कृत्य
नहीं, भाव
है
महत्वपूर्ण—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक
27 सितंबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
सीरो
विहार के सदगुरु
होगेन, रात्रि-भोजन
के पूर्व
प्रवचन करने
ही वाले थे कि
उन्होंने
देखा कि जो
बांस की जाली
ध्यान के लिए
लटकायी गयी थी,
वह अभी तक
समेटी नहीं
गयी है।
उन्होंने
उसकी ओर इशारा
किया और तुरंत
दो साधु सभा
से उठकर उसे
समेटने लगे।
उस
प्रकृत क्षण
का निरीक्षण
करते हुए सदगुरु
ने कहा: 'पहले
साधु की दशा
तो अच्छी है, पर दूसरे की
नहीं।'
भगवान!
इस झेन
बोध-कथा का
अभिप्राय
बताने की कृपा
करें।
इस
बोध कथा में
प्रवेश के
पूर्व कुछ
बातें समझ लेनी
जरूरी हैं।
एक:
जीवन की पहचान
बड़े-बड़े
कृत्यों में
नहीं, छोटे-छोटे
कृत्यों में
छिपी है। एक
क्षण के लिए
तो कोई भी
शहीद हो सकता
है। पूरे जीवन
त्याग से जीना
बहुत कठिन है।
सारी दुनिया
देख रही हो तब
थोड़ी देर के
लिए महात्मा
हो जाना बहुत
आसान है। कोई
न देखता हो--एकांत
में, अकेले
में, निर्जन
में महात्मा
होना बहुत
कठिन है।
बड़े-बड़े
काम कोई भी कर
लेता है। छोटे
काम में ही
असली पहचान
है। तुम्हारे
छोटे-छोटे
कृत्य कहते
हैं कि तुम
कौन हो। उपवास
कर लो, कुछ
हल न होगा।
क्योंकि वह भी
दूसरों की
आंखों को
दिखाने का
आयोजन है। नग्न
खड़े हो जाओ, कुछ न होगा।
क्योंकि
उसमें भी
दूसरे पर
दृष्टि है।
लेकिन अनजाने
क्षणों में
तुम्हारा उठना,
बैठना, चलना;
जब कि तुम
सचेत न थे, जब
कि तुम आयोजित
न कर रहे थे, उस क्षण
तुम्हारी
ठीक-ठीक झलक
पकड़ में आ
जाती है।
रास्ते
पर तुम चल रहे
हो। तुम्हें
पता भी नहीं
कि तुम कैसे
चल रहे हो, कोई देखने
वाला भी नहीं,
किसी को
दिखाने का
खयाल भी नहीं,
उस क्षण
तुम्हारा
कृत्य
तुम्हारी
आत्मा की अभिव्यक्ति
होता है।
सदगुरु
उन कर्मों का
हिसाब नहीं
रखते जो तुमने
आयोजन से किए
हैं। आयोजन
में सदा धोखा
है। उन कृत्यों
का हिसाब रखते
हैं जो
अन-आयोजित, सहज हो गये
हैं। जब कि
तुम्हें पता
ही न था, तुम्हें
इतना मौका भी
न था, सुविधा
भी न थी कि तुम
व्यवस्था
जुटा लेते। क्षण
की पुकार पर
जो घटनायें
तुम्हारे
जीवन में घटती
हैं, उनमें
ही थोड़ी देर
को तुम्हारी
झलक दिखाई पड़ती
है। वहीं
दर्पण है।
किसी
ने गाली दी और
एक क्षण को
तुम्हारे
चेहरे पर जो
भाव आ जाता
है--दूसरे
क्षण शायद तुम
अपने को
सम्हाल लिए तो
सम्हाल ही
लोगे; लेकिन
पहले ही क्षण
में, अविभाज्य
क्षण में, उधर
गाली, इधर
तुम्हारे
चेहरे पर आया
भाव। एक इतनी
छोटी झलक है
कि जिसने गाली
दी है शायद वह
देख भी न पाये।
क्योंकि वह
गाली से भरा
होगा। वह शायद
स्वयं ही इतना
गरम होगा कि
इस क्षण को न
देख पाये।
लेकिन सदगुरु, जिनके जीवन
से सारा ज्वर
चला गया है, इसी क्षण की
तलाश में होते
हैं कि
शिष्यों को उन
क्षणों में
देख लें, जब
कि शिष्य
आयोजन नहीं कर
रहा है। क्यों?
तुम्हारे
छोटे-छोटे
कृत्य
तुम्हारी
आत्मा की झलक
बन जाते हैं।
तुम जब सो रहे
हो तब तुम ज्यादा
सच्चे होते
हो। मनस्विद
तुम्हारी
चिंता नहीं
करते, तुम्हारे
सपनों की
चिंता करते
हैं।
तुम्हारे
सपने ज्यादा सही
हैं बजाय
तुम्हारे
व्यक्तित्व
के। क्योंकि
व्यक्तित्व
को तो तुमने
धोखा दे दिया
है। वहां तो
तुमने सब झूठी
मुस्कुराहटें
छाप लीं हैं
अपने चेहरे
पर। वहां तो
पता ही लगाना
मुश्किल है कि
तुम क्या हो।
वहां तो तुमने
इतने पर्दे ढांक रखे
हैं कि तुम
करीब-करीब खो
गये हो। तो मनस्विद
को तुम्हारे
सपनों में
उतरना पड़ता
है। शायद वहां
तुम्हारे
सच्चे आदमी से
थोड़ी देर के
लिए मुलाकात
हो जाये।
दिन
में शायद तुम
मंदिरों-मस्जिदों
में बैठे
प्रार्थना
करते हो, उन
प्रार्थनाओं
का कोई भी
मूल्य नहीं
है। लेकिन रात
अंधेरे में, सपने के
एकांत में
जहां कोई
प्रवेश ही
नहीं करता, जहां
तुम्हें
दूसरे का कोई
डर ही नहीं है,
जहां कोई
देखने वाला
नहीं, तुम
अकेले हो, वहां
तुम क्या करते
हो? वहां
भी प्रार्थना
चलती है? कभी
तुमने सपना
देखा
प्रार्थना
करने का? वेश्यालय
तुम गये होओगे,
शराब तुमने
पी होगी, चोरी
तुमने की होगी,
हत्या
तुमने की होगी,
लेकिन कभी
प्रार्थना की
है सपने में? कभी किसी
सपने में
मंदिर का
द्वार
खटखटाया है।
सपना ही
तुम्हारे
बाबत सच्ची
खबर देगा। क्योंकि
सपने को झूठ
करना तुम अभी
सीख ही नहीं
पाये कि उसे
कैसे झूठ
करें! वह
अचेतन है।
लेकिन
तुम्हारे
चौबीस घंटे के
जागे हुए जीवन
में भी बहुत
से क्षण अचेतन
होते हैं, जब तुम
क्षणभर को
प्रगट हो जाते
हो।
मैंने
सुना है कि एक
कैथलिक पादरी
और उसका एक मित्र
दोनों शतरंज
खेल रहे थे।
कैथलिक पादरी चाल
चूक गया। और
ऐसे समय में
कोई साधारण
आदमी होता तो
गालियां बकता, क्रोध जाहिर
करता, अपने
ही ऊपर नाराज
होता। लेकिन
पादरी तो यह
नहीं कर सकता।
उसने सिर्फ
अपने होंठ को
दबा लिया।
होंठ काट
लिया। दूसरे
मित्र ने कहा
कि मैंने बहुत
तरह की शांतियां
देखीं, लेकिन
इससे ज्यादा
अपवित्र
शांति कभी
नहीं देखी।
भीतर
गाली की गूंज
है। ऊपर सब
शांत है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कसम खा ली
लोगों के
समझाने-बुझाने
से कि अब गालियां
न देगा। और
गालियां उसके
तकिया कलाम जैसी
थीं। वह बिना
गाली के बोलता
ही नहीं था। ऐसा
वाक्य खोजना
मुश्किल था
जिसमें गाली न
हो। गाली से
ही शुरू और
अंत होता था।
कसम तो ले ली, पर बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया और
पहले ही दिन
झंझट हो गई।
एक मित्र के
घर भोजन करने
गया था। नौकरानी
के हाथ से चाय
छलक गई और
उसके कपड़े पर
गिर गई और
उसका हाथ भी
जल गया। कसम
खा ली थी गाली
न देने की। और
आज ही खाई थी
कसम। अभी भूला
भी नहीं था, अभी देर भी न
हुई थी, ताजी
थी बात। खड़ा
हो गया उबलता
हुआ आग से और
उसने कहा कि सज्जनो, तुममें से
कोई खड़ा होकर
इस समय वे
शब्द कहे इस औरत
से, जो
मैंने कहे
होते अगर कसम
न खाई होती।
तुम पकड़े जाते
हो कभी-कभी
किन्हीं-किन्हीं
क्षणों में।
तुम चलते हो; अगर तुम्हारे
मन में दुविधा
है तो
तुम्हारे पैर
खबर देते हैं।
तुम जाना भी
चाहते हो, तुम
रुकना भी
चाहते हो, दोनों
वृत्तियां
पैर में प्रगट
होती हैं। जब तुम
कोई चीज उठाना
भी चाहते हो
और नहीं भी
उठाना चाहते,
तो
तुम्हारा हाथ
झिझकता है।
भला तुम्हें
भी पता न हो।
लेकिन अगर कोई
सम्यक
निरीक्षण कर
रहा हो, कोई
साक्षी की तरह
देख रहा हो, तो वह पहचान
लेगा कि
तुम्हारा हाथ
झिझकता है।
मैं एक
संध्या
मुल्ला नसरुद्दीन
के घर गया।
दस्तक दी तो
उसने दरवाजा
खोला और संध
से मुझे देखा।
उसने भी संध
से मुझे देखा
और मुझे भी वह
संध से दिखाई
पड़ गया। मैंने
कहा, 'नसरुद्दीन क्या मामला
है?' वह
सिर्फ तुर्की
टोपी लगाये, बाकी बिलकुल
नंगा था। तो
उसने कहा, 'भीतर
आ जायें। आप
अपने ही हैं, कहने में
कुछ हर्ज
नहीं।' 'नंगे
क्यों घूम रहे
हो?' उसने
कहा, 'इस
समय मुझसे
मिलने कोई आता
ही नहीं। कपड़े
पहनने की कोई
जरूरत नहीं।'
फिर मैंने
कहा, 'अगर
ऐसा ही है तो
यह तुर्की
टोपी क्यों
लगा रखी है?' तो उसने कहा,
'शायद कभी
कोई आ ही जाये!'
