प्रश्नसार:
1—एक बार
पतंजलि और लाओत्सु
एक नदी के
किनारे
पहुंचे।
2—पतंजलि
के ध्यान और
झाझेन में क्या
अंतर है?
3—जब मैं अपने
को अस्तित्व
के हाथों में
छोड़ दूंगा, तो क्या
अस्तित्व
मुझे सम्हाल
लेगा?
4—अभी कुछ
दिनों से मुझे
ऐसा महसूस हो
रहा है कि मैं उड़
सकता हूं?
क्या यह
सिर्फ एक
पागलपन है........ ?
5—आपने मुझे
से स्वयंरूप
हो जाने को
कहा। लेकिन
अगर मैं स्वयं
को ही नहीं
जानता हूं, तो मैं
कैसे स्वयंरूप
हो सकता है?
6—मैं देखता
हूं कि आप
हमें किसी भी
तरह से जगाने
का प्रयास कर
रहे है। लेकिन
फिर भी मैं
समझ नहीं पा
रहा हूं, आपकी
देशना को मैं
कैसे समझूं?
7—क्या आप
हमारे साथ
केवल मौन
रहेंगे और
मुस्कुराएंगे?
पहला
प्रश्न:
भगवान
मैने सुना है
कि एक बार
पतंजलि और
लाओत्सु एक
नदी के किनारे
पहुंचे।
पतंजलि पानी
पर चलते हुए
नदी पार करने
लगे। लाओत्सु
किनारे पर ही
खड़े रहे और
पतंजलि को
वापस आने के
लिए कहने लगे।
पतंजलि
ने पूछा 'क्या बात
है?'
लाओत्सु
ने कहा 'नदी पार
करने का यह
कोई ढंग नहीं
है।’ और
पतंजलि को उस
जगह ले गए
जहां पानी
गहरा न था और
उन्होंने साथ—
साथ नदी पार
की।
यह कहानी
यात्री ने
भेजी है। यह
कहानी सत्य
है। लेकिन
यात्री, इस कहानी की
तुम सबसे
महत्वपूर्ण
बात तो भूल ही
गए। पूरी
कहानी को मैं
.तुम से फिर से
कहता हूं
मैंने
सुना है कि
पतंजलि और
लाओत्सु एक
नदी के किनारे
पहुंचे।
पतंजलि पानी पर
चलते हुए नदी
पार करने लगे।
लाओत्सु
किनारे पर ही
खड़े रहे और
उन्हें वापस
आने के लिए
कहने लगे।
पतंजलि ने
पूछा, 'क्या
बात है?'
लाओत्सु
ने कहा, 'नदी पार
करने की कोई
जरूरत नहीं, क्योंकि यही
किनारा दूसरा
किनारा है।’ लाओत्सु का
पूरा जोर इसी
बात पर है कि
कहीं जाने की
कोई जरूरत
नहीं है, दूसरा
किनारा यहीं
है। कुछ करने
की जरूरत नहीं
है। एकमात्र
आवश्यकता है
होने भर की।
किसी भी
प्रकार का
प्रयास करना
व्यर्थ है, क्योंकि जो
कुछ तुम हो
सकते हो, वह
तुम हो ही।
कहीं जाना
नहीं है। किसी
मार्ग का
अनुसरण नहीं
करना है। कुछ
खोजना नहीं
है। क्योंकि
जहां कहीं भी
तुम जाओगे, वह जाना ही
लक्ष्य को
चुका देगा।
क्योंकि यहां
सभी कुछ पहले
से ही उपलब्ध
है।
मैं एक
और कहानी
तुम्हें कहना
चाहूंगा, जो सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
कहानियों में
से एक है। इस
कहानी का
संबंध
जरथुस्त्र से
है। कहना चाहिए
दूसरा लाओत्सु,
जो कि सहज, स्वाभाविक,
सरल, होने
मात्र में
भरोसा रखता
था।
एक बार
पर्शिया का
राजा
विशतस्पा, जब युद्ध
जीतकर लौट रहा
था, तो वह
जरथुस्त्र के
निवास के निकट
जा पहुंचा। उसने
इस
रहस्यदर्शी
संत के दर्शन
करने की सोची।
राजा ने
जरथुस्त्र के
पास जाकर कहा,
'मैं आपके पास
इसलिए आया हूं
कि शायद आप
मुझे सृष्टि
और प्रकृति के
नियम के विषय
में कुछ समझा
सकें। मैं
यहां पर अधिक
समय तो नहीं
रुक सकता हूं, क्योंकि
मैं युद्ध
—स्थल से लौट
रहा हूं,
और मुझे जल्दी
ही अपने राज्य
में वापस
पहुंचना है, क्योंकि
राज्य के
महत्वपूर्ण.
मसले महल में
मेरी
प्रतीक्षा कर
रहे हैं।’
जरथुस्त्र
राजा की ओर
देखकर
मुस्कुराया
और जमीन से
गेहूं का एक
दाना उठाकर
राजा को दे
दिया और उस
गेहूं के दाने
के माध्यम से
यह बताया कि 'गेहूं के
इस छोटे से
दाने में, सृष्टि
के सारे नियम
और प्रकृति की
सारी शक्तियां
समाई हुई हैं।’
राजा
तो जरथुस्त्र
के इस उत्तर
को समझ ही न सका, और जब
उसने अपने
आसपास खड़े
लोगों के
चेहरे पर मुस्कान
देखी तो वह
गुस्से के
मारे आग
—बबूला हो
गया। और उसे
लगा कि उसका
उपहास किया
गया है, उसने
गेहूं के उस
दाने को उठाकर
जमीन पर पटक दिया।
और जरथुस्त्र
से उसने कहा, 'मैं मूर्ख
था जो मैंने
अपना समय खराब
किया, और
आप से यहां पर
मिलने चला
आया।’
वर्ष
आए और गए। वह
राजा एक अच्छे
प्रशासक और
योद्धा के रूप
में खूब सफल
रहा, और
खूब ही ठाठ
—बाट और
ऐश्वर्य का
जीवन जी रहा था।
लेकिन रात को
वह सोने के
लिए अपने
बिस्तर पर
जाता तो उसके
मन में बड़े ही
अजीब— अजीब से
विचार उठने
लगते और उसे
परेशान करते 'मैं इस
आलीशान महल
में खूब ठाठ
—बाट और
ऐश्वर्य का
जीवन जी रहा हूं, लेकिन
आखिरकार मैं
कब तक इस
समृद्धि, राज्य,
धन —दौलत से
आनंदित होता
रहूंगा? और
जब मैं मर
जाऊंगा तो फिर
क्या होगा? क्या मेरे राज्य
की शक्ति, मेरी
धन —दौलत, संपत्ति
मुझे बीमारी
से और मृत्यु
से बचा सकेगी?
क्या
मृत्यु के साथ
ही सब कुछ
समाप्त हो
जाता है?'
राजमहल
में एक भी
आदमी राजा के
इन प्रश्नों
का उत्तर नहीं
दे सका। लेकिन
इसी बीच
जरथुस्त्र की
प्रसिद्धि
चारों ओर
फैलती चली जा
रही थी। इसलिए
राजा ने अपने
अहंकार को एक
तरफ रखकर, धन—दौलत
के साथ एक बड़ा
काफिला
जरथुस्त्र के
पास भेजा और
साथ ही अनुरोध
भरा निमंत्रण
भेजा उसमें
उसने लिखा कि 'मुझे बहुत
अफसोस है, जब
मैं अपनी
युवावस्था
में आपसे मिला
था, उस समय
मैं जल्दी में
था और आपसे
लापरवाही से मिला
था। उस समय
मैंने आपसे
अस्तित्व के
गूढुतम
प्रश्नों की
व्याख्या
जल्दी करने के
लिए कहा था।
लेकिन अब मैं
बदल चुका हूं
और जिसका उत्तर
नहीं दिया जा
सकता, उस
असंभव उत्तर
की मांग मैं
नहीं करता।
लेकिन अभी भी
मुझे सृष्टि
के नियम और
प्रकृति की
शक्तियों को
जानने की गहन
जिज्ञासा है।
जिस समय मैं
युवा था उस समय
से कहीं अब
ज्यादा
जिज्ञासा है
यह सब जानने
की। मेरी आपसे
प्रार्थना है
कि आप मेरे
महल में आएं।
और अगर आपका
महल में आना
संभव न हो, तो
आप अपने सबसे
अच्छे शिष्य
में से किसी
एक शिष्य को
भेज दें, ताकि
वह मुझे जो
कुछ भी इन
प्रश्नों के
विषय में
समझाया जा
सकता हो समझा
सके।’
थोड़े
दिनों के बाद
वह काफिला और
संदेशवाहक वापस
लौट आए।
उन्होंने
राजा को बताया
कि वे जरथुस्त्र
से मिले।
जरथुस्त्र ने
अपने आशीष
भेजे हैं, लेकिन
आपने उनको जो
खजाना भेजा था,
वह
उन्होंने
वापस लौटा
दिया है। जरथुस्त्र
ने उस खजाने
को यह कहकर
वापस कर दिया
कि उसे तो
खजानों का
खजाना मिल
चुका है। और साथ
ही जरथुस्त्र
ने एक पत्ते
में लपेटकर
कुछ छोटा सा
उपहार राजा के
लिए भेजा और
संदेशवाहकों
से कहा कि वे
राजा से जाकर
कह दें कि
इसमें ही वह
शिक्षक है जो
कि उसे सब कुछ
समझा सकता है।
राजा
ने जरथुस्त्र
के भेजे हुए
उपहार को खोला
और फिर उसमें
से उसी गेहूं
के दाने को
पाया—गेहूं का
वही दाना जिसे
जरथुस्त्र ने
पहले भी उसे
दिया था। राजा
ने सोचा कि
जरूर इस दाने
में कोई रहस्य
या चमत्कार
होगा, इसलिए
राजा ने एक
सोने के
डिब्बे में उस
दाने को रखकर
अपने खजाने
में रख दिया।
हर रोज वह उस
गेहूं के दाने
को इस आशा के
साथ देखता कि
एक दिन जरूर
कुछ चमत्कार
घटित होगा, और गेहूं का
दाना किसी ऐसी
चीज में या
किसी ऐसे
व्यक्ति में
परिवर्तित हो
जाएगा जिससे
कि वह सब कुछ
सीख जाएगा जो
कुछ भी वह
जानना चाहता है।
महीने
बीते, और
फिर वर्ष पर
वर्ष बीतने
लगे, लेकिन
कुछ भी
चमत्कार घटित
न हुआ। अंततः
राजा ने अपना
धैर्य खो दिया
और फिर से
बोला, 'ऐसा
मालूम होता है
कि जरथुस्त्र
ने फिर से मुझे
धोखा दिया है।
या तो वह मेरा
उपहास कर रहा
है, या फिर
वह मेरे
प्रश्नों के
उत्तर जानता
ही नहीं है, लेकिन मैं
उसे दिखा
दूंगा कि मैं
बिना उसकी किसी
मदद के भी
प्रश्नों के
उत्तर खोज
सकता हूं।’ फिर उस राजा
ने एक बड़े
भारतीय
रहस्यदर्शी
के पास अपने
काफिले को
भेजा, जिसका
नाम
तशग्रेगाचा
था। उसके पास
ससार के कोने
—कोने से
शिष्य आते थे,
और फिर से
उसने उस
काफिले के साथ
वही
संदेशवाहक और
वही खजाना भेजा
जिसे उसने
जरथुस्त्र के
पास भेजा था।
कुछ
महीनों के
पश्चात
संदेशवाहक उस
भारतीय दार्शनिक
को अपने साथ
लेकर वापस
लौटे। लेकिन उस
दार्शनिक ने
राजा से कहा, 'मैं आपका
शिक्षक बनकर
सम्मानित हुआ
हूं लेकिन यह
मैं साफ—साफ
बता देना
चाहता हूं कि
मैं खास करके
आपके देश में
इसीलिए आया हूं, ताकि मैं
जरथुस्त्र के
दर्शन कर
सकूं।’
इस पर
राजा सोने का
वह डिब्बा उठा
लाया जिसमें
गेहूं का दाना
रखा हुआ था।
और वह उसे
बताने लगा, 'मैंने
जरथुस्त्र से
कहा था कि
मुझे कुछ
समझाएं .—सिखाएं।
और देखो, उन्होंने
यह क्या भेज
दिया है मेरे
पास। यह गेहूं
का दाना वह
शिक्षक है जो
मुझे सृष्टि
के नियमों और
प्रकृति की
शक्तियों के
विषय में
समझाएगां।
क्या यह मेरा
उपहास नहीं?'
