दिनांंक 9 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
योग—सूत्र: (साधनापाद)
योग—सूत्र: (साधनापाद)
तत: क्षीयते
प्रकाशावरणम्
।। 52।।
फिर उस
आवरणप का
विसर्जन हो
जाता है,
तो
प्रकाश को ढके
हुए है।
धारणासु
च योग्यता
मनस:।। 53।।
और तब मन
धारणा के योग्य
हो जाता है।
स्वविषयासम्प्रयोगे
चित्तस्वरूपानुकार
इवेन्द्रियाणां
प्रत्याहार:।।
54।।
योग का
पांचवां अंग
है प्रत्याहार—स्त्रोत
पर लौट आना।
यह मन की
उस क्षमता की
पुनर्स्थापना
है जिससे
बाह्म
विषय जनित
विक्षेपों से
मुक्त हो
इंद्रियों वश
में हो जाती
है।
तत: परमा
वश्यतोन्द्रियाणाम्।।
55।।
फिर
समस्त
इंद्रियों पर
पूर्ण वश हो
जाता है।
सी एस लेविस
कहता है, 'मनुष्य उखड़ा
जा रहा है।’ बी. एफ
.स्किनर कहता
है, 'अच्छा .
छुटकारा है।’
शेक्सपियर
का हेमलेट
मनुष्य के
बारे में कहता
है, 'कितना
ईश्वर जैसा
है!' पावलोव
कहता है, 'कितना
कुत्ते जैसा
है!' समस्या
यह है कि
मनुष्य दोनों
है—ईश्वर जैसा
भी है और
कुत्ते जैसा
भी है। यदि
मनुष्य केवल
एक होता—कुत्ते
जैसा होता या
ईश्वर जैसा
होता—तो कोई
समस्या न होती।
समस्या इसलिए
है क्योंकि
मनुष्य एक
विरोधाभास है
: परिधि पर वह
कुत्ते से भी
बदतर है; केंद्र
पर वह परम महिमावान
है, किसी
ईश्वर से
ज्यादा
महिमावान है।
यदि
तुम मनुष्य को
सिर्फ बाहर से
ही देखते हो, तो तुम
नहीं कह सकते
कि यदि मनुष्य
उखड़ा जा रहा
है तो इसमें
कुछ बुरा है—'ठीक है, अच्छा
छुटकारा है।’
स्किनर ठीक
कहता है।’यह
पृथ्वी बेहतर
होगी, कम
से कम ज्यादा शांत
होगी।
प्रकृति खुश
होगी।’ लेकिन
यदि तुम
मनुष्य को
गहरे में देखो,
उसकी असीम
गहराई में, तो बिना
मनुष्य के
पृथ्वी शांत
हो सकती है, लेकिन वह
शाति मरघट की
शाति होगी।
उसमें कोई
संगीत न होगा।
उसमें कोई
गहराई न होगी।
फूल होंगे, लेकिन अब वे
सुंदर न होंगे।
कौन अनुभव
करेगा उनका
सौंदर्य? कौन
देखेगा उनका
सौंदर्य? पक्षी
चहचहाते
रहेंगे, लेकिन
कौन उनके
चहचहाने को
गीत कहेगा, मधुर कहेगा?
वृक्ष हरे
होंगे, लेकिन
फिर भी वे हरे
नहीं होंगे, क्योंकि उस
हरियाली को
पहचानने के
लिए उससे पुलकित
होने वाला
मानव—हृदय
चाहिए।
मनुष्य
के साथ ही
जीवन का रस खो
जाएगा।
मनुष्य के साथ
ही प्रार्थना
खो जाएगी।
मनुष्य के साथ
ही परमात्मा
खो जाएगा।
पृथ्वी होगी, लेकिन
परमात्मा से
रहित होगी।
मौन होगा, लेकिन
वह मरघट का
सन्नाटा होगा।
वह मौन हृदय
के साथ धड़कता
हुआ न होगा।
सारी पृथ्वी
पर विस्तार
होगा उसका, लेकिन उसमें
गहराई का अभाव
होगा—और बिना
गहराई का मौन
कोई मौन नहीं
होता। संसार
क्षुद्र हो
जाएगा, उथला
हो जाएगा, उसमें
गहराई न होगी,
महिमा न
होगी।
मनुष्य
के साथ महिमा
आती है, क्योंकि
मनुष्य के
पीछे गहरे में
परमात्मा छिपा
है। मनुष्य
मंदिरों के
बिना नहीं रह
सकता है, चर्चों,
मस्जिदों
के बिना नहीं
रह सकता है, क्योंकि
मनुष्य स्वयं
एक मंदिर है।
वह बनाता रहता
है मंदिर—नास्तिक
भी मंदिर
बनाते हैं।
जरा क्रेमलिन
के मंदिर को
देखो!
क्रेमलिन या लेनिन
के मकबरे के पास
से कम्युनिस्ट
उतनी ही
श्रद्धा से
भरे गुजरते
हैं जैसे कि
कोई आस्तिक
अपने
परमात्मा के
प्रति
श्रद्धा— भाव
से भरा हुआ
मनुष्य नहीं
रह सकता
परमात्मा के
बिना, क्योंकि
गहरे में वह
स्वयं
परमात्मा है।
समस्या
इसीलिए है
क्योंकि
मनुष्य दोनों
है. दो जगतो के
बीच एक सेतु
है—पदार्थ और
मन के बीच, इस संसार
और उस संसार
के बीच, क्षणभंगुर
और सनातन के
बीच, जीवन
और मृत्यु के
बीच एक सेतु
है। यही
सौंदर्य भी है—मनुष्य
के रहस्य का, विरोधाभास
का। मनुष्य
कोई पहेली
नहीं है, मनुष्य
एक रहस्य है।
तो
क्या करें? यदि तुम
पावलोव की और
उसके शिष्य बी
एफ .स्किनर की
बात मान कर
बैठ जाते हो, तो तुमने
मनुष्य को
जाने बिना, समझे बिना, उसे जानने
का प्रयास किए
बिना ही उनकी
बात मान ली।
और यदि तुम
बुद्ध से, महावीर
से, कृष्ण
से, क्राइस्ट
से या पतंजलि
से बहुत जल्दी
राजी हो जाते
हो—यदि
तुम्हारी
स्वीकृति
अपरिपक्व है—तो
यह बात कि
मनुष्य
परमात्मा है
एक विश्वास ही
रहेगी, यह
श्रद्धा नहीं
हो सकती। यदि
तुम किसी भी
बात को मान
लेने की जल्दी
में हो, तो
तुम चूक जाओगे।
मनुष्य को
जानने के लिए,
समझने के
लिए एक गहन
धैर्य चाहिए।
और
मनुष्य को
बाहर से जानने
का कोई उपाय
नहीं है। यदि
तुम मनुष्य को
बाहर से जानने
की कोशिश करते
हो, जैसा
कि वैज्ञानिक
करते हैं, तो
तुम पावलोव
जैसी गलती
करोगे—मनुष्य
कुत्ते जैसा
मालूम होगा!
