अध्याय—10
सूत्र:
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह
क्षमा सत्यं
दम: शम:।
सुखं——दुखं
भवोऽभावो भयं
चाभयमेव च।। 4।।
अहिंसा
समता
तुष्टिस्तयो
दानं यशोउयश।
भवन्ति
भावा भूतानां
मल एव
पृथग्विधा।। 5।।
महर्षयः
सप्त पूर्वे
चत्वारो
मनवस्तथा।
मद्रभावा
मानसा जाता
येषां लोक इमा: प्रजा:।।
6।।
और हे
अर्जुन
निश्चय करने
की शक्ति एवं
तत्वज्ञान और
अमूढूता
क्षमा सत्य
तथा ड़ंद्रियों
का वश में
करना और मन का
निग्रह तथा सुख—दुख, उत्पत्ति
और प्रलय एवं
भय और अभय भी तथा
अहिंसा समता
संतोष तय दान
कीर्ति और अपकीर्ति
ऐसे ये
प्राणियों के
नाना प्रकार
के भाव मेरे
से ही होते
हैं।
और हे
अर्जुन सात
महर्षिजन और
चार उनसे भी
पूर्व में
होने वाले
सनकादि तथा
स्वायंभुव
आदि चौदह मनु
ये मेरे में
भाव वाले सब
के सब मेरे
संकल्प से
उत्पन्न हुए
हैं कि जिनकी
संसार में यह
संपूर्ण
प्रजा है।
जैसे आकाश ने
सबको घेरा हुआ
है, जैसे
जीवन की ऊर्जा
सभी में
परिव्याप्त
है, वैसे
ही कण—कण, चाहे
पदार्थ का हो,
चाहे चेतना
का, परमात्मा
की ही
अभिव्यक्ति
है। कृष्ण इस
सूत्र में
अर्जुन से कह
रहे हैं कि मेरे
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। पहले इस
मौलिक धारणा
को समझ लें, फिर हम
सूत्र को
समझें।
जैसा
हम देखते हैं, तो सभी
चीजें अलग—अलग
मालूम पड़ती
हैं। कोई एक
ऐसा तत्व
दिखाई नहीं
पड़ता, जो
सभी को जोड़ता
हो। जब हम
देखते हैं, तो माला के
गुरिए ही
दिखाई पड़ते
हैं। वह माला
के भीतर जो
पिरोया हुआ
सूत का धागा
है, जो उन
सबकी एकता है,
वह हमारी आंखों
से ओझल रह
जाता है। जब
भी हम देखते
हैं, तो
हमें खंड
दिखाई पड़ते
हैं, लेकिन
अखंड का कोई
अनुभव नहीं
होता। यह अखंड
का जब तक
अनुभव न हो, तब तक
परमात्मा की
कोई प्रतीति
भी नहीं है।
इसीलिए हम
कहते हैं कि
परमात्मा को
मानते हैं, मंदिर में
श्रद्धा के
फूल भी चढ़ाते
हैं, मस्जिद
में उसका
स्मरण भी करते
हैं, गिरजाघर
में उसकी
स्तुति भी
गाते हैं।
लेकिन फिर भी
वह परमात्मा,
जिसके
चरणों में हम
सिर झुकाते
हैं, हमारे
हृदय के भीतर
प्रवेश नहीं
कर पाता है।
आश्चर्य
की बात कि हम
जिस अखंड की
खोज में मंदिर
और मस्जिद और गुरुद्वारे
में जाते हैं, हमारा
मंदिर, हमारा
मस्जिद, हमारा
गुरुद्वारा
भी हमें खंड—खंड
करने में
सहयोगी होते
हैं। हम मंदिर
और मस्जिद के
बीच भी एक को
नहीं देख पाते
हैं। हिंदू और
मुसलमान और
ईसाई के
पूजागृहों
में भी हमें
फासले की
दीवालें और
शत्रुता की
आड़े दिखाई
पड़ती हैं।
मंदिर भी अलग—अलग
हैं, तो यह
पूरा जीवन तो
कैसे एक होगा?
मंदिर
अलग नहीं हैं, लेकिन
हमारे देखने
का ढंग केवल
खंड को ही देख पाता
है, अखंड
को नहीं देख
पाता है। तो
हम जहां भी
अपनी दृष्टि
ले जाते हैं, वहां ही हमें
टुकड़े दिखाई
पड़ते हैं। वह
समग्र, जो
सभी को घेरे
हुए है, हमें
दिखाई नहीं
पड़ता है।
अर्जुन
की भी तकलीफ
वही है। उसे
भी अखंड का
कोई अनुभव
नहीं हो रहा
है। उसे दिखाई
पड़ता है, मैं हूं।
उसे दिखाई
पड़ता है, मेरे
मित्र हैं, प्रियजन हैं,
शत्रु हैं।
उसे दिखाई
पड़ता है कि
सुख क्या है, उसे दिखाई
पड़ता है कि
दुख क्या है।
उसे दिखाई
पड़ता है कि
पाप क्या है, पुण्य क्या
है। उसे सब
दिखाई पड़ता है,
सिर्फ एक, जो सभी के
भीतर छिपा हुआ
है, वह भर
दिखाई नहीं
पड़ता है। और
इसलिए कृष्ण
और अर्जुन के
बीच जो चर्चा
है, वह दो
दृष्टियों के
बीच है।
अर्जुन
खंडित दृष्टि
का प्रतीक है
और कृष्ण अखंडित
दृष्टि के। कृष्ण
समग्र की, दि होल, वह जो पूरा
है, उसकी
बात कर रहे
हैं और अर्जुन
टुकड़ों की बात
कर रहा है।
शायद इसीलिए
दोनों के बीच
बात तो हो रही
है, लेकिन
कोई हल नहीं
हो पा रहा है।
उन दोनों का
जीवन को देखने
का ढंग ही
भिन्न है।
इस
सूत्र में
कृष्ण अर्जुन
को एक—एक बात
गिना रहे हैं
कि मैं कहां—कहां
हूं। इतना ही
कहना काफी
होता कि मैं
सब जगह हूं।
इतना ही कहना
काफी होता कि
सभी कुछ मैं
ही हूं। लेकिन
यह बात अर्जुन
को स्पष्ट न
हो पाएगी।
अर्जुन को खंड—खंड
में ही गिनाना
पड़ेगा कि कहां—कहां
मैं हूं। शायद
उसे खंड—खंड
में यह एक की
झलक मिल जाए, तो खंड खो
जाएं और अखंड
की प्रतीति हो
सके। इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, हे
अर्जुन, निश्चय
करने की शक्ति
एवं
तत्वज्ञान और
अमूढ़ता.।
ये तीन
शब्द बहुत
कीमती हैं।
निश्चय करने
की शक्ति!
जैसा
हमारे पास मन
है, अगर
हम ठीक से
समझें, तो
हम कह सकते
हैं, मन है
अनिश्चय करने
की शक्ति। मन
का सारा काम
ही भीतर यह है
कि वह हमें
निश्चित न
होने दे। मन
जो भी करता है, अनिश्चय
में ही करता
है। कोई भी
कदम उठाता है,
तो भी पूरा
मन कभी कोई
कदम नहीं
उठाता। एक
हिस्सा मन का
विरोध करता ही
रहता है।
अगर आप
किसी को प्रेम
करते हैं, तो भी मन
पूरा प्रेम
नहीं करता; मन का एक
हिस्सा, जिसे
आप प्रेम करते
हैं, उसी
के प्रति घृणा
से भी भरा
रहता है। और
इसीलिए किसी
भी दिन प्रेम
घृणा बन सकता
है। मन में
घृणा तो मौजूद
ही है। जिसे
आप प्रेम करते
हैं, किसी
भी क्षण उसी
के प्रति
क्रोध से भर
सकते हैं। एक
क्षण में
प्रेम की
शीतलता क्रोध
की अग्नि बन
सकती है, क्योंकि
मन तो क्रोध
से भरा ही है।
और
पूरे मन से न
हम प्रेम करते
हैं, और न
पूरे मन से हम
शांत होते हैं,
और न पूरे
मन से हम
सच्चे होते
हैं। पूरा मन
जैसी कोई चीज
ही नहीं होती।
यह समझने में
थोड़ी कठिनाई
पड़ेगी।
जहां
पूरा हो जाता
है मन, वहां
मन समाप्त हो
जाता है। जब
तक अधूरा होता
है, तभी तक
मन होता है।
इसे हम ऐसा
समझें कि
अधूरा होना, मन का
स्वभाव है।
अपने ही भीतर
बंटा होना, मन का
स्वभाव है।
अपने ही भीतर
लड़ते रहना, मन का
स्वभाव है।
द्वंद्व, कलह,
खंडित होना,
मन की नियति
और प्रकृति है।
आपने
जीवन में बहुत
बार निर्णय
लिए होंगे, रोज लेने
पड़ते हैं, लेकिन
मन से कभी कोई
निर्णय पूरा
नहीं लिया जाता।
मेरे पास लोग
आते हैं, वे
कहते हैं, संन्यास
हमें लेना है,
लेकिन अभी
सत्तर
प्रतिशत मन
तैयार है; अभी
तीस प्रतिशत
मन तैयार नहीं
है। कोई आता
है, वह
कहता है, नब्बे
प्रतिशत मन
तैयार है; अभी
दस प्रतिशत मन
तैयार नहीं है।
जब मेरा पूरा
मन तैयार हो
जाएगा, तब
मैं संन्यास
में छलांग
लगाऊंगा। मैं
उनसे कहता हूं
कि पूरा मन
तुम्हारा
किसी और चीज
में कभी तैयार
हुआ है?
पूरा
मन कभी तैयार
होता ही नहीं।
और जब कोई
व्यक्ति पूरा
तैयार होता है, तो मन
शून्य हो जाता
है; मन तत्क्षण
विदा हो जाता
है। अधूरे
आदमी के पास
मन होता है, पूरे आदमी
के पास मन
नहीं होता।
बुद्ध, या
राम, या कृष्ण
जैसे
व्यक्तियों
के पास मन
नहीं होता। और
जहां मन नहीं
होता, वहीं
आत्मा के
दर्शन, वहीं
परमात्मा की
झलक मिलनी
शुरू होती है।
साधारण—सी
बात में भी मन
झिझकता है!
बाएं रास्ते
से जाऊं या
दाएं से, तो भी मन
सोचता है। तो
भी आधा मन
कहता है बाएं
से, आधा मन
कहता है दाएं
से। और अगर हम
कभी जाते भी
हैं, तो वह
निर्णय
डेमोक्रेटिक
होता है, पार्लियामेंटरी
होता है। मन
का ज्यादा
हिस्सा जहां
कहता है, वहां
हम चले जाते
हैं। साठ
प्रतिशत मन जो
कहता है, वही
हम हो जाते
हैं। चालीस
प्रतिशत जो मन
कहता है, उसे
हम नहीं करते।
बहुमत मन का
जो कहता है, हम उसके
पीछे चले जाते
हैं।
लेकिन
जो अभी बहुमत
है, वह
कल सुबह तक
बहुमत रहेगा,
यह पक्का
नहीं है। ठीक
वैसे ही जैसे
पार्लियामेंट
में भी पक्का नहीं
है कि जो अभी
बहुमत है, वह
कल सुबह तक भी
बहुमत रहेगा।
दलबदलू वहां
ही नहीं हैं, मन के भीतर
भी हैं।
सांझ
जिसने तय किया
था कि सुबह चार
बजे उठूंगा और
सोचा था, दुनिया की
कोई ताकत नहीं
रोक सकेगी, सुबह चार
बजे घड़ी का
अलार्म बजता
है, वही
आदमी करवट
लेकर कहता है,
ऐसी भी क्या
बात है, अभी
सर्दी बहुत है
और अगर आधी
घड़ी सो भी लिए,
तो हर्ज
क्या है! वही
आदमी सुबह सात
बजे उठकर पछताता
है और कहता है,
यह कैसे
हुआ! क्योंकि
मैंने संकल्प
किया था कि चार
बजे उठूंगा ही,
चाहे कुछ भी
हो जाए। फिर
मैं चार बजे
उठा क्यों ' नहीं? दुखी
होता है।
ये तीन
बातें एक ही
आदमी कर लेता
है! सांझ तय करता
है, उठूंगा,
चाहे कुछ भी
हो जाए। चार
बजे तय कर
लेता है, छोड़ो
भी, कुछ
ऐसा उठना
अनिवार्यता
नहीं है, किसी
की गुलामी तो
नहीं है। घड़ी
बज जाए, हम
कोई घड़ी के
गुलाम तो नहीं
हैं कि उठ
जाएं। और सुबह
सात बजे यही
आदमी पछताता
है।
यह एक
ही आदमी इसलिए
कर पाता है, क्योंकि
मन का बहुमत
बदल जाता है।
सांझ नब्बे
प्रतिशत से
निर्णय लिया
था, लेकिन
उसे भी पता
नहीं कि छह
घंटे सोने के
बाद आलस्य की
ताकतें बढ़ गई
होंगी, और
नींद के क्षण
में मन का वह
हिस्सा वजनी
हो जाएगा, जो
रात को कमजोर
था, सांझ
अल्पमत में था,
सुबह चार
बजे बहुमत में
हो जाएगा। फिर
वही आदमी सात
बजे पछताता है,
क्योंकि
सुबह जागकर
सांझ की
बुद्धि का खयाल
आता है। होश
बढ़ता है। सुबह
के सूरज के
साथ भीतर भी
प्रकाश बढ़ता
है। वह जो
अल्पमत में हो
गया था चार
बजे रात के
अंधेरे में, वह फिर
बहुमत में हो
गया है।
पछतावा शुरू
हो जाता है।
यह आदमी सांझ
फिर तय करेगा,
रात फिर
बदलेगा, सुबह
फिर पछताएगा।
पूरी जिंदगी
आदमी की ऐसी
है।
मन कोई
भी निर्णय
पूरा नहीं ले
पाता।
सुना
है मैंने, बंगाल
में एक भक्त
हुआ। कभी
मंदिर में
नहीं गया।
पिता बहुत
धार्मिक थे।
तो पिता
चिंतित थे, स्वभावत:।
लेकिन बेटा बड़ा
ज्ञानी था, शास्त्रों
का बड़ा ज्ञाता
था। दूर—दूर
तक बड़ी ख्याति
थी। नव्य
न्याय का, न्याय
का, तर्क
का बड़ा पंडित
था। साठ वर्ष
का हो गया, तो
अस्सी वर्ष के
पिता ने कहा
कि अब बहुत हो
गया, अब तू
भी का हो गया, अब मंदिर
जाना जरूरी
है!
