अध्याय—10
सूत्र:
विस्तरेणात्मनो
योगं विभूतिं
च जनार्दन।
भूय: कथय
तृप्तिर्हि
मृण्वतो
नास्ति
मेउमृतम्।। 18।।
श्रीभगवानुवाच:
हन्त ते
कथयिष्यामि
दिव्या
ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यत
कुस्फेष्ठ
नास्त्यन्तो
विस्तरस्थ मे।।
19।।
अहमात्मा
गुडाकेश
सर्वभूताशयस्थित:।
अहमादिश्च
मध्यं व
भूतानामन्त
एव च।। 2०।।
और हे
जनार्दन अपनी
योगशक्ति को
और परम ऐश्वर्य
रूय विभूति को
फिर भी
विस्तारपूर्वक
कहिए क्योंकि
आपके अमृतमय
वचनों को
सुनते हुए
मेरी तृप्ति
नहीं होती है।
हम
प्रकार
अर्जुन के
पूछने पर श्रीकृष्ण
भगवान बोले हे
कुरूश्रेष्ठ
अब मैं तेरे
लिए अपनी
दिव्य
विभूतियों को
प्रधानता से
कहूंगा क्योंकि
मेरे विस्तार
का अंत नहीं
है। हे अर्जुन
मैं सब भूतों
के हृदय में
स्थित सबका
आत्मा हूं तथा
संपूर्ण
भूतों का आदि, मध्य और
अंत भी मैं ही
हूं।
अर्जुन ने
कृष्ण से पुन:
कहा, और
हे जनार्दन, अपनी योगशक्ति
को और परम
ऐश्वर्य रूप
विभूति को फिर
भी
विस्तारपूर्वक
कहिए, क्योंकि
आपके अमृतमय
वचनों को
सुनते हुए मेरी
तृप्ति नहीं
होती है।
कृष्ण
के वचन हों, या बुद्ध
के, या
क्राइस्ट के,
सुनते हुए
कभी भी किसी
की उनसे
तृप्ति नहीं
होती है। ऊपर
से देखने पर
लगेगा कि वचन
इतने
प्रीतिकर हैं,
इतने
अमृतमयी हैं,
इतने मधुर
हैं, कि
कितना ही सुनो
उन्हें, तृप्ति
नहीं होती है।
यह बहुत ऊपरी
अर्थ हुआ।
गहरे में
देखने पर, ये
वचन ऐसे हैं
कि सुनकर इनसे
कभी तृप्ति
नहीं हो सकती,
वरन
अतृप्ति और
बढ़ेगी।
तृप्ति होना
तो दूर, और
अतृप्ति
बढ़ेगी, और
बेचैनी बढ़ेगी,
और प्यास
बढ़ेगी।
क्योंकि ये
वचन जिस बात
की खबर देते
हैं, जैसे—जैसे
उसकी खबर बढ़ने
लगती है, वैसे—वैसे
प्यास भी बढने
लगती है उसे
पाने की।
और वह
जो जलाशय है, इन वचनों
में केवल उसकी
छाया है। वह
जो तृप्ति का
स्रोत है, इन
वचनों में
केवल उसकी ओर
इशारा है। अगर
कोई वचनों से
ही तृप्त होना
चाहे, तो
कभी तृप्त न
हो सकेगा।
चलना पड़ेगा उस
ओर, जिस ओर
ये वचन इशारा
करते हैं, इंगित
करते हैं।
जहां ये ले
जाना चाहते
हैं, वहां
कोई पहुंचे तो
तृप्ति होगी।
लेकिन
ये वचन भी
बहुत
प्रीतिकर हैं, अमृतमयी
हैं। और कोई इनको
सुनने के लिए
भी रुका रह
सकता है। तब
तृप्ति तो कभी
न होगी, बल्कि
ये वचन भी एक
नशे का काम कर
सकते हैं।
बुद्ध
के पास आनंद
चालीस वर्षों
तक था। चालीस
वर्ष लंबा समय
है। और बुद्ध
के निकटतम
शिष्यों में
से था। और इन
चालीस वर्षों
में बुद्ध ने
जो भी बोला, एक शब्द
भी बोला, तो
आनंद ने वे
सारे शब्द
सुने थे, पर
उसकी भी
तृप्ति नहीं
होती। और जब
बुद्ध की
मृत्यु करीब
आई, तो
आनंद छाती
पीटकर रोने
लगा। और बुद्ध
ने कहा कि
रोने का क्या
प्रयोजन है? जो मैंने
कहा है, अगर
तू उसे समझ
गया, तो
मृत्यु होती
ही नहीं है।
जो मैंने कहा
है, अगर
तूने उसे पाया,
तो रोने का
कोई भी कारण
नहीं है, ये
आंसू बंद कर।
लेकिन
आनंद को बुद्ध
की बातें
सुनाई भी नहीं
पड़ी। वह गहन
दुख में है।
वह छाती पीटकर
रो रहा है। और
वह कह रहा है
कि आपकी
मृत्यु करीब
आती, तो
मेरे तो प्राण
टूटते हैं।
आपके अमृतमय
वचन फिर कब
सुनने को मिलेंगे?
अब कब, कितने
जन्मों के बाद
आप जैसे
व्यक्ति का
दर्शन होगा? अब कब और
कहां? कितनी
यात्रा के बाद
आपकी शीतल
छाया में बैठने
को मिलेगा? मेरी तो अभी
तृप्ति नहीं
हुई है, और
आप जाने और
विदा लेने को
तैयार हो गए
हैं!
तो
बुद्ध ने आनंद
को कहा है कि
तेरी तृप्ति, चालीस
वर्ष से
निरंतर तू
मुझे सुनता है,
अगर तू
चालीस जन्मों
तक भी सुनता
रहे, तो भी
नहीं होगी।
क्योंकि
तृप्ति तो
होगी चलने से,
यात्रा
करने से, पहुंचने
से। मैं मंजिल
की बात कर रहा हूं, वह बात
प्रीतिकर
लगती है।
भविष्य दिखाई
पड़ता है उसमें।
स्वयं की
संभावनाएं
कभी वास्तविक
हो सकती हैं, इसकी
अनुभूति होती
है, प्रतीति
होती है, आभास
मिलता है।
लेकिन वह आभास
तृप्ति नहीं
दे सकता।
हम
कितनी ही जल
की चर्चा
सुनें, और चाहे वह
चर्चा कृष्ण
या बुद्ध ही
क्यों न करते
हों, तो भी
प्यास नहीं
मिट सकती है।
बल्कि जल की
चर्चा से
प्यास और बढ़
जाएगी; और
सोई होगी, तो
जग जाएगी, और
छिपी होगी, तो प्रकट हो
जाएगी। और जल
की चर्चा और
उसकी महिमा, हमारे
प्राणों को एक
अभीप्सा दे
देगी, आग
जलने लगेगी
भीतर।
तो एक
तो ऊपरी अर्थ
है। जैसा
आमतौर से कोई
गीता को पड़ेगा, तो वही
दिखाई पड़ेगा।
वह अर्थ है कि
वचन इतने मधुर
हैं कि सुनकर
तृप्ति नहीं
होती, अर्जुन
और भी सुनना
चाहता है।
लेकिन कितना
ही सुनता रहे,
यह तृप्ति
कभी होगी नहीं।
और एक
मजे की बात है।
जिन वचनों को
सुनने से कभी
तृप्ति नहीं
होती, उसका
अर्थ ही यह
हुआ कि वे वचन
किसी ऐसी जगह
की तरफ इशारा
कर रहे हैं, जहां पहुंचकर
ही तृप्ति हो
सकती है। और
जिन वचनों को
सुनकर तृप्ति
हो जाती है, उन वचनों से
ऊब और बोर्डम
पैदा हो जाएगी।
जिन वचनों को
सुनकर तृप्ति
हो जाती है, उनसे ऊब
पैदा हो जाएगी।
यह
बहुत मजे की
बात है कि इस
पृथ्वी पर सभी
तरह के वचन
सुनकर ऊब पैदा
होने लगेगी, सिर्फ उन
वचनों को
छोड्कर, जिन्हें
सुनने से ही
कुछ भी नहीं
मिलता है, सिर्फ
प्यास ही
मिलती है।
शायद
धर्मशास्त्र
की परिभाषा
मेरी दृष्टि में
यही है।
धर्मशास्त्र
मैं उस
शास्त्र को
कहता हूं जिसे
पढ़कर, जिसे
समझकर, तृप्ति
न मिले, और
अतृप्ति बढ़
जाए। जिस
शास्त्र को
पढ़कर तृप्ति
मिले, वह
साहित्य होगा,
धर्मशास्त्र
नहीं। जिस
शास्त्र को
पढ़कर सुख मिले,
वह साहित्य
की बड़ी कृति
होगी, कलाकृति
होगी, लेकिन
धर्मशास्त्र
नहीं।
धर्मशास्त्र
तो प्यास देगा,
जलन देगा, आग देगा, सारे
प्राण जलने
लगेंगे। और
अतृप्त हो
जाएंगे आप।
आमतौर
से हम सुनते हैं
कि धार्मिक
आदमी बड़े
संतुष्ट होते
हैं। वह बात
अधूरी है और
एक अर्थ में
झूठी है। वे
हमें संतुष्ट
दिखाई पड़ते
हैं उन चीजों
के संबंध में, जिन
चीजों के
संबंध में हम
असंतुष्ट हैं।
और हमें उनका
असंतोष दिखाई
नहीं पड़ता, क्योंकि वे
उन चीजों के
संबंध में
असंतुष्ट हैं,
जिनकी
हमारे मन में
कोई वासना
नहीं है।
लेकिन
धार्मिक आदमी
महा असंतुष्ट
होता है।
परमात्मा को
पाने को, मुक्ति
पाने को, सत्य
पाने को, उसके
प्राण एक लपट
बन जाते हैं
असंतोष के।
हां, धन पाने
में उसका
असंतोष नहीं
होता। यश पाने
में उसका
असंतोष नहीं
होता। उसके पास
जो भी है, वह
संतुष्ट
मालूम पड़ता है।
लेकिन इसका
कारण बहुत
गहरा है। इसका
कारण यह है कि
उसका सारा
असंतोष
परमात्मा पर
लग जाता है।
इन छोटी—मोटी
चीजों पर
असंतोष देने
को उसके पास
बचता नहीं।
लेकिन हमें वह
संतुष्ट
मालूम पड़ता है।
क्योंकि जिन
चीजों से हम
परेशान हैं, अगर हमारा
एक पैसा खो
जाए, तो हम
असंतुष्ट
होते हैं; उसका
सब भी खो जाए, तो भी
असंतुष्ट
नहीं मालूम
पड़ता। तो हम
कहते हैं, कितना
संतोषी आदमी
है! लेकिन
हमें उसके
भीतर की आग का
कोई भी पता
नहीं है। यह
संतोष उस
भीतरी असंतोष
का ही परिणाम
है।
यहां
एक फर्क खयाल
में ले लेना
चाहिए।
कुछ
लोग अपने को
समझा—बुझा कर
संतुष्ट रहते
हैं। उनका संतोष
बिलकुल ही
मिथ्या होता
है। जब तक
आपके जीवन में
एक परम असंतोष
न जगे, तब
तक आपका बाहरी
संतोष झूठा
होगा। जब तक
आपकी सारी
असंतोष की
शक्ति
परमात्मा की
तरफ न लग जाए, तब तक संसार
के प्रति आपकी
संतोष की
बातें सिर्फ
धोखा होंगी।
आदमी अपने को
समझा—बुझा कर
संतुष्ट हो
सकता है।
भयभीत आदमी
डरता भी है।
चिंतित आदमी
परेशान भी
होता है।
तनावग्रस्त
आदमी पीड़ा भी
अनुभव करता है।
इन सारी
पीड़ाओं, चिंताओं
और भय के कारण
कोई व्यक्ति
अपने को समझा—बुझा
कर संतुष्ट भी
हो सकता है।
लेकिन वह
संतोष झूठा है।
वास्तविक
संतोष का जन्म
होता है भीतर
के एक गहरे
असंतोष से। एक
नये आयाम में, एक न्यू
डाइमेन्शन
में जब आपकी
सारी असंतोष की
आग दौड़ने लगती
है, तब आप
बाहर के प्रति
बिलकुल
संतुष्ट हो
जाते हैं।
इसलिए नहीं कि
आपने संतोष
धारण कर लिया,
बल्कि
इसलिए कि बाहर
की चीजें
असंगत और
व्यर्थ हो गई
हैं। उनका कोई
भी मूल्य नहीं
रहा है। वे
निर्मूल्य हो
गई हैं। उनसे
अब कोई बेचैनी
नहीं होती।
इतनी बड़ी
बेचैनी पैदा
हो गई है कि
छोटी बेचैनिया
व्यर्थ हो गई
हैं।
लेकिन
धर्मशास्त्र
को पढ़ने से
आपको कोई तृप्ति
नहीं मिल सकती।
आपको अतृप्ति
मिलेगी। नई
अतृप्ति
मिलेगी। एक नई
खोज की
आकांक्षा
जगेगी।
तो
धर्मशास्त्र
मैं कहता हूं
उस शास्त्र को, जो आपके
सारे असंतोष
को इकट्ठा
करके परमात्मा
की ओर लगा दे।
जो आपकी सारी
वासनाओं को
खींच ले और एक
ही वासना में
निमज्जित कर
दे। जो आपकी
सारी इच्छाओं
को इकट्ठा कर
ले, एकाग्र
कर ले और एक ही
आयाम में
प्रवाहित कर दे।
जो आपके
प्राणों की
सारी बिखरी
हुई किरणों को
इकट्ठा कर ले
और एक लपट बन
जाए और वह लपट
प्रभु की
यात्रा पर, परम सत्य की
यात्रा पर
निकल जाए।
यह जो
असंतोष है, वही
अर्जुन को भी
अनुभव हो रहा
है। लेकिन
शायद उसे साफ
नहीं है। शायद
उसने जब यह
वचन कहा है, तो उसका भी
प्रयोजन यही
है कि आपके
वचन बहुत मधुर
हैं, बहुत
प्रीतिकर हैं,
सुन—सुनकर
भी मन भरता
नहीं, आप
इन्हें और कहे
जाएं।
लेकिन
अर्जुन को पता
हो या न पता हो, ये कृष्ण
के वचन जन्मों—
जन्मों तक भी
वह सुनता रहे,
तो भी इनको
सुनकर ही
संतोष नहीं
मिलेगा। इनके
अनुकूल
रूपांतरित
होना पड़ेगा, इनके अनुकूल
अर्जुन को
बदलना पड़ेगा।
और अगर इनके
अनुकूल
अर्जुन बदल जाए,
तो अर्जुन
स्वयं कृष्ण
हो जाएगा।
कृष्ण हो जाए,
तो ही
संतुष्ट हो
सकेगा। उसके
पहले कोई
संतोष नहीं है।
उसके पहले
अतृप्ति बढ़ती
चली जाएगी।
इसलिए
वह कहता है कि
हे जनार्दन, अपनी
योगशक्ति को,
अपने
ऐश्वर्य को, अपनी
विभूतियों को
फिर से
विस्तारपूर्वक
कहिए।
अभी—अभी
कृष्ण ने
बातें कही हैं, अभी—अभी—ऐश्वर्य
की, योग की,
विभूति की,
परमात्मा
की परम शक्ति
की, उसके
परम विस्तार
की। लेकिन
अर्जुन कहता
है, और
विस्तार से
कहिए। आपके
अमृतमय वचनों
को सुनते हुए
मेरी तृप्ति नहीं
होती। और एक
बात ध्यान
देने की है कि
अर्जुन कहता
है, विस्तारपूर्वक
कहिए।
हम
सबको यह खयाल
होता है कि
अगर कोई बात
हमारी समझ में
न आती हो, तो
विस्तारपूर्वक
समझाने से
शायद समझ में
आ जाए। यह
भ्रांति है।
दो तरह की
बातें हैं इस
जगत में। कुछ
बातें हैं, जो आपको
विस्तारपूर्वक
कही जाएं तो
आपकी समझ में
आ जाएंगी। और
कुछ बातें हैं,
जो
विस्तारपूर्वक
कही जाएं तो
आपको पहले जितनी
समझ में आती
थीं, उतनी
समझ भी खो
जाएगी!