ऐसी
दुविधा है।
आधा-आधा है।
अगर तुम किसी
भी संबंध में
दुविधा से भरे
हो, तुम्हारे
कृत्य में
दुविधा की छाप
होगी। तुम बोलोगे
और हकला
जाओगे। तुम कहना
भी चाहोगे और
नहीं भी कहना
चाहोगे। दोनों
का कैसे मेल
होगा? तो
तुम्हारे
बोलने में वह
सहजता न होगी,
जो तब होती
है जब हृदय
परिपूर्ण
बोलने के साथ होता
है। तब यह भी
हो सकता है, तुम कुछ और
कहना चाहोगे,
कुछ और निकल
जायेगा।
फ्रायड
ने बड़ी खोज की
है इस संबंध
में कि लोग
कभी-कभी और
कहना चाहते
हैं कुछ और
क्यों निकल
जाता है? क्या
कारण होगा
भीतर, कि
तुम कुछ और
शब्द लाना
चाहते थे, कोई
दूसरा शब्द आ
गया।
तुम्हारे
भीतर दुविधा रही
होगी। दुविधा
ने असमंजस
पैदा कर दी।
दुविधा ने एक
टांग भीतर
खींची, एक
बाहर। उसी में
तुम उलझ गये।
आदमी
चौबीस घंटे
बोलता रहता
है। लोग बोलते
ही पैदा होते
हैं। बोलते ही
मरते हैं।
लेकिन अगर तुम्हें
एक सभा में
बोलने को खड़ा
कर दिया जाये, तो आदमी का
मस्तिष्क बड़ा
अजीब है। ऐसे
तो बिलकुल
चलता रहता है।
चौबीस घंटे
चलता रहता है।
सभा में खड़े
हुए बोलने कि
खोपड़ी बिलकुल
बंद हो जाती
है। कुछ नहीं
सूझता। क्या
अड़चन आती होगी?
ये इतने
लोग! तुम्हारी
सहजता खो गई।
अब तुम इनको
प्रभावित
करने के लिए
उत्सुक हो।
एक
फिल्म
दिग्दर्शक
अपने एक नये
अभिनेता को सिखा
रहा था।
अभिनेता डरता
था, बोलने
में झिझकता था,
तो उसने कहा
कि 'तुम झिझको
मत। ये जो लोग
यहां आसपास
खड़े हैं, समझो
कि ये
तुम्हारे
परिवार के ही
लोग हैं। अपने
ही घर के लोग
हैं।' उस
अभिनेता ने
कहा कि 'यह
तो मैं समझ
लूं कि अपने
ही घर के लोग
हैं, लेकिन
अगर इनके
चेहरों पर मैं
ऐसा भाव देखूं
कि मेरी निंदा
हो रही है, तो
ध्यान तो चला
ही जाता है।' तो उसे
दिग्दर्शक ने
कहा, 'अरे
पागल! घरवालों
पर कोई ध्यान
देता है? संबंधियों
पर कोई ध्यान
देता है? कौन
देखता है उनके
चेहरों की तरफ?
पति कहीं
पत्नी के
चेहरे की तरफ
देखता है? और
सब तरफ देखता
है! चेहरे को
छोड़ कर देखता
है। पत्नी
कहीं पति के
चेहरे की तरफ
देखती है! और
सब तरफ देखती
है। संबंधियों
की तरफ कोई
ध्यान देता है?
ये सब
संबंधी हैं
समझ और ध्यान
छोड़।'
चर्चिल
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि जब मैंने
पहले-पहले
बोलना शुरू
किया तो बड़ी
मुश्किल होती
थी। लोगों को
देखता और मैं
घबड़ा जाता।
पता नहीं वह बात
निकलेगी जो
उन्हें
प्रभावित
करेगी, या
नहीं! कहीं
मैं चूक तो न जाऊंगा।
जो तैयार किया
है, वह साथ
चलेगा कि
नहीं! कहीं
कुछ अड?चन
तो न होगी। तो
एक मित्र से
पूछा। तो उस
मित्र ने कहा,
'पागल हो'...वह बोलने
वाला था। बड़ा
वक्ता था।
उसने कहा, 'मेरा
नियम है कि
पहले मैं हाल
में चारों तरफ
देखता हूं और
कहता हूं: अच्छा,
तो आ गये ये
सब मूर्ख और
गधे गांव के।
फिर आश्वस्त
हो जाता हूं।
इनसे क्या
डरना। इनको
प्रभावित भी
क्या करना?'
जब भी
तुम दूसरे को
प्रभावित
करना चाहते हो, तभी तुम
कृत्रिम हो
जाओगे। दूसरे
की मौजूदगी तुम्हें
तत्क्षण
कृत्रिम बना
देती है।
इसलिए दूसरे
की मौजूदगी
में बड़ी
बेचैनी लगती
है। वह कुछ न
भी कहे। कुछ
बातचीत भी न
हो, सिर्फ
दूसरा मौजूद
हो, तो तुम
स्वतंत्रता
अनुभव नहीं
करते। कोई तुम्हें
देखता ही रहे,
कुछ न बोले।
कोई निंदा
नहीं, कोई
प्रशंसा नहीं,
उसकी आंख
बिलकुल उपेक्षापूर्ण
हो, तो भी।
अपने
बाथरूम में
तुम गीत
गुनगुनाते हो; लेकिन
तुम्हें
अचानक पता चल
जाये कि कोई
चाबी के छेद
से झांक रहा
है, गीत
रुक जाता है।
दूसरे की
मौजूदगी
तुम्हें तत्क्षण
बदल देती है।
दूसरे की
मौजूदगी में
तुम वही नहीं
रह जाते, जो
तुम हो।
कृत्रिम आवरण
आ जाता है।
अभिनय शुरू हो
जाता है।
लेकिन
इस चलते हुए
चौबीस घंटे के
अभिनय में भी, तुम भी कई
बार चूक जाते
हो और भूल
जाते हो कि दूसरा
है। छोटे-छोटे
कृत्यों में
यह घटता है।
क्योंकि तुम
सोचते ही नहीं
कि छोटे कृत्य
पर कोई ध्यान
दे रहा है।
अभिनेता
सोचता है कि जो
मैं कर रहा
हूं, लोग
ध्यान दे रहे
होंगे। भाषण
देने वाला
सोचता है कि
जो मैं कह रहा
हूं लोग ध्यान
दे रहे होंगे।
लेकिन अचानक,
एक पर्दा
पड़ा हो और मैं
इशारा करूं कि
यह पर्दा उठा
दो, तो तुम
चिंता थोड़े ही
करोगे कि कोई
ध्यान दे रहा
है। इतनी सी
छोटी बात में
कौन ध्यान दे
रहा है? तुम
पर्दा उठा
दोगे। उस
उठाने के क्षण
में तुम सहज
होओगे। और उस
क्षण में ही
तुम्हारे
वास्तविक की
थोड़ी सी झलक
मिलेगी।
अपने
सहज-कृत्यों
पर गौर करना।
क्योंकि उनमें
तुम जाहिर
होते हो, प्रगट
होते हो। उन
कृत्यों की
बहुत चिंता मत
करना, जो
तुम दूसरों को
ध्यान में रख
कर करते हो, क्योंकि वे
तो झूठे हैं।
इसलिए तो सारे
लोग मुस्कुराते
मालूम पड़ते
हैं, जब कि
जिंदगी में
दुख ही दुख
है।
पर अगर
तुम उनके
होठों पर भी
ध्यान दो, तो तुम पकड़
लोगे कि
मुस्कुराहट
झूठ है। क्योंकि
जब
मुस्कुराहट
झूठ होती है
तो होठों पर
एक तनाव होता
है। जब
मुस्कुराहट
सच्ची होती है,
तो होठों पर
एक खिलावट
होती है। जब
मुस्कुराहट
झूठ होती है
तो होठों पर
एक श्रम होता
है। वह सिर्फ
खिंची हुई नस
है। और जब
मुस्कुराहट
सच्ची होती है
और हृदय की
गहराइयों से
आती है, तो
होठों पर
सिर्फ एक आभा
होती है। वह
हृदय की झलक
ले आती है। तब
होठों में दौड़ता
हुआ रक्त का
संचार होता
है। तब जो
होठों पर खिंचावट
है वह खिंचावट
नहीं होती, एक खिलाव
होता है।
जैसे
कोई पंखुरी
कली की खींच
कर खोल दे, जबर्दस्ती
खोल दे, वैसी
तुम्हारी
मुस्कुराहट
है, अगर वह
झूठी है। होंठ
से ज्यादा
गहरी नहीं है।
ऊपर-ऊपर है।
और जब
वास्तविक है
तो वैसे है, जैसे कली
खुद खिलती है
और फूल बनती
है। तुम्हारी
मुस्कुराहट
झूठी है।
तुम्हारे
चेहरों पर दिखने
वाली आभा झूठी
है। भीतर तुम
दुख से भरे हो,
बाहर से तुम
ढांके अपने को
चलते रहते हो।
साधु
हो सकते हो
तुम दिखाने के
लिए। लेकिन
तुम्हारे
उठने-बैठने
में अगर हिंसा
हो तो महावीर
ने कहा है कि
साधु वही है, जो उठे, बैठे,
चले, तो
भी
विवेकपूर्ण
हो। क्या मतलब
है? तुम इस
ढंग से चल
सकते हो कि
उसमें आक्रमण
हो। क्या मतलब
है? तुम इस
ढंग से चल
सकते हो कि अनाक्रमक
हो। तुम इस
ढंग से चल सकते
हो कि उसमें
हिंसा हो। और
जिन लोगों ने
सब तरफ से
हिंसा रोक ली
है, उनके
छोटे-छोटे
कृत्य हिंसा
से भर
जायेंगे। बहुत
छोटे-छोटे
कृत्य!
तुम्हारे
देखने के ढंग
में हिंसा हो
सकती है। तुम
दूसरे को इस
ढंग से देख
सकते हो कि
नर्क ही पहुंचा
दोगे। और
तुम्हें पता
भी न हो।
तुम्हें खयाल
भी न हो। तुम
रात भोजन नहीं
करते, पानी
छान कर पीते
हो।
मांसाहारी
नहीं हो, शुद्ध
शाकाहारी हो,
तुमने जीवन
को, जहां-जहां
हिंसा देखी, वहां-वहां
अहिंसक बना
लिया है।
लेकिन तुम्हारे
छोटे-छोटे
कृत्यों में
हिंसा हो सकती
है। तुम जब
द्वार पर अपना
जूता उतारते
हो, तब उस
जूते के पटकने
में हिंसा हो
सकती है। जब
तुम द्वार
खोलते हो, तो
तुम जो धक्का
दे सकते हो, उसमें भी
क्रोध हो सकता
है। और
तुम्हें
भली-भांति पता
है कि तुम
क्रोध में
द्वार खोलते
हो, तो
तुम्हारा
खोलना भिन्न
होता है। जब
तुम प्रेम से
भरे हुए द्वार
खोलते हो, तब
भिन्न होता
है।
बोकोजू
से मिलने एक
आदमी आया।
उसने जोर से
जूते पटके, द्वार पर
धक्का दे कर
द्वार खोला और
भीतर आया। बड़ी
विनम्रता से
झुका। बोकोजू
के चरण छुए।
बोकोजू ने कहा
कि नहीं, स्वीकार
नहीं करूंगा।
उस आदमी ने
कहा, 'क्या
मतलब?' बोकोजू
ने कहा, 'पहले
जाकर द्वार से
क्षमा मांग, जूतों से
क्षमा मांग!
क्योंकि मेरे
प्रति समर्पित
होना तो बहुत
आसान है। सभी
हो जाते हैं। जूतों
ने क्या बिगाड़ा
है, जो
तूने इस ढंग
से जूते पटके?
दरवाजे ने
तेरा क्या बिगाड़ा
है, जो
तूने इस ढंग
से दरवाजा
खोला जैसे
उसकी जान ले
ले? तू आदमी
क्रोधी है। वह
तेरी असलियत
है। और यह
तेरा झुकना
झूठ है। और जब
तक तूने जूते
से क्षमा नहीं
मांगी और
दरवाजे से
क्षमा नहीं
मांगी, मैं
तुझसे बात
नहीं करूंगा।
उठ!'
वह
आदमी बोला, 'आप भी कैसी
बात कर रहे
हैं? पागल
मालूम
पडूंगा। और भी
लोग बैठे हैं,
क्या
कहेंगे? मैं
जूते से क्षमा
मांगूं?' बोकोजू ने
कहा, 'जब
जूते पर क्रोध
करने में तूने
कोई पागलपन न समझा
और दरवाजा
खोलने में, हिंसक होने
में कोई तुझे
पागलपन न
दिखाई पड़ा, तो क्षमा
मांगने में
कैसा पागलपन?
तू जा।'
वह
आदमी गया।
पहले तो उसे
लगा कि बिलकुल
पागलपन है कि
हाथ जोड़ कर
जूते से क्षमा
मांगे। लेकिन
उसने क्षमा मांगी।
बोकोजू ने कहा
था, तो
मांगना ही
पड़ा। द्वार से
भी क्षमा
मांगी। और जब
वह लौटा और
झुका, तो
उसके झुकने
में भेद था।
अब यह झुकाव
और ही था। अब
यह झुकाव
दिखावा न था।
अब इस झुकाव
में एक सहजता
थी। अब इस
झुकाव में एक
अर्थ था, जो
पहले झुकाव
में नहीं था।
भीतर तो क्रोध
भरा था, बाहर
झुक रहा था।
मनसविद
कहते हैं कि
जिस दिन
स्त्रियां
नाराज होती हैं, उस दिन छः
गुनी घर में
आवाज होती है।
बर्तन टूटते
हैं, दरवाजे
जोर से लगते
हैं, हर
चीज खटरपटर
करती है, छः
गुनी ज्यादा
आवाज!
घर के बाहर
बैठकर, घर
की आवाज देख
कर बताया जा
सकता है कि घर
की गृहिणी आज
प्रसन्न है या
अप्रसन्न!
बर्तन टूटते हैं,
प्यालियां
गिरती हैं। और
गृहिणी को पता
भी नहीं चलता
कि यह उसके
क्रोध के कारण
हो रहा है। वह
तो यही सोचती
है कि हाथ चूक
गया है, लेकिन
कल नहीं चूका
था। परसों
नहीं चूका था।
कल फिर नहीं चूकेगा।
आज ही क्यों
चूक गया है? और छः गुना
कोई छोटी
मात्रा नहीं
है।
न, अचेतन मन
छोड़ना चाहता
है बर्तन को, कि टूट
जाये। चेतन मन
भला यह समझ
रहा हो कि मैंने
छोड़ा नहीं है,
हाथ से फिसल
गया, फिसल
गया। कोई क्या
कर सकता है? लेकिन यह सब रेशनलाइजेशन
है। यह
सिर्फ ऊपर की
तर्क
व्यवस्था है।
भीतर गहरे में
कुछ तोड़ने की
आकांक्षा है।
तोड़ने से
क्रोध को राहत
मिलेगी। पति
को तो तोड़ा नहीं
जा सकता!
लेकिन पति की
लाई गई चीजों
को तोड़ा जा
सकता है। वह
प्रतीक है।
पति को तो
मारा नहीं जा
सकता, लेकिन
मार को कहीं न
कहीं तो
निकालना ही
होगा। और जब
क्रोध भीतर भर
जाये, तो
तुम्हारी
उंगली-उंगली
से आग दिखाई
पड?ेगी। तुम्हारा
उठने-बैठने का
ढंग और हो
जायेगा। तुम
वही नहीं हो।
तुम्हारी
चित्त की दशा
करीब-करीब
अस्थाई रूप से
विक्षिप्त...तर्क
तुम कितने ही
दो! क्योंकि
तर्क तो पागल
भी देते हैं।
तर्क में तो
पागल भी कुशल
होते हैं। और
उनके तर्क भी
संगत मालूम
होते हैं।
एक
पागल आदमी एक
मनोचिकित्सक
के पास गया।
उस आदमी को यह
वहम हो गया था
कि वह एक
कुत्ता है। उसने
चिकित्सक को
कहा कि कुछ
करें। क्या
करूं, क्या
न करूं! मुझे
यह वहम हो गया
है कि मैं एक
कुत्ता हूं।
चिकित्सक ने
कहा, यह तो
बड़ी बुरी बात
है। बड़ी बुरी
बीमारी है, इससे
छुटकारा पाना
होगा। कब से
तुझे यह वहम
है? उसने
कहा, जब से
मैं छोटा सा
पिल्ला था, तभी से!
पागलपन
के भी अपने तर्र्क
हैं और संगतियां
हैं। जब से
छोटा सा
पिल्ला था तभी
से, यह वहम
है। यह वह कह
रहा है कि वहम
है। यह चेतन
है। लेकिन
अचेतन में यह
बात बड़ी गहरी
प्रवेश कर गई है।
इसे छुटकारा
दिलाना बहुत
मुश्किल
होगा। क्योंकि
यह सब तरफ से
व्यवस्था जुटायेगा
इस वहम को
सम्हालने की।
हर
आदमी अपने को
ऐसा ही कुछ
समझ रहा है, जो वहम है।
कुत्ता न समझ
रहा हो। यह
बड़ा सवाल नहीं
है, लेकिन
तुम भी अपने
को कुछ समझ
रहे हो, जो
तुम नहीं हो।
और बीमारी वही
है।
बुद्धिमान जो
नहीं है, वह
अपने को
बुद्धिमान
समझ रहा है।
सुंदर जो नहीं
है, वह
अपने को सुंदर
समझ रहा है।
शक्तिशाली जो
नहीं है, वह
अपने को
शक्तिशाली
समझ रहा है।
एक
शराबघर में एक
आदमी घुसा।
काफी पीये था।
और उसने
चिल्ला कर कहा
कि सुनो! इस
नगर में मुझसे
शक्तिशाली और
कोई भी नहीं।
कोई कुछ नहीं
बोला, तो
उसकी हिम्मत
और बढ़ गई।
उसने कहा कि
इस नगर में ही
क्या, इस
देश में मुझसे
शक्तिशाली
कोई नहीं। कोई
चुनौती दे, धूल चटा दूं।
कोई कुछ नहीं
बोला, तो
हिम्मत और बढ़
गई। इसी तरह
तो हिम्मतें
बढ़ी हैं लोगों
की! लोग नहीं
बोले क्योंकि
लोग अपने
कामों में
व्यस्त थे।
लोग अपने पीने
में व्यस्त थे,
किसको
लेना-देना था
इस पागल से? तो उसने कहा
कि सुनो, अब
मैं सच्ची बात
बताये देता
हूं, इस
पृथ्वी पर
मुझसे
शक्तिशाली
कोई भी नहीं।
और तब एक आदमी
उठा और उसने
जाकर एक जोर
का चांटा उस
आदमी को मारा।
तो वह जमीन पर
गिर पड़ा चारों
खाने चित्त।
कोई दो क्षण
होश ही खो
गये। फिर उठा,
गौर से आंख
खोली और इस
आदमी से कहा
कि 'भई, तुम
कौन हो?' तो
इसने कहा कि 'मैं वही आदमी
हूं जो तुम
अपने आप को
समझ रहे थे, जब तुम
शराबघर में
आये।'
लेकिन
इसको भी
जिंदगी में
कोई मिल
जायेगा, और
तब इसको पता
चलेगा। हर
आदमी
अपने को कुछ
और समझ रहा है,
जो वह नहीं
है। और इसको
समझता ही हो
ऐसा नहीं, इसको
सिद्ध करने के
सब उपाय करता
है। तुम बड़ा मकान
बनाते हो, ताकि
पता चल सके कि
तुम बड़े हो।
तुम बहुत धन
इकट्ठा करते
हो, ताकि
सिद्ध हो सके
कि तुम सच में
धनी हो। तुम बड़े
पदों पर जाते
हो, ताकि
सिद्ध हो सके
कि तुम कोई
छोटे-मोटे
आदमी नहीं हो।
तुम्हारे
पूरे जीवन को
चेष्टा यही है
कि तुम किसी
भांति सिद्ध
कर दो अपने वहम
को। कुत्ता
होने का वहम
तुम्हें न हो,
लेकिन इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। बीमारी
वही है। नाम
उसके अलग-अलग
होंगे।
इस
दुनिया में
वही आदमी
धार्मिक है, जिसे कुछ भी
होने का वहम
नहीं है।
जिसने सहज जो
भी वह है उसे
स्वीकार कर
लिया, वह
भगवत्ता को
उपलब्ध हो
जाता है। लेकिन
जब तक तुम
सिद्ध कर रहे
हो कि तुम कुछ
हो...तुम्हें
भी पता न चलता
हो, लेकिन
तुम्हारी चाल बतायेगी, तुम्हारा
उठना-बैठना बतायेगा, कि तुम कुछ
हो।
एक धनी
आदमी यहां
आयेगा तो वह
देखता है उसके
योग्य जगह, जहां वह
बैठे। अगर
पीछे बैठना
पड़े तो उसके
बैठने में तुम
देख सकते हो
कि बड़ा कष्ट
पा रहा है।
अगर आगे बैठने
को मिल जाये
तो तुम उसकी
प्रफुल्लता
देखो। जिसको
महत्त्वाकांक्षा
है जीवन में, अगर तुम उसे
नमस्कार करो
तो देखो उसका
चेहरा कैसा
खिल जाता है।
और तुम उसे
बिना देखे
निकल जाओ तो
देखो, सब
कैसा उदास और
स्याह हो जाता
है!
जिंदगी
का थोड़ा
अध्ययन करो।
खुद का अध्ययन
करना तो थोड़ा
मुश्किल है।
क्योंकि वहां
तुमने इतना
ज्यादा
तादात्म्य
बना लिया है
कि अध्ययन करने
योग्य दूरी
नहीं है, परिप्रेक्ष्य
नहीं है। पहले
दूसरों का
अध्ययन करो।
राह के किनारे
कभी बैठ जाओ
और चलते हुए
लोगों को
चुपचाप देखो।
उन्हें पता मत
चलने दो कि
तुम उनको देख
रहे हो, अन्यथा
तुम उनकी सचाई
न देख पाओगे।
अगर उन्हें
जरा भी पता चल
गया कि तुम
देख रहे हो, वे बदल
जायेंगे।
तुमने देखा कि
वे बदले।
वैज्ञानिक
तो हैरान हुए
हैं इस बात से
कि आदमी बदलता
है सो तो ठीक; वैज्ञानिक
कहते हैं कि
परमाणु की जो
आखिरी विघटित
संभावना है--इलेक्ट्रॉन,
अगर उसका
निरीक्षण करो
तो वह अपनी
चाल बदल देता
है।
इलेक्ट्रॉन!
