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रविवार, 25 जनवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--4) प्रवचन--71

मृत्‍यु और कर्म का रहस्‍य(प्रवचनग्‍यारहवां)

दिनांक 11 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  
योग—सूत्र:

सोपक्रमं निरूपक्रमं च कर्म तत्‍संयमादपरान्‍तज्ञानमरिष्‍टेभयो वा।। 23।।
सक्रिय व निष्किय या लक्षणात्मक व विलक्षणात्‍मक—इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद मृत्यु की ठीक—ठीक घड़ी की भविष्‍य सूचना पायी जा सकती है।

 मैत्र्यादिषु बलानि।। 24।।
मैत्री पर संयम संपन्‍न करने से या किसी अन्य सहज गुण पर संयम करने से उस गुणवत्‍ता विशेष में बड़ी सक्षमता आ मिलती है।

बलेषु हस्‍तिबलादीनि।। 25।।
हाथी के बल पर संयम निष्‍पादित करने से हाथी की सी शक्‍ति प्राप्‍त होती है।

प्रवृत्‍यालोकन्‍यासात्‍सूक्ष्‍मव्‍यवहितविप्रकृष्‍टज्ञानम्।। 26।।
पराभौतिक मनीषा के प्रकाश को प्रवर्तित करने से सूक्ष्‍म का बोध होता है। प्रच्‍छन्न का अोर दूरस्‍थ तत्‍वों का ज्ञान प्राप्‍त होता है।

भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्।। 27।।
सूर्य पर संयम संपन्‍न करने से संपूर्ण सौर—ज्ञान की उपलब्‍धि होती है।


मैंने एक सुंदर कथा सुनी है। एक बहुत बड़ा मूर्तिकार था, वह एक चित्रकार और साथ ही, एक महान कलाकार भी था। उसकी कला इतनी श्रेष्ठ थी कि जब वह किसी आदमी की प्रतिमा बनाता था, तो आदमी और प्रतिमा के बीच भेद करना कठिन होता था। वह प्रतिमा इतनी सजीव, इतनी जीवंत और ठीक वैसी ही होती थी जैसा आदमी हो। एक ज्योतिषी ने उसे बताया कि उसकी मृत्यु होने वाली है, शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। स्वभावत:, वह तो बहुत ही घबरा गया, और एकदम डर गया—और जैसा कि प्रत्येक आदमी मृत्यु से बचना चाहता है, वह भी मृत्यु से बचना चाहता था। उसने इसे विषय पर खूब सोचा विचारा, ध्यान किया, और अंततः उसे एक सूत्र मिल ही गया। उसने अपनी ही ग्‍यारह प्रतिमाएं बना डाली। जब मृत्यु ने उसके द्वार पर दस्तक दी और मृत्यु का देवता भी आ गया तो वह अपनी ही बनाई हुई ग्यारह प्रतिमाओं के बीच छिपकर खड़ा हो गया। अपनी श्वास को रोककर वह उन ग्‍यारह प्रतिमाओं के बीच छिपकर खड़ा हो गया।
मृत्यु का देवता भी थोड़ा सोच — विचार और उलझन में पड़ गया, उसे अपनी ही आंखों पर भरोसा नहीं आ रहा था। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, यह तो एकदम ही अजीब और अनहोनी घटना थी। परमात्मा तो कभी एक जैसे दो आदमी बनाता ही नहीं है, परमात्मा तो हमेशा एक तरह का एक ही आदमी बनाता है। उसका भरोसा एक ही जैसे दो आदमी बनाने में बिलकुल नहीं है। वह एक ही तरह का उत्पादन नहीं करता। परमात्मा कार्बन —कॉपी के बहुत खिलाफ है, वह तो केवल मौलिक का ही निर्माण करता है। फिर ऐसा कैसे हो गया? सभी बारह के बारह आदमी एक जैसे? बिलकुल एक जैसे? अब मृत्यु उनमें से किसे ले जाए? क्योंकि ले जाना तो केवल एक आदमी को ही था। अंतत: मृत्यु और मृत्यु का देवता कोई निर्णय न ले सके। वे तो उलझन में पड़ गए, और चिंतित, परेशान घबराकर वापस लौट गए। उन्होंने परमात्मा से पूछा, आपने यह क्या किया? बारह आदमी बिलकुल एक जैसे! और मुझे उन में से केवल एक आदमी को ही लाना है। बारह आदमियों में से मैं एक का चुनाव कैसे करूं?
परमात्मा हंसा और परमात्मा ने मृत्यु के देवता को अपने निकट बुलाकर उसके कान में एक मंत्र फूंक दिया। और परमात्मा ने उसे सूत्र दिया कि सत्य और असत्य 'के बीच कैसे भेद करना होता है। परमात्मा ने उसे मंत्र दिया और उससे कहा, बस अब जाकर इस मंत्र का उच्चारण उस कमरे में कर दो, जहां उस कलाकार ने स्वयं को अपनी ही प्रतिमाओं के बीच छिपाया हुआ है।
मृत्यु के देवता ने परमात्मा से पूछा, 'यह सूत्र कैसे काम करेगा?'
परमात्मा ने कहा, 'चिंता मत करो। बस जाओ और जैसा मैंने कहा है, वैसा करो।
मृत्यु का देवता आ गया। लेकिन उसे अभी भी भरोसा नहीं आ रहा था कि यह सूत्र कैसे काम करेगा। लेकिन जब परमात्मा ने कह दिया था, तो उसे वैसा करना ही था। वह उस कमरे में पहुंचा, उसने चारों ओर एक नजर घुमाई और बिना किसी को संबोधित करते हुए वह ऐसे ही बोला, ' श्रीमान, सभी कुछ ठीक है केवल एक बात को छोड्कर। आपने प्रतिमाएं तो बहुत ही सुंदर बनायी हैं, लेकिन आप एक बात चूक गए हैं। एक गलती उनमें रह गयी है।
वह मूर्तिकार यह भूल ही गया कि वह स्वयं को छिपाए हुए है। वह फटाक से कूदकर सामने आ गया, और बोला— 'कौन सी गलती?'
और मृत्यु का देवता हंस पड़ा। और उसने कहा, 'तुम पकड़ में आ गए' हो। यही है एकमात्र गलती तुम स्वयं को नहीं भुला सकते। अब आओ, मेरे साथ चलो।
मृत्यु अहंकार की ही होती है। अगर अहंकार बना रहता है, तो मृत्यु भी बनी रहती है। जिस क्षण अहंकार विलीन हो जाता है, मृत्यु भी विलीन हो जाती है। स्मरण रहे, तुम नहीं मरोगे, लेकिन अगर तुम सोचते हो कि तुम हो, तो तुम्हारी मृत्यु भी होगी। अगर तुम सोचते हो कि तुम्हारा अपना अलग अस्तित्व है, अलग होना है, तो तुम्हारी मृत्यु होगी ही। अहंकार के इस झूठे रूप की मृत्यु होगी ही, लेकिन अगर तुमने स्वयं को अभौतिक, निर — अहंकार के रूप में जाना, तो फिर कहीं कोई मृत्यु नहीं है —फिर तुम अमृत को उपलब्ध हो जाते हो। तुम अमृत को उपलब्ध हो ही, अब तुम्हें इस सत्य का बोध हो जाता है।
वह मूर्तिकार पकड़ में आ गया, क्योंकि वह अपने मूर्तिकार होने के अहंकार को छोड़ न सका।
बुद्ध अपने धम्मपद में कहते हैं अगर तुम मृत्यु को देख सको, तो मृत्यु तुम्हें नहीं देख सकेगी। अगर मृत्यु आने के पूर्व तुम मर जाओ, तो फिर कोई मृत्यु नहीं है, और फिर मूर्तियां बनाने की कोई जरूरत नहीं है। मूर्तियां बनाने से कुछ मदद मिलने नहीं वाली है। अपने स्वयं के भीतर की मूर्ति को तोड़ दो, तो फिर ग्यारह और प्रतिमाएं बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। हमको अहंकार की प्रतिमा को ही तोड़ देना है। फिर और अधिक प्रतिमाएं बनाने की, और अधिक प्रतिछवियां बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। धर्म एक अर्थों में विध्वंसात्मक है। एक तरह से धर्म नकारात्मक है। धर्म तुम्हें मिटाता है —वह तुम्हें संपूर्ण और आत्यंतिक रूप से मिटा देता है।
अगर तुम किसी परिपूर्णता को पाने की किन्हीं धारणाओं को लेकर मेरे पास आते हो, तो और मैं यहां तुमको और तुम्हारी धारणाओं को पूरी तरह मिटा देने के लिए हूं। तुम्हारे पास अपने कुछ मत हैं, विचार हैं, धारणाएं हैं; मेरे अपने ढंग हैं। तुम परिपूर्ण होना चाहते हो — अपने अहंकार को परिपूरित और पुष्ट करना चाहते हो — और मैं चाहूंगा कि तुम अपने अहंकार को गिरा दो, विलीन कर दो, तिरोहित कर दो, क्योंकि उसके बाद ही परिपूर्णता आती है। अहंकार केवल रिक्तता और खालीपन को ही जानता है, इसीलिए वह सदा अतृप्त रहता है। अहंकार अपने स्वभाव के कारण, अपने मूलभूत स्वभाव के कारण ही वह परिपूर्णता को उपलब्ध नहीं हो पाता है। जब .अहंकार नहीं होता है, तो तुम भी नहीं होते हो, और उसके साथ ही परितृप्ति उतर आती है। फिर चाहे परमात्मा कहो या वह नाम दे दो जो पतंजलि चाहते हैं —समाधि—परम की उपलब्धि होना। लेकिन यह घटना तभी घटती है जब तुम नहीं बचते हो, तुम विलीन हो जाते हो, तिरोहित हो जाते हो।
पतंजलि के ये सूत्र स्वयं को कैसे मिटाना, कैसे मृत्यु को उपलब्ध हो जाना, कैसे जीते जी मर जाना, कैसे वास्तविक आत्महत्या कर लेना की वैज्ञानिक विधियां हैं। मैं केवल उसे ही वास्तविक और सच्ची आत्महत्या कहता हूं, क्योंकि अगर हम अपने शरीर की हत्या करते हैं तो वह सच्ची और वास्तविक आत्महत्या नहीं है। अगर हम अपने अहंकार की हत्या। कर देते हैं, तो वही सच्ची और प्रामाणिक आत्महत्या है। और यही विरोधाभास है फिर अगर मृत्यु घटित भी होती है तो शाश्वत जीवन उपलब्ध हो जाता है। अगर हम जीवन को पकड़ने की कोशिश करेंगे, तो बार — बार मरना पड़ेगा। और जीवन इसी भांति चलता चला जाएगा जन्म होगा, मृत्यु होगी; फिर जन्म होगा, फिर मृत्यु होगी और यह एक दुष्‍चक्र की भाति चलता चला जाएगा। और अगर हम उस चक्र को पकड़े रहे, तो हम चक्र के साथ चलते ही रहेंगे।
जन्म —मरण के चक्र से बाहर हो जाओ। इसके बाहर कैसे होना? यह बहुत ही असंभव मालूम होता है, क्योंकि हमने स्वयं को कभी न होने की भांति जाना ही नहीं है, हमने स्वयं को कभी आकाश की भांति शुद्ध आकाश की भांति जाना ही नहीं है, जहां भीतर कोई भी नहीं होता है।
ये सूत्र हैं। प्रत्येक सूत्र को बहुत गहरे में समझ लेना। सूत्र बहुत ही सघन होता है। सूत्र बीज की भांति होता है। सूत्र को अपने हृदय में बहुत गहरे बैठ जाने देना, वह बीज हृदय में बैठ सके उसके लिए हृदय की भूमि को उपजाऊ बनाना होता है। तभी वह बीज प्रस्फुटित होता है। और बीज प्रस्फुटित हो सके तभी उसकी सार्थकता है।
मैं तुम्हें इसीलिए फुसला रहा हूं कि तुम खुलो, ताकि बीज तुम्हारे अंतस्तल में ठीक जगह गिर सके, और बीज तुम्हारे न होने के गहन अंधकार में बढ़ सके। धीरे — धीरे वह तुम्हारे भीतर न होने के अंधकार में बढ़ने लगेगा, विकसित होने लगेगा। सूत्र एक बीज की भांति है। बौद्धिक रूप से सूत्र को समझ लेना बहुत आसान है। लेकिन उसकी सार्थकता को शुद्ध सत्ता के रूप में पाना बहुत कठिन है। लेकिन पतंजलि भी यही चाहेंगे, और मैं भी यही चाहूंगा कि तुम शुद्ध सत्ता के रूप में सूत्र को समझ लो।
तो यहां पर मेरे साथ मात्र बौद्धिक बनकर मत बैठे रहना। मेरे साथ एक अंतर—संबंध और ताल —मेल बैठाना। मुझे केवल सुनना ही मत, बल्कि मेरे साथ हो लेना। सुनना तो गौण बात है, मेरे साथ हो जाना प्राथमिक बात है। बुनियादी बात तो यह है कि बस तुम मेरे संग—साथ हो जाना। तुम स्वयं को अभी और यहीं पर समग्ररूपेण मेरे साथ, मेरी मौजूदगी में होने की अनुमति दो, क्योंकि वैसी मृत्यु मुझे घटित हो चुकी है। वह तुम्हारे लिए सक्रामक हो सकती है। मैंने वैसी आत्महत्या कर ली है। अगर तुम मेरे निकट आते हो, और मेरे सान्निध्य में एक क्षण को भी मेरी अंतर्वीणा के साथ तुम्हारे अंतर — स्वर मिल जाते हैं, तो तुम्हें मृत्यु की झलक मिल जाएगी।
और जब बुद्ध कहते हैं तो बिलकुल ठीक कहते हैं, 'अगर तुम मृत्यु को देख सको तो मृत्यु तुम्हें न देख सकेगी क्योंकि जिस क्षण हम मृत्यु को जान लेते हैं, हम मृत्यु का अतिक्रमण कर जाते हैं। तब फिर कहीं कोई मृत्यु नहीं रह जाती है।

