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गुरुवार, 1 जनवरी 2015

ताओ उपनिषद--प्रवचन--124

प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए जिम्मेवार है—(प्रवचन—एकसौचौबीसवां)
अध्याय 79
सुलह-समझौता

भारी वैर में सुलह के बाद भी थोड़ा वैर शेष रह जाता है;
इसे संतोषजनक कैसे कहा जा सकता है?
इसलिए समझौते में संत अपने को दुर्बल पक्ष मानते हैं,
दूसरे पक्ष पर कसूर नहीं मढ़ते
पुण्यवान आदमी समझौते के पक्ष में होता है;
पापी कसूर मढ़ने के पक्ष में।
लेकिन स्वर्ग का ढंग निष्पक्ष है;
वह केवल सज्जन का साथ देता है।

जीवन में उत्तरदायित्व की समस्या बड़ी से बड़ी समस्या है। और अगर ठीक समाधान न खोजा जाए तो जीवन की पूरी यात्रा ही भ्रांत और भटक सकती है। साधारणतः सदा ही दूसरे को दोषी ठहराने का मन होता है, क्योंकि यही अहंकार के लिए तृप्तिदायी है। मैं, और कैसे गलत हो सकता हूं? मैं कभी गलत होता ही नहीं। मैं तो खड़ा ही इस भित्ति पर है कि गलती मुझसे नहीं हो सकती।

जैसे ही यह समझ आनी शुरू हुई कि गलती मुझसे भी हो सकती है, मैं का भवन गिरने लगता है। और जिस दिन यह दिखाई पड़ता है कि मैं ही सारी भूलों के लिए उत्तरदायी हूं, उस दिन अहंकार ऐसे ही तिरोहित हो जाता है जैसे सुबह के सूरज उगने पर ओस-कण। अहंकार कहीं पाया ही नहीं जाता, अगर यह समझ में आ जाए कि उत्तरदायी मैं हूं। जिसने यह जान लिया कि दायित्व मेरा है उसका अहंकार मर जाता है। और जिसने यह कोशिश की कि हर हालत में दूसरा जिम्मेवार है उसका अहंकार और भी सुरक्षित होता चला जाता है।
अहंकार को समझने की पहली बात: क्यों हम दूसरे पर दायित्व को थोपते हैं? जब भी भूल होती है तो दूसरे से ही क्यों होती है? और यही दशा दूसरे की भी है; वह भी दोष दूसरे पर थोप रहा है। तब संघर्ष पैदा होता है, कलह पैदा होती है। फिर समझौता भी कर लिया जाए तो भी कलह का धुआं तो शेष ही रह जाता है। क्योंकि समझौता तब तक सत्य नहीं हो सकता जब तक कि बुनियादी रूप से मैं यह न जान लूं कि जिम्मेवार मैं हूं। तब तक सब समझौता कामचलाऊ है, ऊपर-ऊपर है। तब ऐसा ही है कि आग को हमने राख में दबा दिया; अंगारे मौजूद हैं, और कभी भी फिर विस्फोट हो जाएगा। अवसर की तलाश रहेगी; समझौता टूटेगा; संघर्ष फिर ऊपर आ जाएगा। क्योंकि समझौते में हमने यह तो स्वीकार किया ही नहीं गहरे में कि भूल हमारी है। अगर हमने यह जान लिया कि भूल हमारी है तब तो समझौते का कोई सवाल नहीं। तब तो हम झुक जाते हैं; तब तो हम समग्र रूप से स्वीकार कर लेते हैं। तब तो किसी को क्षमा भी नहीं करना है। तब तो भूल अपनी ही थी।
कहते हैं नेपोलियन जब हार गया, और जब पराजित नेपोलियन को सेंट हेलेना के द्वीप में ले जाया गया, तो उसके किसी मित्र ने उसे कहा कि अब तुम व्यर्थ चिंता का बोझ मत ढोओ; जो हुआ, हुआ; अब तुम माफ कर दो दुश्मनों को और जीवन के इन आखिरी क्षणों में शांति से जी लो। नेपोलियन के शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं। नेपोलियन ने कहा, आई कैन फॉरगिव देम, बट आई कैन नाट फॉरगेट; मैं उन्हें क्षमा तो कर सकता हूं, लेकिन भूल नहीं सकता।
और अगर भूल नहीं सकते तो यह क्षमा कैसी? यह क्षमा मजबूरी की क्षमा है। यह क्षमा असहाय की क्षमा है। अब कुछ और किया नहीं जा सकता, इसलिए नेपोलियन क्षमा कर रहा है। लेकिन भीतर आग सुलग रही है। भीतर अभी भी वह क्रुद्ध है। और कभी अवसर आ जाए, सुविधा मिल जाए, तो फिर लड़ने को तत्पर हो सकता है।
यदि तुमने दूसरे पर दोष मढ़ने को जीवन की शैली बना लिया हो तो तुम कभी धार्मिक न हो पाओगे--एक बात निश्चित! तुम संसार में कितने ही सफल हो जाओ, तुम कितना ही धन कमा लो, कितनी ही यश-प्रतिष्ठा, लेकिन तुम वस्तुतः असफल ही रह जाओगे। क्योंकि तुम्हारे भीतर कोई क्रांति घटित न हो सकेगी। और एक ही क्रांति है, वह भीतर की क्रांति है। बाहर तुम कितना पा लेते हो उसका बहुत मूल्य नहीं है; क्योंकि भीतर तो तुम बढ़ते ही नहीं, भीतर तो तुम बचकाने रह जाते हो। बाहर की साधन-सामग्री बढ़ जाती है, भीतर का मालिक कली की तरह बंद रह जाता है। और जब तक कली न खिले तब तक जीवन में कोई सुवास न होगी। स्वर्ग तो बहुत दूर, सुवास भी नहीं हो सकती। और भीतर की कली तब तक न खिलेगी जब तक तुम्हारी दृष्टि में यह रूपांतरण न आ जाए कि भूल मेरी है।
धर्म की शुरुआत होती है इस बोध से कि भूल मेरी है। ऐसा ही नहीं कि कभी-कभी भूल मेरी होती है। अगर कभी-कभी का तुमने हिसाब रखा तो कौन निर्णय करेगा? अगर तुमने सोचा कि कभी मेरी भूल होती है, कभी और की भूल होती है, तब तुम आधे-आधे ही रहोगे। यह सवाल नहीं है कि भूल किसकी होती है, भूल तो दूसरे की भी होती है। लेकिन धार्मिक दृष्टि का यह आधार है कि जब भी कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है तो भूल मेरी है, पूर्णतः भूल मेरी है, समग्रतः भूल मेरी है। ऐसे बोध के आते ही अहंकार गिर जाता है और तुम्हारे भीतर एक क्रांति शुरू हो जाती है, तुम बदलना शुरू हो जाते हो।
पूरब और पश्चिम की दृष्टियों में यही भेद है। पश्चिम ने, दूसरे की भूल है, इस बात को इतने गहरे से अंगीकार किया है कि बड़े-बड़े दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान निर्मित हो गए हैं इसी आधार पर। अगर तुम फ्रायड के पास जाओ या फ्रायड के मनोविश्लेषक के पास, तो तुम्हारी बीमारी के लिए वह हमेशा किसी दूसरे को जिम्मेवार ठहराएगा। अगर तुम भयभीत हो तो वह तुम्हारे बचपन में खोजेगा कि शायद तुम्हारे पिता ने तुम्हें डराया हो। अगर तुम प्रेम करने में असमर्थ हो और तुम्हारे भीतर प्रेम नहीं खिलता, तो जरूर तुम्हारी मां ने कुछ किया होगा; तुम्हें प्रेम न दिया होगा, तिरस्कारा होगा, अंगीकार न किया होगा, तुमसे मां ने जल्दी ही अपना स्तन छुड़ा लिया होगा। लेकिन फ्रायड हमेशा भूल खोजेगा दूसरे में।
अब यह एक बहुत दुष्टचक्र है। अगर तुम्हारे पिता ने तुम्हारे साथ दर्ुव्यवहार किया है इसलिए तुम क्रुद्ध हो, तो तुम्हारे क्रोध को बदलने का उपाय ही न रहा। क्योंकि तुम्हारे पिता को बदलना पड़े। हो सकता है, पिता स्वर्गवासी हो गए हों। मौजूद भी हों, तो भी अगर तुम्हारे पिता फ्रायड के पास जाएं तो उनको भी वह यही समझाएगा कि तुम्हारे पिता ने तुम्हारे साथ कुछ गलत किया होगा; तुम्हारी मां ने, बचपन में किसी दूसरे ने, समाज ने, परिवेश ने कुछ किया होगा। पर मूल आधार यह है कि भूल तुम्हारी नहीं हो सकती। भूल सदा किसी और की होगी। और अगर इस तरह तुम पीछे चलो तो तुम पाओगे कि फ्रायड जैसे व्यक्ति के मन में भी ईसाइयत का बहुत ही पुराना सिद्धांत काम कर रहा है। वह यह है कि आदम ने मूल पाप किया; उसका फल आदमी भोग रहे हैं।
ईसाइयत की धारणा यह है कि तुम अगर दुख पा रहे हो तो वह आदम के पाप का फल है; पहले आदमी का। और अगर हम फ्रायड को--जो कि ईसाई नहीं मालूम पड़ता--अगर उसकी चिंतन-धारा को भी उसके ठीक अंत तक खींच कर ले जाएं तो उसका परिणाम यही होगा। तुम्हारी गलती तुम्हारे पिता पर, तुम्हारे पिता की गलती उनके पिता पर, उनके पिता की गलती उनके पिता पर, अंततः आदम पकड़ में आएगा। और आदम को बदलने का अब क्या उपाय है? तो इसका अर्थ यह हुआ कि बदलाहट हो ही नहीं सकती।
इसलिए फ्रायड का प्रभाव जितना पश्चिम में बढ़ता चला गया उतनी ही धार्मिक क्रांति की संभावना क्षीण होती चली गई। बदलोगे कैसे? तुम्हारा कोई कसूर नहीं है, तुम्हारी कोई भूल नहीं है। भूल किसी और की है। और जब तक और न बदल जाए तब तक तुम बदल नहीं सकते।
अब यह बहुत आश्चर्य की बात है--और इसे मैं कहता हूं कि धारणाएं अचेतन से काम करती हैं--फ्रायड चाहे कितना ही बचना चाहे यहूदी और ईसाई धारणाओं से, वे उसके अचेतन में छिपी हैं। उसने कभी नहीं कहा कि आदम के पाप का फल हम भोग रहे हैं। लेकिन उसने जो सिद्धांत बनाया उसका तार्किक निष्कर्ष यही होता है।
माक्र्स है, जो कि अपने को बिलकुल धर्म-विरोधी समझता है, ईसाइयत का कट्टर दुश्मन समझता है, लेकिन उसकी भी धारणा वही है कि जब भी कहीं कोई भूल है, समाज जिम्मेवार है, तुम नहीं। कोई और जिम्मेवार है। और जब तक समाज न बदलेगा तब तक तुम न बदल सकोगे। और समाज कब बदलेगा? तुम थोड़ी देर के लिए हो; समाज कब बदलेगा? और तुम अगर समाज के बदलने के लिए प्रतीक्षा किए तो तुम तो मिट्टी में मिल जाओगे। समाज तो सदा रहेगा; तुम आज हो कल नहीं होओगे।
और समाज बदलेगा कब? दस हजार साल का तो इतिहास हमारे सामने है; समाज कभी बदला नहीं। बदल कर भी नहीं बदला। बड़ी-बड़ी बदलाहटें हो गईं और समाज का मूल रूप वही का वही रहा। समाज की बदलाहट तो ऐसी ही लगती है जैसे ऊपर-ऊपर के रंग बदल जाते हैं और भीतर की आत्मा पर कोई स्पर्श नहीं होता। गिरगिट जैसी है बदलाहट समाज की। गिरगिट रंग बदलता रहता है, लेकिन गिरगिट गिरगिट है। भीतर वही रहता है; बाहर के रंग बदल जाते हैं। समाज कब बदलेगा?