वह
दार्शनिक
बहुत देर तक
उस गेहूं के
दाने की तरफ
देखता रहा, और उस
दाने की तरफ
देखते —देखते
जब वह ध्यान
में डूब गया
तो महल में
चारों ओर एक
गहन मौन छा गया।
कुछ समय बाद
वह बोला, 'मैंने
यहां आने के
लिए जो इतनी
लंबी यात्रा
की उसके लिए मुझे
कोई
पश्चात्ताप
नहीं है, क्योंकि
अभी तक तो मैं
विश्वास ही
करता था, लेकिन
अब मैं जानता
हूं कि
जरथुस्त्र सच
में ही एक
महान सदगुरु
हैं। गेहूं का
यह छोटा सा दाना
हमें सचमुच
सृष्टि के
नियमों और
प्रकृति की
शक्तियों के
विषय में सिखा
सकता है, क्योंकि
गेहूं का यह
छोटा सा दाना
अभी और यहीं
अपने में
सृष्टि के
नियम और प्रकृति
की शक्ति को
अपने में समाए
हुए है। आप
गेहूं के इस
दाने को सोने
के डिब्बे में
सुरक्षित
रखकर पूरी बात
को चूक रहे
हैं।
'अगर
आप इस छोटे से
गेहूं के दाने
को जमीन में बो
दें, जहां
से यह दाना
संबंधित है, तो मिट्टी
का संसर्ग
पाकर, वर्षा
—हवा — धूप, और
चांद —सितारों
की रोशनी पाकर,
यह और अधिक
विकसित हो
जाएगा। जैसे
कि व्यक्ति की
समझ और ज्ञान
का विकास होता
है, तो वह
अपने
अप्राकृतिक
जीवन को
छोड्कर प्रकृति
और सृष्टि के
निकट आ जाता
है, जिससे
कि वह संपूर्ण
ब्रह्मांड के
अधिक निकट हो
सके। जैसे
अनंत — अनंत
ऊर्जा के स्रोत
धरती में बोए
हुए गेहूं के
दाने की ओर
उमड़ते हैं, ठीक वैसे ही
ज्ञान के अनंत
— अनंत स्रोत
व्यक्ति की ओर
खुल जाते हैं,
और तब तक
उसकी तरफ बहते
रहते हैं जब
तक कि व्यक्ति
प्रकृति और
संपूर्ण
ब्रह्मांड के
साथ एक न हो
जाए। अगर
गेहूं के इस
दाने को
ध्यानपूर्वक
देखो, तो
तुम पाओगे कि
इसमें एक और
रहस्य छुपा
हुआ है — और वह
रहस्य है जीवन
की शक्ति का।
गेहूं का दाना
मिटता है, और
उस मिटने में
ही वह मृत्यु
को जीत लेता
है।’
राजा
ने कहा, 'आप जो कहते
हैं वह सच है। फिर
भी अंत में तो
पौधा
कुम्हलाएगा
और मर जाएगा
और पृथ्वी में
विलीन हो
जाएगा।’
उस
दार्शनिक ने
कहा, 'लेकिन
तब तक नहीं
मरता, जब
तक यह सृष्टि
की प्रक्रिया
को पूरी नहीं
कर लेता और
स्वयं को
हजारों गेहूं
के दानों में परिवर्तित
नहीं कर लेता।
जैसे छोटा सा
गेहूं का दाना
मिटता है तो
पौधे के रूप
में विकसित हो
जाता है, ठीक
वैसे ही जब
तुम भी जैसे
—जैसे विकसित
होने लगते हो
तुम्हारे रूप
भी बदलने लगते
हैं। जीवन से
और नए जीवन
निर्मित होते
हैं, एक
सत्य से और
सत्य जन्मते
हैं, एक
बीज से और
बीजों का जन्म
होता है। केवल
जरूरत है तो
एक ही कला
सीखने की और
वह है मरने की
कला। उसके बाद
—ही पुनर्जन्म
होता है। मेरी
सलाह है कि हम
जरथुस्त्र के
पास चलें, ताकि
वे हमें इस
बारे में कुछ
अधिक बताएं।’
कुछ ही
दिनों के
पश्चात वे
जरथुस्त्र के
बगीचे में आए।
प्रकृति की
पुस्तक ही
उसकी एकमात्र पुस्तक
थी, और
उसने अपने
शिष्यों को उस
प्रकृति की
पुस्तक को ही
पढ़ने की शिक्षा
दी। इन दोनों
ने जरथुस्त्र
के बगीचे में
एक और बड़े
सत्य की
शिक्षा पाई कि
जीवन और कार्य,
अवकाश और
अध्ययन, एक
ही चीज हैं; जीने का सही
ढंग सरल और
स्वाभाविक
जीवन जीना है।
जीवन
सृजनात्मक
होना चाहिए, उसी में
व्यक्ति का
विकास
समग्रता से और
सक्रियता से
होता है।
अस्तित्व
और जीवन के
नियमों को
पढ़ते —सीखते
उनका एक वर्ष
बीत गया।
अंतत: राजा
अपने नगर लौट
आया और उसने
जरथुस्त्र से
निवेदन किया
कि वह अपनी महान
शिक्षा के सार
—तत्व को
व्यवस्थित
रूप से
संगृहीत कर
दे।
जरथुस्त्र ने
वैसा ही किया, और उसी के
परिणामस्वरूप
पारसियों की महान
पुस्तक 'जेंदावेस्ता'
का
आविर्भाव
हुआ।
यह
पूरी कहानी बस
यही बताती है
कि मनुष्य
परमात्मा
कैसे हो सकता
है।
जो कुछ
मनुष्य में
बीज रूप छिपा
हुआ है, वह अगर
उदघाटित हो
जाए, प्रकट
हो जाए, तो
मनुष्य
परमात्मा हो
सकता है।
बीज हो
जाओ। तुम हो
भी, लेकिन
अभी भी सोने
के डिब्बे में
ही कैद पड़े
हुए हो।
पृथ्वी से —जिससे
कि तुम जुड़े
ही हुए हो
—उसमें गिर
जाओ, और
उसमें विलीन
होने को, मिटने
को तैयार हो
जाओ। मृत्यु
से भयभीत न
होओ, क्योंकि
जो व्यक्ति
मृत्यु से
भयभीत हैं, वे स्वयं को
जीवन से, एक
महान जीवन से
वंचित कर रहे
हैं। मृत्यु
जीवन का द्वार
है। जीवन की
प्रथम पहचान मृत्यु
है। इसलिए जो
लोग मृत्यु से
भयभीत हैं, वे जीवन के
द्वार बंद कर
रहे हैं। फिर
वे सोने के
डिब्बे में
सुरक्षित पड़े
रहेंगे, लेकिन
तब उनका विकास
न हो सकेगा।
मृत्यु से
भयभीत होकर
कोई भी स्वय
को पुनर्जीवित
नहीं कर सकता।
वस्तुत: तो जो
लोग सोने के
डिब्बे में बंद
पड़े रहते हैं,
उनका जीवन
मृत्यु के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं है।
पृथ्वी
में, मिट्टी
में गिरकर
मरना जीवन का
अंत नहीं प्रारंभ
है। लेकिन
सोने के
डिब्बे में ही
बंद पडे रहना
जीवन का
वास्तविक अंत
है। उसमें
कहीं भी जीवन की
आशा नहीं है।
तुम
बीज हो।
तुम्हें कहीं
जाने की कोई
जरूरत नहीं
है। जो भी
तुम्हारी
जरूरत है, वह
तुम्हारे पास
आने को तैयार
है, लेकिन
बीज के खोल को
तो टूटना ही
होगा। बीज को टूटकर
अपने अहंकार
को पृथ्वी में
विलीन करना पड़ता
है, अहंकार
को मिटाना
पड़ता है। इधर
अहंकार मिटा
नहीं कि उधर
संपूर्ण
अस्तित्व
तुम्हारी तरफ
उमड़ पड़ता है।
तुम वह होने
लगते हो, जैसा
होने की नियति
तुम्हारी सदा
से रही है। तुम
अपनी
वास्तविक
नियति को
उपलब्ध हो
जाते हो।
सच तो
यह है यही
किनारा दूसरा
किनारा भी है।
कहीं और जाने
की जरूरत नहीं
है। एकमात्र जरूरत
है तो केवल
भीतर जाने की।
कुछ और नहीं करना
है, बस
स्वयं के भीतर
छलांग लगानी
है स्वयं के
अंतर स्वर के
साथ संगति
बिठा लेनी है।
लाओत्सु, दूसरे
किनारे तक्र
कैसे पहुंचा
जाए इसका मार्ग
नहीं
बताएंगे।
हम इसी
कथा को दूसरे
ढंग से भी देख
सकते हैं। यहां
पर तीन लोग
हैं पतंजलि, बुद्ध
लाओत्सु।
पतंजलि पानी
पर चलने का
प्रयास
करेंगे, वे
ऐसा कर सकते
हैं। वे चेतना
के अंतर्जगत
के बड़े
वैज्ञानिक
हैं। वे जानते
हैं कि
गुरुत्वाकर्षण
के पार कैसे
जाना।
बुद्धु
वही कहेंगे, जो
यात्री ने कथा
में कहा था।
बुद्ध कहेंगे,
'नदी पार
करने का यह
ढंग नहीं है।
आओ, मैं
तुम्हें वह
रास्ता
दिखाता हूं
जहां ऐसे कठिन
काम की कोई
जरूरत नहीं।
मार्ग सरल है।
नदी गहरी नहीं
है, हमें
कुछ मील और
चलना है और
फिर नदी जहां
पर गहरी नहीं
है उस जलधार
पर चला जा
सकता है। इस
महान कला को
सीखने की कोई
जरूरत नहीं
है। यह तो बड़ी
आसानी से किया
जा सकता है।’ बुद्ध ऐसा
कहेंगे।
और
लाओत्सु? वे तो हंस
पड़ेंगे, और
वे बुद्ध और
पतंजलि से
कहेंगे, 'यह
क्या कर रहे
हो? अगर इस
किनारे को छोड़
दोगे तो
इधर—उधर
भटकोगे, क्योंकि
यही है वह
दूसरा
किनारा। अभी
और यहीं सभी
कुछ वैसा ही
है जैसा होना
चाहिए। कहीं
जाने की कोई
जगह नहीं है।
सत्य का खोजी,
किसी मार्ग
का अनुसरण
नहीं करता, क्योंकि
सारे मार्ग
कहीं न कहीं
ले जाते हैं, और सत्य तो
अभी और यहीं
है।’
लाओत्सु
कहेंगे, बस स्वयं
में विश्रांत
रहो। यह कोई
यात्रा नहीं
है, यह तो
बस स्वयं में
विश्रांत हो
जाना है। किसी
प्रकार की
तैयारी की कोई
जरूरत नहीं है,
क्योंकि यह
कोई यात्रा
थोड़े ही है।
तुम जैसे भी
हो, वैसे
ही विश्रांत
हो जाओ। अपने
स्वभाव में ठहर
जाओ। सभी
व्यर्थ की
बातें—नैतिकता
धारणा, सिद्धांत,
धर्म —इन
सभी सोने की
जंजीरों को
छोड़ दो। सभी तरह
के कूड़े —कचरे
को छोड़ दो।
जिस जमीन पर
खड़े हो, उससे
भयभीत मत हो
और स्वर्ग की
माग मत करो।
इस पृथ्वी पर
पैर जमाकर
जीना है।
भयभीत मत हो
कि हाथों में
मिट्टी चिपक
जाएगी। अपने
स्वभाव में
उतरो, क्योंकि
केवल अपने
स्वभाव में
उतरकर ही समग्र
समष्टि के साथ