पहला सूत्र :
'सक्रिय व निष्‍क्रिय या लक्षणात्मक व विलक्षणात्मक—इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद, मृत्यु की ठीक—ठीक घड़ी की भविष्य सूचना पायी जा सकती है।

बहुत सी बातें समझ लेने जैसी हैं। पहली तो बात कि मृत्यु की ठीक—ठीक घड़ी जानने की चिंता ही क्यों करनी? उससे मदद क्या मिलने वाली है? उसमें सार क्या है? अगर हम पश्चिमी मनस्विदों से पूछें, तो वे इस ढंग के चित्त को अस्वाभाविक मानसिक विकार ही कहेंगे। मृत्यु के बारे में इतना विचार ही क्यों करना? मृत्यु से तो जितना हो सके बचो। और अपने मन में यह धारणा बनाए रहो कि मेरी मृत्यु कभी नहीं होगी—कम से कम मुझे मृत्यु घटित नहीं होगी। मृत्यु हमेशा दूसरों की होती है। हम लोगों को मरते हुए देखते हैं, हमने स्वयं को कभी मरते हुए नहीं देखा है। तो फिर कैसा भय? क्यों भयभीत होना? हो सकता है हम अपवाद हों।
लेकिन ध्यान रहे, कोई भी अपवाद होता नहीं है, और मृत्यु तो हमारे जन्म के साथ ही घटित हो गयी होती है, इसलिए हम मृत्यु से बच नहीं सकते हैं।
फिर जन्म तो हमारे हाथ के बाहर की बात है। हम जन्म के लिए कुछ नहीं कर सकते, जन्म तो हो ही चुका है। जन्म तो अब अतीत की बात हो गयी, जन्म तो हो ही चुका है। अब उसे अघटित नहीं किया जा सकता है। मृत्यु की घटना अभी होने को है, अत: उसके लिए कुछ करना संभव है।
पूरब के सभी धर्म, मृत्यु के दर्शन पर आधारित हैं, क्योंकि वही एक ऐसी संभावना है जिसे अभी होना है। अगर मृत्यु को पहले से ही जान लिया जाए, तो संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं, बहुत से द्वार खुल जाते हैं। तब मृत्यु हमारे हाथ में होती है। हम अपने ढंग से मर सकते हैं, फिर हम अपनी ही मृत्यु पर अपने हस्ताक्षर कर सकते हैं। फिर यह हमारे हाथ में होता है कि हम ऐसा इंतजाम कर लें कि दोबारा जन्म न लेना पड़े—और जीवन का पूरा का पूरा अर्थ यही तो है। और इसमें कुछ मन की रुग्णता नहीं है। यह एकदम वैज्ञानिक है। जब प्रत्येक व्यक्ति को मरना ही है, तो मृत्यु के विषय में सोचा ही न जाए उस पर ध्यान न दिया जाए, उस पर ध्यान केंद्रित न किया जाए यह तो नितांत मूढ़ता होगी। मृत्यु को गहराई से समझा न जाए, यह तो सबसे बड़ी मूढ़ता होगी।
मृत्यु तो होगी ही। लेकिन अगर मृत्यु को जान लिया जाए तो फिर जीवन में बहुत सी संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं।
पतंजलि कहते हैं कि यहां तक कि किस दिन, किस समय, किस मिनट, किस क्षण मृत्यु घटित होने वाली है, पहले से जाना जा सकता है। अगर पहले से ठीक—ठीक मालूम हो कि मृत्यु कब घटित होने वाली है, तो हम तैयार हो सकते हैं। तब हम मृत्यु को घर आए अतिथि की तरह स्वीकार कर सकते हैं, उसका गुणगान कर सकते हैं। क्योंकि मृत्यु कोई शत्रु नहीं है। सच तो यह है मृत्यु परमात्मा के द्वारा दिया हुआ उपहार है। मृत्यु से होकर गुजरना एक महान अवसर है। अगर हम सजग होकर, होशपूर्वक और जागरूक होकर मृत्यु में प्रवेश कर सकें, मृत्यु हमारे लिए एक ऐसा द्वार बन सकती है, कि फिर हमारा कभी जन्म नहीं होगा—और जब जन्म नहीं होगा, तो फिर कहीं कोई मृत्यु भी नहीं बचती है। अगर इस अवसर को चूक गए, तो फिर से जन्म होगा ही। अगर चूकते ही गए, चूकते ही गए तो बार—बार तब तक जन्म होता ही रहेगा, जब तक कि हम मृत्यु का पाठ न सीख लेंगे।
इसे ऐसे समझें. पूरा का पूरा जीवन मृत्यु को सीखने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, जीवन मृत्यु की ही तैयारी है। इसीलिए तो मृत्यु अंत में आती है। मृत्यु जीवन का ही शिखर है।
खासतौर से पश्चिम के मनस्विद आज इस बारे में जागरूक हो रहे हैं कि गहन प्रेम के क्षणों में परम आनंद उपलब्ध किया जा सकता है। प्रेम के क्षणों में आनंद का चरम रूप उपलब्ध हो सकता है जो बहुत ही तृप्तिदायी, उल्लास से आपूर्ति, आनंद में डुबा देने वाला होता है। उसके बाद व्यक्ति परिशुद्ध हो जाता है। उसके बाद व्यक्ति ताजा, युवा और प्राणवान अनुभव करता है—सारी धूल — धवांस ऐसे चली जाती है जैसे कि किसी ऊर्जा से स्नान कर लिया हो।
लेकिन पश्चिम के मनस्विदों को अभी भी इस बात का पता नहीं चला है कि काम—पूर्ति एक बहुत ही छोटी मृत्यु के समान है। और जो व्यक्ति गहन काम के आनंद में होता है, वह स्वयं को प्रेम में मरने देता है। वह एक छोटी मृत्यु है, लेकिन फिर भी मृत्यु की तुलना में कुछ भी नहीं है। मृत्यु तो सबसे बड़ा आनंद है, सबसे बड़ी मृत्यु है।
जब व्यक्ति मरने वाला होता है, तो मृत्यु की प्रगाढ़ता इतनी तीव्र होती है कि अधिकांश लोग मृत्यु के समय बेहोश हो जाते हैं र मूर्च्छित हो जाते हैं। ऐसे लोग मृत्यु का सामना नहीं कर पाते हैं। जिस घड़ी मृत्यु आती है, आदमी इतना भयभीत हो जाता है, इतनी चिंता और पीड़ा से भर जाता है कि उससे बचने के लिए बेहोश हो जाता है। लगभग निन्यानबे प्रतिशत लोग मूर्च्छा में, बेहोशी में ही मरते हैं। और इस तरह से वे एक सुंदर अवसर को अपने हाथों खो देते हैं।
जीवन में ही मृत्यु को जान लेना केवल मात्र एक विधि है, जो इसके लिए तैयार होने में मदद करती है कि जब मृत्यु आए तो हम पूरी तरह से होशपूर्वक, जाग्रत रहकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर सकें। जब भी मृत्यु हमारे द्वार पर आए, तो हम मृत्यु के साथ जाने के लिए तैयार रहें, हम मृत्यु के सामने समर्पण कर सकें, और जब मृत्यु आए तो उसे हम सहर्ष गले से लगा सकें, उसे अंगीकार कर सकें। जब भी कोई व्यक्ति होशपूर्वक मृत्यु में प्रवेश करता है, फिर उसके लिए कहीं कोई जन्म शेष नहीं रह जाता है —क्योंकि उसने अपना पाठ सीख लिया है, वह जीवन की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया है। अब संसार की पाठशाला में लौटने की उसे जरूरत नहीं है। यह जीवन एक पाठशाला है—मृत्यु को सीखने, समझने का एक शिक्षण स्थल है। और इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
दुनिया के सभी धर्म मृत्यु से संबंधित हैं। और अगर किसी धर्म का संबंध मृत्यु से नहीं है, तो फिर वह धर्म धर्म नहीं हो सकता। वह समाज—शास्त्र, नीति—शास्त्र, राजनीति तो हो सकता है, लेकिन फिर उसका धर्म से कोई संबंध नहीं हो सकता। धर्म तो अमृत की खोज है, अमृत की तलाश है, लेकिन मृत्यु से गुजरकर ही अमृत की उपलब्धि हो सकती है।
पहला सूत्र कहता है. 'सक्रिय व निष्किय या लक्षणात्मक व विलक्षणात्मक—इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद, मृत्यु की ठीक —ठीक घड़ी की भविष्य सूचना पायी जा सकती है।कर्म के विषय में पूरब का विश्लेषण कहता है कि तीन प्रकार के कर्म होते हैं। उन्हें समझ लेना। पहला कर्म, संचित कर्म कहलाता है। संचित का अर्थ होता है समग्र, पिछले जन्मों के सभी कर्म। हमने जो कुछ भी किया है, जिस तरह से परिस्थितियों के साथ प्रतिक्रिया की, जो कुछ भी सोचा, या जो भी इच्छाएं, वासनाएं और कामनाएं कीं, जो कुछ भी खोया—पाया, उन सबका समग्ररूप—हमारे सभी जन्मों के कर्मों का, विचारों का, भावों का समग्ररूप संचित कहलाता है। संचित शब्द का अर्थ होता है संपूर्ण, पूर्ण रूप से संचित।
दूसरे प्रकार का कर्म प्रारब्ध कर्म, कहलाता है। दूसरे प्रकार का कर्म संचित का ही हिस्सा होता है, जिसे हमको इस जीवन में पूरा करना होता है, जिस पर इस जीवन में कार्य करना होता है। हमने बहुत से जीवन जीए हैं, उन सभी जीवनों में हमने बहुत कुछ संचित किया है। अब उन्हीं कर्मों को इस जीवन में अभिव्यक्त होने का, चरितार्थ होने का अवसर मिलेगा। हमको इस जीवन में किसी न किसी समय दुख, पीड़ा, कष्ट में से होकर गुजरना ही पड़ेगा, क्योंकि इस जीवन की भी अपनी सीमा है —सत्तर, अस्सी या ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष। और सौ वर्षों में सारे के सारे पिछले कर्मों को जीना संभव नहीं है —वे कर्म जो संचित हैं, जो इकट्ठे हो गए हैं —केवल उनका कोई हिस्सा, कोई भाग। वही भाग जो जीवन में पिछले कर्मों के रूप में आता है, प्रारब्ध कहलाता है।
फिर है तीसरे प्रकार का कर्म, जो क्रियामान कहलाता है। यह दिन —प्रतिदिन का कर्म है। पहला तो है संचित —समग्र, फिर उसका छोटा हिस्सा है जो इस जीवन के लिए है, फिर उससे भी छोटा हिस्सा जिसे वर्तमान पल में जीना होता है। हर क्षण, हर पल हमारे लिए एक अवसर है, हम कुछ करें या न करें। अगर कोई हमारा अपमान कर देता है. हम क्रोधित हो जाते हैं। हम प्रतिक्रिया करते हैं, हम कुछ न कुछ तो करते ही हैं। लेकिन अगर हम सजग हों, जाग्रत हों, तो बस हम साक्षी रह सकते हैं, हम क्रोधित नहीं होंगे। तब हम केवल साक्षी बने रह सकते हैं। तब हम कुछ भी नहीं करें, किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करें। बस शांत, स्वयं में थिर और केंद्रित रहें। फिर दूसरा कोई भी हमको अशांत नहीं कर सकता।
जब हम दूसरे के द्वारा अशांत हो जाते हैं और जो प्रतिक्रिया करते हैं, तब क्रियामान कर्म संचित कर्म के गहन कुंड में जा गिरता है। तब हम फिर से कर्मों का संचय करने लगते हैं, और तब वे ही कर्म हमारे भविष्य के जन्मों के लिए एकत्रित होते चले जाते हैं। अगर हम किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं करें, तो पिछले कर्म धीरे — धीरे समाप्त होने लगते हैं। उदाहरण के लिए, अगर मैंने किसी जन्म में किसी आदमी का अपमान किया है, तो अब इस जन्म से उसने मेरा अपमान कर दिया, तो बात समाप्त हो गयी, हिसाब —किताब बराबर हो गया। अगर व्यक्ति जागरूक हो तो वह प्रसन्नता अनुभव करेगा कि चलो कम से कम यह हिस्सा तो पूरा हुआ। अब वह थोड़ा मुक्त हो गया।
एक बार एक आदमी बुद्ध के पास आया और उनका अपमान करके चला गया। बुद्ध जैसे बैठे थे, वैसे ही शांत बैठे रहे। वह जो भी कह रहा था, बुद्ध ध्यानपूर्वक उसकी बात सुनते रहे। और जब थोड़ी देर बाद वह शांत हो गया, तो बुद्ध ने उस आदमी को धन्यवाद दिया। उस आदमी को तो कुछ समझ में नहीं आया। वह बुद्ध से बोला, क्या आप पागल हैं, आपका दिमाग तो ठीक है न? मैंने आपका इतना अपमान किया, आपको इतनी पीड़ा पहुंचाई, और आप मुझको धन्यवाद दे रहे हैं? बुद्ध बोले —ही, क्योंकि मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने कभी अतीत में तुम्हारा अपमान किया था। और मैं तुम्हारी प्रतीक्षा ही करता था, क्योंकि जब तक तुम आ न जाओ मैं पूरी तरह से मुक्त न हो सकता था। तुम ही एकमात्र अंतिम आदमी बचे थे, अब मेरा लेन —देन समाप्त हुआ। यहां आने के लिए तुम्हारा धन्यवाद। तुम शायद और थोड़ी देर से आते, या शायद तुम इस जन्म में आते ही नहीं, तब तो मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा करनी ही पड़ती। और मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि अब बहुत हो चुका। मैं अब किसी नयी श्रृंखला का निर्माण नहीं करना चाहता हूं।
