बुद्धि
के अतिक्रमण
से अद्वैत में
प्रवेश—(प्रवचन—ग्यारहवां)
दिनांक
1 अक्टूबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
सदगुरु शुजान ने
अपना छोटा
डंडा उठाया और
कहा:
'अगर
तुम इसे छोटा
डंडा कहते हो,
तो तुम इसके
सत्य का विरोध
करते हो। और
अगर तुम इसे
छोटा डंडा नहीं
कहते हो, तो
तुम इसके तथ्य
को अस्वीकारते
हो। अब कहो, तुम इसे
क्या कहना
पसंद करोगे?'
If you call it a short] you oppose
its reality. And if you do not call it a short staff, you ignore the face.’
('टिलवन बंसस पजीवतज जिलवन वचचवेम
पजे तमंसपजल्
: दकपिलवन
कव दवज बंसस पजीवतज
जिलवन पहदवतम जीम बिज्')
भगवान!
झेनगुरु
की इस पहेली
में निहित
अभिप्राय
समझाने की अनुकंपा
करें।
सत्य
की खोज में एक
ही संघर्ष है।
और वह संघर्ष है
विचार से
मुक्ति। कैसे
तुम विचार के
बाहर हो
जाओ--सारी
विधियां, सारी
साधनायें,
बस, उस
छोटे से कदम
के लिए
हैं--विचार की
प्रक्रिया कैसे
बंद हो जाये।
क्योंकि जैसे
ही विचार रुकता
है, वैसे
ही आंख खुलती
है। जैसे ही
विचार रुकता
है, वैसे
ही तुम देखने
में समर्थ हो
पाते हो। जब तक
विचार है तब
तक आंख धुंध
से भरी है।
जैसे दर्पण पर
धूल जमी हो
ऐसे चेतना पर
विचार की
पर्तें और
पर्तें जमी
हैं। बहुत उपाय
किए गये हैं, किस तरह
तुम्हें बाहर
ले आया जाये; तुम्हारे
विचार के
वर्तुल से।
झेन की
अपनी विधि है।
उस विधि को वे 'कोआन'
कहते हैं। 'कोआन' का
अर्थ है ऐसी
पहेली, जो
हल न की जा
सके। और जिसे
सोचते-सोचते-सोचते
सोचना ही थक
जाये। और तुम
इतने ऊब जाओ
सोचने से, इतने
परेशान हो जाओ,
सोचना इतना
व्यर्थ मालूम
पड़े कि तुम
सोचना ही छोड़
दो। आसान नहीं
है। क्योंकि
बुद्धि जल्दी नहीं
थकती। विपरीत
स्थिति में भी
सोचे चली जाती
है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपने एक
मित्र को सड़क
पर जाते देखा;
पीठ की तरफ
से। तेजी से
कदम बढ़ाये,
जाकर उसकी
पीठ ठोंकी और
कहा, 'कहां
खो गये थे
अब्दुल।
वर्षों बाद
दिखाई पड़े।' उस आदमी ने
लौट कर, चौंक
कर देखा।
मुल्ला नसरुद्दीन
ने भी उसे
चौंक कर देखा
और कहा, 'हद्द
हो गई! कौन सी
विपत्ति आई
तुम पर? पिछली
बार जब मिले
थे तो ठिगने
थे, मोटे
थे और अब
अचानक लंबे और
दुबले हो गये।
चेहरा भी
बिलकुल बदल
डाला। दाढ़ी-मूंछ
कब बढ़ा ली?' उस
आदमी ने कहा
कि माफ करें, आप किसी और
की भूल में
होंगे। मेरा
नाम अब्दुल्ला
नहीं है। नसरुद्दीन
ने दुबारा
उसकी पीठ
ठोंकी और कहा,
'प्यारे, तो नाम भी बदल
दिया!'
ऐसा
विचार है। वह
अपने लिए तर्क
खोजता ही चला जाता
है। वह अपने
लिए मार्ग
खोजता ही चला
जाता है। तथ्य
को अस्वीकार
करना आसान है, भीतर की
प्रक्रिया को
अस्वीकार
करना मुश्किल
है। और
करीब-करीब
विचार ऐसा है,
जैसा
ग्रामोफोन का
रिकार्ड खराब
हो गया हो, और
एक ही बात को
दुहराता चला
जाये। विचार
यांत्रिक है,
पुनरुक्तिपूर्ण है। और तुम
वही-वही दुहराये
चले जाते हो।
अगर
तुम गौर से
अपने विचार को
देखोगे
तो एक बात समझ
में आ जायेगी
कि बहुत
ज्यादा विचार
नहीं है
तुम्हारे
भीतर। कुछ
विचार हैं जो बार-बार
पुनरुक्त
होते हैं। एक
लीक बन गई है।
उसी लीक पर मन
घूमता रहता है, वहीं सूई
अटक गई है और
रिकार्ड को पुररुक्त
करती रहती है।
मैंने
सुना है कि
पहला हवाई
जहाज, जो
पूर्ण रूप से
स्वचालित था,
बना। उसमें
पायलट की कोई
जरूरत न थी।
उसमें परिचारिकाओं
की कोई
आवश्यकता न
थी। बटन दबाओ,
चाय आये; बटन दबाओ, भोजन आये।
कोई भी
व्यक्ति वहां
न था; सभी
तरह स्वचालित
था, आटोमैटिक
था। जैसे ही
हवाई जहाज उड़ा,
सूचना आनी
शुरू हुई कि
यह हवाई जहाज
पूरी तरह स्वचालित
है; यह
पहला हवाई
जहाज है। लाल
रंग की बटन दबायें,
चाय, पानी,
नाश्ता; पीले
रंग की बटन दबायें,
भोजन। हरे
रंग की बटन दबायें
तो सब
जरूरतें। और
कोई पायलट
नहीं है। यह
स्वचालित
हवाई जहाज
अपने गंतव्य
पर पहुंच कर
उतर जायेगा।
आप बिलकुल
चिंता न करें।
घबड़ाने
की कोई भी
जरूरत नहीं है,
क्योंकि
सभी तरह की
सावधानी बरती
गई है। यंत्र
में कहीं भी
कोई भूल नहीं
है--यंत्र में
कहीं भी कोई
भूल नहीं
है--यंत्र में
कहीं भी कोई
भूल नहीं है...
और इस लाइन पर
बात अटक गई।
सोच सकते हैं
उस हवाई जहाज
के यात्रियों
की हालत! भूल
तो साफ है। और
जब यह भूल हो
सकती है, तो
कोई भी भूल हो
सकती है।
तुम्हारा
मन भी
करीब-करीब
स्वचालित
कंप्यूटर है।
तुम्हें उसे
चलाना भी नहीं
पड़ता, वह
आदतवश चलता
चला जाता है।
उसकी बंधी हुई
लीक है, वह
उसको दुहराता
रहता है।
इसलिए जिंदगी
में तुम नई
भूलें भी तो
नहीं करते।
मौलिक भूल
करना भी तो
मुश्किल है मन
के द्वारा; वही-वही
दुहराते हो जो
पहले किया है।
नई भूल भी करो
तो मन के बाहर
हो जाओ।
क्योंकि सब
नया मन के
बाहर है। पाप
भी नया करो तो
बाहर हो जाओ; लेकिन पाप
भी दुहराते हो
बासा-पुराना।
मन का
नये से कोई भी
संबंध नहीं है, और जीवन
प्रतिपल नया
है। मन का
संबंध पुराने
से है। मन
अनुभव का निचोड़
है। अनुभव
यानी अतीत, अनुभव यानी
जो हो चुका, अनुभव यानी
जो बीत चुका, वे जो
लकीरें छूट गई
हैं अनुभव की,
उनका ही जोड़
मन है। मन
स्मृति का
संग्रह है। और
जो जीवन है
अभी और
यहां--वह अतीत
नहीं है, वह
वर्तमान है।
इस
पहले सत्य को
ठीक से खयाल
में ले लें।
मन सदा अतीत
है और जीवन
सदा वर्तमान
है। इसलिए
जीवन और मन का
कहीं भी मिलन
नहीं होता है।
जिस दिन मन छूटेगा, उसी दिन
जीवन से मेल
होगा। जिस दिन
मन हटेगा, उसी
दिन द्वार
खुलेगा उसका,
जो है:
अस्तित्व का
द्वार।
ध्यान
की विधियां मन
को तोड़ने की
विधियां हैं।
यह 'कोआन' भी
बड़ी कीमती
विधि है। और
झेन की विशेष
विधि है। हर
धर्म की कुछ
अपनी विशेष
विधियां हैं।
कोआन बड़ी
सार्थक है।
झेन
गुरु अपने
शिष्य को एक
पहली दे देता
है। और उससे
कहता है इस पर
सोचो। बात
बेहूदी है। क्योंकि
पहेली ऐसी
होती है जिस
पर सोचा ही
नहीं जा सकता।
जिसमें सोचने
का उपाय ही
नहीं है, गुंजाइश
नहीं। अगर
सोचा जा सके
तब तो
तुम्हारा मन
जारी रहेगा, तुम सोच
लोगे। लेकिन
पहेली
स्वभावतः ऐसी
है कि सोचने
की कोई जगह
नहीं है। तुम
कितना ही सोचोगे
फिर भी पाओगे
यह व्यर्थ है।
तुम्हें यह दिखाई
भी पड़ेगा कि
सोचने में कोई
सार नहीं है।
लेकिन गुरु
कहता है, सोचो।
यह सोचने में
कोई सार नहीं
है यह सोच कर
मत बताओ। सोचे
जाओ। एक ऐसी
घड़ी आयेगी कि
थक कर सोचना
गिर जायेगा।
और उसी क्षण
अचानक तुम
चौंक कर
जागोगे: जैसे
नींद टूट गई, जैसे अंधेरे
में दीया जल
गया, जैसे
बिजली कौंध
गई।
यह भी
एक झेन कोआन
है।
सदगुरु शुजान ने
अपना छोटा
डंडा उठाया और
कहा...।
झेन
गुरु अपने पास
डंडा रखते हैं; शिष्यों की
खोपड़ी पर
मारने को।
बाहर से भी वह प्रतीक
है, भीतर
से भी
मूल्यवान है।
क्योंकि गुरु
और क्या करेगा?