मनुष्य को जानने
का एकमात्र
उपाय उस
मनुष्य को
जानना है जो
तुम्हारे
भीतर है।
मनुष्य को
सीधा—सीधा
जानने का
एकमात्र उपाय
है स्वयं का
साक्षात्कार
करना।
तुम
अपने भीतर एक
विराट शक्ति
लिए हुए हो।
जब तक उससे
तुम्हारी
पहचान न हो
जाए, तुम
उसे बाहर
दूसरों में
नहीं देख
पाओगे और नहीं
पहचान पाओगे।
इसे एक कसौटी
की भांति खयाल
में ले लेना :
कि जितना तुम
स्वयं को
जानते हो उतना
ही तुम दूसरों
को जान सकते
हो। उससे
रत्ती भर
ज्यादा नहीं।
बिलकुल नहीं—असंभव
है यह बात।
पहले जानने
वाले को जानना
होता है; केवल
तभी दूसरे के
रहस्य में
उतरा जा सकता
है। तुम्हें
पहले अपनी
गहराई में
उतरना होता है,
केवल तभी
तुम्हारी आंखें
दूसरों की
गहराई को
पहचानने में
सक्षम होती हैं।
यदि तुम
अपनी परिधि पर
रहते हो तो
सारा
अस्तित्व उथला
मालूम होगा।
यदि तुम सोचते
हो कि तुम
सागर की एक
लहर हो, और सागर से
तुम्हारा कोई
परिचय नहीं है,
तो बाकी
लहरें भी
लहरें ही
रहेंगी। जब
तुम अपने भीतर
उतरते हो और
जान लेते हो
कि तुम सागर
हो—तुम सदा
सागर ही रहे
हो, तुम्हें
बस जानना है—तो
बाकी सब लहरें
भी खो जाती
हैं, अब
केवल सागर ही
लहरा रहा होता
है। अब
प्रत्येक लहर
के पीछे—सुंदर
कि असुंदर, छोटी कि बड़ी,
उससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता—प्रत्येक
लहर के पीछे
सागर ही
लहराता है।
योग एक
विधि है
तुम्हारे
अपने
अस्तित्व की
आत्यंतिक गहराई
के साथ, तुम्हारी
आत्मा की
निजता के साथ
जुड़ने की। वह
अथाह है तुम
उसमें डुबकी
मारते हो, लेकिन
तुम कभी उस
अवस्था तक
नहीं पहुंचते जहां
तुम कह सको, 'मैंने सब
जान लिया है।’
तुम गहरे, और गहरे, और
गहरे उतरते
जाते हो। वह
अथाह है। तुम
और— और गहरे
उतर सकते हो
उसमें, लेकिन
फिर भी बहुत
सदा ही शेष
रहता है। वह
अवस्था कभी
नहीं आती जब
तुम कह सको, 'अब मैं सीमा
तक पहुंच गया
हूं।’ असल
में सीमाएं
हैं ही नहीं।
इस लिए आस्तित्व
में कोई
सीमाएं नहीं
हैं। बाहर कोई
सीमाएं नहीं
हैं; अस्तित्व
असीम है।
तुम्हारे
भीतर कोई
सीमाएं नहीं
हैं। सीमाएं
एक झूठ हैं।
जितने तुम
गहरे उतरते हो,
उतना ही
असीम आपके पास
आता जाता है।
लेकिन
जब तुम उसमें
गहरे उतर जाते
हो, उसमें
डूब जाते हो—तो
तुम जानते हो।
अब क्षुद्र खो
जाता है, क्षणभंगुर
खो जाता है, सीमित खो
जाता है। अब
तुम देखते हो
किसी की आंखों
में और तुम
जानते हो कि
असीम—अनंत
प्रतीक्षा कर
रहा है वहां।
पहली बार, प्रेम
संभव होता है।
प्रेम केवल
तभी संभव होता
है, जब तुम
अपनी गहराई को
जान लेते हो।
केवल
परमात्मा
जैसे व्यक्ति
प्रेम करते
हैं, और
केवल
परमात्मा
जैसे व्यक्ति
ही प्रेम कर सकते
हैं। कुत्ते
तो केवल लड़
सकते हैं; प्रेम
के नाम पर भी
वे लड़ेंगे ही।
और यदि
परमात्मा
जैसे व्यक्ति
लड़ते भी हैं, तो उनकी
लड़ाई में भी
प्रेम ही होता
है; इससे
अन्यथा संभव
नहीं है।
जब तुम
अपने अंतस की
भगवत्ता को
पहचान लेते हो, तो
संपूर्ण
अस्तित्व तत्क्षण
बदल जाता है।
वह फिर वही
पुनरुक्ति
भरा, रोज—रोज
का साधारण सा,
पुराना
अस्तित्व
नहीं रहता।
नहीं, उसके
बाद कोई चीज
साधारण नहीं
रहती; हर
चीज असाधारण
हो जाती है, परम महिमा
में रंग जाती
है। साधारण
कंकड़—पत्थर
हीरे हो जाते
हैं—वे हीरे
हैं।
प्रत्येक
पत्ता जीवंत
हो उठता है
अपने चारों तरफ
छाए अदभुत
जीवन से।
संपूर्ण
अस्तित्व
दिव्य हो जाता
है। जिस क्षण
तुम्हारी
अपने अंतस की
भगवत्ता से पहचान
हो जाती है, तुम हर जगह
भगवत्ता को
देखने लगते हो।
वही जानने का
एकमात्र ढंग
है। संपूर्ण
योग एक विधि
है. अप्रकट को
कैसे उघाड़ें;
अपने भीतर
के द्वारों को
कैसे खोलें; उस मंदिर
में कैसे
प्रवेश करें
जो हम स्वयं
हैं; कैसे
स्वयं का
साक्षात्कार
हो।
तुम हो, तुम
प्रारंभ से ही
हो, लेकिन
तुमने उसे
देखा नहीं है।
खजाना तुम साथ
लिए हुए हो
प्रतिपल। हर
आती—जाती
श्वास के साथ
खजाना मौजूद
है। शायद
तुम्हें पता न
हो, लेकिन
तुमने उसे कभी
खोया नहीं है।
तुम बिलकुल
भूल सकते हो, लेकिन तुमने
उसे कभी खोया
नहीं है। तुम
शायद उसे पूरी
तरह भूल चुके
हो, लेकिन
उसे खोने का
कोई उपाय नहीं
है—क्योंकि
तुम्हीं हो वह।
तो
प्रश्न एक ही
है : 'उसे
कैसे उघाड़ें?'
वह ढंका हुआ
है; अज्ञान
की बहुत
पर्तें उसे
आच्छादित किए
हैं। योग एक
एक कदम, धीरे—
धीरे, आंतरिक
रहस्य में
उतरता है। आठ
चरणों में योग
पूरा करता है
खोज को।
प्रारंभिक
चरण कहलाते
हैं बहिरंग
योग, बाहरी
योग। यम, नियम,
आसन, प्राणायाम,
प्रत्याहार—ये
पांच चरण बाहरी
योग के रूप
में जाने जाते
हैं। शेष तीन,
अंतिम तीन—धारणा,
ध्यान, समाधि—ये
अंतरंग योग के
रूप में, भीतरी
योग के रूप
में जाने जाते
हैं।
अब
सूत्र.
तत—
क्षीयते
प्रकाशावरणम्।
फिर
उस आवरण का
विसर्जन हो
जाता है जो
प्रकाश को
ढंके हुए है।
चार चरण
पूरे हो चुके
हैं। पांचवां
चरण—प्रत्याहार—प्रथम
चार (बाहरी
योग) के और
अंतिम तीन
(भीतरी योग) के
बीच सेतु के
रूप में काम
करता है।
पांचवां चरण, जो बाहरी
योग का हिस्सा
है, वह
सेतु के रूप
में भी काम
करता है।
प्रत्याहार
का अर्थ होता
है : 'स्रोत
तक लौट आना
केंद्र तक
जाना नहीं, बस स्रोत तक
लौट आना।
लौटने की
प्रक्रिया
आरंभ हो चुकी
है। अब उर्जा
कहीं नहीं जा
रहीं है;
उर्जा का अब विषय—वस्तुओं
में रस नहीं
रह गया है—ऊर्जा
मुड़ चुकी है; बाहर से हट
चुकी है; वह
मुड़ रही है
भीतर। इसे ही
जीसस कनवर्सन
कहते हैं—वापस
लौट आना।
साधारणतया, ऊर्जा
बाहर की तरफ
गति करती है।
तुम देखना
चाहते हो, तुम
सूंघना चाहते
हो, तुम
छूना चाहते हो,
तुम अनुभव
करना चाहते हो
: ऊर्जा बाहर
जा रही होती
है। तुम
बिलकुल ही भूल
चुके हो कि
कौन तुम्हारे
भीतर छिपा है।
तुम आंखें, कान, नाक,
हाथ बन गए
हो और तुम भूल
गए हो कि कौन
इन इंद्रियों
के पीछे छिपा
है; कौन
देखता है
तुम्हारी आंखों
से।
तुम आंखें
नहीं हो। ठीक
है, तुम्हारे
पास आंखें हैं,
लेकिन तुम आंखें
नहीं हो। आंखें
सिर्फ झरोखे
हैं। कौन खड़ा
है उन झरोखों
के पीछे? कौन
देखता है उन आंखों
से? मैं
तुम्हें
देखता हूं; आंखें नहीं
देख रही हैं
तुम्हें। आंखें
अपने आप नहीं
देख सकतीं। जब
तक मैं खिड़की
के पास खड़ा
होकर बाहर न
देखूं आंखें
अपने आप नहीं
देख सकतीं!
ऐसा
बहुत बार
तुमको भी
अनुभव होता है
: तुम कोई किताब
पढ़ रहे हो, तुम कई
पन्ने पढ़ जाते
हो, और
अचानक
तुम्हें लगता
है कि तुमने
एक भी शब्द
नहीं पढ़ा है! आंखें
पढ़ रही थीं, लेकिन तुम
वहां नहीं थे।
आंखें घूमती
रहीं एक शब्द
से दूसरे शब्द
तक, एक
वाक्य से
दूसरे वाक्य
तक, एक
पैराग्राफ से
दूसरे
पैराग्राफ तक,
एक पृष्ठ से
दूसरे पृष्ठ
तक, लेकिन
तुम मौजूद
नहीं थे।
अचानक
तुम्हें होश
आता है कि 'केवल
आंखें ही वहां
थीं; मैं
नहीं था।’
तुम
गहन पीड़ा में, दुख में
हो : तब आंखें
खुली होती हैं,
लेकिन तुम
देखते नहीं; वे बहुत
ज्यादा भरी
होती हैं आंसुओ
से। या फिर
तुम बहुत
प्रसन्न होते
हो, इतने
प्रसन्न होते
हो कि तुम
फिक्र नहीं
करते : अचानक
तुम्हारी आंखें
इतनी खुशी से
भर जाती हैं
कि वे देख
नहीं सकतीं।
तुम
बाजार में हो
और कोई तुम से
कह देता है, 'तुम्हारे
घर में आग लगी
है।’ तुम
भागते हो। तुम
सड़क पर बहुत
से लोगों को
देखते हो। कुछ
लोग कहते हैं,
'जय राम जी।
कहां जा रहे
हो तुम? क्यों
इतनी जल्दी
में हो?
