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गुरुवार, 1 जनवरी 2015

बिन बाती बिन तेल-(प्रवचन-19)

चल उड़ जा रे पंछी—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)
दिनांक 9 जुलाई 1974(प्रातः),
श्री रजनीश आश्रम; पूना
भगवान!

नित्य की तरह शिष्यों को उपदेश देने के निमित्त,
भगवान बुद्ध सुबह-सुबह सभागृह में पधारे। श्रोताओं की भीड़ इकट्ठी थी पहले से ही।
इसके पहले कि वे बोलने के लिये अपना मौन तोड़ दें,
एक पक्षी कक्ष के वातायन पर आ बैठा;
परों को फड़फड़ाया, चहका, और फिर उड़ गया।
भगवान बुद्ध ने वातायन की तरफ नजर उठाकर कहा,
'आज का प्रवचन समाप्त हुआ!' और वे सभा से चले गए।
भगवान! कृपापूर्वक बतायें कि यह कैसा प्रवचन था और इसमें क्या कहा गया?
जिन्होंने जाना है, वे कहना भी चाहें तो अपने अनुभव को कह नहीं पाएंगे। उसे कहने का कोई उपाय नहीं है। फिर भी उसे व्यक्त किया जा सकता है, इशारे किए जा सकते हैं, इंगित किए जा सकते हैं। और जो समझ सकता हो, तो इशारों को समझ लेगा। और जिसने जिद्द कर रखी हो ना समझने की, तो उसके सामने सूरज भी ऊगा हो तो भी वह आंखें बंद कर लेगा।
मैं एक और कहानी से शुरू करता हूं। एक सम्राट हुआ; बड़ा विचारशील, चिंतन-मनन का प्रेमी, सत्य का खोजी। उसे खबर मिली कि दूर किसी गांव में कोई बड़ा दार्शनिक है, बड़ा तार्किक है, बड़ा बुद्धिमान है। तो उसने अपना संदेशवाहक भेजा। अपने हाथों पत्र लिखा, मोहर लगाई, लिफाफा बंद किया।
संदेशवाहक सम्राट का पत्र लेकर उस दूर की यात्रा पर निकला। जाकर उस दार्शनिक के द्वार पर दस्तक दी, हाथ में पत्र दिया और कहा, सम्राट ने पत्र भेजा है। दार्शनिक ने पत्र को बिना देखे नीचे रख दिया और कहा, पहले तो यह सिद्ध होना जरूरी है, कि सम्राट ने ही पत्र भेजा है या किसी और ने? तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि तुम सम्राट के संदेशवाहक हो?
उस आदमी ने कहा, इसके भी प्रमाण की कोई जरूरत है? मेरे वस्त्र देखें। मैं संदेशवाहक हूं सम्राट का।
दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों से क्या होगा? वस्त्र तो कोई भी पहन सकता है, धोखा दे सकता है। क्या सम्राट ने स्वयं ही तुम्हें अपने हाथों यह पत्र दिया है?
संदेशवाहक भी थोड़ा संदिग्ध हुआ। उसने कहा, यह तो नहीं संभव है क्योंकि मैं और सम्राट तो बहुत दूर हैं। प्रधान वजीर को पत्र दिया होगा सम्राट ने, वजीर से प्रधान अधिकारी के पास आया, फिर मुझे मिला। सीधा तो मुझे नहीं मिला है।
वह दार्शनिक हंसा। उसने कहा, कि तुमने कभी सम्राट को देखा है?
संदेशवाहक ने कहा, मैं बहुत छोटा नौकर हूं, सेवक हूं, सम्राट को देखने का अवसर मुझे नहीं आया।
उस दार्शनिक ने कहा, जिसे तुमने न देखा, जिसने तुम्हें न संदेश दिया, तुम उसके संबंध में कैसे अधिकार से कह सकते हो कि वह है?
इतनी चर्चा होते-होते तो संदेशवाहक भी संदिग्ध हो गया। पत्र की तो जैसे बात ही भूल गई। दोनों निकल पड़े कि जब तक यह प्रमाणित न हो जाए कि सम्राट है, तब तक पत्र को खोलने की जरूरत भी क्या है? दोनों खोजने लगे। अनेक लोगों से पूछा। रास्ते पर एक सिपाही मिला; पूछा, तुम कौन हो? उसने कहा, मैं सम्राट का सैनिक हूं। क्या मेरे वस्त्रों को देखकर तुम नहीं पहचानते? उस दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों के धोखे में तो यह भी था, यह जो मेरे साथ खड़ा है। वस्त्रों से क्या होता है? तुमने सम्राट को अपनी आंखों से देखा?
वह सैनिक भी थोड़ा डगमगाया। उसने कहा कि नहीं मैंने तो नहीं देखा; लेकिन मेरे सेनापति ने देखा है। उस दार्शनिक ने पूछा कि तुमने सेनापति को अपनी आंख से देखा है?
उसने कहा, यह भी खूब! मैंने सेनापति को तो नहीं देखा, सुना है कि सेनापति सम्राट से मिलता है। मैं एक छोटा सैनिक हूं। उतनी पहुंच मेरी नहीं। महल के दरवाजे मेरे लिए बंद हैं। दोनों खिलखिलाकर हंसे--संदेशवाहक और दार्शनिक। और कहा, तुम भी हमारे साथ सम्मिलित हो जाओ। जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि सम्राट है, तब तक यह सब झूठ का जाल फैला हुआ है।
यह कभी सिद्ध न हो सका, क्योंकि जो भी मिला, उसका प्रत्यक्ष कोई अनुभव न था। और बड़े आश्चर्य की बात तो यह थी, कि यह सिद्ध हो सकता था बड़ी आसानी से; क्योंकि सम्राट ने स्वयं निमंत्रण दिया था कि तुम आओ मेरे महल में, अतिथि बनो। और मैं तुम्हें राज्य का महागुरु बना देना चाहता हूं। लेकिन वह पत्र तो पढ़ा ही नहीं गया। किसी से पूछने की कोई जरूरत न थी। सीधा सम्राट का निमंत्रण था। महल के द्वार खुले थे, स्वागत था।
जिनके मन में संदेह है, बुद्ध के वचन उनके लिए संदेशवाहक की तरह हैं। ये वचन के पत्र बंद ही पड़े रह जाएंगे। वे उन्हें खोलेंगे ही नहीं। क्योंकि पहले तो यह सिद्ध होना चाहिए कि बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। और यह सिद्ध होना करीब-करीब असंभव है। कौन सिद्ध करेगा? कैसे यह सिद्ध होगा? शब्द बंद पड़े रह जाते हैं। कितना कहा गया है! लेकिन तुमने उसे सुना नहीं। कितना शब्दों में भरा गया है, लेकिन वे शब्द तुमने कभी खोले नहीं। उनकी कुंजियां भी साथ ही लटकी थीं, लेकिन तुम्हारा संदेह से भरा चित्त बुद्धत्व की कोई भी झलक को खोल नहीं पाता। तुम सूरज को उगा देखकर आंख बंद कर लेते हो और पूछते हो, सूरज कहां है?