उसे अगर तुम
खुर्दबीन से
देख रहे हो, तो तुम
पक्का मत
समझना कि उसका
व्यवहार वही
होगा, जो
तुमने न देखा
होता तब होता।
और इससे
भौतिक-शास्त्र
की आधारभूत धारणायें
खंडित हो गईं।
इससे सिद्ध
होता है कि
इलेक्ट्रॉन
भी सचेतन है; वह भी देखे
जाने से
व्यवहार बदल
देता है। यह तो
ठीक है कि घर
में तुम गये
भीतर, तो
घर का मालिक
अकेला बैठा था
तो और था, तुम्हारे
पहुंचने से और
हो गया। लेकिन
इलेक्ट्रॉन
भी, जब तुम्हारी
नजर उस पर
पड़ती है, तो
व्यवहार बदल
देता है। इसका
मतलब हुआ कि
यह पूरा जगत
सचेतन है। और
देखनेवाले पर
निर्भर करता
है।
तुम
राह से गुजरते
लोगों को इस
भांति देखना
कि उन्हें पता
न चले कि तुम
देख रहे हो।
तब तुम बड़े
चकित होओगे।
कोई आदमी अपने
से ही बातचीत
करता चला जा
रहा है। अपने
से बातचीत
सिर्फ पागल
करते हैं।
लेकिन वह इतना
मशगूल है कि न
केवल बातचीत
कर रहा है, हाथ से मुद्रायें
भी बना रहा है,
जवाब भी दे
रहा है। उसके
चेहरे को तुम
देखो, वह
बिलकुल
संलग्न है
चर्चा में।
वैसे कोई भी नहीं
है उसके
आसपास। अगर
तुमने देख
लिया और उसने
भी देख लिया
कि तुमने देख
लिया, वह
तत्क्षण बदल
जायेगा।
चेहरा और हो
जायेगा। वह
चेहरा उधार
है। वह
वास्तविक
नहीं है। वह
मुखौटा है। वह
दिखाने के लिए
है।
अंग्रेजी
में शब्द
है--पर्सनैलिटी।
वह शब्द आता
है यूनान से, परसोना से।
परसोना का
अर्थ होता है,
मुखौटा।
परसोना का
अर्थ होता है
कि नाटक में पुराने
दिनों में लोग
एक चेहरा पहन
के काम करते
थे। अभी भी
हमको किसी को
रावण बनाना हो
तो क्या
करेंगे? एक
चेहरा उसको
पहना देंगे।
वह रावण हो
गया। यह
अंग्रेजी का
शब्द 'पर्सनैलिटी'
बड़ा कीमती
है। इसका मतलब
है कि तुम्हारा
जो भी
व्यक्तित्व
है, वह
मुखौटा है। वह
तुमने ओढ़ा
हुआ है। वह
असली नहीं है।
और तुमने इतने
मुखौटे ओढ़ लिए
हैं कि अब
तुम्हें असली
का पता लगाना
ही मुश्किल है
कि असली कौन
है?
इसलिए
झेन फकीर अपने
शिष्यों को
कहते हैं, इसके पहले
के तुम
परमात्मा के
संबंध में कुछ
पूछो, अपने
असली चेहरे का
पता लगा कर
आओ। क्योंकि
इन नकली
चेहरों से उस
असली का मिलन
न हो सकेगा। असली
से केवल असली
मिल सकता है।
पहले
प्रामाणिक
बनो और अपने
ओरिजिनल फेस
को, उस मूल
चेहरे को खोज
लाओ, जो
जन्म के साथ
तुम लेकर आये
थे।
बच्चों
में दिखाई
पड़ेगा
तुम्हें चेहरा
असली--चार साल
के पहले। कहीं
न कहीं, तीन
और चार साल के
बीच में
दुर्घटना
घटती है और
चेहरा नकली हो
जाता है।
बच्चा अगर खेल
रहा है अकेला,
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
तुम गुजर जाओ
कमरे से, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। वह लीन
है अपने में।
तुम्हारे
देखने से कोई
बहुत अंतर
नहीं पड़ता।
जिस दिन
तुम्हारे
देखने से अंतर
पड़ने लगे, समझना
कि झूठा चेहरा
आ गया, और
बच्चा अब
बच्चा नहीं
रहा। बचपन
गया। यह बच्चा
भी धोखा हो
गया।
लेकिन
तुम बड़ी जल्दी
करते हो कि
बच्चा धोखा हो
जाये।
क्योंकि जैसे
वह धोखा हो
जाये, समाज
का हिस्सा हो
जाता है। जब
तक बच्चा धोखा
नहीं देता, तब तक वह
समाज के बाहर
है। वह समाज
के भीतर स्वीकृत
नहीं हुआ।
उसका अभी
यज्ञोपवीत
नहीं हुआ। अभी
उसका खतना
नहीं हुआ। अभी
वह बाहर है।
अभी वह
जंगली-जानवर
जैसा
है--शुद्ध, सरल,
सहज। अभी वह
बिलकुल फिक्र
नहीं करता कि
लोग उसके
संबंध में
क्या सोचते हैं।
अभी उसकी धारा,
जैसा वह है,
वैसी है।
जिस दिन से
बच्चा ध्यान
देने लगे कि तुम
क्या सोचते हो
और वैसा
व्यवहार करने
लगे, उसी
दिन झूठ आया।
तुम्हें
पहले लोगों का
निरीक्षण
करना होगा। क्योंकि
दूसरों के साथ
निरीक्षण
आसान है। दूरी
है। जब तुम
दूसरों का
निरीक्षण करने
में सफल हो
जाओ, तब तुम एक
प्रयोग करना
छोटा सा--आईने
के सामने।
एकांत में।
आईने के सामने
सोचना कि मैं
अपनी पत्नी के
सामने खड़ा
हूं। कैसा
मेरा चेहरा हो
जाता है? ठीक
उस चेहरे को
लाना; मुखौटे
को, जो
पत्नी के
सामने तुम
बनाते हो। और
उसको आईने में
देखना। फिर
खयाल करना
प्रेयसी का।
उसके सामने
तुम्हारा
चेहरा कैसा हो
जाता है? तब
उसको आईने में
देखना और तुम
पाओगे ये
दोनों चेहरे
इतने अलग हैं
कि एक ही आदमी
के हो सकते हैं,
यह बड़ा
मुश्किल है।
तब तुम
देखना कि जब
तुम मालिक के
सामने खड़े होते
हो, तो
तुम्हारा
चेहरा कैसा हो
जाता है? उस
चेहरे को
लाना। थोड़ी
देर लगेगी, लेकिन जल्दी
ही तुम उसको
लाने में सफल
हो जाओगे। तब
तुम पाओगे कि
उस चेहरे में
जैसे पूंछ लग गई
और वह हिल रही
है। तुम मालिक
की खुशामद कर
रहे हो उस
चेहरे के ढंग
से। फिर ख्याल
करना कि जब
तुम्हारा
नौकर आता है, तब तुम कैसा चेहरा
बना लेते हो? तब एक ऐसी
गहन उपेक्षा आ
जाती है, जैसे
कोई आया ही
नहीं। तुम
कमरे में बैठे
हो, नौकर
आता है, झाडू
लगा जाता है; तुम इस तरह
व्यवहार करते
हो जैसे कोई
आया ही नहीं।
जैसे हवा का
झोंका आया और
कचरे को लेकर
बाहर चला गया।
नौकर में कोई
व्यक्तित्व
थोड़े ही है!
उसमें कोई
आत्मा थोड़े ही
है! उससे
तुम्हारा कोई
संबंध थोड़े ही
है! उसका कोई
सम्मान, कोई
आदर, कोई
भाव, कोई
सवाल नहीं
उठता। नौकर और
तुम्हारे बीच
अलग तरह का
चेहरा है।
मालिक और
तुम्हारे बीच
अलग तरह का
चेहरा है। जब
तुम्हारा
किसी से मतलब
होता है तब और
जब तुम्हारा
किसी से कोई
मतलब नहीं
होता है तब, तुम्हारे
अलग-अलग चेहरे
होते हैं।
इसको
तुम आइने
को सामने
अध्ययन करना।
हर मुखौटे को
लाना और तुम
पाओगे कि
मुखौटे
तुम्हें
आच्छादित कर
लेते हैं। और
जब तुम सफल हो
जाओ कुछ
महीनों तक प्रयोग
कर करके और
तुम इतने कुशल
हो जाओ कि जब
तुम चाहो गेयर
बदल सको--एक
मुखौटा, दूसरा,
तीसरा, चौथा--जैसे
तुम बटन दबाओ
मुखौटे आने
लगें, जाने
लगें, तब
तुम आखिरी
प्रयोग करना
और वह यह है कि
सब मुखौटे छोड़
दूं। अगर मैं
अकेला हूं
पृथ्वी पर, कोई देखने
वाला नहीं, न मालिक, न
नौकर, न
पत्नी, न
प्रेयसी, न
मित्र, न
शत्रु, कोई
भी नहीं।
तीसरा
महायुद्ध हो
गया, सारे
लोग मर गये, तुम अकेले
बचे हो। कोई
भी नहीं है, तुम अकेले
हो, तब
तुम्हारा
चेहरा कैसा
होगा? तब
शायद तुम्हें
मौलिक चेहरे
की थोड़ी सी
झलक मिले। फिर
उस मौलिक
चेहरे पर
ध्यान करना।
जैसे-जैसे
मौलिक चेहरा
तुम्हारे
जीवन में
उभरने लगे, वैसे-वैसे
प्रामाणिकता,
आथेन्टिसिटी पैदा होगी।
पहली
दफा तुम असली
हुए। नकलीपन
से छुटकारा हुआ।
पहली दफा तुम
आदमी बने।
पहली दफा नाटक
छूटा और
जिंदगी सच्ची
हुई। पहली दफा
तुम्हें जड़ें मिलीं।
तुम ऊपर-ऊपर न
रहे, गहरे
हुए। कभी-कभी
तो वर्षों लग
जाते हैं इस
मौलिक चेहरे
की खोज में।
लेकिन जिसको
भी यह मिल
जाता है, वही
परमात्मा हो
जाता है।
क्योंकि
तुम्हारा मौलिक
चेहरा तो
परमात्मा का
ही है। और तुम
बड़े पागल हो
कि तुमने बहुत
छोटी सी और
छुद्र चीज में
बड़ी कीमती चीज
को गंवा दिया।
तुमने इस खेल में
कंकड़-पत्थर
इकट्ठे कर लिए
हैं और हीरे
फेंक दिए।
लेकिन यह खेल
ऐसा है कि तभी
तक जारी रहेगा,
जब तब तुम
यह नासमझी
करते रहो।
मैंने
सुना है कि एक
समुद्र तट पर
एक आदमी भीख मांगता
था और वर्षों
से एक खेल
वहां चल रहा
था। और वह खेल
यह था कि लोग
रुपये का नोट
और दस पैसा या
चार आने का
सिक्का उसके
सामने करते कि
तू ले ले, जो
भी लेना हो।
वह हमेशा दस
पैसे का
सिक्का या दो
पैसे का
सिक्का उठा
लेता। या एक
पैसे का सिक्का
और नोट छोड़
देता। लोग बड़े
प्रसन्न
होते। लोग बड़े
हंसते उसकी
नासमझी पर कि मूढ़, कितना
भोला है! यह
बिलकुल नासमझ
है। इसे यह ही पता
नहीं कि रुपये
का नोट छोड़
रहा है। सौ
रुपये का नोट
भी रखो, और
एक पैसा रखो, तो वह एक
पैसा उठा लेता
और बड़ा
प्रसन्न
होता।
किसी
आदमी ने उससे
पूछा कि भई, ऐसा तू
वर्षों से कर
रहा है, कोई
बीस साल से हम
भी देखते हैं,
क्या तुझे
अब तक समझ में
नहीं आया कि
नोट सौ रुपये
का है? और
एक पैसा तू
उठाता है।
चमकदार देखकर?