खोपड़ी को ही
मिटाना है।
उसी में तुम
भटक गए हो।
वहीं से
तुम्हें खींच
कर बाहर लाना
है। और कभी-कभी
कुछ क्षण होते
हैं, जब
सिर पर पड़ी
डंडे की चोट
तुम्हें
चौंका देती
है। वह एक शॉक ट्रीटमेंट
है।
जैसे
बिजली का हम
शॉक देते हैं
पागल को, विक्षिप्त
को, और
कभी-कभी वह
ठीक हो जाता
है। ठीक इसलिए
हो जाता है कि
उसका जो
वर्तुल चल रहा
था विचार का, वह टूट जाता
है।
बिजली
का शॉक पागल
को ठीक कर
पाता है, क्योंकि
भीतर उसके जो
पागलपन की
धारा बन गई थी,
ग्रामोफोन
का रिकार्ड एक
ही वाणी को दुहराये
चला जा रहा था,
बिजली के
शॉक से सूई
वहां से हट
जाती है। धक्के
में भीतर सब
अस्तव्यस्त
हो जाता है, और जब वह फिर
से स्वस्थ
होता है तो
सूई वहीं नहीं
होती, जहां
अटक गई थी।
इसलिए बिजली
का शॉक पागलपन
को ठीक करने
में उपयोगी
है। कोई भी
शॉक उपयोगी
है।
और झेन
गुरु बिजली के
शॉक का उपयोग
नहीं करता, क्योंकि
उसके खतरे और
नुकसान भी
हैं। कभी-कभी ऐसा
भी हो सकता है
कि शॉक से
पुराना
पागलपन मिट
जाये, नया
और भी उपद्रव
का पागलपन पैदा
हो जाये।
क्योंकि वह
अंधेरे में
टटोलना है।
तुम्हारे मन
को झकझोर दिया;
वह पहले से
बेहतर ही
जमेगा यह क्या
निश्चित है? वह पहले से
और भी बुरी
हालत में जम
सकता है। फिर
जैसे-जैसे
बिजली के
धक्के दिए
जाते हैं, वैसे-वैसे
मन कमजोर होता
जाता है।
पागलपन भला हट
जाये, लेकिन
बुद्धिमत्ता
उससे पैदा न
होगी। धीरे-धीरे
भीतर के
स्नायु बिजली
के धक्के खा
खाकर, उनका
लचीलापन खो
जायेगा। और
जितना
लचीलापन खो
जायगा, उतनी
बुद्धिमत्ता
क्षीण हो
जायेगी। पागल
भला न रह जाओ, लेकिन
प्रतिभाशाली
भी न रह
जाओगे।
झेन
गुरु डंडे का
उपयोग करता है; वह शॉक बड़ा
सूक्ष्म है।
और करता है
विशेष क्षणों
में, हमेशा
नहीं। जब
देखता है कि
तुम बिलकुल
कगार पर खड़े
हो, लगता
है कि तुम
विचार के
बिलकुल
किनारे आ गये हो,
जरा सा
धक्का और
छलांग लग
जायेगी। कोई
मीलों तक
तुम्हें
घसीटना नहीं
है। तुम कगार
पर ही खड़े हो; जरा सा इशारा
और तुम छलांग
लगा दोगे। और
अगर इस समय
इशारा न किया
गया, तो
शायद फिर तुम
लंबी यात्रा
पर निकल जाओ, किनारा फिर
दूर हो जाये, छलांग फिर
मुश्किल हो
जाये।
तो झेन
गुरु घूमता है
अपने शिष्यों
के बीच। वे
ध्यान कर रहे
हैं, वह अपने
डंडे को लेकर
घूमता रहता
है। क्योंकि
जब तुम विचार
के किनारे
पहुंचते हो तब
तुम्हारे
चेहरे की सारी
स्थिति बदल
जाती है। उस
किनारे पर
पहुंच कर भी
शांत हो जाता
है सब। अभी
छलांग भी नहीं
लगी, लेकिन
छलांग के
पूर्व भी, जैसे
ही पास और पास
तुम आते हो उस
महासागर के, जहां विचार
खो जायेगा और
निर्विचार
होगा; जैसे-जैसे
पास आते हो
वैसे-वैसे ही
तुम्हारी सारी
जीवन स्थिति
बदलने लगती
है। तुम्हारे रोंये-रोंये
में जो तनाव
है, एक
बेचैनी है, वह खो जाती
है। तुम थिर
हो जाते हो।
आनंद तो नहीं
होता, लेकिन
तुम शांत हो
जाते हो।
शांति, आनंद
का पहला चरण
है; और जब
गुरु देखता है
कि तुम ऐसी
जगह आ गये हो, जहां से जरा
सा धक्का और
तुम सागर में
उतर जाओगे, तो वह डंडे
से तुम्हारे
सिर पर चोट
करता है। उस
चोट में तुम
एकदम चौंक
जाते हो। एक
सेकेंड को उस
चौंकने में
विचार बंद हो
जाते हैं।
कोई भी
डंडा मार देगा
तो तुम चौंकोगे, लेकिन ज्ञान
उपलब्ध न
होगा।
क्योंकि
किनारा अगर
बहुत दूर हो, तो तुम चौंक
भी जाओगे तो
जब तक किनारे
तक पहुंचोगे,
तब तक फिर
विचार की
प्रक्रिया
शुरू हो
जायेगी। यह तो
बिलकुल कगार
पर ही डंडा
मारने का फायदा
है। और शिष्य
प्रतीक्षा
करते हैं
वर्षों तक कि
गुरु कब
उन्हें डंडा
मार दे। कब इस
योग्य समझे कि
धक्का दे दे!
छः छः घंटे रोज
बैठे रहते हैं
ध्यान में।
गुरु रोज आता
है और खोजता
है, कौन
किनारे पर है?
और कभी-कभी
डंडा मारने से
ही परम-ज्ञान
की उपलब्धि
हुई।
जब
पश्चिम में
पहली दफा यह
पता चला तो
लोग बहुत हंसे, कि यह परमज्ञान
बड़ा सस्ता है
कि डंडा मारने
से उपलब्ध हो
जाये। लेकिन
उन्हें पता
नहीं है कि
डंडा मारने की
यह घटना के पहले
हो सकता है कि
शिष्य बीस
वर्ष, तीस
वर्ष छः-छः
घंटे, आठ-आठ
घंटे बैठा रहा
हो प्रतीक्षा
में। झेन गुरु
का डंडा
अर्जित करना
पड़ता
है--मुफ्त
नहीं मिलता--बड़ी
लंबी साधना
से।
तो झेन
गुरु शुजान
अपना छोटा
डंडा लिए बैठा
होगा। किसी
शिष्य को 'कोआन'
पहेली दे
रहा है! और
उसने डंडे को
उठा कर कहा:
अगर
तुम इसे छोटा
डंडा कहते हो
तो तुम इसके
सत्य का विरोध
करते हो और
अगर इसे छोटा
डंडा नहीं
कहते तो तुम
इसके तथ्य को अस्वीकारते
हो। अब कहो, तुम इसे
क्या कहना
पसंद करोगे? इफ
यू कॉल दिस ए शॉर्ट
स्टाफ, यू
ऍ?पोज द रियैलिटी।
एंड इफ यू
डू नॉट कॉल इट
ए शॉर्ट
स्टाफ, यू इगनोर द
फैक्ट।
पहले
इस पहेली को
समझ लें; बुद्धि
के तल पर, क्योंकि
अभी तो वहीं
खड़े हैं। फिर
बुद्धि-अतीत
तल पर इसकी
झलक लेने की
कोशिश करें।
तीन
बातें कहीं शुजान ने।
पहली: डंडा
छोटा है। अगर
तुम इसे छोटा
डंडा कहते हो
तो तुम इसके
सत्य को इंकार
करते हो। क्यों? डंडा छोटा
है, तो
छोटा डंडा
कहने में सत्य
का इंकार क्या
है? यहां
समझने की
कोशिश करें।
डंडा
सिर्फ डंडा
है। न डंडा
छोटा होता, न बड़ा। डंडे
को पता ही
नहीं होता कि
वह छोटा है कि
बड़ा। छोटा-बड़ा
तो तुम्हारी
बुद्धि की
व्याख्या है।
डंडा अपने आप
में छोटा है
या बड़ा? डंडा
अपने आप में
तो सिर्फ डंडा
है। तुम एक और डंडे
को भीतर लाओ
तब छोटा-बड़ा
होता है तुलना
में।
तो
छोटा या बड़ा
होना डंडे के
भीतर का सत्य
नहीं है, बाहर
से आई तुलना
है। यह किसी
और डंडे की
अपेक्षा में
छोटा है; किसी
और डंडे की
अपेक्षा में
बड़ा भी हो
सकता है। तो
बड़ा और छोटा
प्रत्यय हैं
बुद्धि के।
डंडा छोटा है
या बड़ा? डंडा
अपने आप में न
छोटा है, न
बड़ा। तुम ला
रहे हो छोटे
और बड़े के
विचार को।
बुद्धि
प्रत्यय लाती
है तुलना के।
बुद्धि
तुलनात्मक
है। इसलिए जब
तक तुम तुलना
न छोड़ोगे
तब तक बुद्धि
न छूटेगी।
तुमने देखा
नहीं किसी को
कि तुमने कहा, 'बहुत सुंदर
है।' तुमने
देखा नहीं
किसी को कि
कहा, 'बहुत
कुरूप है।' लेकिन कोई
कुरूप होता है
अपने आप में? कि कोई
सुंदर होता है
अपने आप में? तुम बाहर की
तुलना भीतर ला
रहे हो।
तुम एक
स्त्री को
सुंदर कहते
हो। क्यों? तुम और
स्त्रियों से
तुलना कर रहे
हो। यह स्त्री
अपने आप में, अपने भीतरी
सत्य में
सुंदर है या
कुरूप? दूसरी
स्त्री का
क्या प्रयोजन
है?
मुल्ला
नसरुद्दीन
लौटा, कुछ
समय हिमालय पर
बिता कर, तो
मैंने उससे
पूछा, 'यात्रा
कुशलता से हुई?
दिन मजे में
बीते? पहाड़
पर कैसा समय
रहा? सुख
तो पाया?' उसे
मैं जानता
हूं। वह जहां
भी जाये, उपद्रव
ही पा सकता
है। हिमालय
जाने से क्या
होगा? जाओगे
तो तुम्हीं।
उसने
कहा, 'यदि चाय,
कॉफी, सूप
उतना गरम होता,
जितनी कि
शराब गरम थी; और शराब यदि
उतनी पुरानी
होती, जितनी
की मुर्गी
पुरानी थी; और यदि
मुर्गी इतनी
कोमल होती
जितनी कि कोमल
नौकरानी थी; और अगर
नौकरानी रात
मेरे साथ सोने
को उतनी ही उत्सुक
होती, जितनी
कि बूढ़ी घर की
मालकिन थी, तो सब ठीक
था।'
ऐसा मन
चलता है, किसी
चीज को सीधा
नहीं देखता।
और तुलनाओं
को भीतर लेता
आता है। तुम
कोई तथ्य सीधा
नहीं देखते।
सदा तुलना
प्रविष्ट हो
जाती है। तुलना
लाने वाली
बुद्धि है।
तथ्य तो अकेला
है। अगर आदमी
न हो इस जमीन
पर, तो कोई
वृक्ष लंबा और
कोई वृक्ष
छोटा होगा? वृक्ष तो
होंगे, लेकिन
न कोई वृक्ष
बड़ा होगा न
कोई छोटा
होगा। घास का
तिनका भी छोटा
नहीं होगा और
हिमालय का पहाड़
भी बड़ा नहीं
होगा।
क्योंकि
छोटा-बड़ा जो
लाता था, वह
आदमी अब नहीं
है। कोई सुंदर
होगा, कोई
कुरूप होगा? फूल फिर भी
खिलेंगे। गेंदे
का फूल कुरूप
नहीं होगा, गुलाब का
फूल सुंदर
नहीं होगा।
घास का फूल भी
वैसा ही होगा
जैसा कमल का
फूल; कोई
भेद न रह
जायेगा।
आदमी न
हो तो भेद खो
जायेगा। भेद
अस्तित्व में
नहीं है, भेद
आदमी लाता है।
तुम कहते हो
किसी बच्चे को
कि बड़ा
प्रतिभाशाली
है। किसी
बच्चे को कहते
हो, बिलकुल
बुद्धू है; यह भेद तुम
ला रहे हो। और
मूल्यांकन
बदल जायें तो
भेद बदल जाते
हैं। कभी एक
चीज फैशन में
होती है तो
सुंदर होती
है। फिर फैशन
के बाहर हो
जाती है तो
वही कुरूप हो
जाती है। कभी
एक ढंग का
नाक-नक्श सुंदर
समझा जाता है।
समय बदल जाता
है, लोग
उससे ऊब जाते
हैं, फिर
अलग ढंग का
नाक-नक्श
सुंदर हो जाता
है।
ऐसे
कबीले हैं
जमीन पर, जहां
स्त्रियां
सिर घुटाती
हैं। क्योंकि
उन कबीलों में
समझा जाता है
कि घुटा हुआ
सिर ही सुंदर
है। बाल कुरूपतायें
हैं। शेष सारी
पृथ्वी पर बाल
सौंदर्य के
प्रतीक हैं।
कबीले हैं, जहां
स्त्रियां
अपने सिर को
गूद लेती हैं,
रंग भर लेती
हैं। हमें देख
कर हैरानी
होती है।
लेकिन वहां वे
सौंदर्य के
प्रतीक हैं।
हमारे ही समाज
में
स्त्रियां
नाक छेदती हैं,
कान छेदती
हैं। सोचा
जाता रहा है
कि वे सौंदर्य
के प्रतीक
हैं। लेकिन अब
फैशन बदल रही
है। अब नाक और
कान का छेदना
सहजता को खोने
जैसा है, स्वभाव
को खोने जैसा
है; अब वह
सौंदर्य का
प्रतीक नहीं
है।
आदमी
का विचार
बदलता है, सौंदर्य बदल
जाता है, कुरूपतायें बदल जाती
हैं। क्या
सुंदर है? क्या
कुरूप है? निर्णायक
कोई मापदंड
नहीं है।
तुम्हारी बुद्धि
पर निर्भर है।
बुद्धि तुलना
से जीती है। इसलिए
तुम देखते भी
नहीं हो किसी
चीज को कि
तत्क्षण
तुलना करते
हो।
यह झेन
गुरु अपने
शिष्य से कह
रहा है कि
तुलना मत करना, और बिना
तुलना किए
कहना कि यह
क्या है! कह
रहा है अगर
तुमने इसे
छोटा डंडा कहा,
तो सत्य का
विरोध हो गया।
क्योंकि सत्य
में कोई तुलना
नहीं है; तुलना
मन में है।
इसलिए मन के
रहते तुम सत्य
को न जान
पाओगे।
सत्य
अतुल्य है, इनकम्पेरेबल है। वह न
सुंदर है न
कुरूप है; न
शुभ न अशुभ; न अच्छा न
बुरा; वहां
कोई भेद नहीं
है। वह सिर्फ 'है'।
होना मात्र
उसका लक्षण
है। इस पूरे
अस्तित्व को
तुम सुंदर
कहोगे या
कुरूप? अच्छा
कहोगे या बुरा?