बुद्ध रोज बोलते रहे। जो उन्होंने रोज बोला, वही उन्होंने इस सुबह के प्रवचन में भी बोला। आकर बैठे। सुननेवाले लोग आये थे। एक पक्षी वातायन पर आकर बैठ गया। उसने पंख फड़फड़ाये। उसने गीत गुनगुनाया और उड़ गया। बुद्ध उस पक्षी को देखते रहे--बैठते, फड़फड़ाते, गीत गाते, उड़ जाते। और फिर उन्होंने कहा, 'आज का प्रवचन पूरा हुआ।' उस दिन वे कुछ भी न बोले। पर उन्होंने कहा कि 'आज का प्रवचन पूरा हुआ।'
और यह उनके गहरे से गहरे प्रवचनों में से एक है। इतना ही तो बुद्ध कहते हैं कि संसार तुम्हारा वातायन है। उस पर तुम बैठो, पर उसे तुम घर मत बना लो। वहां तुम थोड़ी देर विश्राम कर लो, लेकिन वह मंजिल नहीं है। बैठकर कहीं पंखों का फड़फड़ाना मत भूल जाना, नहीं तो खुला आकाश सदा के लिये खो जाएगा। पक्षी भी बहुत देर बैठा रह जाए, तो पंखों की क्षमता खो जाती है। पक्षी भी बहुत देर बैठा रह जाए, तो शायद भूल ही जाए कि उसके पास पंख भी हैं। क्योंकि क्षमताएं हमें वही याद रहती हैं, जिनका हम उपयोग करते हैं।
जिनका हम उपयोग नहीं करते, वे विस्मरण हो जाती हैं। और जिनका हम उपयोग नहीं करते, वे धीरे-धीरे निष्क्रिय हो जाती हैं। और उनकी क्षमता खो जाती है। तुम अगर चलो न, थोड़े ही दिन में पैर पंगु हो जाएंगे। तुम अगर अंधेरी कोठरीयों में ही रहो और देखो न, तो आंखें जल्दी ही अंधी हो जाएंगी। तुम अगर शब्द ही न सुनो, अगर तुम्हारे कान पर कोई ध्वनि तरंगित ही न हो, तो जल्दी ही तुम बहरे हो जाओगे। तुम जो नहीं करोगे, उसकी करने की क्षमता खो जाएगी।
कितने जन्म हुए, जब से तुम उड़े नहीं! तुमने पंख नहीं फड़फड़ाए। कितना समय बीता, जब से तुम खिड़की पर बैठे हो और तुमने खिड़की को घर समझा; जब से तुम द्वार को ही महल समझकर रुक गए! पड़ाव के लिए रुके थे इस वृक्ष के नीचे, लेकिन कितना समय बीता, तब से तुमने इसे ही घर मान लिया है! पंख फड़फड़ाओ। अगर बुद्धों के पास तुम पंख फड़फड़ाना न सीखो तो और कुछ सीखने को वहां है भी नहीं।
यही तो प्रवचन है: यही उनका संदेश है, कि तुम उड़ सकते हो मुक्त आकाश में। तुम मुक्त गगन के पक्षी हो। तुम व्यर्थ ही डरे हो। तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारे पास पंख हैं। तुम पैरों से चल रहे हो। तुम आकाश में उड़ सकते थे। थोड़ा फड़फड़ाओ ताकि तुम्हें भरोसा आ जाए।
ध्यान फड़फड़ाहट है पंखों की; उन पंखों की जो उड़ सकते हैं, दूर आकाश में जा सकते हैं।
ध्यान सिर्फ भरोसा पैदा करने के लिए है ताकि विस्मृति मिट जाए; स्मृति आ जाए। संतों ने, कबीर ने, नानक ने शब्द का उपयोग किया है--सुरति। सुरति का अर्थ है, स्मरण आ जाए। जो भूला है, उसका खयाल आ जाए। तुमने कुछ खोया नहीं है, तुम सिर्फ भूले हो। खो तो तुम सकते भी नहीं। पक्षी भूल सकता है कि उसके पास पंख हैं, खो कैसे सकेगा? और कितने ही जन्मों तक न उड़े, तो भी अगर उड़ने का खयाल आ जाए, तो पुनः उड़ सकता है।
विवेकानंद एक छोटी-सी कहानी कहा करते थे। वे कहते थे, ऐसा हुआ कि एक सिंहनी एक पहाड़ी से छलांग लगा रही थी। गर्भवती थी और छलांग के बीच में ही उसे बच्चा हो गया। वह तो छलांग लगाकर चली गई। बच्चा नीचे से गुजरती हुई भेड़ों की एक भीड़ में गिर गया; फिर भेड़ों ने उसे बड़ा किया। वह सिंह का तो बच्चा था, लेकिन उसे याद कौन दिलाए? उसे पहचान कौन करवाए? सुरति कैसे मिले? वह भेड़ों के साथ ही बड़ा हुआ। और उसने समझा कि मैं भी भेड़ हूं; यही स्वाभाविक है।
तुम जिनके बीच बड़े होते हो, वही तुम अपने को समझ लेते हो। हिंदुओं के बीच तो हिंदू, मुसलमानों के बीच तो मुसलमान, सिक्खों के बीच तो सिक्ख। जिन के बीच पैदा होते हो, तुम वही अपने को समझ लेते हो। जो भूल तुम्हारी है, वही उस शेर के बच्चे की थी। शेर का बच्चा तुमसे ज्यादा बुद्धिमान तो नहीं था! उसने समझा कि मैं भेड़ हूं। वह भेड़ों के बीच ही चलता, भेड़ों जैसा ही भयभीत होता, घास-पात खाता।
एक दिन एक सिंह ने देखा। ये भेड़ों की कतार गुजरती थी, इनके बीच में एक सिंह! सिंह बड़ा हैरान हुआ। यह असंभव घट रहा है। न तो भेड़ें उससे घबड़ा रही हैं, न वह भेड़ों को खा रहा है। ठीक भेड़ों की भीड़ में घसर-पसर--जैसे और सब भेड़ें चली जा रही हैं, ऐसे ही वह भी चल रहा है। वह सिंह इस भेड़ों की भीड़ में आया। भेड़ें भागीं, चीख-पुकार मच गई। वह सिंह भी भागा चीख-पुकार मचाता। उसकी आवाज भी भेड़ों की हो गई थी।
क्योंकि भाषा भी तो तुम उनसे सीखते हो, जिनके तुम पास होते हो। भाषा कोई जन्म के साथ लेकर तो पैदा नहीं होता। भाषा भी सीखी जाती है, वह भी पाठ है। तुम हिंदी बोलते हो, मराठी बोलते हो, अंग्रेजी बोलते हो, तुम वही सीख लेते हो जो तुम्हारे चारों तरफ बोला जा रहा है। पैदा तो तुम खाली स्लेट की तरह होते हो।
उसने भेड़ों की भाषा ही जानी थी, वही सुनी थी, वही सीखी थी। वह भी मिमियाने लगा, रोने लगा, भागने लगा। यह नया सिंह भागा, बामुश्किल उसको पकड़ पाया। पकड़ा तो वह गिड़गिड़ाने लगा, छूटने की आज्ञा चाहने लगा। घबड़ा गया, जैसे मौत सामने खड़ी हो। लेकिन यह सिंह उसे घसीटा। इसने बहुत उसे कहा कि 'नासमझ! तू भेड़ नहीं है!' लेकिन वह कैसे माने? इसमें कुछ जालसाजी दिखाई पड़ी। यह सिंह कुछ ऐसी बात समझा रहा है, जो सच हो नहीं सकती। उसके जीवन भर के अनुभव के विपरीत है।
जब तुमसे कोई कहता है, तुम शरीर नहीं हो, क्या तुम्हें भरोसा आता है? जब तुमसे कोई बुद्ध पुरुष कहता है तुम आत्मा हो, तो क्या तुम्हें भरोसा आता है? और अगर उस सिंह को भी भरोसा न आया तो आश्चर्य तो नहीं। लेकिन यह दूसरा सिंह भी जिद्दी रहा होगा। और बुद्ध बड़े जिद्दी हैं। तुम जागो या न जागो, वे तुम्हें जगाए जाते हैं। तुम कितना ही भागो, वे तुम्हें घसीटते हैं।
उसने इसे घसीटा एक सरोवर के किनारे। छोड़ा नहीं; कितना ही रोया, चिल्लाया, आंख से आंसू झरने लगे, लेकिन वह सिंह उसे घसीटता ही ले गया उसकी इच्छा के विपरीत।
बहुत बार गुरु शिष्य को उसकी इच्छा के विपरीत दर्पण के निकट ले जाता है। शायद बहुत बार नहीं, हर बार। क्योंकि शिष्य तो दर्पण के निकट जाने से डरता है, क्योंकि दर्पण के सामने जाकर उसकी अब तक की सारी मान्यताएं छिन्न-भिन्न हो जाएंगी। जो भी उसने समझा-बूझा है, वह सब व्यर्थ हो जाएगा। जो भी उसकी धारणाएं हैं; टूटेंगी, खंडित होंगी। सब जीवन की प्रतिमा बिखर जाएगी। दर्पण के सामने जाने से सभी डरते हैं; अपना चेहरा देखने से सभी डरते हैं। क्योंकि तुम सब ने कुछ और चेहरे बना रखे हैं, जो तुम्हारे नहीं हैं।
तो वह सिंह भी डर रहा था। लेकिन गुरु माना नहीं। गुरु सिंह ने उसे खींचा और सरोवर के किनारे ले जाकर खड़ा किया और कहा, कि देख नासमझ! मेरे और तेरे चेहरे पानी में देख, कोई फर्क है? जो मैं हूं, वही तू है। 'तत्वमसि'
यही बुद्ध कह रहे हैं कि जो मैं हूं, वही तू है। यही उपनिषद कह रहे हैं कि जो मैं हूं, वही तू है। जरा भी भेद नहीं--लुक, देख!
