प्रश्न—सार:
1—मेरी
अधिक बैचेनी
अपने महा—
अहंकार को लेकर
है,
जो इस झूठे
अहंकार पर इतने
वर्षों तक
निगाह रखता
रहा है।
2—भगवान,
मैं चाहता
हूं कि आप एक—एक
ही बार में
सदा—सदा के लिए
मिटा दें।
3—जब
मैं निर्णय
लेने का
प्रयत्न
करता हूं तो
चिंतित हो
जाता हूं,
कि मैं
कहीं गलत चुनाव
न कर लूं। यह
कैसा पागलपन
है?
4—ध्यान
के दौरान मैं
आपकी शून्यता
को पुकारता
हूं।
क्या
इस विधि के
द्वारा मैं
आपके समग्र
अस्तित्व
को
आत्म सात
कर सकता हूं?
पहला
प्रश्न:
परितोष
ने पूछा है.
पूना वापस आने
के बाद आपके प्रवचनों
को सुनते हुए
मै कुछ अशांत
अनुभव कर रहा
हूं। मुझे ऐसा
लगता है कि
वस्तुत: मेरा
अहंकार
अस्तित्व ही
नहीं रखता अब
मेरी अधिक
बैचेनी अपने
महा— अहंकार
को लेकर है वह
भी संभवत:
अस्तित्व नही रखता
जो इस झूठे
अहंकार पर
इतने वर्षों
तक निगाह रखता
रहा है।
अपनी
इस
दुविधाग्रस्त
स्थिति में
मुझे किसी अनाम
कवि की कुछ
पंक्तियां
याद आ रही हैं
जो कुछ इस तरह
से हैं
जब मैं
सीढ़ियां चढ़
रहा था
मेरे
करीब से वह
व्यक्ति
गुजरा जो वहां
नहीं था
आज वह
फिर नहीं आया
मैं सच
में आकांक्षा
करता हूं कि
वह चला जाए।
अहंकार सब से
बड़ी दुविधा है।
और इसे ठीक से
समझ लेना, अन्यथा
तुम अनंत —
अनंत काल तक
पुराने अहंकार
के साथ लडूते
हुए नया
अहंकार
निर्मित करते
चले जाओगे।
अहंकार
है क्या? अहंकार का
वास्तविक
स्वरूप क्या
है? अहंकार
स्वयं को ही
मालिक मान
लेता है। और
वह स्वयं में
ही भेद खड़े कर
लेता है—मालिक
और सेवक, श्रेष्ठ
और निम्न पापी
और
पुण्यात्मा, अच्छे और
बुरे के भेद
खड़े कर लेता
है। सच तो यह
है, अहंकार
ही परमात्मा
और शैतान के
बीच का भेद खड़ा
कर लेता है।
और हम सुंदर, श्रेष्ठ और
अच्छे के साथ
तो तादात्म्य
बनाते चले
जाते हैं; और
निम्न की
निंदा किए चले
जाते हैं।
अगर
भीतर यह
विभाजन
विद्यमान है, तो जो कुछ
भी हम करेंगे
उसमें अहंकार
मौजूद रहेगा।
हम उस विभाजन
को गिरा भी
सकते हैं, लेकिन
उसको गिराने
के माध्यम से
भी हम अहंकार निर्मित
कर ले सकते
हैं। फिर इसी
तरह से धीरे —
धीरे महा—
अहंकार
तुम्हारे लिए
मुसीबतें खड़ी
करने लगेगा, क्योंकि सभी
तरह के भेद और
विभाजन अंततः
व्यक्ति को
दुख में ले
जाते हैं।
विभाजन का न
होना ही
आनंददायी है;
और विभाजन
का होना ही
दुख है। तब
फिर वह महा—
अहंकार, सुपर
ईगो नयी
समस्याएं, नयी
चिंताएं खड़ी
करेगा। और फिर
तुम अपने महा—
अहंकार को
गिराओगे और
फिर महा से
महा अहंकार निर्मित
कर लोगे —और
अनंत — अनंत
काल तक तुम
यही किए चले
जा सकते हो।
और इससे
तुम्हारी
समस्या का
समाधान नहीं
होगा। तुम उस
समस्या को बस
दूसरी तरफ
सरका दोगे। तब
तुम समस्या को
पीछे धकेलकर
समस्या से
बचने की कोशिश
करते हो।
मैंने
एक ऐसे
कैथोलिक के
बारे में सुना
है जो वर्जिन
मेरी, परमात्मा
और कैथोलिक
धर्म का कट्टर
अनुयायी था।
फिर एक दिन इन
सबसे तंग आकर
उसने यह सब
छोड़ दिया और
वह नास्तिक हो
गया। और
नास्तिक होकर
उसने कहना
प्रारंभ कर
दिया, 'कहीं
कोई परमात्मा
नहीं है, और
वर्जिन मेरी
उसकी मां है।’
अब यह तो
वही पुराना
ढंग है, और
इस ढंग से
कहना तो और भी
बेतुका और
बेढंगा हो गया।
मैंने
एक यहूदी के
बारे में सुना
है, जो
बहुत ही सीधा—सादा
और सरल आदमी
था। वह यहूदी
एक छोटे से
शहर में दर्जी
का काम करता
था। एक दिन वह
दर्जी चर्च
नहीं गया। और
उस दिन
यहूदियों का
कोई धार्मिक
दिवस था, उस
दिन वह चर्च
नहीं गया।
वैसे वह हमेशा
चर्च जाया
करता था। धीरे
— धीरे पूरे
शहर में यह
अफवाह फैल गयी
कि वह दर्जी
नास्तिक हो
गया है। वह
दर्जी
नास्तिक हो
गया है, इस
बात से पूरा
शहर चकित था
और परेशान भी
था। उस छोटे
से शहर के लिए
यह एक बड़ी
घटना थी कि
दर्जी
नास्तिक हो
गया है। उस
शहर में ऐसा
कभी नहीं हुआ
था, कोई
कभी नास्तिक
नहीं हुआ था।
तो शहर के सभी
लोग मिलकर
दर्जी की
दुकान पर गए।
उन्होंने
दर्जी से पूछा,
'कल धार्मिक
दिन था, पूरा
शहर चर्च में
इकट्ठा हुआ था,
कल तुम
क्यों नहीं आए?'
दर्जी ने
कोई जवाब न
दिया। वह मौन
ही रहा।
दूसरे
दिन फिर वे उस
दर्जी के पास
गए। क्योंकि
शहर में किसी
भी आदमी का
कामकाज में मन
नहीं लग रहा
था। पूरा शहर
दर्जी के बारे
में चिंतित था—कि
वह नास्तिक
क्यों हो गया
है? फिर
उन्होंने कुछ
लोगों का एक
प्रतिनिधि —मंडल
बनाया और शहर
का एक मोची, जो थोड़ा
लडने —झगड़ने
में तेज था, उसे नेता
बना दिया। वे
फिर उस दर्जी
की दुकान पर
गए। मोची ने
आगे बढ़कर
दर्जी के पास
जाकर पूछा, 'क्या तुम
नास्तिक हो गए
हो?'
दर्जी
ने बड़े ही
इत्मीनान से
कहा, 'ही, मैं नास्तिक
हो गया हूं।’
उन
लोगों को तो
जैसे अपने
कानों पर
भरोसा ही नहीं
आया। उन्हें
ऐसी आशा न थी
कि वह ऐसा
जवाब देगा।
उन्होंने
दर्जी से पूछा, 'तो फिर
कल तुम क्यों
चुप रहे?'
वह
बोला, 'क्या? आखिर तुम
लोग कहना क्या
चाहते हो!
क्या मैं सबथ
के दिन यह
कहूं कि मैं
नास्तिक हो
गया हूं?'
अगर
तुम नास्तिक
भी हो जाओगे, तो भी
तुम्हारा
पुराना ढर्रा —
ढांचा उसी तरह
चलता रहता है।
मैंने एक
नास्तिक के
बारे में सुना
है जो कि मृत्यु
—शय्या पर था, और पादरी को
भी बुला लिया
गया था। पादरी
ने आकर
नास्तिक से
कहा, 'अब
यही समय है कि
तुम परमात्मा
का स्मरण कर
लो।’ नास्तिक
ने अपनी आंखें
खोली और बोला,
'परमात्मा
का शुक्र है
कि मैं
नास्तिक हूं।’
सब कुछ
ऐसा ही चलता
चला जाता है।
तुम वैसे ही
बने रहते हो, केवल
लेबल बदल जाते
हैं। तो
मेहरबानी
करके अपने
अहंकार को
समझने की कोशिश
करो और इस
समझने में महा—
अहंकार को
निर्मित मत कर
लेना। बस, इतना
ही जानने —समझने
की कोशिश करना
कि अहंकार
क्या है, क्यों
है, और
कैसा होता है।
अहंकार
का मतलब होता
है, इस
संपूर्ण
अस्तित्व से
पृथक हो जाना,
अलग हो जाना
स्वयं इस
विराट
अस्तित्व से
पृथक महसूस
करने लगना। और
अस्तित्व से
पृथक होने का
भाव केवल एक
विचार मात्र
होता है, वास्तविकता
नहीं। केवल यह
एक कल्पना
मात्र होती है,
इसमें
सच्चाई जरा भी
नहीं होती है।
यह एक तरह का
सपना ही होता
है जिसे हम
अपने आसपास
निर्मित कर
लेते हैं। हम
इस अस्तित्व
से पृथक नहीं
हैं। और पृथक
हम हो भी नहीं
सकते हैं, क्योंकि
जैसे ही हम
अस्तित्व से
पृथक होते हैं
तो फिर हमारा
अस्तित्व भी
नहीं रह जाता।
तब तो जीवन —
ऊर्जा का
प्रवाह भी
नहीं रहेगा।
और वह जीवन—ऊर्जा
निरंतर हम में
प्रवाहित
होती रहती है,
चाहे हम
सोचें भला कि
हम पृथक हैं।
अस्तित्व इस
बात की फिकर
नहीं करता। वह
निरंतर हमें
पोषित करता
चला जाता है
और हमारी
देखभाल किए
चला जाता है।
अस्तित्व
अनेकानेक ढंग
से हमें भरता
ही चला जाता
है।
लेकिन
तुम्हारा यह
विचार कि हम
अस्तितव से
पृथक हैं, अस्तित्व
से अलग अलग
हैं बहुत सी
चिंताओं, और
परेशानियों
का कारण बन
जाता है।
हमारा इतना
सोचना मात्र
कि हम
अस्तित्व से
पृथक हैं, तुरंत
हम अपने भीतर
एक विभाजन खड़ा
कर लेते हैं।
इसी विभाजन के
कारण वह सब जो
हमारे में
स्वाभाविक
रूप से होता
है, वही
हमें निम्न
मालूम होने
लगता है—क्योंकि
वह संपूर्ण
अस्तित्व से
संबंधित मालूम
होता है।
इसीलिए
कामवासना के
लिए हमारे मन
में निंदा का
भाव आ जाता है,
क्योंकि वह
संपूर्ण
अस्तित्व से
जुड़ी हुई
मालूम पड़ती है।
इसी
कारण दुनिया
के सभी
तथाकथित धर्म
कामवासना की
निंदा किए चले
जाते हैं। और
मैं तुम से
कहना चाहता
हूं कि जब तक
हम कामवासना
को पूर्णरूप
से स्वीकार
नहीं कर लेते, तब तक कोई
भी व्यक्ति
धार्मिक नहीं
हो सकता, क्योंकि
धर्म उसी
कामवासना की
ऊर्जा का
रूपांतरण है।
कामवासना को
अस्वीकार
नहीं किया जा
सकता है, कामवासना
को तो स्वीकार
करना ही होगा।
ही, कामवासना
का रूपांतरण
जरूर संभव है।
लेकिन
कामवासना का
रूपांतरण
केवल तभी संभव
है जब वह
हमारे
अस्तित्व की
गहन स्वीकृति
से आता हो।
अगर हम
प्रकृति को स्वीकार
कर लें, तो
फिर वह पूरी
तरह से बदल
जाती है।
प्रकृति को
अस्वीकार
करने में ही
सभी कुछ तिक्त
और कडुवा हो
जाता है; और
तब हम अपने ही
हाथों नर्क का
निर्माण कर लेते
हैं।
लेकिन
अहंकार की यह
आदत है कि वह
किसी की भी निंदा
करके प्रसन्न
होता है, क्योंकि
केवल निंदा
करके ही हम
अपने को थोडा
सुपीरियर
थोड़ा श्रेष्ठ
अनुभव कर सकते
हैं।
मैं
कहीं पढ़ रहा
था, एक
बार ऐसा हुआ
एक
चर्च में
उपदेश देने
वाले पादरी ने
अपनी —सभा में
कहा, 'वे
सभी लोग खड़े
हो जाएं
जिन्होंने
पिछले हफ्ते
पाप किए हैं।’
सभा में
बैठे हुए
लोगों में से
आधे लोग खड़े
हो गए। फिर
पादरी ने कहा,
'अब वे लोग
खड़े हो जाएं, जिन्हें अगर
पाप करने का
अवसर मिला
होता तो उन्होंने
पाप कर लिया
होता ३ ' सभा
में बैठे हुए
शेष लोग भी
खडे हो गए।
तभी एक
स्त्री अपने
पति के कान
में
फुसफुसायी, 'ऐसा लगता
है कि जैसे
यहां एकमात्र
अच्छा आदमी यह
पादरी ही है।’
तो उस
आदमी ने अपनी
स्त्री से कहा, 'तुमने
ऐसा कैसे मान
लिया? हम
लोगों में से
सबसे पहले तो
वही खड़ा हुआ
था।’
यह
सुपर ईगो जो
निरंतर निंदा
किए चला जाता
है, जो
निरंतर कहे
चला जाता है
कि ऐसा करना
पाप है, यह
खराब है, वह
गलत है, यह
बुरा है, वह
स्वयं ही
संसार की
एकमात्र
बुराई, एकमात्र
पाप होता है।
तो फिर हम
क्या करें? फिर हम
अहंकार की ही
निंदा करने
लगते हैं, और
तब हम उस
निंदा के
द्वारा महा—
अहंकार को
निर्मित कर
लेते हैं।
निंदा के भाव
को गिरा दो—सभी
तरह की निंदा
के भाव को—और
तब फिर बिना
किसी महा —
अहंकार को
बनाए ही
अहंकार मिट
जाता है। सभी
तरह की निंदा
को गिरा देना।
क्योंकि
निर्णय करने
वाले हम कौन
होते हैं? क्या गलत
है और क्या
सही है, यह
कहने वाले हम
कौन होते हैं?
