मृत्यु
है जीवन का
केंद्रीय
तथ्य—(प्रवचन—तेरहवां)
दिनांक
3 अक्टूबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
किसी
समय एक आदमी
के पास बहुत
से पशु-पक्षी
थे। उसने सुना
कि हजरत मूसा
पशु-पक्षियों
की भाषा समझते
हैं। वह उनके
पास गया और
बहुत हठ करके उसने
उनसे वह कला
सीखी। तब से
वह आदमी अपने
पशु-पक्षियों
की बातचीत
सुनने लगा।
एक
दिन मुर्गे ने
कुत्ते से कहा
कि घोड़ा शीघ्र
ही मर जायेगा।
यह सुनकर उस
व्यक्ति ने
घोड़े को बेच
दिया ताकि
हानि से वह बच
जाये। कुछ
दिनों के बाद
उसने उसी
मुर्गे को
कुत्ते से
कहते सुना कि
जल्द ही खच्चर
मरने वाला है।
मालिक ने
खच्चर को भी
बेच दिया। फिर
मुर्गे ने कहा
कि अब गुलाम
की मृत्यु
होनेवाली है।
और मालिक ने
गुलाम को भी
वैसे ही बेच
डाला और बहुत
खुश हुआ कि
ज्ञान का
इतना-इतना फल
प्राप्त हो
रहा है। तब एक
दिन उसने
मुर्गे को कुत्ते
से कहते सुना
कि यह आदमी
खुद मर
जानेवाला है।
अब तो वह भय से
कांपने लगा।
वह दौड़ता
हुआ मूसा के
पास पहुंचा और
पूछा कि अब
मैं क्या करूं?
मूसा
ने कहा, 'जाओ और अपने
को भी बेच डालो।'
भगवान!
मेवलाना
रूमी की इस
बोध-कथा का
संदेश क्या है?
मनुष्य
पूरे जीवन में
यही कर रहा है; अपने को बेच
रहा है और
बदले में जो
पा रहा है वह बिलकुल
निर्मूल्य
है। खुद को
बेच-बेच कर तिजोड़ी
भर जाती है।
आदमी खुद खाली
हो जाता है, भरी तिजोड़ी
छोड़ जाता है।
खुद के हाथ
खाली, खुद
का जीवन खाली,
वस्तुओं का
ढेर चारों तरफ
लग जाता है।
क्या मूल्य है
इसका, क्या
अर्थ है?
मृत्यु
के क्षण में
पता चलता है
कि जो भी बहुमूल्य
था, वह हमने
कमाया नहीं।
जो भी कमाने
योग्य था उसे
हमने गंवा
दिया। हमने
कुछ नया तो
पाया नहीं, जो हम लेकर
आये थे उसे भी
खो कर जा रहे
हैं। पर तब
बहुत देर हो
गई होती है।
मृत्यु के
क्षण में कुछ
भी किया नहीं
जा सकता।
क्योंकि मौत
प्रतीक्षा न
करेगी। तुम्हारे
लिए रुकेगी
नहीं। और अगर
मौत रुक भी
जाये तो पक्का
भरोसा रखना कि
तुम फिर वही
करोगे जो तुम
जीवन भर करते
रहे थे; तुम
उसे ही दुहराओगे।
यह
सूफी बोध कथा
बड़ी बहुमूल्य
है। बहुत
पर्तें हैं
उसके अर्थ की।
एक-एक पर्त को
समझने की
कोशिश करें।
इसके पहले कि
कथा में हम प्रवेश
करें; कुछ
प्राथमिक
बातें खयाल
में ले लें।
पहली
बात कि ज्ञान
भी मिल जाये
अज्ञानी को, कुछ सार न
होगा। ज्ञान
भी मिल जाये
अज्ञानी को, तो उस ज्ञान
से भी वह वही
करेगा जो
अज्ञान से कर
रहा था। इसलिए
बाहर से मिले
हुए ज्ञान का
कोई अर्थ नहीं
है। तुम भीतर
तो अज्ञानी ही
रहोगे; ज्ञान
उधार होगा। और
अज्ञानी ही तो
ज्ञान का उपयोग
करेगा।
क्योंकि
अज्ञानी भीतर
है; तुम
अज्ञानी हो।
इसीलिए तो
कुरान, गीता,
बाइबिल सब
तुम्हारे
सामने व्यर्थ
हो जाते हैं।
ज्ञान तो
तुम्हें मिल
गया है, लेकिन
उसका तुम
उपयोग कैसे
करोगे? तुम
उससे जो भी
करोगे, वह
तुम उसके बिना
भी कर लेते।
तुम्हें
लगेगा बहुत कि
ज्ञान का बड़ा
लाभ हो रहा है, लेकिन लाभ
होगा नहीं; मृत्यु
तुम्हारे लाभ
की सारी
भ्रांति तोड़
देगी।
तुम्हारी
गीता, तुम्हारी
कुरान, तुम्हारी
बाइबिल, दो
कौड़ी की
सिद्ध होगी जब
मौत आयेगी। तब
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण कोई
तुम्हारे साथ
न पड़ेंगे। तब
तो भीतर की ही
ज्योति जग गई
हो, भीतर
ही दीये तले
अंधेरा जो है
वह मिट गया हो,
तो ही मौत
का मुकाबला हो
सकेगा।
पहली
बात: उधार
ज्ञान काम न
आयेगा। और अगर
तुमने हठ की
तो उधार ज्ञान
मिल जायेगा।
तुमने अगर जिद्द
की तो तुम बड़ा
ज्ञान इकट्ठा
कर लोगे।
ज्ञान तभी
सार्थक है जब
तुमने उसे
खोजा हो।
ज्ञान पाये
हुए का कोई
मूल्य नहीं
है। जब तुमने
उसे आविष्कृत
किया हो...!
ज्ञान
कोई मंजिल
नहीं है।
ज्ञान यात्रा
है। तुम्हें
कोई मंजिल पर
पहुंचा भी दे
तो व्यर्थ
होगा। यात्रा
से गुजरना
जरूरी है। क्योंकि
उसी गुजरने
में ही
तुम्हारे
जीवन की प्रौढ़ता
है।
छोटे
बच्चे स्कूल
में गणित करते
हैं तो किताब उलट
कर उत्तर देख
लेते हैं, जहां पीछे
उत्तर दिए
हैं। उत्तर तो
मिल जाता है, इस उत्तर का
क्या करोगे? उत्तर किसी
भी काम का
नहीं है।
क्योंकि जब तक
तुम गणित की
विधि से न
गुजरे तब तक
उत्तर निर्मूल्य
है। और बच्चे
अक्सर धोखा
देने की कोशिश
करते हैं।
क्योंकि
उत्तर पता है,
उस हिसाब से
वे विधि को
जमा लेते हैं,
लेकिन वे
हमेशा पकड़ में
आ जायेंगे।
क्योंकि उनकी
विधि में
भ्रांतियां
होंगी, भूलें
होंगी। वह
विधि सम्यक
नहीं हो सकती।
उसका उत्तर से
कोई संबंध न
होगा, जबर्दस्ती
संबंध जोड़ा
गया होगा।
असली
सवाल उत्तर
नहीं है, असली
सवाल उत्तर तक
पहुंचने की
विधि है। असली
सवाल यह नहीं
है कि तुम्हें
सत्य का
सिद्धांत मिल
जाये। असली
सवाल यह है कि
तुम कैसे उस
सिद्धांत तक पहुंचो!
क्योंकि
पहुंचने में
ही तुम्हारा
रूपांतरण है।
कीमती यात्रा
है, मंजिल
नहीं। मंजिल
तो केवल
यात्रा की
निष्पत्ति है,
अंत है, पूर्णता
है।
लेकिन
जिसने यात्रा
ही नहीं की वह
कैसे मंजिल पर
पहुंचेगा? वही धोखा हर
आदमी देने की
कोशिश कर रहा
है। इसलिए तुम
सिद्धांत रट
लेते हो, शास्त्र
कंठस्थ कर
लेते हो।
लेकिन कुछ काम
न पड़ेगा। तब
तक तुम्हें
भ्रांति भला
बनी रहे जब तक
मौत तुम्हें
नहीं झकझोरती।
जिंदगी में
तुम सपने
देखते रहो, मौत
तुम्हारे सब
सपने तोड़
देगी। जिंदगी
में तुम कागज
की नावें बना
कर बहाते रहो,
मौत उन्हें डुबा
देगी। और
जिंदगी में
तुम कितने ही
महल बनाओ कल्पना
के, मौत
सभी को भूमिसात
कर देगी।
जैसे
छोटे बच्चे
ताश के घर
बनाते हैं; हवा का छोटा
सा झोंका
उन्हें गिरा
जाता है। तुम्हारे
घर भी ताश के
घरों से
ज्यादा मजबूत
नहीं; उनकी
कोई नींव नहीं
है। और मौत का जरा
सा झोंका
उन्हें गिरा
देगा। लेकिन
तब बहुत देर
हो जायेगी, यही मुश्किल
है। जब वे गिरेंगे
तब तुम्हें
पता चलेगा, निस्सार के
साथ बंधे रहे।
लेकिन तब तक
जीवन हाथ से
जा चुका, अवसर
खो गया।
और ऐसा
अवसर तुम बहुत
बार खो चुके
हो; तुम नये
नहीं हो इस
जमीन पर। तुम
अति-प्राचीन
हो। तुम सनातन
हो। तुम सदा
आते रहे हो और
सदा वही भूल
दुहराते रहे
हो। भूल तुमने
इतनी बार दुहराई
है कि अब
तुम्हें
दुहराने के
लिए कोई श्रम
भी नहीं करना
पड़ता, अपने
आप दुहर
जाती है।
पहली
बात: ज्ञान
उधार, अज्ञान
से भी बदतर
है। उससे तो
बेहतर
अज्ञानी होना है,
कम से कम
उसमें एक सचाई
तो है। कम से
कम एक प्रामाणिकता
तो है कि मैं
नहीं जानता।
कम से कम अज्ञान
तुम्हारा तो
है, बासा
तो नहीं!
उच्छिष्ट तो
नहीं, किसी
और का तो
नहीं। कम से
कम इतना तो
तुम कह सकते
हो, यह
अज्ञान मेरा
है, निजी
है।
और
अपना अज्ञान
हो, उसे
तुमने ढांका
न हो दूसरे के
ज्ञान से, तो
आज नहीं कल
तुम्हें उसे
तोड़ना ही
पड़ेगा। क्योंकि
अज्ञान इतनी
बड़ी पीड़ा है!
इस संसार में अज्ञान
से बड़ी कोई
पीड़ा नहीं, तुम उसे
ज्यादा दिन न
झेल पाओगे; वह कांटे की
तरह चुभता
रहेगा।
तुम इस
अज्ञान को ही
तो उधार
शास्त्रों से ढांक लेते
हो। फिर चुभन
चली जाती है।
फिर तुम्हें अकड़
आ जाती है
उल्टी। पीड़ा
तो मिट ही
जाती है अज्ञान
की, ज्ञान का
दंभ आ जाता
है। बड़ा भला
लगता है कि मैं
जानता हूं।
बिना जाने, भला लगता है
कि मैं जानता
हूं। यह तुम
अपने हाथ जहर
पी रहे हो।
तुमने सभी
शास्त्रों का
उपयोग जहर की
भांति किया है,
उससे
तुम्हें जीवन
नहीं मिला।
उससे तुम्हारा
जीवन खोया है,
अवसर चूके
हैं।
इसलिए
पहली बात:
उधार ज्ञान
व्यर्थ है, अज्ञान से
भी ज्यादा
घातक है।
दूसरी
बात: अगर उधार
ज्ञान
तुम्हें मिल
जाये तो तुम
करोगे क्या? क्योंकि
करनेवाला तो
अंधेरे में
खड़ा है। दीया
चारों तरफ
रोशनी कर रहा
होगा, करने
वाला तो खुद
दीये के नीचे
अंधेरे में
खड़ा है। तुम
जो भी ज्ञान
का उपयोग
करोगे वह घातक
होगा।
विज्ञान
इसी मुसीबत
में तो खड़ा है
आज; और सारी
पृथ्वी उस
मुसीबत से
परेशान है।
वैज्ञानिक ने
बहुत कुछ खोज
लिया है। वह
खोज भी हठयोग
जैसी है, जबर्दस्ती
की है, प्रकृति
से हठ किया है;
प्रकृति के
रहस्यों को
तोड़ डाला है।
बहुत से सत्य
हाथ में लग
गये हैं, लेकिन
सब खतरनाक
मालूम होते
हैं।
अणु-शक्ति हाथ
में लग गई है, उससे
हिरोशिमा और
नागासाकी
पैदा हुए। और
किसी भी दिन
पूरी पृथ्वी
मृत्यु में
डूब सकती है।
विज्ञान
के द्वारा
जीवन हाथ में
नहीं आया, मौत हाथ में
आई। विज्ञान
से सृजन नहीं
हुआ, विध्वंस
हुआ। विज्ञान
की सारी खोजें
अंततः अमृत
नहीं बन पा
रही हैं, मृत्यु
बनती जा रही
हैं, जहरीली
साबित हो रही
हैं। प्रकृति
नष्ट-भ्रष्ट
कर दी गई है--एक खंडहर
हो गई है
जमीन।
और
आदमी ने जो भी
जाना है वही
उसकी मुसीबत
है। जानकर तुम
बिना कुछ किए
रह भी नहीं
सकते, कुछ
करोगे ही!
विज्ञान ने
बाहर का तो
ज्ञान दे दिया,
आदमी
अंधेरे में
है। चांदत्तारों
के संबंध में
हमें ज्यादा
मालूम है, अपने
संबंध में कुछ
भी नहीं। हम छोटे
से छोटे अणु
के संबंध में
ज्यादा जानते
हैं, विराट
से विराट
परमात्मा से
हमारा सारा
संबंध टूट गया
है। क्षुद्र
का तो हमें
पता चल गया, और क्षुद्र
का पता इतना
चल गया है कि
उस पता में ही
विराट खो गया
है।
परमात्मा
का हमें कोई
पता-ठिकाना
नहीं रहा, क्योंकि वह
पता-ठिकाना तो
अपना
पता-ठिकाना हो,
तभी लगता
है। जो खुद को
ही भूल गया है,
वह
परमात्मा को
भूल जायेगा।
और तुम लाख
कोशिश करो
परमात्मा को
जानने की, जब
तक तुमने
स्वयं को ही
नहीं जाना तब
तक पहला कदम
ही नहीं
उठेगा।
विज्ञान
ने बड़ा ज्ञान
दिया है, इसमें
क्या संदेह है?
लेकिन क्या
आदमी ज्यादा
आनंदित हुआ है?
क्या लाखों
वैज्ञानिकों
के श्रम का
परिणाम यह हुआ
है कि आदमी
ज्यादा नृत्य
से भर गया हो? उसके जीवन
में ज्यादा
सुगंध आई हो? उसके जीवन
में ज्यादा
मनुष्यता फली
हो? वह
ज्यादा
परिपक्व हुआ
हो, चैतन्य-गंभीर
हुआ हो, वह
प्रेम में गहरा
उतरा हो? उसकी
प्रार्थना, अनंत के
द्वार पर चोट
करने लगी हो? उसके हाथ ने
परमात्मा के
दरवाजे पर
दस्तक दी हो?
नहीं।
विज्ञान ने
ज्ञान दिया और
आदमी और उदास हो
गया है। इतना
दुखी आदमी कभी
भी न था। आज
जितने लोग
आत्महत्या कर
रहे हैं, कभी
आदमी ने न की
थी। आज जितने
लोग बेचैन, चिंतित, परेशान
हैं, इतना
आदमी कभी भी न
था। गरीबी थी
जमीन पर, लोग
भूखे थे, लेकिन
फिर भी कुछ
आत्मा का भराव
था। एक गरिमा थी।
शरीर दीन-हीन
था, लेकिन
भीतर की रोशनी
बाहर तक आती
थी। आज शरीर तो
भरा-पूरा है, लेकिन भीतर
का दीया ऐसा
लगता है, खो
ही गया है।
तुम
मिट्टी के
दीये रह गये
हो, ज्योति
का कोई पता
नहीं चलता।
मिट्टी के
दीयों ने
तुम्हें सब
तरफ से घेर
लिया है। रोज
विज्ञान नई
जानकारी देता
जाता है, और
आदमी रोज
अंधेरे में
खोता जाता है।
कैसी यह
जानकारी है? कहीं कोई
बुनियादी भूल
हो रही है।
और वह
भूल यह है कि
प्रकृति की
भाषा को समझने
से कुछ भी न
होगा, जब तक
तुम अपने जीवन
की भाषा न समझ
लो। यह कहानी
का दूसरा अर्थ
है।
पशुओं
की भाषा को
जानने से कुछ
भी न होगा।
मनुष्य को
परमात्मा की
भाषा जाननी
होगी। और परमात्मा
की भाषा जाननी
हो तो अपने
भीतर उतरना
होगा। और पशु
की भाषा जाननी
हो, तो कहीं
से भी सीखी जा
सकती है।
प्रकृति की भाषा,
पशु की भाषा
है। और यही तो
आदमी कर रहा
है, जो उस
आदमी ने किया,
जो मूसा से
पशुओं की भाषा
सीख लिया था।
हम प्रकृति की
भाषा सीख कर
क्या कर रहे
हैं? ज्यादा
धन इकट्ठा कर
रहे हैं, बीमारियों
का विनाश कर रहे
हैं, मौत
को दूर हटा
रहे हैं; असुविधायें कम कर रहे
हैं। लेकिन सब
हो जायेगा, फिर भी तुम
मरोगे। मौत को
कितना ही दूर हटाओ, मौत
आयेगी, उससे
छुटकारा नहीं
है। और जिस
दिन मौत आयेगी,
उस दिन तुम
पाओगे कि
जिंदगी भर हम
जो भी करते रहे
उसका सार क्या
है? अर्थ
क्या है?
तीसरी
बात खयाल में
रखनी जरूरी है
और वह यह, कि
जितना ही तुम
वस्तुओं में
खो जाओगे, बाहर
खो जाओगे, दूसरों
की भाषा में
खो जाओगे, उतना
ही तुम्हें
विस्मरण होने
लगेगा कि तुम
भी हो। जितनी
ज्यादा
वस्तुएं
चारों तरफ
होंगी, तुम्हारा
ध्यान उतना ही
अपनी तरफ कम
लौटेगा।
इसीलिए
तो संन्यासी, सत्य का
खोजी, दूर
हट जाता था।
जहां उसके
ध्यान को बंटाने
के लिये कुछ
भी न हो, जहां
उसका ध्यान
सिर्फ उसको ही
जाने, कुछ
और जानने को
नहीं बचा, ध्यान
जहां भीतर लौट
सके। और इस
ज्ञान से, जिससे
वस्तुएं
निर्मित होती
हैं, धन
इकट्ठा होता
है, पद मिलते
हैं, तुम्हारे
पास बहुत
सामग्री हो
जायेगी, बड़ा
परिग्रह हो
जायेगा; लेकिन
तुम? तुम
नहीं बचोगे।
मालिक खो जाता
है; नौकर
बचते हैं।
ऐसा
हुआ, पिछले
महायुद्ध में
एक अमरीकी
युद्ध-वर्षक विमान,
एक
युद्ध-पोत पर
उतरा। दिन भर
के युद्ध के
बाद, वह
बड़ा प्रसन्न
था अमरीकी
पायलट। निकला
बाहर विमान के,
युद्ध-पोत
पर गया, चिल्लाया
जोर से कि
सुनो, आज
चमत्कार हो
गया। सात
जापानी हवाई
जहाज जमीन पर
गिरा दिए, एक
जापानी
युद्ध-पोत में
आग लगा दी, पेट्रोल
चुक गया इसलिए
उतरना पड़ा, अन्यथा दोत्तीन
हवाई जहाजों
का और सफाया
करता। भीतर
केबिन से आवाज
आई, और तो
सब ठीक है, सिर्फ
एक भूल की। और
जब भीतर से, केबिन से
आदमी बाहर आया,
तब उसे पता
चला, कि वह
जापानी
युद्ध-पोत में
उतर गया है।
तुम
जिंदगी भर सब
ठीक कर लोगे, आखिर में
तुम्हें पता
चलेगा, एक
भूल की। और वह
भूल यह होगी
कि तुमने सब
तो बचा लिया, तुम खुद को
बचाना भूल
गये। तुमने
आसपास तो सब
सुरक्षा कर ली
और भीतर ही
असुरक्षा रह
गई। बाहर तुमने
सब इंतजाम
करके दीवालें
खड़ी कर लीं
सुरक्षा की, कारागृह बना
लिया, बड़ा
पहाड़ खड़ा कर
लिया चारों
तरफ, कहीं
से कोई खतरा न
रहा। लेकिन
खतरा
तुम्हारे भीतर
से आता है।
मौत
बाहर से थोड़ी
ही आती है! मौत
तुम्हारे
भीतर से आती है।
वह तुम्हारे
साथ ही जन्मी
है, जन्म के
साथ ही तुम
उसे लेकर आये
हो; वह रोज
तुम्हारे
भीतर बढ़ रही
है। मौत कोई
दुर्घटना
थोड़ी है जो
बाहर से आकर
घटती है!
लेकिन
हमने अपने को
यही समझा रखा
है। हम मन में
यही सोचते हैं
कि मौत कोई
दुर्घटना है, जो बाहर से
घटती है। बचा
लें अपने को
तो बचा सकते
हैं। लेकिन
नहीं, तुम
बचा न पाओगे; क्योंकि मौत
भीतरी बढ़ाव
है। वह
तुम्हारे भीतर
चल रही है, वह
बड़ी हो रही है,
जैसे तुम
बड़े हो रहे
हो। तुम बच्चे
थे, वह
बच्ची थी; तुम
जवान हुए, वह
जवान हुई; तुम
बूढ़े हुए, वह
बूढ़ी हो गई।
वह तुम्हारे
साथ बड़ी हो
रही है, वह
तुम्हारे
भीतर है, तुम
बच न सकोगे।
जब तक कि तुम
अपने भीतर
अमृत को न खोज
लो, तब तक
कोई भी ज्ञान
काम नहीं आ
सकता है।
अब हम
इस कहानी को
समझने की
कोशिश करें।
किसी
समय एक आदमी
के पास बहुत
से पशु-पक्षी
थे। उसने सुना
कि हजरत मूसा
पशु-पक्षियों
की भाषा समझते
हैं। वह उनके
पास गया और
बहुत हठ करके
उसने उनकी वह
कला सीख ली।
हजरत
मूसा इस
पृथ्वी पर
थोड़े से उन
लोगों में से
हैं, जो ज्ञान
को उपलब्ध हुए
हैं। जो भी
व्यक्ति ज्ञान
को उपलब्ध हो
जाता है, उसे
प्रकृति की भाषा
आ जाती है।
कुछ ऐसा नहीं
है कि बुद्ध, महावीर और
कृष्ण को
कठिनाई थी
प्रकृति की
भाषा का
उदघाटन करने
में, लेकिन
जान कर ही उस
भाषा का
उदघाटन नहीं
किया गया।
क्योंकि जब तक
आदमी गलत है
तब तक प्रकृति
के ज्ञान से
लाभ न होकर
हानि होगी।
मूसा
को पता तो थी
पशु-पक्षियों
की भाषा; पशु-पक्षी
यानी प्रकृति,
शुद्ध
प्रकृति।
जहां आदमी की
शिक्षा और
संस्कार ने
कोई विकार
उत्पन्न नहीं
किया है। वह
भाषा तो मूसा
को पता थी, लेकिन
वे छिपाये रहे
थे, उन्होंने
कभी किसी को
बताई नहीं थी।
इस आदमी ने
बहुत हठ की।
ध्यान
रहे, जिन
चीजों को तुम
हठ से जानते
हो, उनसे
लाभ न होगा।
क्योंकि हठ का
अर्थ है जबर्दस्ती,
हठ का अर्थ
है बलात्कार,
हठ का अर्थ
है हिंसा। यह
मूसा के सामने
सिर पटक कर
बैठ गया होगा
दरवाजे पर कि
नहीं, मैं
बिना जाने न जाऊंगा।
इसने अनशन ही
कर दिया होगा
उनके द्वार पर
कि मैं
सत्याग्रह
करूंगा, मैं
तो जान कर ही जाऊंगा।
इसने बहुत
परेशान किया
होगा, इसने
बहुत आग्रह
किया होगा।
और
ध्यान रहे, सत्याग्रह
जैसी कोई चीज
नहीं होती।
क्योंकि आग्रह
सत्य की
मृत्यु है।
आग्रह का मतलब
ही है कि अभी
तुम सत्य को
जानने को
उत्सुक नहीं
हो। सत्य को
तो वही जानता
है जो निराग्रही
हो; जो
आग्रह नहीं
करता। जो कहता
है, परमात्मा
की जो मर्जी
होगी वह दे
देगा। जो सत्य
का प्रसाद की
तरह
प्रतीक्षा
करता है, आग्रह
नहीं करता।
यही तो
फर्क है धर्म
और विज्ञान
का। विज्ञान आग्रही
है। वह कहता
है, हम जान कर
ही रहेंगे; वह
हिंसात्मक है,
आक्रामक
है। और धर्म अनाग्रही
है। वह कहता
है, जब
उसकी मर्जी
होगी, वह
जना देगा। जब
मैं योग्य हो जाऊंगा, वह द्वार
खोल देगा। जब
मेरी तैयारी
होगी, तब
बाधा हट
जायेगी। जब तक
मैं तैयार
नहीं हूं तब
तक आग्रह करना
खतरनाक है।
क्योंकि मेरी गैरत्तैयारी
में मैं जो भी
आग्रह करूंगा
वह आग्रह ही
गलत होगा। मैं
जो भी मांगूंगा,
वह भ्रांत
होगा। तब तक
मैं न मांगूं,
यही अच्छा
है; कोई
अभिलाषा न
करूं, उस
पर ही छोड़
दूं।
धर्म
भी सत्य को
खोजता है, आग्रह से
नहीं, हठ
से नहीं।
इसलिए हठयोग
को मैं
धार्मिक नहीं कहता।
वह वैज्ञानिक
ढंग है। वह भी
प्रकृति से, परमात्मा से,
जबर्दस्ती
सत्य को छीन
लेने की कोशिश
है। उसमें
प्रार्थना
नहीं है, प्रयास
है। उसमें
प्रतीक्षा
नहीं है, अधैर्य
है। और नाम
हमने ठीक ही
दिया है--'हठयोग'। इसलिए हठयोगी
आदमी को महान
अहंकारी बना
देता है। और
वह अपने शरीर
का सारा उपयोग
करता है, सिर्फ
जबर्दस्ती
करने के लिए
प्रकृति के
ऊपर।
तुम
परमात्मा पर
भी आक्रमण
करने जाते हो।
तुम वहां भी
विजय की
आकांक्षा
रखते हो। तुम
हमलावर हो।
विज्ञान
हमलावर है; इसलिए
प्रकृति से
सत्य तो छीन
लेता है, लेकिन
छीनने में ही
उनका मजा चला
जाता है। तुम
ध्यान रखो, जो
जबर्दस्ती से
मिले, वह
लेने योग्य ही
न होगा।
वह ऐसे
ही है जैसे
किसी स्त्री
पर तुम हमला
कर दो, बलात्कार
कर दो और क्या
तुम सोचते हो
इस बलात्कार
से तुम्हें जो
मिलेगा, वह
स्त्री का
प्रेम है? क्या
तुम सोचते हो
इस बलात्कार
से तुम जो
पाओगे, वह
स्त्री का
सौंदर्य, प्रसाद
है? क्या
तुम सोचते हो
इस बलात्कार
से तुम्हें जो
मिल जायेगा
उसमें स्त्री
का रहस्य, स्त्री
का घूंघट उठा?
उसके हृदय
पर पड़े पर्दे
तुम्हारे लिए
खुले?
नहीं, हमने तो
प्रकृति को
स्त्री
कहा--इसी कारण
कि उसके घूंघट
को तुम खोलना,
लेकिन
आक्रामक की
तरह नहीं, एक
प्रेमी के
तरह। प्रेमी
प्रतीक्षा कर
सकता है। और
जब प्रेम से
तुम स्त्री का
घूंघट खोलते हो,
प्रकृति का
रहस्य खोलते
हो, तब मजा
और है। तब
सौंदर्य और
है। तब बात ही
बदल गई। पूरा
गुणधर्म बदल
गया। कोई
तुमसे छीन ले,
झपट ले; और
कोई तुमसे
प्रेम से
स्वीकार करे,
प्रतीक्षा
करे, राह
देखे, जब
तुम दोगे, तब
अनुगृहीत
होकर ले; दोनों
में बड़ा फर्क
है। भौतिक तल
पर कोई फर्क नहीं
है।
धर्म
और विज्ञान का
यही फर्क है।
धर्म प्रेम है, विज्ञान
बलात्कार।
इसलिए
वैज्ञानिक
दुनिया को एक
बलात्कार की
स्थिति में ले
जा रहा है। जहां
जानकारी भी है
तो भी जानकारी
में सौंदर्य
नहीं है, जहां
सत्य भी
उपलब्ध होते
हैं तो
करीब-करीब उनकी
भ्रूणहत्या
हो गई होती
है। वह ऐसे ही
है जैसे किसी
बच्चे को मां
के पेट से
जबर्दस्ती
बाहर निकाल
लिया जाये, नौ महीने तक
मौका भी न
दिया जाये। वे
सत्य अधकचरे
हैं, करीब-करीब
निष्प्राण
हैं, उनमें
जीवन का रक्त
नहीं बहता।
यह
कहानी कहती है
कि उस आदमी ने
बड़ा हठ किया।
मूसा के सामने
हठ करने की
क्या जरूरत थी?
अभी
कुछ दिन बीते
एक युवक मेरे
पास आये। और
उन्होंने कहा, मुझे तो
पिछले जन्म का
स्मरण करना
है। मैं उनको
पूछा, करके
भी क्या करोगे?
इस जीवन का
तुम्हें
स्मरण है, क्या
कर लिया? पिछले
जीवन का स्मरण
आ जायेगा, क्या
करोगे? उन्होंने
कहा, नहीं
मुझे
जिज्ञासा है।
तो
मैंने कहा कि
यह जीवन ही
तुम्हें इतनी
चिंता में डाल
रहा है, पिछला
जीवन और याद आ
जायेगा तो
चिंता बढ़ेगी,
घटेगी
नहीं। हो सकता
है तुम पाओ, जो तुम्हारी
इस जन्म में
मां है वह
पिछले जन्म
में तुम्हारी
पत्नी थी, क्या
करोगे? या
पाओ कि जो
तुम्हारी
पत्नी है इस
जन्म में, वह
पिछले जन्म
में वेश्या थी,
क्या करोगे?
फिर मेरे
पास मत आना कि
मेरी चिंतायें
बढ़र् गईं;
याद कर लेना
तो आसान है, भुलाना फिर
आसान नहीं है।
फिर मुझसे मत
कहना कि अब
इसे भुलाना है।
एक दफा द्वार
खोल लिया उस
स्मृति का, फिर क्या
होगा कहना
मुश्किल है।
और फिर एक जन्म
का ही द्वार
नहीं खुलता।
द्वार खुलता
है तो अनंत
जन्मों का खुल
जाता है; तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे।
पर वह
जिद्दी, आग्रह
करते ही रहे
कि नहीं कुछ
भी हो जाये, चाहे मैं
पागल हो जाऊं,
लेकिन मुझे
पिछला जन्म
जानना है। इस
तरह के जो हठी
लोग हैं, इनके
हठ के कारण ही
ये जो भी पा
लेंगे उससे
नुकसान ही
होगा। मैंने
कहा कि तुम एक
साल प्रतीक्षा
करो, फिर
मेरे पास आना।
वे कह कर गये, इतनी
प्रतीक्षा
मैं न करूंगा;
मैं किसी और
के पास जाकर
सीख लूंगा।
यह
आदमी खतरे में
पड़ेगा।
प्रकृति
जानकर ही तो तुम्हें
पिछले जन्म का
स्मरण नहीं
देती। जैसे ही
आदमी मरता है, एक पर्दा
गिर जाता है; नया जन्म
होता है, एक
नई यात्रा
शुरू होती है।
अन्यथा तुम
पाओगे कि इतना
बोझ है पीछे, कि उस बोझ को
तुम सह न
पाओगे, तुम
टूट जाओगे
उसके नीचे।
इस
आदमी ने मूसा
के पास जाकर
बहुत हठ किया, तो मूसा ने
कला सिखा दी।
तब से वह आदमी
अपने पशु-पक्षियों
की बातचीत
सुनने लगा। एक
दिन मुर्गे ने
कुत्ते से कहा,
'घोड़ा शीघ्र
ही मर जायेगा।'
यह सुनकर उस
व्यक्ति ने
घोड़े को बेच
दिया ताकि
हानि से बच
सके।
प्रकृति
की भाषा भी
तुम सीख लो, तुम करोगे
क्या? ज्यादा
से ज्यादा
हानि से
बचोगे। थोड़ा
ज्यादा धन
इकट्ठा कर
लोगे।
प्रकृति की
भाषा तुम सीख
लो तो करोगे
क्या? तुम
दूसरे को धोखा
दोगे, तुम
मरने वाला
घोड़ा बेचोगे।
वह चोरी है; अनजाने बेच
देता तो एक
बात थी, जान
कर बेचना
बेईमानी है।
प्रकृति की
जानकारी
तुम्हें मिल
जाये तो तुम
करोगे क्या? तुम और
चालाक और
बेईमान हो
जाओगे।
यही तो
बड़े आश्चर्य
की घटना रोज
घटती है। तुम अशिक्षित
आदमी को इतना
बेईमान न
पाओगे, जितना
शिक्षित आदमी
को। शिक्षित
आदमी बेईमान न
हो, तो
समझना कि
शिक्षा में
कुछ कमी रह
गई। शिक्षित
आदमी बेईमान
हो ही जायेगा।
क्योंकि सारी
शिक्षा का तुम
उपयोग क्या
करोगे? अपने
को हानि से बचाओगे,
दूसरे को
हानि में
डालोगे; और
क्या करोगे? चालाकी, धोखा,
यही तो है।
और शिक्षित
आदमी ज्यादा
गणित में कुशल
हो जाता है, हिसाब लगा
पाता है, आगे-पीछे
देख पाता है, जो कि
अशिक्षित
नहीं देख
पाता।
अशिक्षित ज्यादातर
क्षण में जीता
है, बीते
कल का बहुत
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
क्योंकि उतनी
बड़ी संख्या भी
उसके पास नहीं
होती। ज्यादा
से ज्यादा दस
तक उसकी गिनती
है; अंगुलियों
पर गिनता है।
अफ्रीका
में एक जाति
है, छोटा सा
कबीला है
कांगो के
किनारे।
जिसकी गणित की
संख्या में
केवल तीन अंक
हैं--एक, दो
और बहुत। बस!
तीन से ज्यादा
संख्या नहीं
है। एक, दो,
बहुत। जब
पहली दफा उस
कबीले की
खोज-बीन हुई
तो लोग बड़े
हैरान हुए कि
तुमने इतने से
काम कैसे चला
लिया? तीन
कुल संख्या!
वन, टू एंड
मेनी। पर वह
जाति रह रही
है सदा से। और
उस जाति के
कुछ लक्षण
हैं। वहां
चोरी नहीं हुई
है आज तक, क्योंकि
चोरी के लिए
थोड़ा गणित बड़ा
चाहिए। वह चोर
नहीं है, बेईमान
नहीं है, धोखेबाज
नहीं है, किसी
अदालत की कोई
जरूरत नहीं
पड़ी है। शांत
से शांत कबीला
है। गणित ही
नहीं है इतना
बड़ा कि तुम
धोखा दे सको।
बड़ा गणित
चाहिए तब तुम
बड़ा धोखा दे
सकते हो।
हिसाब चारों
तरफ का चाहिए।
जो लोग
शतरंज खेलते
हैं वे जानते
हैं कि शतरंज
में वही
जीतेगा जो कम
से कम पांच
आगे की चाल का हिसाब
रख सके; कम
से कम पांच
चाल का। अगर
मैं यह चाल
चलूं तो दूसरा
क्या चलेगा।
फिर दूसरा यह
चलेगा तो मैं
क्या चलूंगा,
फिर मैं
क्या चलूंगा
तो दूसरा क्या
चलेगा, ऐसा
जो कम से कम
पांच तक देख
सके; वही
आदमी शतरंज
में कुशल हो
सकता है। अगर
तुम उतने दूर
तक न देख सको
तो शतरंज में
नहीं कुशल हो
पाओगे।
और यह
पूरी जिंदगी
शतरंज है।
यहां सब धोखाधड़ी
चल रही है। इस धोखाधड़ी
में शिक्षित
हिसाब रख पाता
है, अशिक्षित
हिसाब नहीं रख
पाता।
अशिक्षित तर्कनिष्ठ
भी नहीं होता;
अशिक्षित जीवननिष्ठ
होता है। वह
जीना पसंद
करता है।
तर्कनिष्ठ व्यक्ति
जीने को कल पर
टालता है। वह
कहता है, आज
इंतजाम कर लूं,
कल जीऊंगा।
पहले जीने का
इंतजाम तो हो
जाये; सब
साधन सुविधा
जुटा लूं, फिर
जीऊंगा।
ग्रामीण
जीता है, तुम
जीने का
इंतजाम करते
हो। जो इंतजाम
करता है, वह
धोखा देगा, शोषण करेगा।
वह हानि से
बचेगा और
दूसरे को हानि
में डालेगा।
और ध्यान रखना,
तुम्हारे
सब लाभ किसी न
किसी की हानि
होंगे। जब तक
तुम लाभ की
भाषा में
सोचते हो, तब
तक तुम दूसरे
को हानि में
डालने की भाषा
में भी
अनिवार्यतः
सोचोगे।
क्योंकि
तुम्हारी विजय
दूसरे की हार
के बिना न
होगी।
तुम्हारी जीत
का मतलब ही यह
है कि किसी
दूसरे का महल
गिरेगा।
तुम्हारी तिजोड़ी
ऐसे ही आकाश
से न भर
जायेगी; किसी
की जेब खाली
होगी, तभी
भरेगी। इस
संसार के
हिसाब में सभी
चीजें शोषण
हैं।
इसलिए
लाभ की भाषा
में सोचनेवाला
व्यक्ति कभी
मित्रता की
भाषा में नहीं
सोच सकता, वह शत्रुता
की भाषा में
ही सोच रहा
है। तुम सब
कितना ही धोखा
दो एक दूसरे
को कि हम
मित्र हैं; तुम मित्र
हो नहीं सकते,
क्योंकि
प्रतिस्पर्धा
है। मित्रता
तो ऊपर का
दिखावा है, मुखौटा है।
वह जरूरी है।
वह एक तरह का
जीवन को चलाये
रखने के लिए, जैसा इंजिन
को चलाये रखने
के लिए, उसके
पहिए न घिस
जायें, उसके
कलपुर्जे एक
दूसरे से न टकरायें;
हम तेल
डालते हैं। उस
तेल के कारण
घिसना कम होता
है। ऐसे ही
तुम्हारी मुस्कुराहटें,
तुम्हारी मित्रतायें
तेल का काम
करती हैं
जिंदगी में, ताकि दूसरे
से टक्कर इतनी
न हो जाये कि
कठिन हो जाये।
टक्कर
तो हो ही रही
है। टक्कर तो
प्रतिपल है।
क्योंकि जहां
प्रतिस्पर्धा
जीवन का नियम है, वहां संघर्ष
तो होगा ही।
हर आदमी एक
दूसरे के गले
पर हाथ बांधे
हुए है।
तुम्हारी
जिंदगी दूसरे
की मौत पर
टिकी हुई है।
तुम्हारा लाभ
दूसरे की हानि
है।
धार्मिक
व्यक्ति क्या
करे? इस जीवन
में कुछ ऐसी
चीजें भी हैं,
जिनको तुम
बढ़ा सकते हो
और दूसरों की
हानि न होगी, बस! उन्हीं
की खोज धर्म
है।
यही
सूत्र खयाल
में रखो कि
तुम जिस चीज
को लाभ समझ
रहे हो, अगर
उससे किसी की
हानि होती है,
तो वह लाभ
झूठा है; मौत
के वक्त तुम
मुश्किल में
पड़ोगे। तुम
कुछ ऐसी चीज
खोजो जीवन में
कि तुम्हारे
लाभ से किसी
को हानि नहीं
होती, तो
तुमने धर्म का
सूत्र पकड़
लिया। और तुम
चकित होओगे कि
जिस लाभ से
दूसरे की हानि
नहीं होती, उस लाभ से
दूसरे को लाभ
भी होता है।
अगर
तुम्हारा धन
का खजाना बढ़े, तो कोई
निर्धन होगा।
लेकिन अगर
तुम्हारा प्रेम
का खजाना बढ़े
तो कोई भी
निर्धन नहीं
होगा।
तुम्हारा
प्रेम जितना
बढ़ेगा, उतना
तुम दूसरों
में भी प्रेम
बढ़ाने में
कुशल और सफल
हो जाओगे।
तुम्हारा
प्रेम का धन
किसी की प्रेम
की निर्धनता न
बनेगा।
तुम्हारी
प्रार्थना
बढ़े तो ऐसा
नहीं होगा कि
दूसरों की प्रार्थनायें
छिन जायेंगी।
उल्टा होगा; तुम्हारी
प्रार्थना बढ़ेगी तो
दूसरे और भी
ज्यादा प्रार्थनापूर्ण
हो जायेंगे।
तुम्हारा
ध्यान गहरा हो
तो ऐसा नहीं
है कि दूसरे
लोग जो ध्यान
कर रहे हैं, उनके ध्यान
में बाधा पड़
जायेगी।
तुम्हारे ध्यान
के बढ़ने से
उनके ध्यान
में भी गति
आयेगी। क्योंकि
जब कोई भी एक
व्यक्ति शिखर
की तरफ जाता
है तब उसके
चारों तरफ
तरंगें पैदा
होती हैं, जो
सभी को सहारा
बन जाती हैं।
आत्मिक-जीवन
में तुम जो भी
पाओगे वह
तुमको ही नहीं
मिलेगा, वह
सबको बंटेगा,
उसमें सभी
साझेदार
होंगे। बुद्ध
ने भी बहुत कमाया,
मूसा ने भी
बहुत कमाया, लेकिन सारा
जगत साझीदार
हुआ। तुम भी
कमा रहे हो, लेकिन बस! वह
तुम्हारे लिए
है।
मैंने
सुना है कि बालसेम
के घर एक फकीर
मेहमान हुआ।
उस फकीर की
बड़ी ख्याति
थी। दूर-दूर
तक लोग उसे
बड़ा संत मानते
थे। जब वह
फकीर मेहमान
हुआ तो बालसेम
ने अपनी पत्नी
से कहा कि 'दिस
मैन इज ए थीफ।' यह
आदमी एक चोर
है। पत्नी ने
कहा, क्या
कह रहे हो? यह
आदमी एक महान
संत है, चोर
नहीं है। बालसेम
ने कहा, 'आई
टेल यू, ही इज ए थीफ।
मैं निश्चित
तुम्हें कहता
हूं कि चोर
है। बिकॉज
ही वान्ट्स
हेवन ओनली
फॉर हिमसेल्फ।
क्योंकि वह
स्वर्ग को
सिर्फ अपने
लिए चाहता है;
यह चोर है।
इसने कभी
प्रार्थना बांटी
नहीं। यह
प्रार्थना को
भी ऐसा रखता
है जैसे लोग तिजोड़ी
में धन को
रखते हैं। यह
ध्यान को भी
ऐसा समझता है
जैसे इसकी
संपत्ति है; यह चोर है।'
बुद्ध
ने इस चोरी से
बचने के लिए
अपने भिक्षुओं
को कहा है कि
जब भी तुम
प्रार्थना
करो, तो चाहे
कभी प्रार्थना
चूक जाओ हर्ज
नहीं; लेकिन
प्रार्थना के
बाद उसे
बांटना मत
चूकना।
प्रार्थना
करना और उसके
बाद अनिवार्य
रूप से कहना
कि इस
प्रार्थना का
जो फल है वह
सारी पृथ्वी
को, सारे प्राणिमात्र
को उपलब्ध हो
जाये; उसे
अपने लिए मत
बचाने का खयाल
करना।
क्योंकि तुम्हारा
बचाने का खयाल
अगर अचेतन में
भी रहा तो
प्रार्थना
नष्ट हो गई; क्योंकि यह
प्रार्थना
कोई ऐसी संपदा
नहीं है कि
तुम अपने लिए
कर सको। यह तिजोड़ी
नहीं है; यह
खुला आकाश है।
बुद्ध
ने कहा, प्रार्थना
न करो, चलेगा।
लेकिन
प्रार्थना को
बांटना मत
भूलना।
क्योंकि बंटने
से ही प्रार्थना
बढ़ती है। यह
लाभ संसार का
नहीं है। इससे
दूसरे की हानि
नहीं होती, इससे दूसरे
को लाभ मिलता
है। और बुद्ध
ने कहा है, जितना
तुम्हारा
प्रार्थना और
ध्यान का धन बंटता
जाये, तुम
पाओगे उतना ही
धन भीतर बढ़ता
जाता है। अध्यात्म
बांटने से
बढ़ता है, संसार
बांटने से घटता
है।
एक
भिखमंगा एक
द्वार पर खड़ा
था। उसके
चेहरे से लगता
था कि कभी वह
संपन्न रहा
होगा। कपड़े
उसके फटे थे
लेकिन कीमती
थे। गृहिणी ने
उससे पूछा कि
कैसे
तुम्हारी यह
दशा हुई? क्योंकि
चेहरे से तुम
लगते हो कभी
संपन्न रहे होगे।
लाकर उसके
सामने भोजन
रखा, कपड़े
दिए। वह फकीर
चुप रहा और
चलते वक्त
उसने कहा, अब
बता ही देता
हूं कि कैसे
मेरी यह दशा
हुई। इसी तरह
हुई थी, जिस
तरह तुम कर
रही हो, तो
थोड़े ही दिन
में तुम्हारी
भी हो जायेगी।
ऐसे ही मैं
बांटता रहा, जो भी आया
उसको मैंने
बांटा; कपड़े
दिये, भोजन
दिए, और यह
दशा हो गई। तुम्हारी
भी जल्दी यही
दशा हो
जायेगी। इसी
रास्ते पर मैं
चला और फंसा।
पहले मैंने
तुम्हें नहीं
बताया
क्योंकि यह कपड़ा और
भोजन चाहिए
था। इसलिए मैं
हमेशा यह बात
बाद में बताता
हूं।
इस
संसार में तुम
बांटोगे तो लुटोगे; उस संसार
में तुम
बांटोगे तो बढ़ोगे।
यहां
तुम्हारी
हानि दूसरे का
लाभ है; यहां
तुम्हारा लाभ
दूसरे की हानि
है। उस संसार
में नियम
बिलकुल भिन्न
हैं; वहां
तुम्हारा लाभ
दूसरे का लाभ
है। दूसरे का लाभ
तुम्हारा लाभ
है। वहां
दूसरे की हानि
तुम्हारी
हानि है। वहां
तुम्हारी
हानि दूसरे की
हानि है; वहां
तुममें और
दूसरे में
अंतर नहीं है,
वहां फासले
समाप्त हो गये
हैं। वहां हम
दूसरे से मिले
हुए हैं। जो
मुझे घटता है
वह दूसरे को घटता
है, जो
दूसरे को घटता
है वह मुझे
घटता है।
अध्यात्म
और संसार के
भेद की यह
परिभाषा है। उस
चीज को तुम
संसार समझना
जिसकी कमाई से
दूसरे का
गंवाना हो जाये।
और उस पर
ज्यादा ध्यान
मत देना
क्योंकि वह
बहुत मूल्य का
नहीं है। तुम
उस चीज को
कमाने में
लगना जो दूसरे
भी तुम्हारी
कमाई के साथ
उपलब्ध करने
लगें। और
ध्यान को सदा
बांटना। चोर मत
बनना।
प्रार्थना को
सदा बांट देना
और इससे तुम
हानि में न
रहोगे, यही
बात है।
बुद्ध
के भिक्षुओं
ने जितना लाभ
उठाया ध्यान से, पृथ्वी पर
किसी के
भिक्षुओं ने
नहीं उठाया। महावीर
के मुनि उतना
लाभ नहीं उठा
सके ध्यान से,
जितना
बुद्ध के
भिक्षुओं ने
उठाया।
क्योंकि महावीर
का मुनि ध्यान
तो करता है
लेकिन चोर है।
चोर इस अर्थ
में कि बस वह
अपने लिए करता
है। उसने
बांटना नहीं
सीखा। वह
धारणा नहीं है
उसकी कि बांट
दूं। और
बांटने में
बड़ी कठिनाई
है। बांटना
खुद ही बड़ी
क्रांति हो
जाती है।
मैंने
सुना है, एक
बौद्ध भिक्षु
एक घर में
मेहमान हुआ।
भोजन के बाद
घर के लोग
इकट्ठे हुए और
उन्होंने कहा
कि हमारे लिए
कुछ संदेश। तो
उसने कहा कि
रोज ध्यान
करना और बांट
देना, सबको
मिल जाये। उस
आदमी ने कहा
कि सबको? जरा
बस, एक
सवाल है।
पड़ोसी जो मेरा
है, उसको
छोड़कर और सबको
मिल जाये, इतना
तक मैं कर
सकता हूं। यह
असंभव है कि
इसको मैं कुछ
देने की बात
सोच सकूं। उस
भिक्षु ने कहा,
तब तुम सबकी
बात ही छोड़ दो,
बस! इसको ही
देने से काम
चल जायेगा।
क्योंकि
असली सवाल
अहंकार तोड़ने
का है। अहंकार
मिटेगा कैसे? संसार
अहंकार को
बढ़ाता है; वहां
तुम्हारा लाभ
तुम्हारा लाभ
है, दूसरे
की हानि है।
इसलिए तुम यह
मत सोचना कि चोर
वे ही हैं
केवल जो
कारागृहों
में बंद हैं; तुम भी हो।
इस संसार में
होने का ढंग
चोरी है। कोई
बंद है कोई
नहीं बंद है, इससे बहुत
फर्क नहीं
पड़ता। जो
होशियार हैं
वे बाहर हैं, जो उतने
होशियार नहीं
हैं, वे
भीतर बंद हैं।
लेकिन इस
संसार का होने
का ढंग चोरी
है। प्रूधो
ने कहा है, 'वेल्थ इज थेफ्ट।'
धन चोरी है;
ठीक कहा है।
संसार चोरी
है।
इस
आदमी ने पशुओं
की भाषा सीख
ली। उपयोग
क्या किया? उपयोग इतना
ही किया कि
मुर्गे ने कहा
कि घोड़ा शीघ्र
मर जायेगा। यह
सुनकर उस
व्यक्ति ने
घोड़े को बेच
दिया ताकि
हानि से बच
सके। जिसको
बेचा उसके पास
जाकर घोड़ा मर
गया होगा। खुद
का लाभ दूसरे
की हानि बन
गई।
कुछ
दिनों बाद
उसने उसी
मुर्गे को
कुत्ते से कहते
सुना कि जल्दी
ही खच्चर मरने
वाला है। उसने
झट खच्चर भी
बेच दिया। फिर
मुर्गे ने कहा
कि गुलाम की
मृत्यु
होनेवाली है।
और मालिक ने
गुलाम को भी
वैसे ही बेच
दिया। और बहुत
खुश हुआ कि
ज्ञान का
इतना-इतना फल
प्राप्त हो
रहा है।
जिस
ज्ञान से
तुम्हारा लाभ
हो और दूसरे
की हानि हो, वह ज्ञान
नहीं है।
क्योंकि
ज्ञान तो वही
है जहां तुम
और दूसरे का
फासला मिट
जाता है। वहीं
तो मंगल की
वर्षा होती है,
वही असली
लाभ है; वही
असली धन है।
लेकिन
इस आदमी की
तरफ देखो, इसे ठीक से
पहचानो, क्योंकि
यह तुम्हीं
हो। आइने
में, जब आइने
के सामने खड़े
हो तो गौर से
देखना; इस
आदमी की झलक
तुम अपने में
पाओगे। इस
आदमी को यह
खयाल न आया कि
जिस मुर्गे की
वाणी से पता चल
रहा है कि
खच्चर मरेगा,
घोड़ा मरेगा,
गुलाम
मरेगा; इससे
मैं पूछ लूं
कि मैं मरूंगा?
यह छोटी सी
बात इसे खयाल
न आई। और इसने
देख लिया
प्रत्यक्ष कि
घोड़ा मर गया
बेचते ही, इसने
देख लिया
खच्चर मर गया
बेचते ही, इसने
देख लिया
गुलाम मर गया
बेचते ही; तब
भी इसे खयाल न
आया कि इससे
मैं अपनी मौत
की बात पूछ
लूं।
अज्ञानी
को यह खयाल
नहीं आता, सिर्फ
ज्ञानी पूछता
है अपनी
मृत्यु की
बात। अज्ञानी
तो छिपाता है।
और सब मरेंगे,
मेरे मरने
का सवाल ही
कहां है? अज्ञानी
की एक प्रतीति
है कि मैं
अपवाद हूं। और
सब मरेंगे, मैं नहीं मरनेवाला
हूं। अज्ञानी
ऐसे जीता है
कि जैसे मैं
यहां सदा
रहनेवाला
हूं। ज्ञानी
यहां ऐसे रहता
है जैसे एक
विश्रामालय
है, एक
धर्मशाला है;
जहां रात
ठहरे, सुबह
चल दिए।
अज्ञानी इस
संसार को घर
मान कर रहता
है। ज्ञानी घर
की तलाश कर
रहा है। यह घर
नहीं है, यह
ज्यादा से
ज्यादा सराय
हो सकती है।
यहां ठहरना हो
सकता है, पड़ाव हो
सकता है; मंजिल
नहीं है।
इतनी
छोटी सी बात
इसे खयाल न आई
कि मैं पूछ
लूं इस मुर्गे
से कि मैं कब
मरूंगा? नहीं,
यह तो लाभ
जुटाने में
लगा था। इसको
पूछने की फुरसत
ही न मिली।
तुम्हें
फुरसत मिली है
पूछने की किसी
से कि मैं कब
मरूंगा? हां
कभी-कभी तुम
ज्योतिषी के
पास जाते हो, लेकिन तुम
यह पूछने जाते
हो कि मैं कब
तक न मरूंगा; यह पूछने
नहीं जाते कि
मैं कब
मरूंगा। 'कब
तक न मरूंगा'--तुम्हारा एम्फेसिस,
तुम्हारा
जोर जीने पर
है। तुम जीवन
की रेखा दिखलाते
हो, मृत्यु
की रेखा नहीं।
तुम पूछने
जाते हो, सफलता
मिलेगी? तुम
पूछने नहीं
जाते कि
विफलता
मिलेगी? तुम
पूछने जाते हो,
सुख कब
मिलेगा? तुम
पूछने नहीं
जाते कि दुख
कब मिलेगा?
और
ध्यान रखो, जब तक तुम
सुख के लिए
पूछने जाओगो,
दुख पाओगे;
जब तक तुम
लाभ का पूछोगे,
हानि होगी।
जब तक तुम
जीवन की पूछते
रहोगे, तब
तक मरोगे, बार-बार
मरोगे, मरते
ही रहोगे। और
जिस दिन तुम
पूछोगे
मृत्यु, उसी
दिन परम-जीवन
का द्वार खुल
जायेगा। जिस
दिन तुम दुख
की तलाश करोगे,
उसी दिन
आनंद की कुंजी
तुम्हारे हाथ
आ जायेगी।
इतनी
सीधी सी बात
थी। लेकिन बड़े
तर्कनिष्ठ लोग
भी कभी-कभी
बड़ी अनूठी
भूलें करते
हैं, अपने
संबंध में
निश्चित करते
हैं। ऐसे
तर्कनिष्ठ
लोग उस बच्चे
की भांति हैं--
मैं एक
घर में मेहमान
था। मैंने घर
के छोटे बच्चे
को बाहर जाते
देखा:
सजा-संवरा, अच्छे कपड़े
पहने हुए; फिर
कोई घंटे भर
बाद उदास और
परेशान लौटते
देखा तो मैंने
पूछा कि क्या
बात हुई? तो
उसने कहा, मैं
जा नहीं पाया
जहां जाना था।
हुआ क्या? जाना
कहां था? उसने
कहा कि सड़क के
उस पार सामने
एक मकान है। वहां
एक बच्चों की
पार्टी हो रही
है, जन्म-दिन
है किसी का; वहां जाना
था। 'तो तू
जा क्यों नहीं
पाया?' तो
उसने कहा, मां
ने कहा कि जब
तक कारें न
गुजर जायें, निकलना मत।
तो मैंने पूछा,
क्या कारें
निकलती ही रहीं?
उसने कहा कि
नहीं मैं बैठा
देख रहा हूं, एक कार नहीं
निकली। और जब
तक वे निकल न
जायें, तब
तक उस तरफ...।
बच्चों
पर हम हंस
सकते हैं।
लेकिन हम सबके
भीतर बच्चे
छिपे हैं। तुम
बच्चे थे कभी, वह बच्चा मर
नहीं गया है; वह बच्चा
तुम्हारे
भीतर है। वह
बचकानापन भी नहीं
मर गया है, वह
भी तुम्हारे
भीतर है; जिंदगी
में कुछ हाथ
के बाहर जाता
नहीं, सब
इकट्ठा हो
जाता है।
बच्चे के ऊपर
जवान बैठ जाता
है, जवान
के ऊपर बूढ़ा
बैठ जाता है, एक के ऊपर एक
राशि लग जाती
है, लेकिन
वह सब
तुम्हारे
भीतर है।
इस
आदमी को इतना
खयाल न आया जो
कि बिलकुल
सीधी सी बात
थी। कभी-कभी
सीधी बातें
चूक जाती हैं।
ऐसा
हुआ एक बार, एक रास्ते
पर, एक पुल
के नीचे; ऊपर
रेलवे का पुल
था, और
रास्ता नीचे
से गुजरता था,
एक ट्रक फंस
गया। सामान
उसमें काफी
ऊंचाई तक लदा
था। न इस तरफ आ
सके, न उस
तरफ जा सके, और उसकी वजह
से पूरा ट्रैफिक
रुक गया।
पुलिस के
अधिकारी आये,
लेकिन कुछ
उपाय न खोज
पाये। बड़ी
कोशिश की खींचने
की। इंजीनियर
आया, कुछ
समझ न पाये कि
क्या करना? और सब इतनी
गड़बड़ मच गई।
क्योंकि इतने
ट्रक इस तरफ
रुक गये, उस
तरफ रुक गये, सारा
ट्रैफिक जाम
हो गया, बड़ा
शोरगुल मच गया,
सैकड़ों लोगों की
भीड़ लग गई।
और तब
एक आदमी ने
कहा, कोई मेरी
सुनता ही नहीं;
एक गरीब
आदमी जो
किनारे खड़ा था
अपना डंडा लिए
हुए। उसने कहा
कि ट्रक की
हवा क्यों
नहीं निकाल
देते? उसकी
कोई सुन ही
नहीं रहा था।
क्योंकि जहां
बड़े इंजीनियर
मौजूद हों, वहां उसकी
कौन सुने? और
वह ठीक कह रहा
था, हवा ही
निकालनी पड़ी
ट्रक की और
ट्रक बाहर आ
गया।
रूस
में ऐसा हुआ, पेत्रोग्राद जब बना, तो
रूस का जार, अपना महल एक
खास जगह बनाना
चाहता था। और
वहां एक इतनी
बड़ी चट्टान थी
कि उस चट्टान
को हटाना बड़ा
कठिन मामला
था। बड़े
इंजीनियर
बुलाये गये और
उन्होंने कहा,
यह बहुत
असंभव है। और
लाखों रुपये
का खर्च है।
इसको काट-काट
कर हटाना
पड़ेगा, इतनी
बड़ी चट्टान
को। और उन
दिनों और भी
मुश्किल था।
अब तो
डायनामाइट है,
और दूसरे
उपाय हैं।
और
कहते हैं, एक गाड़ीवान
ने जार के पास
जाकर कहा कि
यह सब फिजूल
की बकवास है, हटाने की
कोई जरूरत
नहीं है, मैं
एक सीधा
रास्ता बता
देता हूं।
चारों तरफ गङ्ढा
खोदो, नीचे
भी गङ्ढा खोदो और उस गङ्ढे में
इसको नीचे
धंसा दो।
हटाने की
जरूरत क्या है?
चट्टान
भारी थी, और
हटाने में बड?ा खर्च था, लेकिन सभी
लोग उसी दिशा
में सोच रहे
थे--'हटाना
है'। तो
कैसे हटाना है?
यह सवाल था।
उस गाड़ीवान
ने सवाल बदल
दिया। उसने
कहा, हटाने
की जरूरत ही
नहीं।
तुम्हें जगह
साफ चाहिए, चट्टान को
नीचे धंसा दो।
यही किया गया।
महल उसी
चट्टान पर खड़ा
हुआ है। और वह
आदमी गरीब
आदमी था, जिसने
न कोई फीस
मांगी...।
अब
पश्चिम में
बड़ा विचार
चलता है एक, और वह यह है, कि जो बंधी
लीक होती है
चिंतन की, अक्सर
सत्य उस लीक
पर नहीं होता;
जरा सा लीक
से हट कर होता
है।
इस
आदमी को खयाल
क्यों नहीं
आया? फुरसत
नहीं मिली। और
यह चिंतित रहा
कि और लाभ कितना
इन जानवरों की
भाषा से ले
लिया जाये! यह भूल
ही गया लाभ
लेने में कि
जल्दी ही मैं
भी मरूंगा और
सब लाभ पड़ा रह
जायेगा।
तुम भी
ऐसे ही भूल
गये हो और जब
तक तुम्हें
मृत्यु ठीक से
स्मरण न आ
जाये, तुम्हारे
जीवन में धर्म
का उदय न
होगा। काश, यह आदमी पूछ
लेता उस
मुर्गे से! कि
छोड़, घोड़ा
मरेगा, खच्चर
मरेगा, गुलाम
मरेगा, मरने
दे; तू
मुझे बता कि
मैं कब मरूंगा?
अगर
तुम्हें पता
चल जाये कि
तुम कब मरोगे, क्या तुम
वही आदमी रह
सकोगे जो तुम
अभी हो? पर
पता चलाने की
भी क्या जरूरत
है? मरोगे
यह निश्चित
है। कौन सा
दिन होगा, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? कौन
सी तिथि होगी,
इससे क्या
लेना-देना? इस जीवन में
एक ही बात तो
निश्चित है कि
मरोगे।
मृत्यु के
अतिरिक्त सब
अनिश्चित है।
निश्चित एक ही
तथ्य है कि
मृत्यु होगी।
उस निश्चित
तथ्य को सोच
कर, ध्यान
में रख कर
जीवन को बनाओ।
तुम
अनिश्चित
चीजों पर जीवन
को बना रहे हो
और निश्चित
तुम्हारे
आधार में नहीं
है। बुद्ध ने
उस निश्चित
तथ्य को जीवन
के केंद्र में
रख लिया कि
मैं मरूंगा।
और अब मैं
सोचूं कि मुझे
क्या करना है!
अगर तुम भी
ठीक से सोचोगे
कि मैं मरूंगा, अब मैं तय
करूं कि मुझे
क्या करना है,
तो
तुम्हारे कदम
गलत न
जायेंगे।
लेकिन
तुम इस तथ्य
को तो झुठलाये
हुए हो। और
फिर तुम तय कर
रहे हो कि मैं
क्या करूं!
तुम जो भी
करोगे, वह
गलत होगा। इस
आदमी ने भी जो
किया वह गलत
हुआ। और
निश्चित तथ्य
आज नहीं कल
आयेगा। वह आ
गया!
एक दिन
फिर उस मुर्गे
को कुत्ते से
कहते सुना कि 'यह
आदमी खुद मर
जायेगा।' अब
तो वह भय से
कांपने लगा।
वह दौड़ता
हुआ मूसा के
पास पहुंचा।
और जब
तक मौत
तुम्हें
स्पष्ट न हो
जाये, तुम न
तो मूसा के
पास जाओगे, न मेरे पास
आओगे। और आओगे
भी, तो आना
ऊपर-ऊपर होगा।
क्योंकि जब तक
तुम कंपने ही
न लगो, मृत्यु
तुम्हें कंपा
न दे, तूफान
न ला दे, तब
तक तुम्हारे
जीवन में
क्रांति करने
का कोई उपाय
नहीं है। तब
तक तुम
आश्वस्त हो कि
सब ठीक चल रहा
है, जल्दी
क्या है? आयेगी
मृत्यु, बहुत
देर है अभी।
और तब तक बहुत
दूसरे काम कर
लेने जैसे
हैं।
और लोग
सोचते हैं कि
मृत्यु के
संबंध में
सोचना जैसे
रुग्ण चित्त
का लक्षण है।
सोचना ही क्यों? गलत बातें
सोचना क्यों?
मृत्यु गलत
बात नहीं है; बड़े से बड़ा
सत्य है, और
उसी सत्य के
पीछे चाबी
छिपी है जीवन
के अमृत की।
तब वह
भय से कांपने
लगा और भागा
हुआ मूसा के
पास पहुंचा और
पूछा कि अब
मैं क्या करूं? मूसा ने कहा,
'जाओ, और
अपने को भी
बेच दो।'
अब कुछ
करने को बचा
नहीं, अब
समय नहीं है।
मूसा की
बात हमें कठोर
लगती है, लेकिन
मूसा भी क्या
कर सकते हैं? तुम तब आते
हो, जब सब
खो चुका है।
तुम
ब्रह्मचर्य
की बात तब सोचते
हो जब यौन की
सारी ऊर्जा
चुक गई। तुम
आत्मा की बात
तब सोचते हो
जब शरीर
बिलकुल सड़
गया। तुम जीवन
का सत्य तब
खोजना चाहते
हो जब मौत ने
आकर द्वार पर
दस्तक दे दी।
मौत किसी की
प्रतीक्षा नहीं
करती। मूसा की
बात कठिन लगती
है। लेकिन मूसा
ने जो कहा वही
किया जा सकता
है अब, कि
जाओ और अपने
को भी बेच दो।
कुछ रुपये जो
भी मिल जायें,
बचा लो, लाभ
कर लो।
और यही
तो आदमी कर ही
रहा है। तुम
अपने को बेच रहे
हो, जो भी तुम
कमा रहे हो
उसमें, वह
मुफ्त नहीं
मिल रहा है।
इस जमीन पर
कोई चीज मुफ्त
नहीं मिलती; तुम्हें
अपनी आत्मा
काट-काट कर बेचनी
पड़ रही है।
चाहे तुम बड़ा
महल बना लो, तुम आखिर
में पाओगे कि
तुम्हारे ही
अस्थिपंजर उस
महल की ईंटें
बने हैं। चाहे
तुम कितना ही
धन इकट्ठा कर
लो, आखिर
में पाओगे, तुम्हारे ही
खून से सरोबोर
हैं सारे
रुपये। एक बात
तो पक्की है
कि जिंदगी में
तुम जो भी
इकट्ठा कर
लोगे, वह
तुमने अपने को
गंवा कर
इकट्ठा किया
है। कुछ और भी
किया जा सकता
था। अगर तुम
इस उलझाव में
न पड़ते, लाभ
और हानि के, तो शायद तुम
अपने को बचा
भी सकते थे, शायद तुम
अपने को जान
भी सकते थे, अपने को
पहचान भी सकते
थे। लेकिन
आदमी मौत से उतना
डरा हुआ नहीं
है।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी के घर
मौत आई। उसने
द्वार पर
दस्तक दिया।
आदमी ने भीतर
से छिपे हुए
पूछा, 'कौन
है?' तो मौत
ने कहा कि मैं
हूं, यमदूत!
मृत्यु
तुम्हारी! उस
आदमी ने कहा, 'धन्यवाद
भगवान का! मैं
समझा कि
इनकम-टैक्स के
लोग आये!'
मौत आ
जाये, चलेगी;
इनकम-टैक्स
आफिस के लोग न
आ जायें।
एक
आदमी को लोगों
ने पकड़ लिया
था रास्ते पर, लुटेरों ने।
और उन्होंने
कहा कि 'सीधा
विकल्प है: 'यह बंदूक
तुम्हारी
छाती पर है।
या तो चाबी दे
दो अपने खजाने
की, या हम
गोली मार देंगें।'
उस आदमी ने
कहा कि 'थोड़ा
सोचने दो।' अब इसमें
सोचने की क्या
बात है? उन्होंने
कहा, 'जल्दी
करो।' उसने
कहा, 'तो
तुम गोली मार
दो। क्योंकि
पैसा तो मैंने
बुढ़ापे के लिए
बचाया है, वह
मैं तुम्हें
नहीं दे सकता।
मर जाना ठीक
है।'
तुम
सोचो, तुम्हारे
पास जो है उसे
तुम बचाना
चाहोगे, अगर
तुम्हारी मौत
भी आ जाये तो
भी! मौत की
कीमत पर भी!
अगर बचाना
चाहोगे तो तुम
उस आदमी की
हालत में हो।
और मूसा ठीक
ही कह रहे हैं
कि जा तू अपने
को भी बेच दे, देर मत कर।
जो भी दस-पांच
रुपये मिल
सकें, क्योंकि
मरने पर एक
पैसा नहीं
मिलेगा।
जानवर तो मर
कर भी बिके
तो कुछ मिल
सकता है; हड्डी,
मांस, मज्जा
का कुछ मूल्य
है। आदमी
बिलकुल बेकार
है, उसका
कोई भी मूल्य
नहीं है।
अकबर
को आदत थी, कोई भी फकीर
आये तो वह
झुककर, सिर
झुकाकर
नमस्कार करता
था। वजीरों
को बुरा लगता
था। कोई भी
ऐरा-गैरा फकीर,
पता-ठिकाना
नहीं, और
यह सिर झुकाता
था। आखिर उसके
बड़े वजीर ने कहा
कि यह अशोभन
है, और आप
सम्राट हैं।
आपकी
प्रतिष्ठा के
अनुकूल नहीं। ऐरे-गैरे भिखमंगे!
अकबर
ने कहा, 'तुम
एक काम करो।
एक आदमी को
फांसी लगने
वाली है कल, उसका सिर
कटेगा; तुम
उस सिर को
लेकर बाजार
में जाओ, कोई
खरीददार
मिलता है या
नहीं! और मिल
जाये तो कितना
दाम देने को
तैयार है उसकी
खबर करो।'
आज्ञा
हुई तो वजीर
लेकर सिर गया, पूरे बाजार
में घूमा।
जहां भी
गया--छिप कर
गया था।
क्योंकि वजीर
के हैसियत से
जायेगा तो शायद
खुशामदी लोग
खरीद ही लें
लाखों में, क्योंकि
पीछे मतलब
निकाल
लेंगे--छिप कर
गया था। न
मालूम कितनी!
जिस दूकान पर
गया उसी पर
लोगों ने कहा,
'भाग, हट
यहां से; पागल
हो गया है? इसका
क्या करेंगे?'