डरते-डरते उस सिंह ने देखा। लगा, जैसे कोई सपना देखता हो। क्योंकि हम उसी को यथार्थ कहते हैं, जिसको हमने बहुत बार पुनरुक्त किया है। नया तो सपना ही मालूम पड़ता है। भरोसा न आया, आंख मीड़ी होंगी, पुनः देखा होगा। जीवन भर का अनुभव तो यह था कि मैं भेड़ हूं। लगा होगा, यह सिंह कोई तरकीब तो नहीं करता! कोई जादूगर तो नहीं है! कोई हिप्नोटिस्ट तो नहीं है!
जब तुम गुरु के पास पहली दफा जाओगे तो तुम्हें अनेक बार लगेगा कि कोई सम्मोहित तो नहीं कर रहा है? कोई तुम्हें धोखा तो नहीं दे रहा है? कोई तुम्हें ऐसी बात तो नहीं समझा रहा है, जो सच नहीं है? क्योंकि तुम्हारे अनुभव के प्रतिकूल है।
लेकिन सिंह ने कहा कि 'तू देख गौर से।' और फिर उस सिंह ने गर्जना की। उसकी गर्जना सुनते ही, दर्पण में...सरोवर के दर्पण में अपने चेहरे को ठीक से देखते ही, दूसरे सिंह का भीतर सोया हुआ सिंह भी जाग गया। भेड़ तो ऊपर ही ऊपर थी, ऊपर ही ऊपर हो सकती थी।
संस्कार तुम्हारी आत्मा तो नहीं बन सकते। तुम कुछ भी उपाय करो, तुम हिंदू न हो सकोगे। तुम लाख उपाय करो, मुसलमान होने का कोई उपाय नहीं है। तुम रहोगे तो आत्मा ही। तुम कितनी ही चेष्टा करो जन्मों-जन्मों तक, तो भी तुम शरीर न हो सकोगे। शरीर ऊपर ही ऊपर है। विचार ऊपर ही ऊपर है। मन ऊपर ही ऊपर है। और किसी भी दिन, जिस दिन गुरु तुम्हें दिखा देगा सरोवर में और जिस दिन तुम गुरु की हुंकार सुनोगे...।
उस हुंकार के साथ ही इस भटके सिंह के भीतर की भी आवाज जाग गई। रोआं-रोआं झाड़ दिया भेड़ होने का। हुंकार उठा। सारा जंगल, पहाड़, पर्वत, हुंकार से गूंज उठे।
एक क्षण में भेड़ खो गई--वह सिंह था!
वापिस उसने पानी में झांककर देखा। मुस्कुराया होगा; सोचा होगा कैसा खेल हुआ! कैसी वंचना! कैसा अपने को धोखा दिया!
बुद्धों के पास दर्पण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
और जब इस पक्षी को बुद्ध ने देखा पंख फड़फड़ाते, तब वे यही कह रहे थे कि तुम भी स्मरण करो पंखों को। तुम जहां बंद हो, वहां किसी ने तुम्हें बंद नहीं किया; वहां तुम अपनी ही विस्मृति के कारण बंद हो। तुम भेड़ नहीं हो, तुम सिंह हो। देखो इस पक्षी को, इस मुक्त आकाश में उड़ते पक्षी को!
और पक्षी गीत गाया और उड़ गया।
गीत केवल उन्हीं के जीवन में हो सकते हैं, जिनके जीवन में स्वतंत्रता की संभावना है। परतंत्रता के कैसे गीत? पक्षी गाते हैं, गा सकते हैं, क्योंकि उड़ सकते हैं।
आदमी का गीत खो गया, नृत्य खो गया। परतंत्रता में कैसा गीत? कैसा नृत्य? कैसी खुशी? कैसा आनंद? आदमी उदास है। उदासी का पत्थर उसकी छाती पर रखा ही रहता है। तुम मुस्कुराते भी हो तो भी तुम्हारी मुस्कुराहट सिर्फ उदासी की खबर देती है। तुम्हारे ओंठ मुस्कुराते हैं, लेकिन कोई उनमें गहरे देखे तो वहां भी आंसू छिपे हैं। तुम चलते हो लेकिन ऐसे, जैसे न मालूम कितनी जंजीरें तुम्हारे पैरों में बंधी हों। नृत्य नहीं है वहां। तुम नाच तो सकते ही नहीं; क्योंकि नाच तो वही सकता है, जिसे भीतर की परम स्वतंत्रता का अनुभव हुआ हो। नृत्य तो एक उत्सव है, एक धन्यवाद है। मीरा ने कहा है, 'पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।' लेकिन पैरों में घुंघरू तभी बांधे जा सकते हैं, जब आत्मा की भनक पड़ी हो। उसके बिना कोई गीत नहीं। उसके बिना जीवन एक बोझ है, एक संताप, एक दुख, एक...एक दुखस्वप्न है; और बड़ा लंबा दुखस्वप्न है। जिससे जागने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता; जिससे हटने का कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ता।
पक्षी ने गीत गाया।
खुला आकाश सामने था, पंख पास थे। गीत गाने में और चाहिए क्या? पंख हों और खुला आकाश हो। अंतहीन आकाश हो और अंतहीन उड़ने की क्षमता हो; और गीत के लिए चाहिए क्या? तुम्हारे भीतर भी गीत उस दिन उठेगा, जिस दिन तुम भी पंख फैलाओगे और खुले आकाश में उड़ जाओगे।
कभी तुमने देखा है सांझ को, आकाश में उड़ते हुए अबाबील? उड़ते भी नहीं, पंखों तक को ठहराकर तिरते हैं। उनके तिरने में ही ध्यान है। सांझ को आज देखना, जब अबाबील अपनी ऊंचाइयों से उतरने लगें, तब वे तैरते तक नहीं; तब वे उड़ते ही नहीं। तब श्रम बिलकुल नहीं है, सिर्फ हवा पर पंख फैलाकर ठहरे होते हैं। उस क्षण में, जिसको गीता स्थितप्रज्ञ कहती है, वैसी उनकी चित्त-दशा होती होगी।
जिस दिन तुम भी खुले आकाश में बिना किसी प्रयत्न के उड़ पाओगे, उस दिन नृत्य पैदा होगा। उस दिन गीत का जन्म होगा। उस दिन तुम धन्यवाद दे सकोगे।
पक्षी ने गीत गाया, पंख फैलाये, और खुले आकाश में उड़ गया।
बुद्ध ने कहा, 'आज का प्रवचन पूरा हुआ।'
और कुछ कहने को है भी क्या?