जैसा
मैंने कल आपको
कहा कि दो
प्रकार के
ज्ञान हैं, परिचय और
जान। जो बातें
परिचय की हैं,
उनको
विस्तार से
कहने पर वे
समझ में आ
जाएंगी।
क्योंकि
परिचय का ही
सवाल है, थोड़ा
और विस्तार से
बताएंगे, तो
खयाल में आ
जाएगा। लेकिन
जिसे मैंने
ज्ञान कहा, जानना कहा, वह जानना
आपको विस्तार
से कितना ही
कहा जाए, समझ
में नहीं आएगा।
बल्कि जितना
विस्तार से आप
सुनेंगे, उतना
ही पता चलेगा,
कम समझ में
आ रहा है।
मौलुंकपुत्त, एक बहुत
बुद्धिमान और
पंडित आदमी, बुद्ध के
पास गया।
ज्ञानी था और
ज्ञान के दंभ
से भी भरा था।
जानता था
शास्त्रों को
और यह भी
जानता था कि
मैं जानकार
हूं। बुद्ध के
पास वह आया और
उसने बुद्ध से
कहा कि मुझे
कुछ ज्ञान की
बातें दें।
मैं भिक्षा का
पात्र लेकर
आया हूं; मुझे
कुछ ज्ञान दें।
बुद्ध
ने कहा, तेरा भिक्षा
का पात्र पहले
से ही बहुत
भरा हुआ है और
ज्ञान तेरे
पास जरूरत से
ज्यादा है। सच
तो यह है कि
ज्ञान के कारण
तुझे अपच हो
गया है। अगर
मैं तेरा
कल्याण करना
चाहता हूं तो
पहले तो मुझे
तेरा ज्ञान
तुझसे छीनना
पड़ेगा। और अगर
मैं तुझे पुन:
अज्ञानी
बनाने में
समर्थ हो जाऊं,
तो शायद
तेरे जीवन में
कोई घटना घट
सके, जहां
ज्ञान का दीया
जले।
मौलुंकपुत्त
को बहुत अजीब
मालूम पड़ा। वह
गुरुओं के पास
जाता था इसलिए
कि और विस्तार
से जान ले, और जो कमी
रह गई हो
डिटेल्स में,
वह उसको भी
पता कर ले।
कुछ बातें चूक
गई हों, उनसे
भी परिचित हो
जाए। किन्हीं सिद्धांतों
में कुछ बातें
बेबूझ रह गई
हों, धुंधली
हों, उन्हें
भी साफ कर ले।
बुद्ध
ने उससे कहा
कि मैं तुझे
कुछ और
विस्तार से
नहीं कहूंगा।
तू जितना
विस्तार
जानता है, उसे भी
छीन लेना
चाहता हूं। तू
खाली हो जाए, तो शायद कभी
तेरे जीवन में
ज्ञान की घटना
घट सके।
विस्तार का
मतलब ही होता
है तथ्यात्मक।
एक चीज के
संबंध में हम और
जान लें।
चारों तरफ
घूमकर और पता
लगा लें।
विस्तार का
मूल्य नहीं है;
विस्तार से
परिचय होता है,
एक्सटेंशन,
फैलाव।
ज्ञान
विस्तार से
नहीं होता, गहराई से
होता है।
ज्ञान
होता है
इनटेंसिव, एक्सटेंसिव
नहीं। ज्ञान
में किसी एक
ही बिंदु में
गहरा उतरना पड़ता
है, और विस्तार
में एक बिंदु
के आस— पास
अनेक बिंदुओं
पर यात्रा
करनी पड़ती है।
अगर मुझे एक
फूल के संबंध
में ज्यादा
जानना है, तो
फूल के संबंध
में जितनी
किताबें लिखी
गई हों, उनको
जानूं। और अगर
मुझे फूल को
जानना है, तो
फूल में ही
डूब जाऊं, उतर
जाऊं, लीन
हो जाऊं, विस्तार
को छोड़ दूं।
परिचय
विस्तार लेता
है, ज्ञान
गहराई लेता है।
परिचय ऐसा है,
जैसे कोई
आदमी नदी के
ऊपर तैरता हो,
दूर तक
तैरता हो। और
ज्ञान ऐसा है,
जैसे कोई
आदमी नदी में
डुबकी लगाता
हो। तो डुबकी
लगाने वाले को
एक ही जगह डूब
जाना पड़ता है।
और लंबा फैलाव
करने वाले को पानी
की सतह पर दूर—दूर
तक हाथ मारने
पड़ते हैं।
जो लोग
ज्ञान को
विस्तार
समझते हैं, वे ज्ञान
से चूक जाएंगे।
जो लोग ज्ञान
को गहराई
समझते हैं, इनटेंसिटी
समझते हैं, वे लोग
ज्ञान को
उपलब्ध हो
पाते हैं। एक
छोटे—से बिंदु
में पूरी तरह
डूब जाने से
ज्ञान उपलब्ध
होता है। और
बड़ी दूर तक
भटकने से
विस्तार
उपलब्ध होता है।
आप बहुत—सी
बातें जान
सकते हैं और
फिर भी जानने
से वंचित रह
जाएं।
सुकरात
ने मरने के
पहले कहा है
कि जब मैं
बच्चा था, तो मैं
समझता था कि
मैं सब कुछ
जानता हूं। जब
मैं जवान हुआ,
तो मैंने
समझा कि बहुत
कुछ है, जो
मैं नहीं
जानता हूं। और
अब जब मैं का
हो गया हूं तो
मैं कह सकता
हूं स्पष्ट
घोषणा के साथ
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता हूं।
बच्चा था, तब
सोचता था, सब
जानता हूं।
सभी बच्चे ऐसा
सोचते हैं।
सभी बच्चे ऐसा
सोचते हैं कि
सब जानते हैं।
और जो बूढ़े भी
ऐसा सोचते हैं
कि सब जानते
हैं, समझना
कि उनकी
बौद्धिक उम्र
ज्यादा नहीं
है, बच्चों
के बराबर है।
जवान को शक
होने लगता है।
बच्चा बिलकुल
दृढ़ होता है, वह जो भी
जानता है, पक्का
जानता है। उसे
शक ही नहीं
होता अपने पर।
उसे अपने अज्ञान
का पता ही
नहीं होता।
बच्चे
अज्ञानी होते
हैं, लेकिन
अज्ञान का
उन्हें पता
नहीं होता।
उनका अज्ञान
ही उनके लिए
ज्ञान होता है।
इसलिए बच्चे
इतने कम तनाव
से भरे हुए
मालूम पड़ते
हैं। कोई
बेचैनी नहीं
मालूम पड़ती।
वे अपने अज्ञान
में थिर हैं।
अपने अज्ञान
में बड़ी मौज
में हैं। कोई
उन्हें
परेशानी नहीं
है कुछ जानने
की, वे सभी
कुछ जानते हैं।
जवान
होते—होते
आदमी को दिखाई
पड़ना शुरू
होता है कि
मेरे जानने की
सीमाएं हैं।
और उसे यह भी
दिखाई पड़ना
शुरू होता है
कि बचपन की जो
धारणाएं थीं, उनके
नीचे की जमीन
हट गई। उसे यह
भी पता चलना
शुरू होता है
कि जो निश्चित
था, वह
अनिश्चित हो
गया। जिसे
मैंने पक्का
समझा था, वह
भी पक्का नहीं
है। जवान
बेचैन होने
लगता है। उसे
कुछ बातें पता
चलती हैं कि
मैं जानता हूं
और बहुत बातें
पता चलती हैं
कि मैं नहीं
जानता हूं।
का
आदमी अगर ठीक
से विकसित हो, तो उसे
पता चलता है
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं।
सुकरात
के संबंध में
यूनान की एक
देवी ने घोषणा
कर दी थी कि
सुकरात परम
ज्ञानी है, उससे बड़ा
ज्ञानी
पृथ्वी पर
दूसरा नहीं है।
सुकरात के
गांव के लोगों
ने यह खबर
सुनी, वे
सुकरात के पास
गए और
उन्होंने कहा
कि धन्य हैं
भाग्य हमारे
कि हमारे गांव
में तुम्हारा
जन्म हुआ, क्योंकि
देवी ने घोषणा
की है कि तुम
पृथ्वी पर इस
समय परम
ज्ञानी हो।
सुकरात
ने कहा कि
देवी को जाकर
कहना कि उसने
थोड़ी देर कर
दी। जब मैं
मूढ़ था और
नासमझ था, तो मैं भी
ऐसा ही सोचता
था। अगर उसने
तब घोषणा की
होती, तो
मुझे बड़ा आनंद
आता। लेकिन अब
तो मैं जानता
हूं कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं। अब
एक ही ज्ञान
मेरे पास बचा
है कि मैं
बिलकुल अज्ञानी
हूं। मेरे पास
कुछ भी नहीं
है। तो जाकर
देवी से कहना
कि थोड़ी देर
कर दी। यह
सुनकर मुझे
कुछ आनंद नहीं
आता।
गांव
के लोग परेशान
हुए। एक तरफ
तो उन्हें
खुशी भी हुई
थी कि एथेंस
का नागरिक, उनके
गांव का
सुकरात, परम
ज्ञानी घोषित
हुआ। लेकिन
भीतर पीड़ा भी
हुई थी कि हम अज्ञानी
ही रह गए और
हमारे ही गांव
का यह सुकरात,
यह परम
ज्ञानी हो
गया! एक तरफ
ऊपर से खुशी
भी हुई थी, भीतर
दर्द भी हुआ
था।
सुकरात
से जब यह बात
सुनी, तो
खुशी तो एक
तरफ समाप्त हो
गई, दर्द
ऊपर आ गया; और
वे बड़े खुश
हुए। बड़े खुश
हुए कि हम खुद
ही जानते थे
पहले से ही कि
देवी से कुछ
भूल हो गई है।
सुकरात और परम
ज्ञानी! जरूर
कोई गलती हो
गई है। अपने
ही गांव का
आदमी, भलीभांति
हम जानते हैं,
यह क्या
जानता है!
वापस देवी के
पास वे गए और
उन्होंने कहा
कि क्षमा करें,
आपसे कुछ
भूल हो गई।
क्योंकि हम
सुकरात से ही
स्वयं पूछकर आ
रहे हैं। और
सुकरात ने खुद
ही कहा है कि
मुझसे बड़ा
अज्ञानी इस
जमीन पर कोई
भी नहीं है।
इसलिए आप अपने
वक्तव्य को
बदल लें!
