प्रश्नसार:
1—मैं
हमेशा एक ही
जैसे प्रश्न
बार—बार क्यों
पूछती हूं?
2. मुझे
आपके
प्रवचनों में
आज तक एक भी
विरोधाभास
नहीं मिला।
क्या मुझमें
कुछ गलत है?
3—तुम यहां
से वहां नहीं
पहुंच सकते।
4—क्या
स्वच्छ होने
की प्रक्रिया
मन की झलकी को
नए रूप देगी?
5. मेरा
शरीर रोगी है, मेरा मन
भोगी है,
और मेरा ह्रदय
करीब—करीब
योगी है। क्या
मेरे इस जन्म
में संबुद्ध
होने की कोई
संभावना है?
6 जब
आप शरीर
छोड़ें, तो
मैं भी आपके साथ
मर जाना चाहता
हूं।
7—जब
भी आपके निकट
होता हूं तो
तनाव महसूस
करता हूं।
8—अनुग्रह
प्रकट करने के
लिए मैं आपके
लिए क्या कर
सकता हूं?
9—कृप्या
संगीत और ध्यान
के विषय में
कुछ कहें।
10—आप
कुर्सी पर
इतने आराम से
बैठे होते है
कि एकदम
भारविहीन
मालूम पड़ते
है।
आप
गुरूत्वाकर्षण
के नियम के
साथ क्या
करते है?
पहला
प्रश्न:
मैं हमेशा
एक ही जैसे
प्रश्न बार—
बार क्यों
पूछती हूं?
क्यों
कि मन स्वयं
ही एक
पुनरुक्ति
है। मन कभी भी
मौलिक नहीं हो
सकता है। मन
कभी भी
स्वाभाविक
नहीं हो सकता
है, मन
का स्वभाव ही
ऐसा है। मन एक
उधार वस्तु
है। मन नया
कभी नहीं होता
है; हमेशा
पुराना ही
होता है। मन
का अर्थ होता
है अतीत—वह
हमेशा
तिथि—बाह्य होता
है। धीरे—
धीरे मन का एक
सुनिश्चित
ढांचा, एक
सुनिश्चित
आदत, एक
यात्रिक
व्यवस्था बन
जाती है। फिर
इस बने —बनाए
यांत्रिक
जीवन को जीने
में तुम बहुत
कुशल हो जाते
हो। फिर तुम
एक रूटीन में
जीए चले जाते
हो।
तुम एक
जैसे ही
प्रश्न इसलिए
पूछते चले
जाते हो, क्योंकि
तुम्हारा मन
तो वैसा का
वैसा ही रहता है।
जब तक तुम नए
नहीं होते, तुम्हारे
प्रश्न भी नए
न हो सकेंगे।
जब तक तुम
पुराने मन को
पूरी तरह से, गिरा नहीं
देते हो, तब
तक नए
प्रश्नों का
जन्म नहीं हो
सकता है। क्योंकि
तुम पहले से
ही पुराने
प्रश्नों से
इतने भरे हुए
हो कि जरा भी
कहीं कोई
रिक्त स्थान
नहीं है। और मन
स्वयं को ही
बार—बार
दोहराते चले
जाने में बहुत
कुशल होता है।
मन बहुत ही
अड़ियल और
जिद्दी होता
है। अगर मन
स्वयं के
रूपांतरण का
दिखावा करता
भी है तो वह
रूपांतरण
वास्तविक
नहीं होता है,
वह मात्र एक
दिखावा ही
होता है, पुरानी
आदतों का ही
सुधरा हुआ रूप
होता है। हो
सकता है मन
अलग शब्दावली
का प्रयोग करे,
पूछने का
ढंग अलग हो, लेकिन गहरे
में प्रश्न
वही का वही
होता है। और
मन वैसा ही
बना रहता है।
इसे
समझना। यह
प्रश्न अच्छा
है। कम से कम
यह प्रश्न तो
पुराना नहीं
है।
प्रश्न
सरोज का है।
वह अक्सर
प्रश्न भेजती
रहती है, और मैंने
उसके
प्रश्नों का
कभी उत्तर
नहीं दिया है,
लेकिन आज
मैंने तय किया
है कि उत्तर
देना है, क्योंकि
उसे एक नई झलक
मिली है और
उसे एक बात समझ
आ गई है. कि वह
फिर—फिर वही
पुराने
प्रश्न करती
है। यह समझ नई
है। उसके भीतर
एक नई सुबह का,
एक नई
उषा—काल का, एक नई भोर का
उदय हुआ है।
उसकी चेतना
निश्चित रूप
से मन के
पुराने ढांचे
के प्रति सजग
हुई है। इस
सजगता को
बढ़ाना; इस
सजगता को बढ़ने
में सहयोग
देना। तो धीरे
— धीरे तू
स्वयं को दो
आयामों में
देखने लगेगी.
मन का
आयाम—जों
पुराना है, अतीत का है, और चैतन्य
का आयाम—जों
सदा ताजा है, नया है, मौलिक
हैं।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा
एक
आदमी ने बहुत
ही गुस्से में
दौड़ते हुए सड़क
पार की, और एक आदमी
जो अपने
रास्ते जा रहा
था, उसके
पास जाकर खूब
जोर से उसकी
पीठ पर एक
मुक्का जमा
दिया।
उसका
अभिवादन करते
हुए वह बोला, 'पॉल
पोर्टर, तुम्हें
देखकर मैं
कितना खुश हो
गया हूं! लेकिन
पाल, जरा
यह तो बताओ कि
आखिर तुम्हें
हो क्या गया था?
पिछली बार
जब मैं तुमसे
मिला था, तब
तुम छोटे और
मोटे थे।
अचानक तुम
लंबे और पतले
कैसे लगने लगे
हो।’
उलझन
में पड़े हुए
उस आदमी ने
कहा, 'देखिए
जनाब, मैं
पॉल पोर्टर
नहीं हूं।’
उस
निर्भीक आदमी
ने
तिरस्कारपूर्ण
ढंग से जोर से
कहा, 'ओह!
अच्छा, तो
तुम ने अपना
नाम भी बदल
लिया है?'
मन की
स्वयं में ही
विश्वास किये
जाने की जिद्दी
आदत होती है
—चाहे उसके खिलाफ
कितने ही
विरोधी तथ्य
क्यों न मौजूद
हों। चाहे
पुराना मन दुख, नरक और
पीड़ा के
अतिरिक्त कुछ
भी न देता हो, फिर भी तुम
उसी पर
विश्वास किए
चले जाते हो।
लोग
कहते हैं, यह
अविश्वास का
जमाना है।
मुझे ऐसा नहीं
लगता व मन में
आज भी वही
पुराना
विश्वास जमा
हुआ है। कोई
हिंदू है; वह
हिंदू धर्म
में विश्वास
करता है, क्योंकि
उसका मन हिंदू
होने के लिए
संस्कारित हो
गया है। कोई
ईसाई है, वह
ईसाइयत में
विश्वास करता
है, क्योंकि
उसका मन ईसाई
होने के लिए
संस्कारित हो
गया है। कोई
कम्युनिस्ट
है, वह
कम्युनिस्ट
होने में ही
विश्वास किए
चला जाता
है—क्योंकि
उसका मन
कम्युनिस्ट होने
के लिए ही
आबद्ध हो गया
है। ये तीनों
एक जैसे ही
लोग हैं, वे
कुछ अलग— अलग
नहीं हैं।
उनके नाम और
उन पर लगे हुए
लेबल अलग— अलग
हो सकते हैं, ये सभी लोग
अपने — अपने
संस्कारों को
और मन को पकड़े
हुए हैं और ये
सभी लोग मन
में विश्वास
करते हैं।
मैं
धार्मिक उसे
कहता हूं जो
मन के पार चला
जाता है। मैं
धार्मिक उसे
कहता हूं, जो मन की
सभी कंडीशन, सभी शर्तों
को छोड़ देता
है, जो मन
की पकड़ को ही
छोड़ देता है, और धीरे —
धीरे चैतन्य
में उतरने
लगता है, मन
के जड़
—संस्कारों और
मन की संकीर्ण
धारणाओं के
प्रति
अधिकाधिक
जागरूक होने
लगता है।
और एक
दिन उसी
जागरूकता में
मन के जड़— और
संकीर्ण
संस्कार
धारणाएं छूट
जाती हैं—और
तब व्यक्ति
पहली बार
स्वतंत्र
होता है। और
वही स्वतंत्रता
एकमात्र
स्वतंत्रता
है। शेष अन्य
सभी बातें
स्वतंत्रता
के नाम पर
कूड़ा—कचरा
हैं।
स्वतंत्रता
के नाम पर वे
सभी बातें चाहे
वे राजनीतिक
हो, आर्थिक
हों, या
सामाजिक
हों—बस
कूड़ा—कचरा ही
होती हैं। यथार्थ
में तो केवल
एक ही
स्वतंत्रता
का अस्तित्व
है —और वह
स्वतंत्रता
है, जड—संस्कारों
से
स्वतंत्रता, मन की
संकीर्ण
धारणाओं से
स्वतंत्रता, मन से
स्वतंत्रता, और रोज—रोज
अधिकाधिक
सचेत और
जागरूक होते
जाना और अपने
अस्तित्व के
नए—नए आयामों
में प्रवेश
करते चले
जाना।
सरोज, अच्छा
हुआ कि तू इस
बात के प्रति
सचेत हो गयी कि
प्रश्न हर बार
वही के वही
होते हैं।
इसीलिए तो मैं
उनका उत्तर
नहीं देता
हूं। क्योंकि
जब मन अपनी
पुरानी आदतों
पर ही चलता
रहता है तो फिर
वह कुछ सुनना
ही नहीं चाहता
है। फिर प्रश्नों
का उत्तर देना
भी व्यर्थ
होता है।
हमेशा
नए की और ताजे
की खोज
करना—उसकी खोज
करना जो कि बस
अभी— अभी जन्म
ले ही रहा है।
इससे पहले कि
मन बासा और
पुराना हो जाए, नए को पकड़
लेना, इससे
पहले कि मन
कोई बना—बनाया
निश्चित ढांचे
को पकड़े, नए
के साथ एक हो
जाना। अपने
जीवन को कभी
भी किसी
निश्चित
ढांचे में मत
ढाल लेना।
जीवन में गति
होनी चाहिए, जीवन हमेशा
तरल और अज्ञात
की ओर
प्रवाहमान होना
चाहिए।
और मन
का अर्थ होता
है, सब
कुछ जाना—पहचाना,
ज्ञात, जड़।
और तुम अज्ञात
हो।
अगर
तुम इसे समझ
लो, तो
तुम मन का
उपयोग कर सकते
हो और तब मन
तुम्हारा
उपयोग कभी न
कर सकेगा।
दूसरा
प्रश्न :
ऐसे
बहुत से लोग
हैं जो आपके
प्रवचनों में
एक प्रकार का
विरोधाभास
अनुभव करते
हैं। एक बार आपने
हमें समझाया भी
था कि ऐसा
क्यों होता
है। लेकिन
मुझे आपके प्रवचनों
में आज तक एक
भी विरोधाभास
नहीं मिला जबकि
कहीं न कहीं
विरोधाभास तो
होगा ही। लेकिन
चाहे मैं उसे
समझने की
कितनी ही
कोशिश क्यों न
करूं मैं उसे
नहीं समझ सकता
हूं। क्या मुझ
में कुछ गलत
है? कृपया
इसे समझाएं।
नहीं, तुम में कुछ
भी गलत नहीं
है। गलत वे
लोग हैं जो कि
विरोधाभासों
को देखते ही
चले जाते हैं।
लेकिन अधिक
संख्या
उन्हीं लोगों
की है, उनके
सामने तुम
अकेले पड़
जाओगे। इसलिए
तुम उन लोगों
से प्रभावित
मत हो जाना।
ऐसे लोगों की
संख्या अधिक
है, अत:
उनके प्रभाव
में मत आ
जाना। अकेले
बने रहना।
सत्य कभी भी
भीड़ के साथ
नहीं होता है,
सत्य हमेशा
व्यक्तिगत
होता है। सत्य
भीड़ के साथ
नहीं होता है,
वह बहुत
थोड़े से विरले
लोगों के साथ
ही होता है।
सत्य भीड़ के
साथ नहीं होता
है; वह तो
थोड़े से बेजोड़
लोगों के साथ
होता है। इस भेद
को समझ लेना।
जगत
में
वैज्ञानिक
सत्य ही
एकमात्र सत्य
नहीं है। सच
तो यह है, विज्ञान
सत्य को
स्वीकार नहीं
कर पाता है, विज्ञान तो
केवल जो बात
बार—बार
दोहराई जाती है
उसकी ही सुनता
है। विज्ञान
में यही माना
जाता है कि जब
तक कोई प्रयोग
बार —बार
दोहराया नहीं
जाए, उस पर
विश्वास नहीं
किया जा सकता।
जब कोई प्रयोग
बार—बार
दोहराया जाए
और उसका एक ही
परिणाम आए, तब वह सत्य
है। धार्मिक
सत्य अकेले का
होता है।
बुद्ध जैसा
दूसरा
व्यक्ति फिर
से नहीं हो सकता,
जीसस जैसा
व्यक्ति फिर
से नहीं हो
सकता। वे एक
बार ही होते
है और फिर खो
जाते हैं। वे
अंधकार में
चमकते हुए
सूरज की तरह
आते हैं, और
फिर शून्य में
विलीन हो जाते
हैं—और फिर से उनके
होने का कोई
उपाय नहीं है।
इसीलिए विज्ञान
उन्हें
अस्वीकार
करता चला जाता
है, क्योंकि
विज्ञान केवल
उसी बात में
विश्वास करता
है जो यंत्र
की तरह दोहराई
जा सकती हो।
अगर बुद्ध
फोर्ड—कारों
की तरह किसी
फैक्टरी में बनकर
तैयार हो सकते
हों, तब
विज्ञान उन पर
भरोसा कर सकता
है। लेकिन बुद्धों
के साथ ऐसा
संभव नहीं है।
धर्म
तो उन थोड़े से
बेजोड़, अद्वितीय, विरले लोगों
का होता है, जिन्हें
दोहराने का
कोई उपाय नहीं
है, जिनकी
कोई पुनरावृत्ति
नहीं हो सकती
है। और
विज्ञान पुनरावृत्ति
में, दोहराने
में भरोसा
करता है।
इसीलिए
विज्ञान मन का
ही हिस्सा है,
और धर्म मन
के पार जाता
है। क्योंकि
जिस किसी चीज
की भी
पुनरावृत्ति
की जा सकती हो,
जिस किसी
चीज को
दोहराया जा
सकता हो; उसे
मन समझ सकता
है उसे समझना
मन के लिए
आसान होता है।
लोगों
को मुझमें
विरोधाभास
दिखाई देता है, क्योंकि
मैं किसी चीज
को दोहराता
नहीं हूं। वे
मुझ में
विरोधाभास
देखते हैं, क्योंकि
उनका मन एक
तरह के
अरस्तुगत
तर्क में प्रशिक्षित
हो चुका है।
अरस्तु का
तर्क कहता है
कि या तो काला
होता है या
सफेद। अगर कोई
चीज सफेद है
तो वह काली नहीं
हो सकती है, अगर वह काली
है तो सफेद
नहीं हो सकती
है। अरस्तू का
तर्क कहता है
कि या तो वह
काली ही हो
सकती है, या
वह सफेद ही हो
सकती है। ऐसा
ही होता है, और यही तर्क
सभी
वैज्ञानिकों
के मन का आधार
है।
धार्मिक
मन कहता है कि
वह दोनों है.
सफेद काला भी
होता है, और काला
सफेद भी होता
है। इससे
अन्यथा कुछ हो
भी नहीं सकता,
क्योंकि
धर्म किसी भी
चीज को इतनी
गहराई में जाकर
देखता है कि
वहा पर दो
विपरीत तत्व
एक हो जाते
हैं।
जीवन
में मृत्यु भी
छिपी होनी
चाहिए, और मृत्यु
में जीवन भी
छिपा होना
चाहिए।
क्योंकि
धार्मिक
चेतना को यह
बात स्पष्ट
दिखाई देती है
कि वे दोनों बातें
कहीं न कहीं
एक दूसरे में
मिल रही हैं —
भीतर वे तुम
में मिली ही
हुई हैं। कुछ
ऐसा होता है
जो तुम में मर
रहा होता है, और कुछ
हमेशा
उत्पन्न हो
रहा होता है।
हर पल मैं तुम्हें
मरते हुए और
जन्म लेते हुए
देखता हूं। तुम
हमेशा एक जैसे
नहीं रहते हो।
हर पल तुम्हारे
भीतर कुछ मिट
रहा होता है, और हर पल कुछ
नया अस्तित्व
में प्रकट हो
रहा होता है।
लेकिन चूंकि
तुम उसके
प्रति जागरूक
नहीं हो, इसलिए
तुम उसको नहीं
देख पाते हो।
क्योंकि तुम उसको
नहीं देख पाते
हो, इसलिए
वह हमेशा एक
जैसा ही मालूम
पड़ता है।
धर्म
का भरोसा
किन्हीं
विरोधाभास
में नहीं है
—विरोधाभास हो
नहीं
सकता—क्योंकि
अस्तित्व एक
है। धर्म का
यह विश्वास है
और धर्म ऐसा
देखता है कि
कहीं कोई
विरोध नहीं
है। अगर कोई
विरोध होता भी
है तो वह
सहयोगी होता
है, विपरीत
नहीं, वे
एक—दूसरे के
लिए पूरक होते
हैं, क्योंकि
अस्तित्व
अद्वैत है, एक है। जीवन
मृत्यु से अलग
नहीं हो सकता,
और रात दिन
से अलग नहीं
हो सकती।
गर्मी सर्दी से
अलग नहीं हो
सकती और
वृद्धावस्था
बचपन से अलग
नहीं हो सकती।
बचपन ही
वृद्धावस्था
में बदल जाता
है, रात ही
दिन में बदल
जाती है, दिन
ही रात में
बदल जाता है।
इस अस्तित्व
में सही और
गलत, ही और
नहीं, जैसा
कुछ भी नहीं
है, वे
दोनों साथ—साथ
हैं। वे एक ही
रेखा पर खड़े
हुए दो बिंदु
हैं—वें दोनों
विपरीत छोरों
पर हो सकते
हैं, लेकिन
उन्हें
जोड्ने वाली
रेखा एक ही
है।
तो जब
कभी कोई
धार्मिक
व्यक्ति
संसार में जन्म
लेता है, तो वह उस ढंग
से सुसंगत
नहीं हो सकता,
जैसा कि कोई
वैज्ञानिक हो
सकता है। जबकि
एक धार्मिक
व्यक्ति में
कहीं ज्यादा
गहरी सुसंगति
होती है। वह
सुसंगति सतह
पर दिखाई नहीं
देती है, वह
उसके अस्तित्व
में गहरे में
होती है।
मैं
कोई दार्शनिक
नहीं हूं। और
मैं तुम्हारे सामने
किसी सिद्धांत
को प्रमाणित
करने की कोशिश
नहीं कर रहा
हूं और न ही
मैं यहां
तुम्हारे
सामने किसी सिद्धांत
को प्रमाणित
करने के लिए
बोल रहा हूं।
प्रमाणित
करने को कुछ
है नहीं। सत्य
तो मौजूद ही
है, वह
तो तुम्हें
मिला ही हुआ
है। धर्म को कुछ
भी प्रमाणित
नहीं करना है;
धर्म के पास
कोई सिद्धांत
इत्यादि नहीं
हैं। वह तो
केवल जो पहले
से उपलब्ध ही
है, उसे
देखने —समझने
का मार्ग बता
देता है।
मैं
तुमसे रोज—रोज
बोले चला जाता
हूं —ऐसा नहीं