लोगों
ने कुछ न कुछ
कहा है।
आस्तिक कहता
है बिलकुल
अच्छा, क्योंकि
भगवान ने
बनाया; नास्तिक
कहता है, इतने
युद्ध, इतनी
बीमारी, बच्चे
सड़ते
मरते हैं, कैंसर
है, टी. बी.
है, कैसे
अच्छा? कुरूप
है। इससे और
बुरा क्या हो
सकता है?
लेकिन
अगर तुम किसी
ज्ञानी को पूछो
तो वह कहेगा
क्योंकि
अस्तित्व एक
ही है, दूसरा
कोई अस्तित्व
नहीं, अच्छा
भी कहना
सार्थक नहीं,
बुरा भी
कहना सार्थक
नहीं। तुलना
कहां से करोगे?
अगर कोई
दूसरा भी
अस्तित्व
होता, तो
तुलना हो सकती
थी। अस्तित्व
तो एक ही है। यह
एक ही फैलाव
है। किससे तौलोगे?
इसलिए परमात्मा
को अगर तुमने
कहा 'सुंदर'
तो भूल कर
रहे हो। किससे
तौलते हो? उसके
अलावा कोई भी
नहीं है। वही
है। तो जहां अकेला
है वहां कैसी
तुलना! तुलना
तो दो के साथ हो
सकती है।
बुद्धि तुलना
करती है।
इसलिए बुद्धि
द्वंद्व और
द्वैत में
जीती है। और
सत्य अद्वैत
है। तो जब तक
तुम बुद्धि की
तुलना न छोड़ोगे...।
सिर्फ
देखना गुलाब
के फूल को। मत
कहना कि सुंदर, मत कहना
असुंदर; किससे
तौलते हो; कल
देखे थे जो
गुलाब, उनसे?
अब वे कहां
हैं? किससे
तौलते हो? पड़ोसी
के घर में जो
गुलाब खिला है
उससे? वह
गुलाब वह है; यह गुलाब यह
है; दोनों
के बीच क्या
लेना-देना है?
तौलते ही
क्यों हो? क्या
काफी नहीं है
कि इस गुलाब
को सीधा देखो?
बीच में
शब्दों और
प्रत्यय और
धारणाओं को न
लाओ। बीच में
सिद्धांतों
को मत लाओ।
सीधा देखने में
कुछ अड़चन है?
पर
तुम्हारी
आंखें शब्दों
से भरी हैं, तुम्हें पता
ही नहीं चलता।
देखे नहीं कि
व्याख्या आ
गई। कान से
सुना नहीं कि
निर्णय हो
गया। हाथ ने
छुआ नहीं, चाहे
तुम कहो या न
कहो, भीतर
कोई कह गया 'बड़ा कोमल
है। बड़ा कठोर
है।'
चेहरे
को तुम कहते
हो सुंदर? तो किसी
वैज्ञानिक की
प्रयोगशाला
में जाकर खुर्दबीन
से चेहरे को
देख लेना अपनी
प्रेयसी के।
तब तुम बहुत
घबड़ा जाओगे।
क्योंकि
खुर्दबीन से
देखे जाने पर
चेहरा ऐसा
मालूम
पड़ेगा...खाई, खड्ड, पहाड़!
छोटे-छोटे
छिद्र बड़ी-बड़ी
खाइयां हो जायेंगी।
छोटे-छोटे मुंहासे
बड़े-बड़े पहाड़
हो जायेंगे, तुम देख कर
बहुत घबड़ा
जाओगे।
क्या
खुर्दबीन गलत
कह रही है? खुर्दबीन तुम्हारी
प्रेयसी के
कुछ विरोध में
तो है नहीं।
खुर्दबीन कोई
और दूसरी औरत
थोड़े ही है जो
प्रतिस्पर्धा
कर रही है।
क्या
खुर्दबीन किसीर्
ईष्या से भर
गई है? सत्य
क्या है? जो
तुमने
खुर्दबीन से
देखा वह, या
जो खाली आंख
से देखा वह? दोनों ही
सत्य हैं। और
अगर खाली आंख
से देखा सत्य
है, तो
खुर्दबीन से
देखा और भी
सत्य है।
क्योंकि अब
तुम और
विस्तार में
देख पा रहे
हो। कठिनाई कहां
से खड़ी हो रही
है? क्योंकि
खाली आंख में
तुमने एक
व्याख्या कर ली
थी सुंदर की, अब तुम
मुसीबत में
पड़े हो।
खुर्दबीन
बता रही है कि
यहां तो सुंदर
कुछ भी नहीं
है। यहां तो
सब कुरूप है।
चमड़ी को
ऊपर-ऊपर से
देखा है, बड़ी
सुंदर है। अब
थोड़ा भीतर घुस
कर देखो। जाकर
अस्पताल में
सूख गये
मरीजों को
देखो, हड्डी,
मांस-मज्जा
जिनकी खो गई, सिर्फ
हड्डियां रह
गईं; वैसी
ही हड्डियां
सबके भीतर
छिपी हैं। या
देखो
अस्थि-कंकाल
को; मेडिकल
कॉलेज में रखा
होगा। वैसा ही
अस्थि-कंकाल तुम्हारी
प्रेयसी और
तुम्हारे
प्रेमी के भीतर
भी है। या खड़ा
कर दो अपनी
प्रेयसी को
स्क्रीन के
आगे और एक्सरे
से देख लो।
तब तुम
क्या कहोगे? जो दिखाई पड़
रहा है वह
सुंदर है, या
कुरूप है? प्रेयसी
वही है, जिसे
कल सुंदर कहा
था, जिसकी
तुलना चांद से
की थी और
जिसकी चमड़ी को
फूलों से तौला
था और समझा था
कि इससे
ज्यादा कोमल,
इससे
ज्यादा फूल
जैसी, कोई
स्त्री नहीं
है। और आज
एक्सरे की
मशीन क्या
धोखा दे रही
है? या
तुम्हारे
प्रेम को नष्ट
करने का तय
किए बैठी है? वह जो तुमने
व्याख्या की थी,
एक्सरे की
मशीन को उस
व्याख्या से
कोई मतलब नहीं
है। जो तुमने
कल देखा था, उसी को तुम
आज और गहरा
करके देख रहे
हो। तुम्हारी
कल की धारणा
मुश्किल में
पड़ रही है। और
जो भी व्यक्ति
धारणा
बनायेगा वह
मुश्किल में
पड़ेगा।
क्यों? क्योंकि
प्रतिपल
देखने का ढंग
बदलता जाता है,
जिंदगी
बदलती जाती है
और धारणा नहीं
बदलती। धारणा
जड़ होकर रह
जाती है। तो
तुम देखते ही
नहीं दूसरे को,
तुम अपनी
धारणा को ही
ढोते रहते हो।
धारणाओं का
जाल आंख पर हो
तो तुलना होती
है।
इस झेन
गुरु ने अपने
शिष्यों को
कहा कि अगर तुमने
इस डंडे को
छोटा डंडा कहा
तो तुम सत्य
का विरोध करते
हो। क्योंकि
सत्य में न
कोई छोटा है न
बड़ा। यथार्थ
में वस्तुएं जैसी
हैं वैसी हैं।
तुलना का कोई
उपाय नहीं। तुलना
बाह्य है, विजातीय बात
है। डंडे के
भीतर न तो
छोटापन है और
न बड़ापन है।
तुम विजातीय,
विदेशी; बाहर
से तौल रहे हो,
और किसी दूसरे
डंडे को भीतर
ला रहे हो।
अगर
इसे तुम कहो
छोटा, तो
तुम किसी बड़े
डंडे को भीतर
ले आये। लेकिन
क्या जरूरत है
छोटा कहने की?
छोटे डंडे
को ले आओ, तो
यही बड़ा हो
जायेगा। क्या
यह हो सकता है
एक ही डंडा
छोटा और बड़ा
हो?
तुमने
अकबर की घटना
सुनी है। उसने
एक लकीर खींच दी
दरबार में और
अपने दरबारियों
को कहा कि
बिना इसे छुए
छोटा कर दो।
बड़ी मुश्किल
में पड़ गये
वे। क्योंकि
उन्हें
बुद्धि का छोटा
सा नियम खयाल
में न होगा।
सब बुद्धिमान
थे और बुद्धि
का छोटा सा
नियम खयाल में
नहीं! बीरबल
उठा और उसने
एक बड़ी लकीर
खींच दी उस
लकीर के पास।
वह लकीर बिना
छुए छोटी हो
गई।
लेकिन
उस लकीर को जब
छुआ ही नहीं
तो वह छोटी कैसे
हो सकती है? लेकिन पूरे
दरबारी राजी
हो गये। अकबर
भी राजी हो
गया, कि
बात हो गई हल; बिना छुए
लकीर छोटी कर
दी गई।
लेकिन
जब लकीर छुई
ही नहीं तो
छोटी कैसे
होगी? तुलना
में छोटी हो
गई। लकीर को
तो कोई देखता
ही नहीं था, अपनी-अपनी
तुलना को
देखता था। यही
लकीर बड़ी हो
सकती थी; छोटी
लकीर खींच दी
जाती इसके
पास।
तुम्हारी
पूरी बुद्धि
तुलना से जीती
है। इसलिए
ध्यान रखो, तुम सदा
अपने से छोटे
आदमियों की
तलाश करते हो।
तुम उन लोगों
को अपने
आस-पास इकट्ठा
करते हो जो
तुमसे छोटे
हैं। क्योंकि
उनके पास
तुम्हें बड़े
होने का सुख
मिल पाता है।
आदमी अपने से
बड़े के पास
जाने से डरता
है। कहते हैं,
ऊंट भी
हिमालय जाने
से डरता है।
ऊंट भी गधे-घोड़ों
के पास रहने
में सुख पाता
है। वहां वह
अकड़ कर चल
सकता है, वह
बड़ा है। छोटी
लकीरें आस-पास
चल रही हैं; तुम्हारी
लकीर बड़ी है।
इसलिए
तुम जरा गौर
करना! तुम किस
तरह के लोगों का
साथ खोजते हो? वे हमेशा
तुमसे छोटे
हैं; चरित्र
में, बुद्धि
में, आचरण
में, सौंदर्य
में तुमसे
छोटे हैं।
उनके बीच तुम
बड़ी लकीर होकर
बड़ा मजा पाते
हो। अहंकार
वही कर रहा है
जो बीरबल
ने किया।
क्योंकि
अहंकार
बुद्धि का
उपयोग करता
है।
और
इसीलिए अगर
कोई तुम्हें
बड़ा भी मिल
जाये; भूल-चूक,
संयोग से, दुर्घटना हो
जाये, कोई
तुम्हें अपने
से बड़ा मिल
जाये, तो
तुम उसे बड़ा
मानने को राजी
नहीं होते।
तुम कुछ न कुछ
तरकीब खोज कर
उसे छोटा करने
के इरादे रखते
हो। अगर वह
आदमी चरित्र
में तुमसे बड़ा
हो और तुम
किसी तरह छोटा
न कर पाओ, तो
तुम कहोगे, 'होगा चरित्र
में लेकिन
बुद्धि...बुद्धि
कुछ भी नहीं
है।' तो
तुम कहीं और
से छोटा
करोगे।
मैंने
सुना है, एक
आदमी ने अपने
किसी मित्र को
कहा कि हमारे
गांव में एक युवक
है, उसकी
बांसुरी गजब
की है; उस
जैसा बजाने
वाला नहीं
देखा। उस
दूसरे आदमी ने
कहा, छोड़ो बकवास! उसको
मैं भलीभांति
जानता हूं, वह निपट चोर
और बेईमान है।
बांसुरी
बजाने से चोरी
और बेईमानी का
कोई भी संबंध
नहीं है। किसी
ने भी कभी
नहीं कहा कि
ईमानदार होने
से बांसुरी
ज्यादा अच्छी
बजेगी। कोई
लेना-देना नहीं
है। लेकिन कोई
बांसुरी
अच्छी बजाता
है इससे भी
अहंकार छोटा
होता है। तुम
जल्दी उसे
कहीं और से
उसकी टांग
खींच देना
चाहते हो; बेईमान, चोर,
वह क्या
बांसुरी बजायेगा!
