दिनांक
10 अक्टूबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
सदगुरु तोसोत्सु
ने तीन रोधक (ईंततपमते)
निर्मित
किये। और
उन्हें वे
साधुओं से पार
करवाते थे।
पहला
रोधक: झेन का
अध्ययन है।
झेन के अध्ययन
का उद्देश्य
है, अपने
ही सच्चे
स्वभाव का
दर्शन करना।
अब
तुम्हारा
सच्चा स्वभाव
क्या है?
दूसरा:
जब कोई अपने
सच्चे स्वभाव
को प्राप्त कर
लेता है तब वह
जन्म और
मृत्यु से
मुक्त हो जायेगा।
अब
जब तुम प्रकाश
को अपनी आंखों
से छिपा लेते हो
और एक लाश हो
रहते हो, तब तुम अपने
को कैसे मुक्त
कर सकते हो?
तीसरा:
यदि तुम अपने
को जन्म और
मृत्यु से मुक्त
कर लेते हो, तो तुम्हें
जानना चाहिये
कि तुम कहां
हो?
अब
तुम्हारा
शरीर चार
तत्वों में
अलग-अलग हो जाता
है।
तुम
कहां हो?
भगवान!
इन झेन रोधकों
को हमारे लिए
स्पष्ट करने
की अनुकंपा
करें।
दीया
तले अंधेरा, इस सिलसिले
की यह आखिरी
चर्चा है।
अंधेरा
तुम्हारे ही
कारण है।
अंधेरा
तुम्हारे
नीचे ही छिपा
है। ऐसा भी
नहीं है कि
अंधेरा छिपा
हो; तुमने
उसे छिपाया
है। तुम उसे
बचा भी रहे
हो। मिटाने की
तुम बात भी
करते हो पर
मिटाते नहीं।
क्योंकि उस
अंधेरे से बड़े
स्वार्थ का
जोड़ है। उस
अंधेरे में
तुम अपनी
आत्मा को ही
नहीं छिपा लिए
हो; अपनी बेईमानियां,
अपने पाखंड,
अपने धोखे
को भी छिपा
लिए हो। और जब
तक तुम धोखा, बेईमानी, अपने पाखंड
को उघाड़ने
को राजी न हो
जाओ, तब तक
आत्मा भी न उघड़ेगी।
अंधेरा
तो एक ही है।
तुम उसे तोड़ने
से क्यों डरते
हो? डर यह है
कि तुम्हारी प्रतिमायें
टूट जायेंगी।
डर यह है कि
तुमने अपने
आस-पास झूठ का
जो जाल बना
रखा है वह भी उघड़
जायेगा।
आत्मा को तो
तुम जानना
चाहते हो, लेकिन
झूठ का जाल
बिना तोड़े! यह
नहीं होगा। आत्मा
का जानना तभी
संभव होगा जब
तुम दूसरे
किनारे पर
अहंकार का
निर्माण करना
बंद कर दोगे।
और
क्या समय नहीं
आ गया कि तुम
तोड़ डालो
सारा जाल झूठ
का और अपने को
पहचान लो? काफी तुम
पीड़ा झेल चुके
हो...और कितनी
प्रतीक्षा? धर्म का
जन्म उस दिन
होता है, जिस
दिन तुम थक
जाते हो अपने
झूठ से। अभी
तुम थक नहीं
गये हो। अगर
नहीं थक गये
हो, तो
तुम्हारी सब
खोज व्यर्थ
है। वह शुरू
ही नहीं हुई।
एक
आदमी था, शेख
अब्दुल्लाह
उसका नाम।
उसके बारह
लड़के हुए।
उसने सभी का नाम
अब्दुल्लाह
जैसा रखा। ऐसे
नाम रखे जो
अल्लाह पर
पूरे होते
हैं। किसी का रहीमतुल्लाह,
किसी का हिदायतुल्लाह--इस
भांति। फिर
उसका तेरहवां
बच्चा पैदा
हुआ। तब वह
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
सब नाम चुक
गये, जो
अल्लाह पर
पूरे होते थे।
तो वह मुल्ला नसरुद्दीन
के पास गया।
भाग्य से मैं
मौजूद था उस
शुभ घड़ी में।
और उसने कहा नसरुद्दीन
से, 'बड़े
मियां! तेरहवां
लड़का पैदा हुआ,
अल्लाह में
पूरे होते
किसी नाम का
सुझाव दें; मैं तो थक
गया खोज-खोज
कर। सब नाम
चुक गये।'
नसरुद्दीन
ने बिना झिझके
आकाश की तरफ
देखा और कहा, 'तुम उसका
नाम रखो, बस
कर अल्लाह!'
जब
तुम्हारे
जीवन में ऐसी
घड़ी आ जाये जब
तुम कह सको, 'बस कर
अल्लाह', तभी
धर्म का
प्रारंभ है।
अभी तुम थके
नहीं। अभी तुम
अल्लाह से भी
कुछ झूठ चलाना
चाहते हो। अभी
तुम्हारी
प्रार्थना भी
संसार का अंग
है। अभी
तुम्हारी
पूजा भी धन के,
प्रतिष्ठा
के, यश के
सामने ही चल
रही है। अभी
तुम मंदिर भी
जाते हो तो
मांगने; देने
नहीं।
और
परमात्मा के
द्वार पर वही
पहुंच पाता है
जो देने गया
है, मांगने
नहीं। भिखमंगों
की वहां कोई
जगह नहीं है।
भिखारी हो कर
उस परम-सम्राट
से तुम मिलोगे
भी कैसे? उस
जैसा ही होना
पड़ेगा। कुछ तो
सम्राट जैसे
हो जाओ? उसी
अंश में तुम
परमात्मा
जैसे हो
जाओगे। मांगती
हुई प्रार्थनायें
उस तक नहीं पहुंचतीं।
सिर्फ
देनेवाली, अपने
को देनेवाली प्रार्थनायें
उस तक पहुंचती
हैं।
तुम्हारे
दीये के तले
अंधेरा है, क्योंकि
तुमने अभी यह
पहचाना ही
नहीं कि तुम ज्योति
हो। तुम यही
जानते हो कि
तुम मिट्टी का
दीया हो। और
मिट्टी का
दीया जब तक
तुम्हारे साथ
जुड़ा है, तब
तक अंधेरा
रहेगा। जिस
दिन तुम
निर्मल
ज्योति बचोगे,
मृण्मय छोड़
दोगे, चिन्मय
बचेगा; जिस
दिन तुम
मिट्टी के
दीये को छोड़
दोगे, और
भीतर की
ज्योति को ही
बचा लोगे; उस
दिन चारों तरफ
प्रकाश होगा।
उस दिन कहीं
भी अंधेरा न
होगा।
और जब
तुम्हारे
भीतर प्रकाश
हो तो
तुम्हारे बाहर
भी प्रकाश होता
है। क्योंकि
तुम जहां जाते
हो अपना प्रकाश
ले जाते हो।
तुम जहां चलते
हो, तुम्हारी
ज्योति चारों
तरफ प्रकाश
करती है।
अभी तो
तुम जहां जाते
हो, अपना
अंधेरा ले
जाते हो। तुम
जिसके जीवन
में प्रवेश
करोगे उसका
जीवन भी
मुश्किल में
पड़ जायेगा।
अभी तो तुम
दुर्भाग्य हो।
तुम जिसके साथ
जुड़ जाओगे उसे
भी मुसीबत में
डाल दोगे, क्योंकि
उसका जीवन भी
तुम्हारे
अंधकार से घना
हो जायेगा।
उसका अंधकार
तुम दुगुना
करोगे। अभी तो
तुम्हारे सभी
संबंध, तुम्हारे
सब मित्र, सब
प्रियजन
तुम्हारे
कारण भी नर्क
में पड़ेंगे, अपने कारण
तो वे पड़े ही हैं।
इसलिये
एक दुर्घटना
रोज घटती है
पृथ्वी पर। तुम
एक दूसरे का
हित करना
चाहते हो, लेकिन सिवाय
अहित के कुछ
भी नहीं होता।
तुम कितना ही
चाहो कि मैं
दूसरे को
प्रेम दूं।
तुम देते
प्रेम के ही
नाम से हो, पहुंचती
घृणा है। तुम
कितना ही चाहो
कि मैं दूसरे
पर करुणा करूं,
लेकिन
करुणा
करनेवाला
हृदय नहीं है।
करुणा तो तभी
हो सकती है जब
तुम्हारे
भीतर का सब
अंधेरा मिट
गया हो। तुम
करुणा नहीं कर
पाते। ज्यादा
से ज्यादा
करुणा के नाम
पर तुम दया कर
पाते हो। और
दया अपमान है।
दूसरे का
अपमान है। दया
के साथ अहंकार
जुड़ा है।
करुणा निरहंकार
चित्त का
प्रेम है।
करुणा
करनेवाले को
पता नहीं चलता
कि मैंने
करुणा की; दया
करनेवाले को
भारी रूप से
पता चलता है, कि मैंने
दया की। जितनी
वह करता है
उससे कई गुनी
उसे पता चलती
है कि मैंने
की।
इसलिए
तुम जिस पर
दया करोगे, वही
तुम्हारा
दुश्मन हो
जायेगा। जिस
पर तुम दया
करोगे, जिसे
तुम प्रेम
दोगे, तुम
पाओगे कि वही
तुमसे बदला
लेने को आतुर
है। यह
दुर्घटना
इसलिए घटती है
कि तुम्हारा
अंधेरा, तुम
जिसके पास
जाते हो, उसके
अंधेरे को और
बढ़ा देता है।
रोशनी
तुम्हारे
जीवन में
चाहिए। और
रोशनी मौजूद
है। सिर्फ
मिट्टी के
दीये से संबंध
तोड़ने की बात
है। यह भर
जानने की बात
है कि मैं यह
मृण्मय शरीर
नहीं हूं, मैं चिन्मय
आत्मा हूं।
जरा सी शिफ्ट,
जरा सा गेयर
बदलना है।
तुम्हारी
आंखें जड़ हो
गई हैं दीये पर।
और तुम इतने
भयभीत हो गये
हो, क्योंकि
तुम्हें खयाल
है कि अगर
दीया हट गया, अगर दीये
में भरा हुआ
तेल हट गया, तो ज्योति
बुझ जायेगी।
वहीं
तुम्हारी
भ्रांति है।
यह
ज्योति बुझनेवाली
नहीं है, जो
तुम्हारे
भीतर जल रही
है। यह जब
शरीर नहीं था
तब भी जल रही
थी। मां के
पेट में आने
के पहले भी यह
ज्योति संचरण
कर रही थी।
पिछले जन्म
में जब
तुम्हारी
मृत्यु हुई, तब मिट्टी
का दीया छूट
गया, तेल
छूट गया। उस
दीये में तेल
चुक गया, इसीलिए
तो दीया छूट
गया। यह
ज्योति मुक्त
हो गई उस देह
से। इसने नया
गर्भ लिया, नया दीया
पकड़ा, नये
तेल के साथ
जुड़ी। दीया
बहुत छोटा था।
खाली आंख से
देखा भी नहीं
जा सकता। उस
छोटे से दीये ने
भी इसको
जलाया। फिर
दीया बड़ा होने
लगा; बच्चा
हुआ, जवान
हुआ, अब
तुम बूढ़े होने
के करीब आ रहे
हो, फिर
दीया टूटेगा,
क्योंकि
तेल चुक
जायेगा।
ज्योति फिर
नये घर खोजेगी,
नये गर्भ खोजेगी।
यह
ज्योति तुम हो, जो
जन्मों-जन्मों
से अनंत की
यात्रा पर
निकली है।
जिसकी यात्रा
का कोई अंत
नहीं है। बहुत
दीये इसने
चुका दिए। न मालूम
कितने दीयों
में यह बसी, न मालूम
कितने घरों
में मेहमान
बनी। वे घर सब छूट
गये, यह अब
भी बनी है।
सारे धर्म की
खोज इस बात की
है, तुम्हारे
भीतर उस तत्व
को पहचान लेना
है, जो
मिटता नहीं है,
जो अमृत है।
जैसे
ही उसकी पहचान
आई कि फिर तुम
दीये का मोह
छोड़ देते हो।
फिर तुम
मृत्यु को, मरणधर्मा को नहीं पकड़ते।
फिर तुम अमृत
में आनंदमग्न
हो जाते हो।
और जैसे ही
तुम ज्योति के
साथ एक हुए
वैसे ही तुम्हारे
नीचे का
अंधेरा मिट
जाता है। जब
तक तुम दीये
के साथ एक हो
तब तक दीया तो
अंधेरा पैदा
करेगा। और
जितना बड़ा
दीया होगा उतना
बड़ा अंधेरा
नीचे होगा। और
अगर तुमने
दीये के साथ
अपनी
एकात्मता
इतनी साध ली
कि भूल ही गई ज्योति,
तो अंधेरा
ही अंधेरा
होगा।
ज्ञानी
कहते हैं भीतर
जाओ, वहां
परम-प्रकाश
है। तुम आंख