अस्तित्व
को दो भागों
में विभक्त
करने वाले हम
कौन होते हैं?
अस्तित्व
एक है।
अस्तित्व एक
जीवंत इकाई है,
एक
आर्गेनिक
यूनिटी है।
फिर दिन और
रात, अच्छा
और बुरा—सभी
एक हैं। ये जो
भेद हैं, ये
मनुष्य के
द्वारा बनाए
हुए अहंकार के
भेद है—ये भेद
मनुष्य के
द्वारा
निर्मित हैं।
बस, तुम
किसी भी चीज
की निंदा मत
करना।
अगर हम
किसी भी बात
की निंदा करते
हैं, तो
हम कुछ न कुछ
निर्मित करते
चले जाएंगे।
किसी भी बात
की निंदा करना
बंद करो, और
फिर देखो तुम
पाओगे कि कहीं
कोई अहंकार
नहीं बचता है।
तो वास्तविक
समस्या
अहंकार की
नहीं है।
वास्तविक
समस्या तो
निंदा करने की,
किसी भी बात
के लिए अपना
मंतव्य बना
लेने की, और
चीजों को विभक्त
करने की है।
इसलिए अहंकार
के बारे में
भूल जाओ, क्योंकि
जो कुछ भी तुम
अहंकार के साथ
करोगे वह एक
और नया अहंकार
खड़ा कर लेगा।
इस
पृथ्वी पर
जितने
व्यक्ति हैं, उतने ही
अहंकार हैं।
किसी को इस
बात का अहंकार
होता है कि
मेरे पास धन
है, पद है, प्रतिष्ठा
है, और किसी
को इस बात का
अहंकार होता
है कि मैं बड़ा
धार्मिक आदमी
हूं। कोई
व्यक्ति यह
बताना चाहता
है कि उसके
पास कितना धन
है, और पद
है, प्रतिष्ठा
है; और कोई
व्यक्ति
घोषणा करके यह
सिद्ध करना
चाहता है उसने
कितना त्याग
किया है।
लेकिन दोनों
के अहंकार में
फर्क जरा भी
नहीं है।
एक
तथाकथित संत
मृत्यु —शय्या
पर था और उसके
सभी शिष्य
उसके आसपास
इकट्ठे हो गए
थे। गुरु अपने
जीवन की अंतिम
घड़ियां गिन
रहा था और
उसके शिष्य
शय्या के निकट
ही अपने गुरु
के बारे में
बातचीत कर रहे
थे।
उन
शिष्यों में
से किसी शिष्य
ने कहा, अब कभी कोई
ऐसा आदमी न
होगा जो इतना
नैतिक हो। फिर
किसी दूसरे
शिष्य ने कहा,
मैंने अपने
गुरु से बहुत
कुछ सीखा है।
मुझे भी कोई
ऐसा आदमी नहीं
मिला जो इतना
ज्ञानवान हो।
हम उन्हें
हमेशा—हमेशा
के लिए खो
देंगे। फिर
किसी ने कुछ
कहा, किसी
ने कुछ कहा।
किसी शिष्य ने
कहा कि
उन्होंने
पूरे संसार का
त्याग कर दिया
था। और इस तरह
से वे शिष्य
मृत्यु —शय्या
पर पड़े अपने
गुरु के बारे
में बातें कर
रहे थे। वे
अपने गुरु के
ज्ञान की
चर्चा कर रहे
थे, उनके
त्याग की
चर्चा कर रहे
थे, वे
उनके
तपश्चर्या से
भरे जीवन की
चर्चा कर रहे
थे, उनके
अनुशासित
चरित्र की
चर्चा कर रहे
थे।
और तभी
मृत्यु—शय्या
पर पड़े गुरु
ने अपनी आंखें
खोलीं और कहा, किसी ने
भी मेरी
विनम्रता के
बारे में कुछ
भी नहीं कहा!
तो
आदमी की
विनम्रता भी
अहंकार बन
जाती है। तब
विनम्र होना
भी अहंकार को
ढांकने का एक
आवरण बन जाता
है। और तब
अहंकार भी
पवित्र हो
जाता है। और
जब कोई
विषाक्त चीज
पवित्र हो
जाती है, तो वह और
अधिक विषाक्त
हो जाती है।
इसलिए
अगर तुम मुझे
ठीक से समझो, तो कृपा
करके अहंकार
की निंदा मत
करने लगना अन्यथा
तुम निंदा के
माध्यम से महा
— अहंकार खड़ा
कर लोगे। और फिर
तुम परेशान और
बेचैन रहोगे,
क्योंकि
कोई भी आदमी
स्वयं को
विभक्त करके,
दूसरों की
निंदा करके, निरंतर
स्वयं को ही
मालिक मानते
हुए कैसे चैन से
रह सकता है? अत: निंदा के
भाव को गिराकर
और स्वयं को
किसी भी बात
का निर्णायक
मत मानना। तुम
जैसे भी हो, अपने को
स्वीकार करो।
केवल स्वीकार
ही नहीं करो, बल्कि जैसे
भी हो उसका
स्वागत करो।
केवल स्वागत
ही न करो, उसमें
आनंदित होओ।
और अचानक तुम
पाओगे कि कहीं
कोई अहंकार
नहीं है, और
न ही कहीं कोई
महा — अहंकार
है। वे कभी थे
ही नहीं। तुम
ही उन्हें बना
रहे थे, तुम
ही उनका
निर्माण कर रहे
थे।
आदमी
ने केवल एक ही
चीज का
निर्माण किया
है, और
वह है अहंकार।
और शेष सभी तो
परमात्मा के
द्वारा बनाया
हुआ है।
दूसरा
प्रश्न:
मैं
ध्यान में
कार्य में और
प्रेम में
गहरे जा रहा
हूं लेकिन फिर
भी लगता है कि
इतना पर्याप्त
नहीं है।
भगवान मैं
चाहता हूं कि आप
मुझे एक ही
बार में सदा—
सदा के लिए
मिटा दें।
पूछा है आनंद
बोधिसत्व ने।
कोई भी अनुभव, चाहे कोई
सा भी अनुभव
क्यों न हो वह
पर्याप्त नहीं
होता। फिर
चाहे वह कार्य
का अनुभव हो, या प्रेम का
अनुभव हो, या
फिर चाहे वह
ध्यान का
अनुभव ही
क्यों न हो, या तुम उसे
परमात्मा का
अनुभव भी कह
सकते हो —कोई
भी अनुभव
पर्याप्त न
होगा, तृप्तिदायक
नहीं होगा, क्योंकि सभी
अनुभव हम से
बाहर ही घटित
होते हैं। और
तुम अनुभवों
के पीछे ही
छिपे रहते हो।
क्योंकि तुम
साक्षी हो, तुम अनुभवों
के भी साक्षी
हो। अनुभव
तुम्हें घटता
है, लेकिन
तुम अनुभव
नहीं हो।
तो
कैसा भी अनुभव
हो, कोई
भी अनुभव कभी
भी पूर्ण न
होगा।
क्योंकि
अनुभव करने
वाला, वह
व्यक्ति जो
अनुभव कर रहा
है, वह सदा
अनुभव से अधिक
बड़ा है। और
अनुभव तथा
अनुभव करने
वाले के बीच
का भेद वहा
हमेशा
विद्यमान
रहता है—उन
दोनों के बीच
एक अंतराल सदा
विद्यमान
रहता है—और
वही अंतराल
तुमसे कहे चला
जाता है कि, 'ही, कुछ
घट तो रहा है
लेकिन फिर भी
पर्याप्त
नहीं है। कुछ
और अधिक चाहिए।’
यही है
मनुष्य के मन
की पीड़ा, मनुष्य के
मन का संताप।
इसीलिए मन और—
और की मांग
किए चला जाता
है। तुम धन
कमाते हो, और
मन कहता है, और अधिक
चाहिए। तुम
मकान बनाते हो,
मन कहता है,
और बड़ा मकान
बनाओ। तुम
किसी राज्य का
निर्माण करते
हो और मन कहता
है और अधिक
बड़ा राज्य
चाहिए। फिर
अगर तुम ध्यान
करो तो वही मन
कहता है, अभी
ध्यान
परिपूर्ण
नहीं हुआ। अभी
तो और भी बहुत
से शिखर हैं
जिन पर अभी
पहुंचना है।
और यह सब ऐसा
ही चलता रहेगा,
क्योंकि यह
स्वयं अनुभव
का ही स्वभाव
है कि अनुभव
कभी पूर्ण
नहीं हो सकता।
तो फिर
मन के लिए कौन
सी बात पूर्ण
हो सकती है? तो फिर मन
कैसे पूरी तरह
से तृप्त हो
सकता है? तुम
तो बस अनुभव
के साक्षी बने
रहना : अनुभव
में खो मत
जाना, अनुभवों
में भटक मत
जाना। बस, तुम
तो साक्षी बने
रहना। और यह
जानते हुए कि
यह भी एक
अस्थायी
भावदशा है, यह भी बीत
जाएगा। अच्छा —बुरा,
सुंदर—
असुंदर, आनंद—दुख—सभी
भाव दशाएं
क्षणभंगुर
हैं, यह भी
बीत जाएंगी
तुम मौन रहकर
इन सबको शाति
से देखते रहना।
इनके साथ
तादात्म्य मत
बनाना।
अन्यथा तुमको
न तो प्रेम से
तृप्ति होगी,
और न ही
ध्यान से।
क्योंकि
वस्तुत: ध्यान
है क्या? ध्यान
कोई अनुभव
नहीं है ध्यान
है साक्षी के
प्रति जागरूक
हो जाना। बस
द्रष्टा हो
जाओ, केवल
द्रष्टा और जब
द्रष्टा ही रह
जाए तब सभी कुछ
परिपूर्ण हो
जाता है। बिना
द्रष्टा के
सभी कुछ
अपूर्ण रहता
है। द्रष्टा
के साथ सभी
कुछ समग्र और
पूर्ण हो जाता
है, वरना
बिना द्रष्टा
के कोई भी चीज
पूरी तरह से संतृप्ति
नहीं दे सकती।
अगर
तुम साक्षी
में रहते हो, तो फिर
जीवन का छोटे
से छोटा कृत्य
भी, फिर वह
चाहे स्नान
करना ही क्यों
न हो, इतना
तृप्तिदायी
और संतोषप्रद
होता है कि तुम
उससे कुछ
ज्यादा की
अपेक्षा ही
नहीं कर सकते।
फिर चाहे भोजन
करना हो, या
चाय पीना हो, इतना अधिक
आनंदपूर्ण
होता है कि
तुम सोच भी नहीं
सकते, कल्पना
भी नहीं कर
सकते कि इससे
अधिक आनंददायी
भी कुछ हो
सकता है। तब
जीवन का हर
क्षण, हर
पल अपने आप
में अमूल्य हो
जाता है, और
तब जीवन का
प्रत्येक
अनुभव फूल की
भांति खिल
उठता है —लेकिन
तब इन सब
अनुभवों के
प्रति भी तुम
जागरूक और सजग
बने रहते हो।
तुम उन
अनुभवों में
खो नहीं जाते
हो, उन
अनुभवों के
साथ
तादात्म्य
नहीं बना लेते
हो।
बोधिसत्व, मैं समझ
सकता हूं। तुम
एक कठिन कार्य
कर रहे हो।
तुम काम भी कर
रहे हो, ध्यान
भी कर रहे हो।
तुम वह सभी
कुछ कर रहे हो,
जो एक
व्यक्ति कर
सकता है। इससे
अधिक तुम कुछ
कर भी नहीं
सकते हो।
सच तो
यह है कि अगर
तुम कुछ और
अधिक करोगे तो
उससे मदद
मिलने वाली
नहीं है। अब
तुम उस जगह
पहुंच गए हो, जहां अब
साक्षी हो
जाना है।
अनुभवों को
गुजरने दो —उन्हें
आने दो, जाने
दो, उनके
द्वारा
विचलित और
परेशान मत
होना। और न ही
उनसे आकर्षित
होओ। बस, जागरूक
और तटस्थ होकर—मन
में चलते हुए
यातायात को
देखते रहो, मन के आकाश
में गुजरते हुए
बादलों को
देखते रहो। बस,
द्रष्टा हो
जाओ और अचानक
तुम पाओगे कि
फिर किसी
पक्षी का
बोलना, या
किसी छोटे से
फूल का खिल
जाना—ऐसी
.छोटी —छोटी
बातें गहन
परितृप्ति दे
जाती हैं। और
संतोष से भर
जाती हैं।
बासो
का एक हाइकू
है। जापान में
एक बहुत ही
छोटा फूल होता
है, जिसे
नाजुना कहकर
पुकारते हैं।
वह फूल एकदम
छोटा सा, सामान्य,
साधारण, और
इतना दरिद्र
होता है कि
कोई उस फूल की
तरफ देखता भी
नहीं है, और
न ही उसके
बारे में कोई
बात करता है।
कवि गुलाब की
चर्चा करते
हैं। बेचारे
नाजुना की बात
कौन करता है? नाजुना एक
जंगली फूल है।
और बहुत सी
भाषाओं में तो
इस फूल के लिए
कोई नाम तक
नहीं है, क्योंकि
कौन उस बेचारे
फूल के नाम की
परवाह करता है?
लोग उस फूल
के पास से
बिना देखे ही
निकल जाते हैं,
उसकी ओर
देखते तक नहीं
हैं।
जिस
दिन बासो को
पहली सतोरी की
झलक मिली और
वह अपनी
कुटिया से
बाहर निकले तो
उनकी नजर सबसे
पहले नाजुना
पर पड़ी। और
बासो ने अपने
हाइकू में कहा
है, 'मैंने
पहली बार
नाजुना के
सौंदर्य को
देखा और जाना।
वह नाजुना का
फूल अनूठा और
अपूर्व था।
सभी स्वर्गों
को नाजुना फूल
के सामने
एकसाथ मिला
दिया जाए, तो
भी कुछ नहीं
है।’
बासो
के लिए नाजुना
कैसे इतना
सौंदर्यपूर्ण
हो गया? और बासो
कहते हैं, 'नाजुना
में वह
सौंदर्य तो
सदा से मौजूद
था, और मैं
न जाने कितनी
बार उसके पास
से गुजरा था, लेकिन इससे
पहले मैंने
ऐसा सौंदर्य
कभी नहीं देखा
था।’ क्योंकि
बासों स्वयं
वहां पर मौजूद
न था।
मन
केवल वही
देखता है, या वही
देखना चाहता
है जो उसके
अहंकार की
पूर्ति करता
है। बेचारे
नाजुना की
परवाह कौन
करता है? वह
बेचारा गरीब
फूल, किसी
भी ढंग से मन
और आख को
संतुष्ट नहीं
करता। ही, कमल
हो, गुलाब
हो, तब तो
ठीक है। लेकिन
नाजुना!
बेचारा
साधारण जंगली
फूल, इतना
छोटा, इतना
दरिद्र कि
किसी को उसकी
ओर ध्यान देने
की, उसकी
तरफ देखने की
क्या पड़ी है।
वह न तो किसी
को आकर्षित ही
कर पाता है, न ही किसी का
ध्यान अपनी ओर
खींच पाता है.
लेकिन वह दिन,
वह सुबह, वह सूर्य का
उदय होना, और
बासो ने
नाजुना फूल को
देखा; बासो
कहते हैं, ' पहली
बार मेरा साक्षात्कार
नाजुना की
वास्तविकता
से हुआ' —लेकिन
ऐसा केवल इसी
कारण संभव हो
सका, क्योंकि
बासों ने
स्वयं की
रिएलिटी से, स्वयं की
वास्तविकता
से
साक्षात्कार
कर लिया था।
जिस
घड़ी हम साक्षी
होते हैं — और
वही सतोरी है, वही
समाधि है —जिस
क्षण हम
साक्षी होते
हैं 'सभी
कुछ बदल जाता
है, सभी
कुछ अलग ही
रंग — रूप ले
लेता है। तब
साधारण हरा
रंग फिर कोई
साधारण हरा
रंग नहीं रह
जाता, वह
असाधारण हो
जाता है। तब
कोई भी चीज
साधारण नहीं
रह जाती है।
जिस क्षण हम
साक्षी हो
जाते हैं, उसी
क्षण हर चीज
असाधारण, भव्य
और दिव्य हो
जाती है।
जीसस
अपने शिष्यों
से कहा करते
थे, 'जरा,
बाहर खिले
हुए लिली के
फूलों को तो
देखो।’ साधारण
से लिली के
फूल—लेकिन
जीसस के लिए
वे लिली के
फूल साधारण
नहीं हैं, क्योंकि
जीसस एक अलग
ही आयाम में
जी रहे हैं।
जीसस की यह
बात सुनकर
शिष्य तो जरूर
आश्चर्य में
पड़ गए होंगे
कि जीसस लिली
के फूलों की
चर्चा क्यों
कर रहे हैं? लिली के
फूलों के बारे
में कहने को
है क्या? लेकिन
जीसस कहते हैं,
'सोलोमन भी
अपने ऐश्वर्य
और वैभव में
लिली के फूलों
के सामने कुछ
भी न था।’ सोलोमन
भी कुछ न था!
सोलोमन यहूदी
पुराण कथा का
सर्वाधिक
समृद्ध, और
धनी सम्राट था—वह
भी कुछ न था
लिली के
साधारण से
फूलों के सामने!
जीसस ने उन
लिली के फूलों
में वह देखा, जिसे शिष्य
देखने से चूक
रहे हैं।
क्या
देखा जीसस ने
उन लिली के
फूलों में? अगर तुम
साक्षी हो
जाओं, तो
अस्तित्व
अपने सारे
रहस्य
तुम्हारे
सामने खोल
देता है। मैं
तुम से कहता
हूं कि तब सभी
कुछ
तृप्तिदायी
हो जाता है।
किसी ने एक
झेन गुरु से
पूछा, 'सतोरी
उपलब्ध होने
के बाद आप
क्या करते हैं?'
वह झेन
गुरु बोले, 'पहले की
तरह मैं अब भी
लकड़ी काटता हूं, कुएं से
पानी भरता हूं, जब भूख लगती
है तब भोजन कर
लेता हूं,
जब थक जाता
हूं तो सो
जाता हूं।’
सतोरी
उपलब्ध होने
के बाद सभी
कुछ, छोटे
—छोटे कृत्य
भी सौंदर्य से
भर जाते हैं।
प्रत्येक
छोटे —छोटे
काम भी, फिर
वह चाहे लकड़ी
काटना हो या
कुएं से पानी
भरना. सभी कुछ
दिव्य और भव्य
हो जाता है।
थोड़ा
इसे समझने की
कोशिश करो।
निकोस
कजानजाकिस ने
जो उपन्यास
सेंट फ्रांसिस
के विषय में
लिखा है उसमें
फ्रांसिस
बादाम के
वृक्ष के साथ
बातें करता है।
सेंट
फ्रांसिस आते
हैं, एक
बादाम का पेडू
वहां पर है, और सेंट
फ्रांसिस
कहते हैं, 'सिस्टर,
मुझे
परमात्मा के
विषय में कोई
गीत सुनाओ।’ और इतना
कहते ही वह
बादाम का पेडू
खिल जाता था।
और यह उस
बादाम के
वृक्ष का
तरीका था
परमात्मा के
लिए गीत गाने
का।
बादाम
का वृक्ष
तुम्हारे
बगीचे में भी
खिलता है, फलता—फूलता
है, लेकिन
तुम उसके पास
जाकर कभी कहते
ही नहीं हो कि 'सिस्टर, परमात्मा
का गीत सुनाओ।
परमात्मा के
बारे में कुछ
कहो।’ बादाम
के वृक्ष के
पास जाकर यह
कहने के लिए
कोई सेंट फ्रांसिस
चाहिए। बादाम
का वृक्ष तो
हमारे बगीचों
में भी फलते —फूलते
हैं। इसी तरह
से हमारे जीवन
में भी हजारों
फूल खिलते हैं,
लेकिन उन
फूलों को
देखने के लिए
हम वहां होते
ही नहीं हैं।
स्वयं
में वापस लौट
आओ, और
साक्षी हो जाओ,
और तब सभी
कुछ—फिर चाहे
कार्य हो, प्रेम
हो, या
ध्यान हो —तब
सभी कुछ
परिपूर्ण
तृप्तिदायी
हो जाता है।
तब सभी कुछ
इतना
परिपूर्ण और
तृप्तिदायी
होता है कि
फिर और अधिक
की न तो आकांक्षा
ही रह जाती है
और न ही अधिक
की मांग रह
जाती है। और
जब अधिक की आकांक्षा
या मांग नहीं
रह जाती है, तब ही हम सच
में जीना
प्रारंभ करते
हैं, उससे
पहले नहीं।
मैं
तुम्हारी
पीड़ा को समझता
हूं —'भगवान,
मैं चाहता
हूं कि आप
मुझे एक ही
बार में सदा—सदा
के लिए मिटा
दें।’
अगर
ऐसा करना मेरे
हाथ में होता, तो मैंने
ऐसा कभी का कर
दिया होता।
अगर ऐसा करना
मुझ पर निर्भर
होता, तो
मैं तुम्हारे
कहने की भी
प्रतीक्षा न
करता। फिर तो
मैं तुम से
पूछता भी नहीं।
लेकिन यह केवल
मुझ पर ही
निर्भर नहीं
है। तुमको भी
मेरे साथ
सहयोग करना
पड़ेगा। सच तो
यह है, मैं
तो सिर्फ एक
बहाना हूं —करना
तो तुमको ही
है।
और
किसी भी तरह
.की जल्दी मत
करना, अधीर
मत होना। इस
पथ पर बड़े
धैर्य की
आवश्यकता
होती है।
लेकिन पश्चिम
में धैर्य खो
गया है, अधैर्यता
मन का हिस्सा
हो गयी है।
लोग धैर्य के
और प्रतीक्षा
के सौंदर्य को
भूल ही गए हैं।
मैं एक
कथा पढ़ रहा था
एक
डाक्टर अपने
मरीज को
स्वस्थ होने
की नयी विधि
के विषय में
समझा रहा था।
'आपरेशन
के बाद जितना
जल्दी हो सके,
तुम चलने
लगना। पहले
दिन तुम पांच
मिनट घूमना, दूसरे दिन
दस मिनट, और
तीसरे दिन
पूरे एक घंटे
घूमना। मेरी
बात समझ में
आई न?'
'हां
डाक्टर, 'घबराए
हुए मरीज ने
कहा, 'लेकिन
क्या यह उचित
होगा कि मैं
आपरेशन के समय
लेटा ही रहूं?'