कठिन हुआ होगा सुननेवालों को समझना, क्योंकि वे शब्द सुनने आए थे। और जो शब्द सुनने आता है, वह अकसर बहरा होता है। वे सिद्धांत सुनने आए थे। और जो सिद्धांत सुनने आता है, अकसर बुद्धिहीन होता है। सिद्धांतों में रस बुद्धिहीनों को होता है। बुद्धिमान का रस सत्य में होता है, सिद्धांत में नहीं। सिद्धांत को क्या खाओगे, पीओगे? क्या करोगे?
तुम्हें प्यास लगी हो और कोई जल का सिद्धांत तुम्हें समझाए--एच-टू-ओ--तुम क्या करोगे? तुम्हें प्यास लगी हो, तो एच-टू-ओ से प्यास तो नहीं बुझती। यह सूत्र बिलकुल सही होगा, लेकिन इस सूत्र को तुम क्या करोगे? इसे गर्दन से बांधे घूमते रहो, कंठ इससे ठंडा न होगा, शीतल न होगा। तुम कहोगे पानी चाहिए, एच-टू-ओ नहीं। पानी प्यास को बुझाएगा। पानी कोई सिद्धांत नहीं है।
सत्य कोई सिद्धांत नहीं है। सत्य एक अनुभव है, जैसे जल कंठ से उतरता है, तब जो अनुभव होता है; वह अनुभव बड़ा अलग है।
बुद्ध के पास जो लोग सिद्धांत सुनने आए होंगे, वे चौंके होंगे। बुद्ध के दिये गए पानी को वे न समझे होंगे। वे सुनने आए थे एच-टू-ओ के संबंध में कोई खबर, कोई सिद्धांत, कोई विश्लेषण, कोई प्रत्यय, कोई कन्सेप्ट, कोई बौद्धिक धारणा। उन्हें बड़ा बेबूझ लगा होगा। ये बुद्ध थोड़े विक्षिप्त लगे होंगे। यह व्यवहार समझ में न आया होगा। यह कैसा प्रवचन?
हम सुनने आए थे और बुद्ध ने दिखाने की कोशिश की।
हम समझने आए थे और बुद्ध ने जीवंत प्रतीक सामने खड़ा कर दिया।
बुद्ध प्रतीकों में न बोले, उन्होंने इशारा किया। उन्होंने कहा, 'देखो! यह पक्षी वातायन पर बैठा, इसे घर न बनाया। ऐसे ही तुम संसार पर बैठना और घर मत बना लेना। पंख फड़फड़ाना। कहीं भूल न जाओ, विस्मृति न हो जाए। सुरति बनी रहे। गीत गाना, क्योंकि गीत ही प्रार्थना है।'
तुम गा सको तो ही तुम भक्त हो सकते हो। तुम गा सको तो ही तुम परमात्मा से किसी तरह का संबंध जोड़ सकते हो। तुम्हारे उदास चेहरों से मंदिरों की तरफ कोई रास्ता नहीं जाता। तुम्हारे बोझिल मन से परमात्मा की तरफ कोई स्वर नहीं उठता। तुम दुख से भरे, थके-मांदे, हारे-पराजित! तुम्हारे हृदय से ऐसी कोई गंध नहीं उठती, जो परमात्मा के चरणों को छू ले। तुम जब गाओगे, तब ही तुम्हारा हृदय पूरा का पूरा खिलता है।
गीत पक्षियों के फूल हैं। वृक्षों में फूल लगते हैं, पक्षियों में गीत। तुम्हारा गीत कहां है? और जब तक तुम्हारा गीत नहीं लगा, तब तक तुम अधूरे हो, पंगु हो! तुम्हारा वृक्ष अपनी पूर्णता पर नहीं पहुंचा।
क्या है तुम्हारा गीत?
धर्म उसी गीत की तलाश है। उसे धर्मों ने प्रार्थना कहा है, पूजा कहा है, अर्चना-आराधना कहा है, ध्यान कहा है, स्तुति कहा है, सामायिक कहा है, नमाज कहा है। ये सारे नाम हैं, लेकिन बात एक ही है।
जिस दिन तुम्हारे भीतर से अस्तित्व के प्रति आभार और अहोभाव का गीत उठता है, जिस दिन तुम कह पाते हो, मैं धन्यभागी हूं क्योंकि मैं हूं। बस मेरा होना पर्याप्त तृप्ति है, कुछ और नहीं चाहिए। जब तक तुम कुछ और मांगते हो, तब तक शिकायत उठती है। क्योंकि तुम्हारी मांग में ही छिपा है कि जो तुम्हें मिला है, वह काफी नहीं है। तुम्हारी मांग कहती है और चाहिए, तब मैं धन्यवाद दे सकता था। जो मुझे मिला, वह कम है। प्रार्थना कहती है, जो मुझे मिला है वह ज्यादा है। जितना मुझे मिलना था, मेरी पात्रता थी, उससे बहुत ज्यादा है। मैं हर हालत में धन्यवाद दे रहा हूं। मेरा होना ही पर्याप्त तृप्ति है।
थोड़ा सोचो! एक क्षण के होने को भी तुम किस तरह पा सकोगे? यह श्वास का भीतर जाना और बाहर आना, यह तुम्हारा होना, यह तुम्हारा होश! एक क्षण को भी तुम्हारा होना काफी नहीं है? अगर तुम्हें एक क्षण का भी होना मिलता हो, तो क्या तुम सारे जगत का साम्राज्य उसके बदले में दे देने को राजी न हो जाओगे?
लेकिन तुम्हें याद नहीं पड़ता। सरोवर के किनारे बैठे तुम्हें समझ में नहीं आता कि मरुस्थल में पानी की कितनी कीमत होगी! मरते वक्त समझ में आता है कि होने का कितना मूल्य था! जब श्वास आखिरी टूटती होगी, तब तुम चीखोगे, चिल्लाओगे कि एक क्षण को होना और हो जाए, मैं सब देने को तैयार हूं। लेकिन अभी? अभी तुम हो, लेकिन तुम्हारे मन में कोई धन्यवाद नहीं।
प्रार्थना अहोभाव है। जैसे धूप उठती है आकाश की तरफ सुगंध को लेकर, ऐसे तुम्हारे हृदय से जो भाव उठता है अनंत की तरफ, तुम्हारी सारी सुगंध को लेकर, वही प्रार्थना है। उस पक्षी का गीत गाना...।
बुद्ध ने काफी कह दिया, जरूरत से ज्यादा कह दिया। जितना समझना जरूरी हो, उससे ज्यादा कह दिया। जितने से पूरी यात्रा हो सकती है, उतना कह दिया। पूरा सेतु निर्मित कर दिया, रास्ता पूरा साफ कर दिया। और पक्षी ने गीत गाया और उड़ गया खुले आकाश में।
जिस दिन तुम प्रार्थना कर सकोगे, उसी दिन मोक्ष का आकाश तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा। जिस दिन तुम गा सकोगे, धन्यवाद जिस दिन तुम्हारा पूरा तन-मन, तुम्हारे पूरे प्राण, अहोभाव को प्रगट कर सकेंगे, और तुम कह सकोगे, 'धन्यभाग'! उसी दिन मोक्ष तुम्हारा है। गीतों को कोई बंधन में नहीं रख सकता। प्रार्थनाओं को कारागृह में रखने का कोई उपाय नहीं।
जर्मनी में एक बहुत कीमती विचारक अभी-अभी हुआ, दूसरे महायुद्ध में--बोन हायफर, ईसाई फकीर। उसे हिटलर ने कारागृह में डाल दिया था। अनेक वर्ष कारागृह में बिताए। कारागृह से उसने जो पत्र लिखे हैं, उसमें एक वचन भूलने जैसा मुझे नहीं लगा। एक वचन उसने लिखा है, कि मुझे तो कारागृह में डाल दिया लेकिन मेरी प्रार्थना को कौन कारागृह में डाल सकेगा? मेरी प्रार्थना उतनी ही स्वतंत्र है, जितनी बाहर थी। मैं परमात्मा को उतने ही आनंद से पुकारता हूं, जितना बाहर पुकारता था; रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। मुझे तुम कारागृह में डाल सकते हो, लेकिन मेरी प्रार्थना को कैसे कारागृह में डालोगे?
प्रार्थना तुमसे बहुत बड़ी है। तुम्हारे ऊपर बंधन डाले जा सकते हैं। तुम्हारी प्रार्थना विराट है, उस पर बंधन डालने का कोई उपाय नहीं। और जिसके पास प्रार्थना है उसके पास आत्मा है। आत्मा को बंधन में कोई नहीं डाल सकता। और जो उड़ सकता है उसके लिए मोक्ष पूरा खुला है। तुम पूछते हो, मोक्ष कहां है? तुम्हें पूछना चाहिए, मेरे पंख कहां हैं? तुम पूछते हो, ईश्वर है या नहीं? तुम्हें पूछना चाहिए, मेरे पंख उड़ सकते हैं या नहीं? ईश्वर और मोक्ष पूछने की बातें नहीं हैं। तुम उड़ सकते हो तो तुम उन्हें जान ही लोगे। तुम उड़ सकते हो तो वे यहीं मौजूद हैं। वे दूर दिखाई पड़ते हैं क्योंकि तुम उड़ नहीं सकते।
एक यहूदी फकीर हुआ, मजीद उसका नाम था। उसने रात एक सपना देखा कि कोई आवाज उससे कह रही है कि मजीद! तू क्यों भूखा मरता है? क्यों प्यासा, क्यों दुख-पीड़ा में? तेरी पत्नी उदास है सदा, तेरे बच्चे भीख मांगते हैं। तू जा वार्सा, राजधानी की तरफ। वार्सा के पुल के पास इतने कदम चलने पर, एक सिपाही खड़ा है। बस ठीक उसके पीछे एक वृक्ष है। उस वृक्ष के पीछे बड़ा धन गड़ा है। सुबह मजीद उठा, मन में वासना भी जगी पर उसने कहा, सपनों का क्या भरोसा? और सपना ही है यह। कैसा वार्सा? कैसा धन?
लेकिन दूसरी रात फिर सोया कि फिर सपना आया और उसने कहा कि मजीद! चूक मत, हम बार-बार न चेताएंगे। फिर उसे दिखाई पड़ा वार्सा का पुल, सिपाही खड़ा है, उसके पीछे एक वृक्ष, वृक्ष के पीछे धन गड़ा है। दूसरे दिन भी उसने अपने को संतुष्ट कर लिया, समझा-बुझा लिया कि सपनों में पड़ना उचित नहीं है। लेकिन तीसरी रात, फिर वही सपना और वही आवाज, कि यह आखिरी चेतावनी है। अब बहुत हो गया। तू जा, खजाना खोदकर ले आ।
तब तीसरे दिन रुकना मुश्किल हो गया। मजीद ने कहा, हो न हो सपना भी साधारण नहीं है। क्योंकि तीन बार निरंतर कोई सपना लौटे तो करीब-करीब सत्य मालूम पड़ने लगेगा। और वही आवाज, वही पुल, सब पड़ता है। तो मजीद गया। सैकड़ों मील की यात्रा थी, पहुंचा।
जब वार्सा के करीब पहुंचा तो उसे लगा कि यह तो मामला सपने का नहीं दिखता। वही पुल, जो सपने में देखा था। हाथ-पैर कंपने लगे कि मैं फिर से सपना तो नहीं देख रहा हूं? मैं सो तो नहीं गया हूं? वही वृक्ष! सिपाही सामने खड़ा, वही सिपाही। उसने कहा कि अब बड़ा मुश्किल है, खजाना होगा ही। मगर खजाने को खोदना कैसे? सिपाही खड़ा है, रास्ता चलता है, कहीं संदिग्ध न हो जाऊं! तो भी उसने वृक्ष के आसपास चक्कर लगाकर देखा। ठीक वही स्थान, जो सपने में दिखाई पड़ा था। तीन बार देखा था, बिलकुल साफ था।
और तभी पुलिसवाले ने उसे पकड़ लिया। और कहा, कि 'तू संदिग्ध मालूम पड़ता है। तू यहां क्या खोज रहा है? यहां तू क्या कर रहा है। और अजनबी है। सच-सच बोल।' पुलिसवाला उसे अपने घर ले गया और कहा कि सच बोल दे तो तुझे छोड़ दूंगा। मजीद ने सोचा कि सच बोल देना ही उचित है। तो उसने सारी बात कह दी कि ऐसा-ऐसा तीन बार सपना आया। और मैं चला आया। और बड़ी मुश्किल की बात तो यह है कि सब ठीक वैसा ही है, जैसा सपने में था।
वह पुलिसवाला हंसने लगा। उसने कहा, 'पागल! अगर मैं भी तेरे जैसा पागल होता, तो आज मैं क्राका नाम के गांव में होता। मजीद ने कहा, 'क्या मतलब?' क्योंकि क्राका गांव से वह आया था। उस पुलिसवाले ने कहा कि 'तीन बार सपना आ चुका है, कि तू यहां खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है वृक्ष के नीचे? क्राका गांव में मजीद नाम का एक फकीर है, उसके घर के भीतर जहां उसका चूल्हा है, उसके बिलकुल बगल में खजाना गड़ा है। और आवाज कहती है, 'जा, चूक मत!' और मैंने सोचा, सपने-सपने हैं। अगर मैं भी तेरे जैसा पागल होता, तो आज क्राका गांव में होता। और फिर कहां खोजो मजीद को? मजीद नाम के न मालूम कितने आदमी हों। फिर उसके घर में कैसे घुसोगे? उसके चूल्हे के बगल में खजाना गड़ा है।
मजीद तो और भी मुश्किल में पड़ गया। लेकिन पुलिसवाले ने उसे छोड़ दिया कि तू पागल है, कोई अपराधी नहीं। वह भागा घर। जाकर चूल्हे के बगल में खोदा; खजाना वहां गड़ा था।
सपने बड़े अजीब हैं। तुम्हें वहां खजाना दिखलाते हैं, जहां बहुत फासला है। और खजाने तुम्हारे पास गड़े हैं। दूर दिखाता है सपना सदा--वार्सा में, राजधानी में; और खजाना तुम्हारे पास गड़ा है। वहां भी कोई देखता है लेकिन उसे भी खजाना दूर...सभी खजाने दूर दिखाई पड़ते हैं।
परमात्मा बहुत दूर दिखाई पड़ता है। उससे ज्यादा पास और कोई भी नहीं, लेकिन पास तुम देख नहीं पाते। पास के प्रति तुम अंधे हो गए हो। इशारे करते हैं बुद्ध पुरुष, कि खजाने तुम्हारे पास हैं।
पक्षी बिलकुल पास ही बैठा था वातायन पर। और उसने उस ढंग से बात कह दी, जिस ढंग से बुद्ध भी न कह पाते। लेकिन शायद किसी ने भी न देखा।
पक्षी फड़फड़ाया, गीत गाये, पंख खोले, उड़ गया।
किसी ने भी न देखा। वे सब बुद्ध की तरफ नजर लगाए थे--बहुत दूर, जहां से शब्दों के संदेश आएंगे। शब्द तो बहुत दूर हो जाते हैं, क्योंकि शब्द तो फीकी खबर है, प्रतिबिंब है। और बुद्ध एक जीवंत प्रतीक की तरफ इशारा कर रहे थे। वे देख रहे थे पक्षी की तरफ।
काश! सुनने वालों में थोड़ी भी समझ होती, तो वहीं देखते जिस तरफ बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध क्या कहते हैं, यह समझना जरूरी नहीं है। बुद्ध कहां देखते हैं, वहां देखना जरूरी है। बुद्ध क्या बोलते हैं, यह व्यर्थ है। बुद्ध कैसे हैं, वही सार्थक है। बुद्ध की आंखों में क्या झलक रहा है, वह हमें खोजना चाहिए। बुद्ध के शब्दों में क्या झलक आ रही है, वह तो बहुत दूर की है। बुद्ध की आंखें बिलकुल खजाने के पास हैं।
ठीक कहते हैं बौद्ध, कि उस दिन का प्रवचन पूरा हो गया। और बुद्ध ने कहा, 'आज का प्रवचन पूरा हुआ।' ऐसा मधुर प्रवचन उन्होंने दुबारा दिया भी नहीं।
तुम्हारी भी तकलीफ वही है, जो बुद्ध के सुननेवालों की थी। मेरी अड़चन भी वही है, जो बुद्ध की है। अगर मैं चुप बैठूं, तुम चूक जाओ। अगर मैं बोलूं, तुम सुन लो; फिर भी समझ नहीं पाओगे। बोलने से कौन-कब सुना और समझा है?--इशारे! लेकिन इशारों के लिए तुम्हारी तैयारी चाहिए। शब्द तो कोई भी सुन लेता है। शब्द सुनने के लिए तुम्हें कुछ तैयार होने की जरूरत तो नहीं है, बच्चे भी सुन लेते हैं। लेकिन इशारे देखने के लिए तुम्हारी तैयारी चाहिए, तुम्हारी चेतना तैयार होनी चाहिए। होश चाहिए, एक जागरूकता चाहिए।
उस दिन लोग हंसते हुए लौटे होंगे। उन्होंने कहा, 'बुद्ध ने भी खूब मजाक किया! यह भी कोई बात थी? अगर ऐसा ही प्रवचन सुनना था, अपने ही घर सुन लेते। पक्षी वहां भी बैठते हैं वातायन पर और फड़फड़ाते हैं और उड़ जाते हैं। ऐसा बुद्ध ने नया क्या किया?'
तुम्हारे वातायन पर भी पक्षी बैठते हैं, लेकिन तुमने कब उन्हें देखा? फड़फड़ाते हैं पंख, तुमने कब अपने पंखों की स्मृति उनसे पाई? उड़ते हैं आकाश में, कब उड़ने की आकांक्षा तुम्हें पकड़ी? कब तुम्हें आकाश दिखाई पड़ा?
बुद्ध जैसे लोगों की जरूरत है उसको दिखाने की, जो बिलकुल प्रगट है। जो बिलकुल तुम्हारे पास ही गड़ा है। तुम्हारे चूल्हे के बगल में जो खजाना है, उसके लिए ही तुम्हें आवाजें देनी पड़ती हैं।
और ध्यान रहे, यह मजीद को भरोसा भी आ गया तीन दिन सपना देखकर, कि जा वार्सा और वहां खजाना खोद। अगर सपने में आवाज ने कहा होता, तेरे चूल्हे के बगल में खजाना गड़ा है, मजीद को भरोसा न आता, यही मैं तुमसे कहता हूं। यह कहता, 'छोड़ो भी बकवास! कहां मजीद का घर, और कहां खजाना!' सपना सपना है। वह तो वार्सा बहुत दूर था, इसलिए भरोसा भी आ गया।
तुम्हें पास भी खोजना हो, तो दूर के रास्ते से लाना पड़ता है। तुम्हें निकट भी बताना हो तो बड़ी यात्रा करवानी पड़ती है। क्योंकि दूर को तुम थोड़ा-सा समझ भी लेते हो, वासना दूर को समझ पाती है। ध्यान पास को समझ पाता है। ध्यान निकट की खोज है, वासना दूर की खोज है।
तीन बार सपना आया तो मजीद को भरोसा आ गया कि हो न हो--शायद! जाने में हर्ज भी क्या है? खोऊंगा क्या, अगर न भी मिला? चला जाऊं। लेकिन अगर यह चूल्हे के बगल में ही आवाज ने कहा होता, कि तेरे बगल में ही खजाना गड़ा है, तो मजीद सुबह दिल खोलकर हंसता और कहता, 'खूब मजाक हो रही है। सपने मजाक कर रहे हैं। मेरे ही घर में कैसा खजाना?'
अगर में तुमसे कहूं कि तुम्हारे भीतर ही परमात्मा बैठा है, तुम सुन लोगे, लेकिन भरोसा न करोगे। इसलिए सारे धर्म कहते हैं, परमात्मा आकाश में, सात आकाशों के पार बैठा है। तब तुम्हारे हाथ जुड़ते हैं; तुम्हारा सिर झुकता है। परमात्मा दूर हो तो शायद हो भी! तुम्हारे भीतर परमात्मा? तुम मान ही नहीं सकते। तुम्हारे भीतर और परमात्मा हो सकता है? यह बात भरोसे की ही नहीं।
इसलिए दुनिया में आत्मवादी धर्मों का बहुत प्रचार नहीं हुआ, परमात्मवादी धर्मों का बहुत प्रचार हुआ। इस्लाम है, ईसाइयत है, हिंदू हैं, ये परमात्मवादी धर्म हैं। परमात्मा आकाश में बैठा है। जैन हैं, आत्मवादी हैं, इनका बहुत प्रचार नहीं हो सका। क्योंकि उन्होंने कहा, 'परमात्मा तुम्हारे भीतर है।' महावीर ने सपने को उल्टा करके तुम्हें आवाज दी, कि तुम्हारे चूल्हे की बगल में ही गड़ा हुआ है धन। इसलिए तुम राजी भी न हुए खोदने को। धन दूर हो सकता है, तुम्हारे पास कैसे होगा? तुम्हारे पास होता तो तुम खोद ही लेते। तुम्हारे भीतर होता, तो तुमने अब तक पा ही लिया होता।
और बुद्ध जैसे पुरुष निरंतर कोशिश कर रहे हैं तुम्हें जगाने की उसकी, जो तुम्हारे बिलकुल पास है। जैसे मछली के पास सागर है, वैसे तुम्हारे पास सब कुछ है। और शास्त्र, कहीं वेद, गीता और कुरान में नहीं है, शास्त्र तो प्रतिपल जीवित है चारों तरफ; पक्षियों के उड़ने में, फूलों के खिलने में, आकाश में बादलों के तैरने में, तुम्हारी आंखों में, बच्चे के हंसने में, सब तरफ मौजूद है।
मैं एक यहूदी फकीर का जीवन पढ़ता था। उसे लोग पागल समझते थे क्योंकि वह बातें ऐसी करता था। बातें उसकी बड़ी कीमती थीं। अकसर संतों की और पागलों की बातें एक जैसी हो जाती हैं। क्योंकि दोनों तुम्हारी बुद्धि के पार पड़ जाते हैं। वह फकीर से किसी ने कहा कि बाइबिल के संबंध में कुछ कहो। तो उसने कहा, 'मैं क्या कहूं बाइबिल के संबंध में, सभी बाइबिलें मेरे संबंध में कहती हैं।' यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा।
'आने वाले मसीहा के संबंध में कुछ कहो'--किसी ने कहा।
तो उसने कहा, कि 'आने वाला मसीहा मेरे संबंध में कुछ कहेगा। वह मेरे जीवन की व्याख्या करेगा। सब मसीहा मेरी सेवा में नियुक्त हैं।'
यह निश्चित आदमी पागल है। अगर कोई कहे कि कृष्ण, राम मेरी सेवा में नियुक्त हैं, तो तुम उसे पागल समझोगे ही। अगर कोई कहे कि वेद, गीताएं, उपनिषद सब मेरी व्याख्या करते हैं, तुम उसे पागल कहोगे ही। पर यह ठीक कह रहा था। यह बिलकुल ही ठीक कह रहा था। यह बिलकुल इसने तीर ठीक निशाने पर मारा है। सभी कुरान, सभी बाइबिल, सभी गीताएं, सभी वेद तुम्हारी व्याख्या करते हैं। और तुम उनमें अपनी ही खोज के लिए जाते हो। बेहतर होता तुम अपने भीतर जाते।
बुद्ध और क्या बोलेंगे?
यह निशब्द प्रवचन, यह बुद्ध का बिना बोले बोल दिया जाना...!
सोचना, इस पक्षी के प्रतीक को। तुम्हारे सपनों में उतर जाने देना। जब दुबारा तुम किसी पक्षी को वातायन पर बैठा हुआ देखो, रुकना; गौर से देखना, जैसा बुद्ध ने उस सुबह देखा होगा। प्रतीक्षा करना जब पक्षी गीत गाए, पंख फड़फड़ाए, और उड़े। अगर तुम ध्यानपूर्वक देख सके, अगर तुमने बिना सोचे इस प्रत्यक्ष को किया तो जब पक्षी पर फड़फड़ाएगा, तुम पाओगे कि तुम भी पर फड़फड़ा रहे हो। जब पक्षी गीत गाएगा तो तुम पाओगे, तुम्हारे हृदय में भी कोई धुन गूंजने लगी। और जब पक्षी उड़ेगा तो तुम पाओगे कि तुम भी उड़े
जीवन तो एक है। फासले तो बहुत ऊपरी हैं। पक्षी और तुम में कोई फासला है? ऊपर की रेखाओं का भेद है। अगर तुम समग्र मनन भाव से पक्षी को उड़ते देख लो तो तुम उड़ गए। अगर तुम समग्र मनन भाव से एक फूल को खिलते देख लो तो तुम खिल गए। अस्तित्व एक है। तुम नाहक अपने में बंद सड़ रहे हो। तुम नाहक ही अपने को सब तरफ से बंद किए तोड़े हुए हो। अपने ही हाथों सब जड़ें तुमने काट डाली हैं।
संदेश चारों तरफ लिखा है।
शास्त्र सब तरफ खुदे हैं।
द्वार-द्वार, गली-गली, कूचे-कूचे, पत्थर-पत्थर पर वेद है। बस, तुम्हें रुककर देखने की जरूरत है।
उस सुबह बुद्ध रुके, चुपचाप उस पक्षी की तरफ देखते रहे, पक्षी उड़ गया, और उन्होंने कहा, 'प्रवचन आज का पूरा हुआ।'

भगवान : ...कुछ और?
भगवान! हम तो दुख से भागकर आपके पास आए हैं और अंधकार में खड़े हैं। और आप उस परम प्रकाश के प्रतिनिधि हैं, जो बिना बत्ती और तेल के जलता है। क्या दोनों में मिलन संभव है?

मिलन तो संभव नहीं है। वही दुविधा है। अंधकार और प्रकाश का कभी कोई मिलन नहीं होता। हो भी नहीं सकता क्योंकि प्रकाश 'है', और अंधकार 'नहीं है।' तो जो है, उसका जो नहीं है--कैसे मिलन होगा? अंधकार तो सिर्फ अभाव है, अनुपस्थिति है, प्रकाश की गैर-मौजूदगी है। अंधकार अपने आप में कुछ भी नहीं है। इसलिए तुम अंधकार के साथ सीधा कुछ करना चाहो तो न कर पाओगे।
कमरे में अंधेरा भरा है और तुम चाहो कि अंधेरे को हटाना है, तो तुम क्या करोगे? धक्के दोगे? पोटलियां बांधोगे? अंधेरे को बाहर उलीचकर फेंकोगे? क्या करोगे? नहीं, कुछ भी न किया जा सकेगा सीधा। तुम्हें कुछ भी करना हो तो तुम्हें दीया जलना होगा। कुछ करना है, तो प्रकाश के साथ करना होगा। अंधेरे के साथ कुछ भी नहीं कर सकते।
प्रकाश है, अगर तुम्हें अंधेरा लाना हो तो तुम क्या करोगे? बाजार से खरीदकर अंधेरा ला सकते हो? क्या तुम अंधेरे को दीये के ऊपर गिराकर दीये को बुझा सकते हो? कोई उपाय नहीं। तुम दीया बुझा दो, अंधेरा वहां आ जाएगा। अंधेरा सिर्फ अभाव है। इसलिए अंधेरे और प्रकाश का कभी कोई मिलना नहीं होता।
फिर बुद्ध तुम्हें क्या समझाते हैं? बुद्ध तुम्हारे अंधेरे से अपने प्रकाश को नहीं मिलाते, न मिला सकते हैं। बुद्ध तुम्हें यही समझाते हैं कि तुम्हारी भ्रांति है कि तुमने समझा कि तुम अंधेरे में हो। तुम भी बिन बाती बिन तेल जलने वाले दीये हो, तुम भी प्रकाश हो। बुद्ध केवल तुम्हें यह स्मरण दिलाते हैं, तुम कौन हो इसका। अगर तुम अंधेरे हो तब तो बुद्ध से तुम्हारा मिलना कभी भी न हो पाएगा। लेकिन तुम नहीं हो। यह सिर्फ तुम्हारा खयाल है, यह सिर्फ तुम्हारी धारणा है।
तो बुद्ध तुम्हारी धारणा भर को तोड़ते हैं। तुमने तादात्म्य कर रखा है अंधरे से, कि मैं अंधेरा हूं। तुमने मान लिया है, कि तुम अज्ञान हो। तुमने मान लिया है कि तुम भटक गए हो। तुमने मान लिया है, कि तुम पापी हो। ये तुम्हारी मान्यताएं हैं। बुद्ध इन मान्यताओं को तोड़ सकते हैं और जिस दिन ये मान्यताएं टूटेंगी, उस दिन तुम पाओगे कि तुम तो चैतन्य प्रकाश हो, तुम तो चिन्मय प्रकाश हो, तुम तो सदा-सदा जलने वाले प्रकाश हो। क्षण भर को भी तुम अंधेरा नहीं थे। अंधेरा तुम हो भी नहीं सकते।
एक छोटी कहानी से तुम समझो। एक सम्राट को उसके ज्योतिषी ने कहा कि इस वर्ष जो फसल आएगी उसे जो भी खाएगा, पीएगा, वह पागल हो जाएगा। तो तुम कुछ बचाने का उपाय कर लो। सम्राट ने कहा, 'तो पिछले वर्ष की फसल हम बचा लें।' लेकिन ज्योतिषी ने कहा, 'वह इतनी काफी नहीं है कि तुम्हारे पूरे राज्य के लोग उससे एक साल तक जी सकें। इतना हो सकता है कि महल में रहने वाले लोग; तुम, मैं, तुम्हारी रानी, तुम्हारे बच्चे, थोड़े-से लोग बच जाएं।'
सम्राट ने कहा, 'इन थोड़े-से लोगों को बचाकर क्या सार होगा? और जब मेरा पूरा साम्राज्य ही पागल हो जाएगा, तो उनके बीच न-पागल होने में और भी अड़चन होगी। तो तुम एक काम करो, सिर्फ तुम पुरानी फसल को बचा लो, पुराने अनाज को; और हम सब को पागल हो जाने दो। एक ही बात पक्का रखना, तुम पागल नहीं रहोगे। तो तुम एक-एक व्यक्ति को जो भी तुम्हें मिलें, उसे हिलाकर कहना कि 'तू भी पागल नहीं है। बस, इतनी तुम कसम खा लो।'
तो सम्राट ने ठीक कहा। अगर पागल को स्मरण दिला दिया जाए, होश हिला दिया जाए पागल का, तो जो अन्न से गया है, वह तो शरीर पर ही होगा; आत्मा तक नहीं पहुंच सकता। वह जो बेहोशी है, बाहर-बाहर होगी; भीतर नहीं पहुंच सकती।
यह कहानी सूफियों की है, और बड़ी प्यारी है।
ऐसा ही हुआ। सारा साम्राज्य पागल हो गया। सिर्फ ज्योतिषी बचा। बड़ी कठिन उसकी यात्रा थी, क्योंकि पागलों को हिलाना बड़ा मुश्किल था। कितना ही उनको कहो, वे सुनते न थे। कितना ही चेताओ, चेतते न थे। कितना ही हिलाओ, जमे थे, हिलते न थे। लेकिन फिर भी कुछ लोग हिले, कुछ लोगों को याद आई। और जिनको याद आई, वह ज्योतिषी कहता, 'तुम भी यही करो, दूसरों को हिलाओ।' क्योंकि जो अन्न है, वह भीतर तक नहीं जा सकता; वह आत्मा नहीं बन सकता। ऊपर-ऊपर बेहोशी, तंद्रा ऊपर-ऊपर है।