क्या हुआ है? तुम्हारी आंखें
देखती रहती
हैं, तुम्हारे
कान सुनते
रहते हैं, लेकिन
तुम वहां नहीं
होते—तुम्हारे
घर में आग लगी
है, तुम अब यहां
नहीं हो।
यदि
बाद में तुम
से पूछा जाए 'क्या
तुम्हें याद
है कि तुम से
किसने पूछा था,
कहां जा रहे
हो तुम? क्यों
इतनी जल्दी
में हो?' तो
तुम याद नहीं
कर पाओगे।
तुमने देखा था
उस आदमी को, तुमने सुना
था जो उसने
कहा, लेकिन
तुम वहां नहीं
थे। कान अपने
आप नहीं सुन
सकते। आंखें
अपने आप नहीं
देख सकतीं।
तुम्हारी
मौजूदगी
चाहिए।
तुम
खेल के मैदान
में हो, फुटबाल, हाँकी
या वॉलीबाल या
कुछ और खेल
खेल रहे हो।
जब खेल अपने
चरम शिखर पर
होता है, तब
तुम्हारे पैर
में चोट लग
जाती है; खून
बहने लगता है।
लेकिन तुम
इतने डूबे
होते हो खेल
में कि तुम्हें
होश नहीं होता।
चोट लगी है, लेकिन तुम
मौजूद नहीं हो
अनुभव करने के
लिए। आधे घंटे
बाद खेल खतम
होता है; अचानक
तुम्हारा ध्यान
जाता है पैर
की तरफ—खून बह
रहा है। अब
दर्द होता है।
आधा घंटा खून
बहता रहा, लेकिन
कोई दर्द न था—क्योंकि
तुम वहां नहीं
थे।
इसे
गहरे में समझ
लेना है
इंद्रियां अपने
आप में नपुंसक
है—जब तक कि
तुम सहयोग
नहीं देते।
यही तो योग की
संभवना है यदि
तुम सहयोग
नहीं देते, इंद्रियां
बंद हो जाती
हैं। यदि तुम
सहयोग नहीं
देते, तो
वापस लौटना
शुरू हो जाता
है। यदि तुम
सहयोग नहीं
देते, प्रत्याहार
शुरू हो जाता
है। जो वर्षों
से रोज कई
घंटे शांत बैठ
कर ध्यान कर
रहे हैं, यही
तो वे कर रहे
हैं—वे उनके
और उनकी
इंद्रियों के
बीच के सहयोग
को तोड्ने की
कोशिश कर रहे
हैं। जब ऊर्जा
बाहर देखने
में, सुनने
में, छूने
में व्यस्त
नहीं होती—तो
ऊर्जा भीतर की
ओर मुड़ने लगती
है। वही 'प्रत्याहार'
है : स्रोत
की ओर लौट
पड़ना, उस
स्थान की ओर
लौट पड़ना जहां
से तुम आए हो, केंद्र की
ओर लौट पड़ना।
अब तुम परिधि
की ओर नहीं जा
रहे होते।
'प्रत्याहार'
केवल
शुरुआत है।
अंत होगा 'समाधि'
में।’प्रत्याहार'
तो केवल
प्रारंभ है
ऊर्जा के घर
की ओर लौट पड़ने
का।’समाधि'
तब है जब
तुम घर पहुंच
गए, घर आ गए।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम—ये
चारों तैयारी
हैं
प्रत्याहार
के लिए, पांचवें
चरण के लिए।
और
प्रत्याहार
प्रारंभ है, मोड़ है; समाधि
है अंत।
'फिर
उस आवरण का
विसर्जन हो
जाता है, जो
प्रकाश को
ढंके हुए है।’
अंतिम
सूत्र
प्राणायाम के
विषय में था।
प्राणायाम
ब्रह्मांड के
साथ लयबद्धता
पाने की विधि
है, लेकिन
फिर भी तुम
बाहर रहते हो।
तुम ऐसे ढंग
से, ऐसी लय
से श्वास लेना
आरंभ कर देते
हो कि तुम्हारा
संपूर्ण
अस्तित्व के
साथ तालमेल
बैठ जाता है।
तब तुम समग्र
के साथ संघर्ष
नहीं कर रहे
होते, तुमने
समर्पण कर
दिया होता है।
तुम अब शत्रु
न रहे समग्र
के; तुम
प्रेमी बन
चुके हो।
यही तो
अर्थ है धार्मिक
होने का. अब वह
संघर्ष में
नहीं होता; अब उसके
पास अपने कोई
निजी लक्ष्य
नहीं होते, अब वह
अस्तित्व के
साथ बहता है; अब उसका वही
लक्ष्य है जो
समग्र का
लक्ष्य है—अगर
समग्र का कोई
लक्ष्य है तो।
अब उसकी कोई
निजी नियति
नहीं है, समग्र
अस्तित्व की
नियति ही उसकी
नियति है। वह
बहता है धारा
के साथ; वह
धारा के
विपरीत नहीं
लड़ता है।
जब तुम
सच में बहते
हो तो तुम मिट
जाते हो, क्योंकि
अहंकार केवल
तभी बच सकता
है जब वह लड़ता
है। अहंकार
केवल तभी बच
सकता है जब
कोई प्रतिरोध होता
है। अहंकार
केवल तभी बच
सकता है जब
तुम्हारे पास कोई
निजी लक्ष्य
होता है समग्र
के विरुद्ध।
इसे
समझने की
कोशिश करना कि
अहंकार कैसे
बना रहता है।
लोग आते हैं
मेरे पास और
वे कहते हैं, 'हम
अहंकार छोड़
देना चाहते
हैं।’ और
मैं उनसे कहता
हूं ' अगर
तुम अहंकार को
छोड़ना चाहते
हो तो तुम
नहीं छोड़ सकते
उसे, क्योंकि
तुम कौन हो
छोड़ने वाले? यह कौन है जो
कह रहा है कि
मैं अहंकार
छोड़ देना चाहता
हूं? यह भी
अहंकार है। अब
तुम अपने
अहंकार से ही
लड़ रहे हो।’
तो तुम
दिखावा कर
सकते हो
विनम्र होने
का, तुम
जबरदस्ती
विनम्रता थोप
सकते हो अपने
ऊपर, लेकिन
अहंकार मौजूद
रहेगा। तुम
पहले सम्राट
थे और अब तुम
भिखारी हो
सकते हो, लेकिन
फिर भी अहंकार
बना रहेगा।
पहले वह
सम्राट की
भांति था; अब
वह विनम्र
भिखारी की
भांति रहेगा।
तुम्हारे
चलने—फिरने का
ढंग, तुम्हारे
देखने का ढंग
उसे प्रकट
करेगा। जिस
ढंग से तुम
चलोगे—तुम
अहंकार की
घोषणा करोगे।
जिस ढंग से
तुम बात करोगे—तुम
अहंकार की
घोषणा करोगे।
तुम कह सकते
हो, 'मैं
संसार का सबसे
विनम्र व्यक्ति
हूं।’ उससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता। पहले
तुम सब से
महान व्यक्ति
थे संसार के, अब तुम कितने
विन्रम
व्यक्ति हो —लेकिन
तुम तो असाधारण।
तुम मौजूद हो !
अगर
तुम अहंकार के
साथ लड़ना शुरू
कर देते हो तो
तुम और
सूक्ष्म
अहंकार बना
लोगे, जो
कि और भी
खतरनाक है, क्योंकि वह
बहुत सूक्ष्म
अहंकार होगा—पवित्र
अहंकार होगा।
वह धार्मिक
होने का दावा
करेगा। पहले
वह कम से कम 'इस' संसार
का था, अब
वह 'उस' संसार
का होगा—और भी
शुद्ध, शक्तिशाली,
सूक्ष्म—और उसकी
पकड़ ज्यादा
खतरनाक होगी,
और उससे
बाहर आना
ज्यादा कठिन
होगा। तुम
छोटे खतरे से
बड़े खतरे में
कूद गए हो।
तुम जाल में
और उलझ गए हो।
तुम और बड़े
कारागृह में
प्रवेश कर गए
हो।
'प्राणायाम',
जिसे
निरंतर ही 'श्वास—नियंत्रण'
की भांति
समझा गया है, वह नियंत्रण
बिलकुल नहीं
है।
प्राणायाम
समस्त
अस्तित्व के
साथ सहजता से
होने का, सहजता
से जीने का एक
ढंग है। वह
कोई नियंत्रण
नहीं है। सारे
नियंत्रण
अहंकार से आते
हैं; वरना
कौन करेगा
नियंत्रण? अहंकार
नियंत्रण
करता है। यदि
तुम इसे समझ
लो, तो
अहंकार
तिरोहित हो
जाएगा—उसे
छोड़ने की कोई
जरूरत नहीं।
तुम
भ्रम को, झूठ को नहीं
छोड़ सकते; तुम
केवल सत्य को
छोड़ सकते हो—और
अहंकार सत्य
नहीं है। तुम
माया को नहीं
छोड़ सकते।
भ्रम नहीं
छोड़े जा सकते,
क्योंकि
पहली तो बात, वे होते ही
नहीं।
तुम्हें केवल
समझना होता है,
और वे
तिरोहित हो
जाते हैं।
सपने को नहीं
छोड़ा जा सकता
है। तुम्हें
बस सजग होना
होता है कि यह
सपना है, और
सपना खो जाता
है। अहंकार
सूक्ष्मतम
सपना है. यह
सपना कि मैं
अस्तित्व से
अलग हूं; यह
सपना कि मुझे
कुछ पाना है 'समग्र' के
विरुद्ध; यह
सपना कि मैं
अलग व्यक्ति
हूं। जिस क्षण
तुम होशपूर्ण
होते हो, सपना
मिट जाता है।
तुम
समग्र के
विपरीत नहीं
हो सकते, क्योंकि तुम
समग्र के
हिस्से हो।
तुम समग्र के
विरुद्ध नहीं
बह सकते, कैसे
तुम बह सकते
हो? यह तो
वैसी ही मूढ़ता
हुई जैसे मेरा
ही हाथ मेरे
विरुद्ध होने
की कोशिश कर
रहा हो। समग्र
के विरुद्ध
होने का कोई
उपाय नहीं है।
केवल एक ही
उपाय है.
समग्र के साथ
बहने लगो।
तुम जब
लड़ भी रहे
होते हो, तब भी तुम
समग्र से अलग
नहीं हो सकते—वह
तुम्हारी
कल्पना ही है।
जब तुम सोचते
भी हो कि तुम
समग्र के
विरुद्ध चल
रहे हो या
समग्र से अलग
हो या
तुम्हारा
अपना कोई अलग
लक्ष्य है, तो वह केवल
सपना ही है; तुम अलग हो
नहीं सकते। वह
ऐसा ही है
जैसे झील पर
उठी तरंग झील
के विरुद्ध
होने की सोच
रही हो : एकदम
मूढ़ है—कभी
वैसा होने की
कोई संभावना
नहीं है। कैसे
झील पर उठी
कोई तरंग अपने
आप कहीं जा
सकती है? वह
रहेगी झील का
हिस्सा ही।
यदि वह कहीं
जाती हुई मालूम
भी पड़ती है, तो वह झील की
मर्जी रही
होगी तभी वह
जा रही है।
जब कोई
यह समझ लेता
है, तो
वह जान जाता
है। वह हंसने
लगता है कि
मैं बड़े सपने
में जी रहा था—अब
सपना तिरोहित
हो गया है।
मैं अब नहीं
हूं। मैं
दोनों ही था, स्वप्न भी
और स्वप्न—
देखने वाला भी।
अब 'समग्र'
ही है।
प्राणायाम
वह स्थिति
निर्मित करता
है जहां 'लौटना' संभव
हो जाता है, क्योंकि अब
कहीं जाने को
नहीं रहता।
संघर्ष
समाप्त हो
चुका। कोई
शत्रुता नहीं
बचती। अब तुम
अपनी अंतस
सत्ता की ओर
बहने लगते हो—और
सच में नहीं
है, वह
बहार जाना
नहीं है। वह
बहना है। यदि
तुम संघर्ष
छोड़ दो, यदि
तुम बहार जाना
समाप्त कर
देते है भीतर की
ओर बहने लगते
हो। यह
स्वाभाविक है।
प्राणायाम
के बाद, पतंजलि कहते
हैं, 'फिर
उस आवरण का
विसर्जन हो
जाता है, जो
प्रकाश को
ढंके हुए है।’
इस
सूत्र में
गहरे उतरना है, एक—एक
शब्द पर ध्यान
देना है और
समझना है, क्योंकि
बहुत सी बातें
निर्भर
करेंगी इस सूत्र
पर।
पतंजलि
यह नहीं कह
रहे हैं कि
प्राणायाम के
बाद भीतरी
प्रकाश पा
लिया जाता है।
पतंजलि के
बहुत से
व्याख्याकारों
ने गलत दृष्टिकोण
अपनाया है। वे
सोचते हैं कि
यह सूत्र कहता
है कि आवरण हट
जाता है और
व्यक्ति
प्रकाश को
उपलब्ध हो
जाता है। ऐसा
नहीं है। यदि
ऐसा होता तो
फिर धारणा, ध्यान, समाधि क्या
हैं? यदि
तुम
प्रत्याहार
में ही अपने
लक्ष्य तक पहुंच
गए होते, अपने
अंतरतम
केंद्र तक
पहुंच गए होते,
जान लिया
होता उस अंतर—प्रकाश
को, तो फिर
धारणा का, ध्यान
का, समाधि का
क्या अर्थ है?
फिर करने के
लिए बचता ही
क्या है?
नहीं, पतंजलि
का यह अर्थ
नहीं हो सकता।
और सूत्र
स्पष्ट है।
पतंजलि कहते
हैं 'आवरण
का विसर्जन'—प्रकाश की
उपलब्धि नहीं
कहते। ये
दोनों अलग
बातें हैं।
आवरण का हटना
एक नकारात्मक
उपलब्धि है, वह प्रकाश
पाने की संभावना
निर्मित करती
है। लेकिन
आवरण का हटना
अपने आप में
प्रकाश की उपलब्धि
नहीं है। और
करने को बहुत
सारी चीजें
शेष हैं।
उदाहरण
के लिए, तुम आंखें
बंद किए जीते
रहे; तुम्हारी
पलकों ने सूरज
की रोशनी पर
पड़े आवरण का
काम किया।
लाखों—लाखों
जन्मों के बाद
तुम अपनी आंखें
खोलते हो : अब
आवरण नहीं है,
लेकिन तुम
प्रकाश न देख
पाओगे—तुम्हारी
आंखें अंधेरे
की अभ्यस्त हो
गई हैं। सूर्य
तुम्हारे
सामने मौजूद
होगा और कोई
आवरण न होगा, लेकिन तुम
उसे देख न
पाओगे।
आवरण
हट गया है, लेकिन
अंधकार का
लंबा अभ्यास
तुम्हारी आंखों
का हिस्सा बन
चुका है।
पलकों का
स्थूल आवरण अब
वहां नहीं है,
लेकिन
अंधकार का एक
सूक्ष्म आवरण
अभी भी मौजूद
है। और यदि
तुम बहुत जन्म
जीए हो अंधकार
में, तो
सूर्य
तुम्हारी आंखों
के लिए बहुत
ज्यादा
चमकदार होगा।
तुम्हारी आंखें
इतनी कमजोर
होंगी कि वे
इतनी तेज रोशनी
बरदाश्त न कर
पाएंगी। और जब
रोशनी
तुम्हारी
बरदाश्त करने
की क्षमता से
ज्यादा होती
है, तो वह
अंधकार बन
जाती है। कभी
थोड़ी देर सूरज
की तरफ देखने
की कोशिश करना
: तुम पाओगे
तुम्हारी आंखों
में अंधेरा छा
रहा है। यदि
तुम बहुत
ज्यादा कोशिश
करो देखने की,
तो तुम अंधे
भी हो सकते हो।
बहुत ज्यादा
रोशनी भी
अंधेरा बन
सकती है।
और तुम
नहीं जानते कि
तुम कितने
जन्मों—जन्मों
अंधकार में
जीते रहे हो।
तुमने कोई
प्रकाश जाना
नहीं; सूर्य
की एक किरण भी
तुम्हारे
अंतस में नहीं
उतरी। अंधकार
ही तुम्हारा
एकमात्र
अनुभव रहा है।
प्रकाश इतना अपरिचित
है कि उसे
पहचानना
असंभव होगा।
आवरण के हटने
मात्र से ही
तुम उसे नहीं
पहचान पाओगे।
पतंजलि
यह भलीभांति
जानते हैं।
इसीलिए वे
सूत्र इस भांति
प्रतिपादित
करते हैं 'तत:
क्षीयते प्रकाशावरणम्
—फिर उस आवरण
का विसर्जन हो
जाता है जो
प्रकाश को
ढंके हुए है।’
लेकिन
प्रकाश की
उपलब्धि नहीं
हुई है। यह एक
नकारात्मक
उपलब्धि है।
एक
दूसरे ढंग से
इसे समझने की
कोशिश करें।
तुम्हें अगर
कोई औषधि मदद
कर सकती है,
बीमारी
दूर हो सकती
है औषधि से।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं
होता कि तुमने
स्वास्थ्य पा
लिया है।
बीमारी छूट
सकती है, अब शरीर में
कोई बीमारी
नहीं है, लेकिन
स्वास्थ्य
अभी भी नहीं
मिला है।
तुम्हें आराम
करना होगा
थोड़े दिन।
जरूरी नहीं कि
बीमारी का चला
जाना
स्वास्थ्य का
मिलना हो।
स्वास्थ्य एक
विधायक घटना
है; बीमारी
एक नकारात्मक
घटना है।
ऐसा
संभव है कि
तुम किसी
चिकित्सक के
पास जाओ और वह
कहे कि
तुम्हें कोई
बीमारी नहीं
है, लेकिन
उसका यह अर्थ
नहीं है कि
तुम स्वस्थ हो।
तुम कह सकते
हो, 'मैं
स्वस्थ अनुभव
नहीं करता।
मैं अपने में
जीवंतता
अनुभव नहीं
करता। मैं
जीवन का कोई
उत्साह अनुभव
नहीं करता
स्वयं में, मुझे नहीं
लगता कि मैं
जीवित हूं।’
डाक्टर
केवल बीमारी
के विषय में
कुछ कह सकता है; वह
स्वास्थ्य के
विषय में कुछ