है कि मेरे पास
भी कोई सिद्धांत
है। अगर मेरे
पास भी कोई
सुनिश्चित सिद्धांत
होता, तो
फिर मैं भी
दूसरों जैसा
ही हो जाऊंगा।
फिर उनमें और
मुझ में कोई
भी भेद न
होगा। फिर तो
मैं हमेशा यही
देखता रहूंगा
कि कोई बात
मेरे सिद्धांत
के अनुकूल बैठ
रही है या
नहीं. अगर वह
अनुकूल नहीं बैठ
रही है, तो
मैं उसे छोड़
दूंगा।
लेकिन
मेरे पास कोई
बना—बनाया सिद्धांत
नहीं है। हर
चीज मेरे
अनुकूल, होती है।
अगर मेरा कोई सिद्धांत
होता, तब
तो मुझे अपने सिद्धांत
की जांच
—पड़ताल करनी
पड़ती। तब तो
फिर मेरे लिए सत्य
दोयम हो जाता
और सिद्धांत
प्राथमिक हो
जाता। फिर तो
अगर सत्य सिद्धांत
के अनुकूल
बैठता, तब
तो ठीक, अगर
वह अनुकूल
नहीं बैठता, तो मुझे
उसकी उपेक्षा
करनी पड़ती।
मेरा
कोई सिद्धांत
नहीं है।
प्रत्येक
सत्य, सत्य
होने मात्र से
ही, मेरे
अनुकूल होता
है —पूर्ण रूप
से मेरे अनुकूल
होता है। केवल
थोड़े से लोग
ही इस बात को
समझ पाएंगे।
इसलिए चिंता
की कोई बात
नहीं। अगर
दूसरे लोग
मुझमें
विरोधाभास
देखते हैं, तो उनके
संस्कार
अरस्तु के
हैं।
यहां
पर मेरा पूरा
का पूरा
प्रयास
तुम्हारी जड़ता
को पिघलाने
में मदद देने
का है, जिससे
कि तुम्हारा
जड़ ढांचा गिर
जाए और तुम विपरीत
को भी पूर्ण
की भांति देख
सको। अगर तुम
सच में ही मुझसे
प्रेम करते हो
तो शीघ्र ही
तुम इसे समझ
जाओगे, क्योंकि
हृदय और प्रेम
किसी
विरोधाभास को
नहीं जानते
हैं। अगर ऊपर
सतह पर कोई
विरोध होता भी
है, तो
हृदय जानता है
कि कहीं गहरे
में संगति
होनी ही
चाहिए। यह
विरोध कहीं न
कहीं गहरे में
मिल रहे होंगे,
यह विरोध
भीतर किसी न
किसी ऐसी चीज
से अवश्य जुड़े
हुए होंगे जो
विरोध के पार
होती है।
मैं तो
अद्वैत हूं।
अगर तुम मुझे
ध्यान से देखो, अगर तुम
मुझे प्रेम
करते हो, तो
तुम उस अद्वैत
को देख सकते
हो। अगर एक
बार मेरे
अद्वैत से
तुम्हारी पहचान
हो जाए, एक
बार तुम उसे
देख लो, तो
जो कुछ भी मैं
कहता हूं वह
उस ' अद्वैत'
से ही आ रहा
है। तब
तुम्हें
उसमें कहीं
कोई विरोध
दिखाई नहीं
पड़ेगा, एक
संगति दिखाई
पड़ेगी। चाहे
बुद्धि से, तर्क से यह
बात तुम्हें
समझ में आए या
नहीं, सवाल
उसका नहीं है।
लेकिन हृदय के
पास अपनी एक
समझ होती है, और वह समझ
बुद्धि से, तर्क से
कहीं ज्यादा
गहरी होती है।
वे लोग
जो मेरे प्रेम
में नहीं हैं, वे लोग जो
मेरे प्रति
प्रतिबद्ध
नहीं हैं, वे
लोग जो गहरे
में मेरे साथ
नहीं जुड़े हैं,
वे लोग जो
अज्ञात की
यात्रा में
मेरे साथ नहीं
चल रहे हैं, ऐसे लोग जब
मुझे सुनते
हैं, तब जो
कुछ भी मैं
कहूंगा उसे वे
अपने ही ढंग
से सुनेंगे और
अपने ही ढंग
से
समझेंगे—फिर
वे उसकी
व्याख्या
अपने ही ढंग
से करते हैं।
तब फिर
बात वही नहीं
रह जाती है जो
मैंने कही होती
है, उसका
अर्थ कुछ और
ही हो जाता
है। तब उसमें
उनकी अपनी
व्याख्याएं
प्रवेश कर
जाती हैं। और
चूंकि उनकी
अपनी
व्याख्याएं
होती हैं, तो
उन
व्याख्याओं
के कारण पूरी
की पूरी बात
ही बदल जाती
है। मैंने जो
कहा होता है, उसका अर्थ
ही बदल जाता
है और तब फिर
समस्याएं उत्पन्न
होती हैं।
लेकिन वे
समस्याएं
उनकी अपनी ही
बनायी हुई
होती हैं।
114—115
मैंने
एक कथा सुनी
है:
पैट्रिक
परंपरागत ढंग
से अपने पापों
को स्वीकार
करने के लिए
गया वहां जाकर
वह पादरी से
बोला,’फादर, मैं अपने
पड़ोसी से
प्रेम करता
हूं।’
पादरी
ने कहा,’यह तो
अच्छी बात है।
मैं यह जानकर
अत्यंत खुश हूं
कि इस चर्च के धार्मिक
अनुष्ठानों
ने तुम्हें
लाभ पहुंचाया
है और ईश्वर
की ओर बढ़ने का
मार्ग
प्रशस्त किया
है। अच्छे और
भले काम करते
रहो। यही तो
जीसस का संदेश
है-कि अपने
पड़ोसी को भी
उसी तरह प्रेम
करो जैसे कि
स्वयं को करते
हो।’
पैट्रिक
घर गया, कुछ
सुंदर और
अच्छे वस्त्र
पहनकर पड़ोसी
के घर गया।
पड़ोसी के घर
जाकर पैट्रिक
ने घंटी बजायी
और पूछा,’सब
ठीक तो है न?'
एक
स्त्री ने
दरवाजा खोला
और बोली,’ अल्वर्ट
बाहर गए हुए
हैं, दोपहर
का समय है और
दिन का तेज
प्रकाश है।
ऐसे में कोई
तुम्हें यहां
आते हुए देख
सकता है।’
पैट्रिक
बोला,’ ओह, सब
ठीक है, मैंने
फादर बीन से
विशेष छूट ले
ली है।’
अपने
पड़ोसी को उसी
तरह प्रेम करो
जैसे कि स्वयं
को करते हो,' जब
जीसस ऐसा कहते
हैं तो उनकी
बात का बिलकुल
ही अलग अर्थ
होता है। जब
पैट्रिक उसकी
व्याख्या
करता है, तो
उस बात का
मतलब बिलकुल
ही अलग हो
जाता है। अपने
पड़ोसी से
प्रेम करो -यह
एक प्रार्थना
है, यह एक
ध्यान है, यह
एक ढंग है
होने का, लेकिन
जब कोई साधारण
मन यह बात
सुनता है तो
उसका रंग -रूप
कुछ अलग ही हो
जाता है। तब
प्रेम कामवासना
बन जाता है, प्रार्थना
आसक्ति बन
जाती है। और
मन बहुत चालाक
है. वह कोई भी
आधार-कोई भी
आधार, कहीं
से भी उपलब्ध
हो -मन अपने
आखिरी समय तक
अपनी
व्याख्याएं
करता चला जाता
है।
जब
तुम मुझे सुनो, तो
जागरूक रहना।
तुम अपने ढंग
से मेरी
व्याख्या कर
सकते हो। जब
मैं कहता हूं ’स्वतंत्रता'
तो तुम ’खुली
छूट' की
भांति इसका
अर्थ कर सकते
हो। थोड़ा
ध्यानपूर्वक
इसे देखना। जब
मैं कहता हूं ’प्रेम'
तो तुम उसका
अर्थ ’कामवासना'
के रूप में
ले सकते हो।
थोड़ा ध्यान से
इसे देखना।
समय-समय पर
अपनी
व्याख्याओं
की जांच-पड़ताल
करते रहना, क्योंकि वे
ही जाल हैं - और
तब तुम मुझ
में बहुत से
विरोधाभासों
को पाओगे, क्योंकि
मैं तो मिट
चुका हूं : अब
तो तुम्हीं
मुझ में
प्रतिबिंबित
हो रहे हो।
तुम्हारे
भीतर बहुत से
विरोधाभास
हैं। तुम उलझन
की स्थिति में
हो। तुम्हारे
भीतर बहुत से
मन हैं, और
उनके द्वारा
तुम कई-कई ढंग
से चीजों की
व्याख्या किए
चले जाते हो, और फिर
तुम्हारी
अपनी ही
व्याख्याओं
के कारण, तुम्हारे
अपने ही
अर्थों के
कारण तुम्हें
विरोधाभास
दिखाई देने
लगता है।
मुझे
सुनो। सुनने
से भी ज्यादा
मेरे साथ यहां
पर उठो -बैठो, मेरे
साथ जीओ। फिर
धीरे - धीरे
तुम्हारे
सारे विरोधाभास
समाप्त हो
जाएंगे।
तीसरा
प्रश्न:
एक
सुंदर कथा है
जो देवतीर्थ
ने भेजी है।
भगवान
अंकल डडले की
बात मुझे
वेस्ट
वजार्निया की
एक और कहानी
की याद दिलाती
है। कहानी इस
प्रकार है कि
एक अजनबी जब
वजार्निया
पहुंचा तो वह
किसी जगह को
खोज रहा था!
और जब वह
खोज रहा था तो
खोजते- खोजते
वह जिस मार्ग
से आया था वह
उस मार्ग को
पूरी तरह से
भूल गया। तब वह
खोजते- खोजते
मार्ग में एक
वृद्ध किसान
के पास रुका
और उससे मार्ग
के बारे में
पूछने लगा
वृद्ध
व्यक्ति ने
जवाब दिया ’उत्तर
की ओर तीन मील
तक जाना वहां
पुल पर से दायीं
ओर चले जाना
लकड़ी का बाड़ा
आए तो बायीं
तरफ मुड़ जाना...