उस साठ
वर्ष के के
बेटे ने कहा, मंदिर तो
मैं कई बार
सोचा कि जाऊं,
लेकिन पूरा
मन कभी मैंने
पाया नहीं कि
मंदिर जाऊं।
और अगर अधूरे
मन से गया, तो
मंदिर में जा
ही कैसे
पाऊंगा? आधा
बाहर रह
जाऊंगा, आधा
भीतर जाऊंगा,
तो जाना हो
ही नहीं पाएगा।
और फिर मैं
आपको भी रोज
मंदिर जाते
देखता हूं वर्षों
से, चालीस
वर्ष का तो कम
से कम मुझे
स्मरण है; लेकिन
आपकी जिंदगी
में मैंने कोई
फर्क नहीं देखा।
तो मैं मानता
हूं कि आप
मंदिर अभी
पहुंच ही नहीं
पाए हैं। आप
जाते हैं, आते
हैं, लेकिन
पूरा मंदिर और
पूरा मन कहीं
मिल नहीं पाते।
तो आपको देखकर
भी मेरी
हिम्मत टूट
जाती है।
जाऊंगा एक दिन
जरूर, लेकिन
उसी दिन, जिस
दिन पूरा मन
मेरे पास हो।
और दस
वर्ष बीत गए।
बाप मरने के
करीब पहुंच
गया। अभी तक
वह प्रतीक्षा
कर रहा है कि
किसी दिन उसका
बेटा जाएगा।
सत्तरवीं
उसकी
वर्षगांठ आ गई।
और बेटा उस
दिन सुबह बाप
के, पैर
छूकर बोला कि
मैं मंदिर जा
रहा हूं।
बेटा
मंदिर गया।
घड़ी, दो
घड़ी, तीन
घड़ी बीती। बाप
चिंतित हुआ; बेटा मंदिर
से अब तक लौटा
नहीं है! फिर
आदमी भेजा।
मंदिर के पास
तो बड़ी भीड़ लग
गई है। फिर का
बाप भी पहुंचा।
पुजारियों ने
कहा कि इस
बेटे ने क्या
किया, पता
नहीं! इसने
आकर सिर्फ एक
बार राम का
नाम लिया और
गिर पड़ा!
एक
पत्र वह अपने
घर लिखकर रख
आया था।
जिसमें उसने
लिखा था कि एक
बार राम का
नाम लूंगा, पूरे मन
से। अगर कुछ
हो जाए, तो
ठीक, अगर
कुछ न हो, तो
फिर दुबारा
नाम न लूंगा।
क्योंकि फिर
दुबारा लेने
का क्या
प्रयोजन है?
एक ही
बार राम का
नाम पूरे मन
से लिया गया, वह शरीर
से मुक्त हो
गया! लेकिन
पूरे मन से तो
हम कुछ ले
नहीं पाते।
पूरे मन का
मतलब ही होता
है कि मन
समाप्त हुआ।
मन का कोई
अर्थ ही नहीं
होता, जब
मन पूरा हो
जाए।
तो
कृष्ण पहला
सूत्र का
हिस्सा कहते
हैं, निश्चय
करने की शक्ति
मैं हूं।
तो जिस
दिन भी अर्जुन, तू पूर्ण
निश्चय कर
पाएगा, उस
दिन तू मुझे
समझ लेगा कि
मैं कौन हूं
मैं किसकी बात
कर रहा हूं।
लेकिन जब तक
तू उस पूरे
निश्चय को
नहीं कर पाएगा,
तब तक मुझे
नहीं समझ
पाएगा।
पूर्ण
निश्चय हमने
कभी भी नहीं
किया है। छोटे—मोटे
निश्चय भी
हमने पूर्ण
नहीं किए हैं।
अगर आप पांच
मिनट के लिए
भी तय करें कि
मैं आंख को
नहीं झपकूंगा, तो भी
आपको
परमात्मा की
झलक मिल जाए।
लेकिन पांच
मिनट में आंख
पच्चीस बार
शाक जाएगी। ' अगर आप तय
करें कि मैं
पांच मिनट
बिना हिले खड़ा
रहूंगा, तो
भी परमात्मा
की झलक मिल
जाए। लेकिन
पांच मिनट में
पच्चीस बार आप
हिल जाएंगे।
जिस मन से आप
तय कर रहे हैं,
उस मन का
स्वभाव कंपन
है। तो पूर्ण
निश्चय तभी
होता है, जब
कोई व्यक्ति
मन के पार उठ
पाए।
समस्त
ध्यान की
प्रक्रियाएं
मन के पार
उठने के उपाय
हैं। मन का।
अर्थ है, विचलित
चेतना। और
ध्यान का अर्थ
है, अविचलित
चेतना। ध्यान
का अर्थ है, मन की
मृत्यु।
इसलिए
झेन फकीरों ने
ध्यान के लिए
नाम दिया है, नो माइंड।
कबीर ने भी
ध्यान को अ—मनी
अवस्था कहा है;
ए स्टेट आफ
नो माइंड।
ध्यान का अर्थ
है, जहां
मन न रह जाए, जहां मन न
बचे, जहां
कोई विकल्प न
हो, जहां
कोई द्वंद्व न
हो।
अगर एक
क्षण को भी
मैं इस आंतरिक
समता को पा
जाऊं, जहां
मन में कोई
द्वंद्व न हो,
जहां कोई
विपरीत भाव न
हो, जहां
कोई कलह न हो, कोई
कांफ्लिक्ट न
हो—एक क्षण को
भी अगर यह
समरसता भीतर आ
जाए, तो
मैं निश्चय को
उपलब्ध हुआ।
उसी
क्षण मुझे
परमात्मा
उपलब्ध हो जाए; उसी क्षण
उसकी मुझे झलक
मिल जाए; धागे
की झलक मिल
जाए, मनकों
के भीतर जो
छिपा है।
सूफी
फकीर एक ध्यान
का अभ्यास
करते और
करवाते हैं।
पश्चिम में
जार्ज
गुरजिएफ ने भी
उस ध्यान के प्रयोग
को बहुत
प्रचलित किया
इस सदी में।
सूफी फकीर उस
प्रयोग को
कहते हैं, दि
एक्सरसाइज आफ
हाल्ट। और
गुरजिएफ ने
उसे कहा है, स्टाप , एक्सरसाइज—
रुक जाने का
प्रयोग।
गुरजिएफ
अपने साधकों
को कहता था कि
जब मैं कहूं
स्टाप, रुक जाओ, तो
तुम जो भी कर
रहे होओ, वैसे
ही रुक जाना।
अगर तुम्हारा
बायां पैर
चलने के लिए
ऊपर उठा हो, तो वह वहीं
ठहर जाए। अगर
तुम्हारा ओंठ
खुला हो बोलने
के लिए, तो
वहीं रुक जाए।
अगर तुम्हारी आंख
खुली हो, तो
ठहर जाए। तुम
फिर कुछ भी
बदलाहट मत
करना, वैसे
ही रुक जाना।
सूफी
फकीर कहते हैं
कि अगर एक
क्षण को भी
कोई पूर्णता
से रुक जाए, तो उसी
पूर्णता के
रुकावट के
क्षण में, ठहरे
होने के क्षण
में, उस
अगति में, उसे
निश्चय का
अनुभव हो
जाएगा।
गुरजिएफ
यह प्रयोग कर
रहा था, तिफलिस, रूस
के एक छोटे— से
नगर में। एक
नहर के पास
पड़ाव डालकर
अपने साधकों
के साथ पड़ा था।
तंबू के भीतर
बैठा था सुबह
ही और पास में
ही नहर थी।
लेकिन नहर बंद
थी, पानी
उसमें था नहीं।
अचानक उसने
चिल्लाकर
तंबू के भीतर
से कहा, स्टाप,
रुक जाओ!
तीन
साधक नहर को
पार कर रहे थे, सूखी नहर
को, वे
वहीं रुक गए।
जो साधक ऊपर
थे, वे ऊपर
रुक गए। और
तभी अचानक नहर
किसी ने खोल
दी। पानी आ
गया।
पानी
को देखकर एक
साधक ने सोचा
कि गुरजिएफ तो
भीतर है तंबू
के, उसे
क्या पता कि
हम कहा फंस गए
हैं! अगर मैं
रुका, तो
जान को खतरा
है। लेकिन फिर
भी वह जब तक
गले तक पानी
आया, तब तक
रुका रहा। गले
के ऊपर पानी
जाने लगा, वह
छलांग लगाकर
बाहर निकल गया।
दूसरे साधक ने
सोचा कि और
थोड़ी देर
रुकूं; शायद
गुरजिएफ
आज्ञा दे दे।
लेकिन जब नाक
भी पानी में
डूबने लगी, तो उसने
सोचा कि अब
पागलपन है। हम
यहां ध्यान
सीखने आए हैं,
कोई जान
गंवाने नहीं। और
वह पागल भीतर
बैठा हुआ है, उसे शायद
पता भी नहीं
है कि बाहर हम
नहर में फंस
गए हैं। वह भी
छलांग लगाकर
बाहर निकल गया।
लेकिन तीसरे
साधक ने सोचा
कि जब तय ही कर
लिया, तो
अब कोई बदलाहट
नहीं। उसके
सिर पर से
पानी बहने लगा।
गुरजिएफ
भागा हुआ तंबू
के बाहर आया, छलांग
लगाकर नहर में
कूदा। उस
तीसरे साधक को
बेहोश बाहर
निकाला गया।
बेहोश, बाहर
से। शरीर में
पानी भर गया; शरीर से
पानी निकाला
गया। लेकिन
जैसे ही उसका
शरीर होश में
आया, उस
व्यक्ति ने
गुरजिएफ के
चरणों में सिर
रख दिया; और
उसने कहा कि
अब मुझे सीखने
को कुछ भी
नहीं बचा, मैंने
जान लिया।
गुरजिएफ ने
कहा कि इन सब
शेष को भी कह
दो कि तुमने
क्या जाना।
उसने
कहा कि जिस
क्षण मैं जान
को भी खोने के
लिए तैयार हो
गया, उसी
क्षण मैंने
जाना कि मन भी
खो गया। जब तक
मेरे मन में
जरा—सा भी
द्वंद्व था कि
निकल जाऊं या
रुकूं, तब
तक मन था, तब
तक भीतर कोई
चीज चल रही थी,
गति थी, विचार
थे, हलन—
चलन था। लेकिन
जैसे ही मैंने
तय किया कि
ठीक है, जान
बचे या जाए, लेकिन हटना
नहीं है, वैसे
ही सारे विचार
खो गए। पानी
तो मेरे भीतर
भर गया, लेकिन
मैं पहली दफा
भीतर विचारों
से खाली हो गया।
बाहर से तो
मेरे प्राण
संकट में पड़
गए, लेकिन
पहली दफा
मैंने भीतर
उसके दर्शन कर
लिए जिस पर
कभी कोई संकट
नहीं पड़ सकता
है। मैं मर भी
जाता, तो
अब कोई हर्ज न
था, क्योंकि
मैंने उसकी
झलक पा ली, जो
कभी नहीं मरता
है।
निश्चय
का अर्थ है, ऐसी
अवस्था, जहां
मन का कोई
कंपन न हो।
तो कृष्ण
कहते हैं, निश्चय
में मैं हूं
तत्वज्ञान
में मैं हूं।
तत्वज्ञान
का अर्थ
फिलॉसफी नहीं
होता।
तत्वज्ञान का
अर्थ
विचारशास्त्र, दर्शनशास्त्र
नहीं होता।
बड़ी भूल हुई
है। पश्चिम
में एक चितना
की धारा
विकसित हुई है,
जिसे
फिलासफी कहते
हैं। उस अर्थ
में भारत में
फिलासफी जैसी
कोई भी चीज
कभी विकसित
नहीं हुई।
भारत में जो
विकसित हुआ, वह
तत्वज्ञान है।
जर्मनी
के एक
विचारशील
आदमी हरमन हेस
ने तत्वज्ञान
के लिए एक नया
शब्द प्रयोग
किया है, फिलोसिया।
वह ठीक है।
फिलॉसफी उसका
अनुवाद नहीं
है। फिलॉसफी
का अर्थ होता
है, चिंतन,
मनन, विचार।
तत्वज्ञान का
अर्थ होता है,
दर्शन, साक्षात्कार,
अनुभूति।
एक अंधा आदमी
प्रकाश के
संबंध में
सोचता रहे, तो वह
फिलासफी है, और अंधे
आदमी की आंख
खुल जाए और वह
प्रकाश को देख
ले, तो वह
तत्वज्ञान है।
तत्वज्ञान
का अर्थ है, अनुभूति।
फिलॉसफी का
अर्थ है, मानसिक।
तत्वज्ञान का
अर्थ है, वास्तविक।
फिलॉसफी का
अर्थ है, सोचा
हुआ।
तत्वज्ञान का
अर्थ है, जाना
हुआ। सोचना तो
बहुत आसान है,
जानना बहुत
कठिन है।
क्योंकि
सोचने के लिए
बदलने की कोई
भी जरूरत नहीं,
जानने के
लिए तो स्वयं
को बदलना
अनिवार्य है।
तो
भारत का जोर
तत्वज्ञान पर
है, चितना
पर नहीं, विचारणा
पर नहीं। कोई
कितना ही सोचे,
सोचकर कहीं
कोई पहुंचता
नहीं। कोई
कितना ही सोचे,
हाथ में
विचार की राख
के सिवाय कुछ
भी लगता नहीं।
कोई कितना ही
सोचे, खाली
शब्द का
संग्रह बढ़
जाता है।
लेकिन
प्रतीति, प्रत्यभिज्ञा
नहीं होती, उसकी पहचान
नहीं होती।
उसे तो जानना
पड़े आमने—सामने।
उससे तो पहचान
करनी पड़े, मुलाकात
करनी पड़े।
सोचने से नहीं
होगा।
कोई
आदमी प्रेम के
संबंध में
बहुत सोचे, तो भी
प्रेम का उसे
पता नहीं चलता,
जब तक वह
प्रेम में डूब
ही न जाए।
प्रेम में
डूबना बिलकुल
दूसरी बात है।
और ऐसा भी हो
सकता है कि जो
प्रेम में डूब
जाए, वह
प्रेम के
संबंध में कुछ
भी न सोचा हो।
और यह भी हो
सकता है, और
अक्सर होता है,
कि
जिन्होंने
प्रेम के
संबंध में
बहुत सोचा है,
वे प्रेम
करने में
असमर्थ ही हो
जाएं। सोचने
से ही उनको
परितृप्ति
मिल जाए, या
सोचने को ही
वे परिपूरक, सज्जीटभूट
समझ लें।
बहुत—से
लोग ईश्वर के
संबंध में
सोचते रहते
हैं। उस सोचने
को ही वे
समझते हैं कि
अनुभव हो रहा
है! सोचना
अनुभव नहीं है।
सोचना सहयोगी
हो सकता है, सोचना
उपयोगी हो
सकता है, लेकिन
सोचना अनुभव
नहीं है। और
सोच—सोचकर कोई
कहीं भी नहीं
पहुंचता है, कभी नहीं
पहुंचा है।
जानना पड़े। तो
तत्वज्ञान से
अर्थ है, जानना।
कृष्ण
कहते हैं, जानना
मैं हूं।
विचारणा नहीं,
थिंकिंग
नहीं, नोइंग।
विचार का अर्थ
है कि जिसका
मुझे पता नहीं
है, उसके
संबंध में, जो मुझे पता
है, उसके
आधार पर कुछ
धारणा बनानी
है। जिसका
मुझे पता नहीं
है, उस
संबंध में, जिन चीजों
का मुझे पता
है, उनके
आधार पर कोई
धारणा
निर्मित करनी
है, बौद्धिक
कोई खयाल
निर्मित करना
है। कोई इमेज,
कोई
प्रतिमा
निर्मित करनी
है। लेकिन
विचारों की।
और विचार क्या
हैं? शब्दों
के संग्रह हैं।
शब्दों से— न
तो शब्द की आग
से कोई जल
सकता है, और
न शब्द के फूल
से कोई सुगंध
मिलती है।
शब्द के
परमात्मा से
भी कोई अनुभव
नहीं मिलता।
शब्द
परमात्मा
परमात्मा
नहीं है। तो कोई
कितना ही शब्द
को रटता रहे
और परमात्मा— परमात्मा
दोहराता रहे, शब्द को
ही दोहराता
रहे, तो
कहीं
पहुंचेगा
नहीं। यह भी
हो सकता है कि
दोहराते—दोहराते
इस भ्रम में
पड़ जाए कि मैं
जानता हूं।
बहुत लोग पड
जाते हैं।
पंडित की यही
भूल है।
और
इसलिए अक्सर
ऐसा होता है
कि पंडित
अज्ञानियों
से भी ज्यादा
भटक जाते हैं।
पंडित की यही
भूल है। शब्द
का धनी होता
है। शास्त्र
का ज्ञाता
होता है।
सिद्धांत उसे
स्मरण होते
हैं। उसके पास
धनी स्मृति
होती है। उसी
स्मृति को
दोहराते—दोहराते
वह इस भ्रांति
में पड़ जाता
है कि जो मैं
दूसरों को
कहता हूं वह
मैं भी जानता
हूं। अपने ही
शब्द सुनते—सुनते
आत्म—सम्मोहित
हो जाता है।
अपने ही
शब्दों को
दोहराते—दोहराते
एक गहरी
तंद्रा में खो
जाता है और
लगता है कि
मैं जानता हूं।
जानना
बड़ी दूसरी बात
है। जानने का
संबंध बुद्धि
से कम, जानने
का संबंध पूरे
अस्तित्व से
है। जानने का
संबंध सोचने
से कम, मौन
हो जाने से
ज्यादा है।
जानने का
संबंध शब्द से
कम, निःशब्द,
शून्य, शांत
से ज्यादा है।
जब कोई
शांत हो जाता
है शब्दों से, तो दर्पण
बन जाता है।
और उस दर्पण
में जो झलक
मिलती है, वह
जानना है। और
जब कोई शब्दों
के धुएं से
भरा रहता है, तो कोई झलक
नहीं मिलती।
कोई झलक नहीं
मिलती।
पंडित
अपने ही
शब्दों में
भटकता है, अपने ही
शब्दों में
उलझता रहता है,
अपने ही
शब्दों को हल
करता रहता है।
अपने ही सवाल,
अपने ही
जवाब देता
रहता है।
दर्शनशास्त्र—फिलॉसफी
के अर्थों में—
अपना ही सवाल
है, अपना
ही जवाब है।
तत्वज्ञान
सवाल अपना है, जवाब
उसका है। सवाल
पूछकर साधक
चुप हो जाता
है, शून्य
हो जाता है।
जैसे झील शांत
हो जाए और
सारी लहरें
बंद हो जाएं और
आकाश का चांद
झील में झलकने
लगे। और झील
में लहरें हों,
तो भी आकाश
का चांद तो
झलकता है, लेकिन
लहरें उसे
हजार खंडों
में तोड़ देती
हैं।
देखें, पूर्णिमा
के दिन कभी
झील पर जाकर
देखें। चांद
तो एक है ऊपर, लेकिन झील
में हजार
टुकड़ों में
बिखरा होता है।
हजार खंडों में
बंटा हुआ झील
की लहरों पर
बहता होता है।
चांद नहीं टूट
गया है, लेकिन
झील का दर्पण
टूटा हुआ है, इसलिए हजार
चांद दिखाई
पड़ते हैं। झील
शांत हो जाए, ऐसी शांत कि
दर्पण बन जाए,
तो चांद जो
ऊपर है, वही
एक चांद नीचे
दिखाई पड़ने
लगता है। फिर
झील जब बिलकुल
शांत होती है,
तो पता ही
नहीं चलता कि
झील है भी।
सिर्फ दर्पण
ही रह जाता है।
ठीक
ऐसे ही मन पर
जब विचार होते
हैं, तो
तरंगें होती
हैं। उन्हीं
तरंगों से जो
व्यक्ति सोच—सोचकर
तय करता है कि
चांद कैसा है,
उसका चांद
खंडों में
बंटा हुआ होगा।
कृष्ण
कहते हैं, तत्वज्ञान
मैं हूं।
जब कोई
पूर्ण शांत हो
जाता है, तब उसे तत्व
का पता चलता
है। वह जो है, दैट ल्डिच
इज, उसका
पता चलता है।
जो है, उसका
नाम तत्व है।
उसका कोई और
नाम नहीं है।
जो भी है, शांत
हो गए व्यक्ति
के भीतर झलकता
है। और तब जो
अनुभूति होती
है, जो
ज्ञान होता है,
वह मैं हूं।
और उस क्षण
में अखंड का
अनुभव होता है।
जब तक मन है
खंडित, तब
तक हम जो भी
जानेंगे, वह
खंडित होगा।
जब मन होगा
अखंडित, तब
जो हम जानेंगे,
वह अखंड
होगा।
तीसरा
शब्द कृष्ण ने
कहा है, अछूता मैं
हूं असम्मोह।
यह
शब्द साधकों
के लिए बहुत
उपयोगी है।
मूढ़ता का अर्थ
है, ऐसा
व्यक्ति, जो
जागा हुआ
मालूम पड़ता है,
लेकिन जागा
हुआ नहीं है।
सोया—सोया
व्यक्ति, जैसे
नींद में चल
रहा हो।
कभी
रास्ते के
किनारे खड़े हो
जाएं, और
रास्ते से
गुजरते हुए
लोगों को
देखें। गौर से
देखें, आंख
गड़ाकर देखें
कि लोग कैसे
चल रहे हैं! तो
थोड़ी ही देर
में आपको लगेगा
कि लोग सोए—सोए
चल रहे हैं।
कोई आदमी चलते—चलते
बात करता जा
रहा है। कोई
उसके साथ नहीं
है, अकेला
है। अपने हाथ
से इशारा कर
रहा है। उसके
ओंठ चल रहे
हैं। वह किसी
से बात कर रहा
है। उसके
चेहरे के भाव
बदल रहे हैं।
यह
आदमी होश में
है या नींद
में है? यह कोई सपना देख
रहा है। यह इस
सड़क पर बिलकुल
नहीं है। यह
किसी और सड़क
पर होगा, यह
किसी और के
साथ होगा। यह
किससे बातें
कर रहा है? यह
किसकी तरफ हाथ
के इशारे कर
रहा है? यह
किसी के साथ
है, सपने
में।
हम सब
सपने में चल
रहे हैं। हम
सबके भीतर
सपने चल रहे
हैं। हम कुछ
भी कर रहे हों, हमारे
भीतर एक सपनों
का जाल चल रहा
है। और ध्यान
रहे, सपना
तभी चल सकता
है, जब
भीतर निद्रा
हो। बिना नींद
के सपना नहीं
चल सकता। और
सपने हम सबके
भीतर चौबीस
घंटे चलते हैं।
जरा आंख बंद
करो, सपना
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाएगा।
आंख जब आप बंद
नहीं करते, तब आप यह मत
सोचना कि भीतर
सपना नहीं
चलता है। भीतर
तो सपना चलता
है, लेकिन
बाहर की जरूरत
के कारण आपको
उस सपने का पता
नहीं चलता। आंख
बंद करो, सपने
का पता चलना
शुरू हो जाएगा।
दिन
में आप देखते
हैं आकाश की
तरफ, तारे
दिखाई नहीं
पड़ते। लेकिन
आप यह मत
सोचना कि तारे
खो जाते हैं।
तारे तो अपनी
जगह होते हैं।
दिन में दिखाई
नहीं पड़ते, क्योंकि
सूरज की रोशनी
इतनी तेजी से
बीच में आ
जाती है कि
आपकी आंखें
तारों को नहीं
देख पातीं।
लेकिन दिन की
भरी रोशनी में
ही आप किसी
गहरे कुएं में
चले जाएं, तो
गहरे कुएं में
से देखें, तो
आपको तारे
दिखाई पड़ेंगे।
क्योंकि तब
बीच का अंधेरा
तारों को
उघाड़ने में
सहयोगी होता
है।
ठीक
ऐसे ही, हमारे भीतर
रात सपने चलते
हैं, ऐसा
मत सोचना, दिनभर
सपने चलते हैं,
चौबीस घंटे
सपने चलते हैं।
दिन की जरूरत
में, दिन
की रोशनी में,
उलझन में, दूसरे काम
में, बाहर
उलझे होने की
वजह से भीतर
के सपने दिखाई
नहीं पड़ते।
इसलिए
आरामकुर्सी
पर जरा लेट
जाएं, बाहर
की दुनिया से आंख
बंद कर लें, और
दिवास्वप्न, डे—ड्रीमिंग
शुरू हो जाती
है। वह चल ही
रही थी, आपने
आंख बंद की, तो दिखाई
पड़ने लगती है।
आप आंख खोलकर
बाहर लग जाते
हैं, तो
भूल जाते हैं।
लेकिन भीतर
चौबीस घंटे, भीतर के
छबिगृह में
सपने चल रहे
हैं। वे सपने
इस बात की खबर
हैं कि हम सोए
हुए हैं।
बुद्ध
के पास कोई
आता था, तो बुद्ध
उससे पूछते थे
कि तेरे सपने
अभी बंद हो गए
या नहीं? अगर
सपने बंद हो
गए हैं, तो
करने को बहुत
कम काम बाकी
है। और अगर
सपने बंद नहीं
हुए, तो
बहुत बड़ा काम
बाकी है।
क्योंकि
सपनों से लड़ना,
इस जगत में
सबसे बड़ी लड़ाई
है। सपने
दिखाई तो पड़ते
हैं कि सपने
हैं, लेकिन
जब कोई उन्हें
तोड्ने जाता
है, तब पता
चलता है कि
कितना कठिन है।
इतनी कमजोर
चीज, सपना
भी हम तोड़
नहीं पाते!