थोड़े
और धैर्य की
जरूरत है। अभी
तुम आपरेशन
टेबल पर ही हो।
कृपा करके, कृपा
करके शिथिल और
शांत रहो, और
मेरे साथ
सहयोग करो, क्योंकि यह
ऐसा आपरेशन
नहीं है जो
तुम्हारी
मूर्च्छा में,
तुम्हारी
बेहोशी की
अवस्था में
किया जा सकता हो।
यह ऐसा आपरेशन
नहीं है, जिसमें
एनसथीसिया
दिया जा सकता
हो। जब तुम
पूर्ण होश में
सचेत और
जागरूक होगे,
उस समय पूरा
आपरेशन हो
सकता है। सच
तो यह है तुम
जितने अधिक
होशपूर्ण, जाग्रत
और सचेत होते
हो, उतनी
ही अधिक आसानी
से इस आपरेशन
को किया जा सकता
है —क्योंकि
यह पूरा का
पूरा आपरेशन
होश का ही है।
अगर तुम
आपरेशन करने
के प्रतिकूल
हो, तो मैं
यह आपरेशन
नहीं कर सकता
हूं; बिना
तुम्हारे
सहयोग के तो
मैं यह कर ही
नहीं सकता। जब
तक तुम पूरी तरह
मेरे साथ नहीं
होते हो मैं
ऐसा नहीं कर
सकता।
सच तो
यह है, जब
तुम
समग्ररूपेण
मेरे साथ होते
हो, तब तुम
स्वयं ही वैसा
कर लेते हो, मैं तो केवल
एक बहाना हूं।
जिस दिन घटना
घटेगी, उस
दिन तुम
जानोगे कि
मैंने कुछ भी
नहीं किया है,
तुमने
स्वयं ही सब
कुछ किया है।
मैंने तो बस
तुममें थोड़ा
सा
आत्मविश्वास
जगाया था।
मैंने तो केवल
तुम्हें
विश्वास
दिलाया था कि ऐसा
भी संभव है।
मैंने तो केवल
इतना भरोसा
दिलाया था कि
तुम व्यर्थ
नहीं भटक रहे
हो, कि तुम
सही मार्ग पर
चल रहे हो —मैंने
तो बस इतना ही
किया था। इस
आपरेशन में
मरीज ही
डाक्टर भी
होता है।
डाक्टर तो
इसमें एक ओर
खड़ा रहता है।
बस उसकी
मौजूदगी, उसकी
उपस्थिति
मात्र ही
तुम्हारे लिए
सहायक होती है
— और जब डाक्टर
वहां खड़ा होता
है तो तुम्हें
भय नहीं लगता,
तुम स्वयं
को अकेला
महसूस नहीं
करते।
और एक
ढंग से यह
अच्छा ही है
कि कोई दूसरा
तुम्हारे लिए
कुछ नहीं कर
सकता।
क्योंकि अगर
कोई दूसरा
तुमको मुक्त
कर सकता हो, तो
तुम्हारी
मुक्ति
वास्तविक
मुक्ति न होगी,
सच्ची
मुक्ति न होगी।
अगर कोई दूसरा
व्यक्ति
तुमको मुक्त
कर सकता है, तो फिर
दूसरा
व्यक्ति
तुमको गुलाम
भी बना सकता
है। कोई तुम्हें
मुक्त नहीं कर
सकता। मुक्ति
तुम्हारा
अपना चुनाव है।
इसीलिए
मुक्ति परम है,
फिर कोई उसे
तुम से छीन
नहीं सकता।
अगर मुक्ति दी
जा सकती हो, तो फिर उसे
छीना भी जा
सकता है।
सच तो
यह है, मैं
तुम्हारी कोई
मदद नहीं कर
सकता हूं। अगर
तुम चाहो, तो
मेरे से जो भी
मदद संभव हो
सकती है, वह
ले सकते हो।
तुम
थोड़ा मेरी बात
को समझने की
कोशिश करो।
मैं
तुम्हारी कोई
मदद नहीं कर
सकता, क्योंकि
मैं तुम्हारे
साथ कोई
जबर्दस्ती नहीं
कर सकता हूं।
मैं तुम्हारी
हत्या नहीं कर
सकता, लेकिन
मेरी मौजूदगी
में तुम
आत्मघात कर ले
सकते हो।
क्या
तुम मेरी बात
को समझ रहे हो? मेरी
मौजूदगी के
माध्यम से तुम
आत्मघात कर ले
सकते हो, मैं
तुम्हारी
हत्या नहीं कर
सकता हूं। मैं
तो बस उपलब्ध
हूं। मेरे
माध्यम से तुम
स्वयं अपनी
मदद कर सकते हो।
और जिस दिन
ऐसा होगा उसे
तुम समझ सकोगे,
केवल तभी
तुम समझ सकोगे,
कि ऐसा तुम
अपने आप भी कर
सकते थे।
लेकिन अभी तो
अकेले ऐसा
करना संभव
नहीं है, लगभग
असंभव ही है।
यहां तक कि
मेरे साथ होकर
भी जब ऐसा कर
पाना इतना
कठिन है, तो
अकेले तो
असंभव ही है।
अधैर्य
न करो, प्रतीक्षा
करो और
अधिकाधिक
अपने साक्षी —चैतन्य
में
प्रतिष्ठित
हो जाओ।
जब पीड़ा
हो, दुख
हो तो उस समय
उनसे तादात्म्य
न बनाना बहुत
आसान होता है।
लेकिन असली
परेशानी और
समस्या तो तब
खड़ी होती है
जब हम गहन
प्रेम में हों,
आनंदित हों,
खुश हों, प्रसन्न हों,
गहन ध्यान
में लीन हों, आनंद—मग्न
हों, तब
तादात्म्य न
बना पाना बहुत
कठिन होता है।
लेकिन तब हम
वहीं पर रुक
जाते हैं। वही
है असली घड़ी, जब इस बात का
होश रहे कि
तादात्म्य
स्थापित न हो
जाए। स्मरण
रहे, जब
तुम आनंदित
होते हो, तब
भी जागरूक
रहना कि यह भी
एक भावदशा ही
है; यह भी
आई है और चली
जाएगी। जैसे
बादल आते हैं,
और चले जाते
हैं, बादल
सुंदर है। उस
आनंद की
अवस्था के
प्रति
अनुगृहीत
होना, परमात्मा
को धन्यवाद
देना, लेकिन
फिर भी उससे
अछूते ही बने
रहना। जल्दी
मत करना और
उसके साथ
तादात्म्य मत
बनाना। उसी
तादात्म्य के
कारण और अधिक
की आकांक्षा उठती
है, मांग
खड़ी होती है।
अगर
तुम उससे दूर, तटस्थ, कहीं दूर
उदासीन खड़े हो
तो और अधिक
पाने की आकांक्षा
का विचार उठता
ही नहीं है।
ऐसा क्यों
होता है? क्योंकि
जब द्रष्टा
अनुभव के साथ
तादात्म्य स्थापित
कर लेता है तो
वह मन बन जाता
है। और मन जो
है वही अधिक
और अधिक की आकांक्षा
है। लेकिन जब
अनुभव बादलों
की भांति
गुजरते हैं, उस समय अगर
द्रष्टा केवल
द्रष्टा ही
बना रहता है, तब मन का
अस्तित्व
नहीं होता। तब
दृश्य और
द्रष्टा के
बीच एक अंतराल
होता है; उनके
बीच कहीं कोई
सेतु नहीं
होता। जब
दृश्य और
द्रष्टा के
बीच कोई सेतु
नहीं होता है,
उस अवस्था
में अधिक की
कोई आकांक्षा
नहीं रह जाती
है—तब कहीं
किसी तरह की
कोई आकांक्षा
होती ही नहीं
है। तब तुम
परिपूर्ण
परितृप्ति
होते हो, तुम
परम संतुष्ट
होते हो।
बोधिसत्व, वह
अवस्था आने को
है। किसी तरह
की जल्दबाजी
मत करना और
धैर्य मत खोना।
तीसरा
प्रश्न:
मेरा
ऐसा विश्वास
है कि विकसित
होने के लिए
मुझे जोखिम
उठाने होंगे
और जोखिम
उठाने के लिए
मुझे निर्णय
लेने होंगे
फिर जब मैं
निर्णय लेने का
प्रयत्न करता
हूं तो चिंतित
हो जाता हूं
कि मैं कहीं
गलत चुनाव न
कर लूं जैसे
कि मेरा जीवन
इसी पर ही.
निर्भर करता
हो
आखिर
यह कैसा
पागलपन है?
यह बात तुमको
अभी भी विश्वास
जैसी ही मालूम
हो रही है, यह
तुम्हारी समझ
नहीं बनी है।
विश्वास से
कोई मदद नहीं
मिलने वाली है।
विश्वास का
अर्थ होता है,
उधार।
विश्वास का
अर्थ होता है,
तुम्हें
अभी भी समझ
नहीं है।
शायद
तुम समझ से
आकर्षित हो गए
हो, या
तुमने ऐसे लोग
देखे होंगे
जिन्होंने
जोखिम उठाई है
और जोखिम के
माध्यम से
उनका विकास
हुआ है। लेकिन
तो भी तुमने
अभी तक यह
नहीं जाना है
कि जोखिम ही
जीने का
एकमात्र ढंग
है, और
दूसरा कोई
मार्ग नहीं है।
जिंदगी में
अगर जोखिम न
हो तो कुछ गलत
हैं; जोखिम
के साथ कुछ भी
गलत नहीं है।
जोखिम
उठाने में तुम
गलत नहीं हो
सकते, क्योंकि
अगर तुम जोखिम
से हमेशा
भयभीत रहो, कि कहीं कुछ
गलत हो जाएगा,
तब तो तुम
जोखिम उठा ही
नहीं रहे हो।
अगर हर बात की
पूरी गारंटी
हो और फिर तुम
जोखिम उठाओ, और सभी कुछ
पहले से ही
निर्धारित हो
और सभी कुछ
ठीक—ठाक हो, तभी तुम
जोखिम उठाओ—तो
फिर जोखिम हुआ
ही कहा? नहीं,
जोखिम में
गलत हो जाने
की संभावना
होती है; इसीलिए
तो उसे जोखिम
कहा जाता है।
और यह जानते
हुए कि जोखिम
में कुछ ठीक
भी हो सकता है,
और कुछ गलत
भी हो सकता है,
फिर भी
जोखिम उठाने
में संकोच न
करना, सुंदर
है।
और
व्यक्ति का
विकास जोखिम
के साथ ही, रिस्क के
साथ ही होता
है, क्योंकि
अगर तब कुछ
गलत भी होगा, तो फिर पहले
जैसे बने रहना
संभव नहीं है।
उस गलती के
माध्यम से कुछ
समझ विकसित हो
जाती है। और
अगर कहीं भटक
भी जाओ तो जिस
क्षण तुम्हें
भटकने का बोध
हो. जाए उसी
क्षण तुम वापस
लौट सकते हो।
और जब वापस
लौटना होता है
तो कुछ सीखकर
ही वापस लौटना
होता है —और
निश्चित ही उस
सीखने में
बहुत कीमत
चुकानी पड़ती
है। और तब वह
सीखना मात्र
स्मरण का
सीखना नहीं होता
है, वह
सीखना खून, हड्डी, मांस
—मज्जा का अंग
बन जाता है।
इसलिए भटकने
से कभी भी मत
डरना। जो लोग
भटकने से डरते
हैं, वे
लोग पंगु हो
जाते हैं। वे
कभी जोखिम
उठाने की
चेष्टा ही
नहीं करते हैं।
और
जीवन का मतलब
ही जोखिम है, क्योंकि
जीवन एक जीवंत
घटना है; जीवन
कोई मृत वस्तु
नहीं है। केवल
कब्र में ही
किसी तरह का
कोई खतरा नहीं
होता है।
मृत्यु के
पश्चात, कहीं
कोई खतरा नहीं
बचता है।
लाओत्सु
के किसी शिष्य
ने लाओत्सु से
पूछा, 'क्या
जीवन में सुख —चैन
और आराम से
जीना संभव
नहीं है?'
लाओत्सु
ने कहा, ' थोड़ा ठहरो।
जब तुम्हारी
मृत्यु हो
जाएगी, तो
कब में तुम
सदा —सदा के
लिए, अनंतकाल
तक सुख —चैन—
आराम से रह
सकोगे।’
इसलिए
जीवन को व्यर्थ
मत गवांओ, क्योंकि
मृत्यु तो
होने ही वाली
है। जीवन के
जो कुछ क्षण
मिले हैं
इन्हें जी लो।
और जीने का
दूसरा कोई
उपाय नहीं है :
जीने का मतलब
ही है खतरे
में जीना, जोखिम
में जीना।
जीवन में खतरा
तो सदा मौजूद
ही रहता है।
और खतरा तो
होना ही है, क्योंकि
जीवन एक
प्रवाह है। इस
प्रवाह में
तुम कहीं भी
जा सकते हो।
मैंने
एक ऐसे आदमी
के बारे में
सुना है जो
निर्णय लेने
में हमेशा
भयभीत रहता था, डरता था।
लेकिन
आखिरकार
व्यक्ति को
निर्णय तो
लेना ही पड़ता
है, इसलिए
उसे निर्णय तो
लेना ही पड़ता
था। और वह जो
भी निर्णय
लेता था हमेशा
गलत ही होता
था, और यह
उसके जीवन का
अंग बन चुकी
थी। और वह
स्वयं भी
जानता था कि
वह जो भी
निर्णय लेगा
वह गलत ही
होगा। अगर वह
व्यापार
करेगा तो
उसमें उसे लाभ
न होगा, जिस
ट्रेन से वह
जाने की
सोचेगा, वह
चूक जाएगी; जिस स्त्री
से वह विवाह
करने की
सोचेगा वह किसी
और से प्रेम
करने लगेगी; इस तरह वह
हमेशा चूकता
ही रहा था।
एक दिन
उसे व्यापार
के काम से
दूसरे शहर
जाना था, और उसके शहर
से एक ही हवाई—कंपनी
का केवल एक ही
विमान उपलब्ध
था—अत: उसके
निर्णय लेने
का कोई प्रश्न
ही न था।
क्योंकि
निर्णय लेने
की कोई झंझट न
थी इसलिए वह
बहुत खुश था, क्योंकि
दूसरा कोई
विकल्प भी न
था। उसे वही
विमान पकड़ना
था। लेकिन
जैसे ही हवाई—जहाज
उड़ा और थोड़ी
देर बाद बीच
में ही इंजन
बंद हो गया।
वह
आदमी तो बड़ा
घबड़ा गया; घबड़ाकर
वह बोला, 'हे
परमात्मा! इस
बार तो मैंने
कोई निर्णय
नहीं लिया था।
मेरे सामने
कोई और विकल्प
ही न था। अब तो
यह बात सीमा
के बाहर हुई
जा रही है।
अगर मेरे और
मेरे निर्णय
के साथ कुछ
गलत हो जाए तो
ठीक भी है, लेकिन
इस बार तो
मैंने कोई
निर्णय लिया
ही नहीं था।
आपने ही
निर्णय लिया
था।’
वह
आदमी सेंट
फ्रांसिस का
अनुयायी था, इसलिए वह
पुकारने लगा,
' ओं सेंट फ्रांसिस,
मुझे बचाओ!