देवी
ने कहा कि
इसीलिए तो
सुकरात को
मैंने तानी
कहा है, क्योंकि
जिसको अपने
परम अज्ञानी
होने का ज्ञान
हो जाता है, उससे बड़ा
ज्ञानी जगत
में कोई भी
नहीं होता है।
यही है कारण
सुकरात को
महाज्ञानी
कहने का।
बच्चे
अज्ञानी होते
हैं; उन्हें
पता नहीं है।
परम जानी भी
बच्चों जैसा
अज्ञानी हो
जाता है, लेकिन
उसे पता होता
है। वही
निर्दोषता
फिर उसके जीवन
में आ जाती है,
जैसे उसे
कुछ पता नहीं,
वही
इनोसेंस।
लेकिन हम सबकी
भूल यही है
खयाल में कि
थोड़ा और ज्यादा
जान लेंगे, तो शायद
ज्ञान हो जाए।
जिंदगीभर हम
इसी तरह
संग्रह करते
हैं। ज्ञान को
हम संग्रह
समझते हैं।
इसलिए बूढ़ा
आदमी सोचता है
कि मैं ज्यादा
जानता हूं
क्योंकि उसके
पास निश्चित
ही ज्यादा
संग्रह होता
है।
पिछले
महायुद्ध में
अमेरिका में
लोगों को मिलिटरी
में भर्ती
करते वक्त
लाखों लोगों
की मानसिक
उम्र जांची गई, तो
अमेरिका के
मनोवैज्ञानिक
चकित रह गए।
शक तो बहुत
बार होता है
कि लोगों की
मानसिक उम्र
कम होनी चाहिए,
लेकिन इतनी
कम होगी, यह
कभी नहीं सोचा
था। लाखों
लोगों की
मानसिक उम्र
जांचने से पता
चला कि आमतौर
से आदमी की
औसत मानसिक
उम्र, मेंटल
एज तेरह साल
से ज्यादा
नहीं होती।
शरीर
की उम्र तो
बढ़ती चली जाती
है। सत्तर साल
का आदमी हो
जाता है, लेकिन
मानसिक उम्र
तेरह साल पर
औसत रूप से
रुक जाती है।
जितनी तेरह
साल के बच्चे
के पास
बुद्धिमत्ता होती
है, उतनी
ही सत्तर साल
के आदमी के
पास होती है।
संग्रह अलग
होता है, लेकिन
बुद्धि
ज्यादा नहीं
होती। संग्रह
ज्यादा होता
है, क्योंकि
सत्तर साल का
अनुभव है। लेकिन
जो बुद्धि
संग्रह करती
है, वह
उतनी ही होती
है, जितनी
तेरह साल की।
जिस बुद्धि
में यह संग्रह
बढ़ता चला जाता
है, उस
बुद्धि की
क्षमता तेरह
साल की ही
होती है।
बड़ी
दुखद बात है।
लेकिन सत्तर
साल का आदमी
यह मानने को
राजी नहीं
होगा। वह
कहेगा कि मैं
जानता हूं।
क्योंकि उसके
पास विस्तार
ज्यादा है। वह
ज्यादा तथ्य
गिना सकता है, ज्यादा
अनुभव गिना
सकता है। उसके
पास स्मृति
बड़ी है; सत्तर
साल उसकी
स्मृति में
टंक गए।
लेकिन
विस्तार से
कोई ज्ञान को
उपलब्ध नहीं होता।
वरन विस्तार
से यह भी हो
सकता है कि ज्ञान
की संभावना
क्षीण हो जाए।
इसलिए यह
जानकर आप
हैरान होंगे
कि इस जगत में आज
तक जितनी भी
महाज्ञान की
घटनाएं घटी
हैं, उनमें
किसी के को
घटी हो, इसकी
अब तक इतिहास
में कोई खबर
नहीं है।
यह
बहुत हैरानी
की बात है।
बुद्ध हों, कि
महावीर हों, कि जीसस हों,
कि शंकराचार्य
हों, कि
नागार्जुन, कि वसुबंधु,
कि लाओत्से,
कोई भी गहरे
बुढ़ापे में
परमज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हुआ है। ये
सारी घटनाएं
पैंतीस साल के
करीब घटती हैं,
पैंतीस साल
के पहले आमतौर
से या पैंतीस
साल के करीब।
पैंतीस साल के
बाद आदमी बूढ़ा
होना शुरू हो
जाता है। पीक,
पैंतीस साल
है। अगर सत्तर
साल उम्र है, तो पैंतीस
साल पर आदमी
शिखर पर होता
है, फिर
उतार शुरू हो
जाता है।
अब तक, उतरती
जिंदगी में
बहुत कम लोग
ज्ञान को
उपलब्ध हुए
हैं। यह
हैरानी की बात
है। होना उलटा
चाहिए। अगर
विस्तार से
ज्ञान बढ़ता हो,
तो बुद्ध को,
महावीर को,
शंकर को, विवेकानंद
को, इन
सबको ज्ञान
होना चाहिए
कोई पचास—साठ
साल के बाद।
लेकिन अब तक
ऐसा हुआ नहीं।
अब तक जो भी
महाज्ञान की
घटनाएं घटी
हैं, वे
मध्य या मध्य
के पहले घटी
हैं।
इसका
अर्थ है। कभी—कभी
विस्तार बहुत
बढ़ जाए, तो इतना छा
जाता है धुएं
की तरह मन पर
कि फिर गहराई
में उतरना
मुश्किल हो
जाता है। आदमी
इतना जान लेता
है कि जानने
में कहीं भी एक
तरफ एकाग्र
होने की उसे
सुविधा नहीं
रह जाती। उसका
मन इतने—इतने,
इतने—इतने
तथ्यों में
बंट जाता है
और इतनी—इतनी
जगह भटकने
लगता है कि
उसे एक जगह
रुककर प्रवेश
करना मुश्किल
हो जाता है।
विस्तार बाधा
भी बन सकता है।
दो
बातें, विस्तार ज्ञान
नहीं है, परिचय
है, और
परिचय ऊपरी
बात है। और
दूसरी बात, बहुत
विस्तार हो, तो बाधा भी
बन सकती है।
तैरने में कोई
आदमी बहुत
कुशल हो जाए, तो पैसिफिक
महासागर
के ऊपर भी तैर
सकता है, जहां पांच
मील गहराई है
नीचे। लेकिन
तैरने में
बहुत कुशल हो
जाए, तो
शायद डुबकी
लगाने का उसे
खयाल ही न आए।
कभी—कभी
ऐसा भी हो
जाता है कि जो
तैरना नहीं
जानता, उसकी मजबूरी
में भी डुबकी
लग जाती है।
लेकिन तैरने
वाले की डुबकी
तो लगना
मुश्किल है, जब तक कि वह
स्वयं न लगाए।
कभी—कभी भूल
से भी न तैरने
वाले की डुबकी
लग जाती है।
इसलिए
एक और दूसरी
मजे की घटना
आपसे कहता हूं
कि इतिहास में
पंडितों को
परमज्ञान हुआ
हो, इसके
उल्लेख न के
बराबर हैं।
कभी—कभी
अज्ञानी भी
परमज्ञान को
उपलब्ध हो
जाते हैं, लेकिन
पंडित नहीं हो
पाते! कबीर
हैं, बेपढ़े—लिखे
हैं। मोहम्मद
हैं, बेपढ़े—
लिखे हैं।
जीसस हैं, बेपढ़े—लिखे
हैं। नानक हैं,
बेपढ़े—लिखे
हैं। ये बेपढ़े—लिखे
लोग भी कभी
डुबकी लगा
जाते हैं।
कबीर
ने डुबकी लगा
ली और काशी के
पंडित, जो बहुत
जानते थे, और
वहीं कबीर के
आस—पास थे, और
कबीर को एक
गंवार जुलाहा
समझते थे, वे
डुबकी नहीं
लगा पाए। वे
डुबकी नहीं
लगा पाए। वे
इतना जानते थे
कि शायद यह
भूल ही गए कि
अभी असली
गहराई तो जानी
ही नहीं है, यह सब
विस्तार है—शब्दों
का, शास्त्रों
का, सिद्धांतों
का। अर्जुन के
मन में भी वही
खयाल है कि
शायद तृप्ति
मिल जाए, अगर
और थोड़ा
ज्यादा जान
लूं।
ध्यान
रहे, जब
आप कोई चीज
ज्यादा जानते
हैं, तो आप
तो वही रहते
हैं, आपका
संग्रह भर बढ़
जाता है। और
जब कोई चीज आप
गहरी जानते
हैं, तो
संग्रह नहीं
बढ़ता, आप
बदल जाते हैं।
गहरा जानने के
लिए स्वयं
गहरा होना
पड़ता है।
ज्यादा जानने
के लिए किसी
को गहरा होने
की जरूरत नहीं।
जैसे
धन तिजोड़ी में
बढ़ता चला जाता
है, एक
के दस हजार
रुपए हो जातें
हैं, दस
हजार के दस
लाख हो जाते
हैं। लेकिन
इससे आप यह मत
समझना कि
जिसकी तिजोड़ी
में धन बढ़ रहा
है, वह
आदमी धनी हो
रहा है। अक्सर
तो ऐसा होता
है कि जितना
ज्यादा धन, उतना गरीब
आदमी वहां
मिलेगा।
जितना ज्यादा
धन हो जाता है,
उतना भीतर
आदमी गरीब हो
जाता है। और
अक्सर धनी
आदमी एक ही
काम करते हैं,
अपने धन पर
पहरा देने का।
काम करते—करते
समाप्त हो
जाते हैं।
उनकी जिंदगी
एक पहरेदार से
ज्यादा नहीं
रह जाती।
धनी
आदमी कंजूस हो
जाता है, क्योंकि
गरीब हो जाता
है। और कभी—कभी
गरीब भी इतना
कंजूस नहीं
होता। और जो
कंजूस नहीं है,
वह अमीर है।
और जो कंजूस
है, वह
गरीब है।
ज्ञान
के संबंध में
भी यही घटना
घटती है। कुछ
लोग ज्ञान की
तिजोडी भरते
चले जाते हैं
और भीतर
अज्ञानी रह
जाते हैं।
कितना आप
जानते हैं, इससे
आपके ज्ञान का
कोई भी संबंध
नहीं है।
कितने आप बदले
हैं, कितने
आप रूपांतरित
हुए हैं, कितने
आप डूबे हैं, कितने आप
गहरे गए हैं, इससे आपके
ज्ञान का
संबंध है।
और ऐसा
भी हो सकता है
कि आप कहें कि
मैं कुछ भी नहीं
जानता हूं और
तो भी आप
परमज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएं।
क्योंकि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं ऐसा
जिसको खयाल
में आ जाए, उसका
अहंकार तत्क्षण
बिखर जाता है।
मैं जानता हूं
यह भी अहंकार
के लिए इटइं
बन जाती हैं।
मेरे पास धन
है, तो भी
अहंकार मजबूत
होता है। मेरे
पास ज्ञान है,
तो भी
अहंकार मजबूत
होता है। मेरे
पास कुछ भी
नहीं है, ज्ञान
भी नहीं है, अहंकार
विलीन हो जाता
है। और जहां
होता है
अहंकार विलीन,
वहीं डुबकी
लग जाती है।
अहंकार
हमारा तैरना
है। और जब
अहंकार छूट
जाता है, हाथ— पैर बंद
हो जाते हैं, हम डुबकी
लगा लेते हैं।
अर्जुन
पूछता है, मुझे
विस्तार से कहिए।
सोचता है, शायद
अभी मेरी समझ
में नहीं आया।
कृष्ण और
विस्तार से
कहें, तो
मेरी समझ में
आ जाए। और
कृष्ण
विस्तार से
कहेंगे।
इसलिए नहीं कि
वे सोचते हैं
कि अर्जुन की
समझ में आ
जाएगा। बल्कि
इसलिए कि
अर्जुन देख ले
कि विस्तार से
कहने पर भी
समझ में नहीं
आता है। समझ
कोई बात ही और
है।
समझ के
लिए, दूसरे
ने कितना
बताया, यह
मूल्यवान
नहीं। समझ के
लिए, मैं
कितना स्वयं
को बदला, नया
बना, यह
महत्वपूर्ण
है।
उसने
भी शायद यही
सोचकर कहा है
कि अगर और कृष्ण
बहुत—से वचन
कहें, तो
मेरी तृप्ति
हो जाए। लेकिन
कृष्ण कितना
ही कहें, तृप्ति
नहीं होगी।
क्योंकि कृष्ण
जो वचन बोल
रहे हैं, वे
धर्म के परम
वचन हैं।
अगर एक
कविता को आप
रोज—रोज पढ़ें, तो आप
जल्दी ही ऊब
जाएंगे। फिर
कभी उस कविता
में आपको
स्वाद न आएगा।
और यही रोज
विद्यालयों
में, विश्वविद्यालयों
में होता है।
दुनिया की
श्रेष्ठतम
कविताएं
चूंकि कोर्स
में रख दी
जाती हैं, इसलिए
रसहीन हो जाती
हैं।
शेक्सपीयर और
कालिदास भी
दुश्मन मालूम
पड़ने लगते हैं।
और एक दफा जो
युनिवर्सिटी
से शेक्सपीयर
या कालिदास को
या भवभूति को
पढ़कर लौटा है,
फिर दुबारा
कभी उनको नहीं
पड़ेगा। भारी
नुकसान हो गया।
बड़े सौंदर्य
की यात्रा पर ले
जा सकते थे वे,
लेकिन
पुनरुक्ति, बार—बार
पढ़ने से ऊब
पैदा हो गई।
श्रेष्ठतम
कविता भी
पुनरुक्त
करने से ऊब
पैदा कर देगी।
लेकिन
धर्म—ग्रंथ का
हम पाठ करते
हैं। पाठ का
मतलब है, रोज हम
पुनरुक्त
करते हैं। अगर
आप थोड़े भी
होशपूर्वक यह
पाठ कर रहे
हों, तो
धर्म—ग्रंथ
रोज—रोज आपकी
प्यास को
जगाएगा। इसको
मैं कसौटी
कहता हूं।
अगर आप
रोज गीता पढ़ते
हैं, और
गीता पढू—पढू
कर आपको ऊब
आने लगती है, जम्हाई आती
है और आंख
झपने लगती हैं,
तो आप समझना
कि गीता आपके
लिए
धर्मशास्त्र
नहीं है। अगर
गीता को रोज—रोज
पढ़कर भी आपको नई
प्रेरणा
मिलती है, और
नई प्यास जगती
है, और नई
खोज शुरू होती
है, और ऐसा
लगता है कि
तृप्ति। नहीं
हुई, तो ही
आप समझना कि
गीता आपके लिए
धर्म—ग्रंथ है।
गीता
को सिर लगाने
से पता नहीं
चलता कि वह
धर्म—ग्रंथ है।
गीता को
नमस्कार करने
से भी पता
नहीं चलता कि धर्म—ग्रंथ
है। गीता आपको
उबाए न, ऊब पैदा न
करे, और
गीता में आपका
रस, जितना
आप गीता को
पढ़ें, उतना
बढ़ता चला जाए,
और उतनी ही
अतृप्ति
मालूम पड़े, तो ही आप
समझना कि गीता
आपके लिए धर्म—ग्रंथ
हुआ। इसलिए
नियम था कि
धर्म—ग्रंथ को
पढ़ा न जाए, पाठ
किया जाए।
पढ़ने
और पाठ करने में
फर्क है। पढ़ने
का मतलब, एक दफा पढ़
लिया, बात
समाप्त हो गई।
पाठ का मतलब
है, रोज—रोज
किया जाए। और
अगर आप वर्षों
तक भी गीता का
पाठ करके यह
कह सकें, अनुभव
कर सकें कि
मुझे ऊब नहीं
आती, मेरा
स्वाद और बढ़ता
ही चला जाता
है, गीता
मुझे रोज ही
नई मालूम पड़ती
है, तो ही
आप समझना कि
गीता और आपके
बीच जो संबंध
है, वह
धर्म— ग्रंथ
और आपके बीच
संबंध है। और
अगर आपको भी
ऊब आने लगती
हो, और
गीता कंठस्थ
हो जाती हो, और
मेकेनिकली
रोज आप
यंत्रवत उसे
दोहरा देते हों...।
मैं
देखता हूं
गीता के
पाठियों को, उनको फिर
कौन—सा पन्ना
सामने है, इसकी
भी चिंता नहीं
रहती। उनको
कंठस्थ है।
पन्ना कोई भी
हो, वे
दोहराए चले
जाते हैं।
किताब उलटी भी
रखी हो, तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन सुबह
बैठकर कुरान पढ़
रहा है। उलटी
रखे हुए है!