नहीं कह सकता।
उसके पास यह
पता करने का
कोई उपाय नहीं
है कि तुम
स्वस्थ हो या
नहीं। डाक्टर
तुम्हें ऐसा
सर्टिफिकेट
नहीं दे सकता
कि तुम स्वस्थ
हो; वह
तुम्हें केवल
यही
सर्टिफिकेट
दे सकता है कि
तुम बीमार
नहीं हो।
लेकिन जरूरी
नहीं है कि
बीमार न होना
स्वस्थ होना
ही हो।
निश्चित ही
बीमार न होना
स्वस्थ होने
की मूलभूत
शर्त है—यदि
तुम बीमार हो,
तो तुम
स्वस्थ नहीं
हो सकते।
लेकिन यदि तुम
बीमार नहीं हो,
तो जरूरी
नहीं है कि
तुम स्वस्थ हो।
स्वास्थ्य एक
विधायक बात है।
ऐसा कई
लोगों के साथ
होता है। कोई
व्यक्ति—बूढ़ा, बीमार, जीवन से थका—हारा—जीवन
के प्रति
तृष्णा खो
देता है, जिसे
बुद्ध तन्हा
कहते हैं। उसे
कुछ रस नहीं
रहता जीवन में।
तुम उसका इलाज
कर सकते हो—जहां
तक औषधि का
संबंध है, तुम
निरोग होने
में उसकी मदद
कर सकते हो, वह बीमार
नहीं है।
लेकिन तुम फिर
भी देखते हो :
वह बीमार नहीं
है, लेकिन
वह स्वस्थ भी
नहीं है। जीने
की चाह मिट गई
होती है।
बीमारी न रही;
अस्पताल
राजी है उसे
घर भेजने के
लिए लेकिन उसकी
कोई इच्छा ही नहीं
है जीने की।
वह स्वस्थ
नहीं होगा; वह मर जाएगा।
कोई उसकी मदद
नहीं कर सकता।
स्वस्थ होना
एक विधायक
घटना है, बीमार
होना एक
नकारात्मक
घटना है।
पतंजलि
कहते हैं. अब
कोई आवरण न
रहा। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि तुमने जान
लिया प्रकाश
को—तीन चरण
अभी और शेष
हैं। धीरे—
धीरे तुम्हें
अपने अंतस—चक्षुओं
को तैयार करना
होगा—उस
प्रकाश को
अनुभव करने के
लिए जानने के
लिए, आत्मसात
करने के लिए।
कभी—कभी इस
तैयारी में
वर्षों लग
जाते हैं।
'फिर
उस आवरण का
विसर्जन हो
जाता है, जो
प्रकाश को
ढंके हुए है।’
तो मैं
उन सब
व्याख्याकारों
से सहमत नहीं
हूं जो कहते
हैं कि
अंतप्रकाश पा
लिया जाता है—यह
अर्थ नहीं है।
अब कोई बाधा
नहीं रहती, अवरोध
मिट जाता है, लेकिन दूरी
अभी भी होती
है। तुम्हें
थोड़ा और चलना
होगा, अब
पहले से अधिक
ध्यानपूर्वक
चलना होगा, क्योंकि तुम
भी वही गलती
कर सकते हो; तुम सोच
सकते हो, अब
सब मिल गया, अवरोध टूट
गया है, आवरण
हट गया है। अब
मैं वापस घर
लौट आया।
लेकिन तब तुम
मंजिल पर
पहुंचने के
पहले ही रुक
गए।
बहुत
से योगी है जो
पांचवें पर रुक
गए है। फिर वे समझ
नहीं पाते कि क्या
रहा है।’ अब कोई
अवरोध भी नहीं
है वह अतृप्त
है तृप्त
नहीं हैं। असल
में यदि तुम
बहुत अहंकारी
हो तो तुम इसी
सूत्र पर ठहर
जाओगे। अगर
अवरोध हो तो
अहंकार के पास
कुछ लड़ने के
लिए होता है।
आवरण
हो, तो
तुम उसे हटाने
की, उठाने
की कोशिश करते
रहते हो। जब
वह हट जाता है,
तो लड़ने के
लिए कुछ नहीं
रहता। जैसे कि
तुम जिस चीज
से संघर्ष कर
रहे थे, वह
अचानक खो जाए—तुम्हारे
जीवन का सारा
अर्थ उसके साथ
खो जाता है।
अब तुम नहीं
जानते कि क्या
करें।
ऐसे
लोग हैं संसार
में जो दूसरों
के साथ एक गहरी
प्रतियोगिता
में उलझे हैं—व्यापार
में, राजनीति
में, इधर—उधर
की बातों में।
फिर वे थक
जाते हैं। अगर
वे थोड़े भी
बुद्धिमान
हैं, तो वे
थक ही जाएंगे।
फिर वे अपने
अहंकार से ही
लड़ने लगते हैं,
जो कि एक
आवरण है। एक
दिन वह आवरण
भी हट जाता है,
तब लड़ने के
लिए, संघर्ष
करने के लिए
कुछ बचता नहीं।
जब संघर्ष
करने के लिए
कुछ नहीं बचता,
तो अहंकार
के लिए इंच भर
भी सरकना
असंभव हो जाता
है, क्योंकि
अहंकार का
पूरा
प्रशिक्षण ही
किसी न किसी
के साथ संघर्ष
में रहना है—या
तो दूसरे के
साथ या फिर
अपने अहंकार
के साथ ही, लेकिन
संघर्ष जरूरी
है। जब लड़ने
के लिए, संघर्ष
करने के लिए
कुछ नहीं रहता,
कोई बाधा
नहीं रहती, तो तुम ठहर
जाते हो। अब
कहीं जाने के
लिए कोई जगह
नहीं रहती..
लेकिन तीन चरण
अभी भी शेष
हैं।
धारणासु
च योग्यता
मनस:।
और
तब मन धारणा
के योग्य हो
जाता है।
धारणा
केवल
एकाग्रता
नहीं है।
एकाग्रता में
थोड़ी सी झलक
है धारणा की, लेकिन धारणा
एकाग्रता से
बहुत बड़ी बात
है। तो इसे
ठीक से समझ
लेना जरूरी है।
भारतीय
शब्द धर्म भी
धारणा से आता
है। धारणा का
अर्थ होता है.
धारण करने की
क्षमता, गर्भ बनने
की पात्रता।
जब प्राणायाम
के बाद तुम
समग्र के साथ
लयबद्ध हो
जाते हो, तो
तुम गर्भ बन
जाते हो—धारण
करने की विराट
क्षमता बन
जाते हो। तुम
समाहित कर
सकते हो समग्र
को। तुम इतने
विराट हो जाते
हो कि सब कुछ
समाहित कर
सकते हो।
लेकिन 'धारणा' का अनुवाद
निरंतर 'एकाग्रता'
की भांति
क्यों किया
जाता रहा है? क्योंकि
इसमें
एकाग्रता की
थोड़ी झलक
मिलती है।
एकाग्रता
क्या है? एक
ही विचार के
साथ लंबे समय
तक बने रहना, एक ही विचार
को लंबे समय
तक धारण किए
रहना एकाग्रता
है।
अभी
यदि मैं तुमसे
कहूं कि बंदर
के विचार पर एकाग्र
होओ; केवल
कोशिश करो कि
बंदर का विचार
मन में रहे, बस बंदर का
चित्र खयाल
में रहे और
कुछ नही—तो
बहुत कठिन
होगा तुम्हारे
लिए। हजारों
दूसरे खयाल
आएंगे। असल
में, बंदर
को छोड़ कर न
जाने क्या—क्या
स्मरण आएगा; बंदर बार—बार
खो जाएगा।
बड़ा
कठिन है मन के
लिए किसी चीज
पर एकाग्र रहना।
मन बहुत
संकुचित है।
वह किसी चीज
के साथ कुछ
क्षणों के लिए
ही रह सकता है, फिर वह
उससे हट जाता
है। वह विराट
नहीं है; वह लंबे
समय तक नहीं
रह सकता किसी
एक चीज पर न
ठहरना मनुष्यता
की गहरी
समस्याओं में
से एक है। तुम
किसी स्त्री
या किसी पुरुष
के प्रेम
पड़ते हो। फिर
अगले दिन मन
किसी दूसरे पर
आने लगता है!
एक दिन का साथ,
और अधिक
दूखी लगते हो।
तुम्हारा मन
हटने लगता है।
तुम एक ही
व्यक्ति के
साथ बहुत समय
तक प्रेम में
नहीं रह सकते,
कुछ घंटे
रहना भी भारी
हो जाता है।
तुम्हारा मन न
जाने कहां—कहां
चक्कर काटता
रहता है। तुम
बहुत दिनों से
कार के लिए
परेशान थे।
तुमने श्रम
किया, संघर्ष
किया; किसी
भांति तुम सफल
हो गए कार
लाने में। अब
कार खड़ी है
तुम्हारे
पोर्च में—लेकिन
बात खतम हो गई।
अब मन फिर
कहीं और भटक
रहा है—पड़ोसी
की कार। और
यही होगा उस
कार के साथ भी।
यही हमेशा से
हो रहा है. तुम
कहीं रुक नहीं
सकते। यदि तुम
पहुंच भी जाते
हो अपने
लक्ष्य तक, तो जल्दी ही
तुम वहां से
हट जाते हो।
धारणा
का अर्थ है
धारण करने की
क्षमता।
क्योंकि यदि
तुम परमात्मा
को जानना
चाहते हो, तो
तुम्हें उसे
धारण करने की
क्षमता
जुटानी होगी।
यदि तुम अपने
अंतरस्थ
केंद्र को
जानना चाहते हो,
तो तुम्हें
उसके लिए गर्भ
होने की
क्षमता निर्मित
करनी होगी।
तुम्हें पुन:
जन्म देना
होगा स्वयं को।
एकाग्रता तो
केवल उसका एक
हिस्सा है।
धारणा बहुत
विराट शब्द है,
वह बहुत
व्यापक शब्द
है। वह
एकाग्रता से
बहुत विराट है;
एकाग्रता
तो केवल उसका
एक हिस्सा है।
'और
तब मन धारणा
के योग्य हो
जाता है।’
मैं
इसका अनुवाद
करूंगा: 'और तब मन एक
गर्भ हो जाता
है।’ और जब
मैं कहता हूं 'गर्भ', तो
मेरा मतलब है.
स्त्री बच्चे
को नौ महीने
अपने भीतर
धारण करती है;
वह उसे बीज
की भांति
सम्हालती है।
हिंदुओं ने
स्त्री को
पृथ्वी कहा है,
क्योंकि वह
बच्चे को धारण
करती है—बच्चे
के बीज को, जैसे
पृथ्वी वृक्ष
के बीज को
महीनों तक
धारण करती है।
जब बीज भूमि
के साथ एक हो
जाता है; सारा
भय छोड़ देता
है; पृथ्वी
के प्रति
अजनबी नहीं
रहता; निश्चित
अनुभव करने
लगता है।
ध्यान
रहे, बीज
को पहले
निश्चित होना
चाहिए, केवल
तभी खोल टूटती
है; अन्यथा
तो खोल कभी
टूटेगी नहीं।
जब बीज को लगता
है कि यह
पृथ्वी मां
जैसी है—फिर
स्वयं की
सुरक्षा करने
की कोई जरूरत
नहीं रहती, अपने चारों
ओर खोल का कवच
बनाए रखने की
कोई जरूरत
नहीं रहती—वह
शिथिल हो जाता
है। धीरे—
धीरे खोल
टूटता है और
पृथ्वी में खो
जाता है। अब
बीज अजनबी
नहीं है; उसने
मां को पा
लिया है। और
तब अंकुर फूट
पड़ते हैं।
भारत
में हमने
स्त्री को
पृथ्वी—तत्व
कहा है और
पुरुष को आकाश—तत्व
कहा है—पुरुष
भटकता रहता है।
वह अपने भीतर
कुछ ज्यादा
सम्हाल नहीं
सकता है। और
ऐसा रोज होता
है : यदि कोई
स्त्री किसी
पुरुष के
प्रेम में
पड़ती है तो वह
जीवन भर प्रेम
कर सकती है।
यह उसके लिए
बहुत आसान है—वह
जानती है कि
कैसे किसी भाव
को गहरे धारण
किया जाए और
उसके साथ रहा
जाए। पुरुष
घुमक्कड़ है, भटकता
रहता है। अगर
स्त्रियां न
होतीं तो
संसार में घर
न होते—ज्यादा
से ज्यादा
तंबू होते—क्योंकि
पुरुष
घुमक्कड़ है।
वह सदा एक ही
जगह नहीं रहना
चाहता। वह ईंट—पत्थर
के महल और
संगमरमर के
महल नहीं
बनाता। नहीं;
वे बहुत
स्थायी चीजें
हैं। उसका
घुमक्कड़ों का
सा तंबू होता,
ताकि किसी
भी क्षण वह
उसे उखाड़ सके,
और कहीं और
जा सके।
दुनिया
में घर न होते, यदि
स्त्रियां, न होतीं। घर
स्त्रियों के
कारण हैं। असल
में सारी
सभ्यता
स्त्रियों के
ही कारण है।
पुरुष खाख
छानता ही रहता,
घूमता ही
रहता। और अभी
भी उसका मन
ऐसा री है। वह
घर में भी
रहता है, तो
भी मन भटकता
ही रहता है।
वह अपने भीतर
कुछ सम्हाल
नहीं सकता है।
गर्भ बनने की
उसकी शमता
नहीं है।
इसलिए
मेरे देखने
में आया है कि
स्त्री पुरुष की
अपेक्षा अधिक
सरलता से
ध्यान में उतर
सकती है।
पुरुष के लिए
यह कठिन है; उसका मन
बहुत कंपता
रहता है, उसे
नए—नए जालों
में उलझा लेता
है; सदा
दौड़ता रहता
है. सदा सोचता
रहता है
हिमालय जाने
की, गोवा
जाने की, काबुल
जाने की, नेपाल
जाने की—कही न
कहीं जाने की।
स्त्री एक जगह
रुक सकती है; वह एक ही
स्थान में रह
सकती है। कहीं
जाने की कोई
भीतरी आकांक्षा
उसमें नहीं
होती।
'और
तब मन धारणा
के योग्य हो
जाता है।’
तब मन
गर्भ बनने के
योग्य हो जाता
है—क्योंकि
उसी गर्भ से
तुममें एक नई अंतस
सत्ता का जन्म
होगा।
तुम्हें
स्वयं को जन्म
देना है, तुम्हें
स्वयं को गर्भ
में धारण करना
है। एकाग्रता
उसी का हिस्सा
है। सुंदर है
एकाग्रता को
समझना। यदि
तुम एक ही
विचार के साथ
ज्यादा देर तक
रह सकते हो, तो तुम अपने
साथ भी ज्यादा
देर तक रहने
में सक्षम हो
जाते हो।
क्योंकि यदि
तुम लंबे समय
तक स्वयं में
घिर नहीं रह
सकते तो तुम
वस्तुओं
द्वारा
आकर्षित होते
रहोगे : एक कार,
फिर कोई
दूसरी कार, एक घर, फिर
कोई दूसरा घर;
एक स्त्री,
फिर कोई
दूसरी स्त्री,
यह पद, फिर
कोई और पद।
तुम वस्तुओं
में भटकते
रहोगे। तुम घर
वापस न आ
पाओगे।
जब कोई
चीज तुम्हारे
चित्त को
भटकाती नहीं, केवल तभी
लौटना संभव
होता है। जिस
मन में गहन
धैर्य है—मां
की भांति—जो
प्रतीक्षा कर
सकता है, स्थिर
रह सकता है, केवल वही मन
जान सकता है
अपनी भगवत्ता
को।
योग का
पांचवां अंग
है
प्रत्याहार—
स्रोत पर लौट
आना यह मन की
उस क्षमता की
पुनर्स्थापना
है जिससे
बाह्य विषय
जनित
विक्षेपों से
मुक्त हो
इंद्रियां वश
में हो जाती
हैं।
जब तक
तुम बाहरी
चीजों से होने
वाले चित्त—विक्षेपों
से नहीं छूटते, तुम भीतर
नहीं जा सकते,
क्योंकि वे
चीजें
तुम्हें बार—बार
बुलाती
रहेंगी। यह
ऐसा ही है
जैसे तुम
ध्यान कर रहे
हो, लेकिन
टेलीफोन भी
तुमने ध्यान—कक्ष
में रख लिया
है। वह बार—बार
बजता है, तो
कैसे तुम
ध्यान कर सकते
हो? तुम्हें
अपना टेलीफोन
हटा देना है।
और यह
कोई एक
टेलीफोन की
बात नहीं है।
तुम्हारे आस—पास
लाखों—लाखों
चीजें चल रही
हैं—लाखों
टेलीफोन बज
रहे हैं
लगातार जब तुम
ध्यान करने की
कोशिश कर रहे
हो। तुम्हारे
मन का एक
हिस्सा कहता
है, 'क्या
कर रहे हो तुम यहां?
यह समय
बाजार जाने का
है, क्योंकि
यही समय है सब
से धनी ग्राहक
के आने का।
क्यों तुम यहां
खाली बैठे
अपना समय खराब
कर रहे हो?' मन
का दूसरा
हिस्सा कुछ और
ही कहता है—और
मन में हजारों
बातें चलती
रहती हैं। वे
सब बातें
तुम्हारा
ध्यान
आकर्षित करने
का प्रयास कर
रही हैं। यदि
यही चलता रहा,
तो
प्रत्याहार
संभव नहीं है।
कैसे तुम जा
पाओगे भीतर? तुम्हें
परिधि के लगाव,
बाहर के
भटकाव छोड़ने
होते हैं—केवल
तभी लौटना
संभव होता है।
'योग
का पांचवां
अंग है
प्रत्याहार—स्रोत
पर लौट आना।
यह मन की उस
क्षमता की
पुनर्स्थापना
है जिससे
बाह्य विषय
जनित
विक्षेपों से
मुक्त अविश्वश्निय
में हो जाती
हैं।’
'बाह्य
विषय जनित
विक्षेपों से
मुक्त हो...।’
कैसे
कोई मुक्त हो
सकता है
विक्षेपों से? क्या तुम
प्रतिज्ञा कर
सकते हो कि 'मेरा धन में
जो रस है उसे
मैं छोड़ता हूं,
या 'मेरा
स्त्रियों
में जो रस है, मेरा
पुरुषों में
जो रस है उसे
मैं छोड़ता हूं?'
मात्र
प्रतिज्ञा
करने से यह
संभव नहीं है।
असल
में
प्रतिज्ञा से
उलटा ही होगा।
यदि तुम कहते
हो, 'मैं
स्त्रियों
में रस लेना
छोड़ता हूं', तो तुम्हारा
मन और ज्यादा
भर जाएगा
स्त्रियों के
चित्रों से; तुम और
ज्यादा
कल्पना करने
लगोगे। असल
में, यदि
तुम जबरदस्ती
छोड़ते हो, तो
तुम और ज्यादा
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
बहुत से लोग
ऐसे ही छोड़ने
की कोशिश करते
रहे हैं।
जब भी
वृद्ध
संन्यासी
मुझसे मिलने
आते हैं तो वे
हमेशा कहते
हैं, 'कामवासना
का क्या करें?
वह मन में
चलती ही रहती
है। और वह
पहले से अधिक
चलती है। और
हमने तो सब
छोड़ दिया है, तो अब क्या
करें?' जितना
ज्यादा तुम
छोड़ते हो बिना
समझ के, जबरदस्ती,
उतना
ज्यादा तुम
मुसीबत में
पड़ोगे। समझ
चाहिए—संकल्प
नहीं। संकल्प
अहंकार का
हिस्सा है।
और जब
तुम किसी चीज
के विरुद्ध
संकल्प करते
हो, तो
तुम दो
हिस्सों में
बंट जाते हो—तुम
अपनें से ही
लड़ने लगते हो।
यदि तुम कहते
हो, 'मैं
स्त्रियों
में कोई रस न
लूंगा'—तो
तुम ऐसा क्यों
कह रहे हो? यदि
तुम्हें सच
में ही रस
नहीं है तो
खतम हुई बात।
उसे कहने में
सार क्या है? क्यों तुम
प्रतिज्ञा
करने, व्रत
लेने जाते हो
किसी समारोह
में, भीड़
में, मंदिर
में, किसी
धर्मगुरु के
सामने? मतलब
क्या है? यदि
अब तुम्हें
कोई रस नहीं
है, तो बात
खतम हो गई।
क्यों तमाशा
बनाना इसका? क्यों
ढिंढोरा
पीटना?
नहीं, बात कुछ
और है।
तुम्हारे लिए
अभी बात खतम
नहीं हुई है।
असल में, तुम
और भी आकर्षित
हो। लेकिन तुम
निराश भी हो।
जब भी तुम
संबंध में
उतरे, निराशा
हाथ लगी। तो
निराशा भी है
और आकर्षण भी
है—दोनों
बातें हैं, यही तकलीफ
है। अब तुम
कोई सहारा खोज
रहे हो जहां
तुम इसे छोड़
सको; तुम
समाज खोजते हो।
यदि तुम भीड़
के सामने
स्त्री के
प्रति आकर्षण
को छोड़ने की
कसम खा लेते
हो, तो
तुम्हारा
अहंकार कहेगा,
'अब उस दिशा
में जाना ठीक
नहीं', क्योंकि
सारा समाज
जानता है कि
तुमने ब्रह्मचर्य
का व्रत लिया
है। अब यह बात
तुम्हारे
अहंकार के
खिलाफ जाती है;
अब तुम्हें
लड़ना पड़ता है
इसके लिए।
और
किसके साथ लड़
रहे हो तुम? तुम्हारी
अपनी ही
कामवासना से!
तुम्हारा संकल्प
तुम्हारी
अपनी
कामवासना से
लड़ रहा है। यह
ऐसे ही है
जैसे
तुम्हारा
बायां हाथ तुम्हारे
दाएं हाथ से
लड़ रहा हो। यह
मूढ़ता है; यह
नासमझी है।
तुम कभी जीत
नहीं सकते।
तो
कैसे छूटे कोई? तुम समझ
से छोड़ते हो, तुम अनुभव
से छोड़ते हो, तुम पक कर
छोड़ते हों—किसी
प्रतिज्ञा से
नहीं। यदि तुम
कोई चीज छोड़ना
चाहते हो, तो
उसे पूरा—पूरा
जीओं। भयभीत
मत होओ और
घबराओ मत।
उसके गहरे में
उतरो, ताकि
तुम समझ सको।
एक बार बात
समझ में आ
जाती है, तो
उसे बिना किसी
प्रयास के
छोड़ा जा सकता
है। यदि
प्रयास आ जाता
है, संकल्प
आ जाता है, तो
तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
जबरदस्ती
कुछ भी मत करो।
प्रयास से कुछ
भी मत करो।
संकल्पपूर्वक
कुछ भी मत करो संकल्प
ही सब उलझन
खड़ी होती है।
केवल
थोड़ी सी समझ
की जरूरत है
कि जीवन एक
पाठशाला है
जिससे गुजरना
जरूरी है। और
जल्दी मत करना।
यदि अभी भी
तुम्हें लगता
है कि धन के
लिए इच्छा शेष
है, तो
बेहतर है कि
प्रार्थना
में मत उलझो।
जाओ, और
इकट्ठा करो धन,
और खतम करो
बात। बात
नासमझी की है,
इसलिए यदि
तुम में समझ
है, तो तुम
जल्दी मुक्त
हो जाओगे। यदि
तुम में समझ
की थोड़ी कमी
है, तो तुम
थोड़ा ज्यादा
समय लोगे—अनुभव
से समझ आएगी।
अनुभव
ही एकमात्र
उपाय है; और दूसरा
कोई सरल उपाय
नहीं है।
इसमें थोड़ा
समय लग सकता
है, लेकिन
कुछ किया नहीं
जा सकता—मनुष्य
असहाय है। और
सब कुछ छोड़ा
जा सकता है।
असल में यह
कहना कि छोड़ा
जा सकता है
ठीक नहीं है.
वह अपने आप ही
छूट जाता है।
बाहरी
चीजों द्वारा
होने वाले
विक्षेपों का त्याग
करने से
व्यक्ति
प्रत्याहार
के योग्य हो
जाता है, घर लौट आता
है। अब बाहर
के संसार में
कोई रस नहीं
रहता, इसलिए
तुम हजारों
दिशाओं में
भटकते नहीं।
अब तुम स्वयं
को जानना
चाहते हो; स्वयं
को जानने की
आकांक्षा
बाकी सारी आकांक्षाओं
का स्थान ले
लेती है। अब
केवल एक ही
आकांक्षा
बचती है :
स्वयं को जानने
की।
ततः
परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्।
फिर
समस्त
इंद्रियों पर
पूर्ण वश हो
जाता है।
जब तुम
घर लौट आते हो, भीतर आ
जाते हो, तो
अचानक तुम
मालिक हो जाते
हो। यही
सौंदर्य है इस
प्रक्रिया का।
यदि तुम बाहर
भटकते रहते हो,
तो तुम
गुलाम रहते हो—और
न मालूम कितनी
चीजों के
गुलाम रहते हो।
तुम्हारी
गुलामी अनंत
होती है, क्योंकि
तुम्हारी आकांक्षा
के विषय अनंत
होते हैं।
ऐसा
हुआ. मैं
प्रोफेसर था
यूनिवर्सिटी
में। मेरे
पड़ोस में एक
दूसरे
प्रोफेसर रहा
करते थे।
मैंने ऐसा
कंजूस आदमी
नहीं देखा; वे सच में
ही असाधारण थे।
उनके पास काफी
रुपया—पैसा था;
उनके पिता
काफी धन छोड़
गए थे। वे और
उनकी पत्नी
वहां रहते थे।
बहुत धन था, बड़ा मकान था,
हर चीज थी—लेकिन
वे ऐसी साइकिल
में चलते
जिसकी शहर भर
में चर्चा थी।
वह
साइकिल क्या
थी एक चमत्कार
थी। कोई और
उसे नहीं चला
सकता था. वह
ऐसी खस्ता हालत
में थी कि
असंभव था उसे
चलाना। शहर भर
जानता था कि
वे कभी ताला
नहीं लगाते साइकिल
में, क्योंकि
कोई जरूरत न
थी—कौन चुराता
उसे। लोगों ने
एक—दो बार
कोशिश की, और
फिर लौटा गए।
वे थिएटर जाते
तो साइकिल
बाहर रख देते।
वे कभी स्टैंड
पर नहीं रखते,
क्योंकि एक
आना देना पड़ता।
वे कहीं भी रख
देते उसे। और
तीन घंटे बाद
जब वे आते, तो
उन्हें हमेशा
साइकिल वहीं
रखी मिलती।
उसमें कोई
मडगार्ड नहीं
थे, कोई
हॉर्न नहीं था,
कोई चेन कवर
नहीं था, और
वह इतना शोर
करती थी कि एक
मील से पता लग
जाता था कि वे
प्रोफेसर आ
रहे हैं।
धीरे—
धीरे, वे
मेरे मित्र बन
गए। मैंने
उन्हें राय
दी: अब
बहुत हुआ और
सब तुम्हारी
साइकिल का
मजाक उड़ाते
हैं। इससे
छुटकारा
क्यों नहीं पा
लेते?' उन्होंने
कहा, 'क्या
करूं?
मैंने कोशिश
की इसे बेचने
की, लेकिन
कोई तैयार ही
नहीं होता इसे
खरीद।
मैंने
कहा, 'कोई
तैयार नहीं
होता इसे
खरीदने के लिए,
क्योंकि यह
किसी काम की
नहीं है। जाओ
और इसे नदी
में फेंक आओ—और
परमात्मा को
धन्यवाद दो
अगर कोई इसे
वापस न ले आए।’
उन्होंने
कहा, 'मैं
सोचूंगा इस
बारे में।’
लेकिन
वे कुछ नहीं
सोच सके। तो
जब उनका अगला
जन्मदिन आया
तो मैंने एक
नई साइकिल
खरीदी। जो
अच्छी से
अच्छी साइकिल
उपलब्ध थी, वह खरीदी
और उन्हें
भेंट में दी।
वे बहुत खुश
हुए। अगले दिन
मैं
प्रतीक्षा कर
रहा था कि वे
नई साइकिल पर
आएंगे, लेकिन
वे पुरानी
साइकिल पर ही
चले आ रहे थे!
तो मैंने पूछा,
'बात क्या
है?' उन्होंने
कहा, 'जो
साइकिल आपने
मुझे दी है वह
इतनी सुंदर है
कि मैं उसे
इस्तेमाल
नहीं कर सकता।’
वह
पूजा की चीज
हो गई। वे रोज
उसे साफ करते, मैं
देखता कि वे
साफ कर रहे
हैं उसे। वे
उसको साफ करते
और उसको
चमकाते और यही
सब करते रहते
और हमेशा वह
साइकिल उनके
घर में किसी सजावट
की वस्तु की
भांति रखी
रहती, और
वे अपनी
पुरानी
साइकिल पर
सवार भागते
रहते—चार—पांच
मील कालेज
जाते; चार—पांच
मील बाजार
जाते—सारा दिन
वही पुरानी
साइकिल।
असंभव था
उन्हें नई
साइकिल का
उपयोग करने के
लिए राजी करना।
वे कहते, 'आज
बारिश हो रही
है'; 'आज
बहुत गरमी है';
और 'मैंने
अभी साफ किया
है उसे। और आप
तो जानते हैं
कि
विद्यार्थी
कैसे हैं—महा
शरारती हैं—कोई
खरोंच ही लगा
दे। मुझे
कालेज के बाहर
खड़ी करनी
पडेगी, और
कोई खरोंच मार
सकता है और
खराब कर सकता
है।’
उन्होंने
कभी उसे
इस्तेमाल
नहीं किया, और जहां
तक मैं जानता
हूं वे अभी भी
पूजा ही कर
रहे होंगे
उसकी। ऐसे लोग
हैं जो
वस्तुओं की
पूजा कर रहे
हैं। मैंने उन
प्रोफेसर से
कहा, 'आप
साइकिल के
मालिक नहीं
हैं, साइकिल
मालिक हो गई
है आपकी। असल
में मैं सोच
रहा था कि
मैंने आपको
साइकिल भेंट
दी—अब मैं
साइकिल से कह
सकता हूं कि
मैंने
तुम्हें यह
प्रोफेसर
भेंट में दिया।
साइकिल मालिक
हो गई है।’
यदि
तुम इच्छा
करते हो चीजों
की, तो
तुम मालिक
नहीं हो। और
यही भेद है :
तुम महल में
हो सकते हो, लेकिन यदि
तुम उसका
उपयोग करते हो,
तो कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
तुम झोपड़ी में
हो सकते हो, लेकिन यदि
तुम उसका
उपयोग नहीं
करते और झोपड़ी
तुम्हारा
उपयोग करती है,
तो तुम बाहर
से अपरिग्रही
लग सकते हो
लोगों को, लेकिन
तुम हो नहीं :
तुम परिग्रही
हो। एक आदमी
महल में रह
सकता है और
संत हो सकता
है; और एक
आदमी झोपड़ी
में रह सकता
है और शायद
संत न हो। संत
होने की गुणवत्ता
तुम्हारे
मालिक होने पर
निर्भर है।
यदि तुम उपयोग
करते हो चीजों
का, तो ठीक
है; लेकिन
यदि तुम्हारा
उपयोग किया जा
रहा है, तो
तुम बड़ा
मूढ़तापूर्ण व्यवहार
कर रहे हो।
पतंजलि
कहते हैं, 'फिर
समस्त
इंद्रियों पर
पूर्ण वश हो
जाता है।’
और
इंद्रियों के
विषयों पर भी...
केवल
प्रत्याहार
द्वारा! जब
तुम्हारी जिंदगी
में आत्म—ज्ञान
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
हो जाता है और
कुछ भी
महत्वपूर्ण
नहीं रहता, जब
तुम्हारे
अपने आत्म—शान
के लिए, तुम्हारी
अंतस—सत्ता के
लिए हर छोड़ी
जा सकती है, जब राज्य
मूल्यहीन हो
जाते हैं—यदि
तुम्हें अपने आंतरिक
राज्य और
बाहरी राज्य
के बीच चुनना
हो, तो तुम आंतरिक
राज्य चुनोगे—उस
क्षण, पहली
बार, तुम—तुम
नहीं रहते :
तुम मालिक हो
जाते हो।
भारत
में
संन्यासियों
के लिए हम 'स्वामी' शब्द का
प्रयोग करते
रहे हैं।
स्वामी का
अर्थ होता है
मालिक, इंद्रियों
का मालिक।
वरना तो तुम
सभी गुलाम हो—और
गुलाम हो
मुर्दा चीजों
के, गुलाम
हो भौतिक
संसार के।
और जब
तक तुम मालिक
नहीं हो जाते, तुम
सुंदर नहीं हो
सकते। तुम
कुरूप हो; तुम
कुरूप ही
रहोगे। जब तक
तुम मालिक
नहीं हो जाते,
तुम नरक में
रहोगे। स्वयं
का मालिक होना
है स्वर्ग में
प्रवेश करना।
वही एकमात्र
स्वर्ग है।
प्रत्याहार
तुम्हें
मालिक बना
देता है।
प्रत्याहार
का अर्थ है : अब
तुम चीजों के
पीछे नहीं भटक
रहे हो, चीजों के
पीछे नहीं भाग
रहे हो, चीजों
की खोज में
नहीं हो। वही
ऊर्जा जो
संसार में भटक
रही थी, अब
केंद्र पर लौट
आती है। जब ऊर्जा
केंद्र में
लौटती है, तब
रहस्यों पर
रहस्य खुलते
चले जाते हैं।
तुम पहली बार
स्वयं के
सामने प्रकट
होते हो—तुम
जानते हो कि
तुम कौन हो।
और यह जानना
कि मैं कौन
हूं तुम्हें
परमात्मा बना
देता है।
शेक्सपियर
का हेमलेट सही
है, जब
वह आदमी के
बारे में कहता
है, 'कितना
ईश्वर जैसा
है!' पावलोव
सही नहीं है
जब वह आदमी के
बारे में कहता
है, 'कितना
कुत्ते जैसा
है!' लेकिन
यदि तुम चीजों
के पीछे भाग
रहे हो, तो
पावलोव सही है,
हेमलेट गलत
है। यदि तुम
चीजों के पीछे
भाग रहे हो, तो स्किनर
सही है, लेविस
गलत है।
मैं
फिर से कह दूं : 'आदमी
उखड़ा जा रहा
है', सी. एस
लेविस कहता है।
बी .एफ. स्किनर
कहता है, 'अच्छा
छुटकारा है।’
शेक्सपियर
का हेमलेट
कहता है, 'कितना
ईश्वर जैसा
है!' पावलोव
कहता है, 'कितना
कुत्ते जैसा
है।’ यह
तुम्हारे
चुनने की बात
है कि तुम
क्या होना
चाहोगे। यदि
तुम भीतर
उतरते हो, तो
तुम परमात्मा
हो। यदि तुम
बाहर की
यात्रा पर हो,
तो पावलोव
सही है।
आज
इतना ही।
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