दिनांक
6 अक्टूबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
सेहेई
के शिष्य सुईबी
ने एक दिन
अपने गुरु से
पूछा, 'गुरुदेव,
धर्म का मूल
रहस्य क्या है?'
सदगुरु
ने कहा, 'प्रतीक्षा
करो। और जब हम
दोनों के अतिरिक्त
यहां कोई भी
नहीं होगा, तब मैं
तुम्हें
बताऊंगा।'
और
फिर उस दिन
बहुत बार ऐसे
मौके आये जब
कि वे दो ही झोपड़े
में थे और हर
बार सुईबी
ने अपने
प्रश्न भी दुहराये, लेकिन वह
अपना प्रश्न
पूरा भी नहीं
कर पाता था, कि सेहेई
अपने होठों पर
उंगली रख कर
उसे चुप होने
को इशारा कर
देते थे।
और
फिर सांझ हो
गई और सदगुरु
का झोपड़ा
बिलकुल खाली
हो गया। शिष्य
ने फिर पूछना
चाहा, लेकिन
फिर वही होठों
पर रखी हुई
उंगली उत्तर में
मिली।
फिर
रात उतर आयी
और पूर्णिमा
का चांद आकाश
में ऊपर उठ
आया।
सुईबी
ने कहा, 'अब मैं और कब
तक प्रतीक्षा करूं?'
तब सेहेई उसे
लेकर झोपड़े
के बाहर आ गये
और उसके कानों
में उन्होंने
फुसफुसा कर
कहा, 'बांसों के ये वृक्ष
यहां लम्बे
हैं और बांसों
के ये वृक्ष
यहां छोटे
हैं। और जो
जैसा है वैसा
है--इसकी
पूर्ण
स्वीकृति ही
स्वभाव में
प्रतिष्ठा
है। और स्वभाव
धर्म है। और
स्वभाव में
जीना धर्म का
मूल रहस्य है।
शब्द में धर्म
की
अभिव्यक्ति
है--तथाता
९एनबीदमे० और
निःशब्द में
उसकी
अभिव्यक्ति
है--शून्यता (विंपकदमे)।'
भगवान!
इस झेन
बोध-कथा को
हमें विस्तार
से समझाने की
अनुकंपा करें!
जीवन
में सबसे कठिन
बात है, स्वयं
को स्वीकार कर
लेना। अहंकार
को उससे बड़ी
चोट और किसी
बात से नहीं
लगती।
क्योंकि
अहंकार है
सदा--कुछ
और--कुछ और--ज्यादा
होने की
महत्वाकांक्षा।
जितना धन है
तुम्हारे पास,
अहंकार
कहता है, और
ज्यादा हो
सकता है। इसे
ज्यादा करो।
तुम्हारी
योग्यता
ज्यादा है और
धन कम है। यह
तुम्हारे अनुकूल
नहीं है, योग्य
नहीं, कि
इतने थोड़े से
तुम तृप्त हो
जाओ।
और ऐसा
नहीं है कि धन
बढ़ जायेगा तो
तुम तृप्त हो
जाओगे। कितना
ही होगा धन, अहंकार
बार-बार कहेगा,
तुम्हारी
योग्यता
ज्यादा थी, अयोग्य
तुमसे आगे खड़े
हैं। जिन्हें
भीख मांगनी
चाहिए थी, वे
सम्राट हो गये
हैं। और तुम, जिन्हें
सम्राट होना
चाहिए था, केवल
इतने पर अटके
हो?
अहंकार
ज्यादा और
ज्यादा--और
ज्यादा होने
का स्वप्न
देता है। और
अहंकार यह
मानने को कभी
राजी नहीं
होता कि तुमने
अपनी योग्यता
के बराबर पा
लिया। यह तो
असंभव ही है
कि अहंकार
मानने को राजी
हो कि मैंने
अपनी योग्यता
से ज्यादा पा
लिया।
तुम्हारी
पात्रता अनंत
मालूम होती है, और जो मिलता
है वह बहुत
क्षुद्र
मालूम होता है।
यही दौड़
है--अस्वीकार!
और धन
के संबंध में
नहीं, सभी
संबंधों में,
सभी दिशाओं
में; चाहे
ज्ञान हो, चाहे
यश हो, चाहे
पद हो। ये सब
संसार की चीजें
तो हमारी समझ
में भी आ जाती
हैं कि यहां
दौड़ है, और
दौड़ छोड़ने
जैसी है।
क्योंकि दौड़
से सिवाय अशांति
के और क्या
मिलेगा? और
फिर न तृप्त
होनेवाली दौड़
है। इसका कोई
अंत नहीं है।
तुम जहां भी
रहोगे, इतने
ही अतृप्त
रहोगे, जितने
तुम यहां हो।
पर मजा
तो यह है कि यह
दौड़ धर्म में
भी प्रविष्ट
हो जाती है।
जब तुम ध्यान
करना शुरू
करते हो तब भी
यही दौड़! इतने
से ध्यान से
क्या होगा? तुम्हारी
योग्यता बड़ी
है। और
तुम्हारे
जीवन में तो
समाधि बरसनी
चाहिए; और
इतनी छोटी सी
शांति मिल गई,
इससे क्या
होगा? कि
मन थोड़ा
प्रफुल्लित
रहने लगा, इससे
क्या होगा? तुम्हारे
जीवन में तो
आनंद का
महासागर होना
चाहिए। छोटी
सी प्रकाश की
किरण मिली, इससे क्या
होगा? हजार-हजार
सूर्य एक साथ
उदित होने
चाहिए। वही दौड़,
जो पहले थी,
अब भी है।
पहले हम उसे
सांसारिक
कहते थे, अब
धार्मिक कहते
हैं। लेकिन
उसका स्वभाव
तो बदला नहीं।
क्या
धार्मिक दौड़
भी हो सकती है? दौड़ने का
नाम ही संसार
है। तो
धार्मिक दौड़
तो हो ही नहीं
सकती। धर्म तो
रुक जाने का, ठहर जाने का
नाम है। रुकना,
ठहरना, किसी
आकांक्षा, किसी
फल के लिए
नहीं। रुकना,
ठहरना, इस
बात की समझ से
है, कि जो
मिला है वह
काफी है। जो मिला
है, न केवल
काफी है, शायद
जरूरत से
ज्यादा है। जो
मिला है वह
मेरी पात्रता
से ज्यादा है।
अहंकार
इसे स्वीकार
नहीं कर पाता, क्योंकि
रुके तुम--कि
अहंकार मरा ।
तुम्हारी दौड़
में अहंकार का
जीवन है; तुम्हारे
रुकने में
उसकी मृत्यु।
इसलिए स्वयं
को स्वीकार
करना बड़ा ही
कठिन है।
स्वयं को
स्वीकार करने
का अर्थ हुआ
कि दौड़ की कोई
जगह न रही।
तुम जैसे हो, हो! कुछ भी
किया नहीं जा
सकता। कुछ
करने को भी नहीं
है। तुम जैसे
हो यह भी
जरूरत से
ज्यादा हो।
इसके लिए भी
तुम्हें
कृतज्ञ, तुम्हें
अनुगृहीत
होना चाहिए।
यह भी अस्तित्व
की अनुकंपा है
कि तुम हो।
धार्मिक
आदमी जिसे हम
कहते हैं, वह मानने को
राजी हो जाता
है कि धन की
दौड़ से क्या
होगा। लेकिन
वह यह मानने
को राजी नहीं
होता कि नीति
की दौड़ से
क्या होगा। वह
कहता है, नीति
की दौड़ तो
जारी रखनी
पड़ेगी।
बेईमानी है, उसे तो
छोड़ना है; ईमानदार
होना है। चोरी
है उसे छोड़ना
है, अचोर होना है।
अशांति है उसे
त्यागना है, शांति की
उपलब्धि करनी
है। दौड़ तो
जारी रखनी है,
लेकिन अब
दिशा नैतिक
होगी।
और यही
झेन की बड़ी
भारी खोज है
कि जब तक तुम दौड़ोगे, तब तक तुम
संसार में
रहोगे। धर्म
नई दौड़ नहीं, नया पहरावा
नहीं, धर्म
तो इस सत्य की
स्वीकृति है
कि तुम जैसे
हो, हो।
अन्यथा होने
का उपाय नहीं
है। अशांत हो
तो अशांत हो; बेईमान हो
तो बेईमान हो;
चोर हो तो
चोर हो, करोगे
क्या? और
चोर अगर अचोर
होने की कोशिश
करेगा तो
उसमें भी चोरी
कर जायेगा।
क्योंकि
चोर...कोशिश तो
चोर ही करेगा।
एक मछली
की दूकान के
सामने मुल्ला नसरुद्दीन
खड़ा था। थोड़ा
दूर हटकर, रास्ते पर।
परिचित मछली
बेचनेवाला!
उससे उसने कहा
कि 'भैया, जरा दोत्तीन
बड़ी मछलियां
मेरी तरफ
फेंको तो।' उस दूकानदार
ने कहा, 'फेंकने
की क्या जरूरत
है? तुम
पास आ जाओ, इतनी
दूर क्यों खड़े
हो? मछलियां तुम्हें
हाथ में ही दे
दूंगा।' नसरुद्दीन ने कहा कि 'नहीं, उसके
पीछे कारण
हैं। मैं
दुनिया का
सबसे बड़ा निखट्टू
मछुआ हो सकता
हूं, लेकिन
झूठा आदमी
नहीं। तुम
फेंकोगे, मैं
पकडूंगा,
तो घर जाकर
पत्नी से कह
सकूंगा कि
मैंने इन्हें
स्वयं पकड़ा
है।'
बेईमान
आदमी
ईमानदारी भी
करने जायेगा, तो जायेगा
तो बेईमान ही!
झूठ बोलनेवाला
सच भी बोलेगा,
तो बोलेगा
तो झूठ बोलनेवाला
ही। झूठा आदमी
सच में से भी
रास्ता निकाल
लेगा। बेईमान,
ईमानदारी
में से भी
बेईमानी
करेगा। हिंसक,
अहिंसा से
भी हिंसा ही
करेगा। उसके
ढंग बदल जायेंगे,
ऊपरी
व्यवस्था बदल
जायेगी, ढांचा,
रंग, रूप,
सब बदल
जायेगा, लेकिन
भीतर का
स्पंदन वही
रहेगा। इससे
अन्यथा हो भी
नहीं सकता।
अगर
तुम हिंसक हो, और तुमने
अपने ऊपर
अहिंसा थोप ली,
तो तुम नये
ढंग से दूसरों
को सताना शुरू
कर दोगे। और
यह भी हो सकता
है कि नया ढंग,
पुराने ढंग
से भी कारगर
साबित हो।
किसी को सताना
कई ढंग से हो सकता
है। तुम किसी
की गर्दन पर
छुरा रखो तो; तुम अपनी
गर्दन पर छुरा
रख कर खड़े हो
जाओ कि मेरी
बात अगर न
मानी तो मैं
हत्या कर
लूंगा तो भी; बात वही है।
तुम धमकी
हिंसा की ही
दे रहो हो। और
पहली धमकी के
मुकाबले तो
शायद कोई आदमी
टिक भी जाता, लेकिन दूसरी
धमकी के
मुकाबले तुम
दूसरे आदमी को
इस मुसीबत में
डाले दे रहे
हो कि अगर
राजी हो, तो
तुम्हारी बात
के लिए राजी
हो रहा है, जो
उसे गलत दिखाई
पड़ती है। अगर
न राजी हो, तो
एक छोटी सी
बात के लिए
तुम्हारे
जीवन को नष्ट
कर रहा है। इस
योग्य भी नहीं
मालूम पड़ता।
महात्मा
गांधी ने अनशन
किया डाक्टर
अंबेडकर को
झुकाने के
लिए। डाक्टर
अंबेडकर इसी
मुसीबत में
पड़े। जो कुछ
गांधी कह रहे
थे वह हरिजनों
के लिए खतरनाक
था।
नुकसानदायक
था। जो अंबेडकर
कह रहा था, हरिजनों के हित में
था। जो गांधी
कह रहे थे वह
हिंदुओं के
हित में था; हरिजनों के खिलाफ
था। जो
अंबेडकर कह
रहा था हरिजनों
के हित में था,
हिंदुओं के
खिलाफ था।
लेकिन गांधीजी
ने किया अनशन।
यह
अहिंसात्मक
हिंसा है, कि
मैं मर जाऊंगा।
तब अंबेडकर के
ऊपर बोझ बढ़ता
गया। सारे
मुल्क का दबाव
पड़ने लगा, कि
इतनी सी छोटी
सी बात के लिए
गांधी जैसे
कीमती आदमी को
खोना उचित नहीं
है। और फिर
जिंदगी भर तुम
अपराधी अनुभव
करोगे कि
तुम्हारे
कारण! तुमने जिद्द की।
और मजा
यह था कि जिद्द
गांधी कर रहे
थे। लेकिन
अहिंसक जिद्द
दिखाई नहीं
पड़ती।
क्योंकि
अहिंसा के
भीतर हिंसा
छिपी होती है।
वह ऊपर से पता
नहीं चलती।
अंबेडकर
झुका। और मैं
मानता हूं कि
अंबेडकर के
झुकने से
अंबेडकर ने
बताया कि वह
ज्यादा अहिंसक
है। अगर वह
हिंसक आदमी
होता तो कहता
कि जो भी होना
हो, हो। जब तक
मैं सही हूं, और जब तक
मुझे तर्क और
विचार से
सिद्ध नहीं किया
जाता कि मैं
गलत हूं, जब
तक मुझे समझा
कर राजी नहीं
किया जाता कि
मैं गलत हूं, तब तक मैं
नहीं झुकूंगा।
लेकिन इतिहास
की किताबें
कुछ और
कहेंगी। वे कहेंगी,
अंबेडकर जिद्द पर
था, गांधी
अहिंसक थे, और गांधी की
अहिंसा ने
उसको जीत
लिया। जीता जरा
भी नहीं।
गांधी का ढंग
बिलकुल हिंसक
है। उसका आवरण
अहिंसक है।
हिंसा
का अर्थ होता
है: दूसरे पर
जबर्दस्ती। कैसे
तुम करते हो, यह बात सवाल
नहीं है।
दूसरे को
दबाना, दूसरे
को ऐसी स्थिति
में डाल देना,
जहां वह
मानने को
मजबूर हो
जाये। और यह
बड़ी भारी
सोचने की बात
है कि अगर तुम
हिंसक हो तो
तुम जो भी
करोगे उसमें
हिंसा प्रवेश
कर जायेगी।
फिर करना क्या?
झेन कहता है,
हिंसा को
स्वीकार कर
लो। हमें डर
लगता है कि अगर
स्वीकार कर
लिया तो फिर
हिंसा मिटेगी
कैसे? वही
तुम्हारी भूल
है।
अगर
तुमने पूरी
तरह स्वीकर
कर लिया कि
मैं झूठ बोलनेवाला
आदमी हूं, और अगर
तुमने रत्ती
भर भी इसके
विपरीत कोई
लक्ष्य न
बनाया कि मैं
सच बोलूंगा, तो झूठ
बचेगा नहीं।
क्यों? क्योंकि
जहां पूर्ण
स्वीकृति है,
जहां इतनी
सचाई है कि
तुमने अपने
पूरे झूठ को स्वीकार
कर लिया; इससे
बड़ी सचाई और
क्या हो सकती
है, कि
तुमने
स्वीकार किया,
कि तुम
बेईमान हो, तुम चोर हो, तुम हिंसक हो?
सत्य का
पहला कदम उठ
गया। तो इस
सचाई के सामने
झूठ अपने आप
तिरोहित हो
जायेगा--जैसा
दीये के जलने
पर अंधेरा
तिरोहित हो
जाता है। तुम
अंधेरे से लड़
कर कहीं भी न
पहुंच पाओगे।
तुम दीये को
जला कर ही
कहीं पहुंच
सकते हो।
सत्य
की पहली घटना
है, मैं जैसा
हूं पूरी नग्नता
में, वैसा
ही स्वीकार कर
लेना। और
क्रांति इसके
पीछे चली आती
है। जैसे ही
तुम अपनी
बुराई को स्वीकार
कर लेते हो, वैसे ही तुम
पाते हो
बदलाहट शुरू
हो गई। तुम्हें
बदलाहट करनी
नहीं पड़ती।
और
यहीं झेन और
दूसरे धर्मों
में बुनियादी
भेद है। सभी
धर्म कहते हैं
बदलाहट करो।
लेकिन करेगा
कौन? करोगे
तुम, जो कि
गलत हो।
तुम्हारी
सारी बदलाहट
गलत आदमी से
निकलेगी और
गलत हो
जायेगी। झेन
कहता है, बदलाहट
कौन करेगा।
करनेवाला है
कौन? तुम
करोगे। हिंसक
अहिंसक बनने
की कोशिश करेगा;
धोखा होगा।
बेईमान
ईमानदारी
थोपेगा, पाखंडी
बनेगा।
परिग्रही, अपरिग्रही
हो जायेगा, नग्न खड़ा हो
जाएगा, लेकिन
अब अपरिग्रह
को वह परिग्रह
की तरह ही सम्हालेगा।
वह उसकी
संपत्ति हो
जाएगी। कल वह
झूठ बोल कर लोगों
को चोट पहुंचा
रहा था। अब वह
सच बोल कर लोगों
को चोट पहुंचायेगा।
जो काम वह झूठ
से ले रहा था, अब सच से
लेगा। लेकिन
काम वही रहेगा,
क्योंकि
आदमी वही है।
झेन
कहता है, पहले
तो तुम जैसे
हो, उघाड़
कर अपने को
स्वीकार कर लो;
दबाओ मत।
विपरीत की तरफ
मत झुको, कोई
लक्ष्य मत
बनाओ। पहले तो
अपने को उघाड़
लो अपनी
नग्नता में।
सारे वस्त्र
अलग करके तुम
अपने को पहचान
लो कि क्या
तुम हो। और यह
तुम जो भी हो, इसको पहले
तो स्वीकार कर
लो। जल्दी मत
करो बदलने की।
इस
स्वीकार से
बड़ी पीड़ा
होगी।
क्योंकि जब
तुम देखोगे
अपना झूठ, अपनी
बेईमानी, अपनी
हिंसा, अपना
क्रोध, अपनी
वासना, लोभ,
तब तुम बड़ी
पीड़ा से भर
जाओगे। उसी
पीड़ा से बचने
के लिए तो
अहंकार
विपरीत लक्ष्य
बनाता है। वह
कहता है कि आज
तुम चोर हो, कोई हर्ज
नहीं, कल
तो अचौर्य
सिद्ध हो
जायेगा। आज
हिंसा है, लेकिन
तुम छोड़ तो
रहे हो, चिंता
की क्या बात
है? पीड़ा
लेने का क्या
कारण है? थोड़े
समय की जरूरत
है, आज
नहीं कल तुम
अहिंसक हो
जाओगे।
अहिंसा का आवरण
हिंसा की पीड़ा
से गुजरने से
तुम्हें
बचाता है।
गुरजिएफ
ने एक बहुत
बहुमूल्य
सिद्धांत इस
सदी में दिया।
वह इस संबंध
में समझने
जैसा है। उसने
कहा कि आदमी
अपने को बचाने
के लिए बफर
पैदा करता है।
जैसे ट्रेन के
दो डब्बों के
बीच में बफर
लगे होते हैं, कि अगर
धक्का लगे तो
दोनों डब्बे
टकराते नहीं,
बीच के बफर
धक्के को पी
जाते हैं।
जैसे कि कार
और पहिये के
बीच में
स्प्रिंग लगे
होते हैं, कि
गाड़ी गङ्ढे
में भी पड़
जाये तो भी
बैठा हुआ
यात्री बहुत ज्याद चोट
न खाये। वह
स्प्रिंग चोट
को पी जाये।
तो
गुरजिएफ ने
कहा कि आदमी
अपनी गलती, स्थिति को
बचाने के लिए बफर बना
लेता है चारों
तरफ। तुम झूठ
बोलते हो, लेकिन
तुमने एक बफर
लगा रखा है कि
आज बोलता हूं,
मजबूरी है,
परिस्थिति
है, लेकिन
कोशिश पूरी कर
रहा हूं कि कल
सच बोलूंगा।
वह कल का सच, जो तुम कभी
नहीं
बोलोगे--क्योंकि
कल कभी आयेगा
नहीं--लेकिन
वह कल का सच आज
तुम्हें झूठ
बोलने में
सहयोगी होगा।
तुम्हारे
अहंकार को आज
का रास्ता बना
देगा कि आज बोल
लो मजबूरी है,
समय बुरा है,
परिस्थिति
है, और
नहीं बोलोगे
तो मुसीबत
होगी, कल
तो पक्का! और
रोज कल पर तुम
टालते जाओगे।
यह 'बफर'
है। इससे
जीवन की चोट
नहीं लगती और
झूठ सम्हला
रहता है।
हिंसक
हो तुम, पानी
छान कर पीओ, वह बफर
है। पानी छान
कर पीने से
तुम्हारे
अहंकार को न
कोई चोट लगती
है, बल्कि
और सम्हलता
है। पानी छान
कर पीने से
हिंसा थोड़े ही
मरती है!
शुद्ध पानी
पीने से हिंसा
के मरने का
क्या संबंध है?
स्वास्थ्य
को लाभ होता
है। और वह जो
तुमने पानी
छान कर पी
लिया, उससे
तुम्हें
भरोसा हो गया
कि तुम अहिंसक
हो। रात तुम
भोजन नहीं
करते, इससे
क्या फर्क पड़नेवाला
है? भोजन
में थोड़े ही
हिंसा छिपी
थी! हिंसा के
रूप तो बड़े
विराट हैं। और
तुम्हारे
जीवन के हर
संबंध में
छिपी है। जीवन
के हर कोने से
हिंसा निकल
रही है।
और
इसलिए एक मजे
की घटना तुम देखोगे कि
अगर तुम्हारे
घर में एकाध
आदमी धार्मिक
हो जाये तो
सारे घर के
लोगों को
परेशान करना
शुरू कर देगा।
करेगा इस ढंग
से कि तुम
इंकार न कर सकोगे।
बड़ा गांधीवादी
ढंग होगा
परेशान करने
का। लेकिन वह
उपवास करेगा, वह रात भोजन
नहीं करेगा, छाना हुआ
पानी पीयेगा।
इतनी घड़ी का
तैयार किया
हुआ घी लेगा, इस तरह का
भोजन लेगा, इस तरह
सोएगा, बैठेगा।
पर तुम पाओगे
कि इस सब
व्यवस्था से
उसकी हिंसकता
नष्ट नहीं हो
रही है, और
बढ़ गई है। वह
और ज्यादा
क्रोधी हो गया
है। धार्मिक
लोग और भी
ज्यादा क्रोधी
हो जाते हैं।
अगर
तुम गांधी का
जीवन पढ़ो
तो तुम्हें
खयाल आयेगा।
क्योंकि
गांधी से ज्यादा
झेन के विपरीत
कोई जीवन
खोजना
मुश्किल है।
गांधी एक तरफ
तो
ब्रह्मचर्य
साध रहे हैं
और दूसरी तरफ
रात अफ्रीका
के आश्रम में
गर्भवती पत्नी
को उन्होंने
घर के बाहर
निकाल दिया।
इतनी हिंसा!
और एक तरफ
अहिंसक, एक
तरफ इंच-इंच
विचार करके
चलते हैं। अगर
गर्म चाय की
प्याली रखी हो
या गर्म पानी
रखा हो, तो
उसको ढांक
देते हैं कि
उसकी भाप से
कोई कीटाणु मर
न जाये। और
दूसरी तरफ आधी
रात परदेश में
गर्भिणी पत्नी
को घर के बाहर
निकाल देना...?
और बात
क्या थी? अगर
बात विचार करो
तो कस्तूरबा
बहुत भ्रांति में
नहीं मालूम
पड़ती। बात
छोटी थी। बात
यह थी कि
गांधी जोर
देते थे कि पाखाने
की सफाई हर
आदमी करे। वे
खुद करते थे।
इसीलिए मुसीबत
और खड़ी हो
जाती कि जब
आदमी खुद करता
है तो वह कहता
है, तुम भी
करो। लेकिन अगर
तुम्हें ठीक
लगता है करना,
तो करो।
तुम्हें जो
ठीक लगता है
वह दूसरे पर थोपने
का तो कोई
अर्थ नहीं।
गांधी चाहते
थे, कस्तूरबा
भी पाखाना
उठाये आश्रम
भर का और सफाई
करे। वह
पुराने ढांचे
की स्त्री थी।
उसने कभी सोचा
भी नहीं
जिंदगी में कि
पाखाना साफ
करना पड़ेगा।
और अपना ही
नहीं, पूरे
आश्रम का उठा
कर सिर पर
ढोना पड़ेगा।
वह इंकार करती
थी। वह उसके
लिए राजी नहीं
थी। तो आधी
रात अंधेरे
में घर के
बाहर निकाल कर
गांधी ने ताला
बंद कर लिया
कि जब तक वह
अपनी बुद्धि ठीक
नहीं कर लेती,
भीतर न आने
देंगे।
अब
थोड़ा सोचने
जैसा है कि जो
आदमी सब तरह
से अहिंसक, ब्रह्मचर्य,
अक्रोध
सबको साधने की
कोशिश में लगा
है, उसके
मन में भी
इतनी हिंसा
क्यों है? वह
दूसरे को
क्षमा क्यों
नहीं कर पाता?
दूसरे की
भूल को इतनी
गंभीरता से
क्यों लेता है?
दूसरे के
प्रति सदय
क्यों नहीं हो
पाता? हृदय
इतना कठोर
क्यों है? हृदय
इतना कठोर है
क्योंकि बफर
है। तुम्हारे बफर तो
कमजोर हैं, गांधी के बफर
बहुत मजबूत
हैं।
तुम्हारी
गाड़ी में अगर
चार स्प्रिंग
लगे हैं तो
उनकी गाड़ी में
चालीस स्प्रिंग
लगे हैं। तो गङ्ढे का
उन्हें पता
नहीं चलता।
आदमी
भविष्य में
लक्ष्य बना कर
अपने जीवन को
बदलने से
रोकता है। झेन
कहता है कि
तुम कोई लक्ष्य
मत बनाओ। तुम
जैसे हो--पहली
बात यह है, कि तुम अपने
को बफर
बिना खड़ा किए
स्वीकार कर
लो। बड़े धक्के
लगेंगे।
क्योंकि जरा
गाड़ी में बैठो,
सब बफर
निकाल कर, तब
तुम्हें पता
चलेगा कि
जिंदगी कितने
कष्ट में है। बफर कितना
बचाते थे।
प्रतिपल तुम
पाओगे कि तुम
शैतान हो। बफर
के कारण तुम
साधु मालूम
होते थे। बफर
के कारण
संतत्व मालूम
होता था, जहां
कि भीतर शैतान
छिपा है।
अगर
तुम सारी योजनायें
भविष्य की अलग
कर दो--लक्ष्य, नीति, धर्म,
तो तुम क्या
पाओगे अपने
भीतर? पाओगे
एक छिपा हुआ
पशु। पशुओं से
बदतर! उससे
बड़ी पीड़ा
होगी। पीड़ा
होगी अहंकार
को, क्योंकि
अहंकार यह
मानने को राजी
नहीं कि मैं पशु
हूं।
इसलिए
तो डार्विन का
इतना विरोध
हुआ। धर्मगुरुओं
का विरोध नहीं
होता।
क्योंकि वे
तुमसे कहते हैं, 'तुम ब्रह्मस्वरूप
हो।' इससे
अहंकार को बड़ी
मिठास मालूम होती
है, कि
होंगी
छोटी-मोटी
भूलें; लेकिन
भीतर तो मैं ब्रह्मस्वरूप
हूं। शुद्ध
आत्मा!
शुद्ध-बुद्ध
मेरे भीतर छिपा
है। तो यह
ऊपर-ऊपर जो
छोटी सी कीचड़
है, यह तो
कभी भी झड़ा
देंगे। लेकिन
भीतर तो मैं
परम-ब्रह्म
हूं।
इसलिए
धर्मगुरु
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति नहीं
ला सकते। वे
जो कह रहे हैं
भला सच हो, लेकिन झूठे
आदमी को सच भी
दो, वह उसे
झूठ कर लेता
है। वह कर ही
लेगा। वह ऐसे
ही है जैसे कि कड़वी जहर
भरी हुई किसी
बोतल में तुम
एक बूंद शक्कर
की डाल दो। वह
भी कड़वी
हो जायेगी।
तुम भरे हुए
हो कड़वाहट
से! तुम्हारी
मिठास बस
ऊपर-ऊपर है, तुम्हारा
लिबास है। वे
तुम्हारे
अंगवस्त्र हैं।
भीतर जहर है।
उस जहर को
देखना अहंकार
के लिए सबसे
कठोर
तपश्चर्या
है। क्योंकि
तुम्हारी
सारी प्रतिमा
खंडित हो
जायेगी।
तुम्हारे सब
चेहरे नीचे
गिर जायेंगे।
तुम जब अपनी
नग्नता में
सामने आओगे तो
तुम पाओगे, तुम जैसा
कोई भी पशु
नहीं है। तुम
जैसा हिंसक
कोई नहीं, तुम
जैसा झूठ, चोर,
बेईमान कोई
नहीं; तुमसे
बड़ा कोई पापी
नहीं है। अगर
यह सारी प्रतीति
तुम्हें होगी,
तो अहंकार
कहां खड़ा
रहेगा? तुमने
अहंकार के खड़े
होने की जगह
मिटा दी।
और
ध्यान रहे, जैसे ही
अहंकार गिरता
है, जीवन में
क्रांति आनी
शुरू होती है।
क्योंकि
अहंकार सब पाप
का मूल है। वह
सभी पापों को
छिपाता है, ढांकता है। वह सभी
पापों को
बचाता है। वह
पापों के ऊपर
सोने की खोल
चढ़ा देता है।
इसलिए पाप स्वर्णपात्र
बन जाते हैं।
उपनिषद
के ऋषियों ने
गाया है कि हे
परमात्मा! स्वर्ण
से ढंके
इस पात्र को
तू उघाड़ दे।
वह कौन सा
पात्र है जो स्वर्ण
से ढंका है? वह तुम्हारे
अहंकार का
पात्र है; वह
तुम हो। और
अहंकार ने
ऊपर-ऊपर तो
बड़ी नक्काशी
कर ली है।
इसलिए
डार्विन ने जब
कहा कि आदमी पशुओं
से पैदा हुआ
है, तो
सारी दुनिया
में विरोध
हुआ। क्योंकि
तुम्हारा
अहंकार यह
स्वीकार न कर
सकेगा कि तुम
पशु से पैदा
हुए हो।
तुम्हारा
अहंकार तो
सोचता था, परमात्मा
ने स्वयं अपनी
ही प्रतिमान
में तुम्हें
बनाया है; अपने
ही जैसा
तुम्हें
बनाया है।
आदमी डार्विन
के पहले
परमात्मा से
बस, एक
सीढ़ी नीचे था।
और डार्विन ने
उसे बस, बंदर
के एक सीढ़ी
ऊपर रख दिया।
बड़ा फासला हो
गया।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
डार्विन की
बात को समझोगे
अगर, तो शायद
तुम जल्दी
परमात्मा तक
पहुंच जाओगे। क्योंकि
जो व्यक्ति
अपने सत्य को
स्वीकार करता
है, जैसा
भी हूं; उस
स्वीकृति के
साथ ही
क्रांति शुरू
होती है। लेकिन
ऐसा क्यों
होता है? यह
क्रांति
क्यों शुरू
होती है? क्योंकि
पहले तो महान
पीड़ा पैदा
होती है, आग
जलती है। उस
आग में
तुम्हारी
अस्मिता गल जाती
है, अहंकार
गल जाता है।
तुम देखते हो,
घोषणा करने
का कोई अर्थ
ही नहीं है।
मैं हूं क्या?
यह मेरी
वास्तविकता
है।
अहंकार
की दौड़ समाप्त
हो जाती है।
और जब अहंकार
की दौड़ समाप्त
हो जाती है तो
तुम किसके लिए
झूठ बोलोगे? अहंकार के
लिए ही तो तुम
झूठ बोल रहे
थे। जहां प्रेम
नहीं था, वहां
बतला रहे थे
प्रेम है।
जहां
मुस्कुराहट नहीं
थी वहां
मुस्कुरा रहे
थे, अहंकार
को ही छिपाने
और बचाने के लिए
तो सारा आयोजन
था। अब जब
अहंकार ही न
बचा, तो
किसको बचाना
है? अहंकार
के लिए ही तो
ब्रह्मचर्य
की घोषणा कर रहे
थे, भीतर
कामवासना थी।
अब जब अहंकार
ही न बचा तो किसको
बचाना है? अब
घोषणा क्या
करनी है?
तुम्हारा
मूल गिर गया, जड़ें कट
गईं। शाखायें
अपने आप
कुम्हला जायेंगी।
तो पहले तो एक
बड़ी पीड़ा का
क्षण आयेगा
जिसमें
तुम्हारा
जीवन नर्क हो
जायेगा। है
नर्क, स्वर्ण
से ढंका है।
स्वर्ण
टूटेगा, तुम
नर्क हो
जाओगे। और इस
नर्क से
तुम्हें गुजरना
ही पड़ेगा, क्योंकि
वही
तपश्चर्या
है। बदलने की
जरा फिक्र मत
करना, सिर्फ
जानने की कोशिश
करना।
क्योंकि
बदलना भी
छुपाने का ढंग
है। जब तुम सोचते
हो, हिंसा
बुरी है तब
तुम हिंसा को
ढांकने लगते
हो। तो अहिंसा
अच्छी है, अहिंसा
को ओढ़ने
लगते हो। जब
तुम सोचते हो,
काम-वासना
पाप है, तो
तुम उसे
छिपाते हो, भीतर दबाते
हो।
ब्रह्मचर्य
भला है तो
दीवालों पर लिखते
हो, 'ब्रह्मचर्य
ही जीवन है।' जो अच्छा है
उसे तुम ओढ़ते
हो, जो
बुरा है उसे
तुम छिपाते
हो।
लेकिन
जब तुम राजी
हो स्वीकार
करने को--जो भी
है, तो तुम
तख्तियां
उतार दोगे
अपनी दीवालों
से। तब तुम
जानोगे कि
कामवासना है,
ब्रह्मचर्य
तो सिर्फ तख्तियों
में लिखा है।
और जब...।
ये बड़े
से बड़े झूठ
हैं, जो
तुम्हारी
जिंदगी को
परेशान कर रहे
हैं। ब्रह्मचर्य,
अहिंसा, अपरिग्रह,
अचौर्य ये सब
तुम्हारे लिए
झूठ हैं।
महावीर के लिए
सच रहे होंगे।
दूसरे का सच
तुम्हारे लिए
सच नहीं हो
सकता। वह
तुम्हारे लिए
झूठ है। उन
शब्दों को तुम
मत ढोये जाओ।
पहले
तो पीड़ा आयेगी, नर्क आयेगा।
तुम एक घड़ी से गुजरोगे
जहां
तुम्हारे
जीवन में सब
सुख खो जाएगा।
दुख ही दुख रह
जाएगा। तुम उबलोगे; जैसे किसी
ने तुम्हें
ज्वालामुखी
के मुंह पर रख
दिया है।
लेकिन अगर
तुमने साहस
रखा, हिम्मत
रखी और तुमने
फिर से इन
घावों को
ढांकना शुरू
नहीं कर दिया
और तुम राजी
रहे कि जो भी
हूं, मैं
अब स्वीकार
करता हूं। मैं
प्रकृत होने
को राजी हूं।
अब मैं कोई
विकृति न ढांकूंगा
और अब मैं कोई
संस्कृति न ओढूंगा।
अब मैं प्रकृत
होने को राजी
हूं।
थोड़े
ही दिन में
तुम पाओगे कि
पीड़ा जाने लगी, द्वंद्व
खोने लगा। और
अहंकार तो गिर
चुका था, अब
वे चीजें
गिरने लगीं
जिनसे तुमने
अहंकार को ढांका
और छिपाया था।
अब झूठ बोलने
का कोई कारण न
रहा। तुम झूठे
हो ही, तो
अब बोलने का
क्या प्रयोजन
है? अब
किसी को यह
समझाने की
क्या जरूरत है
कि मैं सच्चा
आदमी हूं? तुम
बेईमान हो, अब किसी को
क्या समझाने
की जरूरत है
कि मैं ईमानदार
हूं? अब
पाखंड
अनिवार्य न
रहा; अब
पाखंड को छोड़ा
जा सकता है।
और जब तुम
इतनी पीड़ा
झेलने को राजी
हो भीतर, तो
तुम सोचोगे कि
अब दूसरों की
आंखों में भी
सत्य जाहिर हो
जाये, वह
पीड़ा भी मैं
देख लूं, उससे
भी मैं गुजर
जाऊं।
नीत्से
का बहुत अदभुत
वचन है। उसने
कहा है, 'जिसे
ऊंचे स्वर्ग
तक पहुंचना हो
उसे पहले नीचे,
निम्नतम
नर्क तक जाना
होता है।' और
यही है वह
नर्क, जिस
तक तुम्हें
जाना होगा।
इससे बच कर
तुम स्वर्ग तक
न पहुंच
पाओगे। अगर
बचकर पहुंचने
की कोशिश की
तो स्वर्ग
तुम्हारा
झूठा होगा।
तुम्हारी
साधुता बस, ऊपर की पर्त
होगी।
तुम्हारा
आचरण ऊपर की
खोल होगी।
तुम्हारा
अंतस्तल नहीं
बदलेगा।
इन
बातों को खयाल
में रख लो, फिर इस छोटी
सी कहानी को
समझने की
कोशिश करें।
सेहेई
के शिष्य सूईबी
ने एक दिन
अपने गुरु से
पूछा, 'गुरुदेव,
धर्म का मूल
रहस्य क्या है?'
सदगुरु
ने कहा, 'प्रतीक्षा
करो। और जब हम
दोनों के
अतिरिक्त यहां
कोई भी न होगा
तब मैं
तुम्हें
बताऊंगा।'
धर्म
का मूल रहस्य!
यहूदी, मुसलमान,
हिंदू
पूछते हैं:
संसार को
किसने बनाया?
परमात्मा
का स्वरूप
क्या है? लेकिन
बुद्ध ने कहा,
ये प्रश्न
व्यर्थ हैं।
प्रश्न तो
सिर्फ एक पूछने
जैसा है कि
स्वभाव क्या
है? धर्म
का अर्थ रिलीजन
नहीं है, धर्म
का अर्थ है
तुम्हारा
मौलिक
स्वभाव। तो बुद्ध--हिंदू,
मुसलमान, ईसाई, जैन,
इनको धर्म
नहीं कहते। वे
कहते हैं, जैसे
आग का स्वभाव
जलाना है, वह
उसका धर्म है।
पानी का
स्वभाव नीचे
की तरफ बहना
है, वह
उसका धर्म है।
अस्तित्व का
क्या स्वभाव
है? समग्र
का क्या
स्वभाव है? क्योंकि जब
तक हम समग्र
के स्वभाव को
न जान लें तब
तक हम उससे
मिलने की
कोशिश भी कैसे
करेंगे? और
जब तक हमें
स्वभाव के
सूत्र का ही
पता न हो, तो
हम स्वभाव के
साथ मिलन की
कैसे आशा रख
सकते हैं?
इसलिए
झेन शिष्य
अपने गुरु से
नहीं पूछते कि
संसार को
किसने बनाया? किसी ने भी
बनाया हो, क्या
प्रयोजन? परमात्मा
कहां है? कहीं
भी हो, क्या
लेना-देना है?
उसकी शक्ल
कैसी है? कैसी
भी हो! बुद्ध
ने कहा है, ये
सब प्रश्न असंगत
हैं। और
धार्मिक आदमी
इनको नहीं
पूछता। इनको
जो लोग पूछते
हैं, वे
कुतूहली लोग
हैं, बचकाने हैं। जैसे
छोटे-छोटे
बच्चे पूछते
हैं, कुतूहल
के वश, इस
झाड़ को किसने
बनाया? चांद
को किसने
बनाया? सूरज
को किसने
बनाया? उस
तरह की बातें!
बुद्ध ने कहा
है बुद्धिमान
व्यक्ति तो एक
ही प्रश्न
पूछता है कि
स्वभाव क्या है?
स्वभाव
अर्थात धर्म।
इस
शिष्य ने पूछा, 'गुरुदेव, धर्म का मूल
रहस्य क्या है?'
सदगुरु
ने कहा, 'प्रतीक्षा
करो।'
यह बड़े
मजे की बात
है। इस 'प्रतीक्षा
करो' के दो
अर्थ हो सकते
हैं। एक; कि
प्रतीक्षा
करो, यह
धर्म का स्वभाव
है। यही
स्वभाव है।
अगर तुम
प्रतीक्षा करना
सीख जाओ तो
तुम पहुंच
जाओगे स्वभाव
में, धर्म
में; मूल
रहस्य खुल
जायेगा।
प्रतीक्षा का
अर्थ होता है,
तुम कुछ मत
करो। तुम
सिर्फ
प्रतीक्षा
करो। तुम
बदलने की कोई
चेष्टा मत
करो। क्योंकि
वह अधैर्य
होगा। तुम
सिर्फ राह देखो,
बाट जोहो।
तुम्हारे
करने से कुछ
होनेवाला भी
नहीं है। तुम
सिर्फ बैठ जाओ,
और
प्रतीक्षा
करो। और धर्म
का रहस्य
तुम्हारे
सामने खुल
जायेगा।
एक
आदमी ने एक
यहूदी संत को
आ कर पूछा कि
मेरे बारह
बच्चे हैं, और तेरहवां
बच्चा पैदा
होने के करीब
है। मैं गरीब
आदमी हूं। मैं
बड़ी मुसीबत
में पड़ गया
हूं। अब मैं
क्या करूं? उस संत ने
कहा, 'तुम
अब कुछ भी न
करो। तुमने
कुछ भी किया
तो तुम झंझट
में पड़ोगे। अब
तुम सब करना
बंद कर दो, नहीं
तो चौदहवें
बच्चे के आने
में देर न
लगेगी। कुछ न
करो, सिर्फ
बाट जोहो।'
सदगुरु
ने कहा, 'प्रतीक्षा
करो।'
इतने
में उत्तर हो
गया है। लेकिन
इतने में शिष्य
को उत्तर न हो
पायेगा। सदगुरु
ने यह कह कर
देखा होगा
उसकी आंखों
में कि उत्तर
नहीं पहुंचा।
तो उसने कहा:
'और
जब हम दोनों
के अतिरिक्त
यहां कोई भी न
होगा तब मैं
तुम्हें
बताऊंगा।'
यह बड़ी
कठिन बात है।
गुरु और शिष्य
के बीच तभी तो
संवाद हो पाता
है जब वे दोनों
होते हैं।
लेकिन यह बड़ा
मुश्किल है।
क्योंकि
शिष्य भीड़ को
लेकर साथ चलता
है।
एक
आदमी
संन्यस्त
हुआ। जा कर
गुरु के द्वार
पर दस्तक दी।
द्वार खुला, वह भीतर गया,
बिलकुल
अकेला था। और
गुरु ने कहा, 'अभी मत आओ।
यह भीड़ अपने
पीछे क्यों ला
रहे हो?' उसने
लौट कर देखा, वहां तो कोई
भी न था। वह
अकेला ही भीतर
प्रविष्ट हुआ
था। उसने कहा,
'आप भी कैसी
मजाक करते
हैं! मैं
अकेला हूं।' गुरु ने कहा,
'आंख बंद
करो। पीछे लौट
कर देखने से न
होगा, भीड़
पीछे नहीं है,
भीतर है।'
उसने
आंख बंद की और सच
ही वहां भीड़
थी। पत्नी रो
रही थी, पिता
समझा रहे थे, 'मत जा।' मित्र
गले मिल रहे
थे। जिस गांव
से अभी वह आया था,
सारे गांव
के लोग उसे
गांव के बाहर
तक पहुंचाने
आये थे। वह
सारी भीड़ भीतर
मौजूद थी।
जब तुम
गुरु के पास
बिलकुल अकेले
हो, उसी क्षण
गुरु कह सकता
है--जो तुम
जानना चाहते
हो। जब
तुम्हारे मन
में कोई विचार
नहीं, कोई
भीड़ नहीं, कोई
दूसरा नहीं, जब तुम और
गुरु बिलकुल
अकेले बचे।
दोनों के बीच
कोई भी न रहा।
कोई बाधा न
रही। सच तो यह
है, वैसे
क्षण में गुरु
को कहना भी
नहीं पड़ता।
बिना कहे बात
कह दी जाती
है। बिना कहे
बात सुन ली
जाती है।
तो
गुरु ने कहा, प्रतीक्षा
करो। अगर यह न
हो सके तो कम
से कम इतना
करो, कि जब
हम दोनों के
अतिरिक्त
यहां कोई भी न
हो, तब मैं
तुम्हें
बताऊंगा।
गुरु
ने यह नहीं
कहा कि जब हम
दोनों के
अतिरिक्त कोई
भी न हो तब तुम
पूछ लेना।
उसने कहा कि
जब हम दोनों के
अतिरिक्त कोई
भी न हो तब मैं
तुम्हें
बताऊंगा।
तुम्हारे
पूछने का सवाल
नहीं, क्योंकि
अगर तुम पूछने
के खयाल से
भरे रहे तो हम
दोनों अकेले
हो ही न
पायेंगे। वह
पूछने का विचार,
प्रश्न भी
तो बीच में
बाधा बन
जायेगा।
बुद्ध
अपने शिष्यों
को निरंतर
कहते थे कि जब
तक तुम पूछना
चाहते हो तब
तक तुम मुझे
उत्तर देने का
मौका नहीं
देते। तुम
पूछना छोड़ो
ताकि मैं
उत्तर दे
सकूं। हमें
दिखती है बात
विरोधाभासी।
क्योंकि हम
कहते हैं, जब तक हम
पूछना चाहते
हैं, तभी
तक तो उत्तर
की जरूरत है।
और जब हम
पूछेंगे ही
नहीं तो फिर
उत्तर का क्या
प्रयोजन है? हमें लगता
है, बुद्ध
बड़ी अतक्र्य
बात कह रहे
हैं, लेकिन
बुद्ध ठीक कह
रहे हैं।
क्योंकि जब तक
मन प्रश्न से
भरा है तब तक
उत्तर के लिए
संधि भी तो
नहीं मिलती।
भीतर प्रवेश
की जगह भी
नहीं मिलती।
तुम इतने
उत्सुक होते
हो पूछने को
कि तुम सुनने
को राजी ही
नहीं होते।
तुम इतने भरे
होते हो
प्रश्न से कि
उत्तर जाये
कैसे
तुम्हारे
भीतर? वहां
खालीपन
चाहिए।
कबीर
कहते हैं, 'सूने घर का
पाहुना।' वह
तो तुम जब
सूने हो जाओ
तभी उत्तर
तुम्हारे भीतर
अतिथि बन
सकेगा।
वहां
तो सब भरा था
प्रश्न से।
इसलिए उत्तर
नहीं दिया जा
सकता। गुरु ने
यह नहीं कहा
कि तुम पूछ
लेना। गुरु ने
कहा, मैं
बताऊंगा, जब
हम दोनों
अकेले रह
जायेंगे।
लेकिन इसी तरह
भूल होती है।
शिष्य समझा कि
जब हम दोनों
अकेले रह
जायेंगे तब
मैं पूछ
लूंगा।
और फिर
उस दिन बहुत
बार ऐसे मौके
आये जब कि वे दो
ही झोपड़े
में थे, और
हर बार सुईबी
ने अपने
प्रश्न दुहराये।
न तो
वह प्रतीक्षा
कर सका, और
न धैर्य रख
सका, कि जब
गुरु और शिष्य
दोनों रह
जायें तो गुरु
बतायेगा।
पूछने की
जरूरत नहीं
है। जब तुम
तैयार होते हो
तब उत्तर मिल
जाता है।
पूछते तो तुम
इसीलिए हो कि
तुम्हारी
तैयारी भी
नहीं है और
तुम पूछे चले
जाते जो। और
अपात्र के लिए
कोई उत्तर
नहीं है। और
अपात्र को जो
उत्तर देता है,
वह
तुम्हारे
जैसा ही नासमझ
है। उसके
उत्तर का कोई
मूल्य नहीं
है।
बहुत
बार सूईबी
ने अपने
प्रश्न दुहराये।
जब भी कोई न था, लोग आये, गये,
खाली जगह रह
गई, उसने
फिर कहा कि अब?
अब बता दें।
क्या
मतलब होता है
इसका? इसका
मतलब होता है
कि प्रश्न तो
खड़ा ही रहा। सूईबी
शांत न था। वह
पूरे वक्त यही
देखता रहा, कब लोग
जायें और कब
मैं पूछूं।
पूछना उसके
लिए एक रोग की
तरह हो गया।
उस प्रश्न ने
उसे जरा भी
सुविधा न दी
कि वह शांत
बैठ सके, प्रतीक्षा
कर सके।
गुरु
से उत्तर थोड़े
ही मिलते हैं!
गुरु उत्तर है।
अगर तुम शांत
बैठ जाओ, तो
गुरु उत्तर
है। अगर तुम
अशांत हो, तो
गुरु सिर
पीटता रहे, उत्तर तुम
तक नहीं
पहुंचेंगे।
और तुम्हारा गुणधर्म
तत्क्षण बदल
जाता है जब
तुम शांत होते
हो--निष्प्रश्न।
तब तुम्हारा
स्वभाव और
होता है।
मैंने
सुना है, एक
भूखा आदमी एक
मरुस्थल में
भूखा मर रहा
है। न पानी है,
न भोजन।
कहते हैं
शैतान तो ऐसे
ही अवसर की
तलाश में रहता
है। शैतान
मौजूद हुआ और
उसने कहा कि
भोजन भी दूंगा,
पूरी तरह
तृप्त कर
दूंगा, लेकिन
एक शर्त है और
वह शर्त यह है
कि तुम अपना
ईमान दे दो, अपना धर्म
मुझे दे दो।
उस भूखे आदमी
ने कहा, बिलकुल
राजी हूं।
शैतान
ने भोजन दिया, पानी दिया, भूखा आदमी
तृप्त हुआ। जब
तृप्त हो गया
तो शैतान ने
कहा कि अब
शर्त याद है? ईमान मुझे
दे दो। वह
भूखा आदमी
खिलखिला कर
हंसने लगा।
उसने कहा कि
तुम बड़ी भूल
में पड़ गये।
भूखे आदमी का
कोई ईमान होता
है? और
वायदा किया था
जब मैं भूखा
था और अब मैं
भरपेट हूं। अब
यह आदमी दूसरा
है। जिसने
किया था, अब
वह कहां है? और जो मैं अब
हूं, वह था
नहीं। अगर उस
वक्त भी मैं
भरे पेट होता
तो शर्त नहीं
मानता। अब भी
नहीं मानता
हूं।
अगर
भूखे पेट आदमी
में और भरे
पेट आदमी में
इतना फर्क पड़
जाता है, तो
तुम सोचो, प्रश्नों
से भरी चेतना
में और
प्रश्नों से
खाली चेतना
में कितना
अंतर न पड़
जाता होगा!
जब तुम
प्रश्न से भरे
हो तब तुम
उत्तर समझने में
असमर्थ हो, अयोग्य हो।
तुम्हारी
उत्सुकता
इतनी है प्रश्न
में कि उत्तर
पर तुम ध्यान
न दे पाओगे।
उत्तर दिया भी
जाये, तो
चूक जायेगा।
और मैं तुमसे
कहता हूं कि
उस दिन भी, जब
सूईबी
बार-बार पूछता
रहा, तब भी
गुरु का
अस्तित्व, उसका
होना ही
प्रतिपल
उत्तर दे रहा
था। लेकिन प्रश्न
की इतनी
उत्सुकता थी
कि गुरु की
तरफ सूईबी
देख ही नहीं
रहा था। वह
देख रहा था कि
लोग चले जायें;
तो मैं पूछूं।
उसका मन कहीं
और अटका था।
लेकिन
जब भी वह अपना
प्रश्न उठाता, वह प्रश्न
पूरा पूछ भी न
पाता कि सेहेई
अपने ओठों
पर उंगली रख
कर उसे चुप
होने का इशारा
कर देते।
यह
उंगली ओंठ पर
रखना बड़ा गहरा
प्रतीक है।
उपयोग तो हम
भी करते हैं।
जब किसी को
चुप करना हो
तो हम ओंठ पर
उंगली रख लेते
हैं। लेकिन इसका
मतलब तुम्हें
पता है क्या
होता है? आखिर
ओंठ पर उंगली
रख लेने का
मतलब चुप्पी
क्यों होता है?
इतना तो समझ
में आता है कि
ओठ बंद रखो, लेकिन यह एक
उंगली क्या
कहती है? यह
सिर्फ ओठ बंद
रखने को नहीं
कहती; वह
तो इसका ऊपरी
प्रतीक हुआ।
भीतर एक रहे।
ओंठ बंद; और
भीतर एक। तुम
भीतर दो न
रहो।
वह
गुरु बार-बार
कहता था कि
जिस भीड़ की
मैंने बात की
है, कि जब सब
लोग चले जायें
तब मैं उत्तर
दे दूंगा, वह
यह भीड़ नहीं
है, जो आती
है और जाती है।
कोई आया मिलने
और गया, यह
सवाल नहीं है।
वह भीड़
तुम्हारे
भीतर है। तुम
ओठ बंद रखो और
एक रहो। तुम
एक रहो तो मैं
एक हूं। और हम
दो ही बचें तो
बात हो जाये।
लेकिन शिष्य
इतना समझा कि
वह बोलने भी
नहीं देता, और प्रश्न
भी पूरा पूछने
नहीं देता।
लोग जब
प्रश्न ले कर
आते हैं तो वे
सोचते हैं, प्रश्न बड़े
मूल्यवान
हैं।
प्रश्नों का
कोई मूल्य
नहीं है।
मूल्य तो
प्रश्न पूछनेवाले
में होता है।
तुम्हारे
प्रश्नों में
कोई मूल्य
नहीं होता।
तुम क्या
पूछते हो यह
कोई सवाल नहीं
है। तुम कौन
हो? पूछनेवाले की दशा कैसी
है? पूछनेवाला
तैयार है
उत्तर झेलने
को? पूछनेवाला
इतना अखंड है
कि उत्तर उसके
भीतर जाये, तो उस उत्तर
की ध्वनि उसके
रोयें-रोयें
में गूंज सके?
पूछनेवाला
ऐसा प्यासा है,
जैसा कि
चातक होता है
और स्वाती की
बूंद की प्रतीक्षा
करता है? अगर
पूछनेवाला
ऐसा मुंह फाड़े
आकाश की तरफ
देख रहा है और
सिर्फ स्वाती
की बूंद की
प्रतीक्षा कर
रहा है, सारे
प्राण प्यास
बन गये हैं, तो फिर
साधारण सी
पानी की बूंद
मोती बन जाती
है। गुरु का
साधारण सा
इशारा मोती बन
जाता है।
और तुम
चातक नहीं हो
और तुम कैसा
भी गंदा पानी पीने
के आदी हो और
तुमने आकाश की
तरफ, चांद की
तरफ आंखें
नहीं उठाई हैं,
और तुमने
चातक की तरह
प्रतीक्षा
नहीं की है, वैसा
तुम्हारा
प्रेम नहीं, प्यास नहीं,
वैसा
तुम्हारे पास
प्राण नहीं, तो गुरु
अमृत भी बरसाये
तो भी
तुम्हारे
भीतर मोती
नहीं बनेगा।
साधारण पानी
मोती बन जाता
है--प्यास! 'एक'
की प्यास और
प्रतीक्षा का
परिणाम है वह।
गुरु
ने बार-बार
होठों पर
उंगली रख कर
उसे चुप होने
का इशारा कर
दिया। और फिर
सांझ हो गई।
और सदगुरु
का झोपड़ा
बिलकुल खाली
हो गया। अब
वहां कोई भी न
था। शिष्य ने
फिर पूछना
चाहा, लेकिन
फिर वही होठों
पर रखी हुई
उंगली उत्तर में
मिली।
अब जरा
ज्यादा हो
गया। रात भी
ढल गई। दिन जा
चुका। अब कोई
आने-जानेवाला
भी न रहा।
बहुत
प्रतीक्षा कर
ली।
यह कोई
प्रतीक्षा
है--जिसमें
ऐसा लगे, बहुत
प्रतीक्षा कर
ली! जिस
प्रतीक्षा
में ऐसा लगे:
अब बहुत हो
गया, वह
प्रतीक्षा थी
ही न; तनाव
था। तनाव बहुत
होता है, प्रतीक्षा
कभी बहुत नहीं
होती। तनाव
अतिशय होता है,
प्रतीक्षा
कभी अतिशय
नहीं होती।
क्योंकि प्रतीक्षा
का अर्थ तो
बड़ी शांत दशा
है। वह ज्यादा
तो हो ही नहीं
सकती। जरूरत
से ज्यादा
प्रतीक्षा
कभी नहीं
होती। लेकिन
तुम्हें लगता
है, क्योंकि
तुमने
प्रतीक्षा
जानी ही नहीं।
तुम भीतर तो
तने थे, उबल
रहे थे। तुम
भीतर तो पूछ
रहे थे। तुम
बस राह देख
रहे थे, कब
लोग जायें।
लेकिन तुम एक
क्षण को भी
शांत नहीं
बैठे थे।
प्रतीक्षा
का अर्थ क्या
होता है? प्रतीक्षा
का अर्थ होता
है, मुझे
कोई जल्दी
नहीं है।
जल्दी है ही
नहीं। उत्तर
आज तो ठीक, कल
तो ठीक, परसों
तो ठीक, अनंत
काल लग जाये, तो ठीक।
प्रतीक्षा का
अर्थ होता है:
समय का मुझे
सवाल नहीं।
प्रतीक्षा
समय-विरोधी
है। और जितना
तुम्हें समय
का बोध है, उतनी
ही तुम
प्रतीक्षा
करने में
असमर्थ हो जाओगे।
इसलिए
पश्चिम में
लोग
प्रतीक्षा
करने में बिलकुल
असमर्थ होते
जा रहे हैं।
क्योंकि एक-एक
सेकेंड का बोध
है। पूरब
प्रतीक्षा
करना जानता
था। क्योंकि
जीवन समय नहीं
था, जीवन एक
अनंतता थी।
कोई जल्दी न
थी। कहीं पहुंचने
को कहां है? मंजिल पर
तुम हो ही।
कुछ मिलने को
क्या है? जो
मिलने योग्य
है तुम्हें
मिला ही हुआ
है। और
प्रतीक्षा के क्षण
में यही तो
दिखाई पड़ जाता
है कि मैं वही
हूं जिसको मैं
खोज रहा था।
लेकिन मैं
इतनी दौड़ में
था कि खड़े हो
कर देख ही न
पाया कि मैं
हूं। मैं कौन
हूं? इसका
कोई स्मरण न
आया, क्योंकि
इतनी जल्दी थी,
इतनी भागदौड़
थी!
