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सोमवार, 5 जनवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--3) प्रवचन--51

योग का आधारपंच महाव्रत(प्रवचनग्‍याहरवां)


दिनांंक  1 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
योग—सूत्र

(साधनपाद)



अहिंसाप्रतष्‍ठायां तत्‍सन्‍निधौ वैरत्‍याग:।। 35।।



जब योगी सुनिश्चित रूप से अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है,

तब जो उसके सान्‍निध्‍य में आते हैं, वे शत्रुता छोड़ देते हैं।



सत्‍यप्रतिष्‍ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।। 36।।



जब योगी सुनिश्चित रूप से सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है,

तब वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्‍त कर लेता है।



      अस्‍तेयप्रतिष्‍ठाया सर्वरत्‍नोपस्‍थनम्।। 37।।



जो योगीसुनिश्‍चित रूप से अस्‍तेय में प्रतिष्‍ठित होत जाता है,

तब आंतिरिक समृद्धियां स्‍वयं उदित होती है।


     

ब्रह्मचर्यप्रतिष्‍ठायां वीर्यलाभ:।। 38।।



जब योगी निश्‍चल रूप से ब्रह्मचर्य में प्रतिष्‍ठित हो जाता है,

तब तेजस्‍विता की उपलब्‍धि होती है।

     

अपरिग्रहस्‍थैर्ये जन्‍मकिान्‍तासंबोध:।। 39।।



जब योगी सुनिश्‍चित रूप से अपरिग्रह में प्रतिष्‍ठित हो जाता है,

तब अस्‍तित्‍व के कैसे और कहां से का ज्ञान उदित होता है।



क बार ऐसा हुआ, मैं कुछ मित्रों के साथ एक पहाड़ी स्थान पर ठहरा हुआ था। हम एक जगह देखने गए जो 'ईको प्याइंट' कहलाता था; सुंदर स्थल था, बहुत शांतिपूर्ण, पहाड़ियों से घिरा हुआ। एक मित्र ने कुत्ते की तरह भौंकने की आवाज की। सारी पहाड़ियां उसकी अनुगूंज से गज उठीं—ऐसा लगा जैसे वह स्थान हजारों कुत्तों से भरा हुआ है। फिर किसी ने बौद्ध मंत्रों का जाप शुरू कर दिया : 'सब्बे संघार अनिच्चा। सब्बे धम्मा अनत्ता। गते, गतें, परागते, परा संगते। बोधि स्वाहा!' पहाड़ियां बौद्ध बन गईं; उन्होंने उसे गुंजा दिया। मंत्र का अर्थ है : 'सब कुछ नश्वर है, कोई चीज अनश्वर नहीं; सब कुछ एक बहाव है, कुछ भी स्थायी नहीं। हर चीज आत्म—विहीन है। गई, गई, खो गई, अंततः हर चीज खो गई—शब्द भी, ज्ञान भी, बुद्धत्व भी।

जो मित्र मेरे साथ थे मैंने उनसे कहा कि जीवन भी इसी 'ईको प्याइंट' की भांति है : तुम भौंकते हो उस पर, तो वह वापस भौंकता है तुम पर; तुम पढ़ते हो सुंदर मंत्र, तो जीवन एक मधुर गुंजार से भर जाता है। जीवन एक दर्पण है। लाखों—लाखों दर्पण हैं तुम्हारे चारों ओर—प्रत्येक चेहरा एक दर्पण है; प्रत्येक चट्टान एक दर्पण है; प्रत्येक बादल एक दर्पण है। सारे संबंध दर्पण हैं। जिस ढंग से भी तुम जीवन से संबंधित होते हो, वह तुम्हें प्रतिबिंबित करता है। जीवन के प्रति क्रोध से मत भर जाना अगर वह तुम पर भौंकने लगे। तुम्हीं ने आरंभ की होगी श्रृंखला। तुमने जरूर कुछ किया होगा तभी यह हो रहा है। जीवन को बदलने का प्रयास मत करो; बस अपने को बदलो और जीवन बदल जाता है।

ये दो दृष्टिकोण हैं : एक को मैं कहता हूं कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण, जो कहता है, 'जीवन को बदलो, केवल तभी तुम सुखी हो सकते हो'; दूसरे को मैं कहता हूं धार्मिक दृष्टिकोण, जो कहता है, 'स्वयं को बदलो, और जीवन अनायास ही सुंदर हो जाता है।समाज को, संसार को बदलने की कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम उस दिशा में चल रहे हो, तो तुम गलत दिशा में चल रहे हो जो तुम्हें कहीं नहीं ले जाएगी। पहली तो बात, तुम उसे बदल नहीं सकते—वह बहुत जटिल और विराट है। यह असंभव है। वह बहुत जटिल है और तुम्हारी जिंदगी छोटी है! और जीवन सनातन है और जीवन अनंत है। तुम एक मेहमान हो; रात भर का पड़ाव है और तुम चल दोगे : गते, गते—हमेशा के लिए विदा हो जाओगे। कैसे तुम कल्पना कर सकते हो इसको बदलने की?

यह कहना कि जीवन बदला जा सकता है, निपट नासमझी की बात है। लेकिन बहुत अच्छा रन गत। है इस बात से। कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण का अपना एक गहरा आकर्षण है। इसलिए नहीं कि वह सही है—आकर्षण है किसी दूसरे कारण से—क्योंकि वह तुम्हें जिम्मेवार नहीं ठहराता है, यही उसका आकर्षण है। तुम्हारे अतिरिक्त हर चीज जिम्मेवार है; तुम तो बस एक शिकार हो! 'पूरा जीवन जिम्मेवार है। तो जीवन को बदलना है।साधारण मन को यह बात अच्छी लगती है, क्योंकि मन जिम्मेवारी नहीं लेना चाहता।

जब भी तुम दुखी होते हो तो तुम जिम्मेवारी किसी दूसरे पर डाल देना चाहते हो—कोई भी चलेगा, कोई भी बहाना चलेगा—तुम निर्भार हो जाते हो। तुम्हें लगता है : तुम इस आदमी की वजह से दुखी हो—या इस स्त्री की वजह से, या इस समाज की, इस सरकार की, इस सामाजिक ढांचे की, इस अर्थव्यवस्था की वजह से दुखी हो—या, अंततः ईश्वर या भाग्य जिम्मेवार है। ये सभी कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण हैं। जैसे ही तुम जिम्मेवारी दूसरों पर डाल देते हो, तुम कम्युनिस्ट हो जाते हो, तुम फिर धार्मिक नहीं रहते।

अगर तुम ईश्वर पर भी जिम्मेवारी डालते हो, तो भी तुम कम्मुनिस्ट हो। मुझे समझने की कोशिश करना, क्योंकि कम्युनिस्ट तो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, लेकिन किसी दूसरे पर जिम्मेवारी डालने का पूरा दृष्टिकोण ही कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण है—तब तो ईश्वर को ही बदलना पड़ेगा।

यही तो लोग कर रहे हैं मंदिरों में. वे वहा जाते हैं और प्रार्थना करते हैं ईश्वर से कि वह बदले। वे लोग बिलकुल कम्युनिस्ट हैं। वे छिपे होंगे धार्मिक वस्त्रों में, लेकिन वे हैं कम्मुनिस्ट। वे क्या प्रार्थना कर रहे हैं? वे कह रहे हैं ईश्वर से, 'ऐसा करो, वैसा मत करो', 'मेरी पत्नी बीमार है, उसको ठीक कर दो।तुम कह रहे हो अस्तित्व से कि अस्तित्व जिम्मेवार है! तुम शिकायत कर रहे हो; गहरे में तुम्हारी प्रार्थना एक शिकायत ही है। शायद तुम बहुत विनम्रतापूर्वक कह रहे हो, लेकिन तुम्हारी विनम्रता झूठी है। तुम शायद स्तुति कर रहे हो उसकी, लेकिन गहरे में तुम कह रहे हो, 'तुम ही जिम्मेवार हो—अब कुछ करो!'

इस दृष्टिकोण को मैं कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण कहता हूं। कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण से मेरा मतलब है वह दृष्टिकोण जो कहता है, 'मैं जिम्मेवार नहीं हूं मैं तो शिकार हूं। सारा जीवन जिम्मेवार है।धार्मिक दृष्टिकोण कहता है, 'जीवन तो केवल प्रतिबिंबित करता है।

जीवन कोई कर्ता नहीं है, वह एक दर्पण है। वह तुम्हारे प्रति कुछ कर नहीं रहा है, क्योंकि वही जीवन बुद्ध पुरुष के साथ अलग ढंग से व्यवहार करता है। जीवन वही है, तुम्हारे साथ वह अलग ढंग से व्यवहार करता है। दर्पण वही है, लेकिन जब तुम आते हो दर्पण के सामने तो वह तुम्हारे चेहरे को प्रतिबिंबित करता है। और यदि तुम्हारा चेहरा बुद्ध पुरुष का चेहरा नहीं है, तो दर्पण क्या कर सकता है? जब बुद्ध पुरुष आते हैं दर्पण के सामने तब दर्पण उनके बुद्धत्व को प्रतिबिंबित करता है। मैं तुम से यह इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मेरा भी अनुभव यही है। जब तुम्हारा चेहरा बदलता है तो दर्पण में प्रतिबिंब भी बदल जाता है; क्योंकि दर्पण की कोई निर्धारित दृष्टि नहीं है। दर्पण तो बस प्रतिबिंबित कर रहा है। वह अपनी तरफ से कुछ नहीं कहता। वह तो बस प्रतिबिंबित करता है—वह तुम्हें ही तुम्हारे सामने प्रकट कर देता है। यदि जीवन में दुख है, तो जरूर तुम ने शुरू की होगी श्रृंखला। यदि हर कोई तुम्हारे विरुद्ध है, तो तुम्हीं ने शुरू की होगी श्रृंखला। यदि हर कोई शत्रुता अनुभव करता है, तो तुमने ही शुरू की होगी श्रृंखला।

कारण को बदलों। और कारण तुम हो। धर्म तुमको ही जिम्मेवार ठहराता है—और इस तरह धर्म तुमको स्वतंत्रता देता है, क्योंकि तब चुनने की स्वतंत्रता तुम्हारी अपनी है। दुखी होना है या सुखी होना है, यह तुम पर निर्भर करता है। इस बात से किसी दूसरे का कोई संबंध नहीं है। संसार तो वैसा ही रहेगा; तुम शुरू कर सकते हो नृत्य करना, और तब सारा संसार तुम्हारे साथ नृत्य करने लगता है।

एक प्रसिद्ध कहावत है कि जब तुम रोते हो तो तुम अकेले रोते हो, जब तुम हंसते हो तो सारा संसार तुम्हारे साथ हंसता है। नहीं, यह बात भी सच नहीं है। जब तुम रोते हो तो सारा संसार प्रतिबिंबित करता है तुम्हारे रोने को। और जब तुम हंसते हो, तो सारा संसार तुम्हारे हंसने को प्रतिबिंबित करता है। जब तुम रोते हो, तब सारा संसार रोता हुआ मालूम पड़ता है। जब तुम उदास होते हो, तब जरा देखना चांद की तरफ—चांद उदास मालूम पड़ता है; जरा देखना तारों की तरफ—वे घोर निराशा में डूबे हुए मालूम पड़ते हैं; देखना नदी की ओर—लगता है कि वह बह नहीं रही है, उदास है, अंधेरे में खोई हुई है। जब तुम प्रसन्न होते हो, तब जरा देखना चांद की तरफ—वह मुस्कुरा रहा होता है; और वही तारे नाच—गा रहे होते हैं, और वही नदी बह रही होती है गुनगुनाते हुए; सारा विषाद, सारी उदासी खो जाती है।

न कहीं कोई नरक है और न कहीं कोई स्वर्ग है। जब तुम्हारे भीतर स्वर्ग होता है, तो इसी संसार में... और यही एकमात्र संसार है। स्मरण रखना, दूसरा और कोई संसार नहीं है। जब तुम भीतर स्वर्ग से भरे होते हो, तो संसार उसे प्रतिबिंबित करता है। जब तुम नरक से भरे होते हो, तो संसार कुछ नहीं कर सकता इसमें, वह उसे ही प्रतिबिंबित करता है।

यदि तुम स्वयं को जिम्मेवार अनुभव करते हो, तो तुमने धर्म की दिशा में बढ़ना शुरू कर दिया है। धर्म विश्वास करता है व्यक्तिगत क्रांति में। दूसरी कोई क्रांति क्रांति नहीं है। बाकी सब क्रांतिया झूठी हैं, नकली हैं। ऐसा लगता है कि बहुत बदलाहट हो रही है, लेकिन कुछ बदलता नहीं। बड़ा शोरगुल मचता है बदलाहट का, लेकिन कहीं कुछ बदलता नहीं। कोई बदलाहट संभव नहीं है, जब तक तुम स्वयं नहीं बदल जाते।

ये सूत्र इसी जिम्मेवारी की खबर देते हैं—व्यक्तिगत जिम्मेवारी की। शुरू—शुरू में तुम थोड़ा बोझ सा अनुभव करोगे—कि मैं जिम्मेवार हूं—और तुम इसे किसी दूसरे पर नहीं डाल सकते। लेकिन ठीक से समझ लो कि यदि तुम जिम्मेवार हो, तो थोड़ी आशा है; कुछ तुम कर सकते हो। यदि दूसरे जिम्मेवार हैं तब तो कोई आशा भी नहीं, क्योंकि क्या कर सकते हो तुम? तुम ध्यान करोगे, लेकिन दूसरे लोग झंझटें खड़ी करते रहेंगे, तुम दुखी के दुखी रहोगे। तुम बुद्ध हो जाओ, तो भी संसार नरक बना रहेगा। तुम दुखी होओगे। शुरू—शुरू में प्रत्येक स्वतंत्रता बोझ जैसी लगती है। इसीलिए लोग स्वतंत्रता से डरते हैं।

एरिक फ्रॉम ने एक सुंदर पुस्तक लिखी है, 'दि फिअर ऑफ फ्रीडम'—स्वतंत्रता का भय। मुझे यह शीर्षक बहुत अच्छा लगा। लोग इतने ज्यादा भयभीत क्यों हैं स्वतंत्रता से? होना तो इसके विपरीत चाहिए; उन्हें स्वतंत्रता से भयभीत नहीं होना चाहिए। बल्कि उलटे हम सोचते हैं कि हर कोई स्‍वतंत्रता चाहता है। लेकिन मेरे देखने में भी ऐसा आया है कि कहीं गहरे में कोई नहीं चाहता स्‍वतंत्रता—क्योंकि स्वतंत्रता एक बड़ी जिम्मेवारी है। तब केवल तुम्हीं जिम्मेवार हो। तब तुम किसी दूसरे के कंधों पर जिम्मेवारी नहीं थोप सकते। तब तुम्हारे पास कोई सांत्वना नहीं होती—यदि तुम दुखी हो, तो अपने कारण दुखी हो; तुम्हीं ने निर्मित किया है अपना दुख।

लेकिन उस बोझ के साथ ही एक नया द्वार खुल जाता है. तुम फेंक सकते हो उसे। यदि मैं ही निर्मित कर रहा हूं अपने दुखों को तो मैं उनको निर्मित करना बंद कर सकता हूं। मैं ही पैडल चलाता रहा हूं साइकिल के और मैं थक गया हूं और मैं चाहता हूं कि बंद हो यह, और मैं चलाए जाता हूं पैडल... मुझे ही पैडल चलाना बंद करना है, और साइकिल रुक जाएगी। कोई और उसे नहीं चला रहा है।

यही गहरे में अर्थ है कर्म के सिद्धात का. कि तुम्हीं जिम्मेवार हो। एक बार तुम समझ लेते हो इस बात को गहरे में कि 'मैं जिम्मेवार है, तो आधा काम पूरा हो गया। वस्तुत: जिस क्षण तुम समझ लेते हो कि 'मैं ही जिम्मेवार हूं उस सब के लिए जिससे मैं दुखी होता रहा या सुखी होता रहा', तो तुम स्वतंत्र हो—समाज से स्वतंत्र, संसार से स्वतंत्र। अब तुम जीने के लिए अपना संसार चुन सकते हो। यही है एकमात्र संसार—ध्यान रखना। लेकिन तुम चुन सकते हो अब। अब तुम नृत्य कर सकते हो और सारा संसार तुम्हारे साथ नृत्य करता है।

पतंजलि के ये सूत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं:



 जब योगी सुनिश्चित रूप से अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है तब जो उसके सान्निध्य में आते हैं वे सब शत्रुता छोड़ देते हैं।



 बहुत सी बातो की ओर संकेत है। पहली तो बात, भारत में हमने कभी 'प्रेम' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। हम सदा अहिंसा शब्द का प्रयोग करते हैं—अहिसाप्रतिष्ठाया। जीसस 'प्रेम' शब्द का प्रयोग करते हैं, महावीर, पतंजलि, बुद्ध, वे कभी 'प्रेम' शब्द का प्रयोग नहीं करते, वे ' अहिंसा' शब्द का प्रयोग करते हैं। क्यों? 'प्रेम' बेहतर शब्द मालूम पड़ता है, ज्यादा विधायक, ज्यादा काव्यात्मक।अहिंसा' शब्द काव्यात्मक नहीं है, नकारात्मक है। लेकिन उसमें कुछ सार है। जब तुम कहते हो 'प्रेम', तो उसमें एक सूक्ष्म हिंसा है। जब मैं कहता हूं 'मैं तुम से प्रेम करता हूं, तब मैं अपने केंद्र से सरक चुका होता हूं तुम्हारी ओर। वह हिंसा प्रीतिकर लगती है, तो भी है तो हिंसा ही। पतंजलि कहते हैं, 'अहिंसा।यह एक नकारात्मक अवस्था है, एक क्रिया—शून्य अवस्था। मैं इतना ही कहता हूं : 'मैं तुम्हें चोट न पहुंचाऊंगा', बस इतना ही।

प्रेम कहता, 'मैं तुम्हें सुखी करूंगा', जो कि असंभव है। कौन किसे सुखी कर सकता है? प्रेम आश्वासन देता है। सारे आश्वासन झूठे सिद्ध होते हैं। कैसे तुम किसी को सुखी कर सकते हो? यदि हर कोई स्वयं के लिए जिम्मेवार है, तो यह सोचना भी कैसे संभव है कि तुम किसी को सुखी कर सकते हो? जब मैं कहता हूं 'मैं तुम को प्रेम करता हूं,, तो मैं बहुत आश्वासन निर्मित कर रहा हूं मैं तुम्हें बहुत सब्ज—बाग दिखा रहा हूं मैं तुम्हें सपने दे रहा हूं।

नहीं, पतंजलि उस शब्द का उपयोग नहीं करेंगे, क्योंकि गहरे में तो यही कहा जा रहा होता है, 'मैं तुम्हें सुख दूंगा। मेरे निकट आओ; मेरे करीब आओ। मैं तैयार हूं तुम्हें सुखी करने को'—जो

अएसंभव है। कोई किसी को सुखी नहीं कर सकता है। ज्यादा से ज्यादा मैं इतना ही कह सकता हूं 'मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा।उतनी बात मेरे सामर्थ्य में है कि मैं चोट न पहुंचाऊं। लेकिन मैं कैसे कह सकता हूं कि 'मैं तुम्हें सुखी करूंगा!'

इसीलिए प्रेम में विषाद होता है। प्रेमी परस्पर आश्वासन देते हैं—जाने, अनजाने—सुंदर सपने, स्वर्ग के आश्वासन देते हैं; और प्रत्येक राह देख रहा होता है आश्वासनों के पूरे होने की, और फिर कोई आश्वासन कभी पूरा नहीं होता। कोई सुखी नहीं कर सकता तुम्हें—सिवाय तुम्हारे। जब तुम प्रेम में पड़ते हो, तो पुरुष सोच रहा होता है कि स्त्री उसे एक सुंदर जीवन, एक सम्मोहक, एक अदभुत संसार देगी; और स्त्री भी सोच रही होती है कि पुरुष उसे परम स्वर्ग में ले जाएगा।

लेकिन कोई किसी को कहीं नहीं ले जा सकता। इसीलिए प्रेमी विषाद अनुभव करते हैं; आश्वासन झूठा निकलता है। ऐसा नहीं है कि वे धोखा दे रहे होते हैं एक—दूसरे को, वे स्वयं ही धोखे में होते हैं। ऐसा नहीं है कि वे जान—बूझ कर धोखा दे रहे थे एक—दूसरे को, उन्हें पता नहीं था, उन्हें होश नहीं था कि वे क्या कर रहे हैं।

महावीर, बुद्ध, पतंजलि—वे एक अकाव्यात्मक शब्द का प्रयोग करते हैं।

हालाकि यह अच्छा नहीं लगता है, यह नकारात्मक है। वे कहते हैं, 'हिंसा नहीं' —बस इतना ही! 'मैं तुम्हें चोट नहीं पहुचाऊंगा'—इतनी बात पूरी की जा सकती है। फिर भी कोई पक्की गारंटी नहीं है कि तुम चोट अनुभव नहीं करोगे।मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा,' बस इतना ही; फिर भी कोई पक्का नहीं है कि तुम चोट अनुभव नहीं करोगे। अभी भी तुम चोट अनुभव कर सकते हो, क्योंकि तुम निर्मित करते हो अपने घाव, तुम निर्मित करते हो अपनी पीड़ा।मैं उसमें सहयोगी न होऊंगा,' बस इतना ही कह सकते हैं पतंजलि, 'मेरा उसमें कोई हाथ न होगा। मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा।’ 'जब योगी सुनिश्चित रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है—अहिसा के इस दृष्टिकोण में कि वह किसी को चोट न पहुंचाएगा—तब जो उसके सान्निध्य में आते हैं, वे सब शत्रुता छोड़ देते हैं।

ऐसा आदमी जो किसी भी प्रकार से हिंसा का विचार नहीं करता, कल्पना नहीं करता—चेतन, अचेतन जिसकी कोई इच्छा नहीं रहती किसी को चोट पहुंचाने की—उसके सान्निध्य में शत्रुता का त्याग घटित होता है।

लेकिन इससे पहले कि तुम यह निष्कर्ष बनाओ और बहुत से प्रश्न खड़े हो जाते हैं। जीसस को सूली दी गई; शत्रुता का भाव नहीं छोड़ा गया! इसलिए अगर तुम जैनों से पूछो, तो वे नहीं कहेंगे कि जीसस बुद्धत्व को उपलब्ध थे, क्योंकि लोगों ने उनको सूली दी। लेकिन यही तो हुआ महावीर के साथ। उनके बुद्धत्व के बाद उनको पत्थर मारे गए। यही हुआ बुद्ध के साथ—हा, उन्हें सूली नहीं दी गई, लेकिन पत्थर मारे गए, अपमानित किया गया। लोगों ने बहुत कोशिशें कीं उन्हें मार डालने की। तो कैसे समझाएं इसे? जैन और बौद्ध—उनके पास इसके लिए व्याख्याएं हैं। जब जीसस की बात आती है, तो वे कह देते हैं कि वे बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं थे—सीधी व्याख्या कर देते हैं, बात समाप्त हो जाती है। लेकिन यदि महावीर की बात आ जाए तो वे कहते हैं कि महावीर अपने पिछले जन्मों का लेन—देन पूरा कर रहे हैं।

दोनों बातें गलत हैं। दोनों गलत हैं, क्योंकि जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो वह अपने सारे लेन—देन पूरे कर चुका होता है। उसने सभी कर्म समाप्त कर दिए होते हैं; अब कहीं कुछ शेष नहीं रहता। फिर भी घटनाएं हैं. जीसस को सूली दी गई; सुकरात को जहर पिलाया गया; अलहिल्लाज मंसूर की हत्या की गई, बहुत ही क्रूरता से हत्या की गई; महावीर को पत्थर मारे गए, अपमानित किया गया, गौवों के बाहर खदेड़ा गया; बुद्ध को बहुत बार मार डालने की कोशिशें की गईं। तो फिर पतंजलि के इस सूत्र की व्याख्या कैसे हो? यदि यह सूत्र सत्य है तो ये सब घटनाएं नहीं घटनी चाहिए। यदि ऐसी घटनाएं घटती हैं तो केवल दो संभावनाएं हैं. या तो ये सब—अलहिल्लाज मंसूर, जीसस, महावीर, बुद्ध—ये सब बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हैं, सच में प्रतिष्ठित नहीं हैं अहिंसा में, या फिर नियम के बाहर कुछ अपवाद हैं।

कुछ अपवाद हैं। वस्तुत:, जब भी कोई व्यक्ति अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है तो समस्त जीवन—सिवाय मनुष्य के—उसके प्रति बिलकुल अहिंसक हो जाता है। मनुष्य एक विकृत प्राणी है। दर्पण स्वच्छ नहीं है। मनुष्य को छोड़ कर समस्त जीवन... वृक्ष अहिंसक होते हैं बुद्ध पुरुष के प्रति, पशु अहिंसक होते हैं।

ऐसा हुआ कि बुद्ध का एक चचेरा भाई, जो बहुत गहरी ईर्ष्या का भाव रखता था उनके प्रति. व्यर्थ ही, क्योंकि बुद्ध तो किसी के प्रतिद्वंद्वी नहीं थे। लेकिन वह लगातार सोचता रहता, 'बुद्ध कितने महान हो गए हैं और मैं पीछे छूट गया हूं। मैं कुछ भी नहीं, कोई हस्ती नहीं मेरी।उसने हर ढंग से कोशिश की कुछ शिष्य इकट्ठे कर लेने की और स्वयं को घोषित कर दिया कि मैं बुद्ध हूं लेकिन कोई उसकी सुनता न था। निश्चित ही कुछ बुद्ध जरूर इकट्ठे हो गए थे। आखिर वह बुद्ध के बहुत खिलाफ हो गया; उसने उन्हें मार डालने की कोशिश की।

कहा जाता है कि बुद्ध एक पहाड़ी के निकट वृक्ष के नीचे बैठे ध्यान कर रहे थे, और देवदत्त, बुद्ध के चचेरे भाई ने एक बड़ी चट्टान लुढ़का दी पहाड़ी से। पूरी संभावना थी कि बुद्ध कुचल जाते। लेकिन न जाने कैसे चट्टान ने अपनी राह बदल ली, बुद्ध अछूते ही बैठे रहे। किसी ने पूछा, 'क्या हुआ?' बुद्ध ने कहा, 'एक चट्टान ज्यादा संवेदनशील है देवदत्त से, मेरे भाई से; चट्टान ने अपना मार्ग बदल दिया।

फिर देवदत्त ने एक पागल हाथी बुद्ध के पीछे छुड़वा दिया। वह हाथी पागल था; वह तेजी से दौड़ता हुआ आया। शिष्य भागे बचने के लिए, वे सब कुछ भूल— भाल गए, और बुद्ध मौन—शात बैठे रहे वृक्ष के नीचे। वह हाथी पास आया, फिर कुछ हुआ—वह बुद्ध के चरणों में झुक गया। लोग बुद्ध से पूछने लगे, 'क्या हुआ?' उन्होंने कहा, 'एक पागल हाथी भी उतना पागल नहीं है जितना देवदत्त। इस पागल हाथी में भी थोड़ी समझ शेष है।

जो प्रसिद्ध मनस्विद मनुष्य के मस्तिष्क पर काम कर रहे हैं और गहरी खोज कर रहे हैं उनमें से एक है देलगादो। उसने इलेक्ट्रोड्स को लेकर एक प्रयोग किया है। कुछ ऐसा ही हुआ होगा जब हाथी ठहर गया और झुक गया। देलगादो ने एक बैल के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड्स लगा दिए। उन इलेक्ट्रोड्स को रेडियो, वायरलेस द्वारा दूर से संचालित किया जा सकता था। हजारों लोग इकट्ठे हुए थे देखने के लिए। उसने दबाया बटन और मस्तिष्क का वह केंद्र सक्रिय हो गया जहां से क्रोध उठता था : बैल क्रोध से पागल हो गया। वह क्रोध से भड़क उठा और दौड़ा देलगादो की ओर'। लोगों की

सांसें थम गईं, क्योंकि मौत सुनिश्चित थी। बस एक कदम की दूरी, देलगादो ने दूसरा बटन दबाया—और अचानक ही कुछ हुआ भीतर, और बैल रुक गया! बस एक कदम की दूरी, मौत एक कदम दूर थी।

देलगादो ने तो ऐसा किया विद्युत उपकरणों द्वारा, लेकिन ऐसा ही कुछ हुआ होगा. बुद्ध ने नहीं किया कुछ, लेकिन तो भी कुछ हुआ—स्व गहरी अहिंसा, एक सहज उगेरणा, कुछ हुआ हाथी के मस्तिष्क में। वह पागल न रहा; उसने समझा। कोई अनुभूति हुई उसको; वह रुक गया, झुक गया।

मनुष्यता अब सम्यक दर्पण नहीं रही है। मनुष्यता उतनी शुद्ध नहीं है जितनी कि अनुगूंज करती घाटियां। मनुष्यता विकृत हो गई है, इसलिए यह संभव नहीं है। मैं पिछले जन्मों को लेकर कोई व्याख्या नहीं खोजता। मैं कोई व्याख्या नहीं करता कि जीसस बुद्ध पुरुष नहीं थे। नहीं, असली बात यह है कि जीवन केवल तभी प्रतिबिंबित कर सकता है जब वह जीवंत हो। आदमी मुर्दा हो गया है। तुम्हारी संवेदनशीलता मर गई है। यदि तुम बुद्ध से मिलने भी आते हो, तो तुम्हें कुछ ज्यादा अनुभूति नहीं होती। तुम कहते हो. बुद्ध भी वैसे हैं जैसे कि कोई और आदमी।

निश्चित ही, हड्डियां वैसी ही हैं और चमड़ी वैसी ही है और शरीर वैसा ही है। परिधि पर सब कुछ वैसा ही है—लेकिन केंद्र पर, वह ज्योति कौन है? लेकिन तुम उसे केवल तभी अनुभव कर सकते हो, जब तुमने उसे अपने भीतर अनुभव किया हो। अन्यथा कैसे तुम उसको अनुभव कर सकते हो? तुम बुद्ध को केवल तभी पहचान सकते हो जब तुमने अपने बुद्धत्व को पहचान लिया हो। वहीं से बनता है सेतु। यदि तुमने अपने भीतर के बुद्धत्व को, अपने भीतर की भगवत्ता को नहीं पहचाना है, तो तुम्हारे लिए असंभव है बुद्ध को पहचानना, उनकी अहिंसा को पहचानना, यह पहचानना कि वे पार जा चुके हैं, वे अब तुम्हारे पागलपन का हिस्सा नहीं हैं।

इसीलिए महावीर को पत्थर मारे गए : उन लोगों ने महावीर को पत्थर मारे जो बिलकुल विकृत हो चुके थे। कोई प्राकृतिक नियम उनके साथ काम नहीं करता; अन्यथा नियम तो बिलकुल निश्चित है। यदि तुम शांत और मौन हो और तुम बुद्ध के पास आते हो, तो अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे भीतर एक बड़ा परिवर्तन घट रहा है। तुम कोई शत्रुता अनुभव नहीं कर सकते।

इसीलिए तो बुद्ध के पास आने में एक डर लगता है। उनसे दूर रह कर तुम शत्रुता का भाव रख सकते हो। यदि तुम उनके सामने आ जाते हो, तो बात कठिन हो जाती है—बहुत कठिन हो जाती है। अगर तुम उनके सान्निध्य में रहो, तो अगर तुम पागल भी हो, तो संभावना यही है कि उनकी मौजूदगी एक चुंबकीय शक्ति बन सकती है; संभावना यही है कि तुम अपने पागलपन के बावजूद परिवर्तित हो जाओ, रूपांतरित हो जाओ। इसीलिए लोग सदा बुद्ध पुरुषों से बचते रहे हैं—महावीर, पतंजलि, जीसस या लाओत्सु से बचते रहे हैं। वे उनके करीब नहीं आते। वे उनसे संबंधित अफवाहें इकट्ठी करते रहते हैं और उन अफवाहों में विश्वास करने लगते हैं, लेकिन वे पास नहीं आएंगे। वे यह देखने नहीं आएंगे कि क्या हो रहा है।

और फिर जब वे आते हैं, तो उन्होंने इतना कूड़ा—कचरा इकट्ठा कर लिया होता है, इतनी ज्यादा गंदगी घिर चुकी होती है उनके आस—पास, कि वे पहले से ही मुर्दा होते हैं। उनके इतने पूर्वाग्रह होते हैं कि उनका दर्पण अब काम ही नहीं करता। उनका दर्पण धूल से ढंका होता है। निश्चित ही एक

दर्पण प्रतिबिंबित करता है, लेकिन यदि वह धूल से ढंका हो तो तुम उसमें देखते रहो पर तुम्हारा चेहरा प्रतिबिंबित न होगा।

पशु, पेड़, पक्षी—उन्होंने भी महसूस किया। ऐसा कहा जाता है कि जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो बिना मौसम के फूल खिल उठे। और ऐसा केवल बुद्ध के साथ ही नहीं हुआ; ऐसा बहुत बार हुआ है। यह कोई कपोल—कल्पना नहीं है। वृक्ष इतना आह्रादित हो गया...! इसीलिए बौद्ध सुरक्षित रखे हुए हैं उस वृक्ष को, बोधि—वृक्ष को, जिसके नीचे बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। कुछ तरंगें उसने—वह साक्षी रहा है संसार की महानतम घटना का। केवल एक वही साक्षी बचा है। उसके पास असली इतिहास है, कि उस रात क्या घटित हुआ जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए।

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि बोधि—वृक्ष संसार का सर्वाधिक बुद्धिमान वृक्ष है। उसमें कुछ ऐसे रसायन हैं जो बुद्धि के लिए नितांत आवश्यक हैं, जिनके बिना बुद्धि का विकास नहीं हो सकता है। दूसरे अनेक वृक्ष हैं, लेकिन बोधि—वृक्ष के समान नहीं हैं। उसमें उन रासायनिक तत्वों की प्रचुर मात्रा है जो मस्तिष्क को बुद्धिमान बनाते हैं। शायद वह संसार का सर्वाधिक बुद्धिमान वृक्ष है। वह साक्षी रहा है बुद्ध के दूसरे ही आयाम में खिल उठने का। उसने अस्तित्व के उच्चतम शिखर— क्षण को जाना है।

लेकिन मनुष्य का दर्पण धूल से ढंक गया है—विश्वासो की धूल, विचारों की धूल, सिद्धांतो की धूल। अभी दो—तीन दिन पहले एक परिवार ने संन्यास लिया। परिवार के छोटे लड़के ने भी संन्यास लिया। मैंने उसे सर्वाधिक सुंदर नामों में से एक नाम दिया—स्वामी कृष्ण भारती। लेकिन वह बोला, 'नहीं, यह तो लड़कियों जैसा नाम है।कृष्ण! वह परिवार जैन है; वे कृष्ण के प्रति कोई भाव अनुभव नहीं करते। वह नाम लड़कियों जैसा लगता है। कृष्ण जरूर जैनियों को लड़कियों जैसे लगते होंगे—उनके वस्त्र पहनने का ढंग, उनका नृत्य, उनका चेहरा, लंबे बाल! यह तो अच्छा है कि वे पुराने दिनों में हुए। अगर वे अभी हुए होते तो किसी सरकार ने काट दिए होते उनके बाल। लंबे बालों और बांसुरी के साथ तो वे हिप्पी लगते। तो वह लड़का कहने लगा, 'यह नाम। लड़कियों जैसा है। मुझे कुछ और कहें, कोई और नाम दें।

अगर जैन आए कृष्ण से मिलने, तो वह नहीं पहचान पाएगा। अगर हिंदू मिले महावीर से, तो वह नहीं पहचान पाएगा। विश्वास, धारणाएं, ये सब तुम्हारे आस—पास इकट्ठी हो गई धूल हैं —तुम देख नहीं सकते ठीक से, तुम्हारी दृष्टि खो गई है। अगर तुम मुसलमान हो तो तुम गीता नहीं पढ़ सकते। अगर तुम हिंदू हो तो तुम कुरान नहीं पढ़ सकते—असंभव है—क्योंकि सदा तुम्हारा हिंदू होना बीच में आ जाएगा।

गांधी, जो कि कहा करते थे कि सभी धर्म समान हैं, उन्होंने भी कुरान के वही उद्धरण चुने जो बिलकुल अनुवाद लगते हैं—गीता के अनुवाद मालूम पड़ते हैं; बाकी उद्धरण उन्होंने छोड़ दिए। उन्होंने गीता पढ़ी और कुरान पढ़ी और वे अंश चुन लिए जो उनकी विचारधारा के साथ मेल खाते थे और फिर वे कहते हैं कि सब ठीक है। लेकिन उन्होंने असली अंश, जो विपरीत पड़ते हैं गीता के, जो कुरान को कुरान बनाते हैं, वे उन्होंने छोड़ दिए!

विश्वासों, विचारों, धारणाओं, सिद्धांतो से लदा मन पंगु होता है—गति क़े लिए मुक्त नहीं होता—बंद होता है, बंधन में होता है, गुलाम होता है। और बुद्ध को देखने के लिए, जानने के लिए

तुम्हें एक उन्‍मुक्त मन चाहिए—स्व निर्मल मन चाहिए—कोई बंधन नहीं, कोई पूर्वाग्रह नहीं; कोई विश्वास—धारणाएं उसे घेरे हुए न हों।

यह सूत्र बिलकुल ठीक है : 'जब योगी सुनिश्चित रूप से अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब जो उसके सान्निध्य में आते हैं, वे सब शत्रुता छोड़ देते हैं।

अचानक एक प्रेम उमड़ आता है—बिना किसी प्रकट कारण के। बस उनकी उपस्थिति काम करती है, उनके होने का ढंग ही ऐसा होता है कि तुम उनके ऊर्जा— क्षेत्र में प्रवेश करते हो, और तुम फिर वही नहीं रह जाते। इसीलिए ऐसे व्यक्तियों के सामने साधारण लोगों को तो सदा ऐसा ही लगता है कि वे किसी भांति सम्मोहित हो जाते हैं। कोई सम्मोहित नहीं कर रहा होता है तुम्हें, तो भी सम्मोहन घटता है। उनकी उपस्थिति ही शीतल होती है। उनकी उपस्थिति तुम्हें शात कर देती है; तुम्हारा भीतरी शोरगुल बंद हो जाता है उनकी मौजूदगी में। तुम अपने को पहले जैसा अनुभव नहीं करते; तुम अपने को बदला हुआ अनुभव करते हो। जब तुम वापस लौट आते हो अपने घर, फिर तुम वैसे ही हो जाते हो, पहले जैसे ही। तब तुम पीछे विचार करते हो कि तुम सम्मोहित हो गए थे या कि क्या हुआ था?

कोई सम्मोहित नहीं कर रहा है, तो भी ऐसा सदा लगता रहा है कि बुद्ध सम्मोहित करते हैं, जीसस सम्मोहित करते हैं। कोई नहीं सम्मोहित कर रहा है तुमको, लेकिन उनकी उपस्थिति ही इतनी शांति देने वाली होती है कि तुम नींद सी अनुभव करने लगते हो। तुम न जाने कब से ठीक से सोए नहीं हो, उनकी उपस्थिति तुम्हें शिथिल करती है, एक विश्राम देती है। उनके ऊर्जा— क्षेत्र की छांव में कुछ जो अप्रकट था प्रकट हो जाता है और जो प्रकट था पीछे चला जाता है। तुम वही नहीं रहते; तुम्हारा सारा ढंग बदल जाता है।

अगर तुम इस प्रक्रिया को समझ सको तो तुम हिंदुओं के शब्द 'सत्संग' को समझ सकते हो। बस, बुद्ध पुरुष की मौजूदगी में होना। किसी और चीज की जरूरत नहीं है। पश्चिम करीब—करीब असमर्थ है इसे समझने में कि केवल मौजूदगी ही काफी है। सत्संग का अर्थ है, जिसने सत्य को पाया है, उसकी मौजूदगी में रहना—उसके साथ होना, उसके ऊर्जा— क्षेत्र में होना, उसकी तरंगों को आत्मसात करना।

उस अंतिम रात्रि, जब जीसस अपने मित्रों से विदा ले रहे थे, उन्होंने रोटी के टुकड़े अपने शिष्यों को दिए और कहा, 'खाओ इसे; यह मैं हूं।ऐसा संभव है। जब जीसस जैसा व्यक्ति अपने हाथ में रोटी लेता है, तो वह रोटी फिर वही नहीं रहती; वह दिव्य हो जाती है। और जब जीसस कहते हैं, 'यह मैं हूं' तो उनका मतलब यही है। गुरु की मौजूदगी में होना उन्हें भोजन के रूप में ग्रहण करने जैसा ही है।

असल में पुराने हिंदू शास्त्र कहते हैं कि सदगुरु के साथ होना उसके गर्भ में, उसके अंतर्गर्भ में होना है। वह ऊर्जा— क्षेत्र गुरु का गर्भ होता है। और जब तुम उस गर्भ में होते हो, तब तुम बदलने लगते हो, परिवर्तित होने लगते हो, रूपांतरित होने लगते हो। एक नई अंतस सत्ता का जन्म होता है। गुरु के द्वारा व्यक्ति एक नए जन्म को उपलब्ध होता है—वह 'द्विज' हो जाता है। उसका दोबारा जन्म होता है। एक जन्म मिलता है माता—पिता से—वह है शरीर का जन्म। एक और जन्म मिलता है गुरु से—वह है आत्मा का जन्म।

बुद्ध के निकट होना, उनकी मौजूदगी में होना बुद्ध होने के मार्ग पर होना है। किसी और चीज की जरूरत नहीं होती। अगर तुम आत्मसात कर सको उस मौजूदगी को, अगर तुम उस मौजूदगी को अपने में प्रवेश होने दो, अगर तुम चेष्टाविहीन रह सको उस मौजूदगी में, उसे भीतर आने दो, ग्रहणशील रहो, तो सब कुछ अपने आप घटित होगा।

हिंदुओं के पास दो शब्द हैं। एक तो है 'सत्संग', जिसे समझना करीब—करीब असंभव है पश्चिमी लोगों के लिए क्योंकि 'वे कहते हैं कि कोई शिक्षा होनी चाहिए। हिंदू कहते हैं. मौजूदगी पर्याप्त है, किसी और शिक्षा की जरूरत नहीं है। दूसरा शब्द है 'दर्शन'। उसे समझना भी कठिन है : सदगुरु को देखना भर पर्याप्त है। दर्शन का अर्थ है : देखना।

पश्चिम से लोग आते हैं मेरे पास, वे बहुत से प्रश्न लेकर आते हैं। जब वे यहां कुछ दिन रह जाते हैं तो वे समझ जाते हैं; तब वे अनुभव करने लगते हैं कि प्रश्न व्यर्थ हैं। तब वे आते हैं और कहते हैं, 'मेरे पास कहने को, पूछने को कुछ नहीं है; बस यहां रहना है।उन्हें थोड़ा समय लगता है यह समझने में कि मेरे साथ होना ही पर्याप्त है।

प्रश्न लेकर आना एक बाधा लेकर आना है। प्रश्नों को साथ लाना, बाधाओं को साथ लाना है। बिना प्रश्नों के आना—कुछ पूछना नहीं, मात्र यहां होना—यह है बिना अवरोध, बिना किसी बाधा के आना। तब ऊर्जा बहती है, मिलती है, एक हो जाती है—तुम मेरे अंतर्गर्भ का हिस्सा बन सकते हो, मैं तुममें प्रवाहित हो सकता हूं। लेकिन यदि तुम्हारे पास प्रश्न हैं तो बुद्धि बीच में आ जाती है। जब तुम्हारे पास प्रश्न नहीं होते, तब तुम्हारी अंतस सत्ता उपलब्ध होती है; तुम खुले होते हो, ग्राहक होते हो, संवेदनशील होते हो।



 जब योगी सुनिश्चित रूप से सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है तब वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्त कर लेता है।



 यह और भी कठिन है। जब योगी सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है: 'सत्यप्रतिष्ठाया।तुम्हें शुरुआत से ही सजग रहना है कि जब पूरब के शास्त्र 'सत्य' कहते हैं, तो उनका अर्थ केवल सत्य बोलने से नहीं है। नहीं; सत्य में प्रतिष्ठित होने का अर्थ है : प्रामाणिक होना, स्वयं होना—झूठ का, नकलीपन का एक कण भी भीतर न रहे। निश्चित ही, ऐसा व्यक्ति सत्य ही बोलता है, लेकिन उसकी बात नहीं है। ऐसा व्यक्ति जीता है सत्य में—असली बात यह है।

पश्चिम में सत्य का अर्थ है सत्य बोलना, बस इतना ही। पूरब में इसका अर्थ है—सत्य होना। सत्य बोलना तो अपने आप चला आएगा, उसका सवाल नहीं है—वह छाया है—लेकिन सत्य में प्रतिष्ठित होने का अर्थ है पूरी तरह 'स्वयं' होना, कोई मुखौटा नहीं, कोई पर्सनैलिटी नहीं, बस तुम जैसे हो प्रामाणिक रूप से वैसे होना।

यह शब्द 'पर्सनैलिटी' बहुत अर्थपूर्ण है। यह आता है ग्रीक मूल 'पर्सोना' से। पर्सोना का अर्थ होता है मुखौटा। ग्रीक नाटक के कलाकार मुखौटे का उपयोग करते थे जिन्हें 'पर्सोना' कहा जाता था। वास्तविकता पीछे छिपी रहती है और पर्सोना ही लोगों के सामने आता है—चेहरे के रूप में।

तो बिना किसी ओढ़े हुए व्यक्तित्व के, बस अपने मौलिक स्वरूप में.. झेन गुरु कहते हैं : 'अपना चेहरा खोजो—अपना मौलिक चेहरा खोजो।यही है ध्यान का कुल अर्थ। वे अपने शिष्यों से कहते हैं, 'पीछे लौटो, और खोजो वह चेहरा जो तुम्हारे जन्म से पहले था। वही है सत्य।तुम्हारे जन्म से पहले! क्योंकि जैसे ही तुम पैदा होते हो, झूठ की शुरुआत हो जाती है। जिस क्षण तुम परिवार का हिस्सा बनते हो, तुम एक झूठ का हिस्सा हो गए। जिस क्षण तुम समाज का हिस्सा बनते हो, तुम एक ज्यादा बड़े झूठ का हिस्सा हो गए। सारे समाज झूठ हैं—सुंदर ढंग से सजे हैं, पर झूठ हैं। तुम्हें खोज लेना है वह चेहरा जो तुम्हारे पास इस संसार में आने से पहले था—वह मौलिक कुंआरापन।

तुम्हें पीछे लौटना है, भीतर जाना है। अपने केंद्र तक पहुंचना है, अपनी अंतस सत्ता तक आना है, जिसके पार जाने की फिर कोई संभावना नहीं रह जाती है। हर चीज को हटाते जाना है : तुम शरीर नहीं हो, शरीर बदलता रहता है; तुम मन नहीं हो, मन एक सतत प्रवाह है—विचार, विचार और विचार—स्व प्रवाह। तुम भावनाएं नहीं हो, वे आती हैं और चली जाती हैं। तुम तो वह हो जो सदा रहता है और देखता रहता है। शरीर आता है और जाता है; मन आता है और जाता है। वह जो सदा मौजूद रहता है पीछे छिपा, वही है सत्य। वही होने का अर्थ है : सत्यप्रतिष्ठाया—वह जो सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है।

'वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्त कर लेता है।

यहां तुम लाओत्सु की बात समझ सकते हो : अगर तुम अपने आंतरिक सत्य में प्रतिष्ठित हो जाते हो तो तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं रह जाती, चीजें अपने आप घटती हैं। ऐसा नहीं है कि तुम बस लेटे रहते हो अपने बिस्तर पर और सोए रहते हो; नहीं। लेकिन तुम कर्ता नहीं रहते। तुम सब कुछ करते हो, लेकिन तुम कर्ता नहीं रहते। अस्तित्व ही तुम्हारे माध्यम से करता है। तुम अस्तित्व को उपलब्ध हो जाते हो, एक माध्यम हो जाते हो। जिसे कृष्ण कहते हैं 'निमित्त' : समग्र के निमित्त मात्र हो जाते हो—वह प्रवाहित होता है तुमसे और काम करता है। तुम्हें परिणाम की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं; तुम्हें कोई योजना बनाने की चिंता करने की जरूरत नहीं। तुम जीते हो क्षण में, वर्तमान में, और संपूर्ण अस्तित्व तुम्हारा ध्यान रखता है और सब कुछ ठीक ही होता है।

एक बार तुम अपनी अंतस सत्ता में प्रतिष्ठित हो जाते हो, तो तुम संपूर्ण अस्तित्व में प्रतिष्ठित हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारी अंतस सत्ता समग्र अस्तित्व का एक हिस्सा है। तुम्हारा चेहरा समाज का हिस्सा है और तुम्हारा व्यक्तित्व संसार का हिस्सा है; तुम्हारी अंतस सत्ता समग्र अस्तित्व का हिस्सा है। अपने आत्यंतिक केंद्र में तुम परमात्मा हो। सतह पर तुम चोर हो सकते हो, सतह पर तुम साधु हो सकते हो; भले आदमी हो सकते हो, बुरे आदमी हो सकते हो; अपराधी हो सकते हो, जज हो सकते हो—हजारों तरह के नाटक, खेल—लेकिन गहरे में तुम परमात्मा हो। जब तुम उस भगवत्ता में स्थित हो जाते हो, तो समग्र अस्तित्व तुम्हारे द्वारा काम करने लगता है।

क्या तुम देखते नहीं? किसी पेडू को कोई चिंता नहीं होती फूलों की, वे बस खिलते हैं। किसी नदी को फिक्र नहीं होती सागर तक पहुंचने की, वह कभी पागल नहीं होती और कभी किसी मनस्विद के पास नहीं जाती सलाह—मशविरा करने के लिए। वह बस सहज रूप से पहुंच जाती है सागर तक। तारे घूम रहे हैं। हर चीज चल रही है इतने सहज रूप से, कहीं कोई गड़बड़ी नहीं होती और कभी

कोई भटकता नहीं। केवल आदमी ही चिंताओं का इतना बोझ ढोए रहता है : कि क्या करे, क्या न करे; क्या अच्छा है और क्या बुरा है; मंजिल तक कैसे पहुंचें, प्रतियोगिता में कैसे सफल हों—दूसरों को पहुंचने से कैसे रोकें और सबसे पहले कैसे पहुंचें—कैसे कुछ हो जाएं! बुद्ध ने इसे कहा है तन्हा का रोग, तृष्णा का रोग।

जो सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है उसका होना हो ही गया। अब कोई रोग नहीं बच रहता कुछ होने का; वह हो गया जो होना था। कुछ होने की कोशिश है रोग; अपने में होना है स्वास्थ्य। और अंतस सत्ता अभी इसी क्षण उपलब्ध है अगर तुम भीतर मुड़ जाओ। भीतर देखने भर की बात है।

मैंने एक झेन फकीर के बारे में सुना है। बुद्धत्व को उपलब्ध होने के पहले वह सरकारी दफ्तर में एक छोटा—मोटा अफसर था। वह अपने गुरु के पास आया और वह भिक्षु हो जाना चाहता था, वह त्याग देना चाहता था संसार को। गुरु ने कहा, 'इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अंतस सत्ता को कहीं भी रह कर पाया जा सकता है। आश्रम में आने की कोई जरूरत नहीं। वहीं रह कर बुद्धत्व उपलब्ध हो सकता है जहां तुम हो। वहीं रहो, वहीं उसको घटित होने दो।

वह ध्यान करने लगा, और यही ध्यान था—मौन बैठना, कुछ न करना। विचार आते और चले जाते। वह बस देखता रहता, न निंदा करता, न प्रशंसा करता—कोई मूल्यांकन नहीं—केवल देखता रहता उन्हें निर्लिप्त, तटस्थ।

वर्षों बीत गए। एक दिन वह अपने आफिस में बैठा था, कुछ आफिस का काम कर रहा था। अचानक—बरसात के दिन थे—जोर से बिजली कडूकी और एक झटका लगा उसे, और वह अपने अंतरतम केंद्र में उतर गया : और वह हंसने लगा। और ऐसा कहा जाता है कि फिर उसने कभी बंद नहीं किया हंसना। वह हंसते हुए गया गुरु के पास और उसने कहा, 'बादलों का अचानक गरजना और मैं जाग गया। मैंने भीतर देखा और वह सनातन पुरुष भीतर वहा विराजमान था। खोजता था जन्मों—जन्मों से जिसे, वह भीतर ही बैठा था शांत और तृप्त!'

बादलों का अचानक गरजना। अगर तुम तैयार हो तो कोई भी चीज बहाना बन सकती है। गुरु की एक पुकार, गुरु की एक चोट, गुरु की एक दृष्टि—बादलों का अचानक गरजना—और कुछ हो जाता है।. तुम वही हो जिसे तुम खोजते रहे हो। भीतर मुड़ कर देखने भर की बात है। तुम अपने आत्यंतिक केंद्र में स्थित हो जाते हो। और फिर तुम समग्र के माध्यम हो जाते हो, समग्र तुमसे होकर बहता है—और समग्र के माध्यम हो जाना ही सब कुछ है। फिर और कुछ नहीं बचता। तब तुम्हारी नदी बहती है सागर की ओर, तुम्हारे वृक्ष पर वसंत आ जाता है, फूल खिलने लगते हैं।

'जब योगी सुनिश्चित रूप से सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्त कर लेता है।

तब करने को कुछ नहीं बचता; हर चीज घटती है। ऐसा नहीं कि तुम कुछ करते नहीं—ध्यान रहे इस बात का—समग्र अस्तित्व तुम्हारे माध्यम से करता है; तुम करने वाले नहीं होते।



 जब योगी सुनिश्चित रूप से अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है तब आंतरिक समृद्धियां स्वयं उदित होती हैं।



तुम सदा ही खजानों की खोज में रहे हो और वे कहीं मिलते नहीं, और वे मृग—मरीचिकाए सिद्ध होते हैं, और वे दूर दिखते हैं और लंबी यात्राओं के बाद जब तुम वहां पहुंचते हो तो वे ओझल हो जाते हैं—क्योंकि असली खजाना तो तुम्हारे भीतर छिपा है। वह तुम स्वयं हो! और कोई खजाना नहीं है, तुम्हीं हो खजाना।

जब कोई अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है. 'अस्तेयप्रतिष्ठाया।अस्तेय शब्द का ठीक—ठीक अर्थ है—अचौर्य। इस बात को ठीक से समझ लेना है। ईमानदारी शब्द वही अर्थ नहीं रखता। निश्चित ही ईमानदारी एक हिस्सा है अचौर्य का, बहुत से हिस्सों में एक हिस्सा, लेकिन अचौर्य बड़ी अलग बात है। तुम शायद चोर नहीं हो, लेकिन अगर तुम्हें दूसरों की संपत्ति देख कर ईर्ष्या होती है तो तुम चोर हो। अगर एक कार गुजरी करीब से और ईर्ष्या पकड़ गई या महत्वाकांक्षा उठ खड़ी हुई, इच्छा उत्पन्न हो गई कार पाने की—तो चोरी हो गई। कोई अदालत तुम्हें नहीं पकड़ सकती, लेकिन उस परम अस्तित्व की अदालत में तुम चोर हो गए; चोरी हो गई।

अचौर्य का अर्थ है. इच्छारहित मन। क्योंकि इच्छाओं के रहते कैसे तुम अ—चोर हो सकते हो? मन और— और चीजों पर मालकियत करने की कोशिश करता है—और जब भी तुम मालकियत जमाना चाहते तो तुम्हें उसे छीनना होता है किसी दूसरे से। यह चोरी है। तुमने वस्तुत: न भी की हो, लेकिन मन तो कर ही चुका होता है चोरी। अचौर्य का अर्थ है वह मन जो ईर्ष्यालु नहीं है, जो प्रतियोगी नहीं है। और फिर एक बड़ी क्रांति घटती है जब यह अचौर्य आ जाता है तुम्हारे अंतस में, तो अचानक तुम अपने खजाने में उतर जाते हो। क्योंकि जब तुम चोर होते हों—प्रतियोगी, महत्वाकांक्षी, ईर्ष्यालु—तो तुम सदा दूसरों के खजानों की तरफ देख रहे होते हो। और तुम अपना खजाना चूक रहे होते हो। दृष्टि सदा बाहर लगी रहती है और दूसरों के खजानों को देखती रहती है. कौन क्या—क्या लिए है, किस के पास क्या—क्या है। जब तुम और की दौड़ में पड़े होते हो तो तुम उसे चूक रहे होते हो जो तुम्हारे पास पहले से ही है। उसी ' और—और' के कारण तुम हमेशा दौड़ते रहते हो और कभी उस शांत भाव—दशा में नहीं होते जहां कि तुम अपनी अंतस सत्ता को आविष्कृत कर सकते हो।

तुम्हारा अपना खजाना एक सुनिश्चित भाव—दशा में ही पाया जा सकता है। और वह भाव—दशा तभी उपलब्ध होती है, जब तुम ईर्ष्यारहित होते हो, जब तुम इसकी फिक्र नहीं कर रहे होते कि दूसरों के पास क्या है। तुम बंद कर लेते हो अपनी आंखें, संसार कोई महत्व नहीं रखता; और की दौड़ अब कुछ अर्थ नहीं रखती : तब अंतस उदघाटित होता है। और दो तरह के लोग होते हैं. एक वे, जो रुचि रखते हैं ज्यादा इकट्ठा करने में; और दूसरे वे, जिन्हें रस है ज्यादा होने में। अगर तुम्हें और—और इकट्ठा करने में रस है—इकट्ठा करने का विषय चाहे कुछ भी हो, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता—तुम धन इकट्ठा किए जा सकते हो, तुम ज्ञान इकट्ठा किए जा सकते हो, तुम मान—सम्मान इकट्ठा किए जा सकते हो, तुम कुछ भी इकट्ठा किए जा सकते हो, लेकिन यदि तुम्हें इकट्ठा करने में रस है, तो तुम चूक जाओगे। क्योंकि इकट्ठा करने के इस निरंतर प्रयास की कोई जरूरत नहीं है, तुम्हारे पास भीतर मौजूद ही है खजाना।

'जब योगी निश्चित रूप से अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब आंतरिक समृद्धियां स्वयं उदित होती हैं।

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठाया वीर्यलाभ:।

जब योगी निश्चल रूप से ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित हो जाता है तब तेजस्विता की उपलब्धि होती है।



 संस्कृत से अनुवाद करना करीब—करीब असंभव ही है। सदियों —सदियों के परिष्कार से, सदियों—सदियों की आध्यात्मिक खोज से, ध्यान से संस्कृत ने एक सुगंध उपलब्ध की है जो किसी और भाषा के पास नहीं है। उदाहरण के लिए, इस 'ब्रह्मचर्य' शब्द का अनुवाद करना असंभव है। शाब्दिक रूप से तो इसका अर्थ है : ब्रह्म जैसी चर्या, परमात्मा जैसा आचरण, परमात्मा की भांति होना। लेकिन साधारणतया इसका अनुवाद किया जाता है : 'काम—निरोध।और दोनों में बहुत बड़ा अंतर है—ब्रह्मचर्य केवल काम—निरोध नहीं है। इसे ठीक से समझ लेना. तुम कामवासना पर रोक लगा सकते हो और हो सकता है तुम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होओ, लेकिन यदि तुम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते हो तो तुम्हारी कामवासना अपने आप खो जाती है।

काम—निरोध दमन है, तुम दमन करते हो अपनी काम—ऊर्जा का। और वह दमन कभी रूपांतरण की दिशा में नहीं ले जाता। लेकिन ऐसी विधियां हैं जिनके द्वारा तुम्हारा ब्रह्मरूप तुम्हारे सामने उदघाटित हो जाता है : अचानक कामवासना खो जाती है। ऐसा नहीं कि उसका दमन हो जाता है। उस भगवत्ता में ऊर्जा बिलकुल अलग ही रूप ले लेती है। तुम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते हो बिना किसी प्रयास के; अगर कोई प्रयास हो तो दमन हो जाएगा। कामवासना का खो जाना परिणाम है ब्रह्मचर्य का। तो कैसे हों ब्रह्मचर्य को उपलब्ध?

'जब योगी निश्चल रूप से ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित हो जाता है...।

अगर तुम निश्चित रूप से प्रतिष्ठित हो अहिंसा में, अगर तुम निश्चित रूप से प्रतिष्ठित हो सत्य में, अगर तुम निश्चित रूप से प्रतिष्ठित हो अचौर्य में, तो बहुत सहज होता है परमात्मा की भांति होना, ब्रह्म जैसी चर्या। तुम ही परमात्मा होते हो। जब तुम दूसरों को कोई चोट नहीं पहुंचा रहे होते हो, तुम कोई जंजीरें नहीं बना रहे होते हो; तुम अपने बंधन काट रहे होते हो, तुम मुक्त हो रहे होते हो, जब तुम कोई दिखावा करने की कोशिश नहीं कर रहे होते हो और तुम प्रामाणिक होते हो, जब तुम अपने को मुखौटों में छिपाने की कोशिश नहीं कर रहे होते हो—तुम सच्चे होते हो अपने आत्यंतिक प्राणों तक—तो काम—ऊर्जा रूपांतरित होने लगती है।

क्या तुमने खयाल किया कि जब तुम हिंसक होते हो तो ज्यादा काम—ऊर्जा अनुभव होती है? असल में पति—पत्नी भली— भाति जानते हैं कि जब वे लड़ते—झगड़ते हैं, तो उस रात वे बहुत प्रेम कर सकते हैं। क्यों होता है ऐसा? हिंसा कामवासना पैदा करती है। जितना ज्यादा हिंसक होता है व्यक्ति, उतना ज्यादा वह कामुक होता है। अहिंसा काम—ऊर्जा को रूपांतरित करती है। यदि तुम कोशिश में हो कि किसी को चोट न पहुंचे, अगर तुम्हें किसी को चोट पहुंचाने में कोई रस नहीं है, अगर तुम में गहन प्रेम है, स्नेह है, करुणा है दूसरों के लिए, तो तुम पाओगे कि तुम्हारी कामवासना कम हो रही है।

कामवासना एक खास वातावरण में ही रह सकती है. क्रोध, हिंसा, घृणा, ईर्ष्या, प्रतियोगिता) महत्वाकांक्षा—ये तमाम बातें मौजूद हों तो इनके साथ कामवासना बनी रहती है। अगर तुम दूसरी बातो को छोड़ देते हो, तो धीरे— धीरे तुम पाओगे कि कामवासना ने —बल खो दिया है; वह स्नेह बन गई है, प्रेम बन गई है, करुणा बन गई है—वही ऊर्जा ऊपर उठने लगी, ज्यादा ऊंचे तल पर पहुंचने लगी।

कामवासना के दमन से कोई ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। अगर तुम जाओ और देखो उन लोगों को जिन्होंने अपनी कामवासना को दबाया है, तो तुम पाओगे कि वे ज्यादा क्रोधी हो गए हैं, वे ज्यादा हिंसक हो गए हैं। इसीलिए मनुष्य का सारा इतिहास बताता है कि सेनाओं को जबरदस्ती कामवासना के दमन में रखा गया। क्योंकि जब सैनिकों को जबरदस्ती कामवासना के दमन में रखा जाता है, तो वे ज्यादा हिंसक हो जाते हैं : वह ऊर्जा जो कामवासना में निर्मुक्त हो सकती थी, वह निर्मुक्त नहीं होती। असल में मनस्विदों की खोज से पता चला है कि हिंसा और दमित काम—ऊर्जा के बीच एक गहरा संबंध है। सारे हिंसात्मक हथियार—चाकू या खंजर या तलवार—भोंके जाते हैं किसी के शरीर में. यह ऐसा ही है जैसे काम—ऊर्जा प्रविष्ट होती है स्त्री में। दूसरे का शरीर स्त्री बन जाता है और तुम्हारे हथियार लैंगिक प्रतीक बन जाते हैं। अब चाहे यह मशीनगन से निकली गोली हो और तुम दूर खड़े हो, लेकिन बात वही है। जब भी तुम्हारी काम—ऊर्जा का दमन होता है, तो तुम दूसरे तरीके और साधन खोज लेते हो कि दूसरों के शरीर में कैसे प्रविष्ट हों।

तो सैनिकों को प्रेमिकाएं साथ रखने की इजाजत नहीं है। केवल अमरीकी सेना में इजाजत है—वे हर जगह हारेंगे। वे संसार में कहीं ठीक से लड़ नहीं सकते। अमरीकी सैनिक युद्ध नहीं कर सकते। अगर तुम्हारी कामवासना तृप्त है, तो लड़ने की इच्छा मिट जाती है। वे दोनों बातें जुड़ी हुई हैं। इसलिए ऐसा होता है कि जब भी कोई संस्कृति बहुत विकसित हो जाती है तो वह सदा कम विकसित संस्कृति से हार जाती है। भारत हारा हूणों से, तुर्कों से, मुसलमानों से—वे सब बहुत अविकसित जगहों से आए और उन्होंने बहुत ज्यादा सभ्य, विकसित संस्कृति को हरा दिया। जब भी कोई संस्कृति बहुत ज्यादा विकसित हो जाती है तो वह बहुत तृप्त हो जाती है, संतुष्ट हो जाती है। हर चीज इतनी शांति से चल रही होती है तो फिर कौन युद्ध करना चाहेगा? और जो बाहर से आए, वे एकदम जंगली थे, खूंखार थे। बिलकुल असभ्य थे और यौन की दृष्टि से बहुत कुंठित थे। अगर तुम चाहते हो कि सेना बहुत अच्छी तरह लड़े, तो सैनिकों की कामवासना को कुंठित कर दो। फिर वे जी—जान से लड़ेंगे, क्योंकि तब लड़ना यौन का प्रतीक बन जाता है।

ऐसा अभी वियतनाम में हुआ। ऐसा नहीं है कि कम्युनिस्ट जीत गए और अमरीका हार गया, बात केवल यह है कि ज्यादा समृद्ध संस्कृति सदा हार जाती है। अविकसित संस्कृति या गरीब देश, हर ढंग से असंतुष्ट—यौन के लिहाज से बहुत दमन भरी अवस्था वाले—उनकी जीत होगी ही। जब भी एक गरीब देश लड़ता है किसी अमीर देश से, तो अमीर देश ही अंतत: हारेगा। तुम देखते हो. अगर कोई अमीर परिवार गरीब परिवार से लड़ता है, तो अमीर परिवार हारेगा। क्योंकि जब तुम समृद्ध होते हो, संतुष्ट होते हो, तो लड़ने का भाव नहीं रह जाता है; और लड़ाई में तुम कुछ खोने ही वाले हो, तो तुम लड़ना टालते हो। और गरीब के पास खोने को कुछ है नहीं—क्यों वह बचेगा लड़ाई से? असल में वह मजा लेता है लड़ाई का। उसके पास पाने को सब कुछ है, खोने को कुछ नहीं।

और ऐसा ही होता है व्यक्तियों के जीवन में। यदि तुम अहिंसक हो जाते हो, यदि तुम सत्य में स्थित हो जाते हो, यदि तुम अचौर्य में प्रतिष्ठित हो जाते हो, तो अचानक तुम पाते हो कि कामवासना का बल खो जाता है। अब वह पागल आवेश न रहा। तुम चाहो तो उसका सुख ले सकते हो, लेकिन

अब वह पागलपन नहीं रहता। वह ज्यादा सौम्य हो जाता है, और अंततः वह तिरोहित हो जाता है। और जब वह तिरोहित हो जाता है, तो वह ऊर्जा जो कामवासना में बंधी थी, निर्मुक्त हो जाती है। वह ऊर्जा तुम्हारा संचित ऊर्जा—कुंड बन जाती है।

इसीलिए पतंजलि कहते हैं, 'जब योगी निश्चल रूप से ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब तेजस्विता की उपलब्धि होती है।

अदभुत ऊर्जा उपलब्ध होती है। ऐसा नहीं कि तुम कोई बड़े खिलाड़ी बन जाते हो, या बड़े मुक्केबाज बन जाते हो; नहीं। उस ऊर्जा का आयाम पूरी तरह अलग होता है। वह ऊर्जा है असंघर्ष की। वह ऊर्जा इस संसार की नहीं है। वह ऊर्जा वस्तुत: पुरुष जैसी नहीं है, वह ऊर्जा स्त्रैण है। जो योगी इसको उपलब्ध हो जाते हैं, वे ज्यादा स्त्रैण हो जाते हैं। बुद्ध को देखो. उनका चेहरा, उनका शरीर—उसकी गोलाई, उसकी सुकोमलता—वह स्त्रैण जान पड़ती है।

हिंदुओं ने बिलकुल ठीक किया है—उन्होंने बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को या राम को कभी दाढ़ी—मूंछ सहित नहीं दिखाया; कभी नहीं। ऐसा नहीं है कि उनमें किसी तरह के हार्मोन्स की कमी थी और उनके दाढ़ी—मूंछ नहीं थी। उनकी दाढ़ी—मूंछ जरूर सुंदर रही होगी, लेकिन हिंदुओं ने वह भाव ही गिरा दिया। क्योंकि दाढ़ी—मूंछ के साथ तो वे पुरुष लगते, और उनकी अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए स्त्रैण भाव— भंगिमा चाहिए : बुद्ध के शरीर की वह गोलाई, वह सुकोमलता। और संगमरमर ने अदभुत रूप से मदद की, संगमरमर उसे एक स्त्रैण गुणवत्ता दे देता है।

नीत्से ने बुद्ध की और जीसस की आलोचना में उन्हें 'स्त्रैण' कहा है। उसकी आलोचना बिलकुल बेतुकी है, लेकिन उसने एक बात यह बिलकुल ठीक पकड़ी कि वे स्त्रैण हैं।

जब काम—ऊर्जा तिरोहित हो जाती है, तो वह कहां जाती है? वह बाहर नहीं जाती; वह भीतर एक कुंड बन जाती है। व्यक्ति सहज ही शक्ति और ऊर्जा से भरा हुआ अनुभव करता है। ऐसा नहीं कि वह उसका प्रयोग करता है और लड़ने लगता है। अब तो कोई भाव ही नहीं रह जाता लड़ने का। व्यक्ति इतना शक्तिशाली होता है कि वस्तुत: लड़ना संभव ही नहीं होता। केवल कमजोर व्यक्ति लड़ते हैं। जिन्हें अपनी शक्ति के प्रति आशंका होती है वे लड़ते हैं—यह प्रमाणित करने के लिए कि वे शक्तिशाली हैं। असल में शक्तिशाली व्यक्ति लड़ते ही नहीं। वे पूरी बात को खेल की भांति लेते हैं, बच्चों के खेल की भांति लेते हैं।



 जब योगी सुनिश्चित रूप से अपरिग्रह में प्रतिष्ठित हो जाता है तब अस्तित्व के 'कैसे' और 'कहां से' का ज्ञान उदित होता है।



 जब योगी अपरिग्रह में प्रतिष्ठित हो जाता है, जब वह अपने सिवाय किसी और चीज पर मालकियत नहीं रखता; वह सम्राट हो सकता है, वह महल में रह सकता है, लेकिन वह उस पर मालकियत नहीं रखता। अगर वह छिन जाए, तो एक हलकी सी तरंग भी न उठेगी उसके मन में।

एक महान योगी के विषय में एक कथा है; उसका नाम था जनक। भारत में उसे बहुत सम्मान से याद किया जाता रहा है सदियों से, और भारत ने उसकी भांति किसी और को इतना सम्मान कभी

नहीं दिया, क्योंकि एक ढंग से वह अनूठा है। बुद्ध ने अपना महल छोड़ा, राज्य छोड़ा; महावीर ने अपना महल और राज्य छोड़ा; जनक ने कभी कुछ नहीं छोड़ा। बुद्ध और महावीर तो हजारों हैं, पूरा इतिहास भरा पड़ा है उनसे—जनक अनूठे हैं। उन्होंने इस राह का अनुसरण नहीं किया। वे महल में रहे; वे सम्राट बने रहे।

ऐसा हुआ कि एक साधक युवक से उसके गुरु ने कहा, 'अब तुम जनक के पास जाओ। तुम्हारी अंतिम दीक्षा उनके द्वारा संपन्न होगी। जो कुछ मैं सिखा सकता था, मैंने तुमको सिखा दिया है, लेकिन मैं तो एक भिक्षु हूं। मैं कुछ जानता नहीं संसार के विषय में, मैंने उसे त्यागा हुआ है। तुम्हें जाना चाहिए उस आदमी के पास जो संसार के विषय में जानता है। यही तुम्हारी अंतिम दीक्षा होगी। इससे पहले कि तुम त्यागो, तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति से सब सीख लेना चाहिए जो संसार को ठीक से जानता हो। मैं उसे नहीं जानता, इसलिए तुम सम्राट जनक के पास जाओ।

शिष्य थोड़ा हिचकिचाया, क्योंकि वह तो सब छोड़ देने को तैयार ही बैठा था और उसे भरोसा भी नहीं होता था कि यह जनक प्रज्ञावान पुरुष हो सकता है। अगर वह प्रज्ञावान है, तो फिर क्यों वह महल में रह रहा है? साधारण तर्क की बात है उसे तो त्याग देना चाहिए सब कुछ। उसे किसी चीज पर मालकियत नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि यही मूलभूत बातो में से एक है—सादगी में जीना, अपरिग्रह में जीना, संयम में जीना। तब तो व्यक्ति इतना सरल हो जाता है, इतना सीधा—सादा हो जाता है, तो वह क्यों जी रहा है सम्राट की भांति?

लेकिन जब गुरु ने कहा, तो उसको जाना ही पड़ा। हिचकते हुए, अनिच्छा से वह पहुंचा वहा। शाम को वह पहुंचा; जनक ने उसे निमंत्रित किया दरबार में। बहुत राग—रंग भरा उत्सव चल रहा था वहा। सुंदर स्त्रियां नृत्य कर रही थीं, सुरा—सुंदरी का दौर चल रहा था, और करीब—करीब हर कोई नशे में चूर था। आश्रम से आए युवक को तो अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, और उसे अपने वृद्ध गुरु पर भी भरोसा नहीं आया कि क्यों उस नासमझ ने उसे यहां भेजा है! किस लिए?

वह इतना घबड़ा गया कि वह तुरंत ही वहा से लौट जाना चाहता था, लेकिन जनक ने कहा, 'यह तो अपमानजनक होगा। तुम आए हो तो कम से कम एक रात तो रुको, कल सुबह चले जाना। और तुम इतने अशात क्यों हो? थोड़ी देर आराम करो। सुबह हम बात करेंगे कि आप यहां किस काम से आए हैं।उस युवक ने कहा, 'अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं। मैंने अपनी आंखों से देख लिया है कि यहां क्या हो रहा है।

जनक हंस दिए। उस युवक की आवभगत की गई—अच्छा भोजन खिलाया गया, अच्छी मालिश और स्थान का इंतजाम किया गया, बहुत सुंदर कमरे में ठहराया गया, बहुत मूल्यवान आरामदायक पलंग दिया गया। वह बहुत थका हुआ था, जंगल के आश्रम से पैदल चल कर आया था राजधानी तक। जैसे ही वह बिस्तर पर लेटा, उसने देखा कि एक तलवार बहुत पतले धागे से बंधी ठीक उसके ऊपर लटक रही है। वह बहुत चकित हुआ कि आखिर इस सब का मतलब क्या है! और उसका इतनी अच्छी तरह स्वागत किया गया और अब ऐसा मजाक क्यों! वह सो न सका रात भर, लगातार भय बना रहा। न वह बिस्तर के आराम का आनंद ले सका, न वह महल का कोई सुख ले सका—तलवार लटकी थी उसके ठीक ऊपर।

      सुबह सम्राट ने पूछा, 'आप ठीक से सोए न?'

उसने कहा, 'कैसे सो सकता था मैं? आप कैसी उलटी—सुलटी बातें कर रहे हैं मुझसे? हर चीज बिलकुल ठीक थी, लेकिन वह जो पतले धागे से तलवार लटक रही थी—किसी भी क्षण गिर सकती थी। हवा का जरा सा झोंका, और मैं तो मारा जाता!'

सम्राट ने कहा, 'तो तुम आराम से सो नहीं पाए उस बिस्तर पर? वह तो हमारे महल का सर्वाधिक सुंदर पलंग है और वह कमरा जो मैंने तुमको दिया सर्वाधिक ऐश्वर्यपूर्ण है।

उसने कहा, 'मुझे याद भी नहीं रहा वह कमरा और वह पलंग। मैंने कभी इतनी तकलीफ नहीं झेली जितनी इस तलवार के कारण।

सम्राट ने कहा, 'तब तो बेहतर है कि तुम थोड़ा रुक जाओ। मैं यहां इस महल में हूं, लेकिन तलवार लटकी ही रहती है मुझ पर—मौत की तलवार। और धागा इससे भी ज्यादा बारीक है, और मैं किसी भी क्षण मर सकता हूं।

जब कोई व्यक्ति मृत्यु का स्मरण रखता है, तो वह कैसे मालिक हो सकता है किसी चीज का? यह राज्य है, महल है, लेकिन मृत्यु हर समय सामने है। तो कैसे कोई मालिक हो सकता है? जब मौत लटकी है सिर पर और तुम उसे याद रखते हो, तो तुम किसी चीज पर मालकियत नहीं करते। तब तुम जानते हो, 'मैं केवल अपना ही मालिक हो सकता हूं। बाकी हर चीज मौत छीन लेगी।

'जब योगी सुनिश्चित रूप से अपरिग्रह में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब अस्तित्व के 'कैसे' और 'कहां से' का ज्ञान उदित होता है।

जब कोई गैर—मालकियत की भाव—दशा में जीता है तो फिर ऊर्जा बाहर की तरफ नहीं जाती। वह बाहर जाती है मालकियत जमाने की इच्छा के कारण। जब तुम जान लेते हो कि किसी चीज पर मालकियत नहीं की जा सकती—तुम संसार में आते हो और चले जाते हो, तुम से पहले संसार मौजूद था, तुम्हारे बाद भी मौजूद रहेगा—किसी चीज पर मालकियत नहीं की जा सकती; मालकियत करने की धारणा ही मूढ़ता की बात है; जिस क्षण तुम इस बात के प्रति जाग जाते हो तो अचानक तुम्हारी पूरी ऊर्जा जो हजारों दिशाओं में बह रही थी संसार पर मालकियत जमाने के लिए, वह भीतर की तरफ बहने लगती है।

और पतंजलि कहते हैं, '... तब अस्तित्व के 'कैसे' और 'कहां से' का ज्ञान उदित होता है।

और तब तुम जान लेते हो कि तुम कहां से आए हो, तुम कौन हो। तब तुम जीवन के, अस्तित्व के मूल स्रोत का साक्षात्कार करते हो। तब तुम आमने—सामने होते हो उस स्रोत के, उस मौलिक स्रोत के। वह स्रोत है परमात्मा. वही है आदि और वही है अनादि—वही है अल्फा और वही है ओमेगा।


 आज इतना ही।

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