इसके बाद आता है क्रियामान कर्म, जो दिन —प्रतिदिन का कर्म है, जो कहीं संचित नहीं होता, जो कर्मों के जाल में वृद्धि नहीं करता, सच तो यह है, अब पहले की अपेक्षा कर्मों के जाल में थोड़ी कमी आ जाती है। और यही सच है प्रारब्ध कर्म के लिए —इसी पूरे जीवन में कर्मों का जाल कट जाता है। अगर इस जीवन में प्रतिक्रिया करते ही चले जाओ, तो फिर कर्मों का जाल और बढ़ता चला जाता है। और इस तरह से फिर कर्मों के जाल की जंजीरों पर जंजीरें बनती चली जाती हैं, और व्यक्ति को फिर —फिर बंधनों में बंधना पड़ता है।
पूरब में जो मुक्ति की अवधारणा है, उसे समझने की कोशिश करो। पश्चिम में मुक्ति का अर्थ है राजनीतिक मुक्ति। भारत में हम राजनीतिक मुक्ति की कोई बहुत ज्यादा फिकर नहीं लेते, क्योंकि हम कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति आत्मिक रूप से मुक्त है, तौ इस बात से कुछ फर्क नहीं पड़ता कि फिर वह राजनीतिक रूप से मुक्त है या नहीं। आत्मिक रूप से मुक्त होना बुनियादी बात है, आधारभूत बात है।
बंधन हमारे द्वारा किए हुए कर्मों के कारण निर्मित होते हैं। जो कुछ भी हम मूर्च्छा में, बेहोशी की अवस्था में करते हैं, वह कर्म बन जाता है। जो कार्य मूर्च्छा में किया जाता है वह कर्म बन जाता है। क्योंकि कोई भी कार्य जो मूर्च्छा में किया जाए वह कार्य होता ही नहीं, वह तो प्रतिक्रिया होती है। जब पूरे होश के साथ, पूरी जागरूकता के साथ कोई कार्य किया: जाता है तो वह प्रतिक्रिया नहीं होती, वह क्रिया होती है, उसमें सहज —स्फुरणा और समग्रता होती है। वह अपने पीछे किसी प्रकार का कोई चिह्न नहीं छोड़ती। वह कार्य स्वयं में पूर्ण होता है, वह अपूर्ण नहीं होता। और अगर वह क्रिया अपूर्ण है तो किसी न किसी दिन उसे पूर्ण होना ही होगा। तो अगर इस जीवन में व्यक्ति सजग और जागरूक रह सके, तो प्रारब्ध कर्म मिट जाता है और कर्मों का भंडार धीरे — धीरे खाली हो जाता है। फिर कुछ जन्म और, फिर यह कर्मों का जाल बिलकुल टूट जाता है।
यह सूत्र कहता है, 'इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद.......'
पतंजलि का संकेत संचित और प्रारब्ध कर्म की ओर है, क्योंकि क्रियामान कर्म तो प्रारब्ध कर्म के ही एक भाग के अतिरिक्त कुछ और नहीं है, इसलिए पतंजलि कर्मों के दो ही भेद मानते हैं।
संयम क्या है? थोड़ा इसे समझने की कोशिश करें। संयम मानवीय चेतना का सबसे बड़ा जोड़ है, वह तीन का जोड़ है धारणा, ध्यान, समाधि का जोड़ संयम है।
साधारणतया मन निरंतर एक विषय से दूसरे विषय तक उछल—कूद करता रहता है। एक पल को भी किसी विषय के साथ एक नहीं हो पाता। मन निरंतर इधर से उधर कूदता रहता है, छलांग मारता रहता है। मन हमेशा चलता ही रहता है, मन एक प्रवाह है। अगर इस क्षण कोई चीज मन का केंद्र—बिंदु है, तो दूसरे ही क्षण कोई और चीज होती है, उसके अगले क्षण फिर कोई और ही चीज उसका केंद्र—बिंदु होती है। यह साधारण मन की अवस्था है।
मन की इस अवस्था से अलग होने का पहला चरण है —धारणा। धारणा का अर्थ होता है—एकाग्रता। अपनी समग्र चेतना को एक ही विषय पर केंद्रित कर देना, उस विषय को ओझल न
होने देना, फिर—फिर अपनी. चेतना को उसी विषय पर केंद्रित कर लेना, ताकि मन की उन अमूर्च्छित आदतो को जो निरंतर प्रवाहमान हैं, उन्हें गिराया जा सके। क्योंकि अगर मन के निरंतर परिवर्तित होने की आदत गिर जाए मन की चंचलता मिट जाए, तो व्यक्ति अखंड हो जाता है, उसमें एक तरह की थिरता आ जाती है। जब मन में बहुत से विषय लगातार चलते रहते हैं, बहुत से विषय गतिमान रहते हैं, तो व्यक्ति खंड—खंड हो जाता है, विभक्त हो जाता है, टूट जाता है। इसे थोड़ा समझने की कोशिश करें। हम विभक्त रहते हैं, क्योंकि हमारा मन थिर नहीं रहता है, बंटा हुआ रहता है।
उदाहरण के लिए, तुम आज किसी एक स्त्री से प्रेम करते हो, कल किसी दूसरी स्त्री से, फिर तीसरे दिन किसी और स्त्री से। तो यह जो मन की स्थिति है, यह तुम्हारे भीतर विभाजन निर्मित कर देगी। फिर तुम एक नहीं रह सकोगे, तुम बहुत से रूपों में विभक्त हो जाओगे। तुम एक भीड़ बन जाओगे।
इसीलिए पूरब में हमारा जोर इस बात पर है कि प्रेम ज्यादा से ज्यादा लंबे समय के लिए हो। पूरब ने ऐसे प्रयोग किए हैं कि कोई जोड़ा कई—कई जन्मों तक साथ—साथ ही रहता है —वही स्त्री, वही पुरुष. यह बात स्त्री और पुरुष दोनों को एक परिपूर्णता देती है। बार—बार स्त्री या पुरुष को बदलना अस्तित्व को नष्ट करता है, खंडित करता है।
इसलिए अगर आज पश्चिम में स्कीजोफ्रेनिया एक स्वाभाविक बात बनती जा रही हो, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है, यह स्वाभाविक है। पश्चिम में आज सभी कुछ बहुत तेजी से, बहुत तीव्रता से बदल रहा है।
मैंने सुना है कि हालीवुड की एक अभिनेत्री ने अपने ग्यारहवें पति से विवाह किया। वह घर आयी, और उसने अपने बच्चों से नए पिता का परिचय करवाया। बच्चे तुरंत एक रजिस्टर उठाकर ले आए, और पिता से बोले, कृपया इस रजिस्टर में हस्ताक्षर कर दें। क्योंकि आज तो आप यहां हैं, क्या पता कल आप चले जाएं? और हम अपने सभी पिताओं के हस्ताक्षर और आटोग्राफ ले रहे हैं।
पश्चिम में आदमी सभी कुछ तेजी से बदल रहा है, मकान बदल रहा है, हर चीज बदल रहा है। अमरीका में किसी आदमी की नौकरी की अवधि अधिक से अधिक तीन वर्ष की होती है। वे कार्य भी निरंतर बदलते रहते हैं। मकान की तो बात अलग —किसी एक ही शहर में रहने की आम आदमी की औसत सीमा भी तीन वर्ष है। विवाह की औसत सीमा भी अमरीका में तीन वर्ष है।
कुछ भी हो, इन तीन वर्ष का जरूर कुछ राज मालूम होता है। ऐसा मालूम होता है कि अगर कोई आदमी चौथे वर्ष भी उसी स्त्री के साथ रहे, तो उसे भय लगता है कि जीवन में कहीं कोई ठहराव न आ जाए। अगर कोई आदमी एक ही कार्य तीन वर्ष से अधिक समय तक करता रहे, तो उसे भय लगने लगता है कि कहीं वह एक ही जगह तो नहीं रुककर रह गया है। इसीलिए अमरीका में लोग हर तीन वर्ष में सब कुछ बदल देते हैं, वे खानाबदोश का जीवन जीते है। लेकिन इससे आदमी भीतर से बंटा हुआ हो जाता है।
पूरब में आदमी जो भी कार्य करता है, वह उसके जीवन का ही भाग बन जाता है। जो व्यक्ति ब्राह्मण घर में पैदा हुआ है, वह जीवन भर ब्राह्मण ही बना रहेगा। और जीवन में थिरता के लिए, जीवन को ठहराव देने के लिए यह बात एक बड़ा प्रयोग बन जाती थी। एक आदमी अगर मोची के
घर में पैदा हुआ है, तो वह जीवन भर मोची ही बना रहेगा। फिर कुछ भी हों—चाहे विवाह हो परिवार हो, कार्य हो, लोग जीवन भर उसी परिवार में रहते थे, और एक ही कार्य करते रहते थे। लोग जिस शहर में जन्म लेते थे, वे उसी शहर में ही मर जाते थे, उस शहर से बाहर भी कभी नहीं जाते थे।
लाओत्सु ने एक जगह कहा है, 'मैंने सुना है कि पुराने समय में लोग नदी के उस पार नहीं गए थे।वे लोग दूसरी ओर से कुत्तों के भौंकने की आवाजें सुनते थे, नदी के उस पार से आती आवाजें सुनते थे। और वे अनुमान लगाते थे कि उधर जरूर कोई शहर होगा, क्योंकि सांझ को वे लोग दूसरी ओर से धुआं उठता देखते थे —तो लोग जरूर भोजन भी बनाते होंगे। वे कुत्तों का भौंकना सुनते थे, लेकिन उन्होंने उधर जाकर देखने की कभी फिकर नहीं की। लोग एक ही जगह सुख—चैन और शाति से रहा करते थे।
यह जो आदमी का मन निरंतर बदलाव चाहता है, वह इतना ही बताता है कि आदमी का मन अशांत है। व्यक्ति कहीं भी, किसी भी जगह अधिक देर तक टिककर नहीं रह पाता है, तब उसका पूरा जीवन ही निरंतर परिवर्तन का जीवन बन जाता है। ठीक वैसे ही जैसे कि किसी वृक्ष को अगर बार—बार पृथ्वी से उखाड़ा जाए और उसे अपनी जड़ों को पृथ्वी में जमाने का मौका ही न मिल सके। तब वृक्ष केवल देखने भर को जीवित रहेगा, वह वृक्ष कभी भी खिल न पाएगा। वैसा संभव ही नहीं है, क्योंकि फूल खिलने के पहले वृक्ष को अपनी जड़ें पृथ्वी में जमानी होंगी।
तो एकाग्रता का अर्थ होता है अपनी चेतना को किसी एक विषय पर केंद्रित कर देना और वहीं बने रहने की क्षमता पा लेना—फिर वह विषय कोई भी हो सकता है। अगर आप एक गुलाब के फूल को देखते हैं, तो उसे ही देखते चले जाएं। मन बार — बार इधर —उधर जाना चाहेगा, मन इधर—उधर दौड़ेगा, लेकिन आप मन को फिर से गुलाब के फूल पर ही लौटा लाएं। धीरे — धीरे मन थोड़ा अधिक समय तक गुलाब के साथ होने लगेगा। जब मन अधिक समय तक गुलाब के साथ एक होकर रह सकेगा, तब आप पहली बार जान सकेंगे कि गुलाब क्या है, गुलाब का फूल क्या है। तब आपके लिए गुलाब का फूल केवल मात्र गुलाब का फूल ही नहीं रह जाएगा तब आपको गुलाब के माध्यम से परमात्मा ही मिल जाता है। तब उसमें से उठती सुवास केवल गुलाब की ही नहीं होती, वह सुवास दिव्य की परमात्मा की हो जाती है। लेकिन हम ही हैं कि गुलाब के साथ एक नहीं हो पाते, और उसके अपूर्व सौंदर्य से वंचित रह जाते हैं।
किसी वृक्ष के पास जाकर बैठ जाओ और उसके साथ एक हो जाओ। जब अपने प्रेमी या प्रेमिका के निकट बैठो तो उसके साथ एक हो जाओ। और अगर मन इधर—उधर जाए भी, तो स्वयं को वहीं केंद्रित किए रहो। अन्यथा होता क्या है? प्रेम हम स्त्री से कर रहे होते हैं, और सोच किसी और चीज के बारे में रहे होते हैं—शायद उस समय किसी दूसरी ही दुनिया में खो गए होते हैं। प्रेम में भी हम एकाग्रचित्त नहीं हो पाते हैं। तब हम बहुत कुछ चूक जाते हैं। उस क्षण अदृश्य का एक द्वार खुलता है, लेकिन हम वहा पर होते ही नहीं हैं देखने को। और जब तक हम लौटकर आते हैं, वह द्वार बंद हो चुका होता है।
हर क्षण, हर पल हमें परमात्मा को देखने के लाखों अवसर उपलब्‍ध होते हैं, लेकिन तुम स्वयं में मौजूद ही नहीं होते हो। परमात्मा आता है द्वार खटखटाता है, लेकिन हम वहां होते ही नही हैं। हम कभी मिलते ही नहीं हैं। हमारा मन न जाने कहौ —कहां भटकता रहता है। इधर—उधर भटकता रहता है। यह मन का भटकना, यह मन का घूमना कैसे बंद हो जाए धारणा का अर्थ यही है। संयम की ओर बढ़ने के पूर्व धारणा पहला चरण है।
दूसरा चरण है ध्यान। धारणा में, एकाग्रता में हम अपने मन को एक केंद्र में ले आते हैं, एक विषय पर केंद्रित कर लेते हैं। धारणा में जिस विषय पर मन केंद्रित हस्तो है, वह विषय महत्वपूर्ण होता है। जिस विषय पर मन को केंद्रित करना है, उस विषय को बार —बार अपनी चेतना में उतारना होता है उसमें विषय की धारा खोनी नहीं चाहिए। हगरणा में विषय महत्वपूर्ण होता है।
दूसरा चरण है ध्यान, मेडीटेशन। ध्यान में विषय महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, विषय गौण हो जाता है। ध्यान में चेतना का प्रवाह महत्वपूर्ण हो जाता है —चेतना जो विषय पर उडेली जा रही है। फिर चाहे उसमें कोई भी विषय काम देगा, लेकिन चेतना को उस पर सतत रूप से प्रवाहित होना चाहिए, उसमें जरा भी अंतराल नहीं आना चाहिए।
क्या कभी तुमने गौर किया है? अगर एक पात्र से दूसरे पात्र में पानी डालो, तो उसमें थोड़े — थोड़े गैप्स, अंतराल आते हैं। अगर एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल को डालो, तो क्समें बिलकुल गैप्स या अंतराल नहीं आते। तेल में एक सातत्य होता है, एक प्रवाह होता है, पानी में सातत्य नहीं होता है। ध्यान का, मेडिटेशन का अर्थ है कि चेतना का एकाग्रता के विषय पर सतत रूप से गिरना। नहीं तो चेतना हमेशा कंपायमान रहती है, टिमटिमाते दीए की भांति होती है, उसमें कोई प्रकाश नहीं होता। और कई बार चेतना अपनी पूरी प्रगाढ़ता के साथ होती है, लेकिन फिर लुप्त हो जाती है, और इस तरह से चेतना की लौ कंपायमान रहती है। लेकिन ध्यान में चेतना की धारा निरंतर प्रवाहमान बनी रहे, इस पर ध्यान रखना होता है।
जब चेतना की धारा निरंतर प्रवाहमान रहती है, तो व्यक्ति अत्यधिक शक्तिशाली हो जाता है। उस समय पहली बार अनुभव होता है कि जीवन क्या है। पहली बार तुम्हारा जीवन छिद्ररहित होता है। पहली बार व्यक्ति अपने साथ, अपने में पूर्ण होता है। और स्वयं के साथ होने का अर्थ है, चेतना के साथ एक होना। अगर चेतना पानी की बूंदों की भांति अलग — थलग है और उसमें कोई सातत्य नहीं है, तो फिर व्यक्ति सच में चेतना संपन्न नहीं हो सकता। तब तो वे गैप्स, वे अंतराल जीवन में अशांति बन जाएंगे। तब जीवन एकदम बुझा —बुझा सा नीरस और निष्प्राण हो जाएगा; उसमें किसी तरह की ऊर्जा, शक्ति और ओज नहीं होगा। और जब चेतना की धारा नदी की भांति सतत प्रवाहित होती है, तो व्यक्ति ऊर्जा का झरना, ऊर्जा का स्रोत बन जाता है।
यह है संयम का द्वितीय चरण। और फिर संयम का तीसरा चरण जो परम और अंतिम है —वह है समाधि। धारणा में विषय महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि उसमें बहुत से विषयों में से किसी एक विषय को चुनना होता है। ध्यान में, मेडीटेशन में चेतना महत्वपूर्ण होती है, उसमें चेतना को एक निरंतर प्रवाह बना देना होता है। समाधि में द्रष्टा महत्वपूर्ण होता है, लेकिन अत में द्रष्टा को भी गिरा देना होता है।
तुमने बहुत से विषयों को गिराया। जब बहुत से विषय होते है, तो विचारों की एक भीड़ होती है, चित्त बहु —चित्तवान होता है —तब एक चित्त नहीं होता, बहुत से चित्त होते हैं। लोग मेरे पास
आकर कहते हैं, हम संन्यास लेना चाहते हैं, लेकिन वही 'लेकिन' दूसरे चित्त को, दूसरे मन को बीच में ले आता है। हम सोचते हैं कि वे दोनों एक ही हैं, किंतु वह 'लेकिन' ही दूसरे मन को बीच में ले आता है। वे दोनों एक नहीं हैं। वे संन्यास लेना भी चाहते हैं और साथ ही वे संन्यास लेना भी नहीं चाहते हैं —वे अपने दो मन, दो विचारों के बीच निर्णय नहीं ले पाते। अगर हम इस बात का निरीक्षण करें, तो हम पाएंगे कि हमारे भीतर बहुत से विचार निरंतर चल रहे हैं —हमारे भीतर विचारों की एक भीड़ मची हुई है।
जब मन में बहुत सारे विषय होते है, तो उनसे संबंधित बहुत से विचार भी होते हैं। जब एक ही विषय होता है, तो एक ही मन रह जाता है —फिर एक मन एकाग्र होता है, स्वयं में केंद्रित होता है, स्वयं में प्रतिष्ठित होता है, स्वयं में निहित होता है। लेकिन अब अंत में इस एक मन को भी गिरा देना होता है, अन्यथा हम अहंकार से जुड़े रहेंगे, अहंकार फिर भी बिदा नहीं होगा।
पहले मन से बहुत से विचारों की भीड़ चली गई, अब उस एक विचार को एक विषय को भी गिरा दैना है। समाधि में इस एक मन को भी गिरा देना होता है। और जब मन गिर जाता है, तो वह एक विषय भी मिट जाता है, क्योंकि बिना मन के वह भी नहीं रह सकता। वे दोनों साथ —साथ में ही अस्तित्व रखते हैं।
समाधि में केवल चैतन्य शुद्ध आकाश की तरह बच रहता है।
इन तीनों के सम्मिलन को ही संयम कहते हैं। संयम मानवीय चेतना का सबसे बड़ा जोड़ है। अब तुम्हें इन सूत्रों को समझना आसान होगा 'सक्रिय व निष्किय या लक्षणात्मक व विलक्षणात्मक—इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद, मृत्यु की ठीक —ठीक घड़ी की भविष्य सूचना पायी जा सकती है।
अब अगर चित्त एकाग्र हो, ध्यान करते हो, और समाधि के साथ तुम्हारे तार मिले हुए हैं, तो मृत्यु की ठीक —ठीक घड़ी को जाना जा सकता है। अगर संयम के साथ —साथ चैतन्य की ओर भी अग्रसर होते हो, तो इससे जो विराट शक्ति का उदय हुआ है, जब मृत्यु की घड़ी निकट आएगी, तुम्हें तुरंत पता चल जाएगा कि तुम कब मरने वाले हो।
ऐसा कैसे होता है? जब किसी अंधेरे कमरे में हम जाते हैं, तो हमें कुछ दिखाई नहीं देता है कि वहा क्या है, क्या नहीं है। लेकिन जब कमरे में प्रकाश होता है तो कमरे में क्या है, और क्या नहीं है, हम देख सकते हैं। इसी तरह हम पूरे जीवन लगभग अंधकार में ही चलते रहते हैं, इसलिए हमको इस बात की जानकारी ही नहीं होती कि कितना प्रारब्ध कर्म अभी भी बचा हुआ है —प्रारब्ध कर्म यानी वे कर्म जिनका इस जीवन में चुकतारा करना है, भुगतान करना है। जब हम संयम में से होकर गुजरते हैं, तो हमारे भीतर तीव्र प्रकाश होता है, उस भीतर के प्रकाश से हम जान लेते हैं कि अभी कितना प्रारब्ध शेष बचा है। जब हम देखते हैं कि पूरा घर खाली है, बस घर के एक कोने में थोड़ा सा सामान, थोड़ी सी वस्तुएं रह गयी हैं, शीघ्र ही वे भी नहीं रहेंगी, वे भी बिदा हो जाएंगी। तो फिर भीतर के उस शून्य में हम देख सकते हैं कि हमारी मृत्यु कब होने वाली है।
रामकृष्ण के विषय में ऐसा कहा जाता है कि रामकृष्ण को भोजन में बहुत रस था, सच तो यह है भोजन ही उनकी एकमात्र अंतिम वासना रह गई थी। और उनके शिष्यों को रामकृष्ण की यह आदत कुछ अजीब सी लगती थी। यहां तक कि उनकी पत्नी शारदा भी रामकृष्ण की इस आदत से परेशान थीं, और कभी—कभी अपने आपको बहुत ही शर्मिंदा महसूस करती थीं। क्योंकि रामकृष्ण एक बड़े संत थे उनकी दूर—दूर तक प्रसिद्धि थी। लेकिन उनकी केवल यह एक ही बात बड़ी अजीब लगती थी कि वे खाने की वस्तुओं में जरूरत से ज्यादा रस लेते थे। उनका भोजन में इतना अधिक रस था कि जब वे अपने शिष्यों के साथ बैठे कुछ चर्चा कर रहे होते, और अचानक ही बीच में वे कहते, ठहरो, 'मैं अभी आता हूं।और वे रसोईघर में देखने चले जाते, कि आज क्या भोजन बन रहा है। रसोई घर में जाकर वे शारदा से पूछते, ' आज क्या भोजन बन रहा है?' और पूछकर फिर वापस लौट आते और अपना सत्संग फिर से शुरू कर देते।
उनके निकट जो शिष्य थे, वे रामकृष्ण की इस आदत से परेशान और चिंतित थे। उन्होंने रामकृष्ण से कहा भी कि 'परमहंस देव, यह अच्छा नहीं लगता। और सभी कुछ इतना सुंदर है—इससे पहले इतना सुंदर और श्रेष्ठ आदमी कभी पृथ्वी पर नहीं हुआ—लेकिन यह छोटी सी बात, आप अपनी इस आदत को छोड़ क्यों नहीं देते हैं।रामकृष्ण हंसे और उन्होंने उनकी बात का कुछ जवाब नहीं दिया।
एक दिन उनकी पत्नी ने रामकृष्ण से यह जानने के लिए कि उनकी भोजन में इतनी रुचि क्यों है। बहुत ही अनुरोध किया। तब रामकृष्ण बोले, 'ठीक है, अगर तुम्हारा इतना ही अनुरोध है, तो मैं बताता हूं। मेरा प्रारब्ध कर्म समाप्त हो चुका है, और अब मैं केवल भोजन के माध्यम से ही इस शरीर से जुड़ा हुआ हूं। अगर मैं भोजन की पकड़ छोड़ दूं र तो मैं जीवित नहीं रह सकूंगा।
रामकृष्ण की पत्नी शारदा तो इस बात पर भरोसा ही न कर सकी। वैसे भी पत्नियों को अपने पतियों की बात पर भरोसा करना थोड़ा कठिन होता है—फिर चाहे रामकृष्ण परमहंस जैसा ही पति क्यों न हो, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। पत्नी ने तो यही सोचा होगा कि रामकृष्ण मजाक कर रहे हैं, या फिर मूर्ख बना रहे हैं। शारदा को ऐसी हालत में देखकर रामकृष्ण बोले, 'देखो, मैं समझ सकता हू कि तुम लोग मुझ पर भरोसा नहीं करोगे, लेकिन एक दिन तुम जान लोगी। जिस दिन मेरी मृत्यु आने को होगी, उसके तीन दिन पहले, मेरी मृत्यु के तीन दिन पहले, मैं भोजन की ओर देखूंगा भी नहीं। तुम मेरी भोजन की थाली भीतर लाओगी और मैं दूसरी ओर देखने लगूंगा; तब तुम जान लेना कि मुझे केवल तीन दिन ही यहां इस शरीर में और रहना है।
शारदा को रामकृष्ण की बात पर भरोसा नहीं आया, और धीरे — धीरे वे लोग इस बारे में भूल ही गए। फिर रामकृष्ण के देह त्याग के ठीक तीन दिन पहले जब रामकृष्ण लेटे हुए थे, शारदा भोजन की थाली लायीं रामकृष्ण करवट बदलकर दूसरी ओर देखने लगे। अचानक शारदा को रामकृष्ण की बात स्मरण आई। और तभी शारदा के हाथ से थाली छूट गयी, और वह फूट—फूटकर रोने लगी। रामकृष्णा शारदा से बोले, ' अब रोओ मत। मेरा कार्य अब समाप्त हो गया है, मुझे अब किसी भी चीज को पकड़ने की आवश्यकता नहीं है। और ठीक तीन दिन बाद रामकृष्ण ने देह त्याग दी।
रामकृष्ण करुणावश भोजन को पकड़े हुए थे। बस, भोजन के माध्यम से वे अपने को शरीर में बांधे हुए थे। जब बंधन की अवधि समाप्त हो गई, तो उन्होंने शरीर छोड़ दिया। वे करुणावश ही इस किनारे पर थोड़ा और बने रहने के लिए शरीर से बंधे हुए थे। ताकि जो लोग उनके आसपास एकत्रित
हो गए थे, वे उनकी मदद कर सकें। लेकिन रामकृष्ण परमहंस जैसे लोगों को समझ पाना कठिन होता है। ऐसे आदमी को समझना कठिन होता है जो सिद्ध हो गया है, बुद्ध हो गया है, जिसने अपने समस्त संचित कर्मों का कुंड खाली कर दिया है, ऐसे आदमी को समझ पाना बहुत कठिन होता है। उसके पास इस शरीर में बने रहने के लिए कोई गुरुत्वाकर्षण नहीं रह जाता है, इसीलिए रामकृष्ण भोजन के सहारे अपने को बांधे हुए थे। चट्टान में गुरुत्वाकर्षण होता है। वह भोजन की चट्टान को पकड़े हुए थे, ताकि वे और थोड़ी देर इस पृथ्वी पर रह सकें।
जब व्यक्ति के पास संयम आ जाता है, और उसकी चेतना पूर्णरूप से जागरूक हो जाती है, तब यह जाना जा सकता है कि कितने कर्म और शेष हैं। यह ठीक ऐसे ही है जैसे कि कोई चिकित्सक आकर मरते हुए आदमी की नाड़ी छूकर देखता है और बताता है कि, बस अब यह आदमी दो या तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रहेगा। जब चिकित्सक यह कह रहा है तो वह क्या कह रहा है? अपने अनुभव के आधार पर वह जान लेता है कि जब कोई व्यक्ति मृत्यु के करीब होता है, तो उसकी नाड़ी किस भांति स्पंदित होती है, उसकी नाड़ी किस तरह से चलने लगती है। ठीक उसी तरह से, जो व्यक्ति जागरूक है वह यह जान लेता है कि उसका कितना प्रारब्ध कर्म और शेष रहा है —कितनी श्वासें और बची हैं—और वह जानता है कि उसे कब जाना है।
इसे दो प्रकार से जाना जा सकता है। सूत्र कहता है कि या तो मृत्यु पर ध्यान केंद्रित करके जो कि प्रारब्ध कर्म है
'सक्रिय व निष्‍क्रिय या लक्षणात्मक व विलक्षणात्मक—इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद मृत्यु की ठीक —ठीक घड़ी की भविष्य सूचना पायी जा सकती है।
तो इसे दो प्रकार से जाना जा सकता है, या तो प्रारब्ध को देखकर या फिर कुछ लक्षण और पूर्वाभास हैं जिन्हें देखकर जाना जा सकता है।
उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति मरता है तो मरने के ठीक नौ महीने पहले कुछ न कुछ होता है। साधारणतया हम जागरूक नहीं हैं, हम बिलकुल भी जागरूक नहीं हैं, और वह घटना बहुत ही सूक्ष्म है। मैं लगभग नौ महीने कहता हूं —क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में इसमें थोड़ी भिन्नता होती है। यह निर्भर करता है समय का जो अंतराल गर्भधारण और जन्म के बीच मौजूद रहता है, उतना ही समय मृत्यु को जानने का रहेगा। अगर कोई व्यक्ति गर्भ में नौ महीने रहने के बाद जन्म लेता है, तो उसे नौ महीने पहले ही मालूम होगा। अगर कोई दस महीने गर्भ में रहने के बाद जन्म लेता है, तो उसे दस महीने पहले मृत्यु का आभास होगा। अगर कोई व्यक्ति गर्भ में सात महीने रहने के बाद जन्म लेता है, तो उसे सात महीने पहले मृत्यु का आभास होगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि गर्भधारण और जन्म के समय के बीच कितना समय रहा।
मृत्यु के ठीक उतने ही महीने पहले हारा में, नाभि —चक्र में कुछ होने लगता है। हारा सेंटर को क्लिक होना ही पड़ता है, क्योंकि गर्भ में आने और जन्म के बीच नौ महीने का अंतराल था : जन्म लेने में नौ महीने का समय लगा, ठीक उतना ही समय मृत्यु के लिए लगेगा। जैसे जन्म लेने के पूर्व नौ महीने मां के गर्भ में रहकर तैयार होते हो, ठीक ऐसे ही मृत्यु की तैयारी में भी नौ महीने लगेंगे। फिर वर्तुल पूरा हो जाएगा। तो मृत्यु के नौ महीने पहले नाभि—चक्र में कुछ होने लगता है।
जो लोग जागरूक हैं, सजग हैं, वे तुरंत जान लेंगे कि नाभि —चक्र में कुछ टूट गया है, और अब मृत्यु निकट ही है। इस पूरी प्रक्रिया में लगभग नौ महीने लगते हैं।
या फिर उदाहरण के लिए, मृत्यु के और भी कुछ अन्य लक्षण तथा पूर्वाभास होते हैं। कोई आदमी मरने से पहले, अपने मरने के ठीक छह महीने पहले, अपनी नाक की नोक को देखने में धीरे — धीरे असमर्थ होने लगता है, क्योंकि आंखें धीरे — धीरे ऊपर की ओर मुड़ने लगती हैं। मृत्यु में आंखें पूरी तरह ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं, लेकिन मृत्यु के पहले ही लौटने की यात्रा का प्रारंभ हो जाता है। ऐसा होता है जब एक बच्चा जन्म लेता है, तो बच्चे की दृष्टि थिर होने में करीब छह महीने लगते हैं —साधारणतया ऐसा ही होता है, लेकिन इसमें कुछ अपवाद भी हो सकते हैं —बच्चे की दृष्टि ठहरने में छह महीने लगते हैं। उससे पहले बच्चे की दृष्टि थिर नहीं होती। इसीलिए तो छह महीने का बच्चा अपनी दोनों आंखें एक साथ नाक के करीब ला सकता है, और फिर किनारे पर भी आसानी से ले जा सकता है। इसका मतलब है बच्चे की आंखें अभी थिर नहीं —हुई हैं। जिस दिन बच्चे की आंखें थिर हो जाती है फिर वह दिन छह महीने के बाद हो, या नौ महीने के बाद, या दस, या बारह महीने बाद हो, ठीक उतना ही समय लगेगा, फिर उतने ही समय के पूर्व आंखें शिथिल होने लगेंगी और ऊपर की ओर मुड़ने लगेंगी। इसीलिए भारत में गाव के लोग कहते हैं, निश्चित रूप से इस बात की खबर उन्हें योगियों से ही मिली होगी —कि मृत्यु आने के पूर्व व्यक्ति अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हो जाता है।
और भी बहुत सी विधियां हैं जिनके माध्यम से योगी निरंतर अपनी नाक की नोक पर ध्यान देते हैं। वह नाक की नोक पर अपने को एकाग्र करते हैं। जो लोग नाक की नोक पर एकाग्र चित्त होकर ध्यान करते हैं, अचानक एक दिन वे पाते हैं कि वे अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हैं, वे अपनी ही नाक की नोक नहीं देख सकते हैं। इस बात से उन्हें पता चल जाता है कि मृत्यु अब निकट ही है।
योग के शरीर —विज्ञान के अनुसार व्यक्ति के शरीर में सात चक्र होते हैं। पहला चक्र है मूलाधार, और अंतिम चक्र है सहस्रार, जो सिर में होता है, इन दोनों के बीच में पांच चक्र और होते हैं। जब भी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो वह किसी एक निश्चित चक्र के द्वारा अपने प्राण त्यागता है। व्यक्ति ने किस चक्र से शरीर छोड़ा है, वह उसके इस जीवन के विकास को दर्शा देता है। साधारणतया तो लोग मूलाधार से ही मरते हैं, क्योंकि जीवनभर लोग काम —केंद्र के आसपास ही जीते हैं। वे हमेशा सेक्स के बारे में ही सोचते रहते हैं, उसी की कल्पनाएं करते हैं, उसी के स्वप्न देखते हैं, उनका सभी कुछ सेक्स को लेकर ही होता है —जैसे कि उनका पूरा जीवन काम —केंद्र के आसपास ही केंद्रित हौ गया हो। ऐसे लोग मूलाधार से, काम —केंद्र से ही प्राण छोड़ते हैं। लेकिन अगर कोई व्यक्ति प्रेम को उपलब्ध हो जाता है, और कामवासना के पार चला जाता है, तो वह हृदय — केंद्र से प्राण को छोड़ता है। और अगर कोई व्यक्ति पूर्णरूप से विकसित हो जाता है, सिद्ध हो जाता है, तो वह अपनी ऊर्जा को, अपने प्राणों को सहस्रार से छोड़ेगा।
और जिस केंद्र से व्यक्ति की मृत्यु होती है, वह केंद्र खुल जाता है। क्योंकि तब पूरी जीवन —ऊर्जा उसी केंद्र से निर्मुक्त होती है ......
अभी कुछ दिन पहले ही विपस्सना की मृत्यु हुई। विपस्सना के भाई वियोगी से उसके सिर पर मारने को कहा गया, भारत में यह बात प्रतीक के रूप में प्रचलित है कि जब कोई व्यक्ति मरता है और उसे चिता पर रखा जाता है, तो सिर को डंडे से मारकर फोड़ा जाता है, उसकी कपाल—क्रिया की जाती है। यह एक प्रतीक है, क्योंकि अगर कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है, तो सिर अपने से ही फूट जाता है; लेकिन अगर व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ है, तो फिर भी हम इसी आशा और प्रार्थना के साथ उसकी खोपड़ी को तोड़ते हैं।
तो जिस केंद्र से व्यक्ति प्राणों को छोड़ता है, व्यक्ति का निर्मुक्ति देने वाला बिंदु —स्थल खुल जाता है। उस बिंदु —स्थल को देखा जा सकता है। किसी दिन जब पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान योग के शरीर—विज्ञान के प्रति सजग हो सकेगा, तो यह भी पोस्टमार्टम का हिस्सा हो जाएगा कि व्यक्ति कैसे मरा। अभी तो चिकित्सक केवल यही देखते हैं कि व्यक्ति की मृत्यु स्वाभाविक हुई है, या उसे जहर दिया गया है, या उसकी हत्या की गयी है, या उसने आत्महत्या की है—यही सारी .साधारण सी बातें चिकित्सक देखते हैं। सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण बात को चिकित्सक चूक ही जाते हैं, जो कि उनकी रिपोर्ट में होनी चाहिए—कि व्यक्ति के प्राण किस केंद्र से निकले हैं काम केंद्र से निकले हैं, हृदय केंद्र से निकले हैं, या सहस्रार से निकले हैं —किस केंद्र से उसकी मृत्यु हुई है।
और इसकी संभावना है, क्योंकि योगियों ने इस पर बहुत काम किया है। और इसे देखा जा सकता है, क्योंकि जिस केंद्र से प्राण —ऊर्जा निर्मुक्त होती है वही विशेष केंद्र टूट जाता है। जैसे कि कोई अंडा टूटता है और कोई चीज उससे बाहर आ जाती है, ऐसे ही जब कोई विशेष केंद्र टूटता है, तो ऊर्जा वहा से निर्मुक्त होती है।
जब कोई व्यक्ति संयम को उपलब्ध हो जाता है, तो मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले वह सजग हो जाता है कि उसे कौन से केंद्र से शरीर छोड़ना है। अधिकतर तो वह सहस्रार से ही शरीर को छोड़ता है। मृत्यु के तीन दिन पहले एक तरह की हलन —चलन, एक तरह की गति, ठीक सिर के शीर्ष भाग पर होने लगती है।
यह संकेत हमें मृत्यु को कैसे ग्रहण करना, इसके लिए तैयार कर सकते हैं। और अगर हम मृत्यु को उत्सवपूर्ण ढंग से, आनंद से, अहोभाव से नाचते —गाते कैसे ग्रहण करना है, यह जान लें —तो फिर हमारा दुबारा जन्म न होगा। तब इस संसार की पाठशाला में हमारा पाठ पूरा हो गया। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी सीखने को है उसे हमने सीख लिया है। अब हम तैयार हैं किसी महान लक्ष्य महाजीवन और अनंत — अनंत जीवन के लिए। अब ब्रह्मांड में, संपूर्ण अस्तित्व में समाहित होने के लिए हम तैयार हैं। और इसे हमने अर्जित किया है।
इस सूत्र के बारे में एक बात और। क्रियामान कर्म, दिन —प्रतिदिन के कर्म, वे तो बहुत ही छोटे —छोटे कर्म होते हैं, आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे 'चेतन' कह सकते हैं। इसके नीचे होता है प्रारब्ध कर्म, आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे 'अवचेतन' कह सकते हैं। उससे भी नीचे होता है संचित कर्म, आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इसे हम 'अचेतन' कह सकते हैं।
साधारणतया तो आदमी अपनी प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में सजग ही नहीं होता है, तो फिर प्रारब्ध या संचित कर्म के बारे में कैसे सचेत हो सकता है? यह लगभग असंभव ही है। तो तुम दिन—प्रतिदिन की छोटी —छोटी गतिविधियों में सजग होने का प्रयास करना। अगर सड़क पर चल रहे हो, तो सड़क पर सका होकर, होशपूर्वक चलना। अगर भोजन कर रहे हो, तो सजगता पूर्वक करना। दिन में जो कुछ भी करो, उसे होशपूर्वक, सजगता से करना। कुछ भी कार्य करो, उस कार्य में पूरी तरह से डूब जाना, उसके साथ एक हो जाना। फिर कर्ता और कृत्य अलग — अलग न रहें। फिर मन इधर—उधर ही नहीं भागता रहे। जीवित लाश की भांति कार्य मत करना। जब सड़क पर चलो तो ऐसे मत चलना जैसे कि किसी गहरे सम्मोहन में चल रहे हो। कुछ भी बोलो, वह तुम्हारे पूरे होश सजगता से आए, ताकि तुम्हें फिर कभी पीछे पछताना न पडे।
जब तुम कहते हो, 'मुझे खेद है, मैंने वह कह दिया जिसे मैं कभी नहीं कहना चाहता था,' तो इससे इतना ही पता चलता है कि तुम सोए—सोए, मूर्च्छा में थे। तुम होश में न थे, जागे हुए न थे। जब तुम कहते हो, 'मेरे से गलत हो गया, मुझे नहीं मालूम क्यों और कैसे हो गया।मुझे नहीं मालूम कि ऐसा कैसे हुआ, ऐसा मेरे बावजूद हो गया। तब स्मरण रहे, तुमने सोए—सोए, मूर्च्छा में ही कृत्य किया है। तुम नींद में चलने वाले रोगी की तरह हो तुम सोम्नाबुलिस्ट हो।
स्वयं को अधिक जागरूक और होशपूर्ण होने दो। यही है अभी और यहीं का अर्थ।
इस समय तुम मुझे सुन रहे हो तो तुम केवल कान भी हो सकते हो, सुनना मात्र ही हो सकते हो। इस समय तुम मुझे देख रहे हो तो तुम केवल आंखें भी हो सकते हो —पूरी तरह से सजग, एक विचार भी तुम्हारे मन में नहीं उठता है, भीतर कोई अशांति नहीं, भीतर कोई धुंध नहीं, बस मुझ पर केंद्रित हो —समग्ररूपेण सुनते हुए, समग्ररूपेण देखते हुए —मेरे साथ अभी और यहीं पर हो यह है प्रथम चरण।
अगर तुम इस प्रथम चरण को उपलब्ध कर लेते हो, तो फिर दूसरा चरण अपने से सुलभ हो जाता है, तब तुम अवचेतन में उतर सकते हो।
तो फिर जब कोई तुम्हारा अपमान करता है, तो जिस समय तुम्हें क्रोध आया, जागरूक हो जाओ। जब किसी ने तुम्हारा अपमान किया— और क्रोध की एक छोटी सी तरंग, जो कि बहुत ही सूक्ष्म होती है, तुम्हारे अस्तित्व के अवचेतन की गहराई में उतर जाती है। अगर तुम संवेदनशील और जागरूक नहीं हो, तो तुम उस उठी हुई सूक्ष्म तरंग को पहचान न सकोगे —जब तक कि वह चेतन में न आ जाए, तुम उसे नहीं जान सकोगे। वरना धीरे — धीरे तुम सूक्ष्म बातों को, भावनाओं को सूक्ष्म तरंगों के प्रति सचेत होने लगोगे —वही है प्रारब्ध, वही है अवचेतन।
और जब अवचेतन के प्रति सजगता आती है, तो तीसरा चरण भी उपलब्ध हो जाता है। जितना अधिक व्यक्ति का विकास होता है, उतने ही. अधिक विकास की संभावना के द्वार खुलते चले जाते हैं। तीसरे चरण को, अंतिम चरण को, देखना संभव है। जो कर्म अतीत में संचित हुए थे, अब उनके प्रति सजग हो पाना संभव है। जब व्यक्ति अचेतन में उतरता है —तो इसका अर्थ है कि वह चेतना के प्रकाश को अपने अस्तित्व की गहराई में ले जा रहा है —व्यक्ति संबोधि को उपलब्ध हो जाएगा। सबुद्ध होने का अर्थ यही है कि अब कुछ भी अंधकार में नहीं है। व्यक्ति का अंतस्तल का कोना —कोना प्रकाशित हो गया। तब वह जीता भी है, कार्य भी करता है, लेकिन फिर भी किसी तरह के कर्म का संचय नहीं होता है।

दूसरा सूत्र:
'मैत्री पर संयम संपन्न करने से या किसी अन्य सहज गुण पर संयम संपन्न करने से उस गुणवत्ता विशेष में बड़ी सूक्ष्मता आ मिलती है।

सर्वप्रथम तो जागरूकता — और ठीक उसके बाद आता है द्वितीय चरण. अपने संयम को, प्रेम पर, करुणा पर ले आना।
मैं तुम से एक कथा कहना चाहूंगा एक बार ऐसा हुआ कि एक बौद्ध भिक्षु, जिसका नाम तामिनो था, वह ध्यान करता ही गया, करता ही गया, उसने बहुत कठोर श्रम किया और वह सतोरी को उपलब्ध हो गया —संयम की अवस्था को उपलब्ध हो गया। और उस अवस्था में उसे किसी बात का, किसी चीज का होश न रहा
जब व्यक्ति होशपूर्ण होता है तो उसे किसी विशेष चीज के प्रति होश नहीं रहता। वह केवल होश के प्रति ही होशपूर्ण होता है। वैसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तब तो होश भी विषय —वस्तु की तरह प्रतीत होने लगता है। नहीं, इसे ऐसा कहें कि व्यक्ति किसी विशेष के प्रति होशपूर्ण नहीं होता है —वह बस होश ही रह जाता है।
……और तब तामिनो किसी विशेष बात या किसी विशेष चीज के प्रति होशपूर्ण न रहा और उसकी आत्मा किसी स्वरूप की भांति न रही। और यह अवस्था शांतिपूर्ण अवस्था के भी पार की थी, और वह हमेशा के लिए उसी अवस्था में रहकर आनंदित था.
स्मरण रहे, जब कोई व्यक्ति संयम को उपलब्ध हो जाता है, तो वह सदा —सदा के लिए उसी अवस्था में रहना चाहता है, वह उससे बाहर नहीं आना चाहता —लेकिन यही यात्रा का अंत नहीं है। यह तो अभी केवल आधी यात्रा ही हुई। जब तक समाधि प्रेम नहीं बन जाती है, जब तक कि व्यक्ति अपने भीतर के खजानों को बाहर के विराट जगत में बाट नहीं देता है, जब तक कि अपनी समाधि के आनंद को दूसरों के साथ बांट नहीं लेता, तब तक वह स्वयं को कंजूस ही प्रमाणित कर रहा होता है। समाधि लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य प्रेम है। तो जब कभी यह तुमको होगा, या तुम में से किसी को भी होगा, तो तुम भी उस अवस्था में पहुंचोगे जहां से फिर कोई भी बाहर नहीं आना चाहता है। वह इतना सौंदर्यपूर्ण और आनंददायी होता है कि फिर उससे बाहर आने की कौन फिकर करता है?
. ……और यह अवस्था शाति की अवस्था के भी पार की थी, और तामिनो हमेशा —हमेशा. के लिए उसमें बने रहने में ही आनंदित अनुभव कर रहा था। लेकिन जैसा कि होना था, एक दिन वह ध्यान करने के लिए अपने मठ के निकट जुगल में गया। और जैसे ही वह बैठा, ध्यान में खो गया। कुछ ही देर बाद एक यात्री वहां से गुजरा। उस यात्री पर चोरों के एक गिरोह ने हमला कर दिया और उसे घायल कर दिया। उसका सभी सामान लूट लिया, और यह समझकर कि वह मर गया है, उस यात्री को वहीं छोड्कर वे भाग गए। वह घायल यात्री सहायता के लिए तामिनो को पुकारता रहा ' लेकिन तामिनो तो अपनी ध्यानस्थ अवस्था में बैठा हुआ था, उसे तो कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था और न ही कुछ सुनाई दे रहा था
तामिनो वहा पर बैठा हुआ था, और वह यात्री वहां पर घायल पड़ा हुआ था, और वह यात्री बार —बार सहायता के लिए पुकार रहा था। लेकिन तामिनो ध्यान में इतना तल्लीन था कि उसे उस
यात्री की किसी प्रकार की कोई आवाज सुनाई ही न दी। उसे कुछ सुनाई नहीं दिया, उसे कुछ दिखाई न दिया—उसकी आंखें जरूर खुली थीं, लेकिन वह उन आंखों में मौजूद न था। वह अपने अंतर्तम की गहराई में उतर गया था। बस केवल परिधि पर उसका शरीर ही श्वास ले रहा था, लेकिन वह परिधि पर मौजूद न था। वह अपने अंतस्तल के केंद्र पर विराजमान था।
और वह यात्री खून से लथपथ जमीन पर पड़ा हुआ था, और उसी समय तामिनो अपने शरीर में लौटा, अपनी इंद्रियों के प्रति होश में आया। उस खून से लथपथ घायल यात्री को देखकर तामिनो तो स्तब्ध रह गया और बड़ी देर तक उसे समझ ही न आया कि वह क्या देख रहा है। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे
जब व्यक्ति अपने अंतस्तल की गहराई में डूब जाता है, तो उसे फिर से शरीर की परिधि के साथ जुड्ने में थोड़ा समय लगता है। केंद्र पर व्यक्ति बिलकुल ही अलग तरह का होता है। केंद्र पर व्यक्ति एकदम अज्ञात जगत में होता है। और केंद्र से वापस आकर परिधि के साथ ताल—मेल बिठा पाना थोड़ा कठिन होता है।
यह वैसा ही है जैसे कि कोई चांद से पृथ्वी पर वापस आए जब कोई चांद से पृथ्वी पर वापस आता है, तो तीन सप्ताह तक उसे एक विशेष घर में रखा जाता है, जो विशेष रूप से उनके लिए तैयार किया जाता है —ताकि वह फिर से पृथ्वी पर चलने के लिए तैयार हो सके। अगर चांद से लौटकर व्यक्ति सीधे अपने घर चला जाए, तो वह पागल हो जाएगा, या उनका मस्तिष्क विकृत हो जाएगा, क्योंकि चांद की दुनिया बिलकुल ही अलग ढंग की होती है। चांद पर गुरुत्वाकर्षण अधिक नहीं है —पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का आठवें भाग के बराबर ही चांद पर गुरुत्वाकर्षण होता है —चांद पर व्यक्ति साठ फीट, सत्तर फीट तक बड़ी आसानी से कूद सकता है। कोई किसी की भी छत पर कूद सकता है, कोई परेशानी नहीं है। चांद पर गुरुत्वाकर्षण नहीं के बराबर होता है। और चांद एकदम खाली है, वहां पर कोई भी नहीं है, तो व्यक्ति एकदम स्तब्ध रह जाता है। और चांद पर मौन इतना अदभुत है —जो कि लाखों —करोड़ों वर्षों से अविच्छिन्न चला आ रहा है —तो चांद पर मौन इतना सघन है, कि जब कोई व्यक्ति चांद से वापस लौटकर आता है, तो यह ठीक ऐसे ही होता है जैसे कि कोई व्यक्ति मर गया हो और फिर से पृथ्वी पर वापस आया हो।
जब पहले आदमी ने चांद की जमीन पर कदम रखा, वह आदमी कोई आस्तिक न था, लेकिन फिर भी वह अचानक घुटनों के बल झुककर प्रार्थना करने लगा। तो चांद पर पहला काम जो किया गया, वह थी प्रार्थना। क्या हुआ चांद पर पहुंचने वाले उस प्रथम आदमी को? वहां पर मौन इतना गहन था, इतना गहरा था और वह एकदम अकेला था, कि अचानक उसे परमात्मा की याद आ गयी। उस नितांत एकांत में, सन्नाटे में, एकाकीपन में, उस अकेलेपन में, वह भूल ही गया कि .वह परमात्मा में भरोसा नहीं करता, कि उसका मन हर जगह संदेह उठाता है, कि वह हर चीज पर अविश्वास करता है —वह सब कुछ भूल गया। वह झुका और प्रार्थना करने लगा।
जब कोई व्यक्ति चांद पर से पृथ्वी पर वापस आता है, तो उसे पृथ्वी के वातावरण के अनुकूल होने में थोड़ा समय लगता है, लेकिन यह भी उसकी तुलना में कुछ नहीं है जब व्यक्ति अपने अस्तित्व के केंद्र पर पहुंचकर और फिर वहा से वापस आता है।
...... तामिनो तो एकदम स्तब्ध रह गया और बहुत देर तक तो उसे समझ ही नहीं आया कि उसने क्या देखा है और अब उसे क्या करना चाहिए। लेकिन जैसे ही वह शरीर में वापस आया वह उस घायल आदमी के पास गया और अच्छी तरह से उसने उसके घावों पर पट्टी बाधी। लेकिन उस आदमी का खून बहुत देर से बह रहा था, उसका बहुत सा खून बह चुका था। उसने एक बार तामिनो की ओर देखा और वह मर गया —और फिर तामिनो उस मरते हुए आदमी की आंखों को कभी न भूल सका। और उस मरते हुए आदमी की आंखें उसका पीछा करने लगीं, और इस बात से वह इतना अशांत और परेशान हो गया कि उसकी सतोरी पूरी तरह से खो गयी—वह अपने अंतस —केंद्र के बारे में सब कुछ भूल गया। वह पूरी तरह से दुविधा में पड़ गया, उलझन में पड़ गया। उसे कुछ समझ में ही नहीं आए कि वह क्या करे?
और उस मरते हुए आदमी के आंखों में तामिनो ने कुछ ऐसी भाव दृष्टि देखी जैसी कि उसने एक बार युद्धक्षेत्र में देखी थी — और उसकी सारी शाति, जिसे कि उसने इतने कठोर परिश्रम के बाद पाया था, उसे छोड्कर न जाने कहा चली गयी। वह मठ में वापस आया और फिर वह उस टापू को छोड्कर, पर्वत की सबसे ऊंची चोटी पर चला गया, और वहां पर जाकर गौतम बुद्ध की प्रतिमा के पास बैठ गया। सांझ का समय था, डूबते हुए सूरज का प्रकाश उस पत्थर की प्रतिमा के मुख पर पड़ रहा था, और वह पत्थर की प्रतिमा जीवन की चमक से भरी हुई दिखाई दे रही थी।
तामिनो ने उस मूर्ति की आंखों में झांका और बोला, 'भगवान बुद्ध, क्या आपकी धर्म —देशना सत्य थी?'