अंग्रेजी में एक शब्द है, उटोपियाउटोपिया उस परिकल्पित समाज के लिए दिया गया नाम है जो कभी होगा, जिसको गांधी रामराज्य कहते हैं। उटोपिया शब्द बड़ा मूल्यवान है। वह जिस लैटिन मूल धातु से आता है उसका अर्थ होता है नो व्हेयर। उटोपिया का मतलब होता है नो व्हेयर, जो कहीं है ही नहीं और न कहीं होगा; सिर्फ खयाल में है। रामराज्य का अर्थ होता है, जो न था कभी, न है और न कभी होगा; कल्पना है।
तुम रामराज्य की प्रतीक्षा करोगे अपनी बदलाहट के लिए? जब सब ठीक हो जाएगा तब तुम बदलोगे?
फिर तुम कभी न बदल पाओगे। फिर तो यह तरकीब हो गई आत्मा के रूपांतरण से बचने की। न बदलेगा समाज, न तुम्हें बदलने की जरूरत होगी। यह तो तुम्हें बहाना मिल गया। और बहाने तो तुम बहुत चाहते हो। क्योंकि रूपांतरण कष्टप्रद है; रूपांतरण तपश्चर्या है; यात्रा दुरूह है। क्योंकि यात्रा पहाड़ की तरफ जाती है, वह ढलान की तरफ नहीं है। वासनाएं ढलान की तरफ हैं। वासनाओं में उतरने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता; पानी जैसे नीचे की तरफ बहता है ऐसे तुम वासनाओं में बहते चले जाते हो। जैसे एक पत्थर लुढ़कता है पहाड़ के शिखर से और खाई की तरफ चला जाता है। कुछ पत्थर को करना नहीं पड़ता; जमीन का गुरुत्वाकर्षण ही सब कर देता है। लेकिन पत्थर को चढ़ाना हो पहाड़ पर, तब श्रमसाध्य हो जाता है। शिखर पर पहुंचना हो तुम्हें जीवन के, तो तपश्चर्या!
लेकिन ये बहाने, कि जब पूरा समाज बदलेगा तभी तो तुम बदल सकोगे, फिर तुम्हें कभी न बदलने देंगे। और ऐसा समाज कभी होने वाला नहीं है। मान लें, सिद्धांततः, तर्क के लिए कि ऐसा समाज किसी दिन हो जाएगा, तो मैं तुमसे कहता हूं, अगर ऐसा समाज हो गया और फिर तुम बदले तो वह बदलाहट दो कौड़ी की होगी। पहली तो बात, ऐसा समाज कभी होगा नहीं। दूसरी बात, अगर ऐसा समाज कभी हो और तब तुम बदलो तो तुम्हारी बदलाहट दो कौड़ी की होगी। क्योंकि उसका अर्थ यह होगा कि समाज के कारण तुम बुरे थे, अब समाज के कारण भले हो; न तुम अपने कारण बुरे थे, न अपने कारण भले हो। इससे तुम्हारी आत्मा कैसे पैदा होगी? सभी लोग अच्छे हैं, इसलिए तुम अच्छे हो; सभी लोग बुरे थे, तुम भी बुरे थे। तुम लोगों की छाया हो। तुम्हारे पास आत्मा कैसे होगी? तुम केवल लोगों की प्रतिगूंज हो। तुम्हारे पास अपना स्वर कैसे होगा?
और आत्मा का अर्थ होता है: तुम कुछ हो, तुम्हारे भीतर कुछ सघन-चेतना है। और सघन-चेतना का एक ही अर्थ है कि विपरीत परिस्थिति में भी तुम तुम ही रहोगे। परिस्थिति तुम्हें न बदल सकेगी, यही तो आत्मा का अर्थ है।
इसलिए माक्र्स, फ्रायड आत्म-क्रांति को भयानक रूप से हानि पहुंचाने वाले विचारक हैं। क्योंकि वे दूसरे पर दोष डाल देते हैं। और इसे कोई कभी नहीं सोचता कि तुम किसको दोषी ठहराओ।
समझो, एक सात मंजिल मकान है और एक आदमी खिड़की से कूद कर आत्महत्या कर लिया। कौन दोषी है? फ्रायड से पूछो, वह बचपन में खोजेगा। वह यह न कहेगा इस आदमी ने आत्महत्या की है; वह खोजेगा बचपन में। कोई बचपन का ट्रॉमा, कोई बचपन की दुखद घटना इसे आत्मघाती बना दी है। वह बचपन में जाएगा, और बचपन में वह मां-बाप की खोज करेगा। फ्रायड के जो बहुत गहरे अनुयायी हैं, उनमें एक है ओटो रैंक। वह तो बचपन में ही नहीं जाता, गर्भ की अवस्था तक जाता है कि गर्भ की अवस्था में कुछ घटा होगा--मां गिर पड़ी होगी, चोट खा गई होगी, दुखी हुई होगी, संतप्त हुई होगी--उसका घाव इस बच्चे पर रह गया।
अगर माक्र्स से पूछो तो वह कहेगा, कोई आर्थिक, सामाजिक, गरीबी होगी, दुकान का दिवाला निकलने के करीब है। माक्र्स खोजेगा धन में, फ्रायड खोजेगा अतीत स्मृतियों में। लेकिन सीधा यह आदमी जिम्मेवार है, कोई भी न कहेगा। और अगर हम इस तरह खोजने चलें तो बड़ी कठिनाई होगी।
कौन जिम्मेवार है? इसकी पत्नी जिम्मेवार है जो इसे घर में चौबीस घंटे कलह की अवस्था बनाए रखती है? या इसकी प्रेयसी जिम्मेवार है जो इसे पत्नी से अलग करने की कोशिश के लिए चौबीस घंटे लड़ती रहती है? या इसका बेटा जिम्मेवार है जो कि शराबी हो गया है और उसके कारण यह पीड़ित और परेशान है? या इसकी लड़की जिम्मेवार है? यह हिंदू है और लड़की ने एक मुसलमान से शादी कर ली है, जो इसके हृदय में छुरे के घाव की तरह चुभ गया है। या इसका धंधा जिम्मेवार है जो कि रोज गिरता जा रहा है और इसकी आर्थिक परिस्थिति उलझती जा रही है? या वह आर्किटेक्ट जिम्मेवार है जिसने खिड़की ठीक इसकी कुर्सी के पीछे बनाई? क्योंकि मनसविद कहते हैं कि अगर खिड़की बहुत दूर होती, उतने दूर चल कर जाता, उतनी देर में भी बदल सकता था भाव। खिड़की बिलकुल पीछे थी। क्षण भर का मौका न मिला, भावावेश पकड़ा मरने का और मौका मिल गया, सीधी खिड़की थी, कूद गया। या वह मैनेजर जिम्मेवार है जिसने सातवीं मंजिल पर आफिस बनाने की जिद की और पहली मंजिल पर बनाने को राजी न हुआ? या बिजली की कंपनी जिम्मेवार है कि बिजली अचानक बंद हो गई, और इस आदमी का पंखा न चला, और वह पसीने से तरबतर हुआ, और परेशान था, और उस परेशानी के क्षण में यह आत्मघात पकड़ गया? या वह मक्खी जिम्मेवार है जो उसके चारों तरफ चक्कर लगा रही थी, उसके सिर को खाए जा रही थी? जिसको वह भगाने की कोशिश कर रहा था और भागने को वह राजी न थी। मक्खी बड़ी जिद्दी होती हैं। पिछले जन्मों में सभी मक्खियां हठयोगी रही हैं। उनको जहां से भगाओ, वहीं वापस लौट कर आती हैं। मक्खी ने उसे चिड़चिड़ा कर दिया। कौन जिम्मेवार है? अगर खोजने निकलोगे तो तुम पाओगे, सारा संसार जिम्मेवार है, सिर्फ इस आदमी को छोड़ कर। यह भी खूब खोज हुई।
लेकिन पश्चिम का पूरा जोर इस बात पर है कि दायित्व दूसरे का है। क्योंकि पश्चिम में अहंकार को सबल करने की चेष्टा की गई है। पश्चिम का पूरा मनसशास्त्र, अहंकार को कैसे परिपक्व किया जाए, इसकी चेष्टा है। पश्चिम में मनसविद कहता है, अगर किसी का अहंकार परिपक्व न हो तो वह ठीक से प्रौढ़ नहीं हुआ। तो अहंकार परिपक्व होना चाहिए, आक्रामक होना चाहिए। और अहंकार के आक्रमण का यही अर्थ होता है कि सारी दुनिया जिम्मेवार है, सिर्फ मुझे छोड़ कर।
कुछ आश्चर्य नहीं है कि पश्चिम विक्षिप्त होता जो रहा है। कुछ आश्चर्य नहीं है कि पश्चिम में सब सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं, धन है, वैभव है, लेकिन आत्म-क्रांति संभव नहीं हो पा रही। एक पत्थर की तरह अटका है। करीब आ गए हैं मंदिर के, लेकिन द्वार बिलकुल बंद मालूम पड़ता है, दीवाल दिखाई पड़ती है।
फ्रायड ने अपने मरने के पहले एक वक्तव्य दिया और उसने कहा कि मुझे इस बात की कोई भी आशा नहीं कि मनुष्य कभी भी सुखी हो सकेगा। हो ही नहीं सकता। क्योंकि कारण अनंत हैं। और जब तक सब कारण ठीक न बैठ जाएं, और सारा अस्तित्व ठीक न हो जाए, तब तक कोई आदमी सुखी कैसे हो सकता है?
किसी ने फ्रायड को पूछा कि जब कोई आदमी सुखी ही नहीं हो सकता तो तुम लोगों की चिकित्सा क्या करते हो?
तो उसने कहा, हम इतना ही करते हैं कि लोग सामान्य रूप से दुखी रहें, असामान्य रूप से दुखी न हो जाएं। बस, इससे ज्यादा हम कोई अपेक्षा नहीं करते। सामान्य रूप से दुखी रहें, असामान्य रूप से दुखी न हो जाएं। बस हम थोड़ा सा दुख कम कर सकते हैं, सुख की तो कोई संभावना नहीं।
और यहां पूरब में हमने बिलकुल उलटी ही बात कही कि सुख तो दूर, सुख का भी कोई मूल्य है, आनंद की संभावना है। आनंद का अर्थ है महासुख। आनंद का अर्थ है ऐसा सुख जो शुरू तो होता है, लेकिन अंत नहीं होता। आनंद का अर्थ है ऐसा सुख जो शाश्वत है। जिसकी फिर अहर्निश वर्षा होती रहती है; फिर कभी प्यासा नहीं होता कोई उसे पाकर, एक दफा पी लिया जिसने आनंद का जल वह सदा के लिए तृप्त हो जाता है, सदा-सदा के लिए। सुख तो क्षणभंगुर है; अभी है, अभी खो जाएगा। उसका कोई बड़ा मूल्य नहीं है। पानी पर खींची गई लकीर है, बनी भी नहीं कि मिट जाएगी। और कितनी ही चेष्टा करो, मिट ही जाएगी। उसे बचाने का उपाय नहीं है। सुख का स्वभाव नहीं कि वह बचे। यहां पूरब में लोग हुए जिन्होंने कहा कि सुख की तो बात ही छोड़ो, सुख तो दो कौड़ी का है, हम आनंद का आश्वासन देते हैं।
इस आश्वासन का आधार क्या है? इस आश्वासन का आधार है कि तुम दूसरे पर दायित्व मत डालो। जीवन की भूल-चूक को, जीवन के दुख-पीड़ा को, जीवन के संताप को किसी और के कंधे पर मत रखो। तुमने रखा कि फिर तुम दुखी ही रह जाओगे। क्योंकि उसी कोशिश में तुम्हारा अहंकार मजबूत होता जाएगा। और सुख की क्षीणता होती जाएगी। आनंद तो दूर, सुख भी न पा सकोगे। पूरब ने कुछ और ही बात कही: सारी स्थिति का दायित्व अपने ऊपर ले लो; दायित्व लेते ही तुम्हारे भीतर आत्मा का जन्म शुरू हो जाता है।
किसी ने तुम्हें गाली दी। निश्चित ही, अगर उस आदमी ने गाली न दी होती तो तुम्हें क्रोध न आया होता। यह सीधी-साफ बात है। तुम अपने रास्ते पर चले जा रहे थे गीत गुनगुनाते; क्रोध का सवाल ही न था, तुम बड़े प्रसन्न थे, पैरों में पुलक थी, अभी सुबह थी, रात विश्राम करके ताजा थे, स्नान करके घर से निकले थे, गीत गुनगुना रहे थे। एक आदमी ने गाली दे दी। साफ है कि इस आदमी की गाली ने तुम्हें क्रोधित किया।
लेकिन नहीं, जल्दी मत करना। इतना साफ नहीं है। क्योंकि पूरब यह कहता है कि अगर क्रोध तुम्हारे भीतर न होता तो इस आदमी की गाली निष्फल चली जाती; यह गाली तो देता, लेकिन तुम्हारे भीतर गाली कहीं छिद न सकती थी; इसका तीर आर-पार निकल जाता। तुम्हारे भीतर क्रोध न होता तो क्रोध यह आदमी पैदा नहीं कर सकता था। इसलिए मूल कारण यह आदमी नहीं है; निमित्त से ज्यादा नहीं है। पश्चिम इसको कहता है मूल कारण; पूरब इसको कहता है निमित्तमात्र
ऐसा ही समझो कि तुमने एक कुएं में बाल्टी डाली। कुएं में पानी ही न था। अब तुम क्या करोगे? थोड़ी देर खखोड़ोगे, आवाज करोगे, खींच कर वापस अपनी खाली बाल्टी लिए घर चले जाओगे। तुम्हारे भीतर क्रोध न हो, किसी ने गाली की बाल्टी तुम्हारे भीतर डाली; क्या भर लेगा? क्या निकाल लेगा? बाल्टी खाली लौट आएगी। कुएं में पानी होता है तो बाल्टी पानी निकाल सकती है। इसलिए बाल्टी पानी निकालती है यह सिर्फ निमित्त है; कुएं में पानी होता है तो ही निकालती है। मूल कारण कुएं में पानी का होना है।
कितना ही तुम गीत गुनगुना रहे हो, गीत ऊपर-ऊपर है; नीचे क्रोध चल रहा है, भभक रहा है। जरा सी गाली! बारूद मौजूद है, कोई चिनगारी फेंक दे जरा सी, बस विस्फोट हो जाता है। चिनगारियों से विस्फोट नहीं होते, जो बारूद तुम अपने भीतर लेकर चलते हो उससे ही विस्फोट होते हैं। तुम बड़ी बारूद लिए चल रहे हो। कारण वहां है।
तो जब कोई तुम्हें गाली दे तो दो उपाय हैं। या तो तुम जिम्मेवार उसे समझो कि इस आदमी ने क्रोधित करवा दिया! या तुम अपने को जिम्मेवार समझो कि मेरे भीतर क्रोध था, इस आदमी की बड़ी कृपा कि गाली देकर भीतर का दर्शन करवा दिया। तब तुम शत्रु को धन्यवाद दे सकोगे। और जिस दिन तुम शत्रु को धन्यवाद दे सकोगे कि तुम्हारी बड़ी कृपा है, मुझे तो पता ही नहीं था, मैं गीत गुनगुना रहा था--इस गीत की गुनगुनाहट में हम भूले ही रह जाते--तुमने भीतर की आग दिखा दी, धन्यवाद! जैसे ही तुम अपने ऊपर उत्तरदायित्व लेते हो, पहली दफे तुम्हारे भीतर व्यक्तित्व का जन्म होता है। तुम स्वतंत्र हुए। तुमने यह कहा कि मैं कारण हूं। तुमने मालकियत अपने हाथ में ले ली; मालिक दूसरा न रहा।
इस बात को ठीक से समझ लेना। जब भी तुम दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हो, तुम दूसरे को मालिक बना रहे हो। दूसरा गाली देता है तो तुम क्रोधित हो जाते हो। दूसरा स्वागत करता है तो तुम प्रसन्न हो जाते हो। दूसरा फूलमाला चढ़ाता है तो तुम्हारे आनंद का अंत नहीं है, और दूसरा जरा सा हंस देता है व्यंग्य में, और तुम्हारे सब भवन गिर जाते हैं। तो दूसरा मालिक है।
फ्रायड और माक्र्स और वे सारे लोग जो कहते हैं दूसरा जिम्मेवार है, वे तुम्हारी मालकियत छीने ले रहे हैं, वे तुम्हें गुलाम बना रहे हैं। फ्रायड और माक्र्स की सारी धारणा मनुष्य को गुलाम और गहरा गुलाम बनाएगी, आत्मवान नहीं। मालकियत तुम्हारे हाथ में होगी कैसे? जब सब चीजों के लिए दूसरा जिम्मेवार है तो तुम कौन हो? तुम तो लहरों पर हवा के झोंकों में भटकते हुए एक लकड़ी के टुकड़े हो। जब लहर पूरब जाती, तुम पूरब जाते; हवा दक्षिण जाती, तुम दक्षिण जाते; हवा नहीं चलती, तुम वहीं पड़े रह जाते हो जहां हवा छोड़ देती है। तुम कौन हो? तुम्हारा होना कहां है? तुम्हारे अस्तित्व की अभी पहली खबर भी तुम्हें नहीं मिली, और तुम्हारी आत्मा ने मालकियत का अभी तक कोई दावा नहीं किया, कोई उदघोषणा नहीं की।
जिस क्षण तुम कहते हो कि जिम्मेवार मैं हूं, तुम मालिक बनने शुरू हो गए, तुम्हारे भीतर रूपांतरण शुरू हुआ। अब न केवल सुख में, न केवल दुख में, हर हालत में, कोई भी मनोदशा हो, तुम ही अपने को कारण समझोगे। उपनिषदों में ऋषि कहते हैं कि कोई अपनी पत्नी को प्रेम नहीं करता; पत्नी के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है। कोई पुत्रों को प्रेम नहीं करता; पुत्रों के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है। प्रेम हो, घृणा हो; सुख हो, दुख हो; क्रोध हो, करुणा हो; हर हालत में तुम अपने पर ही लौट आते हो।
यह पूरब की गहनतम खोज है। तुमसे ही तुम्हारा प्रारंभ है, और तुम पर ही तुम्हारा अंत है। जिस दिन तुम यह जान लोगे, पहचान लोगे...।
और कोई कठिनाई नहीं है, सारा जीवन इसका शास्त्र है। थोड़ा पढ़ना सीखो। थोड़े शब्दों के अर्थ सीखो। थोड़े जीवन के संकेत को पहचानो। और तुम जान लोगे कि तुम ही मालिक हो। फिर तुम्हारी मर्जी, तुम्हें क्रोधित होना हो क्रोधित हो जाना, लेकिन जिम्मेवार दूसरे को भूल कर मत ठहराना।