ओह नहीं इस
तरह से न खोज
पाओगे।’
उसने फिर
से समझाने का
प्रयत्न किया’
इसी रास्ते पर
ही चार मील तक
चलते चले जाना
खाड़ी के मोड़
के पास जो
चेस्टनट का
पेडू है वहां
से दायीं ओर
मुड़ जाना उसी
सड़क पर आगे दो
मील तक चलते
चले जाना फिर
जहां पर रुकने
का संकेत है वहां
से बायीं ओर
मुड़ जाना. ओह
नहीं- नहीं
फिर से गड़बड
हो गयी।’
एक बार फिर
कोशिश करते
हुए वृद्ध
व्यक्ति कहने
लगा पश्चिम की
ओर सीधे चले
जाना जब तक कि
तुम यूबर्ज
जनरल स्टोर तक
न पहुंच जाओ
फिर पुल से दायीं
ओर पांच मील
तक चले जाना
पीले मकान के
पास दायीं ओर
गुड जाना फिर
तीन पहाड़ियां
पार करने के
बाद सड़क जहां
दो हिस्सों
में बंटती है
वहां से दायीं
ओर.. ओह नहीं-
नहीं ऐसे भी न
पहुंच पाओगे।’
मुझे
अफसोस है
वृद्ध किसान
ने बड़ी
गंभीरता से सोच-
विचार करने के
बाद कहा ’तुम
यहां
से वहां
नहीं पहुंच
सकते।
मुझे
यह कथा सदा
प्यारी रही
है। यह कथा
बड़ी सांकेतिक
है। मैं इसके
अंतिम भाग को
फिर से
दोहराता हूं।
उसने कहा,’मुझे
अफसोस है, तुम
यहां से वहा
नहीं पहुंच
सकते।’
सच
तो यह है तुम
यहां से केवल
यहीं तक पहुंच
सकते हो। यहां
से वहां तक
पहुंचने का
कोई उपाय नहीं
है। यहां से
तुम सदा यहीं
तक पहुंच सकते
हो -यहां से
वहा तक जाने
का कोई मार्ग
नहीं है। हर
पल’ अभी' ही
मौजूद होता है
हमेशा-क्योंकि
सदा वर्तमान ही
मौजूद होता
है। आज से आने
वाले कल तक
कभी भी पहुंचना
संभव नहीं है।
स्मरण
रहे,
आज के दिन
से आज तक ही
बार-बार
पहुंचते हैं
-क्योंकि कहीं
कोई आने वाला
कल होता नहीं
है। आज का दिन
ही हमेशा
वर्तमान में
विद्यमान
रहता है, वह
शाश्वत होता
है। ‘ अभी' शाश्वत
का हिस्सा है,
और ’यहीं' ही एकमात्र
स्थान है।
कोई
आदमी चाहे
कितनी ही शराब
पी ले, लेकिन
कई बार शराबी
आदमी बड़े
अदभुत सत्य
बोल जाते हैं।
क्योंकि शराब
के नशे में
आदमी अरस्तू
के तर्क के
घेरे में नहीं
रह जाता। शायद
इसी कारण शराब
का, नशीले
पदार्थों का
इतना आकर्षण
है उनसे आदमी तनाव-रहित
होकर और
विश्रांत हो
जाता है। तुम्हारे
सिर को तो
अरस्तू ने
विभाजित कर
दिया है-यहां
और वहा के बीच,
अब और तब के
बीच, आज और
कल के
बीच-शराब के
नशे में वह
विभाजन मिट जाता
है, और
आदमी गहरे में
स्वयं में
प्रतिष्ठित
हो जाता है।
वह फिर से
अपने खोए हुए
बचपन को पा
लेता है, बचपन
में कुछ भी
अलग नहीं
दिखाई पड़ता था,
सभी कुछ एक
ही दिखाई पड़ता
था, कहीं
किसी प्रकार
की कोई विभाजन
रेखा न थी।
कभी
किसी बच्चे को
देखना। जब वह
सुबह सोकर उठता
है तो रो रहा
होता है, क्योंकि
उसने सपने में
देखा है कि
उसका खिलौना
खो गया है। सच
तो यह है
बच्चे के लिए
सपने में और
दिन में कोई
भेद नहीं होता
है, उन
दोनों के बीच
कोई सीमा
—रेखा नहीं
होती है। बच्चे
के लिए दिन और
सपना एक जैसे
ही हैं —बच्चे
के लिए स्वप्न
और यथार्थ के
बीच कहीं कोई
सीमा नहीं है।
उसके लिए सभी
कुछ आपस में परस्पर
जुड़ा हुआ है, एक दूसरे
में घुला
—मिला हुआ है।
बच्चा बिलकुल
अलग ही संसार
में जीता
है—उस संसार
में जो एक है।
उसी संसार में
तो रहस्यवादी
संत जीते हैं,
वही संसार
अद्वैतवादियों
का है, जहां
पर कहीं कोई
विभेद नहीं, जहां चीजें
एक—दूसरे के
विपरीत
विभाजित नहीं होती
हैं।
वह
वृद्ध
व्यक्ति शायद
उस दिन शराब
पीए होगा। अन्यथा, जब तुम
होश में होते
हो तो ऐसी
बातें नहीं कह
सकते। उसने सब
तरह से कोशिश
की कि किसी
तरह से भी याद आ
जाए, जो कि
शराब के
प्रभाव से
धुंधली पड़ गई
थी। उसने मार्ग
को याद करने
की बहुत कोशिश
की, लेकिन
फिर—फिर वह
भूल जाता था।
अंततः उसने
कहा कि ऐसा
संभव ही नहीं
है, 'मुझे
अफसोस है, तुम
यहां से वहा
नहीं पहुंच
सकते हो।’
कथा की
इस तरह की
निष्पत्ति
झेन गुरुओं को
बहुत प्यारी
लगेगी। वे
इसमें छिपे
अर्थ को समझते
हैं, क्योंकि
वे भी शराब
पीए हुए हैं
—परमात्मा की
शराब। तब फिर
वही होता है
सभी तरह की
कोटियां खो
जाती हैं, सभी
भेद मिट जाते
हैं। लाओत्सु
कहता है, 'मुझे
छोड्कर हर कोई
बुद्धिमान है,
केवल मैं ही
भ्रमित हूं।’
लाओत्सु और
भ्रमित? लाओत्सु
कहता है, 'सभी
को सभी कुछ
मालूम है, केवल
मैं ही कुछ
नहीं जानता
हूं। हर कोई
बुद्धिमान है,
केवल मैं ही
अज्ञानी हूं।’
'लाओत्सु' शब्द का
अर्थ ही होता
है 'अनुभवी
साथी', या 'अनुभवी
अज्ञानी'।
शायद लाओत्सु
के शत्रु उसे
लाओत्सु कहकर
इसीलिए
बुलाते होंगे
कि इसका अर्थ
अनुभवी अज्ञानी
होता है, और
उसके मित्र
उसे लाओत्सु
इसलिए कहते
होंगे कि इसका
अर्थ होता है
अनुभवी साथी
लेकिन वह
दोनों ही था।
स्मरण
रहे, कि
कहीं जाने को
कोई जगह नहीं
है। जहां कहीं
भी रहो 'अभी'
और 'यहीं'
में होते
हो। जहां कहीं
भी जाते हो
हमेशा 'यहीं'
का
अस्तित्व
होता है, जहां
कहीं भी जाते
हो ' अभी' का अस्तित्व
रहता है।’यहीं'
और 'अभी'
शाश्वत हैं,
और वे दो
नहीं. हैं।
भाषा की
दृष्टि से हम
उन्हें दो रूप
में देखने और
कहने के
अभ्यस्त हो गए
हैं, क्योंकि
भाषा के जगत
में आइंस्टीन
अभी आए नहीं
हैं।
आइंस्टीन ने
अब इसे एक
वैज्ञानिक
तथ्य की भांति
प्रमाणित कर दिया
है कि स्थान
और समय दो
चीजें नहीं
हैं। इसके लिए
उसने एक नए ही
शब्द, 'स्पेसिओ
—टाइम' को
गढ़ा है। अगर
आइंस्टीन की
बात सही है तो 'यहां' और 'अब' दो
नहीं हो सकते
हैं।’यहीं—
अभी' भविष्य
का शब्द है।
भविष्य में
कभी जब आइंस्टीन
की बात बोलचाल
की भाषा में आ
जाएगी, तो '
अभी' और 'यह' जो दो
शब्द हैं, अपना
भेद खो देंगे।
तब शब्द होगा 'यहीं— अभी'।
यह कथा
सुंदर है। कई
बार छोटी
—छोटी कथाओं
में, लोक
कथाओं में
बहुत गढ़ अर्थ
छिपे होते
हैं। इन कथाओं
को लेकर केवल
हंसना मत। कई
बार हंसने से
हम ऐसी चीज से
वंचित रह जाते
हैं, ऐसी
चीज को खो
देते हैं, जो
जीवन में
बेचैनी पैदा
कर सकती है, जो पूरे
जीवन में
खलबली मचा
देती है। इन
कथाओं को लिखा
नहीं जाता है;
ये वृक्षों
की भांति अपने
— आप विकसित
होती हैं। सदियों
—सदियों तक, हजारों मन
—मस्तिष्क उन
पर काम करते
हैं। ये कथाएं
हमेशा समय के
अनुसार बदलती
रहती हैं, और
समय—समय पर
परिष्कृत
होती रहती
हैं। लेकिन ये
कथाएं
मनुष्य—जाति
की परंपरा का
हिस्सा हैं।
जब भी कभी कोई
हास—परिहास की
बात सुनाए तो
सिर्फ हंसकर
उसे भुला मत
देना। हंसो, हंसना एकदम
ठीक है, लेकिन
हंसने में
उसमें छिपी
हुई बात को मत
चूक जाना।
उसमें कोई
बहुत ही
मूल्यवान बात
छिपी हुई हो
सकती है। अगर
तुम उसे देख
सको, तो
तुम्हारी
अपनी चेतना
में कुछ जुड़
जाएगा, वह
समृद्ध हो
जाएगी।
चौथा
प्रश्न:
अभी
कुछ दिन पहले
मुझे शून्य की
एक झलक मिली। अपने
काम में मैं
इन भिन्न—
भिन्न प्रकार
की झलकों के
माध्यम से संवाद
करता हूं क्या
स्वच्छ होने
की प्रक्रिया
उन झलकों को
नए रूप में
उदित होने
देगी या कि जब
मैं बिदा
होऊंगा तो
मेरा कार्य भी
बिदा हो जाएगा?
यह तो तुम पर
निर्भर करता
है। अगर
तुम्हारा कार्य
मात्र एक
व्यवसाय है, तो जब तुम
बिदा होंगे
संसार से, तो
तुम्हारा कार्य
भी बिदा हो
सकता है।
ध्यान की
गहराई में जब
अहंकार खो
जाता है, तो
फिर व्यवसाय
भी खो सकता
है।
लेकिन
यदि तुम्हारा
व्यवसाय केवल
पेशा ही नहीं
है, बल्कि
वह कार्य
तुम्हारे
अंतस से
प्रस्फुटित
होता है, तुम्हारी
आंतरिक
योग्यता से
आता है, तब
वह कार्य
मात्र एक कार्य
नहीं होता, बल्कि एक
पुकार होती
है। जब कार्य
को तुम किसी
दबाव में आकर
या किसी जोर
—जबर्दस्ती से
नहीं कर रहे
होते हो, बल्कि
उसकी जड़ें
तुम्हारे
भीतर ध्यान की
गहराई में
होती हैं, जब
कार्य बोझ न
होकर
तुम्हारी
अपनी ही अंत:
प्रेरणा और
अंत: स्रोत से
आता है तब उस
कार्य में
अहंकार
तिरोहित हो
जाता है, और
तब पहली बार
काम काम न
रहकर प्रेम हो
जाता है, पूजा
हो जाती है, प्रार्थना
हो जाती है, तब तुम जो भी
करते हो वह
कार्य न होकर
सृजन होता है,
तुम
सृजनात्मक हो
जाते हो।
जब
जीवन से
अहंकार बिदा
हो जाता है तो
बहुत बड़ी
मात्रा में
ऊर्जा मुक्त
हो जाती है, क्योंकि
जीवन की अधिकांश
ऊर्जा तो
अहंकार में ही
व्यर्थ नष्ट
हो जाती है —अधिकांश
ऊर्जा; अहंकार
में ही व्यर्थ
नष्ट हो जाती
है। किसी दिन
चौबीस घंटे
थोड़ा इस पर
ध्यान देना।
अहंकार के
कारण अधिकांश
ऊर्जा क्रोध
में, घृणा
में, संघर्ष
में और मानसिक
भटकावों में
व्यर्थ ही
नष्ट हो जाती
है। जीवन में अधिकांश
ऊर्जा तो इसी
में व्यर्थ
नष्ट हो जाती
है। और जब अहंकार
बिदा हो जाता
है, तो वही
सारी की सारी
ऊर्जा
सृजनात्मक
कार्य के लिए,
और स्वयं के
लिए उपलब्ध हो
जाती है।
अभी तक
जो ऊर्जा
अहंकार में
नष्ट हो रही
थी, अब
वही ऊर्जा
सृजनात्मक हो
जाती है, लेकिन
अब उस सृजन की
गुणवत्ता
बिलकुल ही
भिन्न होती है,
उसका स्वाद,
उसका रस अलग
होता है। फिर
ऐसा नहीं होता
कि 'तुम' सृजन कर रहे
हो, तब तुम
तो अस्तित्व
के माध्यम बन
जाते हो। तब तुम
किसी ऐसी चीज
से आविष्ट हो
जाते हो, जो
तुमसे कहीं
अधिक बड़ी है, जिसने
तुम्हें अपना
उपकरण, अपना
माध्यम बना
लिया है। तब
तो खाली बांस
की पोंगरी
होते हो, और
अब उसमें से
परमात्मा ही
अपने गीत गाता
है। तुम तो बस
अस्तित्व को
स्वयं के
द्वारा बहने देने
के लिए मार्ग
बन जाते हो।
अगर अहंकार
लौट —लौटकर बीच
में आ जाता है,
और कहीं कुछ
गलत होता है
तो वह तुम्हारे
कारण होता है।
लेकिन अगर
कहीं अस्तित्व
में कुछ
सौंदर्य घटित
होता है, तो
वह परमात्मा
का है। अगर
कुछ गलत होता
है, तो
तुम्हारे
कारण ही गलत
होता है। अगर
अस्तित्व
तुम्हारे
माध्यम से कुछ
सृजन करता है,
तो तुम अपने
को अस्तित्व
के प्रति
अनुगृहीत
अनुभव करते
हो। और अगर
अस्तित्व
तुम्हारे
माध्यम से सृजन
नहीं कर पा
रहा है, तो
उसका कारण तुम
ही हो, फिर
सारी की सारी
गलती
तुम्हारी ही
है, क्योंकि
तब तुम ही
किसी न किसी
तरह अस्तित्व
के मार्ग में
बाधा खड़ी कर
रहे हो।
अस्तित्व और
तुम्हारे बीच
में कहीं कुछ
अवरोध है, तुम
पूरी तरह से
खाली और रिक्त
नहीं हो कि
तुम्हारे
माध्यम से
परमात्मा
प्रवाहित हो
सके, लेकिन
इस जगत में जब
भी कभी
सौंदर्य या
सृजन की घटना
घटती है —जैसे
कोई चित्र, कोई कविता, कोई नृत्य
या अन्य कुछ
भी —तब वह तभी
घटती है जब
तुम परमात्मा
के प्रति गहन
अनुग्रह के
भाव से भरे
होते हो। तब
हृदय में
प्रार्थना
उठती है, हृदय
परमात्मा के
प्रति अहोभाव
से भर जाता है।
और जब
परमात्मा
तुम्हारे
माध्यम से
सृजन करता है, तब सृजन
बहुत ही मौन
और शांत होता
है। अभी तो जो
सृजन है, वह
अहंकार से भरा
हुआ है, इसलिए
उसमें बड़ी अशांति
और उपद्रव है।
अहंकार के साथ
तो मैं सृजन
करने वाला हूं, मैं
सृजनकर्ता हूं, इस 'मैं' के शोर के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
होता। किसी
कवि की कविता
चाहे किसी कोम
की न हो, दो
कौड़ी की ही
क्यों न हो, लेकिन कवि
छत पर चढ़कर
चिल्लाए ही चला
जाता है। इसी
तरह किसी
चित्रकार की
चित्रकला
चाहे कोई
मूल्य की न हो,
उसमें कोई
मौलिकता न हो,
चाहे वह
किसी दूसरे की
एक नकल मात्र
ही हो, लेकिन
फिर भी
चित्रकार
अपना सिर गर्व
से ऊंचा उठाए
ही चलता है कि
मैं चित्रकार
हूं। अहंकार शोरगुल
मचा कर अपने
को कुछ सिद्ध करने
की कोशिश करता
है।
जब
अहंकार बिदा
हो जाता है, तब ऊर्जा
अनेक रूपों
में प्रवाहित
होती है, लेकिन
तब उसमें किसी
तरह का शोरगुल
नहीं होता है,
तब हर चीज
बड़ी शांत और
सहज रूप से
मौन होती है।
मैंने
सुना है
किसी
ने एक बार
हार्वर्ड के
प्रोफेसर, चार्ल्स
टाउनसेंड कोपलेंड
से पूछा कि वे
हॉलिस हाल की
सबसे ऊपर की
मंजिल में
अपने छोटे से,
धूल भरे
पुराने कमरों
में क्यों
रहते हैं?
उन्होंने
उत्तर दिया, 'मैं
हमेशा यहीं
रहूंगा।
कैंब्रिज में
केवल यही
एकमात्र ऐसी
जगह है जहां
केवल
परमात्मा ही मुझ
से ऊपर है।’ फिर एक क्षण
रुककर वे बोले,
'परमात्मा
हमेशा व्यस्त
रहता है, लेकिन
फिर भी वह मौन
रहता है।’
हां, परमात्मा
व्यस्त है, अदभुत रूप
से व्यस्त है
—क्योंकि
अस्तित्व में
वही तो चारों
ओर विद्यमान
है। चारों ओर
दृष्टि उठाकर
थोड़ा देखो तो
सही, वह
कितनी चीजों
को एक साथ किए
जा रहा है। यह
अपार असीम
अस्तित्व का
विस्तार उसी
का तो है।
तुमने
हिंदुओं के
देवी—देवताओं
के चित्र देखे
होंगे जिनके
हजारों हाथ
होते हैं। वे
हाथ बहुत प्रतीकात्मक
हैं। वे हाथ
दर्शाते हैं
कि परमात्मा
दो हाथ से
कार्य नहीं कर
सकता है।
क्योंकि
कार्य इतना
विराट और
विशाल है कि
दो हाथ पर्याप्त
न होंगे।
तुमने तीन
सिरों वाले
हिंदू
देवताओं के
चित्र देखे
होंगे जो तीन
दिशाओं में
देख रहे होते
हैं—क्योंकि
अगर उसके पास केवल
एक सिर हो, तो
उसकी पीछे
वाली दिशा का
क्या होगा? परमात्मा को
तो सभी दिशाओं
में देखना
होता है। वह
अपने हजारों
हाथों के साथ
सभी दिशाओं
में व्यस्त
रहता है.
लेकिन इतनी शांति
और मौन के साथ
कि उसमें कहीं
भी यह दावा
नहीं होता है
कि मैंने बहुत
कुछ कर लिया
है।
और तुम
कोई छोटा सा
काम भी करते
हो —जरा दो —चार
शब्दों को
सुव्यवस्थित
ढंग से जोड़
लेते हो, तो तुम
सोचने लगते हो
कि यह तो
कविता हो
गई—और फिर तुम
गर्व से सिर
उठाकर चलने
लगते हो, और
तुम पागल से
हो जाते हो।
और तुम दावा
करने लगते हो
कि तुमने किसी
महान कविता की
रचना की है।
ध्यान रहे, दावा वही
लोग करते हैं
जिनमें कोई
योग्यता या पात्रता
नहीं होती है।
जिसमें
योग्यता या पात्रता
होती है, वह
कभी दावा नहीं
करते हैं। वे
तो विनम्र हो
जाते हैं, वे
जानते हैं कि
उनका अपना तो
कुछ भी नहीं
है। वे तो
केवल माध्यम
ही हैं।
जब
महाकवि
रवींद्रनाथ
भावाविष्ट हो
जाते थे, तो वे अपने
कमरे में चले
जाते थे, और
दरवाजा बंद कर
लेते थे।
कई—कई दिनों
तक वे न तो
भोजन लेते थे,
और न ही
अपने कमरे से
बाहर आते थे।
बस वे अपने को
परिशुद्ध
करते थे, ताकि
वे परमात्मा
के सम्यक
माध्यम बन
सकें परमात्मा
उनके माध्यम
से कविताओं की
रचना कर सके।
अपने कमरे में
बंद वे रोते
और सिसकते थे
और वे लिखते
चले जाते थे।
और जब कभी कोई
उनसे इस बारे
में पूछता तो
वे सदा यही
कहते, 'जो
कुछ सुंदर है
वह मेरा नहीं
है, और जो
कुछ भी साधारण
है वह जरूर
मेरा ही होगा,
मैंने ही
कविता में उसे
अपनी तरफ से
जोड़ दिया होगा।’
जब
कूलरिज की
मृत्यु हुई, तो लगभग
चालीस हजार
अधूरी
कविताएं और
कहानियां
मिलीं—चालीस
हजार अधूरी
रचनाएं! उसके
मित्र हमेशा
उससे पूछते
रहते थे कि 'तुम इन
अधूरी रचनाओं
को पूरी क्यों
नहीं कर देते
हो?'
तो वह
कहता, 'मैं
कैसे पूरी कर
सकता हूं? वही
प्रारंभ करता
है, वही
पूरी भी करे
—जब भी वह चाहे
पूरी करे। मैं
तो असहाय हूं, अवश हूं।
किसी दिन जाब
वह मुझ पर
आविष्ट हो जाता
है, तो कुछ
शब्द, कुछ
पंक्तियां
उतर आती
हैं—और उसमें
अगर कहीं केवल
एक पंक्ति की
भी कमी रह गयी
तो, मैं
उसे न जोडू—गा,
क्योंकि वह
एक पंक्ति
पूरी कविता को
ही नष्ट कर
देगी। तब सात
पंक्तियां तो
आकाश की होंगी
और एक पृथ्वी
की होगी? नहीं,
वह एक
पंक्ति भी
आकाश की ओर जो
पंख फैले हैं,
उन्हें भी
काट देगी। मैं
प्रतीक्षा
करूंगा। जब
उसे ही कोई
जल्दी नहीं है,
तो मैं कौन
होता हूं बीच
में चिंता
करने वाला?'
ऐसा
होता है एक
सच्चा
रचनाकार। एक
सच्चा रचनाकार
तो रचना करने
वाला होता ही
नहीं है। वह
तो अस्तित्व
के हाथों एक
माध्यम बन जाता
है, वह
तो उसी की
शक्ति से
संचालित होता
है। परमात्मा
की परम
शक्तियां उसे
संचालित करती
हैं, परमात्मा
का असीम अपार
रूप ही उसके
प्राणों पर छा
जाता है। वह
तो उसका
संदेशवाहक बन
जाता है। वह
कुछ बोलता है,
लेकिन शब्द
उसके अपने
नहीं होते
हैं। वह चित्र
बनाता है, लेकिन
रंग उसके अपने
नहीं होते। वह
गीत गाता है, लेकिन स्वर
उसके अपने
नहीं होते। वह
नृत्य करता है,
लेकिन वह
नृत्य ऐसे
करता है जैसे
कि कोई आंतरिक
प्रेरणा उसे
चला रही हो, उसके द्वारा
कोई और ही
नृत्य कर रहा
हो।
तो यह
निर्भर करता
है। प्रश्न यह
है कि अगर तुम्हारा
अहंकार ध्यान
में विलीन हो
जाता है तो
तुम्हारे
कार्य का क्या
होगा?