 प्रतिमा ने उत्तर दिया, 'सत्य भी थी और असत्य भी।
तामिनो ने पूछा, 'उसमें सत्य क्या था?'
'करुणा और प्रेम।
'और उसमें झूठ क्या था?'
'जीवन से भागना, पलायन।
'तो क्या मुझे जीवन में फिर से लौटना होगा?'
लेकिन तब तक उस मुख —मंडल की आभा धुंधली होने लगी और वह फिर से पत्थर में परिवर्तन हो गयी।
यह बड़ी सुंदर कथा है। ही, तामिनो को जीवन में वापस लौटना पड़ा। व्यक्ति को समाधि से फिर प्रेम पर वापस आना होता है। इसीलिए समाधि—जिसमें मृत्यु का अनुभव मिलता है, उसके तुरंत बाद आता है पतंजलि का यह सूत्र 'मैत्री पर संयम संपन्न करने से या किसी अन्य सहज गुण पर संयम संपन्न करने से उस गुणवत्ता विशेष में बड़ी सक्षमता आ मिलती है।
समकालीन मनोवैज्ञानिक भी इससे किसी सीमा तक सहमत होंगे। अगर निरंतर किसी एक ही बात के बारे में सोचा जाए, तो धीरे — धीरे वह मूर्त रूप लेने लगती है। तुमने एमाइल कुए का नाम सुना होगा, और अगर तुमने उसका नाम नहीं सुना है तो तुमने उसका यह वाक्य जरूर सुना होगा प्रतिदिन मैं अच्छे से अच्छे होता जा रहा हूं। उसने हजारों मरीजों की —जो बहुत ही पीड़ा तकलीफ और परेशानी में थे, ऐसे हजारों पीड़ित लोगों की फाइल कुए ने बहुत मदद की थी। और यही उसकी
एकमात्र दवाई थी। वह बस मरीजों से यही कहता था कि दोहराते रहो प्रतिदिन मैं अच्छे से अच्छा होता जा रहा हूं। बस इसे दोहराते रही, और उसे अनुभव करो, अपने चारों ओर बस इसी विचार की तरंगों को फैलाओ कि 'मैं ठीक हो रहा हू, मैं ज्यादा स्वस्थ हो रहा हू, मैं ज्यादा प्रसन्न हूं।और हजारों लोगों को इससे मदद मिली और इस बात के दोहराने से बहुत से लोग स्वस्थ हो गए। उनकी मानसिक बीमारियां ठीक हो गईं। वे अपनी मुसीबतो व चिंताओं से मुक्त हो गए। वे ठीक होकर सामान्य होने लगे, उनमें फिर से जीवन का संचार हो गया, और इसके लिए उन्हें कुछ खास नहीं करना पड़ा —बस एक छोटा सा मंत्र।
लेकिन असल में होता क्या है जिस संसार में हम रहते है, वह हमारे ही द्वारा बनाया गया संसार है। जिस शरीर में हम रहते हैं, हमारा ही निर्माण है। जिस मन में हम रहते हैं, वह भी हमारी अपनी ही रचना है। हम अपनी धारणाओं के द्वारा ही सारे संसार का निर्माण करते हैं। जो कुछ भी हम सोचते हैं, देर — अबेर वह वास्तविकता बन ही जाती है! प्रत्येक विचार अंतत: सत्य ही हो जाता है। और ऐसा हर एक साधारण मन के साथ होता है, जो हर क्षण विषय को बदलता रहता है, जो यहां से वहां भागता रहता है। फिर संयम की तो बात ही कहां उठती है? जब मन नहीं रह जाता है, मन बिदा हो जाता है और केवल मैत्री भाव ही रह जाता है, तो व्यक्ति मैत्री की अवधारणा के साथ इतना एक हो जाता है कि वह स्वयं भी मैत्री ही हो जाता है।
बुद्ध ने कहा था, ' अब जब मैं संसार में दुबारा आऊंगा तो मेरा नाम मैत्रेय होगा, मेरा नाम मित्र होगा।
बुद्ध की यह बात बहुत ही प्रतीकात्मक है। चाहे बुद्ध इस संसार में आएं या न आएं, सवाल इसका नहीं है। लेकिन यह बात बड़ी प्रतीकात्मक है। बुद्ध कह रहे हैं कि सबुद्ध होने के बाद मित्र होना ही होता है। जब कोई व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हो जाता है, तो वह करुणावान भी हो जाता है। करुणा की कसौटी पर ही हम परख सकते हैं कि समाधि सत्य है या नहीं।
स्मरण रहे, कंजूस मत होना, क्योंकि हमारी आदतें वही पुरानी रहती हैं। अगर बाहर के संसार में व्यक्ति कंजूस है और वस्तुओं को पकड़े रखना चाहता है — धन को, संपत्ति को या किन्हीं भी वस्तुओं को पकड़े रखना चाहता है —तो जब समाधि उपलब्ध होगी, तो वह समाधि को भी पकड़े रहना चाहेगा। पकड़ जारी रहेगा— और पकड़ को ही गिराना है। इसीलिए अमृत को उपलब्ध होने के पश्चात, जब कि व्यक्ति मृत्यु से मुक्त हो जाता है, पतंजलि कहते हैं, मैत्री का आविर्भाव होने दो, अब अपनी समाधि में दूसरों को भी सहभागी बनाओ, उसे बांटो।
पैलेस्टाइन में दो समुद्र हैं। एक समुद्र में तो है ताजा और चमकता हुआ पानी। उस समुद्र के आसपास पेड़ —पौधे हैं, विभिन्न प्रकार के फल —फूल उगते हैं। उसमें मछलियां रहती हैं, और उसके किनारे —किनारे हरियाली छायी हुई है। इस समुद्र का पानी इतना शुद्ध और ताजा है कि उस पानी से बीमारिया ठीक हो जाती हैं, वह माउंट हर्मन की पहाड़ियों से होता हुआ जोर्डन नदी के माध्यम से वहां तक पहुंचता है
जीसस को यह नदी बहुत प्रिय थी। और चूंकि यह नदी इस समुद्र में गिरती है, इसलिए जीसस को यह समुद्र भी बहुत प्रिय था। उनके साथ इसी जगह के आसपास बहुत से चमत्कार भी घटित हुए।
.........उस सदगुरु को इस सागर से प्रेम था, और उनके सत्संग की कई आनंद की घड़ियां इसी समुद्र के आसपास व्यतीत हुई थीं। अभी भी वह स्थान शांत व ऊर्जा से भरा हुआ है।
जोर्डन नदी दक्षिण की ओर एक दूसरे सागर में जाकर मिलती है। उस समुद्र के किनारे किसी प्रकार का कोई जीवन नहीं है, न तो वहा पर पक्षियों के गीत हैं, न ही बच्चों की हंसी वहां सुनायी पड़ती है। उस समुद्र की हवाएं मृत और बोझिल सी हैं —और न तो कोई मनुष्य ही, और न कोई पशु, और न ही कोई पक्षी इस समुद्र का पानी पीता है। यह सागर मृत है।
फिर आखिरकार वह ऐसी कौन सी चीज है जो पैलेस्टाइन के इन दोनों सागरों के बीच इतना बड़ा अंतर ले आती है —एक तो समुद्र इतना अदभुत रूप से जीवंत है, और दूसरा समुद्र एकदम मृत है?
अंतर यह है कि गेलाइली का सागर ग्रहण तो करता है किंतु जोर्डन नदी के पानी को अपने में रोककर, ठहराकर नहीं रखता। उसमें पानी प्रवाहमान, बहता हुआ रहता है। अगर नया पानी आता है, तो पुराना बाहर भी जाता है। जितना आनंद से वह देता है, उसके बदले में वह उससे अधिक ग्रहण करता है। गेलाइली का सागर जीवंत सागर है।
दूसरा जो सागर है वह नदी की प्रत्येक बूंद को अपने में ही रोककर रखता है और बदले में कुछ नहीं देता है। चूंकि गैलाइली का सागर निरंतर प्रवाहमान है और दूसरी नदियों को पानी देता है, इसलिए जीवंत है। दूसरा सागर कुछ देता नहीं है, इसलिए उसमें जीवंतता भी नहीं है। उसे बिलकुल ठीक ही नाम दिया गया है —मरा हुआ मृतसागर, डेड —सी।
और ठीक यही बात मनुष्य के जीवन पर लागू होती है। हम गैलाइली का सागर भी बन सकते हैं, या फिर मत सागर, डेड सी भी बन सकते है। अगर गैलाइली का सागर बनते हैं, तो एक न एक दिन जीसस — चेतना को अपनी ओर खींच ही लेंगे। सदगुरु की उपस्थिति फिर हमारे आसपास ही घटित होने लगेगी। फिर वह अपने शिष्यों के साथ हमारे आसपास ही होंगे, फिर से हम एक अलग ही दुनिया में पहुंच जाएंगे। हमें फिर से परमात्मा का दिव्य—स्पर्श मिलने लगेगा। या फिर हम मृत सागर भी बन सकते हैं। तब हम चारों ओर से लेते तो चले जाएंगे लेकिन वापस देंगे कुछ भी नहीं तब बस एकत्रित ही करते जाएंगे और देंगे कुछ भी नहीं। वह सागर मृत कैसे हो गया? कंजूस आदमी मृत ही होता है; वह प्रतिदिन ही मरा —मरा सा ही जीता है। बांटो, जो कुछ भी है उसे बांटों, और तब फिर हम अधिक ग्रहण कर सकने के योग्य हो जाते हैं। यही है मैत्री भाव का अर्थ।
और पतंजलि कहते हैं कि अपना संयम करुणा, प्रेम और मैत्री भाव पर ले आओ, और तब सब अपने से विकसित हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि हम मैत्री —पूर्ण हो जाएंगे : बल्कि तब हम मैत्री भाव हो जाएंगे। तब ऐसा नहीं कि हम प्रेम करेंगे हम प्रेम ही हो जाएंगे, प्रेम हमारे होने का ढंग हो जाएगा। तीसरा सूत्र,
'हाथी के बल पर संयम निष्पादित करने से हाथी की सी शक्ति प्राप्त होती है।
जो कुछ भी हम चाहते हैं, उसी पर संयम को केंद्रित कर देना है और फिर वैसा ही घटित होने लगता है—क्योंकि व्यक्ति अनंत है, असीम है। जैसा रूप या स्वरूप हम पाना चाहते है वैसा ही संयम से पा सकते हैं। फिर सभी तरह के चमत्कार संभव हो जाते हैं, सब कुछ हम पर निर्भर करता
है। तब अगर हम हाथी के समान शक्तिशाली होना चाहते हैं, तो हम हाथी जैसे शक्तिशाली भी हो सकते हैं। बस, उस विचार को बीज की भांति भीतर संजोकर और फिर उसे संयम द्वारा पोषित करके हम वही हो जाएंगे।
क्योंकि इस सूत्र का लोगों ने बहुत दुरुपयोग किया है। यह सूत्र कुंजी है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति शैतान का रूप रखना चाहता है, या कोई गलत रूप रखना चाहता है तो वह उस भांति हो सकता है। जितना गलत उपयोग हम विज्ञान का कर सकते हैं, उतना ही गलत उपयोग हम योग का भी कर सकते हैं। विज्ञान ने आणविक ऊर्जा की खोज की है। अब हम किसी भी जगह पर इसके घातक प्रक्षेपण करके लाखों लोगों की हत्या कर सकते हैं। और इस तरह से कितने ही नगरों को हिरोशिमा और नागासाकी बना सकते हैं —पूरी पृथ्वी को जलाकर भस्म कर सकते हैं, और इस पृथ्वी को एक कब्रिस्तान में बदल सकते हैं।
लेकिन उसी आणविक ऊर्जा का सृजनात्मक उपयोग भी किया जा सकता है। आणविक ऊर्जा के माध्यम से इस पृथ्वी पर जितनी भी गरीबी है वह मिनटों में मिटायी जा सकती है। जितने तरह के खाद्य पदार्थों की आवश्यकता है, उनका उत्पादन किया जा सकता है — और केवल जिन थोड़े लोगों के पास ऐश्वर्य और सुख —सुविधा के साधन हैं, वे प्रत्येक आदमी के सामान्य जीवन का अंग बन सकते हैं। हमारे रास्ते में कोई दूसरा रुकावट नहीं है, किसी तरह का कहीं कोई अवरोध नहीं है, लेकिन हमको ही सृजन करने की समझ नहीं है हम जानते ही नहीं हैं कि सृजन कैसे करना।
योग का भी इसी ढंग से गलत उपयोग किया गया है।
सभी ज्ञान शक्ति को जन्म देते हैं, और शक्ति का उपयोग सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में किया जा सकता है।
मैंने एक कथा सुनी है
एक शराबी एक धनी आदमी के पास पहुंचा और उससे एक कप काफी के लिए पच्चीस पैसे मागे। बहुत ही दयालु व्यक्ति होने के कारण उसने उसे दस शिलिंग का नोट दे दिया।
इस पर वह शराबी बोला, 'यह हुई न कोई बात। इससे तो कोई कॉफी के बीस प्याले भी ले सकता है।
दूसरे दिन शाम को उस धनी आदमी को फिर वही आवारा शराबी दिखायी पड़ा।
उस धनी आदमी ने उससे बहुत ही प्रसन्नता से पूछा, 'आज तुम कैसे हो?'
पहले तो उस आवारा शराबी ने उसकी ओर घूरकर देखा, और फिर अत्यंत ही रुखाई के साथ बोला, 'आप यहां से चले जाएं, आप और आपकी बीस कप कॉफी! उन्होंने कल सारी रात मुझे जगाए रखा।
तो यह सब तुम पर निर्भर करता है। आशीर्वाद अभिशाप भी बन सकता है। पतंजलि जो कह रहे हैं वह तो व्हाइट मैजिक है। और हम इसे ब्लैक मैजिक में भी बदल सकते हैं, और तब हम दूसरों के लिए घातक हो जाएंगे, और साथ ही स्वयं के लिए भी घातक हो जाएंगे। इसे खयाल में ले लेना। इसीलिए पहले तो पतंजलि मैत्रीपूर्ण होने को कहते हैं; उसके बाद वे शक्ति की, पावर की बात करते है।
पतंजलि जैसे लोग बहुत ही सावधानी बरतते हैं, वे एक —एक कदम फूंक—फूंककर रखते हैं। और पतंजलि को हम जैसे लोगों के कारण ही सावधान रहना पड़ता है। पहले तो वे यह बताते हैं कि संयम को कैसे उपलब्ध करना. फिर तुरंत ही वे करुणा की, और मैत्री की बात करने लगते हैं उसके बाद कहीं जाकर वे शक्ति की बात करते हैं। क्योंकि जब व्यक्ति में करुणा का जन्म हो जाता है, तो फिर शक्ति का गलत उपयोग नहीं हो सकता।
'पराभौतिक मनीषा के प्रकाश को प्रवर्तित करने से सूक्ष्म का बोध होता है, प्रच्छन्न का और दूरस्थ तत्वों का ज्ञान प्राप्त होता है।
एक बार अगर हम नहीं हो जाना जान लें तो — 'सूक्ष्म, प्रच्छन्न और दूरस्थ' —सभी प्रकार के आयाम उपलब्ध हो जाते हैं। एक बार यह ज्ञात हो जाए कि बिना अहंकार के कैसे होना है, एक बार यह ज्ञात हो जाए कि बिना विषय और बिना वस्तु के शुद्ध चेतना कैसे पानी है, तो हर चीज संभव हो जाती है। फिर सब कुछ जाना जा सकता है। अगर एक को ठीक से जान लिया जाए तो सभी कुछ जानना संभव है, नहीं तो कुछ भी नहीं जाना जा सकता है।
'सूर्य पर संयम संपन्न करने से संपूर्ण सौर—ज्ञान की उपलब्धि होती है।
यह सूत्र थोड़ा जटिल है — अपने आप में यह सूत्र जटिल नहीं है, किंतु व्याख्या करने वालों के कारण यह सूत्र जटिल हो गया है। पतंजलि की व्याख्या करने वाले सभी व्याख्याकार इस सूत्र के विषय में ऐसी व्याख्या करते हैं जैसे पतंजलि किसी बाहर के सूर्य की बात कर रहे हों। पतंजलि बाह्य सूर्य की बात नहीं कर रहे हैं, पतंजलि उसकी बात कर ही नहीं सकते। पतंजलि कोई ज्योतिषी तो हैं नहीं, और उन्हें ज्योतिष में कोई रुचि भी नहीं है। उनकी रुचि मनुष्य में है। उनकी रुचि मनुष्य की चेतना का नक्‍शा तैयार करने में है। और सूर्य मनुष्य से बाहर नहीं है।
योग की भाषा में मनुष्य एक लघु ब्रह्मांड है। सूक्ष्म ढंग से मनुष्य एक छोटा सा ब्रह्मांड है मनुष्य एक छोटे से अस्तित्व में सघन रूप से समाया हुआ है। यह जो ब्रह्मांड है, यह जो संपूर्ण अस्तित्व है, यह और कुछ नहीं मनुष्य का विस्तार ही है। यह योग की भाषा है. लघु ब्रह्मांड व संपूर्ण ब्रह्मांड। जो कुछ बाहर अस्तित्व रखता है, ठीक वही मनुष्य के भीतर भी अस्तित्व रखता है।
बाहर के सूर्य की भांति मनुष्य के भीतर भी सूर्य छिपा हुआ है, बाहर के चांद की ही भाति मनुष्य के भीतर भी चांद छिपा हुआ है। और पतंजलि का रस इसी में है कि वे अंतर्जगत के आंतरिक व्यक्तित्व का संपूर्ण भूगोल हमें दे देना चाहते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि— 'भुवन ज्ञानम् सूर्ये संयमात'— 'सूर्य पर संयम संपन्न करने से सौर ज्ञान की उपलब्धि होती है।तो उनका संकेत उस सूर्य की ओर नहीं है जो बाहर है। उनका मतलब उस सूर्य से है जो हमारे भीतर है।
हमारे भीतर सूर्य कहां है? हमारे अंतस के सौर—तंत्र का केंद्र कहां है? वह केंद्र ठीक प्रजनन—तंत्र की गहनता में छिपा हुआ है। इसीलिए कामवासना में एक प्रकार की ऊष्‍णता, एक प्रकार की गर्मी होती है। जानवरों के लिए कहा जाता है कि जब भी कोई स्त्री—पशु गर्भाधान के लिए तैयार होती है, तो हम कहते हैं कि—शी इज़ इन हीट। यह मुहावरा एकदम ठीक है। कामवासना का केंद्र सूर्य होता है। इसीलिए तो कामवासना व्यक्ति को इतना ऊष्ण और उत्तेजित कर देती है। जब कोई व्यक्ति कामवासना में उतरता है तो वह उत्तप्त से उत्तप्त होता चलो जाता है। व्यक्ति कामवासना के प्रवाह में एक तरह से ज्वर —ग्रस्त हो जाता है, पसीने से एकदम तर —बतर हो जाता है, उसकी श्वास भी अलग ढंग से चलने लगती है। और उसके बाद व्यक्ति थककर सो जाता है।
जब व्यक्ति कामवासना से थक जाता है, तो तुरंत भीतर चंद्र ऊर्जा सक्रिय हो जाती है। जब सूर्य छिप जाता है तब चंद्र का उदय होता है। इसीलिए तो काम —क्रीड़ा के तुरंत बाद व्यक्ति को नींद आने लगती है। सूर्य ऊर्जा का काम समाप्त हो चुका, अब चंद्र ऊर्जा का कार्य प्रारंभ होता है।
भीतर की सूर्य ऊर्जा काम —केंद्र है। उस सूर्य ऊर्जा पर संयम केंद्रित करने से, व्यक्ति भीतर के संपूर्ण सौर —तंत्र को जान ले सकता है। काम —केंद्र पर संयम करने से व्यक्ति काम के पार जाने में सक्षम हो सकता है। काम —केंद्र के सभी रहस्यों को जान सकता है। लेकिन बाहर के सूर्य के साथ उसका कोई भी संबंध नहीं है।
लेकिन अगर कोई व्यक्ति भीतर के सूर्य को जान लेता है, तो उसके प्रतिबिंब से वह बाहर के सूर्य को भी जान सकता है। सूर्य इस अस्तित्व के सौर —मंडल का काम —केंद्र है। इसी कारण जिसमें भी जीवन है, प्राण है, उसको सूर्य की रोशनी, सूर्य की गर्मी की आवश्यकता है। जैसे कि वृक्ष अधिक से अधिक ऊपर जाना चाहते हैं। किसी अन्य देश की अपेक्षा अफ्रीका में वृक्ष सबसे अधिक ऊंचे हैं। कारण अफ्रीका के जंगल इतने घने हैं और इस कारण वृक्षों में आपस में इतनी अधिक प्रतियोगिता है कि अगर वृक्ष ऊपर नहीं उठेगा, तो सूर्य की किरणों तक पहुंच ही नहीं पाएगा, उसे सूर्य की रोशनी मिलेगी ही नहीं। और अगर सूर्य की रोशनी वृक्ष को नहीं मिलेगी तो वह मर जाएगा। इस तरह से सूर्य वृक्ष को उपलब्ध न होगा और वृक्ष सूर्य को उपलब्ध न होगा, वृक्ष को सूर्य की जीवन—ऊर्जा मिल ही न पाएगी।
जैसे सूर्य जीवन है, वैसे ही कामवासना भी जीवन है। इस पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही है, और ठीक इसी तरह से कामवासना से ही जीवन जन्म लेता है —सभी प्रकार के जीवन का जन्म काम से ही होता है।
अफ्रीका में वृक्ष अधिक से अधिक ऊंचे जाना चाहते हैं, ताकि वे सूर्य को उपलब्ध हो सकें और सूर्य उन्हें उपलब्ध हो सके। इन वृक्षों को ही देखो। जिस तरह के वृक्ष इस ओर हैं —यह पाइन के वृक्ष, ठीक वैसे ही वृक्ष दूसरी ओर भी हैं — और उस तरफ के वृक्ष छोटे ही रह गए हैं। .इस तरफ के वृक्ष ऊपर बढ़ते ही चले जा रहे हैं। क्योंकि इस ओर सूर्य की किरणें अधिक पहुंच रही हैं, दूसरी ओर सूर्य की किरणें अधिक नहीं पहुंच पा रही हैं।
काम भीतर का सूर्य है, और सूर्य सौर—मंडल का काम—केंद्र है। भीतर के सूर्य के प्रतिबिंब के माध्यम से व्यक्ति बाहर के सौर —तंत्र का ज्ञान भा प्राप्त कर सकता है, लेकिन बुनियादी बात तो आंतरिक सौर —तंत्र को समझने की ही है।
इसलिए ध्यान रहे, मेरा जोर इसी बात पर रहेगा कि पतंजलि आंतरिक भूमि के मानचित्र ही बना रहे हैं। और निस्संदेह यह केवल सूर्य से ही प्रारंभ हो सकता है, क्योंकि सूर्य हमारा केंद्र है। सूर्य लक्ष्य नहीं है, बल्कि केंद्र है। परम नहीं है, फिर भी केंद्र तो है। हमको उससे भी ऊपर उठना है, उससे भी आगे निकलना है, फिर भी यह केवल प्रारंभ ही है। यह अंतिम चरण नहीं है, यह प्रारंभिक चरण ही है। यह ओमेगा नहीं है, अल्फा है।
जब पतंजलि हमें बताते हैं कि संयम को उपलब्ध कैसे होना, करुणा में, प्रेम में व मैत्री में कैसे उतरना, करुणावान कैसे होना, प्रेमपूर्ण होने की क्षमता कैसे अर्जित करनी, तब वे आंतरिक जगत में पहुंच जाते हैं। पतंजलि की पहुंच अंतर— अवस्था के पूरे वैज्ञानिक विवरण तक है।
'सूर्य पर संयम संपन्न करने से, संपूर्ण सौर —ज्ञान की उपलब्धि होती है।
इस पृथ्वी के लोगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है. सूर्य —व्यक्ति और चंद्र—व्यक्ति, या हम उन्हें यांग और यिन भी कह सकते हैं। सूर्य पुरुष का गुण है, स्त्री चंद्र का गुण है। सूर्य आक्रामक होता है, सूर्य सकारात्मक है, चंद्र ग्रहणशील होता है, निष्‍क्रिय होता है। सारे जगत के लोगों को सूर्य और चंद्र इन दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है। और हम अपने शरीर को भी सूर्य और चंद्र में विभक्त कर सकते हैं, योग ने इसे इसी भांति विभक्त किया है।
योग ने तो शरीर को इतने छोटे —छोटे रूपों में विभक्त किया है कि श्वास तक को भी बांट दिया है। एक नासापुट में सूर्यगत श्‍वास है, तो दूसरे में चंद्रगत श्वास है। जब व्यक्ति क्रोधित होता है, तब वह सूर्य के नासापुट से लेता है। और अगर शांत होना चाहता है, तो उसे चंद्र नासापुट से श्वास लेनी होगी। योग में तो संपूर्ण। शरीर को ही विभक्त कर दिया गया है व्यक्ति का आधा भाग पुरुष है और आधा भाग स्त्री है। इसी तरह से योग में मन भी विभक्त है. मन का एक हिस्सा पुरुष है, मन का दूसरा हिस्सा स्त्री है। और व्यक्ति को सूर्य से चंद्र की ओर बढना है, और अंत में दोनों के भी पार जाना है, दोनों का अतिक्रमण करना है।

अाज इतना ही।

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