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शनिवार, 3 जनवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--3) प्रवचन--49

योग का दूसरा चरण: अंतस शोधन(प्रवचननौवां)


दिनांंक  9 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
योग—सूत्र (साधनापाद)  



शौचसंतोषतप: स्‍वाध्‍यायेश्‍वरप्रणिधानानि नियमा:।। 32।।

शुद्धता, संतोष, तप, स्‍वाध्‍याय और ईश्‍वर के प्रति समर्पण—

ये नियम पूरे करने होते है।

वितर्कबाधने प्रतिपक्षभानम्।। 33।।

जब मन अशांत हो असद् विचारों से, तो मनन करना विपरीत विचारों पर।

वितर्क हिंसादय: कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका

मृदुमध्‍याधिमात्रा दुःख ज्ञानानन्‍तफला इति प्रतिपक्षभावनम्।। 34।।

विपरीत विचारों पर मनन करना आवश्‍यकत है क्‍योंकि हिंसा आदि विचार, भाव और कर्म—अज्ञान एवं तीव्र दुःख में फलित होते है—फिर वे अल्‍प, मध्‍यम या तीव्र मात्राओं के लोभ, क्रोध या मोह द्वारा स्‍वयं किए हुए, दूसरों से करवाए हुए या अनुमोदन किए हुए क्‍यों न हो।




नियम ही नियम हैं : मनुष्य को दमित करने के नियम, उसके विकास में सहायता देने के नियम; निषेध के, प्रतिबंध के नियम और उसके विकसित होने में, बढ़ने में सहायता देने के नियम। वह नियम जो केवल निषेध करता है, विध्वंसात्मक होता है; वह नियम जो विकसित होने और बढ़ने में सहायता देता है, सृजनात्मक होता है। ओल्ड टेस्टामेंट के टेन कमांडमेंट्स पतंजलि के नियमों से बिलकुल अलग हैं। वे निषेध करते हैं, प्रतिबंध लगाते हैं, दमन करते हैं। सारा जोर इस पर है कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम्हें वैसा नहीं करना चाहिए, इसकी आशा नहीं है। पतंजलि के नियम बिलकुल अलग हैं; वे सृजनात्मक हैं। जोर इस पर नहीं है कि क्या नहीं करना चाहिए, जोर इस पर है कि क्या करना चाहिए। और बहुत अंतर है दोनों में।

ओल्ड टेस्टामेंट में तो ऐसा लगता है जैसे कि नियम ही लक्ष्य हैं—जैसे कि मनुष्य उनके लिए है, न कि वे मनुष्य के लिए हैं। पतंजलि के लिए नियमों की उपयोगिता है, लेकिन वे किसी भी ढंग से, किसी भी दृष्टिकोण से अंतिम और परम नहीं हैं। मनुष्य नहीं है उनके लिए; वे हैं मनुष्य के लिए। वे साधन हैं, द्वार हैं, और उनका उपयोग कर लेना है—और उनके पार चले जाना है। इस बात को ध्यान में रखना है; अन्यथा तुम पतंजलि के विषय में गलत धारणा बना सकते हो।

साधारणतया तो धर्म बहुत विध्वंसात्मक रहे हैं। उन्होंने सारी मनुष्य—जाति को पंगु बना दिया है। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को अपराधी बना दिया है—और यही सब से बड़ा अपराध है जो मनुष्य के विरुद्ध किया जा सकता है। और कुल तरकीब यह है : पहले तुम लोगों को अपराधी बना दो, जब वे करा रहे हों, अपराध से भयभीत हों, डर गए हों, बोझिल हों, नरक में जी रहे हों, तब तुम उनकी सहायता करो उसमें से बाहर आने में, तब तुम पहुंच जाओ और उन्हें सिखाओं कि कैसे मुक्त होना है। लेकिन पहली तो बात कि अपराध— भाव ही क्यों निर्मित करना? और जब मनुष्य अपराध— भाव में धिरा होता है तो बहुत पंगु हो जाता है और बढ़ने और विकसित होने से इतना भयभीत हो जाता है, अज्ञात और अपरिचित और अनजान में जाने से इतना भयभीत हो जाता है कि वह बिलकुल बंद हो जाता है, मुर्दा हो जाता है; फिर बहुत से लोग आ जाते हैं उसकी मुक्ति में मदद करने के लिए।

पतंजलि तुम्हें कभी किसी चीज के बारे में कोई अपराध— भाव नहीं देते। इस अर्थों में वे धार्मिक होने की अपेक्षा वैज्ञानिक अधिक हैं, धर्मगुरु होने की अपेक्षा मनस्विद अधिक हैं। वे कोई उपदेशक नहीं है। जो कुछ भी वे कह रहे हैं, वे बस तुम्हें एक नक्शा दे रहे हैं कि विकसित कैसे हुआ जा सकता है; और यदि तुम विकसित होना चाहते हो तो तुम्हें अनुशासन की जरूरत है। लेकिन अनुशासन बाहर से आरोपित नहीं होना चाहिए; अन्यथा यह अपराध— भाव निर्मित कर देता है। अनुशासन तो भीतरी समझ से आना चाहिए, तब वह सुंदर होता है। और अंतर बहुत सूक्ष्म है। तुम्हें कहा जा सकता है कुछ करने के लिए, और फिर तुम करते हो वैसा, लेकिन तुम उसे गुलाम की भांति करते हो। लेकिन तुम्हें कोई बात समझाई जाती है और समझ से तुम करते हो उसे, फिर तुम उसे मालिक की भांति करते हो। जब तुम मालिक होते हो, तब तुम सुंदर होते हो; जब तुम गुलाम होते हो, तब तुम असुंदर हो जाते हो।

मैंने एक पुराना यहूदी मजाक सुना है। एक जुम्बाक नाम का दर्जी था। एक आदमी आया उसके पास। उसका सूट सिल कर तैयार था और वह उसे लेने आया था, किंतु उस आदमी ने देखा कि सूट की एक बांह लंबी थी, एक छोटी थी। जुम्बाक दर्जी ने कहा, 'तो क्या हुआ? तुम क्यों इतना झगड़ा खड़ा कर रहे हो? देखो तो कितना खूबसूरत सिला है। और इतनी छोटी सी खराबी के लिए तुम इतना झगड़ा कर रहे हो! तुम अपनी बांह थोड़ी भीतर खींच सकते हो, और तब आस्तीन बिलकुल ठीक आएगी।तो उस आदमी ने कोशिश की; लेकिन जब उसने अपनी बांह को भीतर खींचा तो उसे लगा कि पीठ पर बहुत सलवटें हो गई हैं। उसने कहा, 'अब पीठ पर बहुत सलवटें हैं!' उस जुम्बाक दर्जी ने कहा, 'तो क्या हुआ? तुम थोड़ा झुक सकते हो, लेकिन यह बेहतरीन सिला है और मैं इसे बदलने वाला नहीं। यह कितना सुंदर लगता है।

तो वह आदमी कुबड़े की भांति झुका हुआ बाहर आया। जब वह घर जा रहा था तो बहुत कठिन था चलना, क्योंकि एक हाथ भीतर खींचे रखना था, और फिर उसे झुके रहना था जिससे कि सूट सुंदर बना रहे। आदमी तो बिलकुल भुला ही दिया गया, कोट ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। रास्ते में उसे कोई व्यक्ति मिला और उसने कहा, 'ऐसा सुंदर सूट! मैं शर्त लगा सकता हूं कि इसे जरूर जुम्बाक दर्जी ने सिया होगा।

पहले आदमी को बहुत आश्चर्य हुआ उसने कहा, 'तुम्हें कैसे पता चला?'

उस आदमी ने कहा, 'मुझे कैसे पता चला? केवल उस जैसा दर्जी ही तुम जैसे अपंग के लिए ऐसा सुंदर कोट सिल सकता है!'

यही सभी धर्मों द्वारा सारी मनुष्य—जाति के साथ किया गया है। उन्होंने सुंदर नियम बनाए हैं तुम्हारे लिए। वे कहते हैं कि यदि तुम्हें थोड़ा कुबड़ा होना पड़े तो क्या हर्ज है? बिलकुल ठीक। तुम बड़े सुंदर लगते हो। तुम्हें चलना है नियम के अनुसार और उसे पूरा करना है। तुम नहीं हो साध्य; नियम है साध्य। यदि तुम अपंग हो जाते हो तो ठीक, यदि तुम कुबड़े हो जाते हो तो ठीक, यदि तुम बीमार हो जाते हो तो ठीक—लेकिन नियम तो पूरा करना ही होगा!