कम से कम इस
बार तो बचाओ।
मैंने आज तक
आप से कभी
किसी तरह की
कोई मदद नहीं
मांगी, क्योंकि
निर्णय हमेशा
मैं ही लेता
था, इसलिए
मैं जानता था
कि चूंकि मैं
ही गलत हूं
इसीलिए सभी
कुछ गलत हो
जाता है। इस
बार तो मेरी
कोई गलती नहीं
है?'
तभी
आकाश में एक
हाथ प्रकट हुआ
और उस हाथ ने
उसे विमान में
से उठा लिया।
वह बहुत खुश
हुआ। और तभी
आकाश से आवाज
सुनायी दी, 'कौन सा
फ्रांसिस? फ्रांसिस
जेवियर या
ऑसिसी के फ्रांसिस?
बताओ तुमने
किसे पुकारा
है!'
अब फिर
से वही मुसीबत
तुम बचकर भाग
नहीं सकते।
भागोगे कहा, जीवन
हमेशा जोखिम
से भरा है।
तुम्हें
चुनाव करना ही
पड़ेगा। और
अपने चुनाव के
द्वारा ही तुम
विकसित होते हो,
अपने स्वयं
के चुनाव के
द्वारा ही तुम
परिपक्व होते
हो। चुनाव से
तुम गिरते भी
हो और फिर से
उठते भी हो।
गिरने
से कभी भयभीत
मत होना, वरना तुम्हारे
पांव चलने की
क्षमता खो
देंगे। और
गिरने में कुछ
गलत भी नहीं
है। गिरना
चलने का ही
हिस्सा है, गिरना जीवन
का ही हिस्सा
है। पीते, और
फिर से उठ खड़े
हो, और हर
बार का गिरना
तुम्हें और
अधिक मजबूत
बना देगा, और
जब —जब तुम
भटकोगे तुम
पहले से अधिक
मजबूत और अनुभवी
हो जाओगे।
अधिक सजग और
जागरूक हो
जाओगे। और फिर
से अगर वही
परिस्थिति
तुम्हारे
सामने आएगी, तो तुम
उद्विग्न
नहीं होंगे, और उस
परिस्थिति से
घबराओ नहीं।
जीवन में
जितनी
गलतियां कर
सकते हो, उतनी
गलतियां करना—बस
केवल एक बात
खयाल रखना कि
वही गलती बार —बार
मत करना।
और
गलतियां करने
में कुछ भी
गलत नहीं है।
जितनी अधिक से
अधिक गलतियां
कर सकते हो, करो—जितनी
गलतियां अधिक
कर सकी उतना
ही अच्छा है।
क्योंकि
जितना अधिक
अनुभव होगा, उतनी अधिक
जागरूकता
तुममें आएगी।
ऐसे ही मत
बैठे रहना, अनिश्चय की
मनःस्थिति
में ही मत
झूलते रहना।
निर्णय लो! और
निर्णय न लेना
ही एकमात्र
गलत निर्णय है,
क्योंकि तब
तुम सभी कुछ
चूक जाते हो।
थामस
अल्वा एडीसन
के विषय में
कहा जाता है
कि वह किसी
प्रयोग को कर
रहा था, और उस
प्रयोग में
हजारों बार वह
असफल हुआ। कोई
तीन साल से
निरंतर वह उस
पर कार्य कर
रहा था, और वह
उसमें बार—बार
असफल हो रहा
था। सभी तरह
से उसने कोशिश
की, लेकिन
वह सफल नहीं
हो पा रहा था।
उसके साथ जो
शिष्य थे वे
हताश हो गए, निराश हो गए।
एक दिन एक
शिष्य ने
एडीसन से कहा,
'आप कम से कम
एक हजार बार
प्रयोग कर
चुके हैं। और
प्रत्येक
प्रयोग असफल
हो रहा
है। लगता है
हम आगे नहीं
बढ़ पा रहे हैं।’ एडीसन ने
उस शिष्य की
तरफ आश्चर्य
से भरकर देखा,
और कहा, 'तुम
कह क्या रहे
हो? आखिर
तुम कहना क्या
चाहते हो? हम
कहीं नहीं बढ़
रहे हैं? हमारे
सामने एक हजार
गलत द्वार बंद
हो चुके हैं, अब ठीक
द्वार कोई
बहुत दूर नहीं
होगा। हमने एक
हजार गलतियां
कर ली हैं, इतना
तो हम सीख ही
चुके हैं। ऐसा
कहकर तुम क्या
यह कहना चाहते
हो कि हम अपना
समय व्यर्थ
बर्बाद कर रहे
हैं? अब यह
एक हजार
गलतियां हमें
अपनी ओर
आकर्षित नहीं
कर सकेगी। अब
हम मंजिल के
निकट पहुंच ही
रहे हैं, सत्य
अब हम से दूर
नहीं है।
आखिरकार सत्य
कब तक हम से बच
सकता है।
गलतियां
करने से, भूल करने से,
कुछ गलत
करने से कभी
भी भयभीत मत
होना।
यह
प्रश्न प्रेम
निशा का है।
वह हमेशा
गलतियां करने
से भयभीत रहती
है। वह इतनी
अधिक भयभीत है
कि वह यहां भी
छिपकर बैठती
है; मैं
उसे कभी देख
ही नहीं पाता
हूं। शायद
मेरी एक
दृष्टि, और
उसे खतरा हो
जाएगा। तो वह
स्वयं को
छिपाकर रखती
है। मैं जानता
हूं कि वह
यहां पर मौजूद
है, हर रोज
वह यहीं कहीं
बैठी होती है।
लेकिन वह ऐसे
कहीं किसी
खंभे के पीछे
छिपकर बैठती
है, कि मैं
उसे देख नहीं
पाता हूं। और
अगर कभी मेरे
सामने भी बैठी
होती है, तो
वह अपना सिर
इतना नीचे
झुका लेती है
कि मैं उसे
पहचान ही नहीं
पाता कि वह
कहां है।
जीवन
एक प्रवाह है।
तुम बैठे भी
रह सकते हो, लेकिन तब
जीवन मृत्यु
की तरह होगा।
उठो और चल पड़ो।
जोखिम उठाओ, खतरे में
जीओ।
निशा
की हालत उस
छोटे से लड़के
की भांति है.
वाइज
विनिफ्रेड वन —विहार
की शिक्षा, पदयात्रा
और जल —यात्रा
के पुरस्कार
लेकर एक
ग्रीष्म—शिविर
से घर वापस
लौटा था, और
उसे एक छोटा
स्टार भी मिला
था। जब उससे
पूछा कि उसे
यह स्टार किस
बात के लिए
मिला है, तो
विनिफ्रेड
बोला, 'घर
लौटते समय, अपना समान
बहुत ही अच्छे
ढंग से ट्रैक
में बंद करने
के लिए उसे यह
पुरस्कार
मिला है।’ उसकी
मां तो बहुत
खुश थी, जब
तक विनिफ्रेड
ने यह नहीं
बताया कि
मैंने उस ट्रक
को खोलकर कभी
कुछ निकाला ही
नहीं था। तो
निशा, बंद
सामान को खोलो।
इससे भयभीत मत
होओ कि शायद
तुम उतने
अच्छे ढंग से
उसे फिर से
पैक नहीं कर
पाओगी। थोड़ी—बहुत
अव्यवस्था
अच्छी होती है,
उसमें कुछ
हर्ज नहीं है।
लेकिन बंधा
हुआ और बंद
जीवन जीए चले
जाना, जीवन
के साथ
एकमात्र गलती
है। यह जीवन
के प्रति एक
अस्वीकृति है।
और
जीवन को
अस्वीकार
करना
परमात्मा को
अस्वीकार
करना है।
अस्तित्व ने तुम्हें
यहां जीने के
लिए भेजा है —जितना
संभव हो सके
उतने गहन रूप
से जीने के लिए; जितना
संभव हो सके
उतने खतरनाक
ढंग से जीने
के लिए।
संपूर्ण
अस्तित्व
चाहता है कि
तुम जीवंत हो
जाओ, तुम्हारा
रोआं —रोआं
जीवंत हो जाए,
इतना जीवंत
कि जीवंतता की
पराकाष्ठा पर
पहुंच. जाए—इसीलिए
तुम्हें यहां
भेजा गया है।
और तुम भयभीत
हो कि कहीं
कुछ गलत न हो
जाए।
परमात्मा
को तुम्हें
भेजने में कोई
भय नहीं है।
वह जरा भी
भयभीत नहीं है।
वह सभी तरह के
लोगों को
भेजता है—अच्छे—बुरे, पुण्यात्मा—पापी
सभी तरह के
लोगों को
भेजता है। वह
लोगों को
भेजता ही चला
जाता है। वह
जरा भी भयभीत
नहीं है।
अगर
परमात्मा
भयभीत या डरा
हुआ होता तो
यह संसार बहुत
पहले ही
समाप्त हो गया
होता या फिर
यह संसार बना
ही न होता।
अगर वह भयभीत
होता कि अगर
मैं मनुष्य की
रचना करूं और
वह कुछ गलत कर
बैठे, अगर
वह भटक गया
वस्तुत: पहला
आदमी अदम भटक
गया था। आदमी
को वैसा ही
होना पड़ता है।
परमात्मा ने
पहला आदमी
बनाया, और
उसने विद्रोह
कर दिया और
परमात्मा की
आज्ञा का
उल्लंघन किया,
और उसने ईडन
के बगीचे की
सभी सुख —सुविधाओं
को छोड़ने का
जोखिम उठाया।
उसने खतरे से
भरा मार्ग
चुना। जरा अदम
के बारे में
तो सोचो—कितने
खतरे में जीया
होगा वह। और
परमात्मा भी
अदम को बनाकर
रुक नहीं गया।
अन्यथा वह अदम
को बनाकर ही
रुक जाता।
इसकी कोई
आवश्यकता न थी।
उसने पहले
आदमी की रचना
की और वह पहला
आदमी ही भटक
गया—तो फिर
उसके बाद
परमात्मा को
आदमी की रचना
करने की क्या
आवश्यकता थी।
लेकिन उसके
बाद फिर भी
परमात्मा
सृष्टि की रचना
करता ही चला
जा रहा है।
सच तो
यह है, ऐसा
लगता है कि
परमात्मा ने
ही इन सारी
परिस्थतियों
का निर्माण
किया है।
परमात्मा ने
अदम से कहा, 'इस वृक्ष के
फल को मत चखना।’
और
परमात्मा के
मना करने के
कारण ही अदम
के अंदर एक
आकर्षण पैदा
कर दिया। ईसाई
जब कहते हैं
कि शैतान ने
अदम को
प्रलोभित
किया—एकदम गलत
है यह बात।
परमात्मा ने
यह कहकर कि 'इस ज्ञान के
वृक्ष के फल
को मत चखना, 'अदम को
प्रलोभित
किया। इससे
अधिक और कौन
से प्रलोभन की
तुम कल्पना कर
सकते हो? किसी
भी बच्चे के
साथ जरा इसको
आजमा कर देखना।
किसी बच्चे से
कहना कि तुम
फलां कमरे में
मत जाना। और
सबसे पहले वह
बच्चा जो
करेगा, वह
यही करेगा कि
वह उस कमरे
में जाएगा।
एक
छोटा
संन्यासी, धीरेश
लंदन वापस जा
रहा था। मैंने
उसे एक डिब्बी
दी और उससे
कहा कि वह उसे खोले
नहीं। उसने
मेरे से कहा
भी, 'हां, मैं इसे
नहीं खोलूंगा।’
और फिर
मैंने उसकी
मां से कुछ
बात की और
मैंने उससे
फिर से कहा, ' ध्यान रहे, इस डिब्बी
को खोलना नहीं
है।’ वह
बोला 'मैं
कभी इसे नहीं
खोलूंगा।’ उसकी
मा बोली, 'उसने
तो डिब्बी
पहले ही खोलकर
देख ली है!'