उसका कारण है
कि हम उससे भी
कमजोर हैं।
मूढ़ता
का अर्थ है, एक तरह की
निद्रा।
मूढ़ता का अर्थ
मूर्खता नहीं
है। इसलिए
पंडित भी फू
हो सकता है।
तथाकथित
ज्ञानी भी मूढ़
हो सकता है।
अज्ञानी भी
मूढ़ हो सकता
है। मूढ़ होना
अलग ही बात है।
मूढ़ का
अर्थ है, निद्रित
चलना, सोए—सोए
जीना। भीतर
सपने चलते
रहते हैं और
हम बाहर चलते
रहते हैं। हम
जागे हुए नहीं
हैं। हम ठीक
से जागे हुए
नहीं हैं।
इसकी आप कोशिश
करें, तो
आपको पता
चलेगा कि
कितनी गहरी
नींद है। अपनी
हाथ की घड़ी पर आंख
गड़ाकर बैठ
जाएं और तय कर
लें कि पूरा
एक मिनट, जो
सेकेंड का
कांटा है, उसको
आप देखते
रहेंगे
स्मृतिपूर्वक,
और बीच में
कोई दूसरा
विचार और सपना
नहीं आने देंगे—एक
मिनट सिर्फ।
आप
पाएंगे कि दस
दफा बीच में
सपने आ गए, दस दफे
झोंक आ गई, दस
दफे निद्रा लग
गई, दस दफे
आप चूक गए।
कांटे को भूल
गए; मन
कहीं और चला
गया। कोई और
खयाल बीच में
आ गया और आपको
ले गया। एक
मिनट में दस
बार आपके मन
में सपना आपको
झकझोर डालेगा।
तब आपको पता
चलेगा कि मैं
कैसा सोया हुआ
आदमी हूं!
रास्तों
पर कोई रात
तीन बजे और
चार बजे के
बीच अधिक
एक्सिडेंट
होते हैं। तो
ड्राइवर्स के
लिए सबसे
ज्यादा
खतरनाक वक्त
रात के तीन और
चार के बीच
में है। मनोवैज्ञानिक
बहुत दिन से
इस खोज में थे
कि बात क्या
होगी? यह
तीन और चार के
बीच में जो
इतनी
दुर्घटनाएं
होती हैं, अधिकतम
दुर्घटनाएं, इसका कारण
क्या होगा?
अब वे
इस नतीजे पर
पहुंचे हैं कि
तीन और चार के बीच
में सपने इतने
प्रगाढ़ हो
जाते हैं।
सोया आदमी हो, तब तो पता
नहीं चलता।
जागा हुआ आदमी
हो, तो आंख
खुली भी रहे, तो भी
ड्राइवर
सपनों में खो
जाता है। सपने
में कुछ भी हो
सकता है फिर।
और इसलिए बहुत—से
ड्राइवर कहते
हैं कि मैं
बिलकुल जागा
हुआ था। आंख
मेरी खुली थी।
और मेरी समझ
के बाहर है कि
यह दुर्घटना
कैसे हो गई! एक
क्षण को भी
अगर सपने ने
खींच लिया हो,
तो
दुर्घटना
होने में देर
नहीं लगती। और
आंख खुली हो, तो भ्रम
पैदा हो सकता
है कि आंख
खुली थी, इसलिए
मैं जागा हुआ
था।
इस भूल
में कोई भी न
रहे। आंख का
खुला होना और
जागे होने का
कोई भी संबंध
नहीं है।
बुद्ध की आंख
भी बंद हो, कृष्ण की आंख
भी बंद हो, तो
भी वे जागे
हुए होते हैं।
हमारी आंख भी
खुली हो, तो
हम सोए हुए
होते हैं।
सोना और जागना
आंतरिक
घटनाएं हैं, आंख से इसका
कोई संबंध
नहीं है।। तो
सोने का अर्थ
हुआ कि हमारे
भीतर विचारों
की, सपनों
की, चित्रों
की एक भीड़ है, वह चल रही है।
उस भीड़ के
कारण हमें कुछ
भी दिखाई नहीं
पडता, कुछ
भी सूझता नहीं।
हम अंधे की
तरह जी रहे
हैं; टटोल—टटोल
कर जी रहे हैं।
किसी तरह
रास्ते से
गुजर जाते हैं,
घर आ जाते
हैं, काम
कर लेते हैं, तो सोचते
हैं कि हम
जागे हुए हैं।
लेकिन
आध्यात्मिक
अर्थों में यह
जागरण नहीं है,
इसे मूढ़ता..।
कृष्ण
कहते हैं, अमूढ़ता
मैं हूं।
अमूढ़ता
का अर्थ है, जागरण, बुद्धत्व।
बुद्ध
का नाम था
सिद्धार्थ
गौतम, लेकिन
जब वे जाग गए, तब उन्हें
नाम मिला गौतम
बुद्ध। गौतम
दि अवेकंड, दि
एनलाइटेंड; जागा हुआ
गौतम। बुद्ध
को जब ज्ञान
हुआ, तो जो
घटना घटी, वह
क्या थी? वह
घटना थी, उनकी
नींद टूट गई।
उनके भीतर कोई
बेहोशी न रही।
वे भीतर परम
जाग्रत हो गए।
फिर वे सोते
भी तो भी भीतर
की नींद जैसी
कोई घटना नहीं
घटती थी; शरीर
ही सोता, भीतर
जागरण बना
रहता।
आनंद, उनका
शिष्य, वर्षों
तक उनके साथ
रहा। एक दिन
आनंद ने बुद्ध
को पूछा कि
मैं बहुत चकित
हूं। आप जिस
भांति सोते
हैं सांझ, जहां
रखते हैं
दायां पैर, जहां रखते
हैं बायां पैर,
जिस तरह
रखते हैं हाथ,
जिस तरह एक
हाथ रखते हैं
सिर के नीचे, आप रातभर
वैसे ही रखे
रहते हैं!
करवट भी आप
बदलते नहीं।
इंचभर भी पैर
आपका हिलता
नहीं, हटता
नहीं। बात
क्या है? क्या
रातभर भी
सम्हलकर सोते
हैं?
तो
बुद्ध ने कहा, सम्हलने
की कोई जरूरत
नहीं। शरीर ही
सोया होता है,
मैं सोता ही
नहीं। मैं
जागा ही रहता
हूं। तो अगर
करवट मुझे
बदलनी हो, तो
वह मेरे
निर्णय से
होगा। शरीर
करवट नहीं बदल
सकता। मैं
बेहोश नहीं
हूं मैं पूरे
होश में हूं।
और जब
कोई व्यक्ति
नींद में भी
जाग जाए, तो योग को
उपलब्ध हुआ।
कृष्य ने कहा
है कि जो नींद
में भी जागा
हुआ है, वही
योगी है। इससे
उलटा सूत्र भी
हम बना सकते
हैं कि जो जागकर
भी सोया हुआ
है, वही
भोगी है।
इस
जागरण का क्या
अर्थ हुआ? कभी आपने
जागरण का कोई
क्षण अनुभव
किया है?
थोड़ा
मुश्किल है।
कभी—कभी अचानक
भी हो जाता है।
अगर अचानक दो
आदमी एकांत
रास्ते पर
आपको पकड़ लें
और एक आदमी
छुरा आपकी
छाती पर रख दे, तो उस
क्षण में आपके
भीतर कोई
विचार होंगे?
अचानक! उस
क्षण आपके
भीतर कोई
विचार नहीं
होंगे। उस
क्षण आपके
भीतर सब सपने
छूट जाएंगे।
उस क्षण एक
क्षण को आप
पूरे जागे
होंगे, जैसे
कोई बुद्ध कभी
जाया हो।
लेकिन यह बाहर
की परिस्थिति
पर होगा। छुरा
हट जाए, या
चेहरा पहचान
में आ जाए कि
मित्र ही है, मजाक कर रहा
है, सपने
वापस दौड़
पड़ेंगे। या
छुरा न भी हटे,
तो एक क्षण
को आकस्मिक था,
इसलिए आपके
भीतर की बंधी
हुई धारा को
तोड्ने में
सफल हुआ। अगर
न हटे, तो
आप तत्काल
सोचने में लग
जाएंगे कि अब
मैं क्या करूं,
कैसे बचूं
कैसे भाग र
क्या जवाब
दूं!
खतरे
के क्षण में
हमें कभी—कभी
नैसर्गिक रूप
से जागरूकता
उपलब्ध होती है, खतरे के
क्षण में। और
हमने अब
जिंदगी ऐसी
बना ली है कि
उसमें खतरे का
कोई ज्यादा
क्षण नहीं है।
सब तरफ से
हमने
व्यवस्था कर
ली है कि कोई
खतरा न हो।
इसलिए जागरण
का क्षण और भी
कम होता जाता
है।
एक झेन
फकीर था, बोकोजू। वह
अपने साधकों
को वृक्षों पर
चढ़ना सिखाता
था— ध्यान के
लिए। ऊंचे
वृक्षों पर
चढ़ना।
राजकुमार देश
का, उसके
पास ध्यान
सीखने आया था।
तो बोकोजू ने
उससे कहा कि
तू वृक्ष पर
चढ़। वृक्ष
देखकर वह
मुश्किल में
पड़ा। उसने कहा
कि चढ़ना मैं
बिलकुल नहीं
जानता। गिर
पड़ा तो हाथ—पैर
चकनाचूर हो
जाएंगे।
बोकोजू
ने कहा कि
मैंने जानने
वालों को तो
कभी—कभी गिरते
देखा है, न जानने
वालों को
मैंने कभी
गिरते नहीं
देखा। तू चढ़।
क्योंकि न
जानने वाला
इतना खतरे से
भरा रहता है
कि भीतर होश
रहता है, एक—एक
कदम सम्हालकर
रखता है। जो
सोचता है कि
मैं चढ़ना
जानता हूं
वृक्ष पर, वह
कभी—कभी गिर
भी जाता है, क्योंकि उसे
होश रखने की
कोई जरूरत
नहीं होती।
वह
राजकुमार चढ़ा।
कोई सौ फीट
ऊंचा वृक्ष!
वह चढ़ता आखिरी
कगार पर पहुंच
गया, तब
तक उसका गुरु
नीचे आंख बंद
करके बैठा रहा।
उसने कई बार
नीचे झांककर
भी देखा कि
गुरु कुछ
सुझाव देगा, कोई मार्ग—दर्शन
देगा, लेकिन
वह आंख बंद
करके बैठा है।
फिर जब वह ऊपर
पहुंच गया, तो उसे आशा
थी कि ऊपर से
पहुंचकर वापस
लौटना शुरू कर
देना, आखिरी
सीमा तक
पहुंचकर लौट
आना।
जब
राजकुमार दस
फीट के करीब
था जमीन से
वापस लौटते
वक्त, तब
गुरु अचानक
चौंककर उठा और
उसने
चिल्लाकर कहा
कि जरा
सावधानी से
उतरना! उस
राजकुमार ने
कहा, आप भी
पागल मालूम
पड़ते हैं!
क्योंकि जब
तुम्हारी
सहायता की और
चेतावनी की
जरूरत थी, तब
तुम आंख बंद
किए बैठे रहे।
और जब मैं
जमीन के अब
करीब आ गया
हूं जब कि अब
कोई खतरा ही
नहीं है, तब
तुम चेतावनी
दे रहे हो!
जब वह
राजकुमार
नीचे उतर आया, तब उसके
गुरु ने कहा
कि निश्चित ही,
मैंने तभी
तुझे चेतावनी
दी, जब तू
निश्चिंत हो
गया। जब तुझे
लगा कि जमीन
करीब आ गई और
तेरे भीतर के सपने
शुरू हो गए, तभी तू चूक
सकता था और
गिर सकता था।
नींद शुरू हो
गई। ऊपर के
शिखर पर जब था,
तब तो नींद
के आने का कोई
उपाय न था। तू
खुद ही जागा
हुआ था, हमारी
कोई जरूरत ही
न थी। वह तो जब
मुझे लगा कि
अब जमीन है
करीब, और
अब तू सो सकता
है...। मैं
तुझसे पूछता
हूं कि जब
मैंने
चेतावनी की आवाज
दी, तब
तेरे भीतर कोई
फर्क पड़ा था?
तब उस
राजकुमार को स्मरण
आया— हम इतने
सोए हुए हैं
कि हमारे भीतर
भी क्या होता
है, उसका
भी हमें स्मरण
कहां है— तब
उसे स्मरण आया
कि यह बात ठीक
है। जब तक वह
शिखर के ऊपर
था, तब तक
उसके भीतर ऐसी
ताजगी और
जागरूकता थी,
जैसे सुबह
का सूरज निकला
हो और सब तरफ
ताजगी हो।
जैसे फूल खिले
हों ताजे, और
सब तरफ ताजगी
हो। जैसे दीया
जल रहा हो और
सब तरफ रोशनी
हो। और जैसे
ही वह गुरु ने
चिल्लाकर कहा कि
सावधान! तभी
उसे याद आया, तभी उसके
भीतर ताजगी खो
गई थी, भीतर
के द्वार बंद
हो गए थे।
दीया बुझ गया
था। सूरज डूब
गया था।
अंधेरा पकड़
रहा था। और
उसे सपने आने
शुरू हो गए थे।
नींद घिर गई
थी।
कभी
खतरे के क्षण
में हमें थोड़ा—बहुत
होश आता हो, तो आता हो।
लेकिन हम इतने
कुशल हैं नींद
में कि हम
खतरे के क्षण
को भी धोखा
देकर, बचकर
निकल जाते हैं।
एक
मित्र के घर
मैं गया था, उनके घर
में कोई मर गए
थे। अब घर में
कोई मर जाए, तो बड़ा खतरा
है। जो मर गया
उसको नहीं, वह तो खतरे
के बाहर हुआ; जो जिंदा
हैं उनको। अगर
उनमें थोड़ी भी
समझ हो, तो
मौत उनके लिए
जिंदगी का
रूपांतरण हो
सकती है।
क्योंकि एक की
मौत सबकी मौत
की खबर है। और
जब भी मैं
किसी को मरते
देखता हूं तो
उसका मतलब है
कि फिर मुझे खबर
आई कि मैं
मरूंगा।
लेकिन
घर में मैं
गया, तो
वे सारे लोग
रो—पीट रहे थे।
जो चल बसे थे, उनकी पत्नी
ने मुझसे पूछा
कि आपका आत्मा
की अमरता में
तो विश्वास है
न? मेरे
पति की आत्मा
तो बचेगी?
मैंने
उस पत्नी को
कहा कि तू और
नये सपनों में
खोने का उपाय
कर रही है। यह शरीर
मर गया है, इस मौके
को मत चूक।
तेरा शरीर भी
मरेगा। यह तीर
तेरे भीतर इस
क्षण अगर गहरे
में प्रवेश कर
जाए, तो
तेरी नींद टूट
जाए। लेकिन तू
होशियार है।
तू अपने बाबत
सोच ही नहीं
रही है! तू सोच
रही है कि
मेरे पति की
आत्मा तो अमर
है न! थोड़ी ही
देर में यह
खतरा समाप्त
हो जाएगा, यह
लाश घर से उठ
जाएगी। दो—चार
दिन में यह
घाव पुरना
शुरू हो जाएगा।
साल, छह
महीने में यह
बात पुरानी पड़
जाएगी। इस
क्षण में, इस
खतरे के क्षण
में, जब
कोई निकटतम मर
गया है, तब
इस मौत के तीर
को अपनी तरफ
मोड़, तो
शायद तुझे
ध्यान उपलब्ध
हो जाए।
लेकिन
उसने मुझसे
कहा, आप
भी कैसी बातें
कर रहे हैं!
मेरे पति मर
गए हैं और आप
ध्यान की बात
कर रहे हैं!
आपको ध्यान के
सिवाय कुछ और
सूझता ही नहीं?
मेरे पति मर
गए हैं! वह
अपनी छाती
पीटने लगी।
यह
छाती पीटना
मौत के तथ्य
को भुलाने का
उपाय है। वह
रोने लगी।
उसकी आंख आंसू
से भर गई। वह
अपने पुराने
सपने देखने
लगी, जब
उसकी शादी हुई
होगी और जब
बैंड—बाजे बजे
होंगे, और
जब वह इस घर की
तरफ आई होगी
बहुत सपनों को
लेकर, और
वह सब
याददाश्त। और
यह जो तथ्य का
क्षण, एक
सत्य का क्षण, एक तीर की
तरह चुभ जाए
चेतना में कोई
घड़ी सामने खड़ी
है, वह इसे
खो देगी। हम
ऐसा अपने को
धोखा देते हैं।
अमूढ़ता
मैं हूं कृष्ण
कहते हैं।
उसका अर्थ है, जागरूकता
मैं हूं। जब
भी कोई जागता
है भीतर, तभी
मैं उपलब्ध हो
जाता हूं। जब
भी कोई जागता
है भीतर, तब
वह जागा हुआ
व्यक्ति मेरा
ही भाग हो
जाता है।
ये तीन
शब्द खयाल में
ले लें, निश्चय करने
की शक्ति, तत्वज्ञान,
अमूढ़ता मैं
हूं।
क्षमा, सत्य, इंद्रियों
को वश में
करना—दम, और
मन का निग्रह—
शम, तथा
सुख—दुख, उत्पत्ति—प्रलय
एवं भय और अभय
भी मैं हूं।
इन
सूत्रों को भी
थोड़ा—सा समझ
लें।
क्षमा।
थोड़ा कठिन है।
कठिन इसलिए कि
हम क्षमा से
जो अर्थ लेते
हैं, वह
कृष्ण का अर्थ
नहीं है। हो
भी नहीं सकता।
असल में हमारी
और कृष्य की
भाषा एक नहीं
हो सकती। और
जब भी हम
कृष्ण को अपनी
भाषा में
अनुवादित करते
हैं—संस्कृत
से हिंदी में
नहीं— कृष्य
की भाषा को
अपनी भाषा में
जब हम अनुवादित
करते हैं, तब
बुनियादी
भूलें हो जाती
हैं। जैसे
क्षमा, अगर
हम पूछें अपने
से कि क्षमा
का क्या अर्थ
है? तो साफ
है अर्थ कि
अगर किसी पर
क्रोध आ जाए
तो उसे क्षमा
कर देना।
लेकिन कृष्ण
की भाषा में
क्षमा का यह
अर्थ नहीं
होता। कृष्ण
की भाषा में
क्षमा का अर्थ
होता है, क्रोध का न
आना। हमारी
भाषा में अर्थ
होता है, क्रोध
का आना और
क्षमा करना।
कृष्ण की भाषा
में अर्थ होता
है, क्रोध
का न आना, क्रोध
का अभाव।
हमारा अर्थ है,
क्रोध को
लीपना—पोतना।
मुझे
आप पर क्रोध आ
गया। पीछे
पछतावा आता है, फिर मैं
क्षमा मांग
लेता हूं। तो
क्रोध से जो
भूल हुई थी, उसे मैं
पोंछ देता हूं।
एक लकीर गलत
पड़ गई थी, उसे
काट देता हूं।
लेकिन क्रोध
हो गया। और यह
जो क्षमा है, यह केवल
क्रोध को
पोंछने का
उपाय करती है,
नकारात्मक
है, निगेटिव
है। इस क्षमा
का बहुत उपयोग
नहीं है। यह
तो हम करते
रहते हैं।
चलता रहता है।
अगर इसी क्षमा
में अनुभव
होता हो
परमात्मा का,
तो हम सबको
हो गया होता। कृष्ण
का क्षमा से
अर्थ है, जहां
क्रोध पैदा
नहीं होता।
जहां क्रोध
जन्मता नहीं,
जहां क्रोध
की घड़ी मौजूद
होती है और
भीतर क्रोध का
कोई रिएक्शन,
कोई
प्रतिक्रिया
पैदा नहीं
होती, कोई
प्रतिकर्म
पैदा नहीं
होता।
बुद्ध
एक गांव से
गुजरते हैं, कुछ लोग
गालियां देते
हैं। और बुद्ध
उनसे कहते हैं
कि अगर
तुम्हारी बात पूरी
हो गई हो, तो
मैं जाऊं!
उनमें से एक
आदमी ०० है, आप पागल तो
नहीं हैं!
क्योंकि हमने
बातें
नहीं की हैं, गालियां
दी हैं। बुद्ध
कहते हैं, अगर
पूरी न हुई हो
बातचीत, तो
जब मैं
लौटूंगा, तब
थोड़ा ज्यादा
समय लेकर यहां
रुक जाऊंगा।
लेकिन अभी
मुझे दूसरे
गांव जल्दी
पहुंचना है।
निश्चित
ही, वे
दो तरह की
भाषाएं बोल
रहे हैं। उस
गांव के लोग
गालियां समझ
सकते हैं; गालियों
के उत्तर में
गालियां दी
जाएं, यह
भी समझ सकते
हैं। गालियां
क्षमा कर दी
जाएं; बुद्ध
कह दें कि जाओ
मैंने माफ
किया तुम्हें,
यह भी समझ
सकते हैं।
लेकिन बुद्ध
कहते हैं, तुम्हारी
बात अगर पूरी
हो गई हो, तो
मैं जाऊं! न
क्रोध है, न
क्षमा है।
गालियां जैसे
दी ही नहीं
गईं। और अगर
दी भी गई हैं, तो कम से कम
ली तो गई ही
नहीं हैं।
एक
आदमी पूछता है, लेकिन हम
ऐसे न जाने
देंगे। हम
जानना चाहते
हैं कि पागल
आप हैं कि
पागल हम हैं? हम गालियां
दे रहे हैं, इनका उत्तर
चाहिए! बुद्ध
ने कहा, अगर
तुम्हें इनका
उत्तर चाहिए
था, तो
तुम्हें दस
वर्ष पहले आना
था। तब मैं
तुम्हें
उत्तर दे सकता
था। लेकिन जो
उत्तर दे सकता
था, वह तो
समय हुआ, मर
गया। तुम
गालियां देते
हो, यह
तुम्हारा काम
है, लेकिन
मैंने तो बहुत
समय हुआ जब से
गालियां लेना
ही बंद कर दीं।
देने की
जिम्मेवारी
तुम्हारी है,
लेकिन अगर
मैं न लूं तो
तुम क्या
करोगे? कम
से कम इतनी
स्वतंत्रता
तो मेरी है कि
मैं न लूं। और
अब मैं व्यर्थ
चीजें नहीं
लेता। तो मैं
जाऊं, अगर
तुम्हारी बात
पूरी हो गई हो!
पर
लोगों को बड़ी
मुश्किल है।
बुद्ध गालियां
दे दें, तो भी लोग घर
शांति से लौट
जाएं। बुद्ध
क्षमा कर दें
और कहें कि
नासमझ हो तुम,
तुम्हें
कुछ पता नहीं,
तो भी लोग
घर शांति से
लौट जाएं।
लेकिन अब इन
लोगों की नींद
हराम हो जाएगी,
क्योंकि यह
बुद्ध इनको
अधर में लटका
हुआ छोड़ गए।
इन्होंने
गाली दी थी, नदी के एक
तरफ से सेतु
बनाया था; दूसरा
किनारा ही न
मिला!
इन्होंने तीर
छोड़ा था, निशाना
ठीक जगह लगे, हर्ज नहीं, गलत जगह लगे,
लगे तो।
निशाना लगा ही
नहीं। और तीर
चलता ही चला
जाए और निशाना
लगे ही नहीं, तो जैसी
मजबूरी में, जैसी तकलीफ
में तीर पड़
जाए, वैसी
तकलीफ में ये
पड़ जाएंगे।
तो
बुद्ध उन्हें
तकलीफ में
देखकर कहते
हैं कि तुम
बड़ी तकलीफ में
पड़ गए मालूम
पड़ते हो।
तुम्हारी सूझ—बूझ
खो गई, तो
मैं तुम्हें
एक सुझाव देता
हूं। पिछले
गांव में कुछ
लोग मिठाइयों
का थाल लेकर
मुझे देने आए
थे, लेकिन
मेरा पेट था
भरा और मैंने
उनसे कहा कि तुम
इन्हें वापस
ले जाओ। तो वे
अपनी मिठाइयों
का थाल वापस
ले गए। मैं
तुमसे पूछता
हूं उन्होंने
क्या किया होगा?
तो एक आदमी
ने भीड़ में से
कहा, क्या
किया होगा!
गांव में जाकर
मिठाई बांट दी
होगी। तो
बुद्ध ने कहा,
अब तुम क्या
करोगे? तुम
गालियों का
थाल भरकर लाए,
और मैं लेता
नहीं हूं। तुम
जाकर गांव में
इन्हें बांट
लेना, ताकि
तुम रात शांति
से सो सको!
क्षमा
का अर्थ है, वैसी
चित्त की दशा,
जहां क्रोध
व्यर्थ हो
जाता है।
क्षमा का अर्थ
है, चित्त
की वैसी भाव—दशा,
जहां क्रोध
जन्मता ही
नहीं।
यह
बहुत मजे की
बात है कि
क्रोध हमें
इसलिए जन्मता
है— इसलिए
नहीं कि लोग
क्रोध जन्मा
देते हैं—
क्रोध हमें
इसलिए जन्मता
है कि क्रोध
हमारे भीतर
सदा है। जब
कोई आपको गाली
देता है, तो आप इस
भांति में मत
पड़ना कि उसने
आपमें क्रोध
पैदा करवा
दिया। क्रोध
तो आपके भीतर
मौजूद था।
उसकी गाली तो
केवल उसे बाहर
लाने का काम
करती है।
जैसे
कोई एक बाल्टी
को रस्सी में
बांधकर कुएं
में डाल दे और
खींचे और पानी
भरकर बाहर आ
जाए, तो
क्या आप यह
कहेंगे कि इस
आदमी ने कुएं
में पानी भर
दिया? यह
सिर्फ बाल्टी
डालता है, कुएं
में जो पानी
भरा ही था, वह
बाहर निकल आता
है। अगर यह
आदमी खाली
कुएं में, सूखे
कुएं में
बाल्टी डाले,
तो बाल्टी
भड़भड़ाएगी, परेशान होगी;
खाली वापस
लौट आएगी।
बुद्ध
में जब कोई
गाली डालता है, तो खाली,
सूखे कुएं
में बाल्टी
डाल रहा है।
बाल्टी वापस
लौट आएगी।
मेहनत व्यर्थ
जाएगी। हमारे
भीतर जब कोई
बाल्टी डालता
है, गाली
डालता है, तो
भरी हुई लौटती
है, लबालब
लौटती है; ऊपर
से बहती हुई
लौटती है। और
हम सोचते हैं,
इस आदमी ने
गाली दी, इसलिए
मुझमें क्रोध
पैदा हुआ!
नहीं। क्रोध
आपके भीतर था,
इस आदमी ने
कृपा की, गाली
दी और आपको
आपके क्रोध के
दर्शन करवाए।
इसने आपके
क्रोध को आपके
समक्ष प्रकट
किया।
क्रोध
किसी की गाली
से पैदा नहीं होता, नहीं तो
बुद्ध में भी
पैदा होगा।
क्रोध तो है
ही, मौके
उसे प्रकट
करने में
सहयोगी हो
जाते हैं। और
अगर मौके न
मिलें और
क्रोध भीतर हो,
तो हम मौके
खोज लेते हैं।
आप
सबको पता होगा, अगर दो—चार—आठ
दिन क्रोध
करने का कोई
मौका न दे, तो
जैसी बेचैनी
होती है, वैसी
बेचैनी क्रोध
करने से भी
नहीं होती।
मनस्विद इस
नतीजे पर
पहुंचे हैं कि
आदमी को क्रोध
करने का मौका
न मिले, तो
वह मौका खोज
लेता है। वह
ऐसी बात में
से मौका निकाल
लेता है, जहां
कि आप कल्पना
भी नहीं कर
सकते थे कि यहां
क्रोध की कोई
जरूरत है। वह
चारों तरफ
तलाश में रहता
है। वह चारों
तरफ अपने आस—पास
अशात फीलर्स
छोड़ देता है; खोजते रहते
हैं कि कहीं
जरा मौका मिल
जाए और वह
क्रोध से भर
जाए।
अगर इस
आदमी को बंद
कर दें तीन
महीने एकांत
में, तो
यह दीवालों से
लड़ेगा। यह
दीवालों से
सिर फोड़े—गा।
यह खाली आकाश
में गालियां
देगा। यह अपने
को भी चोट
पहुंचा सकता
है, अपने
को भी मार
सकता है।
क्रोध अपने पर
भी प्रकट कर
सकता है।
क्रोध
आपकी एक
अवस्था है।
ध्यान रखें, अगर
क्रोध सिर्फ
एक
प्रतिक्रिया
है किसी के द्वारा
पैदा की गई, तब तो क्षमा
असंभव है।
क्रोध आपकी एक
अवस्था है, और अगर आप
अपने को बदल लें,
तो क्षमा भी
आपकी अवस्था
हो सकती है।
और तब कोई
आपके भीतर
बाल्टी डाले,
तो क्षमा
भरकर बाहर
निकले।
जीसस
को सूली पर
लटकाया है। और
जीसस से कहा
गया है कि अगर
तुम्हें कोई
अंतिम
प्रार्थना
करनी हो, तो मृत्यु
के पहले कर लो।
तो वे
प्रार्थना
करते हैं कि
हे परमात्मा!
इन सबको क्षमा
कर देना, क्योंकि
इन्हें पता
नहीं कि ये
क्या कर रहे
हैं।
गाली
नहीं, सूली
डाली गई है
भीतर! और यह
आदमी कहता है,
इन्हें
क्षमा कर देना,
क्योंकि
इन्हें पता
नहीं, ये
क्या कर रहे
हैं! भीतर
क्षमा हो, तो
क्षमा
निकलेगी।
भीतर क्रोध हो,
तो क्रोध
निकलेगा। इस
बात को एक
मौलिक सूत्र
की तरह अपने
हृदय में
लिखकर रख छोड़े
कि जो आपके
भीतर है, वही
निकलेगा।
इसलिए जब भी
कुछ आपके बाहर
निकले, तो
दूसरे को दोषी
मत ठहराना। वह
आपकी ही संपदा
है, जिसको
आप अपने भीतर
छिपाए थे।
इसलिए
कबीर ने कहा
है, निंदक
नियरे राखिए
आयन कुटी छबाय।
अपनी निंदा
करने वाले को आंगन
और कुटी छवाकर
अपने पास ही
रख लेना चाहिए,
ताकि भीतर
जो भी कचरा है,
वह उसका
दर्शन करवाता
रहे। वह बार—बार
ऐसी बातें
कहता रहे कि
भीतर जो भी है,
वह दिखाई
पड़ता रहे।
ताकि किसी दिन
उससे छुटकारा
भी हो जाए।
लेकिन
हम प्रशंसकों
को पास रखना
पसंद करते हैं।
क्योंकि जो
हमारे भीतर
नहीं है, वह वे बताते
रहते हैं। जो
हमारे भीतर
नहीं है वह! और
जो हमारे भीतर
है, उसे
छिपाते रहते
हैं। हम मित्र
उनको कहते हैं—नासमझी
हमारी हद्द की
है—हम मित्र
उनको कहते हैं,
जो हमारे
भीतर नहीं है,
उसका हमें
दर्शन कराते
रहते हैं। और
हम शत्रु उनको
कहते हैं—नासमझी
हमारी हद्द की
है— कि जो
हमारे भीतर है,
उसका दर्शन
कराएं, तो
हम उन्हें
शत्रु मान
लेते हैं!