बंद करते हो, वहां सिवाय
अंधेरे के कुछ
भी नहीं पाते।
ये बुद्ध, ये
महावीर, ये
कृष्ण, ये
क्राइस्ट या
तो भ्रांति
में पड़ गये, या धोखा दे
रहे हैं लोगों
को। कहते हैं,
भीतर
परम-प्रकाश
है। और तुम तो
जब भी आंख बंद
करते हो, अंधेरा
पाते हो।
तुम्हें
प्रकाश बाहर
तो थोड़ा-बहुत
दिखाई भी पड़ता
है सूरज का, बिजली का।
लेकिन भीतर न
तो बिजली है न
सूरज, वहां
घना अंधकार
है।
यह
अंधकार इसलिए
नहीं है कि
बुद्ध और
महावीर झूठ
बोल रहे हैं, या किसी को
धोखा देना
चाहते हैं। यह
अंधकार इसलिए
है कि दीया
तुम्हारा
इतना बड़ा हो
गया है, और
ज्योति इस
बुरी तरह खो
गई है, और
ज्योति पर
तुम्हारा
ध्यान ही नहीं
जाता; एक।
और
दूसरा: तुम
बाहर की
ज्योति के
इतने आदी हो गये
हो, तुम्हारी
आंखें बाहर के
प्रकाश से
इतनी ज्यादा
भर गई हैं कि
भीतर का
सूक्ष्म-प्रकाश
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। तुम
स्थूल के आदी
हो गये हो।
तुम जड़ के आदी
हो गये हो।
और
भीतर का
प्रकाश तो बड़ा
धीमा है, मद्धिम
है। उसकी कोई
चोट नहीं है।
वह बड़ा अहिंसात्मक
है, उसमें
कोई त्वरा
नहीं है, आग
नहीं है। वह
ऐसा है जैसे
सुबह सूरज
नहीं ऊगता, रात जा चुकी
होती है, तब
ब्रह्म-मुहूर्त
में जैसा
प्रकाश होता
है। इसलिए तो
हिंदुओं ने
ब्रह्ममुहूर्त
को ध्यान का समय
चुना है।
क्योंकि उस
प्रकाश से
भीतर के प्रकाश
से थोड़ा
तालमेल है।
सूरज
ऊगा नहीं है; क्योंकि
सूरज के ऊगते
ही तप्त, त्वरा,
तीव्रता
पैदा हो
जायेगी। सूरज
ऊगा नहीं है, रात जा चुकी
है, इस काल
को हिंदू
संध्या कहते
हैं। इसलिए
हिंदू अपनी
प्रार्थना को
भी संध्या कहते
हैं। या फिर
सांझ को जब
सूरज डूब गया
और अभी रात
नहीं आ गई।
बीच में एक
मध्यकाल है, संधि है। उस
मध्यकाल में
जैसा प्रकाश
होता है--तीव्रता
शून्य। आग
नहीं होती उस
प्रकाश में, सिर्फ रोशनी
होती है। ठंडा
प्रकाश, ठीक
वैसा प्रकाश
तुम्हारे
भीतर है।
लेकिन
तुम बाहर के
प्रकाश के
इतने आदी हो
गये हो।
तुम्हें खयाल होगा, कभी गर्मी
के दिनों में
थके-मांदे
रास्ते की यात्रा
से, सूरज
की तेज जलती
आग के नीचे
तुम घर लौटे
हो। भीतर गये
हो, एकदम
अंधकार मालूम
होता है। आंख
बाहर के सूरज से
इतनी आदी हो
गई, फिर
तुम थोड़ा
विश्राम करते
हो, सुस्ताते
हो, धीरे-धीरे-धीरे
आंख भीतर के
प्रकाश को
देखना शुरू
करती है।
धीरे-धीरे
अंधेरा मिटता
है, कमरे
में एक रोशनी
आती है।
ऐसे ही
भीतर जब तुम
पहली दफे आंख
बंद करोगे, सिर्फ
अंधेरा
पाओगे। और यह
अंधेरा बहुत
घना मालूम
होगा।
क्योंकि
जन्मों-जन्मों
से तुम बाहर
ही यात्रा कर
रहे हो। क्षण
भर तुम आंख
बंद करते हो, अंधेरा पाकर
आंख खोल कर
फिर बाहर चले
जाते हो। कहते
हो, ये
बुद्ध और
महावीर पर
भरोसा नहीं
आता, भीतर
तो अंधेरा है।
वक्त
लगेगा। आंख को
थोड़ा राजी
होने दो। आंख
को थोड़ा एडजस्ट--समायोजित
होने दो।
इसलिए ध्यान
में समय लगता
है। और
प्रतीक्षा
जरूरी है।
जैसे-जैसे तुम्हें
भीतर सांध्यकालीन
प्रकाश दिखाई
पड़ेगा, जिसमें
आग नहीं है, सिर्फ रोशनी
है, आभा है;
वैसे-वैसे
दीये से संबंध
टूटेगा, प्रकाश
से संबंध जुड़ेगा।
गेयर
बदलेगा भीतर,
और एक बार
ज्योति के साथ
एक हुए फिर
तुम्हारे तले
कोई अंधेरा
नहीं है। फिर
न तुम केवल
खुद प्रकाश से
भरे रहोगे, तुम्हारा
प्रकाश बाहर
भी गिरेगा।
तुम जिसके पास
जाओगे उसको भी
तुम्हारे
प्रकाश का दान
मिलेगा।
अब हम
इस छोटी सी
झेन कथा को
समझने की
कोशिश करें।
यह बड़ी कीमती
कथा है।
सदगुरु तोसोत्सू
ने तीन रोधक (ईंततपमते) निर्मित
किए। और
उन्हें वे
साधुओं से पार
करवाते थे।
सदगुरु
का काम ही कुल
इतना है कि वह
रोधक तैयार
करे और तुम्हें
पार करवाये।
रोधक तैयार
करने पड़ते हैं, क्योंकि तुम
सहज नहीं हो।
अन्यथा इतना
कहना काफी है
कि भीतर चले
जाओ। पर उतना
तुम्हें सुनाई
न पड़ेगा।
तुम्हें भीतर
जाने के लिए
भी यात्रा
करवानी
पड़ेगी। यात्रा
के तुम इतने
आदी हो गये हो
कि अपने घर
आने के लिए भी
तुम थोड़ा
चलोगे, तभी
आ सकोगे।
यह ऐसा
है; अगर मैं
तुमसे कहूं कि
तुम घर में ही
बैठे हो, तो
तुम भरोसा ही
न करोगे। बैठे
तुम घर में ही
हो। जहां
तुम्हें जाना
है वहीं तुम
हो। कहीं और
जाने को कोई
जगह है भी
नहीं। लेकिन
यात्रा के तुम
इतने आदी हो
गये हो कि तुम
कहते हो कि
कुछ रास्ता तो
बताओ। कैसे
अपने तक
पहुंचूं।
तुम्हें देख
कर मुझे एक
कहानी सदा याद
आती है।
एक
आदमी शराब पी
गया। पहुंच
गया टटोलता
टटोलता अपने
घर। दरवाजे पर
तो खड़ा हो गया, लेकिन उसे
भरोसा न आया
कि यह मेरा घर
है। तो वह छाती
पीट-पीट कर
चिल्लाने लगा
कि मैं भटक
गया हूं, कोई
मुझे मेरे घर
पहुंचा दे।
उसकी मां ने
दरवाजा खोला।
वह बूढ़ी औरत, उसने कहा, बेटा तू यह
क्या कह रहा
है? यही
तेरा घर है।
उसने
गौर से देखा, और उससे कहा
कि मां, तेरी
ही जैसी मेरी
एक मां है। वह
रास्ता देखती
होगी। बूढ़ी है,
परेशान हो
रही होगी। अब
देर न करो, बातचीत
में समय मत
गंवाओ। मेरे
घर मुझे पहुंचा
दो, कोई
रास्ता बताओ।
उसने उस बूढ़ी
के पैर पकड़
लिए और कहा कि
तू दया कर और
मुझे रास्ता
बता। मुहल्ले
के लोग इकट्ठे
हो गये। सभी
ने कहा कि यही
तेरा घर है, लेकिन वह
सुने ही न।
उसे तो एक
खयाल पकड़ गया
है कि मैं भटक
गया हूं।
तुम्हें
भी एक खयाल
पकड़ गया है कि
तुम भटक गये हो।
और तुम्हारा
नशा तुम्हारे
खयाल को मजबूत
कर रहा है।
आखिर नहीं
माना तो एक
आदमी बैलगाड़ी
जोत कर आ गया।
उसने कहा कि
चल बैठ, तुझे
पहुंचा देते
हैं। उसने कहा,
गुरु तो यह
है। कोई न
मिला
पहुंचाने
वाला, तूने
बड़ी कृपा की।
उसकी मां कहने
लगी, नासमझ!
इसकी गाड़ी में
मत बैठना।
क्योंकि अगर तू
चलेगा और गाड़ी
में यात्रा
करेगा तो घर
से दूर निकल
जायेगा, क्योंकि
यहां तू है
ही। उसने कहा,
'बूढ़ी, तू
चुप भी रह।
मेरी मां मेरी
राह देखती
होगी।' वह
उस बैलगाड़ी
में बैठ गया।
और उस बैलगाड़ी
वाले आदमी ने
कई चक्कर घर
के लगाये, फिर
जब उसे द्वार
पर लेकर खड़ा
किया, उसने
कहा, 'धन्यवाद।'
तुम्हें
कितना ही
समझाया जाये
कि तुम कहीं
भटक नहीं गये
हो, तुम मानने
को राजी नहीं।
तुम्हें थोड़ी
यात्रा करवानी
जरूरी है। बैलगाड?ी पर चढ़ाना
पड़े।
तुम्हारे ही
घर के कुछ
चक्कर लगवाने
पड़ें, तब
तुम्हें
भरोसा आये।
तुम यात्रा के
दीवाने हो।
तुम्हारा
तर्क यह है कि
बिना चले
पहुंचेंगे
कैसे?
और
जिंदगी में इस
तर्क के लिए
कारण भी है।
क्योंकि जब भी
तुम चले, तभी
तुम पहुंचे
कहीं। धन
चाहिए तो चलना
पड़ा, पद
चाहिए तो बड़ी
यात्रा करनी
पड़ी, यश
चाहिये तो
बहुत भटकना
पड़ा।
द्वार-द्वार
दस्तक दी, तब
कहीं मुश्किल
से थोड़ा यश
कमा पाये। और
परमात्मा
जैसा परमधन
और बिना चले
मिल जायेगा? यह आदमी
पागल हो गया है,
जो ऐसा कहता
है। तुम उस
गुरु को खोजोगे
जो बैलगाड़ी
जोत कर खड़ा
है। जो कहेगा,
'आओ बैठ
जाओ। मैं
तुम्हें पहुंचाये
देता हूं।' और तुम्हें
जो जितने
चक्कर दिलाये
ज्यादा, उतना
तुम्हें
भरोसा आयेगा
कि ठीक है। अब
मंजिल करीब आ
रही होगी, क्योंकि
यात्रा काफी
हो रही है।
तुम
जहां हो वहीं
मंजिल है।
वहां से तुम
क्षण भर को भी
हटे नहीं हो।
हट नहीं सकते
हो। स्वभाव का
अर्थ ही यही
है कि जिसे हम
खो न सकें।
जिसे तुम खो
दो वह स्वभाव
नहीं है। तुम
अपने को कैसे खोओगे? तुम कहीं भी
जाओ, तुम
तो साथ ही
रहोगे। चाहे
तुम वेश्यालय
में बैठो, चाहे
हिमालय चले
जाओ।
वेश्यागृह
में भी तुम
अपने उतने ही
पास हो जितने
हिमालय में।
क्योंकि तुम
तो तुम्हारे
भीतर हो। सब
छोड़ जाओगे--घर,
द्वार, मकान,
लेकिन अपने
को कैसे छोड़
जाओगे? जन्मों-जन्मों
से तुम सब
छोड़कर यात्रा
करते रहे हो, लेकिन तुम
तो साथ ही हो।
अपने से भागने
की जगह कहां
है? अपने
से भागने का
उपाय कहां?
यह बात
समझ में नहीं
आयेगी। तुम
कहोगे, होगा!
लेकिन कुछ
रास्ता तो
बतायें। कैसे
अपने तक
पहुंचूं? इसलिए
गुरु निरोध
खड़े करता है।
रोधक बनाता है।
कठिनाइयां
खड़ी करता है।
वह कहता है, इनको पार
करो, तब
पहुंचोगे।
सारा योग-शास्त्र
रोधक है। कहता
है, शीर्षासन
करो, आड़े-तिरछे होओ, तब तुम्हारी
अक्ल में
घुसती है बात,
कि बात ठीक
है। जितनी
कठिन तुमसे
तपश्चर्या करवाई
जाये, उतना
तुम्हें
भरोसा आता है।
और वे सब
चक्कर हैं बैलगाड़ी
पर बिठाकर
घुमाने के।
इसलिए
सीधा-सादा
गुरु तो
तुम्हें जंचेगा
ही नहीं।
क्योंकि वह
कहेगा, कहीं
जाना नहीं है।
तुम पहुंचे
हुए हो। इस पर तुम्हें
भरोसा नहीं आ
सकता कि मैं
और पहुंचा हुआ?
तुमने अपनी
इतनी निंदा की
है, तुमने
अपना इतना
विरोध किया है,
तुमने अपने
को इस बुरी
तरह दूषित और
कुत्सित मान
लिया है, तुम
जैसा पापी और
पहुंचा हुआ? तुम कहोगे, यह महात्मा
खुद भटका हुआ
है। मैं और
पहुंचा हुआ? यह असंभव
है।
तुम्हारी
अपनी ही आंख
में अपनी ही
कोई प्रतिष्ठा
नहीं है। कोई
सम्मान नहीं
है। तुमने कभी
भी अपनी तरफ
आदर के भाव से
नहीं देखा है।
तुम अपने
प्रति बड़ी
निंदा से भरे
हो। और भरने का
कारण है। भरने
का कारण यह है
कि तुमने अपने
संबंध में
इतने झूठ प्र्रचलित
कर रखे हैं।
तुमने अपने
संबंध में
इतना पाखंड
निर्मित कर
रखा है। और
तुम उस पाखंड
को ही समझते
हो कि मैं हूं, इसलिए
उपद्रव है।
इसलिए निंदा
होती है। तुमने
इतनी चोरी की
है, अगर
मैं तुमसे कहूं
कि तुमने कभी
चोरी की ही
नहीं, तुम
मेरी कैसे
मानोगे? तुमने
इतनी हत्या की
है कि मैं
तुमसे कहूं
तुमने इतनी
हत्या की ही
नहीं, तुम
मेरी कैसी
मानोगे?
कृष्ण
वही अर्जुन को
कह रहे थे, 'तू घबड़ा मत।
तू युद्ध में
उतर जा।
क्योंकि तू करने
वाला ही नहीं
है। इसलिए पाप
तुझे न लगेगा।'
अर्जुन
कैसे माने? वह कहता है
कि पाप मुझे
लगेगा। इतने
लोगों को मारूंगा--प्रियजन,
अपने
संबंधी, सगे,
गुरुजन, साथी;
नहीं, इनको
मैं मारूंगा,
पाप लगेगा।
कृष्ण कह रहे
हैं कि तू मार
ही नहीं सकता।
कृत्य तेरे वश
में नहीं है।
कर्म तू कर
कैसे सकता है?
तू तो केवल
निमित्त-मात्र
है। करनेवाला
तो वही है।
लेकिन
तुमने इतने
पाप किए हैं।
अर्जुन तो भविष्य
के पाप से डर
रहा है। उसका
डर समझ में
आता है। तुमने
अतीत में इतने
पाप किए हैं
कि तुम यह मान
नहीं सकते कि
तुम परमात्मा
हो। तुम्हें बैलगाड़ी
में बैठाकर
काफी चक्कर
लगवाने
पड़ेंगे।
तुम्हारा
अपने पर भरोसा
खो गया है। यह
समझ लेना। यह
बहुत गहरा है।
और जरूरी याद
रखना है। तुम्हारा
अपने पर भरोसा
खो गया है। और
जिस आदमी का
अपने पर भरोसा
खो जाये, बड़ी
कठिनाई खड़ी हो
जाती है।
क्योंकि अपने
पर भरोसे के
बिना तो कुछ
भी नहीं हो सकता।
आत्मविश्वास
खो गया है।
तुम्हारी
अपने पर कोई
आस्था नहीं
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
रोज शराब घर
जाता, लेकिन
पीने के पहले
एक क्रियाकांड
करता था। आखिर
शराब घर के
मालिक का
कुतूहल न रुका।
रोज अपने खीसे
से एक मेंढक
निकाल कर अपने
टेबल पर रख
लेता। शराब
पीता, पीता
रहता, फिर
मेंढक को
उठाकर खीसे
में रखकर चला
जाता। ऐसा रोज
होता।
स्वभावतः शराबगृह
के मालिक ने
एक दिन कहा कि नसरुद्दीन,
इसका राज
हमें भी
समझाओ। यह
मेंढक का रोज
निकालना, फिर
खीसे में रखना,
इसका मतलब
क्या है? नसरुद्दीन ने कहा, मेंढक
को निकाल कर
रखता हूं फिर
मैं पीना शुरू
करता हूं। जब
एक मेंढक की
जगह मुझे दो दिखाई
पड़ने लगते हैं,
तब मैं समझ
लेता हूं अब
कुछ करना
जरूरी है। तो उस
मालिक ने पूछा
फिर क्या करते
हो? उसने
कहा, फिर
दोनों को उठा
कर खीसे में
रख लेता हूं
और घर चला
जाता हूं।
जितनी
तुम्हारी
मूर्च्छा
होगी उतनी
चीजें जैसी
हैं वैसी
दिखाई नहीं
पड़ेंगी। और इस
आदमी को यह भी
पता है कि
मेंढक एक है।
लेकिन वह भी
कह रहा है कि
फिर दोनों को
उठा कर खीसे
में रख लेता
हूं। क्योंकि
जब दो दिखाई
पड़ते हैं, तो क्या
किया जा सकता
है? आत्मविश्वास
खो जाता है, भरोसा टूट
जाता है।
तुमने
अपने साथ जो
भी किया है
जन्मों-जन्मों
में, उसका एक
परिणाम बड़े से
बड़ा जो हुआ है,
जो सबसे
ज्यादा
आत्मघाती है,
वह यह है कि
तुम्हारी
अपने पर
श्रद्धा खो गई
है। हर घड़ी
तुम झूठ, बेईमानी
का सहारा ले
रहे हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के घर चोरी
हुई। और दूसरे
दिन चोर पकड़
भी लिया गया।
तो वह गया
पुलिस थाने, थानेदार की
आज्ञा लेकर
भीतर गया। चोर
के पैर पकड़ कर
बैठ गया। चोर
तो बहुत हड़बड़ाया।
उसने कहा, 'क्या
बात है?' नसरुद्दीन ने कहा, 'भैया,
एक तरकीब
मुझे भी बता
दे। किस भांति
तू घर में घुसा?
बड़ा गजब का
आदमी है। इसी
तरह मैं भी
घुस जाऊं और
पत्नी को पता
न चले। बस, यह
राज बता दे।'
तुम
जीवन में अगर
कुछ भी सीख
रहे हो तो बस, धोखा!
तुम्हारी
सारी कुशलता,
चालाकी, होशियारी,
दूसरे को
धोखा देने पर
निर्मित है।
लेकिन ध्यान
रखना, जब
तुम दूसरे को
इतना धोखा
दोगे, तो
तुम्हारी
अपने पर
श्रद्धा खो
जायेगी। और धोखा
देने से जो
मिलता है वह
ना-कुछ है। और
खुद की श्रद्धा
खो जाने से जो
खो जाता है, वह बहुत कुछ
है। तुम बड़े
सस्ते में
अपने को बेचे
डाल रहे हो।
बेच ही डाला
है।
इसलिए
अगर मैं तुमसे
कहूं कि तुम
परमात्मा हो, तुम कहोगे, होगी
सिद्धांत की
बात, शास्त्रों
में लिखी है, मगर जंचती
नहीं है। जंचती
नहीं है, इसलिए
नहीं कि तुम
परमात्मा
नहीं हो; बल्कि
इसलिए, कि
इस परमात्मा
होने और इस
परमात्मा के
छिपाने में
इतना समय हो
गया है। और
तुम इतने काम
कर चुके हो और
उनका जाल तुम
अपने चारों
तरफ खड़ा कर चुके
हो। वही
तुम्हारा कर्मजाल
है।
इसलिए
गुरु को
तुम्हारा कर्मजाल
तोड़ने के लिए
भी नये कर्मजाल
खड़े करने पड़ते
हैं। जैसे एक
कांटा लगा हो
तो दूसरे
कांटे को
खोजना पड़ता
है--कांटे से
कांटा निकालने
के लिए। दूसरे
कांटे का कोई
भी मूल्य नहीं
है। दूसरा
कांटा उतना ही
कांटा है
जितना पहला
कांटा! पहले
को निकाल कर दूसरे
को उस घाव में
मत रख लेना कि
इसने बड़ी कृपा
की; कि इसने
एक कंाटे
से छुटकारा
दिला दिया।
बहुत लोग वही
कर रहे हैं।
कांटे से
कांटा निकल
जाये, दोनों
फेंक देना। बस,
बेकांटा हो जाना ही
समाधिस्थ हो
जाना है।
इस सदगुरु
तोसोत्सू
ने तीन रोधक
निर्मित किए।
वह अपने हर
साधक को कहता
था, तीन बाधायें
हैं। और इनको
तुम पार हो
जाओ, तो
तुम पहुंच गये
मंजिल पर।
मंजिल
पर पहुंचने के
लिए कोई बाधा
आवश्यक नहीं
है। लेकिन
तुम्हें तो
तीन सौ रोधक
बनाने पड़ें, तब पहुंच
पाओगे। वही
गोरखधंधा
मुझे करना पड़ता
है। बनाना
पड़ता है रोधक,
कूदो इस पर,
जाओ इसके
पार। कूदने से
तुम कहीं
पहुंचोगे नहीं,
वहीं
पहुंचोगे
जहां तुम हो।
पर कूदना
जरूरी है।
कूदने में
शायद नशा उतर
जाये। बैलगाड़ी
में चक्कर
लगाने से शायद
होश आ जाये।
और शायद लगे
कि इतनी
यात्रा कर ली
तो अब मंजिल आ
गई होगी।
वह
आदमी लौट आया
अपने घर। मां
के पैरों पर
गिर पड़ा और
उसने कहा कि
हद हो गई। बड़ा
भटक गया था।
बिलकुल तेरी
जैसी एक
स्त्री थी उस
घर में। और वह
कहती थी यहीं
रुक जाओ, यही
तेरा घर है।
अगर रुक जाता
तो बड़ी
मुश्किल हो
जाती, यहां
तक कभी न
पहुंच पाता।
और मुहल्ले के
नासमझ लोग!
मैं उनसे कह
रहा हूं, मैं
खुद कह रहा
हूं, मैं
भटक गया हूं, वे मेरी
सुनते नहीं और
कहते हैं यही
तेरा घर है।
वह सारा
मुहल्ला मेरे
खिलाफ साजिश
कर रहा है ऐसा
मालूम होता
है। षडयंत्रकारी
हैं वे। वे
मुझे धोखा
देना चाहते
थे। मगर मैं भी
एक आदमी हूं।
मैंने एक की न
सुनी--नशे में
था फिर भी एक की
न सुनी--नशे
में था फिर भी
वे मुझे धोखा
न दे पाये। वह
तो संयोग की
बात, कोई
आदमी मिल गया,
बेचारा यह
गाड़ी पर बिठा
लाया, इसका
बड़ा अनुग्रह
है। यह सदगुरु
जैसा है। तो
अपने घर लौट
आया, नहीं
तो लौट नहीं
सकते थे।
पहला
रोधक: झेन का
अध्ययन। झेन
के अध्ययन का
उद्देश्य है
अपने सच्चे
स्वभाव का
दर्शन करना।
अब तुम्हारा
सच्चा स्वभाव
क्या है?
तो सदगुरु
कहता है कि
पहला पड़ाव
जिसे पार करना
है, वह है झेन
का अध्ययन।
झेन के अध्ययन
का अर्थ है, झेन-शास्त्रों
का अध्ययन
नहीं; झेन
का अध्ययन है,
स्वभाव का
अध्ययन। वह है
स्वाध्याय, स्वयं का
अध्ययन। और
स्वयं के
अध्ययन के दो
हिस्से हैं।
पहला हिस्सा;
तुमने अपने
संबंध में जो
भ्रांतियां
खड़ी कर
रखी हैं और
जिन
भ्रांतियों
में तुम खुद
भी खो गये हो...।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रास्ते से
गुजर रहा है।
अकेला है। और
कुछ आवारा
लड़कों ने उसे
घेर लिया है।
और वे उसका
मजा लेना
चाहते हैं। तो
उनसे छुटकारा
पाने के लिए नसरुद्दीन
ने कहा कि
तुम्हें पता
है, मैं कहां
जा रहा हूं? आज राजमहल
में भोज है और
सभी को
निमंत्रण है,
बेशर्त! जो
भी आना चाहे आ
जाये। इतना नसरुद्दीन
कह भी न पाया
था कि लड़के
राजमहल की तरफ
भागे। जब सारे
लड़कों को उसने
राजमहल की तरफ
भागते देखा तो
उसने सोचा हो
न हो, बात
सच ही है।
नहीं तो इतने
लोग! वह भी
भागा। उसने
कहा, जाने
में हर्ज क्या
है!
