दिनांक
5 अक्टूबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
संत
रयोकान
किसी पहाड़ की
तलहटी में एक झोपड़े में
रहते थे।
अत्यंत ही
सादा जीवन था
उनका। एक
संध्या एक चोर
उनके झोपड़े
में घुसा, लेकिन उसने
देखा कि झोपड़े
में तो कुछ भी
नहीं है।
इस
बीच संत झोपड़े
पर वापस आए और
उन्होंने चोर
को निकलते देख
लिया। उस चोर
से उन्होंने
कहा, 'तुम
लंबी यात्रा
करके मुझसे
मिलने आये, इसलिए
तुम्हारा
खाली हाथ
लौटना उचित
नहीं है। कृपा
कर भेंट में
मेरे
अंगवस्त्र
लिये जाओ।'
चोर
तो बहुत हैरान
रह गया। बहुत
झेंप के साथ उसने
कपड़े लिये और
चुपचाप गायब
हो गया।
संत
रयोकान
अब नंगे थे।
और नंगे ही
बैठ कर आकाश
में चंद्रमा
को निहारते
रहे। और फिर
उन्होंने मन
ही मन कहा:
'काश,
उस गरीब को
मैं यह सुंदर
चांद भी दिये
देता!'
भगवान!
इस सुंदर झेन
बोध -कथा का
मर्म क्या है?
एक
सूफी फकीर हुआ
मुहम्मद
सैयद। वह बड़े
प्रसिद्ध संत फुरकन का
शिष्य था। शाहजहां
उसे आदर करते
थे। और दाराशिकोह
उसके भक्तों
में एक था। औरंगजेब
इस कारण ही
उससे नाराज
था। और जब औरंगजेब
सत्ता में आया
तो उसने पहला
काम किया कि
मुहम्मद सैयद
को जेलखाने
में डाल दिया, बहुत सताया
और फिर आखिर
में सूली दे
दी।
मुहम्मद
सैयद एक गीत
गाया करते थे।
उस गीत का अर्थ
था कि मैं
भक्तों का
भक्त हूं।
भगवान तो मुझसे
बहुत दूर, उसे तो मैं
कैसे पहचानूं!
मैं उसके
भक्तों को ही
पहचान लूं तो
मेरी तृप्ति
है। उस गीत
में कुछ
पंक्तियां और
थीं कि मैं
यहूदी भी हूं,
मुसलमान भी,
हिंदू भी; और काबा में
जो संगे-अस्बद
है वही दैर
में बुत है।
ये
बातें खतरनाक
थीं। मुसलमान
मुल्ला नाराज थे।
फिर औरंगजेब
खुद भी नाराज
था; तो सूली
दे देनी बड़ी
आसान है। जिस
दिन सैयद मुहम्मद
सूली पर चढ़े, उस दिन सूली
की सीढ़ियां
चढ़ते
उन्होंने एक
गीत फिर गाया।
वह उनका आखिरी
गीत है।
उस गीत
का मतलब है, 'मैं तुम्हें
भली-भांति
पहचानता हूं।
तू किसी भी
शक्ल में
क्यों न आये, तू मुझे
धोखा न दे
सकेगा।' और
आकाश की तरफ
आंखें उठा कर
उन्होंने कहा
कि 'हे
मेरे प्रीतम,
हे मेरे
दोस्त, आज
तू सूली की
शक्ल में आया
है। लेकिन
पक्का भरोसा
रख, तू
मुझे धोखा
नहीं दे पा
रहा है। मैं
सूली के पीछे
छिपा तुझे देख
रहा हूं। और
यह सूली मेरा
परम सौभाग्य
है। क्योंकि
यह देह जो
बाधा थी, मेरे
और तेरे बीच
में; गिर
जायेगी। मिलन
शाश्वत हो
जायेगा। बूंद
अब सागर में
गिरने के करीब
है।'
संतत्व
का अर्थ क्या
है? संतत्व
का अर्थ है
जहां भी आंख
पड़े वहां
परमात्मा
दिखाई पड़े।
संतत्व का
अर्थ नहीं है
कि आकाश में
कहीं दूर छिपा
हुआ परमात्मा
हो। संतत्व का
अर्थ है: ऐसा
कुछ भी न बचे
जहां
परमात्मा दिखाई
न पड़े।
परमात्मा तुम्हारी
दृष्टि हो
जाये। वही हो
सब तरफ। हवा के
हर झोंके में
उसका झोंका
हो। सूरज की
हर किरण में
उसका प्रकाश
हो। जीवन किसी
भी रूप में छिपा
हो, तुम्हारी
आंखें इतनी
गहरी हो जायें
कि तुम वहां
परमात्मा को
पा सको; तुम्हें
धोखा न दिया
जा सके।
प्रीतम चाहे
सूली की शक्ल
में ही क्यों
न आये, तुम
उसे देख पाओ।
परमात्मा
एक दृष्टि है।
संसार तो यही
है आस्तिक को
भी, नास्तिक
को भी; ज्ञानी
को भी, अज्ञानी
को भी। संसार
तो यही है, उसको
भी जो आनंद से
विभोर होकर
नाच रहा है, और उसको भी
जो दुख में
डूबा हुआ सड़
रहा है।
यह
संसार तो तुम्हारी
व्याख्या है।
तुम्हारी
व्याख्या
भ्रांत होगी
तो यह नर्क
जैसा मालूम
पड़ेगा।
तुम्हारी
व्याख्या
सम्यक होगी तो
यही स्वर्ग हो
जायेगा।
स्वर्ग और
नर्क कोई
भौगोलिक
घटनायें नहीं
हैं। वे कोई
स्थान नहीं
हैं जहां तुम
जा सको। वे
तुम्हारे
देखने के ढंग
हैं।
इसलिए
क्षण में सब
बदल सकता है।
ढंग देखने का
बदल जाये तो यहीं
परमात्मा
चारों तरफ
प्रकट हो जाता
है। वह मौजूद
ही है; तुम्हारे
देखने में
कहीं भूल है।
तुम उसे नहीं
देख पाते।
जैसे कि कोई
आदमी सूरज के बरसते हुए
प्रकाश में
आंख बंद किए
हुए खड़ा हो, ऐसे तुम
परमात्मा की
बरसती हुई
धारा में आंख
बंद किए खड़े
हो। जैसे कि
कोई आदमी
प्रियतम की
तरफ पीठ किए
खड़ा हो। ऐसे
तुम परमात्मा
की तरफ पीठ
किए खड़े हो, और फिर तुम
कहते हो कि
परमात्मा
कहां है?
दुख
जीवन की गलत
व्याख्या है।
सुख जीवन की
सही व्याख्या
है। और आनंद
सब
व्याख्याओं
से मुक्त हो
जाना है; वह
मोक्ष है।
तब
पहली बात, इसके पहले
कि हम इस
बोध-कथा में
प्रवेश करें,
पहली बात तो
समझ लें कि
तुम अगर नर्क
में हो तो किसी
और ने तुम्हें
नहीं डाला। यह
नर्क तुमने अपने
हाथों ही
बनाया है। तुम
इसके स्रष्टा
हो। परमात्मा
ने बनाया होगा
अस्तित्व, लेकिन
नर्क तुमने
बनाया है।
नर्क
तुम्हारे
देखने का ढंग
है। वह
तुम्हारी
फिलासफी है।
वह तुम्हारा
जीवन-दर्शन
है। तुम जरूर
गौर करोगे तो
पा लोगे, कि
किस तरह तुम
जीवन को नर्क
कर देते हो।
लोग
हैं, गुलाब के
फूल के पास
खड़े हो जायें
तो फूल उन्हें
दिखाई नहीं
पड़ता, सिर्फ
कांटों की गिनती
करते हैं। और
अगर कोई
व्यक्ति
कांटों की गिनती
करेगा तो
जल्दी ही
आंखें कांटों
से भर जायेंगी।
क्योंकि तुम
जिसे देखोगे
वही तुम्हारी
आंखों में
प्रविष्ट हो
जायेगा।
देखना, बड़ा सोच-समझ
कर करना। वह
खतरनाक सौदा
है। क्योंकि
जो तुम देखोगे,
वह
तुम्हारी आंख
पर छपता
जायेगा। वह
तुम्हारी आंख
पर पर्दा बन
जायेगा। अगर
तुमने कांटे
गिने तो कांटे
इतने हो जायेंगे
तुम्हारी आंख
में कि तुम
फूल को देख ही
न पाओगे। फूल
भी वहां था।
और मजा तो यह
है कि कांटे
अगर वहां थे
तो केवल फूल
को बचाने को
थे। और तुमने
कांटे तो चुन
लिए। और तुमने
कांटे इतने
चुन लिए कि
फूल को देखना
असंभव हो गया।
तुमने
ऐसे लोग भी
देखे होंगे जो
फूल को देखते हैं।
और फूल उनकी
आंखों में भर
जाता है। फूल
जब आंखों में
भर जाये तो
कांटों को
देखने की जगह
नहीं रह जाती।
आंख या तो फूल
देख सकती है
या कांटे देख
सकती है।
ध्यान
या तो दुख पर
हो सकता है या
सुख पर हो
सकता है।
ध्यान या तो
गलत पर होगा
या ठीक पर
होगा। और एक
से भर जाये
ध्यान, तो
दूसरे के लिए
द्वार बंद हो
जाता है।
ध्यान बड़ा
संकरा है।
जीसस ने कहा
है, 'नैरो इज द गेट।'
उस
परमात्मा के
राज्य का
द्वार बड़ा
संकरा है। तुमने
अगर कांटों से
भर लिया तो
फूल की जगह
समाप्त हो गई।
तुमने अगर दुख
से भर लिया तो
सुख को तुमने
स्थान न छोड़ा,
जहां से आ
सके। रंध्र भी
न बची।
तुम
जानते हो, आंखें बड़ी
छोटी हैं। और
एक से भर
जायें तो विपरीत
के लिए कहां
गुंजाइश है? जिस आंख में
कांटे अगर
बहुत भर गये
हैं, उसको अगर
फूल दिखाई भी
पड़े तो भरोसा
पैदा न होगा।
एक तो दिखेगा
न। दिख जाये
भूले-भटके, तुम चूक जाओ
और दिख जाये, तो भरोसा न
आयेगा।
क्योंकि
तुम्हारा
तर्क कहेगा--तर्क
जो कांटों से
भरा है--कि
जहां इतने कांटे
हैं, वहां
फूल हो कैसे
सकता है? जरूर
मैं कोई धोखा
देख रहा हूं।
जरूर कोई सपना
है। कोई
कल्पना मुझे
पकड़ ली।
तुमने
अगर जिंदगी
में बुरे ही
बुरे लोगों की
खोज की और
तुम्हारा मन
बुरे लोगों से
भर गया...बुद्ध
तुम्हारे बीच
भी खड़े हो
जायें, तुम
पहचान न पाओगे?