और तब तुम पाओगे तुम क्रोधित भी नहीं हो सकते। क्योंकि क्रोध तभी संभव है जब दूसरा जिम्मेवार हो। नहीं तो क्रोध किस पर करना? किस कारण करना? धीरे-धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन का वैमनस्य गिरने लगा। तुम समझौता नहीं करते, न ही तुम किन्हीं शर्तों पर किसी तरह की शांति की व्यवस्था करते हो; तुम बेशर्त अपने मालिक हो जाते हो, और दूसरे पर से सारी जिम्मेवारी हटा लेते हो। तुम अपने संसार खुद हो जाते हो। तुम्हारे जीवन में केंद्र का जन्म हो जाता है। एक आधारभूत स्थिति तुम्हारे भीतर बनने लगती है। इसी आधारभूत स्थिति पर फिर तुम्हारे जीवन के सारे स्वर्ग का आरोहण, जीवन के सारे संगीत का जन्म संभव हो पाता है।
मत ठहराओ किसी और को दोषी। मत ठहराओ किसी और को उत्तरदायी। सब तरफ से उत्तरदायित्व खींच लो। अपने केंद्र स्वयं हो जाओ। तब तुम्हारे जीवन में क्रांति संभव है। इससे कम पर क्रांति न होगी। और तुमने और तरह के तो सब उपाय किए हैं। दूसरा गाली देता है; तुम अपने को समझाते हो कि झगड़ा करना उचित नहीं, असभ्य है, शिष्टाचार के विपरीत है। लेकिन ऊपर से चाहे तुम झगड़ा न करो, भीतर झगड़ा शुरू हो गया। कोई अपमान करता है; तुम सोचते हो कि अरे छोड़ो भी, कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी निकल जाता है।
यह तो अहंकार का विचार हुआ--कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी निकल जाता है। तुम हाथी हो; बाकी लोग कुत्ते हैं। यह कोई बड़ी समझदारी की बात न हुई। यह तो बड़ा अहंकार हुआ। और दोषी तो तुम ठहरा ही रहे हो। अपने को समझा रहे हो कि दूसरे कुत्ते हैं, तुम हाथी हो। ऐसा संतोष पैदा कर रहे हो।
यह संतोष काफी संतोष नहीं है। इस संतोष के भीतर असंतोष छिपा है; जल्दी ही प्रकट हो जाएगा। तुम ज्यादा देर शांत न रह सकोगे। यह शांति थेगड़े वाली शांति है; ये थेगड़े छिपा न सकेंगे तुम्हारी अशांति को। सच तो यह है, ये और बुरी तरह प्रकट करेंगे।
ऐसा हुआ कि एक भिखमंगा एक घर के द्वार पर भीख मांग रहा था। उसकी कमीज फटी थी। गृहिणी को दया आ गई और उसने कहा कि तुम्हारी कमीज निकाल दो; जब तक तुम भोजन करोगे तब तक मैं तुम्हारी कमीज सी दूं। फटी कमीज। क्यों फटी कमीज पहने फिर रहे हो? उस आदमी ने कहा कि नहीं, क्षमा करें। आपकी बड़ी कृपा, लेकिन कमीज सीने को मैं न दे सकूंगा। गृहिणी हैरान हुई। उसने कहा, बात क्या है? उस आदमी ने कहा कि थेगड़े से तो गरीबी बहुत जाहिर होती है; थेगड़े का तो मतलब है कि घर से ही फटी कमीज पहन कर निकले हैं। फटी कमीज से तो इतना ही हो सकता है कि रास्ते में फट गई हो; घर जाकर बदल लेंगे। फटी कमीज से पक्का नहीं लगता कि आदमी गरीब है। फटी कमीज से तो इतना ही लगता है कि रास्ते में फट गई हो, कोई वृक्ष की टहनी में उलझ गई हो; घर लौट कर बदल लेंगे। लेकिन थेगड़ा लगी कमीज से तो गरीबी बिलकुल जाहिर होती है। उसका मतलब घर से ही थेगड़ा लगा पहन कर निकले हैं। नहीं, उस आदमी ने कहा, गरीब हूं, लेकिन इतना गरीब नहीं कि दुनिया में जाहिर करता फिरूं कि घर से ही थेगड़ा लगी कमीज को पहन कर निकले हैं।
बुरा होना भी बेहतर है थेगड़े लगे भले होने से, क्योंकि थेगड़ों के पीछे बुरा होना प्रकट हो रहा है। बुरे आदमी में भी एक तरह की सच्चाई और प्रामाणिकता होती है जो थेगड़े लगे सज्जन में नहीं होती। थेगड़े मत लगाना। और तुमने सबने यह कोशिश की है, क्योंकि वह आसान लगता है। कमीज बदलना मंहगा काम है; थेगड़ा लगाना बहुत आसान है। क्रोध आता है तो लोग थेगड़े लगा लेते हैं; मूल को बदलने की फिक्र न करके समझा लेते हैं कि क्रोध कोई सज्जन का काम नहीं; समझा लेते हैं कि क्रोध हमें करना नहीं है; कसम ले लेते हैं कि हम क्रोध न करेंगे; क्रोध करेंगे तो अपने को दंड देंगे, उपवास रख लेंगे एक दिन का। यह सब थेगड़े लगाना है। मंदिर में भीड़ के सामने कसम ले लेंगे कि अब से मैं क्रोध न करूंगा।
ऐसे आदमियों को तुम जरा गौर से देखो। तो तुम तो कभी-कभी क्रोध करते हो, ऐसे आदमियों को तुम चौबीस घंटे क्रोध में तपता हुआ पाओगे। तुम्हारा तो कभी-कभी विस्फोट होता है, ऐसे आदमियों में तुम कभी क्रोध का विस्फोट न देखोगे, क्योंकि कसम ले ली है; लेकिन क्रोध इकट्ठा होता जाता है। दर पर्त जमता जाता है, पर्त-पर्त जमता जाता है। ऐसा आदमी क्रोधी हो जाता है। क्रोध नहीं करता, उसके होने का ढंग ही क्रोध हो जाता है। वह तुमसे भी ज्यादा जलता है। उसने थेगड़ा लगाने की कोशिश की।
हमेशा स्मरण रखो: जीवन को बदलना हो तो पत्तों को मत काटो, शाखाओं से मत उलझो; जड़ की तरफ जाओ। जड़ कहां है? जड़ यहां है; दूसरे को दोषी ठहराना जड़ है। उसकी आड़ में तुम्हारा अहंकार खड़ा होता है। बस फिर जाल शुरू हो गया। फिर अहंकार और भी दूसरे को दोषी ठहराएगा। जितना दूसरे को दोषी ठहराएगा उतना अहंकार बड़ा होता जाएगा। अब तुम एक ऐसे उपद्रव में पड़े जिससे बाहर आना मुश्किल मालूम होगा।
लेकिन मुश्किल नहीं है, समझ के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है। नासमझ के लिए बहुत मुश्किल है; क्योंकि नासमझ पत्तियां काटने लगेगा। अहंकार की जड़ तो न गिराएगा, अहंकार को सजाने में लग जाएगा। वह कहेगा, हाथी है, कुत्ते भौंकते रहते हैं।
तुम्हारे नीति के बहुत से वचन सिवाय अहंकार के अलंकरण के और कुछ भी नहीं हैं। तुम्हारे हितोपदेशों में सिवाय अहंकार को सजाने के और कुछ भी नहीं है। छोटे-छोटे बच्चों को तुम अहंकार देते हो। छोटे-छोटे बच्चों से तुम कहते हो कि देखो, इस तरह झगड़ना ठीक नहीं; तुम कुलीन हो! याद रखो, किस कुल में पैदा हुए हो! हाथियों के कुल में पैदा हुए हो और कुत्तों के भौंकने से नाराज हो रहे हो। छोटे-छोटे बच्चों को तुम अहंकार दे रहे हो कि यह तुम्हारे योग्य नहीं है कि तुम क्रोध करो। तुम जड़ नहीं काट रहे, तुम जड़ को बढ़ा रहे हो, पानी दे रहे हो। तुम बच्चे से कह रहे हो, यह तुम्हारे योग्य नहीं। तुम बच्चे को कह रहे हो, तुम्हारा अहंकार इतना बड़ा है, तुम ऐसे बड़े कुल में पैदा हुए हो। देखो, तुम्हारे पिता, उनके पिता, कभी क्रोध नहीं किए, और तुम क्रोध कर रहे हो! तुम बच्चे को अहंकार दे रहे हो। और अहंकार जड़ है सारे उपद्रवों की, और तुम सोचते हो कि तुम उपद्रवों से बचा रहे हो बच्चे को।
लेकिन सारा जीवन ऐसा चल रहा है; इसलिए तो सारा जीवन एक कलह हो गया है। वहां शांति नहीं है। और अगर कभी शांति होती भी है तो बस थेगड़े वाली शांति होती है। भीतर कुछ और ही छिपा होता है; ऊपर-ऊपर थेगड़े हैं। तुम गौर से देखोगे तो अपने को पाओगे कि तुम भिखारी की गुदड़ी जैसे हो जिसमें थेगड़े ही थेगड़े लगे हैं। तुम्हारे भीतर कुछ भी साबित नहीं है; छेद और थेगड़े। इससे तुम आत्मवान कैसे बनोगे!
लाओत्से के सूत्र को समझने की कोशिश करो।
"भारी वैर में सुलह के बाद भी थोड़ा वैर शेष रह जाता है। पैचिंग अप ए ग्रेट हेट्रेड इज़ श्योर टु लीव सम हेट्रेड बिहाइंड'
अगर घृणा में तुमने थेगड़े लगाए तो कुछ न कुछ घृणा पीछे शेष रह जाएगी। रह ही जाएगी। थेगड़े में छिप जाएगा फटा हुआ कपड़ा; मिट तो न जाएगा। अगर तुमने दुश्मन से सुलह करने की कोशिश की तो सुलह के भीतर सुलगती आग सदा ही बनी रहेगी। सुलह का मतलब ही होता है कामचलाऊ। सुलह का मतलब यह होता है कि अभी लड़ने का ठीक समय नहीं। सुलह का मतलब यह होता है कि अभी परिस्थिति इस योग्य नहीं कि लड़ो। सुलह का मतलब होता है लड़ाई को कल पर टालना। ठीक अवसर पर, ठीक मौके पर, जब तुम्हारा हाथ ऊपर होगा तब तुम देख लोगे। इसलिए दुनिया में कितनी शांति-संधियों पर हस्ताक्षर होते हैं! और सब शांति-संधियां युद्धों में नष्ट होती हैं। जब शांति-संधियों  पर हस्ताक्षर होते हैं तभी साफ रहता है कि युद्ध होने के करीब है। थेगड़े लगाए जाते हैं; राष्ट्र भी लगाते हैं, व्यक्ति भी लगाते हैं। सब अपना-अपना चेहरा बचाने की कोशिश में होते हैं। जब तुम ताकतवर हो जाते हो तब तुम फिक्र छोड़ देते हो; फिर चेहरा बचाने की कोई जरूरत नहीं।
जर्मनी ने शांति-संधि पर हस्ताक्षर किए पहले महायुद्ध के बाद, सिर्फ इसलिए किए कि कमजोर पड़ गया, युद्ध ने जराजीर्ण कर दिया। लेकिन वह सिर्फ तैयारी के लिए था। बीस साल लगे तैयार होने में; फिर दूसरा युद्ध खड़ा हो गया। यह उसी दिन जाहिर था, क्योंकि सुलह के भीतर सुलगती हुई आग थी।
पाकिस्तान और हिंदुस्तान कितने ही शिमले-समझौते करें। सब थेगड़े हैं। क्योंकि भीतर सुलगती हुई आग है। मिलते भी हैं, हाथ भी बढ़ाते हैं, तो भीतर दुश्मनी है।
राजनीतिज्ञ मिलते हैं तो मुस्कुराते हैं; भीतर तलवारें छिपी हैं। मुस्कुराहटों में जो चमक है वह तलवारों की है; वह कोई हृदय की नहीं है। और भीतर तैयारी चल रही है। भीतर तैयारी चल रही है सारी दुनिया में हर घड़ी युद्ध की; और हर घड़ी शांति की बातें हो रही हैं। राजनीतिज्ञ कबूतर उड़ा रहे हैं शांति के; और रोज फैक्टरियां बड़ी करते जा रहे हैं युद्ध के सामान की। भीतर बम बन रहे हैं; जमीन के नीचे सुरंगें बिछाई जा रही हैं; ऊपर कबूतर उड़ाए जा रहे हैं। किसको धोखा दिया जाता है? सारे राजनीतिज्ञ शांति की बात करते हैं; फिर युद्ध क्यों होता है? बड़ी बेबूझ बात मालूम पड़ती है। जब सारे ही दुनिया के राजनीतिज्ञ शांति के पक्ष में हैं तो युद्ध कौन करवा रहा है?
नहीं, वे कहते हैं कि शांति के लिए युद्ध करना जरूरी है। वहीं सारा जाल है; शांति के लिए युद्ध करना जरूरी है। युद्ध मालूम होता है मूल चीज है। शांति तो दो युद्धों के बीच का समय है, जब लोग युद्ध की तैयारी करते हैं। बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। अभी तीसरा महायुद्ध भभक रहा आदमी के भीतर। कभी थोड़ा सा विस्फोट वियतनाम में होता है, कभी इजरायल में होता है, कभी बंगला देश में होता है। ये छोटे-छोटे विस्फोट हैं। ये आने वाले महा विस्फोट की खबरें हैं। ये छोटे-छोटे धक्के हैं भूकंप के। किसी भी दिन महा विस्फोट हो सकता है, और सारा मनुष्य अग्नि में समाहित हो सकता है। और राजनीतिज्ञ शांति की बातें किए चले जाएंगे। और शांति की सभाएं होती रहेंगी; कबूतर उड़ते रहेंगे। जैसे कि कबूतर उड़ाने से कोई शांतियां होती हैं। कबूतर और बम को कैसे जोड़ोगे? लेकिन आदमी के अंधेपन का कोई अंत नहीं है।
और यही दशा व्यक्ति-व्यक्ति की है। तुम पड़ोसी को देख कर मुस्कुराते हो, नमस्कार करते हो। ये सब थेगड़े हैं। भीतर कलह है; मुस्कुराहट कलह को छिपाने का ढंग है। मुस्कुराहट का मतलब ही यह है कि कुछ भीतर उबल रहा है जिसको छिपाना जरूरी है। तुम्हारी जयरामजी के पीछे भी आग है। अगर गौर से देखोगे, अगर अपना थोड़ा निरीक्षण करोगे, तो तुम पाओगे। और तुमने जितनी सुलह कर ली हैं, हर सुलह के पीछे वैर शेष रह गया है। वह इकट्ठा होता जा रहा है। उसकी राख जमती जा रही है। वह राख तुम्हारी कब्र बन जाएगी। इससे तो बेहतर था वैर को निकल ही जाने देते। जो होता होता, थेगड़े तो न लगाते। लेकिन थेगड़े लगाना समझदारी मालूम पड़ती है। मैं तुमसे कहता हूं, या तो वैर को निकल ही जाने देना, या तो लड़ ही लेना। कबूतर क्यों उड़ाना? कबूतरों का क्या कसूर? उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? या तो लड़ ही लेना, लेकिन प्रामाणिकता से। और या प्रामाणिकता से जड़ काट देना संघर्ष की। और मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम लड़ने को प्रामाणिकता से राजी हो जाओ तो तुम जड़ काट दोगे। क्योंकि कौन लड़ना चाहता है? लड़ना तो सिर्फ विनाश है इस बहुमूल्य जीवन का, जिसे तुम फिर से न पा सकोगे; जो फिर से मिलेगा, पक्का नहीं है। क्योंकि कोई मरा हुआ आदमी लौट कर नहीं कहता। इस अमूल्य अवसर को, जो तुम्हें यूं ही मिला है, तुम वैर में गंवाओगे? नहीं, अगर तुम ठीक प्रामाणिक हो जाओ और लड़ने में प्रामाणिक हो जाओ, तो तुम अचानक पाओगे लड़ने में कोई अर्थ नहीं है।
लेकिन लड़ने को तुम छिपाए रखते हो; ऊपर-ऊपर शांति की पर्त बनाए रखते हो। यह शांति की पर्त ही खतरनाक है। इसकी वजह से तुम अपनी असलियत को नहीं देख पाते कि तुम्हारे भीतर घृणा की कितनी मवाद है। उसको नहीं देख पाते, वह भीतर बढ?ती रहती है। अगर तुम देख लो तो तुम खुद ही उसका आपरेशन करने को राजी हो जाओगे। वह तो कैंसर है।
मेरा अनुभव है, अगर कोई पति अपनी पत्नी से दिल खोल कर लड़ लेता है, पत्नी पति से दिल खोल कर लड़ लेती है, बादल जल्दी ही छंट जाते हैं, शांति हो जाती है। लेकिन वह शांति सुलह की नहीं है, वह शांति वास्तविक है। बादल आए और गए। तूफान उठा और गया। और तूफान के बाद की जो शांति है वह बड़ी प्रामाणिक है। जो पति-पत्नी लड़ते नहीं कभी, वे खतरनाक हैं। जो कभी साफ-साफ नहीं लड़ते; जो अपने बीच भी कूटनीति चलाते हैं, कि पत्नी को अगर पति को मारना हो तो बेटे की पिटाई करती है। यह कूटनीति है। मारना किसी को था, मारा किसी को। अक्सर बच्चे पिटते हैं दोनों तरफ से, क्योंकि वे कमजोर हैं और दोनों के बीच में खड़े हैं। पत्नी अगर पति से सीधा लड़ ले, उसके मन में जो उठा है उठ आने दे, छिपाए न...।
लेकिन कैसे न छिपाए? क्योंकि पाठ पढ़ाया गया है: सती-सावित्री होना है, सीता होना है। सीता को जंगल में फेंक आए राम, अकारण, जिसके लिए जरा भी कोई आधार नहीं है। एक धोबी ने कह दिया कि मैं कोई राम नहीं हूं, अपनी पत्नी से, कि तू रात भर घर से गायब रही और तुझे दूसरे दिन स्वीकार कर लूं। मैं कोई राम नहीं हूं कि बरसों सीता नदारद रही, कहां रही, क्या हुआ, कुछ पता नहीं, रावण ने क्या किया, क्या नहीं किया, कुछ मालूम नहीं, और फिर स्वीकार कर लिया। मैं कोई राम नहीं हूं। बस इतनी सी धोबी की बात पर! और कथा यह है कि राम अग्नि-परीक्षा भी ले चुके थे सीता की। वह भी व्यर्थ हो गई? इस एक मूढ़ के कहने पर सीता को फिंकवा दिया जंगल में। और सीता गर्भवती थी! और सीता ने कुछ भी न कहा।
ऐसे आरोपण किए गए हैं आदर्शों के तुम्हारे ऊपर। तो पत्नी सोचती है, सीता-सावित्री होना है, लड़ना कैसे? लेकिन लड़ना तो भीतर है, ऊपर-ऊपर सुलह है। ऊपर-ऊपर सीता है; भीतर-भीतर आग जल रही है। और पति को भी आदर्श सिखाए गए हैं। सच्चा तो किसी को नहीं होना है।
आदर्श झूठ के जन्मदाता हैं। जितने आदर्श तुम्हें सिखाए गए हैं उतने ही अप्रामाणिक तुम हो गए हो। क्योंकि आदर्श का मतलब उसको पूरा करना है जो तुम नहीं हो; वैसा आचरण करना है जैसा तुम नहीं हो; वैसा व्यवहार करना है जो तुम नहीं कर सकते हो। आदर्श का मतलब ही यह होता है, तुम्हें अपने को दबाना है और आदर्श को प्रकट करना है। तुम एक झूठ हो गए हो। और तुम्हारा वह जो दबा हुआ रूप है वह प्रकट होगा जगह-जगह से, हजार ढंग से प्रकट होगा। मवाद को तुम भीतर कैसे रोकोगे? मलहम-पट्टी करके और ऊपर से एक फूल चिपका लोगे, इससे कुछ हल होने वाला है?
प्रत्येक पुरुष के आदर्श हैं। प्रत्येक स्त्री के आदर्श हैं। संघर्ष मुश्किल है। और तब असली संघर्ष शुरू होता है, जिसमें जीवन डूब जाते हैं। तब घड़ी-घड़ी कलह होती है। स्त्री बरतन भी रखती है तो जोर से। पति दरवाजा भी खोलता है तो दुश्मनी से। बेटे पिट जाते हैं, बेटियां कुट जाती हैं। और उनका जीवन भी उपद्रव के जाल में संलग्न हो जाता है। पति घर आता है तो डरा हुआ; पत्नी अपने से भयभीत हो जाती है कि कहीं कलह न हो जाए, फिर कहीं वही बात न निकल आए जो कल निकल आई थी। और वह निकलेगी, क्योंकि जिससे तुम बचना चाहते हो उससे बचना असंभव है। जिसे तुम दबाते हो वह उभरेगा। जिससे तुम भयभीत हो, जाहिर है कि वह तुमसे ज्यादा ताकतवर है, तभी तो तुम भयभीत हो। फिर कलह होती है। और कलह को ऊपर से हम थेगड़ों से ढांकते जाते हैं। फिर जीवन का प्रेम ही नष्ट हो जाता है। क्योंकि जहां प्रामाणिकता न रही वहां प्रेम कैसा?
मैं तुमसे कहता हूं, ऐसा भूल कर मत करना। किसी को सीता नहीं होना है। एक सीता काफी है। किसी को राम बनने की जरूरत नहीं है। नहीं तो धोबी तुम्हें परेशान करेंगे। तुम्हें तुम्हीं होना है, और तुम्हें प्रामाणिकता से होना है। और तब एक अनूठा जीवन में रहस्य खुलता है। अगर पति-पत्नी दिल खोल कर कलह कर लेते हैं; जो कहना है कह लेते हैं। स्वभावतः, जीवन में धूल इकट्ठी होती है। चौबीस घंटे साथ रहने से कलह भी होती है, संघर्ष भी होता है। मन मेल भी नहीं खाते कभी, बड़े से बड़े प्रेमियों में भी विरोध हो जाता है। धारणाएं मेल नहीं खातीं, विचार मेल नहीं खाते। स्वाभाविक है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। क्रोध इकट्ठा होता है; धूल जमती है; धुआं आता है। निकालो! अगर तुम्हारा प्रेम समर्थ है तो इस सबको पार करके भी बचेगा। और निश्चित ही, अगर इस सबको पार करके तुम्हारा प्रेम बचेगा तो निखर कर बचेगा। और ये सब आएंगे और चले जाएंगे, आकाश तो बना रहता है। बादल आते हैं, घिरते हैं, तूफान उठते हैं, आकाश बना रहता है। आकाश डरता है बादलों से? भयभीत होता है? तुम्हारा प्रेम अगर है तो सब कलह के बादल आएंगे और चले आएंगे, और हर तूफान के बाद तुम पाओगे एक गहन शांति आ गई। वह शांति सुलह की नहीं है, वह शांति वास्तविक है। वह दो व्यक्तियों ने अपनी व्यर्थता को फेंक दिया; दो व्यक्ति शांत हो गए, और उस शांति में करीब आ गए।
और एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाएगा तब तुम पाओगे कि प्रामाणिक होने का मजा कैसा है। प्रामाणिकता ही धर्म है। और तब धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जितने तुम प्रामाणिक बनोगे और जितनी तुम्हारे जीवन में शांति, वास्तविक शांति--सुलह नहीं, सुलह झूठी शांति का नाम है--जितनी वास्तविक शांति के क्षण आने लगेंगे, जितना तुम्हारे जीवन में बादल हटने लगेंगे और खुले आकाश का दर्शन होगा, जितना तुम आकाश की नीलिमा में तिरने लगोगे, उतना ही तुम पाओगे कि हर क्रोध व्यर्थ था, हर संघर्ष बेबुनियाद था; तुम पीड़ा अपनी दूसरे के कंधों पर व्यर्थ ही डाल रहे थे।
उस शांति में ही तुम्हें दिखाई पड़ेगा, क्योंकि शांति आंख है। उसमें वे सब उलझनें साफ हो जाती हैं जो कि क्रोध से भरी आंखों में कभी साफ नहीं हो सकतीं। तब तुम पाओगे कि जिम्मेवार तो तुम ही थे। तुम घर क्रोधित लौटे थे दफ्तर से; मालिक ने कुछ कहा था, दफ्तर की हालत कुछ थी। क्रोध से तुम भरे चले आए थे और पत्नी पर टूट पड़े थे। कोई भी छोटी बात पकड़ ली होगी कि रोटी क्यों जल गई। कोई भी छोटी बात पकड़ ली होगी कि तुम्हारा अखबार क्यों फट गया, कि तुम्हारी बटन क्यों नहीं सीयी गई है। यह छोटी सी बात बहुत बड़ी हो गई, क्योंकि भीतर तुम क्रोध से उबल रहे थे और बहाना खोज रहे थे। और अगर तुम इसको गौर से देखते जाओगे तो धीरे-धीरे पाओगे, दुनिया में कोई तुम्हें क्रोधित नहीं कर रहा है। तुम क्रोधित होना चाहते हो, दूसरे अवसर बन जाते हैं। कोट है तुम्हारे पास क्रोध का, खूंटी तुम किसी को भी बना लेते हो और टांग देते हो। जिस दिन यह तुम्हें दिखाई पड़ेगा उस दिन तुमने आत्मवान होना शुरू किया। तुम्हें किसी मंदिर जाने की जरूरत न आएगी, न किसी मस्जिद जाने की। तुम जहां हो, वहीं से तुम्हारी आत्मा का पहला सूत्रपात हो गया। तुम्हारा पुनर्जन्म शुरू हुआ।
लाओत्से कहता है, "वैर में सुलह के बाद भी थोड़ा वैर शेष रह जाता है।'
यह सुलह किस काम की? क्योंकि जो बच गया है, जो अंगारा शेष रह गया है, वह फिर आग पैदा कर देगा। एक छोटी चिनगारी भी काफी है।
"इसे संतोषजनक कैसे कहा जा सकता है?'
सुलह से संतोष मत करना, शांति से संतोष करना। और सुलह और शांति का फर्क साफ समझ लेना। सुलह का अर्थ है, लड़ने से बचने की कोशिश; शांति का अर्थ है, लड़ने के पार हो जाना। शांति का अर्थ है, लड़ाई खो गई, लड़ाई का मूल कारण खो गया। सुलह का अर्थ है, मूल कारण मौजूद है, लेकिन लड़ाई करना अभी सुविधापूर्ण नहीं है; इसलिए सुलह कर ली। देखेंगे कल। लोग कहते हैं न झगड़े में, देख लेंगे। उसका मतलब यह है कि अभी सुविधा नहीं है, देख लेंगे वक्त पर, कभी मौके की तलाश रखेंगे। लोग जिंदगी भर मौके की तलाश करते हैं। निश्चित ही, उनके भीतर घाव बना रहता होगा हरा, सूखने न देते होंगे।
"इसलिए समझौते में संत अपने को दुर्बल पक्ष मानते हैं, और दूसरे पक्ष पर कसूर नहीं मढ़ते'
संत का अर्थ ही यही है, जो दूसरे पर कसूर नहीं मढ़ता, हर हालत में अपना कसूर खोज लेता है। तुम हर हालत में दूसरे का कसूर खोज लेते हो। और मैं कहता हूं, हर हालत में। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरा क्या कर रहा है, तुम हर हालत में कसूर खोज लेते हो। कसूर खोजना ही चाहते हो, खोज ही लोगे। तुम्हें भलीभांति अनुभव से भी पता है कि जब तुम्हें कसूर ही खोजना हो, तब दुनिया में तुम्हें कोई ताकत रोक नहीं सकती कसूर खोजने से। कुछ न कुछ तुम खोज ही लोगे। कितना ही अतक्र्य मालूम पड़े, तर्कहीन मालूम पड़े, और कितना ही असंगत मालूम पड़े दूसरों को, तुम्हें नहीं मालूम पड़ेगा। लेकिन संत इससे ठीक विपरीत है।
कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन-कुटी छवाय
जो तुम्हारी निंदा करते हों उनको तुम मेहमान की तरह घर में ही रख लो, पास ही रखो उनको सदा। क्योंकि वे एक बहुत बड़ा काम करते हैं, वे हमेशा तुम्हें कसूरवार ठहराते हैं। और संत अपने कसूर के खोजने में लगा है। जो भी उसे बता दे उसकी भूल, वह तैयार है। क्योंकि जैसे ही वह अपनी भूल को देख लेता है वैसे ही बदलने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
तुम अपनी भूलें बचा रहे हो; तुम अपने दोष बचा रहे हो; तुम अपने दोषों की भी रक्षा करते हो। और तब अगर तुम्हारा जीवन नरक हो जाता है तो कौन जिम्मेवार है? तुमने गलत-गलत तो बचाया, तुमने सब इकट्ठा कर लिया; तुमने कभी स्वीकार ही न किया कि मुझमें कोई गलती है। इसलिए सब गलतियां बसती चली गईं। स्वीकार करते तो वे सब मिट सकती थीं। तुमने अगर शांत भाव से स्वीकार किया होता कि मैं क्रोधी आदमी हूं...। ध्यान रखना, अगर तुमने किसी दिन यह स्वीकार कर लिया कि मैं क्रोधी आदमी हूं तो तुम्हारा क्रोधी आदमी मरने लगा। क्योंकि कहीं क्रोधी यह स्वीकार करते हैं कि मैं क्रोधी? असंभव! तुमने अगर स्वीकार कर लिया कि मैं अहंकारी हूं, दंभी हूं--कहीं अहंकारी यह स्वीकार करते हैं? यह तो विनम्रता का सूत्रपात हो गया। यह तो विनम्रता के अंकुर निकलने लगे। तुमने अगर स्वीकार कर लिया कि मैं पागल हूं तो तुम स्वस्थ होने लगे। क्योंकि पागल कहीं स्वीकार करते हैं? पागलों को समझा सकते हो कि तुम पागल हो? कोई उपाय नहीं।
मनसविद कहते हैं कि जब तक पागल को समझाया जा सके कि वह पागल है, और वह मानने को राजी हो, तब तक वह पागल नहीं है। रुग्ण होगा, लेकिन अभी पागल नहीं है। अभी इलाज बिलकुल आसान है। लेकिन जिस दिन पागल को समझाना असंभव हो जाता है कि वह पागल है, उस दिन वह सीमा के बाहर चला गया। अब उसे वापस लौटाना बहुत मुश्किल है।
तुम मानते नहीं कि तुम क्रोधी हो। तुम मानते नहीं कि तुम लोभी हो। तुम मानते नहीं कि तुम कामी हो। तुम मानते नहीं कि तुम दंभी हो। तुम इन सबको बचा रहे हो। अब तुम खुद ही सोच लो, कांटों को बचाओगे तो नरक के अतिरिक्त कहां पहुंचोगे? वे कांटे तुम्हें चुभेंगे जो तुमने बचा लिए हैं। कोई अगर कहे कि यह कांटा लगा है, तो तुम उससे लड़ने को खड़े हो जाते हो। कबीर कहते हैं, आंगन-कुटी छवाय! उसको तो घर में ही बसा लो। क्योंकि कांटे बताता है तो निकालने की संभावना है।
लेकिन नहीं, तुम तो उनको आंगन-कुटी छवा कर रखते हो जो तुम्हारी स्तुति करते हैं, खुशामद करते हैं। जो तुमसे कहते हैं कि अहो, तुम जैसा कभी कोई हुआ! ऐसा सुंदर, ऐसा शालीन, ऐसा गरिमापूर्ण! तुम तो प्रतिमा हो आदर्श की! उनको तुम घर रखना चाहते हो। और वे दुश्मन हैं। क्योंकि वे तुम्हें भ्रांति से भर रहे हैं। वे तुम्हें काट डालेंगे। उनका कोई प्रयोजन है। पहले वे तुम्हें फुलाएंगे; फिर अपना प्रयोजन पूरा कर लेंगे।
ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो खुशामद के चक्कर में न पड़ जाता हो। बहुत मुश्किल है। अगर तुम खोज लो कोई आदमी ऐसा जो खुशामद के चक्कर में न पड़ता हो, तो समझ लेना कि संत है। क्योंकि खुशामद के चक्कर में वही नहीं पड़ता जो अपने दोष देखना शुरू कर देता है। तुम उसको धोखा न दे सकोगे। उसे पता है कि वह क्रोधी है, और तुम कह रहे हो कि आप जैसा शांत पुरुष कभी देखा नहीं! आपके पास ही आकर आनंद की वर्षा हो जाती है! पास आते हैं ऐसा लगता है स्नान हो गया, चित्त शुद्ध हो जाता है! संत के पास जाकर, तुम्हें अगर संतों की पहचान करनी हो तो एक काम तुम कर सकते हो, यह कसौटी है: उनकी स्तुति करना।
ऐसा हुआ, एक आदमी आया बायजीद को मिलने। बायजीद एक सूफी फकीर हुआ। और वह आदमी बड़ी प्रशंसा करने लगा कि तुम सूफियों के सम्राट हो! फकीर बहुत देखे, पर तुमसे कोई तुलना नहीं! बायजीद सिर झुकाए बैठा रहा, और उसकी आंखों से आंसू गिरते रहे। शिष्य थोड़े हैरान हुए।
वह आदमी जा भी न पाया था कि एक और आदमी आ गया, और वह गालियां देने लगा और बायजीद को अनाप-शनाप कहने लगा कि तुम शैतान हो और धर्म को नष्ट कर रहे हो! और तुम जो सिखा रहे हो यह शास्त्रों की शिक्षा नहीं है! तुम शैतान के ही दूत हो, परमात्मा के नहीं! और तुम मोहम्मद के खिलाफ हो! और उसने बड़ी गालियां दीं और बड़ी निंदा की। बायजीद के आंसू वैसे के वैसे बहते रहे; वह आंख झुकाए बैठा रहा।
दोनों चले गए। शिष्यों ने पूछा कि हम कुछ समझे नहीं, मामला क्या है? एक आदमी प्रशंसा कर रहा था तब भी आप रोते रहे और एक आदमी गाली दे रहा था तब भी रोते रहे। राज क्या है? यह बड़ा विरोधाभासी व्यवहार है।
बायजीद ने कहा, जो आदमी स्तुति कर रहा था तब मैं रो रहा था कि बेचारा, इसको कुछ भी पता नहीं। मेरी दशा मुझे पता है। मैं रो रहा था, क्योंकि मेरी दशा मुझे पता है कि मैं कैसा साधारण आदमी हूं। मुझे फकीर कहना भी उचित नहीं है। और यह कह रहा है तुम सम्राट हो फकीरों के। मैं रो रहा था, क्योंकि मुझे अपनी हालत का पता है।
तो शिष्यों ने पूछा, फिर आप क्यों रो रहे थे जब दूसरा आदमी आपकी निंदा कर रहा था?
उसने कहा, तब भी मैं रो रहा था, क्योंकि वह बिलकुल ठीक कह रहा था। यही मेरी हालत है जो वह कह रहा था। शिष्यों ने कहा, हम क्या करें? क्योंकि हमें पहला आदमी बिलकुल ठीक लगा और दूसरा बिलकुल गलत लगा। बायजीद ने कहा, दोनों की ठीक से सुनो, उससे तुम्हारे मन में संतुलन आएगा। क्योंकि एक पलड़े को नीचे झुका रहा है, एक ऊपर उठा रहा है। अगर तुम दोनों की बिलकुल ठीक से सुनोगे तो दोनों के मध्य में संतुलन आ जाएगा। बस मध्य में रुको; न स्तुति, न निंदा। वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक थे। ऐसा समझो कि वे एक ही आदमी की दो तस्वीरें थे। और दोनों--दोनों ही--गौर से सुनने योग्य हैं। और तुम एक को मत चुनना। तुम अगर पहले को चुनोगे तो भी तुमसे गलती हो जाएगी; क्योंकि तुम मेरे प्रति बहुत ज्यादा आशाओं से भर जाओगे। अगर दूसरे को चुन लोगे तो तुम भाग जाओगे और दुश्मन हो जाओगे। और जो मुझसे मिल सकता था, चूक जाओगे। तुम दोनों की बिलकुल ठीक से सुन लो। और दोनों में चुनाव मत करना। दोनों एक-दूसरे को काट देंगे और तुम संतुलन को उपलब्ध हो जाओगे।
संत स्तुति में पीड़ा पाता है। क्योंकि स्तुति तो उनकी की जानी चाहिए जो स्तुति से प्रभावित होते हैं। संत को तुम प्रभावित नहीं कर सकते। संत का अर्थ ही यह है कि जिसने सारे दोषों का दायित्व अपने ऊपर ले लिया है। अब तुम उसे धोखा नहीं दे सकते। खुशामद वहां सार्थक नहीं है। वहां अगर तुम निंदा करते जाओ तो शायद स्वीकार भी कर लिए जाओ, स्तुति करते जाओ तो स्वीकार न हो सकोगे।
"संत अपने को हमेशा दुर्बल पक्ष मानते हैं जिसका कसूर है, और दूसरे पक्ष पर कसूर नहीं मढ़ते। पुण्यवान आदमी समझौते के पक्ष में होता है, पापी कसूर मढ़ने के पक्ष में।'
पापी की पूरी चेष्टा यह होती है कि वह सिद्ध कर दे कि तुम गलत हो। इसमें उसे बड़ा रस है, क्योंकि यही उसके पापी बने रहने का बचाव है, पापी बने रहने की सुरक्षा है, वह सदा कोशिश करता है कि तुम जिम्मेवार हो। पापी कसूर मढ़ने के पक्ष में है, पुण्यवान सदा समझौते के पक्ष में है। और सदा दोषी अपने को मानने को राजी है। पुण्यवान झुकने को राजी है, वह कोमल है जल की भांति। पापी झुकने को राजी नहीं, वह सख्त है पत्थर की भांति। इसलिए आखिर में उसे टूटना पड़ेगा; क्योंकि नम्य जीतता है, अनम्य टूटता है। पुण्यवान है छोटे बच्चे की भांति, ताजा, कोमल; पापी है बूढ़े की भांति। सभी पापी बूढ़े होते हैं। अंग्रेजी में मुहावरा है: ओल्ड सिनर, बूढ़े पापी। असल में, सभी पापी बूढ़े होते हैं। कोई बच्चा पापी नहीं होता। पाप के लिए बड़ा अनुभव चाहिए, जीवन के उतार-चढ़ाव देखने चाहिए। पाप के लिए बड़ी शिक्षा चाहिए। सभी बच्चे पुण्यवान होते हैं।
असल में, पुण्य स्वभाव है, शिक्षा नहीं। पुण्य स्वभाव है, संस्कृति नहीं। पुण्य कोई सिखावन नहीं है, पुण्य तो स्वाभाविक ढंग है। पाप अनुभव है। और जितने ज्यादा लोग अनुभवी होते जाते हैं उतने पाप में कुशल होते जाते हैं, उतना झूठ, बेईमानी, उतना हिसाब-किताब, उतना गणित उनके जीवन में बैठने लगता है। उतना ही हृदय उनका नष्ट होता जाता है।
"लेकिन स्वर्ग का ढंग निष्पक्ष है।'
यह एक बहुत अनूठी बात कह रहा है, और बड़ी विरोधाभासी, लाओत्से।
"लेकिन स्वर्ग का ढंग निष्पक्ष है; वह केवल सज्जन का साथ देता है।'
दूसरे वचन से तो लगता है निष्पक्ष नहीं है। स्वर्ग का ढंग निष्पक्ष है; वह केवल सज्जन का साथ देता है। इसका तो मतलब हुआ कि सज्जन के पक्ष में है। निष्पक्ष कहां? ऐसा वचन: बट दि वे ऑफ हेवन इज़ इंपार्शियल; इट साइड्स ओनली विद दि गुड मैन। इस विरोधाभासी वचन को समझने की कोशिश करना।
स्वर्ग का ढंग निष्पक्ष है; यहां तक तो कोई कठिनाई न थी। वर्षा पापी पर भी होती है, पुण्यात्मा पर भी। सूरज निकलता है तो पापी को भी प्रकाश देता है, पुण्यात्मा को भी। फूल खिलते हैं तो पुण्यात्माओं के लिए ही नहीं खिलते, पापी के लिए भी खिलते हैं। अगर इतनी ही बात होती कि स्वर्ग का ढंग निष्पक्ष है तब तो कोई हर्ज न था। लेकिन दूसरे वचन में लाओत्से बड़े से बड़ा विरोधाभास खड़ा करता है। और लाओत्से लाजवाब है विरोधाभास खड़े करने में। वह कहता है, वह केवल सज्जन का साथ देता है। दूसरे वचन में लाओत्से कह रहा है, फूल खिलते हैं केवल पुण्यात्मा के लिए, सूरज निकलता है केवल पुण्यात्मा के लिए, रोशनी है पुण्यात्मा के लिए, वर्षा होती है पुण्यात्मा के लिए, पापी के लिए नहीं। क्या अर्थ होगा इसका?