और
तुमने कभी
खयाल किया कि
जितनी तुम
जल्दी में होते
हो उतनी ही
देर लग जाती
है? अगर
ट्रेन पकड़नी
है जल्दी में,
तो बटन ऊपर
के नीचे लग
जाते हैं। कोट
की दांयी
बांह बायें
हाथ में चली
जाती है।
बायें पैर का
जूता दायें
पैर में जाने
लगता है। सब
अस्तव्यस्त
हो जाता है।
तुम जब जल्दी
में होते हो, तो जल्दी हो
पाती है? तुम
जितनी जल्दी
करते हो उतनी
देर हो जाती
है। क्योंकि
जल्दी से भरा
हुआ चित्त
अस्तव्यस्त और
अराजक हो जाता
है। इस संसार
में तो ठीक है,
क्योंकि यह
संसार समय से
चलता है।
लेकिन उस संसार
की जो खोज
करने चले हैं
उन्हें समय
छोड़ देना
पड़ेगा।
प्रतीक्षा
समय-विरोधी है,
एंटी-टाइम
है।
प्रतीक्षा का
मतलब है, अब
समय की हमें
कोई चिंता
नहीं।
बायजीद
अपने गुरु के
पास गया। बारह
साल तक...। गुरु
ने उससे कहा
कि तू बैठ, जब वक्त
आयेगा, मैं
कह दूंगा।
कहते हैं, बायजीद
बारह साल तक
बैठा रहा। तीन
साल बीत गये
तब गुरु ने
उसकी तरफ पहली
दफा देखा।
बायजीद धन्य
हुआ। बहुत
प्रसन्न हुआ।
गुरु की कृपा
हुई। तीन साल
बाद सिर्फ
देखा! फिर तीन साल
और बीत गए।
गुरु ने न
केवल देखा
बल्कि मुस्कुराया।
और बायजीद
बहुत नाचा और
बहुत धन्यभागी
हुआ, कि
गुरु ने न
केवल देखा
बल्कि
मुस्कुराया।
और तीन साल
बीत गये; गुरु
ने उसके कंधे
पर हाथ रखा, मुस्कुराया
और देखा। और
बायजीद बहुत
प्रसन्न हुआ।
और बारह साल
बीत गये और
गुरु ने उसे
गले लगा लिया
और कहा, 'बायजीद,
बात पूरी हो
गई।'
क्योंकि
जो समय को
छोड़ने को राजी
है, उसका मन
छूट जाता है।
मन समय है। जब
तुम मन में नहीं
होते तब समय
समाप्त हो
जाता है। जब
तुम शांत होते
हो तब कोई समय
नहीं होता।
घड़ी चलती रहती
है, भीतर
कोई भी नहीं
चलता। भीतर सब
ठहर जाता है। तो
बायजीद ने यह
भी नहीं पूछा
कि तुमने कहा
था, प्रतीक्षा
करो तब
बतायेंगे।
बायजीद चरण छू
कर चला गया।
दूसरे
शिष्यों ने
बायजीद से कहा,
अब तो पूछ लेते।
पर उसने कहा, पूछने को
क्या बचा? वह
चुप बैठना
गुरु के
पास--सब हो
गया। इन बारह
सालों में
हजारों शिष्य
आये और गये।
बायजीद बैठा
रहा।
एक दिन
गुरु ने
बायजीद से कहा
कि तू जहां से
आता है, वहां
भवन का जो बड़ा
हाल है, जिससे
तू रोज प्रवेश
करके मुझ तक
आता है, वहां
एक आले में
कुछ किताबें
रखी हैं। तू
फलां-फलां
किताब उठा ला।
बायजीद ने कहा,
मैं जाकर
देखूं; मैंने
खयाल नहीं
किया कि वहां
कोई आला है और
किताबें रखी
हैं। क्योंकि
मेरा ध्यान तो
आपकी तरफ लगा
है। गुरु ने
कहा, जाने
की जरूरत नहीं,
मैं तो
सिर्फ पूछ रहा
था कि तेरा ध्यान
यहां-वहां भी
जाता है कि
नहीं।
जब सब
प्रश्न गिर
जाते हैं और
ध्यान सिर्फ
गुरु की तरफ
लगा होता है
तब आ गया वह
अकेलापन, जिसके
लिए सेहेई
ने इस शिष्य
को कहा था।
लेकिन वह
जल्दी में था।
वह बिलकुल तुम
जैसा होगा। वह
जल्दी उत्तर
मिल जाये, तो
जाये। हम ऐसे
उत्तर चाहते
हैं, जैसे
स्कूलों-कालेजों
में दिए जा
रहे हैं। और
ये उत्तर वैसे
नहीं हैं। ये
उत्तर तो ऐसे
हैं जैसे एक
स्त्री को गर्भ
रह जाता है, तो नौ महीने
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है।
ये उत्तर ऐसे
हैं कि
तुम्हारे
जीवन को
बदलेंगे। ये
कोई जानकारियां
नहीं हैं।
इनके लिए तुम्हें
गर्भ जैसी
प्रतीक्षा सीखनी
पड़ेगी।
रात आ
गई, झोपड़ा बिलकुल
खाली हो गया।
शिष्य ने फिर
पूछना चाहा, लेकिन फिर
वही होठों पर
रखी हुई उंगली
उत्तर में
मिली। फिर रात
उतर आई और
पूर्णिमा का
चांद आकाश में
उठ आया। आखिर सूईबी ने
कहा, 'अब
मैं और कब तक
प्रतीक्षा
करूं?'
इसने
प्रतीक्षा की
ही नहीं। जब
तुम कहते हो, 'अब मैं और कब
तक प्रतीक्षा
करूं?' तब
तुम खबर देते
हो तुमने
प्रतीक्षा की
ही नहीं।
क्योंकि जो
प्रतीक्षा
करता है, वह
कभी भी यह
नहीं कहता, कि अब मैं और
कब तक? 'और
कब तक' बताता
है कि मन
प्रतीक्षा
नहीं कर रहा
था। मन मांग
रहा था। मन
निष्क्रिय
नहीं था, मन
सक्रिय था।
सक्रियता थका
देती है।
इसीलिए तो वह
पूछता है--और
कब तक? अब
वह थक गया है।
प्रतीक्षा से
कोई कैसे थकेगा?
लेकिन तुम
भी प्रतीक्षा
से थकते हो।
उसका कारण है
कि प्रतीक्षा
तुम नहीं
करते।
तुम्हारी प्रतीक्षा
पैसिविटी
नहीं है, ग्राहकता
नहीं है, एक
सक्रिय
आक्रमण है।
समझो
तुम किसी की
राह देख रहे
हो, कोई आने
वाला
है--मित्र, प्रियजन,
प्रेयसी, पति, पत्नी--कोई
आने वाला है।
तुम दरवाजे के
पास अपने घर
में बैठे हो।
बड़ी थकानेवाली
होती है
प्रतीक्षा।
राह पर कोई की
आवाज--और तुम
चौंक गये। किसी
के पैर के
जूतों की आवाज,
तुमने फिर
झांक कर देखा।
कोई द्वार से
गुजरा, फिर
तुम उठ कर
आये। बड़ी थकानेवाली
है। थोड़ी देर
में ही तुम
सोचते हो और
कब तक करूं
प्रतीक्षा?
ठीक
ऐसे ही यह
शिष्य भी करता
रहा होगा। कोई
गया, कमरा
खाली हो गया, फिर सोचा कि
अब वक्त आ
गया। अब शायद
उत्तर आता है।
फिर पूछा, फिर
ओंठ पर उंगली
कर दी गई, फिर
उसे चुप कर
दिया गया। वह
बड़ी बेचैनी
में रहा होगा।
उसकी
प्रतीक्षा एक
चैन न थी। वह
चातक की
प्रतीक्षा न
थी। वह एक
बंदर की
प्रतीक्षा हो
सकती है। बंदर
को तुमने देखा
वृक्ष पर? वह
बैठ भी नहीं
सकता एक जगह
थोड़ी देर। इस
डाल से उस डाल
पर जायेगा, इस पत्ते को तोड़ेगा, उस फल को चखेगा;
इसको फेंकेगा,
उसको पकड़ेगा,
झूलेगा,
कुछ न कुछ
करता हुआ पाया
जायेगा।
इसलिए मैं कहता
हूं, डार्विन
ठीक ही कहता
है कि आदमी
बंदर से पैदा हुआ।
क्योंकि अगर
हम आदमी के मन
को भी देखें, तो वह
करीब-करीब
बंदर से मेल
खाता है। किसी
और से मेल
नहीं खाता।
जब
उसने कहा अब
मैं और कब तक
प्रतीक्षा
करूं? तब वह
हार गया।
गुरु
दो स्थितियों
में उत्तर
देता है। या
तो तुम हार
जाओ तब
तुम्हें
उत्तर दे देता
है कि ठीक, अब तुम
जानो। और जब
तुम जीत
जाओ--जीत का
मतलब है कि जब
तुम
प्रतीक्षा
में पूरे उतर
जाओ, तब
तुम्हें
उत्तर देता
है। पहले
उत्तर से दर्शनशास्त्र
बनता है, दूसरे
उत्तर से
धर्म। जब गुरु
तुम्हारी
परेशानी को
देख कर उत्तर
देता है, तब
शास्त्र
निर्मित होता
है। सुंदर
सिद्धांत
जन्मते हैं।
लेकिन जब
तुम्हारी
प्रतीक्षा के
भरपूर हो जाने
से तुम्हें
उत्तर देता है,
तब जीवन में
क्रांति घटती
है। तब सिद्धावस्था
पैदा होती है।
शिष्य
थक गया। और
ध्यान रहे, उत्तर तो एक
ही है। चाहे
गुरु
तुम्हारी
थकान से दे, चाहे
तुम्हारे
भराव से दे; उत्तर तो एक
ही है। उत्तर
में फर्क नहीं
पड़ता। गुरु की
तरफ से फर्क
नहीं पड़ता, तुम्हारी
तरफ से फर्क
पड़ जाएगा।
गुरु तो वही कहेगा,
तुम बेचैन
होकर पूछो तो,
चैन से भरकर
पूछो तो। चैन
से भरकर गुरु
से पूछोगे तो
वह बूंद पानी
की तुम्हारे
भीतर मोती बन
जायेगी।
बेचैनी से भर
कर पूछोगे तो
एक शब्दों का
जाल ले कर तुम
चले जाओगे।
सोचोगे, काफी
जान कर लौटा
हूं।
चैन
में पूछोगे और
उत्तर गुरु
अपनी इच्छा से
देगा--तुम्हारे
दबाव से नहीं, तुम्हारे
आग्रह से नहीं,
तुम्हारे
सत्याग्रह से
नहीं--तुम्हारे
भराव से, तुम्हारी
पात्रता से
देगा, तो
मोती जन्मेगा।
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति हो
जायेगी। तुम
नये हो जाओगे।
और तुम्हारी
परेशानी देख
कर दया करके
देगा, कि
चलो ठीक है, कुछ दो; काफी
प्रतीक्षा कर
ली बेचारे ने।
तुम्हारे बेचारे-पन
से देगा तो
मोती नहीं
बनेगा। तुम
जानकारी ले कर
लौट जाओगे।
तब सेहेई
उसे लेकर झोपड़े
के बाहर आ गये
और उसके कानों
में फुसफुसा
कर कहा, 'बांसों के ये वृक्ष
यहां लंबे हैं
और बांसों
के ये वृक्ष
यहां छोटे
हैं। कुछ
वृक्ष लंबे हैं
देख, कुछ
वृक्ष छोटे
हैं। और जो
जैसा है वैसा
है। छोटे
वृक्ष छोटे
हैं, बड़े
वृक्ष बड़े
हैं। न तो बड़े
छोटे होने की
आतुरता से भरे
हैं, न
छोटे बड़े होने
की आकांक्षा
कर रहे हैं।
इसकी पूर्ण
स्वीकृति ही
स्वभाव में प्रतिष्ठा
है। जो जैसा
है वैसा है।'
इसकी
पूर्ण
स्वीकृति ही
स्वभाव में
प्रतिष्ठा
है। तुम जैसे
हो इसको पूरा
स्वीकार कर
लेना। दौड़ हट
जाती है, प्रतिष्ठा
हो जाती है।
तुम ठहर गये
फिर। अब कोई
महत्वाकांक्षा
न रही।
क्योंकि महत्वाकांक्षा
का अर्थ है, जो मैं नहीं
हूं वह हो
जाऊं। 'अ' 'ब' होना
चाहता है, 'ब'
'स' होना
चाहता है, यह
महत्वाकांक्षा
है। 'ब' 'ब'
है, 'अ' 'अ' है, 'स'
'स' है, तुम ठहर
गये। दौड़ बंद
हो गई। और जो
जैसा है वैसा
है, इसकी
पूर्ण
स्वीकृति
स्वभाव में
प्रतिष्ठा है।
स्वभाव
धर्म है। तुम
जो हो उसमें
ही रम जाना धर्म
है। तुम जो
नहीं हो उसमें
रमे रहना
अधर्म है। अगर
तुम धन में रमे
हो, अधर्म
है। स्त्री
में रमे
हो, अधर्म
है। पुरुष में
रमे हो
अधर्म है, पद
में रमे
हो अधर्म है।
परमात्मा में रमे हो, अधर्म
है। जब तुम
स्वयं में रम गये,
कोई पराया न
रहा, कोई
दूसरा न रहा, ध्यान जब
अपने में लौट
आया, आत्मरमण हुआ, वही
स्वभाव है, वही धर्म
है।
और आत्मरमण
परमात्मा हो
जाना है।
तुम्हारा
परमात्मा तो कल्पित
है। क्योंकि
वह दूसरा है।
तुम्हारा परमात्मा
तो बाहर है।
लेकिन आत्मरमण
से जो
परमात्मा
उपलब्ध होता
है वह
तुम्हारे
भीतर है, वह
तुम स्वयं हो।
स्वभाव धर्म
है। स्वभाव
परम-सत्ता है।
वही परमात्मा
है।
स्वभाव
धर्म है और
स्वभाव में
जीना धर्म का
मूल रहस्य है।
अपने
में जीना। कोई
लक्ष्य, कोई
भविष्य, कोई
प्रतिमा, महत्वपूर्ण
नहीं है। कोई
आदर्श
महत्वपूर्ण नहीं
है। अपने में
जीना।
थोड़ी
देर के लिये
सोचो, अगर
तुम अकेले हो
सारी पृथ्वी
पर, क्या
करोगे? कोई
भी नहीं है, तुम अकेले
हो। और वही
सत्य है। वही
है सत्य। अभी
भी तुम अकेले
हो, कोई भी
नहीं है। क्या
करोगे? सुंदर
होने की कोशिश
करोगे? किसके
लिए सुंदर
होना है? क्या
करोगे? सच
बोलने की
कोशिश करोगे?
कोई है नहीं
जिससे सच
बोलना है।
अहिंसक होने की
कोशिश करोगे?
कोई है नहीं,
जिसके
प्रति अहिंसक
होना है, क्या
करोगे? सांस
लोगे और जो हो,
हो। वही
स्थिति जो इस
चारों तरफ भीड़
भरी है, इसके
बीच भी साध ले,
वही सिद्ध
है। कुछ करने
को और नहीं
है--अपने में
जीना; बिना
दौड़ का, बिना
महत्वाकांक्षा
का जीना।
स्वभाव
में जीना धर्म
का मूल रहस्य
है। शब्द में
धर्म की
अभिव्यक्ति
है, 'तथाता'--एनबीदमे्
अगर
इसको कहना हो
शब्द में तो
बौद्धों का
शब्द है, 'तथाता'। यह बड़ा
कीमती शब्द
है--एनबीदमे्
अगर बुद्ध से
कहो, 'आप
बूढ़े हो गये।'
वे कहेंगे,
'हां।
वस्तुओं का
ऐसा स्वभाव
है। जो जवान
है, वह
बूढ़ा होता है।
इससे कुछ पीड़ा
नहीं है। इससे
अन्यथा होता
ही नहीं। यह
होने का ढंग
है। यह तथाता
है।'
बुद्ध
मरे, उस सुबह
उन्होंने
सारे मित्र, साधु, संन्यासी
इकट्ठे किए।
और उनसे कहा, 'आज देह छोड़
दूंगा।' वे
सब रोने लगे।
बुद्ध ने कहा,
'तुम रोते
क्यों हो? क्योंकि
जो जन्मता है
वह मरता
है--ऐसा
वस्तुओं का
स्वभाव है।
जिस दिन मैं
पैदा हुआ, उसी
दिन मरना
निश्चित हो
गया। तुम रोते
किसलिए
हो?'
जो चीज
संघठित
होगी, विघटित
होगी। जो
बनेगी, वह
मिटेगी। जो आयेगी,
वह जायेगी।
इसको बुद्ध
कहते हैं, 'तथाता'। ऐसा होगा।
इसकी
स्वीकृति है।
मौत से कोई
लड़ाई नहीं है।
जो जीवन को
स्वीकार कर
लेता है, वह
मौत को भी
स्वीकार कर
लेता है। और
जो जीवन को
स्वीकार कर
लेता है, वह
जीवन के पार
हो जाता है।
जो मौत को
स्वीकार कर
लेता है, मौत
के पार हो
जाता है। जिस
चीज को तुम
स्वीकार कर
लेते हो, तुम
उसके पार हो
जाते हो। और
जिसको तुम
अस्वीकार
करते हो, उससे
तुम उलझ जाते
हो। क्योंकि झगड़ा शुरू
हो जाता है, द्वंद्व
शुरू हो जाता
है, कलह
शुरू हो जाती
है।
तथाता
का अर्थ है, इस जगत में
ऐसे रहना जैसे
तुम अकेले हो।
न कुछ झगड़ने
को, न कुछ
कलह करने को, न कोई
द्वंद्व, न
कोई संघर्ष।
तथाता का अर्थ
है, जैसी
चीजें हो
जायें वैसी
स्वीकार कर
लेना।
मैंने
सुना है, एक
झेन फकीर
रिंझाई एक
रास्ते से
गुजर रहा था।
एक आदमी आया
और उसने जोर
से लात उसकी
पीठ में मारी।
तो फकीर गिर
गया, और वह
आदमी तो भाग
कर चला गया।
फकीर के साथ
एक मित्र और
थे। रिंझाई
उठा और जहां
से बात टूट गई थी,
वहीं से
उसने फिर शुरू
कर दी, वह
फिर चलने लगा।
वह आदमी बहुत
हैरान हुआ, जो साथ था।
उसने कहा, 'सुनिए,
मैं तो भूल
ही गया कि हम
क्या बात कर
रहे थे। और अब
मैं उसमें
उत्सुक भी
नहीं हूं।
पहले मुझे यह बताइये, यह क्या हुआ?
यह आदमी
आपको लात मार
कर गिरा गया, आपने कुछ
कहा नहीं!'
रिंझाई
ने कहा, 'यह
उसकी समस्या
है। इससे अपने
को क्या
लेना-देना? यह उसकी कुछ
परेशानी है
भीतरी, वह
जाने! इतना
पक्का है कि
कोई लात
मारेगा तो बूढ़ा
आदमी हूं, शरीर
गिर जाएगा।
ऐसा वस्तुओं
का स्वभाव है।
वह जवान था, मैं बूढ़ा
हूं। उसने लात
मारी, मैं
गिर गया। लात
क्यों मारी यह
वह सोचे, यह
उसकी चिंता
है। वह अपनी
रात खराब करे।
इससे मेरा कुछ
लेना-देना
नहीं। इतना
मैं कहता हूं कि
शरीर कमजोर हो
गया। शरीर
कमजोर हो जाता
है।'
ऐसी
भाव-दशा का
नाम तथाता है।
इसलिए बुद्ध
को 'तथागत' नाम दिया
है। 'तथागत'
का अर्थ है,
जिसका पूरा
जीवन तथाता हो
गया। तुम कुछ
भी कहो, वे
कहेंगे हां।
ऐसा वस्तुओं
का स्वभाव है।
और अन्यथा
करने की कोई
आकांक्षा
नहीं है। जैसा
है वैसा पूर्ण
स्वीकृत।
टोटल एक्सेप्टेंस
तथाता है।
सदगुरु
ने कहा, अगर
शब्द में कहना
हो धर्म को तो 'तथाता'।
इससे ज्यादा
निकट और कोई
चीज स्वभाव को
प्रकट नहीं कर
सकती जैसा
शब्द तथाता
करता है। जो भी
हो जीवन में
उसको स्वीकार
कर लेना और
कहना: ऐसा
जीवन का
स्वभाव है।
तुम धीरे-धीरे
पाओगे तुम्हारी
सब अशांति खो
गई।
अशांत
होने का मतलब
ही यह होता है
कि तुम स्वीकार
नहीं करते।
अशांत होने का
मतलब यह होता
है कि तुम
कहते हो, कुछ
इससे भिन्न हो
सकता था।
अशांत होने का
मतलब है कि
तुम कहते हो
कि अभी कुछ
दिन और जवान
रह सकता था, कि इससे
सुंदर स्त्री
मिल सकती थी, कि इससे
अच्छा लड़का हो
सकता था, कि
इससे बड़ा मकान
हो सकता था, कि लोग इससे
ज्यादा मेरा
सम्मान करते।
तुम यह मान कर
चलते हो, इससे
भिन्न हो सकता
था; तो
तुम्हारे
जीवन में
अशांति
रहेगी।
तथाता
का अर्थ है, जो हो गया
वही हो सकता
था। तुमने जो
स्त्री चुनी
है पत्नी के
लिए, उसी
स्त्री को तुम
चुन सकते थे
इसलिए चुनी
है। यह कुछ
अकारण नहीं हो
गया। तुम जिस
बच्चे को जन्म
दे सकते थे
उसको ही जन्म
दिया है। वह
कुछ अकारण
आसमान से नहीं
टपक गया।
इसलिए अब रोज
छाती मत पीटो,
कि यह
बुद्धू है, कि बेईमान
है, कि चोर
है। तुमसे चोर
पैदा हो सकता
था, चोर
पैदा हो गया।
तुम्हें जो
मिल सकता था
वह मिल गया
है। तुम्हें
जो नहीं मिल
सकता था वही नहीं
मिला। तथाता
का अर्थ है, अन्यथा की
कोई आकांक्षा
नहीं है। जैसा
हो गया है
उससे मैं राजी
हूं। क्योंकि
अन्यथा हो ही
नहीं सकता।
तब तुम
कैसे अशांत
होओगे? तब
कैसा तनाव? तब तुम्हें
ध्यान करने की
क्या जरूरत? बुद्ध ने
कहा है, तथाता
को तुम जो
राजी हो गये, तो ध्यान
व्यर्थ है।
क्या करोगे
ध्यान करके! कैसी
पूजा? कैसी
प्रार्थना? क्या करना
है? सब
अशांति से
बचने के मार्ग
हैं। लेकिन
तथाता तो
अशांति को जड़
से काट देती
है, बचने
का कोई सवाल
ही नहीं है।
तथाता
परम-स्थिति
है।
सदगुरु
ने कहा, 'अगर
शब्द में कहना
हो तो तथाता, और निःशब्द
में अगर उसकी
अभिव्यक्ति
करनी हो, तो
शून्यता।
दिन भर
गुरु ने पहला
प्रयास किया
था। गुरु शून्य
हो कर बैठा
हुआ था। गुरु
शून्यता है।
जहां शून्यता
है वहीं सदगुरु
है।
लेकिन
यह शिष्य
पूछनेवाला
अकेला न हो
पाया। यह शांत
हो न पाया।
नहीं तो गुरु
दिन भर बोला
था। जब भी
उसने होठ पर
अंगुली रखी थी
शिष्य ने समझा, कि जवाब
नहीं देना
चाहता। तभी वह
जवाब दे रहा था,
कि इधर भी
एक हूं उधर भी
तू एक हो जा।
इधर एक शून्य,
उधर एक
शून्य।
क्या
तुम्हें पता
है? दो शून्य
मिलते हैं तो
दो शून्य नहीं
होते, एक
ही शून्य होता
है। इसलिए
शून्य बड़ा
अदभुत है।
कितने ही
शून्य मिलाओ,
एक ही होता
है। और संख्यायें
मिलाओगे
तो ज्यादा कम
होंगी। लेकिन शून्यों
का मिलन--अगर
दो व्यक्ति
शून्य हो
जायें तो वहां
एक ही व्यक्ति
बचता है, दो
नहीं बचते।
शून्य की कोई
सीमा नहीं है,
कोई परिधि
नहीं है। एक
शून्य दूसरे
शून्य में लीन
हो जाता है।
उधर
गुरु जब
बार-बार ओंठ
पर अंगुली
रखता था तो वह
कहता था: एक
इधर, तू भी उधर
एक हो जा। यह
भीड़ हटा। बीच
में कुछ और मत
ला। पूरे दिन
कोशिश की थी शून्यता
से बताने की, वह सफल नहीं
हो पाई।
क्योंकि गुरु
तो शून्य था, शिष्य
प्रश्नों से
भरा था। वह
तना हुआ था।
उसे उत्तर
चाहिए। उत्तर
दिया जा रहा
था, उसके
लिए वह अंधा
था। इसीलिए
दूसरा उत्तर
गुरु को देना
पड़ा।
पर यह
बड़ी मीठी कथा
है। उसने यह
बात भी बड़े
फुसफुसा कर
कान में कही।
क्योंकि गुरु
शब्द का उपयोग
करता है बड़े
संकोच के साथ, इसलिए
फुसफुसा कर।
यह प्रतीक है
सिर्फ कि उसने
बड़े कान में
फुसफुसा कर
कहा। कुछ कहने
की जरूरत न थी
फुसफुसा कर।
कोई और सुन
लेता तो कुछ हर्ज
न था।
पर
क्यों उसने
फुसफुसा कर
कहा? इसलिए
कहा कि सत्य
में बड़ा संकोच
है। बोलते से
ही सत्य झूठ जैसा
हो जाता है।
कहा नहीं कि
विकृत हुआ। तो
कोई और न सुन
ले, तू ही
सुन पाये इतना
काफी है।
इसलिए
हम कहते हैं
गुरु कान में फूंकता है
मंत्र। उसका
मतलब यह होता
है कि गुरु जब
शब्द में कहता
है तो बड़े
संकोच से कहता
है। क्योंकि
वह जानता है, अब गलती
होती है। और
जब मैं कह रहा
हूं, वहीं
ही आधा हो
जाता है सत्य।
फिर तुम्हारे
कान में पड़ेगा,
फिर तुम
अपने मन को
उसमें मिलाओगे,
और टूट
जायेगा। फिर
तुम किसी से
कहोगे। क्योंकि
बहुत मुश्किल
है उसे सम्हाल
कर रखना। इसलिए
पुरानी
परंपरा है कि
गुरु जब मंत्र
दे, तो तुम
उसे किसी से
कहना मत। वह
इसीलिए है कि
कुछ तो सत्य
वहीं खराब हो
गया है, जब
उसने शब्द
बनाया।
शून्यता
तथाता बनी।
फिर उसने
तुम्हें कही।
फिर तुम किसी
और को कहोगे, फिर वह कोई
और किसी और को
कहेगा। मूल
में जो गंगोत्री
थी वह अंत में
एक गंदा डबरा
हो जायेगी।
और
मनुष्य के मन
और शरीर का एक
ढंग है। वह
ढंग यह है कि
अगर तुम भोजन
करोगे तो
मलमूत्र से
उसे निकालना
पड़ेगा। तुम
उसे कैसे खींचोगे? उसे शरीर के
बाहर से लाये
हो, बाहर
भेजना पड़ेगा।
अगर तुमसे कोई
कोई बात कह दे,
तो तुम्हें
तब तक चैन न
मिलेगा, जब
तक तुम किसी
और से न कह दो।
क्योंकि जो भी
भीतर गया, उसे
बाहर निकालना
पड़ेगा। इसलिए
तुम सुनते भी नहीं
हो पूरा कि
गये और किसी
को बताया। मन
और शरीर जो भी
चीज भीतर
लेंगे, उनको
बाहर करना
पड़ेगा।
इसलिए
गुरु जब मंत्र
देता है वह
कहता है, इसे
बाहर मत करना।
इसे भीतर रहने
देना। बड़ी
बेचैनी होगी
इससे। और अगर
तुमने हिम्मत
रखी और तुमने
सम्हाला अपने
को और न कहा
किसी को, तो
धीरे-धीरे जो
शब्द में दिया
है, अगर
तुमने बाहर
शब्द में न
दिया, तो
धीरे-धीरे
भीतर शब्द भी
पिघल कर बह
जाएगा और
शून्यता
निर्मित हो
जायेगी।
लेकिन सदगुरु
से जब भी तुम
सुनते हो, तुम
जाकर किसी को
कहने की कोशिश
करने हो। तुम शायद
सुनते ही
इसीलिए हो कि
किसी के सामने
जाकर ज्ञान
प्रगट कर दो।
वहीं तुम भूल
कर रहे हो। वहीं
भीतर लिया, बाहर गया, सब व्यर्थ
हो गया।
अगर
कुछ
महत्वपूर्ण
हो, तो उसे
सम्हाल लेना
गर्भ की तरह
भीतर। उसे
किसी को मत
देना। तो
धीरे-धीरे अगर
तुमने न दिया,
न दिया, न
दिया; बहुत
बार मन कहेगा
दे दो किसी को,
समझा दो
किसी को, बता
दो। नहीं दिया,
नहीं दिया,
नहीं दिया,
धीरे-धीरे
ऊपर जो शब्द
की पर्त है वह
पिघल कर टूट
जायेगी। और
भीतर जो
शून्यता गुरु
ने जो दी थी, वह प्रगट हो
जायेगी। और जब
तुम्हारे
भीतर शून्यता पैदा
हो जाये तब
तुम हकदार हो।
तब तुम शब्द
से किसी को दे
देना, क्योंकि
अब यह शब्द
उधार न होगा।
फिर गंगोत्री
से आयेगा। और
जिसको दो उसको
भी कह देना, कि
सम्हालना।
इसको ऐसे ही
मत दे
देना--उधार का उधार।
इसको जीवंत
बना लेना। यह
नगद हो जाये
तुम्हारे
भीतर, तब
देना।
तो
दुनिया में दो
तरह की परंपरायें
हैं। एक
परंपरा है, जो कभी की मर
चुकी।
क्योंकि शब्द
गुरु ने दिये,
फिर उन
शब्दों को पीढ़ी
दर पीढ़ी
लोग देते गए, कंठस्थ करते
गये, वह मर
चुकी। दूसरी
परंपरा जो कान
से कान में चलती
रही। फुसफुसा
कर चलती रही।
जो गुरु ने दी
शिष्य को और
कहा कि जब तक
तेरे भीतर
शून्यता न आ
जाये तब तक मत
देना। तब तक
सम्हालना।
तो
दुनिया में दो
तरह के धर्म
हैं। एक तो
सार्वजनिक
धर्म
हैं...हिंदू, इस्लाम, ईसाई,
मुसलमान, बौद्ध, जैन;
उसका कोई
मूल्य नहीं, वह कचरा है। शब्द
तो वही हैं जो
दिए गये थे, वही दुहराये
गए हैं। लेकिन
वे इतने गलत
मुंह से दुहराये
गये हैं, इतनी
बार दुहराये
गये हैं, कि
झूठे हो गये, खराब हो गए, अब उनका कोई
मूल्य नहीं
है। वे गंदे
हो चुके।
पर सभी
धर्मों के
भीतर
छोटी-छोटी रेखायें
हैं। वे बड़ी
बारीक हैं। सारा
बौद्ध धर्म
विकृत हो गया
है, लेकिन
झेन बारीक
जिंदा है। यह
झेन में बारीक
दूसरी परंपरा
है।
मुसलमानों
में सूफी--वह
दूसरी परंपरा
है जो कान से
चल रही है।
यहूदियों में
हसीद--वह पतली
लीक है, जो
कान से चल रही
है। गुरु
शिष्य को देता
है। और इस
शर्त के साथ
देता है कि जब
तक तू गुरुता
को पैदा न हो
जाये, तब
तक मत देना।
तब तक
सम्हालना।
शब्द को आत्मसात
कर लेना। बाहर
दिया कि फिर
आत्मसात न हो
सकेगा।
स्वभाव
धर्म; स्वभाव
में जीना धर्म
का मूल रहस्य;
शब्द में
धर्म की
अभिव्यक्ति
तथाता और
निःशब्द में
उसकी
अभिव्यक्ति
है शून्यता।
तो जब सदगुरु
नहीं बोल रहा
है तब वह
शून्य में
उसकी अभिव्यक्ति
करता है। जो
योग्य हैं, जिन्होंने
अपने भीतर
थोड़ी सी शांति
साधी है, वे
उसके न बोलने
में समझ लेते
हैं। जो योग्य
नहीं हैं, जो
बिना बोले न
समझ पायेंगे,
जो शब्द में
ही समझ
पायेंगे, उनके
लिए वह जो
बोलता है वह
तथाता है।
सदगुरु
का वचन तथाता
है और सदगुरु
का अस्तित्व
शून्यता। और
जब तक तुम
शून्य न हो
जाओ, तब तक
शब्द से किसी
को मत कहना।
क्योंकि
तुम्हारा
शब्द असत्य से
आयेगा। सत्य
से भी आ कर शब्द
आधा सत्य रह
जाता है; तो
जब असत्य से
आयेगा तो उसकी
विकृति तुम
सोच सकते हो।
तब तक अपने को
सम्हालना। तब
तक शून्य बनने
की कोशिश करना,
क्योंकि
वहां
गंगोत्री है।
इस कथा
का सार--तथाता
को साधना, ताकि तुम
शून्य हो सको।
और जब तुम
शून्य हो जाओ
तब तुम्हारे
वचन में तथाता
आ जायेगी। अभी
तुम्हारे
जीवन में
तथाता को लाना
है। तथाता का
अर्थ है: जो हो,
उसे वैसा ही
स्वीकार कर
लेना।
करके
देखो, बड़ी
गजब की कीमिया
है। इससे बड़ा
कोई चमत्कार नहीं
है। तुम जैसे
हो वैसा
स्वीकार कर
लो। अहंकार
कहेगा कि
इसमें तो अटक
जाओगे। यहीं
के यहीं रह
जाओगे। जैसे
हो, ऐसे ही
रह जाओगे। कुछ
करना नहीं
जिंदगी में, कुछ होना
नहीं, पाना
नहीं।
लोग
समझा रहे हैं, कुछ हो कर
दिखाओ। कुछ बन
कर रहो। कहीं पहुंचो।
नाम छोड़ जाओ।
सब पागलपन
सिखा रहे हैं।
न नाम छोड़ने
योग्य है, क्योंकि
नाम तो तुम
लेकर आये नहीं,
छोड़ कर कैसे
जाओगे? कुछ
पाने योग्य
नहीं है
क्योंकि जो भी
पाने योग्य है,
उसे तुम साथ
ही लिए हो। वह
तुम्हारी
सांस-सांस में
बसा है। और
जिसकी तुम
तलाश कर रहे
हो, जिस
कस्तूरी की
तुम खोज कर
रहे हो...।
कबीर
ने कहा है, 'कस्तूरी मृग
बसै।' वह
तुम्हारे
भीतर है। जो
सुगंध
तुम्हें बाहर से
आती मालूम पड़
रही है, वह
तुम्हारे
भीतर है।
और सदगुरु
वह व्यक्ति
है--कि पहले तो
तुम्हें सदगुरु
से सुगंध आती
मालूम पड़ेगी।
लेकिन जल्दी
ही वह
तुम्हारी
आंखों को मोड़ेगा
और तुम्हें बतायेगा
कि सुगंध
तुम्हारे
भीतर से आ रही
है। अगर ज्यादा
से ज्यादा मैं
हूं तो एक
दर्पण, जिसमें
तुमने अपनी
तस्वीर देखी।
सुगंध लेकर तुम
दौड़ रहे हो।
'कस्तूरी
मृग बसै।' और
भागता है
कस्तूरी-मृग,
दौड़ता है, पागल
हो जाता है।
कहां से सुगंध
आ रही है? और
सुगंध उसके
भीतर से आ रही
है!
तुम भी
ऐसे ही
जन्मों-जन्मों
भागे
हो--कस्तूरी-मृग
की भांति।
ठहरो। दौड़ बंद
करो। तथाता का
इतना ही अर्थ
है: कहीं जाना
नहीं है, कुछ
होना नहीं है।
रुक जाओ, प्रतीक्षा
करो। ठहरते ही
तुम्हें अपने
भीतर की सुगंध
पकड़ लेगी।
भीतर का सुर
बजने लगेगा। ठहरते
ही तुम हैरान
होओगे, किसके
लिए दौड़ते थे?
कहां जाना
चाहते थे? और
अगर मंजिल न
मिलती थी तो
उसका कारण यही
था, क्योंकि
मंजिल तुम थे।
इसलिए
संसार असफल
होता है। सफल
हो ही नहीं
सकता। जिसे
तुम खोज रहे
हो, वह वहां
नहीं है। और
जहां है, वहां
तुम्हें
खोजने की
फुरसत नहीं
है। वहां फुरसत
तो तभी मिलती
है जब तुम
बिलकुल ठहर
जाते हो। न तो
तुम्हें
धनवान होना है,
न तुम्हें
सम्राट होना
है, न पदवान
होना है, न
तुम्हें साधु
होना है, न
तुम्हें बड़ा नैतिज्ञ
होना है, न
तुम्हें
अहिंसक, न
तुम्हें
ध्यानी, तुम्हें
कुछ होना नहीं
है। तुम्हें
पहले रुकना
है।
रुकते
ही सब जो
श्रेष्ठ है, होना शुरू
हो जाएगा। और
दौड़ते, जो
व्यर्थ है वह
जारी रहेगा।
दौड़ व्यर्थ है,
रुक जाना
पहुंच जाना है।
आज
इतना ही।
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