उसने कहा, समझ में तो
सब मुझे पहले
दिन से ही है।
लेकिन जिस दिन
मैंने नोट
उठाया, उसी
दिन खेल बंद
हो जायेगा। और
एक-एक पैसा
उठाकर मैं
हजारों रुपये
उठा चुका हूं
अब तक। और एक
रुपये का नोट,
या सौ का
नोट एक दफे उठा
सकता हूं, खेल
बंद! फिर, ये
लोग नासमझ
नहीं हैं, फिर
ये नहीं
आयेंगे। अभी
ये मजा ले रहे
हैं मेरी
नासमझी का।
इससे खेल चल
रहा है।
पर खेल
बड़ा महंगा है!
वह भिखारी तो
होशियार था, तुम उतने
होशियार नहीं
हो। क्योंकि
इस खेल में
तुमने वह सब
गंवा दिया है,
जो पाने
योग्य है। और
वह सब पा लिया
है, जो
बिलकुल पाने
योग्य नहीं
है। मरते वक्त
तुम्हारे पास
सिवाय
मुखौटों के एक
संग्रह के और
क्या होगा? मरते क्षण
तक लोग मुखौटे
नहीं छोड़ते
हैं।
एक मारवाड़ी
मरा, तो उसने
अपने वकील को
कहा कि जो-जो
नौकर मेरे घर
पांच साल से
नौकरी कर रहे
हैं, सबको
पचास-पचास
हजार रुपया
मैं दान कर
देता हूं।
वकील को भी
भरोसा नहीं
हुआ। क्योंकि
वह जिंदगी से
इसको जानता
था। इसने पांच
पैसे कभी किसी
को नहीं दिया।
यह पचास हजार
रुपये एक-एक
नौकर को? और
नौकर उसके
काफी थे, बड़ा
कारबार था।
वकील ने कहा
कि 'मैं
समझा नहीं, आप होश में
तो हैं?' उस मारवाड़ी
ने कहा, 'मैं
और बेहोश? तुम्हारी
समझ में नहीं
आ रहा है।
मेरे घर ऐसा कोई
नौकर है ही
नहीं जिसे
पांच साल तक
मैं टिकाऊं।
इसलिए देना तो
एक को भी न
पड़ेंगे, लेकिन
पचास हजार
एक-एक को दिये,
दान की
चर्चा हो
जायेगी।'
मरते
वक्त भी दान
की चर्चा में
रस है। मुखौटा
छूटता नहीं है
आखिरी दम तक।
मरने के बाद
भी लोग मेरे
संबंध में
क्या कहेंगे, यही
महत्वपूर्ण
है। मैं क्या
हूं, यह
महत्वपूर्ण
नहीं है।
तुम्हें अपने
होने में तो
कोई रस ही
नहीं है, लोग
क्या कहते हैं
तुम्हारे
संबंध में बस,
इसी में रस
है। यह गृहस्थ
का लक्षण है।
संन्यस्त
का लक्षण है
कि मैं क्या
हूं, यह मेरा
रस है। लोग
क्या कहते हैं,
इसका क्या
प्रयोजन? लोग
क्या कहते हैं,
यह उनकी बात
है। मैं क्या
हूं, यह
मेरी बात है।
मेरे और
परमात्मा के
बीच मैं क्या
हूं, वही
प्रगट होगा।
लोग क्या कहते
हैं, वह
मेरे और परमात्मा
के बीच प्रगट
नहीं होगा।
क्योंकि परमात्मा
को तुम
मुखौटों से
धोखा नहीं दे
पाओगे। वहां
तो तुम्हारा
असली, मौलिक
चेहरा ही
प्रगट होगा।
वहां तो तुम
बिलकुल नग्न
बच्चे की
भांति खड़े हो
जाओगे। वहां
तो तुम अपना
साज-शृंगार न
ले जा सकोगे।
उसके सामने
तुम जैसे खड़े
होओगे, वैसा
ही जो व्यक्ति
संसार के
सामने खड़ा हो
जाता है, वह
संन्यस्त है।
अब हम
इस छोटी सी
घटना को समझने
की कोशिश करें।
सीरो
विहार के सदगुरु
होगेन
रात्रि-भोजन
के पूर्व
प्रवचन करने
ही वाले थे कि
उन्होंने
देखा कि जो
बांस की जाली
ध्यान के लिए
लटकाई गई थी, वह अब तक
नहीं समेटी गई
है।
सदगुरुओं
के जीवन की तो
छोटी-छोटी
घटना भी
मूल्यवान है।
कैसे रहे
होंगे ध्यानी
कि ध्यान के
लिए जो जाली
लटकाई गई थी, उसको भी
उठाना भूल गये
हैं! जाली का
लटका रहना बड़ा
सवाल नहीं है।
लेकिन ध्यान
के लिए ही
लटकाई गई थी
और ध्यान के
बाद उसे उठा
देने का नियम
है। कैसे रहे
होंगे ध्यान
करनेवाले जो
कि जाली को
लटकाया हुआ ही
छोड़ गये हैं!
झेन
गुरु
छोटी-छोटी बात
का हिसाब रखते
हैं। क्योंकि
छोटी-छोटी बात
में
ध्यानपूर्ण
होना है। तुम
आये कमरे में, कैसे तुमने
चटाई बिछाई, कैसे तुम उस
चटाई पर बैठे,
कैसे तुमने
पर्दा लटकाया
जो कि ध्यान
के लिए लटकाया
जाता है, फिर
जाते वक्त
तुमने कैसे
उसे उठाया और
खोला।
क्योंकि
झेन की एक
गहरी मान्यता
है कि तुम्हारा
व्यवहार जड़ के
साथ भी
करुणापूर्ण
होना चाहिए।
तुम चटाई भी
बिछाओ बैठने
की, तो इस
भांति बिछाना
जैसे चटाई में
भी प्राण हो।
और प्राण तो
छिपा है।
क्योंकि गहरे
में इस जगत
में कुछ भी
निष्प्राण
नहीं है।
लेकिन
तुम तो
व्यक्तियों
के साथ भी ऐसा
व्यवहार करते
हो जैसे वे
निष्प्राण
हों। तुम तो
व्यक्तियों
को भी वस्तुएं
बना देते हो।
तुम तो उनका
भी शोषण करते
हो। तुम तो
उनका भी उपयोग
करते हो। और
जब तक कोई
व्यक्ति
तुम्हें काम
पड़ता है तब तक
ठीक, जब काम
नहीं पड़ता तो
जैसे कोई दूध
से मक्खी को निकाल
कर फेंक देता
है ऐसा तुम उस
व्यक्ति को भी
फेंक देते हो।
उपयोग
व्यक्ति का यह
अर्थ हुआ कि
व्यक्ति को
तुमने वस्तु
बना लिया।
शोषण है! और
जहां शोषण है,
वहां करुणा
कैसी?
साधारण
आदमी व्यक्ति
को भी वस्तु
बना देता है।
और झेन की
धारणा है कि
संन्यासी को
वस्तु को भी
व्यक्ति बना
लेना चाहिए, जैसे उसका
भी
व्यक्तित्व
है। सवाल यह
नहीं है कि
व्यक्तित्व
है या नहीं।
सवाल यह है कि
जब तुम
व्यक्तियों
को वस्तु
बनाते हो, तब
तुम अपनी
आत्मा खो रहे
हो। क्योंकि
तुम्हारे
व्यवहार से ही
तुम्हारी
आत्मा निखरती
है। अगर तुमने
व्यक्तियों
को भी वस्तु
बना लिया, जैसा
कि लोगों ने
बनाया है तो...।
हिंदुस्तान
में लोग कहते
हैं, पत्नी
संपत्ति है।
इससे ज्यादा मूढ़ता की
कोई बात नहीं।
संपत्ति है
इसलिए तुम
चाहो तो जूए
में दांव पर
लगा सकते हो।
और भले
आदमियों ने, युधिष्ठिर
जैसे आदमियों
ने दांव पर
लगा दिया। जब
धर्मराज
पत्नी को दांव
पर लगा सकते
हैं, तो
तुम्हारी तो
क्या गणना!
तुमने भी
लगाया होगा।
धर्मराज की
कथा लिखी गई, तुम्हारी
लिखी नहीं गई।
कथा सूचक है, बड़ी सूचक
है। और जो
आदमी अपनी
पत्नी को दांव
पर लगा सकता
है, वह भी
लोकमान्यता
में धर्मराज
बना रह सकता
है।
लोग
बड़े अंधे हैं।
जीवित आत्मा
को दांव पर
लगाना
परमात्मा को
दांव पर लगाना
है। यह कैसे
संभव हुआ? लेकिन धारणा
यह थी कि
पत्नी
संपत्ति है।
इसलिए
पति अगर मार
भी डाले, तो
चीन में कानून
है कि पति पर
कोई मुकदमा
नहीं चलाया जा
सकता। ऐसे ही,
जैसे तुम
अपनी कुर्सी
को तोड़ डालो,
तुम्हारी
मौज! तुम अपने
घर को गिरा दो,
कोई अदालत
बाधा न
डालेगी।
तुमने पत्नी
मार डाली, कोई
हर्जा नहीं।
चीन में तो
लिखा है
शास्त्रों
में कि पत्नी
में आत्मा
होती ही नहीं।
वह संपदा है।
आत्मा तो पुरुष
में होती है।
पुरुषों का
समाज है।
उन्होंने स्त्रियों
का अनंत काल
से शोषण किया
है। उनको वस्तुएं
बना दिया।
उनकी स्थिति दासियों
जैसी है। उनका
उपयोग है तब
तक ठीक; जब
उपयोग नहीं है,
तब वह
व्यर्थ हैं।
जब कोई
व्यक्ति जीवित
व्यक्ति के
साथ ऐसा
व्यवहार करता
है, तो एक बात
गहरे में घटती
है और वह यह कि
उसकी खुद की
चेतना
धीरे-धीरे जंग
खा जाती है।
क्योंकि जब
कोई चेतन नहीं
है तुम्हारे
चारों तरफ, तुम कैसे
चेतन रहोगे? तुम्हारी
चेतना का
विकास, ऊर्ध्वीकरण जो चारों
तरफ आत्मायें
हैं, उनके
ही संसर्ग, सत्संग से
होता है। जब
तुम वस्तुओं
के साथ ही रहते
हो सदा, तब
तुम भी
धीरे-धीरे
वस्तु हो जाते
हो। जीवन एक
चुनौती है।
अगर तुम
मुर्दा लोगों
के साथ रहोगे,
मर जाओगे; अगर जिंदा
लोगों के साथ
रहोगे, तो
जीवन होगा; अगर पत्थरों
के साथ रहे तो
पत्थर जैसे हो
जाओगे।
क्योंकि तुम
जिसके साथ
रहते हो, धीरे-धीरे
वैसे ही हो
जाते हो।
इसीलिए
तो हम सत्संग
खोजते हैं।
सत्संग का अर्थ
है, ऐसे किसी
व्यक्ति के
पास होना, जिसे
परमात्मा का
अनुभव हुआ हो,
जो
परमात्म-रूप
हो गया हो। तो
आशा बंधती
है कि उसके
सत्संग में, तुम्हारे
भीतर का
परमात्मा भी जागेगा; उसको चुनौती
मिलगी, वह भी
उठेगा। जहां
सभी तरफ
अंधकार भरा हो,
वहां
तुम्हारी
ज्योति
ज्यादा दिन न
जलेगी, बुझ
जायेगी।
तुम्हारी
ज्योति को
जलाने के लिए
चारों तरह ज्योतियां
चाहिए।
ऐसा ही
समझो कि अगर
तुम्हारे
चारों तरफ
गंदगी हो, तुम कितनी देर
तक स्वच्छ रह
पाओगे? तुम
अगर स्वच्छ
रहना चाहते हो,
तो चारों
तरफ स्वच्छता
चाहिए। अगर
तुम सुंदर रहना
चाहते हो, तो
सब तरफ
सौंदर्य
चाहिए। अगर
तुम शांत रहना
चाहते हो, तो
सब तरफ शांति
चाहिए।
क्योंकि
व्यक्ति कोई टूटी
हुई वस्तु
नहीं है, जुड़ी
है। सबसे जुड़ी
है। तुमने जो
व्यवहार
दूसरों के साथ
किया, वही
व्यवहार तुम
दूसरों से
अपने प्रति
पाओगे।
तो
संन्यस्त की
यह दीक्षा का
प्रारंभ है कि
अब से वह
व्यक्तियों
के साथ वस्तु
जैसा व्यवहार न
करेगा। वरन
ठीक विपरीत!
वस्तुओं के
साथ भी व्यक्तियों
जैसा व्यवहार
करेगा। वस्तु
को भी छूयेगा
तो ऐसे जैसे
वह सप्राण है।
वस्तु के साथ
भी समादर, वस्तु के
साथ भी सदभाव,
वस्तु के
साथ भी करुणा!
झेन
गुरु होगेन
ने देखा कि
बांस की जो
जाली ध्यान के
लिए लटकाई गई
थी, वह अब तक
उठाई नहीं गई
है।
ध्यानी
कैसा ध्यान
किए? ऐसी बात
भूल गये! तो
विस्मरण हो
गया। और ध्यान
का अर्थ है
स्मरण; प्रत्येक
छोटी से छोटी
बात का स्मरण।
ध्यानी को यह
कहने का मौका
नहीं आना
चाहिए कि मैं
भूल गया। यह
कहने का अर्थ
है कि उतनी
देर के लिए ध्यान
खो गया और तुम
बेहोश हो गये।
तो
उन्होंने
उसकी ओर इशारा
किया। और
तुरंत दो साधु
सभा से उठकर
उसे समेटने
लगे। उस
प्रकृत क्षण
का निरीक्षण
करते हुए सदगुरु
ने कहा, 'पहले
साधु की दशा
तो ठीक है, पर
दूसरे की
नहीं। द स्टेट
ऑफ द फर्स्ट मांक इज
गुड, नॉट
दैट आफ द अदर।'
छोटी
सी घटना और
अनायास घटी।
जाली छूट गई
है लटकी बांस
की। गुरु ने
इशारा किया, दो साधु
उठे। पर उनका
उठना भिन्न
रहा होगा।
उठने-उठने में
फर्क है।
उन्होंने
जाली समेटी।
कृत्य
बिलकुल एक
जैसा, लेकिन
करने वाले अलग
हैं, तो
कृत्य का गुण
धर्म बदल जाता
है। इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता कि तुम
कर्म कैसा
करते हो? फर्क
इससे पड़ता है
कि तुम्हारी
आत्मा कैसी
है! क्योंकि
तुम्हारे
कृत्य
तुम्हारी
आत्मा से
निर्धारित होते
हैं; तुम्हारी
आत्मा
तुम्हारे
कृत्यों से
नहीं।
महावीर
भी पैर फूंक
कर रखते हैं
कि कोई चींटी, कोई कीड़ा न
मर जाये। फिर
हजारों
जैन-मुनि भी पैर
फूंक कर रखते
हैं। कृत्य
बिलकुल एक
जैसा है।
लेकिन महावीर
जैसा आनंद
जैन-मुनि में
दिखाई नहीं
पड़ा। आत्मा
भिन्न है।
महावीर के लिए
जो कृत्य भीतर
से आ रहा है, जैन-मुनि के
लिए बाहर के
आचरण
से आरोपित
किया जा रहा
है। महावीर का
जो अपना विवेक
है, जैन-मुनि
के लिए वह
शास्त्र से
मिला हुआ
अनुशासन है।
महावीर
पैर फूंक कर
रख रहे हैं, क्योंकि वह
जो चींटी है, वह उतनी ही
मूल्यवान है
जितने वे
स्वयं। और जब
हम जीवन को
पैदा न कर
सकें, तो
उसे मारने का
हक हमें कहां?
वह जीवन का
सम्मान है, जिसको श्वाइत्जर
ने इस सदी में 'रेवरेन्स फॉर लाइफ' कहा है। वह
जीवन का सहज
सम्मान है।
और
जिसको अपने
जीवन की गरिमा
का अनुभव हुआ
है, उसे सबके
जीवन की गरिमा
की प्रतीति
होगी। क्योंकि
जिसने अपने
भीतर के दीये
को जला हुआ
देखा है, उसे
चाहे कितना ही
मंदा क्यों न
जल रहा हो, चींटी
के भीतर भी
वही दीया जल
रहा है।
वस्तुतः
महावीर का
चींटी का
सम्मान अपने
ही सम्मान का
विस्तार है।
जिसने अपनी
महिमा जानी, उसने सभी की
महिमा को जान
लिया है। तो
महावीर जब पैर
फूंककर
रखते हैं, तो
किसी भय के
कारण नहीं कि
चींटी मर न
जाये। बल्कि
किसी गहरे
सम्मान के
कारण।
ध्यान
रखना, भय और
सम्मान में
बड़ा फर्क है।
किसी डर से
नहीं कि नरक
में सडूंगा,
अगर चींटी
मर गई। तब तो
यह दूकानदार
की भाषा है।
तब चींटी के
मरने से
प्रयोजन नहीं
है, नरक
में सड़ने
का डर है। तब
चींटी अगर
मरती हो और
फिर भी स्वर्ग
जाने का उपाय
हो, तो
महावीर फिक्र
न करेंगे। फिर
क्या फिक्र की
जरूरत है? फिर
तो आदमी भी
मरता हो और
स्वर्ग जाने
का उपाय हो, तो फिर महावीर
फिक्र आदमी की
भी न करेंगे।
नहीं!
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं, महावीर
फिक्र
करेंगे।
अनुयायी
फिक्र नहीं करेंगे।
महावीर को अगर
यह भी पता चल
जाये कि चींटी
को मारने से
स्वर्ग छिन
जायेगा, या
स्वर्ग मिल
जायेगा, कि
चींटी को
मारने से ही
स्वर्ग
मिलेगा और अगर
न मारी तो नरक
में पड़ोगे, कोई फर्क
नहीं पड़ेगा; महावीर फिर
भी पैर फूंक
कर ही रखेंगे।
अगर महावीर को
यह भी पता चल
जाये कि
तुम्हारा
पूरा आचरण, करुणा का
आचरण नरक ले
जाने वाला है,
तो वे नरक
पसंद करेंगे।
करुणा का आचरण
नहीं छोड़
देंगे।
क्योंकि यह
कोई बाहरी
व्यवस्था नहीं
है। यह कोई
अनुशासन नहीं
है। यह भीतर
की प्रज्ञा
है। यह सम्मान
है। वे कहेंगे,
तो ठीक है, नरक बेहतर!
लेकिन चींटी
को मारना संभव
नहीं। मोक्ष
छोड़ देंगे, चींटी को
मारने को राजी
न होंगे।
गणित
बिलकुल अलग
है। जैन मुनि
इसीलिए बच रहा
है कि कहीं
मोक्ष न छिन
जाये। अगर उसे
पक्का कोई
भरोसा दिला दे, अगर कोई
लिखित प्रमाण
मिल जाये, अगर
मोक्ष से एक
आवाज आये और
कहे कि नासमझो,
चींटी को
मारने से तो
मोक्ष का
रास्ता खुलता
है, क्योंकि
इतनी आत्मायें
तुमने चींटी
की देह से
मुक्त कर दीं,
तो यह जो
अभी चींटी
फूंक-फूंक कर
चल रहा था पैर,
यह
चींटियों की
तलाश में निकल
जायेगा कि
जितनी मार लो,
उतना
बेहतर।
क्योंकि उतना
ही ज्यादा लाभ
है।
कृत्य
ऊपर से समान
हो सकते हैं।
और इसी से बड़ी भूल
पैदा होती है।
हम देखते हैं
बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को; उनको तो हम
नहीं देख
पाते।
क्योंकि उनको
देखने को तो
वे ही आंखें
चाहिए, जो
स्वयं को
देखने में
समर्थ हों।
उससे कम में
काम नहीं
चलेगा। जब तक
तुम महावीर
जैसे न हो जाओ,
तुम महावीर
को देख कैसे
पाओगे? वह
आंख तुम्हारे
पास अगर होती
जो महावीर को
देखती, तो
तुम्हीं को
देख लेती। वह
दृष्टि
तुम्हारे पास
नहीं है। तो
महावीर तो
नहीं दिखते, उनके कृत्य
दिखाई पड़ते
हैं।
ऐसा
समझो कि कोई
आदमी गुजर रहा
हो नदी के
किनारे से, आदमी तो
तुम्हें
दिखाई न पड़ता
हो, उसके
चरण-चिह्न रेत
में बनते हुए
दिखाई पड़ते हैं।
तो महावीर तो
अदृश्य हैं।
उनके कृत्य, उनके
चरण-चिह्न
दिखाई पड़ते
हैं। महावीर
का तो हमें
कोई पता नहीं
है। बुद्ध का
हमें कोई पता
नहीं है। हम
वही देख पाते
हैं, उन्होंने
क्या किया।
फिर हम
बंदरों जैसे
हैं।
उन्होंने जो
किया उसका
इमिटेशन, उसकी
नकल करते हैं।
और सोचते हैं,
जो
उन्होंने
किया, वही
करके हम भी
वही हो
जायेंगे, जो
वे हो गये।
इस भूल
में मत पड़ना।
उन्होंने जो
किया, वह
उनकी आत्मा से
आ रहा है।
उन्होंने जो
किया, उससे
उनकी आत्मा
नहीं आई है।
आचरण अंतस से
जन्मता है; अंतस आचरण
से नहीं। भीतर
से बाहर झलक
आती है, बाहर
से भीतर नहीं।
केंद्र से
परिधि जीती है,
परिधि से
केंद्र नहीं।
कृत्य तो
लहरों की भांति
हैं--ऊपर-ऊपर।
आत्मा तो गहरे
सागर की भांति
है--भीतर।
सागर हो सकता
है बिना लहर
के, लहर
बिना सागर के
नहीं।
तुम
कृत्यों को
पकड़ लेते हो।
वे दिखाई पड़ते
हैं
स्वभावतः।
इसलिए
क्षुद्र हाथ
में आ जाता है।
फिर लोग नकल
में निष्णात
हो जाते हैं।
जिनको तुम
साधु-संन्यासी
कह रहे हो वे
नकलची हैं। वे
नकल में
निष्णात हो गये
हैं। वे इतने
निष्णात हो
गये हैं कि
अगर महावीर भी
आयें, तो
प्रतियोगिता
में जीत नहीं
सकते हैं। अगर
प्रतिस्पद्र्धा
हो तो तुम
पक्का मानना,
वे महावीर
को हरा देंगे।
हरा देंगे
इसलिए कि महावीर
तो सहज
जीयेंगे।
उनके कृत्य
में प्रतिपल
भेद होगा।
क्योंकि
कृत्य परिस्थिति
के अनुकूल
होगा। और इनके
कृत्य का परिस्थिति
से कोई संबंध
नहीं है। इनका
कृत्य तो मरा
हुआ
अंधानुकरण
है। वह सदा
वही होगा।
ऐसी एक
घटना घटी जो
बड़ी हैरानी की
है। चार्ली
चैपलिन
के जन्मदिन पर
इंग्लैंड में
एक समारोह
आयोजित किया
गया। और सारे
इंग्लैंड से
अभिनेता
बुलाये गये, जो चार्ली
चैपलिन
का अभिनय
करें। और तीन
पुरस्कार थे।
बड़े पुरस्कार
थे। खुद
सम्राट उन
पुरस्कारों
को बांटेगा।
लाखों रुपये
उनके साथ थे।
चार्ली चैपलिन को
मजाक सूझी।
उसने कहा, मैं भी
इसमें किसी और
नाम से सम्मिलित
क्यों न हो
जाऊं! और मुझे
तो प्रथम पुरस्कार
निश्चित है।
मैं खुद ही चार्ली
चैपलिन
हूं। किसी ने
यह सोचा भी
नहीं था कि चार्ली
चैपलिन
इसमें
सम्मिलित हो
जायेगा। वह एक
दूसरे गांव से
सम्मिलित हो
गया। सौ लोग
चुने गये, उनमें
एक वह भी था।
फिर सौ की
अंतिम प्रतियोगिता
हुई। और वह
हैरान हुआ।
घटना तो तब
खुली।
जब
सारी दुनिया
हंसी। वह नंबर
तीन आया! खुद चार्ली चैपलिन, चार्ली चैपलिन
का अभिनय करने
में नंबर तीन
आया। नकलची
बाजी मार ले
गये। मार ही
ले जायेंगे
हमेशा।
क्योंकि
नकलची बंधी
हुई लीक से
चलेगा। चार्ली
चैपलिन
सहज रहा होगा।
सहज में कुछ
नया आ जायेगा।
लीक पर चलने
वाला सदा
पुराने को पकड़े
रहेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन मिलने
आया। तो ऐसा
लगता था कि कई
दिनों से
स्नान नहीं
किया है। कपड़े
गंदे पहने है।
तो मैंने उससे
कहा, 'नसरुद्दीन,
कुछ तो अपने
बाप-दादों का
स्मरण करो। एक
तुम्हारे
पिता थे कि
लोग कहते हैं
पेरिस में
उनके कपड़े
सिलते थे, लंदन
में कपड़ों की
धुलाई होती थी,
और
स्वच्छता से
रहते थे। अभी
भी जो लोग
उनको जानते
रहे--क्योंकि
उनको मरे बीस
साल हो गये--जिन्होंने
उनको देखा है,
वे अब भी
उनके कपड़ों और
रहने-सहने के
ढंग और शान की
चर्चा करते
हैं। और एक
तुम हो!' नसरुद्दीन ने कहा कि
देखो, यह
मैं वही कपड़े
पहने हुआ हूं
जो मेरे पिता
पहनते थे। यह
कोट वही है।
आप बिलकुल
गलती कर रहे हैं।
यह कोट वही
है।
लेकिन
बीस साल पहले
का कोट! वह
चाहे पेरिस
में ही बना हो, चाहे कभी
लंदन में ही
धुला हो, लेकिन
समय उसे सड़ा
देगा।
सभी परंपरायें
समय के साथ सड़
जाती हैं।
लेकिन अंधों
को दिखाई नहीं
पड़ता।
वे लीक की
तरह चलते चले
जाते हैं।
महावीर को हुए
पच्चीस सौ साल
हो गये। बुद्ध
को हुए पच्चीस
सौ साल हो
गये। सब सड़
चुका है।
कभी जब
महावीर से
पैदा हुआ था
तो जीवन था, ताजा था।
अभी-अभी धुला
था। सद्यःस्नात
था। अभी-अभी
नहाया-नहाया
निकला था। तब
उसमें एक
ताजगी थी सुबह
की ओस की, नये
खिले फूल की, नई दुलहन की!
उसमें ताजगी
थी। फिर सब
बासा हो जाता
है। मगर लीक
पीटने वाले
आंख बंद करके
चलते चले जाते
हैं। वे
महावीर का ही
कोट पहने हुए
हैं। वह
जार-जार हो
गया है। वह सड़
गया है। उससे
बदबू निकल रही
है। लेकिन वे
कहते हैं, यह
महावीर का कोट
है; इसे हम
कैसे छोड़ सकते
हैं? और
महावीर इसी को
पहनकर कैसे
सुंदर दिखाई
पड़ते थे; इसी
को पहन कर हम
भी सुंदर
दिखाई पड़ रहे
होंगे।
सौंदर्य
आता है सहजता
से।
ये दो
आदमी उठे।
दोनों उठे, दोनों ने एक
ही कृत्य किया
कि जाली को
समेटा। लेकिन
गुरु ने फर्क
कर दिया।
कृत्य बराबर
एक जैसा था, लेकिन कर्ता
अलग-अलग थे।
भीतर का बोध
भिन्न था।
हो
सकता है एक
आदमी, जिसको
गुरु ने कहा
कि ठीक है, उठा
हो, उठने
में उसके
आक्रमण न हो, जल्दी न हो, धैर्य हो।
उठा हो, लेकिन
ऐसे उठा हो, जैसे समय की
कोई कमी नहीं
है, जैसे
अनंत विस्तार
है समय का।
कोई अधैर्य
नहीं है। टूट
ना पड़ा हो।
आक्रमक, हिंसक
की तरह
जल्दबाजी न की
हो।
जल्दबाजी
हिंसा है।
दूसरा
आदमी भी उठा
हो और हिंसक
की तरह झपटा
हो, कि जल्दी
से समेट कर और
अलग फेंक दे।
उस ध्यान की
जाली का सम्मान
न किया हो, उस
वस्तु का
अनादर रहा हो।
जल्दबाजी रही
हो कि खत्म
करो इसको; प्रवचन
शुरू हो।
उस
जल्दबाजी से
भीतर का तनाव
पता चला हो।
पहला आदमी उठा
हो और मन में
उनकी निंदा न
रही हो, जो
उसे लटका हुआ
छोड़ गये हैं, उनके संबंध
में कोई खयाल
ही न रहा हो।
दूसरा आदमी उठा
और उसके मन
में निंदा रही
हो कि नासमझ, कौन इसको
लटका हुआ छोड़
गये हैं!
प्रवचन में इतनी
देरी करवा दी।
भीतर उनके
प्रति
दुर्भाव आया
हो, तो सब
कुछ भेद हो
गया।
सारा
भेद भीतर से
पड़ता है।
तुम्हारे
दीये के बाहर
लगा हुआ कांच
मूल्यवान
नहीं, उसके
भीतर जलती हुई
ज्योति ही
मूल्यवान है।
तो सदगुरु
ने कहा, निरीक्षण
करते हुए
दोनों का, कि
पहले साधु की
दशा तो ठीक है,
पर दूसरे की
नहीं।
और
हमें कठिनाई
होती है समझने
में यह बात।
क्योंकि हम
सोचते हैं, दो कृत्य एक
जैसे होते
हैं। कृत्य
बिलकुल एक
जैसे भी दिखाई
पड़ें, सब
नापजोख से पता
चल जाए कि
बिलकुल एक
जैसे हैं, लेकिन
भीतर का आदमी
तो भिन्न
होगा। इसलिए
कृत्य का
गुणधर्म बदल
जायेगा।
विज्ञान इसे
नहीं पकड़
पायेगा। इसकी
पकड़ तो सिर्फ
धर्म के पास
है।
समझो, तुम एक
स्त्री का
चुंबन लेते हो,
और जिसे
तुमने कभी
प्रेम नहीं
किया और जिसके
लिए तुम्हारे
मन में कोई
प्रेम है भी
नहीं। वैज्ञानिक
जांच की जा
सकती है कि
क्या-क्या
परिणाम हुआ, दोनों के
शरीर में
कितना दबाव
पड़ा! और तुमने
एक स्त्री का
चुंबन लिया
जिसके प्रति
तुम्हारे
हृदय में बड़ा
प्रेम, बड़ी
प्रार्थना
है। विज्ञान
उसकी भी जांच
करेगा। और
विज्ञान कह
सकता है कि
दोनों चुंबन
एक जैसे थे।
लेकिन तुम
जानते हो कि
वे एक जैसे
नहीं हैं।
क्योंकि भीतर
का भाव भिन्न
था। भाव को
नापने का कोई उपाय
नहीं है।
एक
आदमी तुम्हें
चांटा मार दे; वह तुम्हारा
दुश्मन भी हो
सकता है और
तुम्हारा
मित्र भी हो
सकता है।
चांटा तो एक जैसा
होगा, लेकिन
अगर मित्र है,
तो बात बदल
गई। अगर शत्रु
है, तो बात
बदल गई। भाव
अलग है। बाप
भी बेटे को
मारता है, लेकिन
बात अलग है।
कोई और मार कर
देखे तो बात बदल
गई। चांटे
की भौतिकता
में क्या फर्क
पड़ता होगा? कोई फर्क
नहीं पड़ सकता।
अगर यंत्र
नापते होंगे,
तो कहेंगे
बिलकुल एक सी
बात है, कोई
फर्क नहीं है।
लेकिन भीतर, चांटे की भौतिकता
के भीतर छिपा
हुआ भाव भी
है। और वह भाव
सब चीजों को
भिन्न कर जाता
है।
कृत्यों
की बहुत चिंता
मत करना, भाव
की चिंता
करना। मंदिर
तुम गये या
नहीं, यह
सवाल नहीं
है...भाव! पूजा
तुमने आज की
है या नहीं, यह सवाल
नहीं है...भाव!