पहले तो वे
दिखाई ही न
पड़ेंगे। फिर
तुम्हारी कोई
भूल-चूक से
दिखाई भी पड़
जायें तो तुम
भरोसा न कर
सकोगे।
इसीलिए
तो श्रद्धा
बड़ी कठिन है।
क्योंकि अश्रद्धा
को तुमने इतना
आसान बना लिया
है। अश्रद्धा
करने को तुम
ऐसे तत्पर, अश्रद्धा
करने को तुम
ऐसे पिपासु हो,
कि मौका भी
न मिले तो भी
तुम अश्रद्धा
कर लेते हो।
अश्रद्धा के
लिए तुम पूरे
तैयार, निष्णात
हो। संदेह
तुम्हारा
स्वभाव हो गया
है। इस संदेह
से भरे स्वभाव
में श्रद्धा
को आने की जगह
कहां? और
कभी अगर बुद्ध
दिखाई भी पड़
जायें तो तुम
सोचोगे, यह
हो नहीं सकता।
यह असंभव है।
यह तो केवल
शास्त्रों
में, कथाओं
में इस तरह के
लोग होते हैं,
जीवन में नहीं
होते। जरूर
मुझसे भूल हो
गई होगी, जरूर
मैं कुछ ठीक
नहीं देख पा
रहा हूं। मेरी
आंखें किसी
भ्रम से भरी
हैं।
इससे
विपरीत घटता
है उस आदमी को, जिसने चुनाव
ठीक से किया
और आंखों को
फूल से भर
लिया। उसे
कांटे दिखाई
पड़ने बंद हो
जाते हैं।
तर्क
तो वही है, नियम तो वही
है। और
धीरे-धीरे ऐसी
घड़ी आ जाती है
कि अगर कांटा
दिखाई भी पड़
जाये तो कांटे
पर भरोसा नहीं
आता। क्योंकि
यह हो कैसे
सकता है? जहां
गुलाब जैसा
कोमल फूल लगता
हो, वहां
कांटे, उसी
पौधे पर कैसे
लग सकते हैं? इतनी
विपरीतता है,
इतना विरोध
है फूल में और
कांटे में, इससे बड़ा
विरोध तुम पा
सकोगे? और
एक ही पौधे
में इतना बड़ा
विरोध कैसे
लगेगा? आंख
फूल से भरी हो
तो कांटे पर
श्रद्धा उठ
जाती है।
और एक
बड़ी घटना घटती
है, वह यह, कि जिसकी
आंख कांटे से
भर गई है उसे
फूल दिखाई नहीं
पड़ता। दिखाई
पड़ जाये, श्रद्धा
नहीं होती।
फूल हो भी, तो
भी लगता है
झूठा है, कोई
चाल कर रहा
होगा, कोई
षडयंत्र है।
कोई धोखा देने
के लिए तैयार
है। भागो
यहां से, बचो
यहां से। फूल
हो ही नहीं
सकता।
तुम्हारी व्याख्या
में फूल के
होने की
संभावना
समाप्त हो गई।
अगर
फूल दिख जाये
तो कांटे
दिखाई नहीं
पड़ते। अगर
कांटे दिखाई
भी पड़ जायें
तो उन पर
श्रद्धा नहीं
आती। और अगर मानने
को मजबूर ही
होना पड़े कि
कांटे हैं, तो भी
तुम्हें यह
दिखाई पड़ने
में देर नहीं
लगेगी कि
कांटे फूलों
की रक्षा के
लिये हैं। वे
फूलों की सेवा
में रत हैं।
वे फूलों के
शत्रु नहीं
हैं। वे फूलों
के मित्र हैं।
तभी तो एक ही
पौधे पर दोनों
लग सकते हैं।
शत्रुता कैसे
एक ही पौधे पर
लगेगी? अगर
कांटा उसी
पौधे पर लगता
है, उसी जड़
से रस पाता है
जिससे फूल; तो किसी
गहरे में
दोनों के बीच
मैत्री होनी
चाहिए। किसी
गहरे में
दोनों के बीच
एक संगीत का संबंध,
एक
लयबद्धता
होनी चाहिए।
अन्यथा यह
असंभव है।
जहां-जहां
तुम्हें
विरोध दिखाई
पड़ता है, उस
विरोध के नीचे
अगर तुम गौर
करोगे, तो
कहीं तुम्हें
एकता उपलब्ध
होगी।
क्योंकि एक ही
जीवन में
दोनों कैसे लग
सकते हैं? लेकिन
जिस आदमी ने
फूलों से अपने
को भर लिया, उसका जीवन
सुख से भर
जायेगा। और
जिस आदमी ने कांटों
से अपने को भर
लिया उसका
जीवन दुख से भर
जायेगा।
तुम्हें
जब भी कुछ
चुभता है, तब तुम
समझते हो कोई
तुम्हें चुभा
रहा है, तुम
भूल में हो।
जब भी तुम्हें
कुछ चुभता है,
उसका अर्थ
है कि तुम
कांटे देखने
में इतने कुशल
हो गये हो कि
हर चीज कांटा
हो गई है, और
हर चीज चुभती
है।
एक
सूफी फकीर औरत
हुई राबिया।
वह किसी में
कुछ बुरा नहीं
देखती थी। वही
तो संत का
लक्षण है! वह
कांटे को भी
देखती तो उसकी
प्रशंसा में
गीत ही उससे
निकलता। उसके
मित्र, उसके
शिष्य और
दूसरे फकीर
बड़े परेशान
थे। कैसी ही
बुरी बात हो, उसमें कुछ न
कुछ फूल का
खिलना वह देख
ही लेती थी।
एक दिन एक
फकीर हसन ने
कहा कि राबिया,
सब तरह की
खबरें हम तेरे
पास लाते हैं।
तू कुछ न कुछ
अच्छा देख
लेती है। क्या
तुझे शैतान
में भी कुछ
अच्छा दिखाई
पड़ता है?
राबिया
का चेहरा ऐसे
प्रसन्नता से
भर गया जैसे
शैतान का नहीं, परमात्मा का
नाम लिया गया
हो। और राबिया
ने कहा, 'धन्यवाद
शैतान का।
क्योंकि न वह
मेरी वासना को
उकसाता और न
मुझमें कभी
संयम का जन्म
होता। न वह
मुझे चुनौती
देता और न
मैंने
परमात्मा तक
यात्रा की
होती।
धन्यवाद
शैतान का! और
यह तो हसन
तुम्हें भी
मानना पड़ेगा
कि कुछ गुण
शैतान में हैं,
जो संतों
में भी नहीं
होते।'
हसन ने
कहा, 'कौन से
गुण? सुने
नहीं कभी।
किसी शास्त्र
में लिखे
नहीं।'
तो राबिया
ने कहा, 'देखो
असंभव में लगा
है शैतान, परमात्मा
को हराने में।
इससे बड़ी
असंभव बात क्या
होगी? लेकिन
हताश नहीं
होता। तुम
परमात्मा को
पाने में लगे हो,
जिससे सरल
कोई बात नहीं
हो सकती; फिर
भी हार-हार
जाते हो और
हताश हो जाते
हो। धैर्य तो
मानना पड़ेगा
शैतान का।
सीखना हो तो
उससे सीखना
चाहिए।
अनंतकाल से
परमात्मा को
हराने में लगा
है, जो कि
हो ही नहीं
सकता। और तुम
परमात्मा को
पाने में लगे
हो, जो कि
होना ही चाहिए
इसी क्षण!
क्योंकि
परमात्मा
स्वभाव है; उसे पाने
में क्या
दिक्कत है? वह तुम्हारे
भीतर छिपा है।
एक कदम भी तो
नहीं उठाना; बस, जरा
आंख खोलनी है।
और तुम उसमें
भी हार जाते हो,
थक जाते हो।
और शैतान
स्वभाव को
हराने में लगा
है जो हो ही
नहीं सकता।
क्योंकि अगर
स्वभाव हार
जाये, तो
फिर जीतेगा
क्या? स्वभाव
का तो अर्थ है,
जो शाश्वत
नियम है। उसके
विपरीत कुछ भी
नहीं हो सकता।
असंभव में लगा
है। लेकिन
उसका धैर्य, उसकी लगन, उसका श्रम, सीखने जैसा
है।' राबिया ने कहा, 'मैं
तो परमात्मा
तक पहुंची
शैतान से
सीख-सीख कर।
और जिस दिन मैंने
परमात्मा को
पाया, मैंने
पहला धन्यवाद
शैतान को
दिया। उसके
सहारे के बिना
यह यात्रा
नहीं हो सकती
थी।'
तुम्हें
परमात्मा भी
मिल जाये तो
तुम शिकायत लेकर
खड़े हो जाओगे।
तुम्हारे मन
में फेहरिश्त
होगी
शिकायतों की, कि अगर कभी
परमात्मा मिल
जाये तो यह
पूरी फेहरिश्त
सामने रख
देंगे। शायद
इसी डर से वह
तुम्हें मिलता
भी नहीं।
मैंने
सुना है, एक
यहूदी कथा है
कि एक आदमी
बड़ी उबाने
वाली बकवास
करने का आदी
था। साधु था, रबाई था, एक
बड़े यहूदी
मंदिर का
पुरोहित था; मगर बड़ा उबानेवाला
था। और उसकी
बकवास से पूरा
गांव परेशान
था। एक सुबह, वर्ष के
पवित्र दिन पर
उसने उठकर
अपनी पहली प्रार्थना
में कहा कि 'हे परमात्मा,
अब बहुत हो
गया। आज तो
तुझे मुझे
मिलना ही होगा।
हो गई
प्रतीक्षा, हो गया श्रम,
हो गई
प्रार्थना! अब
काफी हो गया।'
परमात्मा
ने कहा, 'मेरे
भाई, आज तो
छुट्टी का दिन
है। आज तो कम
से कम तू मुझे
क्षमा कर। आज
तो मुझे भी
विश्राम करने
दे।'
तुम्हारे
पास इतनी बड़ी फेहरिश्त
है शिकायतों
की। कांटे ही
कांटों की
माला है तुम्हारे
पास। अगर
परमात्मा मिल
जाये तो वही माला
तुम उसके गले
में पहनाओगे; शायद इसी डर
से तुम्हें
मिलता नहीं।
मैंने
एक और कहानी
सुनी है, एक
जहाज यात्रा
पर था। उसमें
एक संत भी था
और एक पापी भी
यात्रा कर रहा
था। और भी लोग
यात्रा कर रहे
थे। तूफान आया,
जहाज अब
डूबा तब डूबा
की हालत हो
गई। सारे लोग अपने
घुटनों पर गिर
गये और
परमात्मा से
प्रार्थना
करने लगे। संत
ने क्या किया?
वह जहां
पापी बैठा था
एक कोने में
घुटने टेक कर,
वह जा कर
उसके सामने
खड़ा हो गया
उसको छिपा कर।
उसने कोई
प्रार्थना तो
नहीं की, उस
पापी को छिपा
कर खड़ा हो
गया। उस पापी
ने कहा, 'मेरे
भाई, यह
क्या कर रहे
हो? हे
परमात्मा, बचाओ!'
उस संत ने
कहा, 'धीरे
बोल भाई! अगर
उसे पता चल
गया कि तू
यहां है तो
कोई नहीं बच
सकता। मैं
तुझे छिपा कर
खड़ा हूं।'
तुम
जैसे हो, परमात्मा
तुमसे छिप कर
चलेगा। उसे
पता भर चल जाये
कि तुम कहां
हो, वहां
भर से वह विदा
हो जाता है।
और कहीं होता
होगा, लेकिन
तुम जहां हो, वहां नहीं
होता। इसीलिए
तो तुम्हें तीर्थयात्रायें
करनी पड़ती
हैं। कोई
मक्का जाता है,
कोई काशी
जाता है, कोई
गिरनार जाता
है। क्यों? परमात्मा
वहां नहीं है,
जहां तुम हो?
तुम्हारे
डर की वजह से
वह कहीं
गिरनार में
छिपा है, काशी
में छिपा है, काबा में
छिपा है। और
तुम इतनी भीड़
में वहां जा
रहे हो कि
इसको पक्का
मानना कि वहां
से कभी भाग
चुका होगा।
जिसके
हृदय में
शिकायतें भरी
हैं, और जिसने
कांटों को
चुना है, उससे
परमात्मा का
मेल नहीं हो
सकता।
प्रार्थना का
क्या अर्थ है?