जैसे कोई आदमी सो गया हो, तुम हिलाओ और वह जग जाए। तो जागरण कभी खोता नहीं; सिर्फ भीतर छिप जाता है। वासना ने, आकांक्षा ने, चाह ने तुम्हें विषाक्त किया है। तुम्हें धुएं से भर दिया है। लेकिन बस तुम्हारी देह पर ही है वह धुएं का आवरण।
प्रकाश से तुम्हारा मिलन अगर तुम अंधेरे होते तो कभी भी नहीं हो सकता था। तुम अंधेरा नहीं हो, तुम भी प्रकाश हो। तुम्हारे दीये की लौ चाहे कितनी ही मद्दिम जलती हो, उसके चारों तरफ चाहे कितना ही अंधेरा हो, वह स्वयं अंधेरा नहीं है। कोई चाहिए, जो तुम्हें हिलाए, कोई तुम्हें जगाए, कोई तुम्हें होश दे। बस, उतना होश! तत्क्षण तुम पाओगे, एक क्षण में क्रांति घट सकती है। और एक क्षण में तुम बुद्ध पुरुष हो जाओगे। तुम स्वयं बुद्ध हो जाओगे।
तुम अगर अंधेरे होते तो तुम्हारी मुक्ति का कोई उपाय नहीं था। अंधेरे की कोई मुक्ति नहीं हो सकती। क्यों? अंधेरा है ही नहीं। तुम्हारी मुक्ति हो सकती है क्योंकि तुम अंधेरा नहीं हो। बिन बाती बिन तेल तुम जल रहे हो। तुम्हारे भीतर एक दीया है, जो सदा से जल रहा है। सदा जलता रहेगा। कितना ही ढंक जाए, जैसे बादल आ जाते हैं, आकाश में सूरज ढंक जाता है। इससे कोई सूरज मिटता नहीं। जरा बादलों की परतों को हटाओ, सूरज फिर प्रगट हो जाता है। थोड़ी-सी हवाएं चाहिए बुद्ध पुरुषों की, कि तुम्हारे बादल छितर-बितर हो जाएं और तुम्हें स्मरण आ जाए कि तुम कौन हो!
आत्मबोध--कोई आत्मा को पैदा करना नहीं है, सिर्फ भूली आत्मा की पुनः स्मृति है, सुरति है।
तो मैं जो कर रहा हूं चेष्टा, वह तुम्हें हिलाने की है। उस हिलाने में तुम नाराज भी होते हो। क्योंकि किसी को हिलाओ, कोई सोता है उसे जगाओ, कोई मजे में विश्राम कर रहा है, उसकी तंद्रा तोड़ो, वह नाराज होता है। शिष्य सदा गुरुओं पर नाराज होते हैं, जब तक कि वे जाग न जाएं। गुरुओं को छोड़ भी नहीं सकते क्योंकि कहीं न कहीं गहरे तल में सरकती हुई उनको भी यह बात तो समझ में आती ही रहती है कि गुरु जो कह रहा है, ठीक ही कह रहा है।
शिष्य में दो तल होते हैं। एक तल पर तो वह जानता है, गुरु जो कह रहा है,  बिलकुल ठीक कह रहा है। लेकिन एक तल पर वासनाएं मन को पकड़े हैं, और वह सोचता है, थोड़ी देर और सो लेते तो क्या हर्ज था? सपना बड़ा मधुर था, मीठा था और सपना बीच में तोड़ दिया। थोड़ी देर सो लेते तो क्या हर्ज था, इसलिए नाराज भी होता है।
शिष्य का एक तल गुरु से लड़ता है, और शिष्य का एक तल गुरु को छोड़ भी नहीं सकता।
इसलिए जब भी तुम सदगुरु के पास पहुंच जाओगे, बड़ा संघर्ष पैदा होगा। आधे से तुम भागना चाहोगे, हटना चाहोगे, बचना चाहोगे। तुम सब उपाय खोजोगे कि कैसे निकल भागें? और आधे से तुम रुके रहोगे, वापिस बार-बार लौट जाओगे। भागोगे तो भी वापिस आ जाओगे। क्योंकि आधा कहेगा, कहीं और जाने का कोई अर्थ नहीं। वह मंजिल आ गई, जिसकी तलाश थी।
गुरु पूरा एक है; शिष्य आधा-आधा है। शिष्य दो है, द्वैत है।
पर तुम्हारे भीतर जो व्यर्थ है, उससे ही छुटकारा दिलाना है। तुम्हारे भीतर जो सार्थक है, ताकि वह अपनी पूर्णता में, स्वच्छता में, प्रगट हो जाए। तुम्हें आग में डालना ही होगा, ताकि कचरा जल जाए और तुम्हारा स्वर्ण निखर आए। स्वर्ण तो जलता नहीं, सिर्फ निखरता है। तुम्हारा प्रकाश तो प्रगट होगा, तुम्हारा अंधेरा भर खो जाएगा।
जीसस ने कहा है, 'तुम जो नहीं हो, वही मैं तुमसे छीन लूंगा, और तुम जो हो, वही मैं तुम्हें दे दूंगा।' वचन विरोधाभासी लगता है, पर यही सत्य है: वही तुम से छीन लूंगा, जो तुम नहीं हो। तुमसे मैं भी वही मांगता हूं, जो तुम नहीं हो। क्योंकि उससे तुम्हारा छुटकारा हो जाए, तो वह प्र्रगट हो सके, जो तुम हो। और इस क्षण ही अभी, यहीं, वह बाती, वह दीया तुम्हारे भीतर जल रहा है जो अकारण है। जिसका तेल कभी चुकेगा नहीं क्योंकि तेल नहीं है। जिसकी बाती कभी बुझेगी नहीं क्योंकि बाती नहीं है। सिर्फ ज्योति है, सिर्फ प्रकाश है। वह शुद्ध प्रकाश तुम्हारा स्वभाव है।
अंधेरे से प्र्रकाश का मिलना कभी नहीं होता।
क्या तुम सोचते हो उस सिंह से, उस दूसरे सिंह की भेड़ का मिलना कभी हुआ? उस दूसरे सिंह की जो भेड़ थी, झूठी थी; थी ही नहीं, मिलने का कोई सवाल ही न था। मिलन तो दो सिंहों का हुआ। भेड़ का, सिंह का मिलन कैसा? भेड़ तो वहां थी भी नहीं। लेकिन इस सिंह ने क्या किया? उस भेड़ बन गए सिंह को जगाया, चौंकाया, हिलाया, डुलाया।
सूफी फकीर बायजीद अपने शिष्यों से कहता था, जब तक तुम्हें जगा ही न दूं तब तक मैं तुम्हें सताए ही चला जाऊंगा। और तुम भाग न सकोगे। मैं तुम्हारा पीछा करूंगा। मैं प्रेत की तरह तुम्हारे चारों तरफ घूमूंगा, जब तक तुम जग ही न जाओ! और जिस दिन तुम जग जाओगे, तुम्हें दूसरों के पीछे लगा दूंगा, तुम इनको जगाओ।
सारी पृथ्वी ने वह फसल खा ली, क्योंकि वे बेहोश हैं। कभी-कभी कोई एकाध आदमी उस फसल के विषाक्त भोजन से बच जाता है। उन्हीं को हम बुद्ध कहते हैं, कृष्ण कहते हैं, क्राइस्ट कहते हैं। वह तुम्हें जगाए चला जाता है। वह तुम्हें कुछ देने वाला नहीं है, जो तुम्हारे पास है, उसी के प्रति तुम्हें सजग कर देने वाला है।
आज इतना ही।




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