इसका अर्थ सीधा है। और लाओत्से के वचन कितने ही टेढ़े-मेढ़े लगें, अगर तुम्हें जरा ही समझ हो तो उसकी कुंजी सीधी है। वह यह कह रहा है कि परमात्मा तो निष्पक्ष है, सूरज निकलता है तो पुण्यात्मा के लिए ही नहीं निकलता, लेकिन पुण्यात्मा ही उसका लाभ ले पाता है; पापी तो आंखें बंद किए खड़ा रह जाता है। वर्षा होती है तो कोई परमात्मा पुण्यात्मा के लिए ही वर्षा नहीं करता, लेकिन पुण्यात्मा ही नाचता है उस वर्षा में; पापी तो घर के भीतर छिप जाता है।
कबीर ने कहा है: चहुं दिशि दमके दामिनी, भीजै दास कबीर।
पापी तो छिपे हैं अपनी-अपनी गुफाओं में, चारों तरफ चमकती है उसकी रोशनी, बिजलियां चमकती हैं; दास कबीर भीज रहा है। कुछ जीवन की बात ऐसी है कि फूल की सुगंध केवल फूल के खिलने से तुम्हें नहीं मिलती, तुम्हारे नासापुटों की तैयारी भी चाहिए। और तुम अगर मछलियों की ही गंध को सुगंध मानते रहे हो तो फूल खिलेंगे और तुम्हारे लिए नहीं खिलेंगे। नहीं कि तुम्हारे लिए नहीं खिले, बल्कि तुम खुद अपने हाथ से वंचित रह जाओगे।
जिब्रान की एक छोटी सी कहानी है। एक आदमी एक रास्ते पर चलते-चलते गिर पड़ा; भरी दोपहरी थी; बेहोश हो गया। जिस राह पर बेहोश हुआ उस राह के दोनों तरफ गंधियों की दुकानें थीं, सुगंध बेचने वालों की दुकानें थीं। दुकानदार भागे, उनके पास जो श्रेष्ठतम गंध थी...। क्योंकि अगर श्रेष्ठतम गंध सुंघाई जाए तो बेहोश आदमी होश में आ जाता है। गंध उसके प्राणों तक चली जाती है, और बड़ी धीमी सी सरसराहट देती है उसकी चेतना को, और वह जाग जाता है। उन्होंने गंध सुंघाई, लेकिन वह आदमी हाथ-पैर तड़फाने लगा; होश में न आया। जब वे उसे गंध सुंघाएं तो वह और बेचैन मालूम पड़े। भीड़ इकट्ठी हो गई। एक आदमी भीड़ में खड़ा था। उसने कहा, ठहरो, तुम उसे मार डालोगे। मैं उसे जानता हूं, वह एक मछलीमार है और मछलियां बेचने का काम करता है। मैं भी पहले वही काम करता था। वह केवल एक ही गंध जानता है, वह मछलियों की सुगंध। उसकी टोकरी कहां है?
पास ही भीड़ में उसकी टोकरी पड़ी थी। उस आदमी ने उस टोकरी पर थोड़ा सा, जिसकी मछलियां वह बेच आया था, टोकरी पर थोड़ा सा पानी छिड़का और उस आदमी के मुंह पर टोकरी रख दी। उसने गहरी सांस ली; होश में आ गया। और उसने कहा कि वह कौन है जिसने यह सुगंध मेरे पास लाई! ये तो मुझे मार डालते। ये लोग मेरी जान लिए ले रहे थे।
सूर्य निकलता है। किसी के लिए नहीं, सूर्य तो सिर्फ निकलता है। निष्पक्ष है। स्वर्ग का नियम निष्पक्ष है। मगर तुम अपनी आंखें बंद किए खड़े रह सकते हो। तो सूर्य तुम्हारी आंखें जबरदस्ती नहीं खोलेगा। जिनकी खुली आंखें हैं वे दर्शन कर लेंगे, उनके सिर नमस्कार में झुक जाएंगे; जिनकी आंखें बंद हैं वे वंचित रह जाएंगे।
इसलिए लाओत्से कहता है, स्वर्ग का राज्य और उसके नियम तो निष्पक्ष हैं, लेकिन वह केवल सज्जन का साथ देता है।
ऐसा नहीं कि वह सज्जन का साथ देता है, संत का साथ देता है, बल्कि ऐसा कि संत ही समझ पाता है कि उसके साथ कैसे हो जाएं। पापी तो लड़ता है धार से, उलटा बहता है, उलटा बहने की कोशिश करता है। बह तो नहीं सकता; हारेगा, थकेगा, टूटेगा। संत धार के साथ जाता है। पापी गंगोत्री की तरफ तैरता है; लड़ने में उसे मजा है। पुण्यात्मा गंगा के हाथ में अपने को छोड़ देता है; सागर की तरफ बहने लगता है।
परमात्मा के साथ होने का ढंग ही तो संतत्व है। जिसको वह ढंग आ गया, उसके लिए ही फूल खिलते हैं; उसके लिए ही चांदत्तारे चलते हैं; उसके लिए सूरज निकलता है। उसके लिए जीवन एक धन्यता है, अहोभाव है।
तुम्हारे लिए भी वह सब हो रहा है, लेकिन तुम कुछ उलटे खड़े हो। और तुम्हें जो मिलता है तुम उसके प्रति भी धन्यवाद नहीं देते। इसलिए और जो मिल सकता था उससे वंचित रह जाते हो।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा अमीर आदमी था। उसने अपने गांव के सब गरीब लोगों के लिए, भिखमंगों के लिए माहवारी दान बांध दिया था। किसी भिखमंगे को दस रुपये मिलते महीने में, किसी को बीस रुपये मिलते। वे हर एक तारीख को आकर अपने पैसे ले जाते थे। वर्षों से ऐसा चल रहा था। एक भिखमंगा था जो बहुत ही गरीब था और जिसका बड़ा परिवार था। उसे पचास रुपये महीने मिलते थे। वह हर एक तारीख को आकर अपने रुपये लेकर जाता था।
एक तारीख आई। वह रुपये लेने आया, बूढ़ा भिखारी। लेकिन धनी के मैनेजर ने कहा कि भई, थोड़ा हेर-फेर हुआ है। पचास रुपये की जगह सिर्फ पच्चीस रुपये अब से तुम्हें मिलेंगे। वह भिखारी बहुत नाराज हो गया। उसने कहा, क्या मतलब? सदा से मुझे पचास मिलते रहे हैं। और बिना पचास लिए मैं यहां से न हटूंगा। क्या कारण है पच्चीस देने का? मैनेजर ने कहा कि जिनकी तरफ से तुम्हें रुपये मिलते हैं उनकी लड़की का विवाह है और उस विवाह में बहुत खर्च होगा। और यह कोई साधारण विवाह नहीं है। उनकी एक ही लड़की है, करोड़ों का खर्च है। इसलिए अभी संपत्ति की थोड़ी असुविधा है। पच्चीस ही मिलेंगे। उस भिखारी ने जोर से टेबल पीटी और उसने कहा, इसका क्या मतलब? तुमने मुझे क्या समझा है? मैं कोई बिरला हूं? मेरे पैसे काट कर और अपनी लड़की की शादी? अगर अपनी लड़की की शादी में लुटाना है तो अपने पैसे लुटाओ
कई सालों से उसे पचास रुपये मिल रहे हैं; वह आदी हो गया है, अधिकारी हो गया है; वह उनको अपने मान रहा है। उसमें से पच्चीस काटने पर उसको विरोध है।
तुम्हें जो मिला है जीवन में, उसे तुम अपना मान रहे हो। उसमें से कटेगा तो तुम विरोध तो करोगे, लेकिन उसके लिए तुमने धन्यवाद कभी नहीं दिया है। इस भिखारी ने कभी धन्यवाद नहीं दिया उस अमीर को आकर कि तू पचास रुपये महीने हमें देता है, इसके लिए धन्यवाद। लेकिन जब कटा तो विरोध।
जीवन के लिए तुम्हारे मन में कोई धन्यवाद नहीं है, मृत्यु के लिए बड़ी शिकायत। सुख के लिए कोई धन्यवाद नहीं है, दुख के लिए बड़ी शिकायत। तुम सुख के लिए कभी धन्यवाद देने मंदिर गए हो? दुख की शिकायत लेकर ही गए हो जब भी गए हो। जब भी तुमने परमात्मा को पुकारा है तो कोई दुख, कोई पीड़ा, कोई शिकायत। तुमने कभी उसे धन्यवाद देने के लिए भी पुकारा है? जो तुम्हें मिला है उसकी तरफ भी तुम पीठ किए खड़े हो। और इस कारण ही तुम्हें जो और मिल सकता है उसका भी दरवाजा बंद है।
निश्चित ही, परमात्मा का नियम तो निष्पक्ष है, लेकिन तुम नासमझ हो। और जो तुम्हें मिल सकता है, जो तुम्हें मिलने का पूरा अधिकार है, वह भी तुम गंवा रहे हो। लेकिन वह तुम अपने कारण गंवा रहे हो; उसका जिम्मा परमात्मा पर नहीं है।
परमात्मा निष्पक्ष है; वह केवल सज्जन का साथ देता है।
सज्जन का साथ परमात्मा नहीं देता; वह तो चल रहा है, सज्जन उसके साथ हो लेता है; दुर्जन उसके विपरीत हो जाता है। दुर्जन हमेशा विपरीत चलने में रस पाता है, क्योंकि वहीं लड़ाई और कलह और वहीं अहंकार का पोषण है। सज्जन सदा झुकने में, समर्पण में रस पाता है, क्योंकि वहीं असली अहोभाव है, वहीं जीवन का संगीत और नृत्य और फूल, वहीं जीवन का स्वर्ग और जीवन की परम धन्यता है। वहीं आत्यंतिक अर्थों में जिसको महावीर और बुद्ध ने निर्वाण कहा है, उस निर्वाण की परम शांति है, उस निर्वाण का महासुख है।

आज इतना ही।


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