अगर वह
व्यवसाय होगा, तो वह खो
जाएगा। और
अच्छा होगा कि
वह खो ही जाए।
क्योंकि किसी
भी आदमी को
व्यवसायिक तो
होना ही नहीं
चाहिए। जो कुछ
कार्य भी तुम
कर रहे हो, उससे
तुमको प्रेम
होना चाहिए; अन्यथा तो
वह कार्य
विनाशकारी हो
जाता है। तब तो
काम एक बोझ हो
जाता है, किसी
न किसी भांति
तुम उसे खींचे
चले जाते हो और
तब पूरा का
पूरा जीवन
नीरस और उबाऊ
हो जाता है।
तब जीवन में
एक खालीपन
होता है, और
हमेशा
अतृप्ति छाई
रहती है। पहली
तो बात तुम
ऐसा कार्य कर
रहे होते हो
जिसे तुमने
कभी न करना
चाहा था। तब
वह कार्य
तुम्हारे ऊपर
जबर्दस्ती हो
जाती है। वह
कार्य
तुम्हारे लिए
आत्मघाती हो
जाता है —तुम
उस कार्य के
माध्यम से
धीरे — धीरे
स्वयं की ही
हत्या कर रहे
होते हो, अपने
ही जीवन में
जहर घोल रहे
होते हो। किसी
को भी व्यवसायिक
नहीं होना
चाहिए। तुम को
कार्य से
प्रेम होना
चाहिए, काम
ही तुम्हारी
पूजा और
प्रार्थना
होना चाहिए
काम तुम्हारा
धर्म होना
चाहिए
व्यवसाय नहीं।
तुम्हारे
और तुम्हारे
काम के बीच एक
प्रीति संबंध
होना चाहिए।
जब तुमने सच
में ही
तुम्हारे
स्वभाव के
अनुकूल काम को
पा लिया होता
है, तो
वह प्रीति
संबंध जैसा हो
जाता है। तब
ऐसा नहीं होता
कि काम
तुम्हें करना
पड़ता है। तब
ऐसा नहीं होता
कि तुम्हें
काम करने के
लिए स्वयं पर
जबर्दस्ती
करनी पड़ती है।
जब काम
तुम्हारे अनुकूल
होता है, तब
तुम्हारे काम
करने की शैली
ही बदल जाती
है, तुम्हारा
काम करने का
भाव और ढंग ही
बदल जाता है। तब
तुम्हारे
पैरों में एक
अलग ही नृत्य
की थिरकन आ
जाती है, तुम्हारे
हृदय में गीत
गुंजने लगता
है। पहली बार
तुम्हारा मन
और शरीर एक
लयबद्धता में
काम करने लगता
है।
और तब
एक तरह की
संतुष्टि और
संतृप्ति
अनुभव होती
है। तब उस काम
के माध्यम से
तुम अपने जीवन
अस्तित्व को
उपलब्ध हो
सकते हो —तब वह
काम दर्पण बन
जाएगा, और उसमें
तुम अपने को
देख सकते हो।
चाहे वह एक छोटा
सा काम ही
क्यों न हो।
फिर कोई ऐसा
जरूरी नहीं है
कि केवल बड़े
काम से ही ऐसा
संभव हो सकता
है। नहीं, ऐसा
कोई जरूरी नहीं
है। फिर छोटा
काम भी बड़ा हो
जाता है। तुम
बच्चों के
खिलौने बनाते
हो, या
जूते बनाते हो,
या कपड़ा
बनाते हो, या
कोई सा भी काम
करते हो —उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है।
इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता कि क्या
करते हो, लेकिन अगर
तुम उस कार्य
से प्रेम करते
हो, अगर
तुम उस काम के
प्रेम में पड़
जाते हो, अगर
उस काम को तुम
बेशर्त भाव से,
अस्तित्व
के हाथों में
छोड्कर उसके
साथ प्रवाहित
हो रहे हो, अगर
तुम स्वयं को
रोक नहीं रहे
हो, अगर
तुम स्वयं के
साथ
जबर्दस्ती
करके काम को नहीं
कर रहे हो
—बल्कि उसी
काम को हंसते,
गाते, नाचते
कर रहे हो —तो
वह कार्य
तुम्हारे
जीवन को
रूपांतरित कर देगा।
धीरे — धीरे
विचार बिदा हो
जाएंगे। और एक
गहन मौन संगीत
तुम पर छा
जाएगा और धीरे
— धीरे तुम
अनुभव करने
लगोगे कि वह
काम केवल काम
ही नहीं है, बल्कि वही
तुम्हारे
होने का ढंग
है। तब जीवन में
एक तरह की
संतृप्ति और संतुष्टि
होती है, और
भीतर फूल ही
फूल खिल जाते
हैं।
और वह
व्यक्ति
सर्वाधिक
समृद्ध होता
है जिसे अपने आंतरिक
स्वभाव के
अनुकूल काम
मिल जाता है।
और वह व्यक्ति
सर्वाधिक
समृद्ध होता
है जो अपने
काम के माध्यम
से हार्दिक
तृप्ति अनुभव
करता है। तब उसका
संपूर्ण जीवन
ही पूजा और
प्रार्थना बन
जाता है।
काम
पूजा — अर्चना
की तरह होना
चाहिए, लेकिन ऐसा
केवल तभी संभव
है जब
तुम्हारा
ध्यान रोज
—रोज गहरा
होने लगे।
ध्यान के
द्वारा ही तुम्हें
बल मिलेगा।
ध्यान के
द्वारा बाह्य
पेशे से हटकर
अपने अंतर
स्वभाव के
अनुकूल काम की
ओर बढ़ने का तुममें
साहस आएगा।
व्यवसाय
के द्वारा
शायद तुम धन
इकट्ठा करके समृद्ध
हो सकते हो, लेकिन वह
समृद्धि
बाहर—बाहर की
होती है। लेकिन
अपने स्वभाव
के अनुकूल काम
करके तुम
दरिद्र रह
सकते हो; तुम
बहुत धनवान
शायद न भी हो
सको, क्योंकि
समाज के
व्यक्ति को
देखने के अपने
प्रयोजन होते
हैं, अपने
मापदंड होते
हैं। तुम
कविताएं लिखो
और हो सकता है
कि कोई उन्हें
खरीदे भी नहीं,
क्योंकि
समाज को कविता
की जरूरत नहीं
है। समाज बिना
कविता के रह
सकता है —समाज
इतना मूढ़ है कि
बिना कविता के
रहने में
समर्थ हो सकता
है। हा, अगर
तुम युद्ध के
लिए, हिंसा
के लिए कुछ
बना सकते हो, तो वह समाज
के लिए उपयोगी
है, वह
समाज के फायदे
की है। लेकिन
अगर तुम प्रेम
के लिए कुछ
करो —तो लोग
अधिक
प्रेमपूर्ण
हो जाएंगे —तब
समाज उसके लिए
कुछ नहीं कर
सकता। समाज को
सैनिकों की, बमों की, हथियारों
की आवश्यकता
है, समाज
को पूजा
—प्रार्थना, प्रेम की
आवश्यकता
नहीं है।
तो अगर
तुम अपने
स्वभाव के
अनुकूल काम
करते हो, तो समाज
उसके बदले में
तुम्हें कुछ न
देगा, तुम
दरिद्र भी रह
सकते हो।
लेकिन एक बात
मैं तुमसे
कहना चाहूंगा
कि वह
दरिद्रता, वह
जोखम जीने
योग्य है, क्योंकि
तब तुम्हारे
भीतर की
समृद्धि
तुम्हें मिल
जाएगी। जहां
तक बाह्य संसार
का संबंध है, तुम गरीब
आदमी के रूप
में मर सकते
हो, लेकिन
जहां तक
तुम्हारे
अंतर —
अस्तित्व का
संबंध है तुम
सम्राट की
भांति मरोगे
—और अंतत: उसका
ही मूल्य है।
पांचवां
प्रश्न:
मेरा
शरीर रोगी है
मेरा मन
वैज्ञानिक
ढंग से भोगी
है और मेरा
हृदय करीब—
करीब योगी है।
मुझमें बच्चे
जैसी
प्रामाणिकता, भोलापन
निर्दोषता और
सच्चाई है।
क्या मेरे इस
जन्म में संबुद्ध
होने की कोई
संभावना है? कृपया मेरा
मार्ग— दर्शन
करें एवं
प्रभु के राज्य
में प्रवेश
में मेरी मदद
करें
वैसे
तो मैं हर हाल
के लिए तैयार
हूं लेकिन फिर
भी आशा अच्छे
की ही रखता
हूं।
शरीर अगर
स्वस्थ हो तो
सहायक होता है, लेकिन यह
कोई अंतिम
शर्त नहीं
है—शरीर
स्वस्थ हो तो
सहायक तो होता
है लेकिन फिर
भी आवश्यक नहीं
है। अगर तुम
शरीर के साथ
बने हुए
तादात्म्य को
गिरा दो, अगर
यह अनुभव करने
लगो कि तुम
शरीर नहीं हो,
तब फिर कुछ
फर्क नहीं
पड़ता कि शरीर
अस्वस्थ है कि
स्वस्थ। अगर
तुम शरीर के
पार चले जाते
हो, उसका
अतिक्रमण
करने लगते हो,
उसके
साक्षी बनने
लगते हो, तब
रोगी शरीर में
भी रहकर
संबोधि मिल
सकती है।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि तुम सभी
बीमार हो जाओ।
मेरा कहने का
अभिप्राय
इतना ही है कि
अगर शरीर
बीमार भी हो
तो निराश मत
होना, अपने
को असहाय
अनुभव मत
करना। अगर
शरीर स्वस्थ
हो तो सहायक
अवश्य होता
है। स्वस्थ
शरीर का अतिक्रमण
करना, एक
अस्वस्थ शरीर
की अपेक्षा
कहीं ज्यादा
आसान होता है,
क्योंकि अस्वस्थ
शरीर थोड़ा
तुम्हारा
ध्यान मांगता
है। अस्वस्थ
शरीर को
भुला पाना
कठिन होता है।
वह निरंतर दुख, पीड़ा और
अस्वस्थता की
याद दिलाता
रहता है। वह निरंतर
तुम्हारा
ध्यान अपनी ओर
खींचता रहता है।
अस्वस्थ शरीर
की देखभाल
करना आवश्यक
होता है। उसे
भुला पाना
कठिन होता है
—और अगर शरीर
को भुलाया न
जा सके, तो
उसके पार जाना
कठिन होता है।
लेकिन 'कठिन'
ही होता
है—मैं असंभव
नहीं कह रहा
हूं।
इसलिए
उसकी चिंता
में मत पड़ना।
अगर तुम्हें लगता
है कि शरीर
रोगी है, बहुत समय से
रोगी है और
उसे स्वस्थ
करने का कोई
उपाय नहीं है,
तो फिर भूल जाना
उसके बारे
में। साक्षी
को उपलब्ध
होने के लिए
तुम्हें थोड़ा
अधिक प्रयास
करना होगा, थोड़ा
अतिरिक्त
प्रयास करना
होगा, लेकिन
फिर भी
साक्षी— भाव
को उपलब्ध तो
किया जा सकता
है।
मोहम्मद
का स्वास्थ्य
कोई बहुत
अच्छा न था। बुद्ध
तो हमेशा
रोगग्रस्त
रहते थे, उन्हें तो
अपने साथ
हमेशा एक
चिकित्सक
रखना पड़ता था।
बुद्ध के
चिकित्सक का
नाम जीवक था, जो निरंतर
बुद्ध की
देखभाल करता
रहता था। शंकर
की मृत्यु तो
तैंतीस वर्ष
की अवस्था में
ही हो गई थी।
इससे पता चलता
है कि शंकर का
कोई स्वस्थ
शरीर न था
अन्यथा वे
थोड़ा अधिक
जीवित रहते। तैंतीस
वर्ष की आयु
कोई मृत्यु की
नहीं है। इसलिए
चिंता मत करना,
इस बात को
एक बाधा मत
बना लेना।
दूसरी बात तुम
कहते हो, 'मेरा
मन वैज्ञानिक
ढंग से भोगी
है।’
अगर वह
सच में ही
वैज्ञानिक
ढंग से भोगी
है, तो
तुम उसके पार
जा सकते हो।
केवल एक
अवैज्ञानिक
ढंग का मन ही भोग
में डूबने की
मूढ़ता को
दोहराए चला जा
सकता है। अगर
तुम सच में
थोड़े
होशपूर्ण हो,
वैज्ञानिक
रूप से चीजों
को जागरूकता
के साथ देखते
हो, तो देर —
अबेर तुम उसका
अतिक्रमण कर
ही जाओगे —क्योंकि
एक ही मूढ़ता
को तुम कैसे
और कब तक दोहराए
चले जा सकते
हो?
उदाहरण
के लिए कामवासना
को ही लो।
उसमें कुछ
बुरा नहीं है, लेकिन
जीवनभर उसी को
दोहराते रहना
यही बताता है
कि तुम मूढ़
हो। मैं नहीं
कहता कि उसमें
कुछ पाप है
—नहीं। वह तो
बस यही बताती
है कि तुम थोड़े
मूढ़ हो। अभी
तक सभी धर्म
तुम्हें
समझाते रहे
हैं कि
कामवासना पाप
है। मैं ऐसा
नहीं कहता
हूं। वह तो बस
एक नासमझी है।
वह स्वीकृत
होनी चाहिए, उसमें कुछ
भी बुराई नहीं
है, लेकिन
अगर तुम थोड़े
भी बुद्धिमान
होंगे तो एक न
एक दिन जरूर
कामवासना के
पार चले
जाओगे। जितने
अधिक
बुद्धिमान
होगे, उतनी
ही जल्दी तुम
समझ लोगे कि 'हां, कामवासना
ठीक है, जवानी
में यह ठीक है,
इसका अपना
समय है। लेकिन
फिर उसके बाहर
आ जाना है।’ क्योंकि
कामवासना है
तो बचकानी बात
ही।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा:
एक
वृद्ध जोड़ा
अदालत में
तलाक के
मुकदमे के लिए
गया। पुरुष की
आयु बानवे
वर्ष की थी और
स्त्री की आयु
चौरासी वर्ष
थी। जज ने
पहले पुरुष से
पूछा, 'तुम
कितने वर्ष के
हो?'
'बानवे
वर्ष का हूं, योर ऑनर।’
फिर
उसने स्त्री
से पूछा।
स्त्री
ने शरमाते हुए
कहा, 'मैं
चौरासी वर्ष
की हूं।’
जज ने
पुरुष से पूछा, 'तुम
दोनों का
विवाह हुए
कितने वर्ष हो
गए हैं?'
अनुभवी
वृद्ध ने मुंह
बनाते हुए
जवाब दिया, 'सड्सठ
वर्ष।’
'और
जो विवाह
सत्तर वर्ष के
लगभग चला, उसे
अंत कर देना
चाहते हो?' स्थिति
पर विश्वास न
करते हुए जज
ने पूछा।
वृद्ध
आदमी कंधे
उचकाकर बोला, 'देखिए, योर ऑनर, आप
चाहे जिस ढंग
से इस पर
सोचें, लेकिन
अब बहुत हो
चुका।’
तो
चाहे जिस ढंग
से इस पर सोचो
अगर तुम
बुद्धिमान हो, तो तुम
बानवे वर्ष तक
प्रतीक्षा न
कर सकोगे। सीमा
के बाहर बात
जाए, उससे
पहले ही तुम
उसके बाहर आ
जाओगे। जितने
ज्यादा तुम
बुद्धिमान
होंगे, उतनी
ही जल्दी वह
घटित होगी।
बुद्ध ने भोग
—विलास के
संसार का
त्याग तब ही
कर दिया जब वे
युवा थे। जब उनका
पहला बेटा
पैदा हुआ था, और केवल एक
महीने का ही
था, तब वे
सब कुछ छोड्कर
जंगल चले गए
थे। वैराग्य उनको
बहुत जल्दी
घटित हो गया
था। सच में वे
बुद्धिमान
थे। जितनी
अधिक बुद्धि
होती है, उतने
ही जल्दी उसके
पार जाना हो
जाता. है।
तो अगर
तुम समझते हो
कि तुम वास्तव
में
वैज्ञानिक
ढंग के हो—तो
अनुभवी
व्यक्ति के
लिए यही समय
है यह समझ
लेने का कि बस, अब बहुत
हो चुका।
और तुम
कहते हो, 'मेरा हृदय
करीब —करीब
योगी है।’. करीब—करीब?
यह हृदय की
भाषा नहीं है।
करीब—करीब
शब्द मन की
शब्दावली है।
हृदय तो केवल
समग्रता को
जानता है —या तो
इस तरफ या फिर
उस तरफ। या तो
सभी कुछ या
फिर कुछ भी
नहीं। हृदय 'करीब—करीब' जैसी किसी
बात को नहीं
जानता है।
किसी स्त्री के
पास जाकर उससे
कहो कि 'मैं
तुम से करीब
—करीब प्रेम
करता हूं।’ तब तुम्हें
पता चलेगा।
तुम करीब
—करीब प्रेम कैसे
प्रेम कर सकते
हो? वस्तुत:
इसका अर्थ
क्या हुआ? इसका
अर्थ यही हुआ
कि तुम प्रेम
नहीं करते हो।
नहीं, अभी हृदय
से यह बात
नहीं आई है।
तुमको ऐसा लग
रहा है कि
हृदय से खबर
आई है, लेकिन
तुम उसे समझे
नहीं हो। हृदय
जो भी काम करता
है, हमेशा
समग्रता से
करता है। फिर
वह बात चाहे
पक्ष में हो
या कि विपक्ष
में हो उससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता है, लेकिन
वह होता सदा
समग्र .ही है।
हृदय किसी भेद
को नहीं जानता,
सारे भेद मन
से ही आते
हैं।
अगर
शरीर रोगी हो, तो कोई
समस्या नहीं
है। थोड़ा अधिक
प्रयास करना
पड़ेगा। बस, इतना ही है।
मन भोग में
डूबा हो तो भी
कोई बहुत बड़ी समस्या
नहीं है। एक न
एक दिन जब भी
भीतर से इस बात
की समझ आएगी, उसका
अतिक्रमण हो
जाएगा। लेकिन
असली समस्या तो
तीसरे के साथ,
करीब —करीब
के साथ — करीब
—करीब से काम न
चलेगा। इसलिए
फिर से देखना।
अपने हृदय में
गहरे देखना।
जितना संभव हो
सके उतना हृदय
में गहरे
देखना, ध्यानपूर्वक,
होशपूर्वक
देखना। अपने
हृदय की
सुनना।
अगर
हृदय सच में
योग से प्रेम
करता है —योग
का मतलब है
खोज, जीवन
का वास्तविक
सत्य क्या है,
इसकी खोज
—अगर हृदय में
सच में ही खोज
की अभीप्सा है,
तो फिर उसे
कोई रोक नहीं
सकता है। तब न
तो भोग बाधा
बनेगा और न ही
कोई रोग बाधा
बनेगा। हृदय
किसी भी
परिस्थिति के
पार जा सकता
है। हृदय
ऊर्जा का
वास्तविक स्रोत
है, इसलिए
हृदय की
सुनना। हृदय
पर श्रद्धा
रखना, और
हृदय की ही
सुनना, और
हृदय की सुनकर
ही आगे बढ़ना।
और
संबोधि
इत्यादि की
चिंता में मत
पड़ना, क्योंकि
वह चिंता भी
मन की ही होती
है। हृदय तो
भविष्य के
बारे में कुछ
भी नहीं जानता
है, वह तो
वर्तमान में,
इसी घड़ी में,
इसी पल में
जीता है। अत:
खोजो, ध्यान
करो, प्रेम
करो, वर्तमान
के क्षण में
जीओ और संबोधि
की फिक्र मत
करो, वह
अपने से
उपलब्ध हो
जाती है।
संबोधि की
फिक्र क्यों
है? अगर तुम
तैयार हो, तो
संबोधि तो
उपलब्ध हो ही
जाएगी। और अगर
तैयार नहीं हो,
तो उसके
बारे में
निरंतर सोचते
रहना तुम्हें उसके
लिए तैयार
नहीं करेगा, बल्कि सोचना
बाधा बन
जाएगा। इसलिए
संबोधि की बात
तो भूल ही जाओ,
और न ही
इसकी फिक्र
करो कि संबोधि
इस जीवन में घटित
होगी या नहीं
होगी।
जब तुम
तैयार होगे तो
वह घटेगी।
संबोधि इसी क्षण, इसी पल, अभी और यहीं
घट सकती है।
वह तुम्हारी
तैयारी पर
निर्भर करती
है। जब फल पक
जाता है तो
अपने से गिर
जाता है। सब
कुछ तुम्हारी
परिपक्वता पर
निर्भर करता
है। इसलिए
अपने आसपास
व्यर्थ की समस्याएं
मत खड़ी करना।
बस, अब
बहुत हो चुका।
तुम रोगी हो, यह एक
समस्या है।
तुम भोगी हो, यह एक
समस्या है। और
हृदय 'करीब—करीब'
योगी है, यह
करीब—करीब भी
एक समस्या है।
अब कोई और नई
समस्या मत
बनाना। कृपा
करके संबोधि
को बीच में मत
लाओ। उसके
बारे में भूल
जाओ। संबोधि
का तुम से और
तुम्हारे
सोचने
—विचारने से, और तुम्हारी
आशाओं और
अपेक्षाओं से,
और आकांक्षाओं
से कुछ लेना
देना नहीं है।
उन बातों के
साथ उसका जरा
भी संबंध नहीं
है। जब भी
भीतर किसी भी
प्रकार की आकांक्षा
शेष नहीं रह
जाती है, और
फल पक गया
होता है, तो
संबोधि अपने
से घट जाती
है।
छठवां
प्रश्न:
जब आप
शरीर छोड़े तो
मैं भी आपके
साथ मर जाना
चाहता हूं
क्या ऐसा संभव
है? क्या
आप मेरी मदद
कर सकते हैं?
मैं तो बिलकुल
अभी तैयार हूं
तुम्हारी मदद
करने के लिए।
उतनी देर भी
प्रतीक्षा
क्यों करनी? उस बात को
स्थगित क्यों
करना?