पतंजलि तुम्हें उस तरह के नियम नहीं दे रहे हैं, नहीं। वे बेहतर समझते हैं। वे सारी स्थिति को समझते हैं। नियम हैं तुम्हें सहायता देने के लिए। वे ठीक उस ढांचे की भांति हैं जो इमारत बनाने के पहले चारों तरफ बनाया जाता है। नई इमारत के बनने में वह सहायता देता है, लेकिन जब इमारत तैयार हो जाती है तो ढांचे को हटा देना पड़ता है। वह एक .निश्चित उद्देश्य के लिए था, वही मंजिल न था। ये सारे नियम एक निश्चित उद्देश्य के लिए हैं, वे विकसित होने में तुम्हारी सहायता करते हैं।

पहला था 'यम', आत्म— अनुशासन। तुमने ध्यान दिया होगा—पांच व्रत, अहिंसा, सत्य आदि, उनकी अपनी एक विशेषता है कि तुम उनका अभ्यास केवल समाज में रह कर ही कर सकते हो। यदि तुम जंगल में अकेले हो, तो तुम उनका अभ्यास नहीं कर सकते; तब कोई आवश्यकता नहीं रह जाती और न ही कोई अवसर होता है। तुम्हें तब सच्चा रहना होता है, जब कोई दूसरा मौजूद होता है। जब तुम अकेले हो हिमालय की चोटी पर तो सत्य का कोई प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि तुम क्या झूठ बोलोगे—किससे बोलोगे? अवसर ही नहीं है।

तो यम तुम्हारे और दूसरों के बीच एक सेतु है, और वह है पहली बात : कि तुम्हें दूसरों के साथ अपने संबंधों को व्यवस्थित कर लेना चाहिए। यदि तुम्हारे और दूसरों के बीच के संबंध सुलझे हुए नहीं हैं, तो वे निरंतर परेशानी खड़ी करते रहेंगे। दूसरों के साथ के सारे हिसाब—किताब सुलझा लो, यही अर्थ है पहले व्रत 'यम' का। यदि तुम लोगों के साथ संघर्ष में हो, तो तनाव होगा, चिंता पकड़ेगी; तुम्हारे स्वप्नों में भी यह बात दुख—स्वप्न बन जाएगी। यह छाया की भांति तुम्हारा पीछा करेगी। खाते हुए, सोते हुए, ध्यान करते हुए—क्रोध बना रहेगा, हिंसा मौजूद रहेगी। वह हर बात को विकृत कर देगी। वह हर चीज को नष्ट कर देगी। तुम शांति से, चैन से नहीं रह सकते।

इसलिए पतंजलि कहते हैं, पहले तुम 'यम' के द्वारा लोगों के साथ व्यवस्थित और निर्भार हो जाओ। झूठे मत होओ, आक्रामक मत होओ, मालकियत मत जमाओ, ताकि तुम्हारे और दूसरों के बीच कोई संघर्ष न रहे—एक संवाद हो। यह तुम्हारे अस्तित्व का पहला वर्तुल है—तुम्हारी परिधि, जहां तुम दूसरों की परिधियों को स्पर्श करते हो। इसे शात होना चाहिए, ताकि समग्र के साथ तुम्हारे संबंध मैत्रीपूर्ण हों। केवल उस गहन मैत्री में ही विकास संभव है। अन्यथा बाहर की चिंताएं बहुत ज्यादा घेरे रहेंगी। वे तुम्हारा ध्यान आकर्षित करेंगी और तुम्हारा चित्त विचलित करेंगी और उसमें बहुत ऊर्जा खोएगी। और वे तुम्हें चैन न लेने देंगी और स्वात में न होने देंगी। यदि तुम दूसरों के साथ शांति से नहीं रह सकते तो अपने साथ भी शांति से नहीं रह सकते। कैसे रह सकते हो?

तो पहली बात है : दूसरों के साथ शांतिपूर्ण होना, ताकि तुम स्वयं के साथ शात हो सकी। जब परिधि पर कोई लहरें नहीं होतीं, तो अचानक एक शांति, एक मौन उतर आता है तुम्हारे अंतस में। तो पहली बात है तुम्हारे और दूसरों के बीच संबंध।

फिर दूसरा चरण है—नियम। इसका दूसरों से कुछ लेना—देना नहीं है; वह तुमने कर लिया, अब तुम्हें अपने साथ कुछ करना है। यदि तुम हिमालय की गुफा में बैठे हो, तो पहली बात संभव न होगी क्योंकि दूसरे वहां मौजूद न होंगे। लेकिन तुम्हें वहां भी दूसरे चरण का अभ्यास करना होगा, क्योंकि वह समाज से संबंधित नहीं है—वह तुम्हारे स्वात से संबंधित है।यम' है तुम्हारे और दूसरों के बीच, 'नियम' है तुम्हारे और स्वयं के बीच।



 शुद्धता संतोष तप स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण— ये नियम पूरे करने होते हैं।



 प्रत्येक बात को गहराई से समझ लेना है। पहली बात है. शुद्धता, शौच। तुम संसार में हो शरीर के रूप में —सशरीर। यदि तुम्हारा शरीर बीमार हो तो तुम स्वस्थ कैसे हो सकते हो? यदि तुम्हारे शरीर में बहुत विष हैं तो वे तुम्हें मूर्च्छित करते हैं। यदि तुम्हारा शरीर बहुत अशुद्ध है, बहुत बोझिल है, तो तुम हलके नहीं हो सकते, तुम उड़ नहीं सकते। इसलिए अब तुम्हें अपने शरीर और उसकी शुद्धता के लिए कुछ करना होगा।

ऐसे भोजन हैं जो तुम्हें पृथ्वी से बांध देते हैं; ऐसे भोजन हैं जो तुम्हें आकाश की ओर उन्‍मुख कर देते हैं। जीने के ऐसे ढंग हैं जहां कि तुम गुरुत्वाकर्षण के बहुत प्रभाव में होते हो; जीने के ऐसे ढंग हैं जहां कि तुम गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर उठने के लिए उपलब्ध हो जाते हो।

दो नियम हैं : एक है गुरुत्वाकर्षण, दूसरा है ग्रेस, प्रसाद। गुरुत्वाकर्षण तुम्हें नीचे की ओर खींचता है, प्रसाद तुम्हें ऊपर की ओर खींचता है। विज्ञान केवल गुरुत्वाकर्षण को जानता है, योग प्रसाद को भी जानता है। और इस संबंध में योग विज्ञान की अपेक्षा ज्यादा वैज्ञानिक मालूम होता है, क्योंकि प्रत्येक नियम का विपरीत नियम होता है। यदि पृथ्वी तुम्हें नीचे खींचती है तो जरूर कोई चीज होगी जो तुम्हें ऊपर भी खींचती होगी; वरना तो पृथ्वी ने तुम्हें खींच लिया होता पूरी तरह ही—तुम्हें भीतर ही खींच लिया होता—तुम तिरोहित हो चुके होते। तुम जीते हो धरती के धरातल पर। इसका अर्थ है कि तुम्हें नीचे खींचने वाले नियम और तुम्हें ऊपर खींचने वाले नियम के बीच एक संतुलन है। अन्यथा तो तुम बहुत पहले विनष्ट हो चुके होते पृथ्वी द्वारा—तुम समा चुके होते पृथ्वी के गर्भ में और तिरोहित हो चुके होते। इस विपरीत नियम का नाम है 'प्रसाद।

तुमने कई बार अनुभव किया होगा कि बिना किसी कारण के किसी दिन सुबह अचानक तुम बहुत हलका अनुभव करते हो, जैसे कि तुम उड़ सकते हो। तुम चलते हो जमीन पर, लेकिन तुम्हारे पांव जमीन पर नहीं पड़ते—तुम ऐसे हलके हो जाते हो जैसे पंख। और किसी दिन तुम इतने भारी होते हो, ऐसे बोझिल, कि चल भी नहीं सकते। क्या होता है? तो तुम्हें अपनी पूरी जीवन—शैली का अध्ययन करना चाहिए। कोई चीज हलके होने में तुम्हारी मदद करती है, और कोई चीज तुम्हारे बोझिल होने में मदद करती है। वह सब जो तुम्हें बोझिल करता है अशुद्ध है, और वह सब जो तुम्हें हलका करता है शुद्ध है। शुद्धता निर्भार होती है, अशुद्धता भारी और बोझिल होती है। एक स्वस्थ व्यक्ति हलका और निर्भार अनुभव करता है; अस्वस्थ व्यक्ति बहुत ज्यादा बोझिल होता है पृथ्वी द्वारा; बहुत ज्यादा नीचे की ओर खिंचा रहता है। स्वस्थ व्यक्ति चलता नहीं, दौड़ता है। अस्वस्थ व्यक्ति यदि बैठा भी है तो वह बैठा हुआ नहीं होता, वह सो रहा होता है।

योग जानता है तीन शब्दों को, तीन गुणों को. सत्व, रजस, तमस। सत्य है शुद्धता; रजस है ऊर्जा, तमस है बोझ, अंधकार। जो भोजन तुम लेते हो उससे तुम्हारा शरीर बनता है, और एक अर्थों में, तुम बनते हो। यदि तुम मांस खाते हो, तो तुम ज्यादा बोझिल होओगे। यदि तुम केवल दूध और फलों पर जीते हो, तो तुम हलके रहोगे। क्या तुमने ध्यान दिया : कई बार जब तुम उपवास करते हो, तो तुम कितना निर्भार अनुभव करते हो, जैसे कि शरीर का सारा वजन खो गया हो! वजन करने वाली मशीन तो बताएगी तुम्हारा वजन, तो भी तुम उसको अनुभव नहीं करते। क्या होता है? शरीर के पास पचाने के लिए कुछ भी नहीं होता, शरीर दिन—प्रतिदिन के कार्यक्रम से मुक्त होता है। ऊर्जा बह रही होती है, ऊर्जा के पास कुछ होता नहीं करने के लिए——यह एक छुट्टी का दिन होता है शरीर के लिए। तुम शात अनुभव करते हो; तुम सुंदर अनुभव करते हो।

तो भोजन का ध्यान रखना है। भोजन कोई साधारण बात नहीं है। तुम्हें सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि जो तुमने अब तक खाया है उसी से तुम्हारा शरीर बना है। प्रतिदिन तुम इसे भोजन द्वारा निर्मित कर रहे हो। कम या ज्यादा भोजन लेने से या सम्यक भोजन लेने से भी बहुत अंतर पड़ता है। तुम अति भोजन करने वाले हो सकते हो—तुम बहुत ज्यादा खा सकते हो जिसकी कि कोई जरूरत नहीं है—तब तुम बहुत सुस्त, बहुत बोझिल हो जाओगे। तुम एकदम ठीक मात्रा ले सकते हो, तब तुम ज्यादा आनंदित अनुभव करोगे, बोझिल नहीं—ऊर्जा बह रही होती है, अवरुद्ध नहीं होती। और वह व्यक्ति जो भीतर के आकाश में उड़ान भरना चाहता है और जो प्रयास कर रहा है भीतर के केंद्र तक पहुंचने का, उसे निर्भार होने की जरूरत है, वरना यात्रा पूरी नहीं हो सकती। आलसी रह कर तुम उस आंतरिक केंद्र में प्रवेश नहीं कर पाओगे। कौन यात्रा करेगा उस आंतरिक केंद्र तक?

