बचाने का
विचार करने
लगे। एक ही बच
सकता था; वह
भी एक ही दिन
बच सकता था।
मगर एक दिन की
भी आशा बड़ी
है। और तीनों
ने एक दूसरे
को तर्क दिए
कि मेरा बचना
क्यों जरूरी
है!
नहीं
बात बनी, तो
उन्होंने
रोटी और पानी
को बांटने की
कोशिश की।
लेकिन
बांटने योग्य
बचा भी क्या
था? बंट जाये
तो कुछ भी न
मिलेगा।
फिर भी
वे किसी
निष्कर्ष पर न
पहुंच सके।
क्या
हुआ विवाद? विवाद यह था
कि मैं तुमसे
ज्यादा योग्य
हूं, मुझे
बचने दो। यही
तो पूरी
जिंदगी में हो
रहा है। हर
आदमी अपने को
बचाने में लगा
है। तुम खुद
ही सोचो, अगर
ऐसा विकल्प आ
जाये कि सारी
दुनिया मिटे
तो तुम बच सकते
हो; अगर
सारी दुनिया
को बचाना हो
तो तुम्हें
मिटना पड़ेगा।
तो भी
तुम्हारा
भीतर कहेगा कि
खुद को बचा लो,
सारी
दुनिया को
मिटने दो।
सारी दुनिया
की कीमत पर भी
तुम बचना
चाहते हो।
अगर
ऐसी भावदशा
है, इसी भावदशा
को महावीर ने,
बुद्ध ने
हिंसा कहा है।
हिंसा का अर्थ
है: दूसरे की
कीमत पर स्वयं
को बचाना। और
अहिंसा का
अर्थ है: कोई
भी कीमत हो, दूसरे को
बचाने की
चेष्टा!
अहिंसा बड़ी
कठिन घटना है,
करीब-करीब
असंभव। केवल
वे ही लोग
अहिंसक हो सकते
हैं, जो उस
जगह पहुंच गये
हैं जहां
मिटना मिट ही
जाता है। जहां
वे जानते हैं
सब खो दो, तो
भी कुछ मिटेगा
नहीं, तुम
बचोगे। जब तक
तुम्हें डर है
मिटने का, तब
तक तुम अहिंसक
नहीं हो सकते।
तुम कितना ही पानी
छान कर पीओ, पैर फूंक कर
रखो, रात
भोजन मत करो, कोई फर्क न
पड़ेगा। और ये
सब तरकीबें
अगर तुम गौर
से सोचोगे, तो बचने की
ही तरकीबें
हैं। तुम डरे
हुए हो कि
कहीं दूसरे
लोक में, नर्क
में न सड़ना
पड़े! दूसरे
लोक में
स्वर्ग मिल
जाये, सुख
मिले।
अब यह
थोड़ा समझ लेने
जैसा है कि जब
तक तुम सुख चाहते
हो, तब तक तुम
कैसे अहिंसक
हो सकोगे? जिस
दिन तुम दुख
के लिए राजी
हो जाओगे, जिस
दिन तुम्हें
दुख दुख जैसा
न भासेगा,
जिस दिन सुख
का सारा सपना
टूट जायेगा और
तुम समझ लोगे
इसमें कुछ भी
सार नहीं है, राख ही राख
है; उस दिन
ही तुम केवल
अहिंसक हो
सकोगे। इसलिए
चारों तरफ
तुम्हें जो
अहिंसक दिखाई
पड़ते हैं, उनकी
अहिंसा बड़ा
भुलावा है।
मैंने
सुना है, एक
यहूदी कथा है
वह मैं तुमसे
कहूं। मैंने
सुना है, एक
बड़ी धार्मिक
बिल्ली थी।
बिल्ली थी और
बिल्ली आमतौर
से चालाक होती
है। चालाक लोग
धार्मिक हो
जाते हैं।
क्योंकि
धार्मिकता
तुम्हारी बड़ी
चालाकी है।
तुम कहते जरूर
हो कि यह
गैर-सांसारिक
है, लेकिन
अगर गौर करोगे,
तो
तुम्हारा
धर्म
तुम्हारे
संसार का ही
फैलाव है, वह
एक बड़ी
दूकानदारी है,
वह एक
पारलौकिक
स्वार्थ है।
वह दूर तक का
इंतजाम है।
बिल्ली
बड़ी धार्मिक
थी और दिन-रात
माला हाथ में
लिए बैठी रहती
थी। शाकाहारी
थी दिन में।
रात में
मांसाहारी हो
जाती थी। रात
में पास-पड़ोस के
चूहे मार आती
थी, वह भी दया
के वश कि अगर
मैं चूहे न मारूंगी
तो पास-पड़ोस
के लोग चूहों
से बड़े परेशान
होंगे।
अधार्मिक मन
अधार्मिक ही
रहेगा। वह
धर्म की आड़
में भी अपने
लिए हिसाब खोज
लेगा। सिर्फ पड़ोसियों
की सेवा की
दृष्टि से रात
को वह जाकर
मार आती थी।
खुद जिस घर
में रहती थी
उस घर में तो
चूहे भी नहीं
मारती थी, क्योंकि
दाग छूट जाये,
निशान आ
जाये, तो
लोगों को पता
चल जायेगा कि
बिल्ली
धार्मिक नहीं
है।
जिनको
तुम धार्मिक
कहते हो उनका
भी एक घेरा होता
है, उसमें वे
धार्मिक होते
हैं, उसके
बाहर नहीं।
उसके बाहर तुम
उन्हें देखो,
तुम उन्हें
पक्का
अधार्मिक
पाओगे। मंदिर
में तुम देखो,
वे माला जप
रहे हैं; दूकान
पर तुम उन्हें
देखो, वे
जेब काट रहे
हैं। जितनी
कुशलता से
माला पर उनके
हाथ फिरते हैं,
उससे भी
ज्यादा
कुशलता से वे
जेब काटते
हैं। तुम उनकी
शकल मंदिर में
देखो और दूकान
में तुम पहचान
न पाओगे कि
शकल एक ही
आदमी की है।
घर के
लोग भी मानते
थे, क्योंकि
उन लोगों को
दिन का ही
चेहरा दिखाई
पड़ता है।
पास-पड़ोस के
लोग भी मानते
थे कि बिल्ली बड़ी
धार्मिक है; ऐसी बिल्ली
कभी देखी
नहीं। उसका
बड़ा सम्मान था,
लोग झुक-झुक
कर नमस्कार
करते थे।
लेकिन
एक दिन बड़ी
मुसीबत हुई।
घर के लोग एक
तोते को ले आये।
और वे
निश्चिंत थे
कि बिल्ली
धार्मिक है, शाकाहारी
है। तोते ने
आते ही से गीत
गाना शुरू कर
दिया, बिल्ली
बड़ी नाराज
हुई। उसने कहा
यह उपद्रव आ गया
घर में। अब
मेरी माला
फेरना, ध्यान
करना, जपत्तप सबमें बाधा
पड़ेगी; यह
तोता बड़ा
अधार्मिक
मालूम होता
है। फिर उसने सोचा
कि न केवल यह
अधार्मिक है,
बल्कि जिस
ढंग के बेहूदे
गीत गा रहा
है...कामुक मालूम
होता है।
शैतान ने इसको
पकड़ा हुआ है, वही इसके
कंठ से ऐसी
कामुकता पैदा
करवा रहा है।
रात होते तक
उसने अपने को
पक्का भरोसा
दिला लिया कि
इसका अंत करना
इसके ही हित
में है, क्योंकि
शैतान इसे पकड़े
हुए है। और जब
तक इसका इस
शरीर से
छुटकारा न हो तब
तक शैतान से
छुटकारा न
होगा।
रात
उसने झपट्टा
मार दिया।
सारे पंख नोच
डाले, सब
कमरे में खून
फैल गया। सुबह
उस बिल्ली की
बड़ी पिटाई
हुई। वह तोते
को खा गई। उसे
बड़ा पश्चात्ताप
भी हुआ।
पश्चात्ताप
तोते को खाने
से नहीं हुआ, वह तो
धार्मिक
कृत्य था।
यही तो
दुनिया के
धार्मिक लोग
कर रहे हैं।
मुसलमान
हिंदुओं को
मार रहे हैं; हिंदू
मुसलमानों को
मारना चाहते
हैं। ईसाई मुसलमान
की हत्या करना
चाहते हैं; मुसलमान
ईसाई को मिटा
देना चाहते
हैं। सारे धार्मिक
लोग! पर उनकी भी
अगर तुम भाषा
समझो तो
बिल्ली की ही
भाषा है।
मुसलमान
हिंदू को
इसीलिए तो
मारना चाहता
है कि यह
अधार्मिक, अगर
अधार्मिक रह
गया तो नरक
में सड़ेगा।
इसको धार्मिक
बनाना जरूरी
है। अगर बन
जाये जीते जी,
तो ठीक; अन्यथा
यह भी इसी के
हित में है कि
कम से कम धर्म
के मार्ग पर
मरा। इसका
छुटकारा
दिलाना जरूरी
है।
पश्चात्ताप
उसे हुआ; इसलिए
नहीं कि उसने
तोते को मार
डाला। पश्चात्ताप
उसे हुआ कि
गलती यह हो गई
कि मुझे पंख
सारे घर में
नहीं फैलाने
थे और खून के
दाग फर्श पर पड़
गये, फर्श
कीमती है। घर
के लोग इसीलिए
नाराज हैं, दुबारा
स्मरण रखना
जरूरी है।
तोता
फिर दूसरा
बाजार से खरीद
के लाया गया।
रात उसने फिर
हमला किया।
लेकिन वह पूरे
तोते को लील
गई; न तो उसने
पंख तोड़े, न
फर्श पर खून
की अब बूंद
गिरने दी। और
वह बड़ी प्रसन्न
हुई कि अब घर
के लोग बड़े
आनंदित
होंगे। और
तोतों को
मुक्ति
दिलाना
बिल्लियों का
कर्तव्य ही
है। एक आत्मा
इस नारकीय
शरीर से मुक्त
हुई, रहता
इस शरीर में
तो कुछ न कुछ
पाप करता; अब
कोई पाप करने
को न बचा।
सुबह
उसकी फिर
पिटाई हुई।
उसे समझना बड़ा
मुश्किल हुआ।
लेकिन अब उसे
समझ में आया
कि हो न हो, पंखों के
कारण नहीं पीटी
गई थी, न खून
के दाग के
कारण--ये घर के
लोग तोते को
मारने के पक्ष
में नहीं हैं।
तो आगे स्मरण
रखना है, अब
तोते को छूना
ही नहीं है।
फिर
तीसरा तोता
लाया गया।
बिल्ली ने उसे
मुस्कुरा कर
देखा। वह
मुस्कुराहट
वैसी ही थी
जैसी धार्मिक
लोगों की
मुस्कुराहट
होती
है--झूठी। उसने
बड़े आशीर्वचन
भी कहे माला
हाथ में लिए, वे वैसे ही
थे जैसे
तथाकथित
साधुओं के
होते हैं।
उसने अपने मन
को सब तरह
समझाने की
कोशिश की कि
रहने दो यह
नारकीय है, खुद भटकेगा,
हमारा क्या बिगड़ता है?
लेकिन रात
तोते के पास
पहुंची।
पक्का निर्णय था
कि अब इसको
मारना नहीं
है। लेकिन फिर
भी इसे कुछ
उपदेश देना तो
जरूरी है। तोते
के सींकचे के
पास वह गई और
उसने कहा कि
सुन, ये
गीत कामुक हैं
जो तू गा रहा
है; और ये
आकाश की तरफ
आंख उठा कर जो
बातें तू करता
है ये बेहूदी
हैं और
अधार्मिक
हैं।
क्योंकि
धार्मिक
लोगों को
प्रसन्नता
सदा अधार्मिक
मालूम पड़ती
है। गीत सदा
अधार्मिक
मालूम पड़ते हैं, संगीत सदा
नरक का द्वार
मालूम पड़ता
है। उदासी, लंबे चेहरे,
रोते हुए
मुर्दा लोग, उन्हें लगते
हैं कि धर्म
है।
बिल्ली
को पास आया
देख कर तोता
एकदम कंपने
लगा, फड़फड़ाने लगा।
बिल्ली ने कहा,
'तो अच्छा
भला है तू, कोई
हर्जा नहीं, फड़फड़ाने से कोई हर्ज
नहीं है, तड़फड़ाने से कोई हर्ज
नहीं है।
लेकिन अपने को
बदल। और अगर
तू भयभीत हो
रहा है, तो
यह अच्छा
लक्षण है।
क्योंकि जो
परमात्मा से
भयभीत होते
हैं वही उस तक
पहुंच पाते
हैं। और मैं
इस स्थिति में
तेरी थोड़ी
सहायता
करूंगी।'
उसने
एक पंजा अंदर
डाला ताकि
तोता और फड़फड़ा
सके और फिर
उसने कहा कि न
मारने का तो
मैंने तय ही
कर लिया है; तुझे मारूंगी
नहीं, लेकिन
तुझे हिलाने
में तो कोई
हर्जा नहीं
है। उसने तोते
को खूब
हिलाया। वह
हिलाने से
तोता मर गया।
और जब तोता मर
गया तो बिल्ली
ने सोचा कि घर
के लोग हिंसा
के विपरीत हैं
कि किसी को
मारना नहीं, लेकिन मरे
हुए को खाने
में तो कोई
हर्ज नहीं।
ऐसी
घटना बौद्धों
के इतिहास में
घटी। सारे बौद्ध
मांसाहार कर
रहे हैं, उनको
यह बिल्ली की
कहानी पढ़नी
चाहिये। वह
घटना बड़ी
हैरानी की है।
एक बौद्ध भिक्षु
भीख मांगने
गया। बुद्ध मांसाहारी
नहीं थे। और
बुद्ध चाहते
नहीं थे कभी कि
भिक्षु
मांसाहारी
हो।
एक
भिक्षु भोजन
मांगने गया।
आकाश में उड़ती
एक चील के
मुंह से एक
मांस का टुकड़ा
उसके भिक्षापात्र
में गिर
गया--संयोग की
बात! वह बड़ा
मुश्किल में पड़ा, क्योंकि
नियम था बुद्ध
का कि जो भी
लोग भिक्षापात्र
में डाल दें, उसको बिना
चुनाव के
भिक्षु को
स्वीकार कर
लेना चाहिए।
और
नियम अच्छा
था। नहीं तो
मिठाइयां
भिक्षु चुन
लेंगे, साग-सब्जी,
रूखा-सूखा
फेंक देंगे।
चुनाव नहीं
करना है, जो
भी भिक्षापात्र
में पड़ जाये, चार-छः घरों
से जो भी मिल
जाये, उस
सबको वैसे ही
स्वीकार कर
लेना है।
उस
भिक्षु ने कहा, यह तो बड़ी
मुश्किल हुई।
यह जो मांस का
टुकड़ा गिर गया,
इस पर नियम
लागू होगा कि
नहीं? इसको
स्वीकार करना
है कि नहीं? वह आया और
उसने बुद्ध को
संघ में पूछा
कि मैं क्या
करूं? मेरे
भिक्षापात्र
में एक मांस
का टुकड़ा गिर
गया है। नियम
के हिसाब से
इसे मैं खाऊं
या फेंक दूं?
बुद्ध
चुप रहे थोड़ी
देर और
उन्होंने
सोचा। सोचा
उन्होंने कि
अगर मैं कहूं
कि इसे फेंक
दो, तो एक
व्यवस्था मिल
जायेगी सदा के
लिए कि भिक्षु
निर्णय कर
सकता है कुछ
चीजें छोड़ने
को। अभी तो
मैं हूं, कल
मैं नहीं
रहूंगा। और यह
नियम सदा के
लिए हो जायेगा
और तब मुसीबत
होगी। भिक्षु
मिठाइयां खा
लेंगे, साग-सब्जियां,
अच्छी पूड़ियां
ले लेंगे; बाकी
जो है, फेंक
देंगे। उससे
भोजन की भी
हानि होगी और
भिक्षु स्वाद
की तरफ
लोलुपता से
बढ़ेगा।
फिर
बुद्ध ने सोचा, और यह मांस
का टुकड़ा जो
गिर गया है
चील के मुंह
से, यह कोई
रोज घटनेवाली
घटना नहीं है।
यह फिर कोई
दुबारा घटेगी
इसका भी कोई
कारण नहीं है।
इसलिए उचित
यही है कि नियम
न तोड़ा जाये।
और उन्होंने
कहा कि नियम
तोड़ने की कोई
जरूरत नहीं, चीलें
रोज-रोज मांस
के टुकड़े नहीं
गिरायेंगी,
जो भी भिक्षापात्र
में आ जाये
उसे ले लो।
मांसाहार
इस तरह शुरू
हुआ। अब बौद्ध
भिक्षु जाता
है, आप मांस
डाल दें वह ले
लेता है। जब
वह ले लेता है
मांस, तो
धीरे-धीरे लोग
उसे मांस देने
लगे। और जिन घरों
से मांस मिलता
है, उन्हीं
घरों में वह
मांगने पहुंच
जाता है।
फिर
बुद्ध ने कहा
कि मार कर
खाना हिंसा
है। मरा हुआ
जानवर हो, उसके
मांसाहार में
कोई हिंसा
नहीं है। बात
बिलकुल ठीक
है। क्योंकि
मारने में
हिंसा है। अब कोई
जानवर मर ही
गया उसके
मांसाहार में
क्या हिंसा है?