गांव में तो
कोई पढ़ा—लिखा
आदमी नहीं है, इसलिए
किसी को पता
नहीं है कि वह
उलटा पढ़ता है
कि सीधा पढ़ता
है! एक अजनबी
गांव से गुजर
रहा है।
मुल्ला के पास
दस—पांच उसके शिष्य
भी बैठे हैं।
वह अजनबी भी
भीड़ देखकर
वहां आ गया।
उसकी बेचैनी
बढ़ने लगी, जब
उसने देखा कि
किताब उलटी
रखी है और
मुल्ला पढ़े जा
रहा है। आखिर
उससे न रहा
गया। सब रखना मुश्किल
हुआ। उसने खड़े
होकर कहा कि
और सब तो ठीक
है। आप जो कह
रहे हैं, वह
भी ठीक है।
लेकिन किताब
आप उलटी रखकर
पढ़ रहे हैं!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा कि मैं
कोई साधारण पढ़ने
वाला नहीं हूं।
किताब कैसी भी
हो, उलटी
हो कि सीधी हो,
हो कि न हो।
यह किताब अपने
लिए नहीं रखी
है; ये लोग
यहां बैठे हैं,
इनके लिए
रखी है। कुरान
कंठस्थ है।
पढ़ने की झंझट
वे उठाएं, जिन्हें
कुरान पता न
हो, नसरुद्दीन
ने कहा, कुरान
मुझे पता है।
पढ़ने की कोई
जरूरत नहीं है।
यह जो
पता होना है, यांत्रिक,
मशीन की तरह,
इससे कोई
व्यक्ति किसी
धर्म—ग्रंथ से
अतृप्ति नहीं
पा सकता, ऊब
पाएगा, परेशान
हो जाएगा। भय
के कारण, लोभ
के कारण रोज
पढ़ता रहेगा।
आशा में, आकांक्षा
में, कि
शायद कुछ मिले,
पढ़ता रहेगा।
भय में, कि
न पढूं तो कोई
नुकसान न हो
जाए, पढ़ता
रहेगा। लेकिन
कोई हार्दिक
संबंध
स्थापित नहीं
होगा। धर्म—ग्रंथ
का पाठ करने
पर ही पता
चलता है कि
अगर आप ऊबे न, तो ही आप
धर्म से
संबंधित हो
रहे हैं। आपकी
प्यास रोज
जगती चली जाए।
अर्जुन
कहता है कि
विस्तार से
मैं जान लूं
और आपके
अमृतमय वचनों
को सुनते हुए
मेरी तृप्ति नहीं
होती। सोचता
है, और सुनूं
तो तृप्ति हो
जाए!
लेकिन
आपको पता है, हर
तृप्ति के बाद
ऊब, बोर्डम
अनिवार्य है।
हर तृप्ति ऊब
में बदल जाती
है। ऐसी कोई
तृप्ति आपने
जानी है, जो
ऊब न बन जाए?
गरीब
आदमी धन से
कभी नहीं ऊबता।
ऊब ही नहीं
सकता, क्योंकि
धन होना चाहिए
ऊबने के लिए।
अमीर आदमी अगर
सच में अमीर
हो जाए, तो
धन से ऊब जाता
है। क्योंकि
जो मिल जाता
है, उससे
ऊब पैदा होती
है।
बुद्ध
का जन्म हुआ, तो
ज्योतिषियों
ने कहा कि यह
लड़का या तो
चक्रवर्ती
सम्राट होगा
या संन्यासी
हो जाएगा।
पिता बहुत
चिंतित हुए।
बुढ़ापे का
बेटा था। बहुत
बाद उम्र में
पैदा हुआ था।
एक ही बेटा था।
और
ज्योतिषियों
ने यह क्या
कहा कि
संन्यासी हो
जाएगा या
चक्रवर्ती
सम्राट होगा!
तो पिता ने
कहा कि मैं
क्या इंतजाम
करूं कि मेरा
लड़का संन्यासी
न हो पाए?
यह
बहुत मजे की
बात है। बुद्ध
के पिता भी
दूसरे
संन्यासियों
के पैर छूने
जाते थे। खुद
का बेटा
संन्यासी न हो
जाए, इसकी
चिंता में पड़े
हैं! आपके
पड़ोस में भी
कोई संन्यासी
आए, तो आप
पैर छूने
जाएंगे। आपका
बेटा
संन्यासी
होने लगे, आप
लट्ठ लेकर
दरवाजे पर खड़े
हो जाएंगे!
यह
बहुत मजे की
बात है। यह
संन्यास के
प्रति आदर
झूठा है। नहीं
तो आपकी कामना
यह हो कि आपका
बेटा अगर कुछ
भी हो तो पहले
संन्यासी हो।
लेकिन वह नहीं
है। यह
संन्यास के
प्रति आदर
झूठा है, बिलकुल झूठा
है।
बुद्ध
के पिता बहुत
चिंतित हुए, और
उन्होंने
लोगों से पूछा
कि मैं क्या
करूं? कैसे
रोकूं इसको
संन्यासी
होने से? तो
एक ज्योतिषी
ने सलाह दी कि
इसके जीवन में
कभी भी दुख का
अनुभव न हो
पाए। यह मरे
हुए आदमी को न
देखे। इसके
सामने कोई का
आदमी न लाया
जाए। इसके
सामने कोई ऐसी
पीड़ा न घटे कि
इसका मन जीवन
से दुखी हो
जाए, खिन्न
हो जाए और यह
विरक्त हो जाए।
ऐसा न हो।
तो
बुद्ध के पिता
ने सारा
इंतजाम किया।
ऐसे महल बनाए, जहां
किसी के के
प्रवेश का
निषेध था, जहां
कोई बीमार
अंदर नहीं जा
सकता था। फूल
भी वृक्ष पर
कुम्हलाने के
पहले अलग कर
दिए जाएं, ताकि
बुद्ध
कुम्हलाया
हुआ फूल न देख
लें; कि
कहीं
कुम्हलाए हुए
फूल को देखकर
वे पूछने लगें
कि अगर फूल
कुम्हला जाता
है, तो मैं
भी तो कुम्हला
नहीं जाऊंगा?
वृक्ष के
पत्ते सूखें,
इसके पहले
हटा दिए जाएं,
क्योंकि
बुद्ध कहीं
पूछ न लें कि
पत्ते सूख जाते
हैं, कहीं
जीवन भी तो
नहीं सूख
जाएगा? मृत्यु
की उन्हें खबर
न मिले और
जीवन की पीड़ा का
उन्हें कोई
बोध न हो।
सारा
इंतजाम मजबूत
था। सुंदरतम
स्त्रियां
बुद्ध के आस—पास
राज्य की
इकट्ठी कर दी
गईं। सुंदरतम
युवतियों को
बुद्ध की सेवा
में रख दिया
गया। सब सुंदर
था। सब ताजा
था। जब जवान
था।
और इसी
कारण बुद्ध को
संन्यासी
होना पड़ा। इसी
कारण! यह
ज्योतिषी की
कृपा से, जिसने सलाह
दी थी।
क्योंकि
बुद्ध इस बुरी
तरह ऊब गए इस
सबसे! इस बुरी
तरह ऊब गए।
सुंदरतम
स्त्रियां
उपलब्ध थीं, इसलिए
स्त्रियों की
कोई कामना मन
में न रही। सब
सुख उपलब्ध थे,
इसलिए किसी
सुख की कोई
वासना मन में
न रही। कोई
तकलीफ न थी, इसलिए सब
सुविधाएं
उबाने वाली हो
गईं, घबड़ाने
वाली हो गईं, रिपिटीटिव
हो गईं, रोज
पुनरुक्त
होने लगीं।
बुद्ध भागे।
उनके भागने का
बुनियादी
कारण उस
ज्योतिषी की सलाह
थी।
अगर सब
मिल जाए, तो ऊब पैदा
होती है।
इसलिए आज
अमेरिका में
जितनी ऊब है, उतनी दुनिया
की किसी कौम
में नहीं है।
अगर अमेरिका
के मनसविद से हम
पूछें, तो
वह कहता है कि अमेरिका
की बीमारी इस
समय बोर्डम है,
ऊब है। और
उसको तोड्ने
के लिए सब
उपाय किए जा
रहे हैं।
लेकिन वह
टूटती नहीं।
हर आदमी ऊबा
हुआ मालूम
पड़ता है।
अगर
आपकी किसी चीज
से तृप्ति हो
जाए, तो
आप ऊब जाएंगे।
इस जगत में
ऐसी कोई भी
चीज नहीं है, कोई भी चीज
नहीं है, जिसको
पाकर आप ऊब न
जाएंगे। हां,
तभी तक रस
रह सकता है, जब तक वह
मिले न। जब तक
दूर रहे, जब
तक पाने के
लिए हाथ फैला
हो और हाथ में
आ न गई हो कोई
चीज, तभी
तक आप रसपूर्ण
हो सकते हैं।
मिलते ही ऊब
पैदा हो जाती
है। इस जगत
में सभी चीजें
ऐसी हैं कि
रोज—रोज उनका
स्वाद लिया
जाए, तो
घबड़ाहट हो
जाती है।
सुना
है मैंने, मुल्ला
नसरुद्दीन को
उसके देश के
सम्राट ने उसकी
बातें, उसके
व्यंग्य का
मजा लेने के
लिए अपने पास
रख लिया था।
पहले ही दिन
सम्राट भोजन
के लिए बैठा, तो
नसरुद्दीन को
भी साथ बिठाया
था। कोई सब्जी
सम्राट को
बहुत पसंद आई।
तो नसरुद्दीन
ने कहा, आएगी
ही पसंद, यह
सब्जी नहीं, अमृत है। और
उसने उसके
गुणों की ऐसी
महिमा बखान की
कि सम्राट ने
अपने रसोइए को
कहा कि रोज यह
सब्जी तो
बनाना ही।
दूसरे
दिन भी वह
सब्जी बनी, लेकिन
वैसा रस न आया।
तीसरे दिन भी
बनी। चौथे दिन
भी बनी। और
नसरुद्दीन था
कि वह रोज
उसकी प्रशंसा
करता चला गया
कि यह अमृत है।
इसका कोई
मुकाबला नहीं।
यह बेजोड़ है
जगत में। इसके
स्वाद का
संबंध स्वर्ग
से है, पृथ्वी
से नहीं।
सातवें
दिन सम्राट ने
थाली उठाकर
फेंक दी और कहा
कि नसरुद्दीन, बंद करो
यह बकवास! यह सब्जी
मेरी जान ले
लेगी।
नसरुद्दीन ने
कहा कि मालिक,
यह जहर है।
और इसका संबंध
नर्क से है! उस
सम्राट ने कहा,
नसरुद्दीन,
तुम आदमी
कैसे हो? कल
तक तुम इसे
स्वर्ग बताते
रहे, आज यह
नर्क हो गई!