इसी
आदमी ने एक
फकीर को जाकर
कहा, एक सूफी
फकीर को, कि
मेरे गांव में
एक आदमी है, वह बड़ा
बेईमान और चोर
है। उस सूफी
फकीर ने कहा, इन बातों का
भरोसा मत करो;
उसको मैं
जानता हूं।
होगा चोर, होगा
बेईमान; लेकिन
गजब का बांसुरीवादक
है।
बात तो
वही है। लेकिन
एक ने उसकी
लकीर के नीचे बड़ी
लकीर खींच दी
थी, ताकि
छोटा कर दे।
दूसरे ने उसकी
छोटी लकीर के
नीचे और भी
छोटी लकीर खींची
है ताकि उसे
बड़ा कर दे।
तुम
ध्यान रखना, तुम दूसरों
को छोटा करने
में आतुर हो, तो तुम
अहंकार को बढ़ाये
चले जाओगे।
अगर तुम
दूसरों को बड़ा
करने में आतुर
हो, तो
तुम्हारी
विनम्रता बढ़ेगी।
लेकिन
दोनों की
तरकीब एक ही है।
बड़ी लकीर
खींचो या
छोटी। एक से
तुम असाधु हो
जाओगे, एक
से साधु; लेकिन
संत तुम दोनों
से न हो
पाओगे।
क्योंकि दोनों
ही हालत में
तुम तुलना
जारी रखते हो।
या तो तुम
कहते हो, वह
चोर-बेईमान
कैसे बांसुरी बजायेगा? या तुम कहते
हो, कैसे
वह चोर और
बेईमान होगा?
इतना अच्छा
बांसुरी
बजाता है।
दोनों ही
बातें गलत हैं।
क्योंकि
अच्छी
बांसुरी
बजाने से चोरी
में कोई बाधा
नहीं पड़ती। ना
ही चोर होने
से बांसुरी
बजाने में कोई
बाधा पड़ती है।
दोनों आयाम बिलकुल
अलग हैं। और
दोनों की
भ्रांति एक
है।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं, साधु और
असाधु, अच्छे
और बुरे लोग, सज्जन और
दुर्जन, उनकी
भ्रांति
अलग-अलग नहीं
है। उनकी
भ्रांति एक ही
है कि दोनों
तुलना करते
हैं। संत वह
है, जो
तुलना छोड़
देता है। जो
तथ्य को वैसा
ही स्वीकार कर
लेता है; बिना
किसी तथ्य को
भीतर लाये, बिना किसी
लकीर को
खींचे।
अकबर
के दरबार में
बुद्धिमान
लोग थे।
उन्होंने बड़ी
कोशिश की कि
बिना मिटाये
कैसे छोटा कर
दें लकीर को!
वे न कर पाये।
वे
आर्थाडाक्स, परंपरावादी
बुद्धिमान
थे। बीरबल
भी बुद्धिमान
था, सिर्फ
मौलिक
बुद्धिमान था;
थोड़ा
क्रांतिकारी
बुद्धिमान
था। उसने तरकीब
खोज ली। बाकी रूढ़-चुस्त
थे। वह जरा
लीक से हट
गया। वे दोनों
एक जैसे थे, कोई भेद
नहीं है।
क्योंकि
दोनों ने ही
तुलना पर जोर
दिया।
अगर यह
शुजान
रहा होता अकबर
के दरबार में, वह कहता कि
इस लकीर को न
छोटा किया जा
सकता, न
बड़ा। इसको तुम
छोटी भी कर दो
तो भी छोटा
नहीं किया जा
सकता। इसको
तुम बड़ी भी कर
दो तो भी बड़ा
नहीं किया जा
सकता। क्योंकि
यह लकीर अगर
अपने ही भीतर
है, अपनी
आत्मा में है,
तो जैसी है
वैसी है।
छोटा-बड़ा तो
बाहर की तुलना
है, बाहर
की तुलना को
भीतर क्यों
लाते हो? भीतर
सत्य है।
तुलना से एक
असत्य का जगत
पैदा होता है।
इसलिए शुजान ने
कहा, अगर कहा
कि छोटा डंडा,
तो तुम इसके
सत्य का विरोध
करते हो। इतनी
ही बात होती, तो अड़चन न
थी। उसने
दूसरी भी बात
कही और तब उलझन
बढ़ जाती है।
उसने कहा, और
अगर इसे छोटा
डंडा नहीं
कहते तो तुम
इसके तथ्य को अस्वीकारते
हो। तथ्य तो
यही है कि
छोटा डंडा है।
तथ्य
और सत्य का
अर्थ समझ लें।
सत्य का अर्थ
है, वस्तु
जैसी स्वयं
में
है--आत्मगत।
और तथ्य का अर्थ
है, वस्तु
जैसी और
वस्तुओं के
बीच में--संसारगत।
सत्य का अर्थ
है, वस्तु
जैसी अपने में
है। और तथ्य
का अर्थ है, वस्तु जैसी
वस्तुओं के
बीच। तथ्य
सांसारिक बात
है। तथ्य में
तो तुलना होगी,
सत्य में
तुलना नहीं
होगी।
अगर
झेन फकीर पहली
ही बात कहता
तो हल हो जाता
मामला। शिष्य
कह देता कि
ठीक है। अगर
आप कहते हैं
कि इस डंडे को
छोटा डंडा
कहने से सत्य
का इंकार होता
है तो हम
सिर्फ 'डंडा'
कहेंगे। हम
न कहेंगे, 'छोटा
डंडा।'
लेकिन
वह गुरु कहता
है अगर तुमने
छोटा डंडा न
कहा, तो भी तो
भूल हो रही है,
क्योंकि यह
छोटा है।
डंडों के बीच
में इसका संबंध
है। यह अकेला
तो नहीं है।
चाहे तुम कहो
या न कहो। इस
जगत में कोई
भी चीज अकेली
नहीं है, और
चीजों से जुड़ी
है। सब चीजें
सारी चीजों के
साथ अंतर्संबंधित
हैं: एक इंटर-रिलेशनशिप।
कोई
कहे या न कहे
कि घास छोटा
है और पीपल का
वृक्ष बड़ा है; इससे क्या
फर्क पड़ता है?
कहो या न
कहो, घास
छोटी होगी, पीपल का
वृक्ष बड़ा है।
न भी कहो तो
भी। कोई भी न कहे,
आदमी न हो
इस संसार में,
तो भी। तो
भी पीपल का
वृक्ष बड़ा है
और घास छोटी है।
क्योंकि पीपल
का वृक्ष और
घास अकेले
नहीं हैं, जुड़े
हैं। कहने का
ही सवाल नहीं
है।
तो
तथ्य का अर्थ
है: वस्तुओं
के अंतर्संबंध; और सत्य का
अर्थ है, वस्तु
का अपना होना।
और हम किसी
वस्तु को उसके
स्वभाव में तो
जान ही नहीं
सकते।
क्योंकि स्वभाव
में तो सिर्फ
प्रवेश अपने
ही हो सकता
है। किसी
दूसरे के
स्वभाव में
प्रवेश नहीं
हो सकता।
इसलिए, जर्मनी में
एक बहुत बड़ा
विचारक हुआ, इमैनुअल कांट; उसके
पूरे
जीवन-दर्शन का
आधार एक छोटा
सा शब्द है।
और वह है, 'थिंग इन
इटसेल्फ',
'वस्तु जैसी
अपने में है।'
इमैनुअल कांट कहता
है, जानी
नहीं जा सकती कि
वस्तु कैसी
अपने में है।
जानने का एक
ही उपाय है कि
वस्तु दूसरी
वस्तुओं के
साथ किस भांति
संबंधित है।
और जानने का
कोई उपाय ही
नहीं है। अगर
तुमने कोशिश
की कि हम
वस्तु जैसी
अपने में है
वैसी ही
जानेंगे तो
तुम कुछ भी न
जान पाओगे।
क्योंकि तुम
वस्तु के भीतर
प्रवेश कैसे
करोगे? तुम
सदा बाहर हो।
तुम
कहते हो 'गुड़
मीठा है।' क्या
मतलब हुआ? क्या
गुड़ अपने आप
में मीठा है? या तुम्हें
मीठा लगता है?
बड़ा
मुश्किल है
जानना कि गुड़
अपने आप में
कैसा है? क्योंकि
जब तक तुम चखोगे
न, जानोगे
कैसे? और
जैसे ही तुमने
चखा, तुम
भीतर आ गये। गुड़
तुम्हें मीठा
लगता है। 'गुड़
मीठा है' यह
कहना ही मत।
और अक्सर ऐसा
हो जाता है कि
तुम बीमारी से
उठे हो और
मुंह का स्वाद
कड़वा है, तो
गुड़ उतना मीठा
नहीं लगता; कड़वा भी लग
सकता है।
तो गुड़
मीठा है यह
तुम्हारे और
गुड़ के बीच का
संबंध हुआ। यह
एक तथ्य है, सत्य नहीं।
गुड़ अपने-आप
में कैसा है; कोई भी नहीं
जानता। कोई
कभी भी नहीं
जानेगा। गुड़
बोलता नहीं, उसके स्वाद
का जब भी पता
चलेगा, किसी
दूसरे के
संबंध में।
ये
वृक्ष हरे हैं, यह हम कहते
हैं। ये वृक्ष
हरे हैं, पक्का
नहीं। कोई
नहीं जानता, जब सब आदमी
यहां से चले
जाते हैं, तब
भी वृक्ष हरे
रहते हैं कि
नहीं रहते
हैं। तुम
कहोगे क्या
फिजूल की बात!
और दार्शनिक
फिजूल की
बातों में
उलझे रहते हैं
ऐसा नहीं है।
बड़ा भारी
विवाद रहा है
सारी दुनिया
के दर्शन में,
कि वृक्ष, जब आदमी हट
जाते हैं तब
हरे होते हैं
कि नहीं? जब
देखने वाला
नहीं होता तब
वृक्ष हरा
होता है? गुलाब
का फूल लाल
होता है?