यह
परमात्मा ही
है जो ध्यान
आकर्षित
करवाता है। जब
उसने अदम से
कहा, 'इस
वृक्ष के फल
को मत चखना तो
किसी शैतान की
कोई जरूरत
नहीं है।
परमात्मा
स्वयं ही सब
से बड़ा
प्रलोभन देने
चला है, क्योंकि
वह चाहता है
तुम संसार में
जाओ, अनुभव
करो। यहां तक
कि अगर तुम
भटक भी जाओ, तो भी तुम
परमात्मा से
अलग नहीं हो
सकते।
क्योंकि
परमात्मा से
अलग होकर तुम
जा कहां सकते
हो? अगर
कुछ गलत हो भी
जाए, तो
क्या गलत हो
जाएगा? क्योंकि
हर कहीं वही
व्याप्त है? तुम उससे
अलग होकर कुछ
कर ही नहीं
सकते हो। ऐसी
कोई संभावना
ही नहीं है।
यह तो बस आख—मिचौनी
का ही खेल है।
परमात्मा
तुम्हें
जोखिम से
खेलने के लिए
भेजता है, और
फिर तरह—तरह
के प्रलोभन
देता है—क्योंकि
यही एकमात्र
ढंग है आदमी
के विकसित होने
का।
ही, किसी न
किसी दिन
तुम्हें
लौटना ही होगा।
अदम बगीचे से
बाहर जाता है,
जीसस वापस
लौट आते हैं।
जीसस वापस लौट
आए अदम हैं।
यही है वापस
घर लौट आना, वापस घर लौट
आने की यात्रा।
जीसस वह अदम
हैं, जिन्होंने
जान लिया है, जो भूल के
प्रति, गलती
के प्रति जाग
गए हैं, लेकिन
अगर प्रारंभ
में अदम ही न
हो, तो फिर
जीसस की भी
कोई संभावना
नहीं होगी।
एक
पादरी छोटे
बच्चों को
सिखा रहा था
कि परमात्मा
से प्रार्थना
कैसे करना, और कैसे
तुम्हारी
गलतियां
परमात्मा माफ
कर सकता है।
ऐसा सब सिखाने
के पश्चात उस
पादरी ने
बच्चों से
प्रश्न पूछे,
उसने पूछा,
'तुमको
परमात्मा माफ
कर सके इसके
लिए सब से
जरूरी बात
क्या है?' एक
छोटा बच्चा
खड़ा होकर बोला,
'पाप करना।’
माफी
पाने के लिए
गलती करना
नितांत
आवश्यक है।
जीसस होने के
लिए अदम चाहिए।
अदम प्रारंभ
है भटकने का, जीसस घर
वापस लौट आना
है।
लेकिन
जीसस अदम से
पूर्णतया
भिन्न हैं।
अदम निर्दोष
था। जीसस
प्रज्ञावान
हैं —निर्दोष
होने के साथ—साथ
उससे कुछ अधिक
भी हैं। वह
कुछ अधिक हैं, क्योंकि
वे भटकते हुए
दूर निकल गए
थे। अब वे
जीवन के ढंग
को और उसकी
पूर्णता को
अच्छे से
जानते हैं।
प्रत्येक
व्यक्ति को
यही नाटक बार—बार
करना पड़ता है।
जीसस होने के
लिए अदम होना
ही पड़ता है।
इससे किसी
चिंता में और
सोच—विचार में
मत पड़ जाना।
हिम्मत जुटाओ, साहस
जुटाओ। डरो मत,
भयभीत मत हो।
प्रवाहमान
रहो, गतिमान
रही।
और मैं
तुम से कहता
हूं कि भटक
जाना भी ठीक
ही है। बस, एक ही भूल
को बार—बार मत
दोहराते जाना,
एक बार में
एक भूल
पर्याप्त है,
क्योंकि
अगर बार—बार
तुम एक ही भूल
करते हो, उसी
भूल को बार—बार
दोहराते हो, तो तुम मूड
हो। और अगर
कभी भी भूल
नहीं करते हो,
तब तो मूड
आदमी से भी गए
बीते हो, या
कहो कि महामूढ़
हो। जब कभी
करो तो नयी—नयी
भूलें करो, तो तुम धीरे —
धीरे
विवेकपूर्ण
होते चले
जाओगे। और
चूंकि विवेक
अनुभव के
द्वारा ही आता
है, उसे
पाने का अन्य
कोई उपाय भी
नहीं है। उसके
लिए कोई
शार्टकट नहीं
है, अन्य
कोई उपाय नहीं
है।
'मेरा
ऐसा विश्वास
है कि विकसित
होने के लिए
मुझे जोखिम
उठाने होंगे. '
इस
विश्वास को
जाने दो, इस विश्वास
को बिदा होने
दो। यह
विश्वास का
प्रश्न ही
नहीं है। जीवन
को थोड़ा ध्यान
से देखो, स्वयं
के जीवन पर
थोड़ा ध्यान दो।
इस बात को
केवल विश्वास
ही नहीं, स्वयं
की
अंतर्दृष्टि
बनने दो। ऐसा
नहीं कि मैं
कहता हूं
इसीलिए तुम
विश्वास कर लो,
बल्कि
समझने की
कोशिश करो।
अगर
तुम भयभीत और
डरे हुए रहोगे, तो तुम
हमेशा पंगु ही
बने रहोगे और
तुम आगे न बढ़
पाओगे। अगर
कोई बच्चा
चलने से भयभीत
है, चलने
से डरता है और
इस डर के कारण
चलने की कोशिश
ही न करे. और
सभी को मालूम
है कि वह जब
चलना शुरू
करेगा तो कई—कई
बार गिरेगा—उसे
चोट भी लग
सकती है, उसे
घाव भी हो
सकता है, ऐसा
होगा भी, लेकिन
चलना सीखने का
यही एकमात्र
तरीका है। और
ऐसे ही गिरते —उठते
धीरे— धीरे वह
संतुलन बनाना
सीख जाता है।
जो बच्चा चलने
की कोशिश कर
रहा हो, जो
बच्चा चलना
सीख रहा हो, उस पर थोड़ा
ध्यान देना।
पहले तो वह
अपने दोनों
हाथ और पांव
के सहारे चलता
है। फिर वह दो
पैरों पर खड़े
होने की कोशिश
करता है, जो
कि बच्चे के
लिए बहुत ही
जोखिम भरा काम
है।
बच्चे
का दो पैरों
पर खड़े होकर
चलने को मैं
इसे सबसे बड़ा
जोखिम कहता हूं, क्योंकि
सारी मनुष्य
जाति इसी
जोखिम से विकसित
हुई है। जानवर
चार पैरों के
सहारे चलते
हैं; केवल
मनुष्य ने ही
दो पैरों पर
खड़े होकर चलने
की कोशिश की
है। जानवर
अधिक
सुरक्षापूर्ण
ढंग से चलते
हैं। मनुष्य
प्रारंभ से ही
खतरों के
प्रति आकर्षित
रहा है, आकर्षित
ही नहीं
अत्याधिक
आकर्षित रहा
है— इसीलिए
उसने दो पैरों
के सहारे चलने
की कोशिश की।
थोड़ा
उस पहले आदमी
के बारे में
सोचो, जो
दो पैरों पर
खड़ा हुआ होगा।
वह आदमी शायद
सर्वाधिक
स्वच्छंद, खुले
विचारों का और
अंधविश्वास
और रूढ़ियों के
विरुद्ध रहा
होगा—सब से
बड़ा
क्रांतिकारी,
विद्रोही
रहा होगा—और
निश्चित ही उस
समय सभी उस के
इस अजीब से
ढंग पर हंसे
होगें। जरा
सोचो, जब
सभी लोग चार
पैरों के
सहारे चल रहे
थे और अचानक
एक आदमी दो
पैरों पर खड़ा
हो गया होगा पूरा
समाज जरूर उस
पर हंसा होगा।
उन्होंने कहा
होगा, 'अरे,
यह क्या है?
यह तुम क्या
कर रहे हो? क्या
पागल हो गए हो?
आज तक कोई
भी तो दो
पैरों पर खड़ा
होकर नहीं चला
है। तुम गिर
पड़ोगे, तुम्हारी
हड्डी —पसलियां
टूट जाएंगी।
छोड़ो यह सब, अपने पुराने
ढंग पर लौट आओ।’
और यह अच्छा
ही हुआ कि उस
आदमी ने उनकी
बात नहीं सुनी।
वे लोग उस
आदमी पर खूब
हंसे होंगे।
उन्होंने सभी
तरह से कोशिश
की होगी कि वह
फिर से चारों
पैर से चलने
लगे, लेकिन
उसने उनकी
नहीं सुनी और
वह दो पैरों
पर ही चलता
रहा।
वे
रूढ़िवादी, दकियानूसी
अभी भी
वृक्षों पर
चढ़े हुए बैठे
हैं। वे बंदर,
बड़े —बड़े
बंदर —वे ही
रूढिवादी
संकुचित जीव
हैं। उनमें जो
क्रांतिकारी
थे, वे तो
मनुष्य बन गए।
वे अभी भी
वृक्षों पर
चढ़े, वृक्षों
से चिपके हुए
बैठे हैं और
चारों पैरों
के सहारे चल
रहे हैं। वे
अभी भी यही
सोचते होंगे,
'आखिर क्यों
यह लोग भटक गए?
कौन सा
दुर्भाग्य इन
पर टूट पड़ा है?'
लेकिन
अगर तुम नए के
लिए कोशिश
करते हो, तो तुरंत
उसी क्षण से
तुम नए के लिए
उपलब्ध हो जाते
हो। भयभीत मत
होओ। चरैवेति —चरैवेति,
चलते जाओ, चलते जाओ।
शुरू में छोटे
—छोटे कदम
उठाओ, छोटे
—छोटे निर्णय
लो। और खयाल
रखो कि हमेशा
नए की संभावना
होती है, और
तुम कुछ गलती
भी कर सकते हो।
कुछ भूल भी कर
सकते हो। और
गलत होने में
भी गलत है
क्या? तुम
फिर से लौट
आना। और जब
तुम वापस
लौटकर आओगे, तो तुम और
अधिक
बुद्धिमान और
अनुभवी हो
जाओगे।
इसे
मात्र
विश्वास ही मत
रहने. देना।
इसे अपने जीवन
की समझ बनने
देना। केवल
तभी यह
तुम्हारे लिए
उपयोगी और
सार्थक हो
सकती है।
'…..और
जोखिम उठाने
के लिए मुझे
निर्णय लेने
होंगे।’
निस्संदेह
व्यक्ति को
निर्णय लेने
ही होते हैं।
और यह जीवन की
सुंदरतम बातों
में से एक बात
है कि आदमी को
निर्णय लेना
ही पड़ता है।
आदमी के
निर्णय लेने
की क्षमता ही
यह दर्शाती है
कि आदमी
स्वतंत्र है।
तुम चाहोगे तो
यह कि कोई
दूसरा
तुम्हारे लिए निर्णय
ले, तब
तो तुम गुलाम
हो जाओगे।
इससे तो जानवर
कहीं अधिक
अच्छी हालत
में हैं—उनके
लिए सभी कुछ
पहले से ही तय
है। उनका भोजन
निश्चित है, ..जीवन जीने
का एक निश्चित
ढाचा उनके पास
है। वे स्वयं
कोई निर्णय
नहीं लेते, वे कभी
चिंता, परेशानी
और उलझन में
नहीं पड़ते।
आदमी
ही एकमात्र
ऐसा जानवर है
जो हमेशा उलझन
से भरा रहता
है, लेकिन
यही उसका गौरव
भी है, क्योंकि
उसे निर्णय
लेना ही होता
है। मनुष्य
हमेशा
हिचकिचाहट
में ही रहता
है, हमेशा
दो विकल्पों
के बीच ही
झूलता रहता है—ऑसिसी
के संत
फ्रांसिस, कि
संत फ्रांसिस
जेवियर—और
जोखिम
सदा विद्यमान
रहता है। थोड़ा
उस आदमी के
बारे में सोचो।
अगर आकाश से
उतरा वह हाथ
ऑसिसी के संत फ्रांसिस
का हो और वह
कहे संत फ्रांसिस
जेवियर —तो बस
बात खतम।
लेकिन
निर्णय लेना
ही पड़ता है।
निर्णय के
द्वारा ही
आत्मा का जन्म
होता है निर्णय
लेने के
माध्यम से ही
तुम पूर्ण
होते हो।
निर्णय
लो—चाहे
निर्णय
तुम्हारा कुछ
भी हो।
अनिश्चिय की
हालत में
डांवाडोल मत
बने रहो। अगर
तुम अनिश्चय
की हालत में
डांवाडोल
स्थिति में
रहते हो तो
तुम हमेशा
द्वंद्व में
रहोगे। तुम
एकसाथ एक ही
समय में दोनों
ओर बढ़ते रहोगे
—क्योंकि बिना
निर्णय के भी
जीना तो पड़ता
ही है। फिर
तुम्हारा
पचास प्रतिशत
मन उत्तर की
ओर जाएगा, और पचास
प्रतिशत
दक्षिण की ओर
जाएगा। और तब
सिवाय दुख, पीड़ा, व्यथा,
संताप और
परेशानी के
कुछ भी हाथ
नहीं आता है।
एक
आदमी तेजी से
इनकम टैक्स के
ऑफिस में घुसा
और मैनेजर का
गिरेबान
पकड़कर बोला, 'सुनो, मैं बहुत
घबराया हुआ
हूं। मेरी
पत्नी कहीं खो
गयी है।’
अधिकारी
ने कहा, 'क्या सचमुच
वह खो गयी है।
यह तो बहुत ही
बुरा हुआ, लेकिन
यह तो इनकम
टैक्स आफिस है।
आपको तो पुलिस
को खबर करनी
चाहिए।’
इस पर
वह आदमी गंभीर
मुद्रा में
अपना सिर हिलाते
हुए बोला, 'यह तो
मैं जानता हूं।
लेकिन अब मैं
फिर से धोखा
खाने वाला
नहीं हूं।
पिछली बार जब
मेरी पत्नी खो
गयी थी, तो
मैं पुलिस के
पास ही गया था
और पुलिस ने
उसे खोज निकाला
था।’
फिर
इनकम टैक्स
आफिस में भी
खबर करने के
लिए क्यों
जाना? लेकिन
मन का एक
हिस्सा कहता
है कि पत्नी
खो गयी है, तो
पति को कुछ तो
करना ही चाहिए;
कुछ न कुछ
तो करना चाहिए।
और मन का
दूसरा हिस्सा
प्रसन्नता
अनुभव करता है
और कहता है, ' अच्छा हुआ
कि पत्नी खो
गयी। पुलिस—स्टेशन
मत जाओ, कौन
जाने, वे
फिर से पत्नी
को खोज लें।’
जीवन
इसी तरह चलता
जाता है —आधा—
आधा, और
फिर तुम अपने
ही मन के कारण
खंड —खंड हो
जाते हो। एक
पति की, एक
इज्जतदार पति
की अगर पत्नी
खो जाए, तो
कुछ तो करना
ही होता है, और उसके
भीतर का आदमी
जो कि पत्नी
से मुक्ति चाहता
है, वह कुछ
और ही करना
चाहता है। वह
भीतर ही भीतर
प्रसन्न होता
है कि चलो
अच्छा हुआ
पत्नी चली गयी।
पति ऊपर से तो
दुखी दिखाई
देता है, या
दुखी होने का
दिखावा करता
है —ऊपर से तो
अपने को दुखी दिखाता
है और डरता भी
है कि कहीं
लोगों को पता न
चल जाए कि वह
भीतर से खूब
प्रसन्न है।
और ऐसा ठीक
नहीं है, क्योंकि
अगर लोगों को
यह मालूम हो
गया कि पति प्रसन्न
है, तो यह
तो अहंकार के
सम्मान को तोड़
देने वाली बात
होगी।
तो पति
को दिखाने के
लिए कुछ न कुछ
करना पड़ता है।
वह पुलिस—स्टेशन
नहीं जाना
चाहता है, तो वह
किसी दूसरी
जगह चला जाता
है, इनकम
टैक्स आफिस
चला जाता है।
अपने
जीवन का
निरीक्षण करो।
और अपने जीवन
को इस तरह से
व्यर्थ ही
नष्ट मत कर
देना। जीवन
में निर्णय
लेना
अनिवार्य है।
हर क्षण, हर पल जीवन
में व्यक्ति
को निर्णय
लेना ही पड़ता
है। जो क्षण
बिना निर्णय
के खो जाता है,
तुम्हारे
भीतर एक खंडित
स्थिति का
निर्माण कर
देता है, तुमको
भीतर से तोड़
देता है। अगर
हर क्षण
तुम्हारे
स्वयं के
निर्णय से आता
हो तो धीरे —
धीरे तुम एक
हो जाते हो, अखंड हो
जाते हो, तुम
बंटे —बंटे
नहीं रहते।
फिर एक घड़ी
ऐसी आती है जब
तुम पूर्ण हो
जाते हो।
निर्णय लेना
कोई खास बात
नहीं है बात
है तुम्हारी
दृढ़ता की। और
निर्णय लेने
की क्षमता के
माध्यम से तुम
दृढ़ और
संकल्पवान हो
जाते हो।
एक बार
ऐसा हुआ:
एक
युवा स्त्री
घबराई हुई दांत
के डाक्टर के
पास गई और
उसके वेटिंग—रूम
में जाकर बैठ
गई। उसके साथ
एक तीन महीने
का बच्चा भी
था, उस
बच्चे को
सम्हालने के
लिए उसकी बहन
उसके साथ थी।
जल्दी ही उसका
नंबर आ गया।
जैसे
ही वह कुर्सी
पर बैठी, उसने घबराकर
डाक्टर से कहा,
'मुझे नहीं
मालूम कि
ज्यादा मुसीबत
की बात कौन सी
है—दांत
निकलवाना या
बच्चा पैदा
करना।’'
दांत
के डाक्टर ने
कहा, 'ठीक
है, कृपया
जल्दी से अपना
निर्णय ले लें।
मेरे यहां और
भी बहुत से
लोग
प्रतीक्षा कर
रहे हैं।’
और ऐसा
ही मैं निशा
से भी कहना
चाहूंगा। वह
यहां रहती है, पर हमेशा डांवाडोल
स्थिति में ही
रहती है। यहां
रहना है तो
पहले निर्णय
लो। इस भांति
डांवाडोल
स्थिति में
रहना ठीक नहीं
है। यहां रहो
या कहीं और
रहो, लेकिन
जहां भी रहो
समग्र होकर
रहो। अगर तुम
यहां रहना
चाहती हो तो
यहां पर रहो, लेकिन फिर
समग्ररूपेण
यहां पर रहो।
तब यही
तुम्हारा
संपूर्ण संसार
बन जाए और यह
क्षण
तुम्हारे लिए
समग्र और शाश्वत
हो जाए। या
फिर यहां पर
मत रहो, यहां
से चली जाओ, लेकिन इस
तरह डांवाडोल
स्थिति में मत
रहो। कहीं और
रहना चाहती हो,
वहां रहो, यह भी अच्छा
है। तो फिर
पूर्णरूप से
वहीं रहो।
सवाल
यह नहीं है कि
तुम कहां हो।
सवाल यह है कि
क्या तुम
पूरिपूर्ण
रूप से वहां
उपस्थित हो, जहां तुम
रहते हो? बेटे
हुए, विभक्त
मन के साथ मत
रहो। सभी
दिशाओं में
एकसाथ मत दौड़ो,
वरना तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे।
समर्पण
कर देना ही
निर्णय है, सबसे बड़ा
निर्णय है।
किसी पर
श्रद्धा करना
भी स्वयं में
एक निर्णय है।
हालांकि
उसमें जोखिम
है। कौन जाने?
हो सकता है
वह आदमी सिर्फ
धोखा ही दे
रहा हो। जब हम
किसी स्त्री
के प्रेम में
पड़ते हैं, तो
केवल श्रद्धा
और विश्वास ही
कर सकते हैं।
स्त्री पुरुष
के प्रेम में
पड़ती है, तो
केवल श्रद्धा
और विश्वास ही
करती है। किसे
पता है, कौन
जानता है? कौन
जाने रात्रि
में पुरुष
हत्या ही कर
दे। कौन जानता
है? कौन
जाने पत्नी
तुम्हारा
सारा बैंक—बैलेंस
लेकर ही भाग
जाए। लेकिन
फिर भी
व्यक्ति
जोखिम उठाता
है, नहीं
तो प्रेम संभव
ही नहीं है।
हिटलर
कभी भी किसी
स्त्री को
अपने कमरे में
नहीं सोने
देता था। यहां
तक कि उसकी
गर्ल —फ्रेंड्स
को भी अनुमति
नहीं थी रात
को हिटलर के
कमरे में सोने
की। वह उनसे
दिन में मिलता
था। लेकिन रात
को कमरे में
वह उनसे कभी
भी नहीं मिलता
था। क्योंकि
वह इतना अधिक
भयभीत था। कौन
जाने? कोई
स्त्री रात को
उसे जहर ही दे
दे, रात
उसका गला ही
दबा दे।
थोड़ा
सोचो ऐसे
व्यक्ति की
तकलीफ। वह
स्त्री पर भी
विश्वास नहीं
कर सकता था।
उसने किस तरह
का जीवन
गुजारा होगा—नर्क
जैसा जीवन। न
ही केवल वह
स्वयं नर्क
में जीया, जो लोग भी
उसके आसपास थे
वे भी नर्क
में ही जीए।
ऐसा
कहा जाता है
कि एक बार वह
अपने मकान की
सातवीं मंजिल
पर बैठे हुए
किसी ब्रिटिश
कूटनीतिज्ञ
से बातें कर
रहा था। और वह
ब्रिटिश
सरकार के दूत
पर ऐसा प्रभाव
जमाने की
कोशिश कर रहा
था कि उसका
विरोध और सामना
करने का
प्रयत्न व
प्रयास करना
व्यर्थ है।
इसलिए अच्छा
है कि समर्पण
कर दो। और
हिटलर उससे
कहने लगा, 'हम तो
सारी दुनिया
जीत ही लेंगे।
कोई भी हमें
जीतने से नहीं
रोक सकता है।’
वहां पास
में ही एक
सिपाही खड़ा
हुआ था। केवल
उस ब्रिटिश
राजदूत को
प्रभावित
करने के लिए
उसने उस
सिपाही से कहा,
'खिडकी से
कूद जाओ!' सिपाही
ने सातवीं
मंजिल की उस
खिड़की से
छलांग लगा दी।
ब्रिटिश
राजदूत को तो
भरोसा ही नहीं
आया। यहां तक
कि वह सिपाही
जरा
हिचकिचाया भी
नहीं। और फिर
उसने दूसरे
सिपाही से कहा,
'कूद जाओ!' और वह दूसरा
सिपाही भी कूद
पड़ा। अब तो उस
ब्रिटिश
राजदूत की समझ
के बाहर हो गया।
तभी हिटलर
अपनी बात को
ठीक से सिद्ध
करने के लिए
और उसके ऊपर
अपना प्रभाव
दिखाने के लिए
तीसरे सिपाही
से बोला, 'कूद
जाओ!'
लेकिन
अब तक ब्रिटिश
राजदूत बहुत
घबरा चुका था, और चकित
भी था। उस
ब्रिटिश
राजदूत ने
जाकर उस तीसरे
सिपाही को, जो कि कूदने
ही वाला था, पकड़ लिया और
कहा, 'ठहरो!
तुम्हारी
आत्महत्या
करने के लिए इतनी
तैयारी कैसे
है? क्या
तुम्हें अपनी
जिंदगी खोने
में जरा भी हिचकिचाहट
नहीं है?' वह
सिपाही बोला,
'मुझे छोड़
दें! आप इसे
जिंदगी कहते
हैं?' और
इतना कहकर वह
भी कूद गया।
हिटलर
स्वयं तो नर्क
में ही जीता
था और उसने दूसरों
के लिए भी
नर्क निर्मित
कर रखा था— 'क्या आप
इसे जिंदगी
कहते हैं?'
जीवन
में अगर प्रेम
न हो, तो
जीवन में फिर
किसी बात की
कोई संभावना
ही नहीं होती
है। जीवन की
गहराई का अर्थ
है प्रेम, और
प्रेम की
गहराई का अर्थ
है जीवन। और
प्रेम
श्रद्धा है
विश्वास है, जोखिम है।
मेरे
निकट होने का
अर्थ है, अत्यधिक
प्रेम में
होना।
क्योंकि मेरे
निकट होने का
यही एकमात्र
ढंग है। मैं
यहां किन्हीं सिद्धांतो
और शिक्षाओं
के प्रचार के
लिए नहीं हूं।
मैं कोई
शिक्षक नहीं
हूं। मैं तो
जीवन जीने के
लिए एक अलग ही
दृष्टि का सूत्रपात
कर रहा हूं।
और यह जोखिम
भरा काम है।
मैं यह बताने
का प्रयास कर
रहा हूं कि
जिस ढंग से
तुम आज तक जीए
हो, वह गलत
है। जीवन जीने
का एक ढंग और
भी है —निस्संदेह
वह दूसरा ढंग
अपरिचित है, भविष्य के
गर्भ में छिपा
हुआ है। तुमने
कभी उसका
स्वाद नहीं
लिया है।
तुमको मेरे
ऊपर श्रद्धा
और भरोसा करना
ही होगा, तुमको
मेरे साथ अंधकार
में भी चलना
होगा। और इन
सब बातों के
साथ भय भी
पकड़ेगा, खतरा
भी होगा। और
यह बहुत ही
पीड़ादायी भी
होगा—यही तो
है विकास की
पूरी की पूरी
प्रक्रिया—लेकिन
उस पीड़ा से
गुजरकर ही कोई
आनंद की अवस्था
तक पहुंच सकता
है। केवल पीडा
से गुजरकर ही
आनंद को पाया
जा सकता है।
अंतिम
प्रश्न:
ध्यान
के दौरान मैं
आपकी शून्यता
को पुकारता हूं
ताकि वह
मुझमें उतर
जाए। और मुझे
लगता है कि
धीरे— धीरे
आपकी शून्यता
मेरे रोएं—
रोएं में समा
जाती है।
क्या
इस विधि के
द्वारा मैं
आपके समग्र
अस्तित्व को
आत्मसात कर
सकता हूं? क्या मैं
आपकी समग्रता
को अपने में
संपूर्णतया
उतार सकता हूं?
कृपया
आप मुझे अपने
आशीष दें। ( चाहें
तो आप शब्दों
में उत्तर न
भी दें।)
मैं
कभी भी केवल
शाब्दिक
उत्तर नहीं
देता हूं। जब
कभी मैं उत्तर
देता हूं तो
वह उत्तर द्वि
— आयामी होता
है। वह एकसाथ
दो धरातलों पर
चलता है। एक
तो शाब्दिक
आयाम वह उनके
लिए होता है
जो किसी दूसरे
आयाम को समझ
नहीं सकते हैं
—वह बहरे, अंधे और जड़
लोगों के लिए
होता है। फिर
उसके साथ ही
एक दूसरा आयाम
भी है, जो
शब्दों का
संप्रेषण
नहीं है, जो
मौन का
संप्रेषण है
वह उन लोगों
के लिए है जो
सुन सकते हैं,
जो देख सकते
हैं, जो
जीवंत हैं।
और तुम
मेरे आशीषों
की माग कभी मत
करना, क्योंकि
वे तो हमेशा
बरस ही रहे
हैं, चाहे
तुम उन्हें
मांगों या न
मांगो। चाहे
तुम मेरे साथ
सहयोग करो या
नहीं, चाहे
तुम मेरे पक्ष
में रहो या
विपक्ष में, इससे मेरे
आशीषों में
कोई अंतर नहीं
पड़ता। मेरे
आशीष कोई मेरा
कृत्य नहीं है।
वह तो बस
श्वास की
भांति हैं, जैसे श्वास
हमेशा चलती
रहती है, ऐसे
ही मेरे आशीष
हमेशा बरसते
रहते हैं। अगर
तुम अनुभव कर
सको, तो
तुम सदा
उन्हें पाओगे।
मैं यहां पर
तुम्हारे बीच
अपने आशीष के
रूप में ही
विद्यमान हूं।
और
तुम्हारा ठीक
विधि से
साक्षात्कार
हो गया है.
'ध्यान
के दौरान मैं
आपकी शून्यता
को पुकारता रहता
हूं ताकि वह
मुझमें उतर
जाए और मुझे
लगता है कि
धीरे — धीरे
आपकी शून्यता
मेरे रोएं —रोएं
में समा जाती
है। क्या इस
विधि के
द्वारा मैं
आपके समग्र
अस्तित्व को
आत्मसात कर
सकता हूं?'
हां, पूरी तरह
से आत्मसात कर
सकते हो। इसी
भांति चलते
चलो। बस भयभीत
मत होना, क्योंकि
देर — अबेर जब
शून्यता
तुम्हें
घेरेगी तो
तुमको भय लगेगा—क्योंकि
शून्यता का
अर्थ होता है
मृत्यु।
शून्यता का
अर्थ है
तिरोहित हो
जाना, खो
जाना। और इससे
पहले कि
तुम्हारी वास्तविकता
तुम्हारे
सामने प्रकट
हो, तुम्हें
पूरी तरह
अनुपस्थित हो
जाना होगा।
इससे पहले कि
तुम अपनी
वास्तविकता
को अनुभव कर
सको, तुम्हें
अपना होना
मिटाना होगा।
इससे पहले कि
तुम अपने
अस्तित्व की
परिपूर्णता
को अनुभव कर
सको, तुम्हें
बिलकुल खाली
हो जाना होगा।
उन दोनों के
बीच में एक
अंतराल आता है—जब
तुम पूरी तरह
से खाली हो
जाते हो, रिक्त
हो जाते हो, शून्य हो
जाते हो। वहां
पर एक छोटा सा
अंतराल आता है,
और वही
अंतराल
मृत्यु जैसा
होता है। तुम
तो जा चुके
होते हो और
परमात्मा अभी
आया नहीं होता
है —एकदम
बारीक, एकदम
छोटा अंतराल
आता है। लेकिन
वही छोटा सा
अंतराल उस समय
अनंत जैसा मालूम
होता है।
किसी
अदालत में एक
कत्ल का
मुकदमा चल रहा
था। ज्यूरी के
लोग और
न्यायाधीश
यही फैसला
देने वाले थे
कि वह आदमी निर्दोष
है, क्योंकि
ऐसे
विश्वसनीय
गवाह मौजूद थे
जो कह रहे थे
कि वह आदमी
केवल तीन मिनट
के लिए बाहर
गया था और फिर
शीघ्र ही वह
वापस लौट आया
था। केवल तीन
मिनट के लिए
ही वह उनके
साथ नहीं था, और तीन मिनट
में कोई किसी
का कत्ल कर
सकता है, यह
बात जरा
अविश्वसनीय
ही लगती है।
इस पर
वहां पर
उपस्थित
विरोधी पक्ष
के वकील ने
कहा, 'मुझे
एक प्रयोग करने
दें।’ उसने
अपनी जेब —घड़ी
बाहर निकाली
और वह बोला, ' अब, प्रत्येक
व्यक्ति अपनी आंखें
बंद कर ले और
चुप हो जाए।
तीन मिनट के
बाद मैं आपको
संकेत दूंगा
कि तीन मिनट
पूरे हो गए
हैं।’
सभी
लोग चुप रहे।
अगर
तुम तीन मिनट
तक चुप रह सको, तो तीन
मिनट लंबा समय
है, बहुत
लंबा, वे
तीन मिनट
अंतहीन जैसे
मालूम होते
हैं। वे तीन
मिनट समाप्त
होते मालूम
नहीं होते हैं।
क्या कभी तुम
मौन खड़े हुए
हो? कभी
कोई मर जाता
है, कोई
राजनेता या
कोई अन्य
व्यक्ति और
तुम्हें एक
मिनट के लिए
मौन खड़े रहना
पड़ता है। तो
वह एक मिनट
इतना लंबा
मालूम होता है
कि ऐसा लगता
है कि इस
राजनेता को
मरना ही नहीं
था।
तीन
मिनट.. और तीन
मिनट समाप्त
होने के बाद
वह वकील बोला, 'मुझे अब
कुछ और नहीं
कहना है।’ और
ज्यूरी के
लोगों ने
फैसला दिया कि
इस आदमी ने ही कत्ल
किया है।
उन्होंने
अपनी राय को
बदल दिया। तीन
मिनट इतना लंबा
समय होता है।
जब कभी
तुम मौन होगे, तो मौन का
एक क्षण भी
बहुत लंबा
मालूम होगा।
और जब तुम
रहोगे ही नहीं,
तुम
अनुपस्थित
होगे, उसकी
तो कल्पना
करना ही असंभव
है. : अंतराल
चाहे एक ही
क्षण का क्यों
न हो, तो भी
वह शाश्वत
क्षण की भांति
प्रतीत होता
है। उस समय
व्यक्ति बहुत
भयभीत हो जाता
है। और उस भय
के कारण ही
व्यक्ति अतीत
को पकड़ने के
लिए वापस लौट
जाना चाहता है।
जल्दी
ही ऐसा भय
लगेगा। उस समय
ध्यान रखना, भयभीत मत
होना। पीछे मत
लौटना, अपनी
राह से हट मत
जाना, आगे
बढ़ना। मृत्यु
को स्वीकार कर
लेना, क्योंकि
केवल मृत्यु
के माध्यम से
ही जीवन का
आनंद है। केवल
मृत्यु के
माध्यम से ही
शाश्वतता
उपलब्ध हो
सकती है। वह
शाश्वतता सदा
से तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रही है। वह
शाश्वतता तुम
से बाहर नहीं
है, वह
तुम्हारे
अस्तित्व का
वास्तविक
केंद्र है।
लेकिन
तुम्हारा
तादात्म्य
नश्वर के साथ,
शरीर के साथ,
मन के साथ
है। ये सभी
क्षणिक और
बदलने वाले
हैं।
तुम्हारे
भीतर ही शुद्ध
चेतना
विद्यमान है —जो
अछूती है, और
क्यारी है।
वही शुद्ध
चेतना
तुम्हारा
वास्तविक
स्वभाव है।
योग का—
संपूर्ण
प्रयास
अस्तित्व के
उसी शुद्ध
स्वरूप तक, कुंआरेपन
तक पहुंचने का
है —उसी कुंआरेपन
से जीसस का
जन्म हुआ है।
एक बार अगर
तुम अपने उस
कुंआरेपन को
छू लो, तो
तुम्हारा नया
जन्म हो जाता
है, तुम्हारा
पुनर्जन्म हो
जाता है।
मुझे
तुम्हारी
मृत्यु बन
जाने दो, ताकि तुम
फिर से जन्म
ले सको।
सदगुरु
मृत्यु भी है
और जीवन भी, सूली भी है
और पुनर्जीवन
भी।
तुम्हारे
हाथ एकदम ठीक
विधि लग गई है, अब आगे
बढ़ो। उस
शून्यता को, उस रिक्तता
को अधिकाधिक
आत्मसात करते
जाओ, और
भीतर से खाली
और रिक्त हो
जाओ। शीघ्र ही
सब बदल जाएगा—
अंत में
शून्यता भी, रिक्तता भी
विलीन हो
जाएगी। पहले
दूसरी बातें
विलीन होती
हैं और भीतर
शून्यता
एकत्रित होती
जाती है, और
फिर जब
शून्यता
समग्र हो जाती
है तब वह भी विलीन
हो जाती है।
बुद्ध
अपने शिष्यों
से इस घटना के
बारे में कहा
करते थे कि यह
ऐसे ही है
जैसे रात तुम
दीया जलाते हो।
सारी रात दीया
जलता रहता है।
अग्नि की ली
दीए को, दीए की
बत्ती को जलाए
रखती है। लौ
उस दीपक को
प्रज्वलित
किए रहती है।
दीए की बत्ती
धीरे — धीरे
जलती जाती है,
और अंत में
पूरी तरह जलकर
राख हो जाती
है। सुबह होने
तक वह दीए की
बाती पूरी तरह
से जलकर राख
हो चुकी होती
है। अंतिम
क्षण में, जब
बत्ती जलकर
राख होने वाली
होती है, उस
समय दीए की लौ
भभककर जलती है
और फिर विलीन
हो जाती है।
पहले वह दीए
की बाती को
मिटाती है, फिर वह
स्वयं भी मिट
जाती है।
इसी
तरह. अगर तुम
शून्यता को, रिक्तता
को, खालीपन
को, अहंकार—शून्यता
को आत्मसात
करने का
प्रयत्न करते
हो, तो यह
शून्यता पहले
अन्य सभी कुछ
को मिटा देगी।
वह आग की लपट
की भाति सभी
को जलाकर राख
कर देगी। जब
सब कुछ मिट
जाता है और
तुम पूरी तरह
से खाली हो
जाते हो; तब
लौ की अंतिम
छलांग—और तब
शून्यता भी
विलीन हो जाती
है। और तब
पूर्ण रूप से
संतुष्ट, परिपूर्ण
होकर तुम वापस
घर लौट आते हो।
यही वह
घड़ी है जब
मनुष्य
परमात्मा हो
जाता है।
आज
इतना ही।
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