सांझ
को वह लौटा और
उसने कहा कि
क्षमा करें, कोई खरीददार
नहीं मिलता।
उलटे लोग
नाराज होते
हैं। जिससे भी
कहो कि भई
खरीद लो, कुछ
भी चार पैसे
दे दो। वह भी
कहता है, 'भागो
यहां से, हटो।
यहां मत लाओ, क्या करेंगे
इसका?
तो
अकबर ने कहा 'यही
मेरे सिर की
हालत होगी।
कोई खरीददार न
मिलेगा। चार
पैसे कोई देने
को राजी न
होगा। और इसको
मैं झुकाता
हूं तो तुम
नाराज होते हो,
जिसका कोई
भी मूल्य नहीं
है।'
मूसा
ने ठीक ही कहा
उस आदमी को कि
तू लाभ का दीवाना
है, पैसे की
तेरी पकड़ है।
जा, जल्दी
से अपने को
बेच दे, कुछ
तो बच जायेगा;
मरने पर वह
भी न बचेगा, कोई खरीददार
न मिलेगा।
मूसा
का व्यंग बड़ा
गहरा है। और
अपनी छाती में
सम्हाल के रख
लेना कि जिस
शरीर के लिए
तुम सारी
दौड़-धूप कर
रहे हो, जिस
धन के लिए
सारा जीवन
अपना समाप्त
कर रहे हो, अमूल्य
समय को नष्ट
कर रहे हो, अवसर
को खो रहे हो, जब मौत
द्वार पर आ
जायेगी तो
तुम्हारा लाभ,
लाभ सिद्ध न
होगा; तुम्हारा
धन, धन सिद्ध
न होगा। तब
कितना बैंक
में बैलेंस है
इसका कोई
मूल्य न होगा,
तब अचानक
तुम्हारे
सामने सारे
जीवन का भ्रम
टूट जायेगा।
तब तुम पाओगे
व्यर्थ ही
दौड़ते रहे।
खिलौने
इकट्ठे किए, कागज की
नावें चलाईं,
सब सपने टूट
गये; सब
इंद्रधनुष
गिर गये। तब
तुम अपने को
दीन-हीन पाओगे;
बड़े से बड़े
सम्राट भी उसी
दीन-हीनता में
अपने को पाते
हैं।
इसके
पहले सम्हल
जाओ। इसके
पहले जाग जाओ।
और जगाने वाली
एक ही चीज है
जगत में, और
वह इस निश्चय
से भर जाओ कि
तुम जो भी हो, जैसे हो अभी,
यह अमृत
नहीं है; यह
मरणधर्मा
है। तुम जैसे
हो, यह
तुम्हारा जो
अहंकार और
व्यक्तित्व
है, यह खो
जायेगा। पानी
का बबूला है।
यह फूटने को ही
है। कितनी देर
टिकेगा, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। सात साल
कि सत्तर साल,
क्या करोगे?
यह बबूला
टूटेगा, यह
फूटने ही वाला
है। कितने
बबूले फूटते
रहे। तुम भी
उन्हीं
बबूलों की
संतति हो, तुम
भी खो जाओगे।
इसके
पहले कि यह
बबूला टूटे, तुम उसकी
खोज कर लो जो
कभी नष्ट नहीं
होता। तुम मरणधर्मा
के भीतर हो, लेकिन अमृत
का स्वर
तुम्हारे
केंद्र पर बज
रहा है। तुम
परिधि को थोड़ा
छोड़ो, और
केंद्र की
थोड़ी सुध लो।
तुम थोड़ा आंख
बंद करो, बाहर
कम देखो, और
भीतर देखो। तुम
थोड़ा भीतर
सुनो, वह
अनाहत नाद
वहां बज रहा
है।
घोड़े
को बेच दो, खच्चर को
बेच दो, गुलाम
को बेच दो, फिर
उस तर्क की
संगति में तो
खुद को भी
बेचने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
वही तो मूसा
ने कहा कि 'तेरे
तर्क के हिसाब
से तू अब तक जो
किया है वही कर।
अब तू मेरे
पास मत आ। समय
रहे, कुछ
हो सकता है।'
एक
महिला को मैं
जानता हूं।
बूढ़ी महिला थी
और उसके मरने
के एक ही दिन
पहले, वह
मुझे मिलने
आई। और बिलकुल
साफ था कि वह
मर जायेगी। तो
मैं उसको कहा
कि अब तू
व्यर्थ की बातें
छोड़। अब
संन्यस्त हो
जा। वह
मुस्कुराई, उसने कहा कि सोचूंगी।
अभी तो मैं
दूसरा सवाल
लेकर आई हूं, मेरी बहू से
बनती नहीं। 'उसकी तू
फिक्र छोड़।
ज्यादा देर
जीना नहीं है।'
पर उसने सब
बातें
सिद्धांत की समझीं।
उसने कहा कि 'अच्छा सोचूंगी,
कल आऊंगी।'
और कल
वह नहीं आ
सकी। उसका
बेटा साथ आया
था। वह कल
भागा हुआ आया, उसने कहा, 'मां तो चल
बसी।' वह
रो रहा था और
वह कहने लगा, 'आपने
संन्यास का
कहा था। और
उसकी भी इच्छा
तो थी, टालती
रही। और कल ही
आपने कहा था
तो आप चल कर उसे
संन्यास दे
दें।' वह
भी नहीं कहता
कि मुझे
संन्यास दे
दो! यही मजा
है। वह भी
नहीं कहता कि
मुझे संन्यास
दे दो। तो
मैंने कहा, 'चलो। लेकिन
तुम्हारा
क्या खयाल है
खुद का?' उसने
कहा कि अभी सोचूंगा,
कभी न कभी
तो इस रास्ते
पर तो आना ही
है, लेकिन
अभी बड़ी
उलझनें हैं।
तथ्य
सामने भी खड़े
हों, तो तुम
अंधे हो। इसकी
मां मर गई, इसके
सामने ही कल
मैंने कहा था
कि जिंदगी
थोड़ी है और तू
अब राम में
डूब जा, अब
मत इधर-उधर
भटक। यह सुना
है वह भी, और
यह खुद उसके
लिए ही
संन्यास
मांगने आया
है! मर कर तो
तुम सभी
संन्यासी
होना चाहोगे।
लेकिन इसका
कोई उपयोग
नहीं है।
मुर्दे के गले
में डाली हुई
माला या गेरुवे
वस्त्रों का
क्या अर्थ है?
जो भी करना
हो, वह
जीते जी किया
जा सकता है।
जीवन का उपयोग
तो तुम कचरा इकट्ठा
करने में करते
हो। और फिर मर
कर तुम परमात्मा
को पाना चाहते
हो।
इस
कहानी को
समझने की
कोशिश करना।
तुमने घोड़े, खच्चर, गुलाम
सब बचा लिए
हैं, ज्यादा
देर न लगेगी।
अब जब भी कहीं
मुर्गा बोलता
हुआ दिखाई पड़े
तो उससे पूछना,
'मैं कब
मरूंगा?'
और हर
मुर्गा यही कह
रहा है कि तुम
मरोगे। और भाषा
भी तुम समझते
हो। चारों तरफ
एक ही बात तो गूंज
रही है कि
मृत्यु के
सिवाय यहां
कुछ भी नहीं
घटता। जन्म के
साथ ही मौत
जुड़ी है। तुम
एक अर्थ में
मर ही चुके हो, आधे उसी दिन
मर गये जिस
दिन पैदा हुए;
आधा काम
बाकी है, वह
किसी दिन भी
पूरा हो
जायेगा। जिस
शरीर में तुम
बैठे हो, यह
प्रतिपल मर
रहा है। किसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हो? और
थोड़ा लाभ कर
लेना, और
थोड़ा दूसरों
की हानि कर
देनी है। और
थोड़ा इकट्ठा
कर लेना, फिर
तुम बदलोगे? तो तुम कभी
भी न बदलोगे।
और फिर अगर
तुम मेरे पास
आये तो मैं भी
तुमसे यही कहूंगा
कि जाओ, और
अपने को भी
बेच दो।
अभी
वक्त है। अभी
तुमने घोड़ा
बेचा, खच्चर
बेचा, गुलाम
बेचा, अभी
थोड़ा वक्त है,
ज्यादा देर
नहीं लगेगी।
वह वक्त भी
प्रतिपल खोया
जा रहा है।
रेत तुम्हारे
पैर के नीचे
से खिसकती जा
रही है। क्यू
आगे बढ़ता जा
रहा है। लोग
वहां सामने क्यू
में हटते जाते
हैं, मरते
जाते हैं। तुम
उसी क्यू में
खड़े हो, जल्दी
ही तुम भी आ
जाओगे। देर
नहीं है मौत
के आने में।
और जो व्यक्ति
सजग हो जाता
है, और मौत
को अपने जीवन
के एक
वास्तविक
तथ्य की तरह
स्वीकार कर
लेता है कि वह
घटेगी, उसके
जीवन में
क्रांति शुरू
हो जाती है।
तुम
मौत को याद
रखो, वही
तुम्हारा
ध्यान बन
जाये। तुम
पाओगे जीवन बदलने
लगा। क्रोध
मुश्किल हो
जायेगा, किस
पर क्रोध करना
है? शोषण
मुश्किल हो
जायेगा, किसका
शोषण करना है?
किसके लिए
शोषण करना है?
हानि-लाभ
बच्चों की
बातें हो जायेंगी।
तुम
जीओगे यहीं, लेकिन अगर
मौत तुम्हें
याद रहे, तो
तुम
सारा...चारों
तरफ पाओगे कि
एक बड़ा सपना है।
लंबा चलता है,
लेकिन है
सपना।
तुम्हारे
भीतर द्रष्टा
धीरे-धीरे
जगने लगेगा।
मौत की जिसे
याद आई, वह
साक्षी बन
जाता है। मौत
को जो भूला, वह कर्ता बन
जाता है। मौत
की जिसे याद
आई, वह
असली लाभ की
तरफ लग जाता
है; मौत
जिसे भूली, वह व्यर्थ
के लाभ में
उलझा रह जाता
है। और मौत के
पीछे छिपा है
अमृत का
द्वार। वह
तुम्हें याद आ
जाये तो अमृत
ज्यादा दूर
नहीं है। वह
उसी का दूसरा
पहलू है।
आज
इतना ही।
यही जीवन का सत्य है
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