तो जो तुम खाते हो उसके प्रति सावधान रहो; जो तुम पीते हो उसके प्रति सावधान रहो। सावधान रहो कि कैसे तुम ध्यान रखते हो अपने शरीर का। छोटी—छोटी बातें महत्व रखती हैं। साधारण व्यक्ति के लिए वे कोई महत्व नहीं रखतीं क्योंकि वह कहीं जा नहीं रहा होता है। जब तुम अंतर्यात्रा पर निकलते हो, तो हर चीज महत्व रखती है। तुम प्रतिदिन स्नान करते हो या नहीं—यह बात भी महत्वपूर्ण है। साधारणतया यह कोई महत्व नहीं रखती। बाजार में, दुकान में यह बात कुछ खास महत्व नहीं रखती कि तुमने ठीक से स्नान किया है या नहीं। असल में यदि तुम रोज ठीक से स्नान करते हो, तो यह बात तुम्हारे व्यवसाय के लिए एक अड़चन होगी। तुम इतना हलका अनुभव कर सकते हो कि चालाक होना कठिन हो जाए; तुम इतना ताजा अनुभव कर सकते हो कि धोखा देना कठिन हो जाए; तुम इतना शुद्ध, निर्दोष अनुभव कर सकते हो कि शोषण करना शायद असंभव ही हो जाए।

तो अस्वच्छ रहना बाजार में तो मदद दे सकता है, किंतु मंदिर में नहीं। मंदिर में तुम्हें ताजा और स्वच्छ जाना होता है—ओस—कणों की भांति, फूलों की भांति। मंदिर में, जहां तुम अपने जूते छोड़ते हो, वहीं छोड़ देना सारे संसार को और उसके सारे बोझों को। उन्हें भीतर मत ले जाना।

स्नान सर्वाधिक सुंदर घटनाओं में से एक है—बडी सरल है। यदि तुम इसका आनंद लेने लगो, तो यह बात शरीर के लिए एक ध्यान बन जाती है। बस फव्वारे के नीचे बैठना और उसका आनंद लेना, कोई गीत गुनगुनाना—या कोई मंत्र गुनगुनाना—तब वह दुगुना जानदार हो जाता है। तुम फव्वारे के नीचे बैठे हो और 'ओम' का गुंजार कर रहे हो और पानी बरस रहा है तुम्हारे शरीर पर और 'ओम' बरस रहा है तुम्हारे मन में, तो तुम दोहरा स्नान कर रहे हो. शरीर शुद्ध हो रहा है पानी के द्वारा, वह संबंध रखता है भौतिक तत्वों के संसार से; और तुम्हारा मन शुद्ध हो रहा है ओम के मंत्र द्वारा। स्नान के बाद तुम स्वयं को प्रार्थना के लिए तैयार पाओगे—तुम प्रार्थना करना चाहोगे। इस स्नान और मंत्र—उच्चार के बाद तुम बिलकुल भिन्न अनुभव करोगे; तुम्हारे चारों ओर एक अलग गुणवत्ता और सुवास होगी।

तो शौच का अर्थ है. भोजन की शुद्धता, शरीर की शुद्धता, मन की शुद्धता—शुद्धता की तीन पर्तें। और चौथी जो कि तुम्हारी अंतस सत्ता है, उसे किसी शुद्धता की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि वह अशुद्ध हो ही नहीं सकती। तुम्हारा अंतरतम केंद्र सदा शुद्ध है, सदा कुंआरा है। लेकिन वह अंतस 'सद्र ढंका होता है दूसरी चीजों से जो अशुद्ध हो सकती हैं—जों रोज—रोज अशुद्ध होती हैं।

तुम रोज उपयोग करते हो अपने शरीर का, उस पर धूल जमती रहती है। तुम रोज उपयोग करते हो मन का, तो विचार एकत्रित होते रहते हैं। विचार धूल की भांति ही हैं। संसार में रह कर कैसे तुम बिना विचारों के जी सकते हो? तुम्हें सोच—विचार करना पड़ता है। शरीर पर धूल जमती है और वह गंदा हो जाता है, मन विचारों को इकट्ठा करता है और वह गंदा हो जाता है। दोनों को जरूरत होती है एक अच्छे स्नान की। यह बात तुम्हारी जीवन—शैली का अंग बन जानी चाहिए। इसे नियम की भांति नहीं लेना चाहिए; यह सुंदरता से जीने का एक ढंग होना चाहिए। और यदि तुम शुद्ध हो तो दूसरी संभावनाएं तुरंत खुल जाती हैं, क्योंकि हर चीज जुड़ी है दूसरी चीज से; एक श्रृंखला है। और यदि तुम जीवन को रूपांतरित करना चाहते हो तो सदा प्रथम से ही शुरुआत करना।

नियम का दूसरा चरण है—संतोष। वह व्यक्ति जो स्वस्थ, निर्भार, निर्बोझ, ताजा, युवा, कुंआरा अनुभव करता है, वही समझ पाएगा कि संतोष क्या है। अन्यथा तो तुम कभी न समझ पाओगे कि संतोष क्या होता है—यह केवल एक शब्द बना रहेगा। संतोष का अर्थ है : जो कुछ भी है सुंदर है; यह अनुभूति कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम है, इससे बेहतर संभव नहीं। एक गहन स्वीकार की अनुभूति है संतोष; संपूर्ण अस्तित्व जैसा है उस के प्रति 'हौ' कहने की अनुभूति है संतोष।

साधारणतया मन कहता है, 'कुछ भी ठीक नहीं है।साधारणतया मन खोजता ही रहता है शिकायते—'यह गलत है, वह गलत है।साधारणतया मन इनकार करता है : वह '' कहने वाला होता है, वह 'नहीं' सरलता से कह देता है। मन के लिए 'ही' कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम 'ही' कहते हो, तो मन ठहर जाता है; तब मन की कोई जरूरत नहीं होती।

क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम 'नहीं' कहते हो, तो मन आगे और आगे सोच सकता है, क्योंकि 'नहीं' पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई पूर्ण—विराम नहीं है, वह तो एक शुरुआत है। नहीं एक शुरुआत है; ही अंत है। जब तुम ही कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, बडबडाने—कुनमुनाने के लिए, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता—कुछ भी नहीं रहता। जब तुम ही कहते हो, तो मन ठहर जाता है, और मन का वह ठहरना ही संतोष है।

संतोष कोई सांत्वना नहीं है—यह स्मरण रहे। मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे तसल्ली दे रहे होते हैं स्वयं को। नहीं, संतोष सांत्वना नहीं है, सांत्वना एक खोटा सिक्का है। जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते। वस्तुत: भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं—बौद्धिक रूप से तुमने समझा—बुझा लिया होता है अपने को कि 'यह कोई ढंग नहीं है।तो तुमने एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, 'मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनों के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।

लेकिन तुम आकांक्षा करते हो। अन्यथा यह आकांक्षा न करने की बात कहां से आती? तुम कामना करते हो, तुम आकांक्षा करते हो, लेकिन तुमने जान लिया है कि करीब—करीब असंभव ही है पहुंच पाना; तो तुम चालाकी करते हो, तुम होशियारी करते हो। तुम स्वयं से कहते हो, 'असंभव

है पहुंच पाना।भीतर तुम जानते हो : असंभव है पहुंच पाना, लेकिन तुम हारना नहीं चाहते, तुम नपुंसक नहीं अनुभव करना चाहते, तुम दीन—हीन नहीं अनुभव करना चाहते, तो तुम कहते हो, 'मैं चाहता ही नहीं।

तुमने सुनी होगी ईसप की पुरानी कहानियों में से एक बहुत सुंदर कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती है : अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं। वह कूदती है, लेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह पहुंच नहीं पाती। फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, 'मौसी, क्या हुआ?' उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती है, 'कुछ नहीं। अगर खट्टे हैं।

यह एक सांत्वना है। यह जान कर कि तुम नहीं पहुंच सकते, तुमने तर्क खोज लिया कि अगर खट्टे हैं—कामना करने के योग्य ही नहीं। ऐसा नहीं कि तुम कमजोर हो, वे पाने के योग्य ही नहीं। ऐसा नहीं कि तुम हार गए हो, बल्कि तुम्हीं ने उन्हें छोड़ दिया है।

मैं ऐसे बहुत से लोगों से मिला हूं जिन्होंने संसार त्याग दिया है, और वे ईसप की इस कहानी से बिलकुल भिन्न नहीं हैं। मेरा बहुत से संन्यासियों से, महात्माओं से मिलना हुआ है, लेकिन तुम देख सकते हो उनकी आंखों में—अभी भी अंगसे की आकांक्षा है। लेकिन वे कहते हैं कि उन्होंने सब त्याग दिया है, क्योंकि संसार असार है, भ्रम है, माया है। उन्होंने ईसप की कहानी नहीं पढ़ी है। उन्हें पढ़नी चाहिए। वह उन्हें वेद और गीता पढ़ने से ज्यादा मदद देगी। और उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए कि असल में क्या हो रहा है : यह केवल अहंकार की तुष्टि है।

सांत्वना एक तरकीब है; संतोष एक क्रांति है। संतोष का यह अर्थ नहीं है कि चारों ओर असफलताओं को देख कर तुम आंखें बंद कर लो और कहो, 'यह संसार माया है; मुझे इसकी आकांक्षा नहीं।