और जब
मैं जीवित हूं, शरीर में
मौजूद हूं,
अगर तब तुम
मुझे चूक जाते
हो तो जब मैं
नहीं रहूंगा
तब तुम कैसे
मुझ तक पहुंच
सकोगे? जब
मैं यहं।
मौजूद हूं,
तब अगर तुम
मेरे साथ मेरी
धारा में
प्रवाहित नहीं
हो सकते हो, तो जब मैं
नहीं रहूंगा
तब तो यह बहुत
ही मुश्किल हो
जाएगा। इसलिए स्थगित
क्यों करना
त्र:
तुम्हारे
भीतर प्यास
मौजूद है और
मैं तुम्हारी
प्यास बुझाने
के लिए इसी पल
इसी क्षण
तैयार 'हूं, तो
फिर भविष्य की
बात क्यों
सोचनी? तुम
इतने भयभीत
क्यों हो? और
अगर तुम आज
इतने भयभीत हो,
तो कल तो और
भी ज्यादा
भयभीत हो
जाओगे।
क्योंकि आज का
भय भी उसमें
समाहित हो
जाएगा। रोज
—रोज तुम्हारा
भय बढ़ता चला
जाएगा।
मृत्यु
के भय को गिर
जाने दो।
मृत्यु की
तैयारी ही
पुनर्जीवन की
तैयारी है।
मुझे
एक बहुत ही
प्यारी कथा
याद आती है।
उसे मैं तुम
से भी कहना
चाहूंगा :
तीन
कछुए थे।
उनमें से एक
दो सौ एक वर्ष
का था, दूसरा
एक सौ पैंतीस
वर्ष का था, और तीसरा
सत्तानबे
वर्ष का था।
उन तीनों ने
लंदन में
शराबघरों की
सैर करने का
निर्णय लिया।
पहले
तो वे गए 'स्टार एंड
गार्टर' में।
पंद्रह दिन के
बाद वे पहुंचे
एक दूसरे शराबघर
में। जैसे ही
वे भीतर जा
रहे थे, तो
उनमें से
जिसकी आयु
सबसे अधिक थी,
बोला, 'ओह,
अब क्या
होगा। मैं तो
अपना पर्स
दूसरे शराबघर में
ही छोड़ आया
हूं।’
उन
तीनों में जो
सबसे छोटा था
वह कहने लगा, 'तुम बहुत
के हो, इतनी
दूर कैसे वापस
जाओगे। मैं
तुम्हारा पर्स
ला देता हूं।’
और ऐसा कहकर
वह पर्स लेने
चला गया। दस
दिन के बाद जब
वे दोनों
वृद्ध कछुए
बार—रेलिंग के
पास पहुंचे तो
उन में से एक
बोला, 'युवा
ऑर्नाल्ड तो
तुम्हारा
पर्स लाने में
बहुत देर लगा
रहा है।’
तो
दूसरा कहने
लगा, 'वह
तो ऐसा ही है।
उसके ऊपर
बिलकुल भरोसा
नहीं किया जा
सकता है। और
वह बहुत ही
सुस्त है।’
अचानक
द्वार की ओर
से एक आवाज
सुनाई पड़ी, 'धिक्कार
है तुम दोनों
को! इसीलिए तो
मैंने सोचा कि
मैं जाऊंगा ही
नहीं।’
इतने
सुस्त मत बनो
और बात को
स्थगित मत
करते जाओ।
सातवां
प्रश्न:
जब भी
मैं आपके निकट
होता हूं तो
तनाव अनुभव करता
हूं और मुझे
इस बात के लिए
प्रकट रूप से
तो तीन कारण
दिखाई पड़ते
हैं पहला :
मुझे लगता है
कि मेरी
परीक्षा ली जा
रही है।
दूसरा. मैने
आप से इतना
कुछ पाया है
कि बदले में
मैं भी कुछ
आपको देना
चाहता हूं—और
ऐसा असंभव भी
लगता है। और
तीसरा : मुझे
ऐसा लगता है
कि अभी भी
आपसे कुछ
ग्रहण करना है
और मुझे डर
लगता है कि कहीं
उसे चूक न
जाऊं।
पूछा है अजित
सरस्वती ने, डॉक्टर
फड़नीस ने।
तीनों कारण
ठीक हैं, और
मुझे इस बात
की प्रसन्नता
है कि वे इन
बातों. के
प्रति सजग हैं
और चीजों को
गहराई में देख
सकते हैं। हौ,
सभी कारण
बिलकुल ठीक
हैं।
जब भी
वह मेरे निकट
होते हैं, तो मुझे
भी लगता है कि
वे थोड़े घबराए
हुए हैं, भीतर
ही भीतर थोड़े
कंपित हैं। और
यही है कारण।
और यह अच्छा
है, इसमें
कुछ गलत नहीं
है। ऐसा ही
होना भी
चाहिए।
अगर
तुम मेरी
मौजूदगी को
अनुभव करने
लगो, तो
मेरे और
तुम्हारे बीच
तुम्हें एक
अंतराल दिखाई
पड़ने लगता है।
तब लगता है
अभी तो बहुत
यात्रा शेष
है। तब एक तरह
की घबराहट अनुभव
होती है कि
पद्य नहीं ऐसा
संभव हो सकेगा
या नहीं। मैं
तुम्हें बहुत
कुछ दे रहा हूं, और जितना
अधिक तुम
ग्रहण करते हो,
उतने ही
अधिक ग्रहण
करने में
सक्षम होते
जाओगे। और यही
संभावना कि और
अधिक, और
अधिक ग्रहण
किया जा सकता
है, एक
घबराहट पैदा
कर देती है, क्योंकि तब
एक बड़ा
उत्तरदायित्व
तुम्हारे ऊपर
आ जाता है।
विकसित
होते चले जाना, यह एक बड़ा
उत्तरदायित्व
है। विकास एक
जिम्मेदारी
है। यह
सर्वाधिक बड़ा
उत्तरदायित्व
है जो कि...... और
फिर यह भय कि
अगर कहीं अवसर
आ गया और कहीं
चूकना न हो
जाए। यह बात
घबराहट पैदा
करती है।
और तुम
ठीक कहते हो, जब मुझ से
तुम्हें कुछ
मिलता है तो
तुरंत तुम्हारा
हृदय कहता है
कि बदले में
कुछ दे दो। और
वह बात असंभव
है। यह मैं
समझता हूं।
तुम सिवाय अपने
मुझे और क्या
दे सकते हो।
तुम्हारे
तीनों ही कारण
ठीक हैं और यह
शुभ है कि तुम
इनके प्रति
सजग होते जा
रहे हो।
आठवां
प्रश्न :
आपने
मेरे लिए इतना
कुछ किया है।
आपने कभी नहीं
कहा कि मै ऐसी
बनूं या वैसी
बनूं। मैं
जैसी भी हूं
आपने मुझे
स्वीकार किया
है। आप मेरी
पीड़ा को कम
करते जा रहे
हैं और मुझे
आनंद का मार्ग
दिखाते जा रहे
हैं? अनुग्रह
प्रकट करने के
लिए मैं आपके
लिए क्या कर
सकती हूं।
पूछा है आमिदा
ने। यही
प्रश्न कभी न
कभी बहुतों के
हृदय में
उठेगा।
प्रश्न सुंदर
है, लेकिन
इससे परेशान
मत हो जाना।
मेरे लिए कुछ
भी करने की जरूरत
नहीं है। मेरे
लिए तो बस
तुम्हारा
होना काफी है,
तुम्हारा
होना काफी है,
कुछ भी करना
नहीं है। कुछ
करने को है भी
नहीं। बस तुम
अपने
अस्तित्व को
उपलब्ध हो जाओ,
यह मेरे लिए
सबसे आनंद की
बात है।
ऐसा
नहीं है कि
मैं अभी
प्रसन्न नहीं हूं, लेकिन
जैसे किसी नए
गुलाब के पौधे
में फूल खिलने
पर माली और
बगीचा
प्रसन्नता से
खिल उठते हैं,
ऐसे ही जब
तुम में से
कोई अपने
स्वरूप को
उपलब्ध होता
है और उसका
हृदय कमल खिल
जाता है, तो
मैं भी
आह्लादित हो
जाता हूं।
जैसे
कोई चित्रकार
चित्र बनाता
है, उस
चित्र को बनाने
के लिए बहुत
मेहनत करता है,
ऐसे ही मैं
तुम पर कार्य
करता हूं। तुम
ही मेरी
कविताएं हो, तुम ही मेरे
गुलाब हो, तुम
ही मेरे चित्र
हो। उस चित्र
का होना ही काफी
होता है, फिर
किसी और चीज
की जरूरत नहीं
होती है।
नौवां
प्रश्न:
कृपया
संगीत और
ध्यान के विषय
में कुछ कहें!
वे दो नहीं
हैं। संगीत
ध्यान है—एक
निश्चित आयाम
में, एक
ही दिशा में
अवस्थित हुआ
ध्यान है। और
ध्यान संगीत
है —एक ऐसा
संगीत जिसकी
कोई सीमा नहीं
है, कोई
ओर—छोर नहीं
है। वे दोनों
दो नहीं हैं।
अगर
तुम संगीत से
प्रेम करते हो, तो केवल
इसीलिए प्रेम
करते हो, क्योंकि
संगीत के
माध्यम से
तुमको ध्यान
का अनुभव होता
है। संगीत के
माध्यम से तुम
स्वयं में हो
जाते हो।
संगीत को
सुनते —सुनते
अज्ञात का कुछ
तुम में उतरने
लगता है? परमात्मा
के स्वरों का
संस्पर्श
मिलने लगता है।
तुम्हारा
हृदय एक अलग
ही लय पर
थिरकने लगता
है, ब्रह्मांड
के साथ उसका
तालमेल बैठ
जाता है। अचानक
अस्तित्व के
साथ तुम्हारे
तार जुड़ जाते हैं।
एक अपरिचित
नृत्य
तुम्हारे
हृदय में उतर
आता है—और वे
द्वार जो
हमेशा से बंद
थे, खुलने
लगते हैं। एक
शीतल हवा का
झोंका और तुम
तरोताजा हो
जाते हो, और
वह शीतल हवा
का झोंका
सदियों
—सदियों से
जमी हुई धूल
उड़ाकर ले जाता
है। और ऐसा
लगता है जैसे
आत्मा का
स्नान हो गया
हो—और वह
स्वच्छ, ताजा
हो गई हो।
संगीत
ध्यान है; ध्यान
संगीत है। ये
एक ही जगह
पहुंचने के दो
द्वार हैं।
अंतिम
प्रश्न:
जब
आपको कुर्सी
पर बैठे हुए
देखता हूं तो मैं
और अधिक उलझन
में पड़ जाता
हूं क्योंकि
आप कुर्सी पर
इतने
अविश्वसनीय
ढंग से विश्रांत
और आराम से
बैठे होते हैं
कि आप एकदम
भारविहीन
मालूम पड़ते
हैं। आप
गुरुत्वाकर्षण
के नियम के
साथ क्या करते
हैं?
गुरुत्वाकर्षण
के नियम के
साथ कुछ भी
करने की जरूरत
नहीं है। जब
भी कोई
व्यक्ति
ध्यान में
होता है, तो उसके लिए
अलग ही नियम
काम करता है.
प्रसाद का
नियम। तुम एक
अलग ही जगत के
लिए. प्रसाद
के जगत के लिए
उपलब्ध हो
जाते हो। तब
वह प्रसाद ऊपर
की ओर खींचने
लगता है। जैसे
गुरुत्वाकर्षण
नीचे की ओर
खींचता है, वैसे ही कोई
चीज ऊपर की ओर
खींचने लगती
है।
गुरुत्वाकर्षण
के साथ कुछ भी
करने की जरूरत
नहीं है।
तुम्हें तो बस
अपने
अस्तित्व में
एक नया द्वार
खोल लेना है, जहां से
परमात्मा का
प्रसाद
तुम्हें
उपलब्ध हो
सके।
आज इतना ही।
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