नसरुद्दीन ने
कहा कि हुजूर,
मैं नौकर
आपका हूं इस
सब्जी का नहीं।
तनख्वाह आपसे
पाता हूं इस
सब्जी से नहीं।
लेकिन
सात दिन में, जो बहुत
अमृत जैसी
मालूम पड़ी थी,
वह जहर जैसी
हो ही जाएगी।
इस जगत
में कुछ भी
ऐसा नहीं है, जिससे हम
ऊब न जाएं। और अगर
इस जगत में
आपको कोई ऐसी
चीज मिल जाए, जिससे आप न
ऊबे, तो आप
समझना कि आप
धर्म के
रास्ते पर आ
गए। अगर इस
जगत में आपको
किसी ऐसी चीज
की झलक मिल जाए,
जिससे ऊब
पैदा न हो, तो
आप समझना कि
प्रभु बहुत
निकट है, आप
कहीं पास ही
हैं।
मेरे
जानने में, जब तक
आपको ध्यान की
कोई झलक न
मिले, आपको
वैसी चीज नहीं
मिलेगी इस जगत
में, जिसके
अनुभव से ऊब
पैदा नहीं
होती।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ, उसके बाद
चालीस साल तक
वे शांत, मौन,
ध्यान में
जीए। कोई एक
आदमी ने बुद्ध
से पूछा है कि
चालीस साल से
आप ध्यान में
ही रह रहे हैं,
ऊब पैदा
नहीं होती?
बर्ट्रेड
रसेल जैसे
बुद्धिमान
आदमी ने सवाल उठाया
है! बर्ट्रेड
रसेल ने अपने
संस्मरणों में
कहीं लिखा है
कि मुझे
हिंदुओं के
मोक्ष से बड़ा
डर लगता है, क्योंकि
वहां से वापसी
नहीं हो सकती।
लौटने का कोई
उपाय नहीं है
मोक्ष से। तो
बर्ट्रेड
रसेल कहता है
कि अगर यह भी
मान लिया जाए
कि जैसा हिंदू
कहते हैं कि
वहां परम शांति
है, और परम
आनंद है, कोई
दुख नहीं, कोई
पीड़ा नहीं, कोई तनाव
नहीं। लेकिन
बर्ट्रेड
रसेल ने कहा
है कि यह कब तक
बर्दाश्त
होगा, कितने
समय तक? कोई
अशांति नहीं,
सुख ही सुख,
शांति ही
शांति। लेकिन
अनंत काल में
तो यह भी घबड़ा
देगा। फिर लौट
भी नहीं सकते,
यह भी एक
तकलीफ है।
बर्ट्रेड
रसेल ने कहा
है, इससे
तो संसार ही
बेहतर। इसमें
कुछ बदलाहट, कोई चेंज का
उपाय है। इससे
तो नरक भी
बेहतर, वहां
से कम से कम
वापस तो आ
सकते हैं!
लेकिन यह मोक्ष?
यह तो परम
कारागृह हो
जाएगा। और
माना कि आनंद
रहेगा, लेकिन
आनंद भी कितनी
देर तक रहेगा?
आनंद ही
आनंद, आनंद
ही आनंद, आनंद
ही आनंद! आखिर
ऊब पैदा हो
जाएगी और
प्राण
छटपटाने लगेंगे।
बर्ट्रेड
रसेल को आनंद
का कोई पता
नहीं है, इसलिए उसे
यह सवाल उठा
है। उसे पता
नहीं है आनंद
का, इसलिए
उसे सवाल उठा
है। उसका सवाल
बिलकुल संगत
है, क्योंकि
उसे कोई अनुभव
ही नहीं है कि
आनंद हम कहते
ही उस स्थिति
को हैं, जिससे
कोई ऊब पैदा
नहीं होती।
सुख हम कहते
हैं उस स्थिति
को, जिससे
ऊब पैदा हो
जाती है। दुख
हम कहते हैं
उस स्थिति को,
कि जो आया
नहीं कि हम
घबड़ाते हैं।
सुख कहते हैं
उस स्थिति को,
जो आ जाए, हम उसे
बुलाते हैं, निमंत्रण
देते हैं, और
फिर बुलाकर
फंस जाते हैं और
घबड़ाते हैं।
और आनंद हम
कहते हैं उस
स्थिति को, जहां न सुख
होता है और न
दुख, और
ऊबने का कोई
उपाय नहीं
होता। सुख
पुराना पड़
जाता है, इसलिए
ऊब जाते हैं!
आनंद कभी
पुराना नहीं
पड़ता; रोज
ताजा ही बना
रहता है।
इसलिए उससे
ऊबने का कोई
उपाय नहीं है।
अगर
आपको जीवन में
कहीं से कोई
रंध्र मिल जाए, जहां से
ऊब पैदा न
होती हो, तो
आप समझना कि
आप ठीक रास्ते
पर हैं, उसी
पर बढ़े चले
जाएं। और जिस
चीज से भी ऊब
पैदा होती हो,
आप समझ लेना
कि वह संसार
का हिस्सा है,
चाहे वह कुछ
भी हो।
अर्जुन
सोचता है कि
इन अमृतमय
वचनों को और—और
सुनूं तो शायद
तृप्ति हो जाए।
यह तृप्ति
होने वाली
नहीं है।
क्योंकि ये
वचन उस आनंद
की तरफ इशारा
हैं, जिसको
सुनकर नहीं
समझा जा सकता,
पाकर और
जीकर ही समझा
जा सकता है।
लेकिन
कृष्य ने कहा—
अर्जुन के इस
प्रकार पूछने
पर कृष्ण ने
कहा, हे
कुरुश्रेष्ठ,
अब मैं तेरे
लिए अपनी
दिव्य
विभूतियों को
प्रधानता से
कहूंगा।
मेरी
विभूतियां
हैं अनंत।
उनमें जो
प्रधान हैं, उनको मैं
तुझसे कहूंगा।
क्योंकि मेरे
विस्तार का
अंत नहीं है।
अगर तू सोचता
हो कि मैं
पूरे विस्तार
की बात करूं, तो यह चर्चा
चलती ही रहेगी,
यह कभी
समाप्त नहीं
हो सकती।
अभी
पश्चिम में
भूगोलविद, ज्याँग्राफी
के विद्वानों
में एक प्रश्न
चलता था। और
वह प्रश्न यह
था कि अगर हम
हिंदुस्तान
का नक्शा
बनाएं, तो
उसे
हिंदुस्तान
का नक्शा
कहना चाहिए कि
नहीं? क्योंकि
वह
हिंदुस्तान
जैसा तो होता
ही नहीं! नक्शा
हिंदुस्तान
जैसा कहां
होता है? अगर
बंबई का
नक्या। बनाएं,
तो बंबई
जैसा कहां
होता है? इसको
बंबई का नक्शा
क्यों कहना
चाहिए? अगर
बंबई का नक्शा
कहते हैं, तो
उसे बंबई जैसा
होना चाहिए।
लेकिन
तब बंबई के
बराबर बड़ा, इतना ही
बड़ा नक्शा
बनाना पड़े। और
अगर इतना ही
बड़ा नक्शा
बनाना है, तो
उसका प्रयोजन
ही खो गया। नक्शा
तो जेब में
आना चाहिए, तभी उसका
प्रयोजन है।
इतने बड़े नक्शे
को लेकर
घूमेगा कौन? अगर इतने
बड़े नक्शे को
लेकर घूम सकते
हैं, तो
बंबई को ही
लेकर घूम
लेंगे।
नक्शों की
क्या जरूरत है?
हिंदुस्तान
का नक्शा अगर
हिंदुस्तान
के बराबर, एकोक्ट
वैसा ही बनाना
पड़े, तब हम
उसको नक्शा
कहें...। भाषा
के लिहाज से ता
तभी कहना
चाहिए, जब
हिंदुस्तान
के नक्शा को
पूरा उतार दे,
उसके पूरे
चेहरे को उतार
दे, रत्तीभर
कहीं कोई फर्क
न हो; पैरेलल,
समानांतर, दूसरा
हिंदुस्तान
बनाना पड़े, तब नक्शा
बने। लेकिन तब
बेमानी हो गया।
नक्शे का
उपयोग यह है
कि पूरा
हिंदुस्तान
बिना जाने, एक कागज के
छोटे—से टुकड़े
पर भी हम जान
लें कि कहां
क्या है। पर
उसे नक्शा
कहें या न
कहें?
उसे नक्शा
कहना भाषा की
दृष्टि से ठीक
नहीं है।
लेकिन वहीं नक्शा
है, क्योंकि
उपयोग उसी का
हो सकता है।
और नक्शे का
उपयोग इतना है
कि वह
वास्तविक की
तरफ इशारा करे।
अर्जुन
कृष्ण से पूछ
रहा है कि तुम
अपनी महिमा को, अपने
ऐश्वर्य को, उसके समग्र
विस्तार में
कहो।
अगर कृष्ण
उसका समग्र
विस्तार करने
जाएं, तो
वह उतना ही
लंबा होगा, जितना यह
अस्तित्व है।
और अगर इतने
लंबे
अस्तित्व के
मौजूद रहते
हुए अर्जुन
उसको नहीं समझ
पा रहा है, तो
कृष्ण के
विस्तार को
कैसे समझ
पाएगा! और अगर
इतने ही विस्तार
को समझना है, तो यह
अस्तित्व
काफी है, इसको
समझ लेना
चाहिए। अनंत
होगी वह कथा
तो, उसका
फिर कोई अंत
नहीं हो सकता।
अगर कृष्ण
शुरू से ही शुरू
करें और अंत
पर ही अंत
करें, तो न
कोई शुरू होगा
और न कोई अंत
होगा। और यह
कथा इतनी लंबी
होगी कि
बेमानी हो
जाएगी।
तो कृष्ण
इसलिए कहते
हैं, प्रधानता
से कुछ बातें
मैं तुझसे
कहूंगा।
चुनकर कुछ
बातें मैं
तुझसे कहूंगा,
जो कि इशारा
बन जाएं और
तुझे थोड़ी झलक
दे सकें। नक्शा
तेरे काम आ
जाए, इतना
मैं तुझसे
कहूंगा।
जिसके आधार पर
तू वास्तविक
को पाने पर
निकल जाए।
लेकिन
कुछ लोग गलती
कर सकते हैं, नक्शे
को ही
वास्तविक समझ
सकते हैं। और
हममें से
बहुतों ने यह
गलती की है।
हम नक्शे को
ही वास्तविक
समझ लेते हैं।
शब्द ही हमारे
लिए यथार्थ हो
जाते हैं। अगर
अभी यहां कोई
जोर से चिल्ला
दे, आग!
फायर! तो अनेक
लोग भागने की
हालत में हो
जाएंगे, बिना
इस बात की
फिक्र किए कि
आग है भी या
नहीं। आग शब्द
तो सिर्फ नक्शा
है, लेकिन
हमें
उत्तेजित कर
दे सकता है
उतना ही, जितना
कि आग हो, तो
हम उत्तेजित हो
जाएं। और धीरे—
धीरे हमारी
हालत ऐसी हो
जाती है कि एक
बार आग भी जल
रही हो और कोई
आग न चिल्लाए,
तो हम शायद
उत्तेजित न
हों।
रामकृष्ण
ने कहा है कि
एक आदमी सुबह
उनसे मिलने
आया है और
उन्होंने
उससे पूछा कि
मैंने सुना है
कि तुम्हारे
पड़ोसी का मकान
रात गिर गया
आधी में! उसने
कहा कि मुझे
पता नहीं, क्योंकि
मैंने सुबह का
अखबार नहीं
देखा! पड़ोसी
का मकान, रात
आधी में गिर
गया! उसने कहा
कि हो सकता है,
क्योंकि
मैंने अभी
सुबह का अखबार
नहीं देखा! पड़ोसी
के मकान का
गिरना कम
वास्तविक है,
अखबार में
छपी हुई
सुर्खी
ज्यादा
वास्तविक है!
नक्शे
बहुत
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं।
और उन चीजों
के नक्शे तो
बहुत
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं, जो हमारी आंखों
में दिखाई
नहीं पड़ते।
परमात्मा का
हमें कोई
दर्शन नहीं
होता। सत्य का
हमें कोई पता
नहीं है। नक्शे
ही नक्शे हैं
हमारे पास। मोक्ष
का हमें कोई
पता नहीं है।
अस्तित्व की
गहराई का हमें
कोई पता नहीं
है। बस नक्शे
हैं। नक्शे को
सम्हाले हुए
लोग बैठे हैं
और विवाद करते
रहते हैं कि
किसका नक्शा
सही है। और
नक्शे के इतने
दबाव में दब
जाते हैं कि
यात्रा असंभव
ही हो जाती है,
मुश्किल ही
हो जाती है।
यह जो कृष्ण
का कहना है कि
पूरे विस्तार
से अपनी
समग्रता को
कहने का कोई
भी उपाय नहीं
है। मैं कुछ
बातें
प्रधानता से
कहूंगा। कुछ
बातें चुन
लूंगा। अनंत
है मेरा
ऐश्वर्य, उसमें से
कुछ लक्षण चुन
लूंगा।
वे
लक्षण भी कृष्ण
ने वैसे ही
चुने हैं—जो
हम आगे देखेंगे—
जो अर्जुन की
समझ में आ
सकें। अर्जुन
की जगह कोई
दूसरा
व्यक्ति होता, तो कृष्ण
को दूसरे
लक्षण चुनने
पड़ते। अर्जुन
की जगह अगर एक
चित्रकार
होता, तो
कृष्ण को
दूसरे लक्षण
चुनने पड़ते।
अर्जुन की जगह
अगर एक कवि
होता, तो कृष्ण
को दूसरे
लक्षण चुनने
पड़ते। अर्जुन की
जगह अगर एक
संगीतज्ञ
होता, तो
कृष्ण को
दूसरे लक्षण
चुनने पड़ते।
इसलिए
भी बड़ी कठिनाई
धर्मशास्त्रों
में पैदा हुई।
क्योंकि
मोहम्मद
जिनसे बात कर
रहे हैं, उनको हम भूल
गए। कुरान
हमारे पास है।
कृष्य जिससे
बात कर रहे
हैं, उसका
हमें खयाल न
हो, तो बडी
हो जाती है।
मोहम्मद को हम
नहीं समझ पाते,
कम से कम
गैर—मुसलमान
मोहम्मद को
नहीं समझ पाते।
उसकी सारी
कठिनाई एक ही
है कि उन्हें
पता नहीं कि
मोहम्मद
किससे बात कर
रहे हैं। और
कई दफा हमें
अड़चन होती है।
अड़चन ऐसी होती
है कि समझ में
नहीं पड़ता कि
यह कैसी बात
मोहम्मद ने की
है!
मोहम्मद
ने कहा है कि
कोई आदमी चार
शादियां करे, तो
न्याययुक्त
है। हमको बहुत
बेहूदी लगती
है। हम दो
शादी तक के
लिए
न्याययुक्त
मानने को तैयार
नहीं। चार
शादी को
न्याययुक्त मोहम्मद
कहते हों, तो
हमें बहुत
अड़चन होती है।
पर हम भूल
जाते हैं कि
मोहम्मद किन
लोगों से कह
रहे हैं। जो
बीस—पच्चीस
स्त्रियां रख
सकते थे, उन
लोगों से वे
कह रहे हैं।
अगर
अनुपात
निकालने जाएं, तो
पच्चीस
स्त्रियां
जिस मुल्क में
लोग रख सकते
थे, उनसे
चार की बात
कहनी काफी
न्यूनतम है, बहुत न्यून
है। चार भी
उन्हें बहुत
कम मालूम
पड़ेगा, बहुत
मुश्किल मालूम
पड़ेगी। और
हमें समझना और
भी कठिन हो
जाएगा कि
मोहम्मद ने
खुद ने नौ
विवाह किए! तो
हमें और अड़चन
हो जाएगी। हम
सोच ही नहीं
सकते, इस
मुल्क में हम
सोच नहीं सकते
कि महावीर नौ
विवाह कर सकते
हैं!
लेकिन
मोहम्मद ने नौ
विवाह किए। और
बड़े मजे की
बात यह है कि
उनमें से नौ
में से सिर्फ
एक स्त्री से
ही उनके
स्त्री जैसे
संबंध थे। और
आठ स्त्रियां
आपकी
पत्नियां हों
और उनसे आपका
पत्नी जैसा
संबंध न हो, यह कोई
छोटी साधना
नहीं है। सब
स्त्रियां
छोड्कर भाग
जाना ज्यादा
आसान है। और
मोहम्मद ने
कोई भी स्त्री
तकलीफ में थी,
तो उससे ही
शादी कर ली।
मोहम्मद
की पहली शादी
भी बड़े हैरानी
की है।
मोहम्मद की
उम्र छब्बीस
वर्ष थी और
पहली पत्नी की
उम्र चालीस
वर्ष थी।
छब्बीस वर्ष
का युवक चालीस
वर्ष की
स्त्री से
शादी कर रहा
है! इस शादी
में कोई भी
स्त्रैण आकर्षण
काम नहीं कर
रहा है। लेकिन
हमें समझना
कठिन पड़ता है।
लेकिन जिन
लोगों के बीच
मोहम्मद हैं
और जिस भांति
के लोगों से
वे बात कर रहे
हैं, और
जिनके जीवन को
बदलने की
कोशिश कर रहे
हैं, उनको
जब तक हम
सामने न रख
लें, तब तक
अड़चन होगी।
अर्जुन
से कृष्य जो
कुछ भी कहेंगे
आगे, उसमें
आप ध्यान रखना
कि वह एक
क्षत्रिय से चर्चा
हो रही है, एक
योद्धा से
चर्चा हो रही
है। और
क्षत्रिय किस
भाषा को समझ
सकता है, उसी
भाषा में
चर्चा होगी।
उन्हीं गुणों
को चुनकर कृष्ण
अर्जुन से
कहेंगे।
क्योंकि
मेरे विस्तार
का अंत नहीं
है, इसलिए
मैं चुनाव कर
लूंगा और थोड़ी—सी
बातें तुझसे
कहूंगा। हे
अर्जुन, मैं
सब भूतों के
हृदय में
स्थित सबका
आत्मा हूं।
तथा संपूर्ण
भूतों का आदि,
मध्य और अंत
भी मैं ही हूं।
वे जो
कहेंगे, उसकी भूमिका
इन दो शब्दों
में, इन दो
पंक्तियों
में आ गई। आगे
वे विस्तार से
कहेंगे। इन
दोनों
पंक्तियों को
हम ठीक से समझ
लें, तो
आगे की बात आसान
होगी।
मैं सब
भूतों के हृदय
में स्थित
सबका आत्मा हूं।
जब भी
हम किसी को
देखते हैं, तो उसकी
परिधि दिखाई
पड़ती है, केंद्र
नहीं।
सर्कमफ़ेंस
दिखाई पड़ती है,
सेंटर नहीं।
आप मुझे देख
रहे है, मेरी
परिधि दिखाई
पड़ रही है।
मेरे घर की
दीवालें
दिखाई पड़ रही
हैं, मैं
आपको दिखाई
नहीं पड़ रहा
हूं। मैं आपको
देख रहा हूं
तो आपका मकान
दिखाई पड़ता है,
आप दिखाई
नहीं पड़ते।
आपका शरीर
दिखाई पड़ता है,
आप दिखाई
नहीं पड़ते।
आपका केंद्र
तो आपके भीतर
कहीं छिपा है,
गुप्त, गहन।
कृष्ण
कहते हैं कि
वह जो छिपा हुआ
हृदय है, वह जो गहन
केंद्र है
सबके भीतर, वही मैं हूं।
इसके
बहुत मतलब हुए।
पहला मतलब तो
यह कि जब तक
हमें अपने
भीतर के केंद्र
का कोई स्मरण
न आए, तब
तक कृष्य की
सत्ता और
अस्तित्व को
हम न समझ पाएंगे।
यह तो ठीक है
कि मैं जब
आपको देखता
हूं तो आपका शरीर
मुझे दिखाई
पड़ता है, आपका
केंद्र नहीं
दिखाई पड़ता।
मजा तो यह है
कि आपको भी
अपना केंद्र
नहीं दिखाई
पड़ता! आप भी
अपने को आईने
मैं जैसा
देखते हैं, उसी भांति
पहचानते हैं।
अगर आपने
जिंदगी में
आईना न देखा
होता, तो
आप अपने को
पहचान भी नहीं
सकते थे कि आप
कौन हैं। आप भी
अपने को इस
भांति
पहचानते हैं,
जैसे किसी
दूसरे को बाहर
से देखकर
पहचानते हों।
बहुत
तरह के आईनों
का हम उपयोग
करते हैं। एक
तो आईना है, जो हमारे
स्नानगृह में
टंगा होता है।
उसमें हम अपनी
शक्ल देख लेते
हैं। लेकिन वह
कोई बहुत खास
आईना नहीं है।
और सूक्ष्म
आईने हैं।
लोगों की आंखों
में हम अपने
को देखते हैं।
अगर
कोई आदमी आपसे
कह देता है, आप बहुत
अच्छे हैं, बड़े सुंदर
हैं, आप तत्क्षण
सुंदर और
अच्छे हो जाते
हैं। और कोई
आदमी आपसे कह
देता है कि
शक्ल तो देखो
कभी अपनी आईने
में! तुम्हें
देखकर संसार
से विराग
उत्पन्न होता
है! तत्काल
आपके भीतर कोई
चीज गिर जाती
है और टूट जाती
है।
दूसरों
की आंखों में
देख—देख कर आप
अपनी प्रतिमा
निर्मित करते
हैं। आपको
अपने केंद्र
का कुछ भी पता
नहीं है।
दूसरे आपके
संबंध में
क्या कहते हैं, उसकी ही
कतरन इकट्ठी
करके आप अपनी
प्रतिमा बना
लेते हैं।
इसलिए हम
दूसरों पर
निर्भर होते
हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
है कि अगर हम
ऐसा करेंगे, तो लोग
क्या कहेंगे!
लोग
क्या कहेंगे!
लोगों का कहना
आपकी आत्मा है।
लोग जो कहते
हैं, वही
आप हैं। अगर
लोग अच्छा
कहते हैं, तो
आप अच्छे हैं।
अगर लोग बुरा
कहते हैं, तो
आप बुरे हैं।
आप भी कुछ हैं?
या सिर्फ
लोगों के कहने
का जोड़ ही आप
हैं!
हर
आदमी डरा हुआ
है लोगों से।
हम पड़ोसियों
से जितने डरते
हैं, उसका
कोई हिसाब
नहीं। घबडाए
रहते हैं।
उनको देखकर
चलते हैं।
उनको देखकर
उठते हैं।
उनको देखकर
कपड़े पहनते
हैं। उनको
देखकर बोलते
हैं। हर आदमी चारों
तरफ से अपने
पड़ोसियों के
हाथों से घिरा
है। हर आदमी
की गर्दन पर
पड़ोसियों की
फांसी है। और
ऐसा नहीं है
कि आपके पड़ोसी
की फांसी ही
आपके ऊपर है।
आप भी अपने
पड़ोसी की
गर्दन पर ऐसी
फांसी रखे हुए
बैठे हैं। सब
आदमी एक—दूसरे
से उलझे हैं।.
रहती है कि
कोई जरा—सा कोई
भाव बदल दे, तो हमारी
सारी की सारी
जीवन की मेहनत,
सारी कमाई
व्यर्थ हो
जाए! क्यों?
ये भी
आईने हैं।
इनमें देखकर
हम समझते हैं
कि अपने को
समझा। हमें
अपने केंद्र
का भी कोई पता
नहीं है। हमने
अपने को भी
बाहर से ही
देखा है। कभी
आपने अपने
शरीर का खयाल
किया है भीतर
से? तो
आप घबड़ा
जाएंगे।
महावीर
अपने साधकों
को एक ध्यान
करवाते थे। वह
था, शरीर
को भीतर से
देखना। एकदम
से तो खयाल
में नहीं आएगा
कि शरीर को
भीतर से देखने
का क्या मतलब?
आप
अपने घर के
बाहर खड़े हो
जाएं और बाहर
से देखें। तो
आपको दीवाल की
बाहरी पर्त
दिखाई पड़ती है, न तो घर
का फर्नीचर
दिखाई पड़ता है,
न घर के
भीतर की
दीवालों पर
लटकी हुई
तस्वीरें
दिखाई पड़ती
हैं। घर के
भीतर का कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। घर के
बाहर का
हिस्सा दिखाई
पड़ता है। फिर
आप भीतर जाएं,
तो बाहर का
हिस्सा दिखाई
नहीं पड़ता। अब
आपको भीतरी
दीवाल दिखाई
पड्नी शुरू
होती है। अब
आपको भीतर का
फर्नीचर
दिखाई पड़ना
शुरू होता है।
महावीर
कहते थे, अपने को
भीतर से देखो,
तो
हड्डियां, मांस—
मज्जा, यह
सब दिखाई
पड़ेगा। बाहर
से देखोगे, तो सिर्फ
चमड़ी दिखाई
पड़ेगी। चमड़ी
केवल बाहर की
दीवाल है।
भीतर! भीतर
काफी फर्नीचर
है। लेकिन
भीतर से हमने
अपने को कभी
नहीं देखा।
महावीर कहते
थे, आंख
बंद करो और
भीतर से अपने
को एहसास करो
कि तुम बीच
में खड़े हो।
अब क्या है
वहां?
तो अगर
महावीर का
ध्यान करने
वाला एकदम
विरक्त हो जाए
और शरीर में
उसका आकर्षण
खो जाए और आसक्ति
न रहे, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है। उसके
लिए चेष्टा भी
नहीं करनी
पड़ती।
अभी तो
महावीर को
मानने वाला जो
साधु है, वह भी
चेष्टा कर रहा
है। लड़ रहा है
अपने शरीर से
कि वासना छूट
जाए। लेकिन
उसे भी पता
नहीं कि वासना
बाहर से लड़ने से
नहीं छूटेगी।
भीतर से शरीर
दिख जाए, तो
यह वासना छूट
जाती है।
क्योंकि भीतर
सिवाय फिर
गंदगी के और
कचरे के कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता। और तब
हैरानी होती
है कि इस कचरे
को, इस
गंदगी को, इस
सबको मैंने
समझा है अपना
होना!
और जो
आदमी अपने
शरीर को भीतर
से देखने में
समर्थ होता है, वही आदमी
अपने केंद्र
को भी देख
पाएगा।
क्योंकि
केंद्र का
मतलब है, अब
और भीतर चलो।
अब शरीर को
बिलकुल छोड़ दो,
और उसको
देखो, जो
सब देखता है।
अब उसको जानो,
जो सब जानता
है। अब उस
बिंदु पर खड़े
हो जाओ, जो
साक्षी है, जो देख रहा
है शरीर की
हड्डी—मांस—मज्जा
को। अब इसको
ही पहचानों, यही केंद्र
है।
कृष्ण
कहते हैं, मैं सबके
हृदयों में
स्थित आत्मा
हूं।
तो यह
पहला कीमती
वक्तव्य है, जिसमें
परमात्मा के
अस्तित्व की
पूरी बात आ जाती
है। लेकिन यह
हमारे खयाल
में न आए। और
अगर हमको खयाल
में भी आए, तो
हम शायद सोचते
होंगे कि जो
हृदय हमारा
धड़क— धड़क कर
रहा है, उसी
हृदय की बात
है।
उस
हृदय की कोई
भी बात नहीं
है। इस हृदय
को वैज्ञानिक
हृदय मानने को
तैयार भी नहीं
हैं और वे ठीक
हैं। वे कहते
हैं, यह
तो फेफड़ा है।
और वे ठीक
कहते हैं। यह
तो सिर्फ
पंपिंग
स्टेशन है, जहां से
आपके खून की
सफाई होती
रहती है चौबीस
घंटे। सांस
जाती है, खून
आता है, सफाई
होती रहती है।
यह तो सिर्फ
पंप करने का
इंतजाम है। यह
हृदय नहीं है।
यह तो सिर्फ
फेफड़ा है, फुस्फुस
है। यांत्रिक
है। इसलिए
प्लास्टिक का फेफड़ा
लग जाता है और
आपमें कोई
फर्क नहीं
पड़ेगा।
ध्यान
रखना, आप
यह मत सोचना
कि आपका हृदय
निकालकर और
प्लास्टिक का
लगा दिया, तो
आप प्रेम न कर
पाएंगे। और
मजे से कर
पाएंगे। कोई
फर्क न पड़ेगा।
क्योंकि यह
आपका हृदय
नहीं है। यह
हृदय नहीं है।
हृदय तो उस
केंद्र का नाम
है—इस फेफड़े
से तो हमारा
शरीर चलता है—हृदय
उस केंद्र का
नाम है, जिससे
हमारा
अस्तित्व
धड़कता है। आत्मा
का नाम हृदय
है।
इसलिए
इस तरह की योग
में
प्रक्रियाएं
हैं कि योगी
चाहे तो थोड़ी होने
से मरने का
कोई गहरा
संबंध नहीं है।
हम मर जाते
हैं, क्योंकि
हमे पता नहीं
कि अब इस हृदय
को फिर से कैसे
धड़काएं।
लेकिन चेष्टा
से इस हृदय को
रोका जा सकता
है और पुन:
धड़काया जा
सकता है।
ब्रह्मयोगी
ने उन्नीस सौ
तीस में
आक्सफोर्ड में, कलकत्ता
में, रंगून
में, कई
विश्वविद्यालयों
में अपने हृदय
के धड़कन के
बंद करने के
प्रयोग किए।
वे दस मिनट तक
अपने हृदय को
बंद कर लेते
थे। कलकत्ता
विश्वविद्यालय
में दस
डाक्टरों ने जांच
की और लिखा।
क्योंकि
ब्रह्मयोगी
ने कहा था कि
जब मेरा हृदय
बंद हो जाए, तब आप लिखना
कि मैं जिंदा
हूं या मर गया,
और दस्तखत
कर देना। दस
डाक्टरों ने
उनके डेथ
सर्टिफिकेट
पर दस्तखत किए
कि यह आदमी मर
गया; मरने
के सब लक्षण
पूरे हो गए।
और दस
मिनट बाद
ब्रह्मयोगी
वापस लौट आए।
हृदय फिर
धड़कने लगा।
सांस फिर चलने
लगी। नाडी फिर
दौड़ने लगी। और
ब्रह्मयोगी
ने वह जो
सर्टिफिकेट
था उसे जब
मोड़कर खीसे
में रखा, तो उन
डाक्टरों ने
कहा कि कृपा
करके यह
सर्टिफिकेट
वापस दे दें, क्योंकि
इसमें हम भी
फंस सकते हैं!
हमने लिखकर
दिया है कि आप
मर चुके। तो
ब्रह्मयोगी
ने कहा कि
इसका अर्थ यह
हुआ कि तुम
जिसे मृत्यु
कहते हो, वह
मृत्यु नहीं
है।
निश्चित
ही, जिसे
डाक्टर
मृत्यु कहते
हैं, वह
मृत्यु नहीं
है। जहां तक
हम संबंधित
हैं, वह
मृत्यु है।
क्योंकि हम
अपने को बाहर
से जानते हैं,
फेफड़े से
जानते हैं, हृदय से
नहीं। शरीर से
जानते हैं, आत्मा से
नहीं। परिधि
से जानते हैं,
केंद्र से
नहीं। परिधि
तो मर जाती है।
और डाक्टर उसी
को मृत्यु
कहते हैं। और
हमें केंद्र
के अस्तित्व
का कोई पता
नहीं है, इसलिए
हम भी उसे
मृत्यु मानते
हैं।
यह
सिर्फ
मान्यता है।
अगर हमें अपने
केंद्र का पता
चल जाए, तो फिर कोई
मृत्यु नहीं
है। कोई
मृत्यु नहीं
है। मृत्यु से
बड़ा झूठ इस
जगत में दूसरा
नहीं है।
लेकिन मृत्यु
से बड़ा सत्य
कोई भी नहीं
मालूम पड़ता।
और मृत्यु से
बड़ा
सुनिश्चित
सत्य कोई भी
मालूम नहीं
पड़ता। मृत्यु
बड़ा गहन सत्य
है। जहां हम
जीते हैं, बाहर,
वहां
मृत्यु सब कुछ
है। अगर हम
भीतर जा सकें,
तो जीवन सब
कुछ है।
बाहर
है मृत्यु, भीतर है
जीवन। उस जीवन
की सूचना ही कृष्ण
देते हैं कि
सब जीवन में, जहां—जहां
जीवन है, वहां
मैं हूं। यह
एक बात। दूसरी
बात इस सूत्र
में छिपी है, वह भी खयाल
में ले लें। कृष्ण
चेष्टा करके
हृदय की धड़कन
बंद कर लेता
है। हृदय की
धड़कन यह कहते
हैं कि सबके
हृदय में, सबकी
आत्माओं में
मैं हूं।
बंद हो
जाती है, लेकिन योगी
मरता नहीं है।
हृदय की धड़कन
बंद इसका अर्थ
यह हुआ कि हम
शरीर से ही
अलग—अलग हैं, भीतर से हम
अलग—अलग नहीं
हैं। हमारा जो
भेद है, हमारी
जो भिन्नता है,
वह शरीर की
है, भीतर
का कोई भेद
नहीं है। नहीं
तो फिर कृष्ण
सबके भीतर
नहीं हो सकते।
फिर परमात्मा
सबके भीतर
नहीं हो सकता।
इसका यह मतलब
हुआ कि हमारी
परिधिया अलग—अलग
हैं, हमारा
केंद्र एक है।
हमारी
सर्कमफ्रेंस
अलग— अलग है, पर हमारा
सेंटर एक है।
यह जरा
गणित के लिए
मुश्किल हो
जाएगी बात। यह
कठिन हो जाएगी
बात। क्योंकि
हमको लगता है
कि जब हमारी
परिधि अलग है, तो हमारा
केंद्र भी अलग
होगा। इसलिए
हम सब सोचते
हैं, हमारी
आत्माएं भी
अलग— अलग हैं।
जो सोचते हैं
कि उनकी
आत्माएं अलग—अलग
हैं, उन्हें
आत्मा का अभी
कोई भी पता
नहीं। अभी वे
शरीर से ही
अपने अलग—अलग
होने को मानकर
कल्पना करते
हैं, अनुमान
करते हैं कि
आत्मा भी अलग—अलग
होगी।
जिस
दिन कोई अपने
केंद्र को
जानता है, उस दिन
उसे पता चलता
है कि शरीर ही
अलग— अलग हैं, आत्मा एक ही
विस्तार है।
करीब—करीब ऐसा
कि यहां इतने
बिजली के बल्ब
जल रहे हैं।
ये सब बल्ब
अलग— अलग जल
रहे हैं। और
कोई नहीं कह
सकता कि ये सब बल्ब
एक हैं।
निश्चित अलग—अलग
हैं। और अगर
एक बल्ब को
मैं तोड़ दूं
तो सब बल्ब
नहीं टूट
जाएंगे।
इसलिए सिद्ध
होता है कि बल्ब
अलग था। बाकी बल्ब
जिंदा हैं, और शेष हैं।
मैं मर जाऊं, तो आप नहीं
मरते। साफ है
कि मैं अलग
हूं आप अलग
हैं।
लेकिन
इनके भीतर जो
बिजली दौड़ रही
है, वह
एक है। ये बल्ब
अलग—अलग हैं
और इनके भीतर
जो ऊर्जा दौड़
रही है, वह
एक है। और अगर
ऊर्जा बंद कर
दी जाए, तो
सब बल्ब एक
साथ बंद हो
जाएंगे। बल्ब
अगर तोड़े, तो
एक बल्ब
टूटेगा, तो
दूसरा नहीं
टूटेगा; जलता
रहेगा, जलता
रहेगा। लेकिन
अगर ऊर्जा बंद
हो जाए, तो
सब बल्ब एक
साथ बंद हो
जाएंगे।
हम सब बल्ब
की भांति हैं।
हमारा शरीर एक
बल्ब है।
भीतर जो ऊर्जा
प्रवाहित है, वह एक है।
उस ऊर्जा को
कृष्य कहते
हैं, वह
ऊर्जा, वह
एनर्जी, वह
सर्वव्यापी
आत्मा मैं हूं।
सबकी आत्माओं
में, सबके
हृदय में, मैं
हूं।
इसलिए
दूसरी बात इस
सूत्र में
खयाल में ले
लेने जैसी है, कि बाहर
है भेद, भीतर
अभेद है। बाहर
हैं
भिन्नताएं, भीतर
अभिन्नता है।
बाहर है द्वैत,
अनेकत्व, भीतर एक है, अद्वैत।
जो
बाहर से ही
जीएगा, वह कभी भी
अनुभव नहीं कर
सकता कि जब वह
दूसरे को चोट
पहुंचा रहा है,
तो अपने को
ही चोट पहुंचा
रहा है। जो
बाहर से जीएगा,
वह कभी नहीं
सोच सकता कि
जब वह दूसरे
का अहित कर
रहा है, तो
अपना ही अहित
कर रहा है।
लेकिन जो भीतर
से जीएगा, उसे
तत्क्षण दिखाई
पड़ना शुरू हो
जाएगा कि चाहे
मैं अहित करूं
किसी का, अहित
मेरा ही होता
है। और चाहे
मैं हित करूं
किसी का, हित
भी मेरा ही
होता है।
क्योंकि मेरे
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं
है। मैं ही
हूं।
अगर
महावीर को, या बुद्ध
को इतनी करुणा
और इतने प्रेम
का आविर्भाव
हुआ, तो उस
करुणा और
प्रेम के
आविर्भाव का
केवल एक ही कारण
है कि दिखाई
पड़ना शुरू हुआ
कि मेरे अतिरिक्त
और कोई भी
नहीं है।
तो कृष्ण
कहते हैं, मैं ही
हूं सब भूतों
के हृदय में
सबका आत्मा।
और संपूर्ण
भूतों का आदि,
मध्य और अंत
भी मैं ही हूं।
यह दूसरी बात!
उनका प्रारंभ भी
मैं हूं उनका
मध्य भी मैं
हूं और उनका
अंत भी मैं
हूं।
इसे हम
थोड़ा—सा, दो—तीन
आयामों से समझ
लें। यह भारत
की संभवत: एक
विशिष्ट
दृष्टि है, जिसे दूसरी
जगह पाना थोड़ा
मुश्किल है, थोड़ा कठिन
है।
जब हम
यह कहते हैं
कि आदि, मध्य और अंत,
तीनों ही
परमात्मा है,
तो हम समस्त
चीजों को
परमात्मा के
भीतर इकट्ठा
कर लेते हैं।
हम कुछ भी
छोड़ते नहीं।
बुराई को भी
हम बाहर नहीं
छोड़ते, भलाई
को भी बाहर
नहीं छोड़ते।
अंधेरे को भी
भीतर ले लेते
हैं, प्रकाश
को भी भीतर ले
लेते हैं।
क्योंकि हम
समस्त
अस्तित्व को
उसके सब आयामों
में, प्रारंभ
में, मध्य
में, अंत
में, तीनों
में परमात्मा
को स्वीकार
करते हैं।
इसमें
थोड़े चिंतक, जो इतनी
हिम्मत नहीं
जुटा पाएं, उनको कठिनाई
लगती है। वे
कहेंगे कि
आदमी जब पाप
में है, तब
परमात्मा
नहीं है। वे
कहेंगे, आदमी
जब अज्ञान में
है, तब
परमात्मा
नहीं है। आदमी
जब कर्मों में
घिरा हुआ है, पाप से, अंधकार
से डूबा हुआ
है, तब
परमात्मा
नहीं है। वे
यह भी मान ले
सकते हैं कि
यह बीज रूप से
परमात्मा है।
जब शुद्ध हो
जाएगा, तो
हम इसे
परमात्मा
कहेंगे। अभी
अशुद्ध
अवस्था में है।
ये इतना भी
मान लें, तो
भी वे यह
कहेंगे कि जो
अशुद्धि है, वह परमात्मा
नहीं है। जो
पाप है, वह
परमात्मा
नहीं है। जो
बुरा है, वह
परमात्मा
नहीं है। वे
अस्तित्व को
दो हिस्सों
में काटेंगे।
एक भला
अस्तित्व
होगा, जिसे
वे परमात्मा
से जोड़ेंगे; और एक बुरा
अस्तित्व
होगा, जिसे
परमात्मा से
अलग कर देंगे।
इसलिए
कुछ धर्मों को
शैतान भी
निर्मित करना
पड़ा है। शैतान
का अर्थ है, जो—जो
बुरा—बुरा है
इस जगत में, वह शैतान के
जिम्मे छोड़
दिया। जो भला—
भला है, वह
परमात्मा के
जिम्मे ले
लिया।
ऐसा
विचार कमजोर
है। और ऐसा
परमात्मा भी, ऐसे
विचार का
परमात्मा भी
अधूरा होगा।
क्योंकि
बुराई के होने
के लिए भी
परमात्मा का
सहारा चाहिए।
बुराई भी हो
सकती है, तो
परमात्मा के
सहारे ही हो
सकती है।
अस्तित्व
मात्र उसी का
है। और अगर हम
एक बार ऐसा
स्वीकार कर
लें कि बुराई का
अपना
अस्तित्व है,
तो फिर
बुराई को कभी
समाप्त नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि उसका
अपना निजी
अस्तित्व है।
उसे परमात्मा
नष्ट नहीं कर
सकता।
और अगर
हम ऐसा समझ
लें कि
परमात्मा में
और शैतान में
कोई संघर्ष चल
रहा है, तो फिर कोई
तय नहीं कर
सकता कि अंतिम
विजय किसकी
होगी। और जहां
तक रोज का
सवाल है, तो
यही दिखाई
पड़ता है कि
निन्यानबे
मौकों पर
शैतान जीतता
है। एकाध मौके
पर परमात्मा
भूल—चूक से
जीत जाता हो, बात अलग है।
लेकिन
निन्यानबे
मौके पर शैतान
जीतता हुआ मालूम
पड़ता है! अगर
हम इतिहास का
अनुभव लें, तो हमें यही
मानना पड़ेगा
कि अंत में
दिखता है, शैतान
ही जीतेगा, परमात्मा
जीत नहीं सकता।
अगर हम शैतान
को एक अलग
अस्तित्व मान
लें, तो यह
संघर्ष
शाश्वत हो
जाएगा।
लेकिन
हिंदू चिंतन
शैतान जैसी
किसी अलग व्यवस्था
को स्वीकार
नहीं करता।
लेकिन फिर
जटिल हो जाता
है और सूक्ष्म
हो जाता है, क्योंकि
बात फिर आसान
नहीं रह जाती।
यह बिलकुल
आसान है, काले
को काला और गोरे
को गोरा कर
देना। अंधेरे
को अलग, प्रकाश
को अलग कर
देना, बहुत
आसान है; सीधा—साफ
है। लेकिन
हिंदू चिंतन
कहता है, सभी
कुछ परमात्मा
है। यह जरा
मुश्किल है।
लेकिन
यही वैज्ञानिक
है। अगर हम
वैज्ञानिक से
पूछें, तो वह कहेगा,
अंधेरा
प्रकाश का ही
एक रूप है।
अंधेरे का
मतलब है, कम
से कम प्रकाश।
प्रकाश भी
अंधेरे का एक
रूप है।
प्रकाश का
अर्थ है, कम
से कम अंधेरा।
शायद प्रकाश
और अंधेरे में
समझने में
कठिनाई होती
है। विज्ञान
कहता है, गर्मी
और ठंडक एक ही
चीज के दो नाम
हैं, दो
चीजें नहीं
हैं।
कभी
ऐसा करें कि
एक हाथ को
बर्फ पर रखकर
ठंडा कर लें
और एक हाथ को
सिगड़ी पर रखकर
जरा तपा लें
और फिर दोनों
हाथों को एक
ही बाल्टी के
भरे हुए पानी
में डाल दें।
तब आप बड़ी मुश्किल
में पड़ जाएंगे; उसी
मुश्किल में,
जिसमें ऋषि
पड़ गए, जब
उनको अनुभव
हुआ अस्तित्व
का। तब आपसे
अगर मैं पूछूं
कि बाल्टी का
पानी ठंडा है
या गरम? तो
आप मुश्किल
में पड़ जाएंगे।
एक हाथ
कहेगा ठंडा और
एक हाथ कहेगा
गरम। क्योंकि
सब अनुभव
सापेक्ष हैं, रिलेटिव
हैं। अगर आपने
एक हाथ ठंडा
कर लिया है, तो पानी उस
हाथ को गरम
मालूम पड़ेगा।
जो हाथ आपने
गरम कर लिया
है, उस हाथ
को वही पानी
ठंडा मालूम
पड़ेगा। दोनों
हाथ आपके ही
हैं। आप क्या
वक्तव्य
देंगे कि पानी
ठंडा है या गरम?
तो आप
कहेंगे, एक
हाथ कहता है
ठंडा और एक
हाथ कहता है
गरम। और अगर
एक ही चीज के
संबंध में दो
हाथ दो खबर देते
हैं, तो
इसका मतलब हुआ
कि ठंडक और
गर्मी दो
चीजें नहीं
हैं, एक ही
चीज है।
बुराई
और भलाई भी दो
चीजें नहीं
हैं, एक
ही चीज है।
जिसको हम बुरा
आदमी कहते हैं,
उसका मतलब
है, कम से
कम भला। और
जिसको हम भले
से भला आदमी
कहते हैं, वह
भी कम से कम
बुरा है।
इसलिए आप बुरे
से बुरे आदमी
में भलाई खोज
सकते हैं, और
भले से भले
आदमी में
बुराई खोज सकते
हैं।
ऐसा
भला आदमी आप
नहीं खोज सकते, जिसमें
बुराई न हो।
और ऐसा बुरा
आदमी नहीं खोज
सकते, जिसमें
भलाई न हो।
इसका अर्थ
क्या हुआ? इसका
अर्थ हुआ कि
बुराई और भलाई
एक ही चीज के दो
विस्तार हैं,
एक ही चीज
का तारतम्य है।
दोनों एक का
ही, और उस
एक का नाम
हमने परमात्मा
दिया है।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, प्रारंभ
भी मैं ही हूं
मध्य भी मैं
ही हूं अंत भी
मैं ही हूं।
संसार भी मैं
ही हूं मोक्ष
भी मैं ही हूं
शरीर भी मैं
ही हूं आत्मा
भी मैं ही हूं।
इस जगत में जो
भी है, वह
मैं हूं।
इसे हम
ऐसा समझें, तो आसान
हो जाएगा।
हिंदू
चिंतन के लिए
अस्तित्व और
परमात्मा
पर्यायवाची हैं, सिनानिम
हैं। इसलिए जब
हम कहते हैं, ईश्वर है, तो गहन
विचार की
दृष्टि से
पुनरुक्ति हो
जाती है। जब
हम कहते हैं, गॉड इज, ईश्वर
है, तो
पुनरुक्ति हो
जाती है।
क्योंकि है का
मतलब हिंदू
विचार में
ईश्वर है। जो
भी है, वह
ईश्वर है।
होना ही ईश्वर
है। अगर इसको
हम ऐसा तोड़े, जब हम कहते
हैं, ईश्वर
है, तो
इसका अर्थ हुआ,
है है। या
इसका अर्थ हुआ,
ईश्वर
ईश्वर। यह
पुनरुक्ति है।
अस्तित्व
ही परमात्मा
है। साधक के
लिए इसका बहुत
गहरा मूल्य है।
इसका अर्थ यह
हुआ कि जब
आपको बुराई भी
दिखाई पड़े, तब भी आप
परमात्मा को
विस्मरण मत
करना। और गहरी
से गहरी बुराई
में भी अगर आप
परमात्मा को
देखते रहें, तो आपके लिए
बुराई
रूपांतरित हो
जाएगी। अगर आप
गहन से गहन
अंधेरे में भी
प्रकाश को स्मरण
रख सकें, तो
अंधेरा
तिरोहित हो
जाएगा, विपरीत
विलीन हो
जाएंगे।
लेकिन
हमारी तकलीफ
है। हम बुरे
से, जिसको
हम बुरा समझते
हैं, उससे
घिरे हुए लोग
हैं। फिर जब
हम बुरे से
परेशान हो
जाते हैं, तो
छोड्कर उसके
विपरीत हम भले
होने की कोशिश
में हैं।
हमारी भलाई
हमारी बुराई
के विपरीत
यात्रा होती
है। इसलिए हमें
लगता है कि
बुरे और भले
उलटे हैं, एक—दूसरे
के विपरीत हैं।
लेकिन जो
दोनों के पार
खड़े होकर
देखता है, उसे
पता चलता है, वे एक ही चीज
के दो छोर हैं।
हमारी
जिंदगी तो
विपरीत की तरफ
चलती रहती है।
आज हम बाएं
जाते हैं; घबड़ा
जाते हैं बाएं
जाने से, तो
दाएं जाने
लगते हैं।
शायद हम सोचते
हैं कि दाएं
जाना बाएं के
विपरीत है।
लेकिन दायां और
बायां एक ही
आकाश के आयाम
हैं। उत्तर
जाते हैं, घबड़ा
जाते हैं, दक्षिण
जाने लगते हैं,
तो सोचते
हैं, दक्षिण
उत्तर के
विपरीत है।
लेकिन उत्तर
और दक्षिण
दोनों एक ही
आकाश के छोर
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन मर
रहा है, आखिरी क्षण
है। उसके
मित्र उससे
पूछते हैं कि
नसरुद्दीन
तुम किस भांति
दफनाए जाना
पसंद करोगे? हमें कुछ कह
दो, तो हम
उस अनुसार
तैयारी करें!
तो नसरुद्दीन
ने कहा कि
मुझे तुम
शीर्षासन
करता हुआ दफना
देना; सिर
नीचे, पैर
ऊपर, अपसाइड
डाउन! मित्र
बड़े हैरान हुए।
उन्होंने कहा,
क्या कह रहे
हो? ऐसा
हमने कभी किसी
का दफनाया
जाना सुना
नहीं! नसरुद्दीन
ने कहा कि पैर
नीचे सिर ऊपर
इस जमीन पर
काफी रहकर देख
लिया, कुछ
पाया नहीं, अब उलटा
प्रयोग करके
देखें। सो फॉर
दि नेक्स्ट
वर्ल्ड, आई
वांट टु बी
अपसाइड डाउन;
वह जो दूसरा
लोक है, वहां
हम सिर के बल
होना चाहते
हैं। एक तो यह
अनुभव कर लिया,
यह बेकार
पाया। अब इससे
उलटा कर लें।
लेकिन
क्या आपने
खयाल किया है
कि चाहे आप
सिर के बल खड़े
हों और चाहे
पैर के बल, आप ही खड़े
होते हैं, जो
एक है। चाहे
सिर के बल खड़े
हो जाएं, चाहे
पैर के बल खड़े
हो जाएं; शरीर
उलटा हो जाता
है, आप जरा
भी उलटे नहीं
होते; सेंटर
अपनी जगह वैसा
का वैसा ही
रहता है।
बुरे
में भी
परमात्मा भला
उलटा खड़ा हो, इससे
ज्यादा कोई
फर्क नहीं है।
भले में सीधा
खड़ा हो, बुरे
में उलटा खड़ा
हो। और उलटा
और सीधा भी
परिभाषा की
बात है। किसको
हम उलटा कहें?
किसको
हम सीधा कहें? यह भी हम
पर निर्भर
करता है कि हम
कैसे खड़े हैं! अगर
आप शीर्षासन
लगाकर खड़े हों,
तो सारी
दुनिया आपको
उलटी मालूम
पड़े। यह आप पर
निर्भर करता
है। वह भी
सापेक्ष है।
लेकिन
हिंदू चितना
इस बात की
गहरी से गहरी
पकड़ रखती है
कि अस्तित्व
एक है। और हम
किसी चीज को
नहीं कहते कि
वह परमात्मा नहीं
है। किसी भी
बात को हम
परमात्मा से
नहीं काटते कि
वह परमात्मा
नहीं है। हम
परमात्मा के
अतिरिक्त और
किसी को भी
स्वीकार नहीं
करते। हमारा
परमात्मा सभी
को आच्छादित
कर लेता है, बाहर और
भीतर से घेर
लेता है।
उस एक
के लिए कृष्ण
कहते हैं, हे
अर्जुन, मैं
सब भूतों के
हृदय में
स्थित सबका
आत्मा हूं तथा
संपूर्ण
भूतों का आदि,
मध्य और अंत
भी मैं ही हूं।
शेष हम
कल बात करेंगे।
लेकिन
कोई उठे नहीं।
पांच
मिनट कीर्तन
का प्रसाद लें
और फिर जाएं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें