अध्याय—11
सूत्र—
सखेति
मत्वा प्रसभं क्ट्रूम्क्तंक
हे कृष्ण हे
यादव हे सखेति।
अजानता
महिमानं
तवेदं मया
प्रमादात्प्रणयेन
वापि।। 41।।
यच्चावहासार्थमसरूतोउसि
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोउथवाध्यम्हत
तत्समक्षं
तकामये त्वामहमप्रमेयम्।।
42।
पितासि
लोकस्य
चराचरस्थ
त्वमस्य
यूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न
त्वत्समोउस्लथ्यधिक:
कुतोउन्यो लोकत्रयेउध्यप्रतिमप्रभाव।।
43।।
तस्माह्मणम्य
प्रणिधाय काय
प्रसादये
त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव
युत्रस्य
सखेव सखु:
प्रिय:
प्रियायार्हसि
देव सोहुम।। 44।।
हे
परमेश्वर सखा
ऐसे मानकर
आपके इस
प्रभाव को न
जानते हुए
मेरे द्वारा
प्रेम से अथवा
प्रमाद से भी
हे कृष्ण हे
यादव हे सखे इस
प्रकार जो कुछ
हठपूर्वक कहा
गया है; और हे अच्युतू
जो आप हंसी के
लिए विहार
शय्या आसन और
भोजनादिको में
अकेले अथवा उन
सखाओं के
सामने भी
अपमानित किए
गए हैं, वे
सब अपराध
अप्रमेयस्वरूय
अर्थात
अचिंत्य प्रभाव
वाले आपसे मैं
क्षमा कराता
हूं।
हे
विश्वेश्वर
आप इस चराचर
जगत के पिता
और गुरु से भी
बड़े गुरु एवं
अति पूजनीय
हैं। हे अतिशय
प्रभाव वाले
तीनों लोकों
में आपके समान
भी दूसरा कोई
नहीं है फिर
अधिक कैसे
होवे।
इससे
हे प्रभो मैं
शरीर को अच्छी
प्रकार चरणों में
रखकर और
प्रणाम करके
स्तुति करने
योग्य आय
र्ड़श्वर को
प्रसन्न
होने के लिए
प्रार्थना
करता हूं। हे
देव पिता जैसे
पुत्र के और
सखा जैसे सखा
के और पति
जैसे प्रिय
स्त्री के
वैसे ही आय भी
मेरे अपराध को
सहन करने के योग्य
हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है : ओशो, प्रभु से
प्रार्थना
करते हैं, कहते
हैं कि सारे
दुख मेरे मिटा
दे, सुख ही
सुख शेष जाएं।
और आपने कहा
कि सुख और दुख
एक सिक्के के
दो पहलू हैं।
तो प्रभु से
हम क्या
मांगें? क्या
प्रार्थना
करें?
जहां तक मांग
है, वहां
तक प्रभु से
कोई संबंध
स्थापित नहीं
होता।
प्रार्थना
मांग नहीं है।
ज्यादा उचित
हो कि कहें, प्रार्थना
धन्यवाद है, मांग नहीं।
जो नहीं मिला
है, उसकी
मांग नहीं है
प्रार्थना; जो मिला है, उसके
अनुग्रह का
धन्यवाद है, थैंक्स
गिविंग है।
कुछ
मांगें मत।
आपकी मांग ही
आपके और
परमात्मा के
बीच में बाधा
बन जाएगी।
क्योंकि जब भी
हम कुछ मांगते
हैं तो उसका
अर्थ क्या
होता है? उसका अर्थ
होता है, जो
हम मांग रहे
हैं, वह
परमात्मा से
भी बड़ा है।
एक
आदमी
परमात्मा से
धन मांग रहा
है। उसका अर्थ
हुआ कि लक्ष्य
धन है; परमात्मा
तो केवल साधन
है। एक आदमी
सुख मांग रहा
है। उसका अर्थ
हुआ कि सुख
बड़ा है। परमात्मा
से मिल सकता
है, इसलिए
परमात्मा से
मांग रहे हैं।
लेकिन
परमात्मा
केवल माध्यम
हो गया; परमात्मा
केवल साधन हो
गया। हम
परमात्मा से
भी सेवा ले
रहे हैं!
जब भी
हम कुछ मांगते
हैं, तो
जो मांगते हैं,
वह
महत्वपूर्ण
है। जिससे हम
मांगते हैं, वह
महत्वपूर्ण
नहीं है। वह
अगर
महत्वपूर्ण
मालूम होता है,
तो सिर्फ
इसीलिए कि जो
हम चाहते हैं,
वह उससे मिल
सकता है।
लेकिन उसका
महत्व
द्वितीय है, दोयम है, नंबर
दो है।
तो
परमात्मा से
कुछ भी मांगा
नहीं जा सकता।
और जो मांगते
हैं, उनका
परमात्मा से
कोई संबंध
नहीं है।
परमात्मा को
तो, जो मिला
है, उसके
लिए धन्यवाद
दिया जा सकता
है। और जो
मिला है, वह
बहुत है, असीम
है।
लेकिन
जो मिला है, उसके लिए
हम धन्यवाद
नहीं देते। जो
नहीं मिला है,
उसके लिए हम
मांग करते हैं,
शिकायत
करते हैं।
अभाव ही हमारा
मन देखता है।
जो हमारे पास
है, जो
हमें मिला है,
अकारण! जीवन,
अस्तित्व, जो खिलावट
हमें मिली है,
उसके लिए
कोई अनुग्रह
नहीं है।
प्रार्थना
अनुग्रह का
भाव है।
ऐसा
हुआ कि
रामकृष्ण के
पास जब
विवेकानंद आए, तो उनके
घर की हालत
बड़ी बुरी थी।
पिता मर गए थे।
और पिता मौजी
आदमी थे, तो
कोई संपत्ति
तो छोड़ नहीं
गए थे, उलटा
कर्ज छोड गए
थे। और
विवेकानंद को
कुछ भी न
सूझता था कि
कर्ज कैसे
चुके। घर में
खाने को रोटी
भी नहीं थी।
और ऐसा अक्सर
हो जाता था कि
घर में इतना
थोड़ा—बहुत
अन्न जुट पाता,
कि मां और
बेटे दोनों थे,
तो एक का ही
भोजन हो सकता
था।
तो
विवेकानंद
मां को कहकर
कि मैं आज घर
भोजन नहीं
लूंगा, किसी मित्र
के घर
निमंत्रण है,
मां भोजन कर
ले, इसलिए
घर से बाहर
चले जाते।
कहीं भी गली—कूचों
में चक्कर
लगाकर—कोई
मित्र का
निमंत्रण
नहीं होता—वापस
खुशी लौट आते
कि बहुत अच्छा
भोजन मिला, ताकि मां
भोजन कर ले।
रामकृष्ण
को पता लगा तो
उन्होंने कहा, तू भी
पागल है। तू
जाकर मां से
क्यों नहीं
मांग लेता! तू
रोज यहां आता
है। जा मंदिर
में और मां से
मांग ले, क्या
तुझे चाहिए।
रामकृष्ण ने
कहा तो
विवेकानंद को
जाना पड़ा।
रामकृष्ण
बाहर बैठे रहे।
आधी घड़ी बीती।
एक घड़ी बीती।
घंटा बीतने
लगा। तब
उन्होंने
भीतर झांककर
देखा।
विवेकानंद आंख
बंद किए खड़े
हैं। आंख से
आनंद के आंसू
बह रहे हैं।
सारे शरीर में
रोमांच है।
फिर जब
विवेकानंद
बाहर आए, तो रामकृष्ण
ने कहा, मांग
लिया मां से? विवेकानंद
ने कहा, वह
तो मैं भूल ही
गया। जो मिला
है, वह
इतना ज्यादा
है कि मैं तो
सिर्फ
अनुग्रह के
आनंद में डूब
गया। अब
दोबारा जब
जाऊंगा, तब
मांग लूंगा।
दूसरे
दिन भी यही
हुआ। तीसरे
दिन भी यही
हुआ।
रामकृष्ण ने
कहा, पागल,
तू मांगता
क्यों नहीं है?
तो
विवेकानंद ने
कहा कि आप
नाहक ही मेरी
परीक्षा ले
रहे हैं। भीतर
जाता हूं तो
यह भूल ही
जाता हुं कि
वे क्षुद्र
जरूरतें, जो
मुझे घेरे हैं,
वे भी हैं, उनका कोई
अस्तित्व है।
जब मां के
सामने होता
हूं तो विराट
के सामने होता
हूं तो
क्षुद्र की
सारी बात भूल
जाती है। यह
मुझसे नहीं हो
सकेगा।
रामकृष्ण ने
अपने शिष्यों
को कहा कि
इसीलिए इसे
भेजता था, कि
अगर इसकी
प्रार्थना
अभी भी मांग
बन सकती है, तो इसे
प्रार्थना की
कला नहीं आई।
अगर यह अब भी
मांग सकता है
प्रार्थना के
क्षण में, तो
इसका मन संसार
में ही उलझा
है, परमात्मा
की तरफ उठा
नहीं है।
आप
पूछते हैं कि
क्या मांगें?
मांगें
मत। मांग
संसार है। और
जो मांगना छोड़
देता है, वही केवल
परमात्मा में
प्रवेश करता
है। तो कुछ भी
न मांगें। सुख
नहीं, कुछ
भी मत मांगें।
मोक्ष भी मत
मांगें, मुक्ति
भी मत मांगें।
क्योंकि मांग
ही उपद्रव है।
मांग ही बाधा
है। वह जो
मांगने वाला
मन है, वह
प्रार्थना
में हो ही
नहीं पाता।
साधारणत:
हमने सारी
प्रार्थना को
मांग बना लिया
है। मांगना
चाहते हैं, तभी हम
प्रार्थना
करते हैं।
प्रार्थी का
मतलब ही हो
गया मांगने
वाला। अन्यथा
हम प्रार्थना
ही नहीं करते।
जब मांगना
होता है, तभी
प्रार्थना
करते हैं। जब
नहीं मांगना
होता, तो
प्रार्थना भी
खो जाती है।
हमारी सारी
प्रार्थना
भिक्षु की, मांगने वाले
की प्रार्थना
है। हम भिक्षा—पात्र
लेकर ही
परमात्मा के
सामने खड़े
होते हैं। यह
ढंग उचित नहीं
है। यह
प्रार्थना का
ढंग ही नहीं
है। फिर
प्रार्थना
क्या है? साधारणत:
लोग समझते हैं
कि प्रार्थना
कुछ करने की
चीज है—कि
आपने जाकर
स्तुति की, कि गुणगान
किया, कि
भगवान की बड़ी
प्रशंसा की—कुछ
करने की चीज
है।
प्रार्थना न
तो मांग है और
न कुछ करने की
चीज है।
प्रार्थना एक
मनोदशा है।
उचित
होगा कहना कि
प्रार्थना की
नहीं जाती, आप
प्रार्थना
में हो सकते
हैं। यू कैन
नाट डू प्रेयर,
यू कैन बी
इन इट।
प्रार्थना
में हो सकते
हैं, प्रार्थना
की नहीं जा
सकती। वह कोई
कृत्य नहीं है
कि आपने कुछ
किया—घंटा
बजाया, नाम
लिया। वे सब
बाह्य उपकरण
हैं।
प्रार्थना
भीतर की एक
मनोदशा है; ए स्टेट ऑफ
माइंड।
दो तरह
की मनोदशाएं
हैं। मांग, डिजायर, वासना।
वासना कहती है,
यह चाहिए।
मन की एक दशा
है कि यह
चाहिए, यह
चाहिए, यह
चाहिए। चौबीस
घंटे हम वासना
में हैं, यह
चाहिए, यह
चाहिए, यह
चाहिए। एक
क्षण ऐसा नहीं
है, जब
वासना न हो।
कुछ न कुछ
चाहिए। चाह
धुएं की तरह
चारों तरफ
घेरे रहती है।
एक
स्थिति है, वासना।
अगर आप मांग
लेकर
प्रार्थना कर
रहे हैं, तो
वासना ही बनी
हुई है, स्थिति
बदली ही नहीं।
वहां आप फिर
कुछ मांग रहे
हैं। बाजार
में कुछ मांग
रहे थे। पत्नी
से कुछ मांग
रहे थे। पति
से कुछ मांग
रहे थे। बेटे
से, बाप से
कुछ मांग रहे
थे। समाज से
कुछ मांग रहे
थे। राज्य से
कुछ मांग रहे
थे। संसार से
कुछ मांग रहे
थे। अब
परमात्मा से
मांग रहे हैं।
जिससे मांग
रहे थे, वह
बदल गया, लेकिन
मांगने वाला
मन, वह
भिखारी वासना
मौजूद है। कभी
इससे मांगा, कभी उससे
मांगा। जब
कहीं भी न मिल
सका, तो
लोग भगवान से
मांगने लगते
हैं। सोचते
हैं, जो
कहीं नहीं
मिला, वह
भगवान से मिल
जाएगा! मांगते
लेकिन जरूर
हैं। यह वासना
है।
प्रार्थना
बिलकुल उलटी
अवस्था है।
वासना है दौड़, कुछ जो
नहीं है, उसके
लिए।
प्रार्थना, जो है, उसका
आनदभाव।
प्रार्थना है
ठहर जाना, वासना
है दौड़। वासना
है भविष्य में,
प्रार्थना
है अभी और
यहीं।
प्रार्थनापूर्ण
चित्त का अर्थ
है, मिट
गया अतीत, मिट
गया भविष्य; यह क्षण सब
कुछ है।
खड़े
हैं परमात्मा
की प्रतिमा के
सामने। और यह
प्रतिमा कहीं
भी हो सकती है।
एक वृक्ष में
हो सकती है।
एक नदी में हो
सकती है।
एक
व्यक्ति में
हो सकती है।
आपके बेटे की आंखों
में हो सकती
है। आपकी
पत्नी की आंखों
में हो सकती
है। पत्थर में
हो सकती है।
आकार में, निराकार
में, कहीं
भी हो सकती है।
जहां
भी आप ऐसा
क्षण खोज लें
कि आपमें अब
कोई दौड़ नहीं
है मन की, मन ठहर गया
है, जैसे
धारा रुक गई
हो और कोई गति
नहीं है। इस
क्षण में जो
आनदभाव
उत्पन्न हो
जाता है, और
जो थिरक फैल
जाती है, इस
क्षण में जो
पुलकित हो उठते
हैं प्राण के
कण— कण, भीतर
तक, केंद्र
तक, जो भनक
सुनाई पड़ने
लगती है अनंत
के स्वर की, वह
प्रार्थना है।
इस प्रार्थना
से भी नृत्य
पैदा हो जाता
है। क्योंकि
जब प्राण
आनंदित होते
हैं, तो
पैर भी नाचने
लगते हैं। इस
आनंद से स्वर
भी फूट पड़ता
है। जब भीतर
की वीणा बजती
है, तो गीत
भी फूट पड़ता
है।
यहीं
फर्क है। आप
भी जाकर मंदिर
में गीत गा
सकते हैं मीरा
का। लेकिन आप
गा रहे हैं
कुछ पाने के
लिए। मीरा ने
भी गाया था।
गाया था, कुछ भीतर
मिल गया था, उसकी भनक
शरीर तक दौड़
गई। मीरा
नाचने लगी, गाने लगी।
इस
गाने और नाचने
में प्रार्थना
नहीं है। ये
तो प्रार्थना
के परिणाम हैं।
यह तो
प्रार्थना की
बाइ—प्रोडक्ट
है। यह तो
जैसे गेहूं
उगता है, उसके साथ
भूसा भी उग
आता है। जब
भीतर
प्रार्थना
होती है, तो
यह आनंद बाहर
भी प्रकट होने
लगता है। पर
हम तो मीरा को
बाहर से देखते
हैं, तो
हमें लगता है,
मीरा गीत गा
रही है, नाच
रही है। शायद
हम भी नाचे और
गीत गाएं ऐसा
ही, तो जो
मीरा को भीतर
हुआ, वह
हमें भी हो
जाए।
यहीं
तर्क की भूल
हो जाती है।
यहीं भूल हो
जाती है। मीरा
को जो भीतर हो
रहा है, उसके कारण
नृत्य पैदा हो
रहा है। नृत्य
के कारण भीतर
कुछ होता होता,
तो सभी
नर्तकियां
मीरा हो जातीं।
और गीत के
कारण अगर कुछ
भीतर होता
होता, तो
सभी गायक कभी
के वहां पहुंच
गए होते। आप
कितना अच्छा
गा पाएंगे? कुशल गायक
हैं, उनसे
आप क्या जीत
पाएंगे? कुशल
नर्तक हैं; आप क्या नाच
पाएंगे?
नहीं; मीरा को
जो हुआ है, यह
गान में और
नृत्य में तो
उसकी
प्रतिध्वनि
भर सुनाई पड़
रही है। वह जो
हुआ है, वह
इसके बाहर है।
इसलिए जरूरी
नहीं है कि
गान और नृत्य
पैदा हो ही।
क्योंकि
महावीर को
हमने नाचते
नहीं देखा।
बुद्ध को हमने
गाते नहीं
देखा। तो कोई
ऐसा भी जरूरी
नहीं है कि वह
धुन बाहर इस भांति
आए। वह अनेक
रूपों में आ
सकती है, व्यक्ति—व्यक्ति
पर निर्भर
करेगी।
बुद्ध
के बाहर वह
नाचकर नहीं
आती। बुद्ध के
बाहर वह
प्रशांत, घनी शांति
बनकर आती है।
बुद्ध का
व्यक्तित्व
अलग है। भीतर
तो वही घटता
है, जो
मीरा को घटता
है। भीतर
बुद्ध के भी
वही घटता है।
लेकिन मीरा
स्त्री है। और
मीरा के पैरों
में जो है, वह
बुद्ध के
पैरों में
नहीं है; और
मीरा की वाणी
में जो है, वह
बुद्ध की वाणी
में नहीं है।
बुद्ध का
व्यक्तित्व
और है।
तो वही
घटना भीतर
घटती है, लेकिन जिससे
छनकर आती है, वह
व्यक्तित्व
अलग है। तो
बुद्ध के बाहर
वह प्रगाढ़
शांति हो जाती
है। जिसने
बुद्ध को देखा
है, वह सोच
ही नहीं सकता
कि वह परम
अनुभव नृत्य
कैसे बनेगा!
क्योंकि
बुद्ध को तो
देखा है, तो
वे बिलकुल
शांत हो गए
हैं। कुछ भी
कंपन नहीं
होता बाहर।
पत्थर की मूर्ति
हो गए।
जिन्होंने
मीरा को देखा
है, वे
भरोसा नहीं कर
सकते कि शांत!
इस तरह की
शांत स्थिति
कैसे बनेगी? क्योंकि
मीरा को हमने
बावली होते
देखा, पागल
होते देखा।
उसका शरीर
नृत्य से भर
गया। ये
व्यक्तियों
के भेद हैं।
लेकिन
आप चाहे तो
बुद्ध जैसे
मूर्ति बनकर
भी बैठ जा सकते
है। तो भी
भीतर की घटना
नहीं घटेगी।
क्योंकि भीतर
की घटना
प्राथमिक है, बाहर जो
घटता है, वह
गौण है। वह
उसका परिणाम
है। वह उसका
फल है। बाहर
से भीतर की
तरफ जाने का
कोई उपाय नहीं
है। भीतर से
ही बाहर की
तरफ आने का
उपाय है।
प्रार्थना, ठहरा हुआ
क्षण है मन का।
वासना, भागता
हुआ क्षण है
मन का। वासना
है दौड़; प्रार्थना
है ठहराव।
अगर आप
विश्राम के
क्षण में किसी
वृक्ष के पास
बैठ गए, तो वह वृक्ष
आपके लिए थोड़ी
देर में
परमात्मा हो
जाएगा। जहां
भी हम विश्राम
के क्षण में
हो जाते हैं, वहीं
परमात्मा
प्रकट हो जाता
है।
एक और
मित्र ने पूछा
है कि आप कहते
हैं, कृष्ण,
महावीर, बुद्ध,
राम, ये
भगवान थे। ये
भगवान नहीं थे।
क्योंकि
भगवान तो
निराकार है और
ये सब तो साकार
थे! तो हो सकता
है, उनको
भगवान की
अनुभूति हुई
हो, लेकिन
वे भगवान नहीं
थे।
आकार क्या
है?
कैसे हम आकार
कहते हैं? इस
जगत में कुछ
भी है जो
साकार है?
इस जगत
में सभी कुछ
निराकार है।
लेकिन हमारे
पास देखने
वाली आंखें
सीमित हैं।
इसलिए
निराकार भी
हमें आकार ही
दिखाई पड़ता है।
आप अपनी खिड़की
से आकाश को
देखते हैं, तो खिड़की
के बराबर
चौखटे में ही
आकाश दिखाई पड़ता
है। आप अपने
नीले चश्मे से
जगत को देखते
हैं, तो
जगत नीला
दिखाई पड़ता है।
आपकी देखने की
क्षमता के कारण
आकार निर्मित
होता है, अन्यथा
आकार कहीं भी
नहीं है।
आप
कहेंगे, यह तो बात
कुछ जंचती
नहीं। हमारे
शरीर का तो कम
से कम आकार है!
वहां
भी आकार नहीं
है। कहां आपका
शरीर समाप्त
होता है, आपको पता है?
अगर सूरज
ठंडा हो जाए—दस
करोड़ मील दूर
है— अगर ठंडा
हो जाए, तो
आपके शरीर का
आपको पता है
क्या होगा? उसी वक्त
ठंडा हो जाएगा।
तो आपका शरीर
आपकी चमड़ी पर
नहीं समाप्त
होता। वह दस
करोड़ मील दूर
जो सूरज है, वह भी आपके
शरीर का
हिस्सा है।
क्योंकि उसके
बिना आप जी
नहीं सकते। वह
जो दस करोड़
मील दूर सूरज
है, वह भी
आपके शरीर का
हिस्सा है, क्योंकि
आपका शरीर
उसके बिना जी
नहीं सकता।
शरीर जुड़ा है
उससे।
कहां
आपका शरीर
खत्म होता है? आपके ऊपर?
अगर आपके
पिता न होते, तो आप हो
सकते थे?
पीछे
लौटें! तब
आपको पता
चलेगा, अरबों—खरबों
वर्षों का जो
इतिहास है, उससे आपका
शरीर निर्मित
हुआ है।
करोड़ों—करोड़ों
वर्ष से
जीवाणु चल रहा
है, वह
आपका शरीर बना
है। अगर उस
श्रृंखला में
एक जीवाणु अलग
हो जाए, तो
आप नहीं होंगे।
तो समय में
पूरा इतिहास
आपमें समाया
हुआ है। अभी
इस क्षण सारा
जगत आपमें
समाया हुआ है।
अगर इस जगत
में जरा भी
फर्क हो जाए, आप नहीं
होंगे।
तो
आपका शरीर अनंत—अनंत
शक्तियों का
एक मेल है।
आपको जितना
दिखाई पड़ता है, उसको आप
शरीर मान लेते
हैं। और अगर
यह सच है कि
अनंत इतिहास
आपमें समाया हुआ
है, तो
अनंत भविष्य
भी आपमें
समाया हुआ है।
वह आपसे ही
पैदा होगा।
आप
कहां शुरू
होते हैं? कहां
समाप्त होते
हैं? आपने
अपने जन्म—दिन
को अपना जन्म—दिन
समझ लिया है, यह आपकी समझ
की सीमा है।
कब आप पैदा
हुए? आपका
जीवाणु चल रहा
है अरबों—अरबों,
खरबों
वर्षों से। जब
आप पैदा नहीं
हुए थे, तब
वह आपकी मां
में था, आपके
पिता में था।
और जब आपके
मां—बाप भी
पैदा नहीं हुए
थे, तब वह
किसी और में
था। लेकिन वह
चल रहा है। आप
थे अनंत काल
से। और आप जब
नहीं होंगे, तब भी वह
चलता रहेगा
अनंत काल तक।
कहां
आपका शरीर
समाप्त होता
है? कहां
शुरू होता है?
कहां है
सीमा उसकी? अभी इस क्षण
में भी कहां
है उसकी सीमा?
किस जगह हम
मानें कि यहां
मेरा शरीर
समाप्त हुआ? सूरज को हम अपने
शरीर का
हिस्सा मानें
या न मानें? यह बडा सवाल
है।
वैज्ञानिक
पूछते हैं कि
इसमें कहां हम
समाप्त करें
शरीर को?
वहां
सूरज पर जरा—सी
हलचल होती है
और आपमें फर्क
हो जाता है।
आपको पता नहीं
है। पिछले बीस
वर्षों में
सूरज और आदमी
के शरीर पर
गहन अध्ययन
हुए हैं।
अमेरिका
के एक रुग्ण
चिकित्सालय
में, वे
बड़े हैरान थे
कि किसी—किसी
दिन
विक्षिप्त
लोगों का जो
हिस्सा था, उसमें किसी—किसी
दिन पागल
ज्यादा पागल
मालूम पड़ते थे।
और कभी—कभी
बहुत शांत
मालूम पड़ते थे
और कभी—कभी
बहुत पागल
मालूम पड़ते थे।
और जब यह
पागलपन का दौर
आता था, तो
किसी एक पागल
को नहीं आता
था, यह
सारे पागलों
को आता था।
ऐसा लगता था
कि एक
पीरियाडिकल
सर्किल है।
जैसे समुद्र
में बाढ़ आती
है, उतर
जाती है, ज्वार
चढ़ता है, भाटा
आ जाता है।
तो तीन
वर्ष तक
निरंतर उन
पागलों के
रिकॉर्ड को
रखा गया कि
किस दिन, कब, क्यों?
कोई कारण नहीं
मिलता था।
क्योंकि भोजन
में कोई फर्क
पड़ा? नहीं
पड़ा। कोई
अधिकारी बदले
गए? नहीं
बदले गए। कोई
चिकित्सा
बदली गई? नहीं
बदली गई। कोई
फर्क नहीं है।
जैसी
व्यवस्था है,
रूटीन, वैसा
सब चल रहा है।
अचानक एक दिन
सारे पागल
ज्यादा पागल
हो जाते हैं।
एक दिन सारे
पागल ज्यादा
शांत हो जाते
हैं।
सब तरह
की खोजबीन के
बाद जो नतीजा
हाथ में आया, वह यह कि
सूरज से संबंध
है। सूरज पर
तूफान जब उठते
हैं, तब वे
पागल ज्यादा
पागल हो जाते
हैं। और जब
सूरज का तूफान
शांत हो जाता
है, तो वे
पागल शांत हो
जाते हैं।
और अब
तो एक पूरा
विज्ञान खड़ा
हो रहा है कि
सूरज पर जो
कुछ घटता है, उसका ठीक
अध्ययन किए
बिना, आदमी
के जीवन में
क्या घटता है,
नहीं कहा जा
सकता। हर
नब्बे साल में
सूरज पर बड़ी
क्रांति घटित
होती है। और
जमीन पर जो भी
उपद्रव होते
हैं, वे हर
नब्बे साल के
पीरियड में
होते हैं। हर
ग्यारह साल
में सूरज ठीक
नहीं कि होते;
आप थे। और
नहीं पहचान
पाए, इसीलिए
आप अभी भी हैं।
नहीं तो अभी
तक तिरोहित हो
गए होते। अगर
पहचान गए होते,
तो वह
रास्ता आपको
दिख गया होता,
तो आप अभी
तक वाष्पीभूत
होकर दूसरे
लोक में प्रवेश
कर जाते। हम
हैं इसलिए, तभी तक हम
हैं, जब तक
हम नहीं पहचान
पाते, जब
तक हमें नहीं
दिखाई पड़ पाता।
एक
व्यक्ति में
भी हमें झलक
मिल जाए विराट
की, तो
फिर सब में
मिलने लगेगी।
वह तो शुरुआत
है। कोई राम
और कृष्ण अंत
थोड़े ही हैं, शुरुआत हैं।
उनमें दिखाई
पड़ जाए, तो
फिर कहीं भी
दिखाई पड़ने
लगेगी। फिर
हमारा अनुभव
हो गया।
इसलिए
हमने पत्थर की
भी मूर्तियां
बनाईं।
जिन्होंने
पत्थर की मूर्तियां
बनाईं, बड़े होशियार
लोग थे।
क्योंकि
उन्हें एक दफा
दिखाई पड़ गया,
तो फिर
पत्थर में भी
दिखाई पड़ने
लगा। एक दफा
दिखाई पड़ जाए,
तो कहीं भी
दिखाई पड़ेगा।
फिर पत्थर में
भी वही दिखाई
पड़ेगा। फिर
कोई कारण नहीं
है। फिर कहीं
कोई बाधा नहीं
है। फिर कोई
रुकावट रोक
नहीं सकती। जो
मुझे दिख गया
एक दफा, वह
फिर मैं कहीं
भी देख लूंगा।
लेकिन
देखने के लिए
बड़ी बात यह
नहीं है कि
राम भगवान हैं
या नहीं। यह
बड़ा सवाल नहीं
है। यह असंगत
है। बड़ा सवाल
यह है कि मेरे
पास भगवान को
देखने की आंख
है या नहीं!
बुद्ध
के पिछले जन्म
की घटना है कि
बुद्ध पिछले
जन्म में, जब वे
अज्ञानी थे और
बुद्ध नहीं
हुए थे.।
अज्ञान का एक
ही मतलब है
हमारे मुल्क
में कि जब तक
उनको पता नहीं
चला था कि मैं
भगवान हूं। जब
तक वे जानते
थे कि मैं
आदमी हूं। तब
जब वे अज्ञानी
थे, उनके
गांव में एक
बुद्धपुरुष
का आगमन हुआ।
तो बुद्ध उनका
दर्शन करने गए।
उनके चरणों
में गिरकर
नमस्कार किया।
और जब वे
नमस्कार करके
खड़े हुए, तो
बहुत चकित हो
गए। समझ में
नहीं पड़ा कि
क्या हो गया!
वे जो बुद्धपुरुष
थे, उन्होंने
बुद्ध के
चरणों में सिर
रखकर नमस्कार
किया।
तो
बुद्ध बहुत
घबड़ा गए और
उन्होंने कहा, आप यह
क्या करते
हैं! इससे
मुझे पाप
लगेगा। मैं
आपके पैर छुऊं,
यह उचित है।
क्योंकि आप पा
चुके हैं, मैं
अभी भटक रहा
हूं। आप मंजिल
हैं, मैं
अभी रास्ता
हूं। मैं आपके
चरणों में
झुकूं, यह
ठीक है। अभी
मेरी खोज बाकी
है, आपकी
खोज पूरी हो
गई। आप क्यों
मेरे चरणों
में झपकते हो?
तो उन
बुद्धपुरुष
ने बुद्ध को
कहा, तुझे
वही दिखाई
पड़ता है पर
छोटा तूफान
आता है। जमीन
पर जो युद्ध
होते हैं, उनका
पीरियाडिकल
जो वर्तुल है,
वह ग्यारह
साल है।
अमेरिका
में ऐसा
अध्ययन हो, तो समझ
में आता है।
रूस में भी इस
तरफ अध्ययन
हुए हैं। और
रूस के
मनोवैज्ञानिक
और वैज्ञानिक
भी चकित हो गए
हैं। और रूस
में तो मानना
बहुत मुश्किल
है कि उन्नीस
सौ सत्रह की
जो क्रांति है,
वह लेनिन, ट्राटस्की
और
कम्यूनिज्म
के कारण नहीं
हुई, बल्कि
चांद या सूरज
पर कोई उपद्रव
हुआ, उसके
कारण हुई।
पर रूस
भी क्या करे!
आज का सारा
अध्ययन यह बता
रहा है कि
सूरज पर जो भी
घटित होता है, आदमी
उससे तत्क्षण
प्रभावित
होता है। तत्क्षण!
और आदमी के
जगत में जो भी
घटित होता है,
वह सूरज से,
तारों से
जुड़ा है।
कहां
आप समाप्त होते
हैं? कहां
आपकी सीमा है?
आपकी
भी सीमा नहीं
है। राम की तो
फिक्र छोड़े, कृष्ण
की तो फिक्र
छोड़े। आप भी
असीम हैं।
यहां
प्रत्येक
बिंदु विराट
है। और यहां
प्रत्येक
बूंद सागर है।
हमें बूंद
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
देखने की
हमारी क्षमता
सीमित है।
तो
जैसे—जैसे क्षमता
बढ़ती है, वैसे—वैसे
आकार छूटने
लगता है और
निराकार
दिखाई पड़ने
लगता है। जैसे—जैसे
क्षमता विराट
होने लगती है,
बड़ी होने
लगती है, विराट
प्रकट होने
लगता है। जिस
दिन हमारे पास
देखने का कोई
ढांचा नहीं रह
जाता, दृष्टि
पूरी मुक्त और
शून्य हो जाती
है, उस दिन
हम विराट के
सामने खड़े हो
जाते हैं।
राम को
आप देखते, तो आप तो
आदमी ही कहते।
क्योंकि आप
आदमी के सिवाय
राम में भी
कुछ नहीं देख
सकते हैं। आप कृष्ण
को देखते, तो
उनको भी आदमी
कहते।
क्योंकि आपके
देखने का ढंग!
लेकिन कुछ और
तरह के देखने
वाले लोग भी
हैं।
उन्होंने कृष्ण
में देख लिया
भगवान को, उन्होंने
राम में देख
लिया भगवान को।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि राम
हुए, कृष्ण
हुए, बुद्ध,
महावीर हुए,
जीसस हुए, लाओत्से हुए,
ये सब बहुत
पहले हुए, अब
क्यों नहीं
होते हैं?
अब भी
होते हैं।
लेकिन पहले
उन्हें
पहचानने वाले
ज्यादा लोग थे, अब उन्हें
पहचानने वाले
कम लोग हैं।
बस, उतना
ही फर्क है।
और आप इस
फिक्र में न
पड़े। अगर आप
बुद्ध के समय
भी होते, तो
आप बुद्ध को
पहचान नहीं
सकते थे। और
आप थे। यह
कहना अभी, जो
तू देख सकता
है। मैं तेरे
भीतर उसको भी
देखता हूं जो
तुझे दिखाई
नहीं पड़ता है।
मैंने जिसे पा
लिया है, वह
मुझे तेरे
भीतर भी दिखाई
पड़ता है। मैं
तेरे चरण नहीं
छू रहा हूं; मैं उसके
चरण छू रहा
हूं। और एक
दिन तुझे भी
वह दिखाई पड़
जाएगा। यह समय
का भर फासला
है। चरणों में
कोई फर्क नहीं
है, समय भर
का फासला है।
जो आज तुझे
दिखाई नहीं पड़
रहा है, मुझे
दिखाई पड़ रहा
है, वह कल
तुझे भी दिखाई
पड़ जाएगा।
और जब
बुद्ध को
ज्ञान हुआ, तो
उन्होंने
पहला स्मरण
अपने पिछले
जन्म के उस
बुद्धपुरुष
का किया है।
उन्होंने कहा
कि आज मैं समझ
पाया कि
उन्हें क्या
दिखाई पड़ा
होगा। आज मुझे
भी दिखाई पड़ रहा
है, लेकिन
यह सदा मेरे
साथ था और
मुझे दिखाई
नहीं पड़ा। नजर
न हो, तो
आपके पास भी
रखी हो संपदा,
तो भी दिखाई
नहीं पड़ सकती।
अंधे के पास
दीया जल रहा
हो, क्या
अर्थ है? और
बहरे के पास
वीणा बज रही
हो, क्या
अर्थ है? कोई
अर्थ नहीं है।
क्योंकि वह
घटना घट ही
नहीं रही है।
जब तक आपके
पास संवेदना
की इंद्रिय न
हो, तब तक
कुछ भी नहीं
है।
अगर
आपको भगवान
दिखाई न पड़ता
हो राम में, तो इसकी
फिक्र में मत
पड़ना कि राम
भगवान हैं या
नहीं। इसका
आपके पास
निर्णय करने
का कोई उपाय
नहीं है। कोई
मापदंड, कोई
तराजू नहीं है,
जिस पर नाप
सकें कि कौन
आदमी भगवान है
और कौन नहीं
है। इस फिक्र
में भी मत
पड़ना। यह
व्यर्थ की
कोशिश है।
अगर
आपको राम में, कृष्ण
में, बुद्ध
में, कहीं
भगवान न दिखाई
पड़ते हों, तो
आप इस फिक्र
में पड़ना कि
मेरे पास आंख
भगवान को
देखने की है
या नहीं! उसकी
खोज में लग जाना।
जिस दिन वह आंख
आपके पास होगी,
उस दिन राम
में ही नहीं, रावण में भी
भगवान दिखाई
पड़ेंगे। उस
दिन फिर कोई
जगह ही न
बचेगी, जहां
वे न हों।
नानक
गए मक्का, तो सो गए
रात। थके थे।
पुजारी बहुत
चिंतित हुए, वे आए।
क्योंकि नानक
ने पैर कर लिए
थे मक्का के
पवित्र मंदिर
की तरफ। तो उन
पुजारियों ने
कहा कि नासमझ,
अपने को बड़ा
ज्ञानी समझता
है, और
इतनी भी तुझे
अक्ल नहीं कि
पवित्र मंदिर
की तरफ पैर
किए हुए है!
तो
नानक ने कहा
कि तुम मेरे
पैर वहां कर
दो, जहां
उसका पवित्र
मंदिर न हो।
मैं भी बड़ी
चिंता में हूं।
तुम आ गए, अच्छा
हुआ। मैंने भी
बहुत सोचा कि
पैर कहां करूं,
क्योंकि वह
सब जगह मौजूद
है। और कहीं
तो पैर
करूंगा! सोना
है मुझे; थका—मादा
हूं। अब तुम आ
गए, तुम हल
कर दो। तुम
मेरे पैर पकड़ो
और उस तरफ कर
दो, जहां
वह न हो।
कहानी
बड़ी मीठी है।
और यह कि
पुजारियों ने
उनके पैर सब
तरफ करने की
कोशिश की और
बड़ी मुश्किल
में पड़ गए, जहां पैर
किए, वहीं
मक्का हट गया।
मक्का हटा कि
नहीं, यह
बड़ा सवाल नहीं
है। बड़ा सवाल
यही है कि सच
में ही कहां
पैर करिएगा जहां
भगवान नहीं
है!
नानक
को अगर एक दफा
दिखाई पड़ गया
है उसका होना, तो अब कोई
जगह नहीं है, जहां वह न हो।
अब वह सब जगह
है। अब तो
कहीं भी पैर
करो, कहीं
भी सिर रखो।
पैर भी उस पर
ही पड़ेंगे, सिर भी उस पर
पड़ेगा। उठो—बैठो
तो उसके भीतर,
चलो तो उसके
भीतर, अब
वही है और कुछ
भी नहीं है।
देखने
की क्षमता हो, नानक की आंख
हो, तो फिर
सब जगह है। और
हमारी आंख हो,
तो फिर कहीं
भी नहीं है।
फिर हमको
चिंता इसकी भी
होती है कि
राम में भी शक
होता है, बुद्ध
में भी शक
होता है।
और आप
ऐसा मत समझना
कि आपको ही शक
होता है। उस
दिन भी जो लोग
थे, उनको
भी शक था। कोई
सारे लोगों ने
बुद्ध को मान
लिया था, ऐसा
नहीं है, कि
सारे लोगों ने
महावीर को मान
लिया था, ऐसा
नहीं है; कि
सारे लोगों ने
कृष्ण को मान
लिया था, ऐसा
भी नहीं है।
बहुत थोड़े से
लोग पहचान
पाते हैं।
जो
पहचान ले, वह
धन्यभागी है।
इस पहचानने से
कोई कृष्य को
फायदा होता है,
ऐसा नहीं है।
इस पहचानने से,
वह जो पहचान
लेता है, उसको
ही फायदा हो
जाता है। एक
में भी दिख
जाए, तो
देखने की कला
आ जाती है, फिर
सब में देखा
जा सकता है।
एक दूसरे
मित्र ने पूछा
है कि कीर्तन
के समय हम
अपने मन के
सामने कौन—सी
छवि रखें, जिससे
मन केंद्रित
हो जाए?
मन को
केंद्रित
नहीं करना है, मन को
विसर्जित
करना है। इन
दोनों में
फर्क है।
मन
केंद्रित भी
हो जाए, तो भी मन
रहेगा। कोई
छवि मन में
बना ली, तो
छवि पर मन
केंद्रित हो
जाएगा। लेकिन
छवि रहेगी, मन भी रहेगा।
दो बने रहेंगे।
कीर्तन
का अंतिम
लक्ष्य, ध्यान का
अंतिम लक्ष्य,
प्रार्थना
का, पूजा
का अंतिम
लक्ष्य—स्थ बच
रहे, छवि
कोई न रहे।
तो जब
आप कीर्तन कर
रहे हैं, तो छवि की
फिक्र न करें।
छवि आ जाए, तो
हटाने की भी
फिक्र न करें।
छवि न आए, तो
लाने की भी
फिक्र न करें।
आप तो सिर्फ
लीन होने की, डूबने की
फिक्र करें।
मिटने की
फिक्र करें।
जब आप
एकाग्र करने
की चेष्टा
करते हैं, तो मन पर
तनाव पड़ता है।
तनाव बेचैनी
पैदा करेगा।
एकाग्र करने
की चेष्टा ही
मत करें। खोने
की चेष्टा
करें। जैसे
बूंद सागर में
डूब रही है, ऐसे आप
विराट में डूब
रहे हैं, निराकार
में खो रहे
हैं। जैसे
दीये को कोई
फूंककर बुझा
दे और वह खो
जाए शून्य में,
ऐसे आप भी
खो रहे हैं।
लीन होने की
चिंता करें, डूबने की
चिंता करें, मिटने की
चिंता करें।
एकाग्र करने
की चेष्टा मत
करें, विसर्जित
होने की, मेल्टिंग,
जैसे बर्फ
पिघल रही है।
एक
खयाल कर लें, जैसे
बर्फ हो गए आप
और पिघल रहे
हैं, और
बहते जा रहे
हैं, और
नदी में लीन
होते जा रहे
हैं। पिघलने
की, खोने
की, डूबने
की!
अगर
आपके कीर्तन
में यह भाव—दशा
बनी रहे, धीरे— धीरे
नृत्य गहन
होने लगेगा, धीरे— धीरे
आवाज प्रगाढ़
होने लगेगी।
और धीरे— धीरे
नृत्य के साथ
आपके भीतर
बहुत कुछ
टूटने लगेगा,
समाप्त
होने लगेगा।
वह जो अहंकार
था, वह
गिरने लगेगा।
कोई क्या
कहेगा! कोई
क्या सोचेगा!
मैं क्या
पागलपन कर रहा
हूं! वह सब
समाप्त होने
लगेगा। धीरे—
धीरे— धीरे आप
भूल जाएंगे कि
आप हैं, भूल
जाएंगे कि जगत
है। और जब यह
विस्मरण का
क्षण आ जाए कि
न समझ में आए कि
मैं कौन हूं न
समझ में आए कि
चारों तरफ कौन
है, तो
समझना कि यह
स्मृति की
शुरुआत हुई।
इस
विस्मरण में, जगत की
तरफ से इस
विस्मरण में
भीतर का स्मरण
आना शुरू हो
जाता है। जब
जगत भूलने
लगता है, तो
परमात्मा याद
आने लगता है।
परमात्मा के
याद आने का
मतलब यह नहीं
है कि कोई छवि
याद आने लगती
है। परमात्मा
के याद आने का
मतलब यह है कि
वह जो जिसको
विलियम जेम्स
ने ओशनिक
फीलिंग कहा है,
समुद्र
होने की भाव—दशा।
बूंद होने का
भाव नहीं, समुद्र
होने का भाव
आने लगता है।
फिर आप
विराट हो जाते
हैं। और फिर
हवाएं चलती
हैं, तो
ऐसा नहीं कि
आपके बाहर चल
रही हैं, आपके
भीतर चलती हैं।
वृक्ष हिलते
हैं, तो
आपके बाहर
नहीं, आपके
भीतर हिलते
हैं। चांद—तारे
आपके भीतर
चलते हैं।
आपके आस—पास
जो लोग नाच
रहे हैं और
कीर्तन कर रहे
हैं, वे भी
आपके बाहर
नहीं रह जाते,
आपके भीतर
प्रवेश हो
जाते हैं। आप
फैलकर बड़े हो
जाते हैं। और
आपके भीतर सब
होने लगता है।
छवि की
बहुत फिक्र न
करें। आ जाए, तो हटाने
की भी चेष्टा
मत करें।
क्योंकि
हटाने में भी
फिर चेष्टा
शुरू हो जाती
है। आ जाए तो
राजी, न आए
तो राजी। अगर
आप किसी छवि
को प्रेम करते
रहे हैं, तो
वह आ जाएगी।
अगर कृष्ण से
आपका लगाव है,
तो जब आप
मस्त होंगे तो
पहली घटना यही
घटेगी कि
कृष्ण आपको
दिखाई पड़ने
लगेंगे। अगर
आपका
क्राइस्ट से
प्रेम है, तो
आप मस्त होते
से, पहली
घटना, क्राइस्ट
के पास आप
पहुंच जाएंगे।
मजे से
उनको रहने दें।
उनको हटाने की
भी कोई जरूरत
नहीं है। लेकिन
उन पर एकाग्र
होने की भी
कोई जरूरत
नहीं हे। धीरे—
धीरे वे भी खो
जाएंगे। और जब
वे भी खो
जाएंगे, तब निराकार
प्रकट होता है।
जहां राम भी
खो जाते हैं, कृष्ण भी खो
जाते हैं, बुद्ध
भी, क्राइस्ट
भी...। क्योंकि
वे हमारे
अंतिम पड़ाव
हैं।
इसे
ठीक से समझ
लें।
जहां
संसार समाप्त
होता है, वहां खड़े
हैं क्राइस्ट,
बुद्ध, कृष्ण।
उनकी
प्रतिमाएं
आखिरी तख्ती
है, जहां
संसार समाप्त
होता है; वहां
वे खड़े हैं।
जब उनका भाव
आता है, तो
उसका अर्थ है
कि अब हम
किनारे आ गए।
लेकिन उन
तख्तियों को
पकड़कर रुक
नहीं जाना है।
देखते रहना है,
और आगे, और
आगे, और
आगे, जहां
वे भी खो
जाएंगे, वहां
लीन हो जाना
है। देखते—देखते,
आनंद से, 'धीरे— धीरे
सब छोड़ देना
है।
यह
छोड़ने की घटना
शरीर को छोड़ने
से शुरू होती है।
कीर्तन की यही
मौज और आनंद
है कि आप शरीर
को छोड़ दिए हैं।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि कोई
व्यवस्था
होनी चाहिए।
कोई ढंग। से
नृत्य, कोई ताल, लय,
यह सब
व्यवस्था
होनी चाहिए!
व्यवस्था
से कीर्तन का
कोई संबंध
नहीं है। सच
तो यह है कि
कीर्तन
व्यवस्था
तोड्ने का एक उपाय
है। कि आपके
भीतर अब कोई
व्यवस्था
करने की
चेष्टा नहीं
है। आपने छोड़
दिया शरीर को, जैसा जो
हो रहा है, आप
होने दे रहे
हैं। अब आप
बीच—बीच में
नहीं आ रहे
हैं कि कैसा
पैर उठाऊं, कैसा पैर न
उठाऊं। अब जो
हो रहा है, होने
दे रहे हैं।
और यह
छोड़ना शरीर का, पहला
अनुभव है
विसर्जन का।
फिर मन को भी
छोड़ देना है।
जो हो रहा है, होने देना
है। धीरे—
धीरे शरीर और
मन अपने आप
गति करने लगेंगे
और आप सिर्फ
साक्षी रह
जाएंगे, अपने
ही शरीर, अपने
ही मन के।
मैं पढ़
रहा था, रूसी
अंतरिक्ष
यात्री पैकोव
जब पहली दफा
छत्तीस घंटे
जमीन की परिधि
में परिक्रमा
किया, तो
उसने अपने संस्मरण
लिखे लौटकर।
उसने अपनी
डायरी में
लिखा है...।
क्योंकि जैसे
ही जमीन का गुरुत्वाकर्षण
समाप्त होता
है, तो हाथ—
पैर निर्भार
हो जाते हैं, वेटलेस हो
जाते हैं।
अंतरिक्ष में
कोई वजन तो
नहीं है। वजन
तो आप में भी
नहीं है। जमीन
की कशिश की
वजह से वजन
मालूम पड़ता है।
दो सौ मील
जमीन के पार
जाने के बाद
वजन समाप्त हो
जाता है, आप
निर्भार हो जाते
हैं।
तो
पैकोव ने लिखा
है कि जब मैं
सोने लगा, तो बड़ी
मुसीबत मालूम
पड़ी। क्योंकि
मेरा पूरा
शरीर तो बेल्ट
से बंधा था, लेकिन मेरे
दोनों हाथ ऐसे
अधर में लटक
जाते थे। तो
मैं उनको
खींचकर नीचे
कर लेता।
खींचकर नीचे
कर लेता तब तो
ठीक, लेकिन
जैसे ही झपकी
आनी शुरू होती,
मेरा
खिंचाव बंद हो
जाता, हाथ
दोनों फिर अधर
में लटक जाते!
तो उसने लिखा है
कि बीच आधी
रात में नींद
खुली, अपने
दोनों हाथ ऐसे
लटके हुए
देखकर मुझे
पहली दफे
साक्षी— भाव
हुआ, कि
मेरा शरीर
अपना ही शरीर,
अपने बस के
बाहर ऐसा अधर
में लटका हुआ
है!
कीर्तन
की गहराई में
जब शरीर को आप
बिलकुल छोड़
देते हैं
उन्मुक्त, और जो
होता है, होने
देते हैं, तत्क्षण
आपको भीतर
लगता है कि
मैं शरीर से
अलग हूं। अब
शरीर अपनी गति
से चल रहा है।
शरीर अपनी गति
कर रहा है और
मैं देख रहा
हूं। जैसा
पैकोव को हुआ
होगा, ऐसा
कीर्तन में
आपको सहज ही
हो सकता है।
और बड़े
मजे की बात है
कि आज नहीं कल
अंतरिक्ष—यात्रा
को हम आत्म—साधना
के लिए उपयोग
में ला सकेंगे।
और अतीत में
साधकों को जो
काम वर्षों तक
करके हल होता
था, वह
अंतरिक्ष में
साधक को घंटों
में भी हो जा सकता
है। क्योंकि
जमीन पर रहकर,
मैं शरीर
नहीं हूं इस भाव
का अनुभव करने
में वर्षों लग
जाते हैं, क्योंकि
जमीन पूरे
वक्त खयाल
दिलाती है कि
तुम शरीर हो।
इसलिए
हमारा साधक
हिमालय के
पहाड़ पर दूर
जाता था, ऊंचाई पर।
जितनी ऊंचाई
पर जाता था, जमीन से
जितना दूर, उतना
निर्भार होना
आसान हो जाता
था। इसलिए
हमने कैलाश
खोजा था।
लेकिन अब
कैलाश छोटी—मोटी
जगह है। अब हम
अंतरिक्ष में, जमीन को
बिलकुल छोड़
सकते हैं। और
जब अंतरिक्ष
यान में किसी
साधक का शरीर
हवा में ऐसे
उड़ रहा हो, जैसे
कि गुब्बारा
गैस का भरा
हुआ हवा में
होता है, तब
यह अनुभव करना
बिलकुल आसान
होगा कि मैं
शरीर नहीं हूं।
कीर्तन
आपको निर्भार
कर जाता है, शरीर को
आप छोड़ देते
हैं, बच्चे
की तरह। कभी—कभी
तो नृत्य बड़ा
क्रांतिकारी
काम कर देता
है।
सूफियों
में दरवेश
नृत्य की
व्यवस्था है।
दरवेश नृत्य
वैसा होता है, जैसे
बच्चे चक्कर
लगाते हैं, एक ही जगह
खड़े होकर
फिरकनी करते
हैं। तो दरवेश
नृत्य में एक
ही जगह खड़े
होकर फिरकनी
की। तरह चक्कर
लगाया जाता है,
व्हिरलिंग।
जब आप जोर से
एक ही ' जगह
खड़े होकर
चक्कर लगाते
हैं, सिर
घूमने लगता है,
चक्कर
मालूम होता है।
लगता है, गिर
जाऊंगा, गिर
जाऊंगा।
लेकिन अगर आप
गिरे न और
लगाए चले जाएं,
तो थोड़ी ही
देर में आपको
पता लगेगा कि
शरीर चक्कर
लगा रहा है और
आप खड़े हो गए।
छोटे
बच्चों को
बहुत मजा आता
है। मां—बाप
रोकते हैं कि
मत करो, चक्कर आ
जाएगा। मत
रोकना।
क्योंकि छोटे
बच्चों को जो
मजा आता है
फिरकनी मारने
में, वह
मजा थोड़े से
आत्मा के सुख
का ही है।
क्योंकि
फिरकनी मारने
में उनको लगता
है कि मैं
शरीर नहीं हूं।
शरीर घूमने
लगता है यंत्र
की तरह, और
बीच में वे
खड़े हो जाते
हैं। बच्चे
निर्दोष हैं,
उनको यह
जल्दी हो जाता
है।
नृत्य
भी आपको बचपन
में ले जाना
है। कीर्तन
आपको बच्चे की
तरह सरल कर
देना है। जो
हो रहा है, होने
देना है। और
भीतर सजग शांत
देखते रहना है।
यह साक्षी—
भाव बना रहे
और अपने को
विसर्जित
करने की धारणा
बनी रहे, तो
आपका कीर्तन
सफल हो जाता
है।
अब हम
सूत्र को लें।
हे
परमेश्वर! सखा
ऐसा मानकर, आपके इस
प्रभाव को न
जानते हुए
मेरे द्वारा
प्रेम से अथवा
प्रमाद से भी,
हे कृष्ण, हे यादव, हे
सखे, इस
प्रकार जो कुछ
हठपूर्वक कहा
गया है और हे अच्युत,
आप हंसी के
लिए, विहार,
शय्या, आसन
और भोजनादिकों
में अकेले
अथवा सखाओं के
सामने भी
अपमानित किए
गए हैं, वे
सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप,
आपसे मैं
क्षमा कराता
हूं।
यह बड़ी
मधुर बात है।
बहुत मीठी, अत्यंत आंतरिक।
जिस दिन
अर्जुन को
दिखाई पड़ा है कृष्ण
का विराट होना,
उनका
परमात्मा
होना, उस
दिन
स्वाभाविक है
कि उसका मन
अनेक— अनेक पीड़ाओं,
अनेक—अनेक
शरमों, अपराध
के भाव से भर
जाए। क्योंकि
इन्हीं कृष्ण
को अनेक बार
कंधे पर हाथ
रखकर उसने कहा
है, हे
यादव, हे
मित्र, हे
सखा! इस विराट
को मित्र की
तरह व्यवहार
किया है। आज
सोचकर भी भय
लगता है। आज
सोचकर भी उसे
लगता है कि
मैंने क्या
किया! क्या
समझा मैंने
उन्हें अब तक!
और मैंने कैसा
व्यवहार किया!
काश, मुझे
पता होता कि
क्या छिपा है
उनके भीतर, तो ऐसा
व्यवहार मैं
कभी न करता।
लेकिन
बड़े मजे की
बात है कि यह
अर्जुन को ही
लगता हो, ऐसा नहीं है।
अगर आप पत्नी
हैं, या
अगर आप पति
हैं, या
पिता हैं, या
बेटा हैं, जिस
दिन आपको
परमात्म—
अनुभव होगा, उस दिन आपको
भी लगेगा कि
पत्नी के साथ
मैंने कल तक
कैसा व्यवहार
किया! क्योंकि
तब आपको पत्नी
में भी वही
दिखाई पड़
जाएगा। तब
आपको लगेगा, मैंने नौकर
के साथ कैसा
व्यवहार किया!
क्योंकि तब
आपको नौकर में
भी वही दिखाई
पड़ जाएगा। तब
आपको लगेगा, अब तक जो भी
मैंने किया, वह नासमझी
थी। क्योंकि
जिसको मैं जो
समझ रहा था, वह वह है ही
नहीं। यह तो
प्रतीक है
अर्जुन का यह
कहना, यह
सभी
अनुभवियों को
अनुभव होगा।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
जब उनकी
गीतांजलि प्रकाशित
हुई और उन्हें
नोबल प्राइज
मिली। नोबल
प्राइज जब तक
न मिली थी, तब तक तो
कोई फिक्र
उनकी करता
नहीं था। जब
नोबल प्राइज
मिली, तो
स्वागत—समारंभ
शुरू हो गए।
सारे कलकत्ते
ने स्वागत
किया। विरोधी
भी मित्र बन
गए।
लेकिन
एक बुढ़ा उनके
पड़ोस में था, जो नोबल
प्राइज से जरा
भी न डरा। और
वह का उन्हें
बड़ा परेशान
किए हुए था, कि जब उनकी
कविताएं छपती
थीं, तो वह
का अक्सर उनको
रास्ते में
मिल जाता आते—जाते
और कहता कि सुन!
परमात्मा का
अनुभव हुआ है?
क्योंकि वे
परमात्मा के
बाबत कविताएं
लिख रहे थे।
ऐसा उनसे कोई
भी नहीं पूछता
था। कविता ठीक
है कि नहीं, यह अलग बात
है। लेकिन ऐसा
उनसे कोई भी
नहीं पूछता था
कि परमात्मा
का अनुभव हुआ
है!
का ऐसी
तेज आंख से
देखता था कि
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि
उस आदमी से
जितना मैं
डरता था, किसी से भी
नहीं डरता था।
और हिम्मत भी
नहीं पड़ती थी
कहने की कि
अनुभव हुआ है,
क्योंकि
अनुभव हुआ भी
नहीं था। और
उससे कहने में
कोई सार भी
नहीं था। उसकी
आंख ही डरा
देती थी।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
मैंने बड़े
प्रेम के गीत
गाए, बड़ी
मित्रता के, लेकिन मेरे
मन में उस बूढ़े
के प्रति कोई
सदभाव कभी
नहीं जन्मा।
मैं सारे जगत
के प्रति
प्रेम का गीत
गा सकता था उस बूढ़े
को छोड्कर; वह जो का था, वह जो पड़ोस
में ही रहता
था! और उसका जो
व्यवहार था, वह ऐसा था कि
बड़ा कठोर था।
फिर
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
लेकिन एक दिन
सारी बात बदल
गई। जा रहा था
समुद्र के
किनारे, वर्षा हुई
थी थोड़ी, और
रास्ते के ' किनारे
डबरों में
पानी भर गया
था। सांझ उतर
गई। चांद आ
गया। पूरे
चांद की रात
थी, डबरों
में, गंदे
डबरों में सड़क
के किनारे, चांद की छवि
बनने लगी, बड़ी
प्यारी। फिर
सागर के
किनारे जाकर
देखा चांद को।
फिर अचानक एक
खयाल आया कि
चांद तो चांद
ही है, चाहे
सागर का
स्वच्छ जल हो
और चाहे सड़क
के किनारे बने
गंदे डबरे का
गंदा जल हो, चांद के
प्रतिबिंब
में तो कोई
गंदगी नहीं
होती। चाहे वह
गंदे डबरे में
बन रहा हो और
चाहे स्वच्छ
जल में बन रहा
हो, प्रतिबिंब
तो गंदा नहीं
होता गंदे जल
के कारण।
इस
खयाल के आते
ही समाधि लग
गई। यह खयाल
अनूठा है।
इसका मतलब हुआ
कि सीमाएं सब
टूट गईं। और
प्रतिबिंब
कहीं भी बन
रहा हो उसका, चाहे राम
में, चाहे
रावण में, बराबर
हो गया।।
समाधि लग गई, आनंद से
हृदय भर गया।
नाचता हुआ घर
की तरफ लौटने
लगा। रास्ते
पर वह आदमी
मिला। आज मुझे
डरा नहीं पाया,
आज उसे
देखकर भी मैं
आनंदित हुआ।
उसे मैंने गले
लगा लिया। आज
उसने मेरी आंख
में आंख
झांककर देखा,
लेकिन
मुझसे कहा
नहीं कि क्या
ईश्वर का
अनुभव हुआ है।
उसने कहा, तो
अच्छा, हो
गया! मालूम
पड़ता है, हो
गया।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है, उस दिन के
बाद तीन दिन
तक ऐसी दशा
बनी रही कि जो मिल
जाए, उससे
ही गले मिलने
का हो मन—मित्र
हो कि शत्रु
हो, अपरिचित
कि परिचित, नौकर, मित्र—
कोई भी हो। और
फिर आदमी चुक
गए, तो गाय,
घोड़े, उनसे
भी गले मिलना
होने लगा। फिर
वे भी चुक गए, तो वृक्ष, पत्थर, दीवाल।
और
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
दीवाल से
मिलकर भी वही
अनुभव होने
लगा, जो
अपनी प्रेयसी
से मिलकर हो।
लेकिन
उस दिन लगा कि
अब तक जो
मैंने लोगों
से व्यवहार
किया है, वह बड़ा बुरा
था। जाकर
क्षमा मांगने
गया उस बुढ़े
से कि मुझे
माफ कर दो। मैं
तुम्हें
पहचान ही न
पाया कि तुम
कौन हो। आज
पहचान पाया
हूं तो सबसे
क्षमा मांगने
के सिवाय और
कोई उपाय नहीं
है।
जिस
दिन आपको भी
थोड़ी—सी झलक
मिलेगी, सिवाय क्षमा
मांगने के और
कोई उपाय नहीं
रह जाएगा।
क्योंकि
चारों तरफ वही
विराट मौजूद
है, और हम
उसके साथ जो
व्यवहार कर
रहे हैं, वह
बड़ा ओछा है।
पर होगा ही
व्यवहार ओछा,
क्योंकि
दृष्टि ओछी है।
क्योंकि वह
विराट तो कहीं
दिखता ही नहीं
है।
ऐसा
मैंने सुना है, एक सूफी
कथा है। एक
सम्राट अपने
बेटे पर नाराज
हो गया, क्योंकि
बेटा कुछ
उपद्रवी, हठधर्मी
था, उच्छृंखल
था। नाराज
इतना हो गया
कि एक दिन
उसने बेटे को
राज्य का
निकाला दे
दिया। उसे कहा
कि तू राज्य
को छोड्कर चला
जा। एक ही
बेटा था। बड़ा
कष्ट था, लेकिन
छोड़ना पड़ा।
बाप की भी जिद
थी, बेटा
भी जिद्दी था।
बाप का ही
बेटा था, एक
से ही ढंग थे, दोनों अहंकारी
थे। बेटे ने
भी छोड़ दिया।
राज्य की सीमा
में मत टिकना!
तो राज्य की
सीमा में न
टिककर दूसरे
राज्य में चला
गया।
राजा
का बेटा था।
कभी जमीन पर
पैदल भी नहीं
चला था, कभी कोई काम
भी नहीं किया
था। तो सिवाय
भीख मांगने के
कोई उपाय नहीं
रहा। थोड़ा—बहुत
तंबूरा बजाना
जानता था, थोड़ा
गीत—वीत का
शौक था, तो
गीत, तंबूरा
बजाकर भीख
मांगने लगा।
दस
वर्ष बीत गए।
बाप बूढ़ा हुआ, मरने के
करीब आया। तो
अब उसे लगा कि
क्या करे, उस
बेटे को खोजा
जाए! तो
वजीरों को
भेजा कि कहीं
भी मिले, शीघ्र
ले आओ। मौत
मेरी करीब है;
वही मालिक
है, जैसा
भी है।
उस दिन
जब उस छोटे—से
गांव में, जहां एक
चाय की दूकान
के सामने वह
भावी सम्राट
भीख मांग रहा
था...। गर्मी के
दिन थे और आग
बरस रही थी और
रास्ते तप रहे
थे, उन पर
पैदल नंगे
चलना मुश्किल
था। उसके पास
जूते नहीं थे।
तो वह भीख
मांग रहा था
एक छोटे—से
बर्तन में और लोगों
से कह रहा था
कि जूते के
लिए मुझे पैसे
चाहिए। होटल
में जो लोग
चाय—वाय पी
रहे थे, गरीब—
गुरबे, वे
भी उसको पैसे,
दो पैसे, थोड़ी—बहुत
चिल्लर उसके
बर्तन में थी।
वजीर
का रथ आकर
रुका। वजीर ने
देखा, पहचान
गया। वस्त्र
अब भी वही थे, दस साल पहले
पहनकर जो घर
से निकला था।
फट गए
थे, चीथड़े
हो गए थे, गंदे
हो गए थे, पहचानना
मुश्किल था कि
ये सम्राट के
वस्त्र हैं।
लेकिन पहचान
गया मंत्री। आंखें
वही थीं।
चेहरा काला पड़
गया था। शरीर
सूख गया था।
हाथ में
भिक्षा— पात्र
था। पैर में
फफोले थे।
मंत्री
नीचे उतरा। वह
भिक्षा—पात्र
फैलाए हुए था।
भिक्षा—पात्र!
पास में रथ
आकर रुका है, सोचा कि
भिक्षा—पात्र
इस तरफ करूं।
देखा मंत्री
है। हाथ से
भिक्षा—पात्र
छूट गया। एक
क्षण में दस
साल मिट गए।
मंत्री
चरण पर गिर
पड़ा और कहा कि
महाराज, वापस चलें।
भीड़ इकट्ठी हो
गई। गांव सब आ
गया पास। लोग
पैरों पर
गिरने लगे। वे,
जिनके
सामने वह भीख
मांग रहा था, जो अभी भीख
देने से कतरा
रहे थे, वे
उसके पैरों पर
गिरने लगे, कहने लगे, माफ कर देना,
हमें क्या
पता था!
एक
क्षण में सब
बदल गया, सारे गांव
का रुख। एक
क्षण में बदल
गया राजकुमार
का रुख भी।
अभी वह भिखारी
था, एक क्षण
में सम्राट हो
गया। कपड़े वही
रहे, शरीर
वही रहा, आंखें
बदल गईं। रौनक
और हो गई।
जिंदगी, जैसा हम
उसे देख रहे
हैं, हमारी
आंख से जो
दिखाई पड़ रही
है जिंदगी, हमारी आंख
के कारण है। आंख
बदल जाए, सारी
जिंदगी बदल
जाती है। और
तब सिवाय
क्षमा मांगने
के कुछ भी न रह
जाएगा।
वह
पूरा गांव
पैरों पर
गिरने लगा कि
क्षमा कर देना, बहुत
भूलें हुई
होंगी हमसे।
निश्चित हुई
हैं। हमने
तुम्हें
भिखारी समझा,
यही बड़ी भूल
थी!
अर्जुन
यही कह रहा है
कि हमने
तुम्हें
मित्र समझा, यही बड़ी
भूल थी। और
मित्र समझकर
हमने वे बातें
कही होंगी, जो मित्रता
में कह दी
जाती हैं।
और
मित्र एक—दूसरे
को गाली भी दे
देते हैं। सच
तो यह है कि जब
तक गाली देने
का संबंध न हो, लोग
मित्रता ही
नहीं समझते!
जब तक एक—दूसरे
को गाली न
देने लगें, तब तक समझते
हैं, अभी
पराए हैं, अभी
कोई अपनापन
नहीं है।
तो
मित्र समझा है।
कभी कहा होगा, ऐ कृष्ण!
कभी कहा होगा,
ऐ यादव! कभी
कहा होगा, ऐ
मित्र! क्षमा
कर देना।
हठपूर्वक
बहुत—सी बातें
कही होंगी।
हठपूर्वक
अपनी बात
मनवानी चाही
होगी।
तुम्हारी बात
झुठलाई होगी।
विवाद किया
होगा। तुम गलत
हो, ऐसा भी
कहा होगा। तुम
गलत हो, ऐसा
सिद्ध भी किया
होगा।
अवमानना की
होगी।
ठुकराया होगा
तुम्हारे
विचार को।
और हे
अच्युत, हंसी के लिए
ही सही, तुमसे
वे बातें कही
होंगी, जो
नहीं कहनी
चाहिए थीं।
विहार में, शय्या पर, आसन में, भोजन
करते वक्त, मित्रों के
साथ, भीड़
में, एकांत
में, दूसरों
के सामने, न
मालूम क्या—क्या
कहा होगा! न
मालूम किस—किस
भांति आपको
अपमानित किया
होगा! या
दूसरे अपमानित
कर रहे होंगे,
तो सहमति
भरी होगी, विरोध
न किया होगा।
ये सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप,
अचिंत्य
प्रभाव वाले,
आपसे मैं
क्षमा कराता
हूं।
आपको
अब जैसा देख
रहा हूं और अब
तक जैसा आपको
देखा, इन
दोनों के बीच
जमीन—आसमान का
भेद पड़ गया है।
तो जो व्यवहार
मैंने आपसे
किए थे अनजान
में, न
जानते हुए
आपको, न
पहचानते हुए
आपको, उन
सबके लिए मुझे
माफ कर देना।
इस जगत
से भी हम माफी
मांगेंगे, क्योंकि
जगत परमात्मा
है। और हम जो
व्यवहार उससे
कर रहे हैं, वह परमात्मा
के साथ किया
गया व्यवहार
नहीं है। अगर
मानकर भी चलें
आप— अभी आपको
पता भी नहीं
है, सिर्फ
मानकर चलें—
कि यह जगत
परमात्मा है
और चौबीस घंटे
के लिए प्रत्येक
व्यक्ति से
ऐसा व्यवहार
करने लगें, जैसे वह
परमात्मा है,
तो आप
पाएंगे कि आप
बदलने शुरू हो
गए, आप दूसरे
आदमी हो गए।
आपके भीतर
गुणधर्म बदल
जाएगा।
सूफियों
की एक परंपरा
है, एक
साधना की विधि
है, कि जो
भी दिखाई पड़े,
उसे
परमात्मा
मानकर ही चलना।
अनुभव न हो, तो भी।
कल्पना करनी
पड़े, तो भी।
क्योंकि वह
कल्पना एक न
एक दिन सत्य
सिद्ध होगी।
और जिस दिन
सत्य सिद्ध
होगी, उस
दिन किसी से
क्षमा नहीं
मांगनी पड़ेगी।
मंसूर
ने कहा है कि
अगर परमात्मा
भी मुझे मिल
जाए, तो
मुझे क्षमा
नहीं मांगनी
पड़ेगी।
क्योंकि
मैंने उसके
सिवाय किसी
में और कुछ देखा
ही नहीं है।
अर्जुन
को मांगनी पड़
रही है, क्योंकि अब
तक उसने
परमात्मा में
भी कृष्ण को देखा
है, एक
मित्र को देखा
है, एक सखा
को देखा है।
फिर मित्र के
साथ जो संबंध
है...।
ध्यान
रहे, मित्रता
कितनी ही गहरी
हो, उसमें
शत्रुता
मौजूद रहती है।
और मित्रता
चाहे कितनी ही
निकट की हो, उसमें एक
दूरी तो रहती
ही है।
मन का
जो द्वंद्व है, वह सब
पहलुओं पर
प्रवेश करता
है। आप किसी
को शत्रु नहीं
बना सकते सीधा।
शत्रु बनाना
हो, तो
पहले मित्र
बनाना जरूरी
है। या कि आप
किसी को सीधा
शत्रु बना
सकते हैं? सीधा
शत्रु बनाने
का कोई उपाय
नहीं है।
शत्रुता भी
आती है, तो
मित्रता के
द्वार से ही
आती है। असल
में शत्रुता
मित्रता में ही
छिपी रहती है।
इसलिए
बुद्धिमानों
ने कहा है कि
जिनको शत्रु न
बनाने हों, उनको मित्र
बनाने से बचना
चाहिए। अगर आप
मित्र
बनाएंगे, तो
शत्रु भी
बनेंगे ही।
क्योंकि
मित्र और
शत्रु कोई दो
चीजें नहीं हैं।
शायद एक ही
घटना के दो
छोर हैं; दो
सघनताएं हैं
एक ही तरंग की।
तो
अर्जुन यह कह
रहा है कि
मित्रता में
बहुत बार
शत्रुता भी की
है। और
मित्रता में
बहुत समय ऐसे
वचन भी कहे
हैं, जो
शत्रु से भी
नहीं कहने
चाहिए। उन
सबकी मैं
क्षमा चाहता
हूं।
हे
विश्वेश्वर!
आप इस चराचर
जगत के पिता
और गुरु से भी
बड़े गुरु एवं
अति पूजनीय
हैं। हे अतिशय
प्रभाव वाले, तीनों
लोकों में
आपके समान
दूसरा कोई भी
नहीं है। अधिक
तो कैसे होवे?
इससे हे
प्रभो, मैं
शरीर को अच्छी
प्रकार चरणों
में रखकर और प्रणाम
करके स्तुति
करने योग्य आप
ईश्वर को प्रसन्न
होने के लिए
प्रार्थना
करता हूं। हे
देव, पिता
जैसे पुत्र के
और सखा जैसे
सखा के और पति
जैसे प्रिय
स्त्री के, वैसे ही आप
भी मेरे अपराध
को सहन करने
के लिए योग्य
हैं।
मैं
जानता हूं कि
आप क्षमा कर
देंगे। और मैं
जानता हूं कि
आप बुरा न
लेंगे, अतीत में जो
हुआ है। मैं
जानता हूं कि
आप
महाक्षमावान
हैं और जैसे
प्रियजन को
कोई क्षमा कर
दे, आप
मुझे कर देंगे।
फिर भी मैं
क्षमा मांगता
हूं। शरीर को
ठीक से चरणों
में रखकर...।
इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है।
हमें
खयाल में नहीं
है कि शरीर की
प्रत्येक अवस्था
मन की अवस्था
से जुड़ी है।
शरीर और मन
ऐसी दो चीजें
नहीं हैं।
इसलिए आज तो
विज्ञान बाडी
एंड माइंड, शरीर और
मन, ऐसा न
कहकर, साइकोसोमेटिक,
मनोशरीर या
शरीरमन, ऐसा
एक ही शब्द का
प्रयोग करने
लगा है। और
ठीक है, क्योंकि
शरीर और मन एक
साथ हैं। और
प्रत्येक में
कुछ भी घटित
हो, दूसरे
में प्रभावित
होता है। जैसे
कभी सोचें...।
पश्चिम
में दो विचारक
हुए हैं, लेंगे और
विलियम जेम्स।
उन्होंने एक
सिद्धात
विकसित किया
था, जेम्स—लेंगे
सिद्धांत। वह
उलटी बात कहता
है सिद्धांत,
लेकिन बड़ी
महत्वपूर्ण।
आमतौर से हम
समझते हैं कि
आदमी भयभीत
होता है, इसलिए
भागता है।
जेम्स— लेंगे
कहते हैं, भागता
है, इसलिए
भयभीत होता है।
आमतौर से हम
समझते हैं, आदमी
प्रसन्न होता
है, इसलिए
हंसता है।
जेम्स—लेंगे
कहते हैं, हंसता
है, इसलिए
प्रसन्न होता
है। और उनका
कहना है कि
अगर यह बात
ठीक नहीं है, तो आप बिना
हंसे प्रसन्न
होकर बता
दीजिए! या बिना
भागे भयभीत
होकर बता
दीजिए!
उनकी
बात भी सच है, आधी सच है।
आधी आम आदमी
की बात भी सच
है।
असल
में भय और
भागना दो
चीजें नहीं
हैं। भय मन है
और भागना शरीर
है।
प्रसन्नता और
हंसी दो चीजें
नहीं हैं।
प्रसन्नता मन
है और हंसी
शरीर है। और
शरीर और मन एक—दूसरे
को तत्क्षण
प्रभावित
करते हैं, नहीं तो
शराब पीकर
आपका मन बेहोश
नहीं होगा।
शराब तो जाती
है शरीर में, मन कैसे
बेहोश होगा? शराब मजे से
पीते रहिए।
शरीर को
नुकसान होगा,
तो होगा। मन
को कोई नुकसान
नहीं होगा।
लेकिन मन तत्क्षण
बेहोश हो जाता
है। और जब
आपका मन दुखी
होता है, तो
शरीर भी रुग्ण
हो जाता है।
अब तो
शरीरशास्त्री
कहते हैं कि
जब मन दुखी
होता है, तो शरीर की
रेसिस्टेंस, प्रतिरोधक
शक्ति कम हो
जाती है। अगर
मलेरिया के
कीटाणु फैले
हुए हैं, तो
जो आदमी मन
में दुखी है, उसको जल्दी
पकड़ लेंगे, और जो मन में
प्रसन्न है, उसको नहीं
पकड़ेंगे।
आप
जानकर हैरान
होंगे कि प्लेग
फैली हुई है, सबको पकड़
रही है, और
डाक्टर दिन—रात
प्लेग में काम
कर रहा है, उसको
नहीं पकड़ रही।
कारण क्या है?
डाक्टर अति
प्रसन्न है
अपने काम से।
वह जो सेवा कर
रहा है, उससे
आनंदित है।
उसे प्लेग कोई
बीमारी नहीं
है, एक
प्रयोग है।
उसे प्लेग जो
है, वह कोई
खतरा नहीं है,
बल्कि एक
चुनौती है, एक संघर्ष
है, जिसमें
वह जूझ रहा है।
वह
प्रसन्नचित्त
है, वह
आनंदित है, वह बीमार
नहीं पड़ेगा।
क्यों? क्योंकि
शरीर की
प्रतिरोधक
शक्ति, रेसिस्टेंस,
जब आप
प्रसन्न होते
हैं, तब
ज्यादा होती
है, जब आप
दीन, दुखी,
पीड़ित होते
हैं भीतर, तो
कम हो जाती है।
कीटाणु
भी बीमारियों के
आप पर तब तक
हमला कर सकते, जब तक आप
दरवाजा न दें,
कि आओ, मैं
तैयार हूं। और
जब आप इतने
प्रसन्नता से
भरे होते हैं,
तो चारों
तरफ आपके एक
आभा होती है, जिसमें
कीटाणु
प्रवेश नहीं
कर सकते।
चौबीस
घंटे में
बीमारी पकड़ने
के घंटे अलग
हैं। और अब ' आदमी के
भीतर की जो
खोज होती है, उससे पता
चलता है कि
चौबीस घंटे
में कुछ समय के
लिए आप पीक
आवर में होते
हैं, शिखर
पर होते हैं
अपनी
प्रसन्नता के।
कोई क्षण में
चौबीस घंटे
में एक दफा आप
बिलकुल नादिर,
नीचे, आखिरी
अवस्था में
होते हैं। उस
आखिरी अवस्था
में ही बीमारी
आसानी से
पकड़ती है। और
शिखर पर कभी
बीमारी नहीं
पकड़ती।
वह जो
शिखर का क्षण
है आपके भीतर
प्रसन्नता का, वह शरीर
और मन का एक ही
है। वह जो खाई
का क्षण है, वह भी एक ही
है।
शरीर
और मन जुड़े
हैं। आप जब
किसी के प्रति
क्रोध से भरते
हैं, तो
आपकी मुट्ठियां
भिंचने लगती
हैं, और
दांत बंद होने
लगते हैं, और
आंखें सुर्ख
हो जाती हैं, और आपके
शरीर में
एड्रीनल और
दूसरे तत्व
फैलने लगते
हैं खून में, जो जहर का
काम करते हैं,
जो आपको
पागलपन से
भरते हैं। अब
आपका शरीर
तैयार हो रहा
है।
आपको
पता है कि
क्यों
मुट्ठियां
भिंचने लगती
हैं? क्यों
दांत कसमसाने
लगते हैं? आदमी
भी जानवर रहा
है। और जानवर
जब क्रोध से
भरता है, तो
नाखून से चीर—फाड़
डालता है, दांतों
से काट डालता
है। आदमी भी
जानवर रहा है।
उसके शरीर का
ढंग तो अब भी
जानवर का ही
है। इसलिए
दांत भिंचने
लगते हैं, हाथ
बंधने लगते
हैं। और शरीर
काम शुरू कर
देता है, जहर
खून में फैल
जाता है कि अब
आप किसी की
हत्या कर सकते
हैं। आपको पता
है, क्रोध
में आप इतना
बड़ा पत्थर उठा
सकते हैं जो आप
शांति में कभी
नहीं उठा
सकते! क्योंकि
आप पागल हैं।
इस वक्त आप
होश में नहीं
हैं। इस वक्त
कुछ भी हो सकता
है।
जब
क्रोध में ऐसा
होता है, तो प्रेम
में इससे उलटा
होता है। जब
आप प्रेम से
भरते हैं तब
आपको पता है, आप बिलकुल
रिलैक्स हो
जाते हैं, सारा
शरीर शिथिल हो
जाता है, जैसे
शरीर को अब
कोई भय नहीं
है। क्रोध में
शरीर तन जाता
है, प्रेम
में शिथिल हो
जाता है। जब आप
किसी के
आलिंगन में
होते हैं
प्रेम से भरे हुए,
तो आप छोटे
बच्चे की तरह
हो जाते हैं, जैसे वह
अपनी मां की
छाती से लगा
हो— बिलकुल
शिथिल, लुंज—पुंज।
अब आपके शरीर
में जैसे कोई
तनाव नहीं है
कहीं।
मन, शरीर, एक
साथ बदलते चले
जाते हैं। आप
कभी तने रहकर
प्रेम करने की
कोशिश करें, तब आपको पता
चल जाएगा।
असंभव है। या
कभी ढीले होकर
क्रोध करने की
कोशिश करें, तो पता चल
जाएगा। असंभव
है।
कभी
आपने खयाल
किया है कि जब
आप किसी को
अपमानित करना
चाहते हैं, तो आपका
मन होता है, निकालूं
जूता और दे
दूं सिर पर।
मगर क्यों ऐसा
होता है? और
ऐसा एक मुल्क
में नहीं होता,
सारी
दुनिया में
होता है। एक
जाति में नहीं
होता, सब
जातियों में
होता है। एक
धर्म में नहीं
होता, सब
धर्मों में
होता है।
दुनिया के
किसी कोने में
कितने ही
सांस्कृतिक
फर्क हों, लेकिन
जब आप
किसी को
अपमानित करना
चाहते हैं, तो अपना
जूता उसके सिर
पर रखना चाहते
हैं।
असल
में जूता तो
केवल सिंबल है।
आप अपना पैर
रखना चाहते
हैं। लेकिन वह
जरा अड़चन का
काम है। किसी
के सिर पर पैर
रखना, जरा
उपद्रव का काम
है। उसके लिए
काफी
जिमनास्टिक, योगासन
इत्यादि का
अभ्यास चाहिए।
एकदम से रखना
आसान नहीं
होगा, उसके
लिए सर्कस का
अनुभव चाहिए।
तो फिर सिंबल
का काम करते
हैं। जूता
सिंबल का काम
करता है, कि
हम जूते को
सिर पर मार
देते हैं। हम
उससे यह कह
रहे हैं कि
तुम्हारा सिर
हमारे पैर
में! लेकिन
क्या इसका
मतलब है? सारी
दुनिया में यह
भाव एक—सा है।
इससे
विपरीत
श्रद्धा है, जब हम
किसी के चरणों
में सिर को रख
देना चाहते हैं।
यह बड़े
मजे की बात है
कि सारी
दुनिया में
अपमान करने के
लिए सिर पर
पैर रखने की
भावना है, लेकिन
सम्मान करने
के लिए सिर्फ
भारत में पैर पर
सिर रखने की
धारणा है। इस
लिहाज से भारत
की पकड़ गहरी
है आदमी के मन
के बाबत।
इसका
यह मतलब हुआ
कि सारी
दुनिया में
अपमान करने की
व्यवस्था तो
हमने खोज ली
है, सम्मान
करने की
व्यवस्था
नहीं खोज पाए।
और अगर यह बात
सच है कि हर
मुल्क में हर
आदमी को अपमान
की हालत में
ऐसा भाव उठता
है, तो
दूसरी बात भी
सच होनी चाहिए
कि श्रद्धा के
क्षण में सिर
को किसी के
पैर में रख
देने का भाव
उठे। यह, भीतर
जो घटना घटेगी,
तभी!
इसका
यह मतलब हुआ
कि श्रद्धा को
जितना हमने अनुभव
किया है, संभवत:
दुनिया में
कोई मुल्क
अनुभव नहीं
किया। अगर
अनुभव करता, तो यह
प्रक्रिया
घटित होती।
क्योंकि अगर
अनुभव करता, तो कोई उपाय
खोजना पड़ता, जिससे
श्रद्धा
प्रकट हो सके।
तो एक तो
श्रद्धा की यह
अभिव्यक्ति
है क्षमा—याचना
के लिए।
अर्जुन कह रहा
है कि सब
भांति आपके
चरणों में अपने
शरीर को रखकर
मांगता हूं
माफी। मुझे
माफ कर दें।
लेकिन
इतनी ही बात
नहीं है, थोड़ा भीतर
प्रवेश करें।
तो सिर जब
किसी के चरणों
में रखा जाता
है......।
अभी जब
बॉडी—इलेक्ट्रिसिटी
पर काफी काम
हो गया है, तो यह बात
समझ में आ
सकती है। आपको
शायद अंदाज न
हो, लेकिन
उपयोगी होगा
समझना। और इस
संबंध में
थोड़ी जानकारी
लेनी आपके
फायदे की होगी।
हर
शरीर की
गतिविधि विद्युत
से चल रही है।
आपका शरीर एक
विद्युत—यंत्र
है, उसमें
विद्युत की
तरंगें दौड़
रही हैं। आप
एक बैटरी हैं,
जिसमें
विद्युत चल
रही है, बहुत
लो वोल्टेज की,
बहुत कम
शक्ति की।
लेकिन बड़ा
अदभुत यंत्र
है कि उतने लो
वोल्टेज से
सारा काम चल
रहा है।
अभी
इंग्लैंड में
एक वैज्ञानिक
ने कुछ तांबे
की जालियां
विकसित की हैं, वे काम की
हैं। वह आपके
शरीर के नीचे
तांबे की
जालियां रख देता
है और आपके
हाथों में और
आपके पैरों
में तांबे के
तार बांध देता
है। और आपके
शरीर की ऋण
विद्युत को
आपके शरीर की
धन विद्युत से
जोड़ देता है।
आपके भीतर जो
निगेटिव, पाजिटिव
पोल हैं
विद्युत के, उनको जोड़
देता है। उनके
जोड़ते से ही
आप एकदम शांत
होने लगते हैं।
अब तो
इसका
इंग्लैंड के
अस्पतालों
में उपयोग हो
रहा है। उनको
जोड़ते से ही
आप शांत होने
लगते हैं।
कितना ही
अशांत आदमी हो, तीस मिनट
में एकदम गहरी
नींद में खो
जाएगा।
क्योंकि उसकी
दोनों
विद्युत
शक्तियां एक—दूसरे
को शांत करने
लगती हैं। अगर
उलटे तार जोड़
दिए जाएं, तो
शांत आदमी
अशांत होने
लगता। उसके
भीतर की
विद्युत
अस्तव्यस्त
होने लगती है।
और यह
एक आदमी का ही
नहीं। अगर
इसका और गहरा
प्रयोग करना
हो, तो
एक स्त्री को
एक जाली पर
लिटा दिया जाए,
एक जाली पर
पुरुष को; और
उनके ऋण— धन को
जोड़ दिया जाए,
तो और भी
शीघ्रता से, और भी
शीघ्रता से
शांति होने
लगती है।
आपको
अपनी पत्नी या
प्रेयसी के
पास बैठकर जो
शांति मिलती
है, उसमें
अध्यात्म
बहुत कम, बिजली
ज्यादा है।
आपकी ऋण— धन
विद्युत जुड़
जाती है। और
अगर प्रेम
गहरा हो तो
ज्यादा जुड़
जाती है, क्योंकि
आप एक—दूसरे
को ज्यादा से
ज्यादा निकट
लेना चाहते हैं।
अगर प्रेम
ज्यादा न हो, तो आप भला
निकट हों, अपने
को दूर रखना
चाहते हैं। एक
तरह का बचाव
बना रहता है, वह बाधा बन
जाती है।
यह तो
दस—पच्चीस लोगों
के ग्रुप में
भी प्रयोग
किया जाता है।
दस—पच्चीस
लोगों को
इकट्ठा जोड़
दिया जाता है
एक श्रृंखला
में, तब
और भी जल्दी
परिणाम होते
हैं।
भारत
इस रहस्य को
किसी दूसरे
कोने से सदा
से जानता रहा
है। गुरु के
चरणों में सिर
रखना, गुरु
के साथ उसकी
विद्युत का
जोड़ है। उसके
चरणों में सिर
रखते ही गुरु
की जो विद्युत
धारा है, वह
शिष्य में
प्रवाहित
होनी शुरू हो
जाती है।
और
ध्यान रहे, विद्युत
के प्रवाहित
होने के लिए
दो ही जगहें हैं,
या तो हाथ
या पैर—
अंगुलियां।
नुकीला कोना
चाहिए, जहां
से विद्युत
बाहर जा सके।
और जहां से
विद्युत भीतर
लेनी हो, उसके
लिए सिर से
अच्छी कोई जगह
नहीं है। उसके
लिए गोल जगह
चाहिए, जहां
से विद्युत
ग्रहण की जा
सके।
रिसेप्टिविटी
के लिए सिर
बहुत अच्छा है;
दान के लिए
अंगुलियां
बहुत अच्छी
हैं।
व्यवस्था
पूरी यह थी— वह
तो अभी उन्होंने
इंग्लैंड में
विद्युत—
यंत्र बनाए और
उसका फायदा
लिया, हम
हजारों साल से
ले रहे हैं—
व्यवस्था यह
थी कि गुरु के
चरणों में
शिष्य सिर रख
दे। सिर का
मतलब है, रिसेप्टिव
हिस्सा, ग्राहक
हिस्सा। और
चरणों का अर्थ
है, दान
देने वाला
हिस्सा। और
गुरु अपने
हाथों को सिर
के ऊपर रख दे, आशीर्वाद
में। तो गुरु
दोनों तरफ से,
पैर की
अंगुलियों से,
हाथ की
अंगुलियों से,
दायक हो
जाता है। और
जो नीचे झुका
है, उसकी
तरफ आसानी से
विद्युत बह
पाती है।
इसलिए शिष्य
नीचे है, गुरु
ऊपर है।
अगर
आपको सच में
श्रद्धा का
भाव जन्मा है, तो आप
फौरन अनुभव
करेंगे कि
आपके सिर में
अलग तरह की
तरंगें गुरु
के चरणों से
प्रवाहित
होनी शुरू हो
गईं। और आपका
सिर शांत हुआ
जा रहा है।
कोई चीज उसमें
बह रही है और
शांत हो रही
है।
मनुष्य
का शरीर
विद्युत—यंत्र
है। अब तो
विद्युत के
छोटे यंत्र भी
बनाए गए हैं, जो आपके
मस्तिष्क में
लगा दिए जाएं,
तो वे धीमी
गति से आपके
मस्तिष्क में
विद्युत की
तरंगें
फेंकेंगे। उन
तरंगों से आप
शांत होने
लगेंगे।
नींद
के लिए रूस ने
टैंरकेलाइजर्स
करीब—करीब बंद
कर दिए हैं।
उन्होंने
विद्युत—यंत्रों
का उपयोग शुरू
कर दिया है।
क्योंकि वे
कहते हैं, टेंरकेलाइजर
तो भीतर जाकर
शरीर को
अस्तव्यस्त
भी करता है, विद्युत—यंत्र
किसी तरह
अस्तव्यस्त
नहीं करता। और
मनुष्य के ही
शरीर में नहीं,
पशुओं के
शरीर में भी
मस्तिष्क से
अगर विद्युत
डाली जाए, वे
भी शांत हो
जाते हैं।
अभी एक
अमेरिकन
विचारक, साल्टर एक
प्रयोग कर रहा
था, अपनी
बिल्ली के ऊपर।
मैं बहुत चकित
हुआ! वह अपनी
बिल्ली के
मस्तिष्क में
विद्युत की
तरंगें फेंक
रहा था, और
वैसी अवस्था
पैदा कर रहा
था, जिसको
वैज्ञानिक
अल्फा वेब्स
कहते हैं।
मस्तिष्क
में चार तरह
की तरंगें हैं
विद्युत की।
एक तो वे
तरंगें हैं, जो आप
सामान्यत: सोच—विचार
में लगे होते
हैं, तब
चलती हैं।
उनको नापने का
उपाय है।
क्योंकि
प्रति सेकेंड
उनकी खास फ्रीक्वेंसी
होती है। फिर
उनसे बाद की
तरंगें हैं, अल्फा उनका
नाम है। जब आप
शांत सोए होते
हैं, रिलैक्स
होते हैं या
ध्यान में
होते हैं, तब
अल्फा होती
हैं। फिर उसके
बाद की भी
तरंगें हैं, जब आप
बिलकुल
प्रगाढ़
निद्रा में
होते हैं, जहां
स्वप्न भी
नहीं होता। और
उसके बाद की
भी तरंगें हैं,
जिनके बाबत
अभी पश्चिम
में कोई समझ
पैदा नहीं हो
सकी है कि वे
किसकी खबर
देती हैं। इन
तीन का तो पता
चलता है।
तो अब
तो आप ध्यान
में हैं या
नहीं, इसको
यंत्र से नापा
जा सकता है।
यंत्र बता
देता है कि
अल्फा तरंगें
चल रही हैं, तो आप ध्यान
में हैं।
तो
साल्टर यह
प्रयोग कर रहा
था कि आदमी ही
ध्यान में हो
सकते हैं कि
जानवर भी
ध्यान में पहुंचाए
जा सकते हैं!
तो एक बिल्ली
को विद्युत की
तरंगें देकर
अल्फा की हालत
में लाता था।
और बिल्ली को
भूखा रखता था
और जब उसमें
अल्फा तरंगें
आ जाती थीं, यंत्र
बताता कि
अल्फा तरंगें
आ गईं, तब
उसको दूध, मिठाई
देता था।
तो
बिल्ली तरकीब
सीख गई कि जब
अल्फा तरंगें
मिलती हैं, तभी उसको
दूध, मिठाई
मिलती है। जब
उसको भूख लगती,
तो बिल्ली
चुपचाप शांत
खड़े होकर आंख
बंद करके
ध्यान करने
लगती! जब उसको
भूख लगती।
क्योंकि उसको
पता चल गया
भीतर कि कब मन
की कैसी हालत
होती है, तब
मुझे दूध
मिलता है, तो
वह आंख बंद
करके खड़ी हो
जाती। और
बिल्ली अल्फा
तरंगें पैदा
करने लगी बिना
विद्युत की
सहायता के!
तो
मुझे तो बहुत
आशापूर्ण
मालूम पड़ा।
अगर बिल्ली कर
सकती है, तो आप भी कर
सकते हैं। ऐसी
क्या मुश्किल
है! ऐसी क्या
मुश्किल है!
अर्जुन
कह रहा है कि
चरणों में सिर
रखकर आपसे प्रसन्न
होने की
प्रार्थना
करता हूं मुझे
क्षमा कर दें।
और मैं जानता
हूं कि आप तो
क्षमा कर ही
देंगे। लेकिन
जो मैंने किया
है अतीत में, वह मेरे
ऊपर बोझ है।
उस बोझ से
मुझे मुक्त हो
जाना जरूरी है।
उसके लिए
चरणों में सब
छोड़ देता हूं।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट रुके।
कीर्तन में
सम्मिलित हों, और फिर
जाएं।
ईश तत्व,परमेश्वर,विराट के अमाप वर्तुल के सानिध्य में हम हैं यह अर्जुन तो क्या हम भी कहाँ मानते हैं ? सच में यह तो अर्जुन जितना शूरवीर,प्रतापी,अजितात्मा योद्धा था इतना ही अंतस से शुद्ध समर्पण और न्यौछावर करने वाले उत्तम भक्त और योद्धा भी थे तब तो उसने कृष्ण के कहने पर अपने को इतना पूरा छोड़ दिया या इतना पूरा समर्पण कर दिया कि दूसरी छौर पर रहे कृष्ण में इतना तल्लीन,लवलीन हों गये की स्व विसर्जित हों गये और रह गये मात्र और मात्र ईश तत्व,परमेश्वर,विराट !!!!!!!!! परमेश्वर,विराट हमारे सानिध्य में हों सकते हैं यह बात ही हमारी सोच से सेकड़ों मिल दूरी की हैं और ऐसा भी कह सकते हैं कि पूर्ण समर्पण में हमारी कहाँ आस्था हैं ? फिर फिर हम भटकते रहते हैं | ओं मेरे प्यारे ओशो !आपको शत कोटि-कोटि प्रणाम |
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