पहले
तुम दूसरे को
धोखा देना
चाहते हो।
देते-देते तुम
खुद धोखा खा
जाते हो।
क्योंकि जब
दूसरों को
भरोसा आ जाता
है तो तुम्हें
भी भरोसा आ
जाता है।
भरोसा
संक्रामक है।
इसलिए तुम जो
झूठ बहुत दिन
तक बोलते रहे
हो, तुम्हें
पक्का याद
नहीं रह जाता,
कि वह झूठ
है या सच है।
एक
आदमी ने हत्या
की। उस पर
अदालत में
मुकदमा चला।
मुकदमा लंबा
चला। कई गवाह
थे, कई वकील
थे, जो
मारा गया वह
बड़ा पैसेवाला
आदमी था।
जिसने मारा वह
भी बड़ा धनपति,
प्रतिष्ठित
आदमी था।
मुकदमा भारी
था। कोई तीन
साल के बाद, निर्णय तो
दूर, जैसा
कि अक्सर
अदालत में
होता है सब
चीजें और संदिग्ध
हो गईं। जितने
गवाह आये एक
दूसरे के विपरीत
थे। फाइलें
इकट्ठी होती
गईं, निर्णय
दूर रहा, आखिर
मैजिस्ट्रेट
घबड़ा गया और
उसने कहा, 'दिखता
है इस सब से हल
नहीं होगा। तो
मैं तुमसे ही
पूछता हूं,' हत्यारे से
उसने कहा, 'तुम
सच-सच बता दो
और हम निर्णय
कर दें। अब
कोई उपाय नहीं
दिखता और।
जितना खोजा
उतने भटक गये।
और यह तो जंगल
में जैसे
रास्ता न
मिलता हो, ऐसी
हालत आ गई। अब
तुम पर ही
निर्भर है।'
उस
आदमी ने कहा, 'कि यही अगर
था, तो
पहले ही पूछ
लेना था। मैं
खुद ही उलझ
गया। पहले
मुझे भी भरोसा
था कि हत्या
की है, लेकिन
तीन साल अदालत
की कार्रवाई,
वकीलों के
जवाब-सवाल, अब तो मुझे
भी शक हो गया।
तुमने देर कर
दी। अब तो
पक्के
विश्वास से
मैं नहीं कह
सकता कि मैंने
की या नहीं की!
तीन साल पहले
मुझे खयाल था।
वह भ्रांति ही
रही होगी।'
हर
आदमी की
जिंदगी में
ऐसा घटता है।
धीरे, धीरे,
धीरे झूठ
बहुत बार
पुनरुक्त
होने पर जड़
जमा लेता है।
जब दूसरे उस
पर भरोसा करते
हैं, और
उनकी आंखों
में भरोसा
दिखाई पड़ता है,
तुम्हारी
आंखें भी
भरोसे से भर
जाती हैं।
जब कोई
व्यक्ति
स्वयं के
अध्ययन में
उतरेगा, स्वाध्याय
करेगा, तो
पहले तो इस
जाल के भीतर
प्रवेश करना
पड़ेगा, जो
तुमने झूठ का
खड़ा कर रखा
है। यही
कठिनाई है।
इससे तुम पार
हो गये, इस
दलदल से पार
हो गये, फिर
तो स्वच्छ
सरोवर है।
पर यह
दलदल बड़ा है।
और इसी से पार
होने में हिम्मत
की जरूरत है।
क्योंकि बड़ी
पीड़ा होगी। जब
तुम पाओगे कि
तुमने अपने
संबंध में जो
सत्य मान रखे
थे, वे सभी
झूठ हैं। जब
तुम पाओगे
खोजते-खोजते
हर चीज के
पीछे झूठ है।
जब तुम कहीं
भी कोई सत्य तस्वीर
न पाओगे। जब
तुम अपने पीछे
जाते-जाते
पाओगे कि मैं
एक लंबी झूठ
हूं। झूठों का
एक जोड़ हूं, एक पाखंड
हूं, मेरी
मुस्कुराहट
सच्ची नहीं, मेरी आंखों
की चमक सच्ची
नहीं, मेरा
प्र्रेम
सच्चा नहीं, कुछ भी
सच्चा नहीं
है। जब तुम
पाओगे मेरे
सारे अंतर्संबंध,
परिवार, समाज
सब धोखा है।
और हर चीज के
नीचे कहीं कोई
आधार नहीं है,
सब निराधार
खड़ा है। तुम
बहुत घबड़ा
जाओगे।
यही घबड़ाहट से
गुजर जाये जो, वह तपस्वी
है। अपने ही
बनाये गये
असत्यों को तोड़ने
में पीड़ा होनी
स्वाभाविक
है। बड़ा संताप
होगा।
जन्मों-जन्मों
की जमी धूल
उठेगी। घबड़ा कर
अगर तुम लौट
आये वापिस, क्योंकि तुम
पाओगे कि इससे
तो पहले ही सब
ठीक था। कम से
कम निश्चिंत
शांत भाव से
जीते तो थे, संतोष था।
सब टूट
जायेगा।
क्योंकि
तुम्हारा संतोष
झूठा है।
तुम्हारी
सांत्वना
झूठी है। इसीलिए
तो आदमी भीतर
जाने में डरता
है। और यही
तपश्चर्या
है।
सदगुरु
पहला रोधक खड़ा
करता है और वह
रोधक है, स्वाध्याय;
कि तुम अपने
सामने नग्न
खड़े हो जाना। घबड़ाना
मत। और इसीलिए
गुरु की
आवश्यकता है,
क्योंकि
तुम घबड़ाओगे।
तुम्हारा
प्राण पसीने
से भर जायेगा।
रोआं-रोआं कंपेगा
और भयभीत होने
लगोगे।
क्योंकि
तुम्हें लगेगा,
यह तो सब
गया। यह मेरी
पूरी प्रतिमा
गिरी जाती है।
और तुम्हें लगेगा,
मेरे हाथ
में अब कुछ भी
नहीं बचा। सब
खोया जा रहा
है। सब शून्य
हुआ जा रहा
है।
निश्चित
ही, आधे चरण
में शून्य
होगा। अगर आधे
चरण को तुम पार
कर गये तो शेष
आधे चरण में
पूर्ण
उतरेगा। लेकिन
तुम्हारा
शून्य हो जाना
जरूरी है, तभी
पूर्ण उतर
सकता है। और
तुम्हारे झूठ
गिर जाने
जरूरी हैं, तभी सत्य का
संस्पर्श
होगा। इसकी
हिम्मत रखनी
जरूरी है।
यह तो
सुनने में
बहुत मजा आता
है कि तुम
ब्रह्म हो, आत्मा हो, शुद्ध चित्त
हो। सुनने से
कुछ भी न
होगा। तुम्हें
पहले तो जानना
पड़ेगा कि तुम जैसा
झूठा आदमी
खोजना कठिन
है। और उन
चीजों में भी
तुम्हें पाना
पड़ेगा जिनमें
कि तुम साधारणतः
नहीं सोचते, कि तुम झूठ
बोल रहे हो।
तुम घर
आये, छोटा
बच्चा दरवाजे
पर खड़ा है, तुम
मुस्कुरा कर
उसकी पीठ थपथपा
देते हो। तुम
कभी खयाल ही
नहीं करते कि
न तुम मुस्कुरा
रहे हो, न
तुम्हारे पीठ
के थपथपाने
में प्रेम है।
और तुम यह कभी
नहीं सोचते कि
मैं अपने
बच्चे से
क्यों झूठ
बोलूंगा? दूकान
पर बोलता हूं
ठीक है; लेकिन
अपने बच्चे से
क्यों
बोलूंगा? उसे
तो प्रेम करता
हूं।
लेकिन
तुम जरा गौर
से देखना, तुम पाओगे न
तो हाथ ने
थपथपाया, न
होठों पर
मुस्कुराहट
थी। यह सिर्फ
एक खेल का हिस्सा
है जो तुम रोज
अदा करते हो।
और
बच्चे इसे
पहचान लेते
हैं। क्योंकि
बच्चा जानता
है, कब हाथ की
थपथपाहट में
प्रेम होता है
और कब हाथ
खाली है।
दोनों की
ध्वनि अलग है।
दोनों की तरंगें
अलग हैं। जब
हाथ खाली होता
है तो बच्चा
जानता है, क्योंकि
हाथ में कुछ
भी नहीं बजता।
कोई आनंद, कोई
पुलक नहीं।
हाथ मुर्दा
होता है। हाथ
से बच्चे को
कुछ मिलता
नहीं। हाथ से
बच्चे में कुछ
भरता नहीं।
उलटा यह भी हो
सकता है कि
तुम्हारा
खाली हाथ
बच्चे की खुशी
को थोड़ा खींच
ले। और उसे
पहले से भी कम
कर जाये। और
जब तुम झूठी
मुस्कुराहट
हंसते हो तब
बच्चा देख
लेता है कि वह
मुस्कुराहट
तुम्हारे ओंठ
पर है लेकिन
भीतर नहीं। तब
उसे कोई तृप्ति
नहीं होती। तब
वह जानता है
कि तुम झूठ
हो। और
धीरे-धीरे वह
भी इसी झूठ को
सीखना शुरू कर
देता है।
एक
छोटी सी लड़की, मुश्किल से उम्र
बारह वर्ष! एक समुद्रत्तट
पर एक मिनी
बिकिनी पहने
हुए टहल रही
थी। छोटे से
छोटी, जो
कुछ भी नहीं ढांकती।
एक पुलिसवाले
ने उसे देखा
तो वह बहुत
नाराज हुआ। और
उसने कहा कि
लड़की, अगर
तेरी मां को
पता चल जाये
तो वह क्या न
कहेगी तुझसे।
लड़की ने कहा
कि बहुत कुछ
कहेगी, क्योंकि
यह बिकिनी उसी
की है।
मां
हैं, बेटियां हैं, बाप
हैं, बेटे
हैं। सब एक ही
संसार के
हिस्से हैं।
सब एक ही झूठ
का फैलाव है।
बड़ा कंपन होगा,
जब तुम अपने
को देखना शुरू
करोगे। तब
तुम्हारा
सारा
व्यक्तित्व
पारदर्शी
होगा, तुम
वैसे ही घबड़ाओगे
जैसा कि
वेटिकन के पोप
ने इनकार कर
दिया था देखने
से।
गैलीलियो
के दूरदर्शक
यंत्र से पोप
ने झांकना मना
कर दिया था।
गैलीलियो
कहता था कि यह
पृथ्वी चक्कर
लगती है सूरज
का। और
गैलीलियो
कहता था कि
सारे चांदत्तारे, जैसा
शास्त्रों
में वर्णित
हैं वैसे नहीं
हैं, बड़े
भिन्न हैं। और
इन चांदत्तारों
पर देवताओं का
वास नहीं है, ये शून्य
पड़े हैं। उस
पर नाराजगी थी
पोप की कि ये
गलत बातें हैं,
क्योंकि
शास्त्र इससे
भिन्न बातें
कहते हैं। तो
वह अपने
दूरदर्शक
यंत्र को लेकर
आया, और
उसने पोप से
कहा, आप
इससे झांककर
खुद देख लें।
पोप ने कहा कि
तू मुझे धोखा
देने की कोशिश
मत कर। जरूर
इसमें कोई
कारस्तानी
होगी। और जब
मेरे पास आंख
खुद हैं, तो
मैं इससे
क्यों झांकूं?
पोप
डरा कि हो
सकता है इससे
झांकने पर जो
गैलीलियो
कहता है वह
सही हो। हम सब
भी डरते हैं
झांकने से।
स्वाध्याय से
हम बहुत भयभीत
होते हैं। तुम
अगर चौबीस घंटे
भी अपना
अध्ययन करो तो
तुम बड़े चकित
हो जाओगे, कि तुम क्या
कर रहे हो? क्यों
कर रहे हो? किसलिए
इतना झूठ, किसलिए
इतना पाखंड? किसलिए ये
चेहरे-मुखौटे?
इनसे क्या
मिलेगा? और
इन सबमें तुम
खो गये हो! फिर
तुम पूछते
फिरते हो कि
मैं कौन हूं? फिर तुम्हें
पता भी नहीं
चलता कि तुम
कौन हो!
एक
आदमी के संबंध
में मुझे
मालूम है--एक
बड़ा दार्शनिक
था। पर
करीब-करीब सभी
दार्शनिक ऐसे
होते हैं।
उसकी बड़ी
मुसीबत थी। और
मुसीबत यह थी कि
रात जब वह
कपड़े उतारकर
रख देता था तो
दूसरे दिन
सुबह पहनते
वक्त भूल जाता
था कि कौन सा कपड़ा कहां
पहनना
है--पाजामा
नीचे पहनना कि
ऊपर, कमीज
नीचे डालना कि
ऊपर--बायें, दायें? बंडी
अंदर पहनना कि
ऊपर--कोट? और
कई कपड़े--ठंडे
मुल्क का
निवासी--मोजा
कभी इस पैर का
उस पैर
में--हाथ का
मोजा कभी इस
हाथ में, उस
हाथ में--सब
गड़बड़ हो जाते!
इसलिए अक्सर
सब कपड़े पहने,
मय जूते सोता
था।
फिर
उसके मित्रों
ने कहा कि यह
भी हद्द हो
गई--इससे तुम
सो भी नहीं
पाते। उसने
कहा, यही तो
मुसीबत है; लेकिन अगर
सबको उतारकर
रख दें तो रात
भर बेचैनी
रहे--कि सुबह
झंझट खड़ी होगी।
उन मित्रों ने
कहा, तुम
ऐसा क्यों
नहीं करते कि
सभी चीजों पर
लेबल लगा
दो--ये दायें
पैर का जूता, ये बायें
पैर का जूता।
उसने कहा, यह
बात जंचती
है कि पहले
बंडी, फिर
कमीज, फिर
कोट--इस तरह, टाई बांधना
इस तरह।
उसने
एक रात बड़ी
मेहनत से सब
चीजें लिख कर
रख दीं। और
बड़ा प्रसन्न
सोया, नग्न
सोया उस रात।
और बिलकुल
आनंद से सोया
कि अब कोई डर
नहीं है।
सुबह
सब चीजें ठीक
थीं--सब उसने
एक-एक चीजें
देखी--सब लिखी
हैं--सब
बिलकुल ठीक
हैं। तभी उसे
अचानक खयाल
आया कि एक बात
तो मैं भूल
गया--'मैं कहां
हूं?' यह तो
मैं भूल ही
गया! किसको पहनानी
हैं ये?
और
जिंदगी के अंत
में तुमको भी
यह पता चलेगा।
सब तुमने
इकट्ठा कर
लिया, सब
लेबल लगा
दिये--सब
साज-सामान
तैयार
है--लेकिन तुम
कहां हो?
पहला
रोधक: अध्ययन
करना अपना।
शास्त्र के
अध्ययन से कुछ
न होगा। असली
शास्त्र तुम
हो।
पहला
चरण बड़ा कठिन
होगा। इस चरण
में ही गुरु के
सहारे की
जरूरत है, जो तुम्हारी
हिम्मत बंधाये
रखे--कि कोई
फिकर न करो, जल्दी-जल्दी
मंजिल आयी जा
रही है। इस
चरण में ही
गुरु की जरूरत
है, जो
तुम्हारी
हिम्मत बंधाये
रखे, क्योंकि
हिम्मत वहां
बड़ी काम आती
है।
वैज्ञानिक
एक प्रयोग कर
रहे थे कि
हिम्मत सच में
दूसरे की बंधायी
हुई काम आती
है या नहीं
आती है।
उन्होंने एक छोटा
सा प्रयोग
किया। पांच
मेंढक
उन्होंने
गर्म उबलते
पानी में डाल
दिये। और जब
वे बिलकुल
मरने के करीब
थे, तड़फ रहे थे, बस,
आखिरी घड़ी आ
गई, सांस
टूटने लगी, तब उनको
निकाल लिया।
फिर ये
पांच मेंढक और
पांच नये।
पांच अनुभवी और
पांच
गैर-अनुभवी
उन्होंने
उबलते हुए
पानी में डाले।
जो पांच
गैर-अनुभवी थे, मर गये
जल्दी। जिन
पांच को यह
खयाल था कि
बचाने की
संभावना है, वे बचे।
पुराने अनुभव
ने साथ दिया, कि कोई बचानेवाला
है। वे आखिरी
दम तक लड़े।
क्योंकि
भरोसा है कि आखिरी
क्षण में बचा
लिए जायेंगे।
लेकिन पहले पांच,
जो
गैर-अनुभवी थे,
उनको कोई
भरोसा नहीं
बचने का। कोई
बचाने वाला भी
नहीं। वे डूब
मरे।
बिना
गुरु के अक्सर
शिष्य दलदल
में भटक जाता
है। इसलिए
उतरना ही नहीं
अच्छा है।
झंझट में पड़ना
ही नहीं
बेहतर। फिर
संसार ही
बेहतर है। फिर
स्वयं की तरफ
जाना खतरनाक
है। क्योंकि
तुम विक्षिप्त
होकर लौटोगे, अकेले गये
तो। लौट भी
आओगे तो फिर
ऐसे न रहोगे जैसे
अब हो।
क्योंकि अपने
सब झूठ देख कर
आ जाओगे। पैर
कंप जायेंगे।
पूरा भवन हिल
जायेगा। जैसे
एक भूकंप आ
गया। सब चीज
अस्त-व्यस्त
हो जायेगी।
फिर तुम लौट
भी आओगे, तो
भी तुम्हारी
दशा
विक्षिप्त की
होगी। इसलिए
बिना गुरु के
बहुत से शिष्य
विक्षिप्त हो
जाते हैं। न
तो इस संसार
के रह जाते, न उस संसार
के रह जाते। न
घर के, न
घाट के, बीच
में खड़े रह
जाते हैं। और
बड़ी मुसीबत हो
जाती है। इससे
तो बेहतर
संसार में
चुपचाप चलते रहना
अच्छा है। कम
से कम कहीं तो
हो! कुछ तो
मानते हो कि
ठीक है। वह
झूठ ही हो, सपना
ही सही, लेकिन
अकेले अगर
भीतर चले गये
तो सपना भी
पता चल जाता
है। और घबड़ा
कर वापिस आ
गये सत्य जानने
के पहले, तो
बड़ी कठिनाई
में पड़ जाओगे।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि पागलखानों
में बंद नब्बे
प्रतिशत लोग
ऐसे हैं, जिन्होंने
जीवन के सत्य
की थोड़ी सी
झलक पा ली।
तुम हैरान
होओगे यह सुन
कर, पश्चिम
में बड़ा विचार
चलता है कि
पागलखाने में
हमने जिनको
बंद किया है, वे सच में सब
पागल हैं? या
उनमें से अधिक
लोग ऐसे हैं, जिन्हें
जीवन का सत्य
थोड़ा सा दिखाई
पड़ गया, झूठ
उखड़ गये जिनके?
तुम्हीं
सोचो, अगर
तुम चौबीस घंटे
सचाई का
प्रयोग करो और
झूठ बिलकुल
बंद कर दो, तो
सारी दुनिया समझेगी कि
तुम पागल हो
गये। सुबह ही
तुम रास्ते पर
निकलोगे और एक
आदमी आता है, तुम्हारे मन
में होता है, यह दुष्ट
कहां से दिखाई
पड़ गया सुबह!
हालांकि जब
तुम मिलते हो
तब नमस्कार
करके कहते हो
कि बड़ी कृपा
हुई कि सुबह
से दिखाई पड़
गये, शुभ
दर्शन हुआ। आज
का दिन अच्छा
जायेगा। काश! तुम
सच ही कह दो, कि यह अपनी शनीचरी
शकल क्यों
सुबह से
दिखाते हो? गया, खराब
हुआ यह पूरा
दिन अब। कम से
कम सुबह तो घर
के बाहर न
निकला करें।
चौबीस
घंटे अगर तुम
तय कर लो कि सच
ही कहोगे, तुम पागल हो
जाओगे।
तुम्हारे घर
के लोग ही तुम्हें
बांध कर कोठरी
में बंद कर
देंगे। झूठ हो,
तो तुम ठीक
हो। सच हुए, तो तुम पागल
हो जाओगे।
क्योंकि लोग
कहेंगे, यह
जरूर कुछ गड़बड़
हो गई।
क्योंकि
चारों तरफ झूठ
का समाज है।
इस समाज में
जागना बड़ा
कठिन है।
इसलिए
कोई गुरु
चाहिए, जो
तुम्हें झूठ
के पार ले
जाये। और तब
तक तुम्हारा
साथ दे जब तक
तुम्हें सच का
पता न चल जाये।
क्योंकि यह
झूठ जिसको
तुमने अभी सच
समझ रखा है, जिससे तुम एडजस्टेड
हो, समायोजित
हो, टूट
जाये और नये
सत्य का अनुभव
न हो। यह नाव
छूट जाये, माना
कि कागज की है,
तो भी नाव
तो है! और असली
नाव न मिले।
यह घाट खो जाये
और दूसरे
किनारे का पता
न मिले और तुम
मझधार में पड़
जाओ। दूसरा
किनारा जरूर
है, लेकिन
दूसरे किनारे
तक जाना तो
पड़ेगा। और यह
किनारा छोड़ना
खतरे से खाली
नहीं है।
सामान्य
आदमी बिना
गुरु के
चेष्टा करे तो
विक्षिप्त हो
जायेगा। अगर
गुरु के साथ
चेष्टा करे तो
विमुक्त हो
जायेगा।
विमुक्त और
विक्षिप्त दो अवस्थायें
हैं तुमसे
अलग। तुम
दोनों में से
किसी में भी जा
सकते हो। और
इसलिए एक-एक
कदम सम्हाल कर
रखना जरूरी
है। कोई जो जा
चुका हो, कोई
जो तुमसे आगे
हो, जिसने
दूसरा किनारा
देखा हो, जिसे
रास्ते का पता
हो, जो कम
से कम इतना तो
कर ही सके कि
तुम्हें भरोसा
दे सके, कि घबड़ाओ मत।
बस, जरा और!
बुद्ध
एक गांव के
करीब आ रहे
थे। एक किसान
मिला। पूछा, 'गांव कितनी
दूर है?' उसने
कहा कि बस
करीब है। बस, एक दो मील
होगा। दो मील
खतम हो गये, गांव का कोई
पता नहीं। फिर
किसी एक
देहाती से
पूछा, जो
खेत में काम
कर रहा था।
उसने कहा, कि
बस, दो मील
है। फिर दो
मील खतम हो
गये। आनंद
बहुत गुस्सा
होने लगा।
उसने कहा, यह
इलाका बिलकुल
झूठ बोलने
वालों का
मालूम पड़ता
है। दो मील की
जगह चार मील
चल चुके और
गांव का तो
कोई ठिकाना
नहीं है।
तीसरे आदमी से
पूछा, उसने
कहा, 'बस, अब पहुंच ही
रहे हो, बस
दो मील है।'
बुद्ध
हंसने लगे।
आनंद क्रोधित
हो गया। बुद्ध
ने कहा, तू
समझ। ये लोग
बड़े होशियार
हैं। इन्हीं
ने हमको चार
मील चला दिया
बिना थके। और
इतना तो पक्का
है कि गांव
करीब आ रहा
है। हम गांव
से दूर नहीं
जा रहे हैं।
इतना तो पक्का
है कि हम जहां
के तहां हैं, क्योंकि दो
मील--दो मील--दो
मील--इतना
क्या कम है कि
हम गांव से
दूर नहीं हुए
जा रहे हैं? कई लोग चल-चल
कर गांव से
दूर हो जाते
हैं। तो बुद्ध
ने कहा, एक
बात तो पक्की
है, कि हम
उसी जगह हैं कम
से कम। भला
आगे न गये हों,
लेकिन दो ही
मील फासला है।
और ये गांव के
लोग बड़े
होशियार हैं।
बड़े दयालु, राहगीर पर
दया करते हैं।
इनके सहारे हम
पहुंच जायेंगे।
परमात्मा
पास भी है और
दूर भी। पास
इतना है कि उससे
पास और कुछ
नहीं हो सकता।
दूर इतना है
कि उससे दूर
कुछ और नहीं
हो सकता। जब
पहुंच जाओगे
तो पाओगे बिलकुल
पास है। जब तक
नहीं पहुंचे
तब तक उससे
दूर कुछ भी
नहीं है। और
गुरु की करुणा
तुम्हें कहे
जायेगी: बस, अब पहुंच ही
जाते हो, जरा
फासला और है।
जरा हिम्मत!
दो कदम और! दो
हाथ मारे नहीं
कि पहुंचे
नहीं। किनारा
बिलकुल पास आ
गया है।
किनारा
पास भी है, दूर भी है।
गुरु झूठ भी
नहीं बोलता।
हजार बातों पर
निर्भर है कि
किनारा
मिलेगा कि
नहीं मिलेगा।
लेकिन सबसे
महत्वपूर्ण
बात यह है कि
कोई तुमसे कहे
जाये, कि
किनारा दूर
नहीं है। कोई,
जिस पर
तुम्हें
श्रद्धा हो।
इसलिए
श्रद्धा का
बड़ा मूल्य है,
क्योंकि
तुम्हारी
श्रद्धा न हो
तो वह कितना ही
कहे पास है, इससे कोई हल
न होगा। तुम
जानोगे कि
बहुत दूर है।
और यह आदमी, जिस पर
तुम्हें
श्रद्धा नहीं
है, यह
कहता है पास, तो और पक्का
समझो कि दूर
ही होगा।
गुरु
पर श्रद्धा न
हो, तो गुरु
व्यर्थ है।
उसका कोई उपयोग
नहीं है।
इसलिए जिस पर
तुम्हारी
श्रद्धा हो
उसके पास
जाना। जिस पर
तुम्हारी
श्रद्धा न हो
उससे दूर ही
रहना।
क्योंकि उससे
कुछ हल न होगा।
अंततः
तुम्हारी
श्रद्धा ही
तुम्हें गुरु
से जोड़ती है, गुरु का
ज्ञान नहीं।
क्योंकि उसके
ज्ञान का तो
तुम्हें पता
भी कैसे चल सकता
है? एक बात
का ही तुम्हें
पता चल सकता
है, कि
मेरी श्रद्धा
है या नहीं।
तुम्हारी
श्रद्धा जहां
हो वह आदमी
गलत भी हो, तो
भी तुम दूसरे
किनारे पहुंच
जाओगे।
क्योंकि
श्रद्धा पहुंचाती
है। और आदमी
सही भी हो, तुम
बुद्ध के पास
ही खड़े हो, और
तुम्हारी
श्रद्धा नहीं
है, तो कुछ
हल न होगा।
कोई हल न
होगा।
बहुत
लोग बुद्ध के
पास रहे और न
पहुंचे।
बुद्ध का
चचेरा भाई था
देवदत्त, वह
कभी न पहुंचा।
वह चचेरा भाई
था, वही
उपद्रव हो
गया। क्योंकि
उसको सदा ऐसा
लगा कि जैसे
तुम हो, वैसे
मैं हूं। तुम
कहां के बड़े
ज्ञानी? मेरे
भाई हो। उसने दीक्षा
भी बुद्ध से
ली, तो भी
वह चाहता था
कि बुद्ध की
ही प्रतिष्ठा
उसको भी मिले;
जो कि असंभव
थी! क्योंकि
एक दीया जिसके
नीचे अंधेरा
नहीं और एक
दीया जो
बिलकुल
अंधेरे से भरा
हो। वे दोनों
दीये एक ही घर
में पैदा हुए
हों, इससे
क्या फर्क
पड़ता है?
आखिर
उसने एक गिरोह
इकट्ठा कर
लिया। और
बुद्ध के पास
भी इतने लोग
मिल गये, यह
हैरानी की बात
है। पांच सौ
लोग उसे मिल
गये बुद्ध के
भिक्षुओं में,
जो बुद्ध से
अतृप्त थे। वे
देवदत्त के
शिष्य हो गये।
और देवदत्त ने
अलग घोषणा कर
दी कि मैं बुद्ध-पुरुष
हो गया हूं।
मैं खुद तथागत
हूं और पांच
सौ उसके शिष्य
भी थे। बुद्ध
से किसी ने
कहा कि यह तो
बड़ी अनहोनी
बात है, आपके
पांच सौ शिष्य
और उसके साथ
चले गये नासमझ?
बुद्ध
ने कहा, पांच
सौ गये इससे
मुझे हैरानी
होती है। पांच
हजार भी जा
सकते हैं।
क्योंकि सवाल
मेरा नहीं है,
सवाल
श्रद्धा का
है। जिनके पास
श्रद्धा है वे
ही केवल मेरे
पास रुकें
तो कोई अर्थ
है, जिनकी
मुझ पर
श्रद्धा नहीं
है वे कहीं भी
जायें, वे
कोई भी मार्ग
खोजें। लेकिन
बिना श्रद्धा
के तो कहीं भी
मार्ग नहीं
मिलेगा। अगर
उन पांच सौ की
श्रद्धा
देवदत्त पर हो,
तो भी वे
पहुंच
जायेंगे। उस
आदमी ने पूछा,
लेकिन
देवदत्त तो
खुद अज्ञानी
है। उन्होंने कहा,
'उसका कोई
बड़ा सवाल नहीं
है।'
यह बड़ी
हैरानी की बात
है। कभी-कभी
अज्ञानी गुरु
के कारण भी
शिष्य पहुंच
गया है। और कई
बार ज्ञानी
गुरु के
बावजूद भी
शिष्य नहीं
पहुंच पाया
है। श्रद्धा पहुंचाती
है। तो जिस पर
तुम्हारी
श्रद्धा, वह
गुरु। और
श्रद्धा इतनी
बड़ी घटना है
कि निश्चित
पहुंचा देती
है। और
अश्रद्धा भी
इतनी बड़ी घटना
है कि तुम
किनारे को पकड़
कर ही रुके
रहते हो।
अश्रद्धा के
कारण तुम कभी
पैर ही नहीं
उठाते पानी
में।
पहला
रोधक सदगुरु
ने कहा है, झेन के
अध्ययन को।
झेन के अध्ययन
का उद्देश्य
है अपने सच्चे
स्वभाव का दर्शन
करना। अब
तुम्हारा
सच्चा स्वभाव
क्या है?
यह तोसोत्सु
पहले लोगों से
कहता है कि
स्वभाव का
अध्ययन करो।
आंख बंद करो
और बस, यही
देखते जाओ, क्या है
तुम्हारे
भीतर।
पर्त-पर्त उघाड़ो,
पहचानो। और
तब वह पूछता
है कि तुम्हारा
सच्चा स्वभाव
क्या है?
स्वभावतः
तुम खोज-खोज
कर उत्तर
लाओगे, और
हर उत्तर गलत
होगा, क्योंकि
सच्चा स्वभाव
शून्यता है।
सच्चे स्वभाव
का तुम कोई
उत्तर नहीं ला
सकते। सच्चे
स्वभाव को
किसी दिन ले
कर आ सकते हो।
किसी दिन तुम
शून्य-भाव से
गुरु के पास आ
जाओगे और वह समझ
लेगा कि सच्चा
स्वभाव क्या
है! जब तक तुम
कोई भी उत्तर
लाते हो, तुम
हो सकता है आ
कर कहो, कि
मैं आत्मा हूं,
शरीर नहीं।
गुरु कहेगा, भाग जाओ।
शास्त्र पढ़ा
है, स्वयं
को अभी नहीं
पढ़ा। तुम आकर
कहोगे कि 'मैं
चैतन्य हूं, चेतना हूं, सच्चिदानंद
हूं, यह
देह मरणधर्मा,
यह मन, विचार,
मैं नहीं।'
गुरु कहेगा,
यह भी विचार
ही है, अभी
लौट जाओ।
क्योंकि जब
तुम शून्य
होकर आओगे...।
तुमने
देखा है? जब
घड़ा शून्य
होता है तो
कोई आवाज नहीं
उठती। या जब
घड़ा पूर्ण
होता है तब भी
कोई आवाज नहीं
उठती। जब घड़ा
आधा भरा रहता
है, तब बड़ा
शोरगुल होता
है। आवाज उठती
है। तुम्हारे
मन की आवाज
इसीलिए उठ रही
है कि घड़ा आधा
भरा है। इसलिए
मन में इतने
विचार हैं, इतनी तरंगें
हैं। या तो
पूरा भर लो, या पूरा
खाली कर दो।
दोनों हालत
में मन शून्य हो
जायेगा।
झेन
पद्धति पूरा
खाली करने की
है। वेदांत की
पद्धति पूरा
भरने की है।
पर दोनों का
परिणाम एक है।
मतलब इतना है
कि घड़े से
कोई आवाज न
उठे, बस! जिस
दिन आवाज उठनी
बंद हो, उत्तर
न आये, उसी
दिन समझना कि
उत्तर है। तो
जब तुम शून्य
हो कर गुरु के
पास आ
जाओगे--सूने घड़े की
भांति। तुम
आओगे, बैठोगे
और लगेगा, जैसे
तुम हो ही
नहीं। जैसे कोई
आया नहीं, कोई
गया नहीं।
कभी
तुमने खयाल
किया? तुम
मुझसे भी
मिलने आते हो,
तब भी तुम
शांत होते हो?
तुम तैयारी
करके आते हो
घर से, क्या
उत्तर देना, क्या मैं पूछूंगा,
क्या
तुम्हें
पूछना, तुम
सब तैयारी
करके आते हो।
तुम्हारे मन
में बड़ा
शोरगुल होता
है। तुम आते हो,
तो तुम
इंतजाम करके
आते हो। योजना
बना कर आते हो।
वह योजना, इंतजाम
ही तो
तुम्हारा
भरापन है, अहंकार
है। तुम ऐसे
नहीं आ जाते
जैसे सूना घड़ा
आये। बस, आकर
तुम बैठ जाओ।
न कोई योजना, न कोई विचार,
न कोई
तैयारी, न
कोई ढंग, न
कोई
औपचारिकता।
बस, तुम
आकर बैठ जाओ, जैसे तुम हो
ही नहीं। जैसे
कोई आया नहीं।
कोई तरंग न
उठी तुम्हारे
आने से। कोई
चहलकदमी न
मची। तुम
शून्य थे। जिस
दिन तुम ऐसे आ
जाओगे, उस
दिन गुरु
पूछेगा भी
नहीं कि
तुम्हारा
सच्चा स्वभाव
क्या है? तभी
तक पूछेगा, जब तक तुम
कुछ लेकर आ
रहे हो। जिस
दिन तुम ऐसे आ जाओगे,
तुम्हें
सच्चे स्वभाव
का पता चल
गया।
दूसरा
रोधक: जब कोई
अपने सच्चे
स्वभाव को
प्राप्त कर
लेता है तब वह
जन्म और
मृत्यु से
मुक्त हो जाता
है। अब जब तुम
प्रकाश को
अपनी आंखों से
छिपा लेते हो
और एक लाश हो
रहते हो, तब
तुम अपने को
कैसे मुक्त कर
सकते हो?
जब
सच्चा स्वभाव
पता चल जायेगा, तब तुम्हें
यह भी पता चल
जायेगा कि न
तुम्हारी कोई
मृत्यु है न
कोई जीवन है।
न तुम कभी
जन्मे और न
कभी तुम मरे।
न तुम जन्म
सकते हो, न
मर सकते हो।
ये घटनायें
सतह पर घटती
हैं, तुम्हारे
केंद्र पर
नहीं। तुम सदा
अछूते, अस्पर्शित
रह गये हो। तो
गुरु कहता है,
दूसरी बात:
अब तो तुम एक
लाश जैसे हो
गये। क्योंकि
शरीर के भीतर
अब तुम्हारा
संबंध न रहा।
तुमने उसे जान
लिया, जो
अशरीरी है।
स्वभाव को
पहचान लिया।
शरीर तो खोल
रह गया।
वस्त्र रह गये,
मुर्दा।
जैसे आदमी
भीतर से चला
गया और कपड़े
टंगे रह गये।
जैसा खेत में
किसान करता
है। एक झूठा
आदमी बना देता
है। एक हंडी
लगा देता है
डंडे पर, एक
कुरता पहना
देता है। जिस
दिन तुम्हारे
भीतर से
अहंकार चला
गया, तुम
बस, खेत के
आदमी हो गये।
तुम्हारे
भीतर कोई भी
नहीं है। और
यह शरीर तो एक
मुर्दे की तरह
हो गया।
तो
गुरु दूसरा
अवरोधक पार
करने को कहता
है। वह कहता
है, अब, जब
कि तुम एक
मुर्दे की
भांति हो गये,
एक खेत के
आदमी हो गये, जिसके भीतर
कोई भी न बचा, तब तुम अपने
को मुक्त कैसे
कर सकोगे? क्योंकि
मुर्दा कैसे
मुक्त करेगा?
मुक्त करने
के लिए तो कुछ
करना पड़ेगा।
करनेवाला तो
बचा नहीं।
यह
प्रश्न बड़ा
महत्वपूर्ण
है, लेकिन
पहले प्रश्न
को हल कर लेने
के बाद ही महत्वपूर्ण
है। अगर शिष्य
सोचने लगे कि
कैसे मुक्त
करूंगा? तो
उसका अर्थ हुआ
कि उसने जो
शून्यता साधी
थी, वह भी
साधी हुई थी।
वास्तविक
नहीं थी। तुम
शून्यता भी
साध सकते हो।
चेष्टा कर-कर
के मन के
विचार दबाये
जा सकते हैं।
चेष्टा
कर-करके अहंकार
भी त्यागा जा
सकता है।
लेकिन यह
स्थूल में ही
घटेगा।
सूक्ष्म में
दमन रह
जायेगा। उस दमन
को मिटाने के
लिए दूसरा
रोधक है।
अगर
तुम सोचने लगे
कि हां, यह
बात तो बड़ी
सवाल की है, कि शून्य तो
हो गये, स्वभाव
का पता चल गया,
अब मुक्त
कौन होगा? क्योंकि
शरीर तो मरा
हुआ पड़ा है।
अब क्रिया करने
की जगह न रही।
अगर तुमने
सोचा, तो
जाहिर हो गया,
कि पहली जो
घटना घटी वह
घटी नहीं है।
तुमने चेष्टित
किया, आयोजित
की है। वर्षों
श्रम करके कोई
चाहे तो शून्य
जैसा हो
जायेगा।
लेकिन वह
शून्य प्रयत्न-साध्य
होगा। और
प्रयत्न-साध्य
शून्य वास्तविक
नहीं होगा। उस
प्रयत्न को
गिराने के लिए
दूसरा सवाल
है। अगर शून्य
वस्तुतः घट गया
है, तो तुम
हंसोगे और तुम
कहोगे, अब
मुक्ति की
जरूरत किसे? जिससे मुक्त
होना था, हो
ही गये। अब
मुक्त होने को
कोई बचा नहीं।
झेन का
बड़ा प्रसिद्ध
कथन है, 'मैं'
को मुक्त
नहीं करना है,
'मैं' से
मुक्त होना
है। फिर से दोहराऊं:
'मैं' को
मुक्त नहीं
करना है, 'मैं'
से मुक्त
होना है।
लेकिन
तुम्हारी तो
मुक्ति की भी
धारणा ऐसी होती
है कि कम से कम
तुम्हारा 'मैं'
तो बचेगा।
मोक्ष में
शरीर न होगा, तुम तो
होओगे। कम से
कम मैं तो
बचूंगा। उसी
को तुम अपनी
आत्मा कहते
हो। ठीक, मान
लिया कि शरीर
चला जायेगा, मन चला
जायेगा, लेकिन
मैं?
और
बौद्ध विचार
बड़ा गहरा है।
बुद्ध ने कहा
है, जब तक तुम
हो, तब तक
बंधन है। जब
तक तुम हो तब
तक संसार है।
जब तक तुम हो
तब तक अमुक्ति
है। इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, वहां
तुम भी न
बचोगे। वहां
कोई 'मैं' न होगा। 'मैं'
से मुक्ति
ही निर्वाण
है।
इसलिए
बुद्ध का
विचार इस
मुल्क से तो
उठ ही गया।
क्योंकि इस
मुल्क की
धारणा थी कि
सब छूट जायेगा, लेकिन मैं
तो बचूंगा
मोक्ष में।
लेकिन बुद्ध कहते
हैं, अगर
तुम ही बच गये
तो वही तो रोग
है। तुम सब
रोग फिर से खड़े
कर लोगे। बीज
बच गया।
एक
वृक्ष मरने के
करीब आता है, तो अपने
सारे
जीवन-सत्व को
इकट्ठा करके
बीज में
संगृहीत कर
देता है।
वृक्ष तो मर
जाता है, बीज
जमीन में गिर
जाता है। उस
बीज में से
फिर अंकुर आ
जाता है। फिर
वृक्ष खड़ा हो
जाता है।
वृक्ष करता
क्या है बीज
में? जो
सार है उसका, उस सबको निचोड़
कर इकट्ठा कर
देता है। फिर
समय पा कर वह
सार फिर से
प्रकट हो
जायेगा।
अहंकार
तुम्हारा बीज
है। हर वक्त, जब तुम मरते
हो तब
तुम्हारा
जीवन-वृक्ष
सारे अनुभव को
निचोड़ कर
तुम्हारे
अहंकार में रख
देता है। वह
अहंकार फिर
नया गर्भ ले
लेता है। नया
अवसर पा कर
फिर वृक्ष
फल-फूल जाता
है। बुद्ध
कहते हैं, जब
तक निर्बीज न
हो जाओ, तब
तक कोई हल
नहीं है।
इसलिए
दूसरा रोधक
है। गुरु
पूछता है, कि अब तुम
मुर्दे की
भांति हो गये।
यह तो बताओ, अब तुम अपने
को मुक्त कैसे
करोगे? और
अगर तुम
सोच-विचार में
पड? गये तो
तुमने खबर दे
दी कि पहली
घटना झूठ थी।
लेकिन खूब
साधी थी, कुशलता
से साधी थी।
गुरु को भी
संदेह खड़ा कर
दिया था। यह
कसौटी है
दूसरा रोधक; पहले रोधक
में वस्तुतः
सफलता मिली या
नहीं मिली।
अगर वस्तुतः
सफलता मिली तो
तुम कहोगे, अब किसको
चाहिए मुक्ति?
जो मुक्ति
के लिए
लालायित था वह
रहा ही नहीं। जो
मुक्ति की
आकांक्षा
करता था वह
बीज ही खो गया।
अब न कोई बंधन
है, न
मोक्ष।
तुम्हारा
मोक्ष भी बंधन
का ही एक रूप
है। तुम्हारा
मोक्ष भी
संसार का ही
एक रूप है।
तुम अपने
मोक्ष में भी
वही मांग रहे
हो, जो
तुम्हें
संसार में
नहीं मिला है।
वह तुम्हारी
वासनाओं का ही
विस्तार है।
वह वास्तविक मोक्ष
नहीं है। वह
तुम्हारे
संसार का ही
प्रतिफलन है।
जो-जो तुम्हें
यहां नहीं
मिला, वह-वह
तुम वहां मांग
रहे हो। मोक्ष
तुम्हारे मन
का ही फैलाव
है।
और फिर
तीसरा रोधक है, यदि तुम
अपने को जन्म
और मृत्यु से
मुक्त कर लेते
हो तो तुम्हें
जानना चाहिए,
कि तुम कहां
हो?
हो
सकता है, दूसरे
रोधक पर भी
साधक तैयारी
कर ले। समझो, मैंने
तुम्हें
कहानी तो समझा
दी, सूत्र
समझा दिया, अब हो सकता
है तुम साध कर
आ जाओ। पहला
रोधक भी पार
कर जाओ धोखे
से, पीछे
के दरवाजे से।
वस्तुतः पार
नहीं हुआ, लेकिन
तुम साध कर आ
गये। तुम
दूसरा रोधक भी
हो सकता है, साध जाओ।
तुम कहो, किसको
मुक्त होना है?
कोई बचा ही
नहीं। यह भी
बौद्धिक हो
सकता है। तो
तीसरा रोधक है,
तुमने अपने
को जन्म और
मृत्यु से
मुक्त कर लिया;
अब तुम्हें
जानना चाहिए,
कि तुम कहां
हो?
अब
तुम्हारा
शरीर चार
तत्वों में
अलग-अलग हो गया, तुम कहां हो?
इस
फर्क को
समझें। सारी
दुनिया में
सिर्फ बौद्धों
को छोड़ कर लोग
पूछते हैं
ध्यान
करनेवाले, 'मैं कौन हूं?'
वह प्रश्न
इतना गहरा
नहीं है जितना
बौद्धों का
प्रश्न है। वे
पूछते हैं, 'मैं कहां
हूं?' फर्क
बहुत बड़ा है।
क्योंकि जब
तुम पूछते हो,
'मैं कौन
हूं?' एक
बात तो तुमने
मान ही ली, कि
मैं हूं। अब
सवाल यह है, कि कौन हूं? लेकिन 'मैं
हूं' यह
तुमने मान ही
लिया। और
जिसको तुमने
मान लिया पहले
ही, उसे
तुम सिद्ध भी
कर लोगे। जिसको
तुमने बिना
पूछे मान लिया,
तुम थोड़े
बहुत दिन में
कहने लगोगे, मैं आत्मा
हूं, मैं
ब्रह्म हूं, फलां हूं, ढिकां हूं।
तुम कुछ न कुछ
उपाय खोज
लोगे।
तीसरा
रोधक है, वहां
आदमी आखिरी
चरण में फंस
जायेगा।
क्योंकि अगर
तुमने कहा, कि अब मैं
हूं ही नहीं, मुक्त किसको
होना है? तो
गुरु पूछता है
कि फिर तुम
मुझे बताओ कि
अगर तुम हो ही
नहीं, तो
तुम कहां हो? बोल तो तुम
रहे हो, उत्तर
तुम दे रहे हो,
तुम कहां हो?
किस जगह हो
इस समय तुम? कहीं तो
होओगे! नहीं
हो शरीर, नहीं
हो अहंकार, नहीं हो मन, कहां हो?
मन कुछ
न कुछ उत्तर
खोजना
चाहेगा। तुम
कहोगे, यहां
हृदय-प्रदेश
में छिपा हूं।
या तुम कहोगे कि
वहां
ब्रह्म-लोक
में चला गया
हूं। तुम कुछ तो
कहोगे। तुम
सोच में तो पड़
ही जाओगे कि
कहां हूं, यह
तो उत्तर देना
ही पड़ेगा। और
जो व्यक्ति 'मैं' से
मुक्त हो गया,
वह इस तीसरे
का उत्तर नहीं
देगा।
क्योंकि 'कहां'
की बात ही
गलत है।
इसे
थोड़ा समझना
पड़े। 'कहां'
हमेशा बाहर
है। 'कहां'
का संबंध है
स्पेस से, स्थान
से। भीतर कोई
स्थान नहीं
है--न पूरब, न
दक्षिण, न
पश्चिम, न
ऊपर, न
नीचे। यह थोड़ा
सूक्ष्म है।
बाहर है स्पेस,
क्षेत्र।
तो सब नक्शे
बाहर के हैं।
वहां हम बता
सकते हैं कि
कौन सी चीज
कहां है।
तुम्हारा
शरीर भी बताया
जा सकता है, कहां है।
तुम यहां बैठे
हो, एक
नक्शा बनाया
जा सकता है।
उस नक्शे पर आड़ी-टेढ़ी
लकीरें खींचीं
जा सकती हैं।
तुम्हारा
शरीर कहां है,
बताया जा
सकता है। अ, ब, स, द,
फलां जगह
तुम्हारा
शरीर है।
दीवाल से पांच
फीट की दूरी
पर तुम्हारा
शरीर है।
लेकिन तुम
कहां हो? जब
तक तुम मानते
हो कि मैं
शरीर हूं तब
तक तो कोई
झंझट नहीं।
लेकिन अब तुम
कहते हो कि
मैं शरीर नहीं
हूं। झंझट खड़ी
हुई। जब तक
तुम मानते हो मैं
अहंकार हूं, तब तक तुम
खोपड़ी के भीतर
बता सकते हो
कि यहां। कोई
न कोई चक्र, जहां तुम
अपने को अनुभव
करते हो।
अगर
मैं तुमसे
कहूं, आंखें
बंद कर लो और
खोजो कि तुम
कहां हो, तो
जो आदमी
भावना-प्रवण
है, वह
समझेगा कि
हृदय के पास
हूं। इसलिए जब
भी तुम भाव से
भरते हो, तुम
हृदय पर हाथ
रखते हो। सारी
दुनिया में, सारी
संस्कृतियां,
सारी
सभ्यतायें, अगर किसी को
प्रेम हो गया
है किसी से तो
वह अपने छाती
पर हाथ रखता
है। क्योंकि
प्रेम के क्षण
में अनुभव
होता है कि
मैं यहां
हूं--छाती
में। वहां
हृदय धड़क
रहा है। वह
भाव का स्थान
है। तुम्हारा
नहीं। वह
सिर्फ भावना
की जगह है।
जो बुद्धिशाली
आदमी है, भावना-प्रवण
नहीं, वह
हमेशा अनुभव
करता है, खोपड़ी
में कहीं हूं।
अगर तुम बहुत
गौर करो आंख
बंद करके, तो
तुम ठीक जगह
भी खोज लोगे
कि यहां हूं।
अगर तुम्हारा
बायां हाथ
चलता है दायां
नहीं, तो
खोपड़ी में अलग
जगह तुम्हें
पता चलेगी कि
मैं यहां हूं।
क्योंकि
बायां हाथ जिन
लोगों का चलता
है, उनकी
खोपड़ी का
दायां हिस्सा
सक्रिय होता
है। और जिनका
दायां हाथ
चलता है, उनकी
खोपड़ी का
बायां हिस्सा
सक्रिय होता
है।
अगर
तुम दायें हाथवाले
हो, जैसा कि
आम तौर से लोग
हैं; तो
तुम कहीं न
कहीं बायें
हिस्से में
खोपड़ी में
अनुभव करोगे,
कि मैं यहां
हूं। अगर तुम
बायें हाथ
वाले व्यक्ति
हो, लेफटिस्ट हो, तो
कहीं दायें
खोपड़ी में तुम
अनुभव करोगे,
कि मैं यहां
हूं। अगर तुम
बहुत अभ्यास
किए हो सिद्धासन
का, पद्मासन
का, ध्यान
का, शांत
होने का, तो
तुम अनुभव
करोगे कि तुम
दोनों के बीच
में हो; उसी
को तीसरा
नेत्र कहते
हैं। न बायें
न दायें, तुम
मध्य में हो।
जब कोई
व्यक्ति कामातुरता
से भर जाता है
तब अगर गौर
करे तो वह
पायेगा, कि
वह
जननेंद्रिय
के पास है।
तुम्हारी जो भावदशा
होती है तुम
उसी बिंदु को
समझ लेते हो, मैं यहां
हूं।
लेकिन
जिस व्यक्ति
की कोई भावदशा
न रही, जिसका
कोई विचार न
रहा, जिसका
कोई अहंकार न
रहा, उसके
लिए तीसरा
रोधक है। उससे
गुरु पूछ रहा
है कि तुम
कहां हो?
क्या
होगा उत्तर? ऐसा व्यक्ति
अपने को भीतर
कहीं भी अनुभव
नहीं कर सकता,
कि मैं यहां
हूं। और बाहर
तो अनुभव करने
का कोई सवाल
ही नहीं, कि
मैं यहां हूं।
ऐसे व्यक्ति
के लिए
क्षेत्र भी खो
गया और समय भी
खो गया। क्षेत्र
के लिए शरीर
के साथ
तादात्म्य
चाहिए और समय
के लिए मन के
साथ
तादात्म्य
चाहिए।
समय है
मन और क्षेत्र
है शरीर।
जिसके दोनों
ही शांत हो
गये वह कहां
है?
बुद्ध
ने कहा है, जब मरने के
समय कोई उनसे
पूछने लगा कि
अब आप कहां
होंगे, जब
शरीर छूट
जायेगा? बुद्ध
ने कहा, 'वह
बहुत पहले छूट
गया।' फिर
भी उस आदमी ने
कहा, कि
हमारे लिए तो
अब छूटा हुआ
मालूम पड़ेगा।
और अब तो सब खो
जायेगा, सब
राख हो जायेगी,
जल्दी ही हम
आपके शरीर को
जला कर
भस्मीभूत कर देंगे।
फिर आप कहां
होंगे? बुद्ध
ने कहा, मैं
बहुत समय से
कहीं भी नहीं
हूं--नो
व्हेयर। बुद्ध
ने कहा, जैसे
दीया कोई फूंक
कर बुझा दे, तो मैं
तुमसे पूछता
हूं, ज्योति
कहां गई? तुम
कहोगे, अनंत
में खो गई।
उसकी जगह कहां
है? कहीं
भी नहीं है।
दो
उत्तर हो सकते
हैं जो सही
होंगे। और वे
उत्तर
तुम्हारे
प्राण से दिये
जाने चाहिए, तुम्हारे
विचार से
नहीं। वे
तुम्हारे
अनुभव से आने
चाहिए। एक:
अगर तुमने
वेदांत के
मार्ग का
अनुसरण किया
है, अगर
तुम शंकर को
मान कर खोज
में चले हो, अगर
तुम्हारा
गुरु शंकर
जैसा व्यक्ति
रहा है...और दो
ही तरह के
गुरु हैं। या
तो शंकर जैसा
गुरु या बुद्ध
जैसा गुरु। या
तो विधायक, या
नकारात्मक।
या तो पूर्ण
का खोजी, या
शून्य का
खोजी। बस, दो
ही तरह के
गुरु हैं।
क्योंकि दो ही
तरह की संभावनाएं
हैं--निगेटिव,
पाजिटिव। और तो कोई
संभावना नहीं
है।
अगर
शंकर को मान
कर तुम चले हो
तो तुम्हारी
प्रतीति होगी
कि तुम सब जगह
हो--एवरीव्हेयर।
इसी को शंकर
कहते हैं
ब्रह्म के साथ
एक हो जाना।
अब मैं सब जगह
हूं। कण-कण
में, पत्थर
में, चट्टान
में, पहाड़
में, आकाश
में, चांदत्तारों में, सब
जगह हूं। सब
कुछ मुझसे भरा
हुआ है। 'अहं
ब्रह्मास्मि।'
यह वेदांत
का उत्तर है।
अगर वेदांत की
तुमने साधना
की है, सब
जगह मैं हूं।
लेकिन इसका भी
मतलब यह होता
है कि अब तुम
कहीं भी नहीं
हो। अगर कोई
तुम्हें एक
जगह खोजने
जाये तो
तुम्हें नहीं
पायेगा। बुद्ध
का उत्तर है, अब मैं कहीं
भी नहीं हूं; जैसे ज्योति
बुझ गई, खो
गई शून्य में।
अब कहां है?
रामतीर्थ
एक छोटी सी
कहानी कहा
करते थे। वे
कहते थे एक
बड़ा नास्तिक
था। उस
नास्तिक ने
अपनी दीवाल पर
एक वचन लिख
रखा था, 'गाड
इज नोव्हेयर।'
फिर उसको एक
बच्चा हुआ। और
बच्चे ने भाषा
सीखनी
शुरू की और
बच्चे को अभी
बड़े अक्षर
पढ़ने कठिन थे,
छोटे-छोटे
अक्षर तोड़त्तोड़
कर बच्चा पढ़ता
था। तो एक दिन
बच्चा पढ़ रहा
था दीवाल पर
लिखे अक्षर को,
तो 'नो
व्हेयर' बड़ा
अक्षर था, तो
उसे बच्चे ने
तोड़ कर पढ़ा: 'गाड इज नाउ हीअर'। नोव्हेयर
को दो हिस्सों
में तोड़ लिया।
वह नास्तिक
बड़ा हैरान
हुआ। क्योंकि
उसने दीवाल पर
इसीलिए रख छोड़ा
था ताकि हर
आदमी देखे और
समझे कि
परमात्मा
कहीं भी नहीं
है। और यह
उसने कभी सोचा
ही नहीं था कि
अपना ही बेटा,
उसमें से
बिलकुल उलटी
बात पढ़ेगा।
उस बेटे ने
पढ़ा: गाड इज
नाऊ हीयर।
अभी और यहीं
है। नोव्हेयर
और एवरीव्हेयर--कहीं
भी नहीं और सब
कहीं, एक
ही अर्थ रखते
हैं।
परमात्मा
को तुम अगर
खोजने जाओ
कहीं, तो
नहीं पाओगे।
उंगली से उसे
बताया नहीं जा
सकता।
क्योंकि
उंगली से केवल
वे ही चीजें
बताई जा सकती
हैं जिनका
आकार है, रूप
है। इसलिए
ज्ञानी
मुट्ठी बांध
कर उसे बताते
हैं। उंगली से
तो वस्तु बताई
जा सकती है, खंड, अंश।
उंगली का मतलब
होगा, यहां
है। लेकिन फिर
शेष जगह का
क्या होगा? वह सब जगह
है। तो या तो
सब जगह है ऐसा
कहो और या ऐसा
कहो, कि
कहीं भी नहीं
है। मगर यह
वक्तव्य भी
तुम्हारी
बुद्धि से न
आये।
इसलिए
तीन अवरोधक
गुरु ने खड़े
किए हैं। पहला
अवरोधक पार
होगा तो वह
दूसरा पूछेगा; वह पहले की
परीक्षा के
लिए। दूसरा
पार होगा, तो
वह तीसरा
पूछेगा; वह
दूसरे की
परीक्षा के
लिए।
और एक
बात तुम्हें
और बता दूं, कि तुम यह मत
सोचना कि इन
तीन रोधकों
में रोधक खत्म
हो जाते हैं।
हर गुरु अपने
रोधक बनाता
है। इसलिए
धोखा तुम न दे
सकोगे। क्योंकि
अब तुम्हें ये
तीन रोधक तो
पता हो गये।
यह तोसोत्सु
तो खत्म हुआ।
इसको तो अब
तुम धोखा दे
सकते हो। लेकिन
हर गुरु अपने
रोधक बनाता
है। और इतना
ही नहीं है, हर गुरु
अपने हर शिष्य
के लिए
अलग-अलग रोधक
बनाता है।
इसलिए धोखाधड़ी
वहां न चलेगी।
एक
पागलखाने में
दो पागल
करीब-करीब
लगता था ठीक
हो गये। तो हर
वर्ष परीक्षण
होता था। तो
परीक्षा के
लिए दोनों
बुलाये गये।
एक पागल भीतर
गया, दूसरा
बाहर बैठा
रहा। उसने कहा
कि जो कुछ भी उत्तर
हो, तू
लौटते में
मुझे भी बता
देना। आम आदमी
संदिग्ध होता
है और दूसरे
से उत्तर
जानना चाहता
है, तो
पागल तो
बेचारा पागल
है! किसी तरह जोड़त्तोड़
कर ऐसी हालत
आई है कि
परीक्षा का
दिन आया है।
अगर पास हो
गये तो बाहर
निकले, अन्यथा
फिर पड़ गये
कारागृह में।
एक
आदमी भीतर
गया। डाक्टर
ने उससे पूछा
कि अगर
तुम्हारी
आंखें निकाल
ली जायें तो
क्या होगा? तो उस आदमी
ने कहा, आंखें
अगर निकाल ली
जायें? तो
मुझे दिखाई पड़ना बंद
हो जायेगा। वह
बाहर निकला।
उसने दूसरे से
कहा ख्याल
रखना, उत्तर
है, दिखाई पड़ना बंद
हो जायेगा। वह
दूसरा भीतर
गया। डाक्टर
ने उससे पूछा,
अगर
तुम्हारे
दोनों कान काट
लिये जायें? उसने कहा
साफ है, दिखाई
पड़ना बंद
हो जायेगा।
तुम
उत्तर मत
सीखना, नहीं
तो दूसरे पागल
की गति होगी।
गुरु
नये रोधक खड़े
करता है और हर
शिष्य के लिए नये
रोधक खड़े करता
है। इसलिए
धोखा देने का
कोई उपाय नहीं
है। तुम अगर
सहज हो, तो
ही पार हो
सकोगे। और
अक्सर यह होता
है कि अगर
तुमने उत्तर
सीख लिया, तो
तुम सहज नहीं
रह जाते। यह
दूसरा पागल भी
हो सकता था
बिना उत्तर के
पार हो जाता।
क्योंकि यह
खुद सोचता। पर
इसको उत्तर
तैयार था।
इसने सोचा, अब झंझट
क्या करनी है?
बात साफ है।
उत्तर
कभी भी कंठस्थ
मत करना।
उत्तर से
ज्यादा
अज्ञान को सम्हालनेवाली
और कोई चीज
नहीं है।
उत्तर सिर्फ
पागल याद करते
हैं। इसलिए
अगर गीता कंठस्थ
की हो, भूल
जाना। कुरान
याद कर लिया
हो, विसर्जित
कर देना।
शास्त्र से
बचना; क्योंकि
बंधा हुआ
उत्तर
तुम्हें
परमात्मा के
द्वार के भीतर
न जाने देगा।
तुम वापिस
संसार में
फेंक दिए
जाओगे।
तुम्हारा
अपना उत्तर चाहिए
जो तुम्हारे
प्राणों से
आता हो, प्रामाणिक
हो। जो
तुम्हारे
पूरे
अस्तित्व को
प्रतिध्वनित
करता हो। जो
तुम्हारा
स्वाद देता
हो। उसका अर्थ
यह हुआ कि
तुम्हें इन
तीन
प्रतिरोधकों
से, इन तीन
बाधाओं से
वस्तुतः
गुजरना होगा;
तभी तुम उस
पार जा पाओगे।
आदमी चालाकी
करता है धर्म
में भी।
स्कूल
में छोटे-छोटे
बच्चे ही नकल नहीं
करते, बड़े-बूढ़े
भी नकल कर रहे
हैं; जीवन
के बड़े
विद्यालय में
नकल कर रहे
हैं। और वहां
भी वे सोचते
हैं कि दूसरे
ने क्या अपनी
कापी में लिखा
है, उसी को
उतार कर पार
हो जायें।
शायद
विद्यालयों
में धोखा चल
जाता होगा, क्योंकि वे
विद्यालय इस
धोखे से भरे
हुए जगत के
हिस्से हैं।
लेकिन सदगुरु
के पास धोखा न
चलेगा।
क्योंकि धोखे
के बाहर होना
ही तो एकमात्र
उसकी कला है।
और तुम्हें धोखे
के बाहर ले
जाना एकमात्र
उसकी चेष्टा
है।
दीया
तले अंधेरा है; उसे
भली-भांति गौर
से देखो। वह
तुम्हारे
कारण नहीं है,
दीये के
कारण है। तुम
तो ज्योति हो।
मृण्मय दीये
से संबंध तोड़
लो, चिन्मय
ज्योति के साथ
एक हो जाओ, भीतर
अंधेरा मिट
जायेगा। और
जिसके भीतर
अंधेरा मिट
जाता है, उसके
बाहर भी
अंधेरा मिट
जाता है। तब
तुम प्रकाश
में चलते, प्रकाश
में जीते हो।
वह प्रकाश का
परम-अनुभव ही
अध्यात्म की
अंतिम मंजिल है।
और तुम उसके
पास से पास हो
और दूर से दूर
भी। चेष्टा
सघन हो, वह
बहुत पास है।
चेष्टा समग्र
हो, वह अभी
और यहीं है, गाड इज
नाऊ हियर।
चेष्टा धीमी
हो, धोखे
से भरी हो, कुनकुनी हो, तब
गाड इज नोव्हेयर,
तब वह कहीं
भी नहीं है।
तुम्हारी
त्वरा, तुम्हारी
प्रबल
आकांक्षा, तुम्हारी
प्यास इतनी हो
जाये कि तुम
बचो ही न भीतर।
बस, तुम
पूरी खोज बन
जाओ, इसी
क्षण वह प्रकट
हो जायेगा।
पास से पास, दूर से दूर!
बड़ा
विरोधाभास
लगता है।
विरोधाभास
तुम्हारे
कारण है।
तुमने उसे अब
तक चाहा ही नहीं
है।
कभी
हाथ उठाओ आकाश
की तरफ और कहो, 'बस कर अल्लाह!'
रुको, बहुत
दुख झेला।
झेल-झेल कर
तुम इतने आदी
हो गये हो दुख
के कि अब वह
दुख जैसा
मालूम भी नहीं
पड़ता।
तुम्हारी
बुद्धि भी संवेदनशून्य
हो गई है।
बहुत नर्क में
भटके, लेकिन
इतने आदी हो
गये हो कि अब
तुम्हें
भरोसा भी नहीं
आता है कि कोई
स्वर्ग हो
सकता है।
सदगुरु
का इतना ही
अर्थ है कि
खोये भरोसे को
जो जगा दे। और
तुम्हें उस
पीड़ा के मार्ग
से गुजार दे
साथ दे कर, जहां तुम
अकेले न गुजर
सकोगे। फिर
जैसे ही संताप
का क्षण गुजर
जाता है, प्रकाश
का क्षण आता
है, गुरु
की कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
सदगुरु
तुम्हें
तुम्हारे भीतर
के गुरु से
मिला देता है।
आज
इतना ही।
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