शिकायत-शून्य
हृदय! तुम
चाहे चिल्लाओ
मत छाती फाड़-फाड़
कर परमात्मा
का नाम, क्योंकि
वह बहरा नहीं
है। तुम्हारे
हृदय में उठते
धीमे से स्वर
भी वह सुन
लेगा। तुम्हारी
श्वासों में
बसी हुई भावना
भी उसे पता चल
जायेगी। तुम
उससे क्या
छिपा पाओगे? तुम्हारे
चिल्लाने की
कोई आवश्यकता
नहीं है।
प्रार्थना
का नाम उसकी
स्तुति नहीं; प्रार्थना
का अर्थ है, शिकायत के
भाव का अभाव।
लेकिन यह
कब होगा? यह
तब होगा, जब
तुमने जीवन
में फूल चुने
हों। फूलों को
चुननेवाला
अहोभाव से भर
जाता है।
अनुग्रह, प्रार्थना
है। अनुगृहीत
होने की भावना
प्रार्थना
है। एक सतत
कृतज्ञता, कि
जो मिला है
मुझ अपात्र को,
वह जरूरत से
ज्यादा है, असीम है। जो
मुझे मिला है,
वह उसका
प्रसाद है, मेरी
योग्यता
नहीं। जो
मैंने पाया है,
वह जरूरत से
ज्यादा है। यह
तो अहोभाव है।
अहोभाव
प्रार्थना
है।
लेकिन
जो भी मुझे
मिला है वह
मेरी योग्यता
से कम है, यह
शिकायत है। और
शिकायत का
अर्थ है कि
तुमने कांटे
चुने।
प्रार्थना का
अर्थ है कि
तुमने फूल चुने।
और
जिंदगी में
दोनों हैं।
फूल भी हैं और
कांटे भी हैं।
सुख भी है, दुख भी है।
अच्छा भी है, बुरा भी है।
पापी भी हैं, पुण्यात्मा
भी हैं।
क्योंकि जीवन
द्वंद्व से
निर्मित है।
दोनों हैं।
इसलिए
तुम्हारे सामने
तीन विकल्प
हैं। एक; दुख
को चुनो और
नर्क में रहो।
दो; सुख को
चुनो स्वर्ग
में रहो। और
तीन; दोनों
को मत चुनो और
सुख और दुख
दोनों से मुक्त
हो जाओ। वही
परम अवस्था
है। वही
परमात्मा के
साथ एक हो
जाना है।
यह रयोकान
की कहानी बड़ी
कीमती है। बड़ी
छोटी और बड़ी
अर्थपूर्ण!
इसके एक-एक
शब्द को समझने
की कोशिश करें।
संत रयोकान
किसी पहाड़ की
तलहटी में एक
छोटे से झोपड़े
में रहते थे।
अत्यंत ही
सादा जीवन था
उनका।
सादा
जीवन झेन
परंपरा में
बड़ा विशेष
अर्थ रखता है।
इसलिए उसे ठीक
से समझ लें।
क्योंकि तुम जिसे
सादा जीवन
कहते हो, झेन
फकीर उसे सादा
जीवन नहीं
कहते।
तुम्हारे
मन में सादा जीवन
का क्या अर्थ
है? तुम्हारे
मन में सादा
जीवन का अर्थ
है कि एक आदमी
लंगोटी लगा कर
रहे। एक ही
बार भोजन करे।
तुम्हारे मन
में सादा जीवन
का अर्थ है, संसार-विरोध!
झेन कहता है, संसार के
विरोध से सादा
जीवन पैदा
नहीं होता। क्योंकि
जिसका तुम
विरोध करते हो,
उसकी कोई न
कोई छाया
तुम्हारे
भीतर निरंतर
बनी रहती है।
शत्रु को याद
रखना पड़ता है।
इसलिए
इस तरह से जो
आदमी सादे
जीवन में
उतरेगा, उसका
जीवन ऊपर से
तो दिखेगा
बहुत सादा है,
भीतर से
बहुत जटिल
होगा। सादे
जीवन को
चेष्टा करके
तो साधा ही
नहीं जा सकता।
क्योंकि तुम
जो भी चेष्टा
करके साधोगे
वही तो सादा
नहीं हो सकता।
चेष्टा करके
जिसे साधना
पड़े वह सादा
कैसे होगा? जिसके भीतर
चेष्टा का
प्रयोग करना
पड़े, वह
जीवन जटिल
होगा।
यह हो
सकता है, आदमी
नंगा खड़ा हो; उसकी नग्नता
भी जटिल होगी।
बड़ा मुश्किल
है यह! थोड़ा
बारीक है और
नाजुक है
सवाल। एक आदमी
नग्न खड़ा है; कैसे पहचानोगे
कि नग्नता
सादी है? महावीर
भी नग्न खड़े
हुए हैं, डायोजनीज
भी नग्न खड़ा
हुआ है। यह
सैयद, जिस
फकीर की मैंने
बात की, जिसे
औरंगजेब
ने सूली दी, वह भी नग्न
खड़ा था। और सैकड़ों
नग्न लोग हैं।
हिंदुओं की एक
धारा है नंगे
साधुओं की, नागा साधुओं
की। कैसे तुम पहचानोगे
कि किसका
सादापन
सादापन है? क्या पहचान
है? क्या
कसौटी है?
क्योंकि
तुम अगर
हिंदुओं के अखाड़े
देखो नंगे
साधुओं के, तो उनसे
ज्यादा जटिल
आदमी तुम कहीं
भी न पाओगे।
किसी कुंभ में
केवल उनको
देखने भी जाओ,
तो भी
उपयोगी है।
ये जो
नग्न आदमी
कुंभ में खड़े
होते हैं
हिंदुओं के
नागा साधु, ये बड़े अजीब
लोग हैं। ये
घर तो वस्त्र
पहनते हैं, और बाहर
नंगे होते
हैं। अखाड़े
में जब होते
हैं अपने, तब
तो वस्त्र
पहनते हैं। और
जब मेले में
आते हैं तब
नग्न होते
हैं। इनका नग्नपन
एक प्रदर्शन
है--एग्जीबीशन
है। अन्यथा
इससे उल्टा तो
हो सकता है, कि एक आदमी
नग्न हो घर
में और बाहर
जब जाये तब वस्त्र
डाल ले।
क्योंकि
नग्नता को कोई
प्रदर्शन तो
बनाना नहीं
है!
ध्यान
रहे, मनस्विद 'एग्जीबीशन'
को, प्रदर्शन
को एक बीमारी
मानते हैं। और
दुनिया में
सभी मुल्कों
में कानून है
उन लोगों के
खिलाफ, जो
नग्नता का
उपयोग
प्रदर्शन की
तरह करते हैं,
एग्जीबीशनिस्ट के खिलाफ।
तुममें से
अनेक लोगों को
पता होगा उन
लोगों का, जो
रास्ते के
किनारे पर खड़े
होकर चाहेंगे
कि कोई उनके
नग्न शरीर को
देख ले। एकांत
में, अकेले
में आती किसी
स्त्री को वे
अपने कपड़े खोल
कर दिखा देंगे
और भाग खड़े
होंगे; या
किसी छोटे
बच्चे को।
उनकी चेष्टा
नग्नता को
दिखाने की है।
तुम्हारी
चेष्टा कपड़ों
को दिखाने की
है। तुम जब घर
के बाहर जाते
हो, सज-धज कर
जाते हो।
स्त्रियों को
देखो, घंटों
लग जाते हैं।
स्त्रियां
बड़ी एग्जीबीशनिस्ट
हैं। साड़ी
ही तय करना
मुश्किल होता
है। कौन सी साड़ी
आज पहननी है!
फिर सजावट
करनी पड़ती है।
फिर सब तरह के
रंग-रोगन
लगाने पड़ते
हैं। जैसे हर
स्त्री नाटक
के मंच पर खड़ी
है; जैसे
बाजार में
दर्शक हैं और
तुम्हें एक
दिखावा करना
है; जैसे
हर आदमी को
निमंत्रण है
तुम्हें
देखने का!
और मजा
यह है कि अगर
लोग गौर से
देखें तो वही
स्त्री नाराज
होती है। यही
जटिलता है मन
की। जो आदमी
गौर से देखता
है उसको हम
लुच्चा कहते
हैं। लुच्चे का
मतलब होता है
गौर से
देखनेवाला।
लुच्चा उसी
शब्द से बनता
है जिससे लोचन, आंख। आलोचक
भी उसी शब्द
से बनता है, जिससे
लुच्चा। मतलब
सबका एक ही
है। गौर से
देखने वाले को
आलोचक कहते
हैं। अगर वह
बहुत गौर से
जांच पड़ताल करे।
और अगर कोई
किसी को गौर
से देखे...।
वैज्ञानिकों
ने तो सीमा भी
तय की है तीन
सेकेंड। तीन
सेकेंड से
ज्यादा अगर
तुमने किसी
स्त्री को
देखा तो तुम
लुच्चे हो।
क्योंकि तीन सेकेंड
तक वह बरदास्त
कर सकती है, तीन सेकेंड
तक कोई मामला
नहीं है; सहज
देखा है। तीन
सेकेंड से
ज्यादा तुम
रुके और आंखें
वहीं टिकी
रहीं तो खतरा
मोल रहे हो। और
मजा यह है कि
स्त्री घंटे
भर, डेढ
घंटे, दो
घंटे तैयार हो
कर आई ही
इसीलिए है।
लुच्चों के
लिए तैयार हुई
है। और जब
लुच्चे मिलते
हैं तो बेचैनी
है।
मन बड़ा
जटिल है। तुम
चाहते भी हो
और यह भी दिखाना
चाहते हो कि
नहीं चाहते।
तुम्हारी
आकांक्षा भी
यही है। अगर
कोई स्त्री
बाजार से
निकले और कोई
भी देखनेवाला
न मिले तो
जितनी उदास
लौटेगी, उसका
तुम अनुमान
लगा सकते हो?
मैं एक
युनिवर्सिटी
में था। ऐसे
बैठा था एक
दिन वाइस
चांसलर के
कमरे में, कुछ बात कर
रहा था। एक
लड़की आई
शिकायत ले कर।
बहुत नाराज थी,
क्योंकि
किसी लड़के ने
एक कंकड़
उसको फेंक कर
मार दिया था।
वाइस चांसलर
भी बहुत नाखुश
हुए और
उन्होंने कहा,
'यह ठीक
नहीं है। लड़के
को बुलवाया
जाये।' मैंने
उनसे कहा कि
जरा रुकें।
पहले इस लड़की
से पूछें कि
यह छः साल
युनिवर्सिटी
में रहेगी, अगर कोई भी कंकड़ न
मारे तो दुखी
होगी कि सुखी?
वे
कहने लगे, 'आपका मतलब?' वह लड़की भी
थोड़ी बेचैन
हुई।
मैंने
कहा कि थोड़ा
सोच लेना
चाहिए।
क्योंकि कंकड़
कोई ऐसे ही
नहीं मारता।
स्त्री और
पुरुष हमेशा
एक संबंध रखते
हैं भीतर।
स्त्री जो
चाहती है, वही पुरुष
कर रहे हैं।
पुरुष जो
चाहता है, वही
स्त्रियां कर
रही हैं। बड़ा
गहरा तालमेल है।
और ऊपर से सब
दिखावा कर रहे
हैं, जैसे
यह कोई तालमेल
नहीं है।
मैंने
उससे पूछा, 'अगर कोई
तुझे कंकड़
न मारे, कोई
प्रेमपत्र न
लिखे, कोई
तेरा नाम
दीवारों पर न
लिखे, क्या
होगा? तू
उदास होगी कि
प्रसन्न होगी?'
उसने
कहा, 'आपका
मतलब? आप
प्रोत्साहन
देते हैं इस
तरह के लोगों
को?'
मैंने
कहा, 'मैं यह
नहीं कह रहा।
मैं यह पूछता
हूं कि तेरे मन
की क्या दशा
होगी?'
उस लड़की
का दुर्भाग्य
तुम्हें पता
नहीं, जिसको
कोई कंकड़
नहीं मारता।
वह रोज तैयार
होकर आती है, कोई कंकड़
मारे! और जब
कोई कंकड़
मारता है तब
वह शिकायत
करने पहुंच
जाती है! हम दिखाना
भी चाहते हैं
और हम बताना
भी चाहते हैं
साथ में कि हम
कोई दिखाने
में उत्सुक
नहीं हैं।
आदमी
जटिल है। तुम
वस्त्र पहनते
हो, वह भी
दिखावा है।
तुम किसी दिन
नग्न हो जाओगे,
वह भी
दिखावा होगा।
और जब दिखावा
होगा तो जटिलता
होगी।
सादे
जीवन का अर्थ
है, दूसरे की
दृष्टि से
निर्धारित
नहीं, अपनी
सुगमता सहजता
से
निर्धारित।
जब तक दूसरे
की दृष्टि
मूल्यवान है
तब तक
तुम्हारा
जीवन सादा
नहीं हो सकता।
अगर तुम नग्न
खड़े हो, क्योंकि
दूसरे लोग आदर
देते हैं, तो
तुम्हारी
नग्नता सादी
नहीं है।
इसलिए जिन मुल्कों
में नंगे
आदमियों को
आदर मिलता है,
उन मुल्कों
में नंगे साधु
होते हैं। जिन
मुल्कों में
आदर नहीं
मिलता, उनमें
नंगे साधु
नहीं होते।
लोग जिस चीज
को आदर देते
हैं, अहंकार
उसी को करने
को तैयार हो
जाता है। अगर उपवास
का आदर है, लोग
उपवास करते
हैं।
अगर
शरीर को कोड़े
मारने का आदर
है, तो
ईसाइयों में
इस तरह के
संप्रदाय हुए
हैं कि फकीर
रास्तों पर
अपने को कोड़े
मारते निकलता
है। लहूलुहान कर
देता है।
कितने कोड़े
मारे, इसका
हिसाब रखा
जाता है। कोई
साधु तीन सौ कोड़े रोज
मारता है, तो
वह महान साधु
है। कोई दूसरा
अभी केवल तीस
ही मार सकता
है, उतने
में ही थक
जाता है, और
डर जाता है, वह अभी छोटा
है।
यह
क्या हो रहा
है? ऐसा
क्यों हो रहा
है? दिगंबर
जैन साधु
बालों को लोंच
कर उखाड़ता
है, काटता
नहीं। बड़ा
उत्सव होता है
जब केश-लुंच
होता है। सैकड़ों-हजारों
लोग इकट्ठे
होते हैं
देखने। ये
देखनेवाले भी
थोड़े बीमार
हैं। क्योंकि
कोई आदमी बाल उखाड़ रहा
है, तुम
किस लिए? किसी
को बाल उखाड़
लेने तक की भी
सुविधा तुम
नहीं दोगे? अपने ही बाल उखाड़ रहा
है, किसी
दूसरे के उखाड़
भी नहीं रहा
है। तुम क्यों
भीड़ लगा रहे
हो? तुम्हारे
मन में
परंपरागत आदर
है कि यह आदमी
बड़ा महान है।
बाल उखाड़ने
से कोई महान
होता है? इतनी
सस्ती है
महानता? और
यह आदमी रुका
है कि जब सब आ
जायें, शोरगुल
मच जाये, बैंड-बाजे
बजें, तब
यह बाल उखाड़ेगा।
यह भी बाल उखाड़ने
का प्रदर्शन
कर रहा है।
तुम
हैरान होओगे
जान कर, शब्दों
की बड़ी कहानी
होती है। एक
शब्द है हमारे
पास--जैसा
लुच्चा एक
शब्द है, ऐसा
नंगा-लुच्चा
एक शब्द है।
तुम दोनों का
एक साथ उपयोग
करते हो। कभी
किसी आदमी को
कहते हो
नंगा-लुच्चा।
वह जैन
मुनियों के लिए
पैदा हुआ पहली
दफा वह शब्द।
क्योंकि वे
नग्न रहते हैं
और केश लोंचते
हैं।
नंगे-लुच्चे
का मतलब होता
है नंगे रहनेवाले
और केश लोंचनेवाले।
मगर क्या
मूल्य है? और
क्यों नहीं
तुम एकांत में
अपने बाल उखाड़
लेते? क्या
जरूरत है इतना
शोरगुल मचाने
की? यह
सादा नहीं है।
जहां
प्रदर्शन है,
वहां सादगी
नहीं है।
सादगी
का अर्थ है, तुम ऐसे जी
रहे हो, जैसे
तुम पृथ्वी पर
अकेले हो। कोई
देखनेवाला नहीं
है, कोई
दिखाने की
उत्सुकता
नहीं है।
तुम्हें जो सुविधापूर्ण
स्वाभाविक लग
रहा है, वैसे
तुम जी रहे
हो। सहज जीवन
का नाम सादापन
है। तब तुम्हें
दो लंगोटी की
जरूरत है तो
ठीक, और
चार कपड़ों की
जरूरत है तो
ठीक। यह
तुम्हारा
अपना निर्णय
है। किसी
दूसरे की आंख
इसमें विचारणीय
नहीं है।
झेन
फकीर कहते हैं, सादा जीवन
सबसे महान
जीवन है। वे
कहते हैं, 'टु
बी आर्डिनरी
इज द
मोस्ट एक्स्ट्रॉऑर्डिनरी
थिंग।' सादा होना
असाधारण होना
है। साधारण
होने से बड़ी
कोई
असाधारणता
नहीं है।
क्यों? क्योंकि हर
आदमी असाधारण
होना चाहता
है। इसीलिए तो
इतना दिखावा
है। दूसरे की
आंख में पता चले
कि मैं कुछ
हूं। और तुम
बुद्धू से
बुद्धू आदमी
को भी खोजो, वह भी अपने
को असाधारण
मानता है।
असाधारण की मान्यता
बिलकुल
सामान्य है।
हर आदमी की
आकांक्षा
असाधारण
सिद्ध करने की
है।
सादे
जीवन का क्या
अर्थ होता है? जिसने अपने
को असाधारण
सिद्ध करने की
चेष्टा छोड़
दी। जिसने
स्वीकार कर
लिया कि मैं
वैसा ही सादा
हूं, जैसे फूल
हैं, पत्ते
हैं, झरने
हैं, पत्थर
हैं, चट्टानें
हैं। इस विराट
में मेरी भी
छोटी सी जगह
है, सादी
जगह है। मैं
कुछ विशिष्ट
नहीं हूं।
ध्यान रहे, यह बड़ी
क्रांतिकारी
बात है, जब
कोई आदमी
स्वीकार कर
लेता है, मैं
कोई विशिष्ट
नहीं हूं। मैं
भी इस विराट
में फूल-पत्तों,
पहाड़ों, नदियों,
झरनों, अनंत-अनंत
पशु-पक्षियों,
अनंत-अनंत
मनुष्यों के
बीच एक हूं।
मेरा यह होना
कुछ विशिष्ट
नहीं है।
और झेन
कहता है, जिसने
ऐसा स्वीकार
कर लिया, जान
लिया, वही
विशिष्ट है।
वह विशिष्ट हो
गया तत्क्षण। जिस
क्षण तुमने
समझा कि मैं
साधारण हूं, तुम असाधारण
हो गये। और जब
तक तुम
असाधारण होने
की कामना कर
रहे हो, दंभ
भर रहे हो, तब
तक तुम साधारण
हो। क्योंकि
असाधारण होने
की कामना बड़ी
साधारण है।
साधारण होने
की भावना बड़ी
असाधारण है।
सादे
जीवन का अर्थ
है, तुमने
अपने को न तो
प्रगट करने की
आकांक्षा रखी,
न लोग
देखें--और
ध्यान रहे, जटिलता है
इसमें। तुम यह
भी कोशिश कर
सकते हो कि
मैं ऐसी जगह
करूं जहां कोई
न देखे; लेकिन
नजर तुम्हारी
दूसरे पर है।
तो फिर सादा नहीं
रहा जीवन। कोई
देखे या न
देखे, यह
बात विचारणीय
न रही। यह भी
तुम कर सकते
हो कि ठीक है, मैं अपने केश
तो उखाडूंगा,
लेकिन ऐसी
जगह उखाडूंगा
जहां कोई
देखनेवाला न
हो; तब भी
वही बात रही।
तब तुम ऐसी
जगह खोजोगे
जहां कोई
देखनेवाला न
हो। लेकिन कोई
दूसरा महत्वपूर्ण
है; या तो
देखने के लिए,
या न देखने
के लिए। मगर
नजर दूसरे पर
टिकी है। तुम
अभी सादे न
हुए।
सादे
होने का अर्थ
है: सहज जीवन।
सहज जीवन
चेष्टा-रहित
होगा। असहज को
साधना पड़ता
है। तुम्हें
सब तरफ से
अपने को
इंतजाम करना
पड़ता है। संयम
असहज की तरफ
ले जायेगा।
सहजता का भी
एक संयम है, लेकिन वह
बड़ी और बात
है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी को
लेकर
हवाई-अड्डे पर
गया। वहां सौ
रुपये में
पूरे गांव का
चक्कर लगवाने
की व्यवस्था
थी। अनेक लोग उड़े, वापिस
लौट गये, पायलट
देखता रहा कि
मुल्ला नसरुद्दीन
और उसकी पत्नी
दोनों खड़े
विचार करते
हैं; हिम्मत
नहीं जुटा
पाते हैं। सौ
रुपया! जब कोई भी
न रहा और सारे उड़नेवाले
जा चुके तो वह
पायलट उतर कर
आया और उसने
कहा कि कंजूस
मैंने बहुत
देखे। अब तुम
कब तक सोचते
रहोगे? बंद
होने का समय
भी आ गया।
दोनों नसरुद्दीन
पति-पत्नी एक
दूसरे की तरफ
देखने लगे।
बड़ी आकांक्षा
कि एक दफा
हवाई जहाज में
उड़ लें; लेकिन
सौ रुपये को
छोड़ना!
आखिर
पायलट को दया
आ गई। उसने
कहा, तुम एक
काम करो। मैं
तुम्हें
मुफ्त घुमा
देता हूं, लेकिन
एक शर्त है।
और वह शर्त यह
है कि तुम एक भी
शब्द बोलना
मत। अगर तुम
एक भी शब्द
बीच में बोले,
तो सौ रुपये
देना पड़ेंगे। नसरुद्दीन
प्रसन्न हो
गया और उसने
कहा कि बिलकुल
ठीक!
वे
दोनों बैठे।
पायलट ने बड़ी
बुरी तरह
खतरनाक ढंग से
हवाई जहाज उड़ाया।
उलटा, नीचा,
तिरछा, कलाबाजियां
कीं, और
बड़ा हैरान हुआ
कि सब मुसीबत
में वे चुप
रहे दोनों। कई
दफा जान को
खतरा भी आ गया
होगा, उलटे
हो गये, लेकिन
वे चुप ही
रहे। नीचे उतर
कर उसने कहा
कि मान गये नसरुद्दीन!
तुम जीत गये।
पर उसने कहा, 'तुम्हारी
पत्नी कहां है?'
नसरुद्दीन
ने कहा, 'ऐसा
वक्त भी आया
जब मैं बोलने
के करीब ही था,
लेकिन संयम
बड़ी चीज है।
मेरी पत्नी तो
गिर गई। तब
मैं बिलकुल
बोलने के करीब
था लेकिन संयम
बड़ी चीज है, शास्त्रों
में कहा है।
मैंने बिलकुल
सांस रोक कर
आंख बंद करके
संयम रखा है।
और संयम का फल
सदा मीठा होता
है। दोहरे
फायदे हुए। सौ
रुपया भी बचा,
पत्नी से
झंझट भी मिटी।
संयम का फल
मीठा है।'
संयम
का अर्थ है
जबर्दस्ती।
तो तुम यह भी
कर सकते हो कि
तुम्हारा मन
तो था शाही
वस्त्र पहनने
का और तुमने
संयम से
लंगोटी लगा
ली। यह सादा
जीवन नहीं है।
इसमें चेष्टा
है। इसमें समझ
नहीं है, इसमें
प्रयास है। और
तुम्हें
लंगोटी को
थोपने के लिए
अपने ऊपर
निरंतर
जद्दोजहद
करनी पड़ेगी।
मन की
आकांक्षा तो
शाही
वस्त्रों की
थी। तुमने
किसी प्रलोभन
के वश, स्वर्ग,
ईश्वर का
दर्शन, योग,
अमृत, कुछ
पाने की आकांक्षा
में लंगोटी
लगा ली।
ध्यान
रहे, संयम सदा
लोलुपता का
अंग है। तुम
कुछ पाना चाहते
हो, इसीलिए
तुम्हें कुछ
करना पड़ता है।
सादगी लोलुपता
से मुक्ति है।
सादा आदमी वह
है जिसे लंगोटी
लगाने में
आनंद आ रहा
है। वह कोई
संयम नहीं है।
उसके भीतर कोई
संघर्ष नहीं
चल रहा है, कि
पहनूं
शाही वस्त्र,
और वह
लंगोटी लगा
रहा है। कोई
लड़ाई नहीं है।
सादा आदमी
अपने भीतर
लड़ता नहीं। और
जो भी लड़ता है,
वह जटिल है।
इसलिए
तुम्हारे
तथाकथित साधु
सादे नहीं हैं।
उनके भीतर बड़ी
लड़ाई है। और
चौबीस घंटे
लड़ाई है। उस
लड़ाई को तुम
उनके माथे पर
लिखा हुआ देख
सकते हो। उनके
चेहरे में, उनके अहंकार
में, तुम
उस लड़ाई को
ठीक से पहचान
सकते हो।
लेकिन तुम
नहीं पहचान
पाते, क्योंकि
तुम्हारी
आंखें भी उसी
लड़ाई से अंधी हैं।
न तुम सादे हो,
न तुम्हारे
साधु सादे
हैं। तुम एक
तरफ तिरछे हो,
वे दूसरी
तरफ तिरछे
हैं। तुम
एक-दूसरे के
अति में हो, विरोध में
हो।
झेन
कहता है, सादा
आदमी वह है, जिसने सादगी
में आनंद
पाया। वह संयम
नहीं है, संयम
का क्या सवाल
है? और तब
सादगी से एक
सुगंध उठनी
शुरू होती है।
क्योंकि वह
आदमी भीतर कोई
तनाव से भरा
हुआ नहीं है।
ऐसा यह
फकीर था रयोकान।
एक तलहटी में
एक छोटे से झोपड़े
में रहता था।
अत्यंत ही
सादा जीवन था
उसका। एक
संध्या एक चोर
उसके झोपड़े
में घुसा।
लेकिन उसने
देखा कि झोपड़े
में कुछ भी
नहीं है।
बड़ी
बहुमूल्य बात
है यहां। अगर
चोर संत के झोपड़े
में जाये तो
पायेगा वहां
कुछ भी नहीं।
क्योंकि चोर
की नजर जिन
चीजों को देख
सकती है, वे
वहां नहीं
हैं। रयोकान
वहां था, एक
बुद्ध-पुरुष
वहां था। उस रयोकान की
तरंगें उस झोपड़े
में भरी थीं।
बड़ी से बड़ी
संपदा, जो
इस पृथ्वी पर
घटती है वह उस झोपड़े में
थी। कोई महल
इतना
सौभाग्यशाली
नहीं। वह झोपड़ा
धन्यभागी
था उन क्षणों
में। रयोकान
जहां था, जहां
रयोकान
उठता था, बैठता
था, आंख
खोलता था, सोता
था। जहां रयोकान
का फूल खिला
था। लेकिन चोर
को वह नहीं
दिखाई पड़ेगा।
चोर को तो वही
दिखाई पड़ेगा,
जिसकी उसकी
आकांक्षा है।
उसे लगा, झोपड़े
में कुछ भी
नहीं है। न तो
धन था, न
सोना था, न
हीरे-जवाहरात
थे।
तुम
वही देख पाते
हो जो
तुम्हारी
वासना है।
तुम्हारी वासना
अगर
हीरे-जवाहरातों
की है तो तुम
बुद्ध के पास
जा कर भी वही
देख पाओगे।
अगर वह तुम्हें
वहां मिले तो
तुम कहोगे हां, यह आदमी कुछ
है। अगर वह
तुम्हें वहां
न मिले, तुम
कहोगे यहां
क्या रखा है? झोपड़ा खाली है।
रयोकान
वहां था और
ज्यादा क्या
चाहिए? इससे
बड़ी महिमा की
कोई घटना ही
नहीं घटती। रयोकान उन
लोगों में से
है जिनके
संबंध में
कबीर ने कहा
है, 'महिमा
कही न जाये।' इनसे बड़े
सम्राट नहीं
होते। इनका
साम्राज्य लेकिन
बड़ा सूक्ष्म
है। इनके
आसपास जो
सुगंध है उसे पकड़ने के
लिए बड़ी तैयारी
चाहिए। और
इनके पास जो
रोशनी है उसे
देखने के लिए
बड़ी शुद्ध, स्वच्छ
आंखें चाहिए।
और इनके पास
जो निनाद अनाहत
हर वक्त बज
रहा है, वह
तुम्हारे
हृदय तक पहुंच
सके, तो
बीच के बहुत
से पत्थरों को
हटाना आवश्यक
है। तुम्हारा
हृदय तो
करीब-करीब
पाषाण है। उस
तक संगीत
पहुंचेगा
कैसे? वह
संगीत की
हत्या ही कर
देता है।
यह
थोड़ा खयाल
रखना। यह बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है कि चोर झोपड़े में
गया, लेकिन
उसने देखा कि झोपड़े में
कुछ भी नहीं
है। निश्चित
ही चोर को
वहां कैसे कुछ
दिखाई पड़ सकता
है? चोर
परमात्मा के
भी महल में
पहुंच जाये तो
भी उन्हीं
चीजों की तलाश
करेगा जिनकी
उसकी आकांक्षा
है।
मैंने
सुना है कि एक
कुत्ता एक झाड़
के नीचे बैठा
था। सपना देख
रहा था। आंखें
बंद थीं और
बड़ा आनंदित हो
रहा था। और
बड़ा डांवाडोल
हो रहा था, मस्त था। एक
बिल्ली जो
वृक्ष के ऊपर
बैठी थी उसने
कहा कि मेरे
भाई, जरूर
कोई मजेदार
घटना घट रही
है। क्या देख
रहे हो?
'सपना
देख रहा था,' कुत्ते ने
कहा, 'बाधा
मत डाल। सब
खराब कर दिया
बीच में बोल
कर। बड़ा गजब
का सपना आ रहा
था। एकदम
हड्डियां बरस रही
थीं। वर्षा की
जगह हड्डियां
बरस रही थीं। पानी
नहीं गिर रहा
था चारों तरफ,
हड्डियां
ही हड्डियां!'
बिल्ली
ने कहा, 'मूरख
है तू! हमने भी
शास्त्र पढ़े,
पुरखों से
सुना है, कि
ऐसा कभी-कभी
होता है कि
वर्षा में
पानी नहीं
गिरता, चूहे
बरसते
हैं। लेकिन
हड्डियां? किसी
शास्त्र में
नहीं लिखा है।'
लेकिन
कुत्तों के
शास्त्र अलग, बिल्लियों
के शास्त्र
अलग। सब शास्त्र
तुम्हारी
वासनाओं के
शास्त्र हैं।
सोचो, अगर
परमात्मा के
पास तुम
पहुंचोगे तो
तुम क्या
देखना चाहोगे?
अगर
परमात्मा के
द्वार पर
तुम्हें मैं
आज खड़ा कर दूं
और तुमसे पूछूं
कि भीतर जा कर
तुम क्या
देखना चाहोगे?
तो तुम अपने
आपको उस चोर
से भिन्न
अवस्था में नहीं
पाओगे।
क्या देखोगे
वहां? चोरों
ने ही तो
परमात्मा की
सारी धारणायें
बनाई हैं। तो
तुम उनके
शास्त्र पढ़ो--चोरों
के शास्त्र; और तब
तुम्हें मन की
जटिलता का
अनुभव होना
शुरू होगा।
थोड़ी झलक
मिलेगी।
निश्चित
चोरों ने ही
शास्त्र
बनाये होंगे,
जिनमें
परमात्मा की
चर्चा की गई
है।
वह
सोने के महल
में रहता है।
वहां रास्तों
पर कंकड़-पत्थर
नहीं जड़े हैं।
हीरे-जवाहरात
जड़े हैं। वहां
वृक्षों में
भी फूल नहीं
लगते, सोने
के फूल लगते
हैं। पागल
होगा वह
परमात्मा!
सोने का फूल
क्या अर्थ
रखता है? मुर्दा,
मरा हुआ!
वहां गुलाब और
कमल नहीं
खिलते, बस
सोने के फूल
खिलते हैं।
लेकिन ये
चोरों ने लिखी
होंगी बातें।
क्योंकि
परमात्मा अगर
बिलकुल
सीधा-साधा मिल
जाये, जहां
वृक्षों में
ऐसे ही फूल
खिलते हों
जैसे यहां
खिलते हैं; और जहां
मकान ऐसे ही
होते हों जैसे
यहां हैं; और
जहां झरने ऐसे
ही बहते हों
जैसे यहां हैं,
तो चोरों को
लगेगा, यहां
तो कुछ भी
नहीं है।
तुम्हें क्या
दिखाई पड़ता है,
यह तुम पर
निर्भर करता
है।
और मैं
तुमसे कहता
हूं, शायद
इसीलिए तुम
परमात्मा से
निरंतर वंचित
हो रहे हो। वह
यहां मौजूद
है। लेकिन
चूंकि तुम सोने
के फूलों की
आशा कर रहे हो
और वह इन्हीं
साधारण फूलों
में खिल रहा
है; इसलिए
तुम चूक रहे
हो। तुम
दूध-दही की
नदियों की
प्रतीक्षा कर
रहे हो और वह
यहीं साधारण
नदियों में बह
रहा है; इसलिए
तुम चूक रहे
हो।
तुम
दीवाने हो, तुम ऑब्सेस्ड
हो अपने ही मन
की वासनाओं
से। और तुम
उन्हीं रंगों
में परमात्मा
को देखना चाहते
हो। और
परमात्मा
यहां सभी
रंगों में
मौजूद है। और
जब तक
तुम्हारी धारणायें
न गिर जायें, तब तक तुम
पाओगे यह घर
खाली है। यहां
कुछ भी नहीं।
रयोकान
के पास पहुंच
कर भी चोर को
लगा, यहां कुछ
भी नहीं है! झोपड़े
में घुसा, लेकिन
देखा कि झोपड़े
में कुछ भी
नहीं है।
सब कुछ
था वहां। क्या
मूल्य है कंकड़-पत्थरों
का, हीरे-जवाहरातों
का, सोने-चांदी
का? मूल्य
तो सिर्फ
चैतन्य का है।
कीमत तो सिर्फ
एक बात की है; वह आत्मा की
है। और वहां
आत्मा थी। एक
अनूठा फूल
खिला था, जो
कभी-कभी घटता
है
मनुष्य-जाति
में। जीवन का परम
काव्य वहां
निनादित हो
रहा था। लेकिन
चोर को लगा, यहां कुछ भी
नहीं है।
इस बीच
संत झोपड़े
पर वापिस हुए।
उन्होंने चोर
को निकलते देख
लिया। उस चोर
से उन्होंने
कहा, तुम लंबी
यात्रा करके
मुझसे मिलने
आये, इसलिए
तुम्हारा
खाली हाथ
लौटना उचित
नहीं है। कृपा
कर भेंट में
मेरे
अंगवस्त्र
लिए जाओ।
ये वचन
समझने की
कोशिश करें।
तुम
लंबी यात्रा
करके मिलने
आये...।
वह चोर
मिलने आया
नहीं था। वह
तो चोर आया ही
ऐसे समय था, जब संत घर
में न हो। संत
से मिलने चोर
कभी नहीं आता।
और कभी
अगर संत से
मिलने चोर आता
है तो तभी आता है, जब संत महाचोर
हो; नहीं
तो नहीं आता।
जब उन दोनों
का कहीं मेल
होता हो। तुम
धन की कोशिश
में हो और संत
आशा बंधाता
हो कि मेरे
आशीर्वाद से
धन मिलेगा।
तुम संतति की
कामना कर रहे
हो और संत
कहता है, यह
ले ताबीज, इसको
बांध ले, संतति
होगी।
अगर
तुम्हें चोर
देखने हैं, सत्य साईंबाबा
के पास देखो।
वहां तुम्हें
मुल्क-भर के
चोर इकट्ठे
मिल जायेंगे। क्योंकि
आत्मा की
आकांक्षा का
सवाल वहां नहीं
है। आत्मा की
आकांक्षा का
क्या संबंध है,
हाथ से
निकलती राख, ताबीज और घड़ियों
से?
आत्मा
की खोज
चमत्कार की
खोज तो नहीं
है। चमत्कार
की खोज तो
वासना की है।
आशा बंधती
है कि यहां
कुछ घट रहा
है। यहां सब
हो सकता है। जब
हाथ से ताबीज
निकल सकता है, तो कोहिनूर
क्यों नहीं
निकल सकता? बस, जरा
सेवा करने की
जरूरत है गुरु
की। सेवा अगर करते
ही रहे और
गुरु किसी दिन
प्रसन्न हो
गया, तो सब
निकलेगा। चोर,
चोर की तलाश
करता है।
रयोकान
से मिलने यह
चोर आया नहीं
था। क्योंकि रयोकान
इतना सादा और
सीधा आदमी था
कि सच तो यह है
कि लोगों को
यह भी पता
नहीं था कि वह
संत है।
बड़ी
प्रसिद्ध
घटना है रयोकान
के बाबत, कि
जब रयोकान
जिंदा था तो
जापान का
सम्राट किसी
को गुरु बनाना
चाहता था। और
उसने खोज में
अपने दूत भेजे
नगर-नगर, आश्रम-आश्रम,
लेकिन कोई
उसे तृप्त न
कर पाये।
जब भी
कोई सम्राट
किसी गुरु की
खोज में
निकलता है तो
एक बात
निश्चित है कि
अब उसे वे
साधारण बातें
प्रभावित न कर
पायेंगी
जो साधारण
आदमियों को
करती हैं।
क्योंकि वह सब
तो उसके पास
है। महल, धन-दौलत--वह
सब है। उससे
तो वह ऊब गया
है अब। उसी से
तो बचने को वह
किसी संत के
पास जाना
चाहता है। वही
तो सब व्यर्थ
हो गया है।
महल, सौंदर्य,
स्वास्थ्य,
वह सब राख
हो गया है। और
अब राख किसी
की क्या इकट्ठी
करनी! सभी राख
हो गया है।
कोई
तृप्ति उसे न
हुई। तब उसके
राजदूतों ने
कहा तो फिर रयोकान
ही तृप्त कर
सकता है। पर
उसने कहा, तुमने अभी
तक उसका नाम
क्यों न लिया?
उन्होंने
कहा, वह इतना
सीधा-सादा
आदमी है कि
लोग यह भी
नहीं जानते कि
वह संत है।
अगर ये
बड़े-बड़े नाम
तुम्हें
प्रभावित
नहीं करते हैं
तो फिर रयोकान
ही...।
सम्राट
रयोकान
के झोपड़े
पर गया। लेकिन
सम्राट ही था!
पुराने ढंग और
आदतें एकदम से
तो नहीं चली
जातीं। बड़ा
बहुमूल्य चोगा
उसने बनवाया रयोकान के
लिए। ऐसा चोगा
कहीं खोजना
मुश्किल था।
फिर सम्राट जब
भेंट ले जाये
तो सम्राट के
योग्य होनी
चाहिए। उसमें
उसने बड़े
बहुमूल्य
पत्थर जड़े।
करोड़ों उसकी
कीमत थी। उस
रंग-बिरंगे
चोगे को ले कर
और एक ताज
उसने बनवाया
बड़ा बहुमूल्य, वह लेकर
गया। उसने रयोकान
को भेंट दी।
रयोकान
खिलखिला कर
हंसने लगा।
उसने कहा, 'तुम मुझे
बुद्धू बना
दोगे।'
सम्राट
ने कहा, 'मतलब?'
रयोकान
ने कहा, 'यहां
जंगल में कोई
आदमी तो है
नहीं। जंगली
जानवर हैं, और ये जंगली
जानवर न तो
चोगों में
भरोसा करते हैं,
न ताज में
भरोसा करते
हैं। और मुझे
इस चोगे में
और ताज में
देख कर वे सब
हंसेंगे।
बंदर हंसेंगे,
उल्लू
हंसेंगे और
तुम मुझे
बुद्धू बना
दोगे। लाये, ठीक किया; मगर इसे तुम
ले जाओ, क्योंकि
यहां मैं आदमियों
की बस्ती में
नहीं रहता
हूं। यहां तो
प्रकृति है।
यहां सब इतना
रंगा हुआ है
कि अब और रंगीन
चोगे की क्या
जरूरत? और
फिर यहां
सीधे-सादे
जंगली जानवर
ही मेरे मित्र
हैं। और वे
हंसेंगे और वे
आपस में
कहेंगे, रयोकान
बुढ़ापे में
भ्रष्ट हो
गया!'
यह
आदमी निश्चित
ही सीधा-सादा
आदमी था।
चोर
उसके घर में
गया है। गया
ही तब होगा जब
उसे पक्का पता
हो कि संत
वहां न हो।
तुम भी
संतों के पास
जाते हो, तुम
तभी जाना
चाहते हो, जब
संत वहां न
हो। क्योंकि
संत की
मौजूदगी में
जाना खतरा मोल
लेना है। संत
के पास जाना
आग से खेलना
है। जीसस ने
कहा है, 'मैं
आग हूं और तुम
मेरे पास आओगे
तो जलोगे।'
और यह भी
कहा है कि
ध्यान रखना, जो आग से
बचेगा, वह
प्रभु के
राज्य से भी
बच जायेगा। जलोगे तो
ही बच सकोगे।
यही तो सारे
संतों का सार
है; मिटोगे
तो ही बच
सकोगे।
चोर
गया तो था कुछ
और लेने, लेकिन
तुम कुछ भी
लेने जाओ, संत
यही मानता है
कि तुम उसके
पास आये हो।
क्योंकि संत
यह सोच ही
नहीं सकता कि
तुम कुछ और लेने
आये होओगे। यह
सोचना ही
तुम्हारा
अपमान होगा कि
तुम राख, भभूत,
कि ताबीज, कि बच्चे, कि धन-दौलत
लेने आये
होओगे।
क्योंकि संत
को तो दिखाई
पड़ गया है कि
सब कूड़ा-कर्कट
है। यह सब
व्यर्थ है।
तुम व्यर्थ को
लेने आओगे ऐसा
सोचना भी
तुम्हारा
अपमान होगा।
इसलिए रयोकान ने
कहा कि तुम
मुझसे इतनी
दूर यात्रा
करके मिलने
आये।
तुम्हारा
खाली हाथ
लौटना उचित
नहीं है।
और अगर
आदमी चोर न
होता तो भरे
हाथ ही नहीं, भरी आत्मा
भी लौट सकता
था। सारी प्यास
बुझ जाती।
सारे जीवन की
दौड़ समाप्त हो
जाती। जो पाने
योग्य था वह
मिल सकता था।
घड़ी आ गई थी; अवसर था। रयोकान
सामने खड़ा था।
लेकिन चोर
बेचैन हो गया
होगा।
वासना
सदा बेचैनी से
भरी रहती है।
और वस्तुओं की
आकांक्षा कभी
भी तुम्हें
अपराध-भाव से
मुक्त नहीं
होने देती।
तुम तब तक
अपराधी बने ही
रहोगे जब तक
तुम वस्तुओं
की आकांक्षा
करते हो। जिस
दिन तुम वस्तुओं
को छोड़ कर
आत्मा की
आकांक्षा
करोगे, उसी
दिन अपराध
मिटेगा। उसी
दिन अचानक तुम
पाओगे कि सारा
अपराध, सारा
पाप, कर्मों
का सारा जाल
गया। तुम
मुक्त हो!
आत्मा की
आकांक्षा भी
मुक्त करती
है। आत्मा तो
मुक्त करेगी
ही!
वह
आदमी कंपने
लगा होगा। वह
डर गया होगा, कि अब क्या
करे, क्या
न करे! और
इसलिए रयोकान
ने कहा, 'कृपा
कर भेट में
मेरे
अंगवस्त्र ही
लिए जाओ।'
चोर तो
जाहिर था कि
चोर है। एक
अवसर दिया था।
यह अवसर का
उपयोग हो सकता
था। चोर गिर
सकता था रयोकान
के चरणों में।
और रयोकान
आत्मा से भर
देता उसकी
झोली। लेकिन
चोर कंपता
रहा। वह डरा
ही हुआ था।
उसने बहुत घर
में चोरी की
होगी। और कभी
ऐसा न हुआ था
कि कोई देने
को उत्सुक हो।
क्योंकि वे घर
बड़े चोरों के
घर थे। पहली
दफा वह एक ऐसे
आदमी के सामने
खड़ा था जो चोर
नहीं था, इसलिए
बड़ी बेचैनी आ
गई होगी। उसकी
घबड़ाहट
देखकर, उसकी
बेचैनी देख कर,
उसका
बचकानापन देख
कर, रयोकान ने कहा, तो
फिर ठीक है, तुम कम से कम
मेरे
अंगवस्त्र ही
लिए जाओ।
बड़ी
चीज देने को
वह तैयार था।
बड़ी से बड़ी
चीज देने को
तैयार था; लेकिन तुम्हारी
लेने की
तैयारी तो
होनी चाहिए!
इस जगत में
कुछ भी तो
नहीं दिया जा
सकता, जिसके
लिए तुम लेने
को तैयार न
हो।
कितनी
बार मुझे लगता
है कि तुम्हें
सत्य दिया जा
सकता है, लेकिन
तुम सिर्फ
शब्द लेने को
तैयार हो। तो
शब्द ही दे
दिए जाते हैं,
वे
अंगवस्त्र
हैं।
रयोकान
की करुणा अपार
है। उस क्षण
वह सब लुटा
देता; लेकिन
चोर तो
अपराध-भाव से
भरा था। शायद
चोर देख भी
रहा होगा उसके
वस्त्रों की
तरफ, क्योंकि
उसके सिवाय अब
वहां कुछ और
देखने योग्य
था नहीं। वही
वस्त्र भर
चोरी योग्य
थे। उतनी कुल
संपदा थी रयोकान
के पास। उसकी
नजर उन्हीं
वस्त्रों पर
पड़ी होगी, अटकी
होगी। वह शायद
सोच रहा होगा
कि कभी और आता
किसी मौके पर
जब ये वस्त्र
अलग होते, तो
मैं ले जाता।
रयोकान
ने पढ़ लिया
होगा उसके भाव
को। क्योंकि
तुम्हारी
आंखें झूठ
नहीं बोलतीं।
तुम बोलो कुछ, तुम देखते
वही हो, जो
तुम चाहते हो।
तुम मंदिर में
चाहे हाथ जोड़
कर परमात्मा
की प्रार्थना
कर रहे हो, लेकिन
नजर तुम्हारी
पड़ोस में खड़ी
स्त्री पर लगी
रहती है। वह
प्रार्थना
अगर तुम
स्त्री से करते
तो बेहतर था; कम से कम
सच्ची होती।
स्त्रियां
मंदिर में प्रार्थना
करती रहती हैं,
लेकिन नजर
उनकी पास में
खड़ी स्त्रियों
के वस्त्रों
पर लगी है, जवाहरातों-हीरों
पर लगी है।
अच्छा होता वह
जवाहरातों-हीरों
के सामने ही
घुटने टेकतीं।
कम-से-कम
प्रामाणिक तो
होता!
रयोकान
को दिखाई पड़ा
होगा कि यह
मेरी तरफ देख
भी नहीं रहा, वह वस्त्रों
को देख रहा
है। तो रयोकान
ने कहा, यह
मेरे अंगवस्त्र
कम-से-कम लिए
जाओ।
चोर तो
बहुत हैरान हो
गया।
चोर जब
भी संत से
मिलता है तो
बड़ी हैरानी
में पड़ जाता
है। चोरों से
मिलने में तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता। एक ही
दुनिया की
साझेदारी है।
छोटे और बड़े
चोरों का फर्क
है दुनिया
में। कोई जेलखाने
में बंद है, कोई दिल्ली
में
राजसिंहासन
पर बैठा है।
छोटे-बड?े
चोरों की
दुनिया है।
कोई पुलिस की हथकड़ी डाल
कर ले जाया जा
रहा है। कोई
मजिस्ट्रेट
बनकर बैठा है।
ये चोरों की
ही अलग-अलग
शक्लें हैं।
क्योंकि इस
दुनिया में दो
ही होने के
ढंग हैं, या
तो संतत्व, या चोर!
तीसरा कोई ढंग
नहीं है।
चोरी
के कई प्रकार
हैं। एक चोरी
है न्याय-संगत, व्यवस्था के
अनुकूल, कानून
को मान कर। और
एक चोरी है
व्यवस्था को तोड़
कर, व्यवस्था
के प्रतिकूल,
कानून के
विपरीत। जो
होशियार चोर
हैं, वे
कानून के
अनुसार चोरी
करते हैं। जो
नासमझ चोर हैं,
वे कानून को
तोड़ कर चोरी
करते हैं।
बाकी चोरी में
कोई फर्क नहीं
है। धन चोरी
है। इसलिए कुछ
भी करो, वहां
चोरी होगी। जब
चोर संत के
सामने आता है,
तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ता है।
क्योंकि पहली
दफा एक अजनबी
से मुलाकात, एक स्ट्रेंजर
से! जिससे न
भाषा मेल खाती
है, न आचरण
मेल खाता है।
जिसको हमने
कभी नहीं
जाना।
तुमने
कभी खयाल किया
कि जब तुम
किसी आदमी को
मिलते हो और
अगर वह
तुम्हारी
भाषा नहीं
बोलता, तो
तुम्हें थोड़ी
सी बेचैनी
होती है।
साधारण भाषा,
बोलचाल की
भाषा नहीं
जानता तो
तुम्हें
बेचैनी होती
है। अगर वह
तुम्हारे
धर्म का नहीं
है तो बेचैनी
थोड़ी और बढ़
जाती है। अगर
वह तुम्हारे
रंग का भी
नहीं है, तुम
नीग्रो हो और
वह अंग्रेज है,
तो और
बेचैनी बढ़
जाती है। अगर
वह तुम्हारी
राजनीति का भी
नहीं है, कि
तुम
कम्युनिस्ट
हो और वह
पूंजीवादी है,
तो बेचैनी
और बढ़ जाती
है। जैसे-जैसे
तुम्हारे और
उसके बीच
फासला बढ़ता है,
अजनबीपन बढ़ता
है, उतनी
ही बेचैनी बढ़
जाती है। अगर
वह भी हिंदू है
तुम भी हिंदू;
अगर वह भी
कम्युनिस्ट
है, तुम भी
कम्युनिस्ट; अगर वह भी
गोरा है तुम
भी गोरे; बेचैनी
समाप्त हो
जाती है। तुम
चचेरे-मौसेरे
भाई हो। अपना
ही आदमी है।
लेकिन
संत के सामने
जब तुम खड़े
होते हो तब
कोई भी संबंध
नहीं बचता।
साधारण भाषा
ही अलग-अलग नहीं
है, तुम्हारे
अस्तित्व की
भाषा अलग-अलग
हो गई है। तुम
हिंदू हो, वह
मुसलमान होता,
तो भी समझ
में आता था।
अलग धर्म को
मानता है, लेकिन
मानता तो है!
वह
मुहम्मद सैयद
कह रहा है, यहूदी भी
मैं, मुसलमान
भी मैं, हिंदू
भी मैं, अब
यह मुश्किल
में डालने
वाला आदमी है।
वह कह रहा है, काबे में
जिस पत्थर की
पूजा होती है
वह वही है; काशी
के मंदिर में
जो मूर्ति है,
वही काबे
में अस्बत
का पत्थर है।
अब जरा
मुश्किल हो
गई!
संत के
सामने जब तुम
खड़े होते हो, तो इस जगत की
सबसे बड़ी
बेचैनी अनुभव
होती है। और
वह बेचैनी तब
तक बनी रहेगी,
जब तक या तो
तुम संत को
चोर सिद्ध
करके निपटना चाहो
और या संत के
साथ एक होकर
संत न हो जाओ।
इसलिए गुरु के
पास पहुंच कर
बड़ी भयावह
स्थिति होती
है। तुम कंपते
हो, तुम
डरते हो। गुरु
लगता है, जैसे
मृत्यु हो। उस
चोर की कठिनाई
तुम समझो। तुम
अपनी कठिनाई
से समझ सकते
हो। उसके
अतिरिक्त और
कोई समझने का
रास्ता भी
नहीं है।
वह चोर
बहुत हैरान रह
गया। बहुत
झेंप के साथ उसने
कपड़े लिए और
चुपचाप गायब
हो गया।
बड़ी
मजेदार बात
है। कपड़े उसने
ले लिए। झेंप
के साथ लिए।
संकोच लगा एक
क्षण को, हाथ
झिझका होगा, फिर भी ले
लिए।
हर
वासना को लेते
समय तुम
झिझकते हो, संकोच भी
लगता है। फिर
भी ले लेते
हो। इसलिए निरंतर
तुम अपने को
पाते हो कि
तुम अपनी ही
आंखों में
गिरते जा रहे
हो। तुम्हें
ऐसा आदमी खोजना
मुश्किल है
जिसकी इज्जत
खुद की आंखों
में हो। चाहे
दूसरे उसको इज्जत
भी करते हों, लेकिन खुद
की आंखों में
कोई इज्जत
नहीं होती। क्योंकि
तुम झेंपते
हुए वही सब
करते चले जाते
हो, जो
तुम्हें भीतर
से प्रतीत
होता है, उचित
नहीं।
अब इस
फकीर से, जिसके
घर में कुछ भी
नहीं है, वस्त्र
दूसरा नहीं है,
उसका पहना
हुआ वस्त्र
लेना बड़े
संकोच की बात
रही होगी।
लेकिन वासना
प्रबल है। और
वासना ने सोचा
होगा, कपड़ा कीमती है।
बिक जायेगा, काम आ
जायेगा। और
इतनी दूर आया
हूं, खाली
हाथ लौटना
उचित भी नहीं
है। जो मिले, वही सही है।
वासना सदा
अपने संबंध
में सोचती है।
करुणा दूसरे
के संबंध में
सोचती है। वही
भेद है।
उस चोर
ने सोचा होगा
कि माना कि
संकोचपूर्ण
लगता है, माथे
पर पसीना आता
है, लेकिन
इस संकोच के
पीछे भूल करके
जिंदगी भर पछताना
पड़ेगा कि छोड़
दिए वे कपड़े, पता नहीं
कितनी कीमत के
थे! उचित है, संकोच छोड़ो,
बजाय कपड़े
छोड़ने के, और
ले लो! झिझक हटाओ
और कर गुजरो।
एक क्षण की
बात है; निकल
गये इस कमरे
के बाहर, झंझट
समाप्त हो गई!
लेकिन
काश, पाप इतने
जल्दी समाप्त
होता! वह जीवन
भर पीछा करता
है।
जन्मों-जन्मों
में, जहां-जहां
तुम्हें
संकोच हुआ है
फिर भी तुम कर
गये, वे ही
तुम्हारे
कर्म हैं। जिस
दिन तुम्हें
संकोच नहीं
होता, तुम निस्संकोच
कोई कृत्य
करते हो, उसका
कोई बंधन नहीं
है। इसे तुम
सूत्र समझ लेना।
जिस कृत्य को
भी तुम
निस्संकोच, समग्र भाव
से कर सकते हो,
उसका कोई
बंधन नहीं है।
बेझिझक--जहां
तुम्हारे
भीतर रत्ती भर
भी विरोध नहीं
है। पूर्ण मन
से, समग्रता
से! फिर कोई
कर्म का बंधन
नहीं है। 'टोटल
एक्ट', पूर्ण
कृत्य कर्म के
बाहर है।
लेकिन
तुम्हारे सभी
कृत्य आधे-आधे
हैं। संकोच, झिझक! करना
भी चाहते हो, नहीं भी
करना चाहते।
ऊपर की वासना
कहती है, 'करो।'
भीतर का बोध
कहता है, 'क्या
कर रहे हो?' सब
बंटा-बंटा; तब तुम बंधन
में हो। तब
तुम कर्मों को
बांधते
चले जाते हो।
उस चोर
ने बहुत झेंप
के साथ कपड़े
ले लिए और चुपचाप
गायब हो गया।
रात के अंधेरे
में डूब गया होगा।
लेकिन दुनिया
से तुम गायब
हो जाओ, अपनी
आंखों के
सामने कैसे
गायब होओगे? जीवन भर
पछताओगे।
अवसर मिला था
जब कि चैतन्य
का दान मिल
सकता था, वह
खोया। एक अवसर
मिला था जब कि
यह फकीर से कह
सकता था, कि
नहीं! ये
वस्त्र आपके
ले जाऊं? यह
नहीं होगा।
इसकी आत्मा की
गरिमा बढ़ती, अगर इतना यह
कह पाता।
ऐसा
मैंने सुना है
एक बार हुआ, एक सूफी
फकीर बायजीद
चोरों के
द्वारा पकड़
लिया गया। बायजीद
मस्त आदमी था।
स्वस्थ तगड़ा
आदमी था। शक्तिशाली
आदमी था।
चोरों ने कहा,
काम पड़ेगा।
और बायजीद तो
सहज जीवन में
बहता था, सीधा-सादा
आदमी था, तो
उसने कुछ
इंकार भी न
किया। उसने
कहा कि चलो ठीक।
पहले ही दिन
वे चोरी करने घुसे।
बायजीद तगड़ा
आदमी था। तो
उनके पास जो भी
पैसे लगते थे,
वे उसी के
पास जमा कर
रखे थे। वह
उनका ट्रेजरर,
उन्होंने
बना लिया।
क्योंकि कोई छीनेगा, तो यही सबसे
ज्यादा
संघर्ष
करेगा।
पहले
घर में घुसे--रयोकान
जैसा घर रहा
होगा, वहां
कुछ नहीं था।
सब घर को छान
डाला। इंच-इंच
जगह खोज ली।
सब घर के
दरवाजे द्वार
खोल डाले, कुछ
न पाया, तो
निराश लौटे।
गांव के बाहर
जा कर
उन्होंने कहा,
आज की रात
तो बेकार गई।
बायजीद
ने कहा, 'किसने
कहा बेकार गई?
मुझे इतनी
दया आ गई उस घर
के लोगों पर
कि जो पैसे
तुमने मेरे
पास जमा किए
थे, मैं
वहीं छोड़ आया।
कुछ भी नहीं
है बेचारों के
पास। चोर भी
ले जा सकें, ऐसा भी कुछ
नहीं है। कैसी
मुसीबत में रह
रहे होंगे!
तुमने जो मुझे
दिया था, मैं
वहीं रख आया
हूं।'
एक तो
बायजीद, जो
पास था रख आया;
और एक चोर
यह कि फकीर के
पास सिवाय
कपड़ों के कुछ
न था, वह भी
ले कर अंधेरे
में गायब हो
गया।
संत
अगर चोरी भी
करने जायेगा
तो रख आयेगा।
और चोर अगर
प्रार्थना भी
करने जायेगा
तो कम से कम
जूते बदल कर
बाहर मंदिर के
चला आयेगा।
इतना तो कम से
कम कर ही
गुजरेगा।
यहां
लोग जूते ले
जाते हैं--'यहां!'
चोर दयनीय
है। क्या
खोजने आता है
और क्या लेकर
चला जाता है!
और क्या वह
आदमी जो यहां
से जूते चुरा
कर ले गया, समझ
पाया होगा, जो मैंने
कहा? असंभव!
कोई उपाय नहीं
है समझने का।
संत रयोकान अब
नंगे थे और
नंगे ही बैठ
कर आकाश में
चंद्रमा को
निहारते रहे।
पूर्णिमा
की रात थी, अपने झोपड़े
के द्वार पर
बैठ कर
उन्होंने
आकाश में उठते
चांद को देखा।
और फिर
उन्होंने मन
ही मन कहा, 'काश, उस
गरीब को मैं
यह सुंदर चांद
भी दिये देता!'
दान
सदा अनंत है।
और देनेवाला
कितना भी दे, उसे लगता है,
और दिया जा
सकता था। काश,
संत को पीड़ा
रही होगी रयोकान
को, कि घर
में कुछ भी
नहीं है। आदमी
बेवक्त आ गया।
पहले से खबर
कर देता, कुछ
इंतजाम कर
लेते। इतनी
दूर यात्रा
करके आया, बड़ी
आकांक्षा से
आया होगा और
केवल वस्त्र
ही ले जा सका।
संत को
यह भी पीड़ा
रही होगी कि
घर में कुछ न
था, इसलिए
अकारण मैंने
उसे संकोच में
डाला। काश, वह चुपचाप
ले जा सकता और
मुझे देना न
पड़ता। तो उसके
मन को यह चोट, जो संकोच की
लगी, यह तो
न लगती! वह सदा
अपने को
अपराधी मानता
रहेगा।
और संत
को चोर गरीब
दिखाई पड़ता
है। तुम्हें
हर गरीब चोर
दिखाई पड़ता
है। जैसे ही
तुम गरीब आदमी
को देखते हो, तुम्हें चोर
दिखाई पड़ता
है। अगर
तुम्हारे घर में
कुछ चोरी हो
जाये, तो
पहले तुम नौकर
को पकड़ लेते
हो। क्यों? घर में
पत्नी है, जो
तुम्हारी जेबें
रोज खाली कर
रही है।
तुम्हारे
बेटे हैं, जो
चोरी सीख रहे
हैं। सीखनी
ही पड़ेगी!
क्योंकि तुम
खुद चोर हो।
अगर न सीखेंगे
तो पिता के
प्रति
कर्तव्य कैसे
पूरा होगा? घर में
मेहमान
आते-जाते हैं,
जो
तुम्हारे
मित्र हैं। और
चोरों के
मित्र चोर ही
होंगे। नहीं,
लेकिन
तत्क्षण नौकर
पकड़ लिया जाता
है। क्योंकि
गरीब को तुम
जानते ही हो
कि चोर है।
गरीब दिखा
नहीं कि तुम
जानते हो चोर
है।
और रयोकान
ने उस चोर को
गरीब कहा।
कहा:
काश!
उस गरीब को
मैं ये सुंदर
चांद भी भेंट
दे देता!
तुम्हें
कितना ही मिल
जाये, तुम
तृप्त नहीं
होते; और
संत कितना ही
दे, तृप्त
नहीं होता।
चांद देना
चाहता था।
असंभव भी देना
चाहता था। इस
गरीब को
दुनिया का
सबसे बड़ा अमीर
बना देना
चाहता था।
चोरी
तो तुम भी
मिटाना चाहते
हो। चोरी को
संत भी मिटाना
चाहता है। तुम
चोरी को मिटाना
चाहते हो, चोरी के
खिलाफ इंतजाम
करके। संत
चोरी को मिटाना
चाहता
है--जीवन की
समृद्धि को
बढ़ा कर। क्योंकि
जब तक दीनता
है, गरीबी
है, अभाव
है, तब तक
चोरी समाप्त
नहीं हो सकती।
तब तक एक तरफ अमीर
है और एक तरफ
गरीब है, तब
तक चोरी
समाप्त नहीं
हो सकती; चोरी
जारी रहेगी।
तुम कितना ही
इंतजाम करो, सब इंतजाम
तोड़ कर चोरी
जारी रहेगी।
संत भी
चोरी को मिटा
देना चाहता है, लेकिन चांद
को भेंट दे कर!
संत जानता है
कि अगर संसार
के ही धन पर
लोगों की नजर
बनी रही तो
दुनिया में
अमीर और गरीब
रहेंगे। वे
मिट नहीं सकते,
चोरी जारी
रहेगी। एक और
संपदा है
आत्मा की, परमात्मा
की। और वह
संपदा विराट
है और अनंत है।
और उसे कोई भी बांटनेवाला
नहीं है। तुम
कितनी ही ले
लो, उससे
दूसरे के लिए
कम नहीं होती।
ध्यान
रखना, जिन
चीजों को भी
तुम्हारे
लेने से
दूसरों को कमी
पड़ जाती है, तुम चोरी कर
रहे हो।
उन्हीं चीजों
की खोज करना, जो तुम्हारे
लेने से किसी
को कम नहीं
होतीं। प्रार्थना
करना; खोजना
प्रार्थना के
भाव को।
तुम्हारी
प्रार्थना से
किसी की
प्रार्थना कम
नहीं होती, बढ़ सकती है।
करना ध्यान; तुम्हारे
ध्यान से किसी
का ध्यान कम
नहीं होता।
अगर पाना ही
चाहो, तो
पाना चाहना
परमात्मा
करो। क्योंकि
तुम्हारे पा
लेने से कोई
कब्जा नहीं हो
जाता, कि
अब दूसरा न पा
सकेगा। बल्कि
तुम्हारे
पाने से दूसरे
को पाने का
मार्ग खुलता
है। तुम्हारे
पाने से दूसरे
को पाने की
संभावना बढ़ती
है। तुम्हारे
पाने से दूसरे
से छिनता नहीं
है, दूसरे
को मिलने की
आशा पैदा होती
है।
धर्म
और अधर्म का
इतना ही फर्क
है। अधर्म उन
चीजों को पाने
की कोशिश है, जिनको अगर
तुम पा लोगे
तो दूसरे
वंचित रह जायेंगे।
अगर दूसरे पा
लेंगे तो तुम
वंचित रह जाओगे।
इसलिए अधर्म
हिंसा है।
वहां
छीना-झपटी है,
शोषण है।
और
धर्म उन
जीवन-सत्यों की
खोज है, उन
जीवन-निधियों
की, जिनको
तुम जितना पा
लोगे, उतना
ही दूसरों को
मिलने का उपाय
हो जायेगा। तुम
जितने प्रेम
से भर जाओगे, ध्यान से, प्रज्ञान से,
उतनी
ज्यादा
संभावना बढ़
जायेगी और भी
लोगों के
प्रेम, ध्यान
और ज्ञान की।
उसी को
पाना चाहना
जिसे पा कर
तुम ही धनी
नहीं होते, दूसरे भी
तुम्हारे
कारण धनी हो
जाते हैं। तब
तुम्हारी
यात्रा धर्म
की है। और तब
तुम पाओगे कि
जितना
तुम्हें
मिलता है, उतना
तुम बांटना
चाहते हो। जिस
चीज को भी
मिलने से तुम
छिपाना चाहो;
समझना, चोरी
है। जिस चीज
को भी तुम्हें
मिल जाये, तुम
बांटना न चाहो,
समझना चोरी
है। और जो चीज
भी तुम्हें
मिल जाये, तुम
बांटना चाहो,
तो समझना कि
अचोरी
है। अचौर्य
बड़ी उपलब्धि
है।
रयोकान अचौर्य को
उपलब्ध है।
इसने दिया।
इसने चोर को
चोरी करने से
बचाने की
कोशिश की।
इसने कहा, मैं भेंट
देता हूं, कि
कहीं चोर को
चोरी का खयाल न
रह जाये!
फिर
ऐसा हुआ कि
चोर पकड़ा
गया--कोई दो
तीन वर्ष बाद।
कोई और चोरी
करते हुए पकड़ा
गया और तब रयोकान
के वस्त्र भी
मिल गये। वे
वस्त्र तो
प्रसिद्ध थे।
क्योंकि रयोकान
उसी कंबल के
बने हुए
वस्त्र को
वर्षों से पहनता
था। और जब से
वे वस्त्र
चोरी गये थे
तब से वह नंगा
ही रह रहा था।
इसलिए लोगों
को पता तो था कि
वस्त्र चोरी
चले गये हैं, या कुछ हो
गया। लोग
पूछते भी थे, 'क्या हुआ?' तो वह कहता
था, बड़ा
अच्छा हुआ।
मुझे पता ही
नहीं था कि
नग्न भी रहा
जा सकता है।
वह
पकड़ा गया चोर, वह कपड़ा
भी पकड़ा गया।
वह चोर
चोर-बाजार में
उसको बेच भी न
सका, क्योंकि
सारी दुनिया
जानती थी, वे
रयोकान
के वस्त्र
हैं। फंस
जायेगा।
इसलिए छिपा कर
रखे। उनको पहन
भी न सका। फिर
चोरी पकड़ी
गई कोई और...उसी
में
खानातलाशी
हुई, रयोकान के वस्त्र पकड़े
गये।
मजिस्ट्रेट
ने रयोकान
को अदालत में
बुलाया। और रयोकान से
कहा कि आप
सिर्फ इतना ही
कह दें, क्योंकि
इस चोर के
खिलाफ कोई भी
गवाह नहीं है।
कोई चश्मदीद
गवाह नहीं है।
आप इतना ही कह
दें कि हां, यह आदमी
चोरी करने आया
था। बस, काफी
है। फिर हमें
कोई प्रमाण
नहीं चाहिए।
रयोकान
ने कहा कि यह
आदमी आया था
जरूर! लेकिन
चोरी करने
नहीं। यह तो
बेचारा खाली
हाथ जा रहा
था। और यह जो कपड़ा है, यह मैंने
इसे भेंट दिया
था। यह चोरी
नहीं है।
संत
किसी को चोर
देख नहीं
सकता। चोर में
भी साधु को
खोजेगा। और रयोकान ने
कहा कि यह
आदमी बड़ा
साधु-स्वभावी
है। क्योंकि मुझे
याद है
भली-भांति, आज भी देख
सकता हूं कि
जब मैं इसे
कपड़े दे रहा था
तो यह बड़े
संकोच से भरा
था। लेना नहीं
चाहता था।
इसके भीतर
ग्लानि थी। और
मुझे लगता है,
रयोकान ने कहा, कि
सिर्फ मुझे 'ना' न
कहना चाहेगा,
इसलिए इसने
लिया था।
क्योंकि न
कहना अच्छा न
लगेगा, इंकार
करना। मैं भेट
दे रहा हूं और
इंकार करना अच्छा
न लगेगा, इसलिए
इसने स्वीकार
किया था।
अन्यथा यह
आदमी चोर नहीं
है।
अदालत
को चोर को छोड़
देना पड़ा। रयोकान
उस दिन अकेला
नहीं लौटा, चोर साथ
लौटा।
झोपड़े
में घुस कर
चोर ने कहा, 'उस दिन आया
था, इस झोपड़े
में कुछ न पाया।
आज फिर आया
हूं इस झोपड़े
में सब कुछ
है। मेरा सारा
संसार यहां
है।'
आज
इतना ही।
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