जुड़ना हो सकता
है।
जरथुस्त्र
ने ठीक ही कहा
था। उसने राजा
का कोई उपहास
नहीं किया था।
वह एक
सीधा—सरल आदमी
था। और चूंकि
राजा ने स्वयं
ही कहा था कि
उसके पास अधिक
समय नहीं है
और राज्य में
बहुत से काम
उसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हैं, इसलिए उसे
जल्दी जाना
है। इसीलिए
जरथुस्त्र ने
संकेत रूप वह
गेहूं का दाना
दिया था।
लेकिन राजा
पूरी बात ही
चूक गया। वह
समझ ही नहीं
पाया कि यह
किस तरह का
संदेश है।
जरथुस्त्र ने
तो उसे पूरी
की पूरी 'जेंदावेस्ता'
ही बीज रूप
में दे दी थी; कुछ भी शेष न
छोड़ा था।
सच्चे धर्म का
पूरा संदेश ही
यही है। शेष
सब तो मात्र
व्याख्या ही
होती है।
जिस
दिन
जरथुस्त्र ने
राजा को बीज
दिया था, उसने ठीक
वैसा ही किया
था जैसा कि
बुद्ध ने महाकाश्यप
को फूल दिया
था।
जरथुस्त्र ने
जो बीज के रूप
में दिया था, वह फूल से
अधिक
महत्वपूर्ण
है। इन
प्रतीकात्मक
संदेशों को
समझने की
कोशिश करना।
बुद्ध
ने महाकाश्यप
को फूल दिया।
फूल खिलावट का
परम और अंतिम
रूप है। वह केवल
महाकाश्यप को
ही दिया जा
सकता है, जिसका स्वयं
का फूल खिल
गया है, जो
परम को उपलब्ध
है।
जरथुस्त्र ने
बीज दिया। बीज
प्रारंभ है।
वह उसे ही
दिया जा सकता
है, जिसने
खोज अभी
प्रारंभ ही की
हो, जो अभी
खोज के मार्ग
पर ही हो, जो
अभी मार्ग खोज
लेने का
प्रयास कर रहा
हो; जो
अंधकार में
भटक रहा हो, खोज रहा हो।
बुद्ध ने जो
फूल दिया, वह
हर किसी को
नहीं दिया जा
सकता है, उसके
लिए
महाकाश्यप
जैसा व्यक्ति
ही चाहिए। सच
तो यह है, वह
केवल उसे ही
दिया जा सकता
है जिसे फूल
की कोई जरूरत
ही न हो।
महाकाश्यप
उनमें से हैं
जिन्हें फूल
की जरूरत
नहीं। फूल
केवल उसे ही
दिया जा सकता
है, जिसे
फूल की जरूरत
नहीं।
जरथुस्त्र का
बीज उन्हें
दिया जा सकता
है, जिन्हें
बीज की
आवश्यकता है।
और बीज देकर
उन्होंने
इतना ही कहा
था कि 'बीज
हो जाओ। तुम
बीज ही हो।
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा
छिपा हुआ है।
कहीं और नहीं
जाना है।’
जरथुस्त्र
का धर्म एकदम
स्वाभाविक है
जैसा जीवन है
उसे वैसा ही
स्वीकार कर
लेना, जैसा
जीवन है उसे
वैसे ही जीना।
असंभव की माग मत
करना। जीवन को
उसकी सहजता
में स्वीकार
करना। जरा
चारों ओर आंख
उठाकर तो देखो,
सत्य सदैव
मौजूद ही है, केवल
तुम्हीं
मौजूद नहीं
हो। यही
किनारा दूसरा
किनारा है, और कोई
किनारा नहीं
है। यही जीवन
वास्तविक जीवन
है, और कोई
जीवन नहीं है।
लेकिन
इस जीवन को दो
ढंग से जीया
जा सकता है : या तो
तुम कुनकुने
रूप से जीओ, या फिर
समग्र रूप से।
अगर जीवन को
कुनकुने जीते
हो, तो बीज
की भांति जीते
हो। अगर जीवन
को एक खिले हुए
फूल की भांति
जीते हो, तो
तुम समग्र और
संपूर्ण रूप
से जीते हो।
अपने जीवन के
बीज को फूल
बनने दो। वह
बीज स्वयं ही
फूल बन जाएगा।
तुम स्वय
दूसरा किनारा
बन जाओगे। तुम
सत्य रूप हो
जाओगे।
इसे स्मरण
रखना। अगर तुम
इसे स्मरण रख
सके, कि
सहज और
स्वाभाविक
होना है, तो
तुमने वह सब
समझ लिया जो
जीवन का मूल
आधार है, वह
सब जो जीवन का
आधारभूत सत्य
है, वह
जिसे समझना
अत्यंत
आवश्यक है।
दूसरा
प्रश्न:
पतंजलि
के ध्यान और
झाझेन में
क्या अंतर है?
पतंजलि का
ध्यान एक चरण
है, उनके
आठ चरणों में
एक चरण है
ध्यान। झाझेन
में, ध्यान
ही एकमात्र
चरण है, और
कोई चरण नहीं
है। पतंजलि
क्रमिक विकास
में भरोसा
करते हैं। झेन
का
भरोसा
सडन
एनलाइटेनमेंट, अकस्मात
संबोधि में
है। तो जो
केवल एक चरण
है पतंजलि के अष्टांग
में, झेन
में ध्यान ही
सब कुछ है —झेन
में बस ध्यान
ही पर्याप्त
होता है, और
किसी बात की
आवश्यकता
नहीं। शेष
बातें अलग निकाली
जा सकती हैं।
शेष बातें
सहायक हो सकती
हैं, लेकिन
फिर भी आवश्यक
नहीं—झाझेन
में केवल ध्यान
आवश्यक है।
ध्यान
की यात्रा में
—प्रारंभ से
लेकर अंत तक सभी
आवश्यकताओं
के लिए—पतंजलि
एक पूरी की
पूरी क्रमबद्ध
प्रणाली दे
देते हैं। वे
ध्यान के बारे
में सब कुछ
बता देते हैं।
पतंजलि के
मार्ग में ध्यान
कोई अकस्मात
घटी घटना नहीं
है, उसमें
तो धीरे — धीरे,
एक —एक कदम
चलते हुए
ध्यान में
विकसित होना
होता है। जैसे
—जैसे तुम
ध्यान में
विकसित होते
हो और ध्यान
को आत्मसात
करते जाते हो,
तुम अगले
चरण के लिए
तैयार होते
जाते हो।
झेन तो
उन थोड़े से
दुर्लभ लोगों
के लिए है, उन थोड़े
से साहसी
लोगों के लिए
है, जो
बिना किसी आकांक्षा
के सभी कुछ
दाव पर लगा
सकते हैं, जो
बिना किसी
अपेक्षा के
सभी कुछ दाव
पर लगा सकते
हैं।
झेन
सभी के लिए
संभव नहीं है।
अगर तुम
सावधानी से
आगे बढ़ते
हो—और सावधानी
से आगे बढ़ने
में कुछ गलत
भी नहीं है।
अगर सावधानी
से आगे बढ़ना
तुम्हारे
स्वभाव के
अनुकूल हो, तो वैसे
ही आगे बढ़ना।
तब छलांग
लगाने की
मूढ़तापूर्ण
कोशिश मत
करना। अपने स्वभाव
की सुनना, उसे
समझना। अगर
तुम्हें लगे
कि जोखम उठाना,
सब कुछ दाव
पर लगा देना
ही तुम्हारा
स्वभाव है, तो फिर
सावधानी से
चलने की चिंता
मत करना, तो
क्रमिक रूप से
आगे बढ़ने की
परवाह ही मत
करना। या तो
सीढ़ियों से
नीचे उतर सकते
हो या फिर सीधी
छत से छलांग
लगाई जा सकती
है। सब कुछ
तुम पर निर्भर
करता है।
लेकिन हर हाल
में अःपने
स्वभाव की ही
सुनना।
ऐसे
कुछ लोग हैं
जो एक —एक कदम
चलने की फिक्र
न करेंगे, वे
प्रतीक्षा
करने को तैयार
ही नहीं हैं।
एक बार जब
उन्हें उस
अज्ञात के
स्वर सुनाई पड़
जाते हैं, तो
वे तुरंत छलांग
लगा देते हैं।
जैसे ही
अज्ञात के
स्वर उन्हें
सुनाई पड़े, वे एक क्षण
की भी
प्रतीक्षा
नहीं कर सकते
हैं, वे छलांग
लगा ही देते
हैं। लेकिन इस
तरह से छलांग
लगाने वाले
बहुत ही
दुर्लभ लोग
होते हैं।
जब मैं
कहता हूं 'दुर्लभ', तो मेरा
मतलब किसी भी
मूल्यांकन
करने वाले ढंग
से नहीं होता
है।’ मूल्यांकन
नहीं कर रहा
हूं। जब मैं
दुर्लभ कहता हूं, तो मेरा
मतलब श्रेष्ठ
से नहीं है, यह तो बस जथ्यगत
बात है. कि इस
तरह के लोगों
की संख्या
बहुत अधिक नहीं
होती। मैं यह
नहीं कह रहा
हूं— मेरी बात
को समझने में
चूक मत
जाना—मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि वे
साधारण
व्यक्तियों
से कुछ ज्यादा
श्रेष्ठ हैं।
न तो कोई
श्रेष्ठ है और
न ही कोई
निम्न है
—लेकिन हर एक
व्यक्ति में
भिन्नता तो
होती ही है।
कुछ ऐसे लोग
होंगे जो
छलांग लगाना
पसंद करेंगे,
उन्हें झेन
का मार्ग
चुनना चाहिए।
और कुछ ऐसे
लोग भी हैं जो
आराम से, सावधानी
से, धीरे —
धीरे, क्रमबद्ध
रूप से चलकर
मंजिल तक
पहुंचना
चाहेंगे।
इसमें भी कुछ
गलत नहीं है, यह भी एकदम
ठीक है। अगर
तुम्हारा वही
ढंग है, वहीं
मार्ग है; तो
धीरे — धीरे, एक —एक कदम
शालीनता से ही
उठाकर आगे
बढ़ना।
हमेशा
इस बात का
स्मरण रहे कि
तुम्हें
स्वयं ही, तुम्हारे
अपने
व्यक्तित्व
को ही, तुम्हारे
स्वभाव को ही
निर्णायक
बनना है। अपने
स्वभाव के
विपरीत
पतंजलि या झेन
के पीछे मत चल पड़ना।
सदैव अपने
स्वभाव की ही
सुनना।
पतंजलि और झेन
तुम्हारे लिए
हैं, तुम
उनके लिए
नहीं। धर्म
मनुष्य के लिए
है, मनुष्य
धर्म के लिए नहीं।
सभी धर्म
तुम्हारे लिए
हैं, न कि
तुम धर्मों के
लिए। तुम्हीं
लक्ष्य हो।
तीसरा
प्रश्न:
जब मैं
अपने भाव—
विचार और अंतस
की आवाज को
सुनता हूं तो
वे मुझे कहते
हैं कि कुछ भी
मत करो बस खाओ—
पीओ सोओ और
समुद्र के
किनारे घूमो
मजा करो। मुझे
यह मानकर चलने
में डर भी
लगता है
क्योंकि साथ
ही मुझे लगता
है कि मैं
इतना कमजोर हो
जाऊंगा कि इस
संसार में जीना
कठिन हो जाएगा
जब मैं
अपने को
अस्तित्व के
हाथों में छोड़
दूंगा तो क्या
अस्तित्व
मुझे सम्हाल
लेगा?