जापान के एक बहुत बड़े कवि बासो ने एक छोटी सी हाइकू लिखी है। उसका अर्थ है, 'धन्यभागी है वह व्यक्ति, जो सुबह सूरज के प्रकाश में ओस—कणों को तिरोहित होता देख कर यह नहीं कहता कि संसार क्षणभंगुर है, संसार माया है।

एक अदभुत हाइकू। मैं दोहरा दूं 'धन्यभागी है वह व्यक्ति, जो सुबह सूरज के प्रकाश में ओस—कणों को तिरोहित होता देख कर यह नहीं कहता कि संसार क्षणभंगुर है, संसार माया है।ऐसा कह कर स्वयं को सांत्वना देना बहुत आसान है।

संतोष एक विधायक अवस्था है, सांत्वना दमन है। लेकिन संतोष की बात सांत्वना जैसी लगती है। एक आदमी मेरे पास आया और कहने लगा, 'मैं एक संतुष्ट व्यक्ति हूं। मेरी पूरी जिंदगी मैं संतोषी रहा हूं लेकिन कुछ घटता नहीं।मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा, 'क्या चाहते हो तुम? संतोष पर्याप्त है। और क्या चाहिए तुमको?' उसने कहा, 'मैंने सभी शास्त्रों में पढ़ा है कि यदि कोई व्यक्ति संतोष रखे तो सब मिल जाता है। और मुझे तो कुछ मिला नहीं! और मैंने देखे हैं ऐसे लोग जो संतुष्ट नहीं हैं, और वे सफल हैं। मैं असफल हूं। मेरे साथ धोखा हुआ है।

यह आदमी संतोष द्वारा किन्हीं आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश कर रहा था। यह संतोष झूठा है—वह चालाकी कर रहा है। और अस्तित्व के साथ तुम चालाकी नहीं कर सकते। तुम उसे धोखा नहीं दे सकते; तुम उसके हिस्से हो। कोई हिस्सा कैसे धोखा दे सकता है पूर्ण को? इससे पहले कि हिस्सा धोखा देने की सोचे, पूर्ण को पता चल जाता है।

मैं भी कहता हूं कि सब मिल जाता है उस व्यक्ति को जो संतुष्ट है, क्योंकि संतोष ही सब कुछ है। यह कोई परिणाम नहीं है कि तुम्हें संतोष का अभ्यास करना होगा, ताकि तुमको सब कुछ मिल जाए—ईश्वर और आनंद और निर्वाण—नहीं। संतोष में ही सब कुछ है। एक संतुष्ट व्यक्ति को बोध होता है कि संतोष ही सब कुछ है; सब कुछ मिल ही चुका है। उसकी हा और—और विकसित होती है, उसका अंतस स्वीकार— भाव से और—और भरता जाता है, वह और—और अनुभव करता है कि चीजें वैसी ही हैं जैसी होनी चाहिए।

यदि तुम निर्मल हो तो संतोष संभव होता है। संतोष है क्या त्र: वह है देखना, अस्तित्व को देखना कि वह कितना सुंदर है! संतोष अपने आप ही चला आता है यदि तुम देख सको कि सुबह कितनी सुंदर होती है, यदि तुम देख सको कि दोपहर कितनी सुंदर होती है, यदि तुम देख सको कि रात कितनी सुंदर होती है; यदि तुम देख सको कि जो अस्तित्व तुम्हें निरंतर घेरे हुए है, वह कैसा अदभुत है! कैसा अपूर्व चमत्कार घट रहा है, हर पल एक चमत्कार है..। लेकिन तुम तो पूरी तरह अंधे हो चुके हो। फूल खिलते हैं—तुम कभी देखते नहीं, बच्चे हंसते हैं—तुम कभी सुनते नहीं; नदियां गीत गाती हैं—तुम बहरे हो; सितारे नृत्य करते हैं—तुम अंधे हो, बुद्ध पुरुष आते हैं और तुम्हें जगाने का प्रयास करते हैं—तुम गहरी नींद में सोए हो। संतोष संभव नहीं है।

संतोष तो उस सब के प्रति जागना है जो मौजूद है। यदि तुम देख सको उसकी एक झलक जो मिला ही हुआ है तो और ज्यादा की अपेक्षा करना अकृतज्ञता लगेगी। यदि तुम समग्र को देख सको, तो तुम अनुगृहीत होओगे। तुम अनुभव करोगे कि अत्यंत अनुग्रह उठ रहा है तुम्हारे भीतर। तुम कहोगे, 'सब कुछ ठीक है; हर चीज सुंदर है; हर चीज पवित्र है। और मैं अनुगृहीत हूं क्योंकि मैंने इसे अर्जित नहीं किया है और मुझे एक मौका मिला है, एक सुअवसर मिला है—जीने का, होने का, श्वास लेने का, देखने का, सुनने का। वृक्षों को फूलते—फलते देखने का और पक्षियों के गीत सुनने का।

यदि तुम सजग हो सको—बस थोड़ी सी सजगता और तुम पाओगे न कहीं कुछ बदलना है, न किसी चीज की आकांक्षा करनी है—हर चीज तुम्हें मिली ही हुई है। तुम्हारी शिकायतो के कारण—शिकायतो की धुंध के कारण, नकारात्मकता के कारण—तुम देख नहीं पाते, तुम्हारी आंखें धुएं से भरी रहती हैं और तुम ज्योति को देख नहीं पाते।

संतोष है एक दृष्टिकोण—जीवन को देखने का एक भिन्न दृष्टिकोण आकांक्षाओं द्वारा न देखना, बल्कि उसे देखने का प्रयास जो कि पहले ही उपलब्ध है। यदि तुम कामना के माध्यम से देखते हो, तो तुम कभी संतुष्ट न होओगे। कैसे हो सकते हो तुम! क्योंकि कामना तो आगे, और आगे बढ़ती जाती है। तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं, तो कामना कहती है सौ हजार चाहिए। जब तुम्हारे पास सौ हजार होते हैं, तो कामना आगे बढ़ चुकी होती है, अब दस लाख रुपए चाहिए, सौ लाख रुपए चाहिए। जब तुम वहां पहुंचोगे, कामना तुमसे और आगे जा चुकी होगी। वह तुम्हारे आगे—आगे ही चलती है। वह कभी भी तुम्हारे साथ नहीं चलती; तुम उसको कभी पूरा न कर पाओगे। कितना भी तुम दौड़ो, सदा उसे क्षितिज की भांति पाओगे—आगे, कहीं भविष्य में। सदा ऐसा ही होगा। और पीछे—पीछे आएगा असंतोष. कामना है आगे, तो तुम असंतुष्ट ही रहोगे। और असंतोष नरक है।

जब तुम समझ लेते हो इस बात को, तो तुम सत्य को कामना के पर्दे से नहीं देखते; तुम देखते हो प्रत्यक्ष, तुम देखते हो सीधे—सीधे, तुम कामना को हटा देते हो एक तरफ और तुम सीधे देखते हो। तुम आंखें खोलते हो और तुम सीधे देखते हो, और हर चीज इतनी ठीक मालूम पड़ती है! मैंने देखा है इस तरह, इसीलिए मैं तुम से ऐसा कहता हूं। सब कुछ इतना ठीक है कि इसे और बेहतर नहीं किया जा सकता। यह अंतिम है, कोई सुधार संभव नहीं है। तब संतोष तुम में उतरता है किसी संध्या की भांति। वह सूर्य, कामना— आकांक्षा का वह झुलसा देने वाला सूर्य अस्त हो चुका होता है और शीतल सांध्य पवन और शांत, गहरी सौम्य—संध्या तुम में उतर आती है—और जल्दी ही तुम सुखद रात से आच्छादित हो जाओगे, तुम संतोष के अंतरगर्भ में उतर जाओगे। संतोष देखने का एक दृष्टिकोण है; लेकिन जब तुम शुद्ध होते हो, निर्भार होते हो, केवल तभी यह संभव होता है।

और संतोष के बाद पतंजलि कहते हैं—तप। यह ठीक से समझ लेने जैसी बात है, बहुत ही नाजुक और सूक्ष्म बात है। तुम संतोष आने से पहले भी तपस्वी हो सकते हो, लेकिन तब तुम्हारा तप कामनाओं के कारण होगा। तब अपने तप द्वारा भी तुम कामना कर रहे होओगे मोक्ष की, मुक्ति की, स्वर्ग की, ईश्वर की। तब तुम्हारी तपस्या भी एक साधन ही होगी। इसीलिए पतंजलि पहले कहते हैं संतोष और फिर कहते हैं तप। जब तुम संतुष्ट होते हो, तब तप कुछ पाने का साधन नहीं रहता; तब यह सहज सुंदर ढंग होता है जीने का। तब यह प्रश्न नहीं होता कि तुम्हारे पास कम चीजें हैं कि ज्यादा चीजें हैं—तब यह समस्या ही नहीं होती। चीजों के कम—ज्यादा होने से इसका कोई लेना—देना नहीं है। तब यह जीने का सहज ढंग होता है—जीने का जटिल ढंग नहीं।

और कठिन है इस बात को समझना. यदि बिना संतोष को उपलब्ध हुए तुम तपस्वी होने का प्रयास करते हो, तो तुम्हारी तपस्या उलझी हुई होगी, जटिल होगी।

एक बार ऐसा हुआ, मैं फर्स्ट क्लास के डिब्बे में एक दूसरे संन्यासी के साथ यात्रा कर रहा था। मैं उस संन्यासी को नहीं जानता था, वह संन्यासी मुझे नहीं जानता था, लेकिन डिब्बे में हम दो ही यात्री थे। किसी स्टेशन पर बहुत से लोग उससे मिलने आए; वह जरूर बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति होगा। कुछ नहीं था उसके पास, बस एक छोटा सा झोला था, शायद एक—दो वस्त्र, और एक छोटी सी लुंगी घुटनों तक, और वह करीब—करीब नग्न ही था। और वह लुंगी भी सस्ते से सस्ते कपड़े की थी।

