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शनिवार, 17 जनवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--4) प्रवचन--63

आंतरिकता का अंतरंग(प्रवचनतीसरा)

दिनांक 3 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 
योग—सत्र:

      तस्य भूमिष विनियोंग:।। 6।।
संयम को चरण—दर—चरण संयोजित करना होता है।

      त्रयमन्‍तरडगं पूर्वेभ्य:।। 7।।
 धारणा, ध्‍यान और समाधि—ये तीनों चरण प्रारंभिक पांच चरणों की अपेक्षा आंतरिक होते हैं।
      तदपि बहिरड्गं पूर्वेभ्‍य:।। 8।।
लेकिन निर्बीज समाधि की तुलना में ये तीनों बाह्म ही है।

      व्‍युत्‍थाननिरोधसंस्‍कारयोरभिभवप्रादुर्भावौ
      निरोधक्षणचित्‍तान्‍वयो निरोधपरिणाम:।। 9।।
निरोध परिणाम मन का वह रूपांतरण है जब मन में निरोध की अवस्‍थिति व्‍याप्‍त हो जाती है, जो तिरोहित हो रह भाव—संस्‍कार और उसके स्‍थान पर प्रकट हो रहे भाव—विचार के बीच क्षणमात्र मात्र को घटती है।


      तस्‍य प्रज्ञान्‍तवाहिता संस्‍कारत्।। 10।।
वि प्रवह पुनरावृत्त अनुभूतियों—संवेदनाओ द्वारा शांत हो जाता है।

 जैसा कि मुझे कहा गया है कि परंपरागत रूप से जर्मनी में चिंतन की दो विचारधाराएं हैं। औद्योगिक और व्यावहारिक, जर्मनी के उत्तरी भाग का दर्शन सिद्धांत है स्थिति गंभीर है लेकिन फिर भी निराशाजनक नहीं है। जर्मनी के दक्षिणी भाग का दर्शन अधिक भावमय है लेकिन कुछ कम व्यावहारिक मालूम होता है स्थिति निराशाजनक है, लेकिन फिर भी गंभीर नहीं है। अगर तुम मुझसे पूछो, तो स्थिति इन दोनों में से कुछ भी नहीं है —न तो निराशाजनक है और न ही गंभीर है। और मैं बात कर रहा हूं मनुष्य की स्थिति की।
मनुष्य की स्थिति गंभीर मालूम होती है, क्योंकि हमें सदियों —सदियों से गंभीर होने की शिक्षा दी जाती रही है। मनुष्य की स्थिति निराशाजनक मालूम होती है, क्योंकि हम स्वयं के साथ कुछ गलत कर रहे हैं। हम ने अभी तक यह जाना ही नहीं कि सहज और स्वाभाविक होना ही जीवन का लक्ष्य है, और जीवन में जिन सभी लक्ष्यों की हमें शिक्षा दी जाती है, वे हमें और — और असहज अस्वाभाविक बना देते हैं।
स्वाभाविक होने, अस्तित्व की लय के साथ एक हो जाने को ही पतंजलि संयम कहते हैं। स्वाभाविक होना और अस्तित्व की धड़कन के साथ एक हो जाना ही 'संयम' है। संयम को आरोपित नहीं किया जा सकता है। संयम को बाहर से थोपा नहीं जा सकता है। व्यक्ति के अंतस—स्वभाव का खिल जाना ही संयम है। जो आपका स्वभाव है, वही हो जाना संयम है। अपने स्वभाव में वापस लौट आना संयम है। अपने स्वभाव में लौटना कैसे हो? मनुष्य का स्वभाव क्या है? जब तक हम स्वयं के ही भीतर गहरे नहीं जाते, हम कभी नहीं जान सकेंगे कि मनुष्य का स्वभाव क्या है।
व्यक्ति को स्वयं के भीतर जाना होता है, और योग की पूरी की पूरी प्रक्रिया तीर्थयात्रा है अंतर्यात्रा है। एक—एक कदम के माध्यम से, आठ चरणों के द्वारा पतंजलि वापस घर की ओर ले जा रहे हैं। पहले पांच चरण—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार—वे शरीर से पार स्वयं की गहराई में उतरने में मदद करते हैं। शरीर पहली सतह है, अस्तित्व का पहला संकेंद्रित घेरा है। दूसरा चरण है, मन के पार जाना। धारणा, ध्यान, समाधि तीन आंतरिक चरण मन के पार ले जाते हैं। शरीर और मन के पार है स्वभाव, और यही अस्तित्व का भी केंद्र है। अस्तित्व के उसी केंद्र को पतंजलि निर्बीज समाधि—कैवल्य' कहते हैं। पतंजलि उसे ही अपने अस्तित्व का, अपने मूल केंद्र का साक्षात्कार करना और यह जान लेना कि मैं कौन हूं, कहते हैं।
तो पूरी की पूरी यात्रा को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है।
पहला: शरीर का अतिक्रमण कैसे करना।
दूसरा: मन का अतिक्रमण कैसे करना।
और तीसरा स्वयं के अस्तित्व से कैसे मिलना।
करीब —करीब पूरी दुनिया में, सभी संस्कृतियों में, सभी देशों में, कोई सा भी परिवेश क्यों न हो, उसमें हमें शिक्षा दी जाती है कि लक्ष्य की, उद्देश्य की प्राप्ति हमें स्वयं से बाहर कहीं करनी है। और वह लक्ष्य चाहे धन —संपत्ति का, सत्ता, पद —प्रतिष्ठा का हो, या वह लक्ष्य परमात्मा या स्वर्ग की प्राप्ति का हो, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है सभी लक्ष्य और उद्देश्य तुमसे बाहर हैं। और सच्चा लक्ष्य है, जहां से हम आए हैं, उस स्रोत में— वापस लौट जाना। तभी वर्तुल पूरा होता है।
बाहर के सभी लक्ष्यों को गिराकर भीतर जाना है। यही योग का संदेश है। बाहर के सभी लक्ष्य आरोपित होते हैं। और तुम्हें बस यही सिखाया जाता है कि कहीं जाना है। वे कभी भी स्वाभाविक नहीं होते; वे स्वाभाविक हो नहीं सकते हैं।
मैंने जी के चेस्टरटन के बारे में सुना है कि
एक बार जब वे रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे तो कुछ पढ़ रहे थे। जब कंडक्टर ने उन्हें टिकट दिखाने को कहा, तो चेस्टरटन ने घबराकर इधर —उधर अपनी जेब टटोलना शुरू कर दीं।
'श्रीमान जी, कोई बात नहीं,' कंडक्टर ने आश्वस्त होकर कहा, 'मैं थोड़ी देर बाद आऊंगा। मुझे पक्का भरोसा है कि टिकट आपके पास है।
'मुझे मालूम है कि टिकट मेरे पास है,' चेस्टरटन ने हकलाते हुए कहा, 'लेकिन मैं तो यह जानना चाहता हूं कि आखिर मैं जा कहां रहा हूं?'
तुम कहां जा रहे हो? तुम्हारी नियति क्या है? तुम्हें कुछ निश्चित वस्तुएं प्राप्त कर लेना है, यह बात सिखाई जाती है। तुम इस संसार में कुछ प्राप्त करने के लिए बने हो। मन को इसी ढंग से किसी तरह सै खींच —तानकर तैयार किया जाता है। मन को बाहर से —माता—पिता, परिवार, शिक्षा, समाज, और सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है। सभी का बस यही प्रयास है कि व्यक्ति अपनी नियति को उपलब्ध न हो सके। और यही लोग तुम्हारे लिए लक्ष्य निर्धारित करते हैं, और व्यक्ति उस जाल में गिर पड़ता है। और जबकि लक्ष्य तो पहले से ही भीतर मौजूद है।
कहां जाना नहीं है। स्वयं की पहचान, स्वयं का बोध पाना है —कि मैं कौन हूं। और जब स्वयं का बोध हो जाता है, तो फिर कहीं भी जाओ लक्ष्य की प्राप्ति हो ही जाएगी, क्योंकि वह लक्ष्य तुम अपने साथ ही लिए हुए हो। तब कहीं भी जाओ, एक गहन परितृप्ति साथ ही रहती है। तब तुम्हारे चारों ओर एक शीतल और शांत आभा सी छाई रहती है। उसे ही पतंजलि संयम कहते हैं. एक शीतल, निर्मल, शांत आभा —मंडल जो कि तुम्हारे साथ —साथ गतिमान होता है।
फिर जहां कहीं भी तुम जाओ, तुम्हारा आभा—मंडल तुम्हारे साथ —साथ रहता है और कोई भी इसको अनुभव कर सकता है। दूसरे लोग भी इसका अनुभव करते हैं, चाहे उन्हें इस आभा—मंडल का पता चलता हो या न चलता हो। अगर कोई संयमवान व्यक्ति तुम्हारे निकट आ जाए, तो अचानक ही तुम्हें अपने आसपास एक तरह की शीतल, शांत, ठंडी हवा की अनुभूति होती है, कोई अज्ञात सुवास
उसके पास से आती हुई मालूम होती है। वह सुवास तुम्हें भी छू लेती है, और शांत कर जाती है। वह किसी मीठी लोरी की भांति होती है।
तुम अशांत थे, और अगर कोई संयमवान व्यक्ति तुम्हारे निकट आ जाए, तो अचानक तुम्हारी अशांति कम होने लगती है। तुम क्रोध में थे, अगर संयमी व्यक्ति निकट आ जाए, तो तुम्हारा क्रोध गायब हो जाता है। क्योंकि संयमवान व्यक्ति की अपनी एक चुंबकीय शक्ति होती है। उसकी तरंगों पर सवार होकर तुम भी तरंगायित हो जाते हो। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में, उसके सत्संग में तुम अधिक ऊपर उड़ान भर सकते हो, जितना कि अकेले में संभव नहीं होता है।
इसलिए पूरब में हमने एक सुंदर परंपरा का निर्माण किया, कि जो व्यक्ति संयम को उपलब्ध है, उनके निकट जाओ और उनके पास बैठो। इसे ही हम दर्शन, इसे ही हम सत्संग कहते हैं संयम को उपलब्ध व्यक्ति के निकट जाना और उसके पास रहना। पश्चिम के लोगों को यह बात समझ नहीं आती है, क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि वह व्यक्ति कुछ बोलता ही नहीं है, वह मौन ही रहता है। और लोग आते रहते हैं, और उसके पांव छूते रहते हैं, उसके पास आंख बंद करके बैठे रहते हैं, किसी तरह की कोई बातचीत नहीं, कोई शाब्दिक संवाद नहीं, और वे घंटों बैठे रहते हैं; और फिर जब वे भर जाते हैं, तृप्त हो जाते हैं, तो वे गहन अनुग्रह से पांव छूकर चले जाते हैं। और अगर व्यक्ति थोड़ा भी संवेदनशील हो, तो देख सकता है कि कोई चीज उनके बीच संप्रेषित हो गई कुछ उपलब्ध हो गया है। और किसी तरह का कहीं कोई शाब्दिक संप्रेषण नहीं होता है —प्रकट रूप से कुछ भी लिया—दिया नहीं गया है। सत्संग का अर्थ है सत्य को उपलब्ध, प्रामाणिक, संयमी व्यक्ति के साथ होना।
उसके सान्निध्य में रहने मात्र से ही, तुम्हारे भीतर भी कुछ होने लगता है, तुम्हारे भीतर भी कुछ प्रतिसंवेदित होने लगता है।
लेकिन संयम की अवधारणा बहुत ही गलत की जाती है, क्योंकि लोग संयम को बाहर से आरोपित करते हैं। लोग बाहर से स्वयं को शांत करना शुरू कर देते हैं, वे एक तरह की शांति का, मौन का अभ्यास कर लेते हैं, वे स्वयं को एक विशेष अनुशासन के ढांचे में ढाल लेते हैं। बाहर से देखने पर वे संयमपूर्ण व्यक्ति जैसे ही मालूम पड़ते हैं। वे जरूर संयमी जैसे दिखेंगे, लेकिन वे होंगे नहीं। और अगर उनके निकट तुम जाओ, तो देखने में चाहे वे मौन लगते हों, लेकिन अगर तुम उनके पास मौन होकर बैठो, तो किसी तरह की कोई शांति का अनुभव नहीं होगा। कहीं भीतर गहरे में अशांति छिपी ही रहती है। भीतर से वे ज्वालामुखी की तरह होते हैं। ऊपर सतह पर तो उनके सब कुछ मौन और शांत रहता है, लेकिन भीतर गहरे में ज्वालामुखी किसी भी क्षण फूट पड़ने को तैयार रहता है।
इसे खयाल में ले लेना किसी भी चीज को स्वयं पर जबर्दस्ती आरोपित करने की कोशिश मत करना। किसी भी चीज को स्वयं पर आरोपित करने का मतलब है खंड—खंड हो जाना, निराश और हताश हो जाना, और सच्चाई को, वास्तविकता को चूक जाना क्योंकि तुम्हारे अंतर्तम अस्तित्व को तुम्हारे ही माध्यम से प्रवाहित होना है। तुम्हें तो केवल मार्ग की बाधाएं हटाकर, उसे प्रवाहित होने का मार्ग देना है। तुम्हें स्वयं में कुछ भी नया नहीं जोडना है। सच कहा जाए तो जैसे अभी तुम हो, अगर उसमें कुछ कम हो जाए, तो तुम परिपूर्ण हो जाओगे। कुछ भी नहीं जोड़ना है। तुम पहले से ही परिपूर्ण हो। बस मार्ग में कुछ चट्टानें, कुछ अवरोध आ गए हैं, उन चट्टानों को हटा भर देना है, जिससे कि तुम्हारे भीतर झरना निर्बाध होकर बह सके। अगर मार्ग की उन चट्टानों को हटा दो, तो तुम परिशुद्ध हो ही और जो प्रवाह अवरुद्ध हो गया था, वह फिर से फूट पड़ता है।
ये आठ चरण, पतंजलि के ये अष्टांग, मार्ग की चट्टानों को हटा देने का क्रमबद्ध ढंग हैं।
लेकिन मनुष्य बाह्य अनुशासन से इतना प्रभावित क्यों हो जाता है? इसके पीछे जरूर कोई कारण, कोई तर्क होगा। और कारण है। क्योंकि बाह्य रूप से किसी चीज को स्वयं पर आरोपित कर लेना अधिक आसान और सस्ता होता है, क्योंकि उसके लिए किसी तरह का कोई मूल्य नहीं चुकाना पड़ता है। यह तो ठीक ऐसे ही है जैसे कि कोई व्यक्ति सुंदर न हो, लेकिन बाजार से सुंदर मुखौटा खरीदकर चेहरे पर लगा सकता है। यह सस्ता भी है, महंगा भी नहीं है, और इसके द्वारा दूसरों को थोड़ा —बहुत धोखा भी दिया जा सकता है।
लेकिन धोखा ज्यादा देर नहीं दिया जा सकता, क्योंकि मुखौटा निर्जीव होता है, और निर्जीव चीज देखने में तो सुंदर हो सकती है, लेकिन सच में सुंदर नहीं होती। सच कहा जाए तो व्यक्ति पहले से भी ज्यादा असुंदर हो जाता है। कम से कम मौलिक चेहरा जीवंत तो था, उसमें जीवन की, बुद्धिमत्ता की झलक तो थी। अब नकली और निर्जीव मुखौटे के पीछे जो असली रूप छिपा होता है वह भी छिप जाता है।
लोग संयम को बाह्य रूप से सजाने —संवारने में रस लेने लगते हैं। मान लो कि एक आदमी क्रोधी है और वह क्रोध को छोड़ना चाहता है तो क्रोध छोड़ने के लिए उसे बहुत प्रयास करना पड़ेगा, और यह यात्रा लंबी है। इसके लिए उसे कुछ मूल्य भी चुकाना पड़ेगा। लेकिन स्वयं के ऊपर जबर्दस्ती करना, क्रोध को दबाना, कहीं अधिक आसान होता है। सच तो यह है कि क्रोध की ऊर्जा का उपयोग क्रोध को दबाने में ही किया जा सकता है। इसमें कोई मुश्किल भी नहीं है, क्योंकि कोई भी क्रोधित व्यक्ति क्रोध को बड़ी ही आसानी से जीत सकता है। केवल क्रोध को, क्रोध की ऊर्जा को स्वयं की ओर मोड़ देना है। पहले वह दूसरों के ऊपर क्रोधित होता था, अब वह स्वयं के ऊपर ही क्रोधित होता है, और क्रोध को दबाता रहता है। लेकिन वह चाहे क्रोध को कितना ही दबाए, क्रोध उसकी आंखों में छाया की भाति रहता ही है।
और ध्यान रहे, कभी —कभी क्रोधित हो जाना उतना बुरा नहीं है, जितना क्रोध को दबा देना। और हमेशा क्रोधित बने रहना बहुत खतरनाक होता है। यही घृणा और घृणा के भाव के बीच का अंतर है। जब व्यक्ति क्रोध में भभक उठता है, तो वह घृणा करने लगता है। लेकिन वह घृणा क्षणिक होती है। वह आती है और चली जाती है। उसके लिए चिंतित होने की बात नहीं।
लेकिन जब क्रोध को दबा दिया जाता है, तो घृणा ही जीवन का स्थायी ढंग बन जाती है। तब दबाया हुआ क्रोध व्यक्ति के व्यवहार को, उसके संबंधों को निरंतर प्रभावित करता रहता है। फिर ऐसा नहीं होता कि कभी —कभी ही क्रोध आता है, अब वह पूरे समय क्रोधित ही रहता है। अब क्रोध किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं होता है, अब क्रोधित रहना उसका सहज स्वभाव ही बन जाता है। अब क्रोध उसके साथ ही रहता है, या कहना चाहिए कि वह क्रोध ही हो जाता है। अब वह यह ठीक—ठीक नहीं बता सकता क्रोध किसके प्रति है। अब तो क्रोधित रहना उसके जीवन का एक ढंग बन चुका है। वह क्रोध ही हो जाता है।