अगर भाव है तो
बिना पूजा के
भी पूजा चल
रही है। और
अगर भाव नहीं
है, तो सब
कृत्य ऊपर-ऊपर
हैं। ढोंग
हैं। पाखंड
हैं।
और इस
भेद को बहुत
स्पष्ट कर
लेना जरूरी
है। क्योंकि
आखरी हिसाब
में भाव तौला
जायेगा।
आखिरी हिसाब
में कृत्य
नहीं तौला
जायेगा। जिस
दिन अंतिम
निर्णय होगा
तुम्हारे
जीवन का, आखिरी
परीक्षा होगी,
उस दिन
तुम्हारे भाव
का हिसाब होगा;
तुम्हारे
कृत्यों का
नहीं।
संसार
में तौले
जाते हैं कर्म, परमात्मा
में तौला जाता
है भाव। संसार
हिसाब रखता है,
क्या तुमने
किया; परमात्मा
हिसाब रखता है,
क्या तुम
हो। तो यह भी
हो सकता है, तुम मोक्ष
में उन लोगों
को पाओ, जिनको
तुमने
मस्जिद-मंदिर
में कभी नहीं
देखा। और तुम
नर्क में उन
लोगों को पाओ
जो सदा मस्जिद-मंदिर
में ही जिंदगी
गुजारे।
संसार तो
कृत्य देख
सकता है।
क्योंकि उतनी
गहरी आंख नहीं
है, जो भाव
को देख ले।
एक
संन्यासी
हिमालय की
यात्रा पर था।
और उसने देखा
कि एक पहाड़ी
लड़की अपने
कंधे पर एक
बड़े मोटे ताजे
बच्चे को लेकर
पहाड़ चढ़ रही
है। लड़की की
उम्र मुश्किल
से नौ साल
होगी। और
बच्चा बड़ा तगड़ा
है। कम से कम
चार साल का
होगा। और भारी
वजन। और
संन्यासी भी
थक गया है।
गर्मी है, धूप तेज है, पसीना-पसीना
हो रहा है। वह
भी अपने कंधे
पर अपना थोड़ा
बहुत जो भी
बिस्तर सामान
है, वह
बांधे हुए है।
लड़की के करीब
पहुंच कर उसने
उस लड़की को
कहा, 'बेटी,
वजन बहुत है,
थक गई होगी।'
और
पसीना-पसीना बह
रहा है उस
लड़की को। उस
लड़की ने ऊपर
देखा और कहा, 'स्वामी जी, वजन आप लिए
हैं। यह मेरा
छोटा भाई है।'
तराजू
पर कोई फर्क
पड़ेगा, बिस्तर
में और छोटे
भाई में? तराजू
बराबर वजन बता
देगा। अगर तुम
बाहर ही बाहर
देखते हो तो
तुम्हारी
स्थिति तराजू
से ज्यादा
नहीं है। उस संन्यासी
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि उस लड़की ने
मुझे चौंका
दिया। जब उसने
कहा कि स्वामी
जी, वजन आप
लिए हैं; यह
मेरा छोटा भाई
है। छोटे भाई
में कैसा वजन।
वजन तो होता
ही है, लेकिन
भाव वजन को
काट देता है।
तुम्हारा
उठना-बैठना, तुम्हारा
चलना-फिरना, तुम्हारा
भोजन, तुम्हारा
सोना, यह
सब ऊपर के
कृत्य हैं। और
हर कृत्य से
तुम्हारी
आत्मा बाहर झांकती
है। तुम देखना;
कृत्य का
बहुत हिसाब मत
रखना, भाव
का हिसाब
रखना। और अगर
भाव का हिसाब
साफ होने लगा
तो तुम पाओगे,
कृत्य
बदलने लगे।
उनमें से नकल
खो जायेगी और
प्रामाणिकता
आ जायेगी। और
तुम पाओगे कि
तुम्हारे
भीतर के प्रकाश
ने तुम्हारे
बाहर के
कृत्यों को
आच्छादित कर
दिया। और तब
तुम पाओगे कि
उनका गुणधर्म
और हो गया।
उनका मूल्य ही
और हो गया। सदगुरु
कोई बहुत
बड़े-बड़े कृत्य
नहीं करता।
झेन
फकीर रिंझाई
से किसी ने
पूछा कि आप
क्या करते हैं? तो उसने कहा,
'जब मुझे
भूख लगती है
मैं भोजन कर
लेता हूं। और जब
नींद आती है
तब सो जाता
हूं। और कुछ
विशेष नहीं।'
तो उस आदमी
ने कहा, 'यह
तो हम सभी
करते हैं।' रिंझाई
हंसने लगा और
उसने कहा, 'काश,
इतना सभी
करते तो मोक्ष
दूर कहां!'
तुम
नहीं करते; तुम्हें
खयाल है।
क्योंकि जब
तुम भोजन करते
हो, तब तुम
हजार काम और
भी कर रहे हो।
मन कहीं और है,
प्राण कहीं
और हैं; भोजन
तो तुम किसी
तरह कर रहे
हो। वह
तुम्हारी प्रार्थना
नहीं है। जब
तुम सो रहे हो,
तब तुम
सिर्फ सोते हो?
तुम कितनी यात्रायें
करते हो।
कितने सपने
हैं!
रिंझाई
कह रहा है कि
जब मैं सोता
हूं, तब सिर्फ
सोता हूं। जब
भोजन करता हूं,
तब सिर्फ भोजना
करता हूं।
मेरे होने और
मेरे कृत्य
में एकता है।
मैं इकाई हूं,
अद्वैत
हूं। जो भी हो
रहा है, वह
मेरी समग्रता
से, मेरी
पूर्णता से हो
रहा है। जब
भूख लगी है, तो मैं भोजन
कर रहा हूं। वह
मेरी पूर्णता
वहां संलग्न
है। मेरे पीछे
कुछ भी नहीं
बचा है जो अलग
खड़ा होगा। और
जब मैं सो रहा
हूं, तो
मैं पूरा सो
रहा हूं। फिर
मेरे पीछे कोई
नहीं बचा है, जो सपने देख
रहा हो। मेरा
पूरा जीवन, मेरी पूरी
आत्मा, एक-एक
कृत्य में
अपनी समग्रता
से प्रविष्ट
है।
यही तो
जीवन-मुक्त का
लक्षण है। तब
वह किसी भी
क्षण मर जाये, तो
पश्चात्ताप
नहीं है।
क्योंकि सब
पूरा है। सदा
पूरा है। वह
ठीक से रात सो
लिया था, सुबह
उसने ठीक से
भोजन कर लिया
था; करने
को कुछ बचा
नहीं था। हर
कृत्य पूरा
होता जाता है
अगर तुम पूरे
उसमें हो। अगर
तुम पूरे
उसमें नहीं हो,
तो
तुम्हारा कोई
कृत्य पूरा
नहीं है। सब
अधूरा है।
तुम्हारी
जिंदगी
अधूरे-कृत्यों
का जोड़ है। और
वे
अधूरे-कृत्य
तुम्हारा
पीछा करते हैं।
एक
मूर्ति तुमने
जरा सी बनाई, वह लटकी है, तुम्हारे
सिर पर। एक
चित्र तुमने
जरा सा रंगा, वह तुम्हारे
ऊपर झूल रहा
है। एक गीत की
तुमने दो कड़ियां
बनाईं, वह
गूंज रहा है।
एक सितार
तुमने छेड़ी
थी, वह
स्वर गूंज रहा
है, लेकिन
कुछ पूरा
नहीं। सब
अधूरा है। तुम
एक कबाड़ी
की दूकान हो, जहां कुछ
पूरा नहीं है।
सब अधूरा है।
फिर तुम अशांत
न होओगे, तो
क्या होगा?
दो
व्यक्ति उठे।
उनमें से एक
उठा होगा
अत्यंत ध्यानपूर्वक।
उठने में पूरा
रहा होगा।
जैसा सोने में
रिंझाई पूरा
था, भोजन में
पूरा था, ऐसा
एक साधु उठने
में पूरा रहा
होगा। उसकी
पूरी आत्मा
उठी होगी।
उसने पर्दा
उठाया होगा।
उस उठाते क्षण
उसके मन में
कोई भी विचार
न रहा होगा, सिर्फ इस
पर्दे को
उठाने का
कृत्य रहा
होगा। निर्विचार
यह घटना घटी
होगी। इसलिए
गुरु ने कहा
कि पहले साधु
की दशा तो ठीक,
पर दूसरे की
नहीं। दूसरे
ने उठा दिया
होगा पर्दा
बिना किसी
विवेक के, बिना
किसी ध्यान के,
बिना
निर्विचार
हुए। मन कहीं
और गूंजता रहा
होगा।
बुद्ध
परम-ज्ञान को
उपलब्ध हुए, उसके पहले
की घटना है।
वह एक गांव से
गुजर रहे थे।
एक भिक्षु
आनंद साथ था।
अचानक वे रुक
गये बीच
रास्ते पर।
आनंद हैरान
हुआ कि क्या
हुआ? आनंद
देखता रहा।
उन्होंने
धीरे से अपना
हाथ उठाया, अपने माथे
पर ले गये और
कुछ उड़ाया
माथे से। पर
वहां कुछ था
नहीं। आनंद
देख रहा है, वहां कोई
मक्खी नहीं
बैठी है।
लेकिन
उन्होंने ऐसा उड़ाया, जैसे
कोई मक्खी
बैठी हो। आनंद
ने पूछा, आप
यह क्या कर
रहे हैं? बुद्ध
ने कहा, 'मैं
तुझसे बातचीत
में लगा था, तब एक मक्खी
बैठ गई और
मैंने बिना
होशपूर्वक उसे
उड़ा दिया। अब
मैं उस तरह
उड़ा रहा हूं, जैसे मुझे उड़ाना
चाहिए था:
होशपूर्वक, मूर्च्छित
नहीं।' बुद्ध
ने कहा, 'एक
पाप हो गया।'
मक्खी
मरी नहीं है।
मक्खी को चोट
भी नहीं लगी है।
मक्खी से कोई
लेना-देना
नहीं है पाप
का। लेकिन
बुद्ध ने कहा, मूर्च्छा
में जो कृत्य
हो, वह पाप
है। मैंने
बेहोशी में
उड़ा दिया।
मेरी चेतना
पूरी की पूरी
हाथ में मौजूद
न थी। मेरी
पूरी आत्मा वहां
मौजूद न थी।
कृत्य हो गया,
जैसे किसी
ने नींद में
किया हो।
और
नींद में जो
जी रहा है, वही संसारी
है। जाग कर जो
जी रहा है, वही
संन्यासी है।
बुद्ध
ने कहा, 'अब
मैं वैसे उड़ा
रहा हूं, जैसे
मुझे उड़ाना
चाहिए था। आगे
खयाल रखूं, इसलिए इस
कृत्य को कर
लेना जरूरी
है।'
एक
साधु उठा होगा
होशपूर्वक।
और जब तुम
होशपूर्वक
कुछ करते हो, तब तुम्हारी
चमक और दीप्ति
अलग होती है।
ध्यान रखना, तब तुम्हारे
भीतर दीया जला
होता है और
तुम्हारे
चारों तरफ एक
आभा का मंडल
होता है।
जिसके पास आंख
है, वह
तत्काल देख
लेगा कि तुम
एक चमक और एक
ज्योति से भरे
होते हो। जब
तुम
होशपूर्वक
कुछ काम करते
हो, तो
तुम्हारे
भीतर का दीया
जल रहा है। और
जब तुम बेहोशी
में कुछ काम
करते हो, तब
तुम ऐसे, जैसे
सम्मोहित, नींद
में, या शराब
पीये चल रहे
हो, कुछ कर
लेते हो।
मूर्च्छा
से जो किया
जाता है, वह
भटकाता है। वह
बुरी दशा है। अमूर्च्छित
जो किया जाता
है, वह
पहुंचाता है।
वह ठीक दशा
है। कृत्य एक
से हों भला, मूर्च्छा-अमूर्च्छा
निर्णायक
हैं। महावीर
से कोई पूछता
है साधु की
परिभाषा, तो
महावीर ने कहा,
'असुत्ता मुनि।' और
किसी ने पूछी
असाधु की
परिभाषा, तो
महावीर ने कहा,
'सुत्ता अमुनि।'
जो
सोया-सोया चल
रहा है--'सुत्ता',
वह असाधु।
जो जागा-जागा
जी रहा है, असुत्ता--वह साधु।
यही तो
कृष्ण गीता
में कहे हैं
कि जब और सब सो
जाते हैं, तब भी योगी
जागता है।
जहां सब
मूर्च्छा से
भरे हैं, वहां
भी योगी
होशपूर्ण है।
आज
इतना ही।
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