फिर हम यात्रा में साथ रहे, धीरे— धीरे मैं उसकी जटिलताओं के प्रति सजग हुआ; वैसे वह एक सीधा—सादा आदमी था जहां तक बाहरी रंग—ढंग का प्रश्न है। जब स्टेशन पीछे छूट गया और वे लोग चले गए और गाड़ी चली और उसने देखा कि मैं ऊंघ रहा हूं —मैंने आंखें बंद की हुई थीं—तो तुरंत उसने अपने झोले में से कुछ निकाला। मैं सोया नहीं था। मैंने देखा—वह नोट गिन रहा था, कोई सौ रुपए से ज्यादा न होंगे, लेकिन जिस ढंग से वह गिन रहा था—ऐसे मजा लेकर, ऐसे लोभ के साथ कि मैं विश्वास न कर सका।

यह देख कर कि मैं देख रहा हूं उसने तुरंत नोटों को झोले में डाल दिया और फिर से सीट पर बुद्ध की भांति बैठ गया। अब यह जटिलता है। यदि तुम गिन रहे हो तो गिन रहे हो। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं देख रहा हूं या नहीं? क्यों छिपाना? क्यों इसके लिए अपराधी अनुभव करना? यदि तुम मजा ले रहे हो नोट गिनने का, तो कुछ गलत नहीं है इसमें—निर्दोष बात है, कुछ हर्ज नहीं है। लेकिन नहीं; उसने अपराध— भाव अनुभव किया. कि संन्यासी को तो नोट छूने नहीं चाहिए! पर वह पकड़ में आ गया। फिर उसे जहां उतरना था वह स्टेशन सुबह छह बजे आने वाला था। लेकिन जहां भी गाड़ी रुकती, वह पूछता बार—बार—रात के दो बजे और वह खिड़की से बाहर झांकता और पूछता—कौन सा स्टेशन है यह? वह मेरी नींद इतनी बिगाड़ रहा था कि मैंने उससे कहा, 'चिंतित मत होओ। वह स्टेशन छह बजे से पहले तो आने वाला नहीं। और यह गाड़ी आगे जाती नहीं—तो तुम्हें फिक्र नहीं करनी चाहिए। यदि तुम गहरी नींद भी सोए हुए हो तो भी तुम चूक नहीं सकते स्टेशन—वह तो अंतिम स्टेशन है।लेकिन वह सो नहीं सका सारी रात, वह इतना तनावग्रस्त था; और मैं समझ नहीं पा रहा था कि बेचैनी क्या है।

सुबह, जब स्टेशन निकट आ रहा था, मैंने उसे दर्पण के सामने खड़े हुए देखा। कुछ ठीक—ठाक करने को न था, बस एक छोटी सी लुंगी थी, लेकिन वह बार—बार उसे ही बाध रहा था और देख रहा था दर्पण में कि वह ठीक लगती है या नहीं। तभी उसने फिर देख लिया मुझे देखते हुए तो वह एकदम घबड़ा गया। जब भी मैं अपनी आंखें बंद कर लेता वह झट से कुछ न कुछ करने लगता; यदि मैं अपनी आंखें खोल देता तो वह तुरंत कुछ भी करना बंद कर देता। इतना वह अपराध— भाव से भरा हुआ था हर चीज के प्रति।

इस आदमी को संतोष उपलब्ध नहीं हुआ और यह तपश्चर्या साधने लगा। वह आकांक्षाओं से भरा एक साधारण व्यक्ति ही है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि दर्पण में देखने में कुछ बुराई है—कुछ बुराई नहीं है। बुराई केवल यही है कि जब कोई दूसरा देखता है तो इतने घबड़ा क्यों जाते हो? बिलकुल ठीक है, तुम देख सकते हो—तुम्हारा अपना चेहरा है, तुम देख सकते हो दर्पण में। तुम्हें पूरा अधिकार है, कम से कम अपना चेहरा तो देख ही सकते हो। और कुछ गलत नहीं है इसमें। आनंदित होओ—वह चेहरा भी ईश्वर की प्रतिमूर्ति है। लेकिन वह अपराध— भाव से भरा है : वह एक साधारण व्यक्ति है जो दिखा रहा है, कोशिश कर रहा है संत पुरुष दिखने की।

बिना संतोष के तुम दिखावा कर सकते हो, तुम पीड़ित हो सकते हो, तुम तपस्वी हो सकते हो, तुम सरलता ओढ़ सकते हो, तुम घर और वस्त्र छोड़ सकते हो और नग्न हो सकते हो; लेकिन तुम्हारी नग्नता में एक जटिलता होगी; उसमें सरलता नहीं हो सकती। सरलता आती है केवल संतोष की छाया की तरह, तब तुम महल में रह सकते हो और तुम सरल हो सकते हो। तुम्हारे पास क्या है उससे सरलता का कुछ लेना—देना नहीं है; सरलता का संबंध है मन की गुणवत्ता से।

एक स्टेशन के लिए इतनी बेचैनी है, तो जब मौत आ रही होगी तो यह आदमी शात कैसे हो सकता है? मेरे देखने से ऐसा भयभीत है, तो कितना भयभीत न हो जाएगा, अगर ईश्वर देख रहा हो; और वह कितना भयभीत न होगा जब उसे सामना करना होगा परमात्मा का? वह न कर पाएगा। वह स्वयं को ही धोखा दे रहा है; किसी और को धोखा नहीं दे रहा है।

तपश्चर्या का मतलब है सहजता. एक सहज—सरल जीवन जीना। सरल जीवन क्या है? सरल जीवन है बच्चों की भांति जीना—तुम हर चीज का आनंद लेते हो, लेकिन किसी से चिपकते नहीं।

ऐसा हुआ भारत के महानतम संतो में से एक थे कबीर। उनका एक लड़का था, उसका नाम था कमाल। वह पिता से भी पहुंचा हुआ था। लेकिन कोई कमाल के विषय में ज्यादा जानता नहीं था, क्योंकि वह सच में ही बहुत अदभुत था। बहुत से शिष्य थे कबीर के, और उनमें बहुत प्रतियोगिता थी, जैसी कि होती है शिष्यों में। और बहुत से लोग नहीं चाहते थे कि कमाल कबीर के साथ रहे, क्योंकि वे कहते, 'यह आदमी गलत है।लोग कबीर के चरणों में अर्पित करने के लिए बहुत सी भेंटें—दान, धन, हीरे—जवाहरात लाते, वे उनको कभी स्वीकार न करते। और कमाल बैठा रहता बाहर। और जब वे वापस लौटते यदि वे कमाल को भेंट देते, तो वह उन्हें ले लेता।

तो लोग कहते, 'तुम्हारा बेटा लोभी है।कबीर जानते थे भलीभांति कि वह लोभी बिलकुल नहीं है; वह तो बहुत सीधा—सादा आदमी है। इसीलिए वे उसे कमाल कहते थे। कमाल का अर्थ है—चमत्कार। वह सच में ही चमत्कार था, और ऐसा होना ही था. कबीर का लड़का कमाल ही होगा। लेकिन वह सच में ही सीधा—सहज था—एकदम बच्चे की भांति। कई बार वह मांग तक लेता! किसी की भेंट अस्वीकृत हो गई होती, कबीर ने इनकार कर दिया होता उसको—कोई हीरे ले आया होता उन्हें देने के लिए और कबीर ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया होता—और वह आदमी उन्हें वापस ले जा रहा है और कमाल कहता, 'सुंदर कंकड़—पत्थर! कहां लिए जा रहे हो तुम इन्हें? इधर लाओ। यदि मेरे पिता नहीं ले सकते तो मैं ले सकता हूं।

यह बात गलत थी। तो अंततः शिष्यों ने कबीर को, उनकी मरजी के खिलाफ, राजी कर लिया और कबीर ने कहा, 'ठीक है, अगर आप सब ऐसा सोचते हैं, तो मैं उसको घर से निकाल देता हूं।कमाल को अलग रहने को कह दिया गया। उसने कुछ नहीं कहा : उसने स्वीकार कर लिया—संतोष। उसने तर्क भी न किया कि जो लोग उसके खिलाफ शिकायत कर रहे हैं, गलत हैं। नहीं, ऐसा आदमी वाद—विवाद में नहीं पड़ता। वह चुपचाप चला गया। उसने एक छोटी सी झोपड़ी बना ली वहीं कबीर के पास ही, और वहां रहने लगा। कबीर के पास हजारों लोग आते, और कमाल के पास कोई न आता, क्योंकि उसकी बिलकुल ख्याति न थी; और यह बात सबको जाहिर थी कि कबीर ने उसे अलग कर दिया है, तो यही बात पर्याप्त निंदा का कारण थी।

काशी नरेश, जो कि कबीर का भक्त था, वह एक बार आया और उसने पूछा, 'कमाल कहां है? कबीर ने सारी बात बताई। काशी नरेश ने कहा, 'लेकिन मुझे तो कभी नहीं लगा कि उस लड़के में कोई लोभ है। वह बिलकुल सीधा—सादा है। मैं जाता हूं और देखता हूं।तो वह गया कमाल की झोपड़ी में, एक बहुत ही कीमती, जो उसके पास सब से बड़ा हीरा था, वह साथ ले गया।

कमाल ने उस दिन भोजन नहीं किया था और घर में कुछ भोजन था नहीं, तो उसने कहा, 'मैं क्या करूंगा इस पत्थर का? इसे खाऊंगा कि पीऊंगा? इससे तो अच्छा था कि कुछ खाने—पीने की चीज लाते, क्योंकि मुझे भूख लगी है।

काशी नरेश ने अपने मन में सोचा, 'तो मैं ठीक ही सोचता था। क्या गजब! इतना कीमती हीरा और वह एकदम इनकार कर रहा है।

तो नरेश जब वापस जाने लगा तो उसने वह हीरा उठा लिया।

कमाल ने कहा, 'अगर समझ में आ गया है कि यह पत्थर ही है तो फिर क्यों बोझ ढोते हो? छोड़ो यहीं। पहली बात तो यह कि यहां तक ढोकर लाए, एक गलती की। अब फिर क्यों वही गलती करनी वापस ढोने की? आखिर पत्थर ही है।

अब काशी नरेश उलझन में पड़ गया, 'कहीं यह कोई चालाकी न हो। शायद कमाल को रस है इस हीरे में, लेकिन मेरे साथ होशियारी कर रहा है।फिर भी काशी नरेश ने सोचा, 'ठीक है, देखते हैं।तो उसने कहा, 'कहां रख दूं मैं इसको?'