और अब
तो फिजिक्स
की खोजें कहती
हैं कि नहीं, जब तुम हटे
तभी रंग हट
जाता है।
क्योंकि रंग,
आंख और
वस्तु का
संबंध है।
वृक्ष हरा
दिखाई पड़ रहा
है; इसलिए
नहीं कि वृक्ष
हरा है। सूरज
की किरणें पड़
रही हैं। और
हर किरण में
सात रंग हैं।
इसलिए इंद्रधुनष
बन जाता है।
जब सातों रंग
टूट जाते हैं
तो इंद्रधनुष
बनता है। सूरज
की किरण में
सात रंग हैं।
और जब भी किरण
किसी वस्तु पर
पड़ती है तो
कुछ सात
किरणों में से,
कुछ किरणें
तो वस्तु पी
लेती है और
कुछ छोड़ देती
है, कुछ का
त्याग कर देती
है। ये जो
वृक्ष हरे
दिखाई पड़ रहे
हैं, इन
वृक्षों ने
हरे रंग की
किरण छोड़ दी
है, त्याग
कर दिया है।
बाकी छः रंग
की किरणों को
पी गये। वह जो
हरे रंग की
किरण छूट गई, वह तुम्हारी
आंख पर पड़ रही
है। इसलिए
वृक्ष हरे
मालूम पड़ रहे
हैं। अगर ठीक
से कहा जाये, तो वृक्ष हरे
रंग को छोड़ कर
सब रंग के
हैं। सिर्फ
हरे रंग के
नहीं हैं।
क्योंकि हरी
किरण
उन्होंने छोड़
दी है, त्याग
कर दी है।
बाकी सब
किरणें वे पी
गये हैं, वे
उनमें हैं; हरा भर नहीं
है। और इसलिए
हरे दिखाई पड़
रहे हैं।
लेकिन
यह किरण आंख
पर पड़नी
चाहिये, तब
हरा रंग पैदा
होगा। अगर कोई
भी आंख नहीं
है तो वृक्ष
में कोई रंग
नहीं होगा, वृक्ष
रंगहीन हो
जायेंगे।
वृक्ष अपने आप
में रंगपूर्ण
हैं या रंगहीन,
बड़ा
मुश्किल है।
मुश्किल
इसलिए है कि
जब भी तुम
देखने आओगे
तुम्हारी आंख
आ जायेगी।
बिना आंख के
देखने का कोई
उपाय नहीं है।
तुम
कहोगे, हम
कैमरा लगा दे
सकते हैं ऑटोमॅटिक।
वह चित्र ले
ले। कोई देखने
वाला नहीं था।
लेकिन तुम
गलती कर रहे
हो, क्योंकि
कैमरा भी आंख
का एक ढंग है।
वह आंख ही है
यांत्रिक ढंग
से बनाई गई, जो रंग को
पकड़ लेगी।
लेकिन अगर कोई
देखने वाला
नहीं है, तो
सब रंग खो
जाते हैं, वस्तुएं
रंगहीन हो
जाती हैं। रात
को जब तुम
बिजली बुझा
देते हो, सो
जाते हो, तो
तुम्हारे
कमरे के सब
रंग समाप्त हो
जाते हैं; देखने
वाला सो गया।
प्रकाश न रहा,
रंग खतम हो
गया। तुमने
दिन भर सजा कर
जो बड़ी मेहनत
की थी, चित्र
टांगे थे, दीवालों
पर पर्दे
लगाये थे, रंगों
का बड़ा मैच
किया था; वह
सब बेकार गया।
कमरा रंगहीन
हो गया।
कांट
कहता है कि
वस्तुएं अपने
आप में कैसी
हैं, यह तो
जाना ही नहीं
जा सकता, इसलिए
सत्य अज्ञेय
है। हम सिर्फ
वस्तुएं अंतर्संबंधों
में कैसी
प्रगट होती
हैं, उसी
को जान सकते
हैं। 'थिंग्स एज दे एपीयर,'
जैसी वे
प्रतीत होती
हैं।
यही
शंकर का माया
का सिद्धांत
है। शंकर कहते
हैं, जो भी
दिखाई पड़ता है,
सब माया है;
सत्य तो
दिखाई पड़ ही
नहीं सकता।
क्योंकि जो दिखाई
पड़ता है, वह
ऊपर-ऊपर है।
जो भीतर छिपा
है वह दिखाई
नहीं पड़ सकता।
तो झेन
गुरु शुजान
ने कहा कि अगर
तुम कहो कि
डंडा छोटा है
तो तुम इसके
सत्य को इंकार
करते हो। क्योंकि
डंडा अपने आप
में न छोटा है, न बड़ा। और
अगर तुम कहो
कि डंडा छोटा
नहीं है तो तुम
इसके तथ्य को
इंकार करते
हो। क्योंकि
डंडा अकेला
नहीं है जगत
में; और
हजार तरह की
चीजों से जुड़ा
है। डंडे बड़े
भी हैं, बहुत
बड़े भी हैं; उनके बीच
इसकी एक
स्थिति है, एक हायरैरकी
है। जगत में
सब चीजें...।
क्या? किस तरफ ले
जाना चाह रहा
है शुजान?
और तब उसने
तीसरी बात कही
कि अब कहो, तुम
इसे क्या कहना
पसंद करोगे?
यह 'कोआन'
है। इसमें
हो सकता है दस
वर्ष लग जायें
शिष्य को, छः
महीने लगें; शिष्य पर
निर्भर होगा।
अब इस पहेली
को ले जाकर, उसे बैठ
जाना है। और
ढंग है, वह
मैं तुम्हें
समझा दूं।
पहले
तो कोई तीन
महीने तक थिर
बैठने का
अभ्यास करना
पड़ता है। साधक
पहले बैठता है, शरीर को
दोनों तरफ
हिलाता है
जैसे कि हवा
के झोंके में
वृक्ष कंपता
हो। फिर
धीरे-धीरे कंपन
को छोटा करता
है। फिर थिर
हो जाता है।
कंपन इसलिए, ताकि शरीर
में कुछ भी
बेचैनी हो, तो निकल
जाये। और
सिर्फ तुम थिर
बैठ गये; बड़ा
मुश्किल है
थिर बैठना।
सारे शरीर में
न मालूम
क्या-क्या
होना शुरू हो
जाता है। कहीं
पैर दुखता है,
कहीं
झुनझुनी आती
है, कहीं सुइयां
चुभती हैं, कहीं
खुजलाहट
मालूम होती
है--ये सब शरीर
की बेचैनियां
हैं। कोई तीन
महीने लग जाते
हैं साधक को, सिर्फ बैठने
की कला सीखने
में। और वह
आधी कला है।
और जिस
दिन साधक कम
से कम एक घंटा
बिलकुल थिर बैठा
रहता है; जैसे
दीये की
ज्योति थिर हो
गई हो, हवा
का झोंका न
आता हो; ऐसा
थिर हो जाता
है। जब शरीर
बिलकुल थिर हो
जाता है, तभी
एक बड़ी
चमत्कारी
घटना घटती है।
शरीर के थिर
होते ही मन की
गति भी एकदम
कम हो जाती
है। क्योंकि
दोनों जुड़े
हैं। शरीर और
मन एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। इधर
शरीर थिर हुआ;
उधर मन थिर
हो जाता है।
जब मन भी थिर
होने के करीब
आ जाता है, तब
साधक के लिए
यह सवाल उठता
है: यह कोआन, यह पहेली।
वह इस पहेली
को दुहराता
है। और दुहराने
की एक विशेष
विधि है। वह
बड़ी गजब की
विधि है। मगर
करने की कोशिश
मत करना, क्योंकि
तीन महीने
उसके पहले
बैठने की
कोशिश की जाये,
तो ही वह की
जा सकती है।
और वह
यह है कि
पहेली के
एक-एक शब्द को
वह आंख के पर्दे
पर लिखता है।
आंख बंद कर ली
है, चुपचाप
बैठा रहा है, अब वह पहेली
का पहला शब्द
लिखता है--'अगर
तुम इसे छोटा
डंडा कहते हो'--लिखता है।
फिर एक-एक
शब्द को
मस्तिष्क से
गिराता है।
जैसे कि 'अगर'
लिखा; ऊपर
लिखा है
मस्तिष्क पर,
फिर उसे
गिराता है। कि
जैसे वह गिर
पड़ा लिखे हुए
बोर्ड से और
चला गया नाभि
में। और वहां
जाकर बैठ गया--'अगर'। 'तुम इसे
छोटा डंडा
कहते हो'--ऐसा
एक-एक शब्द को
वह मस्तिष्क
से गिराता है
पेट में।
क्योंकि
झेन फकीर कहते
हैं जो
मस्तिष्क से न
सुलझे वह
पेट से सुलझेगा।
क्योंकि जिसे
मस्तिष्क ने
उलझाया है उसे
मस्तिष्क
नहीं सुलझा
सकता। जिसने
बीमारी पैदा की
है, उसी से
इलाज मत
पूछना। वहां
से हटना
पड़ेगा। और झेन
की मान्यता है,
और मान्यता
सत्य है कि
तुम्हारे
अस्तित्व का केंद्र
नाभि है, मस्तिष्क
नहीं। वहीं से
तुम जगत से
जुड़े हो, परमात्मा
से जुड़े हो।
नाभि से ही
बच्चा मां से
जुड़ा होता है।
शरीर भी नाभि
से ही प्राण
पाता रहा है
मां के
द्वारा। और
नाभि से ही
तुम परमात्मा
से जुड़े हो।
अदृश्य जोड़
है। मां का
जोड़ तो कट गया
है, वह जोड़
नहीं कटा है।
क्योंकि वह कट
जाये तो तुम
हो ही नहीं
सकोगे। तो मां
और तुम्हारे
बीच जो नाड़ा
था वह काट
दिया गया है, लेकिन
परमात्मा और
तुम्हारे बीच
जो अदृश्य नाड़ा
है वह नहीं
काटा गया। वह
नहीं काटा जा
सकता, वहीं
से तुम जीवन
पाते हो, वहीं
सब उत्तर हैं;
वहीं सब हल
हैं।
तो, पहले तो
शांत बैठने की
तरकीब है। जब
तुम शांत बैठ
जाओगे तब तुम
एक खाली स्थान
हो जाओगे। मस्तिष्क
से लेकर पेट
तक एक पैसेज, एक
यात्रा-पथ बन
जायेगा। और
फिर एक-एक
शब्द को मस्तिष्क
से गिराना है
पेट में।
धीरे-धीरे तुम
सफल हो जाते
हो, सारे
शब्द पेट में
गिर जाते हैं।
और जिस दिन
सारे शब्द पेट
में गिर जाते
हैं तुम उनको
वहां देख पाते
हो--बस! उनको
वहीं देखते
रहना है।
उत्तर
तुम्हें
खोजना नहीं
है। क्योंकि
तुम जो भी खोजोगे
वह गलत होगा।
क्या करोगे
तुम? या तो
इसको छोटा कहो
या इसको छोटा
न कहो। लेकिन
गुरु ने दोनों
रास्ते बंद कर
दिए हैं; यह
एक डायलेमा
है, जिसको 'मेढ़ा न्याय' कहते
हैं। यह एक
ऐसी उलझन है
कि इस सींग से
बचो तो दूसरा
सींग। उससे
बचो, तो यह
सींग। कुएं से
बचो तो खाई; खाई से बचो
तो कुआं--तुम
करोगे क्या? तुम शायद
सोचोगे कुछ भी
न कहो। तुम तय
करके आ जाओगे
रोज।
रोज
सुबह गुरु के
पास आना पड़ता
है। चौबीस
घंटे मेहनत
करके रोज सुबह
शिष्य गुरु के
पास आता है; वह बैठा है
वहां डंडा
लिए। शिष्य
आकर बोलता है,
निवेदन
करता है कि यह
उत्तर है। तुम
कुछ भी उत्तर
लाओ, बहुत
फर्क नहीं
पड़ता। गुरु
कहता है नहीं,
और मेहनत
करो; अभी
उत्तर नहीं
मिला। तुम कुछ
भी लाओ, वह
गलत होगा।
और जिस
दिन तुम सही
लेकर आओगे उस
दिन गुरु तुम्हारे
कहे बिना कह
देगा। बस, कहने की
जरूरत नहीं, क्योंकि
तुम्हारे आने
से पता चलेगा;
तुम्हारे
कहने का सवाल
नहीं है। तुम
कुछ भी लाओ, तुम बड़े
चिंतित और
परेशान आओगे
कि पता नहीं
यह उत्तर
स्वीकार किया
जाता है या
नहीं। और तुम्हें
पता है कि
सालों तक
उत्तर
अस्वीकार किए
जाते हैं। और
लोग सालों
मेहनत करते
हैं; रोज
उदास होकर
लौटते हैं
गुरु के द्वार
से। फिर कोई
उत्तर लाते
हैं कि हम ऐसा
कहेंगे, हम
ऐसा कहेंगे।
या शायद यह
रास्ता निकल
आये।
बुद्धि
सब तरफ से
खोजती है और
गुरु सब तरफ
से इंकार करता
जाता है। वह
बैठा ही वहां
इसलिए है कि
तुम्हारी
बुद्धि को जरा
भी सहारा नहीं
देगा। तुम थकते
हो, परेशान
होते हो, कई
बार छोड़ने का
मन होता है।
कुछ लोग भाग
जाते हैं बीच
में; जो
भाग जाते हैं
वे भटक जाते
हैं।
कुछ लोग
सोच लेते हैं
यह क्या
पागलपन है? डंडे को
छोटा कहो कि
बड़ा, इसमें
क्या प्रयोजन?
हम
परमात्मा को
खोजने आये थे
न कि डंडों
को--वे भाग
जाते हैं।
लेकिन जब तुम
एक छोटे से
डंडे के सत्य
को नहीं जान
पाते तो तुम
इस विराट अस्तित्व
के सत्य को
कैसे जान
पाओगे? डंडा
भी छोटा नहीं,
क्योंकि
वहां भी उतना
ही बड़ा
परमात्मा
छिपा है। जो
टिके रहते
हैं...।
और
टिके रहना बड़े
से बड़ी कला
है। रोज गुरु
उनको हताश
करता है। कहता
है, 'नहीं, नहीं, यह
भी नहीं। अभी
और मेहनत करो,
किए जाओ।' महीनों-वर्षों
बीत जाते हैं।
सब तरफ से
बुद्धि उत्तर
खोज कर ले आती
है, सब
उत्तर
अस्वीकार हो
जाते हैं।
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, तुम्हें यह
दिखाई पड़ना
शुरू होता है
कि बुद्धि का
कोई भी उत्तर
स्वीकार नहीं
होगा। यह बात
समझ में आनी
शुरू होती है
कि तुमको भी
दिखने लगता है
कि जो भी
मैंने उत्तर
दिए सब बचकाने
थे। एक दिन
तुम्हें यह भी
दिखाई पड़ने
लगता है कि
इसका कोई
उत्तर हो ही
नहीं सकता। यह
दिखाई पड़ना
चाहिए; यह
सोच लो, तो
हल नहीं है।
यह तुम्हारे
पूरे
अस्तित्व को प्रतीत
होना चाहिए कि
नहीं कोई
उत्तर।
तब तुम
एकदम हल्के हो
जाते हो। वह
जो चिंता चलती
थी; साल, दो
साल, तीन
साल और मन
उलझा था, सो
नहीं सकते थे,
रात-दिन एक
ही पहेली
तुम्हें पकड़े
थी, तुम
करीब-करीब
पागल की हालत
में थे; खाते
थे तो पहेली, चलते थे तो
पहेली, स्नान
करते थे तो
पहेली, क्योंकि
उसी पर सारा
जीवन टिका था।
उस एक उत्तर
पर सारा दांव
लग गया था।
एक दिन
तुम अचानक
पाते हो कि वह
सारा तनाव
होते-होते उस
शिखर पर आ
जाता है जिसके
आगे कोई गति
नहीं है। तनाव
की भी एक सीमा
है, और जब
सीमा को छू
लेता है, सब
बिखर जाता है।
तनाव गिर जाता
है। अचानक तुम
पाते हो, तुम
हल्के हो गये।
जैसे तूफान के
बाद सब शांत हो
गया। उस दिन
तुम उठते
हो--आज कोई
उत्तर नहीं
है। आज तुम
कुछ लेकर नहीं
जा रहे हो। आज
तुम्हारी चाल
अलग है।
क्योंकि
चिंतित आदमी
और ढंग से
चलता है। जिसके
मन में कोई
समस्या है और
ढंग से चलता
है। जिसके मन
में कोई उलझन
है, और हल
नहीं होती, उसका
रोआं-रोआं
उलझा होता है;
वह खुद एक
पहेली होता
है।
और तीन
साल तक या दो
साल तक तुम जब
एक ही पहेली में
उलझे रहते हो
तो पहेली
तुम्हारे रोयें-रोयें
में समा जाती
है। तुम उठते
हो तो भयभीत, चलते हो तो
भयभीत; चिंता
तुम्हें
चारों तरफ से
घेरे रखती है।
तुम्हारे
व्यक्तित्व
से जो स्पंदन
उठते हैं वे भी
भय और चिंता
के होते हैं।
और
गुरु के द्वार
पर जाकर तो
तुम कंपने ही
लगते हो, क्योंकि
फिर इंकार
होनेवाला है।
और तुम्हारे
अहंकार को कोई
सहारा नहीं
मिलता। गुरु
कभी नहीं कहता
कि 'ठीक'। वह हमेशा
ही कहता है 'गलत'।
तुम्हारे
अहंकार को
तोड़ने में ही
लगा है। सीढ़ियों
पर तुम पैर
रखते हो, हाथ-पैर
कंपते हैं, तुम डरते हो
कि अब फिर! बड़ी
अपेक्षा लेकर
आते हो कि
शायद यह उत्तर
स्वीकार हो
जायेगा। और सब
अपेक्षायें
टूट जाती हैं।
ध्यान
रखना, जो
गुरु
तुम्हारी
अपेक्षायें
पूरी करें, वे तुम्हें
सत्य तक न
पहुंचा
पायेंगे।
गुरु तो
तुम्हारी
सारी
अपेक्षायें तोड़ेगा।
अपेक्षाओं ने
ही तो तुम्हें
संसार में
डाला है।
तुम्हारी
मांग और
तुम्हारी
इच्छाओं को पूरा
करने के लिए
कोई गुरु नहीं
है। गुरु तो
तुम्हारी
मांग की आदत
को ही तोड़
देने के लिए
है। गुरु तुम्हारे
किसी उत्तर को
स्वीकृति न
देगा। क्योंकि
बुद्धि का कोई
भी उत्तर
तुम्हें भरमायेगा,
भटकायेगा,
पहुंचायेगा नहीं। उसके
कारण ही तुम
जन्मों-जन्मों
भटके हो।
गुरु
बहुत सख्त
होगा, और
जितना योग्य
शिष्य होगा, उतना ज्यादा
सख्त होगा।
जितनी
तुम्हारी क्षमता
बड़ी होगी, उतना
ही गुरु कठोर
होगा। उतना ही
जोर से कहेगा,
'नहीं, भाग
जाओ। यह भी
उत्तर नहीं
है। और इस तरह
के बचकाने
उत्तर लेकर मत
आओ।' और
फिर रोज सुबह
आना ही है।
क्योंकि रोज
सुबह गुरु
प्रतीक्षा कर
रहा है। तुम
उसके द्वार पर
चढ़ते हो, कंपते हो
चिंता से, डरते
हो। फिर वही
होने वाला है,
फिर वही
होने वाला है,
तुम्हारे
अहंकार को
कहीं कोई
तृप्ति नहीं
मिलती।
और जिस
दिन प्रश्न
गिर जाता
है...ध्यान
रखना ये शब्द!
प्रश्न का
उत्तर नहीं
मिलता। जिस
दिन प्रश्न
गिर जाता है, तनाव बिखर
जाता है। तुम
एक शिखर थे
तनाव के, अचानक
सब खो जाता है;
तुम एक खाई
हो जाते हो।
उस दिन
तुम आते हो, तुम्हारी
चाल और!
तुम्हारे
व्यक्तित्व
की धुन और!
तुम्हारे
पैरों में
जैसे घूंघर
बंध गये हैं, कोई अलौकिक
तुम्हारे
चेहरे पर एक
आभा है। अब न
कोई अपेक्षा
है, न तुम
कोई उत्तर
लेकर आ रहे हो,
अब तुम
बिलकुल खाली
और शून्य हो।
तुम
गुरु की सीढ़ियां
चढ़ते
हो...वे ही सीढ़ियां, जो वर्षों
चढ़े थे और कंपे
और डरे थे। वे सीढ़ियां
भी तुम्हारे
पैर के स्पंदन
के फर्क को
समझ लेंगी। आज
तुम अलग हो।
आज भी तुम
द्वार खोलते
हो, लेकिन
आज तुम्हारे
हाथों में
पसीना नहीं
है। आज तुम
कुछ मांग लेकर
नहीं आये। आज
तुम गुरु के
प्रति कोई
अपेक्षा, आशा
लेकर नहीं
आये। आज तुम
कुछ भिखारी
नहीं हो। आज
तुम चिंता से
मुक्त हो। तुम
जाकर चुपचाप झुकते
हो गुरु के
चरणों में, बैठ जाते
हो। आज कोई
उत्तर देना
नहीं है।
ऐसा
तुम सोचकर
नहीं आये हो
कि उत्तर नहीं
देना है। अगर
सोच कर आये तो
व्यर्थ है।
क्योंकि वह
सोच, चिंता
रहेगी, और
गुरु को तुम
धोखा नहीं दे
सकते। जिसको
तुम धोखा दे
दो, वह
गुरु होने
योग्य नहीं है;
उसे तुम
धोखा नहीं दे
सकते।
क्योंकि वह
तुम्हारा...तुम
क्या कहते हो,
वह नहीं
देखता। तुम
क्या हो, उस
पर उसकी नजर
है।
आज
तुम्हारे
भीतर एक फूल
खिला है शांति
का। आज न कोई
प्रश्न है, न कोई उत्तर
है। आज कोई
द्वंद्व नहीं
है। आज तुम
एक-रस हो। आज
कटे नहीं हो।
आज कुछ भी हो, तुम्हें कोई
दुख नहीं दे
सकेगा। आज
गुरु हां कहे,
ना कहे, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। आज
स्वीकार-अस्वीकार
सब बराबर है।
आज तुम चुपचाप
आकर बैठ गये
हो।
जिस
दिन ऐसा घटता
है, उस दिन
गुरु कहता है,
'हुआ! हो गया!
तुम्हारी
पहली समाधि
फलित हो गई।'
पहली
समाधि स्वाद
है। वह खो
सकता है।
इसलिए अब उसे
सम्हालना
होगा। पहली
समाधि झलक है।
अभी तुम सिद्ध
नहीं हो गये
हो। तुमने दूर
से शिखर को
देखा है।
लेकिन जिसने
देख लिया, वह आज नहीं
कल पहुंच
जायेगा। पर
पहली समाधि, पहली
अनुभूति है।
अब ईश्वर कोई
बौद्धिक समस्या
नहीं है। रस
तुम्हें आ गया
है।
अभी तक
तुम खींचते थे, धक्का देते
थे अपने को, चलाते थे, संकल्प करते
थे, अब
संकल्प की कोई
जरूरत न रही।
अब तुम खींचे जाओगे;
रस
खींचेगा। अब
परमात्मा एक
गुरुत्वाकर्षण
है, अब तुम
खींचे चले
जाओगे; अब
तुम बढ़ोगे।
अब तक यात्रा
तपश्चर्या थी;
अब यात्रा
एक महाभोग
होगी। अब तक
श्रम था, अब
श्रमहीन, श्रममुक्त,
इफर्टलेस;
अब कोई
प्रयत्न न
होगा। जिस दिन
तक तुम उत्तर देते
रहोगे, उस
दिन तक तुम
गलती करते
रहोगे। जिस
दिन तुम
निरुत्तर आ
जाओगे, खाली
बिलकुल, उसी
दिन गुरु
पहचान लेगा, बात हो गई।
कोआन
एक पद्धति है
ध्यान
की--कठिन।
क्योंकि शुद्ध
मन के ही साथ
संघर्ष है। न
आसन, न
व्यायाम, न
कुछ और। शुद्ध
मन के साथ
सीधी लड़ाई है।
और मन बड़ा
चालाक है। वह
तुम्हें सब
तरह के उत्तर
देगा। वह
कहेगा, यह
ले जाओ, यह
बिलकुल ठीक
है। कह देना
गुरु को कि 'न यह कह सकते,
न वह, हम
चुप ही
रहेंगे।' लेकिन
तुम चुप भीतर
नहीं हो, भीतर
तुम बोल रहे
हो। तुम
अपेक्षा से
तने हो कि
देखो गुरु
क्या कहता है!
हां कहता है
या ना? तुम्हारा
उत्तर अभी आया
नहीं; अन्यथा
तुम तृप्त हो
जाते। गुरु
हां कहे या ना
कहे, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
ऐसे
हजारों कोआन
हैं। अलग-अलग
गुरु अलग-अलग
तरह के कोआन
का उपयोग करता
है। और मजा यह
है कि सब शास्त्रों
में लिखे हैं।
लेकिन फिर भी
तुम उत्तर
नहीं पा सकते।
क्योंकि
उत्तर तो तुम्हें
अपने से पाना
होगा। पहेली
शास्त्र में
लिखी है और यह
भी लिखा है कि
कब...जिन लोगों
ने, जिनके
उत्तर
स्वीकार हुए,
जिनका
व्यक्तित्व
स्वीकार
हुआ--कब गुरु
ने कहा कि हां
ठीक; वह भी
लिखा है।
लेकिन
उससे भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि नकल
तो की नहीं जा
सकती। परमात्मा
के मार्ग पर
नकलची से
ज्यादा और
मुश्किल में
कोई भी नहीं
पड़ता। किसको
धोखा देने का सोच
रहे हो? अस्तित्व
को कोई धोखा
दे सकता है?
एक
गुरु के शिष्य
ने बहुत दिन
तक मेहनत की।
जब कोई उत्तर
न मिला, बहुत
परेशान हो गया,
तो गुरु ने
उससे कहा, इससे
तो बेहतर है
कि तुम मर ही
जाओ। उसने
सोचा, शायद
यही उत्तर है।
वह दूसरे दिन
आया। जैसे ही
गुरु ने देखा,
वह एकदम गिर
पड़ा जैसे कि
मर गया हो।
गुरु ने कहा
कि बिलकुल
ठीक। यह तो
बताओ पहेली का
क्या हुआ? उसने
एक आंख खोली।
उसने कहा, वह
तो अभी हल
नहीं हुआ। तो
गुरु ने कहा, 'नासमझ, बाहर
निकल! मरे हुए
आदमी बोलते
नहीं।'
पर
नकलची, तो
मर भी गया हो
तो बोल देगा।
तुम मरने की
नकल कैसे
करोगे? और
जब मरने तक की
नकल नहीं कर
सकते तो जीने
की नकल कैसे
करोगे? जब
मृत्यु तक की
नकल करना
असंभव है तो
तुम जीवन की
कैसे नकल
करोगे? मृत्यु--जो
कि नकारात्मक
है। जीवन--जो
कि परम-विधेय
है, उसकी
तुम नकल कैसे
करोगे? लेकिन
लोगों ने मरने
की भी नकल की
है, लोगों
ने जीने की भी
नकल की है।
लाखों-लाखों
संन्यासी हैं
जमीन पर। कोई
बुद्ध की नकल
कर रहा है।
कोई महावीर की
नकल कर रहा है, कोई जीसस की
नकल कर रहा
है--पर सब नकल
हैं, अन्यथा
जिंदगी बदल
जाये। जिंदगी
बदलती नहीं
दिखती। मरे
हुए आदमी से
भी पूछो, कि
पहेली का क्या
हुआ? तो वह
भी कहेगा, पहेली
तो हल नहीं
हुई। वह भी
याद न रख
सकेगा कि हम
मर गये हैं।
मैं न
मालूम कितने
संन्यासियों
को जानता हूं जिनके
सैकड़ों
शिष्य भी हैं।
जो न मालूम
कितने लोगों
को राह दिखा
रहे हैं, और
जिन्हें खुद
कोई राह नहीं
मिली। जो
एकांत में
मुझसे आकर
पूछते हैं कि
कुछ बतायें, हमारा तो
जीवन खोया जा
रहा है। और
तुम कम से कम इतनी
ईमानदारी तो बरतो कि
दूसरों को राह
मत बताओ।
क्योंकि जो
तुम्हें मिला
है वह तुम
दूसरों को
कैसे बताओगे?
लेकिन
शास्त्रों
में सब लिखा
है। उसे तुम
पढ़ लेते हो।
नकल में कुशल
हो जाते हो।
और नकल इतनी आसान
है! क्योंकि
कुछ भी तो
नहीं करना
पड़ता। बस, ऊपर का ही
वेश बदल लेना
होता है।
असलियत
महंगा सौदा है, सब दांव पर
लगाना पड़ता
है। अंधेरे की
यात्रा है। वह
जूए जैसा
मामला है। जो
पास है वह
दांव लगाना
पड़ता है और
जिसके लिए तुम
दांव लगा रहे
हो, पता
नहीं वह
मिलेगा या
नहीं मिलेगा।
कोई गारंटी भी
नहीं है। हो
सकता है जो
पास है वह भी
खो जाये। वह
जो दूर था, वह
दूर ही रहे।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
धर्म का
रास्ता जुआरी
का रास्ता है।
वह कोई
दूकानदार का
रास्ता नहीं है, जो दो-दो
पैसे का हिसाब
लगाता है। वह
जुआरी का रास्ता
है, जो सब
लगा देता है।
और जिस चीज के
लिए लगा रहा है,
मिलेगी या
नहीं मिलेगी,
कुछ भी
पक्का नहीं
है। सब खो
जायेगा: इतनी
जो हिम्मत
रखता है, इतना
जिसका
दुस्साहस है,
वही धर्म के
मार्ग पर चल
पाता है। कमजोरों
का वह रास्ता
नहीं है। बड़ी
हिम्मत
चाहिए।
लेकिन
अगर तुम गौर
से देखो तो
तुम्हें
हिम्मत मिल
जायेगी।
क्योंकि जो
तुम्हारे पास
है वह है भी
क्या? उसको
दांव पर भी
लगा दिया तो
क्या खोने
वाला है? तुम्हारे
पास आत्मप्रवंचनाओं
के अतिरिक्त
क्या है? तुमने
सब तरह के झूठ
इकट्ठे कर लिए
हैं। इसको थोड़ा
समझ लो।
पश्चिम
का एक बहुत
बड़ा
मनोवैज्ञानिक
हुआ, एडलर।
उसने एक
सिद्धांत की
खोज की। वह
सिद्धांत है,
'इनफीरियारिटी कांप्लेक्स',
हीनता की
भाव-ग्रंथि।
वह कहता है, जो लोग
हीनता की
ग्रंथि से पीड़ित
होते हैं, वे
अपने चारों
तरफ महानता के
झूठ इकट्ठे कर
लेते हैं।
क्योंकि वह
हीनता पीड़ा
देती है। उसको
छिपाना जरूरी
है। उसको
छिपाया जा
सकता है विपरीत
से ही।
तो जिस
आदमी को डर है
कि मैं कमजोर
हूं, वह
राजनीतिज्ञ
हो जायेगा।
जिस आदमी को
डर है कि धन के
बिना मैं कुछ
भी नहीं हूं, वह आदमी
कृपण हो
जायेगा और धन
इकट्ठा करने
में पागल हो
जायेगा। वह धन
इकट्ठा
तुम्हारे लिए
नहीं कर रहा
है, वह
अपने को ही
भरोसा दिलाना
चाहता है कि
मैं निर्धन
नहीं हूं। और
पदों की जो
यात्रा कर रहा
है वह भी
तुम्हारे लिए
नहीं कर रहा
है, वह
अपने लिए ही
कर रहा है; ताकि
सिद्ध कर ले
अपने सामने कि
मैं कोई कमजोर
नहीं हूं।
मुझसे कमजोर
सारी दुनिया
है, मैं
शक्तिशाली
हूं।
हिटलर
का
मनोवैज्ञानिकों
ने अध्ययन
किया है। वह
सब दृष्टि से
कमजोर आदमी था
और जहां भी गया
वहां असफल
हुआ। एक छोटी
सी असफलता बड़ी
भयंकर हो गयी।
वह
चाहता था एक
आर्ट-स्कूल
में भरती हो
जाये; चित्रकार
बनना चाहता
था। वहां उसे एडमिशन न
मिला, वहां
स्वीकृति न
मिली। वह
धक्का उसे
इतना बुरा लगा,
कि मैं किसी
भी मूल्य का
नहीं हूं। तब
एक ही उपाय
रहा, कि वह
राजनीति में
घुस जाये। और
किसी तरह सिद्ध
कर दे अपनी
आंखों के
सामने कि नहीं,
मेरा भी कोई
मूल्य है।
लेनिन
के पैर छोटे
थे। और जब वह
कुर्सी पर बैठता
था तो जमीन तक
नहीं पहुंचते
थे।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
उन पैरों ने
ही उसकी
जिंदगी को
प्रभावित
किया। और जब
तक वह बड़े से
बड़े सिंहासन
पर न पहुंच
गया, जहां वह
दिखा सके कि
भला मेरे पैर
छोटे हों, जमीन
तक न पहुंचते
हों, लेकिन
सिंहासन तक
पहुंचते हैं।
स्टैलिन
या माओ या मुसोलिनी
या और
राजनीतिज्ञ--अगर
उनके जीवन को
बहुत गहरे से
खोजा जाये तो
तुम उनमें
पाओगे कि कहीं
कोई हीनता की
ग्रंथि है जो
उन्हें महान
होने के लिए
प्रेरित कर
रही है।
क्योंकि महान
हो जायें वे
किसी तरह--जो
आदमी महान है
वह तुम्हारी
फिक्र न करेगा
कि तुम उसे
महान समझते हो
या नहीं। जिस
आदमी में कुछ
है वह
तुम्हारे मत
की फिक्र ही न
करेगा कि तुम्हारा
मत क्या है।
तुम्हारा मत
तो वही पूछता
है जो डरा हुआ
है। जिसे पता
है कि तुम्हारा
मत खोया कि सब
खो जायेगा; वही तुम पर
निर्भर
रहेगा।
यहां
जो लोग भीतर
पीड़ित हैं कि
जिनको
बुद्धिमानी
नहीं है, वे
पंडित हो
जायेंगे।
पांडित्य झूठ
है, जो
अपने चारों
तरफ खड़ा
करेंगे। और हर
आदमी की जिंदगी,
जो उसके पास
नहीं है, उसको
छिपाने के लिए
झूठ खड़ा करने
की जिंदगी है।
मैंने
सुना है एक
महिला, एक
पक्षी बेचने
वाले की दूकान
पर गई। उसने
कहा कि 'मुझे
एक तोता
चाहिए।' लेकिन
उसने कहा, 'म-म-म-म-मुझे
ए-क-क-क तोता
चाहिए।
अ-अच्छा बोलने
वाला।' उस
दूकानदार ने
कहा, 'देवी!
तुम जल्दी
बाहर जाओ।
तोते अगर सुन
लेंगे, सबकी
बोली बिगड़
जायेगी।' मगर
यह स्त्री
अच्छा बोलने
वाला तोता
क्यों चाहती
है? यह खुद
अच्छा नहीं
बोल सकती; तोते
से अपनी कमी
को भरना चाहती
है।
तुम
अपनी जिंदगी
को गौर से
देखना; तुमने
जिन चीजों से
अपनी जिंदगी
को भर लिया है,
ठीक उससे
विपरीत
तुम्हारे
भीतर की हालत
होगी।
दांव
पर क्या लगाना
है? तुम्हारे
पास है क्या? लेकिन तुम
देखते भी नहीं
गौर से।
क्योंकि डर लगता
है, यह भी
पता चल जाये
कि मेरे पास
कुछ नहीं है
तो भी पसीना
आता है, तो
भी डर लगता
है। तो आदमी
माने चला जाता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के रुपये खो
गये थे। और
उसने कई खीसे
बना रखे थे।
जैसा कि अक्सर
कृपण लोग बना
रखते हैं। सब
खीसे उसने देख
लिए
सिर्फ--मैं
उसको देख रहा
हूं कि उसने
एक खीसा बांये
तरफ का नहीं
देखा। और वह
बड़ा परेशान
है। मैंने
उससे कहा कि
तुम एक खीसा
छोड़ दिए? उसने
कहा कि वह मैं
जान कर छोड़
रहा हूं। उससे
कम से कम आशा
तो है कि शायद
वहां हो। सब
तो देख लिए, निराश हो
गया हूं। अब
इसको मैं न
देखूंगा; क्योंकि
अगर उसमें भी
न पाया, सब
आशा टूट
जायेगी।
तुम
डरते हो, जांचने को। क्या है
तुम्हारे पास?
डर यह है कि
अगर कुछ भी न
हुआ; कल तक
कम से कम एक
वहम था, उस
वहम की मस्ती
में ही चल रहे
थे, अब वह
वहम भी टूट
गया। लेकिन
जिस व्यक्ति
को भी सत्य की
खोज करनी हो, उसे वहम तो
तोड़ना ही
होगा। मैं
तुमसे कहता
हूं, झूठ
को ही दांव पर
लगाना है; कुछ
और तुम्हारे
पास है भी
नहीं। बीमारी
को दांव पर
लगाना है; कुछ
और तुम्हारे
पास है भी
नहीं। अज्ञान
को दांव पर
लगाना है; कुछ
और तुम्हारे
पास है भी
नहीं।
माक्र्स
ने अपनी
प्रसिद्ध
किताब
कम्युनिस्ट-मैनिफेस्टो
में अंतिम
पंक्ति लिखी
है--'दुनिया
के मजदूरो,
एक हो जाओ, क्योंकि
तुम्हारे पास
खोने को सिवाय
जंजीरों
के और कुछ भी
नहीं।'
वही मैं
तुमसे कहता
हूं। और
मजदूरों के
पास शायद खोने
को कुछ हो भी, लेकिन
तुम्हारे पास
तो निश्चित
खोने को कुछ भी
नहीं है।
माक्र्स
मजदूरों को
सर्वहारा कहता
है, मैं
नहीं कहता, मैं तुम्हें
सर्वहारा
कहता हूं; जिनका
सब खो गया है।
मजदूरों के
पास भी कुछ है।
और अब तो काफी
है। माक्र्स
को मरे काफी
समय हो गया।
सर्वहारा तो
तुम सभी
हो--मजदूर, अमीर-गरीब
सब! पंडित-मूढ़
सब! बूढ़े-जवान
सब!
स्त्री-पुरुष
सब! सर्वहारा
हो। सब
तुम्हारा खो
गया, कुछ
तुम्हारे पास
नहीं। अगर
दांव पर लगाना
है तो सिर्फ सर्वहारापन
लगाना है। मगर
तुम डरते हो
देखने में कि
मेरे पास कुछ
नहीं। तिजोड़ी
खोलने से डरते
हो, हाथ
कंपता है, क्योंकि
अब तक एक
भरोसा है कि तिजोड़ी
में कुछ है।
आदमी भरोसे से
जीता है। गौर
से देखोगे,
कुछ न पाओगे;
तब दांव
लगाना आसान
है।
और
दांव, जिस
दिन लगाने की
तैयारी हो, उस दिन यह
प्रक्रिया
करने जैसी है;
उस दिन एक
ही काम करने
जैसा है कि
बुद्धि को तोड़ना
है; उसका
वर्तुल भयंकर
है। और सीधे
तोड़ने का कोई
उपाय नहीं, उसे थका ही
डालना पड़ेगा।
बुद्धि को
उसकी पूरी चिंता
तक जाने दो।
उसकी चिंता
इतनी हो जाये
कि तुम झेल न
पाओ, वह
असह्य हो
जाये।
क्योंकि इस
जगत में असह्य
के बिंदु से
ही
क्रांतियां
होती हैं, उसके
पहले कोई
क्रांति नहीं
होती।
तुम
कुनकुने-कुनकुने
हो। तुम्हारी
चिंता भी कुनकुनी
है। तुम अपनी
चिंता को
ठीक-ठाक
सम्हाल कर रखते
हो। तुम अपनी
चिंता को न तो
मरने देते, न मिटने
देते, न
पूरा होने
देते। तुम उसे
बीच में पकड़े
रखते हो। या
तो उसे खत्म
करो या पूरा
जी लो। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि खत्म
करने का एक ही
उपाय है कि
पूरा जी लो।
यह झेन
कोआन चिंता को
पूरा जीने की
विधि है। तुम
इतने चिंतित
कभी भी नहीं
हो जितने इस
तरह के कोआन
के ऊपर धारणा
करने से तुम
चिंतित हो जाओगे।
तुम्हारी
चिंता इतनी बढ़
जायेगी कि वह
दावानल हो
जायेगी। वह कुनकुनी
आग नहीं होगी, उबलता हुआ
भयंकर
विस्फोट
तुम्हारे
भीतर होगा।
तुम्हारा सब
कंप जायेगा।
तुम्हें हर पल
लगेगा कि 'मैं
पागल हुआ, मैं
पागल हुआ, अब
मैं पागल हुआ।'
तब तुम
डरना मत।
इसीलिए सदगुरु
की जरूरत है
कि कोई पास हो, क्योंकि तुम
पागल हो सकते
हो। इसलिए इस
तरह की
विधियां सदगुरु
के सानिध्य
में ही की
जाती हैं।
खतरा है। क्योंकि
पागल तो तुम
हो ही, अभी
कुनकुने पागल
हो। अगर
ज्यादा तेजी
से बढ़ा दिया
कोई काम तुमने,
तुम पागल हो
सकते हो, तुम्हारे
पागल होने की
पूरी संभावना
है। गुरु
चाहिए, जो
तुम्हें पागल
न होने दे।
क्योंकि
मुक्त होने की
और विक्षिप्त
होने की एक ही
प्रक्रिया है।
उनमें फर्क
नहीं है।
विक्षिप्त भी
उसी ढंग से
हुआ जाता है, विमुक्त भी
उसी ढंग से
हुआ जाता है; फर्क आखिर
में है।
विक्षिप्त
वह है, जो
चिंता के कगार
पर पहुंच जाता
है, लेकिन
छलांग नहीं ले
पाता। पहुंच
जाता है आखिरी
बिंदु पर और
वहीं अटक जाता
है, तब
गुरु का डंडा
तुम्हें
धक्का दे सकता
है। तब एक
छोटी सी चोट, जिस पर
तुम्हारा
भरोसा है उसका
छोटा सा धक्का,
उसका कहना
कि कूद जाओ, घबड़ाओ मत, मैं
साथ हूं।
तुम्हारी
बुद्धि तो
कहेगी यह अतल
खाई है; यहां
कूदे कि
गये।
इसलिए
अगर तुमने
बुद्धि की
सुनी तो तुम
वापिस लौट
आओगे। बहुत
लोग आखिरी क्षण
से भी वापिस
लौट जाते हैं।
इसलिए गुरु की
जरूरत है। और
इसलिए गुरु का
जोर है कि
श्रद्धा; क्योंकि
आखिरी क्षण
में वही काम
आयेगी। जब गुरु
कहेगा--कूद
जाओ।
तुम्हारी
बुद्धि तो
कहेगी, यह
खड्ड है। यहां
मरने के सिवाय
कुछ मिलनेवाला
नहीं।
तुम्हारा
प्रेम ही अगर
बड़ा होगा
तुम्हारी
बुद्धि से, तो तुम
कहोगे, जब
गुरु कह रहा
है तो ठीक है।
उसका वचन मान
कर कूद जाना
भी कीमती है, उसके वचन को
तोड़ कर लौट
जाने की बजाय।
तब तुम दांव
लगा पाओगे।
कूदते
ही खाई खो
जाती है। मगर
कूदने के पहले
तक वह है; वह
बुद्धि का
नजरिया है। वह
बुद्धि के द्वारा
देखी गई
व्याख्या है,
खाई वहां है
नहीं।
एक
छोटी सी कहानी
है। मैंने
सुना है एक
आदमी एक पहाड़
के रास्ते पर, एक अंधेरी
रात में भटक
गया। अमावस की
रात! हाथ को
हाथ न सूझे।
बहुत
चीख-पुकार
मचाई, लेकिन
कोई सुनने
वाला भी नहीं।
टटोल-टटोल कर
बढ़ रहा था कि
अचानक देखा कि
एक गङ्ढे
में फिसल गया।
पकड़ कर कोई
झाड़ी लटक गया।
रो रहा है, चिल्ला
रहा है, कोई
सुनने वाला
नहीं। अपनी ही
आवाज गूंज कर
सुनाई पड़ती है,
जो और भयानक
मालूम होती
है। सुबह बहुत
दूर है। रात
बड़ी सर्द है।
हाथ ठंडे हुए
जा रहे हैं।
और लगता है कि
हाथ धीरे-धीरे,
जिस जड़ को
पकड़ कर वह
लटका है, वह
छूट रही है।
और हाथ जकड़ते
जा रहे हैं, जैसे लकवा
लग गया हो। और
अब पकड़ने
की क्षमता
खोती जा रही
है।
उसकी
कठिनाई हम समझ
सकते हैं। वही
कठिनाई है साधक
की, जो आखिरी
घड़ी में आती
है। और आखिर
में उसने देखा
कि हाथ से
जड़ें छूटने
लगीं। अब हाथ
बिलकुल ही
ठंडा हो गया, बर्फ जैसा
जम गया खून, और अब पकड़ने
का कोई उपाय
नहीं है। उसने
कहा, हे
भगवान, गये!
हाथ से जड़ छूट
गई और उस घाटी
में जोर की
खिलखिलाहट की
हंसी गूंजी।
वह आदमी हंस
रहा था। हुआ
यह था कि नीचे
कोई खाई न थी।
नाहक इतनी देर
कष्ट पाता
रहा। नीचे समतल
जमीन थी जिस
पर वह खड़ा हो
गया। लेकिन
अंधेरी रात
में नीचे खाई
दिखाई पड़ती थी,
अंधकार था।
जिस जड़ के
सहारे वह लटका
था, उसने
ही इतनी देर
उसे कष्ट और
नर्क में रखा।
जैसे ही छूट
गई, वह नरक
के बाहर हो
गया।
ऐसी ही
स्थिति है।
ध्यान की
आखिरी घड़ी में
तुम उस जगह आ जाते
हो, जहां खाई
है अनंत।
विचार की
आखिरी जड़ों को
पकड़ कर तुम
अटके हो, लटके
हो। तुम चाहते
हो किसी तरह
बचा लिए जाओ, लौट जाओ।
तुम्हारी
सारी
प्रार्थना
इतना ही कहती
है कि किसी
तरह अपने घर
पहुंच जाऊं।
अब यह ध्यान
इत्यादि की
झंझट में
दुबारा न
पडूंगा।
उस समय
ही चाहिए गुरु
जो तुम्हें
कहे कि छोड़ दो; नीचे
सम्हालने को
मैं खड़ा हूं।
छोड़ दो, नीचे
कोई खाई नहीं
है, वह
तुम्हारे मन
की व्याख्या
है। मरता हुआ
मन तुम्हें
खाई दिखला रहा
है; डरा
हुआ मन
तुम्हें
मृत्यु दिखला
रहा है। वहां
अमृत है; वहां
समतल भूमि है।
श्रद्धा
वहीं...आखिर में
परीक्षा होती
है श्रद्धा
की। और तुम
छोड़ दो अगर
श्रद्धा के
सहारे, तो
तुम वहां
पहुंच जाते हो
जहां से फिर
कोई गिरना
नहीं है। तुम
उस समतल भूमि
को पा लेते हो
जो तुम्हारा
अस्तित्व है।
वहां न
द्वंद्व है, न वहां दो है;
वहां
अद्वैत है।
वहां न छोटा
है कुछ, न
बड़ा है कुछ; वहां एक ही
है। वहां न
क्षुद्र, न
श्रेष्ठ; न
शुभ, न
अशुभ; वहां
एक ही है। दो
में तुलना हो
सकती है, वहां
अतुलनीय है।
उसका स्वाद, जब तक
बुद्धि न जाये,
नहीं मिल
सकता है। और
झेन की
कोआन-प्रक्रिया
बुद्धि से
छुटकारे का एक
बड़ा कारगर
उपाय है।
आज
इतना ही।
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