योग—सूत्र:
मूर्धज्योतिषि
सिद्धदर्शनम।।
33।।
सिर के
शीर्ष भाग के
नीचे की
ज्योति पर
संयम
केंद्रित
करने से समस्त
सिद्धों के
अस्तित्व से
जुड्ने की
क्षमता मिल
जाती है।
प्रातिभाद्वा
सर्वम्।। 34।।
प्रतिभा
के द्वारा
समस्त वस्तुओं
का बोध मिल
जाता है।
ह्रदये
चित्तसंवित्।।
35।।
ह्रदय
पर संयम संपन्न
करने से मन की
प्रकृति, उसके स्वभाव
के प्रति
जागरूकता आ
बनती है।
मनुष्य
एक क्रमिक
विकास है।
केवल ऐसा ही
नहीं है कि
मनुष्य
विकसित हो रहा
है, वह
विकास का माध्यम
भी है वह
स्वयं ही
विकास है।
आदमी के ऊपर
यह एक अदभुत
उत्तरदायित्व
है और इससे
आनंदित भी हुआ
जा सकता है, क्योंकि यही
तो मनुष्य का
गौरव और गरिमा
है। भौतिक
पदार्थ तो
प्रारंभिक
बात है, परमात्मा
अंत है— भौतिक
पदार्थ अल्फा
पाइंट
प्रारंभिक—तत्व
है, परमात्मा
ओमेगा पाइंट,
अंतिम शिखर
है। मनुष्य इन
दोनों के बीच
का सेतु है —
भौतिक पदार्थ
मनुष्य से
गुजरकर
परमात्मा में
रूपांतरित हो
जाता है।
परमात्मा कोई
वस्तु नहीं है
और ऐसा भी
नहीं है कि
परमात्मा
कहीं बैठकर
प्रतीक्षा कर
रहा है।
परमात्मा
हमसे ही विकसित
हो रहा है, परमात्मा
हमारे माध्यम
से ही
अस्तित्ववान
हो रहा है।
मनुष्य ही
पदार्थ को
परमात्मा में
रूपांतरित कर
रहा है।
मनुष्य
अस्तित्व का
महानतम प्रयोग
है। इसके गौरव
के बारे में 'सोचो और इसी
के साथ जुड़े
उत्तरदायित्व
पर ध्यान दो।
मनुष्य
के ऊपर बहुत
कुछ निर्भर है, लेकिन
अगर हम सोचते
हैं कि हम
परमात्मा ही
हैं, क्योंकि
हमारे पास
मनुष्य का
शरीर है —तो हम
अपने मन के
द्वारा गलत
निर्देशन में
जा रहे हैं।
मनुष्य के पास
केवल मानव
शरीर है; मनुष्य
केवल मात्र एक
संभावना है।
सत्य अभी घटित
नहीं हुआ है
सत्य अभी घटना
है— और हमें
सत्य को घटित
होने देना है।
हमें सत्य के
प्रति खुले
रहना है।
योग की
पूरी देशना
यही है कि
ऊर्ध्वगामी
होने के लिए, अपने से
पार जाने के
लिए क्या करना
है। ओमेगा —पाइंट,
शिखर —बिंदु
तक पहुंचने के
लिए कैसे
सहयोग करना है
जिससे कि
संपूर्ण
ऊर्जा
निर्मुक्त
होकर, रूपांतरित
हो जाए—पदार्थ
परमात्मा में,
दिव्यता
में
रूपांतरित हो
जाए। योग
मनुष्य की
पूरी की पूरी
अंतर्यात्रा
का, तीर्थयात्रा
का नक्शा है —काम
से समाधि तक
का, निम्नतर
तल मूलाधार से,
विकास की
परम ऊंचाई
सहस्रार तक का
नक्शा है।
इससे
पहले कि हम इन
सूत्रों में
प्रवेश करें, इन सबको
ठीक से समझ
लेना है। योग
ने मनुष्य को
सात पर्तों
में, सात
चरणों में, सात
केंद्रों में
विभक्त किया
है। पहला है
मूलाधार—काम —केंद्र
सूर्य —केंद्र;
अंतिम और
सातवां है
सहस्रार—परमात्मा
का केंद्र, ओमेगा पाइंट,
शिखर—बिंदु।
काम —केंद्र
मूलभूत रूप से
नीचे की ओर
गतिमान है।
इसका संबंध
भौतिक पदार्थ
के साथ है
जिसे योग
मनुष्य की
प्रकृति कहता
है, नेचर
कहता है।
प्रकृति के
साथ संबंध ही
काम—केंद्र है,
उस जगत के
साथ संबंध
जिसे पीछे छोड़
आए हैं, जो
अतीत हो चुका
है।
अगर
व्यक्ति काम
केंद्र पर ही
रुक जाता है, तो उसका
विकास नहीं हो
पाता।
व्यक्ति वहीं
रहेगा जहां कि
वह जन्म के
समय था। वह
अतीत से ही
बंधा रहेगा, तब उसका कोई
विकास नहीं हो
पाएगा, उसका
भविष्य से कोई
संपर्क नहीं
बन पाएगा। व्यक्ति
वहीं अटक कर
रह जाता है, अधिकांश लोग
काम केंद्र
में ही अटक कर
रह जाते हैं।
लोग
सोचते हैं कि
वे कामवासना
के बारे में
सब कुछ जानते
हैं। काम के
संबंध में वे
कुछ भी नहीं
जानते, कम से कम वे
तो कुछ भी
नहीं जानते
हैं जो समझते है
कि जानते हैं —जैसे
कि मनस्विद।
मनस्विद
समझते हैं कि
वे सेक्स के
बारे में सब
कुछ जानते हैं,
लेकिन
उन्हें सेक्स
के बारे में
आधारभूत
जानकारी भी
नहीं होती है।
मनुष्य की यह समझ
कि कामवासना
ऊर्ध्वगामी
प्रक्रिया भी
बन सकती है, ऐसी कोई
अनिवार्यता
नहीं है कि
उसे केवल नीचे
की ओर ही जाना
है। कामवासना
नीचे की ओर
जाती है, क्योंकि
नीचे की ओर
जाने का
कामवासना का
स्वभाव
मनुष्य के
रचनातंत्र
में है —पहले
से ही मनुष्य
की रचना में
है। पशु —पक्षी,
पेडू —पौधे
सभी में भी
ऐसा ही होता
है, इसमें
कोई विशेष बात
नहीं है कि
कामवासना केवल
मनुष्य में ही
है। विशेष और
महत्व की बात
यह है कि
मनुष्य में
कुछ और भी
अस्तित्व
रखता है जो कि
अभी तक पेड़ —पौधों
और पशु —पक्षियों
में नहीं है।
वे तो प्रकृति
की ओर से ही नीचे
की ओर सरकने
के लिए बंधे
ही हुए है, प्रकृति
की तरफ से ही
वे ऊपर की ओर
यात्रा नहीं
कर सकते हैं, उनके भीतर
कोई सीढ़ी या
सोपान नहीं
है।
मनुष्य
के भीतर जो
सात केंद्र
हैं, हम
उन सात
केंद्रों का
यही अर्थ करते
हैं विकस्स के
सोपान। यह सात
चक्र व्यक्ति
के भीतर हैं।
अगर व्यक्ति
चाहे तो अपनी
काम ऊर्जा को
ऊपर की ओर
गतिमान कर
सकता है —अगर
व्यक्ति चाहे
तो। अगर ऐसा
नहीं चाहे, तो वह काम
ऊर्जा के साथ
नीचे की ओर
सरक सकता है।
तो जब
मनुष्य मानव
शरीर धारण कर
लेता है, तो उसके
विकास की
प्रक्रिया अब
उसके हाथ में
है। अब तक
प्रकृति की ओर
से सहयोग
मिलता रहा।
प्रकृति हमें
इस बिंदु तक
ले आयी है, अब
यहां से आगे
का
उत्तरदायित्व
हमें स्वयं लेना
होगा। और हमें
उत्तरदायित्व
लेना ही होगा।
मनुष्य
परिपक्व हो
चुका है, मनुष्य
अब ऐसी जगह
पहुंच गया है कि
अब प्रकृति और
अधिक देखभाल
नहीं कर सकती
है। इसलिए अगर
हम होश से, बोध
से आगे नहीं
बढ़ते हैं, अगर
विकसित होने
के लिए सचेत
पूर्वक
प्रयास नहीं
करते हैं, अगर
हम अपने
उत्तरदायित्व
को स्वीकार
नहीं करते, तो हम जहां
हैं, वहीं
अटककर रह
जाएंगे, तब
मनुष्य से
परमात्मा तक
का कोई विकास
संभव नहीं है।
बहुत
से लोग हैं
जिन्हें इस
बात का बोध
होता है कि वे
जड़ हो गए हैं, कहीं अटक
कर रह गए हैं।
लेकिन उन्हें
मालूम ही नहीं
पड़ता है कि यह
अटकाव कहां से
आ रहा है। कितने
लोग मेरे पास
आते हैं और वे
मुझ से कहते
हैं कि उन्हें
एक तरह की जड़ता
का, अटकाव
का अनुभव हो
रहा है।
उन्हें ऐसा
कुछ महसूस भी
होता है कि
कुछ संभव है, लेकिन
उन्हें यह समझ
नहीं आता कि
क्या हो रहा है।
उन्हें लगता
है कि मनुष्य
जीवन पर ही
नहीं रुक जाना
है, आगे
बढ़ना है, लेकिन
उन्हें यह समझ
नहीं आता है
कि कैसे बढ़ना
है, और किस
ओर बढ़ना है।
वे जानते हैं
कि जिस जगह वे
हैं, बहुत
लंबे समय से
वहीं पर अटके
हुए हैं और वे
नए आयामों, नयी दिशाओं
में बढ़ना भी
चाहते हैं, लेकिन फिर
भी वे अटककर
ही रह जाते
हैं, उन्हें
कुछ समझ नहीं
आता है।
मनुष्य
के भीतर यह
अटकाव
मूलाधार
केंद्र से, काम —केंद्र
से, सूर्य
केंद्र से आता
है। अभी तक इस
तरह की कोई समस्या
न थी। यहां तक
प्रकृति
सहयोग कर रही
थी, अब तक
प्रकृति मां
की तरह
तुम्हें
सम्हाल रही थी।
लेकिन अब तुम
बड़े हो गए हो, अब तुम
बच्चे नहीं
हो। और अब ऐसा
नहीं हो सकता है
कि प्रकृति
तुम्हारा
खयाल रखे, तुम्हें
स्तन पान
कराती ही चली
जाए। अब मां
कहती है, 'स्तन
छोड़ो, अपने
से आगे बढ़ो।' मां ने तो
बहुत पहले ही
कह दिया था, जिन्होंने
इसे समझ लिया,
उन्होंने
अपना
उत्तरदायित्व
सम्हाल लिया और
वे सिद्ध हो
गए, बुद्ध
हो गए, उपलब्ध
हो गए। अब आगे
के मार्ग का
निर्णय हमको
स्वयं लेना होगा।
अब हमें अपने
से आगे बढ़ना
होगा। इसकी
पूरी की पूरी
संभावना
मूलाधार
केंद्र में
निहित है जो
ऊर्जा
मूलाधार
केंद्र से
नीचे की ओर
जाती है, अब
वही ऊर्जा ऊपर
की ओर भी जा
सकती है। तो
आज जो पहली
बात समझ लेने
की है वह यह है
कि तुम यह मत सोचना
कि तुम
कामवासना को उसकी
समग्रता में
जानते हो। तुम
कामवासना के बारे
में अ, ब, स भी नहीं
जानते हो।
मैंने
सुना है:
एक
आदमी अपने
बेटे को लेकर
एक स्कूल में
गया और वहां
जाकर उसने
अध्यापक से
कहा कि मेरा
बेटा
पक्षियों और
मधुमक्खियों
के बारे में
पूरी जानकारी
पाना चाहता
है।
अध्यापक
ने पूछा, 'क्या आपने
अपने बेटे को
काम —शिक्षण
के बारे में
कुछ बताया है।'
पिता
ने उत्तर दिया, 'ओह नहीं!
मेरा बेटा तो
काम विषयक सभी
बातें जानता
है। वह तो
पक्षियों और
कीट — पतंगों
के विषय में
जानना चाहता
है।'
लेकिन
मैं कहना
चाहूंगा कि
काम संबंधी
सभी बातें हम
अभी नहीं
जानते हैं। जब
तक कोई
व्यक्ति
परमात्मा को न
जान ले, तब तक
कामवासना के
संबंध में कुछ
भी नहीं जान सकता
है। क्योंकि
काम —ऊर्जा ही
रूपांतरित
होकर
परमात्मा बन
जाती है —काम —ऊर्जा
की चरम परिणति
परमात्मा है।
जब तक हम यह
नहीं जानते
हैं कि हम कौन
हैं, हम
नहीं जान
सकेंगे कि
अपनी समग्रता
में कि
कामवासना वस्तुत:
क्या होती है।
हम कामवासना
को पूरी तरह
नहीं समझते
हैं। हमें
कामवासना का
केवल आशिक रूप
ही मालूम है, सूर्य — अंश
का ही पता है।
चंद्र— अंश का
अभी कुछ भी
पता नहीं है।
स्त्री —ऊर्जा
का मनोविज्ञान
अभी विकसित
होना है।
फ्रायड और का
और एडलर और
दूसरे कई
मनस्विद —जो
भी प्रयोग
करते रहे हैं,
वे पुरुष —केंद्रित
हैं। स्त्री
पर अभी भी इस
बारे में काम
नहीं हुआ है, स्त्री अभी
भी इस क्षेत्र
में अन —
अन्वेषित है।
चंद्र—केंद्र
अभी भी जाना
नहीं गया है, अभी उसे
जानना शेष है।
कुछ लोगों
को चंद्र—केंद्र
की थोड़ी
झलकियां मिली
हैं।
उदाहरणार्थ
का को कुछ
झलकियां मिली
हैं। फ्रायड
तो पूरी तरह
सूर्य —केंद्रित, पुरुष —केंद्रित
ही रहा। का
थोड़ा सा चंद्र—केंद्र,
स्त्रैण
भाव की ओर
गया।
निस्संदेह, बहुत ही
झिझक के साथ, क्योंकि मन
का पूरा
प्रशिक्षण
वैज्ञानिक है —और
चंद्र की ओर
बढ़ना एक ऐसे
जगत की ओर
बढ़ना है जो
विज्ञान से
पूर्णतया
भिन्न है।
चंद्र—केंद्र
की ओर बढ़ना
कल्पित जगत
में जाना है।
वह काव्य के 'कल्पना के
जगत में जाना
है। अतर्क के,
असंगति के
जगत में जाना
है।
इस
संबंध में
मुझे तुम से
कुछ बातें
कहनी हैं।
फ्रायड
सूर्य —केंद्रित
था; जुग
का थोड़ा सा
झुकाव चंद्र—केंद्र
की ओर था।
इसीलिए
फ्रायड अपने
शिष्य का के
प्रति बहुत
नाराज था। और
फ्रायडवादी
सभी लोग कै से
बहुत चिढ़े हुए
हैं, उन्हें
ऐसा लगता है
कि उसने अपने
गुरु को धोखा
दिया।
सूर्य —केंद्रित, पुरुष —केंद्रित
व्यक्ति
हमेशा यह
अनुभव करता है
कि चंद्र—केंद्रित,
स्त्रैण
चित्त
व्यक्ति
खतरनाक होता
है। सूर्य —केंद्रित,
पुरुष
चित्त
व्यक्ति
बुद्धि के, तर्क के
सीधे —साफ
राजपथों पर
चलता है; और
चंद्र —केंद्रित,
स्त्रैण—
चित्त
व्यक्ति
अनजानी राहों
पर चलता है।
उसका रास्ता
जंगल का रास्ता
है, जहां
कुछ भी सीधा —साफ
नहीं है —जहां
सभी कुछ जीवंत
है, लेकिन
कुछ भी सीधा —साफ
स्पष्ट नहीं
है। और पुरुष
को सबसे बड़ा
भय स्त्री से
होता है। न
जाने क्यों
पुरुष' को
ऐसा लगता है
कि स्त्री
मृत्यु है —क्योंकि
जीवन भी
स्त्री से ही
आता है।
प्रत्येक
पुरुष स्त्री
से ही जन्म
लेता है। जब
जीवन स्त्री
से आया है, तो
मृत्यु भी उसी
के माध्यम से
घटेगी। क्योंकि
अंत सदा
प्रारंभ में
मिल जाता है।
केवल तभी
वर्तुल पूरा
होता है।
भारत
में हमने इस
बात को जान
लिया था।
भारतीय पौराणिक
गाथाओं में इस
बात का जिक्र
भी आता है।
तुमने मा काली
की मूर्तियां
और चित्र देखे
होंगे। काली
स्त्री — मन की
प्रतीक है। वह
अपने पति शिव
की छाती पर नृत्य
कर रही है। वह
इतने भयंकर
रूप से नृत्य
करती है कि
शिव के प्राण
निकल जाते हैं
और वह नृत्य
करती ही चली
जाती है।
स्त्री —मन
पुरुष —मन की
हत्या कर देता
है, यही
इस पौराणिक
गाथा का अर्थ
है।
और
काली को काले
के रूप में
क्यों
दर्शाया गया
है? इसीलिए
तो वह काली
कहलाती है, काली का
अर्थ है
ब्लैक। और उसे
इतने वीभत्स
और भयानक रूप
में क्यों
दर्शाया गया
है? उसके
एक हाथ में
अभी — अभी कटा
हुआ सिर, जिससे
रक्त की
बूंदें गिर
रही हैं। काली
मृत्यु का
साकार रूप है।
और वह तांडव
कर रही है —और
वह नृत्य अपने
पति की छाती
पर कर रही है, पति के
प्राण निकल गए
हैं और वह
आनंद और मस्ती
में नृत्य किए
जा रही है। वह
काली क्यों है?
क्योंकि
मृत्यु को
हमेशा काले के
रूप में, अंधेरी
काली रात्रि
माना जाता है।
उसी रूप में
मृत्यु को
चित्रित किया
जाता है।
और
काली अपने पति
की हत्या
क्यों कर देती
है? चंद्र
हमेशा सूर्य
की हत्या कर
देता है। जब
व्यक्ति के
अस्तित्व में
चंद्र का, स्त्रैण
भाव का उदय
होता है तो
तर्क की
मृत्यु हो
जाती है। तब
तर्क नहीं
बचता है, विवाद
नहीं बचते
हैं। तब
व्यक्ति एक
सर्वथा अलग ही
आयाम में जीने
लगता है। कवि
से तर्क की, लॉजिक की
अपेक्षा कभी
नहीं की जा
सकती। चित्रकार
से, नृत्यकार
से, संगीतज्ञ
से कभी भी
तर्क की
अपेक्षा नहीं
की जा सकती।
वे किसी अनजान
रहस्य' के
जगत में जीते
हैं।
तर्कसंगत
बुद्धि हमेशा
भयभीत रहती
है। इसीलिए
पुरुष हमेशा
भयभीत रहता है, क्योंकि
वह तर्क में, लॉजिक में
जीता है। क्या
तुमने कभी इस
बात पर गौर
नहीं किया है,
कि पुरुष को
हमेशा ऐसा
लगता है कि
स्त्री और
स्त्री के मन
को समझ पाना
कठिन है। और
ऐसा ही
स्त्रियों को
भी लगता है, कि वे
पुरुषों को
नहीं समझ सकती
हैं। स्त्री और
पुरुष के बीच
एक गेप हमेशा
बना रहता है, जैसे कि वे
एक ही मानव
जाति से
संबंधित न
होकर अलग— अलग
हों।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा
एक
इतावली एक
यहूदी के साथ
वाद—विवाद कर
रहा था 'तुम यहूदी
लोग बहुत
घमंडी होते
बर्नार्ड
शा हंसे और
बोले, 'थोड़ा
रुको। इसके
विपरीत भी हो
सकता है.
बच्चे को
तुम्हारी
बुद्धि मिल
सकती है, जिसका
अर्थ है खाली,
कुछ भी नही—और
उसे मेरे जैसा
शरीर मिल सकता
है, जो कि
असुंदर और
कुरूप है।
बच्चा एकदम
विपरीत भी हो
सकता है।'
पुरुष
मन हमेशा
चीजों को तोड़ —मरोड़कर
देखता है।
का ने
अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि एक बार वह
फ्रायड के साथ
बैठा हुआ था
और एक दिन
अचानक उसके
पेट में बहुत
जोर का दर्द
उठा। और उसे
लगा कि कुछ न
कुछ होकर
रहेगा और तभी
अचानक निकट की
अलमारी में से
विस्फोट की
आवाज आई।
दोनों
चौकन्ने हो
गए। क्या हुआ? जुग ने
कहा, इसका
जरूर कुछ न
कुछ संबंध
मेरी ऊर्जा से
है। फ्रायड
हंसा और का की
हंसी उड़ाता
हुआ बोला, 'कैसी
नासमझी की बात
है, इसका
तुम्हारी
ऊर्जा से कह
संबंध हो सकता
है?' का
बोला, थोड़ी
प्रतीक्षा
करो, अभी
एक मिनट में
ही फिर पहले
जैसे विस्फोट
की आवाज आएगी।
क्योंकि उसे
फिर से लगा कि
उसके पेट में
तनाव हो रहा
है। और एक
मिनट के बाद—ठीक
एक मिनट के
बाद —एक और
विस्फोट हुआ।
अब यह
है स्त्री—मन।
और जुग ने
अपने
संस्मरणों
में लिखा है, 'उस दिन
के बाद फिर
कभी फ्रायड ने
मुझ पर भरोसा नहीं
किया।’ यह
बात खतरनाक है,
क्योंकि इस
बात का तर्क
से कोई संबंध
नहीं है। और
का ने एक नए सिद्धांत
के विषय में
सोचना शुरू कर
दिया, जिसे
वह
सिन्क्रानिसिटि,
समक्रमिकता
का सिद्धांत
कहता है।
जो सिद्धांत
सभी
वैज्ञानिक
प्रयासों का
मूल आधार है
वह है
काजेलिटी—कारण
—सभी कुछ
कार्य और कारण
से जुड़ा हुआ
है। जो कुछ भी
घटता है, उसका कोई न
कोई कारण होता
है। और अगर
कारण हो, तो
परिणाम उसके
पीछे —पीछे
चला आएगा।
जैसे अगर हम
पानी को गरम
करते हैं तो
वह वाष्पीभूत
हो जाता है।
पानी गरम करना
एक कारण है
अगर पानी को
सौ डिग्री तक
गरम किया जाए
तो वह
वाष्पीभूत हो
जाएगा। पानी
का वाष्पीभूत
हो जाना
परिणाम है। यह
एक वैज्ञानिक
आधार है। का
कहता है एक और सिद्धांत
है, वह है —सिन्क्रानिसिटी,
समक्रमिकता
का सिद्धांत।
इसकी
व्याख्या
करना कठिन है,
क्योंकि
सभी
व्याख्याएं
वैज्ञानिक मन
से आती हैं।
लेकिन हा जो
कह रहा है, उसको
अनुभव करने का
प्रयास किया
जा सकता है।
दो
घड़िया लेकर
उन्हें मिनिट
और सेकंड के
साथ मिला दिया
जाए तो उनकी एक
दूसरे के साथ
लयबद्धता, सिन्क्रानिसिटी
हो जाती है जब
एक घड़ी में एक
सुई बारह के
अंक पर आए तो
दूसरी घड़ी बारह
के घंटे बजा
दे। एक घड़ी बस
चलती है, समय
दर्शाती है, दूसरी घड़ी
घंटे बजाती है
—म्यारह, बारह,
एक, दो।
जो कोई भी
सुनेगा वह
चकित हो
जाएगा। क्योंकि
पहली घड़ी
दूसरी घड़ी के
घंटे' बजने
का कारण नहीं
है। उनका आपस
में कोई संबंध
नहीं है। केवल
घड़ी बनाने
वाले ने इतना
ही किया है
उन्हें इस ढंग
से बनाया है
कि अगर एक घड़ी
में कुछ घटता
है, तो
तत्काल ही
दूसरी घड़ी में
भी कुछ हो
जाता है। वे
कार्य और कारण
के द्वारा आपस
में संबंधित
नहीं हैं।
का
कहता है कि
कार्य —कारण
के साथ ही एक
और सिद्धांत
अस्तित्व
रखता है। अगर
कहीं कोई
सृष्टि को बनाने
वाला है, तो उसने
सृष्टि की
रचना इस ढंग
से की है कि इस
सृष्टि में
ऐसा बहुत कुछ
घटित होता है
जिसका कार्य
और कारण से
कोई संबंध
नहीं है।
तुमने
किसी स्त्री
को देखा और
अचानक
तुम्हारे
हृदय में प्रेम
उठ आता है। अब
इस बात का
कार्य और कारण
से, या
सिन्क्रानिसिटी
से इसका कोई
संबंध है? का
ज्यादा ठीक
प्रतीत होता
है और सत्य के
ज्यादा करीब
लगता है।
स्त्री पुरुष
में प्रेम को
उत्पन्न करने
का कारण नहीं
हो सकती, न
ही पुरुष
स्त्री में
प्रेम के
उत्पन्न करने
का कारण हो
सकता है।
लेकिन पुरुष
और स्त्री, सूर्य —ऊर्जा
और चंद्र—ऊर्जा
का निर्माण इस
ढंग से हुआ है
कि उनके आपस
में निकट आने
से प्रेम का
फूल खिल उठता
है। यही है
सिन्क्रानिसिटी,
समक्रमिकता।
लेकिन
फ्रायड इससे
भयभीत हो गया।
फिर फ्रायड व
का कभी आपस
में एक —दूसरे
के निकट नहीं
आ सके। फ्रायड
ने का को अपना
उत्तराधिकारी
चुना था, लेकिन उस
दिन उसने अपनी
वसीयत को बदल
दिया। फिर वे
दोनों ए_क
दूसरे से अलग
हो गए, एक
दूसरे से दूर
और दूर होते चले
गए।
पुरुष
स्त्री को
नहीं समझ सकता
स्त्री पुरुष को
नहीं समझ
सकती। स्त्री
और पुरुष को
समझना सूर्य
और चांद को
समझने जैसा ही
है। जब सूर्य
प्रकट होता तो
चांद छिप जाता
है, जब
सूर्य अस्त
होता है तो
चांद प्रकट
होता है, उनका
आपस में कभी
मिलन नहीं
होता है। वे
कभी एक दूसरे
के आमने —सामने
नहीं आते। जब
व्यक्ति की आंतरिक
प्रज्ञा
क्रियाशील
होती है तो
उसकी बुद्धि,
तर्क शक्ति
विलीन होने
लगती है।
स्त्रियों में
पुरुष से अधिक
अंतर्बोध
होता है। उनके
पास तर्क नहीं
होता है, लेकिन
फिर भी उनके
पास कुछ
अंतर्बोध, अंतर्प्रज्ञा
होती है। और
उन्हें जो
अंतर्बोध
होता है वह अधिकांशत:
सच ही होता
है।
बहुत
से पुरुष मेरे
पास आकर कहते
हैं कि अजीब बात
है। अगर हम
किसी दूसरी
स्त्री के
प्रेम में पड़
जाते हैं और
अपनी पत्नी को
नहीं बताते, तो भी
किसी न किसी
तरह उसे मालूम
हो ही जाता है।
लेकिन हमें
कभी मालूम नहीं
होता कि पत्नी
किसी अन्य
पुरुष के
प्रेम में पड़ी
है या नहीं?
ठीक
कुछ ऐसी ही
स्थिति शीला
और चिन्मय की
है। चिन्मय
किसी के प्रेम
में है — और वे
दोनों मेरे
पास आए।
चिन्मय आकर
कहने लगा, 'यह बहुत
ही अजीब बात
है। जब भी मैं
किसी के प्रेम
में होता हूं
र तो तुरंत शीला
चली आती है —जहां
कहीं भी वह
होती है, वह
तुरंत कमरे' में चली आती
है। ऐसे तो वह
कभी नहीं आती।
वह आफिस में
काम कर रही
होती है या
कहीं और
व्यस्त होती
है। लेकिन जब
भी मुझे कोई
स्त्री अच्छी
लगती है और
मैं उसे अपने
कमरे में ले
जाता हूं —चाहे
सिर्फ बातचीत
करने के लिए
ही, तो
शीला चली आती
है। और ऐसा कई
बार हुआ है।’ और मैंने
पूछा 'क्या
कभी इससे
विपरीत भी हुआ
है?' उसने
कहा, 'कभी
नहीं।’
स्त्री
अपनी अनुभूतियों
से जीती है।
वह तर्क से
नहीं चलती, वह तर्क
से नहीं जीती।
वह तो अनुभव
से जीती है —और
वह अनुभव उसकी
इतनी गहराई से
आता है कि वह
उसके लिए करीब—करीब
सत्य ही हो
जाता है।
इसीलिए तो कोई
पति तर्क में
किसी स्त्री
को नहीं हरा
सकता। वे तुम्हारे
तर्क सुनती ही
नहीं हैं। वे
अपनी बात पर
ही अड़ी रहती
हैं कि ऐसा ही
है, ऐसा ही
ठीक है। और
तुम भी जानते
हो कि ऐसा ही
है, लेकिन
फिर तुम अपना
बचाव किए चले
जाते हो।
जितना तुम
बचाव करते हो,
उतना ही वे
समझ लेती हैं
कि ऐसा ही है।
एक बार
ऐसा हुआ कि एक
अदालत में
मुकदमा चल रहा
था। जिस दिन
मुकदमे की
जांच का में
उनका भरोसा ही
नहीं है, इसलिए
उन्हें कोई
जरूरत ही नहीं
है सूर्य या चंद्र
पुरुष या
स्त्रैण
अभिव्यक्ति
की, इनका
कहना है कि
उसे कहा नहीं
जा सकता है, उसकी
अभिव्यक्ति
का कोई उपाय
नहीं है।
लाओत्सु का
कहना है, ताओ
को अगर
अभिव्यक्त
किया जा सके
तो वह ताओ नहीं।
सत्य को कहा
नहीं कि वह
झूठ हो जाता
है, सत्य
को अभिव्यक्त
नहीं किया जा
सकता है।
ये
सारी संभावनाएं
हैं, लेकिन
वे अभी तक
यथार्थ में
घटित नहीं हुई
हैं। कभी कहीं
कोई व्यक्ति
संबोधि को
उपलब्ध हो जाता
है, लेकिन
उस उपलब्धि को,
उस बोध को
इस ढंग से
विधिबद्ध
करना होगा, इस तरह से
वर्गीकृत
करना होगा कि
वह सामूहिक मनुष्य
चेतना का अंग
बन जाए।
अब
सूत्र:
'सिर
के शीर्ष भाग
के नीचे की
ज्योति पर
संयम
केंद्रित करने
से समस्त
सिद्धों के
अस्तित्व से
जुड्ने की
क्षमता मिल
जाती है।’
सहस्रार
सिर के
मूर्धन्य भाग
के ठीक नीचे
होता है।
सहस्रार सिर
का एक सूक्ष्म
द्वार है। ठीक
वैसे ही जैसे
जननेंद्रिय
मूलाधार का
सूक्ष्म
द्वार होती है।
इस
जननेंद्रिय
के सूक्ष्म
द्वार से
व्यक्ति नीचे
की ओर, प्रकृति
में, जीवन
में, दृश्य
जगत में, पदार्थ
में, रूप
में, आकार
में जाता है, ठीक इसी तरह
व्यक्ति के
सिर के
मूर्धन्य भाग
में एक निष्क्रिय
इंद्रिय होती
है, वहा भी
एक सूक्ष्म
द्वार होता
है। जब ऊर्जा सहस्रार
की ओर जाती है
तो वह सूक्ष्म
द्वार ऊर्जा
के विस्फोट से
खुल जाता है, और वहा से
व्यक्ति
प्रकृति के
साथ, अस्तित्व
के साथ जुड़
जाता है। फिर
इस अवस्था को
परमात्मा कहो,
या
सिद्धावस्था
कहो, या जो
भी नाम तुम
देना चाहो दे
सकते हो।
काम —क्रिया
के माध्यम से
व्यक्ति अपनी
तरह कुछ और
शरीरों को
जन्म दे सकता है।
कामवासना
सृजनात्मक
ऊर्जा है, वह
बच्चों का
निर्माण कर
सकती है। जब
व्यक्ति की
ऊर्जा
सहस्रार की ओर,
सातवें
चक्र की ओर
गतिमान होती
है, तो
व्यक्ति
स्वयं को जन्म
देता है. यही
है पुनर्जन्म।
जीसस का यही
मतलब है जब वे
कहते हैं कि
बी रिबोर्न।
तब व्यक्ति
स्वयं को ही
जन्म देकर
अपना माता —पिता
हो जाता है।
तब सूर्य —केंद्र
पिता हो जाता
है, चंद्र
केंद्र मा हो
जाती है, और
भीतर के सूर्य
और चंद्र का
मिलन व्यक्ति
की ऊर्जा को
सिर की ओर, सहस्रार
की ओर मुक्त
कर देता है।
यह एक इनर आगोंज्म
है —इसे सूर्य
और चंद्र का
मिलन कह लो, या इसे शिव
और शक्ति का
मिलन कह लो, या तुम्हारे
भीतर के पुरुष
और स्त्री का
सम्मिलन कह
लो।
हम
पुरुष और
स्त्री में
विभक्त हैं।
इसे ठीक से
समझ लेना।
तुमने
कभी गौर किया, बाएं हाथ
का उपयोग करने
वाले लोगों को
दबा दिया जाता
है! अगर कोई
बच्चा बाएं
हाथ से लिखता
है, तो
तुरंत पूरा
समाज उसके
खिलाफ हो जाता
है —माता —पिता,
सगे —संबंधी,
परिचित, अध्यापक
सभी लोग एकदम
उस बच्चे के
खिलाफ हो जाते
हैं। पूरा
समाज उसे दाएं
हाथ से लिखने
को विवश करता
है। दायां हाथ
सही है और
बायां हाथ गलत
है। कारण क्या
है? ऐसा
क्यों है कि
दायां हाथ सही
है और बायां
हाथ गलत है? बाएं हाथ
में ऐसी कौन
सी बुराई है, ऐसी कौन सी
खराबी है? और
दुनिया में दस
प्रतिशत लोग
बाएं हाथ से
काम करते हैं।
दस प्रतिशत
कोई छोटा वर्ग
नहीं है। दस
में से एक
व्यक्ति ऐसा
होता ही है जो बाएं
हाथ से कार्य
करता है। शायद
चेतनरूप से उसे
इसका पता भी
नहीं होता हो,
वह भूल ही
गया हो इस
बारे में, क्योंकि
शुरू से ही
समाज, घर —परिवार,
माता—पिता
बाएं हाथ से
कार्य करने
वालों को दाएं
हाथ से कार्य
करने के लिए
मजबूर कर देते
हैं। ऐसा
क्यों है?
दायां
हाथ सूर्य —केंद्र
से, भीतर
के पुरुष से
जुड़ा हुआ है।
बाया हाथ
चंद्र—केंद्र
से भीतर की
स्त्री से
जुड़ा हुआ है।
और पूरा का
पूरा समाज
पुरुषोगखी
पुरुष—केंद्रित
है।
हमारा
बायां
नासापुट
चंद्र—केंद्र
से जुड़ा हुआ
है। और दायां
नासापुट सूर्य
—केंद्र से
जुड़ा हुआ है।
तुम इसे आजमा
कर भी देख
सकते हो। जब
कभी बहुत
गर्मी लगे तो
अपना दायां
नासापुट बंद
कर लेना और
बाएं से श्वास
लेना—और दस
मिनट के भीतर
ही तुमको ऐसा
लगेगा कि कोई अनजानी
शीतलता
तुम्हें
महसूस होगी।
तुम इसे प्रयोग
करके देख सकते
हो, यह
बहुत ही आसान
है। या फिर
तुम ठंड से
कांप रहे हो
और बहुत सर्दी
लग रही है, तो
अपना बायां
नासापुट बंद
कर लेना, और
दाएं से श्वास
लेना; दस
मिनट के भीतर
तुम्हें
पसीना आने
लगेगा।
योग ने
यह बात समझ ली
और योगी कहते
हैं —और योगी
ऐसा करते भी
हैं प्रात:
उठकर वे कभी
दाएं नासापुट
से श्वास नहीं
लेते।
क्योंकि अगर
दाएं नासापुट
से श्वास ली
जाए, तो
अधिक संभावना
इसी बात की है
कि दिन में
व्यक्ति
क्रोधित
रहेगा, लड़ेगा
—झगड़ेगा, आक्रामक
रहेगा—शांत और
थिर नहीं रह
सकेगा। इसलिए
योग के
अनुशासन में
यह भी एक
अनुशासन है कि
सुबह उठते ही
सबसे पहले
व्यक्ति को यह
देखना होता है
कि उसका कौन
सा नासापुट
क्रियाशील
है। अगर बायां
क्रियाशील है
तो ठीक है, .वही
ठीक क्षण होता
है बिस्तर से
बाहर आने का। अगर
बायां
नासापुट
क्रियाशील
नहीं है तो
अपना दायां
नासापुट बंद
करना और बाएं
से श्वास लेना।
धीरे — धीरे जब
बायां
नासापुट
क्रियाशील हो
जाए, तभी
बिस्तर से
बाहर पाव
रखना।
हमेशा
सुबह उसी समय
बिस्तर से
बाहर आना जब
बायां
नासापुट
क्रियाशील हो, और तब तुम
पाओगे कि
तुम्हारी
पूरी की पूरी
दिनचर्या में
अंतर आ गया
है। तुम कम
क्रोधित होगे,
चिड़ —चिडाहट
कम होगी और
अधिकाधिक शांत,
थिर और ठंडे
अनुभव करोगे।
ध्यान में अधिक
गहरे जा
सकोगे। अगर
लड़ना—झगड़ना
चाहते हो, तो
उसके लिए
दायां
नासापुट
अच्छा है। अगर
प्रेमपूर्ण
होना चाहते हो,
तो उसके लिए
बायां
नासापुट एकदम
ठीक है।
और
हमारी श्वास
हर क्षण, हर पल बदलती
रहती है।
तुमने शायद
कभी ध्यान नहीं
दिया होगा, लेकिन इस पर
ध्यान देना। आधुनिक
चिकित्सा—शास्त्र
को इसे समझना
होगा, क्योंकि
रोगी के इलाज
में इसका
प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण
सिद्ध हो सकता
है। ऐसे बहुत
से रोग हैं, ऐसी बहुत सी
बीमारियां
हैं, जिनके
ठीक होने में
चंद्र की मदद
मिल सकती है।
और ऐसे रोग भी
हैं जिनके ठीक
होने में
सूर्य से मदद
मिल सकती है।
अगर इस बारे
में ठीक—ठीक
मालूम हो, तो
श्वास का
उपयोग
व्यक्ति. के
इलाज के लिए
किया जा सकता
है। लेकिन
आधुनिक
चिकित्सा—शास्त्र
की अभी तक इस
तथ्य से पहचान
नहीं हुई है।
श्वास
निस्तर
परिवर्तित
होती रहती है.
चालीस मिनट तक
एक नासापुट
क्रियाशील
रहता है, फिर चालीस
मिनट दूसरा
नासापुट
क्रियाशील रहता
है। भीतर
सूर्य और
चंद्र निरंतर
बदलते रहते
हैं। हमारा
पेंडुलम
सूर्य से
चंद्र की ओर, चंद्र से
सूर्य की ओर
आता—जाता रहता
है। इसीलिए
हमारी भावदशा
अकसर ही बदलती
रहती है। कई
बार अकस्मात
चिडचिडाहट
होती है—बिना
किसी कारण के,
अकारण ही।
बात कुछ भी
नहीं है, सभी
कुछ वैसा का
वैसा है, उसी
कमरे में बैठे
हो —कुछ भी
नहीं हुआ है —अचानक
चिड़चिड़ाहट
आने लगती है।
थोड़ा
ध्यान देना।
अपने हाथ को
अपने नाक के
निकट ले आना
और उसे अनुभव
करना.
तुम्हारी
श्वास बायीं
ओर से दायीं
ओर चली गयी
होगी। अभी
थोड़ी देर पहले
तो सभी कुछ
ठीक था, और क्षण भर
के बाद ही सभी
कुछ बदल गया, कुछ भी
अच्छा नहीं लग
रहा। बस, लड़ने
को, झगड़ने
को और कुछ भी
करने के लिए
तैयार हो।
ध्यान
रहे, हमारा
पूरा शरीर दो
भागों में
विभक्त है।
हमारा
मस्तिष्क भी
दो
मस्तिष्कों
में विभाजित है।
हमारे पास एक
मस्तिष्क
नहीं है; दो
मस्तिष्क हैं,
दो गोलार्ध
हैं। बायीं ओर
का मस्तिष्क
सूर्य —मस्तिष्क
है, दायीं
ओर का
मस्तिष्क
चंद्र
मस्तिष्क है।
तुम थोडी उलझन
में पड़ सकते
हो, क्योंकि
ऐसे तो बायीं
ओर सब कुछ
चंद्र से संबंधित
होता है, तो
फिर दायीं ओर
के मस्तिष्क
का चंद्र से
क्या संबंध!
दायीं ओर का
मस्तिष्क
शरीर के बाएं
हिस्से से
जुड़ा हुआ है।
बाया हाथ
दायीं ओर के
मस्तिष्क से
जुड़ा हुआ है, दायां हाथ
बायीं ओर के
मस्तिष्क से
जुड़ा हुआ है, यही कारण
है। वे एक —दूसरे
से उलटे जुडे
हुए हैं।
दायीं
ओर का
मस्तिष्क
कल्पना को, कविता को,
प्रेम को, अंतर्बोध को
जन्म देता है।
मस्तिष्क का
बाया हिस्सा
बुद्धि को, तर्क को, दर्शन
को, सिद्धांत
को, विज्ञान
को जन्म देता
है।
और जब
तक व्यक्ति
सूर्य —ऊर्जा
और चंद्र—ऊर्जा
के बीच संतुलन
नहीं पा लेता
है, अतिक्रमण
संभव नहीं है।
और जब तक बाया
मस्तिष्क
दाएं
मस्तिष्क से
नहीं मिल जाता
है और उनमें
एक सेतु
निर्मित नहीं
हो जाता है, तब तक
सहस्रार तक
पहुंचना संभव
नहीं है। सहस्रार
तक पहुंचने के
लिए दोनों
ऊर्जाओं का एक
हो जाना
आवश्यक है, क्योंकि
सहस्रार परम
शिखर है, आत्यंतिक
बिंदु है।
वहां न तो
पुरुष की तरह
पहुंचा जा
सकता है, न
ही वहा स्त्री
की तरह पहुंचा
जा सकता है।
वहा एकदम
शुद्ध चैतन्य
की तरह—ख्य
होकर, समग्र
और संपूर्ण
होकर पहुंचना
संभव होता है।
पुरुष
की कामवासना
सूर्यगत है, स्त्री
की कामवासना
चंद्रगत है।
इसीलिए स्त्रियों
के मासिक धर्म
का चक्र
अट्ठाइस दिन का
होता है, क्योंकि
चंद्र का मास
अट्ठाइस दिन
में पूरा होता
है।
स्त्रियां
चंद्रमा से
प्रभावित होती
हैं —चंद्र का
वर्तुल
अट्ठाइस दिन
का होता है।
और
इसीलिए बहुत
सी स्त्रिया
पूर्णिमा की
रात थोड़ा
पागलपन का
अनुभव करती
हैं। जब
पूर्णिमा की
रात आए, तो अपनी
पत्नी या अपनी
प्रेयसी से
सावधान रहना।
वह थोड़ी परेशान
और अस्त—व्यस्त
हो जाती है।
जैसे
पूर्णिमा की
रात समुद्र
में ज्वार—
भाटा आने लगता
है और समुद्र
प्रभावित हो
जाता है, ऐसे
स्त्रियां भी
उत्तप्त हो
जाती हैं।
क्या
तुमने कभी
ध्यान दिया है? पुरुष
खुली आंखों से
प्रेम करना
चाहता है।
केवल इतना ही
नहीं, बल्कि
प्रकाश भी
पूरा चाहता
है। अगर किसी
तरह की बाधा न
हो, तो
पुरुष दिन में
प्रेम करना
पसंद करता है।
और उन्होंने
ऐसा करना शुरू
भी कर दिया है—विशेषकर
'अमेरिका
में, क्योंकि
उस तरह की
बाधाएं और
समस्याएं अब
वहां पर
समाप्त हो गयी
हैं। वहा लोग
रात्रि की
अपेक्षा सुबह
प्रेम अधिक
करते हैं।
स्त्री
अंधकार में
प्रेम करना पसंद
करती है, जहां
थोड़ी भी रोशनी
न हो—और
अंधेरे में भी
वे अपनी आंखें
बंद कर लेती
हैं।
चंद्रमा
रात्रि में, अंधकार
में चमकता है,
उसे अंधकार
से प्रेम है —रात्रि
से।
इसीलिए
स्त्रियां
अश्लील —
साहित्य में
उत्सुक नहीं
हैं। अब नारी—मुक्ति
आंदोलन के
कारण, कुछ
पत्रिकाओं ने
प्लेबाय और
इसी तरह की
पत्रिकाओं के
साथ
प्रतिस्पर्धा
की शुरुआत की
है—इसी
प्रतिस्पर्धा
के कारण
प्लेगर्ल
पत्रिका
सामने आयी है।
लेकिन मूल रूप
से स्त्रियां
अश्लील
साहित्य में,
अश्लील
पत्रिकाओं
में जरा भी
उत्सुक नहीं
होतीं। असल
में तो
स्त्रियों को
यह समझ ही
नहीं आता है
कि आखिर पुरुष
क्यों इतना
अधिक नग्न स्त्रियों
के चित्र
देखने में
उत्सुक रहता
है। इस तथ्य
को समझने में
उन्हें
कठिनाई अनुभव
होती है।
पुरुष
सूयोंमुन्धी
होता है, उसे प्रकाश
अच्छा लगता
है। आंखें
सूर्य का
हिस्सा हैं, इसीलिए आंखें
देखने में
सक्षम होती
हैं। आंखों का
तालमेल सूर्य —ऊर्जा
के साथ रहता
है। तो पुरुष आंखों
से, दृष्टि
से अधिक जुड़ा
हुआ है।
इसीलिए पुरुष
को देखना
अच्छा लगता है
और स्त्री को
प्रदर्शन करना
अच्छा लगता
है। पुरुषों
को यह समझ में
ही नहीं आता
है कि आखिर
स्त्रियां
स्वयं को इतना
क्यों सजाती —संवारती
हैं?
मैंने
सुना है, एक दंपति
हनीमून मनाने
के लिए किसी
पहाड़ी स्थान
पर गए। युवक
बिस्तर पर
लेटा हुआ
पत्नी की प्रतीक्षा
कर रहा था। और
पत्नी थी कि
अपने श्रृंगार
करने में लगी
हुई थी, अपने
को सजाने —संवारने
में लगी हुई
थी। उसने अपने
शरीर पर पाउडर
लगाया, बाल
संवारे, नाखूनों
पर नेल—पालिश
लगाई, इत्र
की कुछ बूंदें
कान के पीछे
लगाई, बस
वह अपने को
सजाती ही जा
रही थी।
आखिरकार जब उस
युवक से न रहा
गया, तो वह
बिस्तर से
झटके से उठकर
खड़ा हो गया।
पत्नी ने पूछा,
क्या बात है?
आप कहां जा
रहे हो? वह
अपने सूटकेस
की तरफ दौड़ा
और बोला, अगर
यह एक औपचारिक
प्रेम ही रहने
वाला है तो कम
से कम मैं
अपने कपड़े तो
पहन लूं।
स्त्रियों
में प्रदर्शन
की प्रवृत्ति
होती है —वे
चाहती हैं कोई
उन्हें देखे।
और यह एकदम
ठीक भी है, क्योंकि
इसी तरह से तो
पुरुष और
स्त्रियां एक दूसरे
के अनुकूल बैठ
पाते हैं
पुरुष देखना
चाहता है, स्त्री
दिखाना चाहती
है। वे एक—दूसरे
के अनुरूप हैं,
यह एकदम ठीक
है। अगर
स्त्रियों को
प्रदर्शन में
उत्सुकता न
होगी, तो
वे दूसरी कई
मुसीबत खड़ी कर
देती हैं। और
अगर पुरुष
स्त्री को देखने
में उत्सुक
नहीं है, तो
फिर स्त्री
किसके लिए
इतना
श्रृंगार
करेगी, आभूषण
पहनेगी, सजेगी—संवरेगी
—आखिर किसके
लिए? फिर
तो कोई भी
उनकी तरफ नहीं
देखेगा।
प्रकृति में
हर चीज एक —दूसरे
के अनुरूप
होती है, उनमें
आपस में
सिन्क्रानिसिटी,
लयबद्धता
होती है।
लेकिन
अगर सहस्रार
तक पहुंचना हो, तो द्वैत
को गिराना
होगा।
परमात्मा तक
पुरुष या
स्त्री की
भांति नहीं
पहुंचा जा
सकता है। परमात्मा
तक तो सहज रूप
में, शुद्ध
अस्तित्व के
रूप में ही
पहुंचा जा
सकता है, स्त्री
और पुरुष के
रूप में नहीं।
'सिर
के शीर्ष भाग
के नीचे की
ज्योति पर
संयम केंद्रित
करने से समस्त
सिद्धों के
अस्तित्व से
जुड्ने की
क्षमता मिल
जाती है।’
ऊर्जा
को अगर ऊपर की
ओर गतिमान
करना है, तो इसकी
विधि संयम है।
पहली बात, अगर
तुम पुरुष हो
तो तुम्हें
तुम्हारे
सूर्य के
प्रति तुम्हारे
सूर्य —ऊर्जा
के केंद्र के
प्रति, तुम्हारे
काम केंद्र के
प्रति, पूरी
तरह होशपूर्ण
होना होगा।
तुम्हें मूलाधार
में रहना होगा,
अपने
संपूर्ण
चैतन्य को, अपनी पूरी
ऊर्जा को
मूलाधार पर
बरसा देना
होगा। जब
मूलाधार पर पूरा
होश आ जाता है
तो तुम पाओगे
कि ऊर्जा हारा
केंद्र की ओर
उठ रही है, चंद्र
की ओर बढ़ रही
है।
और जब
ऊर्जा चंद्र—केंद्र
की ओर गतिमान
होगी, तो
तुम बहुत
संतृप्ति, बहुत
आनंदित अनुभव
करोगे। सारी
कामवासना के आनंद
इसकी तुलना
में कुछ भी
नहीं हैं —कुछ
भी नहीं हैं।
जब सूर्य —ऊर्जा
अपनी ही चंद्र—ऊर्जा
में उतरती है,
तो उस आनंद
की सघनता उससे
हजारों गुना
अधिक होती है।
तब सच में
पुरुष और
स्त्री का
मिलन घटित
होता है। बाहर
किसी भी
स्त्री से
कितनी भी निकटता
क्यों न हो, कितने भी
करीब क्यों न
हो, तुम
अपने को पृथक
और अलग ही
अनुभव करते
हो। बाहर का
मिलन तो बस
सतही और
औपचारिक ही
होता है —दो
सतह, दो
परिधियां ही
आपस में मिलती
हैं। दो सतह
एक —दूसरे को
स्पर्श करती
हैं, बस
इतना ही होता
है। लेकिन जब
सूर्य —ऊर्जा
चंद्र—ऊर्जा
की ओर गतिमान
होती है, तब
दो ऊर्जा
केंद्रों की
ऊर्जा आपस में
मिल जाती है —और
जिस व्यक्ति
के सूर्य और
चंद्र एक हो
जाते हैं, वह
परम रूप से
आनंदित और
संतृप्त हो
जाता है — और
फिर वह हमेशा
आनंदित और
संतृप्त बना
रहता है, क्योंकि
इसको खोने का
कोई उपाय ही
नहीं है। यह
आनंद और मिलन
सनातन है।
अगर
तुम स्त्री हो
तो तुम्हें
अपनी संपूर्ण
चेतना को हारा
तक ले आना
होगा, और
तब तुम्हारी
ऊर्जा सूर्य —केंद्र
की ओर बढ़ने
लगेगी।
प्रत्येक
व्यक्ति में
एक केंद्र
निष्किय होता
है और एक
केंद्र
सक्रिय होता
है। सक्रिय केंद्र
को निष्किय
केंद्र के साथ
जोड़ दो, तो निष्क्रिय
केंद्र
सक्रिय हो
जाता है।
और जब
दोनों
ऊर्जाओं का
मिलन होता है —जब
सूर्य —ऊर्जा
और चंद्र—ऊर्जा
एक हो रहे
होते हैं, तो ऊर्जा
ऊपर की ओर
उठती है। तब
व्यक्ति
ऊर्ध्वगमन की
ओर बढ़ने लगता
है।
मैंने
सुना है
एक
पागल आदमी
अपने दूर के
रिश्तेदार के
यहा मेहमान
था। उसने उसे
अपने मकान के
तलघरे में ठहरा
दिया। कोई आधी
रात ऊपर से
अपने मेहमान
के हंसने की
आवाज सुनकर
मेजबान की
नींद खुल गयी।
उसने
पूछा, 'तुम
वहां क्या कर
रहे हो? तुम्हें
तो तलघरे में
सोना था।’
मेहमान
ने जवाब दिया, 'मैं वहीं
पर था। मैं
बिस्तर से
लुढ़क गया हूं।’
'और
तुम ऊपर कैसे
पहुंच गए?'
'इसी
बात पर तो
मुझे हंसी आ
रही है।’
ही, ऐसा होता
है। जब सूर्य
और चंद्र का
मिलन हो जाता
है, तब उस
पागल की तरह
ही हो जाते
हैं। ऊपर की
ओर यात्रा
प्रारंभ हो
जाती है। और
तब हंसी भी
आएगी, क्योंकि
यह सच में ही
अजीब बात है।
ऊपर की ओर जाना?
कभी किसी ने
ऐसा सुना तो
नहीं है।
तुमने
सुना है न कि
एक बार न्यूटन
बगीचे में बैठा
हुआ था और एक
सेब आकर गिरा।
सेब का मनुष्य
के साथ कुछ
ज्यादा ही
संबंध मालूम
होता है —यही
वह सेब था जब
अदम सांप के
द्वारा फंसा
दिया गया था।
और फिर यह
बेचारा
न्यूटन एक
बगीचे में
बैठा था और एक
सेब आकर गिरा
और न्यूटन ने
गुरुत्वाकर्षण
का सिद्धांत
खोज निकाला।
लेकिन
जब भीतर के
सूर्य और
चंद्र मिल
जाते हैं तो
अकस्मात ही
व्यक्ति एक
अलग ही आयाम
में पहुंच
जाता है उसकी
ऊर्जा ऊपर की
ओर उठने लगती
है। यह न्यूटन
की अवज्ञा है, यह
न्यूटन का
अपमान है —इसके
सामने
गुरुत्वाकर्षण
व्यर्थ हो
जाता है। तुम
ऊपर की ओर
खींचे जाने
लगते हो! और
निस्संदेह
अभी तक का
पूरा
प्रशिक्षण
इसी बात का है
कि अगर कोई भी
चीज ऊपर फेंको
तो वह नीचे
गिरती है —और
सभी कुछ नीचे
ही गिरता है।
तो फिर हंसी
का कारण ठीक
ही है।
एक झेन
फकीर होतेई के
बारे में ऐसा
कहा जाता है
कि संबोधि को
उपलब्ध होने
के बाद उसकी
हंसी फिर कभी
बंद ही न हुई।
फिर वह हंसता
ही रहा, हंसता ही
रहा, अपनी
मृत्यु के समय
भी वह हंस रहा
था। वह हंसते —हंसते
एक गांव से
दूसरे गांव तक
घूमा करता था।
उसके बारे में
ऐसा कहा जाता
है कि जब वह
सोता भी था, तो उसकी
हंसी की आवाज
सुनी जा सकती
थी। लोग होतेई
से पूछते भी थे,
आप हमेशा
हंसते क्यों
रहते हैं? वह
कहता, मैं
कैसे बताऊं।
लेकिन कुछ हुआ
है —कुछ अदभुत
हुआ है। कुछ
ऐसा जो नहीं
होना चाहिए था,
जिसका होना
अपेक्षित
नहीं था—ऐसा
कुछ हुआ है।
ही, वह पागल
आदमी ठीक कह
रहा था। अगर
किसी दिन तुम अपने
बिस्तर से गिर
जाओ और अचानक
तुम स्वयं को
छत के ऊपर पाओ,
तो तुम
हसोगे नहीं तो
क्या करोगे।
लेकिन ऐसा होता
है, और वह
पागल आदमी कोई
साधारण पागल
नहीं है। यह एक
सूफी कथा है।
वह पागल आदमी
जरूर कोई
सदगुरु रहा
होगा।
यह
सूत्र कहता है
'मूर्धज्योतिषि
सिद्धदर्शनम्।’
जिस
क्षण चेतना का
मिलन सहस्रार
से होता है, अचानक
तुम पार के
जगत के लिए
उपलब्ध हो
जाते हो —सिद्धों
के जगत के लिए
उपलब्ध हो
जाते हो।
योग
में मूलाधार
के प्रतीक के
रूप में, काम—केंद्र
को चार
पंखुड़ियों
वाला लाल कमल
माना जाता है।
चार
पंखुड़ियां
चारों दिशाओं
का प्रतिनिधित्व
करती हैं। लाल
रंग, ऊष्मा
का
प्रतिनिधित्व
करता है, क्योंकि
वह सूर्य का
केंद्र है। और
सहस्रार प्रतिनिधित्व
करता है सभी
रंगों का, हजार
पंखुड़ियों के
कमल के रूप
में। हजार
पंखुड़ियों
वाला कमल—सहस्रार
पदम—सभी रंगों
से परिपूर्ण
एक हजार
पंखुड़ियों वाला
कमल, क्योंकि
सहस्रार में
संपूर्ण अस्तित्व
समाया हुआ है।
सूर्य —केंद्र
केवल लाल होता
है। सहस्रार
इंद्रधनुषी
होता है —उसमें
सभी रंग समाए
होते हैं, उसमें
समग्रता
समाहित होती
है।
सामान्यत:
सहस्रार, एक हजार
पंखुड़ियो
वाला कमल सिर
में नीचे की
ओर लटका हुआ
होता है।
लेकिन जब इससे
ऊर्जा गतिमान
होती है, तो
ऊर्जा से यह
ऊपर की ओर हो
जाता है।
.पहले तो यह
ऐसे ही है
जैसे कोई कमल
ऊर्जा रहित
नीचे की ओर
लटका हुआ हों—उसका
भार ही उसे
नीचे की ओर
लटका देता है —फिर
जब वह ऊर्जा
से भर जाता है,
तो उसमें
जीवन का संचार
हो जाता है।
वह ऊपर उठने
लगता है, वह
बियांड के, पार के, जगत
के प्रति खुल
जाता है।
जब कमल
खिल जाता है, तो योग—शास्त्र
कहते हैं कि 'तब वह दस लाख
सूर्य और दस
लाख चंद्र के
रूप में देदीप्यमान
हो उठता है।’ जब भीतर एक
चंद्र और एक
सूर्य परस्पर
मिल जाते हैं,
तो फिर वह
बाहर के दस
लाख सूर्य और
दस लाख चंद्र
के बराबर होते
हैं। तब
व्यक्ति उस
परम आनंद की
कुंजी को खोज
लेता है, जहां
दस लाख चंद्र
दस लाख
सूर्यों से
मिलते हैं —दस
लाख
स्त्रियों का
दस लाख
पुरुषों से
मिलन होता है।
तो उस परम
आनंद की तुम
थोड़ी—बहुत
कल्पना कर
सकते हो, थोड़ा
—बहुत उस बारे
में सोच सकते
हो।
शिव जब
अपनी पत्नी
देवी के साथ
प्रेम में पाए
गए तो उसी
आनंद अवस्था
में रहे
होंगे। वे
सहस्रार में
प्रतिष्ठित
रहे होंगे।
उनका प्रेम
केवल
कामवासना वाला
प्रेम नहीं हो
सकता—वह प्रेम
मूलाधार से
नहीं हो सकता।
वह उनके अस्तित्व
के शिखर बिंदु
से, ओमेगा
पाइंट से आया
होगा। इसीलिए
कौन वहां खड़ा
है, कौन
उन्हें देख
रहा है इसके
प्रति वे पूरी
तरह से बेखबर
थे। वे समय और
स्थान में
स्थित नहीं थे।
वे समय और
स्थान के पार
थे। योग का, तंत्र का, सारे
आध्यात्मिक
प्रयासों का
यही तो एकमात्र
लक्ष्य है।
पुरुष
और स्त्री
ऊर्जा का मिलन, शिव और
शक्ति का परम मिलन,
जीवन और
मृत्यु के
आत्यंतिक जोड़
की संभावना को
निर्मित कर
देता है। इस
दृष्टि से
हिंदुओं के
परमात्मा
बहुत अनूठे और
अदभुत रूप से
मानवीय हैं।
थोड़ा ईसाइयों
के परमात्मा
के बारे में विचार
करो। कोई
पत्नी नहीं, कोई स्त्री
नहीं साथ में!
यह बात जड़, एकाकी,
रिक्त, पुरुष
प्रधान, सूर्यगत
और कठोर मालूम
होती है। अगर
यहूदियों और
ईसाइयों के
परमात्मा की
अवधारणा
भयानक और
डरावने
परमात्मा की
है तो इसमें
कोई आश्चर्य
की बात नहीं।
यहूदी
कहते हैं, 'परमात्मा
से भयभीत रहो।
ध्यान रहे, वह तुम्हारा
चाचा नहीं है।’
लेकिन
हिंदू कहते
हैं, 'चिंता
की कोई बात
नहीं, परमात्मा
तुम्हारी मां
है।’ यहूदियों
ने बहुत ही
क्रूर
परमात्मा की
कल्पना की है,
जो हमेशा
लोगों को
अग्नि में
जलाने और
मारने को
तैयार रहता
है। और छोटा
सा पाप भी, चाहे
वह अनजाने में
ही हो गया हो
और यहूदियों का
परमात्मा
एकदम क्रुद्ध,
आग—बबूला हो
जाता है। उनका
परमात्मा
विक्षिप्त मालूम
होता है।
और
ईसाइयों की
पूरी की पूरी
ट्रिनिटी की
धारणा—गॉड, होली
घोस्ट और सन—यह
पूरी की पूरी
ट्रिनिटी
लड़कों की सभा
मालूम पड़ती है
—होमोसेक्यूअल, समलैंगिक।
कोई स्त्री
नहीं। और ईसाई
चंद्र—ऊर्जा
से, स्त्री
से इतने भयभीत
हैं कि उनके
पास स्त्री की
कोई अवधारणा
ही नहीं है।
आगे चलकर किसी
तरह उन्होंने वर्जिन
मेरी का नाम
जोड़कर इसमें
थोड़ा सुधार करने
की कोशिश की
है। किसी तरह
से, क्योंकि
यह बात उनके सिद्धांत
के बिलकुल
विपरीत पड़ती
है, उनके सिद्धांत
के एकदम खिलाफ
है। और फिर भी
ईसाई इस बात
पर जोर देते
हैं कि वह
वर्जिन है, कुंआरी है।
ईसाई
धारणा में
सूर्य और
चंद्र का मिलन
एकदम अस्वीकृत
है। चाहे वे
वर्जिन मेरी
का आदर करते हैं..
निश्चित ही यह
एक द्वितीय
श्रेणी की पदवी
है, क्योंकि
ट्रिनिटी में
उसके लिए कोई
स्थान नहीं
है। फिर उन्हें
अपनी इस
ट्रिनिटी की
धारणा में कुछ
अपूर्णता का
अहसास हुआ, तो उन्होंने
पीछे के द्वार
से वर्जिन
मेरी का प्रवेश
करवाया।
लेकिन फिर भी
ईसाई इस बात
पर जोर दिए
चले जाते हैं
कि वह वर्जिन
है, कुंआरी
है। आखिर इस
बात पर इतना
जोर क्यों? पुरुष और
स्त्री ऊर्जा
के मिलन में
आखिर गलत क्या
है?'
और अगर
तुम बाह्य जगत
में पुरुष और
स्त्री की ऊर्जा
के मिलन से
इतने भयभीत हो, तो तुम
अंतर्जगत में
घटित होने
वाले ऐसे ही
मिलन के लिए
कैसे तैयार हो
सकोगे?
हिंदुओं
के परमात्मा
अधिक मानवीय
हैं, अधिक
मानवोचित हैं—जीवन
के यथार्थ के
अधिक निकट हैं
—और निश्चित
ही उनसे करुणा
और प्रेम
प्रवाहित होता
है।
प्रातिभाद्वा
सर्वम्।
'प्रतिभा,
के द्वारा
समस्त
वस्तुओं का
बोध मिल जाता
है।’
प्रतिभा
शब्द को
समझाना कठिन
है, इसका
अंग्रेजी में
ठीक—ठीक
अनुवाद नहीं
किया जा सकता।
अगर इसे इन्टयूशन
अंतर्बोध कहा
जाए तो भी वह
बहुत ही
अपूर्ण
व्याख्या
होगी, फिर
उसकी भी
व्याख्या
करनी पड़ेगी।
इसका अनुवाद
नहीं किया जा
सकता, मैं
केवल इसका
वर्णन कर सकता
हूं।
सूर्य
बुद्धि है, चंद्र
अंतर्बोध है।
जब कोई
व्यक्ति इन
दोनों का
अतिक्रमण कर
जाता है, तब
प्रतिभा का
आविर्भाव
होता है — और
इसके लिए कोई
दूसरी
शब्दावली
नहीं है। सूर्य
है बुद्धि, विश्लेषण, तर्क। चंद्र
है अंतर्बोध,
अंतप्रेंरणा—अचानक
निष्कर्ष पर
पहुंच जाना।
बुद्धि विधि,
प्रणाली और
तर्क से
संचालित होती
है। अंतर्बोध
अचानक किसी
निष्कर्ष पर
पहुंच जाता है
—उसकी कोई
प्रणाली, कोई
विधि, कोई
नियमबद्ध
तर्क नहीं
होता है। तुम
अंतर्बोध
वाले व्यक्ति
से यह नहीं
पूछ सकते कि
ऐसा क्यों है।
अंतर्बोध
वाले व्यक्ति
के पास कोई 'इसलिए' नहीं
है। अचानक कोई
रहस्य का
पर्दा उठता है
—जैसे कि कोई
बिजली चमक गयी
हो और कुछ
दिखाई दे गया
हो —और फिर वह
बिजली की चमक
खो जाए और यह
समझ ही न आए कि
यह क्या हुआ, लेकिन ऐसा
हुआ हो और
तुमने कुछ देख
लिया हो। सभी
आदिम समाज
अंतर्बोध से
ही जीते थे, अधिकांश
स्त्रियां —भी
अंतर्बोध से
ही संचालित
होती हैं; बच्चे
भी अंतर्बोध
से ही जीते
हैं; सभी
कवि अंतर्बोध
से चलते हैं।
प्रतिभा
इससे
पूर्णतया
भिन्न है।
पतंजलि के योग—सूत्र
के सभी
अंग्रेजी
अनुवादों में
इन्टयूशन
शब्द
प्रयुक्त हुआ
है, लेकिन
मैं इसका
अनुवाद उस ढंग
से न करना
चाहूंगा।
प्रतिभा का
अर्थ है : जब
ऊर्जा दोनों
के, बुद्धि
और अंतर्बोध
के पार उठ
जाए। ऊर्जा
दोनों के पार
हो जाए।
अंतर्बोध
बुद्धि के पार
होता है, प्रतिभा
उन दोनों के
भी पार होती
है। अब उसमें
कोई तर्क नहीं
होता, न ही
अकस्मात कोई
बिजली चमकती
है —सभी कुछ
शाश्वत रूप
में उदघटित हो
जाता है। प्रतिभा
से युक्त
व्यक्ति
सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान,
सर्वव्यापी
हो जाता है।
उसके सामने —
अतीत, वर्तमान,
और भविष्य—सभी
कुछ एकसाथ
प्रकट हो जाता
है।
यही
अर्थ है
प्रातिभाद्वा
सर्वम् का।
'प्रतिभा
के द्वारा
समस्त
वस्तुओं का
बोध मिल जाता
है।’
जब
ऊर्जा
सहस्रार में
गतिमान होती
है और भीतर के
दस लाख सूर्य
और दस लाख
चंद्र मिल
जाते हैं, और जब
व्यक्ति आनंद
का असीम सागर
बन जाता है —जो
अनंत है; जब
कहीं कोई सीमा
नहीं रह जाती
है, कोई ओर —छोर
नहीं रह जाता
है—वही है
प्रतिभा। तब
व्यक्ति ठीक
से देखने और जानने
योग्य हो पाता
है। तब समय और
स्थान की सीमाएं
विलीन हो जाती
हैं, समय
और स्थान की
दूरी मिट जाती
है।
तो एक
मनोविज्ञान
सूर्य से
संबंधित है, दूसरा
मनोविज्ञान
चंद्र से
संबंधित है।
लेकिन एक सना
और वास्तविक
मनोविज्ञान—मनुष्य
का वास्तविक
मनोविज्ञान—प्रतिभा
से संबंधित
होगा। वह
पुरुष और
स्त्री के बीच
बंटा हुआ नहीं
होगा। वह इनसे
ऊपर और इनके
पार होगा।
बुद्धि
अंधे व्यक्ति
की भांति है.
वह हमेशा
अंधेरे में ही
खोजती रहती
है। इसीलिए तो
बुद्धि इतना तर्क
—वितर्क करती
है। अंतर्बोध
अंधा नहीं
होता, लेकिन
वह अपंग आदमी
की तरह है वह
आगे नहीं बढ़ सकता,
चल नहीं
सकता।
प्रतिभा
स्वस्थ
व्यक्ति की तरह
है, उसके
सारे अंग
स्वस्थ हैं।
भारत में एक
कथा है कि एक
बार एक जंगल
में आग लग
गयी। उस जंगल
में एक अंधा
आदमी था और एक
लंगड़ा आदमी
था। अंधा आदमी
देख नहीं सकता
था, लंगड़ा
आदमी दौड़ नहीं
सकता था।
लेकिन जब
चारों ओर आग
लगी हो तो
बिना जाने
भागना खतरनाक
है। लंगड़ा
आदमी चल नहीं
सकता था, लेकिन
देख सकता था।
उन दोनों ने
आपस में एक
समझौता कर लिया.
अंधे आदमी ने
लंगड़े आदमी को
अपनी पीठ पर
सवार कर लिया
और लंगड़ा आदमी
उसे रास्ता
बताने लगा।
उनके आपस के
समझौते से वे
जंगल की आग से
बचकर बाहर आ
गए।
बुद्धि
भी अपने आप
में आधी होती
है, अंतर्बोध
भी अपने आप
में आधा है।
अंतर्बोध दौड़
नहीं सकता—वह
क्षण मात्र को
चमक जाता है।
वह भीतर के
रहस्योदघाटन
का सतत स्रोत
नहीं बन सकता
है। और बुद्धि
तो हमेशा
अंधेरे में ही
टटोलती रहती
है, अंधेरे
में ही खोजती
रहती है।
प्रतिभा
बुद्धि और
इन्टयूशन का
जोड़ है और साथ ही
दोनों का
अतिक्रमण भी है।
अगर
कोई व्यक्ति
बहुत ज्यादा
बुद्धिमान है, तो वह
जीवन में कुछ
सुंदर चीजों
को चूक जाएगा।
वह कविता का
आनंद न ले
सकेगा, उसे
गाने में कोई
आनंद नहीं
आएगा, वह
नृत्य में
उत्सव न मना
सकेगा। यह सब
उसे पागलपन
मालूम होगा, उसे अपनी
बुद्धि से कुछ
कम मालूम
पड़ेगा। .वह कहीं
अवरुद्ध हो
जाएगा, वह
स्वयं को
रोककर रखेगा,
वह कुछ दबा —दबा
सा रहेगा।
इससे उसके
चंद्र को
क्षति उठानी
पड़ेगी।
अगर
कोई व्यक्ति
अंतर्बोध में
जीता है, तो हो सकता
है वह ज्यादा
आनंदित हो, लेकिन तब वह
दूसरों की
अधिक मदद न कर
सकेगा, क्योंकि
ऐसे व्यक्ति
के पास संप्रेषण
का अभाव होता
है। ऐसा संभव
है कि वह स्वयं
सुंदर जीवन
जीए, लेकिन
वह अपने आसपास
किसी सुंदर
जगत का निर्माण
नहीं कर सकेगा,
क्योंकि
ऐसा केवल
बुद्धि के
द्वारा ही
संभव हो सकता
है।
जिस
दिन विज्ञान
और कला का
मिलन हो सकेगा, तभी एक
संपूर्ण जगत
का निर्माण
संभव है। वरना
तो बुद्धि
अंतर्बोध की
निंदा करती रहेगी
और अंतर्बोध
बुद्धि की
निंदा करता
रहेगा।
मैंने
सुना है
एक
स्त्री ने एक
नई—नई विवाहित
हुई स्त्री से
पूछा, 'तुम्हारा
विवाह हुए
कितने वर्ष हो
गए हैं?' दूसरी
स्त्री ने
जवाब दिया, 'बीस विचित्र
वर्ष।’
'तुम
उन्हें विचित्र
क्यों कहती हो?'
वह
स्त्री बोली, 'ठहरो, जब तक तुम
मेरे पति को
देख न लो।’
अंतर्बोध
सोचता है कि
बुद्धि
विचित्र होती
है, बुद्धि
सोचती है
अंतर्बोध
विचित्र होता
है। पृथक रूप
से वे दोनों
विचित्र ही
हैं। अगर दोनों
का सम्मिलन हो
जाए, तो
उनसे एक सुंदर
संगीत का जन्म
होता है।
एक
महान फारसी
रहस्यदर्शी, रूमी
अपनी एक कविता
में कहते हैं
कि एक दिन पैगंबर
मोजेज ने
रास्ते में एक
चरवाहे को रो —रो
कर प्रार्थना
करते हुए देखा,
'हे
परमात्मा, आप
कहां हो? मैं
आपकी
सेवा
करने को तरस
रहा हूं। मैं
आपके बालों
में कंघी
करूंगा, आपके कपड़े
धोऊंगा, और
अगर आपके सिर
में जूएं हुईं
तो वह भी
निकाल दूंगा —आपके
लिए दूध ले
आया करूंगा और
आपके नन्हे —नन्हे
हाथ चूमा
करूंगा और
आपके छोटे —छोटे
पैरों की
मालिश कर दिया
करूंगा और
रात्रि को
आपके सोने से
पहले आपके
छोटे से कमरे
को साफ कर
दिया करूंगा……।’
पैगंबर
मोजेज उस
चरवाहे की इन
बातों को
सुनकर बहुत
नाराज हुए और
जाकर उस
चरवाहे से
कठोर शब्दों
में बोले, 'अरे मूढ़,
नासमझ! तू
किससे ऐसी
मूढ़तापूर्ण
बातें कर रहा है?
यह क्या तू
परमात्मा के
प्रति
निंदापूर्ण
ढंग से बोल
रहा है? परमात्मा
से इस प्रकार
की बातें करने
से कहीं अच्छा
होता तू गंगा
हो जाता। तेरा
इस तरह से
परमात्मा से
बोलना पाप
पूर्ण है, अपराध
है। अरे
चरवाहे! अपने
मुंह में कपड़ा
ठूंस ले। और
खबरदार! अब एक
भी शब्द अनादर
का परमात्मा
के प्रति मत
बोलना, परमात्मा
तुझे एक क्षण
में भस्म कर
सकता है, एक
क्षण में राख
कर सकता है।’
और फिर
ऐसा कहा जाता
है कि उस
चरवाहे ने दुख
और पीड़ा से
भरकर अपने
कपड़े फाड़ डाले, एक आह भरी
और तेजी से
घने जंगल में
चला गया।
तब रात
को मोजेज के
सम्मुख
रहस्योदघाटन
हुआ। मोजेज से
परमात्मा ने
कहा, 'मोजेज,
तुम्हें तो
जगत में लोगों
को मुझसे
जोड्ने के लिए
भेजा गया था, तोड्ने के
लिए नहीं।
लेकिन तुमने
तो मेरे पीछे
चलने वाले एक
प्यारे से, मेरे एक
भक्त से मुझे
अलग कर दिया।
वह चरवाहा मुझे
प्यारा है।
मोजेज भूलना
नहीं, पूजा
करने का चाहे
कोई सा भी ढंग
हो, वह
मेरा ही है।
पूजा की अनेक
विधियां हैं,
धर्म भी
अनेक हैं, लेकिन
फिर भी सभी
धर्म, सभी
विधियां मेरे
ही हैं। हर एक
आदमी का अपना मार्ग
है, अपना
ढंग है, अपना
रूप है, अपनी
बोली है।
मोजेज, मैं
भाषा और
शब्दों को
नहीं देखता.
मैं तो व्यक्ति
की आत्मा और
उसके आंतरिक
भाव को देखता
हूं।’
बुद्धि
हमेशा अपने ही
ढंग से सोचती
चली जाती है।
अंतर्बोध इस
बात के प्रति
अबोध व अज्ञानी
ही बना रहता
है। और
अंतर्बोध
बुद्धि में विश्वास
नहीं कर सकता, वह उसे
बहुत सतही
मालूम होती है
_ जिसमें
जरा भी गहराई
नहीं है।
हमको
स्वयं के भीतर
की बुद्धि और
अंतर्बोध को एक
करना है। जब
पतंजलि कहते
हैं उन्हें
मिलाना है —प्रातिभाद्वा
सर्वम् —तो
उनका यही मतलब
है। बुद्धि का
और अंतर्बोध का
मिलन इतने
गहरे से हो
जाए कि दोनों
आपस में एक
दूसरे में
समाहित हो
जाएं, तब
कहीं जाकर
प्रतिभा का आविर्भाव
होता है —जहां
तर्क और
प्रार्थना का
मिलन हो जाता
है, जहां
कार्य और पूजा
का मिलन हो
जाता है, जहां
विज्ञान
कविता के विरोध
में नहीं होता
और कविता
विज्ञान के
विरोध में
नहीं होती।
इसीलिए
मैं कहता हूं
कि आदमी अभी
भी विकसित हो
रहा है।
मनुष्य अभी
जैसा है पूर्णरूप
से परितृप्त
नहीं है, संतुष्ट
नहीं है। अभी
उसे
परितृप्ति को
उपलब्ध करना
है, उस
परितृप्ति की
विशाल कीमिया
को अभी उसे
पाना है। और
इसके लिए हमें
स्वयं को वि
कास की एक बड़ी
प्रायोगिक
प्रयोगशाला
बनाना है और
मूलाधार से, काम —केंद्र
से अपनी ऊर्जा
को सहस्रार की
ओर लाना है।
हृदये
चित्तसवित्।
'हृदय
पर संयम
संपन्न करने
से मन की
प्रकृति, उसके
स्वभाव के
प्रति
जागरूकता आती
है।’
यह भी
ठीक अनुवाद
नहीं है, लेकिन इसका
अनुवाद करना
भी कठिन है।
अनुवाद करने
वाले लोग
कठिनाई में पड़
जाते हैं।
हृदये
चित्तसवित्।
पहली
तो बात, जब पतंजलि
हृदय शब्द का
उपयोग करते
हैं तो उनका मतलब
भौतिक या
शारीरिक हृदय
से नहीं है।
योग की
पारिभाषिक
व्याख्या में,
ठीक भौतिक
हृदय के पीछे
ही वास्तविक
और सच्चा हृदय
छिपा हुआ है।
वह भौतिक शरीर
का हिस्सा नहीं
है। भौतिक
हृदय
वास्तविक
हृदय से, आध्यात्मिक
हृदय से
जोड्ने का
कार्य करता
है। उनके बीच
एक सिन्क्रानिसिटी,
एक
समस्वरता है,
लेकिन उनके
बीच कोई कार्य
—कारण का
संबंध नहीं
है। और उस
हृदय को केवल
तभी जाना जा
सकता है जब
शिखर पर
पहुंचना हो
जाए। जब ऊर्जा
सहस्रार के
शिखर —बिंदु
तक पहुंच जाती
है ओमेगा
पाइंट तक
पहुंच जाती है,
तभी केवल
सच्चे हृदय का,
वास्तविक
हृदय का बोध
होता है वहीं
पर है परमात्मा
का सच्चा वास।
हृदये
चित्तसवित्।
'हृदय
पर संयम
एकाग्र करने
से मन की
प्रकृति, उसके
स्वभाव के
प्रति
जागरूकता आती
है।’ यह भी
ठीक नहीं है।
चित्तसवित्
का अर्थ होता
है चैतन्य का
स्वभाव, न
कि मन का
स्वभाव। मन तो
बिदा हो चुका
है, बहुत
पीछे छूट चुका
है, क्योंकि
मन या तो
सूर्य —मन
होता है या
चंद्र —मन
होता है। जब
व्यक्ति
सूर्य और
चंद्र का अतिक्रमण
कर लेता है, तो मन बिदा
हो जाता है।
असल में
चित्तसंवित्
अ—मन की
अवस्था है।
अगर
झेन फकीरों से
पूछो तो वे
इसे अ —मन
कहेंगे। मन
बिदा हो जाता
है, क्योंकि
मन केवल चीजों
को विभक्त
करके ही रह सकता
है, और जब
भेद मिट जाता
है, तो मन
भी मिट जाता
है। वे दोनों
साथ—साथ ही
अस्तित्व
रखते हैं, वे
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। मन चीजों
को विभक्त
करता है और उस
विभेद के
द्वारा ही
जीता है—वे
दोनों एक
दूसरे पर
निर्भर हैं, वे एक—दूसरे
पर अवलंबित
हैं। जब विभेद
या विभाजन समाप्त
हो जाता है, तो मन भी
समाप्त हो
जाता है; और
जब मन समाप्त
हो जाता है तो
विभेद या
विभाजन भी
समाप्त हो
जाता है।
अ —मन की
अवस्था तक
पहुंचने के दो
मार्ग हैं। एक
तो तंत्र का
मार्ग है. मन
गिर जाए, तो विभेद भी
बिदा हो जाता
है। दूसरा है
योग का मार्ग
विभेद गिर जाए,
तो मन बिदा
हो जाता है।
इन दोनों में
से कोई सा भी
मार्ग चुना जा
सकता है।
दोनों का
अंतिम परिणाम
एक ही है—अंतत:
व्यक्ति एक हो
जाता है।
स्वयं के साथ
एक समस्वरता
एवं सामंजस्य
हो जाता है।
हृदये
चित्तसवित्।
तब
चैतन्य का
वास्तविक
स्वभाव क्या
है, यह
ज्ञात हो जाता
है।
चैतन्य
को अंग्रेजी
में कांशसनेस
कहते हैं। कांशसनेस
ऐसा प्रतीत
होता है जैसे
अनकांशस का
विपरीत हो।
चित्तसवित्
शब्द अनकांशस
के विपरीत
नहीं है।
चैतन्य में, होश में,
अमूर्च्छा
में तो सभी
कुछ समाहित
होता है. बेहोशी,
मूर्च्छा
भी चैतन्य की
ही सोयी हुई
अवस्था है, इसलिए उसमें
कोई
विरोधाभास
नहीं है। चेतन
— अचेतन, अमूर्च्छा
—मूर्च्छा सभी—जब
व्यक्ति अपनी
जागरूकता को
संयम पर, हृदय
पर एकाग्र कर
देता है तो
चैतन्य का
वास्तविक
स्वभाव
उदघटित हो
जाता है।
योग
में हृदय
केंद्र को
अनाहत चक्र, अनाहत
केंद्र कहते
हैं। तुमने एक
प्रसिद्ध झेन
कोआन के बारे
में सुना
होगा....... जब कोई
शिष्य सदगुरु
के पास आता है,
तो सदगुरु
उसे ध्यान
करने के लिए
कोई बात पकड़ा
देता है।
उनमें से यह
कोआन बहुत ही
प्रसिद्ध है।
एक
सदगुरु अपने
शिष्य से कहता
है, 'जाओ,
एक हाथ की
ताली की आवाज
सुनो।’
अब ऐसे
देखो तो यह
बात बड़ी ही
असंगत सी
मालूम होती
है। क्योंकि
एक हाथ से
ताली तो बज ही
नहीं सकती है
और एक हाथ की
ताली की आवाज
भी नहीं हो सकती
है। आवाज करने
के लिए तो दो
हाथ चाहिए ही, पहले
बजाओ और आवाज
करो। आहत का
अर्थ है.
द्वंद्व, अनाहत
का अर्थ है
द्वंद्व —विहीन।
अनाहत का अर्थ
है एक हाथ की
ताली।
जब
भीतर की सभी
आवाजें विलीन
हो जाती हैं, तो उस
आवाज को, उस
ध्वनि को सुना
जा सकता है जो
सदा से वहां
विद्यमान है,
जो कि
अस्तित्व का
स्वभाव है, जो अस्तित्व
का वास्तविक
स्वभाव है —जो
शाति की, सन्नाटे
की, मौन की
ध्वनि है, या
कहें कि वह
ध्वनि विहीन
ध्वनि है।
हृदय को अनाहत
चक्र कहकर
पुकारा जाता
है, वह
स्थान जहां
निरंतर बिना
किसी द्वंद्व
के एक ध्वनि
निर्मित होती
रहती है —वही
है ध्वनियों
की ध्वनि, या
कहें शाश्वत
ध्वनि।
हिंदुओं
ने इसी ध्वनि
को ओंकार का
नाद या ओम कहा
है। यह ध्वनि
अपने से सुनाई
नहीं देती, इस ध्वनि
को सुनना होता
है। इसलिए जो
लोग — ओम, ओम,
ओम दोहराए
चले जाते हैं
वे मूढ़ता कर
रहे हैं। ओम
को दोहराने
मात्र से
वास्तविक
ओंकार को, उसकी
वास्तविक
ध्वनि को, नाद
को नहीं सुना
जा सकता।
क्योंकि ऊपर
से ओंकार को
दोहराना ताली
बजाकर ध्वनि
निर्मित करने
जैसा है।
तो
पहले तो पूरी
तरह से मौन और शांत
हो जाओ, सभी विचारों
को गिर जाने
दो, थिर हो
जाओ और अचानक
वह ध्वनि वहा
विद्यमान हो
जाती है —वह
ध्वनि तो हमेशा
से ही वहा थी, लेकिन उस
ध्वनि को
सुनने के लिए
हम ही मौजूद न थे।
वह बहुत ही
सूक्ष्म
ध्वनि है। जब
मन से बाहर का
संसार बिदा हो
जाता है और
व्यक्ति केवल इस
ध्वनि के
प्रति ही
जागरूक और
सचेत हो जाता है,
तब धीरे —
धीरे वह इस
ध्वनि के
प्रति ग्राहक
हो जाता है, इस ध्वनि को
सुनने के लिए
उपलब्ध हो
जाता है —फिर
धीरे — धीरे इस
ध्वनि को
सुनना संभव
है। फिर इस
ध्वनि को सुना
जा सकता है।
अगर एक
हाथ की ताली
सुन ली, तो फिर
परमात्मा को
और संपूर्ण
अस्तित्व को सुनना
संभव है।
पतंजलि
हमें उस शिखर —बिंदु
तक, ओमेगा
पाइंट तक धीरे
— धीरे एक —एक
कदम लेकर चल
रहे हैं। यह
तीनों सूत्र
बहुत प्रतीकात्मक
हैं। इन
सूत्रों पर
फिर —फिर मनन
करना, इन
पर ध्यान
करना। और अपने
अंतर —
अस्तित्व में
इन सूत्रों को
अनुभव करना।
यह सूत्र
परमात्मा के
जगत के द्वार
को खोलने की
कुंजियां बन
सकते हैं।
आज
इतना ही।
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