कमाल ने कहा, 'फिर आप वही गलती कर रहे हैं। यदि पत्थर ही है तो कोई पूछेगा नहीं कि कहा रख दूं इसे। अरे कहीं भी रख दो, झोपड़ी बड़ी है।

काशी नरेश भी पूरी बात को अंत तक देख लेना चाहता था, तो उसने झोपड़ी की छत पर खोंस दिया हीरा और चला आया, भलीभांति जानते हुए कि यह कमाल जरूर वह हीरा निकाल कर रख लेगा।

सात दिन बाद वह वापस आया पूछताछ करने के लिए कि क्या हुआ। उसे पक्का था कि अब तक तो हीरा बिक भी चुका होगा। वह वहां पहुंचा, उसने थोड़ी देर इधर—उधर की बातचीत की और फिर कहा, 'उस हीरे का क्या हुआ?'

कमाल ने कहा, 'फिर हीरे की बात? और मैंने कह दिया आपसे कि वह एक पत्थर था। और मैं क्यों फिक्र करूं इसकी कि क्या हुआ उसका?'

अब तो काशी नरेश ने सोचा, 'यह पक्का धूर्त है। इसने बेच दिया उसे या कहीं छिपा दिया है; तभी तो अब कह रहा है, मैं क्यों फिक्र करूं उसकी?' और फिर कमाल ने कहा, 'लेकिन तुम जहां उसे रख गए थे वहां देख लो। अगर अभी तक किसी ने लिया नहीं होगा, तो वहीं होगा।

और हीरा वहीं रखा हुआ था। यह है सरलता। यह है सहज सादगी। लेकिन कठिन है बात. कोई रह सकता है महल में, और यदि महल नहीं है उसके मन में, तो यह है सहज सादगी। तुम झोपड़ी में रह सकते हो और यदि झोपड़ी तुम्हारे मन में प्रवेश कर जाती है, तो यह सादगी नहीं है। तुम बैठ सकते हो सिंहासन पर सम्राट की भांति, और तुम संन्यासी हो सकते हो। इसी तरह तुम संन्यासी हो सकते हो और तुम नग्न खड़े हो सकते हो सड़क पर, और हो सकता है तुम संन्यासी न हो। चीजें उतनी सीधी—सरल नहीं हैं, जितनी लोग उन्हें समझते हैं। और बाहरी रंग—रूप पर बहुत भरोसा रखना भी नहीं चाहिए, तुम्हें भीतर गहरे में देखना चाहिए।

सादा जीवन केवल संतोष के बाद ही संभव होता है, क्योंकि संतोष के बाद तुम्हारी सादगी किसी साध्य को पाने का साधन न होगी; वह केवल जीने का एक गैर—जटिल ढंग होगी, जीने का एक सहज—सरल ढंग होगी। और क्यों सहज—सरल? क्योंकि सहज जीवन ज्यादा प्रसन्नता देने वाला होता है। जितना ज्यादा जटिल होता है तुम्हारा जीने का ढंग, उतने ही ज्यादा तुम दुखी होते हो, क्योंकि तब तुम्हें बहुत सारी चीजों के जोड़—तोड़ बैठाने पड़ते हैं। जितना सहज जीवन होता है, उतना ही ज्यादा आनंद होता है, क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती। तुम श्वास की भांति जी सकते हों—सहज।

और फिर है—स्वाध्याय। वह व्यक्ति जो उपलब्ध हो चुका है शुद्धता को, संतोष को, तप—संयम को, केवल वही अध्ययन कर सकता है 'स्व' का, अंतस का; क्योंकि अब सारा कूड़ा—करकट फेंका जा चुका है, सारी गंदगी फेंकी जा चुकी है। अन्यथा स्वाध्याय संभव ही न होगा। तुम्हारे भीतर इतनी ज्यादा गंदगी है, यदि तुम अपना अध्ययन करोगे तो वह कोई स्वाध्याय न होगा, वह उस कचरे का ही अध्ययन होगा। वह फ्रायड के मनोविश्लेषण जैसा होगा। यही अंतर है स्वाध्याय और फ्रायड के मनोविश्लेषण के बीच।

फ्रायड का मनोविश्लेषण वर्षों चल सकता है—पांच वर्ष, दस वर्ष—और फिर भी बात समाप्त नहीं होती. कूड़ा—करकट निकलता ही जाता है। तुम हमेशा—हमेशा जारी रख सकते हो। कचरा अंतहीन है, क्योंकि वह अपने आप इकट्ठा होता है : आज तुम फेंकते हो कचरे को, कल तुम फिर आ जाते हो मनोविश्लेषण के लिए; चौबीस घंटे में फिर कचरा इकट्ठा हो चुका होता है वहा। फिर तुम फेंकते उसे, फिर वह इकट्ठा हो जाता है। जब तक तुम्हारी जिंदगी का पूरा आधार ही नहीं बदल जाता, तुम इकट्ठा करते ही रहोगे कूड़ा—करकट।

तो बात कूड़े—कचरे को फेंकने की नहीं है—तुम इकट्ठा करते रहते हो उसे। तुम्हारा जीने का ढंग ऐसा है कि तुम उसे इकट्ठा करते हो; तुम चिपकते हो उससे। जब तक कि वह ढंग न बदले, जब तक कि वह जीवन—शैली न बदले, तुम स्वयं का अध्ययन नहीं कर सकते। तुम एक भीड़ हो और तुम्हारा 'स्व' भीड़ में खो चुका है।

पतंजलि बहुत वैज्ञानिक ढंग से चलते हैं। तप—संयम के बाद जब तुम बहुत सरल—सहज हो जाते हो, कोई कचरा इकट्ठा नहीं होता, जब तुम इतने संतुष्ट हो जाते हो कि कोई आकांक्षा तुम में नहीं बचती, जब तुम इतने निर्दोष और शुद्ध हो जाते हो कि कोई बोझ नहीं रहता—तुम सुगंध की भांति हो जाते हो; निर्भार, पंख पसार उड़ने लगते हो हवा में, हवा पर तिरते हो—तब स्वाध्याय। अब तुम स्वयं का अध्ययन कर सकते हो। स्वाध्याय कोई आत्म—विश्लेषण नहीं है; वह है स्वयं को देखना। वह है स्वयं पर ध्यान करना।

और स्वाध्याय के बाद है नियम का अंतिम चरण—ईश्वर के प्रति समर्पण। असल में पतंजलि जिस ढंग से चलते हैं वह बहुत अदभुत है। उन्होंने प्रत्येक चरण पर वर्षों सोचा होगा, क्योंकि ठीक इसी तरह होता है यह। जब तुमने स्वयं का अध्ययन कर लिया होता है, केवल तभी तुम समर्पण कर सकते हो, क्योंकि अन्यथा तुम समर्पित क्या करोगे? स्वयं को ही करना होता है समर्पित। यदि तुम स्वयं को ठीक से समझ लेते हो, केवल तभी तुम समर्पण कर सकते हो। अन्यथा कैसे तुम समर्पण करोगे? लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, 'हम समर्पण करना चाहते हैं।

लेकिन तुम क्या समर्पित करोगे मुझे? अभी तो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुम्हारा समर्पण खोखला है। तुम्हें मौजूद होना चाहिए समर्पित होने के लिए। पहली बात, एक केंद्रीभूत आत्मा की जरूरत है समर्पित होने के लिए। मात्र कह देने से समर्पण नहीं घट सकता है। तुम में इसकी सामर्थ्य होनी चाहिए; इसे अर्जित करना होता है।

स्वाध्याय के बाद—जब आत्मा एक प्रकाश—स्तंभ की भांति तुम्हारे भीतर प्रकट होती है और तुम्हें उसका स्पष्ट बोध होता है, और सब अनावश्यक काटा जा चुका और फेंका जा चुका होता है,

जब तुम शल्य—क्रिया से गुजर चुके होते हो और आत्मा अपनी आदिम शुद्धता में और सौंदर्य में प्रकट होती है—अब तुम इसे परमात्मा के चरणों में समर्पित कर सकते हो। और पतंजलि बड़ी अनूठी बात कहते हैं कि यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। ईश्वर पतंजलि के लिए कोई सिद्धात नहीं है; ईश्वर को प्रमाणित नहीं करना है। पतंजलि कहते हैं. ईश्वर समर्पण करने के लिए एक बहाने के सिवाय और कुछ नहीं है। अन्यथा कहां करोगे तुम समर्पण? यदि तुम ईश्वर के बिना समर्पण कर सको तो ठीक; पतंजलि को कोई अड़चन नहीं है। वे नहीं कहते कि ईश्वर को मानना ही है। वे इतने वैज्ञानिक हैं कि वे कहते हैं : ईश्वर जरूरी नहीं है, वह केवल समर्पण करने का एक ढंग है। वरना तुम मुश्किल में पड़ोगे कि कहां करें समर्पण? तुम पूछोगे, 'किसे करें समर्पण?'