कोई हिंसा
नहीं है। तो
आज चीन, जापान,
बर्मा, लंका,
श्याम, सारे
बौद्ध
मुल्कों में;
जैसे हमारे
यहां लिखा
रहता है, 'असली
शुद्ध घी यहां
मिलता है,' वहां
लिखा रहता है
मांस की
दूकानों पर कि
'यहां मरे
हुए मांस को
ही बेचा जाता
है। मरे हुए
जानवर का मांस
ही यहां मिलता
है।' अब
इतने जानवर न
तो मरते हैं, लेकिन इससे
भिक्षु को
क्या प्रयोजन?
बौद्ध को क्या
प्रयोजन? तख्ती
जब साफ लिखी
है--वह
दूकानदार का
काम है कि वह
मार कर लाता
है, कि
कैसे लाता है!
इतना मांस
कहां से आता
है? करोड़ों
लोग मांसाहार
करते हैं, सारा
बौद्ध-धर्म
मांसाहार से
भर गया। एक
छोटी सी चील
ने वह काम
किया जो बुद्ध
न कर पाए।
आदमी
अपने मन का हिसाब
खोज लेता है
हर जगह से। उस
बिल्ली ने
सोचा, मरे
हुए को खाने
में क्या हर्ज
है! वह तोते को
खा गई।
तुम इस
बात को स्मरण
रखना कि तुम
जो कर रहे हो, तुम जो तर्क
दे रहे हो, तुम
जो बहाने खोज
रहे हो, वे
बहाने
तुम्हारी
अचेतन-वृत्तियों
से तो नहीं
आते? अगर
अचेतन-वृत्तियों
से आते हैं तो
सजग होकर उनको
पहचानना, क्योंकि
वे सिर्फ
बहाने हैं--वे
तर्क, तर्र्क नहीं हैं।
वे झूठे तर्क
हैं।
इन
तीनों
आदमियों ने
तर्क देना
शुरू किया कि
मैं तुमसे
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हूं संसार के
लिए। मेरा
बचना ज्यादा
जरूरी है
लोकहित के
लिए। अगर मैं
बचूंगा तो
संसार का
ज्यादा
कल्याण होगा
बजाय तुम्हारे
बचने के।
इसलिए यह जो
आखिरी भोजन और
पानी है, मुझे
दे दिया जाए।
निर्णय
न हो सका, क्योंकि
तीनों को यही
खयाल था। सभी
को यही खयाल
है संसार में
कि मेरा बचना
संसार के
कल्याण के लिए
आवश्यक है।
सीधी बात यह
है कि तुम बचना
चाहते हो।
बाकी बहाने मत
आस-पास खड़े
करो। जीवेषणा
प्रत्येक के
भीतर छिपी
है--कीड़े-मकोड़ों
से लेकर आदमी
तक, हरेक
बचना चाहता
है।
महावीर
ने कहा है कि
जीवेषणा, जीने
की जो इच्छा
है, वही
बंधन का मूल
कारण है।
लेकिन बहाने
तुम कई खोजते
हो। तुम कहते
हो मैं इसलिए
जी रहा हूं, वैसे तो
मेरी कोई अब
इच्छा नहीं
रही, लेकिन
छोटे बच्चे
हैं वे बड़े हो
जायें। कि पत्नी
है, इसका
भरण-पोषण कौन
करेगा? कि
जो शुभ कार्य
जो मुझसे हो
रहे हैं, वे
सब बंद हो
जायेंगे, इसलिए
मैं खींच रहा
हूं।
जैसे
कि जीवन को भी
तुमने एक
कर्तव्य बना
लिया है। वह
भी तुम्हारी
एक चेष्ठा
है, जो तुम
लोकहित के लिए
कर रहे हो; सेवा
के लिए जी रहे
हो।
राजनीतिज्ञों
से पूछो, वे
पदों पर बैठे
हैं, वे
कहते हैं आपकी
सेवा के लिए
इन पदों पर
रहना जरूरी
है। सेवा कैसे
करेंगे अगर
पदों पर न
होंगे। पद पर
होने की
आकांक्षा है,
सेवा बहाना
है।
उन
तीनों
आदमियों ने
तर्क दिये, लेकिन किसी
निष्कर्ष पर न
पहुंच सके।
क्योंकि
निष्कर्ष कौन
निकाले? उन्हीं
तीनों को
निष्कर्ष
निकालना था।
जब रात
उतरी तब एक ने
सो जाने का
सुझाव दिया।
दिन भर
बीत गया कोई
हल न हो सका।
तय
किया कि जागने
पर वह व्यक्ति
निर्णय करेगा जो
रात में सबसे
बढ़िया स्वप्न
देखे।
कोई और
उपाय नहीं
दिखता, निर्णय
कैसे हो? तो
रात हम सो
जायें और सुबह
जो सबसे बढ़िया
स्वप्न की खबर
देगा वही
निर्णय
करेगा।
दूसरी
सुबह
सूर्योदय के
साथ तीनों
मुसाफिर नींद
से उठे।
देखना, मन बड़ा
बेईमान है। ये
सपने
उन्होंने
देखे नहीं
होंगे, जो
उन्होंने
सुबह कहे। ये
सपने मनगढ़ंत
हैं।
पहले
ने कहा, 'यह
है मेरा
स्वप्न। मैं
ऐसे स्थानों
में ले जाया
गया जिनका
वर्णन नहीं हो
सकता, अवर्णनीय!
जैसे स्वर्ग
की यात्रा पर
गया हो। वे
ऐसे अदभुत और
प्रशांत थे कि
शब्द में उनको
कहा नहीं जा
सकता, और
मुझे एक
ज्ञानी-पुरुष
मिला। जिसने
कहा, तुम
भोजन के हकदार
हो। क्योंकि
तुम्हारा व्यतीत
और भावी जीवन
योग्य और
सराहनीय है।'
भूखा
आदमी रात सोये, स्वर्ग के
सपने नहीं देख
सकता। भूखा
आदमी सोये, ज्ञानी-पुरुषों
से नहीं मिल
सकता। यह सपना
झूठ है, यह
आदमी गढ़
रहा है। और
साफ है बहाना।
स्वर्ग ले
जाया गया, ऐसे
दर्शन हुए
स्थानों के, जिनको
शब्दों में
कहना कठिन है।
ऐसी ऊंचाइयों
पर भी
ज्ञानी-पुरुष
मिले, उन्होंने
भी लेकिन कहा
यही कि भोजन
के हकदार तुम
हो, क्योंकि
तुम्हारा
अतीत
गौरवपूर्ण, तुम्हारे
भविष्य की बड़ी
संभावनायें
हैं।
ध्यान
रहे, तुम्हारा
मन जो चाहता
है वही तुम
स्वर्ग में भी
पाओगे।
तुम्हारा मन
जो चाहता है
वही तुम बुद्ध-पुरुषों
की वाणी से भी
अर्थ निकाल
लोगे। अब
ज्ञानी-पुरुष
को भोजन से
क्या
लेना-देना? लेकिन
ज्ञानी-पुरुषों
से भी तुम वही
व्याख्या कर
लेते हो जो
तुम्हारी
आकांक्षा है,
वासना है।
तुम अपनी ही
वृत्तियों को
ज्ञानी-पुरुषों
से भी समझ कर
लौट आते हो।
तुम उन्हें भी
झूठ कर देते
हो। यह सपना
झूठा है। यह
सपना गढ़ा
हुआ है। लेकिन
भोजन के लिए
जरूरी है यह
तर्क देना।
दूसरे
ने कहा, 'आश्चर्य
की बात है।
स्वप्न में
मैंने अपने पूरे
अतीत और
भविष्य को
देखा। और मेरे
भविष्य में
मुझे एक
सर्वज्ञ-पुरुष
मिला जिसने
कहा, अपने
मित्रों से
बढ़कर तुम रोटी
के हकदार हो, क्योंकि तुम
अधिक विद्वान
और धैर्यवान
हो, तुम्हारा
पोषण ठीक से
होना चाहिए।
क्योंकि तुम
निश्चित ही
मनुष्यों के
नेता बनने
वाले हो।'
तीसरे
यात्री ने कहा, 'मेरे स्वप्न
में मैंने न
कुछ देखा, न
कुछ सुना और न
कुछ कहा।'
तीसरा
आदमी सच्चा
है।
'मैंने
एक दुर्निवार
वर्तमान का
अनुभव किया।'
मेरी
हालत तो बड़ी
दूसरी है, सपना आया ही
नहीं
वस्तुतः।
भूखा आदमी सोयेगा
कैसे? सपने
देखने के लिए
पेट भरा हुआ
चाहिए।
क्योंकि
स्वप्न केवल
नींद में आ
सकता है। भूखे
आदमी को कैसी
नींद! उपवास
करो, पता
चलेगा कि रात
नींद खो जाती
है।
यह
आदमी सच्चा है
और यह कह रहा
है कि मैंने
तो एक दुर्निवार
वर्तमान का
अनुभव किया। न
तो मैं अतीत
की मुझे याद
आई, न मुझे
भविष्य की, न कोई
ज्ञानी-पुरुष
मिले। सपना न
मैंने कुछ देखा,
न सुना, न
मैंने कुछ
बोला।
'मैंने
तो एक दुर्निवार
वर्तमान का
अनुभव किया, जिसने मुझे
मजबूर कर दिया
कि मैं उठूं
और रोटी और
पानी की तलाश
करूं। वह जो
रोटी-पानी बचा
हुआ था उसकी
तलाश करूं और
तत्क्षण उसका
भोग करूं और
मैंने वही किया।'
वह खा
ही चुका है, अब कुछ
निर्णय करने
को उसने छोड़ा
भी नहीं है। यह
तीसरा आदमी ही
परमात्मा का
भोग कर सकेगा।
तुम्हारा
जीवन दुर्निवार
वर्तमान में
निर्भर होना
चाहिए। न तो
अतीत में, जो
जा चुका; न
भविष्य में, जो आया नहीं।
और
सपनों में
देखे
ज्ञानी-पुरुष
बहुत ज्ञानी नहीं
होंगे, वह
तुम्हारी ही
भीतर की वासना
बोल रही है।
अन्यथा
सर्वज्ञ-पुरुष
मिले, वह
भी यही कहेगा
कि भोजन तेरे
को मिलना
चाहिए? बुद्ध,
महावीर
मिलें, वे
भी भोजन की ही
चर्चा करें!
स्वर्ग में
घूमने के बाद
भी याद भोजन
की ही बनी रहे!
सपने
तुम्हारे, तुम्हारे
ही होंगे।
तुम्हारे
सपने में तुम
जिनको मिलोगे
वे भी
तुम्हारी ही
वासनायें
होंगी; उनमें
बुद्ध-पुरुष
भी बोलेंगे तो
उनके पीछे से
तुम्हारी ही
आवाज होगी।
सूफी, योग, झेन
हजारों साल से
सपनों का
अध्ययन करते
रहे हैं।
फ्रायड ने तो
अभी-अभी इस
सदी में
पश्चिम में
उदघाटन किया।
सूफी निरंतर
से सपनों पर
जोर देते रहे
हैं। वे कहते
हैं, सपना
ज्यादा सत्य
होता है
तुम्हारा; तुम्हारे
जाग्रत जीवन
से। क्योंकि
जाग्रत जीवन
में तो तुम कई
मुखौटों का
उपयोग करते हो,
झूठ, धोखा।
तुम इतने
चेहरे बनाते हो
कि तुम्हें
खुद ही पक्का
पता नहीं चलता
कि कौन सा
असली चेहरा
है! सपने में
ही तुम सच्चे
होते हो।
कैसी
अदभुत बात है!
सपने से
ज्यादा झूठा
इस जगत में
कुछ नहीं है।
और सपने में
ही तुम ज्यादा
सच्चे होते हो
बजाय
तुम्हारे
जाग्रत के; यह आश्चर्य
की बात है।
तुमसे ज्यादा
झूठा आदमी
खोजना बहुत
मुश्किल है।
सपने से बड़ी
झूठ नहीं और
सपने में ही
केवल तुम सच
होते हो, तुम
कितने झूठ
होओगे! जागते
में तुम
मुस्कुराते
हो और सपने
में तुम रोते
हो; जागते
में तुम कुछ
और करते हो, सपने में
उलटे हो जाते
हो।
लेकिन
तुम्हारा
सपना ठीक-ठीक
खबर देगा।
क्योंकि सपने
में सब
नियंत्रण हट
जाते हैं समाज
के, शिक्षा
के, संस्कार
के। सपने में
तुम आयोजन
नहीं करते। सपना
मुक्त होता
है। उसमें सभी
वासनायें प्रगट
होने लगती
हैं। जो-जो
दबा है, उभर
कर सामने आ
जाता है।
जो-जो छिपा है,
वह प्रगट हो
जाता है।
जो-जो तुमने दमन
कर रखा है, वह
फिर मुक्त
होकर आकाश में
सामने प्रगट
हो जाता है।
तो
फ्रायड ने तो
पूरे
मनोचिकित्सा
का आधार स्वप्न
पर निर्मित
किया और कहा
कि जब तक
तुम्हारे
स्वप्न
अध्ययन न किए
जायें, तब
तक तुम्हारी
बीमारियों की
कोई चिकित्सा
नहीं हो सकती।
तुम जागते में
क्या कहते हो
वह भरोसे
योग्य नहीं
है। क्योंकि
असलियत अक्सर
उलटी है। और
अक्सर तुम
उलटा व्यवहार
करते हो; उससे
कुछ पता चलता
है, वह पता
उलटा है।
जैसे
एक बेटा जरूरत
से ज्यादा
अपने बाप को
आदर देता है, जरूरत से
ज्यादा, ओवरएक्ट करता है।
उसका मतलब
इतना ही है कि
उसके मन में
बाप का विरोध
छिपा हुआ पड़ा
है। वह उस
विरोध को
दबाने के लिए
जरूरत से
ज्यादा, अतिशय
करता है
सम्मान का।
उसका सपना
देखो तो शायद
बाप की हत्या
करता हुआ आप
उसे पाओगे। वह
बाप को जहर
पिलाता हुआ
मिलेगा सपने
में। सपने में
उसने अपने बाप
को कई बार मार
डाला है और
सुबह उठकर वह
और भी ज्यादा
आदर करता है, क्योंकि
सपना कंपाता
है।
तुम
अपनी पत्नी को
दिन में जितनी
बार कहते हो कि
तुझे प्रेम
करता हूं; कभी तुमने
खयाल किया कि
सपने में
पत्नी तुम्हारी
कभी नहीं आती।
पास-पड़ोस की
और स्त्रियां
आती हैं, लेकिन
पत्नी नहीं
आती। क्या
कारण है? तुम्हारे
सपने में
पत्नी क्यों
प्रगट नहीं होती
कभी भी जिससे
तुम इतना
प्रेम करते हो?
और पड़ोस की
स्त्रियां
प्रगट होती
हैं। जिनकी तरफ
तुमने कभी
सीधी आंख देखा
नहीं; तुम
हमेशा बच कर
निकलते हो।
जिससे
तुम बचते हो, वह बचाव ही
बताता है कि
भीतर भय है।
और जिसके प्रति
तुम बहुत
प्रेम प्रगट
करते हो, वह
बहुत प्रेम
प्रगट करना ही
बताता है कि
भीतर प्र्रेम
नहीं है; यह
सिर्फ शब्दों
का जाल है
जिससे तुम
धोखा खड़ा कर
रहे हो। सपने
में तुम न
मालूम किन
अनजान स्त्रियों
को भोगते हुए पकड़े जाते
हो। वह
तुम्हारी
वास्तविक दशा
है। और तुम्हारे
सपने न समझे
जा सकें तो
तुम्हारे मन
की कोई खबर
नहीं मिलती, कि वस्तुतः
तुम्हारा मन
कैसा है।
सुदूर
पूर्व में एक
छोटा-सा कबीला
है जंगली आदिवासियों
का। शायद वे
मनुष्य-जाति
के सबसे पुराने
स्वप्न-पारखी
हैं और
छोटे-छोटे
बच्चे के स्वप्न
का अध्ययन
किया जाता है।
स्वप्न पर
उन्होंने
महान खोज की, और स्वप्न
के माध्यम से
उन्होंने
जीवन के बड़े प्रश्न
हल कर लिए
हैं।
जब
पहली दफा उस
कबीले का
अध्ययन किया
गया, तो
मनोवैज्ञानिक
बड़े चकित हुए।
क्योंकि वह कबीला
अनूठा है। कोई
तीन हजार साल
के इतिहास में
उस कबीले ने
एक भी लड़ाई नहीं
लड़ी, कोई
हत्या नहीं की,
कोई चोरी
नहीं होती, कोई
व्यभिचार और
बलात्कार
नहीं होता।
इतने शांत लोग
पृथ्वी पर
दूसरे नहीं
हैं--इतने
सौम्य, सरल!
और
कारण क्या है? कारण है कि
बचपन से ही हर
बच्चे के
स्वप्न का अध्ययन
किया जाता है।
न केवल अध्ययन
किया जाता है,
बल्कि
स्वप्नों के
संकेतों को
मानकर जीवन को
उसी ढंग से
ढाला जाता है।
जैसे एक छोटे
बच्चे ने सपना
देखा--सुबह हर
घर के
बड़े-बूढ़े
इकट्ठे होते हैं
और हर बच्चे
को अपना सपना
बताना पड़ता है
कि रात उसने
क्या देखा।
बिलकुल छोटा
बच्चा जब बोलना
शुरू कर देता
है तब से
सपनों का अध्ययन
शुरू हो जाता
है। पहला
कृत्य सुबह के
नाश्ते के साथ
है रात के
सपनों का
अध्ययन। पूरा
घर इकट्ठा
होता है, सब
अपने-अपने
सपने बताते
हैं और उनका
अध्ययन किया
जाता है और
उनके
निष्कर्ष।
एक
छोटा बच्चा
अगर कहता है
कि सपने में
मैंने पड़ोस के
लड़के को एक
चांटा मार दिया, तो बड़े-बूढ़े
उसे मिठाई और
खिलौने देकर
पड़ोस के लड़के
के पास भेजते
हैं। क्योंकि
सपने में तूने
चांटा मारा
इसका मतलब है
कि तेरे भीतर
कहीं उसे
मारने की
वासना छिपी
है। सपना
अकारण तो नहीं
हो सकता। तू
जा क्षमा मांग;
यह मिठाई
भेंट कर। यह
खिलौना उसको
देकर और उससे
क्षमा मांग कि
मुझसे बड़ी भूल
हो गई, रात
सपने में
मैंने
तुम्हें
चांटा मारा।
हमें
यह बात बड़ी मूढ़तापूर्ण
मालूम पड़ेगी, कि क्या
पागलपन की बात
है। सपने से
क्या लेना-देना?
लेकिन यह
बात बड़ी
वैज्ञानिक
है। वह बच्चा
जायेगा, पड़ोस
के बच्चे से
क्षमा मांगेगा,
उसे कुछ भेंट
करेगा।
क्योंकि जिसे
मारा
है...पश्चात्ताप
काफी नहीं है।
जैसे मारा है,
वैसे ही कुछ
भेंट भी देना
जरूरी है; प्रेम
प्रगट करना
आवश्यक है। और
सारे गांव में
यह खबर हो
जायेगी। सारा
गांव उस बच्चे
को धन्यवाद
देगा कि तूने
ठीक किया, क्षमा
मांग ली और
भेंट दे आया।
सपने में भी
शत्रुता
निर्मित नहीं
होनी चाहिए, नहीं तो आज
नहीं कल बड़ी
हो जायेगी।
बीज शुरू हुआ,
फिर अंकुर
बढ़ जायेंगे।
अगर कोई
व्यक्ति पड़ोस के
व्यक्ति के
साथ रात सपना
देख लेता है, संभोग कर
रहा हूं, तो
दूसरे दिन
जाकर उसके पति
को क्षमा मांगेगा,
भेंट देगा,
उसकी पत्नी
के पैर पड़ेगा,
उससे क्षमा मांगेगा, उसे कुछ
भेंट देगा; सारे गांव
में खबर होगी।
सबके
सपने
सार्वजनिक
संपत्ति हैं।
और इसका अनूठा
परिणाम हुआ है
और वह परिणाम
यह है कि उस कबीले
में लोग कम से
कम सपना देखते
हैं--एक। अब तो
वैज्ञानिक
उपाय हैं जांच
के कि रात में
कितनी देर
सपना देखता है
आदमी; उस
कबीले में
पृथ्वी पर
सबसे कम सपने
देखे जाते
हैं।
दूसरी
महत्वपूर्ण
बात: कि जो भी
वहां व्यक्ति सपना
देखता है उसे
पूरी तरह याद
रहता है सुबह; दुनिया में
कहीं भी नहीं
रहता।
क्योंकि तुम सपने
को भुलाते
हो। वह
दुखदायी है।
इसलिए उठते हो,
सुबह तक
तुम्हें थोड़ी
सी झलक रहती
है...एक दो चार
सेकेंड, मिनिट
दो मिनिट, फिर
गया! तुम
सोचते हो सपना
भूलता है, तुम
गलती में हो।
तुम भुलाना
चाहते हो, क्योंकि
जो भी दुखदायी
है उसे हम
भुलाना चाहते
हैं। उस कबीले
में सपना पूरा
का पूरा
ब्योरे से याद
रहता है, रत्ती-रत्ती
सपना पूरा का
पूरा याद! वह
भी बड़ी महत्वपूर्ण
बात है
क्योंकि सारी
पृथ्वी पर
वैसा नहीं
होता। सपने की
मात्रा कम, लेकिन जब भी
सपना आता है, पूरा याद
रहता है। और
मजे की बात है
उस सपने को मानकर
जो आचरण किया
जाता है, उस
आचरण के बाद
वही सपना
दुबारा नहीं
आता। क्योंकि
बीज ही नष्ट
कर दिया गया।
तुमने
कभी खयाल किया
हो तो तुम्हें
कई सपने बार-बार
आते हैं; वही-वही
सपने। अगर
सपनों का ठीक
अध्ययन करो तो
तुम पाओगे कुछ
सपने तुम्हें
जिंदगी भर दुहरते
रहते हैं, थोड़े
बहुत विस्तार
में फर्क पड़ता
है, नहीं
तो सपने वही
होते हैं। फिर-फिर
दुहरते
हैं। कभी-कभी
तो एक ही सपना सैकड़ों
बार आता है।
उसका मतलब
क्या है, उसका
मतलब है कि
तुम्हारा
अचेतन मांग कर
रहा है। और
तुम दबाये जा
रहे हो। वह
फिर-फिर मांग
कर रहा है। और
हर बार जब
मांग होती है
तब बीज को पानी
दिया जा रहा
है। अंकुर बड़ा
हो रहा है।
अगर
तुम रोज सपने
में किसी की
हत्या करते हो
तो आज नहीं कल, किसी न किसी
दिन तुम हत्या
कर गुजरोगे।
क्योंकि भीतर
से तुम तैयार
होते जा रहे
हो, तैयार
होते जा रहे
हो; पानी
गर्म होता जा
रहा है। किसी
भी दिन विस्फोट
होगा। और कई
बार ऐसा होता
है कि बड़े
शांत दिखाई
पड़ने वाले लोग
हत्या कर देते
हैं। और तुम
भरोसा ही नहीं
कर सकते कि
इतना शांत
आदमी हत्या
कैसे कर दे? तुम्हें
उसके सपनों का
पता नहीं है।
क्योंकि सपने
में बीज बोता
रहा, फसल काटनी
पड़ेगी।
इस देश
में तो हमने
निरंतर यह कहा
है कि तुम्हारे
कृत्य ही
महत्वपूर्ण
नहीं हैं, तुम्हारे
विचार भी, तुम्हारे
भाव भी। और
कर्म करने से
ही नहीं होता,
सोचने से भी
हो जाता है।
तुमने भाव
किया, बात
हो गई। पाप लग
गया। अपराध
नहीं हुआ, कानून
नहीं पकड़ेगा,
अदालत तुम
पर मुकदमा
नहीं चला सकती,
कि तुमने
किसी की हत्या
सपने में की
है। लेकिन
परमात्मा के सामने,
अस्तित्व
के सामने तो
अपराध हो गया,
पाप हो गया।
तुमने की या
नहीं की यह
गौण बात है; तुमने करनी
चाही, बात
हो गई। भाव
काफी है।
तुम्हारे
भीतर विचार हैं;
पर्याप्त
है।
विचार
को कृत्य तक
लाओगे तो
अपराध हो
जायेगा, विचार
विचार ही बना
रहे तो पाप
होगा। यही पाप
और अपराध का
भेद है। समाज
को चिंता है
अपराध न हों, धर्म को
चिंता है पाप
न हो। पाप
सूक्ष्म
अपराध है। पाप
अपराध का बीज
है; अपराध
पाप का वृक्ष
है। बाहर तक
पहुंच गया, फल आ गये।
लेकिन अगर इस
वृक्ष को
मिटाना हो तो बीज
से ही मिटाना
जरूरी है।
आधुनिक
मनोविज्ञान
ने तो बहुत
काम किया है।
और अगर हम
मनुष्य-जाति
के सपनों को
हल कर लें तो
ही हम मनुष्य
को हल कर पायेंगे, नहीं तो हल
नहीं कर
पायेंगे। हम
उससे कहते हैं,
चोरी मत करो,
बेईमानी मत
करो। वह कोशिश
कर करके दिन
में नहीं भी
करे, तो भी
रात में कर
लेगा, पाप
तो हो गया।
दिन में किया
या रात में, क्या फर्क
पड़ता है? बिल्ली
ने चूहे दिन
में मारे या
रात में, क्या
फर्क पड़ता है?
और बिल्ली
ने चूहे अपने
घर में मारे
कि दूसरे घर
में, क्या
फर्क पड़ता है?
और बिल्ली
ने चूहे
परोपकार के
लिए मारे या
अपने भोजन के
लिए मारे, क्या
फर्क पड़ता है?
दोनों हालत
में भोजन होता
है।
तुम
बहुत से पाप
तो परोपकार के
लिए करते हो।
और तब पाप की
पीड़ा भी कम हो
जाती है, क्योंकि
तुम्हें लगता
है परोपकार के
लिए कर रहे
हैं। तुम जाकर
किसी आदमी को
मार डालो
तो तुम्हें
ज्यादा पाप की
पीड़ा होगी।
फिर हिंदुस्तान-पाकिस्तान
का युद्ध हो रहा
हो। तब तुम
चले जाओ और
जाकर सौ-पचास
पाकिस्तानियों
को गोली मार
दो। तुम छाती
फैला कर घर
लौटोगे। पाप
हुआ ही नहीं।
पुण्य करके आ
रहे हो। और
तुम्हारे
राष्ट्रपति, तुम्हारे
प्रधानमंत्री
महावीर चक्र
भेंट करेंगे।
एक आदमी को
मारने से पाप
हो जाता है, तुम सौ को
मारते हो तब
महावीर चक्र
मिलता है, तब
तुम्हारा
सम्मान होता
है। बड़ी
हैरानी की बात
है।
क्या
मामला है? क्या फर्क
है? हत्या
तो हत्या है।
तुमने किसकी
की, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। तुमने
युद्ध में की
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
एक फर्क
पड़ता है कि
युद्ध तुम
राष्ट्र के
लिए कर रहे
हो। बस! जब
किसी पुण्य के
लिए पाप करो, तब बड़ा ठीक।
अगर
हिंदू-मुस्लिम
में दंगा हो
जाये तो तुम
काट डालो
एक दूसरे को, कोई हर्जा
नहीं।
क्योंकि यह तो
धर्म की रक्षा
के लिए हो रहा
है।
मनुष्य-जाति
ने बड़े से बड़े
पाप धर्म की
रक्षा के लिए
किए हैं। अब
यह बड़े सोचने
जैसी बात है
कि जिस धर्म
की रक्षा के
लिए पाप करना
पड़ते हैं, वह धर्म
रक्षा के
योग्य भी है? और क्या यह
हो सकता है, पाप से धर्म
की रक्षा हो
सके? अगर
पाप से धर्म
की रक्षा होती
है तो फिर
पुण्य से
किसकी रक्षा
होगी? और
अगर पाप से
धर्म तक की
रक्षा होती है
तो फिर पाप से
सभी चीजों की
रक्षा हो सकती
है। जब धर्म
तक को पाप का
सहारा लेना
पड़ता है रक्षा
के लिए; जब
धर्म तक
निर्वीर्य है,
असहाय है, और पाप की
सहायता
मांगता है, कितना धर्म
होगा
यह--नपुंसक है
ऐसा धर्म।
लेकिन
आदमी को जब
अच्छा बहाना
होता है तो
करने में मजा
आ जाता है। तुम
बहाने की तलाश
करते हो। करते
तो तुम वही हो
जो तुम्हारे
भीतर तुम करना
चाहते हो।
लेकिन बहाने
की तलाश करते
हो, कभी
राष्ट्र, कभी
समाज, कभी
धर्म। दूसरे
के हित में, तुम दूसरे
को भी नष्ट
करने को तैयार
हो।
यह
सूफी कथा बड़ी
विचारणीय है।
तीनों अपने को
बचाना चाहते हैं।
दो उसमें
बेईमान हैं, तीसरा आदमी
ईमानदार। वह
सीधा स्वीकार
करता है: सपना
तो मुझे आया
नहीं, किसी
को मैंने देखा
नहीं, कोई
ज्ञानी-पुरुष
प्रगट न हुए; न स्वर्ग
मुझे ले जाया
गया, न
भविष्य में
मैं
मनुष्य-जाति
का नेता
बनूंगा ऐसा
कोई आश्वासन
दिया गया, मुझे
तो दुर्निवार
भूख लगी। मैं
तो इतनी
अनिवार्य भूख
से भर गया, कि
मेरा पूरा
जीवन मुझसे
बोला कि बस
उठो और भोजन
कर लो। तो मैं
तो भोजन कर
चुका हूं।
पहला
अर्थ कि यह
आदमी सच्चा
है। और जहां
सचाई है वहां
कभी न कभी
सत्य से मिलन
भी होगा। यह
आदमी झूठ नहीं
बोल रहा है।
इसने अपने
शरीर की भूख
की सचाई को
स्वीकार किया
है। इसने अपनी
वासनाओं को इनकारा
नहीं है, इसने
अपनी वासनाओं
को सुंदर
वस्त्रों में
छिपा कर बदला
नहीं है। इसने
अपनी वासनाओं
को सपनों का
रंग नहीं दिया,
इसने अपनी
वासनाओं को
बुद्ध-पुरुषों
के मुंह से
नहीं बुलवाया,
इसने अपनी
वासना का सीधा
दुर्निवार
रूप स्वीकार
कर लिया है।
उसने कहा, मुझे
तो भूख लगी, सो तो मैं
पाया नहीं, सपना कैसा!
और भूख इतने
जोर से लगी कि
सुबह तक मैं
ठहर भी नहीं
सका। तो मैं
तो भोजन कर ही
चुका हूं।
पहली
तो बात कि
अपनी
वासनायें, उनकी दुर्निवारता,
स्वीकार कर
लेना। उनको
बहाने से मत
यहां-वहां सरकाना,
उनको
रूप-रंग मत
देना। उनको
उनकी नग्नता
में स्वीकार
कर लेना। जो
व्यक्ति अपनी
वासनाओं को उनकी
नग्नता में
स्वीकार कर
लेता है, और
यह भी स्वीकार
कर लेता है कि
मैं उनके पीछे
चल रहा हूं, उस व्यक्ति
के जीवन में
विनम्रता का
जन्म होता है।
वह आदमी पहली
दफा
निर-अहंकारी
होता है।
ये
दोनों
अहंकारी थे, जिनके
बुद्ध-पुरुष
भी उनके भोजन
के लिए बोल रहे
हैं। जो
स्वर्ग में ले
जाये जा रहे
हैं, भविष्य
में
मनुष्य-जाति
के नेता
बनेंगे। यह आदमी
सीधा-सच्चा
आदमी था।
एक
बात: वासना को
स्वीकार करो
तो कभी मुक्ति
हो सकती है।
दूसरी
बात: वासना का
एक लक्षण है।
उसकी मांग वर्तमान
की है। जब भूख
लगती है तो
तुम अभी भोजन करना
चाहते हो। जब
भूख लगती है
तो भविष्य में
थोड़े ही है!
भूख अभी भोजन
मांगती है। जब
प्यास लगती है
तो तुम अभी
पानी मांगते
हो; सारी
वासनाओं का
जीवन वर्तमान
में है। मन का
जीवन भविष्य
और अतीत में
है। वासना
सत्य के कहीं
ज्यादा करीब
है। तुम्हारा
शरीर सत्य के
कहीं ज्यादा
करीब है, जितना
तुम्हारा मन!
मन ज्यादा दूर
है। मन को हटाओ।
लेकिन उलटा हो
रहा है दुनिया
में; लोग
शरीर की
वासनाओं को
काटते हैं और
मन की वासनाओं
को सजाते हैं।
यही
मेरे धर्म में
और तथाकथित
प्रचलित-धर्म
में भेद है।
मैं तुमसे
कहता हूं, शरीर काटने
योग्य नहीं है,
शरीर तो
बिलकुल सुंदर
है। शरीर तो
प्रकृति का, सत्य का
हिस्सा है।
भूख लगती है
इसमें क्या पाप
है? प्यास
लगती है इसमें
क्या पाप है? प्रेम की
आकांक्षा
जगती है, वह
भी भूख है, वह
भी प्यास है; उसमें भी
कोई पाप नहीं
है।
पाप तो
तब शुरू होता
है जब तुम मन
के जाल बुनना शुरू
करते हो। जब तुम
अपनी वासना को
वस्त्र
पहनाते हो, जब तुम अपनी
वासना के लिए
बहाने खोजते
हो, जब तुम
करते तो वही
हो जो
तुम्हारा
शरीर करना चाहता
है, लेकिन
बहाने और
पच्चीस तरह के
शास्त्रों की आड़ लेकर
करते हो। तब
तुम मुश्किल
में पड़ जाते
हो, तब तुम
उलझन में पड़
रहे हो जिसका
हल न हो
सकेगा।
शरीर
को नहीं तोड़
देना है। न तो
बुद्ध शरीर को
तोड़ते हैं, न महावीर।
देखो, महावीर
जैसा सुंदर
शरीर कहीं
देखने मिलेगा?
उनकी
प्रतिमा को
देखो। ऐसा
गरिमाशाली
शरीर! देख कर
ऐसा नहीं लगता
कि इस आदमी ने
शरीर को तोड़ा
होगा। ऐसा भी
नहीं लगता कि
यह आदमी शरीर
का दुश्मन रहा
होगा। ऐसा भी
नहीं लगता कि
कोई कंकड़-पत्थर
पर सोया रहा
होगा या कांटे
बिछा कर लेटा
रहा होगा।
शरीर तो इतना
सुंदर है! साफ
है कि यह आदमी
शरीर के खिलाफ
नहीं था।
लेकिन
जैन-मुनि को
देखो, उससे
महावीर का
कहीं कोई
तालमेल नहीं
बैठता, कहीं
कोई गड़बड़ हो
गई है।
महावीर
की सारी साधना
तो भीतर मन को
शांत करने की
और मन को
शून्य कर देने
की है। शरीर
में जरा भी
पाप नहीं है।
शरीर सुंदर
है। शरीर की
भूख-प्यास
सीधी सरल बात
है। वह तो ऐसे
ही जैसे कि कार
चलाओ तो इंजन
को पानी की
जरूरत है और
पेट्रोल की
जरूरत है--कोई
पाप है? इस
शरीर का उपयोग
करना है
परमात्मा तक
जाने के लिए, यह यात्रा
का वाहन है।
इसे इसका भोजन
दो, इसे
इसका पानी दो,
इसे इसकी
सुविधा दो, इसमें कुछ
भी पाप नहीं
है।
अड़चन
तो मन से शुरू
होती है। तुम
परमात्मा से दूर
शरीर के कारण
नहीं हो; तुम
परमात्मा से
दूर मन के
कारण हो। वासना
के कारण नहीं,
विचार के
कारण तुम
परमात्मा से
दूर हो। और जब तुम
वासना को
दबाते हो तो
वासना
तुम्हारे विचारों
में प्रविष्ट
हो जाती है, तब बड़ी
मुश्किल हो
जाती है। काम
में कोई पाप नहीं
है। लेकिन जब
तुम कामवासना
का विचार ही
विचार करते हो
तब उपद्रव
शुरू हो जाता
है। भूख में
कोई पाप नहीं
है। लेकिन जब
तुम चौबीस
घंटे भोजन का
विचार करते हो
तब कुछ गड़बड़
हो गई। स्वस्थ
आदमी, दो
बार भोजन करता
है, भूल
जाता है, बात
खत्म हो गई।
प्यास लगी, पानी पी
लिया, बात
खत्म हो गई।
अस्वस्थ आदमी
चौबीस घंटे
भोजन की ही
सोचता रहता
है। भोजन इसकी
शरीर की जरूरत
न होकर, मन
की जरूरत हो
गई; मन को
भोजन की
बिलकुल जरूरत
नहीं है। और
यहीं अड़चन खड़ी
होती है।
वासना को समझो,
वासना
हमेशा
वर्तमान में
है। और विचार?
विचार सदा
भविष्य में है
या अतीत में।
ये दो
तो विचारक थे।
एक अतीत की
बात कर रहा था, एक भविष्य की;
यह तीसरा
आदमी
सीधा-साधा, साफ-सुथरा, प्राकृतिक
आदमी था--नेचरल।
इसने तो उठकर
भोजन कर लिया।
इसने कहा कि दुर्निवार
भूख लगी। मैं
कुछ कर ही
नहीं सकता था,
मैं तो भोजन
कर चुका हूं।
अगर
आध्यात्मिक
जीवन पाना हो
तो पहले तो
प्राकृतिक
बनना।
प्रकृति
परमात्मा के
निकट है। अगर
तुमने
प्रकृति को
दबाया, तोड़ा-मरोड़ा, विकृत
किया--और
तुम्हारी
प्रकृति
विकृति हो गई
है। और तुम जब
भी विकृति
करोगे तब तुम
संस्कृति के
नाम पर करते
हो।
ये तीन
शब्द याद
रखना--प्रकृति, विकृति और
संस्कृति।
संस्कृति के
नाम पर तुम विकृति
करते हो। और
जितना तुम
संस्कृति को
थोपते हो अपने
ऊपर, उतने
तुम विकृत
होते चले जाते
हो। विकृति
रोग है और
संस्कृति उस
रोग को ढांकने
का आवरण है। विकृति
घाव है और
संस्कृति ऊपर
से लगाये गये,
चिपकाये
गये फूल। और
जो आदमी
संस्कृति के
पीछे दीवाना
है, उसके
सपने में
विकृति होगी।
दिन वह सुसंस्कृत
होगा; रात
वह विकृत
होगा। लोगों
से बात करेगा
संस्कृति की,
भीतर
विकृति
चलेगी।
पहला
काम है प्रकृत
हो जाना, स्वाभाविक
हो जाना, सहज
हो जाना। और
जो व्यक्ति
प्रकृत हो
जाये, सहज
हो जाये, जीवन
को स्वीकार कर
ले जैसा है, भूख-प्यास
अंगीकार कर ले,
वह व्यक्ति
प्रकृति के
द्वार
से--क्योंकि
प्रकृति सदा
वर्तमान में
है। इन
वृक्षों को
कोई अतीत का
पता नहीं है, न कोई
भविष्य का।
पक्षियों को
कोई याददाश्त
नहीं है; न
अतीत की, न
कोई कल्पना है
भविष्य की।
संत भी इसी
अवस्था में
पहुंच जाते
हैं, न कोई
अतीत है न कोई
भविष्य। बस, यही क्षण सब
कुछ है।
पहली
बात है प्रकृत
हो जाना, क्योंकि
समाज ने
तुम्हें
विकृत कर दिया
है। पहले तो
तुम प्रकृति
के साथ एक
तारतम्यता पा
लो।
दूसरा
कदम कठिन नहीं
है। अगर तुम
प्रकृत हो तो
परमात्मा
बिलकुल निकट
है। क्योंकि
प्रकृति है
उसकी सृष्टि, और वह है
उसका स्रष्टा।
प्रकृति है
उसका नृत्य और
वह है नर्तक।
अगर तुम नृत्य
के करीब पहुंच
गये तो तुम
नर्तक के करीब
पहुंच गये।
अगर तुम नृत्य
में प्रवेश कर
गये तो तुम
नर्तक में
प्रवेश कर
गये। दो नहीं हैं
वे। लेकिन अगर
तुम नर्तन से
ही डर गये हो और
नृत्य से घबड़ाहट
के कारण तुम
भाग खड़े हुए
हो, तो तुम
नर्तक के पास
कभी न पहुंच
पाओगे। अगर सृष्टि
से तुम भयभीत
हो तो स्रष्टा
को तुम कैसे खोजोगे? स्रष्टा
यहीं छिपा है
सृष्टि में।
जीसस
ने कहा है, 'तोड़ो पत्थर
और वहां मैं
हूं। तोड़ो
लकड़ी और तुम
मुझे छिपा
पाओगे।'
प्रकृति
में ही छिपा
है परमात्मा।
तुम अपनी
प्रकृति को
शांत होने दो, थिर होने दो,
तुम उसके
साथ
जबर्दस्ती मत
करो। उसके सहज
प्रवाह को
उपलब्ध करो।
छोटे बच्चे की
भांति हो जाओ,
जो अभी
प्रकृत है, जिसे अभी
संस्कृति ने
विकृत नहीं
किया।
इसलिए
संत छोटे
बच्चे की
भांति हो
जायेगा। उसकी
आंखों में वही
कोमलता, वही
सौंदर्य, वही
बालपन! उसकी
आंखों में वही
भोलापन जो
बच्चे की
आंखों में है;
फिर आ
जायेगा। वह
फिर सरल होगा,
सहज होगा।
वह
पशु-पक्षियों
जैसा होगा, पौधों जैसा
होगा, पहाड़ों
जैसा होगा; उसने सब
स्वीकार
लिया।
यह
तीसरा
व्यक्ति एक
सूफी फकीर है, जिसने
प्रकृति को स्वीकार
कर लिया है।
जो भी है उसे
बदलने की उसकी
कोई आकांक्षा
नहीं है, जो
भी है अंगीकार
है।
यही तो
आस्तिकता का
लक्षण है और
यही साधना का परम
मार्ग है।
बुद्ध ने इसे
ही तथाता कहा
है। जो है! भूख
है तो भूख, प्यास है तो
प्यास, उसे
स्वीकार करो।
लड?ो मत, लड़कर कहीं न
पहुंचोगे, लड़ोगे किससे? अगर
प्रकृति से
लड़े तो
परमात्मा से
दूर हो जाओगे,
क्योंकि वह
वहीं छिपा है।
तो
प्रकृति के
साथ तालमेल
करो, एक हो
जाओ। दमन की
बकवास छोड़ दो,
लड़ने का
खयाल हटा दो।
बहो, तैरो मत। मंजिल
ज्यादा दूर
नहीं है। मगर
पहले तुम सहज
हो जाओ।
समाज
तुम्हें असहज
कर रहा है।
समाज धर्म के
नाम पर तुम्हें
असहज कर रहा
है, संस्कृति
के नाम पर
विकृति ला रहा
है। तुम्हें
स्वस्थ करने
की चेष्टा से
ही रोग पैदा
हो रहा है।
तुम स्वस्थ तो
पैदा ही हुए
थे, तुम
जैसे पैदा हुए
थे।
झेन
फकीर कहते हैं, जैसा
तुम्हारा
चेहरा था जन्म
के पहले, बस!
उसी चेहरे को
पा लो। जैसे
तुम मां के
गर्भ में थे
बस वैसे ही
सरल हो जाओ, दुर्निवार प्रकृति को
अंगीकार कर
लो। भूख भूख
है, प्यास
प्यास है, लड़ो मत,
सब लड़ना
अहंकार है।
प्यास को
जीतने की
कोशिश अहंकार
है। भूख को
जीतने की
कोशिश अहंकार
है। काम को
जीतने की
कोशिश अहंकार
है, नियंत्रण
करने की सब
कोशिश अहंकार
है। विजय की
यात्रा
अहंकार का
फैलाव है। लड़ो
मत, न कोई
विजय करनी है।
मैंने
सुना है, बल्ख का एक
बादशाह हुआ
इब्राहिम; फिर
बाद में वह
फकीर हो गया।
उसने एक नया
गुलाम खरीदा।
गुलाम एक फकीर
था--एक सूफी
फकीर। जो रेगिस्तान
में यात्रा पर
निकला था कि
कुछ लोगों ने
उसे पकड़ लिया।
फकीर सुंदर था,
स्वस्थ था,
बलवान था।
और लोगों ने
पकड़ लिया तो
उसने इंकार न
किया, क्योंकि
वह सहज जीवन
की धारा में
बह रहा था--जो हो!
उसने हाथ फैला
दिए, उन्होंने
जंजीरें डाल
दीं। वे भी
थोड़े चौंके,
क्योंकि वह
आदमी मजबूत था
और चाहता तो
चार को जमीन पर
बिछा देता।
फिर उसने कहा,
किस तरफ
चलना है? तो
वह उनके साथ
हो लिया।
रास्ते में
उन्होंने पूछा
कि मामला क्या
है? न तुम
लड़े, न तुम
झगड़े। हम
तुम्हें
गुलाम बना लिए
हैं, कुछ
समझे कि नहीं?
दिमाग
दुरुस्त है कि
पागल हो?
उस
फकीर ने कहा
कि 'अगर
तुम्हारा
दिमाग
दुरुस्त है तो
हम पागल हैं।
और अगर हमारा
दुरुस्त है तो
तुम पागल हो।
दोनों तो एक
जैसे नहीं
हैं। अब यहां
कौन निर्णय
करे? निर्णय
की कोई जरूरत
भी नहीं, लेकिन
तुम नाहक ही हथकड़ी का
बोझ ढो रहे
हो। मैं साथ
चलने को तैयार
हूं क्योंकि
साथ चलना ही
मेरी जीवन की
प्रक्रिया है।'
वे कुछ
समझे नहीं।
लेकिन
उन्होंने
पाया कि आदमी
सीधा-साधा है।
उन्होंने
जंजीर भी
निकाल ली। वह
उनके साथ-साथ
गया। बाजार
में जब उनकी
बिक्री हुई तो
इब्राहिम ने
खरीद लिया।
इब्राहिम गया
था गुलामों की
तलाश में, उसका निकट
का गुलाम मर
गया था। वह
फकीर बड़ा
सुंदर था, शानदार
था। उसको खरीद
कर घर ले आया।
फकीर नंगा था।
इब्राहिम ने
कहा कि तुम
कैसे वस्त्र
पहनना पसंद
करोगे? उस
फकीर ने कहा, 'गुलाम की
क्या मरजी!
मालिक जो कहे।'
इब्राहिम
ने कहा, 'तुम
कैसा भोजन
पसंद करते हो?'
'गुलाम की
क्या अभिलाषा!
मालिक जो कहे।'
इब्राहिम
ने पूछा, 'कुछ
भी तुम्हें
कहना हो तो कह
दो, ताकि
वैसी
व्यवस्था
तुम्हारे लिए
हो जाये। तुम्हारे
साथ आते-आते
महल तक, मुझे
तुमसे लगाव हो
गया है। तुम
आदमी बड़े अदभुत
मालूम होते
हो। तुम जैसा
चाहो वैसा
इंतजाम हो
जायेगा।' उसने
कहा, 'जैसा
आप चाहें वैसा
इंतजाम कर दें,
क्योंकि
मैंने तो उसकी
मरजी के साथ
बहने के सिवाय
और कोई मरजी
नहीं रखी।
मालिक जो
चाहे। आप मालिक
हैं, मैं
गुलाम हूं।'
कहते
हैं इब्राहिम
उठा, इस आदमी
के चरणों पर
गिर पड़ा। और
उसने कहा कि तुम
मेरे गुरु बन
जाओ। क्योंकि
जो तुम मेरे
साथ कर रहे हो
काश! मैं भी वह
परमात्मा के साथ
कर पाऊं।
बस! यही तो
सार-सूत्र है,
इसी की मैं
तलाश में था।
और एक गुलाम
से यह सार-सूत्र
मिलेगा, यह
तो मैंने कभी
सोचा ही नहीं
था। मैं
अहंकारियों
के पीछे भटकता
रहा। उनको मैं
गुरु समझ रहा
था। एक गुलाम
से यह सूत्र
मिलेगा, यह
मैंने कभी
सोचा ही नहीं
था। फिर
इब्राहिम तो
एक खुद बड़ा
फकीर हुआ, लेकिन
यह गुलाम उसका
पहला गुरु था।
तुम
प्रकृति की
मरजी के साथ
हो जाओ। कितनी
ही कठिनाई हो, फिक्र मत
करना, वह
सौदा महंगा
नहीं है।
कठिनाई
शुरू-शुरू में
मालूम पड़ेगी,
क्योंकि
समाज ने बड़ी अड़चनें
खड़ी कर दी
हैं। समाज
दुश्मन है
प्रकृति का। तुम
तो प्रकृति के
साथ हो जाओ, पहले प्रकृत
हो जाओ, तभी
तुम नृत्य के
करीब आते-आते
नर्तक में एक
हो जाओगे।
प्रकृति
को जिसने
शुद्ध कर लिया, वह परमात्मा
के द्वार में
प्रवेश कर
जाता है। प्रकृति
जीती है
वर्तमान में,
मन जीता है
भविष्य और
अतीत में। तुम
दुर्निवार
प्रकृति को
पहचानो। वह
अभी और यहीं
है। और यहीं
परमात्मा का
द्वार भी है।
वर्तमान क्षण
में हो जाना
ही सब कुछ है।
और जो उससे
चूका, वह
सब चूक जाता
है।
आज
इतना ही।
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