अगर
कोई गाली दे
और भीतर क्रोध
आए, तो
उसे धन्यवाद
देना कि उसने
एक अवसर दिया,
एक मौका
जुटाया, एक
परिस्थिति
बनाई, जिसमें
आपका क्रोध
आपको दिखाई
पड़ा। और अगर
कोई व्यक्ति
गाली देने
वाले को भी
धन्यवाद दे
पाए, तो एक
दिन उसके भीतर
क्षमा की
शक्ति पैदा
होगी। वह
क्षमा
पाजिटिव है।
वह क्षमा किसी
किए गए क्रोध
का पछतावा
नहीं है, किसी
क्रोध के लिए
मांगी गई माफी
नहीं है।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि आप
क्रोध करना, तो माफी
मत मांगना। यह
मैं नहीं कह
रहा हूं।
लेकिन उस माफी
को कृष्ण की
क्षमा मत
समझना। वह
हमारे बाजार
की क्षमा है।
हमारी दुनिया
की क्षमा है।
वह कारगर है, लुब्रिकेटिंग
है, उसका
बड़ा उपयोग है।
आप
मुझे गाली दे
गए, फिर
अगर आप मुझसे
क्षमा न
मांगें, तो
मेरे और आपके
बीच चका
बिलकुल जाम हो
जाएगा, लुब्रिकेशन
मुश्किल हो
जाएगा। थोड़ा
तेल चाहिए; चके चलते
रहते हैं। और
जिंदगी बड़े
चकों का जाल
है। चके में
चके उलझे हुए
हैं। यहां अगर
बिलकुल क्षमा
वगैरह मत करिए,
तो आप जाम
हो जाएंगे, अटक जाएंगे;
हिलना
मुश्किल हो
जाएगा। मांग
ली क्षमा; थोड़ा
तेल पड़ गया
चके में, चके
फिर चलने लगे।
बस हमारी
क्षमा का तो
इतना ही उपयोग
है। लेकिन
उपयोग है, और
जिंदगी चलती
है इस
लुब्रिकेशन
से।
लेकिन कृष्ण
की क्षमा कोई
और बात है। इस
क्षमा में उस
अखंड का दर्शन
नहीं होगा।
अगर क्षमा
आपका स्वभाव
बन जाए, क्रोध संभव
ही न हो, अक्रोध
सहज हो जाए।
कोई नींद में
भी आपको डाल
दे आपके भीतर
कुछ, तो
क्षमा ही बाहर
आए। आपके रोएं—
रोएं से आशीष
ही बहने लगें,
आपका कण—कण
शुभकामना और
मंगल से भर
जाए, तो
क्षमा है।
कृष्ण
कहते हैं, क्षमा
मैं हूं सत्य
मैं हूं
इंद्रियों का
वश में करना
मैं हूं मन का
निग्रह मैं
हूं।
मन का
निग्रह, इंद्रियों
को वश में
करना— इस
संबंध में
थोड़ी— सी बात
खयाल में ले
लें।
एक, व्यापक
रूप से गलत
धारणा हमारे
भीतर है। जब
भी हम सोचते
हैं, इंद्रियों
को वश में
करना, तो
कोई संघर्ष, कोई युद्ध, कोई लड़ाई, कोई भीतरी
कलह का खयाल
आता है। जब भी
हम सोचते हैं,
मन का
निग्रह करना,
तो कोई
जबरदस्ती, कोई
दमन, कोई
रिप्रेशन
करने का खयाल
मन में आता है।
वे बड़े
गलत खयाल हैं।
और जो व्यक्ति
भी अपनी
इंद्रियों को
दुश्मन की तरह
वश में करने
जाएगा, वह मुसीबत
में पड़ेगा। वह
मालिक तो कभी
न हो पाएगा, विक्षिप्त
हो सकता है।
और जो व्यक्ति
जबरदस्ती
अपने मन को
ठोक—पीट कर वश
में करने की
चेष्टा में
लगेगा, उसका
मन विद्रोही
हो जाएगा, मन
बगावती हो
जाएगा; और
मन उसे ऐसी
जगह ले जाने
लगेगा, जहां—जहां
वह चाहता है
कि मन न जाए।
जहां—जहां
चाहेगा कि न
जाए मन, वहां—
वहां जाने
लगेगा। जहां—जहां
रोकेगा मन, मन वहां—वहां
और भी बहने
लगेगा।
इंद्रियों पर
जितनी
जबरदस्ती
करेगा, उतना
ही पाएगा कि
ऐंद्रिक और
सेंसुअल होता
चला जा रहा है।
इसलिए
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
अगर कोई
जबरदस्ती
ब्रह्मचर्य
को थोपने बैठ
जाए, तो
उसके चित्त
में कामवासना
जितनी भयंकर
हो जाती है, तूफान ले
लेती है, उतना
किसी गहरे से
गहरे कामी के
मन में भी नहीं
होती।
आपको
पता होगा, अगर किसी
दिन उपवास
करें, तब
आपको पता
चलेगा कि भोजन
की याद उपवास
के दिन ही आती
है। ऐसे भोजन
की कोई याद
आती है! आदमी
भोजन कर लेता
है और भूल
जाता है। आप
सड़क पर निकलते
हैं, आपको
कभी खयाल आया
कि आप कपड़े
पहने हुए हैं!
एक दिन नग्न
निकलकर सड़क पर
देखें, तब
आपको कपड़े ही
कपड़े याद
आएंगे।
जबरदस्ती
किसी चीज को
रोका जाए, तो वह
स्मृति में
गहन हो जाती
है। जोर से
आती है, प्रगाढ़
हो जाती है।
उसका बल, उसकी
ताकत बढ़ जाती
है।
इंद्रिय—निग्रह
या मन—निग्रह
जबरदस्तिया
नहीं हैं, वैज्ञानिक
विधियां हैं।
इसे खयाल में
ले लें।
वैज्ञानिक
विधियां हैं।
लड़ाई का सवाल
नहीं है, समझ
का सवाल है।
और जो व्यक्ति
मन से लड़ेगा, वह कभी मन का
मालिक न होगा।
जो व्यक्ति मन
को समझेगा, वह मन का
मालिक तत्काल
हो जाएगा। समझ
सूत्र है, दमन
नहीं।
लेकिन
हम लड़ते रहते
हैं। एक आदमी
को क्रोध आता
है, तो
वह क्रोध को
दबाता है कि
क्रोध करना
अच्छा नहीं है।
शास्त्र में
पढ़ा है, गुरुओं
से सुना है, क्रोध करना
बुरा है।
क्रोध आता है;
अब वह क्या
करे? उसे
दबा लेता है।
दबाया हुआ और
भीतर पहुंच
जाता है।
दबाया हुआ और
रग—रग, रोएं—रोएं
में फैल जाता
है। दबाया हुआ
नये रास्तों
से निकलना
शुरू हो जाता
है। दबाया हुआ
धीरे— धीरे स्वभाव
में जहर की
तरह फैल जाता
है।
इसलिए
देखें आप, जो आदमी
को यह वहम हो
कि मैंने
क्रोध पर काबू
पा लिया है, उसके आप
रोएं—रोएं में
क्रोध को
झलकता हुआ
देखेंगे। जिस
आदमी को खयाल
हो कि मेरा
अहंकार
बिलकुल समाप्त
हो गया है, मैं
तो बिलकुल
विनम्र हो गया
हूं उसकी आंख की
झलक में, उसके
चेहरे के भाव
में, जगह—जगह
आप अहंकार की
छाप पाएंगे।
जिस
आदमी को खयाल
हो कि मैंने
संसार को लात
मार दी है, संसार को
छोड़ दिया है, त्याग कर
दिया है, उसको
अगर आप थोड़ा
भी गौर से
देखेंगे, तो
उसे संसार में
इस बुरी तरह
फंसा हुआ
पाएंगे, जिसका
हिसाब नहीं।
संसार नहीं
होगा उसके
चारों तरफ, तो भी फंसा
हुआ पाएंगे।
क्योंकि एक
छोटी—सी
लंगोटी भी
पूरा
साम्राज्य बन
सकती है।
जो
दबाया जाता है, वह
विषाक्त कर
देता है।
नहीं; कृष्ण का
अर्थ दमन से
नहीं है।
इसलिए जो दमित
करेगा अपने को,
वह तो और भी
परमात्मा की
झलक से दूर हो
जाएगा। कृष्ण
का प्रयोजन है
रूपांतरण से,
ट्रांसफामेंशन
से, एक
क्रांति से, जो ज्ञान से
संभव होती है।
जिस
व्यक्ति को
क्रोध के बाहर
जाना हो, उसे क्रोध
को समझना
चाहिए, उसे
क्रोध को
पहचानना
चाहिए। क्रोध
ताकत है। जैसे
आकाश में
बिजली कौंधती
है। एक दिन हम
उससे डरते थे
और घबड़ाते थे।
आज वही बिजली
प्रकाश देती
है। एक दिन
आकाश में
कौंधती थी, तो हम घुटने
टेककर जमीन पर,
प्रार्थना
करते थे, कि
जरूर
परमात्मा
नाराज है, देवता
रुष्ट हैं। आज
उस बिजली को
हमने बांध
दिया। आज कोई
आकाश में
चमकती बिजली
को देखकर
घबड़ाता नहीं
है, क्योंकि
अब हम जानते
हैं उस बिजली
के विज्ञान को।
क्रोध
भी आपके भीतर
कौंधती हुई
बिजली है। और
मजा तो यह है
कि आकाश की
बिजली को
बांधने में हम
समर्थ हो गए, आदमी के
भीतर की
बिजलियां अभी
भी गैर—सम्हली
पड़ी हैं।
क्रोध
शक्ति है। अगर
एक बच्चा ऐसा
पैदा हो, जिसमें
क्रोध हो ही
नहीं, तो
वह बच्चा
जिंदा नहीं रह
सकेगा, मर
जाएगा।
नपुंसक होगा,
उसमें बल ही
नहीं होगा।
क्रोध शक्ति
है। लेकिन
शक्ति का
दुरुपयोग हो
सकता है, सदुपयोग
हो सकता है।
जब कोई उस
शक्ति का
दुरुपयोग
करता है, तो
जीवन नर्क हो
जाता है।
क्रोधी का
जीवन शक्ति का
दुरुपयोग है।
और जब कोई उसी
शक्ति का
सदुपयोग करता
है, तो वही
शक्ति क्षमा
बन जाती है।
और क्षमाशील
का जीवन
स्वर्ग हो
जाता है।
कृष्ण
जब कहते हैं, इंद्रियों
के निग्रह में
मैं हूं
मनोनिग्रह में
मैं हूं तो
उनका अर्थ है
कि जो व्यक्ति
इंद्रियों को
जानकर, इंद्रियों
को समझकर, ज्ञान
से उनके पार
हो जाता है; जो व्यक्ति
मन को पहचानकर,
मन के प्रति
जागरूक होकर,
मन के ऊपर
उठ जाता है, उसे मेरी
झलक मिलनी
शुरू।
दमन से
नहीं, रूपांतरण
से। लड़कर नहीं,
जानकर।
यह
सूत्र थोड़ा
बारीक है।
क्योंकि
जानने का क्या
अर्थ? कभी
आपने सोचा है
कि आपने क्रोध
को जाना? आप
कहेंगे, बहुत
जाना। रोज
जानते हैं!
लेकिन फिर भी
मैं आपसे
कहूंगा, आपने
कभी नहीं जाना।
क्योंकि जब
क्रोध होता है,
तब आपका
जानना बिलकुल
ही नहीं होता
है। आपका
जानना खो गया
होता है। तब
आप बिलकुल
पागल होते हैं।
क्रोध
जो है, वह
अस्थायी
पागलपन है। उस
वक्त होश
वगैरह आपके
भीतर बिलकुल
नहीं होता। उस
वक्त आप जो
करते हैं, वह
आप करते हैं, ऐसा कहना भी
ठीक नहीं है।
आप से होता है,
ऐसा ही कहना
ठीक है।
क्योंकि
क्रोध के बाद
आप ही पछताते
हैं और कहते
हैं कि मेरे
बावजूद, इंस्पाइट
ऑफ मी, मुझसे
हो गया। यह
मैं सोचता तो
नहीं था कि इस
बच्चे को
उठाकर खिड़की
के बाहर फेंक
दूंगा और यह
मर जाएगा। यह
मैंने सोचा ही
नहीं था, लेकिन
यह हो गया। यह
मैंने किया
नहीं है, यह
हो गया है।
लेकिन फिर
किसने किया? क्रोध इतना
हावी हो गया
था कि आपकी
चेतना बिलकुल
खो गई थी और आप
बिलकुल मूढ़ हो
गए थे, सो
गए थे, बेहोश
थे।
एक
मुसलमान
खलीफा हारुन
अल रशीद अपने
घोड़े पर राजधानी
से निकल रहा
है बगदाद में।
एक आदमी अपने
छप्पर पर खड़े
होकर खलीफा को
गालियां देने
लगा। अभद्र
गालियां थीं।
खलीफा ने सुना
और अपने
सिपाहियों को
कहा कि कल
सुबह इस आदमी
को दरबार में
पकड़कर ले आओ।
वह आदमी उसी
समय पकड़कर बंद
कर दिया गया।
दूसरे दिन
सुबह उस आदमी
को दरबार में
लाया गया।
तो
खलीफा ने उससे
पूछा कि कल
तुमने छप्पर
के ऊपर खड़े
होकर गालियां
किस प्रयोजन
से दी थीं? उस आदमी
ने कहा कि क्षमा
करें, जिसने
गालियां दी
थीं, वह अब
मैं नहीं हूं।
खलीफा ने, कहा
कि तुम वह
नहीं हो? शक्ल
मैं तुम्हारी
ठीक से
पहचानता हूं। और
सिपाहियों ने
कहा कि यही
आदमी है।
लेकिन उस आदमी
ने कहा कि और
सब ठीक है।
शक्ल भी वही
है। आदमी भी
वही है एक
अर्थ में।
लेकिन फिर भी
मैं कहता हूं
वह मैं नहीं
हूं क्योंकि
कल मैंने शराब
पी रखी थी। और
जब सुबह मैं
होश में आया, तो मैंने
सोचा, अरे,
यह मैंने
क्या किया!
खलीफा
ने उसे मुक्त
कर दिया।
लेकिन
आपको पता है
कि जब आप
क्रोध में
होते हैं, तब भी
शराब आपके रग—रग
रेशे—रेशे में
दौड़ जाती है!
अब तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
आपके शरीर के
भीतर
ग्रंथियां
हैं जहर की।
जब आप क्रोध
में होते हैं,
तो वे
ग्रंथियां
जहर को छोड़
देती हैं और
आप बेहोश हो
जाते हैं; केमिकली
आप बेहोश हो
जाते हैं।
तो
आपने क्रोध को
कभी जाना नहीं।
क्योंकि जब
क्रोध होता है, तब आप
नहीं होते। और
जब आप लौटते
हैं, तब तक
क्रोध जा चुका
होता है। आपकी
मुलाकात नहीं
हुई है क्रोध
से अभी। क्रोध
को जानने का, या और
वासनाओं को
जानने का एक
ही उपाय है कि
जब क्रोध
मौजूद हो, तब
आप आंख बंद
करें और क्रोध
पर। ध्यान
करें कि यह
क्या है? कैसे
उठ रहा है? कहां
से आया है? कहां
जा रहा है? क्या
प्रयोजन है? यह क्या है
शक्ति? इसका
क्या है रूप? यह क्या
करना चाहता है?
लेकिन
जब आप क्रोध
में होते हैं, तो आपकी
नजर दूसरे पर
होती है, जिसने
क्रोध करवाया।
उसी में आप
चूक जाते हैं।
जब आप क्रोध
में हों, तो
नजर अपने पर
रखें। दूसरे
को भूल जाएं, जिसने गाली
दी। उससे तो
घडीभर बाद भी
मुलाकात हो
सकती है।
लेकिन यह
क्रोध जो आपके
भीतर है, यह
घडीभर बाद
नहीं होगा, यह बह गया
होगा। फिर
इससे मुलाकात
नहीं होगी। इस
मौके को मत
चूके।
गुरजिएफ
ने लिखा है
अपने
संस्मरणों
में कि मेरे
पिता ने मरते
वक्त मुझसे
कहा था—एक
छोटी—सी बात, वही मेरे
जीवन में
बदलाहट बन गई—
उन्होंने
मरते वक्त
मुझसे कहा था
कि मेरे पास!
देने को तुझे
कुछ भी नहीं
है, सिर्फ
एक छोटी—सी
सलाह है, जिसने
मेरी जिंदगी
को सोना बना
दिया, वह
मैं तुझे देता
हूं। और वह
सलाह। यह थी
कि जब तुझे
कभी कोई गाली
दे, तो तू
चौबीस घंटेभर
बाद! जवाब
देना; चौबीस
घंटे बाद जवाब
देना, इसके
पहले जवाब मत
देना। उससे कह
देना कि मैं
आऊंगा। चौबीस
घंटे का मुझे
मौका दें, ताकि
मैं सोचूं
विचारूं। मैं
चौबीस घंटेभर
बाद आकर जवाब
दे दूंगा।
गुरजिएफ
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मुझे जवाब
देने का मौका
कभी नहीं आया।
चौबीस घंटे
बहुत लंबा
वक्त था, इतनी देर
जहर टिकता
नहीं। वह
तत्काल हो जाए,
तो हो जाए।
मगर हम
बड़े होशियार
लोग हैं। अगर
कोई भला काम
करना हो, तो हम कहते
हैं, जरा
सोचेंगे।
बुरा काम करना
हो, तो हम
बड़े तत्काल!
फिर हम कभी
नहीं कहते कि
सोचेंगे। अगर
कोई कहे कि एक
दो पैसे दान
कर दो, तो
हम कहेंगे, सोचेंगे। और
कोई एक गाली
दे, तो हम
कभी नहीं कहते
कि जरा
सोचेंगे। फिर
सोचने का कोई
सवाल नहीं है।
फिर हम
तत्काल! फिर
हमसे ज्यादा
त्वरा और तीव्रता
में और जल्दी
में कोई नहीं
होता।
यह
जल्दी क्या है, आपको पता
नहीं। यह
जल्दी केमिकल
है, यह
जल्दी
रासायनिक है।
वह जहर जो
आपके खून में
छूटा है, वह
कहता है, जल्दी
करो! क्योंकि
अगर दो क्षण
भी चूक गए, तो
वह जहर तब तक
खून में विलीन
हो जाएगा। वह
जहर जो आपकी
नसों में
फैलकर अकड़ गया
है, वह
कहता है, उठाओ
घूंसा और
मारो! क्योंकि
अगर नहीं मारा,
तो यह जहर
तो बेकार चला
जाएगा।
क्रोध
जब हो, तब
ध्यान का क्षण
समझें। आंख
बंद कर लें।
बीच सड़क पर भी
हों, तो
वहीं आंख बंद
कर, एक
किनारे पर
बैठकर ध्यान
कर लें कि
भीतर क्या हो
रहा है! लोग
शायद आपको
पागल समझें, लेकिन आप
पागल नहीं हैं।
क्योंकि
क्रोध को जो
जान लेगा, वह
सब पागलपन के
ऊपर उठ जाता
है। जब
कामवासना
आपको पकड़े, तब रुक जाएं।
ध्यान करें उस
पर। उस वासना
को पहचानें
भीतर से, क्या
है? कौन—सी
ऊर्जा भीतर
उठकर इतना
धक्का दे रही
है कि आप पागल
हुए जा रहे
हैं?
तो आप
बहुत शीघ्र उस
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएंगे, जिस जान में ये
इंद्रिय—निग्रह,
मनो—निग्रह
सरलता से फलित
हो जाते हैं। कृष्ण
कहते हैं, वह
भी मैं ही हूं।
वे
कहते हैं, सुख और
दुख, उत्पत्ति
और प्रलय, भय
और अभय भी मैं
ही हूं।
इन तीन
द्वंद्वों को
एक साथ उपयोग
करने का प्रयोजन
है। हम सब
सोचते हैं, हम सबने
सोचा है बहुत
बार कि
परमात्मा
आनंद है।
लेकिन कभी
सोचा है कि
परमात्मा दुख
भी है? यह
सूत्र बहुत
खतरनाक है।
कृष्ण
कहते हैं, सुख भी
मैं और दुख भी
मैं।
हम सब सोचते
हे कि
परमात्मा सुख
का धाम। परम सुख
अगर चाहिए, तो
परमात्मा की
तरफ जाओ।
लेकिन कृष्ण
कह रहे हैं कि
सुख भी मैं और
दुख भी मैं! तो
क्या वे वेदों
की, उपनिषदों
की जो परम
उक्ति है, सच्चिदानंद
की, उसके
खिलाफ बोल रहे
हैं?
नहीं, उसके
खिलाफ नहीं
बोल रहे हैं।
लेकिन अगर उस
तक जाना हो, तो इस सूत्र
को मानकर चलने
वाला ही उस तक
पहुंचता है, जहां
परमात्मा
मात्र आनंद रह
जाता है। इस
सूत्र को
मानने वाला—
सुख और दुख, दोनों में
जो परमात्मा
को देखता है, वह एक दिन
परम आनंद को
उपलब्ध होता
है।
हम सुख
में तो
परमात्मा को
देख सकते हैं, लेकिन
दुख .में! दुख
में नहीं देख
सकते। और जो
दुख में नहीं
देख सकता, वह
समता को
उपलब्ध नहीं
होगा, शांति
को उपलब्ध
नहीं होगा।
लेकिन जो दुख
में भी देख
सकता है, वह
समता को
उपलब्ध हो
जाएगा। अगर
आपको दुख में
भी परमात्मा
दिखाई पड़े, तो आप दुख से
भागना न
चाहेंगे।
परमात्मा से
कोई भागना
चाहता है? अगर
दुख में
परमात्मा
दिखाई पड़े, तो आप
प्रार्थना न
करेंगे कि दुख
से मुझे
छुडाओ! क्योंकि
परमात्मा से
कोई छूटना
चाहता है?
और
जिसको दुख में
भी परमात्मा
दिखाई पड़ जाए, उसके लिए
फिर कोई दुख
जगत में नहीं
रह जाएगा।
क्योंकि दुख
का मतलब ही
तभी तक है, जब
तक हम उससे
बचना चाहते
हैं, भागना
चाहते हैं।
जिस दिन कोई
दुख को भी
आलिंगन करके
गले लगा ले; और जिस दिन
दुख को भी कोई
कहे कि प्रभु
आए द्वार मेरे,
स्वागत है;
उस दिन फिर
कोई दुख नहीं
बचेगा। और
जिसके जीवन
में कोई दुख
नहीं बचता, उसके जीवन
में सभी कुछ
सुख हो जाता
है।
हमारे
जीवन में दुख
से बचने की और
सुख को पकड़ने
की आकांक्षा
होती है।
लेकिन परिणाम
क्या है? परिणाम इतना
है कि दुख ही
दुख हो जाता
है; सुख तो
कहीं मिलता
नहीं।
कृष्ण
कहते हैं, सुख भी
मैं, दुख
भी मैं; उत्पत्ति
भी मैं, प्रलय
भी मैं; जन्म
भी मैं, मृत्यु
भी मैं। सारे
द्वंद्व मैं
हूं। भय भी
मैं, अभय
भी मैं। जहां—जहां
द्वंद्व
दिखाई पड़े, दोनों में
मैं ही हूं।
ऐसा जो मुझे
देखेगा, वह
आगे के
सूत्रों को
समझना और आसान
हो जाएगा।
तथा
अहिंसा, समता, संतोष,
तप, दान,
कीर्ति, अपकीर्ति,
ऐसे ये जो
नाना प्रकार
के भाव
प्राणियों
में होते हैं,
वे मेरे से
ही होते हैं।
और हे अर्जुन,
सात
महर्षिजन, और
चार उनसे भी
पूर्व में
होने वाले
सनकादि तथा
स्वायंभुव
आदि चौदह मनु,
ये मेरे भाव
वाले सब के सब
मेरे संकल्प
से उत्पन्न
हुए, जिनकी
संसार में यह
संपूर्ण
प्रजा है।
इस सूत्र
का अर्थ है कि जितने
भी जानने वाले
हुए है अब तक जिन्होंने
भी जाना है इस
सत्य को, इस जीवन को, वे भी मेरे
ही संकल्प थे,
मेरे ही भाव
थे, वे भी
मुझसे अलग
नहीं हैं।
जिन्होंने भी
कभी उस परम
अनुभव को पाया
है, चाहे
वे पहले हुए
ऋषि—महर्षि
हों, चाहे
मनु आदि हों, वे सब भी
मेरे ही भाव
की अवस्थाएं
हैं। कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि इस जगत में
जो भी
श्रेष्ठतम फूल
खिलते हैं
अनुभव के, वे
सब मेरी ही
सुगंध से
परिव्याप्त
हैं। और जब भी
कोई अपनी परम
दशा में
पहुंचता है, तो मुझको ही
उपलब्ध हो
जाता है।
लेकिन
उस परम दशा
में वे ही लोग
पहुंच पाते हैं, जो
द्वंद्व के
बीच अपने को
समता में ठहरा
लेते हैं। जो
दो के बीच
चुनाव नहीं
करते, जो
यह नहीं कहते
कि हमें सुख
चाहिए, दुख
नहीं चाहिए।
जो कहते हैं, दुख में भी
तू है, और
सुख में भी तू
है। जो यह
नहीं कहते कि
जन्म तो
प्यारा है, जीवन तो
प्यारा है, मृत्यु नहीं
चाहिए, हमें
तो अमर जीवन
चाहिए। जो ऐसा
नहीं कहते हैं।
जो कहते हैं, मृत्यु भी
तेरी, जन्म
भी तेरा।
दोनों हमें
प्रीतिकर हैं,
क्योंकि
दोनों ही तेरे
हैं।
इस जगत
में जो चुनाव
नहीं करते हैं, इस जगत
में जो
च्चाइसलेस, चुनावरहित
जीने के
उपक्रम में
प्रवेश करते हैं,
वे सभी, चाहे
किसी काल में
हुए हों, वे
सभी महर्षिगण,
मुझको ही, मेरे ही
संकल्प को, मेरे ही भाव
को उपलब्ध
होते हैं। कहें
कि वे मेरे ही
भाव के अंश
हैं, वे
मेरी ही लहरें
हैं। लेकिन वे
ऐसी लहरें हैं,
जो मेरे
सागर होने को
भी अनुभव कर
लेती हैं।
आज
इतना ही। फिर
कल हम बात
करेंगे।
लेकिन
पांच मिनट
रुकेंगे। कोई
भी बीच से उठे
न। पांच मिनट
प्रसाद लेकर
जाएं। राम—नाम
का प्रसाद।
पांच मिनट
कीर्तन में
सम्मिलित हों।
और बीच में
कोई उठे न। जब
कीर्तन बंद हो, तभी आप
उठें।
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