यह बुरी आदत है, क्योंकि फिर यह जीवन की एक स्थायी शैली हो जाती है। पहले तो क्रोध एक विस्फोट की तरह था। कुछ बात हुई और आप क्रोधित हो गए। पहले तो वह केवल परिस्थिति या घटना के साथ होता था, और फिर चला जाता था। पहले तो क्रोध ऐसे था जैसे छोटे बच्चे क्रोधित हो जाते हैं वे एकदम आग के अंगारे की तरह लाल हो जाते हैं, और फिर जब क्रोध चला जाता है, तो वे एकदम पहले जैसे शांत हो जाते हैं। जैसे तूफान के बाद एकदम शांति छा जाती है, ठीक ऐसे ही थोड़ी देर में वे सब कुछ भूलकर पहले जैसे ही प्रेमपूर्ण, सरल और शांत हो जाते हैं।
लेकिन धीरे — धीरे जब क्रोध को दबाया जाता है, तो क्रोध रक्त —मांस —मज्जा की तरह शरीर का अंग बन जाता है। भीतर ही भीतर क्रोध निरंतर उबलता रहता है। और जब यह जीवन का अंग बन जाता है, तो धीरे — धीरे श्वास भी उससे प्रभावित होने लगती है। फिर जो कुछ भी आप करते हैं, क्रोध में ही करते हैं। तब अगर प्रेम भी करते हैं तो उस प्रेम में भी क्रोध छिपा होता है। तब प्रेम में भी एक तरह की आक्रामकता और हिंसा ही होती है। आपके जाने — अनजाने, चाहे आप ऐसा नहीं भी करना चाहते हों, फिर भी क्रोध मौजूद रहता है। और तब वह जीवन की राह में एक बड़ी चट्टान बन जाता है।
प्रारंभ में तो बाहर से किसी चीज को आरोपित करना बहुत ही आसान होता है, लेकिन धीरे — धीरे बाद में यही बात स्वयं के लिए घातक और हानिकारक सिद्ध होने लगती है।
और लोगों को यह और आसान लगता है, क्योंकि इन सब बातों को सिखाने के लिए समाज में जानकार लोग मौजूद हैं 1 एक बच्चा जब जन्म लेता है, तो माता—पिता जानकार व्यक्ति की तरह उसे बहुत सी बातें सिखाने लगते हैं। जबकि वे जानकार हैं नहीं। क्योंकि उनसे स्वयं की समस्याएं तो सुलझती नहीं हैं, और बच्चों को समझाए चले जाते हैं। अगर माता —पिता सच में ही अपने बच्चे से प्रेम करते हैं, तो वे स्वयं को उस पर आरोपित न करेंगे।
लेकिन प्रेम करता ही कौन है? किसी को पता ही नहीं है कि प्रेम क्या होता है।
वे अपने उन्हीं पुराने तौर —तरीकों को, जिसमें कि वे स्वयं फंसे होते हैं, बच्चों पर जबर्दस्ती आरोपित करते रहते हैं। उन्हें इस बात का होश भी नहीं कि वे क्या कर रहे हैं। वे स्वयं उसी जाल में फंसे हैं और इस कारण उनका पूरा जीवन दुखी रहा है, और अब वे वही ढर्रा —ढांचा अपने बच्चों को दे रहे हैं। बच्चे निर्दोष होते हैं, उन्हें क्या सही है और क्या गलत है, इस बात का कुछ बोध होता नहीं है, वे भी उसी के शिकार हो जाते हैं।
और ये तथाकथित जानकार, जो कि जानकार होते नहीं हैं—क्योंकि वे स्वयं कुछ भी जानते नहीं हैं, उनसे स्वयं की कोई समस्या सुलझती नहीं है—और चूंकि उन्होंने बच्चे को जन्म दिया है, इसलिए वे उस फूल जैसे सुकोमल, नाजुक बच्चे को उसी पुराने सड़े —गले ढांचे में डालना अपना अधिकार समझ बैठते हैं। और चूंकि बच्चा बेसहारा होता है, तो उसे उनका अनुसरण करना पड़ता है। और जब तक वह थोड़ा होश सम्हालता है, थोड़ा बड़ा और समझदार होता है, तब तक वह उनके बने जाल में फंस चुका होता है।
उसके बाद फिर स्कूल हैं, विश्वविद्यालय हैं, समाज में कई तरह के विशेषज्ञ और जानकार हैं, ओर फिर स्कूल, विश्वविद्यालय और हजार तरह के संस्कार, समाज के जानकार लोग—और सभी यह समझ रहे हैं कि वे जानते हैं। लेकिन कोई भी जानता हो, ऐसा मालूम नहीं पड़ता है।
तुम ऐसे तथाकथित जानकारों से सावधान रहना। अगर तुम अपने अंतर्तम केंद्र पर पहुंचना चाहते हो, तो अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेना। ऐसे तथाकथित विशेषज्ञों और जानकारों की सुनना ही मत, अभी तक उनकी बहुत सुन ली।
मैंने एक छोटी सी कथा सुनी है:
लोगों की कार्य — क्षमता जांचने वाला एक विशेषज्ञ किसी सरकारी कार्य की जांच —पड़ताल कर रहा था। इसी सिलसिले में वह एक आफिस में गया, जहां दो युवक एक डेस्क पर आमने —सामने बैठे हुए थे, और उन दोनों में से कोई भी काम नहीं कर रहा था।
'तुम्हें क्या काम सौंपा —गया है?' उस विशेषज्ञ ने उन में से एक से पूछा।
'मैं यहां पर छह महीने से हूं और मुझे अभी तक कोई काम नहीं सौंपा गया है,' उस युवक ने उत्तर दिया।
'और तुम्हारे जिम्मे कौन —कौन से काम हैं?' कार्य — क्षमता जांचने वाले विशेषज्ञ ने दूसरे युवक से पूछा।
'मैं भी यहां छह महीने से हूं और मुझे भी अभी तक कोई काम नहीं दिया गया है,' उसने उत्तर दिया।
'ठीक है, तब फिर तुम में से एक को जाना होगा,' उस विशेषज्ञ ने बड़े हीं रूखेपन से कहा।एक ही काम को दो —दो लोग कर रहे हैं!'
दो व्यक्ति एक ही काम को —कुछ भी न करने के काम को —कर रहे हैं।
विशेषज्ञ हमेशा जानकारी की भाषा में ही सोचता —विचारता है। किसी ऐसे व्यक्ति के पास जाना जो प्रज्ञावान हो। वह कभी भी जानकारी की भाषा में नहीं सोचता। वह तुम्हें अपनी प्रज्ञा की आंख से देखता है। अभी तक दुनिया में तथाकथित जानकारों और विशेषशों का शासन रहा है। और यह संसार प्रज्ञावान व्यक्ति के पास होना भूल ही गया है। और मजा यह है कि विशेषज्ञ भी उतना ही सामान्य है, उतना ही जानकार है जितने कि तुम हो। विशेषज्ञ और तुम्हारे बीच केवल अंतर है तो इतना ही कि उसने कुछ पुरानी बातों की जानकारी इकट्ठी कर ली है। वह तुमसे थोड़ा अधिक जानता है, लेकिन उसकी जानकारी में उसका स्वयं का बोध नहीं है। उसने भी वह सभी जानकारी बाहर से ही एकत्रित की होती है, और .वह तुम्हें सलाह दिए चला जाता है।
जीवन में किसी प्रज्ञावान व्यक्ति को खोजना, उसके पास जाना, उसके पास उठना — बैठना, यही है सदगुरु की खोज। पूरब में लोग ऐसे सदगुरु की खोज के लिए निकलते हैं, जो सच में ही ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। और फिर जब वे उसे खोज लेते हैं —जो केवल ऊपर —ऊपर से दिखावा नहीं कर रहा है, जो सच में बुद्धत्व को उपलब्ध है, जिसके अंतर्तम का फूल खिल गया है —तो वे उस प्रज्ञावान, संयमवान व्यक्ति के साथ होने का, उसके सत्संग में रहने का, उसके साथ उठने —बैठने का प्रयास करते हैं —वह फूल बाहर से उधार लिया हुआ नहीं होता है। वह तो स्वयं के अंतर्तम का खिलना है।
ध्यान रहे, पतंजलि के संयम की अवधारणा कोई बाहर से संयम को थोप लेने की अवधारणा नहीं है। पतंजलि की अवधारणा तुम्हारे भीतर जो खिलने की संभावना छिपी हुई है उसे अभिव्यक्त
होने में सहयोग देने की है। बीज तुम्हारे भीतर विद्यमान है, बीज को केवल सम्यक भूमि, मिट्टी और खाद —पानी की आवश्यकता है। बीज को तुम्हारे थोड़े ध्यान की, प्रेम से उसके साज —सम्हाल की आवश्यकता है, और जब ठीक समय आता है तो बीज टूटकर फूल बन जाता है। और उस बीज में जो सुवास छिपी हुई थी वह हवाओं में बिखर जाती है, और हवाएं उस सुवास को सभी दिशाओं में ले जाती हैं।
संयमवान व्यक्ति स्वयं को छिपा नहीं सकता। वह स्वयं को छिपाने की कोशिश करता है, लेकिन वह स्वयं को छिपा नहीं सकता है, क्योंकि हवाओं में उसकी सुवास समाई रहती है। भले ही वह पहाड़ों में चला जाए, या गुफा में जाकर बैठ जाए, लेकिन उसकी सुवास लोगों तक पहुंच जाएगी, और वहा पर भी लोग उसके पास. आने लगेंगे। जो लोग साधना के पथ पर चल रहे हैं, किसी भी तरह से, किन्हीं अनजान मार्गों से, किसी न किसी तरह से खोज ही लेंगे। उसको कोई जरूरत नहीं उन्हें खोजने की, वे ही उसे खोज लेंगे।
क्या तुम्हें स्वयं के साथ भी कभी ऐसा अनुभव हुआ है? क्योंकि तब इन सूत्रों को समझना तुम्हारे लिए आसान होगा।
तुम सच में ही किसी से प्रेम करते हो, और किसी के साथ प्रेम का दिखावा करते हो, क्या तुमने इन दोनों में फर्क देखा है? अगर कोई दोस्त तुम्हारे घर आ जाए तो तुम हृदय से उसका स्वागत करते हो। उसके आने से तुम खुशी से झूम उठते हो, तुम पूरे हृदय से उसका स्वागत करते हो। और फिर कोई दूसरा मेहमान आ जाए, तो तुम उसका स्वागत इसलिए करते हो, क्योंकि घर आए मेहमान का स्वागत —सत्कार करना चाहिए। क्या तुमने इन दोनों के भेद पर ध्यान दिया है?
जब तुम सच में ही किसी का हृदय से स्वागत करते हो, तो तुम एक प्रेम के प्रवाह में होते हो —तुम्हारे उस स्वागत में एक तरह की समग्रता होती है। और जब तुम किसी मेहमान का स्वागत नहीं करना चाहते हो, केवल शिष्टाचार वश, और मजबूरी में तुम्हें ऐसा करना पड़ता है, तो उसमें कोई गरमाहट नहीं होती है। अगर मेहमान थोड़ा भी संवेदनशील होगा तो वह इस बात को तुरंत समझ जाएगा और वापस चला जाएगा। घर के अंदर प्रवेश ही नहीं करेगा। अगर वह सच में ही संवेदनशील है, तो वह तुम्हारे व्यवहार से तुरंत समझ जाएगा। तब तुम अगर हाथ मिलाने के लिए हाथ भी आगे बढ़ाते हो, तो उसमें किसी तरह की ऊर्जा का अनुभव नहीं होता है। ऊर्जा का प्रवाह मेहमान की ओर होता ही नहीं है। उसकी ओर केवल एक निष्प्राण हाथ ही आगे बढा हुआ होता है।
जब भी तुम कुछ ऊपर —ऊपर से करते हो तो तुम्हारे भीतर द्वंद्व पैदा हो जाता है। वह करना सच्चा नहीं है, उसमें तुम मौजूद नहीं होते।
ध्यान रहे, जो कुछ भी तुम करते हो —अगर तुम उसे कर रहे हो —तो उसे समग्रता से करना। अगर नहीं करना चाहते हो, तो बिलकुल मत करना। जो भी करो उसमें समग्रता का ध्यान रखना। क्योंकि करना महत्वपूर्ण नहीं है, उसमें समग्रता महत्वपूर्ण है। अगर ऐसे आधे — अधूरे मन से तुम कुछ भी करते रहते हो —एक मन करना चाहता है, एक मन नहीं करना चाहता है —तो तुम अपने अंतस की खिलावट में बाधा बन रहे हो। धीरे — धीरे तुम उस प्लास्टिक के फूल की तरह हो जाओगे, जिसमें न तो कोई सुगंध होती है, और न ही कोई जीवन होता है।
एक बार ऐसा हुआ :
मुल्ला नसरुद्दीन एक पार्टी में गया था। जब वह पार्टी से जाने लगा तो उसने मेजबान —महिला से कहा, 'मुझे आमंत्रित करने के लिए आपका बहुत—बहुत धन्यवाद। मुझे अभी तक जिन पार्टियों में आमंत्रित किया गया था, उनमें से यह सबसे अच्छी पार्टी है।और पार्टी कुछ विशेष थी भी नहीं, बिलकुल साधारण सी थी।
वह मेजबान महिला चकित होकर बोली, 'ओह, ऐसा कैसे कह रहे हैं आप।
इस पर मुल्ला ने जवाब दिया, 'लेकिन मैं तो ऐसा ही कहता हूं। मैं तो हमेशा से ऐसा ही कहता आ रहा हूं।
अब यह कहकर तो पूरी बात ही बेकार हो गई। फिर कहने का कोई मतलब ही नहीं रहा।
बाहरी दिखावे और शिष्टाचार का जीवन व्यर्थ है, ऐसा जीवन मत जीओ। प्रामाणिक और सच्चा जीवन जीओ। मैं जानता हूं, तुम्हारे लिए ऊपरी शिष्टाचार, प्रचलित रीति—रिवाजों के अनुसार जीवन जीना ज्यादा सुगम और सुविधापूर्ण है। लेकिन वह धीरे — धीरे तुम्हें मार डालता है। सच्चा और प्रामाणिक जीवन जीना उतना सुविधाजनक नहीं है। वह जोखम से भरा होता है। लेकिन वह जीवन सच्चा होता है, प्रामाणिक होता है। और उस खतरे को, उस जोखम को उठाना मूल्यवान है। उस खतरे और जोखम के लिए तुम्हें कभी भी पछतावा न होगा।
जब एक बार उस प्रामाणिक और सच्चे जीवन का, स्वानुभूति का स्वाद तुम्हें लग जाएगा और तुम आनंदित रहने लगोगे —और जब तुम बंटे —बंटे, खंड—खंड और बिखरे हुए नहीं रहोगे, तब तुम जानोगे कि अगर इसके लिए सब कुछ भी दाव पर लगाना पड़े, तो भी वह कुछ नहीं है। उसकी एक झलक के लिए पूरा जीवन दांव पर लगाया जा सकता है। क्योंकि वह एक झलक भी बहुत मूल्यवान है, और उससे यह मालूम हो जाता है कि जीवन क्या है और उसकी नियति क्या है। और ऐसे तो सौ वर्ष भी तुम जीवन की गहराई से भयभीत सतह पर ही जीते रहोगे, और तब तुम जीवन के एक महत्वपूर्ण अवसर को गंवा दोगे।
यही वह निराशा और हताशा है, जिसे हमने अपने चारों ओर निर्मित कर लिया है —जीना भी चाहते हो और जी भी नहीं पाते हो, उन सब कामों को करते रहते हो जिन्हें कभी करना नहीं चाहते थे उन संबंधों से घिरे रहते हो जिन्हें तुम नहीं चाहते हो, ऐसे व्यापार —व्यवसाय को करते रहते हो जिसे करने की कभी कोई इच्छा नहीं थी—तो इस प्रकार असत्य में जीते हुए, कैसे यह असत्य से घिरे हुए, तुम आशा रख सकते हो कि तुम जान सकोगे कि जीवन क्या है? असत्य और झूठ से घिरे होने के कारण ही तो तुम जीवन को चूक रहे हो। इन उधार के झूठे मुखौटों के कारण ही तुम जीवन के प्रवाह के साथ नहीं जुड़ पाते हो।
और अगर तुम्हें इस वस्तु —स्थिति का पता भी चलता है, तो फिर एक दूसरी समस्या खड़ी हो जाती है। जब भी लोग अपने असत्य और झूठे जीवन के प्रति सचेत होते हैं, तो तुरंत वे दूसरी विपरीत अति की ओर सरक जाते हैं। यह मन का ही जाल होता है, क्योंकि अगर तुम एक झूठ से दूसरी तरफ जाते हो, तो तुम फिर से एक दूसरे झूठ की ओर ही सरक जाते हो। जबकि सत्य इन दो विपरीत ध्रुवों के बीच ही होता है।
संयम का अर्थ है संतुलन। संयम का अर्थ है परम संतुलन इन दोनों अतियों की ओर न सरकना, बल्कि ठीक मध्य में रहना। जब न तो तुम दक्षिणपंथी हो और न ही वामपंथी, जब न तो तुम समाजवादी हो और न ही पूंजीवादी, जब तुम न तो यह होते हो, न वह होते हो, बल्कि मध्य में होते हो, तो अचानक तुम्हारे जीवन में संयम का परम फूल खिल जाता है।
एक बार ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन बहुत ही भयभीत था। वह भय उसके लिए जरूरत से ज्यादा ही हुआ रजा रहा था। तो मैंने मुल्ला को सलाह दी कि तुम किसी मनस्विद के पास जाकर उससे इलाज करवाओ। जब कुछ सप्ताह के बाद वह मुझे मिला तो मैंने मुल्ला से पूछा, 'मुझे मालूम हुआ है कि तुम उस मनस्विद के पास जा रहे हो, जिसके पास जाने की सलाह मैंने तुम्हें दी थी। क्या तुम्हें उससे कुछ फायदा हुआ है?'
'हां, उससे फायदा हुआ है। अभी कुछ दिन पहले तक तो जब फोन की घंटी बजती थी, तो मैं रिसीवर उठाकर जवाब देने में बुरी तरह से घबराता था।
जब भी फोन की घंटी बजती, और वह भय के मारे कांपने लगता था। यह भय उसे सदा से ही था। बस, फोन की घंटी बजती और वह कांपने लगता। कौन जाने क्या बात हो? कौन सी बुरी खबर हो? कौन फोन कर रहा हो?
'अभी कुछ दिन पहले तक तो मेरी यह हालत थी कि जब भी फोन की घंटी बजती थी, तो मैं रिसीवर उठाकर जवाब देने में बुरी तरह से घबराता था।
'और अब? 'मैंने पुछा।
वह बौला, 'और अब? अब चाहे घंटी बजे या न बजे मैं तो सीधे फोन की तरफ जाता हूं और जवाब दे देता हूं।
व्‍यक्‍ति एक अति से दूसरी अति की और , एक झूठ से दूसरे झूठ तक, एक भय से दूसरे भय तक सरक जाता है। अगर वह बाजार छोड़ेगा तो मठ की, मंदिर की शरण ले लेगा। संसार छोड़ेगा तो संन्यासी हो जाएगा। यह एक अति से दूसरी अति की ओर जाना है। जो लोग बाजार में रहते हैं ने भी असंतुलित हैं। और जो लोग मठ में, मंदिर में रहते हैं, वे भी असंतुलित हैं। वे दूसरी अति पर जीते हैं, लेकिन दोनों ही असंतुलित हैं।
संयम का अर्थ होता है संतुलन। यही मेरे सन्यास का अर्थ है संतुलित रहना। बाजार में रहना, लेकिन फिर भी बाजार को अपने भीतर न आने देना। अगर तुम्हारा मन बाजार में नहीं है, तो बाजार में रहकर भी कोई समस्या नहीं होती। मठ में, मंदिर में जाकर तुम अकेले भी रह सकते हो; लेकिन अगर साथ में भीतर बाजार आ जाए तो जो कि पीछे —पीछे आ ही जाएगा, क्योंकि सच में तो बाजार बाहर नहीं है —बाजार तो भीतर विचारों की भीड़ में और शोर —शराबे में होता है। और जब तक मन रहेगा, तब तक बाजार तुम्हारा पीछा करता ही रहेगा। यह कैसे संभव हो सकता है कि मन में तो विचारों की भीड़ चल रही हो, और तुम कहीं और चले जाओ? जहां कहीं भी तुम जाओगे, अपने मन के साथ ही तो जाओगे न? और तब फिर तुम जहां कहीं भी जाओगे, वैसे के वैसे ही रहोगे।
इसलिए परिस्थितियों से भागने की कोशिश मत करना। बल्कि ज्यादा जागरूक होने की ज्यादा होशपूर्ण होने की कोशिश करना। स्वयं के अंतस को बदलने का प्रयास करो, बाहर की परिस्थितियों को बदलने की फिक्र मत करो। इसी के लिए प्रयत्नशील रहो, क्योंकि जिसके लिए कोई मूल्य न चुकाना पड़े वह बात मन के लिए हमेशा लुभावनी होती है। मन कहता है, 'चूंकि बाजार में हजारों तरह की झंझटें हैं, चिंताएं हैं, परेशानियां हैं, इसलिए मंदिर में, मठ में जाकर छिप जाओ, और सभी झंझटें समाप्त हो जाएंगी। क्योंकि सारी झंझटों की जड़ ही—काम—काज की चिंता है, बाजार में भाव ऊपर जा रहे हैं या नीचे जा रहे हैं, घर —परिवार की चिंता है —अच्छा है कि मंदिर में या मठ में जाकर शरण ले लो।
नहीं, चिंता का कारण बाजार नहीं है, चिंता का कारण घर —परिवार और संबंध नहीं है —चिंता का कारण तुम स्वयं हो। यह सब तो बस बहाने हैं। अगर तुम मंदिर में या मठ में भी चले जाओ, तो यही चिंताएं कोई नए कारण खोज लेंगी, लेकिन चिंताएं बनी रहेंगी।
जरा अपने मन में झांकना, और तुम पाओगे वहा सब कितना गड़बड है। और यह गड़बड़ी परिस्थितियों ने नहीं बनायी है। यह सब गड़बड़ी तुम्हारे भीतर मौजूद है। परिस्थितियां तो बस ज्यादा से ज्यादा बहाना हैं। तुम सोचते हो कि लोग तुम्हें क्रोधित कर देते हैं, तो कभी इस प्रयोग को करके देखना। इक्कीस दिन का मौन रखना। तुम मौन में हो और अचानक, बिना किसी कारण के —चूंकि अब कोई व्यक्ति तो तुम्हारे सामने मौजूद नहीं है तुम्हें क्रोधित कर देने के लिए—तुम्हें मालूम पड़ेगा कि तुम कई बार क्रोधित हो जाते हो। तुम सोचते हो सुंदर स्त्री या सुंदर पुरुष के दिख जाने के कारण तुम कामवासना से भर जाते हो? तुम गलत सोचते हो। जरा इक्कीस दिन का मौन रखकर देखना। अकेले रहना और तुम्हें कई बार ऐसा लगेगा कि अचानक, बिना किसी कारण के अकारण ही तुम कामवासना से भर जाते हो। वह वासना तुम्हारे भीतर ही है।
एक बार दो महिलाएं आपस में बातचीत कर रही थीं। उनकी बातचीत मेरे कानों में भी पड़ गई, इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है।
श्रीमती ब्राउन बहुत गुस्से से बोली 'देखो श्रीमती ग्रीन। श्रीमती ग्रे ने मुझे बताया है कि तुमने उसे वह राज बता दिया है जिस राज को बताने के लिए मैंने तुम से मना किया था।
श्रीमती ग्रीन: 'ओह, वह कितनी खराब है। और मैंने उससे कहा था कि वह तुम्हें न बताए कि मैंने उसे बता दिया है।
श्रीमती ब्राउन: 'अच्छा सुनो, अब उससे मत कह देना कि मैंने तुम्हें बता दिया है कि उसने मुझे बताया।
यह है मन का शोर, जो चलता ही रहता है, चलता ही रहता है। इस मन के शोर को किसी जोर —जबर्दस्ती से नहीं, समझ के द्वारा ठहराना है।
पहला सूत्र:
'संयम को चरण—दर—चरण संयोजित करना होता है।
पतंजलि अकस्मात संबोधि को उपलब्ध हो जाने की बात नहीं करते हैं; और वह सभी के लिए है भी नहीं। अकस्मात संबोधि तो बहुत ही दुर्लभ घटना है, वह तो कुछ थोड़े से असाधारण लोगों को ही घटित होती है। और पतंजलि की दृष्टि बहुत ही वैज्ञानिक है वे थोड़े से असाधारण लोगों की फिक्र नहीं करते हैं। पतंजलि इसीलिए नियम का अन्वेषण करते हैं। और पतंजलि के अनुसार जो लोग असाधारण भी हैं, जिन्हें अकस्मात संबोधि की प्राप्ति भले ही हो जाती हो, फिर भी वे नियम को ही सिद्ध करते हैं, और कुछ नहीं। और जो लोग असाधारण हैं वे तो अपना मार्ग स्वयं भी तय कर सकते हैं, उनके लिए सोचने —विचारने की कोई जरूरत नहीं। एक साधारण मनुष्य धीरे — धीरे, एक —एक कदम चलकर आगे बढ़ता है। अकस्मात संबोधि के लिए बहुत ही अदभुत साहस की आवश्यकता होती है, जो कि सभी में नहीं होता है।
और अकस्मात संबोधि में बहुत जोखम भी है —इसमें व्यक्ति पागल भी हो सकता है और संबुद्ध भी हो सकता है —इसमें दोनों संभावनाएं होती हैं। क्योंकि वह इतनी अकस्मात होती है कि शरीर और मन की उसके लिए तैयारी नहीं होती है। तो अगर शरीर और मन की तैयारी न हो के वह व्यक्ति को पागल भी कर सकती है। इसलिए पतंजलि उसके बारे में बात नहीं करते। सच तो यह है वे इस बात पर जोर देते हैं कि संयम की उपलब्धि विकास की विभिन्न अवस्थाओं द्वारा होनी चाहिए, ताकि तुम धीरे — धीरे आगे बढ़ सको, धीरे — धीरे विकसित होते जाओ और दूसरे चरण में प्रवेश करने के पहले उसके लिए तैयार हो जाओ। पतंजलि के अनुसार जब तुमको संबोधि की घटना घटे, तो वह तुमको मूर्च्छा में न पाए। क्योंकि संबोधि इतनी विराट घटना है कि संभव है कि अगर तुम उसके लिए तैयार न हो, तो इतना गहरा सदमा लग सकता है—कि उस सदमें के कारण तुम्हारी मृत्यु भी हो सकती है या तुम पागल भी हो सकते हो —इसलिए पतंजलि इस बारे में कोई बात नहीं करते हैं, और न ही इस पर कोई विशेष ध्यान देते हैं।
यही पतंजलि और झेन के बीच अंतर है। झेन असाधारण लोगों के लिए, असामान्य लोगों के लिए है। पतंजलि नियम से चलने वाले हैं, सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी उन नियमों से चलकर संबोधि को उपलब्ध हो सकता है। अगर झेन इस दुनिया से खो भी जाए, तो भी कुछ नहीं खोएगा, क्‍योंकि जो थोड़े से असाधारण लोग हैं, वे तो स्वयं भी किसी न किसी तरह बुद्धत्व को उपलब्ध हो ही जाएंगे। लेकिन अगर इस दुनिया से पतंजलि खो जाएं, तो बहुत कुछ खो जाएगा, क्योंकि वे नियम बताते हैं कि कैसे बुद्धत्व को उपलब्ध होना है।
पतंजलि सामान्य और साधारण लोगों के लिए हैं —सब के लिए हैं। तिलोपा छलांग ले सकते है या बोधिधर्म छलांग लगाकर अस्तित्व में विलीन हो सकते हैं। ये लोग बहुत ही साहसी हैं, जिन्हें जोखम से भरे कार्य करने में आनंद आता है, लेकिन यह सभी का मार्ग नहीं होता है। साधारण आदमी को ऊपर —नीचे आने —जाने के लिए सीडी की आवश्यकता होती ही है, वह बालकनी से छलांग नहीं लगा सकता। और वैसा जोखम उठाने की कोई आवश्यकता भी नहीं है, जबकि। एक—एक कदम चलते हुए बहुत ही गरिमा के साथ आगे बढ़ा जा सकता है।
झेन का मार्ग मौज मस्ती से भरा है क्योंकि कुछ थोड़े से लोग ही अपवाद होते हैं, विरले होते है। कहाना चाहिए कि वह विशिष्ट लोगों के लिए है, असाधारण लोगों के लिए है। पतंजलि का मार्ग समतल जैसा है। इसलिए साधारण और सामान्य आदमी के लिए भी पतंजलि बहुत सहयोगी हैं।
पतंजलि कहते हैं, 'संयम को चरण —दर —चरण संयोजित करना होता है।
जल्‍दी मत करो, धीरे — धीरे आगे बढ़ो, धीरे — धीरे विकसित होओ, ताकि अगला चरण उठाने के पहले तुम तैयार हो सको। जब तुम ध्यान में विकसित हो रहे होते हो, तब बीच—बीच में थोड़े
अंतरालों को आने देना। क्योंकि उन अंतराल के क्षणों में जो कुछ भी उपलब्ध हुआ है, उसे आत्मसात हो जाने दो, उसे तुम्हारी मांस —मज्जा बन जाने दो, तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाने दो और फिर आगे बढ़ जाना। जल्दी करने की, दौड़ने की जरा भी जरूरत नहीं है। क्योंकि जल्दी करने से, दौड़ने से उस जगह पहुंच सकते हो जिसके लिए तुम तैयार नहीं हो। और अगर तैयारी नहीं है, तो वह तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकती है।
लोभी मन सभी कुछ अभी और यहीं प्राप्त कर लेना चाहता है। मेरे पास लोग आकर कहते हैं, 'आप हमें ऐसा कुछ क्यों नहीं दे देते, जिससे हम अभी संबोधि को उपलब्ध हो जाए?' लेकिन ये वही लोग होते हैं, जो तैयार नहीं हैं। अगर वे तैयार होते तो उनके पास धैर्य होता। अगर वे तैयार होते तो वे कहते, 'संबोधि कभी भी घटित हो, हमें कोई जल्दी नहीं है, हम प्रतीक्षा करेंगे।
ये लोग सच्चे नहीं हैं; ये लोभी लोग हैं। सचाई तो यह है कि वे स्वयं भी नहीं जानते हैं कि वे क्या माग रहे हैं। वे आमंत्रण तो विराट को दे रहे हैं, लेकिन अगर विराट को झेलने की तैयारी नहीं है तो वे छिन्न —भिन्न हो जाएंगे, वे उसे अपने में समा न सकेंगे।
पतंजलि कहते हैं, 'संयम को चरण —दर —चरण संयोजित करना होता है।
और उन्होंने इन आठ अवस्थाओं की व्याख्या की है।
'ये तीन चरण
वे तीन अवस्थाएं जिनके बारे में हमने पहले बात की थी।
'धारणा, ध्यान और समाधि—ये तीनों चरण प्रारंभिक पांच चरणों की अपेक्षा आंतरिक होते हैं।
हम उन पांचों अवस्थाओं के बारे में बात कर चुके हैं। ये तीनों अपने से पहले वाली पांचों अवस्थाओं की तुलना में आंतरिक हैं।
'लेकिन निर्बीज समाधि की तुलना में ये तीनों बाह्य ही हैं।
अगर इनकी तुलना यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार से की जाए, तब तो ये आंतरिक हैं। लेकिन बुद्ध —पतंजलि के परम अनुभव के साथ इनकी तुलना की जाए, तो फिर ये भी बाह्य अवस्थाएं ही हैं। ये अवस्थाएं ठीक मध्य में हैं। पहले शरीर का अतिक्रमण, वे बाह्य चरण हैं, फिर मन का अतिक्रमण, ये आंतरिक चरण हैं, लेकिन जब कोई अपने शुद्ध अस्तित्व को उपलब्ध हो जाता है, तो जो कुछ अभी तक आंतरिक मालूम होता था, वह भी अब बाहर का ही मालूम होने लगेगा। वह भी पूरी तरह से आंतरिक नहीं होता है।
मन भी पूरी तरह अंतस का हिस्सा नहीं है। शरीर की अपेक्षा वह जरूर अंतस का है। अगर व्यक्ति साक्षी हो जाए, तो फिर वह भी बाहर का हिस्सा हो जाता है, तब स्वयं के विचारों को देखा जा सकता है। और जब कोई अपने ही विचारों को देख सकता हो, तो विचार भी बाहर के हिस्से हो जाते हैं। तब विचार विषय होते हैं, और वह देखने वाला द्रष्टा होता है।
निर्बीज समाधि का अर्थ होता है कि अब कोई जन्म नहीं होगा, कि अब संसार में फिर लौटना न होगा, कि अब फिर से समय —काल में प्रवेश नहीं होगा। निर्बीज का अर्थ होता है इच्छाओं और कामनाओं के बीज का पूरी तरह से दग्ध हो जाना।
यहां तक कि जब कोई योग की ओर आकर्षित होता है, या भीतर की ओर यात्रा प्रारंभ करता है, तो वह भी एक तरह की आकांक्षा ही होती है —स्वयं को प्राप्त करने की आकांक्षा, शांति की आकांक्षा, आनंद प्राप्ति की आकांक्षा, सत्य को पाने की आकांक्षा—ये भी आकांक्षाएं ही हैं। जब पहली बार समाधि की उपलब्धि होती है — धारणा और ध्यान के बाद जब समाधि की प्राप्ति हो जाती है, जहां विषय और विषयी एक हो जाते हैं, वहां भी आकांक्षा की हल्की सी छाया मौजूद रहती ही है —सत्य को जानने की आकांक्षा, सत्य के साथ एक हो जाने की आकांक्षा, परमात्मा का साक्षात्कार करने की आकांक्षा, या कोई भी नाम इस आकांक्षा को दे सकते हो, फिर भी वह होती आकांक्षा ही है, चाहे वह बहुत सूक्ष्म, अदृश्य ही क्यों न हो, लेकिन फिर भी वह मौजूद होती है। क्योंकि पूरे जीवन उसके साथ रहते आए हो, इसलिए वह होगी ही। लेकिन अंत में उस आकांक्षा को भी गिरा देना है।
अंत में तो समाधि को भी छोड़ देना होता है। जब ध्यान पूर्ण हो जाता है, तो ध्यान को भी छोड़ देना होता है तब ध्यान को भी छोड़ा जा सकता है। और जब ध्यान जीवन—शैली हो जाता है तो उसको करने की जरूरत नहीं रहती है, तब ध्यान भी छूट जाता है, तब कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं रहती है —न तो बाहर जाने की और न ही भीतर आने की—जब बाहर और भीतर की सभी यात्राएं समाप्त हो जाती हैं, तब सभी तरह की इच्छा, आकांक्षा, वासना भी छूट जाती है।
आकांक्षा ही बीज है। पहले वह बाहर की तरफ ले जाती है, फिर अगर कोई व्यक्ति समझदार है, बुद्धिमान है, तो उसे यह समझ आते देर नहीं लगती है कि वह गलत दिशा की ओर बढ़ रहा है। तब वही आकांक्षा उसे भीतर की तरफ मोड़ देती है, लेकिन फिर भी आकांक्षा किसी न किसी रूप में मौजूद रहती ही है। वही आकांक्षा जो बाहर निराशा और हताशा का अनुभव करती है, भीतर की खोज प्रारंभ कर देती है। इसलिए जड़ को ही काट देना, आकांक्षा को ही गिरा देना।
यहां तक कि समाधि के बाद, समाधि को भी गिरा देना होता है। तब जाकर निर्बीज समाधि फलित होती है। निर्बीज समाधि चरम अवस्था है। वह इसीलिए उपलब्ध नहीं होती है कि तुमने उसकी आकांक्षा की है, क्योंकि अगर उसकी आकांक्षा की तो फिर वह निर्बीज न रहेगी। इसको थोड़ा समझ लेना। जब आकांक्षा मात्र की व्यर्थता और निरर्थकता दिखाई दे जाती है —यहां तक कि भीतर जाने की आकांक्षा की भी—तभी निर्बीज समाधि का जन्म होता है। आकांक्षा की व्यर्थता की समझ से ही आकांक्षा गिरती है। निर्बीज समाधि की आकांक्षा नहीं की जा सकती। जब सभी प्रकार की आकांक्षाए गिर जाती हैं, तब अकस्मात निर्बीज समाधि फलित हो जाती है। इसका किसी भी तरह के प्रयास से कोई संबंध नहीं है। यह तो बस घटित होती है।
समाधि तक तो प्रयास मौजूद रहता है, क्योंकि प्रयास के लिए भी किसी आकांक्षा की उद्देश्य की रही, जरूरत रहती है। जब आकांक्षा ही चली जाती है, तो फिर प्रयास भी चला जाता है। जब आकांक्षा ही गिर जाती है, तो फिर कुछ करने का प्रयोजन नहीं रह जाता है —न तो कुछ करने का प्रयोजन भोजन रहता है और न ही कुछ होने का प्रयोजन रह जाता है। व्यक्ति पूरी तरह से खाली और रिक्त हो जाता है, उसे ही बुद्ध ने 'शून्य' कहा है —वह अपने से आता है। और यही उसका सौंदर्य है: किसी भी प्रकार की आकांक्षा और अभीप्सा से अछूता, किसी लक्ष्य या उद्देश्य की प्राप्ति द्वारा दूषित नहीं: वह स्वयं में परिशुद्ध और निर्दोष होता है। यही है निर्बीज समाधि।
इसके बाद फिर कोई जन्म शेष नहीं रह जाता है। बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे, 'जब तुम समाधि को उपलब्ध हो, तो सचेत हो जाना। समाधि पर ही रुक जाना, ताकि तुम लोगों की सहायता कर सको।क्योंकि अगर समाधि पर ही न रुके, और निर्बीज समाधि फलित हो गई, तो तुम हमेशा के लिए गए. गते —गते, परागते! गए—गए, हमेशा —हमेशा के लिए गए! फिर तुम किसी की मदद नहीं कर सकते।
तुमने यह 'बोधिसत्व' शब्द सुना होगा। मैंने यह नाम बहुत से संन्यासियों को दिया है। बोधिसत्व का अर्थ होता है, जिसे समाधि उपलब्ध हो गई है और वह 'निर्बीज समाधि' को आने नहीं दे रहा है। वह 'समाधि' पर ही रुक गया है, क्योंकि जब कोई समाधि पर ही रुक जाता है, तब वह लोगों की मदद कर सकता है, लोगों की सहायता कर सकता है। वह अभी भी इस संसार में मौजूद रह सकता है, कम से कम संसार से जोड्ने वाली एक कड़ी अभी भी मौजूद रहती है।
बुद्ध के विषय में एक कथा है कि बुद्ध स्वर्ग के द्वार पर खड़े हैं, द्वार खुले हैं और उन्हें भीतर आने के लिए आमंत्रित किया जाता है, लेकिन वे बाहर ही खड़े रहते हैं। देवता उनसे कहते हैं, 'आप आएं भीतर। हम कब से आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
लेकिन बुद्ध कहते हैं, 'अभी मैं कैसे भीतर आ सकता हूं? अभी बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें मेरी आवश्यकता है। मैं द्वार पर ही खड़ा रहूंगा और लोगों को राह दिखाने में उनकी सहायता करूंगा। मैं सबसे अंत में प्रवेश करूंगा। जब सब लोग प्रवेश कर चुके होंगे, जब एक भी व्यक्ति बाहर न रह जाएगा, तब मैं प्रवेश करूंगा। अगर मैं अभी प्रवेश कर जाता हूं, तो मेरे प्रवेश के साथ ही द्वार फिर से खो जाएगा, और ऐसे बहुत से लोग हैं जो बुद्धत्व प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जो द्वार के निकट आ रहे हैं। मैं बाहर खड़ा रहूंगा, मैं भीतर न आऊंगा, क्योंकि जब तक मैं यहां खड़ा रहूंगा आपको द्वार खुला रखना ही पड़ेगा। आपको मेरी प्रतीक्षा करनी ही है, और जब तक आप प्रतीक्षा करेंगे, द्वार खुला रहेगा, और मैं लोगों को बता सकूंगा कि यह रहा द्वार।
यह है बोधिसत्व की अवस्था। बोधिसत्व का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जो कि बुद्धत्व के द्वार तक आ पहुंचा है। सच कहा जाए तो वह अस्तित्व में हमेशा—हमेशा के लिए विलीन हो जाने के लिए तैयार है, लेकिन करुणा के वशीभूत होकर वह स्वयं को रोककर रखता है। लोगों की मदद करने की आकांक्षा से वह वहां रुका रहता है। इस अंतिम आकांक्षा से कि लोगों की मदद करनी है—यह भी एक आकांक्षा ही है—उसे अस्तित्व में बनाए रखती है।
यह बहुत ही कठिन होता है, कहना चाहिए यह असंभव ही है —जब संसार से जुड़ी हुई सारी कड़ियां टूट जाती हैं, तो करुणा के नाजुक धागे_ द्वारा जुड़े रहना लगभग असंभव ही होता है। लेकिन यही कुछ घड़ियां होती हैं, जब कोई बोधिसत्व की अवस्था को उपलब्ध होता है और वहीं ठहरा रहता है वही कुछ ऐसी घड़ियां होती हैं जब संपूर्ण मनुष्य—जाति के लिए द्वार खुला होता है, कि बोधिसत्व के माध्यम से द्वार को देख लें, उस द्वार को अनुभव कर लें, उस द्वार को जान लें और अंततः उसमें प्रवेश कर लें।
'अपने से पहले के पांच चरणों की तुलना में ये तीनों चरण—धारणा, ध्यान, समाधि—ये आंतरिक हैं, लेकिन फिर भी निर्बीज समाधि की तुलना में तो ये तीनों बाह्य ही हैं।

'निरोध परिणाम मन का वह रूपांतरण है जब मन में निरोध की अवस्थिति व्याप्त हो जाती है, जो तिरोहित हो रहे भाव—संस्कार और उसके स्थान पर प्रकट हो रहे भाव—विचार के बीच क्षणमात्र को घटित होती है।
यह सूत्र तुम्हारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि तुम तुरंत इसको व्यवहार में ला सकते हो। पतंजलि इसे निरोध कहते हैं। निरोध का अर्थ होता है, 'मन का क्षणिक स्थगन' अ—मन की क्षणिक अवस्था। इसका अनुभव सभी को होता है, लेकिन यह इतना सूक्ष्म और क्षणिक होता है कि इसका अहसास नहीं होता है। जब तक थोड़ी जागरूकता, थोड़ा होश न हो, इसे अनुभव करना असंभव है। पहले तो मैं यह बता दूं कि यह होता क्या है।
जब कभी मन में कोई विचार आता है, तो मन उसके द्वारा ऐसे आच्छादित हो जाता है जैसे आकाश पर कोई बादल छा जाए। लेकिन कोई भी विचार स्थायी नहीं हो सकता है। विचार का स्वभाव ही अस्थायी है। एक विचार आता है, वह चला जाता है; फिर कोई दूसरा विचार आता है और वह पहले वाले विचार का स्थान ले लेता है। जब एक विचार जा रहा होता है और उसकी जगह दूसरा विचार आ रहा होता है, तब इन दो विचारों के बीच एक बहुत ही सूक्ष्म अंतराल होता है। जब एक विचार जा रहा होता है, और दूसरा अभी आया नहीं है, वही क्षण निरोध का होता है—एक सूक्ष्म अंतराल, जब तुम निर्विचार होते हो। एक विचार का बादल गुजर गया और दूसरा अभी आया नहीं है, उस बीच के क्षणिक अंतराल में आकाश की तरह चित्त साफ होता है। अगर कोई थोड़ा भी जागरूक हो, तो इसे देख सकता है।
बस, चुपचाप शांत बैठ जाओ और देखो। विचार ऐसे आते —जाते रहते हैं जैसे सड़क पर यातायात गुजरता रहता है। एक कार जाती है, दूसरी आ रही होती है —लेकिन इन दो कारों के आने —जाने के बीच एक अंतराल होता है और बीच में थोड़ी देर के लिए सड़क खाली होती है। जल्दी ही दूसरी कार आ जाएगी और सड़क फिर भर जाएगी और खाली न रहेगी। अगर तुम इन दो विचारों के बीच के अंतराल को देख सको, तब क्षण भर को वही अवस्था उपलब्ध हो जाती है, जैसे वि; समाधि को उपलब्ध व्यक्ति की होती है— क्षणिक समाधि, उसकी केवल झलक मात्र ही मिलती है। शीघ्र ही वह अंतराल दूसरे आते हुए विचार से भर जाएगा, जो कि आ ही रहा होता है।
देखना, ध्यानपूर्वक देखना। एक विचार जा रहा होता है, दूसरा आ रहा होता है, और दोनों के बीच एक अंतराल होता है उस अंतराल में तुम ठीक उसी अवस्था में होते हो जिस अवस्था में कोई समाधि को उपलब्ध व्यक्ति होता है। लेकिन तुम्हारी वह अवस्था मात्र एक क्षणिक घटना होती है। पतंजलि इसे निरोध की अवस्था कहते हैं। यह क्षणिक होती है, इतनी क्षणिक कि पूरे समय यह बदल रही होती है। यह इतनी शीघ्रता से बदलती है जैसे : एक लहर जा रही होती है, और दूसरी आ रही होती है, इन दोनों के बीच कहीं कोई लहर नहीं होती है। इन को जरा ध्यान से देखने की कोशिश करना।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान विधियों में से यह एक ध्यान विधि है। और कुछ भी करने की कोई जरूरत नहीं है। .बस, तुम शांत और मौन, बैठकर ध्यानपूर्वक इन आते—जाते विचारों को देखते रहो। विचारों के बीच के अंतराल को देखना। प्रारंभ में यह कठिन होगा। धीरे— धीरे तुम सजग और जागरूक होने लगोगे और विचारों के बीच के अंतरालों को देख पाओगे। विचारों पर ज्यादा ध्यान मत देना। अपना पूरा ध्यान विचारों के बीच जों अंतराल आता है उस पर लगाना, विचारों पर नहीं। जब विचारों का यातायात बंद हो, कोई भी विचार न गुजर रहा हो, वहां स्वयं को केंद्रित कर लेना। थोड़ा अपने देखने का ढंग बदल देना। साधारणतया तो हम विचारों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, बीच के अंतराल पर नहीं। लेकिन अब अपना ध्यान अंतराल पर केंद्रित करना, विचारों पर नहीं।
एक बार ऐसा हुआ योग का एक मास्टर अपने शिष्यों को निरोध के विषय में समझा रहा था। उसके पास एक ब्लैक —बोर्ड था। उसने उस ब्लैक —बोर्ड पर चाक से एक बहुत छोटा सा बिंदु, जो कि मुश्किल से दिखाई दे, बनाया। और फिर उसने अपने शिष्यों से पूछा कि ब्लैक —बोर्ड पर तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? उन सब शिष्यों ने एक साथ कहा, 'एक —छोटा सा सफेद बिंदु।वह मास्टर हंसने लगा। उसने कहा, 'तुम में से किसी को भी ब्लैक —बोर्ड दिखाई नहीं देता? सभी को केवल यह छोटा सा सफेद बिंदु ही दिखाई दे रहा है?'
किसी को भी ब्लैक —बोर्ड दिखाई नहीं दिया। इतना बड़ा ब्लैक —बोर्ड मौजूद था, सफेद बिंदु भी मौजूद था, लेकिन सभी ने उस सफेद बिंदु को ही देखा।
अपने देखने का ढंग बदलों।
तुमने बच्चों की पुस्तकें देखी हैं? उनमें चित्र होते हैं, ऐसे चित्र होते हैं जो समझने में बहुत ज्यादा अर्थपूर्ण होते हैं। किसी युवा स्त्री का चित्र है, तुम देख सकते हो उसको, लेकिन उन्हीं रेखाओं में, उसी चित्र में, एक वृद्ध स्त्री भी छिपी होती है। अगर देखते जाओ, देखते जाओ, तो अचानक युवा स्त्री गायब हो जाती है और वृद्ध स्त्री का चेहरा दिखायी देने लगता है। फिर वृद्ध स्त्री के चेहरे की ओर देखते चले जाओ, अचानक ही वह वृद्ध चेहरा खो जाता है और फिर से युवा स्त्री का चेहरा प्रकट हो जाता है। लेकिन दोनों को एक साथ नहीं देखा जा सकता है, दोनों को एक साथ देखना असंभव है। एक समय में एक ही चेहरा देखा जा सकता है। दूसरा चेहरा नहीं देखा सकता है। अगर एक बार दोनों चेहरे जवान और वृद्ध देख लिए जाते हैं, तब यह जानना आसान होता है कि दूसरा चेहरा भी वहां पर मौजूद है, लेकिन फिर भी दोनों को एक साथ नहीं देखा जा सकता है। और मन निरंतर बदलता रहता है, इसलिए एक बार युवा चेहरा दिखाई पड़ता है, तो दूसरी बार वृद्ध चेहरा दिखाई देता है।
वृद्ध से युवा, युवा से वृद्ध, फिर —वृद्ध से युवा ऐसे जीवन का गेस्टाल्ट बदलता रहता है, लेकिन दोनों पर एक साथ ध्यान केंद्रित नहीं किया जा सकता। इसलिए जब विचारों पर ध्यान केंद्रित होता है, उस समय बीच के अंतरालों पर ध्यान केंद्रित नहीं हो सकता। अंतराल वहां पर हमेशा विद्यमान रहता है। इसलिए इन बीच के अंतरालों पर ध्यान केंद्रित करो, और अचानक तुम पाओगे कि धीरे — धीरे बीच के अंतराल बढ़ते जा रहे हैं, और विचार धीरे — धीरे कम होते जा रहे हैं, और उन्हीं विचारों के बीच के अंतरालों में समाधि की पहली झलक आने लगती है।
और आगे की यात्रा के लिए समाधि का थोड़ा स्वाद तुम्हें होना चाहिए, क्योंकि जो कुछ मैं कह रहा हूं? या जो कुछ पतंजलि कह रहे हैं, वह तुम्हारे लिए केवल तभी अर्थपूर्ण हो सकता है, जब तुमने समाधि का थोड़ा—बहुत स्वाद पहले से चखा हो। अगर एक बार तुम्हें विचारों के बीच के अंतरालों का आनंद मालूम हो जाता है कि वह कितना आनंदपूर्ण होता है, तो एक अदभुत आनंद की वर्षा हो जाती है — क्षणभर को ही सही, और चाहे फिर वह खो जाती है —लेकिन तब तुम जान लेते हो कि अगर यह विचारों के बीच का अंतराल स्थायी हो सके, अगर यह शून्यता मेरा स्वभाव बन सके, तब यह आनंद सदा—सदा के लिए उपलब्ध हो जाएगा। और तब तुम कठोर श्रम करने लग जाते हो।
यही है निरोध परिणाम : 'निरोध परिणाम मन का वह रूपांतरण है जब मन में निरोध की अवस्थिति व्याप्त हो जाती है, जो तिरोहित हो रहे भाव —संस्कार और उसके स्थान पर प्रकट हो रहे भाव —विचार के बीच क्षणमात्र को घटित होती है।
अभी कोई दस वर्ष पहले जापान में शाही रत्नों की सूची बनाई गई। पहले वह शाही खजाना सोशुन नामक एक सुरक्षित इमारत में रखा हुआ था। नौ सौ वर्ष से हीरे —जवाहरात वहीं सोशुन नामक स्थान पर सुरक्षित रखे हुए थे। जब एम्बर नामक मोतियों की माला का परीक्षण किया गया, तो माला के बीच में एक मोती दूसरे मोतियों से अलग मालूम हुआ। पहले तो सदियों —सदियों से मनकों पर जो धूल एकत्रित हो गई थी, उसे साफ किया गया और फिर बीच वाले मनके का परीक्षण बहुत उत्सुकता के साथ किया गया। जो लोग खजाने की खोज कर रहे थे वह उन्हें मिल गया। वह विशिष्ट मनका शेष दूसरे मनकों जैसा न था। वह मनका बहुत ही उत्तम क्वालिटी का था। कोई नौ सौ वर्षों तक तो वह विशेष मनका एम्बर ही माना जाता रहा, लेकिन अब पूरी बात बदल गई थी।
हम कितनी ही देर भ्रांति में जीते रहें, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता है। लेकिन आत्म —निरीक्षण हमारे सच्चे और शांत स्वभाव को प्रकट कर ही देता है।
एक बार जो तुम हो जब उस सत्य की झलक मिल जाती है, तब सभी झूठे तादात्म्य अचानक तिरोहित हो जाते हैं। अब उन तादात्म्यों से तुम स्वयं को और अधिक धोखा नहीं दे सकते हो। यह निरोध परिणाम तुम्हें तुम्हारे सच्चे स्वभाव की पहली झलक दे देता है। वह धूल की पर्तों के नीचे जो चमकता हुआ सच्चा मोती छिपा है, उसकी प्रथम झलक दे देता है। वे धूल की पर्तें और कुछ भी नहीं—वे पर्तें विचारों की, संस्कारों की, कल्पनाओं की, स्वप्नों की, इच्छाओं की पर्तें ही हैं —बस वहां पर विचार ही विचार होते हैं। अगर एक बार भी उस सत्य की झलक मिल जाए, तो फिर तुम पहले जैसे नहीं रह सकते हो, फिर तो तुम परिवर्तित हो ही चुके।
इसे ही मैं रूपांतरण कहता हूं। जब कोई हिंदू ईसाई बनता है या जब कोई ईसाई हिंदू बनता है, मेरी दृष्टि में वह रूपांतरण नहीं है। वह तो ऐसे ही है जैसे एक कैद से दूसरी कैद की ओर सरकना। रूपांतरण तो तब घटित होता है जब विचार से निर्विचार तक मन से अ —मन तक पहुंचना हो जाता है। रूपांतरण तो तब होता है जब दो विचारों के बीच का अंतराल देखते —देखते और अकस्मात बिजली की कौंध की भांति सत्य उदघटित हो जाता है। और फिर से अंधकार छा जाता है, लेकिन उस एक झलक मात्र से तुम फिर वही व्यक्ति नहीं रह जाते हो। तुमने उस सत्य के दर्शन कर लिए हैं, जिसे अब भूलना संभव नहीं है। इसी कारण अब तुम उसकी खोज बार—बार करोगे।
आने वाला सूत्र यही कह रहा है.
'यह प्रवाह पुनरावृत्त अनुभूतियों —संवेदनाओं द्वारा शांत हो जाता है।
अगर विचारों के बीच का अंतराल गहराने लगे, तो धीरे — धीरे, मन बिदा होने लगता है। जब विचारों का प्रवाह शांत हो जाता है, निर्विचार की अवस्था सहज और स्वाभाविक हो जाती है, जब निर्विचार होना तुम्हारा सहज—स्फूर्त स्वभाव हो जाता है तब उस निर्विचार की अवस्था से तुम अपने
ही अस्तित्व को, अपने को देख सकते हो। तब स्वयं के भीतर छिपा हुआ खजाना मिल जाता है। पहले तो, छोटे —छोटे अंतरालों के बीच में छोटी—छोटी झलकियां मिलती हैं, फिर धीरे — धीरे अंतराल बड़े होने लगते हैं, तो झलकियां भी बड़ी होने लगती हैं। फिर एक दिन ऐसा आता है छ जब अंतिम विचार बिदा हो जाता है और उसकी जगह कोई दूसरा विचार नहीं आता है, तब एक गहन और शाश्वत मौन छा जाता है। और वही मंजिल है। ऐसा कठिन है, दुष्कर है, लेकिन फिर भी संभव है। ऐसा कहा जाता है कि जब जीसस को सूली दी गई, तो उनकी मृत्यु के थोड़ी देर पहले, एक सिपाही ने केवल यह देखने के लिए कि वे अभी जीवित हैं या नहीं, उनकी छाती में बरछा बेध दिया। वे उस समय भी जीवित थे। जीसस ने अपनी आंखें खोलीं, सिपाही की ओर देखा और बोले, 'मित्र, इसकी अपेक्षा तो इससे एक छोटा मार्ग है जो मेरे हृदय की ओर जाता है।सिपाही ने तो उनके हृदय में बरछा बेधा था और जीसस कहते हैं, 'मित्र, इसकी अपेक्षा तो इससे एक छोटा मार्ग है, जो मेरे हृदय की ओर जाता है।
सदियों —सदियों से लोग विचारते रहे हैं, कि जीसस का इससे क्या मतलब था। इसकी हजारों व्याख्याएं संभव हैं, क्योंकि यह वचन बहुत ही गहरा है। लेकिन जिस ढंग से मैं इसे देखता हूं और जो अर्थ मुझे इसमें दिखाई पड़ता है, वह यह है कि. अगर तुम अपने ही हृदय में उतरो तो वही सब से निकट का, सबसे छोटा और सुगम मार्ग है जीसस के हृदय तक पहुंचने का। अगर अपने ही हृदय में उतर जाओ? अगर भीतर की ओर चल पड़ो, तो जीसस के अधिक निकट आ जाओगे।
और चाहे जीसस जिंदा हों या न हों, तुम्हें अपने भीतर देखना ही होगा, अपने जीवन का स्रोत खोजना ही होगा; और तब यह जान सकोगे कि जीसस की कभी मृत्यु संभव नहीं है। वे शाश्वत हैं। सूली पर जिस शरीर को चढ़ाया था, वह मर सकता है, लेकिन वे कहीं और प्रकट होंगे। शारीरिक रूप से चाहे वे कहीं प्रकट न भी हों, लेकिन फिर भी वह अनंत के हृदय में समाए रहेंगे।
जब जीसस ने कहा था., 'मित्र, इसकी अपेक्षा तो एक छोटा मार्ग है जो मेरे हृदय की ओर जाता है,' उनका अर्थ था : 'स्वयं के भीतर जाओ, अपने स्वभाव को देखो, और तुम मुझे वहा पाओगे। प्रभु का राज्य तुम्हारे भीतर है।और वह शाश्वत है। वह ऐसा जीवन है जिसका कोई अंत नहीं, वह ऐसा जीवन है जिसकी कोई मृत्यु नहीं।
अगर व्यक्ति निरोध को जान ले, तो उस जीवन को जान लेगा जिसकी कोई मृत्यु नहीं, और जिसका न कोई प्रारंभ है और न ही कोई अंत है।
और एक बार अगर उस दिव्यता का, उस अमृत का स्वाद मिल जाए तो कोई भी बात फिर आकांक्षा नहीं बन सकेगी। तब तो केवल वह स्वाद ही एकमात्र आकांक्षा बन कर रह जाता है। और अंततः वही आकांक्षा समाधि तक ले जाती है। लेकिन अंत में उस आकांक्षा को भी छोड़ देना पड़ता है, उस आकांक्षा को भी देना होता है। उसने अपना कार्य कर दिया। उसने तुम्हारे जीवन में एक गति दे दी, वह तुम्हें अस्तित्व के द्वार तक ले आई, अब उसे भी गिरा देना है।
एक बार जब वह भी गिर जाती है, तो फिर तुम भी नहीं बचते..... केवल परमात्मा ही होता है। यही है निर्बीज समाधि।
आज इतना ही।




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