पहली बात. इस
संसार में बने
रहने की कोई
आवश्यकता
नहीं है। यह
संसार एक
पागलखाना है।
इसमें बने
रहने की कोई
जरूरत नहीं
है। महत्वाकांक्षा, राजनीति
और अहंकार के
संसार में बने
रहने की जरा
भी जरूरत नहीं
है। यही है
रोग। लेकिन एक
और भी ढंग है
होने का, जो
कि धार्मिक
ढंग है. कि तुम
संसार में रहो,
और संसार
तुम में न
रहे।
'जब
मैं अपने भाव
—विचार और
अंतस की आवाज
को सुनता हूं, तो वे मुझे
कहते हैं कि
कुछ भी मत
करो.।’
तो कुछ
भी मत करो।
तुमसे ऊपर कोई
नहीं है, और परमात्मा
तुमसे सीधे बात
करता है। अपनी
अंतस की अनुभूतियों
पर भरोसा रखो।
फिर कुछ भी मत
करो।
अगर
तुम्हें लगता
है कि 'बस
खाओ —पीओ, सोओ
और समुद्र के
किनारे घूमो,
मजा करो', तो यह
बिलकुल ठीक
है। इसे ही
तुम्हारा
धर्म होने दो।
फिर भयभीत मत
होओ।
तुम्हें
भय को गिराना
होगा। और अगर
यह प्रश्न आंतरिक
अनुभूति और भय
के बीच चुनाव
करने का हो, तो आंतरिक
अनुभूति को ही
चुनना। भय को
मत चुनना। इस
तरह बहुत से
लोगों ने अपना
धर्म भय के
कारण चुन लिया
है, इसीलिए
वे कैद में
जीते हैं। ऐसे
लोग न तो धार्मिक
हैं और न ही
सांसारिक।
ऐसे लोग डांवाडोल
स्थिति में
जीते हैं।
भय से
कोई मदद मिलने
वाली नहीं है।
भय का अर्थ है, अज्ञात
का भय। भय का
अर्थ है, मृत्यु
का भय। भय का
अर्थ है, स्वयं
के अस्तित्व
के खो जाने का
भय।
लेकिन
अगर तुम सच
में ही जीवंत
रहना चाहते हो, तो अपने
अस्तित्व के
खोए जाने की
संभावना को स्वीकार
कर लेना।
अज्ञात की
असुरक्षा को,
जो कि
अपरिचित और
अनजानी है, असुविधा और
कष्ट को
स्वीकार करना
होगा। उर्स आनंद
के लिए जो
इतनी तकलीफों
और कष्टों के
बावजूद भी आ
जाता है, कुछ
मूल्य तो
चुकाना ही
होगा। और बिना
मूल्य चुकाए
कुछ भी उपलब्ध
नहीं होता है।
उसके लिए मूल्य
तो चुकाना ही
होगा, अन्यथा
तो भय के मारे
सदा पंगु ही
बने रहोगे, और इस भय में
ही पूरा जीवन
समाप्त हो
जाएगा।
जो कुछ
भी तुम्हारी
अंतर अनुभूति
हो उसी का
आनंद मनाओ।
'मुझे
लगता है इस
तरह इतना
कमजोर हो
जाऊंगा कि इस
संसार में
जीना कठिन हो
जाएगा।’
कोई
जरूरत भी नहीं
है। यह
तुम्हारे
भीतर का भय
बोल रहा है।
भय और ज्यादा
भय को निर्मित
कर रहा है। भय
से और ज्यादा
भय जन्मता है।
',……क्या
अस्तित्व
मुझे सम्हाल
लेगा?'
फिर से
भय ही आश्वासन
और सुरक्षा की
मांग कर रहा
है। यहां पर
है कौन जो
तुम्हें
गारंटी देगा? कौन
तुम्हें जीवन
की गारंटी दे
सकता है? तुम
एक तरह की
सुरक्षा की मल
कर रहे हो।
नहीं, ऐसी
कोई संभावना
नहीं है।
अस्तित्व में
कुछ भी
सुरक्षित
नहीं है —कुछ
सुरक्षित हो
भी नहीं सकता।
और यह अच्छा
भी है। अन्यथा,
अगर
अस्तित्व
सुरक्षा की
गारंटी दे दे,
तो तुम पहले
से ही ढीले
—ढाले जी रहे
हो, फिर तो
तुम एकदम ही
ढीले हो
जाओगे। तब तेज
हवाओं में
जैसे कोई
सुकुमार, कोमल
पत्ता आनंदित
होकर नाचता है,
झूमता है, वह पूरी की
पूरी पुलक और
रोमांच ही
समाप्त हो जाएगा।
जीवन सुंदर है,
क्योंकि
असुरक्षित
है।
जीवन
सुंदर है, क्योंकि
उसमें मृत्यु
विद्यमान है।
जीवन इसीलिए
सुंदर है, क्योंकि
वह खो भी सकता
है। अगर जीवन
खो नहीं सकता
हो, तो फिर
वह भी
परतंत्रता हो
जाता, तब
जीवन भी एक
कारागृह बन
जाता। तब तुम
जीवन से भी
आनंदित नहीं
हो सकोगे। अगर
तुम्हें आनंदित
होने की भी
जबर्दस्ती हो,
तुम्हें
स्वतंत्रता
भी जबर्दस्ती
दे दी जाए, तो
आनंद और
स्वतंत्रता
दोनों ही खो
जाते हैं।
'…..जब
मैं अपने को
अस्तित्व के
हाथों में छोड़
दूंगा, तो
क्या
अस्तित्व
मेरी रक्षा
करेगा?'
प्रयास
करके देखना।
मैं तुमको
केवल एक ही
बात कह सकता
हूं. ध्यान
रहे, मैं
तुम्हारे भय के
लिए नहीं बोल
रहा हूं। मैं
तो तुमको केवल
एक ही बात कह
सकता हूं
जिन—जिन लोगों
ने अपने के।
आसतित्व के
हाथों में
छोड़ा है
उन्होंने
पाया है कि
अस्तित्व
बचाता है।
लेकिन मैं
तुम्हारे भय
की बात नहीं
कर रहा हूं।
मैं तो 'केवल
अ तुम्हारे
साहस को बढ़ावा
दे रहा हूं बस
इतना ही। मैं
तो तुम्हें
किसी भी तरह
से राजी कर
रहा हूं किसी
न किसी बहाने
से तैयार कर
रहा हूं ताकि
तुम साहस
पूर्वक अपने
अभियान की ओर
अग्रसर हो
सको। मैं
तुम्हारे भय
के लिए नहीं
बोल रहा हूं।
जिसने भी अपने
को अस्तित्व
के हाथों में
छोड़ा है, उसने
पाया है कि
अस्तित्व ही
एकमात्र
सुरक्षा है।
लेकिन
मैं नहीं
समझता कि तुम
उस सुरक्षा को
समझ सकते हो
जो संपूर्ण
अस्तित्व
तुम्हें देता है।
तुम जिस
सुरक्षा की
मांग कर रहे
हो, वह
सुरक्षा
अस्तित्व के
द्वारा नहीं
मिलती, क्योंकि
तुम्हें यही
नहीं मालूम कि
तुम क्या मांग
रहे हो। तुम
तो अपने ही
हाथों मृत्यु
की मांग कर
रहे हो।
क्योंकि केवल
मृत शरीर ही
पूरी तरह से
सुरक्षित
होता है, जो
भी जीवंत है, जिसमें भी
जीवन धड़क रहा
है वह तो
हमेशा खतरे
में रहता है।
जीवित रहना तो
एक जोखम है।
जितना अधिक
व्यक्ति
जीवंत होता है
—उतनी ही अधिक
उसके जीवन में
जोखम, संकट,
खतरा होता
है।
नीत्शे
ने अपने घर की
दीवार पर एक
आदर्श वाक्य
लिखकर लगाया
हुआ था खतरे
में जीओ। किसी
ने उससे पूछा, 'आपने ऐसा
क्यों लिखकर
रखा है?' नीत्शे
ने जवाब दिया,
'केवल मुझे
याद दिलाते
रहने के लिए, क्योंकि
मेरा भय भयंकर
है।’
खतरे
में जीओ, क्योंकि वही
जीने का
एकमात्र ढंग
है। और कोई ढंग
है भी नहीं।
हमेशा अज्ञात
की पुकार सुनो,
और उसी की
ओर बढ़ो। कहीं
भी रुको मत।
रुकने का मतलब
है मृत्यु, और वह
अपरिपक्व
मृत्यु होती
है।
मैं एक
छोटी सी लड़की
की जन्मदिन
पार्टी में गया
था। वहां पर
ढेर सारे
खिलौने और
उपहार रखे हुए
थे। और वह
लड़की बहुत ही
खुश थी
क्योंकि उसकी
सभी सहेलियां
वहां थीं, और वे सब
नाच —कूद रही
थीं। खेलते
—खेलते अचानक उस
छोटी लड़की ने
अपनी मां से
पूछा—'मां,
क्या पहले
भी कभी आपके
जीवन में ऐसे
सुंदर दिन हुआ
करते थे, जब
आप खुश रहा
करती थीं, और
जीवन को जीती
थीं?'
अधिकांश
लोग अपनी
मृत्यु के
पहले ही मर
जाते हैं। वे
जीवन में
सुरक्षा, आराम, सुविधा
में ही रुककर
रह जाते हैं।
उनका जीवन बस
एक कब्र का
जीवन बनकर रह
जाता है।
मैं
तुम्हारे भय
के बारे में
नहीं बोल रहा
हूं।
'.. …जब
मैं अपने को
अस्तित्व के
हाथों में छोड़
दूंगा, तो
क्या
अस्तित्व
मेरी रक्षा
करेगा?' अस्तित्व
तो सदा ही
रक्षा करता है,
और मैं नहीं
समझता कि
अस्तित्व
तुम्हारे साथ कुछ
अलग का अपनाएगा।
मैं नहीं मान
सकता कि वह
इसके
अतिरिक्त कुछ
और ढंग
अपनाएगा।
अस्तित्व सदा
से ऐसा ही रहा
है। अस्तित्व
उन लोगों को
ही बचाता है
जिन्होंने
अपने को उसके
हाथों में छोड़
दिया है, जिन्होंने
स्वयं को बीच
से हटा लिया
है, जिन्होंने
अस्तित्व के
सामने अपने को
समर्पित कर
दिया है।
तो
अपने स्वभाव
की सुनना, और अपने आंतरिक
स्वभाव का
अनुसरण करना।
मैं एक
कथा पढ़ रहा था, और मुझे
वह कथा बहुत
ही अच्छी लगी।
कोलंबिया
विश्वविद्यालय
पर वसंत का
मौसम छाया हुआ
था और लीन पर, जो कि
थोड़े समय पहले
ही ठीक किया
गया था, 'कीप
ऑफ' की
सूचना लगा दी
गई थी।
विद्यार्थियों
ने उन
चेतावनियों पर
कोई ध्यान
नहीं दिया।
इसके बाद भी
उनसे बार—बार
निवेदन किया
गया, लेकिन
उन्होंने
किसी की एक न
सुनी और वे
घास को रौंदते
हुए चलते ही
रहे। जब यह
बात सीमा के बाहर
हो गई, तो
आखिरकार उस
बिल्डिंग और
उस क्षेत्र के
अफसर इस समस्या
को, जनरल
आइजनहॉवर के
पास ले गए, जो
कि उस समय
विश्वविद्यालय
के अध्यक्ष
थे।
आइजनहॉवर
ने पूछा, 'क्या आप लो?गं ने कभी
ध्यान दिया कि
जहां आपको
जाना है उस ओर
एकदम सीधे
—सीधे जाने से
कितनी जल्दी
पहुंचा जा
सकता है? तो
आप लोग यह
क्यों नहीं
पता लगा लेते
हैं कि
विद्यार्थी
कौन से रास्ते
से जाना पसंद
करेंगे, और
वहीं फुटपाथ
क्यों नहीं
बनवा देते हैं?'
जिंदगी ऐसी
ही होनी
चाहिए। सड़कें
हों या रास्ते
हों या सिद्धांत
हों, उन्हें
पहले से तय
नहीं कर लेना
चाहिए।
स्वयं
को अस्तित्व
के हाथों में
छोड दो। स्वाभाविक
रहो और उसे ही
अपना मार्ग
होने दो। चलो
और चलने के
द्वारा ही
अपना मार्ग
बनाओ।
राजपथों का
अनुसरण मत करो।
वे मुर्दा
होते हैं, और उनके
द्वारा
तुम्हें कुछ
मिलने वाला
नहीं है। हर
चीज पहले से
ही वहां से
हटी हुई है।
अगर तुम
किन्हीं बने
—बनाए राजपथ
का अनुसरण
करते हो, तो
तुम अपने
स्वभाव से दूर
जा रहे हो।
क्योंकि
स्वभाव किन्हीं
बने बनाए
मार्गों को, या किन्हीं
जड़—मुर्दा
ढांचों को
नहीं जानता
है। वह तो
अपने ही
स्वभाव के
अनुरूप
प्रवाहित
होता है, लेकिन
तब सभी कुछ
स्वत:, सहज—स्फूर्त
होता है।
समुद्र के तट
पर जाकर बैठना
और' समुद्र
को देखना।
समुद्र में
लहरों पर
लहरें उठ रही
हैं, लेकिन
प्रत्येक लहर
अपने आप
में अनूठी और
अलग होती है।
तुम एक जैसी
दो लहरें नहीं
खोज सकते हो।
एक लहर किसी
दूसरी लहर का
अनुसरण नहीं
करती है।
कोई भी
आत्मवान
व्यक्ति किसी
सुनिश्चित ढांचे
के पीछे नहीं
चलता है।
मेरे
पास लोग आकर
कहते हैं कि 'हमें
मार्ग बताएं।’
मैं उनसे
कहता हूं, 'यह मत पूछो।
मैं तो केवल
इतना ही बता
सकता हूं कि
आगे कैसे बढ़ना
है; मैं
तुम्हें कोई
मार्ग नहीं
बता सकता।’
जरा इस
भेद को समझने
की कोशिश
करना!
मैं
तुम्हें केवल
इतना ही बता
सकता हूं कि
चलना कैसे है, बढ़ना
कैसे है —और
साहसपूर्वक
आगे कैसे बढ़ना
है। मैं
तुम्हें कोई
बना—बनाया
मार्ग नहीं
बता सकता, क्योंकि
बना—बनाया
मार्ग तो
कायरों के लिए
होता है। जो
जानते नहीं
हैं कि कैसे
चलना है, जो
पंगु होते हैं,
बना —बनाया
मार्ग उनके
लिए होता है।
जो जानते हैं
कि कैसे चलना
है, वे
ऊबड़—खाबड़ बीहड़
से भरे जंगल
के रास्तों पर
चलते चले जाते
हैं, और
चलने से ही वे
अपने मार्ग का
निर्माण कर लेते
हैं।
और
प्रत्येक
व्यक्ति अलग—
अलग मार्गों
से परमात्मा
तक पहुंचता
है। कोई भी
व्यक्ति किसी
समूह के साथ, या भीड़ के
साथ परमात्मा
तक नहीं पहुंच
सकता है।
प्रत्येक
व्यक्ति
अकेला, नितांत
अकेला ही
परमात्मा तक
पहुंच सकता
है।
परमात्मा
अपनी
स्वाभाविक
अवस्था में ही
है। वह अभी
सभ्य नहीं हुआ
है। और मुझे
पक्का भरोसा
है कि वह कभी
सभ्य होगा भी
नहीं।
परमात्मा अभी
भी स्वाभाविक
है; और
वह सहजता से, स्वाभाविकता
से ही प्रेम
करता है। तो
अगर तुम्हारा
अंतस स्वभाव
समुद्र के तट
पर आराम करने
को कहता है, तो वही करो।
शायद वहीं से
परमात्मा
तुमको पुकार
रहा है।
मैं तो
तुम्हें बस
अपने सहज
स्वभाव में
प्रतिष्ठित
हो सको, यही सिखाता
हूं और कुछ भी
नहीं।
तुम्हारे अपने
भय के कारण
मुझे समझना बहुत
कठिन है, क्योंकि
तुम तो चाहोगे
कि मैं
तुम्हें जीवन
का एक
बना—बनाया
ढांचा दे दूं
जीवन की एक
सुनिश्चित
अनुशासन शैली
दे दूं एक
बना—बनाया
जीवन —मार्ग
दे दूं। मेरे
जैसे लोगों को
हमेशा गलत समझा
गया है।
लाओत्सु हों
कि जरथुस्त्र
कि एपीक्यूरस,
उन्हें
हमेशा गलत ही
समझा गया है।
इस पृथ्वी के
सर्वाधिक
धार्मिक
व्यक्तियों
को हमेशा
अधार्मिक
माना गया है, क्योंकि अगर
सच में ही कोई
धार्मिक होगा,
तो तुम्हें
स्वतंत्रता
सिखाएगा, वह
तुम्हें
प्रेम
सिखाएगा। वह
तुम्हें कोई नियम
इत्यादि न
सिखाएगा; वह
तुम्हें
प्रेम
सिखाएगा। वह
जीवन के मृत
ढांचे के विषय
में नहीं
बताएगा। वह अराजकता,
अव्यवस्था,
सिखाएगा
क्योंकि केवल
उस अराजकता और
अव्यवस्था
में से ही
प्रज्ञावान
लोगों का जन्म
होता है। और
केवल वही
तुम्हें
मुक्त होना
सिखा सकते
हैं।
मैं
जानता हूं कि
तुम्हें भय
लगता है, स्वतंत्रता
से भय लगता है;
अन्यथा इस
संसार में
इतने कारागृह
क्यों हों? क्यों लोग
निरंतर अपने
जीवन को इतने
कारागृहों के
घेरे से
बांधकर रखते?
ऐसे
कारागृह के
घेरे हैं जो
दिखाई भी नहीं
देते हैं; अदृश्य
घेरे हैं।
केवल दो तरह
के कैदियों से
मेरा सामना
हुआ है : कुछ तो
वे हैं जो
दिखाई पड़ने
वाले हैं, जो
कारागृह में
जीते हैं। और
दूसरी तरह के
वे लोग हैं जो
अदृश्य कैद
में जीते हैं।
वे विवेक के
नाम पर, नैतिकता
के नाम पर, परंपरा
के नाम पर, इस
उस नाम पर
अपनी कैदें
अपने साथ लिए
घूमते हैं।
बंधन
और गुलामी के
हजारों नाम
हैं।
स्वतंत्रता
का कोई नाम नहीं
है।
स्वतंत्रता
बहुत प्रकार
की नहीं होती
है, स्वतंत्रता
का एक ही
प्रकार है।
क्या कभी तुमने
इस पर गौर
किया है? सत्य
एक ही होता
है। असत्य के
कई रूप हैं।
असत्य को कई
तरह से बोला
जा सकता है; लेकिन सत्य
को कई तरह से
नहीं कहा जा
सकता। सत्य
सीधा—सरल है.
उसे कहने के
लिए एक ही ढंग
पर्याप्त
होता है।
प्रेम एक है; लेकिन प्रेम
के नाम पर
लाखों नियम
हैं। इसी तरह
स्वतंत्रता
तो एक है; लेकिन
स्वतंत्रता
के नाम पर
कैदें अनेक
हैं।
और जब
तक तुम सचेत
और जागरूक
नहीं होते हो, तुम कभी
भी स्वतंत्र
रूप से चलने
के योग्य न हो
सकोगे। ज्यादा
से ज्यादा
कैदें बदल
लोगे। एक कैद
से दूसरी कैद
में चले जाओगे,
और इन दोनों
कैदों के बीच
आने —जाने का
मजा जरूर ले
सकते हो।
यही तो
इस दुनिया में
चल रहा है।
कैथोलिक कम्मुनिस्ट
बन जाता है, हिंदू
ईसाई बन जाता
है, मुसलमान
हिंदू बन जाता
है, और वे
लोग इस बदलाव
में बहुत ही
खुश और आनंदित
होते हैं —ही, जब वे एक कैद
से दूसरी कैद
में जा रहे
होते हैं, तो
उन्हें उन
दोनों के बीच
की यात्रा में
थोड़ी
स्वतंत्रता
का अनुभव जरूर
होता है।
उन्हें थोड़ी
राहत जरूर
महसूस होती
है। लेकिन फिर
से वे उसी जाल
में एक अलग
नाम के साथ
गिर जाते हैं।
कोई सी
भी विचारधारा
हो, सिद्धांत
हो, सभी
कैदें हैं।
मैं तुम्हें
उन सभी के
प्रति सजग
रहना सिखा रहा
हूं —यहां तक
कि मेरी
विचारधारा, मेरे सिद्धांत
के प्रति भी
तुम्हें सजग
और जागरूक
रहना सिखा रहा
हूं।
चौथा
प्रश्न:
अभी
कुछ दिनों से
मुझे ऐसा
महसूस हो रहा
है कि मैं उड़
सकता हूं। और
मैने सूक्ष्म रूप
से यह भी
अनुभव किया है
कि मैं
गुरुत्वाकर्षण
से भी मुक्ति
पा सकता हूं
और बहुत ही ऊब
के साथ मैने
अपने शरीर के
एक सौ पचास
पौड के वजन को
देखा है। क्या
यह सिर्फ
पागलपन है.....?
नहीं, तुम दो
आयामों के
मिलन बिंदु
हो। एक आयाम
पृथ्वी से
संबंधित है.
गुरुत्वाकर्षण
से, शरीर
के एक सौ पचास
पौंड वाले
यथार्थ से —जो
कि तुम्हें
नीचे खींचता
है। दूसरा
आयाम परमात्मा
के प्रसाद से
संबंधित है
परमात्मा से,
स्वतंत्रता
से, जहां
तुम ऊपर, और
ऊपर जा सकते
हो और जहां पर
बिलकुल भार
नहीं होता है,
निर्भार
होता है।
ध्यान
में ऐसा होता
है। बहुत बार
गहरे ध्यान में
तुम्हें
अचानक ऐसा
अनुभव होगा कि
गुरुत्वाकर्षण
खो गया है : अब
कोई भी चीज
तुम्हें नीचे की
ओर नहीं पकड़ती
है, अब
यह तुम पर
निर्भर करता
है कि उड़ान लो
या नहीं, अब
यह पूरी तरह
से तुम पर
निर्भर है—अगर
तुम चाहो तो
आकाश में उड़ान
भर सकते हो... और
पूरा आकाश
तुम्हारा है।
लेकिन जब
अचानक आंखें
खोलते हो, तो
शरीर वहां पर
मौजूद होता
है। पृथ्वी भी,
गुरुत्वाकर्षण
भी सभी कुछ
वहां मौजूद
होता है। जब आंख
बंद करके
ध्यान में
डूबे हुए थे, तो शरीर भूल
गया था। तुम एक
अलग ही आयाम
में, सुंदर
आयाम में
विचरण कर रहे
थे।
ये
दोनों बातें
ठीक से समझ
लेना
गुरुत्वाकर्षण
का नियम:
तुम्हें नीचे
की ओर खींचता
है, परमात्मा
का प्रसाद वह
नियम है जो
तुम्हें ऊपर
खींचता है।
विज्ञान अभी
तक उसे खोज
नहीं सका है, और शायद वह
इस दूसरे नियम
को कभी खोज भी
नहीं सकता है।
उसने एक ही
नियम को, गुरुत्वाकर्षण
के नियम को ही
खोजा है।
तुमने
कथा सुनी है
न—ऐसा हुआ कि
नहीं, यह
महत्वपूर्ण
नहीं
है—न्यूटन
बगीचे में बैठा
था, और एक
सेब पेडू से
नीचे गिरा। उस
सेब को गिरते हुए
देखकर, न्यूटन
सोचने लगा, सेब पृथ्वी
पर ही क्यों
गिरता है? सीधे
पृथ्वी की ओर
ही क्यों आता
है? इधर
—उधर क्यों
नहीं गिरता है?
सेब ऊपर की
ओर क्यों नहीं
जाता है? और
उसके साथ ही
गुरुत्वाकर्षण
के नियम की
खोज हुई कि
पृथ्वी के पास
खींचने की एक
शक्ति है और
वह प्रत्येक
चीज को अपनी
ओर खींचती है।
लेकिन
न्यूटन ने
नीचे गिरते
हुए फल को तो
देखा, लेकिन
उसने ऊपर की
ओर बढ़ते वृक्ष
को नहीं देखा।
यह बात मुझे
हमेशा खयाल
में आती है जब
भी मैंने यह
कथा पढ़ी, मैंने
हमेशा अनुभव
किया कि उसने
छोटे से फल को
पृथ्वी पर
गिरते हुए तो
देखा, उसने
वृक्ष को ऊपर
उठते हुए नहीं
देखा। एक पत्थर
को ऊपर फेंको,
तो वह वापस
नीचे आ जाता
है, यह
सत्य है।
लेकिन एक
वृक्ष ऊपर और
ऊपर बढ़ता चला
जाता है। कोई
ऐसी चीज होती
है जो वृक्ष
को ऊपर खींचती
है। पत्थर मृत
होता है, वृक्ष
जीवंत होता
है। जीवन ऊपर,
और ऊपर, और—
और ऊपर बढ़ता
चला जाता है।
इसी
पृथ्वी पर
मनुष्य ने
अपनी चेतना के
उच्चतम शिखर
को छुआ है। जब संसार
से दृष्टि हट
जाती है, और जब तुम
ध्यान में, प्रार्थना
में, आनंद
की अवस्था में
होते हो—तो
अचानक शरीर
वहा पर नहीं
रह जाता। तुम
अपने भीतर के
वृक्ष के प्रति
सजग हो जाते
हो, और वह
ऊपर, और
ऊपर बढ़ता जाता
है, और अचानक
तुम्हें लगता
है कि तुम उड़
सकते हो।
इसमें
कोई पागलपन
नहीं है, लेकिन कृपा
करके ऐसा करने
की कोशिश मत
करना। खिड़की
से छलांग
लगाकर मत उड़ने
लगना। तब तो
यह पागलपन
होगा। कुछ
लोगों ने एल
एस डी और
मारिजुआना के
नशे के प्रभाव
में आकर ऐसा
किया है।
ध्यान की
अवस्था में
किसी ने ऐसा
कभी नहीं किया
है। यही तो है
ध्यान का
सौंदर्य, और
नशों का यही
ख:तरा है। कुछ
लोगों को
नशीली दवाओं
के प्रभाव में,
किसी
रासायनिक नशे
के गहरे
प्रभाव में
परमात्मा की
झलक मिलने का
भ्रम हुआ है, और उन्हें
ऐसा लगता है
कि वे उड़ सकते
हैं। वे लोग
शरीर को भूल
जाते हैं। और
कुछ लोगों ने
ऐसी कोशिशें
की हैं
न्यूयार्क
में एक लड़की
ने ऐसा ही
किया। वह लड़की
एक बिल्डिंग
की चालीसवीं
मंजिल की
खिड़की से कूद
पडी—बस, फिर न्यूटन
का सिद्धांत
काम कर गया।
फिर तुम वृक्ष
की तरह ऊपर
नहीं बढ़ सकते,
तुम फल बनकर
नीचे आ गिरते
हो। फिर पृथ्वी
पर आकर गिर
जाते हो और
टुकड़े —टुकड़े
हो जाते हैं।
नशे का खतरा
यही है।
क्योंकि नशे
की हालत में
व्यक्ति के
अज्ञात की कुछ
झलकिया, सत्य
की कुछ
झलकियां
मिलती
हैं—लेकिन नशे
की हालत में
होश नहीं होता
है। नशे की
हालत में
व्यक्ति कुछ
भी ऐसा काम कर
सकता है, जो
खतरनाक सिद्ध
हो।
लेकिन
ध्यान की
अवस्था में
ऐसा कभी भी
नहीं हुआ है, क्योंकि
ध्यान में दो
बातें एक साथ घटित
होती हैं:
ध्यान एक तो
व्यक्ति के
सामने नए—नए
आयाम खोल देता
है, और साथ
ही होश
और
जागरूकता को
भी बढ़ा देता
है। इसलिए उन
नए आयामों के
साथ इस बात का
भी होश बना
रहता है कि
शरीर भी
विद्यमान है।
इस तरह से दो
आयामों में
बंटना हो जाता
है।
एक दिन, एक बहुत
ही मोटे
स्थूलकाय
सज्जन अपने
टेनिस खेलने
की तकनीक के
विषय में
बातचीत कर रहे
थे।’मेरा
मस्तिष्क
मुझे बताता
जाता है कि
तेजी से आगे
दौड़ना है, कि
अभी ऐसा करना
है, कि अभी
वैसा करना है,
कि गेंद को
तेजी से जाली
पर मारना है।’
मैंने
उनसे पूछा, ' और फिर
क्या होता है?'
वे
बोले, 'और
फिर?' वे
सज्जन तो बहुत
उदास हो गए और
बोले, 'मेरा
शरीर कहता है
क्या मुझे
करना होगा यह
सब?'
ध्यान
रहे, तुम
शरीर और चेतना
दोनों ही हो।
तुम दो आयामों
में फैले हुए
हो। तुम
पृथ्वी और
आकाश, पदार्थ
और परमात्मा
के मिलन हो।
इसमें कुछ पागलपन
नहीं है। यह
एक सीधा सत्य
है। और कई बार
ऐसा होता है, चूंकि कई
बार ऐसा हुआ
है, तो
अच्छा होगा कि
मैं तुम्हें
इस बारे में
सजग कर दू कई
बार सच में ही
ऐसा होता है
कि शरीर थोड़ा
ऊपर उठ जाता
है। बेवेरिया
में एक स्त्री
है, जो
ध्यान करते
समय चार फीट
ऊपर उठ जाती
है। उसका सभी
तरह से
वैज्ञानिक
परीक्षण किया
गया और पाया
गया कि किसी
भी ढंग से वह
स्त्री कोई
धोखा नहीं दे
रही है। वह
स्त्री कोई
चार —पांच मिनट
तक चार फीट
ऊपर हवा में
लटकी रहती है।
यह
योगियों के
सर्वाधिक
प्राचीन
अनुभवों में
से एक अनुभव
है। ऐसा कभी
—कभी ही होता
है, लेकिन
पहले भी ऐसा
हुआ है और अभी
भी कई बार ऐसा होता
है। तुम में
से भी किसी को
भी ऐसा हो
सकता है। अगर
ऊपर की ओर
ज्यादा
खिंचाव हो जाए
तो संतुलन
बिगड़. जाता है,
और तब ऐसा
होता है। यह
कोई अच्छी बात
नहीं है। और न
ही ऐसा करने
का प्रयास
करना, और न
ही ऊपर उठने
की आकांक्षा
करना। यह एक
तरह का
असंतुलन है, और जो जीवन
के लिए खतरनाक
भी हो सकता
है। जब ऊपर के
आयाम का
खिंचाव बहुत
ज्यादा हो
जाता है और
गुरुत्वाकर्षण
का खिंचाव
उससे बहुत कम
रह जाता है, तब ऐसा होता
है उस समय
शरीर ऊपर की
ओर उठ सकता है।
फिर भी अपने
को पागल मत
समझ लेना और
ऐसा मत समझने
लगना कि तुम
में पागलपन
जैसी कोई बात
घट रही है।
न्यूटन
के सिद्धांत
में पूरा सत्य
नहीं है।
न्यूटन के सिद्धांत
से कहीं
ज्यादा बडे
—बड़े सत्य
मौजूद हैं। और
गुरुत्वाकर्षण
का नियम ही
एकमात्र नियम
नहीं है; अस्तित्व
में और भी कई
नियम हैं।
मनुष्य
अनंत है, असीम है, और
हम मनुष्य के
अंश में ही
विश्वास करते
हैं। इसलिए जब
कभी किसी
दूसरे आयाम से
कोई चीज प्रवेश
करती है, तो
हमें लगता है
कि कुछ गलत हो
रहा है।
पश्चिम
में बहुत से
ऐसे लोग हैं
जिन्हें पागल और
मानसिक रोगी
माना जाता है, उन्हें
मानसिक रूप से
विक्षिप्त
माना जाता है
और जो पश्चिम
में
पागलखानों
में पड़े हुए
हैं, मानसिक
रोगियों के
अस्पतालों
में हैं; जबकि
वे पागल नहीं
हैं। उन में
से बहुत से
ऐसे हैं
जिन्हें
अज्ञात की कुछ
झलकियां मिली
हैं। लेकिन
चूंकि पश्चिम
का समाज
अज्ञात जैसा
कुछ है, इस
को स्वीकार
नहीं करता है,
तो ऐसे
लोगों को तो
स्वीकार करने
का सवाल ही नहीं
उठता है।
पश्चिम में उन
लोगों पर कोई
ध्यान नहीं
दिया जाता है।
जब कभी किसी
व्यक्ति को
अज्ञात की कोई
झलक मिलती है,
तो उसे पागल
मान लिया जाता
है, और
उन्हें
पागलखाने में
डाल दिया जाता
है। क्योंकि
तब वह व्यक्ति
समाज के लिए
अजनबी बन जाता
है। हम उसकी
बातों पर
भरोसा नहीं कर
पाते हैं।
पश्चिम
में जीसस पर
कुछ ऐसी
पुस्तकें
लिखी गई हैं
जिनमें
उन्हें
मानसिक रोगी
बताया गया है, क्योंकि
वे परमात्मा
की आवाज को
सुनते थे।
मोहम्मद
के विषय में
जो ग्रंथ लिखे
गए हैं उसमें
कहा गया है कि
वे पागल थे.
उन्होंने
बेहोशी में
कुरान की
आयतें सुन ली
होंगी—क्योंकि
वार्तालाप के
लिए वहा पर
मौजूद कौन है? और
उन्होंने
अल्लाह की
आवाज सुनी, कि लिख! और
मोहम्मद
लिखने लगे।
चूंकि
तुम्हारे पास
इस तरह का कोई
अनुभव नहीं है, तो यह कह
देना मन की
स्वाभाविक
प्रकृति है कि
मोहम्मद को
जरूर कोई
पागलपन का
दौरा पड़ा होगा,
या बेहोशी
की हालत में
रहे होंगे, या जोर का
बुखार चढ़ आया
होगा, क्योंकि
ऐसी बातें
केवल बेहोशी की
हालत में ही
घटित होती
हैं।
हां, ऐसी
बातें पागलपन
में भी घटती
हैं, और
ऐसी बातें परम
संतुलन, परम
चेतन अवस्था
में भी घटित
होती हैं।
क्योंकि पागल
व्यक्ति
सामान्य
अवस्था से
नीचे आ जाता
है, वह
अपने मन पर
नियंत्रण खो
बैठता है। और
जब व्यक्ति का
अपने मन पर
नियंत्रण खो
जाता है, तो
व्यक्ति
अज्ञात की
शक्तियों के
प्रति उपलब्ध
हो जाता है।
एक योगी, या
रहस्यदर्शी
संत अपनी
चेतना पर
नियंत्रण पाकर
संयम को
उपलब्ध हो
जाता है, वह
चेतना के
उच्चतम शिखर
को छू लेता है
और वह सामान्य
के ऊपर उठता
जाता है —फिर
उसे अज्ञात
उपलब्ध हो
जाता है।
लेकिन एक पागल
और संत में
इतना भेद है
कि एक पागल
आदमी अज्ञात
के आधीन होता
है और संत उस
अज्ञात का मालिक
हो जाता है।
हो सकता है
दोनों के बात
करने का ढंग, हाव — भाव एक
जैसे हों। और
तुम दोनों को
एक जैसा समझने
की गलती कर
बैठो। भ्रम
में पड़ सकते
हो।
अपने
को पागल मत
समझो। जो भी
हो रहा है, एकदम ठीक 'हो रहा है।
लेकिन इसके
लिए किसी
प्रकार की कोशिश
या प्रयास मत
करना। इससे
आनंदित होना,
इसे घटने
देना, क्योंकि
अगर कहीं
तुम्हें ऐसा
लगने लगा कि
यह पागलपन है,
तो तुम इसे
रोकने का
प्रयास करोगे और
वह रोकने का
प्रयास ही
तुम्हारे
ध्यान को अस्त
—व्यस्त कर
देगा। आनंदित
होना, जैसे
कि तुम किसी
स्वप्न में उड़
रहे हो। अपनी आंखें
बंद कर लेना, फिर ध्यान
में तुम चाहे
जहां चले
जाना। और — और ऊपर
आकाश में उठना
और बहुत सी
बातें
तुम्हारे सामने
खुलने
लगेगी—और भयभीत
मत होना। यह
बड़े से बड़ा
अभियान है —यह
चांद पर जाना
भी इतना बड़ा
अभियान नहीं,
चांद पर
जाने पर से भी
बड़ा अभियान
है। अपने अंतर
आकाश के
अंतरिक्ष—यात्री
हो जाना ही
सबसे बडा
अभियान है।
पांचवां
प्रश्न :
आपने
मुझ से
स्वयंरूप हो
जाने को कहा
मुझे यह बात
नहीं समझ आती
अगर मैं स्वयं
को ही नहीं
जानता हूं तो
मैं कैसे
स्वयंरूप हो
सकता हूं?
चाहे तुम जानो
या न जानो, तुम अपने
से अलग कुछ और
हो नहीं सकते
हो। स्वयं को
जानने के लिए
किसी ज्ञान की
आवश्यकता नहीं
है। एक गुलाब
का पौधा गुलाब
का पौधा ही
होता है। ऐसा
नहीं कि गुलाब
का पौधा जानता
है कि वह
गुलाब का पौधा
है। एक चट्टान
एक चट्टान ही
होती है। ऐसा
नहीं कि
चट्टान जानती
है कि वह एक
चट्टान है।
जानने की कोई
आवश्यकता
नहीं। सच तो
यह है कि इस
जानने के कारण
ही तुम स्वयं
के हो जाने की
बात को चूक
रहे हो।
तुम
पूछते हो. 'आप ने मुझ
से स्वयंरूप
हो जाने को
कहा। मुझे यह
बात नहीं समझ
आती। अगर मैं
स्वयं को ही
नहीं जानता
हूं तो?'
जानकारी
ही समस्या खड़ी
कर रही है।
जरा गुलाब के
पौधे को देखो।
उसे कोई भांति
नहीं है, उसे कोई
उलझन नहीं है।
हर रोज वह
गुलाब का पौधा
ही रहता है।
किसी दिन भी
वह किसी भ्रांति
में नहीं पड़ता
है। अचानक
सुबह गुलाब का
पौधा गेंदे के
फूल नहीं
उगाने लगता
है। वह गुलाब का
पौधा ही बना
रहता है। वह
कभी किसी
भांति में
नहीं पड़ता है।
होने
के लिए किसी
जानकारी की
आवश्यकता
नहीं। सच तो
यह है अधिक
जानकारी के
कारण ही तुम
स्वयं को चूक
रहे हो, और जानकारी
ही अनावश्यक
रूप से समस्या
खड़ी करती है।
मैं डडले नामक
एक व्यक्ति के
बारे में पढ़ रहा
था
अंकल
डडले का
पचहत्तरवां
जन्मदिन
मनाने के लिए
विमान चलाने
वाले एक बड़े
उत्साही
व्यक्ति ने
उन्हें विमान
द्वारा उस
छोटे से
पश्चिमी
वर्जीनिया
शहर की सैर
करने के लिए
आमंत्रित
किया, जहां
कि उन्होंने
अपना पूरा
जीवन गुजारा
था। अंकल डडले
ने उसके
आमंत्रण को
स्वीकार कर
लिया।
जब बीस
मिनट में
उन्होंने
पूरे शहर का
चक्कर लगा
लिया, तो
वापस जमीन पर
आकर उनके
मित्र ने पूछा,
'अंकल डडले
क्या आप भयभीत
हो गए थे?'
'नहीं,'
उन्होंने
सकुचाते हुए
कहा, 'मैंने
तो अपना पूरा
वजन विमान में
रखा ही नहीं।’
विमान
में तुम अपना
पूरा वजन चाहे
रखो या न रखो, विमान तो
वजन उठाता ही
है।
तुम
स्वयं को
जानते हो या
नहीं, यह
महत्वपूर्ण
नहीं है।
लेकिन
तुम्हारी जानकारिया
तुम्हारे
होने के मार्ग
में रुकावट सिद्ध
हो रही हैं।
जरा सोचो अगर
अंकल डडले के
साथ विमान में
एक चट्टान भी
होती, तो
चट्टान ने
अपना पूरा वजन
उसमें रख दिया
होता। और क्या
तुम समझते हो
कि अंकल डडले
कुछ कर सकते
हैं, किसी
ढंग से कोई
उपाय करके
अपना वजन
विमान में
रखने से रोक
सकते हैं? क्या
कोई ऐसी
संभावना है कि
वह अपना पूरा
वजन विमान में
न रखें? उनका
पूरा वजन तो
विमान में ही
है, लेकिन
वे व्यर्थ ही
परेशान हो रहे
हैं। चट्टान
की तरह उसमें
आराम से भी
बैठ सकते थे, विश्राम कर
सकते थे।
लेकिन चट्टान
के पास कोई जानकारी
नहीं है, और
अंकल डडले के
पास जानकारी
है।
मनुष्य
जाति की पूरी
की पूरी
समस्या ही यही
है कि मनुष्य
जाति सब कुछ
जानती है। और
इस जानने के
कारण ही अस्तित्व
के होने को
व्यर्थ ही
भुला दिया गया
है।
जानकारियों
को गिरा देने
की विधि का
नाम ही तो
ध्यान है।
ध्यान का अर्थ
है, फिर
से निर्दोष, सरल, अज्ञानी
कैसे हो जाएं।
ध्यान का अर्थ
है, फिर से
कैसे बच्चे की
भांति हो जाएं,
फिर से कैसे
गुलाब की झाड़ी
हो जाएं फिर
से कैसे
चट्टान हो
जाएं। ध्यान
का अर्थ है, होना मात्र
रह जाए, विचार
बिदा हो जाएं।
जब मैं
तुम से
स्वयंरूप
होने को कहता हूं, तो मेरा
मतलब ध्यान से
है। किसी अन्य
व्यक्ति की
तरह होने की
कोशिश मत करने
लग जाना। तुम
किसी दूसरे
व्यक्ति की
तरह हो ही
नहीं सकते
हो। तुम
दूसरे
व्यक्ति की
तरह होने की
कोशिश जरूर कर
सकते हो, और इस तरह से
तुम स्वयं को
धोखा दे सकते
हो, स्वयं
को आश्वासन दे
सकते हो और
तुम आशा कर
सकते हो कि एक
दिन वह
व्यक्ति बन
जाओगे। लेकिन
ऐसा संभव नहीं
है। किसी अन्य
व्यक्ति की
तरह होने की
कोशिश करना यह
केवल एक भ्रम
है। वे केवल स्वप्न
होते हैं, वे
कभी भी यथार्थ
में परिणित
नहीं हो
सकेंगे। तुम
कुछ भी करो, तुम तुम ही
रहोगे।
तो फिर
विश्राम में
क्यों नहीं हो
जाते? अंकल
डडले अपना
पूरा वजन
विमान में रख
दो और विश्रांत
हो जाओ।
जब तुम
शिथिल हो जाते
हो, अचानक
तुम अपने होने
का मजा लेने
लगते हो। और फिर
दूसरे के जैसे
होने का
प्रयास
समाप्त हो जाता
है। यही
तुम्हारी
चिंता है कि
कैसे दूसरा हो
जाऊं? कैसे
मैं दूसरे के
जैसा हो जाऊं
—कैसे बुद्ध जैसा
हो जाऊं? कैसे
पतंजलि जैसा
हो जाऊं?
तुम
केवल
तुम्हारे जैसे
ही हो सकते
हो। इसे
स्वीकारों, इसी में
आनंद मनाओ और
विश्रांत
रहो। झेन गुरु
अपने शिष्यों
से कहा करते
हैं, 'बुद्ध
से सावधान
रहना। अगर
मार्ग पर
तुम्हारा कभी
उनसे मिलना भी
हो जाए तो
तुरंत उनकी
हत्या कर
देना।’
उनका
यह कहने का
क्या मतलब है? उनका यह
कहने का मतलब
है कि मनुष्य
की प्रवृत्ति
नकल करने की
होती है।
अंग्रेजी
में एक पुस्तक
है, इमीटेशन
ऑफ क्राइस्ट—क्राइस्ट; की नकल।
इससे पहले और
इसके बाद कभी
किसी पुस्तक
को इतना खराब
शीर्षक नहीं
दिया गया',।
नकल? लेकिन
फिर भी एक ढंग
से यह शीर्षक
बहुत ' प्रतीकात्मक
है। वह मनुष्य
—जाति के पूरे
के पूरे मन को
प्रकट कर देता
है। अधिकांश
लोग नकल करने
की, किसी
अन्य व्यक्ति
की तरह हो
जाने की कोशिश
में रहते हैं।
कोई भी
व्यक्ति
क्राइस्ट
नहीं हो सकता
है, और
वस्तुत: इसकी
कोई जरूरत भी
नहीं है —अगर
सभी लोग
क्राइस्ट हो
जाएं तो
परमात्मा भी
बोर हो जाएगा।
परमात्मा भी नए
को, मौलिक
को पसंद करता
है। परमात्मा
तुम्हें चाहता
है, और वह
चाहता है कि
तुम जैसे हो
वैसे ही रहो, तुम
तुम्हारे
जैसे ही रहो।
छठवां
प्रश्न:
जब आप
हमसे छलांग
लगा देने की
बात कहते हैं
तो मुझे लगता
है कि मैं
छलांग लगा
दूं। लेकिन
साथ ही मुझे
ऐसा भी लगता
है कि मैं उस
किनारे पर
नहीं हूं जहां
से छलांग लगाई
जाती है। मैं
देखता हूं कि
आप हमें किसी
भी तरह से
जगाने का
प्रयास कर रहे
हैं। लेकिन
फिर भी मैं
समझ नहीं पा
रहा हूं। उस किनारे
तक मैं कैसे
आऊं? आपकी
देशना को मैं
कैसे समझूं?
हर एक
व्यक्ति
किनारे पर ही
है। अगर साहस
करो, तो
किसी भी क्षण
छलांग लगाना
संभव है। हर
पल तुम्हें
किनारा
उपलब्ध है। और
जब तुम पूछते
हो कि किनारे
तक कैसे आऊं, तो तुम
चालाकी कर रहे
हो। होशियार
बनने की कोशिश
मत करना।
तुम्हारा
प्रश्न
होशियारी से
भरा हुआ है, तुम अपनी
होशियारी के
द्वारा स्वयं
को सांत्वना
दे सकते हो कि
तुम कायर नहीं
हो, क्योंकि
जब किनारा ही
नहीं है, तो
छलांग कहां से
लगाएं?
इसलिए
पहले तो
किनारा खोजना
है—और वह कभी
मिलेगा नहीं, क्योंकि
वह तो तुम्हारे
सामने ही
मौजूद है।
जहां कहीं भी
तुम खड़े हो, हमेशा
किनारे पर ही
खड़े हो, जहां
से तुम कभी भी,
किसी भी पल
छलांग लगा
सकते हो।
और
तुमने बड़ी ही
होशियारी का
प्रश्न पूछा
है कि 'पहले
तो मुझे यह
सिखाएं कि
किनारा कैसे
पाना है?'
थोड़ा
अपने आगे देख
लेना। बस, ठीक से
देख लेना। तुम
कहीं भी हो, उससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता है।
और तुम
कहते हो, '…….मैं देखता
हूं कि आप
हमें किसी भी
तरह से जगाने
का हर संभव
प्रयास कर रहे
हैं, लेकिन
फिर भी मैं
समझ .नहीं पा
रहा हूं।’
समस्या
इस बात की
नहीं है कि
तुम सोए हुए
हो। अगर तुम
सोए हुए हो, तो
तुम्हें किसी
भी तरह से
नींद से बाहर
ले आना कहीं
ज्यादा आसान
है। लेकिन तुम
तो केवल दिखावा
कर रहे हो कि
तुम सोए हुए
हो। फिर मामला
थोड़ा मुश्किल
है। तुम देख
सकते हो कि
मैं तुम्हें
सब तरह से
जगाने का
प्रयास कर रहा
हूं, लेकिन
फिर भी तुम हो
कि सोने का
दिखावा किए
चले जा रहे हो
अगर तुम सच
में ही सोए
हुए हो, तो
तुम कैसे देख
सकते हो कि
मैं तुम्हें
जगाने का हर
संभव प्रयास
कर रहा हूं।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा:
गर्मी
की एक दोपहर
एक पिता ने
बच्चों को
वादा किया कि
वे लोग सैर के
लिए जाएंगे
लेकिन उसकी जाने
की बिलकुल भी
इच्छा नहीं
थी। कई महीनों
से वह उस
छुट्टी की
प्रतीक्षा कर
रहा था कि उस
दिन आराम करना
है। इसलिए
उसने दिखाया
ऐसे जैसे कि
वह गहरी नींद
में है। पिता
सोने का नाटक
कर रहा था, और बच्चे
पूरी कोशिश कर
रहे थे कि
किसी भी तरह से
रविवार की
दोपहर वे अपने
पिता को सोने
न दें, ताकि
उन्होंने जो
वादा किया है
उसके मुताबिक वे
उन्हें सैर के
लिए ले जाएं।
लेकिन बच्चों
की सभी
कोशिशें असफल
रहीं।
उन्होंने
पिता को जगाने
की तरह—तरह की
कोशिशें कीं।
उन्होंने पिता
को झंझोड़ा, वे उनके पास
जोर —जोर से
चिल्लाए, लेकिन
कोई फायदा
नहीं हुआ। उनकी
सभी कोशिशें
असफल हो गईं।
बच्चे भयभीत हो
गए कि आखिर
पिता को हो
क्या गया है।
और पिता था कि
सोए रहने का
दिखावा ही किए
जा रहा था। जब
बच्चों से रहा
न गया तो
आखिरकार उनकी
चार वर्ष की
बालिका ने जोर
से उनकी पलक
खोल दी, सावधानी
से चारों ओर
देखा, फिर
बोली, 'वे अभी
जिंदा हैं।’
और मैं
जानता हूं कि
तुम भी जाग
रहे हो। और
तुम भी जानते
हो कि तुम
सोने का
दिखावा कर रहे
हो।
सब तुम
पर निर्भर
करता है। जब
तक तुम चाहो
खेल को चला
सकते हो, क्योंकि
अंतत: उसके
लिए तुम्हें
ही मूल्य चुकाना
पड़ेगा। मुझे
इसकी कोई
चिंता नहीं।
अगर तुम दिखावा
करना चाहते हो,
बहाना करना
चाहते हो, तो
ठीक। बिलकुल
ठीक। ऐसा ही
करो। लेकिन
मैं समझ सकता हूं—
मैं देख सकता
हूं कि तुम सब
बहाना कर रहे
हो सोए हुए
होने का. तुम
जागने से
भयभीत हो, अपने
जीवन को जानने
से भयभीत हो।
जरा इस
सत्य को समझने
की कोशिश
करना। उन उपायों
के बारे में
मत पूछने लगना
कि तुम किनारा
कैसे ढूंढ
सकते हो। तुम
उसी पर तो खड़े
हुए हो।
होशियार
बनने की कोशिश
मत करो, क्योंकि
अंतर्जगत में
होशियार होना
मूढ़ता है।
अंतर्जगत में
मूढ़ होना
होशियार होना
है। अंतर्जगत
में जो
जानकारी से
भरे हुए नहीं
हैं, वे
जानकार लोगों
की अपेक्षा
कहीं अधिक
जल्दी
बुद्धत्व को
उपलब्ध होते
हैं।
अंतर्जगत में
जो निर्दोष
हैं —और
अज्ञानता ही
निर्दोषता है
निर्दोषता
सौंदर्यपूर्ण
होती है, अज्ञानता
अदभुत रूप से
सुंदर होती है
और निर्दोष
होती है।
मैं जो
कह रहा हूं
थोड़ा समझने की
कोशिश करना मैं
जानता हूं कि
तुम सुन रहे
हो। मैं
तुम्हारी आंखों
में देख सकता
हूं कि तुम
अभी जिंदा हो।
तुम मरे नहीं
हो, तुम
सोए नहीं हो।
तुम तो बस सोए
रहने का दिखावा
कर रहे हो।
और जब
भी—यह सब तुम
पर निर्भर है
—जब भी तुम
दिखावा न करने
का निर्णय
लोगे, तो
मैं तुम्हारी
मदद करने के
लिए मौजूद
हूं। मैं
तुम्हारी
मर्जी के खिलाफ
कुछ नहीं कर
सकता। ऐसा
संभव नहीं, परमात्मा
ऐसा होने नहीं
देता, क्योंकि
उसने तुम्हें
पूर्ण
स्वतंत्रता
दी है। और
पूर्ण
स्वतंत्रता
में सभी कुछ
सम्मिलित है —
भटकाना, सोए
रहना, स्वयं
को नष्ट करना,
सभी कुछ
सम्मिलित है
—पूर्ण
स्वतंत्रता
में सभी कुछ
सम्मिलित है।
और परमात्मा
स्वतंत्रता
से प्रेम करता
है। क्योंकि
परमात्मा
स्वतंत्रता
है, वह परम
मुक्ति है।
अंतिम
प्रश्न:
भगवान
कंप्यूटर ने
आपके बहुत से
शब्दों को
इकट्टा कर
लिया है।
लेकिन आपकी
मुस्कुराहट—
यह उसकी समझ
के बिलकुल
बाहर है।
यह आधा
प्रश्न है।
बाकी का आधा
प्रश्न मैं
बाद में
पढूंगा। पहले
मैं इस आधे
प्रश्न का
उत्तर
फ्रांस
के भूतपूर्व
राष्ट्रपति
रेन कोटि एक कला
प्रदर्शनी
देखने के लिए
गए। वहा पर उन
से पूछा गया कि
वे इन चित्रों
को समझ पाए या
नहीं।
उन्होंने
एक ठंडी सांस
भरते हुए कहा, 'जब मेरी
पूरी जिंदगी
बीत गई, तब
कहीं मैं यह
समझ पाया कि
हर बात को
समझना कोई
जरूरी नहीं
है।’
अब
आगे का आधा
प्रश्न:
क्या
कभी आप हमारे
साथ केवल मौन
बैठेगे और
मुस्कुराएगें?
तुम उसे देख
नहीं सकोगे।
जिस मुस्कान
को तुम देख
सकते हो, वह मेरी
मुस्कान नहीं,
और जो
मुस्कान मेरी
है, तुम
उसे देख न
सकोगे। जिस
मौन को तुम
समझ सकते हो, वह मेरा मौन
नहीं; और
जो मेरा मौन
है, तुम
उसे समझ नहीं
सकोगे, क्योंकि
तुम केवल उसे
ही समझ सकते
हो जिसका
स्वाद तुम्हारे
पास पहले से
है।
मैं
मुस्करा भर
सकता हूं —सच
तो यह है मैं
हर क्षण
मुस्करा ही
रहा हूं
—लेकिन अगर वह
मेरी मुस्कुराहट
है तो तुम उसे
देख, समझ
नहीं सकोगे।
जब मैं
तुम्हारे
हिसाब से मुस्कुराता
हूं, तब
तुम समझते हो;
लेकिन तब
फिर समझने का
कोई सार नहीं।
मैं
हमेशा, हर पल, मौन
ही हूं। जब
मैं बोल भी
रहा होता हूं
तो मौन ही
होता हूं
क्योंकि यह
बोलना मेरे
मौन को, मेरी
शांति को जरा
भी भंग नहीं
कर पाता। अगर
बोलने के द्वारा
मौन भंग होता
हो, तो फिर उस
मौन का कोई
मूल्य नहीं।
मेरा मौन
विशाल है, विराट
है। उसमें
शब्द भी समा
सकते हैं, उसमें
बोलना भी समा
सकता है। मेरा
मौन शब्दों से
खंडित नहीं
होता है।
तुमने
ऐसे लोग देखे
होंगे जो मौन
रहते हैं, फिर वे
कभी बोलते ही
नहीं। उनका
मौन वाणी के विरुद्ध
दिखाई पड़ता है
—और वह मौन जो
कि वाणी के, बोलने के
विरुद्ध हो, फिर भी वह
वाणी का ही
हिस्सा है। वह
अभाव है, उपस्थिति
नहीं।
मेरा
मौन वाणी का
अभाव नहीं है।
मेरा मौन एक मौजूदगी
है। वह तुम से
बात कर सकता
है, वह
तुम्हें गीत
सुना सकता है;
मेरे मौन
में अपार
ऊर्जा है।
उसमें किसी
तरह की
रिक्तता नहीं
है; वह एक परिपूर्णता
है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें