योग—सूत्र:
चंद्रे
ताराव्यूहज्ञानम्
।। 28।।
चंद्र
पर संयम
संपन्न करने
से तारों—नक्षत्रों
की समेग्र व्यवस्था
का ज्ञान प्राप्त
होता है।
धुवे
तद्गतिज्ञानम्।।
29।।
ध्रुव—नक्षत्र
पर संयम
संपन्न करने
से तारों—नक्षत्रों
की गतिमयता का
ज्ञान प्राप्त
होता है।
नाभिचक्रै
कायव्यूहज्ञानम्
।। 30।।
नाभि चक्र
पर संयम संपन्न
करने से शरीर
की संपूर्ण संरचना
का ज्ञान
प्राप्त होता
है।
कण्ठकूपे
क्षुत्पिपासानिवृति:
।। 31।।
कंठ पर
संयम संपन्न
करने से
क्षुधानु
पिपासा की
अवभूतियां
क्षीण हो जाती
है।
कूर्मनाडयां
स्थैर्यम्।।
32।।
कूर्म—नाड़ी
नामक नाड़ी पर
संयम संपन्न
करने से, योगी
पूर्ण रूप से
थिर हो जाता
है।
पतंजलि कोई
चिंतक नहीं
हैं। वे किसी
हवाई और
काल्पनिक लोक
के दार्शनिक
नहीं हैं; वे पूरी
तरह से इस
पृथ्वी के हैं
और पृथ्वी की
ही बात करते हैं।
पतंजलि एकदम
व्यावहारिक
हैं, जैसे
कि मैं
व्यावहारिकता
के लिए कहता
हूं। पतंजलि
की दृष्टि
वैज्ञानिक है।
उनकी दृष्टि
ही उन्हें
दूसरों से अलग
खड़ा कर देती
है। दूसरे लोग
सत्य के विषय
में सोचते हैं।
पतंजलि सत्य
के बारे में
सोचते नहीं
हैं; वे तो
बस इस बात की
तैयारी
करवाते हैं कि
सत्य को ग्रहण
कैसे करना, सत्य को
ग्रहण करने के
लिए ग्राहक
कैसे होना।
सत्य
सोचने —विचारने
की बात नहीं
है, सत्य
को तो केवल
जीया जा सकता
है। सत्य तो
पहले से ही
विद्यमान है,
उसके विषय
में सोचने का
कोई उपाय नहीं।
जितना ज्यादा
हम सत्य के
विषय में
सोचेंगे, उतने
ही हम सत्य से
दूर होते चले
जाएंगे। सत्य
के बारे में
सोचना भटकना
है। सत्य के
बारे में
सोचना ऐसे ही
है जैसे आकाश
में बादल इधर —उधर
भटकते रहते
हैं, जैसे
ही हम सोचते
हैं, हम
अपने से दूर
चले जाते हैं।
सत्य
को देखा जा
सकता है, उसका विचार
नहीं किया जा
सकता। पतंजलि
का पूरा
प्रयास यही है
कि सत्य को
देखने की
स्पष्ट
दृष्टि कैसे
निर्मित की
जाए।
निस्संदेह यह
बहुत ही कठिन
कार्य है, सत्य
को देखना कोई
कविता करना या
मीठे स्वप्न देखना
नहीं है। सत्य
का
साक्षात्कार
करने के लिए
हमें स्वयं को
एक
प्रयोगशाला
बनाना पड़ता है,
अपने पूरे
जीवन को एक
प्रयोग में
रूपांतरित करना
पड़ता है—केवल
तभी सत्य को
जाना जा सकता
है, केवल
तभी सत्य को
पाया जा सकता
है। तो पतंजलि
के सूत्रों को
सुनते समय यह
मत भूल जाना
कि वे किन्हीं
सिद्धांतो की
बात नहीं कर
रहे हैं : वे
हमें सत्य को
जानने की विधि
दे रहे हैं, जो विधि
हमें
रूपांतरित कर
सकती है, हमें
बदल सकती है।
लेकिन फिर भी
सब हम पर ही
निर्भर है।
धर्म
में रुचि रखने
वाले लोग चार
प्रकार के होते
हैं। उनमें
पहले प्रकार
के लोगों की
संख्या सर्वाधिक
है, उन्हें
केवल धर्म के
नाम पर कुतूहल
होता है। वे
धर्म के नाम
पर मनोरंजन
चाहते हैं, किसी
दिलचस्प, मनमोहक,
और लुभावनी
चीज की खोज
में होते हैं।
पतंजलि ऐसे
लोगों के लिए
नहीं हैं।
क्योंकि जो
लोग कुतूहलवश
धर्म की तलाश
में आते हैं, वे लोग कभी
भी इतने गहन
रूप से धर्म में
रुचि नहीं
रखते हैं कि
वे अपने जीवन
को बदलने के
लिए तैयार हो
सकें। वह धर्म
के नाम पर भी
किसी सनसनी की
तलाश में होते
हैं। पतंजलि
उनके लिए नहीं
हैं।
फिर
हैं दूसरे
प्रकार के लोग, जिन्हें
हम
विद्यार्थी
कह सकते हैं।
वे बौद्धिक
रूप से धर्म
से जुड़े होते
हैं वैसे लोग
जानना तो
चाहेंगे कि
पतंजलि क्या
कह रहे हैं, क्या बता
रहे हैं—लेकिन
फिर भी उनकी
उत्सुकता
जानकारी
एकत्रित करने
में ही होती
है। उनकी रुचि
जानने में
नहीं, बल्कि
जानकारी में
होती है। उनका
रस ज्यादा से
ज्यादा
जानकारियां
एकत्रित करने
में होता है।
वह स्वयं को
बदलने के लिए
तैयार नहीं
होते, वह
जैसे हैं वैसे
ही वह बने
रहना चाहते
हैं और उनकी
रुचि ज्यादा
से ज्यादा
ज्ञान और
जानकारियां
एकत्रित कर
लेने में ही
होती है। ऐसे
लोग अहंकार के
रास्ते पर ही
चलते रहते हैं।
पतंजलि इस तरह
के लोगों के
लिए भी नहीं
हैं।
फिर
उसके बाद
तीसरे प्रकार
के लोग हैं, जो शिष्य
हैं। शिष्य वह
होता है जो
अपने जीवन में
शिष्यत्व ग्रहण
कर लेने को
तैयार होता है,
जो अपने
संपूर्ण
अस्तित्व को
एक प्रयोग में
परिवर्तित
करने के लिए
तैयार होता है,
जो इतना
साहसी होता है
कि आंतरिक
यात्रा पर
जाने के लिए
तैयार है—जो
कि सर्वाधिक
कठिन और
साहसपूर्ण
यात्रा है, क्योंकि उस
समय व्यक्ति
को यह मालूम
नहीं होता कि
वह कहां जा
रहा है।
व्यक्ति
अज्ञात में
कदम बढ़ा रहा
होता है।
व्यक्ति अपनी
ही अतल गहराई
में जा रहा
होता है। बिना
किसी नक्शे
के वह अज्ञात
में गतिमान हो
रहा होता है। योग
शिष्य के लिए
है, लेकिन
शिष्य पतंजलि
के साथ ताल —मेल
बैठा सकता है।
फिर
हैं चौथी
अवस्था के लोग
या चौथी
प्रकार के लोग, मैं उस
तरह के लोगों
को भक्त
कहूंगा।
शिष्य अपने को
रूपांतरित
करने के लिए
राजी होता है,
लेकिन फिर
भी वह पूरी
तरह से स्वयं
को छोड़ने को, स्वयं का
विसर्जन करने
के लिए तैयार
नहीं होता।
भक्त स्वयं के
विसर्जन के
लिए राजी होता
है।
शिष्य
लंबे समय तक
पतंजलि के साथ
चलेगा, लेकिन आखिरी
समय तक नहीं।
आखिरी समय तक
तो तभी चल
सकेगा जब वह
भक्त हो जाए।
जब तक वह यह
ठीक से न जान
ले कि जिस
रूपांतरण की बात
धर्म करता है
उसका
रूपांतरित
होने से, परिवर्तित
होने से कोई
संबंध नहीं है।
धर्म केवल
व्यक्ति को
रूपांतरित ही
नहीं करता है,
व्यक्ति को
अच्छा ही नहीं
बनाता है; धर्म
मृत्यु है और
उसमें अपने को
पूरी तरह से मिटा
देना होता है।
और यह जो
मृत्यु है, यह है अपने
अतीत से अलग हो
जाने की, अपने
अतीत को पूरी
तरह से
विस्मृत कर
देने की।
जब
शिष्य तैयार
होता है—केवल
अपने को
रूपांतरित
करने के लिए
ही नहीं, बल्कि
मृत्यु के लिए
तैयार होता है—तो
वह भक्त बन
जाता है। तो
भी शिष्य लंबे
समय तक, दूर
तक पतंजलि के
साथ चल सकता
है। और अगर वह
ऐसे चलता चला
जाता है तो एक
न एक दिन वह
भक्त हो जाता
है। और जब शिष्य
अपने को पूरी
तरह से मिटा
देता है, केवल
तभी वह समग्र
रूप से पतंजलि
को उनके सौंदर्य
को, उनकी
भव्यता को,
उस अदभुत
द्वार को जिसे
पतंजलि
अज्ञात के लिए
खोल देते हैं,
समझ सकता है।
लेकिन
बहुत से लोग
ऐसे हैं, जो केवल
कुतूहल से भरे
हुए हैं, और
उन्होंने
बहुत सी
पुस्तकें
पतंजलि के ऊपर
लिखी हैं बहुत
से लोग जो
केवल
विद्यार्थी
ही हैं, उन्होंने
अपनी विद्वता
और पांडित्य
प्रकट करने के
लिए बड़े—बड़े
ग्रंथों की
रचना की है और
ऐसे लोगों ने
ही मनुष्य—जाति
को अत्यधिक
नुकसान
पहुंचाया है।
इन पांच हजार
वर्षों में ये
लोग पतंजलि की
व्याख्या पर
व्याख्याएं
करते चले
जा रहे
हैं। केवल
इतना ही नहीं, बल्कि
व्याख्याओं
की भी
व्याख्याएं
होती चली जा
रही हैं। इन
व्याख्याओं
के जाल में
पतंजलि तो न
जाने कहां खो
गए हैं, उनको
खोज पाना बहुत
कठिन है।
भारत
में यह संकट
हर उस
बुद्धपुरुष
के साथ रहा है
जिसने भी सत्य
को मानव—चेतना
के प्रति
उदघाटित किया
है। लोग ऐसे
बुद्धपुरुषों
की निरंतर
व्याख्या करते
रहे हैं, और ये लोग
किसी
स्पष्टता की
अपेक्षा भ्रम
ही अधिक
फैलाते हैं, क्योंकि
पहली तो बात
यह है कि वे
शिष्य ही नहीं
होते। और अगर
उनमें से कुछ
लोग शिष्य हो
भी गए हों, तो
उन्होंने उस
गहराई को नहीं
छुआ होता कि
वे उसकी ठीक
से व्याख्या
कर सकें। केवल
भक्त ही लेकिन
साधारणतया
भक्त तो इसकी
फिकर ही नहीं
लेता है।
इसीलिए
मैंने पतंजलि
को बोलने के
लिए चुना है।
इस व्यक्ति पर
बहुत अधिक
ध्यान दिया
जाना चाहिए, क्योंकि
ऐसे बहुत ही
दुर्लभ और
विरले व्यक्ति
हैं जो पतंजलि
की ऊंचाई को
छू सकें उनकी
वैज्ञानिक
दृष्टि तक
पहुंच सकें।
पतंजलि ने
धर्म को करीब —करीब
विज्ञान ही
बना दिया है।
वे धर्म को
व्यर्थ के
रहस्य—जालों
से बाहर लेकर
आए हैं, लेकिन
टीकाकार और
व्याख्याकार
इसी कोशिश में
हैं कि पतंजलि
के सभी
सूत्रों को
जोर—जबर्दस्ती
से फिर से
रहस्यवाद के
संसार में धकेल
दिया जाए। यही
उनके न्यस्त
स्वार्थ हैं।
अगर पतंजलि
लौटकर आकर उन
व्याख्याओं
को देखें जो
उनके सूत्रों
पर की गयी हैं,
तो उन्हें
भरोसा ही नहीं
आएगा।
और
शब्द बड़े
खतरनाक होते
हैं। शब्दों
के साथ बड़े ही
आसानी से
खिलवाड़ किया जा
सकता है। शब्द
वेश्याओं की
भांति होते
हैं, शब्दों
का उपयोग तो
किया जा सकता
है, लेकिन
उन पर भरोसा
बिलकुल नहीं
किया जा सकता।
प्रत्येक नए
व्याख्याकार,
टीकाकार के
साथ उनका अर्थ
बदलता चला
जाता है—छोटा
सा परिवर्तन,
एक
अल्पविराम का
यहां से वहा
बदलना—और
संस्कृत बहुत
ही
काव्यपूर्ण
भाषा है —संस्कृत
में प्रत्येक
शब्द के कई—कई
अर्थ होते हैं
—तो उसमें
किसी बात को
रहस्यपूर्ण
बना देना बहुत
आसान है।
मैंने
सुना है, एक बार दो
मित्र एक होटल
में ठहरे। वे
पहाड़ों की
यात्रा पर थे
और वे सुबह—सुबह
उठकर बाहर
जाना चाहते थे
—वे सुबह तीन
बजे ही निकल
जाना चाहते थे
—पास की चोटी
पर जाकर
उन्हें
सूर्योदय
देखना था। तो
रात को
उन्होंने
अलार्म लगा
दिया। जब
अलार्म बजा तो
उनमें जो बड़ा
आशावादी था, वह बोला, 'गुड
मार्निंग, गॉड।’
दूसरा जो
निराशावादी
था, वह
बोला, 'गुड
गॉड, मार्निंग?'
शब्द
दोनों के वही
हैं, लेकिन
फिर भी भेद
बहुत बड़ा है।
मैंने
एक सूफी कथा
सुनी है। एक
सदगुरु के दो
शिष्य मठ के
बगीचे में
बैठे ध्यान कर
रहे थे। उनमें
से एक बोला, ' अच्छा
होता, अगर
हमें धूम्रपान
करने की इजाजत
होती।’
दूसरा
बोला, 'ऐसा
संभव नहीं है,
गुरुजी ऐसी
आशा कभी नहीं
देंगे।’
फिर वे
दोनों आपस में
कहने लगे, 'कोशिश कर
लेने में क्या
हर्ज है? गुरु
से पूछने में
क्या हर्ज है?
हमें एक बार
उनसे पूछ तो
लेना चाहिए।’
दूसरे
ही दिन
उन्होंने
अपने गुरु से
पूछा। पहले
शिष्य से गुरु
ने कहा, 'नहीं, बिलकुल
धूम्रपान
नहीं करना है।’
दूसरे से
उन्होंने कहा,
'हा, बिलकुल
धूम्रपान कर
सकते हो।’
बाद
में जब वे
दोनों मिले, और
उन्होंने
बताया कि गुरु
ने उनसे क्या
कहा है, तो
उन्हें यह
भरोसा ही नहीं
आया कि आखिर
यह गुरु है
कैसा? तो
उनमें से एक
ने पूछा, ' अच्छा
यह बताओ कि
तुमने गुरु से
पूछा कैसे?'
जिससे
गुरु ने कहा
था—नहीं, बिलकुल
धूम्रपान
नहीं करना है—उसने
बताया, मैंने
उनसे पूछा, 'क्या मैं
ध्यान करते
समय धूम्रपान
कर सकता हूं?' तो वे बोले, 'नहीं, बिलकुल
नहीं!'
फिर
उसने दूसरे
साथी से पूछा, 'तुमने
कैसे पूछा था?'
वह
बोला, ' अच्छा,
अब मेरी समझ
में सब आ गया।
मैंने पूछा था,
'क्या मैं
धूम्रपान
करते समय
ध्यान कर सकता
हू?' तो
उन्होंने कहा,
'ही, बिलकुल
कर सकते हो।’
पूछने
के ढंग से ही
फर्क पड़ा है.।
शब्द
वेश्याओं की
भांति होते
हैं; और
हम शब्दों के
साथ कैसे भी
खिलवाड़ कर
सकते हैं।
मैं
कोई
व्याख्याकार
नहीं हूं। जो
कुछ भी मैं कह
रहा हूं उसे
मैं अपनी
प्रामाणिकता
से कह रहा हूं —पतंजलि
के आधार पर
नहीं कह रहा
हूं। क्योंकि
मेरे अनुभव और
उनके अनुभव
परस्पर मेल
खाते हैं, इसीलिए
मैं उन पर बोल
रहा हूं।
लेकिन मैं
पतंजलि को
प्रमाणित
करने का
प्रयास नहीं कर
रहा हूं। मैं
कैसे
प्रमाणित कर
सकता हूं? मैं
यह प्रमाणित
करने का
प्रयास भी
नहीं कर रहा
कि पतंजलि
सत्य हैं। यह
मैं कैसे
प्रमाणित कर
सकता हूं? मैं
तो केवल अपने
बारे में ही
कुछ कह सकता
हूं। तो मैं
क्या कह रहा
हूं? मैं
यह कह रहा हूं
कि मैंने भी
वही अनुभव
किया है, लेकिन
पतंजलि ने उसी
बात को सुंदर
भाषा में, सुंदर
ढंग से
अभिव्यक्ति
दे दी है। और जहां
तक वैज्ञानिक
व्याख्या या
वैज्ञानिक
अभिव्यक्ति
का प्रश्न है,
तो पतंजलि
में कुछ जोड़ना
या उनकी बात
को और परिष्कृत
करना कठिन है।
इसे स्मरण
रखना।
अगर वे
वापस लौटकर
आएं, तो
उनकी हालत ऐसी
होगी.. मैं एक
कथा पढ़ रहा था
और उसे पढ़ते
समय मुझे
पतंजलि का
स्मरण हो आया।
एक बार
ऐसा हुआ कि
तीन चोरों ने
गधे पर सवार
एक आदमी को
नगर में
प्रवेश करते
हुए देखा। गधे
के पीछे —पीछे
एक बकरी भी चल
रही थी। उस
बकरी की गर्दन
में बंधी हुई
घंटी बज रही
थी। उनमें से
एक चोर ने
गर्व के साथ
कहा, 'मैं
तो उसकी बकरी
चुरा लूंगा।’
दूसरा
चोर बोला, 'इसमें
कोई बड़ी बात
नहीं है। मैं
तो उस गधे की
ही चोरी कर
लूंगा जिस पर
वह सवार है।’
इस पर
तीसरा चोर
कहने लगा, 'जो कपड़े
वह पहने हुए
है, मैं तो
उन्हें ही
चुरा लूंगा।’
पहला
चोर उस आदमी
के पीछे —पीछे
चलने लगा और
जैसे ही सड़क
का मोड़ आया, वह गधे की
पूंछ में घंटी
बांधकर बकरी
को चुराकर ले
गया। चूंकि
घंटी बज रही
थी तो उस
ग्रामीण ने
सोचा कि बकरी
पीछे —पीछे आ
रही है।
वह जो
दूसरा चोर था, जो दूसरे
मोड़ पर खड़ा
उसकी
प्रतीक्षा कर
रहा था, वह
उस आदमी के
सामने आकर खड़ा
हो गया और
बोला, 'वाह!
क्या नया
रिवाज आया है?
गधे की पूंछ
में घंटी बंधी
हुई है?'
उस
आदमी ने पीछे
मुड़कर देखा और
आश्चर्य के
साथ बोला, 'मेरी
बकरी कहां
गायब हो गई!'
उस चोर
ने कहा, ' अभी— अभी मैंने
सड़क पर एक
आदमी को बकरी
के साथ जाते
हुए देखा था।’
'तो
क्या आप मेरे
गधे का खयाल
रखेंगे,' ऐसा
कहकर वह
ग्रामीण आदमी
अपनी बकरी
लेने के लिए
भागा।’
तब तक
वह दूसरा चोर
भी गधे पर
बैठकर भाग
निकला।
उस
बेचारे ने बड़ी
देर तक बकरी
चुराने वाले
चोर की तलाश
की, लेकिन
उसकी कोशिश
बेकार गयी।
उसे बकरी कहीं
दिखायी न पड़ी।
जब उसे बकरी न
मिल सकी, तो
वह .अपना गधा
लेने के लिए
वापस आया।
वहां आकर वह
देखता है कि
उसका गधा भी
गायब है। अंत
में जब वह
दुखी और
परेशान होकर
जा रहा था कि
थोड़ी देर बाद
ही अचानक उसे
राह के किनारे
एक कुएं के
पास बैठा हुआ
एक आदमी रोता
हुआ दिखाई पड़ा।
उसने
उस आदमी से
पूछा, 'तुम्हारे
साथ क्या हुआ
है? मेरी
बकरी और मेरा
गधा तो कोई
चुराकर ले गया
है, लेकिन
तुम क्यों इस
तरह से रो
चिल्ला रहे हो?
यह
पूछने पर वह
तीसरा चोर
बोला, 'मेरे
पास एक छोटी
सी तिजोरी थी
जो कुएं में
गिर गयी है।
मुझे कुएं के
अंदर उतरने
में बहुत भय
लग रहा है।
अगर तुम वह
तिजोरी
निकालकर ला दो,
तो हम दोनों
उस धन को आधा —
आधा बांट
लेंगे।’
अपने
नुकसान की
क्षतिपूर्ति
करने के खयाल
से उस ग्रामीण
ने जल्दी से
कपड़े उतारे और
वह कुएं में
उतर गया। जब
वह कुएं से
बाहर आया, तो उसके
हाथ खाली थे।
बाहर आकर उसने
देखा कि उसके
कपड़े भी गायब
हैं। फिर उसने
एक बड़ी सी
लकड़ी उठाई और
उसे तेजी से इधर
—उधर घुमाने
लगा। बहुत से
लोग उसे देखने
के लिए इकट्ठे
हो गए थे।
'मेरे
पास जो कुछ भी
था वह सब उन
चोरों ने चुरा
लिया है। अब
मुझे डर है कि
कहीं वे मुझे
भी न चुरा लें।’
अगर
पतंजलि वापस
लौटकर आएं तो
ऐसी ही स्थिति
में अपने को
पाएंगे
पतंजलि पर हुई
व्याख्याओं ने
पतंजलि को तो
बहुत पीछे छोड़
दिया है'। उन्होंने
सब कुछ चुरा
लिया है, उन्होंने
पतंजलि के तन
के कपड़े भी
नहीं छोड़े हैं।
और ऐसा
उन्होंने
इतनी कुशलता
से किया है कि
किसी को कभी
कोई संदेह भी
न उठेगा।
वस्तुत: तो, पांच हजार
वर्ष के बाद
जो लोग पतंजलि
के ऊपर की गई
व्याख्याओं
और टीकाओं को
पढ़ते रहे हैं,
उन्हें जो
कुछ मैं कह
रहा हूं यह सब
बड़ा अजीब लगेगा।
मेरी बातें
उन्हें बहुत
अजीब लगेगी।
वे इसी भाषा
में सोचेंगे कि
मैंने उन
टीकाकारों और
व्याख्याकारों
की बातों को
नए अर्थ दे
दिए हैं। मैं
कोई नए अर्थ
नहीं दे रहा हूं, लेकिन
पतंजलि को
इतने लंबे समय
से गलत ढंग से व्याख्यायित
किया जाता रहा
है कि अगर मैं
पतंजलि के
अभिप्राय को
ठीक—ठीक
बताऊंगा, तो
मेरे कथन बहुत
ही अजीब और अनोखे
लगेंगे, लगभग
अविश्वसनीय
ही लगेंगे।
अंतिम
सूत्र 'सूर्य' के
विषय में था।
सौर —मंडल के
अंतर्गत
सूर्य के विषय
में सोचना स्वाभाविक
लगता है; इसी
तरह से तमाम
व्याख्याकारों
ने उसकी व्याख्या
की है। लेकिन
ऐसा नहीं है।
सूर्य का
संबंध
व्यक्ति के
काम —तंत्र से
है —जो
व्यक्ति के
भीतर जीवन—शक्ति
का, ऊर्जा
का व ऊष्मा का
स्रोत है।
अंग्रेजी
में एक विशेष
स्नायु —तंत्र
को सोलर
प्लेक्सेज
कहते हैं —लेकिन
लोग सोचते हैं
कि सोलर
प्लेक्सेज
नाभि के नीचे
होता है। यह
बात गलत है।
सूर्य —ऊर्जा
काम—केंद्र
में अस्तित्व
रखती है, नाभि में
नहीं।
क्योंकि वहीं
से तो सारे
शरीर को ताप व
ऊष्मा मिलती
है। लेकिन यह
व्याख्या
बहुत ही
अस्वाभाविक
और अकल्पनीय
लगेगी, इसलिए
मैं उसकी और
अधिक
व्याख्या
करना चाहूंगा।
और फिर दूसरे
कई हैं—चंद्रमा
है, तारे
हैं, ध्रुव
तारा है।
पतंजलि जिस
भाषा का उपयोग
कर रहे हैं, उससे तो ऐसो
लगता है जैसे
कि पतंजलि सौर
—व्यवस्था के
विषय में
ज्योतिष की
भाषा में या खगोल
—विज्ञान की
भाषा में बात
कर रहे हों।
लेकिन पतंजलि
व्यक्ति के आंतरिक
ब्रह्मांड के
विषय में बात
कर रहे हैं।
जैसे बाहर
ब्रह्मांड है,
ठीक ऐसे ही
मनुष्य के
भीतर भी एक ब्रह्मांड
है। जो कुछ भी
बाहर है, वैसा
ही मनुष्य के
भीतर भी है।
मनुष्य लगभग
एक लघु
ब्रह्मांड ही
है।
मनुष्य
को दो हिस्सों
में बांटा जा
सकता है : सूर्य
प्रकृति और
चंद्र
प्रकृति।
सूर्य
प्रकृति के
लोग आक्रामक
होते हैं, हिंसात्मक
होते हैं, बहिर्गामी
होते हैं, बहिर्मुखी
होते हैं।
चंद्र
प्रकृति के
लोग
अंतर्मुखी
होते हैं, अंतर्गामी
होते हैं, आक्रामक
नहीं होते, निष्क्रिय
होते हैं, ग्रहणशील
होते हैं। या
उन्हें यांग
और. यिन भी कह
सकते हैं, या
फिर उन्हें
पुरुष और
स्त्री भी कह
सकते हैं।
पुरुष
बहिर्मुखी
होता है, स्त्री
अंतर्मुखी
होती है।
पुरुष विधायक,
पॉजिटिव
होता है, स्त्री
निष्क्रिय, निगेटिव
होती है। उनकी
क्रियाशीलता
में भेद होता
है, क्योंकि
वे भिन्न —भिन्न
केंद्रों से
कार्य करते
हैं। पुरुष
कार्य करता है
सूर्य —केंद्र
से; स्त्री
कार्य करती है
चंद्र—केंद्र
से।
इसलिए
सच में अगर
देखा जाए तो
जब पुरुष पागल
होता है, तो उसे
लूनाटिक नहीं
कहना चाहिए।
केवल जब कोई
स्त्री पागल
हो जाए, तो
उसे लूनाटिक
कहना चाहिए।
पागल के लिए
जो यह
अंग्रेजी
शब्द लूनाटिक
है, यह
लूनार से आया
है —मून—स्ट्रक
यानी जो चांद
से विक्षिप्त
हुआ हो। जब
कोई पुरुष पागल
होता है तो वह
सन—स्ट्रक
होता है, वह
मून—स्ट्रक
नहीं होता। और
जब कोई पुरुष
पागल होता है,
तो वह
आक्रामक हो
जाता है, हिंसा
से भर जाता है।
जब कोई स्त्री
'पागल होती
है, तो वह
बस सनकी हो
जाती है, अपनी
समझ खो बैठती
है।
जब मैं 'पुरुष' और 'स्त्री'
इन शब्दों
का प्रयोग
करता हूं; तो
मेरा अर्थ सभी
पुरुष और सभी
स्त्रियों से
नहीं है, क्योंकि
ऐसे पुरुष हैं
जिनमें
पुरुषत्व से अधिक
स्त्रीत्व
होता है, और
ऐसी
स्त्रियां है
जिनमें
स्त्रीत्व से
अधिक
पुरुषत्व
होता है।
इसलिए उलझन
में मत पड़
जाना। कोई
पुरुष होकर भी
चंद्र
केंद्रित हो
सकता है और
कोई स्त्री
होकर भी सूर्य
—केंद्रित हो
सकती है। उनकी
ऊर्जाएं कहां
से अपनी शक्ति
पा रही हैं, कौन से
स्रोत से
ऊर्जा पा रही
हैं इस पर सब
निर्भर करता
है।
चंद्रमा
का अपना कोई
ऊर्जा —स्रोत
नहीं होता, वह तो
केवल सूर्य को
ही
प्रतिबिंबित
करता है। चंद्रमा
केवल सूर्य का
प्रतिबिंब है,
इसीलिए वह
इतना शीतल
होता है। वह
सूर्य की
ऊर्जा को, ऊष्णता
से शीतलता में
परिवर्तित कर
देता है।
स्त्री भी काम
—केंद्र से ही
ऊर्जा
प्राप्त करती
है, वह
चंद्र—केंद्र
से होकर
गुजरती है।
चंद्र—केंद्र
हारा का
केंद्र है। वह
नाभि के ठीक
नीचे होता 'है, नाभि
के दो इंच
नीचे एक
केंद्र होता
है, जापानी
लोग उसे हारा
कहकर पुकारते
हैं। जापानी
लोगों का यह
शब्द हारा
एकदम ठीक है।
इसीलिए वे
आत्महत्या को
हारा—किरी
कहते हैं; क्योंकि
चंद्र—केंद्र
मृत्यु का
केंद्र होता
है—जैसे सूर्य
का केंद्र
जीवन का केंद्र
होता है। पूरा
का पूरा जीवन
सूर्य से आता
है, और ठीक
वैसे ही
मृत्यु चंद्र—केंद्र
से आती है।
गुर्जिएफ
कहा करता था
कि मनुष्य
चांद का भोजन है।
असल में वह
पतंजलि की तरह
ही कह रहा था—और
गुर्जिएफ उन
थोड़े से लोगों
में से है जो
पतंजलि के
एकदम निकट हैं, लेकिन पश्चिम
के लोग समझ ही
न सके कि
गुर्जिएफ
कहना क्या
चाहता है।
गुर्जिएफ कहा
करता था कि हर
चीज किसी न
किसी के लिए
भोजन का काम
करती है।
अस्तित्व की
इकोलॉजी में
हर चीज किसी
दूसरे के लिए
भोजन बन जाती
है। हम कुछ
खाते हैं, तो
हम किसी दूसरे
के द्वारा खाए
जाएंगे, वरना
अस्तित्व का
जो सातत्य और
वर्तुल है, वह टूट
जाएगा।
मनुष्य फल
खाता है, फल
सूर्य ऊर्जा
को, पृथ्वी
तत्व को, पानी
को ग्रहण करता
है। तो मनुष्य
की भी बारी
आएगी किसी न
किसी के द्वारा
खाए जाने की।
मनुष्य को कौन
खाता है? गुर्जिएफ
कहा करता था
कि चंद्रमा
मनुष्य को खाता
है। गुर्जिएफ
बड़ा मौजी
किस्म का आदमी
था। उसकी भाषा
वैज्ञानिक
नहीं है, उसकी
अभिव्यक्ति
वैज्ञानिक
नहीं है।
लेकिन अगर कोई
उनमें गहरे
उतरे, तो
वह उनमें हीरे
खोज सकता है।
अब
पहला सूत्र:
चंद्रे
ताराब्यूहज्ञानम्।
'चंद्र
पर संयम
संपन्न करने
से तारों —नक्षत्रों
की समग्र
व्यवस्था का
ज्ञान
प्राप्त होता
है।’
तो
चंद्र—केंद्र
हारा है, जो नाभि के
ठीक दो इंच
नीचे स्थित है।
अगर हारा पर
जोर से चोट की
जाए, तो
आदमी की
मृत्यु हो
जाती है। बाहर
से देखने पर
खून की एक
बूंद भी न
टपकेमी और
आदमी मर जाएगा।
और उसे किसी
भी तरह की कोई
पीड़ा, तकलीफ
भी नहीं होगी।
इसीलिए
जापानी लोग
हारा —किरी के
द्वारा
आत्महत्या कर
लेते हैं, और
कोई वैसे त,हीं कर सकता
है। वे चाकू
को हारा
केंद्र में ही
घोप लेते हैं —लेकिन
वे जानते हैं
कि हारा
केंद्र कहां
है, और ठीक
किस जगह पर
चाकू मारना है—और
वे मर जाते
हैं। शरीर का
तादात्म्य
आत्मा से टूट
जाता है।
चंद्र—केंद्र
मृत्यु का
केंद्र होता
है। इसीलिए
पुरुष
स्त्रियों से
भयभीत रहते
हैं। बहुत से
पुरुष मेरे
पास आते हैं, और वे
कहते हैं कि
उन्हें
स्त्रियों से
भय लगता है।
उन्हें
स्त्री से कौन
सा भय है? भय
यही है कि
स्त्री हारा
है, चंद्र
है —और वह
पुरुष को
समाप्त कर
देती है।
इसीलिए पुरुष
हमेशा से
स्त्री को
दबाने की, उसे
अपने
नियंत्रण में
रखने की कोशिश
करते आए हैं, वरना स्त्री
पुरुष को
समाप्त कर
देती है, उसे
तहस—नहस कर
देती है, उसे
मिटा देती है।
स्त्री पर
हमेशा यही
दबाव डाला
जाता है कि वह
किसी पुरुष के
बंधन में रहे।
इसे
समझने की
कोशिश करें।
पूरी दुनिया
में आखिर
क्यों पुरुष
हमेशा से स्त्रियों
को जोर—जबर्दस्ती
के द्वारा
गुलाम बनाता आ
रहा है? क्यों? जरूर
कहीं कोई भय
होगा, स्त्रियों
के लिए पुरुष
के मन में
कहीं कोई गहरा
भय होगा। कि
अगर
स्त्रियों को
स्वतंत्रता
दे दी जाए तो
पुरुष का जीना
संभव नहीं। और
इसमें सचाई भी
है। पुरुष को
काम —क्रिया
में एक समय
में केवल एक्
ऑर्गाज्म का अनुभव
होता है, स्त्री
को एक काम—क्रिया
में कई बार
ऑर्गाज्म के
अनुभव हो सकते
हैं। पुरुष एक
समय में केवल
एक ही स्त्री
के साथ काम —क्रीड़ा
में उतर सकता
है, स्त्री
जितने चाहे
उतने पुरुषों
के साथ प्रेम
कर सकती है।
अगर स्त्री को
पूर्ण
स्वतंत्रता
दे दी जाए, तो
कोई एक पुरुष किसी
भी एक स्त्री
को पूरी तरह
से संतुष्ट न
कर पाएगा—कोई
भी पुरुष। अब
तो मनस्विद भी
इस पर सहमत
हैं। अभी वर्तमान
की मास्टर्स
एंड जानसन की
ताजा खोजें और
किन्से की
रिपोर्ट एकदम
सुनिश्चित
तौर पर इस बात
पर सहमत हैं
कि कोई भी
पुरुष किसी
स्त्री की
कामवासना को
संतुष्ट कर
सकने के लिए
पर्याप्त
नहीं है। अगर
स्त्रियों को
पूरी
स्वतंत्रता
दे दी जाए, तो
एक स्त्री को
पूर्ण संतुष्ट
करने के लिए
पुरुषों के एक
समूह की आवश्यकता
होगी। एक
पुरुष और एक
स्त्री साथ —साथ
नहीं रह सकते —
अगर उन्हें
पूर्ण
स्वतंत्रता
दे दी जाए तो।
तब स्त्री यह
मांग करेगी कि
वह अभी भी
संतुष्ट नहीं
हुई है, और
यही बात पुरुष
के लिए मृत्यु
के समान हो जाएगी।
काम—ऊर्जा
हमें जीवन
प्रदान करती
है। जितना
अधिक हम काम —ऊर्जा
का उपयोग करते
हैं, मृत्यु
उतने ही अधिक
हमारे निकट
आती जाती है।
इसी कारण योगी
काम—ऊर्जा को
निष्कासित
करने से इतने
भयभीत रहते हैं,
और इसीलिए
वे काम —ऊर्जा
को संचित करने
लगते हैं।
क्योंकि वे
अपनी उम्र को लंबाना
चाहते हैं, ताकि वे जिस
साधना में लगे
हुए हैं, स्वयं
पर वे जो
कार्य कर रहे
हैं, वह
उनका कार्य
पूरा हो जाए।
अपना कार्य
पूरा होने से
पहले कहीं
उनकी मृत्यु न
हो जाए, वरना
अगले जन्म में
उसी कार्य को
उन्हें फिर से
प्रारंभ करना
पड़ेगा।
काम—ऊर्जा
हमको जीवन प्रदान
करती है। जिस
क्षण काम —ऊर्जा
देह छोड़ने
लगती है, व्यक्ति
मृत्यु की ओर
सरकने लगता है।
ऐसे बहुत से
छोटे —छोटे
कीट —पतंगे
हैं जो एक ही
काम —क्रीड़ा
में मर जाते
हैं। कुछ ऐसे
मकोड़े होते
हैं जो एक ही
संभोग में मर जाते
हैं। वे जीवन
में एक ही
संभोग करते
हैं। और इतना
ही नहीं, तुम
यह जानकर चकित
होओगे कि जब
वे संभोग कर
रहे होते हैं,
तो जो
स्त्री मकड़ी
होती है वह
उन्हें खाना
शुरू कर देती
है। वस्तुत:
वह उन्हें खा
जाती है।
क्योंकि मरे
हुए मकोड़े का
करोगे भी क्या?
सारे
कामवासना के
संबंधों में
मृत्यु का भय
निहित होता है, फिर
पुरुष धीरे —
धीरे स्त्री
से भयभीत होने
लगता है।
स्त्री को
कामगत प्रेम
से ऊर्जा
मिलती है, और
पुरुष की
ऊर्जा उसमें
खोती है।
क्योंकि
स्त्री का
हारा केंद्र
क्रियाशील होता
है। स्त्री
उष्ण —ऊर्जा
को शीतल —ऊर्जा
में
परिवर्तित कर
लेती है।
चूंकि स्त्री
ग्रहणशील
ग्राहक होती
है, स्त्री
एक निष्किय
द्वार और एक
गहन आमंत्रण है,
इसलिए
स्त्री ऊर्जा
को आत्मसात कर
लेती है, और
पुरुष ऊर्जा
को खो देता है।
यह जो
हारा —केंद्र
है या इसे
चंद्र —
केंद्र भी कह
सकते हैं पुरुष
में भी होता
है, लेकिन
पुरुष में वह
सक्रिय नहीं
होता। यह
केंद्र पुरुष
में तभी
सक्रिय हो
सकता है, अगर
वह इसे
रूपांतरित
करने के लिए, इसे सक्रिय
करने के लिए
वह प्रयास करे।
ताओ का
पूरा का पूरा
विज्ञान और
कुछ नहीं, बस यही है
कि चंद्र—केंद्र
को पूर्णतया
क्रियाशील
कैसे बनाना, पूर्णतया
सक्रिय कैसे
करना। इसीलिए
ताओ की पूरी
की पूरी
दृष्टि
ग्रहणशील, स्त्रैण
और निष्किय है।
योग का भी वही
मार्ग है, लेकिन
योग का आयाम
भिन्न है। योग
बाहर की सौर —ऊर्जा
को, बाहर
की सूर्य
ऊर्जा को, शरीर
के भीतर की
सूर्य —ऊर्जा
पर कार्य करना
चाहता है, और
सूर्य —ऊर्जा
से उसे चंद्र—केंद्र
तक ले आना चाहता
है। ताओ और
तंत्र, चंद्र
—केंद्र पर
कार्य करके
उसे अधिकाधिक
ग्रहणशील और
चुंबकीय
बनाते हैं, ताकि वह
सूर्य —ऊर्जा
को अपनी ओर
खींच ले। योग
है सूर्य —विधि,
ताओ और
तंत्र चंद्र—विधियां
हैं, लेकिन
उन दोनों का
कार्य एक ही
होता है।
योग के
सारे आसन
सूर्य —ऊर्जा
को चंद्र—केंद्र
की ओर
प्रवाहित
करने में
सहयोग करते हैं।
और ताओ और
तंत्र की सभी
विधियां
चंद्र—केंद्र
को इतना
चुंबकीय
बनाने के लिए
हैं, ताकि
वह सारी ऊर्जा
जो सूर्य—केंद्र
द्वारा
निर्मित होती
है उसे अपनी
और खींचकर उसे
रूपांतरित कर
दें।
इसीलिए
तो बुद्ध हों
या महावीर, पतंजलि
हों या
लाओत्सु, जब
वे अपनी
पूर्णता में
खिलते हैं, तो वे पुरुष
की अपेक्षा
कहीं अधिक
स्त्री जैसे
सुकोमल मालूम
होते हैं।
पुरुष की जो
कठोरता होती
है, वह
उनसे छूट जाती
है, वे
अधिक स्त्रैण,
सरल—सुकोमल
हो जाते हैं।
उनका शरीर
स्त्री जैसा
हो जाता है। उनमें
स्त्री जैसा
लालित्य और
प्रसाद आ जाता
है। उनकी आंखें,
उनका चेहरा,
उनका चलना,
उनका बैठना—सभी
कुछ स्त्रैण
हो जाता है।
वे फिर कठोर, आक्रामक, उग्र नहीं
रह जाते।’चंद्र
पर संयम
संपन्न करने
से तारों —नक्षत्रों
की समग्र
व्यवस्था का ज्ञान
प्राप्त होता
है।’
अगर
व्यक्ति संयम
को, अपने
साक्षी भाव को
हारा केंद्र
तक ले आए, तो
वह अपनी देह
के भीतर के
सभी
नक्षत्रों को
जान सकता है —
अपने भीतर के
सभी केंद्रों
को जान सकता
है। क्योंकि
जब व्यक्ति
सूर्य —केंद्र
पर केंद्रित
होता है तो वह
इतना उत्तेजित,
इतना
उत्तप्त होता
है कि उसे कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता, उसे
स्पष्टता
उपलब्ध हो ही
नहीं सकती।
स्पष्टता
उपलब्ध करने
के लिए पहले
चंद्र—केंद्र
तक आना होता
है। ऊर्जा —रूपांतरण
में चंद्र—केंद्र
एक विराट घटना
का कार्य करता
है।
थोड़ा
इसे समझने की
कोशिश करें।
आकाश
में भी
चंद्रमा को
ऊर्जा सूर्य
से ही मिलती
है, फिर
चंद्रमा
सूर्य की
रोशनी को ही
प्रतिबिंबित
करता है। उसकी
अपनी स्वयं की
तो कोई ऊर्जा,
कोई रोशनी
होती नहीं है,
वह तो केवल
सूर्य की
रोशनी को ही
प्रतिबिंब करता
है। लेकिन फिर
भी चंद्रमा
सूर्य की
रोशनी की गुणवत्ता
को पूरी तरह
से बदल देता
है। चंद्रमा
की तरफ देखने
से हमें एक
तरह की शांति
और शीतलता
अनुभव होती है,
सूर्य की
तरफ देखने से
उत्तेजना और
पागलपन छाने
लगता है।
चंद्रमा की
तरफ देखने से
ऐसा लगता है
कि जैसे चारों
ओर बहुत ही
शांति छा गयी
हो।
बुद्ध
पूर्णिमा की
रात को ही
संबोधि को
उपलब्ध हुए थे।
असल
में जो लोग भी
संबोधि को
उपलब्ध हुए
हैं, वे
सभी रात्रि के
समय ही संबोधि
को उपलब्ध हुए
हैं। एक भी
आदमी दिन के
समय संबोधि को
उपलब्ध नहीं हुआ।
महावीर
रात्रि के समय
संबोधि को
उपलब्ध हुए।
जिस रात
महावीर
संबोधि को
उपलब्ध हुए
अमावस की रात
थी, चारों
ओर पूरी तरह से
अंधकार था। और
बुद्ध
पूर्णिमा की
रात संबोधि को
उपलब्ध हुए।
लेकिन दोनों
ही रात के समय
संबोधि को
उपलब्ध हुए।
ऐसा तो कभी
हुआ ही नहीं
कि कोई भी दिन
के समय संबोधि
को उपलब्ध हुआ
हो। ऐसा होगा
भी नहीं, क्योंकि
संबोधि के लिए
ऊर्जा को
सूर्य से चंद्रमा
की ओर बढ़ना होता
है। क्योंकि
संबोधि की
अवस्था में
सभी प्रकार की
उत्तेजना शांत
हो जाती है, सारे तनाव
शिथिल हो जाते
हैं। संबोधि
परम
विश्रांति है —परम
विश्रांति की
अवस्था है।
जिसमें जरा भी
कहीं कोई हलन —चलन,
कंपन नहीं
रह जाता।
थोड़ा
इस प्रयोग को
करके देखना।
जब कभी
तुम्हारे पास
समय हो, तो बस अपनी आंखें
बंद कर लेना.
प्रारंभ में
अनुभव करने के
लिए नाभि के
दो इंच नीचे
की जगह अपनी
अंगुलियों से दबा
देना, और
उसके प्रति
सजग हो जाना, जागरूक हो
जाना।
तुम्हारी
श्वास वहीं तक
जाएगी। जब तुम
स्वाभाविक
रूप से श्वास
लेते हो, तो पेट ऊपर
होता है, फिर
नीचे होता है,
फिर पेट ऊपर
होता है, नीचे
होता है, इस
भाति ऊपर —नीचे
होता रहता है।
धीरे — धीरे
तुम अनुभव
करने लगोगे कि
तुम्हारी
श्वास ठीक
हारा को छू
रही है। श्वास
हारा को छुएगी
ही।
इसीलिए
तो जब श्वास
रुक जाती है
तो व्यक्ति मर
जाता है, क्योंकि तब
श्वास हारा को
नहीं छू रही
होती है।
श्वास का
संबंध हारा से
टूट चुका होता
है, जब
श्वास का
संबंध हारा से
टूट जाता है
तो व्यक्ति मर
जाता है।
मृत्यु हारा —केंद्र
से ही होती है।
जब
पुरुष युवा
होता है तो वह
सूर्य के समान
ऊर्जा से भरा
होता है, जब पुरुष
वृद्धावस्था
की ओर बढ़ने
लगता है तो वह
चंद्रमा के
समान शीतल और
ठंडा होने
लगता है। जब
स्त्री युवा
होती है तो वह
चंद्र के समान
शीतल और ठंडी
होती है, जब
वह वृद्ध होने
लगती है तो वह
सूर्य के समान
तेज हो जाती
है। इसीलिए तो
बहुत सी स्त्रियां
जब वे वृद्ध
होने लगती हैं
तो उनकी मूंछें
निकलने लगती
हैं, वे
सूर्यगत हो
जाती हैं।
वर्तुल घूम
जाता है, वर्तुल
पूरा हो जाता
है। बहुत से
पुरुष जब वे
वृद्धावस्था
की ओर बढ़ने लगते
हैं तो वे
झगड़ालू? चिड़चिड़े,
क्रोधी हो
जाते हैं, वे
क्रोध में ही
जीने लगते हैं
—हर समय, हर
बात के लिए वे
क्रोधित रहते
हैं। वे चंद्र
—केंद्र की ओर
बढ़ रहे होते
हैं।
उन्होंने
अपनी ऊर्जा को
रूपांतरित
नहीं किया है,
वे केवल एक
सांयोगिक
जीवन जीते हैं।
स्त्रियां
वृद्धावस्था
में अधिक
आक्रामक हो
जाती हैं, क्योंकि
उनका चंद्र—केंद्र
खाली हो जाता
है। उन्होंने
उस केंद्र का
उपयोग कर लिया
होता है, उनका
सूर्य —केंद्र
अभी भी ताजा
और नवीन होता
है, उसका
उपयोग अभी
किया जा सकता
है।
पुरुष
अपनी
वृद्धावस्था
में
स्त्रियों
जैसा व्यवहार
करने लगता है, और वह ऐसे
काम करने लगता
है जिनकी उनसे
कभी अपेक्षा
ही नहीं की जा
सकती थी।
उदाहरण के लिए
प्रत्येक बात
में स्त्री और
पुरुष में
भिन्नता होती
है। अगर पुरुष
क्रोधित होता
है, तो वह
सामने वाले को
चोट पहुंचाना
चाहता है; अगर
स्त्री
क्रोधित होती
है तो वह
बड़बड़ाने लगती
है और सामने
वाले को सताने
लगती है और
लेकिन फिर भी
वह किसी को
चोट नहीं
पहुंचाती है।
वह आक्रामक
नहीं होती है,
फिर भी वह
निष्किय ही
रहती है।
मैंने
सुना है कि एक
स्त्री अपने
भाषण में बंदूक
की गोली जैसे
दागती हुई
बोली, ' आज
तक,' वह जोर
से चिल्लायी,
गुस्से से
भरकर गरजते
हुए, खूब
ऊंची आवाज में
बोली, 'स्त्रियों
को हजारों ढंग
से प्रताड़ित
किया गया है
और कई —कई
ढंगों से
उन्हें सताया
गया है।’
फिर वह
यह देखने के
लिए थोड़ा रुकी
कि उसकी बात का
जनता पर क्या
प्रभाव पड़ा है।
आगे की पंक्ति
में बैठे हुए
एक विनम्र और
छोटे आदमी ने
अपना हाथ
उठाया और बोला, 'मुझे
मालूम है, एक
ढंग ऐसा भी है
जिसमें
स्त्रियों ने
कभी कोई पीड़ा,
कभी कोई कष्ट
नहीं उठाया है।’
भाषण
करने वाली
स्त्री ने
उसकी ओर घूरकर
देखा और कड़ककर
पूछा, 'वह
कौन सा ढंग है?'
उसने जवाब
दिया, 'स्त्रियां
कभी भी चुप
रहने वाली
पीड़ा को नहीं उठाती
हैं।’
निष्क्रिय
ऊर्जा झंझट
खड़ी करने वाली
होती है। क्या
तुमने कभी इस
पर ध्यान दिया
है? लड़कों
के बोलने से
पहले ही
लड़कियां
बोलना शुरू कर
देती हैं।
जहां तक बोलने
का संबंध है
लड़कियां
हमेशा बोलने
में आगे रहती
हैं —स्कूल हो,
कालेज हो, या
विश्वविद्यालय
हो —बोलने में लड़कियां
हमेशा लड़कों
से आगे रहती
हैं। लड़के
पीछे बोलना
शुरू करते हैं,
लड़कियां
उनसे छह या आठ
महीने पहले ही
बोलना शुरू कर
देती हैं। और
लड़की बोलने
में बहुत
जल्दी कुशल हो
जाती है, एकदम
कुशल हो जाती
है। हो सकता
है कि वह
व्यर्थ की
बकवास ही करती
हो, लेकिन
बोलती वह बड़ी
कुशलता से है।
लड़का बोलने
में हमेशा
पीछे रह जाता
है। वह लड़
सकता है, दौड़
सकता है, आक्रामक
हो सकता है, लेकिन बोलने
में वह
लड़कियों के
समान कुशल नहीं
होता है।
स्त्री
और पुरुष
दोनों की
ऊर्जाएं अलग—
अलग ढंग से
कार्य करती
हैं। जो चंद्र—ऊर्जा
होती है, अगर जीवन
ठीक से न चल
रहा हो तो वह
उदास हो जाती है।
सूर्य—ऊर्जा
जीवन के ठीक
से गतिमान न
होने पर क्रोधित
हो जाता है।
इसीलिए
स्त्रियां
बहुत जल्दी
उदास हो जाती
हैं, और
पुरुष बहुत
जल्दी क्रोध
से भर जाते
हैं। अगर
पुरुष को लगता
है कि कहीं
कुछ गलत हो
रहा है, तो
वह उसे ठीक
करने की कोशिश
करेगा, लेकिन
स्त्री
प्रतीक्षा
करती रहेगी।
अगर पुरुष
क्रोधित होता
है तो वह किसी
की हत्या कर
देना चाहेगा।
अगर स्त्री
क्रोधित होगी
तो वह
आत्महत्या करना
चाहेगी।
क्रोधित
पुरुष के मन
में पहली बात
यही आती है कि
जाकर किसी की
हत्या कर दे, और अगर
स्त्री
क्रोधित होगी
तो उसके मन
में पहली बात
आत्महत्या कर
लेने की, स्वयं
को ही खतम कर
देने की आएगी।
क्या तुमने
कभी पति—पत्नी
को झगड़ते हुए
देखा है? अगर
पति क्रोधित
होगा तो पत्नी
को मारने लगेगा,
और अगर
पत्नी
क्रोधित होगी
तो वह स्वयं
को ही मारने
लगेगी। उनकी
क्रियाशीलता
में भेद होता
है।
लेकिन
एक समग्र
मनुष्य दोनों
ही ऊर्जाओं का
जोड़ होता है —सूर्य
और चंद्र का
जोड़ होता है।
जब दोनों
ऊर्जाएं
बराबर —बराबर
अनुपात में और
संतुलित होती
हैं, तो
व्यक्ति शांत
हो जाता है।
जब भीतर के
स्त्री और
पुरुष
संतुलित हो
जाते हैं, तो
ऐसी शक्ति व
थिरता
प्राप्त हो
जाती है, जो
इस पृथ्वी की
नहीं होती है।
सूर्य चंद्र
में समाहित हो
जाता है, चंद्र
सूर्य में
समाहित हो
जाता है, और
व्यक्ति शांत
हो जाता है तब
व्यक्ति अपने
में
प्रतिष्ठित रहता
है, उसके
भीतर कहीं कोई
कंपन नहीं
होता, फिर
कोई विशेष
उद्देश्य
नहीं रह जाता,
और न ही
किसी तरह की
कोई आकांक्षा
शेष रह जाती है।
और जब
हारा की
क्रियाशीलता
को अनुभव करना
संभव हो और जब
सूर्य —ऊर्जा
हारा के
माध्यम से
रूपांतरित हो
जाती है, तब फिर
स्वयं के भीतर
बहुत सी चीजें
देखी जा सकती
हैं। स्वयं के
भीतर के पूरे
सौर—मंडल को
और भीतर के
छिपे हुए
तारों को देखा
जा सकता है।
यह तारे कैसे
होते हैं? हमारे
भीतर का केंद्र
तारे ही होते
हैं।
अंतस
आकाश का
प्रत्येक
केंद्र एक
तारे की तरह होता
है, और
प्रत्येक
केंद्र को
जानने के लिए
संयम को वहां
प्रतिष्ठित
करना जरूरी
होता है, क्योंकि
प्रत्येक
तारे के पीछे
कई रहस्य छिपे
होते हैं। तब
वे रहस्य
उदघटित हो
जाते हैं।
व्यक्ति एक
विराट पुस्तक
है —सब से बड़ी
पुस्तक है —और
जब तक व्यक्ति
स्वयं को ही
नहीं पढ़ लेता
है तब तक शेष
सभी पढ़ाई
व्यर्थ हैं।
जब
सुकरात जैसे
लोग कहते हैं
कि स्वयं को
जानो, तो
उनका यही अर्थ
होता है। उनका
अर्थ होता है
कि तुम्हें
तुम्हारे
अंतर —
अस्तित्व के
संपूर्ण जगत
को जान लेना
है, उसके
प्रत्येक अंश
को जान लेना
है। स्वयं के
प्रत्येक
कोने —कोने को
देख लेना है, उसे
प्रकाशित कर
लेना है, और
तब व्यक्ति
स्वयं को जान
सकेगा कि वह
क्या है —व्यक्ति
एक ब्रह्मांड
है, उतना
ही असीम और
विशाल जितना
कि बाहर
का ब्रह्मांड
है, उससे
भी ज्यादा विशाल
क्योंकि
व्यक्ति उसके
प्रति जागरूक
भी होतो है, क्योंकि
व्यक्ति केवल
जीवित ही नहीं
होता, बल्कि
यह, भी
जानता है कि
वह जीवित है, क्योंकि वह
जीवन के प्रति
साक्षी भी हो
सकता है।
ध्रुवे
तद्गतिज्ञानम्।
'ध्रुव—नक्षत्र
पर संयम
संपन्न करने
से तारों —नक्षत्रों
की गतिमयता का
ज्ञान
प्राप्त होता
है।’
और
हमारे अंतर—
अस्तित्व का
ध्रुव तारा
कौन सा है? ध्रुव
तारा बहुत
प्रतीकात्मक
है। पौराणिक
कथाओं के
अनुसार यही
समझा जाता है
कि ध्रुव तारा
ही एकमात्र
ऐसा तारा है
जो पूर्णतया
गति विहीन है,
उसमें कोई
गति नहीं है, वह थिर है। लेकिन
यह बात सच
नहीं है।
उसमें गति है,
लेकिन उसकी
गति बहुत धीमी
होती है।
लेकिन फिर भी
यह बहुत
प्रतीकात्मक
है हमको अपने
भीतर कुछ ऐसा
खोज लेना है
जो कि गति
विहीन हो, जिसमें
किसी प्रकार
की गति न हो, पूरी तरह
थिर हो। वही
हमारा स्वभाव
है, केवल
वही हमारा
वास्तविक
अस्तित्व है,
हमारा
सच्चा स्वरूप
है. ध्रुवतारे
जैसा—गति
विहीन, पूर्णरूपेण
गति विहीन।
क्योंकि जब
भीतर कहीं कोई
गति नहीं होती
है, तब
शाश्वतता
होती है; जब
गति होती है, तो समय भी
होता है।
गति के
साथ ही समय की
आवश्यकता
होती है, रुकने के
लिए, ठहरने
के लिए समय जरूरी
नहीं है। अगर
हम गतिवान
होते हैं तो
उसका कहीं
प्रारंभ होगा
तो कहीं अंत
भी होगा। सारी
गतिशीलताओ का
प्रारंभ भी
होता है और
अंत भी होता
है, उनका
जन्म भी होता
है और मृत्यु
भी होती है।
लेकिन अगर
किसी प्रकार
की कोई गति न
हो, तो न तो
प्रारंभ ही
होता है, और
न ही अंत होता
है। तब न तो
जन्म होता है
और न ही
मृत्यु होती
है।
तो
हमारे भीतर वह
ध्रुव तारा कहां
है?
उसे ही
योग साक्षी
कहता है, विटनेस कहता
है। साक्षी ही
है हमारे भीतर
का ध्रुव तारा।
तो पहले अपना
संयम सूर्य —ऊर्जा
पर ले आओ, क्योंकि
साधारणतया
व्यक्ति
जैविक रूप से
वहीं पर जीता
है। वहीं तुम
अपने को पा
सकते हो,
जो कि पहले से
ही है। फिर उस
सूर्य —ऊर्जा
को चंद्र—ऊर्जा
में
रूपांतरित
करना है और
शीतल, एकाग्रचित्त
और शांत होते
जाना है। सभी
तरह की
उत्तेजनाओं
को, उत्ताप
को, बिदा
होने दो, ताकि
तुम अंतर —
आकाश को देख
सको। और फिर
पहली बात जो
जानने की होती
है. वह यह है कि
इन सबको देखने
वाला कौन है? इन सबको जो
देखता है वही
तो है ध्रुव
तारा, क्योंकि
द्रष्टा ही तो
भीतर एकमात्र
अचल थिर और
देखने वाला है।
इसे
ऐसे समझने की
कोशिश करो।
तुम
क्रोधित होते
हो, लेकिन
तुम हमेशा—हमेशा
के लिए क्रोध
में नहीं रह
सकते हो। यहां
तक कि कितना
ही बड़े से
बड़ा क्रोधी
आदमी हो, वह
भी थोड़ा —बहुत
तो हंसता ही
है, उसे
हंसना ही पड़ता
है। वह क्रोध
की अवस्था
स्थायी हो
नहीं सकती।
उदास से उदास
आदमी भी
मुस्कुराता
है, और जो
आदमी हमेशा
हंसता रहता है,
वह भी कई
बार रोता है, चीखता है, चिल्लाता है।
आदमी की
भावदशा और
संवेदनाएं
हमेशा एक जैसी
नहीं रहती हैं।
इसीलिए तो
अंग्रेजी में
इसे इमोशंस
कहते हैं, यह
आया है मोशन
से, यानी
गति से। वे
गतिशील रहती
हैं, मोशन
में रहती हैं,
इसीलिए वे
इमोशंस
कहलाती हैं।
हमारी
भावदशाए
हमेशा बदलती
रहती हैं। अभी
हम उदास हैं, तो दूसरे ही
क्षण प्रसन्न हो
जाते हैं। अभी
हम क्रोधित
हैं, तो
दूसरे क्षण ही
बहुत
करुणावान हो
जाते हैं। अभी
प्रेमपूर्ण
हैं तो दूसरे
ही क्षण घृणा
से भर जाते
हैं। सुबह
सुंदर और
सुहावनी है तो
सांझ कुरूप, असुंदर और
बोझिल हो जाती
है। इसी भांति
जीवन चलता
जाता है।
लेकिन
यह हमारा
वास्तविक
स्वभाव नहीं
है, क्योंकि
इन सभी
परिवर्तनों
के पीछे कोई
ऐसा धागा तो
होना ही चाहिए
जो इन सबको
थामे रहे।
जैसे किसी
माला में
पिरोए हुए फूल
तो दिखायी पड़ते
हैं, लेकिन
धागा दिखायी
नहीं पड़ता; लेकिन धागा
सारे फूलों को
एक साथ जोड़े
रखता है। तो
हमारी यह सभी
भावनात्मक
अवस्थाएं, इमोशंस
फूलों की
भांति ही हैं
हम कभी क्रोध
में होते हैं,
तो कभी उदास
होते हैं। कभी
आनंद के, खुशी
के फूल होते
हैं, तो
कभी पीड़ा के, व्यथा से
भरे फूल होते
हैं। लेकिन यह
सभी अवस्थाएं
फूलों जैसी
हैं, और
हमारा पूरा
जीवन फूलों की
माला है।
हमारे जीवन को
एक सूत्र में
पिरोए रखने के
लिए जरूर कहीं
कोई धागा भी
होगा, वरना
हम बहुत पहले
ही बिखर गए
होते। हमारा
अस्तित्व तो
हमेशा रहता है।
तो वह
कौन सा धागा
है, वह
कौन सा ध्रुव
तारा है? वह
हमारे भीतर का
स्थायी तत्व
क्या है? धर्म
की पूरी की
पूरी खोज यही
तो है कि
व्यक्ति के
भीतर शाश्वत
और स्थायी
तत्व कौन सा
है। अगर हम
नश्वर के साथ
ही संबंध बनाए
रखते हैं, तो
हम संसार में
जीते हैं।
जैसे ही हम
अपना ध्यान
अपने भीतर की
शाश्वतता पर
केंद्रित कर
देते हैं, हम
धार्मिक होने
लगते हैं।
साक्षी
हो जाओ, विटनेस हो
जाओ। तुम अपने
क्रोध के
साक्षी हो
सकते हो। तुम
अपनी उदासी के
साक्षी हो
सकते हो। तुम
अपने संताप के
साक्षी हो
सकते हो। तुम
अपने आनंद के
भी साक्षी हो
सकते हो। कोई
सी भी भाव दशा
हो, साक्षीभाव
वही का वही
रहता है।
उदाहरण
के लिए, रात को हम सोते
हैं। दिन तो
जा चुका है और
जिस छवि को
लेकर हम दिनभर
घूमते रहे —कि
मैं कौन हूं
क्या हूं —वह
भी रात्रि में
सोने में खो
जाती है। दिन
में मैं बहुत
ही धनी आदमी
हो सकता हूं
लेकिन रात
सपने में
भिखारी हो
सकता हूं।
सम्राट
अपने सपनों
में भिखारी बन
जाते हैं, भिखारी
अपने सपनों
में सम्राट बन
जाते हैं
क्योंकि सपना
एक परिपूर्ति
होता है। यहां
तक कि कई बार
सम्राट भी
भिखारियों के
प्रति
ईर्ष्या और
जलन अनुभव
करते हैं, क्योंकि
भिखारी
सड्कों पर
स्वतंत्र रूप
से, मस्ती
में घूमते ' हैं—जैसे
उन्हें किसी
बात से कुछ
लेना —देना
नहीं है। और
फिर भी पूरी
दुनिया का
आनंद उठा सकते
हैं। और फिर
वह धूप का, सूरज
की किरणों का
आनंद ले सकता
है। एक सम्राट
तो वैसा नहीं
कर सकता, उसे
तो दूसरे बहुत
से काम करने
होते हैं। वह
तो हमेशा
व्यस्त होता
है। सम्राट
देखता है कि
भिखारी
रात्रि में
चांद—तारों के
नीचे मजे से
गीत गा रहे
हैं। एक
सम्राट तो ऐसा
कर नहीं सकता,
सम्राट को
ऐसा करना शोभा
नहीं देता है।
तो वे
भिखारियों से
ईर्ष्या
अनुभव करने
लगते हैं।
सम्राट रात
में यही
स्वप्न देखते
हैं कि वे भिखारी
बन गए हैं, भिखारी
स्वप्न देखते
हैं कि वे
सम्राट हो गए
हैं, क्योंकि
भिखारी भी
सम्राट से
ईर्ष्या करते
हैं। वे महलों
के ऐश्वर्य को,
धन—वैभव को,
वहां चलते
आमोद —प्रमोद
को देखते रहते
हैं। भिखारी
भी चाहते हैं
कि उन्हें यह
सब मिल जाए।
तो
जीवन में जो
कुछ भी नहीं
मिलता है, जिसका
हमारे जीवन
में अभाव होता
है, वे सभी
चीजें हमारे
स्वप्नों में
आती रहती हैं,
सपने
परिपूरक होते
हैं। अगर
स्वप्नों का
ठीक—ठीक
अध्ययन
किया
जाए, तो
यह मालूम किया
जा सकता है कि
जीवन में क्या—क्या
कमी है। जब
जीवन में किसी
भी चीज की. कमी
नहीं रह जाती,
तो तत्क्षण
स्वप्न खो
जाते हैं, स्वप्न
बिदा हो जाते
हैं।
इसलिए
संबोधि को
उपलब्ध
व्यक्ति सपने
नहीं देख सकता
है, उसे
सपने आते ही
नहीं। स्वप्न
देखना उनके
लिए असंभव
होता है, क्योंकि
संबुद्ध
व्यक्ति को
किसी चीज का
कोई अभाव होता
ही नहीं है।
वह तृप्त होता
है, पूर्णरूपेण
तृप्त होता है।
अगर वह भिखारी
भी है, तो
भी वह इतना
तृप्त होता है
कि वह अपने
भिखारीपन में
भी अपना सम्राट
होता है।
एक बार
ऐसा हुआ कि एक
महान सूफी संत
था इब्राहिम, वह एक
भिखारी के साथ
रहता था।
इब्राहिम ने
अपना राजपाट
त्याग दिया था,
क्योंकि
उसने उसकी
व्यर्थता और
मूढ़ता को पहचान
लिया था। और
इब्राहिम एक
साहसी आदमी था।
वह अपने राज —पाट
को छोड्कर
भिक्षुक बन
गया। एक बार
एक भिक्षुक
कुछ दिनों के
लिए इब्राहिम
के पास आकर
ठहरा। वह
भिक्षु रोज
रात्रि को
परमात्मा से
प्रार्थना
करता, 'हे
परमात्मा, कुछ
तो कृपा करो।
आपने मुझको ही
इतना गरीब
क्यों बनाया?
पूरा संसार
तो मजे कर रहा
है, सुख —चैन,
शांति से रह
रहा है। बस, एक मैं ही
गरीब हूं।
मुझे पेट भर
खाना भी नसीब
नहीं है, पहनने
के लिए मेरे
पास कपड़े नहीं
हैं, रहने
को जगह नहीं
है। कुछ तो
कृपा करो? कई
बार तो मुझे
शक होने लगता
है कि आप हो भी
या नहीं, क्योंकि
मेरी
प्रार्थना
अधूरी ही है।’
इब्राहिम
ने उस भिक्षु
की यह
प्रार्थना एक
बार सुनी, दो
बार सुनी, तीन
बार सुनी, आखिर
में एक दिन जब
इब्राहिम से
रहा न गया तो वह
उस भिक्षु से
बोला, 'जरा
ठहरो। ऐसा
लगता है
तुम्हें
गरीबी बिना
कोई कीमत चुकाए
मिल गयी है।’ वह भिक्षु
बोला, 'गरीबी
की कीमत? आपका
क्या मतलब है?
आप क्या कह
रहे हैं? क्या
गरीबी की भी
कीमत चुकानी
पड़ती है?'
इब्राहिम
बोला, 'ही,
मैंने
गरीबी को अपना
पूरा राज्य
देकर पाया है,
और तब मैंने
गरीबी के
सौंदर्य को
जाना है।
तुमने तो इसे
मुफ्त में ही
पा लिया है, इसलिए तुम
गरीबी का मजा
नहीं जानते हो।
गरीबी जो
स्वतंत्रता
देती है तुम
उसे नहीं
जानते हो, इसलिए
तुम इसकी कीमत
और इसके महत्व
को नहीं जानते
हो। तुम्हें
नहीं मालूम कि
गरीबी क्या
होती है।
इसलिए पहले तो
आवश्यक है कि
तुम अमीर आदमी
की पीड़ा को
जानो, फिर
तुम गरीबी के
सौंदर्य को
जान पाओगे।
मैंने दोनों
अवस्थाएं
देखी हैं मैं
पूरी तरह
संतुष्ट हूं।’
इब्राहिम
ने कहा, 'सच पूछो तो
मैं
प्रार्थना भी
नहीं कर सकता।
क्योंकि मेरे
यह समझ में ही
नहीं आता है
कि मैं
प्रार्थना
करूं भी तो
किस के लिए
करूं। ज्यादा
से ज्यादा मैं
यह कह सकता हूं, 'हे
परमात्मा, आपका
धन्यवाद।’ बस,
हो गयी
प्रार्थना।
कहने, को
कुछ है ही
नहीं। मैं
इतना
परितृप्त हूं।’
संबुद्ध
व्यक्ति स्वप्न
नहीं देख सकता
३ वह अपने आप
में परितृप्त
होता है। और
मैं तुम सें
कहता हूं कि
वह इतना भी
नहीं कहेगा कि
'हे
परमात्मा, आपका
धन्यवाद।’ क्यों
परमात्मा को
व्यर्थ ही
परेशान करना?
या फिर वह
यह बात एक बार
कहेगा, और
फिर वह रोज
डिट्टो कह
देगा। कहने
में सार भी
क्या है? और
सचाई तो यह है,
परमात्मा
जानता ही होगा
कि तुम्हारा
पूरा हृदय कह
रहा है, 'हे
प्रभु, धन्यवाद,'
तो फिर कहने
में सार भी
क्या है?
रात जब
तुम स्वप्न
देखते हो तो
तुम अपनी वह
छवि भूल जाते
हो, जो
दिनभर तुम में
मौजूद रही।
दिन में शायद
तुम बड़े
विद्वान रहे
होंगे, रात
सोने में भूल
जाते हो। दिन
में शायद तुम
सम्राट
होगे, और रात
सोने में भूल
जाते हो कि
तुम सम्राट हो।
दिन में शायद
तुम कोई बड़े
संन्यासी
होगे जो संसार
का त्याग कर
चुका है, और
रात स्वप्न
में सुंदर
स्त्रियां
तुम्हें घेरे
रहती हैं और
स्वप्न में
तुम भूल जाते
हो कि तुम एक
संन्यासी हो,
कि भिक्षु
हो और यह
अच्छा नहीं है।
दिन में अच्छा
या बुरा जो
कुछ भी होता
है वह रात्रि
में सोने पर
सब कहीं खों
जाता है, रात्रि
स्वप्न में; तुम बिलकुल
अलग ही व्यक्ति
हो जाते हो।
तुम्हारी
भावदशा बदल
जाती है, आसपास
का वातावरण
बदल जाता है।
लेकिन एक बात
हमेशा बनी
रहती है, वह
है द्रष्टा
होने की दिन
में अगर तुम
अपनी गतिविधियों
पर ध्यान रख
सको, जैसे—सड़क
पेर चल रहे हो,
या भोजन कर
रहे हो, या
आफिस जा रहे
हो, या
आफिस से घर
लौट रहे हो, क्रोध में
हो या
प्रेमपूर्ण
हों—अगर
प्रतिदिन की
इन सब छोटी—छोटी
गतिविधियों
में
होशपूर्वक हो
सको, उनके
द्रष्टा हो
सको, तो
रात स्वप्न
में भी तुम
द्रष्टा रह
सकते हो, और
तब स्वप्न
में भी तुम यह
जान सकोगे कि
यह तो स्वप्न
ही है। मैं तो
स्वप्न में ही
सम्राट था? ठीक है। तब
तुम सब चीजों
के द्रष्टा हो
सकते हो।
चौबीस
घंटों में
केवल एक ही
चीज स्थायी है
और वह है
द्रष्टा का
होना, साक्षी
का होना। यही
हमारे भीतर का
ध्रुवतारा है।
‘ध्रुव—नक्षत्र
पर संयम
संपन्न करने
से तारों—नक्षत्रों
की गतिमयता का
ज्ञान
प्राप्त होता
है।’
और
ध्यान रहे, पहले तो
पतंजलि कहते
हैं कि चंद्र
पर संयम संपन्न
करने से तारों
—नक्षत्रों की
समग्र
व्यवस्था का
ज्ञान प्राप्त
होता है—कि
कौन सा तारा कहां
है, और
कैसा है।
'ध्रुव—नक्षत्र
पर संयम
संपन्न करने
से तारों —नक्षत्रों
की गतिमयता का
ज्ञान प्राप्त
होता है।’
क्योंकि
गति का अनुभव
केवल उसी चीज
के परिप्रेक्ष्य
में हो सकता
है जो थिर
होती है। अगर
कुछ भी थिर न
हो तो
गतिशीलता को
जाना ही नहीं
जा सकता है।
और अगर सभी
कुछ गतिमान हो
और हमारे पास
ऐसा कोई आधार
न हो जिसकी
कोई गति न हो; तो हम गति
को कैसे जान
सकेंगे?
इसीलिए
पृथ्वी
लगातार घूमती
रहती है, लेकिन हमें
उसकी गति का
आभास नहीं
होता। पृथ्वी
घूम रही है, और इतनी
तीव्रता से
घूम रही है कि
हम उसकी कल्पना
भी नहीं कर
सकते। पृथ्वी
एकं अंतरिक्ष—यान
है, जो
निरंतर
गतिशील है
अपने केंद्र
पर लगातार घूम
रही है 'और
साथ ही सूर्य
के चारों ओर
भी बड़ी
तीव्रता के
साथ चक्कर लगा
रही है।
पृथ्वी
लगातार घूमती
चली जा रही है,
लेकिन उसकी
गति को अनुभव
नहीं किया जा
सकता—क्योंकि
शेष सभी कुछ
भी उसी गति से
घूम रहा है पेडू—पौधे,
घर, आदमी
सभी कुछ उसी
गति से घूम
रहा है। इसलिए
उसकी गति को
अनुभव करना
असंभव है, क्योंकि
उसकी तुलना
करने का कोई
उपाय नहीं. है।
इसे
ऐसे सोचो, जैसे
तुम्हारे पास
खड़े होने को
कोई छोटी सी
चीज है—सारी
पृथ्वी तो घूम
रही है, लेकिन
तुम नहीं घूम
रहे हो —तब तुम
समझ सकोगे कि
गति क्या है।
क्योंकि शेष
सभी— चीजें
इतनी तेजी से
घूम रही हैं
कि तुम चकरा
जाओगे; तब
तुम्हारा
पूना में रहना
असंभव है। फिर
कभी
फिलेडेलिफिया
तुम्हारे
सामने से गुजर
रहा होगा, तो
कभी टोकियो
गुजर रहा —होगा,
और बार—बार...
और पृथ्वी
घूमती चली जा
रही है, परिभ्रमण
करती ही चली
जा रही है।
पृथ्वी
बहुत तेजी से
घूम रही है, उस गति को
अनुभव करने के
लिए हमें थिर
होना होगा।
मनुष्य इतनी
सदियों से
पृथ्वी पर रह
रहा है और
केवल तीन सौ
वर्ष पूर्व ही
हमें
गैलीलियो और
कोपरनिकस
द्वारा पता
चला कि पृथ्वी
घूम रही है।
वरना इससे
पहले मनुष्य
यही समझता रहा
कि पृथ्वी
केंद्र है, पृथ्वी
गति विहीन
केंद्र है और
दुनिया की शेष
अन्य सभी
चीजें गतिशील
हैं। चांद —तारे,
सूर्य सभी
घूम रहे हैं, केवल पृथ्वी
ही थिर है और
वही सभी का
केंद्र है।
हमारे
भीतर भी
साक्षी के
अतिरिक्त, विटनेस
के अतिरिक्त
शेष सभी कुछ
गतिशील है।
हमारे होश और
जागरूकता के
अतिरिक्त सभी
कुछ निरंतर गतिवान
है। जब हम इस
साक्षीभाव को
जान लेते हैं,
या जब हम
साक्षी को
उपलब्ध हो
जाते हैं, तभी
केवल यह देख
पाना संभव है
कि शेष सभी
कुछ कितनी
तेजी से
गतिवान है, शेष सभी कुछ
कितनी तेजी से
घूम रहा है।
अब
थोड़ा एक बहुत
ही जटिल बात
को भी ठीक से
समझ लेना।
उदाहरण के लिए, अब तक तो
मैं इस ढंग
बोल रहा था
जैसे कि भीतर
के केंद्र थिर
होते हैं।
लेकिन वे
केंद्र थिर
नहीं होते हैं।
कई बार काम—केंद्र
हमारे सिर में
होता है, काम
—केंद्र हमारे
सिर में
गतिशील होता
है, वह
वहां सरक रहा
होता है।
इसीलिए तो
हमारा मन इतना
कामवासना से
भर जाता है।
इसीलिए हम
कामवासना के
संबंध मै
निरंतर सोचते
रहते हैं, और
कामवासना से
संबंधित
स्वप्नों को
संजोए चले
जाते हैं। कई
बार काम —केंद्र
हमारे हाथों
में सरक जाता
है, और
स्त्री को या
पुरुष को छू
लेने का मन
करता है। कई
बार काम —केंद्र
आंखों में होत
है और फिर जो कुछ
भी हम देखते
हैं, उसे
वासना में बदल
देते हैं। इसी
तरह से फिर मन
अश्लील हो
जाता है —फिर
जो कुछ भी हम
देखेंगे, वह
काम में, सेक्स
में
परिवर्तित हो
जाती है। कई
बार काम —केंद्र
कानों में
होता है, फिर
जो कुछ भी हम
सुनेंगे उससे
हम कामुक होने
लगेंगे।
फिर
ऐसा संभव है
कि हम मंदिर
जाएं और अगर
उस समय हमारा
काम —केंद्र
कानों में
गतिमान हो रहा
है, तब
वहां भजन को
सुनते हुए, भक्ति गान
को सुनते हुए
हम कामुकता का
अनुभव करने
लगेंगे। और
साथ में
चिंतित भी
होने लगेंगे
कि यह क्या हो
रहा है? मैं
मंदिर में हूं, मैं तो एक
भक्त की तरह
मंदिर में आया
हूं, और यह
क्या हो रहा
है? और कई
बार ऐसा भी
होता है कि
तुम अपनी
प्रेमिका या
अपनी पत्नी के
बैठे हो, और
वह एकदम निकट
ही बैठी होती
है —केवल निकट
ही नहीं होती
है, बल्कि
आमंत्रण दे
रही होती है, प्रतीक्षा
कर रही होती
है —और उस समय
तुम्हें कामवासना
की कोई इच्छा
ही नहीं होती
है। इसका मतलब
है उस समय काम —केंद्र
अपने केंद्र
पर नहीं है, जहां कि उसे
होना चाहिए।
कई बार ऐसा
होता है जब
तुम कामवासना
की कल्पना कर
रहे होते हो, कामवासना के
स्वप्नों में
खोए होते हो, उस समय तुम
अपने को
ज्यादा
आनंदित अनुभव
करते हो, और
जब स्त्री के
साथ प्रेम कर
रहे होते हो
उस समय
तुम्हें जरा
भी आनंद का
अनुभव नहीं कर
होता है, बिलकुल
भी आनंदित
नहीं होते हो।
उस समय
क्या होता है? हम यह
जानते ही नहीं
हैं कि हमारा
केंद्र कहां
पर है। लेकिन
जब कोई
व्यक्ति
साक्षी को
उपलब्ध हो जाता
है, तो कौन
सा केंद्र किस
जगह है, उसके
प्रति वह
बोधपूर्ण हो
जाता है उस
केंद्र के
प्रति वह होश
से भर जाता है।
और जब व्यक्ति
बोध और होश से
भर जाता है, तभी कुछ
घटने की
संभावना होती
है।
जब वह
केंद्र कानों
में होता है, तो वह
कानों को
ऊर्जा प्रदान —करती
है। उस समय
अगर उन क्षणों
का ठीक से
उपयोग किया जा
सके, तो
व्यक्ति एक
कुशल
संगीतकार बन
सकता है। जब
वह
केंद्र आंखों
में होता है, अगर उस
क्षण का उपयोग
ठीक से किया
जाए, तो
व्यक्ति एक
कुशल
चित्रकार, या
एक कुशल
कलाकार बन
सकता है। तब
वृक्षों का
हरा रंग कुछ
अलग ही दिखायी
पड़ता है। तब
गुलाब के
फूलों का
खिलना और उनका
गुणधर्म कुछ
अलग ही हो
जाता है, तब
उनके साथ एक
प्रकार का
तादात्म्य
स्थापित हो
जाता है। अगर
वह काम—केंद्र
जिह्वा पर आ
जाए, तो
व्यक्ति एक
बड़ा वक्ता बन
सकता है—अपने
बोलने के
माध्यम से वह
लोगों को
सम्मोहित. कर
सकता है। तब
एक शब्द भी जब
सुनने वालों
के हृदय में
उतरता है, तो
लोग एकदम
सम्मोहित हो
जाते हैं। यही
वे क्षण होते
हैं अगर
व्यक्ति का
काम—केंद्र आंखों
में है, तो
बस किसी की
तरफ एक दृष्टि
का पड़ना और वह
व्यक्ति
सम्मोहित हो
जाता है। तब
व्यक्ति
चुंबक की तरह
हो जाता है; उसमें सम्मोहन
की शक्ति आ
जाती है। जब
काम —केंद्र
हाथों में आ
जाता है, तो
फिर किसी भी
चीज को, छूने
भर से वह सोना
बन जाती है।
क्योंकि काम —ऊर्जा
जीवन से भरी
हुई ऊर्जा हैं।
और यही
बात चंद्र—केंद्र
के संबंध में
भी सत्य है।
अभी तक
मैंने
केंद्रों की
स्थिर
स्थितियों के
विषयों पर बात
की है।
साधारणतया वे
वहीं पाए जाते
हैं, लेकिन
फिर भी कुछ
स्थिर नहीं है,
सभी कुछ
गतिवान है।
अगर व्यक्ति
का मृत्यु —केंद्र
उसके हाथ में
है और तब अगर
ऐसे व्यक्ति
को डाक्टर
दवाई भी देगा
तो भी रोगी मर
जाएगा। चाहे
चिकित्सक कुछ
भी करे, तो
भी रोगी को बचाना
संभव नहीं है।
भारत मैं यह
कहा जाता है, 'डाक्टर के
पास चिकित्सक
के हाथ होते
हैं जो कुछ भी
वह छूता है, वह दवा बन
जाती है।’ और
जो डाक्टर ऐसा
न हो, उसके
पास भूलकर मत
जाना क्योंकि
तब कोई साधारण
सी बीमारी का
भी वह इलाज
नहीं कर पाएगा,
और मरीज की
हालत पहले से भी
ज्यादा खराब
हो जाएगी।
इस
मामले में
योगी एकदम
सचेत और
जागरूक होता है।
आयुर्वेद, जो
चिकित्सा—विज्ञान
भारत में योग
के साथ—साथ ही
विकसित हुआ है,
उसके
अंतर्गत
चिकित्सक को
योगी भी होना
पड़ता था। जब
तक कोई आदमी
योगी न हो जाए,
वह
चिकित्सक भी
नहीं हो सकता
था। क्योंकि
उसके बिना कोई
सच्चा
चिकित्सक हो
नहीं सकता था।
इससे पहले कि
कोई चिकित्सक
किसी रोगी के
पास उसकी
चिकित्सा
करने के लिए
जाए, उस
चिकित्सक को
अपने
अंतर्जगत की
व्यवस्था को
ठीक से समझना
और देखना होता
था। अगर
मृत्यु —केंद्र
उसके हाथों
में आ गया हो, तो वह नहीं जाएगा।
अगर मृत्यु—केंद्र
आंखों में हो,
तो वह वहा
नहीं जाएगा।
उस चिकित्सक
का मृत्यु —केंद्र
हारा में
स्थित होना
चाहिए, और
जीवन—केंद्र
उसके हाथों
में होना
चाहिए, तभी
वह रोगी को
देखने कि लिए
जाता था। जब
सभी केंद्र
अपने— अपने
स्थान पर होते
थे, तभी वह
रोगी को देखने
जाता था।
जब
व्यक्ति अपने
अंतर्जगत को
जान लेता है, तो बहुत
सी बातें जान
सकना संभव हो
जाता है।
तुमने भी इस
पर कई बार
ध्यान दिया
होगा, लेकिन
तुम्हें
मालूम नहीं
होता है कि
क्या हो रहा
है। कई बार
बिना किसी
विशेष प्रयास
के सफलता मिलती
चली जाती है।
और कई बार कठोर
परिश्रम करने
के बाद भी
सफलता नहीं
मिल पाती; सभी
काम असफल होते
चले जाते हैं।
इसका मतलब है
कि उस समय
तुम्हारी
अंतर—व्यवस्था
ठीक नहीं है।
तुम गलत
केंद्र से काम
कर रहे हो।
जब कोई
योद्धा युद्ध
के मैदान में
जाता है, युद्ध के
मोर्चे पर
जाता है, तो
उसे तब ही जाना
चाहिए जब
मृत्यु—केंद्र
उसके हाथ में
हो। तब. तब वह
बड़ी आसानी से
लोगों को मार
सकता है।
तब वह
साक्षात
मृत्यु का ही
रूप— धारण कर
लेता है।’बुरी नजर
का' यही
अर्थ होता है
वह व्यक्ति
जिसका मृत्यु—केंद्र
उसकी आंखों
में ठहर गया
है। अगर ऐसा
आदमी किसी की
ओर देख भी ले, तो वह मुसीबतो
में फंसता चला
जाएगा। उसका
देखना भी
अभिशाप हो
जाता है।
और ऐसे
लोग भी हैं
जिनकी आंखों
में जीवन—केंद्र
होता है। वे
अगर किसी की
तरफ देख भर
लें, तो
ऐसा लगता है
जैसे आशीष बरस
गए हों, ऐसे
व्यक्ति का.
देखना और
सामने वाला
आदमी आनंद से
भर जाता है।
उसका देखना और
सामने वाला
व्यक्ति एकदम
जीवंत सा हो
जाता है।
'ध्रुव—नक्षत्र
पर संयम
संपन्न करने
से तारों—नक्षत्रों
की गतिमयता का
ज्ञान
प्राप्त होता
है।’
नाभिचक्रे
कायब्यूहज्ञानम्।
'नाभि
—चक्र पर संयम
संपन्न करने
से शरीर की
संपूर्ण संरचना
का ज्ञान
प्राप्त होता
है।’
नाभि
केंद्र शरीर
का केंद्र है, क्योंकि
नाभि केंद्र
द्वारा ही
व्यक्ति मां के
गर्भ में
पोषित होता है।
नौ महीने केवल
नाभि —केंद्र
के द्वारा ही
बच्चा जिंदा
रहता है। मां
के गर्भ में
बच्चा नाभि से
जुड़ा रहता है,
वही उसके
जीवन का स्रोत
और सेतु होता
है। और जब
बच्चे का जन्म
हो जाता है, और नाभि
केंद्र से
जुड्ने वाले
रन्तु काट दिया
जाता है, तो
बच्चा मां से
अलग होकर एक
स्वतंत्र
प्राणी हो
जाता है। जहां
तक शरीर का
संबंध है, नाभि
केंद्र बहुत
ही
महत्वपूर्ण
केंद्र है।
'नाभि
चक्र पर संयम
संपन्न करने
से शरीर की संपूर्ण
संरचना का
ज्ञान
प्राप्त होता
है।’
और
शरीर की
संरचना बहुत
ही जटिल
संरचना है।
शरीर बहुत ही
नाजुक और कोमल
होता है।
हमारे शरीर
में लाखों —लाखों
कोष होते हैं, हमारे
छोटे से सिर
में लाखों
नसें हैं।
वैज्ञानिकों
ने कई बड़ी—बड़ी
जटिल यंत्र —व्यवस्थाएं
खोजी हैं, लेकिन
आदमी के शरीर
की तुलना में
वे कुछ भी नहीं
हैं — और ऐसी
कोई संभावना
भी नहीं है कि
वे कभी ऐसी कोई
और जटिल यंत्र
—व्यवस्था
निर्मित कर
पाएंगे, जो
कि इतनी
कुशलता से
कार्य कर सके।
मनुष्य का
शरीर सच में
ही एक चमत्कार
है। और आदमी
का शरीर
निरंतर सत्तर
वर्ष तक, सौ
वर्ष तक
स्वचालित ढंग
से, अपने
आप कार्य करता
रहता है।
शरीर
का अंग— अंग इस
ढंग से बना
हुआ है जो कि
अपने आप में
पूर्ण है।
शरीर के हर
अंग—प्रत्यंग
की व्यवस्था
अपने आप चलती
रहती है जैसे
भोजन; जब
कभी हमको भूख
लगती है, और
जब हमारा पेट
भर जाता है, तो भीतर से संकेत
मिल जाता है—कि
अब बस खाना
बंद करो। शरीर
भोजन पचाता है,
और उससे ही
रक्त, हड्डी,
मांस—मज्जा
का निर्माण
होता है। और
तो व्यर्थ का
खाद्य—पदार्थ
भीतर होता है,
उसे शरीर
बाहर फेंककर
स्वयं को
स्वच्छ करता रहता
है। क्योंकि
शरीर में
प्रतिपल न
जाने कितने
कोष मर रहे
होते हैं, शरीर
को कोषों को
निकालकर बाहर
भी फेंकना होता
है। इस तरह
शरीर कोषों का
निर्माण भी
करता है, और
मृत कोषों को
बाहर फेंककर
स्वयं को
स्वच्छ एवं
सुव्यवस्थित
भी करता रहता
है। और यह सभी
कुछ स्वचालित
ढंग से चलता
रहता है।
अगर
व्यक्ति जीवन
के सहज —स्वभाव
का अनुसरण करे, तो शरीर
अपने आप बहुत
ही सुंदर और
सुव्यवस्थित
ढंग से कार्य
करता है। और
तब शरीर के
साथ एक तरह की
लयबद्धता
निर्मित हो
जाती है।
नभि
केंद्र को जनि
लेने से शरीर
की संपूर्ण
कार्य
व्यवस्था को
जाना जा सकता
है।
इसी
तरह से योग के
शरीर—विज्ञान
को जाना गया।
योग के शरीर —विज्ञान
को बाहर से
नहीं जाना गया
है, या
योग ने इसे
किसी
पोस्टमार्टम
की रिपोर्ट से
नहीं जाना है।
क्योंकि योग
के अनुसार जब
किसी व्यक्ति
की मृत्यु हो
जाती है, तब
जो कुछ भी हम
उस आदमी के
विषय में
जानते हैं, वही बात
जीवित आदमी के
विषय में सच
नहीं होती।
क्योंकि मृत
व्यक्ति
जीवित
व्यक्ति से
एकदम अलग होता
है। अब
वैज्ञानिकों
को इस तथ्य का
थोड़ा — थोड़ा
आभास होने लगा
है कि
पोस्टमार्टम
की रिपोर्ट बस
एक अनुमान ही
है, क्योंकि
जब किसी
व्यक्ति की
मृत्यु हो
जाती है, तब
शरीर कुछ अलग
हो जाता है, और जब
व्यक्ति जीवित
होता है, तब
शरीर अलग ढंग
से कार्य करता
है। इसलिए मृत
शरीर के संबंध
में हम जो कुछ
भी जानते हैं,
वह जीवित
शरीर के साथ
थोड़ा —बहुत
मेल खा सकता
है, लेकिन
एकदम वैसा ही
नहीं हो सकता
है।
योग ने
अंतर्जगत के
माध्यम से
शरीर —विज्ञान
को जाना है।
योग ने शरीर —
विज्ञान को
जीवन की
जागरूकता और
होश के माध्यम
से आविष्कृत
किया है। इसी
कारण बहुत सी
ऐसी बातें
जिनकी योग बात
करता है, लेकिन
आधुनिक शरीर —विज्ञान
उससे सहमत
नहीं है।
क्योंकि
आधुनिक शरीर—विज्ञान
मृत व्यक्ति
की लाश के
आधार पर निर्णय
लेता है, और
योग का सीधा
संबंध जीवन से
है।
थोड़ा
सोचो। जब
बिजली तारों
से होकर गुजर
रही हो ' उस समय अगर
तुम तारों को
काट दो, तो
तुम्हें एक
तरह का अनुभव
होगा। और जब
बिजली तारों
से नहीं गुजर
रही हो, उस
समय तारों को
काटो, तो
तुम्हें
दूसरी तरह का
अनुभव होगा।
और यह दोनों
अनुभव एक —दूसरे
से एकदम अलग
होंगे।
तुम
मृत शरीर की
चीर —फाड़ कर
सकते हो, जीवित शरीर
की इस तरह से
चीर —फाड़ नहीं
की जा सकती है,
क्योंकि
उसकी चीर —फाड़
करने में ही
व्यक्ति मर
जाएगा। इसलिए
एक न एक दिन
शरीर—वैज्ञानिकों
को योग के
अन्वेषण से
सहमत होना ही
पड़ेगा कि अगर
जीवंत शरीर को
जानना है, तो
उसे उसी समय
जाना जा सकता
है जब उसमें
विद्युत तत्व
प्रवाहित हो
रहे हों, जब
उसमें
प्राणों का
संचार हो रहा
हो। और यह
केवल स्वयं के
भीतर उतरकर ही
जाना जा सकता
है कि शरीर
क्या है, और
उसकी कैसी
व्यवस्था है।
अगर
किसी मृत शरीर
के संबंध में
जानना हो, उसमें कुछ
खोजना हो, तो
किसी ऐसे घर
में जाना
जिसका मालिक
घर में न हो।
वहा तुम्हें
थोड़ा—बहुत
फर्नीचर और
सामान पड़ा हुआ
मिल जाएगा, लेकिन वहा
पर कोई जीवित
आदमी न होगा।
जब घर का
मालिक घर में
हो, तब
उसके घर में
जाओ, तो उस
आदमी की
उपस्थिति
पूरे घर में
होती है। ऐसे
ही जब कोई
व्यक्ति
जीवंत होता है,
तो उसकी
जीवंतता
प्रत्येक
कोषिका को
गुणात्मक रूप
से कुछ भिन्न
बना रही होती
है। जब कोई
व्यक्ति मर
जाता है, तो
बस केवल एक
मृत शरीर ही
पड़ा होता है, केवल पदार्थ
ही पड़ा रह
जाता है।’कंठ
पर संयम
संपन्न करने
से क्षुधा व
पिपासा की
अनुभूतिया
क्षीण हो जाती
हैं।’
ये आंतरिक
अन्वेषण हैं।
योग जानता है
कि अगर हमको
भूख लगती है, तो भूख
पेट में ही
अनुभव नहीं
होती है। जब
प्यास लगती है,
तो वह ठीक —ठीक
गले में ही
अनुभव नहीं
होती। पेट
मस्तिष्क को
भूख की सूचना
देता है, और
फिर मस्तिष्क
हम तक इसकी
सूचना पहुंचाता
है, उसके
पास कुछ अपने
संकेत होते
हैं। उदाहरण
के लिए, जब
हमें प्यास
लगती है, तो
मस्तिष्क ही
गले में
प्यास
की अनुभूति को
जगा देता है।
जब शरीर को
पानी चाहिए
होता है, तो मस्तिष्क
गले में प्यास
के लक्षण जगा
देता है, और
हमको प्यास
लगने लगती है।
जब हमें भोजन
चाहिए होता है,
तो
मस्तिष्क पेट
में कुछ
निर्मित करने
लगता है और
भूख सताने
लगती है।
लेकिन
मस्तिष्क को
बड़ी आसानी से
धोखा दिया जा सकता
है पानी में
शक्कर घोलकर
पी लो और भूख शांत
हो जाती है।
क्योंकि
मस्तिष्क
केवल शक्कर की
ही बात समझ सकता
है। तो इसलिए
अगर शक्कर खा
लो, या
पानी में
शक्कर घोलकर
पी लो, तो
तुरंत
मस्तिष्क को
यह लगने लगता
है कि अब कुछ
और नहीं चाहिए;
भूख मिट
जाती है।
इसीलिए जो लोग
बहुत ज्यादा
मीठे पदार्थ
खाते हैं उनकी
भोजन में रुचि
समाप्त हो
जाती है।
शक्कर की थोड़ी
सी मात्रा से
पोषण नहीं हो
सकता है, लेकिन
मस्तिष्क
मूर्ख बन जाता
है। शक्कर
खाकर व्यक्ति
मस्तिष्क तक
यह सूचना पहुंचा
देता है कि
उसने कुछ खा
लिया है। तत्क्षण
मस्तिष्क
सोचता है
शक्कर की
मात्रा शरीर
में बढ़ .गयी है,
तो बस अब
दूसरे भोजन की
आवश्यकता
नहीं है।
मस्तिष्क को
लगता है कि
तुमने खूब खा
लिया और भोजन
में शक्कर की
मात्रा
ज्यादा हो गयी
है। तुमने तो
शक्कर की गोली
ही खायी है इस
तरह से मस्तिष्क
को एक भ्रम
निर्मित हो
जाता है।
योग ने
यह बात खोज ली
है कि किन्हीं
सुनिश्चित
केंद्रों पर
संयम संपन्न
करने से चीजें
तिरोहित हो
सकती हैं।
उदाहरण के लिए, अगर कोई कंठ
पर संयम ले आए,
तो उसे न तो
प्यास लगेगी,
और न ही भूख
लगेगी। इसी
तरह से योगी
लोग लंबे समय
तक उपवास कर
लेते थे।
महावीर के लिए
ऐसा कहा जाता
है कि वे कई
बार तीन महीने,
चार महीने
तक निरंतर
उपवास करते थे।
जब महावीर
अपनी ध्यान और
साधना में लीन
थे, तो कोई
बारह वर्ष की
अवधि में करीब
म्यारह वर्ष
तक वे उपवासे
ही रहे, भूखे
ही रहे। तीन
महीने उपवास
करते और फिर
एक दिन थोड़ा
आहार लेते थे,
फिर एक
महीने उपवास
करते, और
फिर बीच में
दो दिन भोजन
ले लेते थे, इसी तरह से
निरंतर उनके
उपवास चलते
रहते थे। तो
बारह वर्षों
में कुल मिलाकर
एक वर्ष
उन्होंने
भोजन लिया, इसका अर्थ
हुआ कि बारह
दिन में एक
दिन भोजन और
ग्यारह दिन
उपवास।
वे ऐसा
कैसे करते थे? कैसे वे
ऐसा कर सकते
थे? यह बात
तो असंभव ही
मालूम होती है,
आम आदमी के
लिए असंभव है
भी। लेकिन योग
के पास कुछ
रहस्य हैं।
अगर
कोई व्यक्ति
कंठ में
एकाग्र रहता
है.. थोड़ा
कोशिश करके
देखना। अब जब
तुम्हें
प्यास लगे, तो अपनी आंखें
बंद कर लेना, और अपना
पूरा ध्यान
कंठ पर एकाग्र
कर लेना। जब
पूरा ध्यान
उसी में स्थित
हो जाता है, तो तुम
पाओगे कि कंठ
एकदम शिथिल हो
गया है।
क्योंकि जब
तुम्हारा
पूरा ध्यान
किसी एक चीज
पर एकाग्र हो
जाता है, तो
तुम उस से अलग
हो जाते हो।
कंठ में प्यास
लगती है, और
हमें लगता है
जैसे मैं ही
प्यासा हू।
अगर तुम प्यास
के साक्षी हो
जाओ, तो
अचानक ही तुम
प्यास से अलग
हो जाओगे।
प्यास के साथ
जो तुम्हारा
तादात्म्य हो
गया था वह टूट
जाएगा। तब तुम
जानोगे कि कंठ
प्यासा है, मैं प्यासा
नहीं हूं। और
तुम्हारे
बिना
तुम्हारा कंठ
कैसे प्यासा हो
सकता है?
क्या
तुम्हारे
बिना शरीर को
भूख लग सकती
है? क्या
किसी मृत आदमी
को कभी भूख या
प्यास लगती है?
चाहे पानी
की एक —एक बूंद
शरीर से उड़
जाए, शरीर
से पानी की एक—एक
बूंद
विलीन
हो जाए, तो भी मृत
व्यक्ति को
प्यास का
अनुभव नहीं
होगा। शरीर को
प्यास अनुभव
करने के लिए
शरीर के साथ तादात्म्य
चाहिए।
कभी इस
प्रयोग को
करके देखना।
जब कभी
तुम्हें भूख
लगे तो अपनी आंखें
बंद कर लेना
और अपने कंठ
तक गहरे उतर
जाना फिर ध्यान
से देखना। तुम
देखोगे कि कंठ
तुम से अलग है।
और जैसे ही
तुम देखोगे कि
कंठ तुम से
अलग है, तो शरीर यह
कहना बंद कर
देगा कि शरीर
भूखा है। शरीर
भूखा हो नहीं
सकता है, शरीर
के साथ
तादात्म्य ही
भूख को
निर्मित करता
है।
'कूर्म
—नाड़ी नामक
नाड़ी पर संयम
संपन्न करने
से, योगी
पूर्ण रूप से
थिर हो जाता
है।’
कूर्म —नाड़ी
प्राण की, श्वास की
वाहिका है।
अगर हम चुपचाप,
शांतिपूर्वक
अपने श्वसन पर
ध्यान दें, किसी भी ढंग
से श्वास की
लय न बिगड़े, न तो श्वास
तेज हो और न ही
धीमी हो, बस
उसे
स्वाभाविक और
शिथिल रूप से
चलने दें। तब
अगर हम केवल
श्वास को
देखते रहें, तो हम धीरे —
धीरे थिर होने
लगेंगे। फिर
भीतर किसी तरह
की कोई हलन—चलन
नहीं होगी।
क्यों? क्योंकि
सभी हलन —चलन, गति श्वास
के द्वारा ही
होती है।
श्वास से ही
पूरी की पूरी
गति होती है।
श्वास ही सारी
हलन —चलन और
गतियों का
संचरण करती है।
जब श्वास रुक
जाती है, तो
व्यक्ति मर
जाता है—फिर
वह चल—फिर
नहीं सकता, हिल—डुल
नहीं सकता।
अगर
व्यक्ति
निरंतर श्वास
पर ही संयम
करता रहे, कूर्म —नाड़ी
पर ही
केंद्रित रहे,
तो धीरे —
धीरे एक ऐसी
अवस्था आ
जाएगी जहां पर
श्वास करीब—करीब
रुक ही जाती
है।
योगी
इस ध्यान की
प्रक्रिया को
दर्पण के
सामने करते
हैं, क्योंकि
योगी की श्वास
धीरे — धीरे
इतनी शांत हो
जाती है कि
उसे श्वास चल
रही है या
नहीं इसकी
प्रतीति भी
नहीं रह जाती
है। अगर दर्पण
पर श्वास की
कुछ धुंध जा
जाए, तो ही
उन्हें मालूम
पड़ता है कि
उनकी श्वास चल
रही है। कई
बार योगी
ध्यान में इतने
शांत और थिर
हो जाते हैं
कि उन्हें यह
मालूम ही नहीं
पड़ता है कि वे
भी जिंदा हैं
या नहीं।
ध्यान की
गहराई में
तुम्हें भी यह
अनुभव कभी न
कभी घटेगा।
उससे भयभीत मत
होना। उस समय
श्वास लगभग
रुक सी जाती
है। जब होश
अपनी
परिपूर्णता
पर होता है, उस समय
श्वास लगभग
ठहर जाती है, लेकिन उस
समय परेशान मत
होना, भयभीत
मत होना। वह
कोई मृत्यु
नहीं है, वह
तो केवल शांत
अवस्था है।
योग का
संपूर्ण
प्रयास ही इस
बात के लिए है
कि व्यक्ति को
ऐसी गहन शांत
अवस्था तक ले
आए कि फिर उस शांति
को कोई भी भंग
न कर सके।
चेतना ऐसी शांत
अवस्था को उपलब्ध
हो जाए कि फिर
उसकी शांति
भंग न हो सके।
मैंने
सुना है कि एक
बार रास्ते
चलते किसी पागल
ने एक दुकान
पर जाकर एक
व्यापारी से
पूछा, 'तुम
दिनभर सुबह से
लेकर रात तक
यहां पर बैठे
कैसे रहते हो?'
'लाभ
कमाने के लिए।’
पागल
आदमी ने पूछा, 'लाभ क्या
होता है?'
'लाभ
कमाने का.
मतलब है एक के
दो बनाना,' व्यापारी
ने कहा।
वह
पागल बोला, 'यह कोई
लाभ कमाना हुआ?
लाभ तो तब
है जब तुम दो
का एक कर दो।’
वह
पागल आदमी कोई
साधारण पागल न
था, वह
जरूर कोई
प्रज्ञा —पुरुष
रहा होगा। वह
सूफी गुरु था।
ही, लाभ तो
तभी होता है
जब तुम दो का
एक कर देते हो।
लाभ तभी होता
है जहां सारे
द्वैत गिर
जाते हैं, जहां
केवल एक ही
बचता है।
'योग'
का अर्थ है,
एक होने की
विधि। योग का
अर्थ है, जो
कुछ अलग— अलग
जा पड़ा है उसे
फिर से जोड़ना।
योग का अर्थ
ही है जोड़।
योग का अर्थ
है, यूनिओ
मिष्टिका।
योग का अर्थ
है, एकता।
ही, लाभ की
प्राप्ति तभी
होती है जब हम
दो का एक कर सकें।
और योग
का पूरा
प्रयास ही
इसके लिए है
कि शाश्वतता
को कैसे पा
सकें, चीजों
के पीछे छिपी
एकात्मकता को
कैसे पा सकें,
सभी
परिवर्तनों, सभी गतियों
के पीछे छिपी
थिरता को कैसे
प्राप्त कर
सकें — अमृत को
कैसे उपलब्ध
हो सकें, मृत्यु
का अतिक्रमण
कैसे कर सकें।
निश्चित
ही हमारी
आदतें बाधा
खड़ी करेंगी, क्योंकि
लंबे समय से
हम इन्हीं गलत
आदतो के साथ
जीते आ रहे
हैं। हमारे मन
का गलत आदतो
के साथ तालमेल
बैठ गया है—इसी
कारण हम हमेशा
हर चीज को खंड —खंड
में तोड़ देते
हैं। आदमी की
बुद्धि इसी के
लिए
प्रशिक्षित
हुई है कि
पहले हर चीज
को विभक्त कर
दो और फिर
चीजों का
विश्लेषण करो
और एक चीज को
बहुत रूपों
में विभाजित
कर दो। मनुष्य
आज तक बुद्धि
से ही जीता
आया है, और
वह भूल ही गया
है कि चीजों
को कैसे जोड़ना
है, कैसे
एक करना है।
एक
आदमी सूफी
फकीर, फरीद
के पास एक
सोने की कैंची
भेंट करने के
लिए आया।
कैंची सच में
ही बहुत सुंदर
और मूल्यवान
थी। लेकिन
फरीद ने जैसे
ही उस कैंची
को देखा, वे
उस कैंची को
देखकर जोर से
हंस पड़े और
बोले, 'मैं
इस कैंची का
क्या करूंगा,
क्योंकि
मैं किसी चीज
को कभी काटता
ही: नहीं हूं।
इस कैंची को
तुम ही रखो।
ही, ऐसा
करो, इस
कैंची की बजाय
तो जुम मुझे
एक सुई लाकर
दे दो। और
सोने की सुई
लाने की भी
कोई आवश्यकता
नहीं है, कोई
सी भी सुई
चलेगी—क्योंकि
मेरा सारा
प्रयास चीजों
को जोड्ने का
है, उन्हें
एक करने का है।
लेकिन
हमारी पुरानी
आदतें चीजों को
विश्लेषित
करने की, चीर —फाड़
करने की हैं।
हमारी पुरानी
आदतें यही हैं
कि उसे खोजना
है जो निरंतर
परिवर्तनशील
है। मन तो
हमेशा नए में
और परिवर्तन
में ही रोमांच
का अनुभव करता
है। अगर कुछ
भी बदले नहीं,
सब कुछ वैसा
का वैसा ही
रहे, तो मन
उदास हो जाता
है। हमें मन की
इन आदतो के
प्रति सचेत
होना होगा; अन्यथा
आदतें तो किसी
न किसी रूप
में बनी ही रहेंगी.
और मन बहुत
चालाक है।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा
:
मौलाना
अरशाद वायज एक
बहुत बड़ा
उपदेशक और एक
बड़ा अच्छा
वक्ता था, लेकिन था
वह एक भिक्षु।
एक बार बादशाह
ने मौलाना
अरशाद को अपने
दरबार में
बुलाया और कहा,
'मौलाना
अपने
मंत्रियों के
कहने से मैं
तुम्हें अपना
प्रतिनिधि
बनाकर शिराज
में शाह शोजाज
के दरबार में
भेज रहा हूं।
फिर भी मैं
चाहता हूं कि
तुम मुझसे
वायदा करो कि
बाहर के मुल्क
में तुम
भिक्षा न
मांगोगे —क्योंकि
मैं नहीं
चाहूंगा कि
मेरे द्वारा
भेजा हुआ
प्रतिनिधि
बाहर के मुल्क
में भीख मांगे,
तो तुम्हें
इसके लिए
वायदा करना
होगा।’
मौलाना
से जैसा कहा
गया था उसने
वैसा ही किया और
शिराज की ओर
रवाना हो गया।
जिस
लक्ष्य से वह
आया था जब वह
सफल हो गया तो
एक दिन शिराज
के शाह ने
उससे कहा, 'आपके
उपदेशों की
ख्याति हमारे
यहां तक पहुंच
चुकी है और
हमें आपके
उपदेश सुनने
की बेहद तमन्ना
है।’
सम्राट
के ऐसा कहने
पर मौलाना
राजी हो गया।
नियत
दिन, शुक्रवार
को मौलाना ने
अपना प्रवचन
दिया, और
उसने इतना
हृदय —स्पर्शी
प्रवचन दिया
कि सुनने
वालों की आंखों
में आंसू आ गए।
लेकिन इससे
पहले कि वह
मंच से उतरता,
वह अपनी
भिक्षा
मांगने की आदत
को रोक न सका।
वह
बोला, 'ओ
मुसलमानो! कुछ
हफ्ते पहले तक
मैं भीख
मांगता था।
लेकिन यहां
आने से पूर्व
वहां के
बादशाह ने मुझे
यह शपथ
दिलवायी कि
मैं आपके शहर
में रहते हुए
भीख न
मांगूंगा।
मैं आप से ही
पूछता हूं
मेरे भाइयो, अगर मैंने
भीख न मांगने
की कसम खायी
है, तो
क्या आप सब ने
भी मुझे कुछ
भी न देने की
कसम खायी है?'
मन
बहुत चालाक
होता है। वह
अपने रास्ते
खोज लेता है 'अगर मैं
भीख नहीं मांग
सकता तुम तो
दे सकते हो न।’
ध्यान
रहे कि मन की
आदत है विश्लेषण
करने की, और योग है
संश्लेषण। तो
जब कभी मन
विश्लेषण करे,
उसे उठाकर
एक तरफ रख
देना।
विश्लेषण के
द्वारा तुम
अंतिम छोर तक,
छोटे से
छोटे अणु —परमाणु
तक पहुंच
जाओगे, लेकिन
संश्लेषण के
द्वारा तुम
विराट और समग्र
तक पहुंच
जाओगे।
विज्ञान खोज
करते — करते
अणु तक जा
पहुंचा, और
योग खोजते —खोजते
आत्मा तक
पहुंच गया।
अणु का अर्थ
है लघु, और
छोटा। और
आत्मा का अर्थ
है. विराट।
योग ने
संपूर्ण को
जाना है, समग्र
को अनुभव किया
है, और
विज्ञान ने
छोटे और उससे
भी छोटे तत्व
को जाना है, और इसी तरह
वह लघु की ओर
चलता चला जा
रहा है।
पहले
तो विज्ञान ने
पदार्थ को अणु
में विभाजित
किया, फिर
विज्ञान ने
पाया कि अणु
को विभाजित
करना कठिन है,
फिर जब वे
अणु का भी
विभाजन करने
में सफल हो गए,
तो
उन्होंने उसे
परमाणु कहा।
अणु का अर्थ
ही होता है वह
तत्व जो
अविभाज्य हो,
जिसे अब और
अधिक विभाजित
न किया जा सके —लेकिन
विज्ञान ने
उसे भी
विभाजित कर
दिया। फिर
विज्ञान
इलेक्ट्रान व
न्यूट्रान
तक जा पहुंचा,
और उसने
सोचा कि अब और
विभाजन संभव
नहीं है, क्योंकि
पदार्थ लगभग
अदृश्य ही हो
गया है—उसे अब
देखना संभव
नहीं है। जब
इलेक्ट्रान
दिखाई ही नहीं
देता है, तो
कैसे उसका
विभाजन संभव
हो सकता है? लेकिन अब
विज्ञान उसे
भी विभाजित
करने में सफल
हो गया है।
बिना
इलेक्ट्रान
को देखे, वैज्ञानिकों
ने उसको भी
विभक्त कर
दिया है।
वैज्ञानिक
इसी तरह से
चीजों को
विभक्त करते चले
जाएंगे. अब
सभी कुछ हाथ
के बाहर हो
गया है।
योग
ठीक इसके
विपरीत
प्रक्रिया है? योग
संश्लेषण की
प्रक्रिया है।
योग जुड़ते
जाने की और
अधिकाधिक
जुड़ते जाने की
प्रक्रिया है,
जिससे अंत
में व्यक्ति
अपने पूर्ण
स्वरूप तक जा
पहुंचे, स्वयं
के साथ एक हो
जाए।
अस्तित्व एक
है।
मन को
भी सूर्य —मन
और चंद्र—मन
में विभक्त
किया जा सकता
है। सूर्य —मन
वैज्ञानिक
होता है, चंद्र—मन
काव्यात्मक
होता है।
सूर्य —मन
विश्लेषणात्मक
होता है, चंद्र—मन
संश्लेषणात्मक
होता है।
सूर्य —मन
गणितीय, तार्किक,
अरस्तुगत
होता है, चंद्र—मन
बिलकुल अलग ही
ढंग का होता
है —असंगत
होता है, अतार्किक
होता है।
सूर्य —मन और
चंद्र—मन
दोनों इतने
अलग — अलग ढंग
से कार्य करते
हैं कि उनके
बीच कहीं कोई
संवाद नहीं हो
पाता।
एक
जिप्सी अपने
बेटे के साथ
बहुत लड —झगड़
रहा था। वह
लड़के से बोला, 'तुम आलसी
हो, कुछ भी
नहीं करते हो।
कितनी बार
तुम्हें मैं
कहूं कि
तुम्हें काम करना
चाहिए और अपनी
जिंदगी यूं ही
आलस में नहीं
गुजारनी
चाहिए? कितनी
बार मुझे
तुमसे कहना
पड़ेगा कि
कलाबाजियां
और विदूषक की
कला सीख लो, ताकि तुम
अपना जीवन सुख
—चैन के साथ
व्यतीत कर सको।’
फिर
बाप ने बेटे
को डराने —
धमकाने के
अंदाज में
अपना हाथ
उठाया और बोला, ' भगवान
कसम, अगर
तुम मेरी बात
पर ध्यान नहीं
दोगे, तो
मैं तुम्हें
स्कूल में डाल
दूंगा; तब
तुम बहुत सी
मूर्खतापूर्ण
जानकारियां
इकट्ठी कर
लोगे और एक
बड़े विद्वान
बन जाओगे और अपनी
बची हुई
जिंदगी को
मुसीबतो में
और दुख में
गुजारोगे।’
यह है
जिप्सी मन, अ —मन।
जिप्सी सोचता
है कि मस्त
घुमक्कड़ बन
जाओ, चाहे
विदूषक ही बन
जाओ, पर
आनंद से जीओ।
और जिप्सी
कहता है, 'मैं
तुम्हें
स्कूल में डाल
दूंगा, ताकि
तुम स्ब तरह
की उल्टी —सीधी
जानकारियां
इकट्ठी कर
लोगे और
विद्वान बन
जाओगे —और तब
तुम्हारी
पूरी जिंदगी
व्यर्थ हो
जाएगी। तुम
दुख में ही
जीओगे।’
तुम
कौन से केंद्र
पर हो यह
जानने का
प्रयत्न करो
तुम सूर्य —मन
हो —तब गणित और
तर्क
तुम्हारे
जीवन —शैली
होगी, अगर
चंद्र—मन हो —तो
काव्य, कल्पनाशीलता
तुम्हारी
जीवन—शैली
होगी। तो तुम
क्या हो और
तुम्हारी
क्या स्थिति
है, पहले
तो इसे जानना
जरूरी है।
और
ध्यान रहे, दोनों मन
आधे — आधे होते
हैं। तुम्हें
दोनों के ही
पार जाना है।
अगर तुम सूर्य
—मन हो तो पहले
चंद्र—मन तक
आना होगा, फिर
उसके भी आगे
जाना है। अगर
तुम गृहस्थ हो,
तो पहले
जिप्सी हो जाओ।
यही है
संन्यास। मैं
तुम्हें
जिप्सी बना
रहा हूं, घुमक्कड़ बना
रहा हूं। अगर
तुम बहुत ज्यादा
तार्किक हो, तो मैं
तुमसे कहता
हूं श्रद्धा
करो, समर्पण
करो, त्याग
करो, सर्व —स्वीकार
भाव से झुको।
अगर तुम बहुत
ज्यादा
तार्किक हो, तो मैं तुम
से कहूंगा कि
यहां तर्क की
कोई जरूरत
नहीं है। बस, मेरी ओर
देखो और प्रेम
में डूबो। अगर
ऐसा कर सको तो
अच्छा है। क्योंकि
यह एक प्रेम
का नाता है।
अगर तुम
श्रद्धा में
जी सकते हो, तो तुम्हारी
ऊर्जा सूर्य
से चंद्र की
ओर सरक जाएगी।
जब
तुम्हारी
ऊर्जा सूर्य
से चंद्र की
ओर सरक जाती
है, तो
एक नयी ही
संभावना का
द्वार खुलता
है. तुम फिर
चंद्र के भी
पार जा सकते
हो, तब तुम
साक्षी हो
जाते हो। और
वही है
उद्देश्य, वही
है मंजिल।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें