दिनांंक 4 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
प्रश्नसार:
1—प्रेमपूर्ण
हृदय वाला व्यक्ति
स्वार्थी
कैसे हो सकता
है?
2—स्वार्थी
होकर भी कोई
दूसरों के
प्रति सजग हो
सकता है या
नहीं?
3—निराश
होने में क्या
आपके प्रति
निराश होना भी
सम्मिलित है? बिना आशा
के विकास कैसे
होता है?
4—आपने
कहा कि आप
लोगों पर ‘काम’
नहीं करते,
तो शिष्य
बनाने का क्या
अर्थ है?
5—सुख
पाने के लिए
मनुष्य पुन:
गर्भ को खोजना
है,
तो क्या आप
हम शिष्यों
के लिए एक गर्भ
है?
6—बिना
जरूरत के भी
आप सदा एक
नैपकिन क्यों
साथ रखते है?
7—मैं
बिलकुल बेकार
हो गया हूं, क्या
मैं दूसरों के
खर्च पर जीऊं?
8—मादक
द्रव्यों और
ध्यान के बीच
क्या संबंध है?
9—आपने
कहा कि जीवन
एक कहानी है
अस्तित्व
की मौन शाश्वतता
मैं, तो फिर
मनुष्य क्या
है?
10—शिष्य
पर क्रोधित
होने पर यदि
गुरु अभिनय ही
कर रहा है, तो उसका
मुस्कुरा कर
देखना भी क्या
अभिनय ही नहीं
है?
पहला
प्रश्न :
प्रेमपूर्ण
हृदय वाला
व्यक्ति स्वार्थी
कैसे हो सकता
है?
प्रेम सबसे
बड़ा स्वार्थ
है दुनिया में।
मौलिक रूप से
प्रेम होता है
स्वयं के
प्रति प्रेम।
यदि तुम स्वयं
से प्रेम करते
हो, केवल
तभी तुम किसी
दूसरे से
प्रेम कर सकते
हो। यदि तुम
स्वयं से
प्रेम नहीं
करते, तो
किसी दूसरे से
प्रेम करना करीब—करीब
असंभव ही होता
है। प्रेम की
गुणवत्ता
तुम्हारे
भीतर होनी
चाहिए केवल
तभी वह सुगंध
किसी और तक
पहुंच सकती है।
यदि तुम स्वयं
को प्रेम नहीं
करते हो तो
तुम केवल
दिखावा कर
सकते हो
दूसरों से
प्रेम करने का।
तुम्हारा
प्रेम नकली ही
होगा, एक
झूठ होगा, एक
प्रवंचना
होगा। सौ में
से निन्यानबे
मौकों में यही
हो रहा है—क्योंकि
मनुष्यता को
रोका गया है, संस्कारित
किया गया है।
प्रत्येक
बच्चे को
संस्कारित
किया गया है
कि वह स्वयं
को प्रेम न
करे, बल्कि
दूसरों को
प्रेम करे। यह
असंभव है। ऐसा
हो नहीं सकता;
ऐसा चीजों
का ढंग नहीं है।
हर बच्चे को
सिखाया जाता
है कि
स्वार्थी मत बनो,
और वही है
होने का
एकमात्र ढंग।
ध्यान
रहे, यदि
तुम स्वार्थी
नहीं हो, तो
तुम परार्थी
भी नहीं हो
सकते। स्मरण
रहे, यदि
तुम स्वार्थी
नहीं हो तो
तुम
निःस्वार्थी
भी नहीं हो
सकते। केवल एक
अत्यंत
स्वार्थी
व्यक्ति ही
निःस्वार्थी
हो सकता है।
लेकिन यह बात
ठीक से समझ
लेनी है, क्योंकि
यह
विरोधाभासी
मालूम पड़ती है।
स्वार्थी
होने का अर्थ
क्या है? पहली मूलभूत
बात है : आत्म—केंद्रित
होना। दूसरी
मूलभूत बात है
: सदा अपनी
प्रसन्नता की खोज
में रहना। यदि
तुम आत्म—केंद्रित
हो तो तुम कुछ
भी करो, तुम
रहोगे
स्वार्थी ही।
तुम सेवा कर
सकते हो लोगों
की, लेकिन
तुम सेवा
इसलिए करोगे
क्योंकि
तुम्हें
इसमें सुख
मिलता है, क्योंकि
ऐसा करने में
तुम्हें रस है,
ऐसा करने
में तुम
प्रसन्नता और
आनंद अनुभव करते
हो। तुम्हें
लगता है कि
ऐसा करना
चाहिए।
तुम कोई
कर्तव्य नहीं
पूरा कर रहे
हो। तुम
मनुष्यता की
सेवा नहीं कर
रहे हो। तुम
कोई शहीद नहीं
हो; तुम
कोई कुर्बानी
नहीं कर रहे
हो। ये सब
व्यर्थ की
बातें हैं।
तुम तो बस
प्रसन्न हो
अपने होने के
इस ढंग में।
यह बात
तुम्हें
अच्छी लगती है।
तुम अस्पताल जाते
हो और वहां रोगियों
की सेवा करते
हो, या तुम
गरीबों के पास
बैठते हो और
उनकी मदद करते
हो। लेकिन यह
तुम्हारे
प्रेम की
अभिव्यक्ति
है। इस तरह
तुम विकसित
होते हो। कहीं
गहरे में तुम
आनंद और शांति
अनुभव करते हो,
तुम
आह्लादित
होते हो स्वयं
के प्रति।
आत्म—केंद्रित
व्यक्ति सदा अपना
सुख खोज रहा
होता है। और
यही इसका
सौंदर्य है कि
जितना ज्यादा
तुम अपना सुख
खोजते हो, उतनी
ज्यादा तुम
दूसरों की मदद
करोगे सुखी होने
में। क्योंकि
वही एकमात्र
ढंग है संसार
में सुखी होने
का। अगर
तुम्हारे आस—पास
के व्यक्ति
दुखी हैं, तो
तुम सुखी नहीं
हो सकते, क्योंकि
व्यक्ति कोई
अलग— थलग
द्वीप नहीं है।
वह हिस्सा है
बड़े विशाल
महाद्वीप का।
अगर तुम सुखी
होना चाहते हो,
तो जो लोग
तुम्हारे आस—पास
हैं, तुम्हें
उनकी मदद करनी
होगी सुखी
होने में।
केवल तभी—और
केवल तभी—तुम
सुखी हो सकते
हो।
तुम्हें
अपने चारों ओर
सुख का वातावरण
निर्मित करना
होता है। यदि
हर कोई दुखी
है, तो
कैसे तुम सुखी
हो सकते हो? तुम पर उनका
प्रभाव पड़ेगा
ही। तुम कोई
पत्थर तो नहीं
हो। तुम एक
संवेदनशील, बहुत
संवेदनशील
प्राणी हो।
यदि तुम्हारे
आस—पास के
व्यक्ति दुखी
हैं, तो
उनका दुख
तुम्हें
प्रभावित
करेगा ही। दुख
उतना ही
संक्रामक है
जितना कि कोई
और रोग। आनंद
भी उतना ही
संक्रामक है।
यदि तुम
दूसरों की मदद
करते हो सुखी
होने में, तो
अंततः तुम
अपनी ही मदद
करते हो सुखी
होने में। वह
व्यक्ति जो
अपने सुख में
बहुत उत्सुक
होता है, वह
सदा दूसरे के
सुख में भी
उत्सुक होता है—लेकिन
लक्ष्य दूसरा
नहीं होता।
गहरे में उसे
स्वयं में ही
रुचि होती है,
इसीलिए वह
मदद करता है।
यदि संसार में
सभी को
स्वार्थी
होने की शिक्षा
दी जाए, तो
सारा संसार
सुखी हो जाएगा।
दुख की कोई
संभावना नहीं
रह जाएगी।
यदि
तुम स्वस्थ
होना चाहते हो, तो तुम
बीमार लोगों
के बीच स्वस्थ
नहीं रह सकते
हो। कैसे रह
सकते हो तुम
स्वस्थ? यह
बात असंभव है।
यह नियम के
विरुद्ध है।
तुम्हें
दूसरों की मदद
करनी होगी
स्वस्थ होने
में।
तुम्हारा
स्वास्थ्य
स्वस्थ लोगों
के बीच ही संभव
है।
हर
व्यक्ति को
स्वार्थी
होने की
शिक्षा दो, उसी में
से निःस्वार्थ
आता है।
निःस्वार्थ
अंततः
स्वार्थ ही है।
शुरुआत में वह
निःस्वार्थ
जैसा लगता है,
लेकिन अंतत:
वह तुम्हें ही
सुखी करता है।
और सुख बढ़ता
जाता है.
जितने
व्यक्ति
तुम्हारे आस—पास
सुखी होते हैं,
उतना ही सुख
तुम पर बरसने
लगता है। तुम
परम सुखी हो
सकते हो।
लेकिन
अपने को कभी
मत भूलना।
तुम्हें अपने
को छोड़ना
सिखाया जाता
रहा है।
राजनीतिज्ञ, पंडित—पुरोहित
यही सिखाते आए
हैं, क्योंकि
संसार में
राजनीतिज्ञों
और पंडित—पुरोहितो
के होने का
यही एकमात्र
उपाय है। यदि
तुम दुखी हो, तो पंडित—पुरोहित
की जरूरत है।
यदि तुम
परेशान हो, दुखी हो, तो
जरूरत है
राजनीतिज्ञों
की। यदि तुम
उच्छृंखल हो,
तो शासक
चाहिए। अगर
तुम बीमार हो,
केवल तभी
चिकित्सक
चाहिए। तो
राजनीतिज्ञ
चाहते हैं कि
तुम
अव्यवस्थित रहो;
अन्यथा वे
किस पर
लादेंगे
व्यवस्था? तुम्हारी
अव्यवस्था के
कारण वे शासक
बन जाते हैं; और वे
तुम्हें
निःस्वार्थी
होना सिखाते
हैं। वे
तुम्हें
सिखाते हैं.
कुर्बान हो
जाओ देश पर, ईश्वर पर, धर्म पर
इस्लाम पर, हिंदुत्व पर,
कुरान पर, गीता पर, बाइबिल
पर—कोई भी नाम
काम दे देगा, कोई भी शब्द
चलेगा—लेकिन
बलिदान कर दो
स्वयं को। यदि
तुम बलिवेदी
पर चढ़ जाओ, तो
पुरोहित खुश
होता है, राजनीतिज्ञ
खुश होता है।
पंडित—पुरोहित
और
राजनीतिज्ञ
एक गहरी साजिश
में जीते हैं—अनजाने, शायद
उन्हें होश भी
नहीं है कि वे
क्या कर रहे हैं,
लेकिन वे
तुम्हें सुखी
नहीं देखना
चाहते। जब वे
देखते हैं कि
तुम सुखी
हो रहे
हो, तो वे
चौकन्ने हो
जाते हैं। तब
तुम उनके लिए,
उनके समाज
के लिए, उनके
व्यवस्थित
संसार के लिए
एक खतरा बन
जाते हो—तुम
खतरनाक हो
जाते हो। सुखी
व्यक्ति
संसार का सबसे
ज्यादा
खतरनाक व्यक्ति
होता है। वह
विद्रोही हो
सकता है, क्योंकि
सुखी व्यक्ति
मुक्त
व्यक्ति होता
है। और सुखी
व्यक्ति
परवाह नहीं
करता युद्धों
की, वियतनाम
की, इजरायल
की। सुखी
व्यक्ति को ये
बातें पागलपन
लगती हैं, मूढ़तापूर्ण
लगती हैं।
एक
सुखी व्यक्ति
इतना प्रसन्न
होता है कि वह
चाहता है कि
तुम उसे उसकी
प्रसन्नता
में अकेला छोड़
दो। वह अपने
एकांत के जगत
में जीना चाहता
है। वह फूलों
और काव्य और
संगीत के बीच
जीना चाहता है।
वह क्यों
फिक्र करेगा
युद्ध पर जाने
की, मरने—मारने
की? वह
क्यों दूसरों
की हत्या करना
या आत्महत्या करना
चाहेगा? केवल
स्वार्थहीन
लोग ऐसा कर
सकते हैं, क्योंकि
उन्हें कोई
अनुभव नहीं है
कि कितना सुख
संभव है। वैसा
कोई अनुभव
नहीं होता
उनका : उन्हें
पता नहीं कि
होने का आनंद
क्या है, कि
उत्सवपूर्ण
जीवन क्या है।
उन्होंने कभी
नृत्य नहीं
किया।
उन्होंने कभी
जीवन को नहीं
जाना।
उन्होंने कभी
अज्ञात को
स्पर्श नहीं
किया; वे
झलकें आती हैं
गहन
प्रसन्नता से,
गहन तृप्ति
से, गहन
संतोष से।
स्वार्थरहित
व्यक्ति उखड़ा
हुआ, केंद्ररहित
होता है। वह
गहन पागलपन
में होता है।
वह प्रकृति के
विरुद्ध है; वह स्वस्थ
और समग्र नहीं
हो सकता। वह
जीवन की, स्वभाव
की, अस्तित्व
की धार के
विरुद्ध लड़
रहा है—वह
कोशिश कर रहा
है
निःस्वार्थी
होने की। वह
हो नहीं सकता
निःस्वार्थी,
क्योंकि
केवल
स्वार्थी
व्यक्ति ही हो
सकता है
निस्वार्थी।
जब तुम्हारे
पास आनंद होता
है तो तुम उसे
बांट सकते हो;
जब
तुम्हारे पास
ही आनंद नहीं
है, तो
कैसे तुम बांट
सकते हो? पहली
तो बात, बांटने
के लिए
व्यक्ति के
पास आनंद होना
चाहिए।
स्वार्थरहित
व्यक्ति सदा
गंभीर होता है,
गहरे में
बीमार होता है,
व्यथा में
जीता है। वह
चूक गया है
अपना जीवन।
और
ध्यान रहे, जब भी तुम
अपने जीवन को
चूक जाते हो
तो तुम विध्वंसक
हो जाते हो।
जब भी कोई
व्यक्ति पीड़ा
में जीता है, तो वह नष्ट
करना चाहता है,
तोड़ना चाहता
है। पीड़ा
विध्वंसक
होती है; प्रसन्नता
सृजनात्मक
होती है। केवल
एक ही
सृजनात्मकता
है और वह आती
है आनंद से, प्रफुल्लता
से, आह्लाद
से। जब तुम
आनंदित होते
हो, तब तुम
कुछ सृजन करना
चाहते हो—बच्चों
के लिए कोई
खिलौना, या
कोई कविता, या कोई
चित्र—कोई भी
चीज। जब भी
तुम बहुत
प्रसन्न होते
हो जीवन में, तो कैसे उसे
अभिव्यक्त
करोगे? तुम
कुछ सृजन करते
हो—कुछ भी।
लेकिन जब तुम
दुखी होते हो,
पीड़ित होते
हो, तो तुम
चीजों को
तोड़ना चाहते
हो, मिटाना
चाहते हो। तुम
राजनीतिज्ञ
होना चाहते हो,
तुम सैनिक
होना चाहते हो—तुम
कोई ऐसी स्थिति
बना देना
चाहते हो
जिसमें कि तुम
विध्वंस कर
सको।
इसीलिए
सदा धरती पर
कहीं न कहीं
युद्ध चलता रहता
है। यह एक बड़ी
बीमारी है। और
सारे
राजनीतिज्ञ
बातें करते
हैं शांति की।
वे तैयारी
करते हैं
युद्ध की और
बातें करते हैं
शांति की! असल
में वे कहते
हैं, 'हम
शांति के लिए
ही युद्ध की
तैयारी कर रहे
हैं।’ बिलकुल
असंगत बात है।
यदि तुम
तैयारी कर रहे
हो युद्ध की, तो कैसे शांति
हो सकती है? शांति बनाए
रखने के लिए
व्यक्ति को शांति
की तैयारी
करनी चाहिए।
इसीलिए
सारे संसार
में नई पीढ़ी
एक बड़ा खतरा
बन गई है
व्यवस्था के
लिए। उसे केवल
आनंदित होने
में रस है।
उन्हें रस है
प्रेम में, उन्हें
रस है ध्यान
में, उन्हें
रस है संगीत
में, नृत्य
में...। संसार
भर में
राजनीतिज्ञ
बड़े चौकन्ने
हो गए हैं। नई
पीढ़ी को
राजनीति में
कोई रस नहीं
है—चाहे वह
दक्षिणपंथी
हो या वामपंथी।
नहीं, उन्हें
जरा भी रस
नहीं है। वे
कम्युनिस्ट
नहीं हैं; वे
किसी भी वाद
से संबंधित
नहीं हैं।
एक
सुखी व्यक्ति
अपने से
संबंधित होता
है। क्यों वह
संबंधित होगा
किसी संस्था
से? वह
तो दुखी
व्यक्ति का
ढंग है : कि
किसी संस्था से
जुड़ जाना, कि
किसी भीड़ में
सम्मिलित हो
जाना।
क्योंकि उसकी
स्वयं के भीतर
कोई जड़ें नहीं
होतीं, वह
अपने से जुड़ा
नहीं होता—और
यह बात उसे
बहुत बेचैन
करती है : उसे
किसी से जुड़ना
चाहिए—तो वह
वैकल्पिक
संबंध
निर्मित कर
लेता है। वह
सदस्य बन जाता
है किसी
राजनैतिक
पार्टी का, किसी क्रांतिकारी
पार्टी का, या किसी और
संस्था का—किसी
धर्म का। अब
उसे लगता है
कि वह कहीं
संबंधित है, जुड़ा हुआ है :
एक भीड़ है
जिसका कि वह
अंग है।
व्यक्ति
को केंद्रित
होना चाहिए
स्वयं में, क्योंकि
स्वयं से
मार्ग जाता है
परमात्मा तक,
अस्तित्व
तक। यदि तुम
भीड़ से जुड़े
हो, तो तुम
एक बंद गली
में हो; वहां
से फिर और कोई
विकास संभव
नहीं है। तुम
एक दीवार के
सामने खड़े हो।
लेकिन
राजनीतिज्ञ
निर्भर करते
हैं तुम्हारे
बलिदान पर। वे
तुम्हें
प्रसन्न नहीं
देखना चाहते; वे नहीं
देखना चाहते
तुम्हारी
मुस्कुराहटें,
तुम्हारी
हंसी। वे
तुम्हें दुखी
देखना चाहते
हैं, इतना
दुखी कि तुम
रोष में आकर
विध्वंसक हो
जाओ, क्रोधी
हो जाओ। तब
तुम्हारा
उपयोग किया जा
सकता है, साधन
के रूप में
तुम्हारा
उपयोग किया जा
सकता है। वे
तुम्हें
सिखाते हैं
स्वार्थरहित
होना, वे
तुम्हें
सिखाते हैं
शहीद होना; वे तुम्हें
सिखाते हैं, 'दूसरों के
लिए अपना जीवन
बलिदान कर दो।’
और यही वे
दूसरों को भी
सिखा रहे हैं।
यह बहुत
मूढ़तापूर्ण
खेल जान पड़ता
है।
मैं
तुम्हें
निःस्वार्थी
होना नहीं
सिखाता, क्योंकि मैं
जानता हूं कि
यदि तुम
स्वार्थी हो
तो तुम अपने
आप ही, सहज
ही
निःस्वार्थी
हो जाते हो।
यदि तुम
स्वार्थी
नहीं हो तो
तुम चूक गए हो
स्वयं को ही; अब तुम किसी
और के संपर्क
में भी नहीं आ
सकते—उस
आधारभूत
संपर्क का ही
अभाव है। पहला
चरण ही चूक
गया है।
तो भूल
जाओ संसार को
और समाज को और
यूटोपिया को
और कार्ल
मार्क्स को, भूल जाओ
इन सब बातो को।
जिंदगी छोटी
है। आनंदित
होओ, प्रफुल्लित
होओ, प्रसन्न
होओ, नाचो
और डूबो प्रेम
में; और
तुम्हारे
प्रेम और
नृत्य से, तुम्हारे
गहन स्वार्थ
से उमड़ने
लगेगी एक ऊर्जा।
तुम दूसरों के
साथ उसे बांट
पाओगे।
मेरे
देखे प्रेम
सबसे बड़ा
स्वार्थ है।
यदि इससे भी
गहरा स्वार्थ
चाहते हो, तो है
ध्यान, प्रार्थना।
यदि तुम इससे
भी गहरा
स्वार्थ
चाहते हो, तो
है परमात्मा।
तुम किसी
दूसरे के
माध्यम से
नहीं संबंधित
हो सकते
परमात्मा से;
कोई दूसरा
सेतु नहीं बन
सकता।
परमात्मा के
साथ तुम्हें
सीधा
साक्षात्कार करना
होता है, एकदम
प्रत्यक्ष, बिना किसी
माध्यम के। उस
परम अनुभव का
साक्षात्कार
तुम अकेले ही
करोगे, अपने
परम स्वात में।
तो मैं
स्वार्थ
सिखाता हूं
लेकिन यदि तुम
मेरे स्वार्थ
का अर्थ समझते
हो तो तुम समझ
लोगे उस सब को
जो सुंदर है, उस सब को
जो
निःस्वार्थ
है।
दूसरा
प्रश्न:
स्वार्थी
होकर भी कोई
दूसरों के प्रति
सजग हो सकता
है या नहीं?
यदि तुम
स्वयं के
प्रति सजग हो
तो तुम दूसरों
के प्रति भी
सजग हो जाते
हो। इससे
अन्यथा हो ही
कैसे सकता है? यदि तुम
स्वयं के
प्रति सजग
नहीं हो, तो
तुम दूसरों के
प्रति सजग
कैसे हो सकते
हो? सजगता
घटित होनी
चाहिए पहले
तुम्हारे
अपने भीतर।
प्रकाश पहले
तुम्हारे
भीतर होना
चाहिए, ज्योति
पहले
तुम्हारे
भीतर जलनी
चाहिए; केवल
तभी प्रकाश
फैल सकता है
और दूसरों तक
पहुंच सकता है।
तुम जीते हो
अंधकार में, बेहोशी में—कैसे
तुम सजग हो
सकते हो
दूसरों के
प्रति? तुम
खोए हो
विचारों में,
सपनों में—तुम
दूसरों के
प्रति सजग
नहीं हो सकते।
पति कह
सकता है, 'मैं सजग हूं
अपनी पत्नी के
प्रति और उसकी
भावनाओं के
प्रति।’ लेकिन
यह संभव नहीं
है, क्योंकि
पति अपने
प्रति ही सजग
नहीं है। वह
जीता है गहन
अंधकार में और
बेहोशी में।
वह नहीं जानता
कि उसका क्रोध
कहां से आता
है; वह नहीं
जानता कि उसका
प्रेम कहा से
आता है; वह
नहीं जानता कि
यह अस्तित्व,
यह जीवन—प्रवाह
कहा से आता है।
वह सजग नहीं
है अपने प्रति—और
यह निकटतम
घटना है जिसके
प्रति तुम सजग
हो सकते हो—और
वह कहता है, 'मैं सजग हूं
अपनी पत्नी के
प्रति और उसकी
भावनाओं के
प्रति।’ मूढ़ता
भरी बात है।
शायद वह सोच
रहा है, सपने
देख रहा है कि
वह सजग है, सचेत
है।
हर कोई
अपने सपनों
में घिरा हुआ
जीता है और उन सपनों
में उसके
प्रक्षेपण
होते हैं।
व्यक्ति
सोचता है. 'मैं सजग
हूं।’ जरा
पूछो पत्नी से;
वह कहती है,
'वे कभी
मुझे देखते तक
नहीं।’ पत्नी
सोचती है कि
वह सजग है पति
के प्रति, उसकी
जरूरतो के
प्रति, लेकिन
वे जरूरतें
जिनके बारे
में वह सोचती
है कि वह सजग
है—वे पति की
जरूरतें ही
नहीं हैं। ऐसा
वह 'सोचती'
है कि वे
पति की
जरूरतें हैं।
एक संघर्ष
चलता रहता है,
और दोनों
सजग हैं और
दोनों एक—दूसरे
की फिक्र करते
हैं और दोनों
एक—दूसरे का
ध्यान रखते
हैं!
कोई
नहीं ध्यान रख
सकता दूसरे का, जब तक
उसने अपना
ध्यान रखने का
पहला पाठ न
सीख लिया हो
स्वयं के भीतर
अंतरतम
केंद्र में।
पहले अपना
खयाल करना
सीखो। वह सबसे
करीब है, आसान
है। सजगता का
पहला पाठ वहा
सीखो, तब
तुम सजग होओगे
दूसरों के
प्रति। तब
पहली बार तुम
अपने को
आरोपित नहीं
करोगे, तुम
व्याख्या
नहीं करोगे; तुम
प्रत्यक्ष
देखोगे। तुम
दूसरे को वैसा
ही देखोगे
जैसा वह है, वैसा नहीं
देखोगे जैसा
कि तुम चाहते
हो कि वह हो या
जैसा तुम
सोचते हो कि
वह है। तब तुम
वास्तविकता
को देखोगे।
जब
तुम्हारी आंखों
से सपने खो
जाते हैं और
तुम्हारी आंखें
सपनों से खाली
होती हैं, केवल तभी
तुम सजग हो
सकते हो।
अन्यथा
तुम्हारी आंखें
धुंधली होती
हैं; बहुत
बादल और बहुत धुआं
वहा छाया रहता
है। तुम देखते
हो, लेकिन
तुम पर्दों के
पीछे से देखते
हो, और वे पर्दे
हर चीज को बदल
देते हैं। वे
विकृत कर देते
हैं। वे
प्रतिबिंबित
नहीं करते, अपना आरोपण
करते हैं। जब
तुम्हारे
स्वप्न
तिरोहित हो
जाते हैं और
तुम सजग होते
हो—सचेत, सजग, होशपूर्ण—तो
तुम्हारी आंखें
कैमरे की आख
की भांति हो
जाती हैं। तुम
बस वही देखते
हो, जो है; तुम
प्रक्षेपण
नहीं करते।
तुम
वास्तविकता
को बदलते नहीं;
तुम तो बस
वास्तविकता
को उदघाटित
होने देते हो।
तुम्हारी आंखें
सरल, निर्दोष
मार्ग होती
हैं, वे
सीधा—सीधा
देखती हैं।
अभी तो जैसे
तुम हो, तुम
सीधा—सीधा
नहीं देख सकते।
तुम्हारी आंखें
पहले से ही
पूर्वाग्रहों,
विचारों, धारणाओं, विश्वासों
से भरी हैं।
तुम देख नहीं
सकते।
तुम्हारी आंखें
खाली नहीं हैं
देखने के लिए।
कैसे
तुम सजग हो
सकते हो
दूसरों के
प्रति? केवल बुद्ध
पुरुष सजग
होते हैं, वे
जो कि जाग गए
हैं स्वयं के
भीतर। लेकिन
बुद्ध बहुत
स्वार्थी हैं,
महावीर
स्वार्थी हैं,
पतंजलि भी
बिलकुल
स्वार्थी हैं—लेकिन
वे लाखों
व्यक्तियों
की मदद करते
हैं। वे लाखों
व्यक्तियों
के लिए आशीष
बन जाते हैं।
जिन्हें भी
जरूरत है और
जो खोज रहे
हैं, उनके
प्रकाश का
उपयोग कर सकते
हैं। वे
प्रकाशित हैं।
वही बुद्धत्व
का अर्थ है.
उनका दीया जल
गया है। तुम
सम्मिलित हो
सकते हो उसमें।
उनके दीए से
तुम अपना दीया
भी जला सकते
हो। तुम
सहभागी हो
सकते हो।
तो
सजगता सीखनी
होती है भीतर।
जब तुम अपने
भीतर जाग जाते
हो, तो
तुम सारे
संसार के
प्रति, सारे
अस्तित्व के
प्रति जाग
जाते हो।
अचानक पर्दे
हट जाते हैं।
अचानक
तुम्हारी आंखें
आच्छादित
नहीं रहती—वे
शून्य, ग्रहणशील
और निर्मल हो
जाती हैं। तुम
देखते हो; तुम
आरोपित नहीं
करते, तुम
व्याख्या
नहीं करते।
आरोपित करने
के लिए
तुम्हारे पास
कुछ बचता नहीं।
तुम एक खाली
जगह, एक
अंतर— आकाश, एक आंतरिक
शून्य हो जाते
हो।
तीसरा
प्रश्न:
निराश
होने में क्या
आपके प्रति
निराश होना भी
सम्मिलित है? बिना आशा
के विकास कैसे
संभव है?
आशा बड़े से
बड़े अवरोधों
में से एक है, क्योंकि
आशा के द्वारा
स्वप्न
निर्मित होते हैं,
आशा के
द्वारा
भविष्य
निर्मित होता
है, आशा के
द्वारा समय
निर्मित होता
है। जब मैं
कहता हूं कि
आशा छोड़ दो, तो मेरा
मतलब है अभी
और यहीं जीओ।
यदि तुम आशा
करते हो, तो
अभी और यहां
से तुम हट
चुके होते हो।
तुम
आशा के द्वारा
जीवन को
स्थगित करते
हो; तुम
कहते हो, 'मैं
कल जीऊंगा, जब सब ठीक
होगा।’ जब
हर चीज जैसी
तुम चाहते हो
वैसी होगी—जब
तुम्हारे पास
पर्याप्त धन
होगा, शक्ति
होगी, रुपया
होगा, मान—प्रतिष्ठा
होगी—तब जीओगे
तुम। और तुम
आशा करते हो
कि कल सब कुछ
हो जाएगा। कल
न होगा तो
परसों हो
जाएगा। यदि इस
वर्ष न होगा
तो अगले वर्ष
हो जाएगा। और
यदि इस जीवन
में न होगा तो
अगले जीवन में
हो जाएगा!
पूरब में आशा
जहां तक फैल
सकती थी फैल
गई है—हजारों
जन्म हैं
भविष्य में!
यह मन की
चालाकी है। एक
बार तुम मन को
आशा बनाने
देते हो, तो
वह तुम्हें
खूब भटकाता है।
जीवन
है मात्र इसी
क्षण में।
जीवन का और
कोई काल नहीं
होता, उसका
केवल एक काल
होता है.
वर्तमान।
अतीत एक
स्मृति है; वह अस्तित्व
का हिस्सा
नहीं है। वह
जा चुका है; वह कहीं है
नहीं। बस मन
पर बने चिह्न
छूट गए हैं; स्मृति पर
पड़ी रेखाएं
हैं। भविष्य
भी नहीं है; वह अभी आया
ही नहीं। केवल
यह क्षण, यह
छोटा सा, आणविक
क्षण
अस्तित्व
रखता है। यदि
तुम्हें जीना
है, तो
तुम्हें इसी
क्षण में जीना
है। यदि तुम
जीवन चूकना
चाहते हो, तो
तुम आशा में
जी सकते हो।
लेकिन
जब मैं कहता
हूं 'निराशा',
तो तुम मुझे
गलत समझ सकते
हो; क्योंकि
'निराशा' से सदा ही
तुम्हारा
मतलब होता है.
जब कोई आशा असफल
होती है, तो
तुम निराश हो
जाते हो।
लेकिन जब मैं
निराशा शब्द
का उपयोग करता
हूं तो मेरा
यह मतलब नहीं
होता कि कोई
आशा असफल हुई।
मेरा मतलब है.
सभी आशाएं, आशा मात्र
असफल हो गई।
तब तुम
वस्तुत: आशा
छोड़ देते हो, और वह एक
सुंदर घड़ी
होती है। वह
कोई हताश
अवस्था नहीं
है। ऐसा नहीं
है कि तुम
उदास हो।
तुम
बहुत बार
निराश अनुभव
करते हो—कोई
आशा टूट जाती
है। तुम प्रेम
में पड़े और
स्त्री ने
धोखा दे दिया, या पुरुष
ने धोखा दिया—एक
आशा टूट गई।
लेकिन और भी
स्त्रियां
हैं, और भी
पुरुष हैं; आशा जी सकती
है। वह नए
सहारे खोज
सकती है; वह
नए भ्रम बना
सकती है। एक
भ्रम टूटता है—लेकिन
तुम भ्रम
निर्मित करना
नहीं छोड़ते।
तुम किसी
मार्ग पर चलते
हो। उसका अंत
आ जाता है; आगे
मार्ग नहीं
होता; एक
खाई आ जाती है
तुम्हारे
सामने : एक
मार्ग बंद हो
गया। लेकिन और
लाखों मार्ग
हैं सामने।
जीवन एक भूल—
भुलैया है; तुम और— और
मार्गों पर जा
सकते हो। तुम
पूरी तरह
निराश नहीं
हुए हो।
व्यक्ति
पूरी तरह
निराश हो जाता
है जब वह पूरे
जीवन को उसकी
समग्रता में
देखता है और
देखता है कि
कहीं कोई
मार्ग नहीं है, सपने
देखने को कुछ
नहीं है, आशा
करने को कुछ
नहीं है। उस
निराशा में
कहीं कोई उदासी
नहीं होती।
व्यक्ति बस
जीवन के सत्य
को जानता है
जैसा वह है।
ऐसा नहीं कि
जीवन निष्फल
हुआ, बस
व्यक्ति
देखता है : 'मेरी
आशाएं निष्फल
गईं।’ और
जीवन किसी की
आशाओं को
स्वीकार नहीं
करता। वह किसी
की आशाओं के
अनुसार नहीं
चलता, वह
किसी के सपने
पूरे नहीं
करता। जीवन असफल
नहीं हुआ; केवल
तुम्हारा आशा
करने वाला मन
असफल हो गया है।
मन काम करना
बंद कर देता
है। थोड़ी देर
तो घबड़ाहट
लगती है, हर
चीज
अस्तव्यस्त
हो जाती है; लेकिन यदि
तुम इस
अराजकता को जी
लो, तो
अचानक एक नया
जीवन
आविर्भूत
होता है तुम
में—ताजा, युवा,
इसी क्षण का।
वह
जीवन होता है—अभी
और यहां। वह
कहीं और गति
नहीं करता।
उसमें कोई
प्रयोजन नहीं
होता; वह
इच्छा—शून्य
होता है। ऐसा
नहीं कि वह
आनंदित नहीं
होता—केवल वही
आनंदित होता
है। जब कोई
इच्छा नहीं
रहती तब
तुम्हारी
संपूर्ण ऊर्जा
एक आह्लाद बन
जाती है। तुम
स्पंदित होते
हो, थिरकते
हो प्रसन्नता
से। तुम
अस्तित्व के
उस उत्सव में
सम्मिलित
होते हो जो
निरंतर चल रहा
है; जो
निरंतर
प्रवाहमान है।
तुम
इसे चूक रहे
थे तो केवल
इसीलिए
क्योंकि तुम
स्वप्न देख
रहे थे। तुम
इसके हिस्से न
थे, क्योंकि
तुमने अपनी
निजी आशाएं
बना ली थीं।
तुम मूढ़ थे, 'ईडियट' थे।’ईडियट' का
अर्थ होता है
वह व्यक्ति
जिसकी निजी
आशाएं हैं; वह जो समग्र
के साथ नहीं
बह रहा है, जो
अपने ढंग से
चलने की कोशिश
कर रहा है, जो
अपनी मर्जी को
समग्र के
विरुद्ध
चलाने की कोशिश
कर रहा है — वह
है मूढ़, 'ईडियट'। ईडियट
शब्द का मूल
अर्थ है अलग, व्यक्तिगत।
आशाएं
व्यक्तिगत
होती हैं; जीवन
समष्टिगत
होता है।
आशाएं निजी
होती हैं।
अस्तित्व
किसी एक
व्यक्ति के
लिए नहीं है।
सारे व्यक्ति
जुड़े हुए हैं
अस्तित्व से।
क्या
तुमने ध्यान
दिया कि
तुम्हारे
सपने संसार की
सबसे निजी
घटना हैं? तुम किसी
मित्र को भी
अपने सपनों
में
निमंत्रित
नहीं कर सकते
हो। तुम अपनी
प्रेमिका को
भी नहीं बुला
सकते हो अपने
सपनों में।
तुम अकेले ही
होते हो वहां।
क्यों सपनों
को झूठ माना
जाता है? क्योंकि
वे व्यक्तिगत
होते हैं। तुम
किसी और को
नहीं बुला
सकते अपने
सपनों में
गवाह की तरह, वह असंभव है।
मैंने
सुना है कि
मिस्र का एक
सम्राट फैरोह, जो कि
थोड़ा झक्की था,
जैसे कि
सम्राट करीब—करीब
होते ही हैं, थोड़े
न्यूरोटिक—एक
दिन उसने सपना
देखा और उसने
अपने सपने में
अपने एक
मंत्री को
देखा। वह बहुत
क्रोधित हुआ।
अगले दिन उसने
डुंडी पिटवा
दी सारे राज्य
में कि किसी
को उसके सपनों
में आने की
इजाजत नहीं है।
यह बिना आज्ञा
प्रवेश है; और अगर किसी
ने बिना आज्ञा
प्रवेश किया,
उसके सपनों
में आया, उसे
तुरंत फांसी
पर चढ़ा दिया
जाएगा। और
बहुत से लोग
बाद में फांसी
पर चढ़ा दिए गए,
क्योंकि वे
उसके सपनों
में आए।
तुम्हारे
सपने तुम्हारे
हैं, उनमें
कोई प्रवेश
नहीं कर सकता।
और अगर कोई
प्रवेश करता
है, तो वह
तुम्हारा
सपना ही है; ऐसा नहीं कि
उसने सच में
प्रवेश किया
है। सपने
व्यक्तिगत
होते हैं, नितांत
व्यक्तिगत।
इसीलिए वे
झूठे होते हैं।
कोई भी चीज जो
व्यक्तिगत है,
वह झूठी
होगी ही। सत्य
समष्टिगत
होता है। मैं
देख सकता हूं
इन वृक्षों को,
तुम भी देख
सकते हो इन
वृक्षों को, लेकिन मेरे
सपनों के
वृक्ष केवल
मैं ही देख सकता
हूं। मैं तुम
से नहीं कह
सकता कि आओ और
साक्षी हो जाओ।
इसीलिए सुबह
मैं स्वयं भी
अनुभव करता
हूं कि वह
केवल सपना था,
सत्य न था।
तुम्हारी
आशाएं
तुम्हारी
व्यक्तिगत आकांक्षाएं
हैं। जब तुम
निराश हो जाते
हो जब मैं
कहता हूं : 'निराश हो
जाओ, ' 'सारी
आशा गिरा दो,' तो मैं यह कह
रहा हूं कि
समग्र
अस्तित्व के
साथ बहो
व्यक्तिगत
आकांक्षाएं
मत निर्मित
करो। अन्यथा
तुम सदा दुखी
रहोगे, सदा
हताश रहोगे।
तुम्हारी
आशाएं कभी
पूरी नहीं
होंगी, क्योंकि
अस्तित्व
अपने ढंग से
चलता है।
अस्तित्व की
अपनी धारा है
अस्तित्व का
अपना गंतव्य
है। नदी जा
रही है सागर
की तरफ : और नदी
की हर बूंद कहीं
और ही जाने की
सोचे, तो
कैसे संभव है
यह बात? नदी
तो सागर की ओर
ही बहेगी। वे
बूंदें निराश
होंगी
क्योंकि वे उस
मंजिल तक नहीं
पहुंचेंगी
जिसका वे सपना
देख रही थीं।
बुद्धिमान
व्यक्ति उस
बूंद की तरह
है जो व्यक्तिगत
सपना नहीं
देखती।
सबुद्ध
व्यक्ति वह
व्यक्ति है जो
समग्र के साथ, नदी के
साथ बहता है।
वह कहता है, 'जहां तुम जा
रही हो, मैं
भी वहीं जा
रहा हूं। और
मैं क्यों
फिक्र करूं? नदी बह रही
है, तो
कहीं न कहीं
जा ही रही
होगी। यह मेरी
चिंता का विषय
नहीं है।’ बूंद
गिरा देती है
अपनी चिंता.
यही है निराशा
की घड़ी, निराकाक्षा
की घड़ी। उस
घड़ी में बूंद
नदी हो जाती
है। उस क्षण
में, अगर
गहरे देखें तो,
बूंद सागर
हो गई होती है।
उस क्षण में
बूंद समग्र
अस्तित्व हो
गई होती है।
'क्या निराश
होने में आपके
प्रति निराश
होना भी
सम्मिलित है?'
ही।
यदि तुम आशा
करने लगते हो, यदि तुम
मेरे आस—पास
आशाएं बना
लेते हो, तो
तुम अपने सपने
निर्मित कर
रहे हो। मेरा
उनमें कोई
सहयोग नहीं है।
यह बात ध्यान
में रख लेना :
मेरा
उनमें
कोई सहयोग
नहीं है, कोई हिस्सा
नहीं है। तुम
सपने और आकांक्षाएं
निर्मित कर
रहे हो, वह
तुम्हारे
निर्णय की बात
है। यदि तुम
निर्मित करते
हो, तो तुम
हताश होओगे।
अगर तुम
निर्मित नहीं
करते, तो
तुम मेरे साथ
बहने लगते हो।
यही
अर्थ है
समर्पण का, यही अर्थ
है शिष्य होने
का—सदगुरु के
साथ बहना। यदि
मैं कहता हूं 'आशाएं गिरा
दो', तो तुम
गिरा देते हो।
तुम बहते हो
मेरे साथ। यदि
तुम्हारी
व्यक्तिगत
आशाएं हैं, तो ध्यान
रहे—जब तुम
हताश होओ तो
मुझे
जिम्मेवार मत
ठहराना। मैं
जिम्मेवार
नहीं हूं।
वरना
यह बात बड़ी
आसान लगती है।
तुम उस संसार
से आते हो जहां
तुम्हें
हताशा मिली, तब तुम
मेरे आस—पास
आशा बनाने
लगते हो, इच्छाएं,
सपने
निर्मित कर
लेते हो मेरे
आस—पास। मैं
बहाना बन जाता
हूं तुम्हारे
लिए फिर से आशा
करने का। तुम
फिर आकांक्षा
करने लगते हो
उन्हीं बातो
की—अब मेरा
सहारा मिल
जाता है।
नहीं, इन सब बातो
में मैं कोई
मदद नहीं करता।
मैं केवल तभी
मदद करता हूं
यदि तुम
आकांक्षा—शून्य
होना चाहते हो,
यदि तुम आशा
मात्र को गिरा
देना चाहते हो,
यदि तुम
स्वयं को, अहंकार
को छोड़ देना
चाहते हो।
केवल उसी ढंग
से मदद कर
सकता हूं मैं।
मैं यहां किसी
की इच्छाओं और
आशाओं को पूरा
करने के लिए
नहीं हूं।
इससे पहले कि
हताशा पकड़े, उन्हें गिरा
दो; वरना
तुम नाहक मुझ
पर नाराज
होओगे। इस
विषय में सचेत
रहो; वरना
तुम्हें
लगेगा कि
मैंने
तुम्हारा समय
बेकार किया; मैंने
तुम्हारी
शक्ति नष्ट की।
यदि तुम अपने
व्यक्तिगत
लक्ष्यों तक
नहीं पहुंच
पाते, तो
निश्चित ही
तुम मुझे कभी
माफ नहीं कर
पाओगे; लेकिन
मेरा कोई लेना—देना
नहीं है उससे।
यदि
तुम तैयार हो
मेरे साथ बहने
के लिए—मैं तो
बह ही रहा हूं
समग्र
अस्तित्व के
साथ—यदि तुम
तैयार हो मेरे
साथ बहने के
लिए, तो
तुम सीख जाओगे
समग्र के साथ
बहने की कला।
तब तुम मुझे
भूल सकते हो।
अंततः गुरु को
छोड़ देना है।
गुरु, ज्यादा
से ज्यादा एक
द्वार हो सकता
है, वह
मंजिल नहीं है।
तुम गुजरते हो
उसमें से, और
तुम उसे भुला
देते हो। तुम
बहते हो समग्र
के साथ।
सदगुरु के पास,
सदगुरु की
मौजूदगी में,
तुम समग्र
के साथ बहने
की कुशलता
सीखते हो।
हां, मैं भी
सम्मिलित हूं।
जब मैं
तुम्हें
निराश होना
सिखाता हूं तो
उसमें मैं भी
सम्मिलित हूं।
मेरे आस—पास
कोई आशा मत
बना लेना। मैं
तुम्हारे
व्यक्तिगत
सपनों में, तुम्हारी
मूढ़ताओं में
कभी सहयोगी न
होऊंगा।
'बिना आशा के
विकास कैसे
संभव है?'
आशा के
जाने पर ही
विकास संभव है।
तुम विकसित
नहीं हुए
क्योंकि तुम
आशा करते रहे
हो। तुम
बचकाने बने
रहे, तुम
बच्चों जैसे
बने रहे।
बच्चा
अज्ञानी है—वह
बनाए सपने, आशाएं, भविष्य
तो ठीक है। वह
नादान है। जब
प्रौढ़ता आती
है तो सपनों
को छोड़ना ही
होता है; या
तुम सपने
देखना छोड़ते
हो और प्रौढ़ता
आती है।
प्रौढ़ता क्या
है? प्रौढ़ता
है
वास्तविकता
को देखना।
तो आकांक्षाओं
के जगत में
जीना छोड़ो।
धार्मिक लोग
भी, तथाकथित
धार्मिक लोग
भी सपनों में
जीते हैं. वे
अपने लिए
स्वर्ग की
कल्पना करते
हैं और दूसरों
के लिए नरक की।
सपने — अच्छे
सपने अपने लिए
और बुरे सपने
दूसरों के लिए।
वे भी बच्चों
जैसे हैं।
विकास
केवल तभी संभव
है, जब
कहीं कोई आशा
नहीं होती।
क्यों?
क्योंकि वही
उर्जा जो
आशाओं
में लगती है, उसी का
रूपांतरण करना
होता है। वही
ऊर्जा विकास
के लिए मुक्त
होनी चाहिए।
इसीलिए सभी
बुद्ध पुरुष
कहते हैं, 'आकांक्षा
मत करो।’ इसलिए
नहीं कि वे
विरुद्ध हैं
आकांक्षा के;
नहीं। केवल
इसलिए कि वे
विकास की
फिक्र में हैं।
और ऊर्जा आकांक्षाओं
से मुक्त होनी
चाहिए केवल
तभी वह आंतरिक
विकास बन सकती
है।
विकास
होता है
वर्तमान में
और आकांक्षा
होती है
भविष्य में—वे
दोनों कभी
मिलते नहीं।
तुम विकसित
होते हो अभी
और यहीं—कल
नहीं। वृक्ष
अभी विकसित हो
रहे हैं, और तुम सोच
रहे हो कल
विकसित होने
की। विकास सदा
होता है अभी
और यहीं। यदि
विकास संभव है,
तो वह इस
क्षण ही संभव
है। यदि वह इस
क्षण नहीं हो
रहा है, तो
अगले क्षण
कैसे हो सकता
है? कहा से
आएगा वह? क्या
आसमान से
गिरेगा? यही
क्षण आधार
बनेगा अगले
क्षण के लिए।
आज आधार बनेगा
कल के लिए। यह
जीवन आधार
बनेगा अगले
जीवन के लिए।
यदि इस क्षण
विकास हो रहा
है, तो
अगला क्षण उसी
से आएगा; तुम
अगले क्षण को
शुरू करोगे
उसी स्थल से, उसी अवस्था
से, उसी
स्थिति से और
उसी धरातल से—जहां
कि इस क्षण ने
तुम्हें छोड़ा
है। यही ढंग
है विकसित
होने का। यह
क्षण एकमात्र
क्षण है
विकसित होने
के लिए।
क्या
तुमने ध्यान
दिया कि सारे
संसार में—पौधे, पक्षी, जानवर, पहाड़—केवल
इसी क्षण, वर्तमान
क्षण का
अस्तित्व है,
और वे
विकसित हो रहे
हैं? केवल
मनुष्य सोचता
है भविष्य के
बारे में और इसी
कारण विकास
रुक जाता है।
जितना ज्यादा
तुम सोचते हो
भविष्य के
बारे में, उतनी
ही कम संभावना
होती है
विकसित होने
की। विकास का
अर्थ है : उस
वास्तविकता
के साथ संबंधित
होना जो कि इस
क्षण मौजूद है।
और कोई दूसरी
वास्तविकता
नहीं है।
'बिना आशा के
विकास कैसे
संभव है?'
विकास
केवल बिना आशा
के ही संभव है।
मैं
समझता हूं
तुम्हारी
मुश्किल। तुम
कह रहे हो, 'यदि हम
आशा न करें, तो हम विकास
के विषय में
भी आशा नहीं
करेंगे। तो
कैसे होगा
विकास अगर हम
आशा न करें और
इच्छा न करें?'
विकास
के लिए
तुम्हारी
आशाओं, तुम्हारी
इच्छाओं की
जरूरत नहीं है।
विकास के लिए
तुम्हारी समझ
की जरूरत है; विकास के
लिए तुम्हारी
सजगता की
जरूरत है।
सजगता काफी है।
जो कुछ घटित
हो रहा है, यदि
तुम उसके
प्रति सजग हो
इस क्षण में, तो वह सजगता
सूरज की रोशनी
बन जाती है, और तुम्हारी
अंतस सत्ता का
वृक्ष विकसित
होने लगता है।
वह सजगता बन
जाती है बरसा
का पानी, और
तुम्हारी
अंतस सत्ता का
वृक्ष बढ़ने
लगता है। वह
सजगता बन जाती
है खाद पोषण।
विकास के लिए
केवल सजगता की
जरूरत है।
व्यक्ति
विकसित होता
है सजगता से—आशाओं
से नहीं।
चौथा
प्रश्न :
आपने
कहा कि आप
लोगों पर 'काम' नहीं
करते तो फिर
शिष्य बनाने
का क्या अर्थ
है?
सदगुरु एक
कैटेलिटिक
एजेंट है; वह कुछ
करता नहीं, फिर भी उसके
द्वारा बहुत
कुछ होता
है। वह
कर्ता नहीं
होता बल्कि एक
मौजूदगी होता
है जिसके आस—पास
चीजें घटित
होती हैं।
क्या तुम
सोचते हो कि
सूर्य उगता है
और काम करने
लगता है लाखों—लाखों
वृक्षों पर? प्रत्येक
फूल के पास
आता है और उसे
खिलने के लिए
फुसलाता है? प्रत्येक
कली के पास
आता है और उसे
खोलता है? प्रत्येक
जड़ तक आता है
और पोषित करता
है? नहीं।
सूर्य को तो
पता भी न होगा;
फिर भी
वृक्ष बढ़ते
हैं, कलियां
खिलती हैं, फूल अपनी
सुवास
बिखेरने लगते
हैं, पक्षी
गीत गाने लगते
हैं—सारा
संसार जाग
जाता है।
सूर्य कैसे
काम करता है? क्या सूर्य
कर्ता है?
मैंने
एक बहुत
पुरानी कहानी
सुनी है कि एक
बार अंधेरा
परमात्मा के
पास पहुंचा और
कहने लगा, 'अब तो
बहुत हुआ।
मैंने कोई
अपराध नहीं
किया—मेरी
जानकारी में
तो नहीं किया—तो
क्यों आपका यह
सूर्य मेरे
पीछे पड़ा रहता
है? निरंतर,
रोज, लाखों—लाखों
वर्षों से
मेरे पीछे पड़ा
है। मैं
शिकायत करने
आया हूं। और
मैंने तो
सूर्य का कुछ
बिगाड़ा नहीं।
वह क्यों पीछे
पड़ा हुआ है
मेरे?'
परमात्मा
को भी मानना
पड़ा. 'बात तो सच है,
क्यों वह
तुम्हारे
पीछे पड़ा है?' सूर्य को
बुलाया गया, और परमात्मा
ने पूछा, 'क्यों
तुम अंधेरे को
परेशान कर रहे
हो? क्यों
तुम उसके पीछे
पड़े हो?'
सूर्य
ने कहा, 'मैंने तो
अंधेरे के
बारे में कभी
कुछ सुना ही नहीं।
आप क्या कह
रहे हैं? मेरी
तो कभी अंधेरे
से मुलाकात भी
नहीं हुई। मैं
तो उसे जानता
भी नहीं। पीछा
करने का तो
प्रश्न ही
नहीं उठता!
मैं तो परिचित
तक नहीं। उससे
मेरा परिचय भी
किसी ने नहीं
कराया। कृपया
उसे मेरे
सामने बुलाएं
ताकि मैं देख
तो सकूं कि यह
अंधेरा है कौन,
और फिर मैं
याद रखूंगा और
पीछा नहीं
करूंगा उसका।’
कहा
जाता है कि
सर्वशक्तिमान
परमात्मा भी
ऐसा नहीं कर
सका कि अंधेरे
को सूर्य के
सामने ले आए।
इसलिए वह
मामला फाइल
में ही अटका
हुआ है, और परमात्मा
किसी ऐसे उपाय
पर विचार कर
रहा है जिससे
सूर्य और
अंधकार अदालत
में आमने—सामने
हो सकें।
लेकिन ऐसा
लगता नहीं कि
वह कोई उपाय
खोज पाएगा, क्योंकि जब
सूर्य होता है,
अंधकार
नहीं होता।
ऐसा नहीं है
कि सूर्य पीछे
पड़ा है या कुछ
कर रहा है।
उसकी
उपस्थिति
काफी है।
सदगुरु
एक कैटेलिटिक
एजेंट है। इस 'कैटेलिटिक'
शब्द को
अच्छी तरह समझ
लेना है।
विशान ने
कैटेलिटिक
एजेंट खोजे
हैं।
कैटेलिटिक
एजेंट वह
पदार्थ है जो
किसी प्रक्रिया
के लिए, किसी
रासायनिक
प्रक्रिया के
लिए बहुत
जरूरी होता है,
लेकिन
कैटेलिटिक
एजेंट स्वयं
कोई हिस्सा नहीं
लेता
प्रक्रिया
में। सिर्फ
उसकी मौजूदगी
चाहिए।
उदाहरण के लिए
: आक्सीजन और
हाइड्रोजन
मिलते हैं और
पानी बनता है,
लेकिन
विद्युत
चाहिए
कैटेलिटिक
एजेंट की तरह।
यदि विद्युत
मौजूद नहीं
होती तो
हाइड्रोजन और
आक्सीजन नहीं
मिलते, और
विद्युत कुछ
करती नहीं—बस
उसकी मौजूदगी
जरूरी है।
बिना मौजूदगी
के वह बात
घटित नहीं
होती, और
विद्युत इस
घटना में कुछ
करती नहीं। वह
किसी भी भांति
नए तत्व में
प्रवेश नहीं
करती। वह केवल
मौजूद होती है।
कैटेलिटिक
एजेंट एक वैज्ञानिक
शब्द है, लेकिन
बहुत सुंदर है।
सदगुरु
को कुछ करना
नहीं होता है; वह कर्ता
नहीं होता है।
मात्र उसकी
मौजूदगी —यदि
तुम प्रवेश
करने दो उसकी
मौजूदगी को।
यह शिष्य पर
निर्भर करता
है। और शिष्य
होने का यही
अर्थ है कि
तुम प्रवेश
करने देते हो,
कि तुम
सहयोग करते हो,
कि तुम
ग्रहणशील
होते हो—कि अब
तुम
कोई
बाधा खड़ी नहीं
करते मौजूदगी
के प्रवेश करने
में। गुरु
स्वयं कुछ
करता नहीं है।
उसकी मौजूदगी
ही काम करती
है—कुछ होने
लगता है। यदि
शिष्य खुला
हुआ है, तो कुछ होने
लगता है।
शिष्य
जरूर
अनुगृहीत
अनुभव करेगा
सदगुरु के प्रति, क्योंकि
उसके बिना यह
करीब—करीब
असंभव ही है।
लेकिन सदगुरु
सदा जानता है
कि उसने कुछ
नहीं किया। तो
यदि तुम जाओ
सदगुरु के पास
और कहो, 'आपकी
बहुत कृपा है।’
तो वह कहेगा,
'परमात्मा
की कृपा है।
मैंने कुछ
किया नहीं।’ यदि गुरु
कहे, 'मैंने
किया है', तो
वह गुरु नहीं
है, क्योंकि
वह 'मैं' ही बता देता
है कि वह गुरु
नहीं है। वह
तुम्हारे लिए
कैटेलिटिक
एजेंट नहीं हो
सकता। वह
सोचता है कि
वह कर्ता है; और कर्ता
कैटेलिटिक
एजेंट नहीं हो
सकता।
गुरु
तो केवल एक
मौजूदगी है
तुम्हारे आस—पास, तुम्हें
घेरे रहता है
बादल की भांति।
यदि तुम उसे
भीतर आने देते
हो, तो वह
प्रवेश कर
जाता है
तुम्हारे
अंतरतम केंद्र
में। ऐसा नहीं
कि वह प्रवेश
करता है; तुम
आने देते हो
उसे—बस ऐसा
घटता है। और
उस क्षण में
जब शिष्य खुला
होता है और
गुरु मौजूद
होता है : एक
परिवर्तन
घटता है। उसे
आमूल रूपातरण
कहना बेहतर
होगा—एल्केमिकल
म्यूटेशन—शिष्य
भी तिरोहित हो
जाता है, वैसे
ही जैसे गुरु
तिरोहित हो
चुका है।
अहंकार खो
जाता है।
शिष्य भी
अकर्ता हो
जाता है। अब
वह दूसरों के
लिए मौजूदगी
की भांति काम
कर सकता है।
अब वह गुरु हो
सकता है।
सारिपुत्त, बुद्ध का
एक शिष्य, एक
दिन बुद्ध की
उपस्थिति में
डूब गया और उसने
बुद्ध को अपने
अंतरतम
केंद्र में
उतरने दिया।
वह बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
गया। तत्क्षण
बुद्ध ने कहा,
'सारिपुत्त,
अब मेरे पास
रुके रहने की
कोई जरूरत
नहीं। अब जाओ।
दूर—दूर प्रांतो
में जाओ। बहुत
लोग प्यासे
हैं। अब
तुम्हारे पास
पानी है उनकी
प्यास बुझाने
के लिए।’ सारिपुत्त
ने देखा चारों
तरफ। क्या हुआ?
उसने कहा, 'आप क्या कह
रहे हैं? मुझे
कहीं मत भेजिए।’
बुद्ध ने
कहा, 'तुम्हें
पता नहीं है
कि क्या हो
गया है। अब
तुम्हें मेरी
मौजूदगी की
जरूरत नहीं है।
अब तुम स्वयं 'एक मौजूदगी
हो सकते हो
दूसरों के लिए
: घटना घट गई है।
मैंने कुछ
नहीं किया, तुमने कुछ
नहीं किया, और बात हो गई
है।’
यदि
शिष्य में
बहुत ज्यादा
कर्ता— भाव है, तो घटना
नहीं घटेगी।
यदि गुरु में
बहुत ज्यादा
कर्ता— भाव है,
तो वह गुरु
नहीं है। जब
शिष्य तैयार
होता है खुलने
के लिए—और
सदगुरु होता
है सदगुरु—तो
घटना घट जाती
है। यह एक
प्रसाद है। यह
बिना किसी के
कुछ किए ही
घटता है।
इसीलिए हम
भारत में इसे 'प्रसाद' कहते
हैं। अचानक
परमात्मा उतर
आता है, अचानक
परमात्मा काम
करने लगता है।
इसीलिए
मैं कहता हूं
कि मैं काम
नहीं करता लोगों
पर, और
फिर भी मैं
शिष्य बनाता
हूं।
पांचवां
प्रश्न :
सुखद
अनुभूति के
लिए मनुष्य
सदा गर्भ जैसी
स्थिति की
तलाश में रहता
है। हम सब को
आपके साथ बहुत
अच्छा लगता है
क्या हमें
गर्भ मिल गया
है?
निश्चित ही।
गुरु और कुछ
नहीं है सिवाय
एक गर्भ के :
उसके द्वारा
तुम दोबारा
जन्म लेते हो।
तुम मरते हो
उसमें; तुम मिटते
हो उसके साथ; सदगुरु सूली
भी है और
पुनरुज्जीवन
भी।
यही है
जीसस की कहानी
का अर्थ : तुम
मरते हो उसमें, और तुम
फिर जन्म लेते
हो उससे। गुरु
एक गर्भ है।
एक गर्भ होता
है—मां का
गर्भ। दूसरा
गर्भ होता है—गुरु
का गर्भ। मां
भेजती है
तुम्हें इस
संसार में; गुरु भेजता
है तुम्हें
इसके पार।
सदगुरु भी मां
है।
छठवां
प्रश्न :
आप
अपने साथ
हमेशा एक
नैपकिन क्यों
लिए रहते हैं
जब कि उसकी
कोई भी जरूरत
नहीं है?
यह
प्रतीकात्मक
है : कि मैं
अपने नैपकिन
की भांति ही
अनुपयोगी हूं।
मैं उपयोगिता
में विश्वास
नहीं करता हूं।
उपयोगिता
संसार की चीज
है, बाजार
की चीज है।
मैं विश्वास
करता हूं गैर—उपयोगी
चीजों में.
जैसे कि फूल।
एक फूल की
क्या
उपयोगिता है?
क्या लाभ है?
वह बिलकुल
अनुपयोगी है,
और इसीलिए
सुंदर है, अदभुत
सुंदर है।
मेरे
देखे, जीवन
प्रयोजनहीन
है। उसका कोई
प्रयोजन नहीं
है। यदि कोई
उद्देश्य
होता, प्रयोजन
होता, तो
जीवन इतना
सुंदर नहीं हो
सकता था।
प्रयोजन सदा
असुंदरता
निर्मित कर
देता है।
प्रयोजन
तुम्हें
उपयोगी
वस्तुएं देता
है—आनंद नहीं।
प्रयोजन
तुम्हें
फैक्टरियां
देता है—मदिर
नहीं। जीवन
कोई फैक्टरी
नहीं है, वह
मंदिर है।
मंदिर का क्या
उपयोग है?
पूरब
में प्रत्येक
गांव में एक
मंदिर होता है; कम से कम
एक तो होता ही
है। ज्यादा
हों, तो
अच्छा है; वरना
एक मंदिर तो
होता ही है।
बहुत गरीब
गांव में भी
एक मंदिर जरूर
होता है। जब
पश्चिमी लोग
पहली बार पूरब
आए तो वे
विश्वास ही न
कर सके इस बात
पर, क्योंकि
गांव इतने
गरीब थे।
लोगों के पास
ढंग के घर न थे,
झोपड़ियां
ही थीं। केवल
कहने भर को ही
उन्हें घर कह
सकते थे; लेकिन
फिर भी उनके
गांवों में
सुंदर मंदिर
थे। उनके घरों
की दीवारें
पक्की न थीं, बांसों की
दीवारें थीं,
लेकिन
परमात्मा के
लिए सुंदर
संगमरमर की
दीवारें, संगमरमर
के फर्श। छोटे—छोटे
मंदिर, लेकिन
फिर भी सुंदर।
उन्हें भरोसा
नहीं आता था—जब
लोग इतनी
गरीबी में जी
रहे हैं, तो
फायदा क्या है
ऐसे सुंदर—सुंदर
मंदिर बनाने
का?
पूरब
में हमने सदा
अनुपयोगिता
में विश्वास किया
है। कोई रह
सकता है घर
में, वह
एक उपयोगिता
की चीज है।
परमात्मा
नहीं रहता
मंदिर में; वह मंदिर के
बिना रह सकता
है। यदि मंदिर
न होता, तो
संसार में कुछ
कमी न होती।
संसार का कुछ
लाभ नहीं हुआ
है मंदिर से।
लाभ होता है
फैक्टरी से, अस्पताल से,
स्कूल से—मदिर
से नहीं।
मंदिर तो एकदम
अनुपयोगी है।
इसलिए
जब
कम्युनिस्टों
ने रूस पर
अधिकार जमा
लिया, तो
उन्होंने
सारे मंदिर, सारे चर्च
मिटा दिए—उन्होंने
बदल दिया
उन्हें
फैक्टरियों
में, स्कूलों
में, अस्पतालों
में, इसमें—उसमें—क्योंकि
कम्युनिस्ट
विश्वास करता
है उपयोगिता
में। वह फूलों
में विश्वास
नहीं करता है।
वह काव्य में
विश्वास नहीं
करता है, वह
विश्वास करता
है गद्य में, तर्क में।
मैं
विश्वास करता
हूं काव्य में।
मैं तर्क की
जरा भी परवाह
नहीं करता; मैं एकदम
अतर्क्य हूं।
और मैंने जीवन
के सौंदर्य को
जाना है
अतर्क्य के
द्वारा, तर्कातीत
के द्वारा।
हृदय द्वारा
मैंने देखा है
जीवन के मंदिर
को। और मैं
कहता हूं तुम
से, यदि
तुम परमात्मा
की तलाश अपनी
फैक्टरियों
में करते रहे,
तो तुम उसे
कभी न पाओगे।
यदि तुम
परमात्मा की
तलाश
अस्पतालों
में और स्कूलों
में करते रहे,
तो तुम उसे
चूक जाओगे सदा—सदा
के लिए, क्योंकि
परमात्मा कोई
उपयोगिता
नहीं है। भारत
में तो इस
संसार को भी
हम उसकी
सृष्टि नहीं
कहते हैं—हम
इसे उसकी लीला
कहते हैं।
लीला
प्रयोजनरहित
होती है; वह
खेल भी नहीं
है। वह अपने
साथ ही आख—मिचौनी
की लीला करता
रहता है—कोई
प्रयोजन नहीं
है। होना ही
एकमात्र आनंद
है। उसका अपने
आप में मूल्य
है। मूल्य
प्रयोजन में
नहीं है; मूल्य
तुम में है।
तुम
ठीक कहते हो.
मैं अपने साथ
हमेशा नैपकिन
क्यों लिए
रहता हूं? बिलकुल
प्रयोजनरहित
बात है। मैं
भी नहीं जानता
कि क्यों, लेकिन
मैं उसे साथ
रखता हूं। वह
एक प्रतीक है—अतर्क्य
का।
सातवां
प्रश्न :
मैं
बिलकुल बेकार
हो गया हूं अब
मैं अपनी
आर्थिक
स्थिति के
संबंध में
क्या करूं? क्या मैं
दूसरों के
खर्च पर ही
जीऊं?
अगर तुम सच
में बिलकुल
बेकार हो गए
हो, तो
तुम उपलब्ध हो
गए; अब
पाने को कुछ
बचा नहीं। और
अगर तुम सच
में बिलकुल
बेकार हो गए
हो, तो फिर
तुम परवाह
नहीं करोगे
अपनी आर्थिक
स्थिति के
विषय में। जब
भी कोई बिलकुल
बेकार हो जाता
है तो अस्तित्व
ध्यान रखता है।
अभी भी, उपयोगिता
के संसार की
कोई न कोई बात
जरूर तुम्हारे
मन में है; इसीलिए
यह प्रश्न उठ
रहा है। अगर
तुम सच में ही
बेकार हो गए
होते, तो
तुम फिक्र न
करते इसकी; तुम अगले
क्षण रहोगे या
नहीं रहोगे, इस बात की
तुम्हें कोई
चिंता न होती,
अगर तुम सच
में बेकार हो
गए होते।
तुम
क्यों फिक्र
करते हो? यदि
अस्तित्व को
तुम्हारी
जरूरत होगी
अपनी आख—मिचौनी
की लीला के
लिए, तो वह
रखेगा ध्यान।
इसीलिए जीसस
अपने शिष्यों
से कहते थे, 'जरा बगीचे
में खिले लिली
के फूलों को
तो देखो : वे कोई
कठिन श्रम
नहीं करते, उन्हें कोई
चिंता नहीं कल
की—और जितना
सम्राट
सोलोमन अपने
पूरे ऐश्वर्य
में सुंदर रहा
होगा, वे
उससे भी
ज्यादा सुंदर
हैं।’ जीसस
कहते थे, 'कल
की मत सोचो।’
एक बार
तुम सच में ही
बेकार हो जाते
हो, तो
तुम समर्पण कर
देते हो
परमात्मा को।
और अगर तुम
समर्पित हो
जाते हो, तो
तुम नहीं
पूछोगे, 'क्या
मैं दूसरों के
खर्च पर ही
जीऊं?' फिर
दूसरा कौन है?
फिर कोई
दूसरा नहीं है।
तब तुम्हारी
जेब दूसरों की
जेब है और
दूसरों की
जेबें
तुम्हारी जेब
हैं। दूसरा
दूसरा है
अहंकार के
कारण—क्योंकि 'मैं' है
इसीलिए दूसरा
है। यदि मैं
ही न रहा तो
कौन दूसरा
होगा?
मैं
वर्षों से
दूसरों के
खर्च पर जी
रहा हूं; और मैं
उन्हें
धन्यवाद भी
नहीं कहता हूं।
क्योंकि अपने
को ही धन्यवाद
देने का अर्थ
क्या है? मूढ़ता
की बात लगेगी।
मैं अपने ढंग
से आनंद मना
रहा हूं और
अगर सारे अस्तित्व
की मर्जी है
कि मैं यहां
रहूं तो मैं
यहां रहूंगा।
अगर उसकी
मर्जी होगी कि
मैं न रहूं कि
मेरी कोई
जरूरत नहीं है,
तो वह मुझे
उठा लेगा। यह
उसकी चिंता है।
और अगर वह
चाहता है कि
मैं यहां बना
रहूं तो वह
किसी के मन
में यह विचार
डाल देगा कि
मुझे कुछ दिया
जाए। यह उसके
निर्णय की बात
है। और अगर
तुम मुझे कुछ
देते हो, तो
वही दे
धन्यवाद। मैं
क्यों दूं
तुम्हें धन्यवाद?
मैं बीच में
कहीं नहीं आता।
मैंने कभी
किसी को
धन्यवाद नहीं
दिया, क्योंकि
यह बात मूढ़ता
की लगती है।
मैं जिस
बात से आनंदित
होता हूं वह
मैं करता हूं।
अगर किन्हीं
को इससे लाभ
मिलता हो, तो
उन्हें एहसान
मानने की कोई
जरूरत नहीं।
यह मेरा आनंद
है। मैं बोलता
हूं तुम से; यह मेरा
आनंद है। ऐसा
नहीं है कि
मैं तुम्हारी
मदद करने की
कोशिश कर रहा
हूं—यह मेरा
आनंद है। अगर
तुम मेरी
फिक्र करते हो,
तो वह
तुम्हारा
आनंद है। एक
प्रकार से मैं
तुम्हारी
जरूरतें पूरी
कर देता हूं? तुम मेरी
जरूरतें पूरी
कर देते हो।
बात खतम। कौन
किसके प्रति
अनुगृहीत है,
इस विषय में
बात करने में
कुछ सार नहीं।
यह
अस्तित्व
अखंड है। यह 'दूसरे' की अनुभूति
इसी कारण है
क्योंकि 'तुम'
हो। यदि तुम
तिरोहित हो
जाते हो, तो
दूसरा भी
तिरोहित हो
जाता है।
और फिर, अगले
क्षण की फिक्र
करने में कुछ
सार नहीं है।
यह क्षण
पर्याप्त है।
यह क्षण
पर्याप्त है
अपने आप में।
आठवां
प्रश्न :
आपके
पास आने के
पहले जब मैं
मादक द्रव्य
लेता था तो
मैं सदा
अस्तित्व के
साथ ज्यादा एक
अनुभव करता था
छह महीने आपके
साथ रहने के
बाद जब मैने
कभी मादक
द्रव्य लेना
चाहा तो ठीक
विपरीत अनुभव
हुआ : पत्थर की
तरह संवेदनहीन
होकर मैने
ज्यादा खंड—
खंड अनुभव किया
क्या आप इस
घटना को
स्पष्ट करोगे?
स्पष्ट करने की
कोई जरूरत
नहीं है। यह
तो स्वयं
स्पष्ट है।
यदि तुम
न्यूरोटिक हो, तो मादक
द्रव्य
तुम्हें
स्वास्थ्य की
एक झलक देंगे,
एक होने की
झलक देंगे।
यदि तुम खंड—खंड
हो तो मादक
द्रव्य
तुम्हें अखंड
होने का, अविभाजित
होने का सपना
देंगे। लेकिन
यदि तुम ध्यान
करते हो तो
तुम सच में ही
एक हो जाते हो।
तब मादक
द्रव्य मदद न
करेंगे। यदि
तुम ध्यान
करते हो, तो
अखंडता का बोध
हो जाता है; तब सपने का
कोई उपयोग न
रहेगा। असल
में तब मादक
द्रव्य लेना
विनाशकारी
बात होगी :
उनके द्वारा
तुम खंड—खंड
अनुभव करोगे।
इसीलिए
मैं कहता रहा
हूं : जो लोग
मादक
द्रव्यों के
पीछे भाग रहे
हैं उन्हें
असल में ध्यान
की तलाश है—वे
गलत दिशा में
तलाश कर रहे
हैं। उनकी
तलाश बिलकुल
ठीक है, उनकी दिशा
गलत है। मैं
उनके विरुद्ध
नहीं, क्योंकि
वे खोजी हैं, उनमें प्यास
पैदा हो चुकी
है, लेकिन
वे चल रहे हैं
गलत दिशा में।
उन्हें सही
दिशा की ओर ले
जाया जा सकता
है।
उन्हें
ध्यान की दिशा
में ले जाने
के लिए और लोगों
की मदद की
जरूरत है। कोई
सरकार कोई
राज्य उनका
दमन नहीं कर
सकता है, यह असंभव है।
जितना अधिक
उनका दमन होगा,
उतना अधिक
वे आकर्षित
होंगे मादक
द्रव्यों की
ओर। जितने
ज्यादा वे
न्यूरोटिक
होंगे, उतनी
ज्यादा मादक
द्रव्यों की
जरूरत होगी।
केवल
ज्यादा ध्यान—मंदिरों
से, संसार
भर में ज्यादा
ध्यान—प्रक्रियाओं
से, ज्यादा
ध्यान में डूबे
लोगों से ही
मदद संभव है।
जब तुम ध्यान
करते हो, तो
तुम सही दिशा
में बढ़ने लगते
हों—देर— अबेर
मादक द्रव्य
अपने आप ही
छूट जाएंगे।
उन्हें छोड़ने
की जरूरत नहीं
पड़ेगी; वे
अपने आप छूट
जाएंगे।
यह ऐसा
ही है जैसे
तुम पत्थर लिए
घूम रहे हो, रंगीन
पत्थर—और फिर
अचानक मैं
तुम्हें असली
हीरे दे देता
हूं। तो क्या
तुम उन रंगीन
पत्थरों को
अपने हाथों में
लिए रहोगे? क्या उन्हें
छोड़ने के लिए
तुम्हें कोई
प्रयास करना
पड़ेगा? तुम
तो बस पाओगे
कि वे छूट गए.
मुट्ठियां
खुल जाएंगी और
पत्थर गिर
जाएंगे, क्योंकि
अब हीरे
उपलब्ध हैं।
और अब यदि तुम
उन पत्थरों को
पकड़े रहना
चाहते हो, तो
तुम्हें हीरे
छोड़ने पड़ेंगे।
तो
स्पष्ट करने
की कोई जरूरत
नहीं है। यह
बात स्वयं
स्पष्ट है।
नौवां
प्रश्न:
आपने
कहा 'जीवन
एक कहानी है
अस्तित्व की
मौन शाश्वतता
में।' तो
फिर मनुष्य
क्या है?
कहानी कहने
वाला एक जानवर।
अरस्तु
ने मनुष्य की
व्याख्या
रेशनल बीइंग, तार्किक
प्राणी की तरह
की है। लेकिन
मनुष्य
तार्किक नहीं
है; और यह
अच्छा है कि
वह तार्किक
नहीं है।
मनुष्य
निन्यानबे
प्रतिशत
अतार्किक है;
और अच्छा है
कि वह ऐसा है, क्योंकि
अतर्क्य से ही
वह सब आता है
जो सुंदर है
और प्रीतिकर
है। तर्क से
आता है गणित, अतर्क्य से
आता है काव्य;
तर्क से आता
है विज्ञान, अतर्क्य से
आता है धर्म; तर्क से आता
है बाजार, धन,
रुपया, डॉलर्स,
अतर्क्य से
आता है प्रेम,
गीत, नृत्य।
नहीं, यह
अच्छा है कि
मनुष्य
तार्किक
प्राणी नहीं है,
मनुष्य
अतार्किक है।
मनुष्य
की बहुत सी
परिभाषाएं की
गई हैं। मैं
कहना चाहूंगा
: मनुष्य
कहानी गढ़ने
वाला प्राणी
है। वह मिथक
निर्मित कर
लेता है—मनगढ़त
किस्से—कहानियां।
सारे पुराण
कहानियां हैं।
मनुष्य जीवन
के विषय में, अस्तित्व
के विषय में
कहानियां
निर्मित कर लेता
है।
मनुष्यता
के प्रारंभ से
ही मनुष्य
निर्माण करता
रहा है सुंदर
पुराणों का।
वह निर्मित
करता है
परमात्मा। वह
निर्मित करता
है यह बात कि
परमात्मा ने
संसार को
बनाया; और वह गढ़ता
रहता है सुंदर—सुंदर
कहानियां। वह
कल्पनाएं
बुनता रहता है,
वह नई—नई
कहानियां
अपने चारों ओर
गढ़ता रहता है।
मनुष्य
कहानियां
गढ़ने वाला
प्राणी है; और जीवन
एकदम उबाऊ हो
जाएगा यदि
उसके आस—पास
कोई कहानी न
हो।
आधुनिक
युग की तकलीफ
यही है : सारी
पुरानी प्रतीक—कथाएं
गिरा दी गई
हैं। नासमझ
बुद्धिवादियों
ने बहुत
ज्यादा विरोध किया
उनका। वे खो
गईं, क्योंकि
यदि तुम
प्रतीक—कथा के
विपरीत तर्क
करने लगते हो,
तो प्रतीक—कथा
तर्क से नहीं
समझी जा सकती।
वह तर्क के
सामने नहीं
टिक सकती। वह
बहुत नाजुक
होती है; वह
बहुत कोमल
होती है। यदि
तुम उसके साथ
लड़ने लगते हो
तो तुम उसे
नष्ट कर देते
हो, लेकिन
उसके साथ तुम
मानव—हृदय की
कोई बहुत
सुंदर बात भी
नष्ट कर देते
हो। वह कल्पित
कथा ही नहीं
होती—कथा तो
केवल प्रतीक
है—गहरे में
उसकी जड़ें
हृदय में होती
हैं। यदि तुम
प्रतीक—कथा की
हत्या कर देते
हो तो तुमने
हृदय की हत्या
कर दी।
अब
संसार भर के
बुद्धिवादी, जिन्होंने
सारी प्रतीक—कथाओं
की हत्या कर
दी, अब वे
अनुभव कर रहे
हैं कि जीवन
में कोई अर्थ
न रहा, कोई
काव्य न रहा, आनंदित होने
का कोई कारण न
रहा, उत्सव
मनाने का कोई
कारण न रहा।
सारा उत्सव खो
गया है।
प्रतीक—कथाओं
के बिना संसार
केवल एक बाजार
रह जाएगा; सारे
मंदिर खो
जाएंगे।
प्रतीक—कथाओं
के बिना सारे
संबंध सौदे हो
जाएंगे, उनमें
कोई प्रेम न
बचेगा। प्रतीक—कथाओं
के बिना तुम
विराट
शून्यता के
बीच अकेले पड़
जाओगे।
जब तक
तुम बुद्धत्व
को उपलब्ध
नहीं हो जाते, तुम
कहानियों के
बिना नहीं जी
सकते; अन्यथा
तुम
अर्थहीनता
अनुभव करोगे,
और गहरी
चिंता पकड़ेगी,
और
तुम्हारे
प्राण विषाद
से घिर जाएंगे।
तुम
आत्महत्या
करने की सोचने
लगोगे। तुम
कोई न कोई
रास्ता
ढूंढने लगोगे
अपने को उलझाए
रखने का—मादक
द्रव्य, शराब,
सेक्स—ताकि
तुम भूल सको
स्वयं को, क्योंकि
जीवन तो
अर्थहीन लगता
है।
प्रतीक—कथा
देती है अर्थ।
प्रतीक—कथा और
कुछ नहीं
सिवाय एक
सुंदर कहानी
के, लेकिन
यह तुम्हें
मदद देती है जीने
में। जब तक
तुम इतने
सक्षम न हो
जाओ कि बिना
कहानी के जी
सको—यह
तुम्हें मदद
देती है
यात्रा में, जीवन—यात्रा
में। यह
तुम्हारे आस—पास
एक मानवीय
वातावरण बना
देती है, वरना
संसार तो बहुत
रूखा—सूखा है।
जरा सोचो :
भारत के लोग
नदियों के
किनारे जाते हैं,
गंगा किनारे
जाते हैं—वे
पूजा करते हैं
उनकी। वह एक
मिथक है; अन्यथा
गंगा केवल एक
नदी है। लेकिन
मिथक से गंगा
मां बन जाती
है, और जब
एक हिंदू गंगा
जाता है तो यह
उसके लिए एक तीर्थयात्रा
हो जाती है, खुशी की बात
हो जाती है।
मक्का
में पूजा जाने
वाला पत्थर, काबा का
पत्थर, पत्थर
ही है। वह एक
क्यूब—स्टोन
है, इसीलिए
उसे 'काबा'
कहा जाता है;
'काबा' का
मतलब है खूब।
लेकिन तुम
नहीं जान सकते
कि एक मुसलमान
को कैसी खुशी
होती है, जब
वह काबा जाता
है। बड़ी अदभुत
ऊर्जा उमड़ आती
है। ऐसा नहीं
है कि काबा
कुछ करता है—नहीं,
वह तो केवल
एक मिथक है।
लेकिन जब वह
अता है उस
पत्थर को, तो
उसके पांव
धरती पर नहीं
पड़ते; वह
एक दूसरे ही
संसार में, काव्य के
संसार में गति
कर जाता है।
जब वह
परिक्रमा
करता है काबा
की, तो वह
परमात्मा की
परिक्रमा कर
रहा होता है।
संसार भर के
मुसलमान जब
प्रार्थना
करने बैठते
हैं तो वे
काबा की ओर
मुंह करके
बैठते हैं।
दिशाएं अलग
होती हैं : कोई
इंगलैंड में
प्रार्थना कर
रहा है, लेकिन
मुंह रखता है
काबा की ओर, कोई भारत
में
प्रार्थना कर
रहा है, लेकिन
मुंह रखता है
काबा की ओर; कोई मिस्र
में प्रार्थना
कर रहा है, लेकिन
मुंह रखता है
काबा की ओर।
संसार भर में
मुसलमान पांच
बार नमाज पढ़ते
हैं, सारे
संसार में हर
कहीं, और
वे मुंह रखते
हैं काबा की
तरफ—काबा
संसार का
केंद्र हो
जाता है। एक
प्रतीक है, एक सुंदर
प्रतीक। उस
क्षण में सारा
संसार एक
काव्य से आच्छादित
हो जाता है।
मनुष्य
अस्तित्व को
अर्थ देता है; यही है
प्रतीक—कथा का
कुल अर्थ।
मनुष्य
कहानियां
गढ़ने वाला
प्राणी है।
फिर छोटी—छोटी
कहानियां हैं—मोहल्ले—पड़ोस
की, पड़ोसी
की पत्नी की, और बड़ी
कहानियां हैं—ब्रह्मांड
की, परमात्मा
की। लेकिन
मनुष्य को बड़ा
रस आता है
कहानियों में।
मुझे
एक कहानी बहुत
प्रीतिकर है; मैंने
बहुत बार कही
है। एक यहूदी
कहानी है.
बहुत
वर्ष पहले, बहुत
सदियों पहले
एक नगर में एक
रबाई रहता था।
जब भी नगर में
कोई
मुसीबत
आती, वह
जंगल में जाता,
कोई यज्ञ
करता, प्रार्थना
करता, अनुष्ठान
करता; और
परमात्मा से
कहता, 'मुसीबत
दूर करो। हमें
बचाओ।’ और
नगर की सदा
रक्षा हो जाती।
फिर वह
रबाई मरा; दूसरा
आदमी रबाई बना।
नगर पर मुसीबत
आई; लोग
घबडाए, इकट्ठे
हुए। रबाई गया
जंगल में, लेकिन
वह ठीक स्थान
नहीं खोज पाया।
उसे पता ही
नहीं था। तो
उसने
परमात्मा से
कहा, 'मुझे
ठीक—ठीक स्थान
पता नहीं है
जहां वह बूढ़ा
रबाई आपसे प्रार्थना
किया करता था,
लेकिन उससे
लेना—देना भी
क्या है। आप
तो वह स्थान
जानते ही हैं,
तो मैं यहीं
बैठ कर
प्रार्थना
करूंगा।’ नगर
पर कभी कोई
मुसीबत न आई।
लोग प्रसन्न
थे।
फिर यह
रबाई भी मरा; तो दूसरा
रबाई आया। फिर
नगर पर कोई
मुसीबत आई, लोग इकट्ठे
हुए। वह जंगल
में गया, लेकिन
उसने
परमात्मा से
कहा, 'मुझे
ठीक—ठीक पता
नहीं कि वह
स्थान कहां है।
अनुष्ठान, कर्म
—कांड वगैरह
कुछ मैं जानता
नहीं। मैं तो
केवल
प्रार्थना
जानता हूं। तो
कृपा करें, आप तो सब कुछ
जानते हैं, शेष विस्तार
की फिक्र न
करें। मेरी
प्रार्थना
सुनें.....।’ और
जो उसे कहना
था उसने कहा।
संकट टल गया।
फिर वह
भी मरा; और दूसरा
रबाई आया। नगर
के लोग इकट्ठे
हुए मुसीबत की
घड़ी थी, कोई
महामारी फैली
थी, और
लोगों ने कहा,
'आप
प्रार्थना
करने जंगल में
जाएं; ऐसा
ही सदा से
होता आया है।
पुराने रबाई
सदा जंगल जाते
रहे हैं।’
वह
बैठा हुआ था
अपनी
आरामकुर्सी
पर। उसने कहा, 'वहां
जाने की क्या
जरूरत है? परमात्मा
यहीं से सुन
सकता है। और
मैं कुछ जानता
नहीं।’ तो
उसने नजरें
उठाई आकाश की
ओर और कहा, 'सुनो,
ठीक स्थान
मैं जानता
नहीं, मुझे
क्रिया—कांड
के बारे में
कुछ पता नहीं—मैं
तो प्रार्थना
भी कुछ नहीं
जानता। मुझे
तो बस यह
कहानी मालूम
है कि पहला
रबाई कैसे वहॉ
जाता था, दूसरा
कैसे जाता था,
तीसरा कैसे
जाता था, चौथा
कैसे जाता था...
मैं आपसे यही
कहानी कह दूंगा—और
मैं जानता हूं
कि कहानियां
आपको प्रिय हैं।
कृपया कहानी
सुन लें और
गांव को
मुसीबत से बचा
लें।’ और
उसने पुराने
रबाइयों की
सारी कहानी कह
दी। और ऐसा
कहा जाता है, परमात्मा को
वह कहानी इतनी
पसंद आई कि
नगर की रक्षा
हो गई।
उसे
जरूर
कहानियां
बहुत प्रिय
हैं; वह
स्वयं
कहानियां
गढ़ता रहता है।
उसे प्रिय
होनी ही चाहिए
कहानियां।
उसी ने सबसे
पहले यह जीवन
की पूरी कहानी
गढ़ी।
हां, जीवन एक
कहानी है, अस्तित्व
के शाश्वत मौन
में एक छोटी
सी कहानी, और
मनुष्य है
कहानी गढ़ने
वाला प्राणी।
जब तक कि तुम
परमात्मा न हो
जाओ तुम्हें
कहानियां
पसंद आएंगी :
तुम्हें
भाएगी राम और
सीता की
कहानियां, महाभारत
की कहानियां;
तुम्हें
भाएगी यूनान
की, रोम की,
चीन की
कहानियां।
लाखों—लाखों
कहानियां हैं—सभी
सुंदर हैं।
यदि
तुम तर्क को
बीच में न लाओ, तो वे
बहुत से भीतरी
द्वारों को
खोल सकती हैं,
वे बहुत से आंतरिक
रहस्यों को
उदघाटित कर
सकती हैं। यदि
तुम तर्क करने
लगते हो, तो
द्वार बंद हो
जाते हैं। तब
वह मंदिर
तुम्हारे लिए
नहीं है।
प्रेम करो
कहानियों से।
जब तुम उन्हें
प्रेम करते हो,
तो वे अपने
रहस्यों को
खोल देती हैं।
और बहुत कुछ
छिपा है उनमें
: मनुष्यता ने
जो भी खोजा है,
वह सब छिपा
है प्रतीक—कथाओं
में। इसीलिए
जीसस, बुद्ध
कहानियों में
बोलते हैं। उन
सब को
कहानियां
प्रिय रही हैं।
अंतिम
प्रश्न :
आपने
कहा कि गुरु
को कई बार
शिष्य पर
क्रोधित भी
होना पड़ता है
और उस अवस्था में
वह अभिनय ही
कर रहा होता
है तो क्या वह
तब भी अभिनय
कर रहा होता
है जब वह हंस
कर मुस्कुरा कर
उसकी तरफ
देखता है?
गुरु तो सदा ही
अभिनय कर रहा
होता है; गुरु एक
कुशल अभिनेता
होता है। वह
जीवन को
गंभीरता से
नहीं लेता। वह
जीवन को किसी
चिंता, परेशानी
की भांति नहीं
लेता। जीवन एक
खेल है। जब वह
क्रोधित होता
है, तो वह
अभिनय कर रहा
होता है; जब
वह हंसता है, तो वह अभिनय
कर रहा होता
है। गुरु केवल
अभिनय कर सकता
है, क्योंकि
वह कर्ता नहीं
होता है जो
कुछ भी वह करता
है वह अभिनय
ही है। और यदि
तुम बहुत लगाव
बना लेते हो
अभिनय से, तो
तुम चूक जाओगे
गुरु को।
तो भूल
जाना उसके
क्रोध को और
भूल जाना उसकी
हंसी को, क्रोध के और
हंसी के पीछे
की घटना को
देखना। और
वहां तुम
पाओगे उस
वृद्ध
व्यक्ति को.
जो न हंसता है,
न क्रोधित
होता है, न
रोता है और न
बोलता है—वहा
तुम उसे पाओगे
परिपूर्ण मौन
में। वहा तुम
पाओगे बुद्ध
को—एक गहन मौन
में, एक
असीम शांति
में, विचार
का हलका सा
कंपन भी वहां
नहीं होता।
अन्यथा गुरु
हमेशा अभिनय
कर रहा होता
है।
तो
धोखे में मत
पड जाना गुरु
द्वारा।
ध्यान से
देखते रहना।
मत सुनना उसके
शब्दों को; वरना तुम
उसे कभी नहीं
देख पाओगे। उसके
मौन को सुनना।
दो शब्दों के
बीच जो खाली
जगह होती है, उसे सुनना।
दो पंक्तियों
के बीच की
खाली जगह में
उसे पढ़ना। जो
वह कहता है, जो वह करता
है, उस पर
ज्यादा ध्यान
मत देना; जो
वह 'है' उस
पर ध्यान देना।
आज
इतना ही।
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