बुद्ध और महावीर जैसे लोग हुए हैं जिन्होंने ईश्वर के बिना ही समर्पण किया, लेकिन वे दुर्लभ व्यक्ति हैं, क्योंकि तुम्हारा मन तो सदा पूछेगा, 'किसे?' यदि मैं तुमसे कहता हूं 'प्रेम करो', तो तुम पूछोगे, 'किसे?' क्योंकि तुम किसी प्रेम—पात्र के बिना प्रेम नहीं कर सकते। यदि मैं तुमसे पत्र लिखने के लिए कहूं तो तुम पूछोगे, 'किस पते पर लिखूं?' पते के बिना तुम पत्र नहीं लिख सकते, क्योंकि वह बात एकदम मूढ़ता की लगेगी। तुम्हारा मन ऐसा है! यदि अंतिम साध्य के रूप में ईश्वर न हो और तुम से कहा जाए, 'समर्पण करो,' तो तुम कहोगे, 'किसे?'

तो केवल तुम्हें बहाना देने के लिए—ईश्वर एक बहाना है तुम्हारी मदद के लिए। ईश्वर कोई लक्ष्य नहीं है और ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। पतंजलि के लिए ईश्वर इस मार्ग पर एक मदद है—अंतिम मदद। ईश्वर के नाम पर समर्पण आसान हो जाता है। ईश्वर का नाम हो तो तुम्हारा मन उलझन में नहीं रहता कि कहां समर्पण करें। तुम्हारे पास समर्पण करने की एक जगह होती है, तुम्हारे पास एक जगह होती है झुक जाने के लिए। ईश्वर वही जगह है, कोई व्यक्ति नहीं।

और पतंजलि कहते हैं : यदि तुम ईश्वर के बिना समर्पण कर सकते हो, तो सवाल समर्पण का है—ईश्वर का नहीं। यदि तुम ठीक से समझो जो मैं कह रहा हूं तो समर्पण ही ईश्वर है। समर्पण करने का मतलब है दिव्य हो जाना, समर्पण करने का मतलब है दिव्यता को उपलब्ध हो जाना। लेकिन तुम्हें मिटना होगा। इसलिए पहले तो तुम्हें खोजना है स्वयं को, ताकि तुम मिट सको। पहले तुम्हें क्रिस्टलाइज करना है स्वयं को, ताकि तुम जा सको मंदिर में और समर्पण कर सको परमात्मा के चरणों में—उंडेल सको स्वयं को सागर में और मिट सको।

'शुद्धता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण—ये नियम पूरे करने होते हैं।

ये विकास के नियम हैं। ये निषेध नहीं करते; ये सहायता देते हैं। ये निषेधात्मक नहीं हैं; ये सृजनात्मक हैं।



 जब मन अशांत हो असद विचारों से तो मनन करना विपरीत विचारों पर।



 यह एक सुंदर विधि है, तुम्हारे लिए बहुत उपयोगी होगी। उदाहरण के लिए, यदि तुम बहुत असंतोष अनुभव कर रहे हो तो क्या करना चाहिए? पतंजलि कहते हैं, विपरीत विचारों पर ध्यान देना. यदि तुम असंतोष अनुभव कर रहे हो तो ध्यान करना संतोष पर, कि संतोष क्या है? संतुलन ले आना। यदि तुम्हारा मन क्रोध से भरा है, तो करुणा को भीतर उतारना, करुणा पर मनन करना। और तुरंत ही ऊर्जा बदल जाती है। क्योंकि वे एक ही हैं, विपरीत तत्व में भी वही ऊर्जा है। एक बार तुम करुणा से भर जाते हो, तो क्रोध विलीन हो जाता है। क्रोध आए तो ध्यान करना करुणा पर।

एक काम करना बुद्ध की प्रतिमा रखना। क्योंकि वह प्रतिमा करुणा की मुद्रा है। जब भी तुम क्रोधित होते हो, भीतर कमरे में जाना, बुद्ध की ओर देखना, बुद्ध की भांति बैठ जाना और अनुभव करना करुणा को। अचानक तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर रूपांतरण घट रहा है क्रोध रूपांतरित हो रहा है, उत्तेजना खो रही है—करुणा उदित हो रही है। और यह कोई भिन्न ऊर्जा नहीं है; यह वही ऊर्जा है—क्रोध की ही ऊर्जा अपनी गुणवत्ता बदल रही है, ऊपर उठ रही है। इसे प्रयोग करना। यह कोई दमन नहीं है, यह स्मरण रखना। लोग मुझ से पूछते हैं, 'क्या पतंजलि दमन सिखाते हैं? क्योंकि जब मैं क्रोधित हूं तब अगर मैं करुणा का विचार करूं, तो क्या यह दमन न होगा?'

नहीं। यह रूपांतरण है; यह दमन नहीं है। यदि तुम क्रोधित हो और तुम दबा लेते हो क्रोध को बिना करुणा पर ध्यान किए, तो यह दमन है। तुम क्रोध को पीछे धकेल देते हो और ऊपर तुम मुस्कुराते हो और दिखावा करते हो, जैसे कि तुम क्रोधित नहीं हो। और क्रोध कुलबुला रहा होता है और उबल रहा होता है और फूट पड़ने को तैयार होता है, तो यह दमन है। नहीं, हम दमन नहीं कर रहे हैं किसी चीज का, और न ही कोई मुस्कुराहट या कुछ और ऊपर से ओढ़ रहे हैं; हम तो बस ऊर्जा के दूसरे छोर को प्रकट कर रहे हैं।

विपरीत तत्व ही दूसरा छोर है। जब तुम घृणा से भरो तो सोचना प्रेम के विषय में। जब तुम कामना का अनुभव करो, तो ध्यान करना कामनाशून्यता पर और उस मौन पर जो उसके साथ आता है। जो भी हो अवस्था, उसके विपरीत को ले आना भीतर और ध्यान देना कि क्या घटता है तुम्हारे भीतर। एक बार तुम इसके रहस्य को जान लेते हो, तो तुम मालिक हो जाते हो। अब तुम्हारे पास चाबी है, किसी भी क्षण घृणा बदल सकती है प्रेम में, किसी भी क्षण दुख बन सकता है उल्लास, पीड़ा बन सकती है आनंद, क्योंकि पीड़ा वही ऊर्जा है जो आनंद बनती है; ऊर्जा अलग नहीं है। तुम्हें बस इतना जानना है कि उसे कैसे रूपांतरित किया जाए।

और इसमें कोई दमन नहीं होता, क्योंकि क्रोध की सारी ऊर्जा करुणा बन जाती है, दमन करने के लिए कुछ बचता ही नहीं। असल में तुमने उसका उपयोग कर लिया होता है करुणा में।

अभिव्यक्ति के दो ढंग हैं। पश्चिम में अब रेचन पर, केथार्सिस पर बहुत जोर है। एनकाउंटर युप, प्राइमल थैरेपी—सभी में रेचन पर बहुत जोर दिया जाता है। मेरा अपना सक्रिय— ध्यान भी एक रेचन की विधि है, क्योंकि लोगों ने सब्लिमेशन की, रूपांतरण की कुंजी खो दी है। पतंजलि रेचन की तो बिलकुल बात ही नहीं करते। क्यों वे इस बारे में कोई बात नहीं करते? क्योंकि लोगों के पास कुंजी थी, एक कुशलता थी। वे जानते थे कि ऊर्जा को कैसे रूपांतरित कर लेना। तुम भूल चुके हो, इसलिए मुझे तुम्हें रेचन सिखाना पड़ता है।

क्रोध है, उसे करुणा में रूपांतरित किया जा सकता है, लेकिन तुम्हें खयाल नहीं कि कैसे करें? और यह कोई कला नहीं जो सिखाई जा सकती हो; यह एक कुशलता है। तुम्हें इसे करना पड़ता है, और करके ही सीखना होता है, और कोई उपाय नहीं है। यह तैरने जैसा है : तुम्हें हाथ—पैर मारने होते हैं और गलतियां करनी होती हैं, और कई बार खतरे में पड़ना होता है, और कई बार तुम अनुभव करोगे, कि गए, मारे गए, डूबे। तुम्हें गुजरना होता है इस सब अनुभव से, और तब एक कुशलता आती है, तब तुम जानते हो कि यह क्या है। और यह इतनी आसान बात है—तैरना।

क्या तुमने ध्यान दिया? कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें तुम सीख सकते हो, लेकिन तुम भूल नहीं सकते। तैरना उन बातो में से एक है, या फिर साइकिल चलाना। तुम सीख सकते हो, लेकिन तुम भूल नहीं सकते। दूसरी बहुत सी चीजें तुम सीख सकते हो और भूल सकते हो। हजारों बातें तुमने सीखीं स्कूल में; अब तुम करीब—करीब सब भूल चुके हो। स्कूल की ढेरों पढ़ाई बेकार गई मालूम पड़ती है। लोग सीखते रहते हैं, और फिर किसी को कुछ याद नहीं रहता। बस परीक्षा देने भर के लिए..... फिर खत्म हो जाती है बात; फिर कुछ याद नहीं रहता।

लेकिन तैरना तुम नहीं भूल सकते। यदि तुम पचास साल भी नदी में न उतरो और अचानक तुम्हें पानी में उतार दिया जाए, तो तुम तैरने लगोगे हमेशा की तरह कुशलता से—एक पल को भी तुम हिचकिचाओगे नहीं कि क्या करना है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि यह एक कुशलता है, एक नैक है। इसे भुलाया नहीं जा सकता। यह कोई सीखी हुई बात नहीं है; यह कोई कला नहीं है। और सब सीखने को, कला को भुलाया जा सकता है, लेकिन कुशलता, नैक कुछ ऐसी बात है जो तुम्हारे अस्तित्व में इतने गहरे उतर जाती है कि वह तुम्हारा हिस्सा बन जाती है।

ऊर्जा का रूपांतरण ऐसी ही एक कुशलता है।

पतंजलि कभी रेचन की बात नहीं करते; मुझे तुम्हारे कारण रेचन की बात करनी पड़ती है। .लेकिन एक बार तुम समझ लेते हो, और यदि तुम ऊर्जा को रूपांतरित कर सकते हो, तो रेचन की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती, क्योंकि रेचन एक तरह से ऊर्जा को फेंकना है। लेकिन, दुर्भाग्यवश, बिलकुल अभी कुछ किया नहीं जा सकता। और तुमको इतनी सदियों से दमन सिखाया गया है कि ऊर्जा का रूपांतरण दमन जैसा मालूम पड़ता है, इसलिए रेचन ही मार्ग है। पहले तुम्हें निर्मुक्त होना होता है। तुम थोड़े निर्भार होते हो, हलके होते हो—और फिर तुम्हें ऊर्जा के रूपांतरण की कला सिखाई जा सकती है।

रूपांतरण है ऊर्जा का उच्चतर तल पर उपयोग, वही ऊर्जा एक अलग गुणवत्ता के साथ अभिव्यक्त होती है। तो इसे प्रयोग करना। तुम में से बहुत से लोग लंबे समय से सक्रिय ध्यान करते रहे हैं। तुम प्रयोग कर सकते हो। अब जब क्रोध आए, उदासी पकडे, तो बैठ जाना मौन और उदासी को बढ़ने देना प्रसन्नता की ओर— थोड़ी सहायता—उसे थोड़ा सहयोग देना, मदद देना। अति मत करना और जल्दबाजी मत करना। क्यों? क्योंकि पहले तो उदासी राजी नहीं होगी प्रसन्नता में बदलने के लिए। क्योंकि 'सदियों—सदियों से, जन्मों —जन्मों से, तुमने उसे उस ओर बढने नहीं दिया है, तो वह राजी नहीं होगी। जैसे कि तुम किसी घोड़े को नए मार्ग पर चलाओ जिस पर वह कभी नहीं चला है, तो वह राजी नहीं होगा। वह पुराने ढर्रे पर, पुराने मार्ग पर, पुरानी लीक पर जाने का प्रयत्न करेगा।

तो धीरे — धीरे राजी करके दूसरे मार्ग पर ले आना। कहना उदासी से, ' भयभीत मत होओ। यह बहुत बढ़िया मार्ग है, आओ इस मार्ग पर। तुम प्रसन्नता बन सकती हो, और इसमें कुछ गलत नहीं है और न ही यह असंभव है।थोड़ा फुसलाना; बात करना अपनी उदासी से।

और एक दिन तुम अचानक पाओगे कि उदासी बढ़ गई एक नए मार्ग की ओर : वह प्रसन्नता में रूपांतरित हो गई। उस दिन योगी का जन्म होता है, उससे पहले नहीं। उससे पहले तो तुम बस तैयारी कर रहे हो।



 विपरीत विचारों पर मनन करना आवश्यक है क्योंकि हिंसा आदि विचार भाव और कर्म—अज्ञान एवं तीव्र दुख में फलित होते है— फिर वे अल्प मध्यम या तीव्र मात्राओं के लोभ क्रोध या मोह द्वारा स्वयं किए हुए दूसरों से करवाए हुए या अनुमोदन किए हुए क्यों न हों।



जो भी नकारात्मक है, वह खतरनाक है तुम्हारे लिए और दूसरों के लिए। जो भी नकारात्मक है, वह पहले से ही नरक बना रहा होता है तुम्हारे लिए और दूसरों के लिए; वह दुख और पीड़ा बना रहा है तुम्हारे लिए और दूसरों के लिए। तो सजग रहो। यदि तुम ने नकारात्मक विचार सोचा भी, तो वह जगत के लिए एक वास्तविकता बन चुका। ऐसा नहीं है कि जब तुम कुछ करते हो तभी वह वास्तविक बनता है. विचार उतना ही वास्तविक है जितना कि कर्म। यदि तुम किसी की हत्या करने की बात सोचते हो, तो तुमने हत्या कर ही दी होती है। वह आदमी जिंदा रहेगा, लेकिन तुमने अपना काम कर दिया : वह आदमी उतनी संपूर्णता से न जीएगा जितना कि संभव था। तुमने थोड़ा मार दिया उसे। और शायद वह आदमी तो जीवित रहेगा, लेकिन तुम हत्यारे हो गए और तुम्हारी ऊर्जा वही हत्या का तत्व तुममें बनाए रखेगी।

विचार, भाव या कर्म—हम उनके बीच कोई भेद नहीं करते। वे एक ही हैं। वे बीज, पौधे और वृक्ष की भांति हैं। यदि बीज है, तो वृक्ष मौजूद ही है—मार्ग पर है, आ रहा है। तो जब भी कोई नकारात्मक विचार तुम्हें पकड़े, तो तुरंत शुद्ध कर लेना उसे, रूपांतरित कर लेना उसे। खतरनाक है वह। प्रत्येक विचार अंतत: कर्म बन जाता है। प्रत्येक विचार अंततः वास्तविकता बन जाता है।

तुमने कभी ध्यान दिया. तुम किसी होटल के कमरे में ठहरते हो, और अचानक तुम परिवर्तन अनुभव करते हो अपने भीतर। या तुम किसी नए घर में आते हो और एक अजीब सी अनुभूति पकड़ती है कि कुछ गड़बड़ है। ऐसा एक निश्चित नियम के अनुसार होता है। होटल के कमरे में बहुत सी बातें होती रहती हैं; बहुत तरह के लोग आते —जाते रहते हैं। वह बहुत ही भीड़ भरी जगह बन जाती है। होटल का कमरा बहुत भीड़ से भरा स्थान होता है—हजारों विचार तैरते रहते हैं उस कमरे में। वह खाली नहीं होता, जैसा कि तुम सोचते हो; वह खाली नहीं होता। वे विचार वहां गूंजते रहते हैं। जब तुम भीतर जाते हो, तो अचानक तुम बहुत से विचारों के प्रभाव में आ जाते हो।

तुम नए घर में आते हो, थोड़ा अजीब लगता है। करीब तीन हफ्ते, इक्कीस दिन लग जाते हैं तुम्हें स्थिर होने में और अनुभव करने में कि यह तुम्हारा घर है, क्योंकि इक्कीस दिन में धीरे— धीरे तुम्हारे विचार उन विचारों को हटा देते हैं जो वहा मौजूद थे और घर पर प्रभाव जमा लेते हैं। फिर चीजें ज्यादा व्यवस्थित हो जाती हैं। तुम चैन अनुभव करते हो—जैसे कि तुम लौट आए अपने तक। कई बार, यदि किसी कमरे में कोई हत्यारा रहा हो और लगातार सोचता रहा हो हत्या के बारे में और योजना बनाता रहा हो, और यदि उसके जाने के छह मिनट के भीतर तुम उस कमरे में जाओ

और वहां ठहरो, तो वह तो शायद हत्या न करे लेकिन तुम कर सकते हो हत्या—क्योंकि उसके विचार इतने शक्तिशाली होते हैं उस समय। छह मिनट तक विचार बहुत शक्तिशाली होते हैं। धीरे— धीरे वे क्षीण होते हैं। या अगर वह आदमी आत्महत्या करने की सोच रहा था, तो कोई और कर सकता है आत्महत्या। तुम्हारा विचार किसी और के लिए कर्म बन सकता है।

लेकिन जब भी तुम कुछ नकारात्मक सोचते हो, तो तुम अपने लिए और दूसरों के लिए बुरा कर्म निर्मित कर रहे होते हो; तुम वास्तविकता को बदल रहे हो। ऐसा ही होता है विधायक ऊर्जा के साथ, विधायक विचार के साथ. जब तुम संसार की ओर करुणा का विचार संप्रेषित करते हो, तो वह ग्रहण किया जाता है। तुम एक बेहतर संसार का निर्माण करते हो—उसके विषय में विचार करने से ही।

और यदि तुम अ—मन की अवस्था को उपलब्ध हो सको तो तुम अपने चारों ओर एक खुला स्थान निर्मित करते हो जो शून्य होता है। उस शून्य आकाश में किसी दिन कोई और बुद्ध हो सकता है। इसीलिए इतना ज्यादा समादर और इतना ज्यादा सम्मान दिया जाता है और इतनी ज्यादा श्रद्धा अर्पित की जाती है संसार के कुछ स्थलों को—मक्का, मदीना या जेरूसलम, या गिरनार, कैलाश। हजारों लोग बुद्ध हुए हैं उन स्थलों से। उन्होंने वहा एक शून्य निर्मित कर दिया है, एक अत्यंत जीवंत शून्य, और वह इतना शक्तिशाली है कि उस शून्य में कोई विचार प्रवेश नहीं कर सकते। यदि तुम कैलाश पर ठीक स्थान ढूंढ सको, और तुम बैठ जाओ वहां, तो तुम अचानक रूपांतरित हो जाओगे—तुम अ—मन के एक विराट ऊर्जा के बवंडर में होते हो। तुम उसमें नहा जाओगे, स्वच्छ हो जाओगे। ऐसा ही नकारात्मक भाव के साथ घटता है जैसा विधायक भाव के साथ घटता है।

तो जब भी तुम कोई नकारात्मक भाव अनुभव करो, तुरंत उसे विधायक भाव में बदल लेना, उसे रूपांतरित कर लेना। मैं नहीं कह रहा हूं कि उसे दबा देना, मैं नहीं कह रहा हूं कि उसका दमन करना—मैं कह रहा हूं कि उसे विपरीत में बदल लेना; उसको मदद देना विपरीत की ओर बढ़ने में। और कुछ कठिन नहीं है यह। व्यक्ति को केवल इस कुशलता को, इस नैक को, जान लेना होता है।



 आज इतना ही।


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