कुल पेज दृश्य

रविवार, 4 जनवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--3) प्रवचन--50

ध्‍यान का स्‍वाद: योग की उड़ान(प्रवचनदसवां)

दिनांंक  10 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्‍नसार:

1—क्‍या यह बहुत शुभ संकेत है कि पूछने के लिए कोई प्रश्न न रहे?
2—ऐसा कहा जाता है कि मनुष्यता पर महासंकट की घड़ी आती है, तब महाशुभ भी संभव होती। क्‍या आपके निकट आज हमें वही आज हमें वही अवसर मिल रहा है?
3—गंदी के बुद्धत्व के लिए किया गया प्रयास कैसे झु० हो सकेगा?
4—विकास का वह कौन सा बिंदु है जहां रेचन छोड़ा जा सकता है?
5—पतंजलि के युग के बाद, आज के आदमी ने ऊर्ध्‍वगमन की, सब्‍लिमेशनकी क्षमता क्‍यों खो दी है?
6—पतंजलि के अनुसार ध्‍यान योग का सातवां चरण है। फिर आप हमें ध्‍यान में उतरने के लिए क्‍यों जोर देते है?
7—मैैं पिछले जन्‍मों में अनेक बुद्ध पुरूषों से बचता रहा। अब भय लगता है। कि इस देह के छूटने के कारण कहीं आपका साथ न चूक जाये।


पहला प्रश्न :

क्या यह बहुत शुभ संकेत है कि पूछने के लिए कोई प्रश्न न रहे?

 दि सच में ही ऐसा हो कि तुम्हारे पास पूछने के लिए कोई प्रश्न न रहे, तो यह एक अदभुत घटना है। यह मन की सुंदरतम अवस्थाओं में से एक अवस्था है। क्योंकि जब प्रश्न नहीं होते, तो वह प्रश्न—शून्य चेतना ही सारे प्रश्नों का उत्तर होती है। ऐसा नहीं कि तुम को उत्तर मिल जाते हैं, बल्कि सारे प्रश्न गिर जाते हैं। मन तनावहीन हो जाता है; क्योंकि प्रत्येक प्रश्न एक तनाव है, एक चिंता है, एक बेचैनी है।
और कोई भी उत्तर प्रश्न को हल नहीं करेगा। प्रश्न पैदा करने वाला मन समस्या है, प्रश्न नहीं। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल सकता है, लेकिन उस उत्तर द्वारा तुम्हारा प्रश्न पैदा करने वाला मन और हजारों प्रश्न बना लेगा; तुम हर उत्तर को और— और प्रश्नों में बदल लोगे। इससे कुछ हल नहीं होता। हल तभी होता है, जब सारे प्रश्न गिर जाते हैं, जब चेतना प्रश्नों के पार चली जाती है, तुम समझ लेते हो कि पूछने को कुछ नहीं है, उत्तर पाने को कुछ नहीं है। जीवन एक रहस्य है, समस्या नहीं। तुम उसके बाबत कोई प्रश्न नहीं उठा सकते।
तो यदि ऐसा सच में ही हो, तो यह समाधि है। इसी के लिए तो मेरा सारा प्रयास है! तुम्हें उस जगह पहुंच जाना है जहां कोई प्रश्न नहीं उठता। उस मौन में, उस समग्र सुंदरता में, उस शांति में तुम रूपांतरित हो जाते हो : सारी चिंता, सारी पीड़ा मिट जाती है।
लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह स्थिति वास्तविक है? क्योंकि हो सकता है कि तुम प्रश्न पूछ न रहे होओ और प्रश्न भीतर बने रहते हों; तो फिर बेकार है। तब फिर पूछ लेना बेहतर है। यदि मन में प्रश्न हैं और तुम पूछते नहीं, तुम झिझक अनुभव करते हो, तो उससे कुछ फायदा नहीं। तब फिर बेहतर है पूछ लेना और बात खतम कर देना।
ऐसा नहीं है कि पूछने से तुम्हें उत्तर मिल जाएंगे—किसी के पास उत्तर नहीं है, किसी के पास कभी था भी नहीं, किसी के पास कभी होगा भी नहीं। उत्तर असंभव है, क्योंकि जीवन एक रहस्य है। उसे सुलझाया नहीं जा सकता। जितना ज्यादा तुम उसे सुलझाते हो, उतना ही तुम पाते हो कि असंभव है उसे सुलझाना। लेकिन प्रश्न पूछने से, धीरे— धीरे, तुम प्रश्नों की व्यर्थता के प्रति सजग हो जाते हो। फिर एक दिन सजगता के किसी क्षण में, चेतना के किसी बोधपूर्ण पल में, तुम प्रश्नों के पार चले जाते हो। जैसे कि सांप बाहर आ जाता है पुरानी केंचुली से—पुरानी केंचुली पीछे छूट जाती है; सांप सरक जाता है। एक दिन तुम्हारा चैतन्य आगे सरक जाता है और प्रश्नों की वह पुरानी केंचुली पीछे छूट जाती है। अचानक तुम नए होते हो और कुंआरे होते हो—तुम उपलब्ध हो जाते हो। तुम बुद्ध हो जाते हो। बुद्ध—चेतना वह चेतना नहीं होती जिसके पास सारे उत्तर होते हैं, बुद्ध—चेतना वह चेतना है जिसके पास कोई प्रश्न नहीं होते।

 दूसरा प्रश्न :

ऐसा कहा गया है कि बड़े तनावपूर्ण समय में— सामाजिक आर्थिक धार्मिक उथल— पुथल के समय में— विराट शुभ संभव होता है। क्या यह सूत्र इसी घटना की तरफ इंगित करता है जिसका कि हमें यहां पूना में आपके सान्निध्य में अनुभव मिल रहा है?

 हां; संकट की घड़ी बहुत कीमती घड़ी है। जब सब चीजें व्यवस्थित होती हैं और कहीं कोई संकट नहीं होता, तो चीजें मर जाती हैं। जब कुछ बदल नहीं रहा होता और पुराने की पकड़ मजबूत होती है, तो करीब—करीब असंभव ही होता है स्वयं को बदलना। जब हर चीज अस्तव्यस्त होती है, कोई चीज स्थायी नहीं होती, कोई चीज सुरक्षित नहीं होती, कोई नहीं जानता कि अगले पल क्या होगा—ऐसे अराजक समय में तुम स्वतंत्र होते हो, तुम रूपांतरित हो सकते हो, तुम उपलब्ध हो सकते हो अपनी अंतस सत्ता के आत्यंतिक केंद्र को।
यह जेल जैसा ही है : जब हर चीज सुव्यवस्थित होती है तो किसी कैदी के लिए उससे बाहर आना, जेल से भाग निकलना करीब—करीब असंभव ही होता है। लेकिन जरा सोचो भूचाल आया हो और हर चीज अव्यवस्थित हो गई हो और किसी को पता न हो कि पहरेदार कहां हैं और किसी को पता न हो कि जेलर कहां है और सारे नियम टूट गए हों और हर कोई अपनी जान बचा कर भाग रहा हो—तो उस क्षण में अगर कैदी जरा भी सजग हो तो वह बड़ी आसानी से भाग सकता है; यदि वह बिलकुल मूर्ख है, केवल तभी वह इस अवसर को चूकेगा।
जब समाज उथल—पुथल में होता है और हर चीज संकट में होती है, तो एक अराजकता फैल जाती है। इस समय यदि तुम चाहो, तो निकल सकते हो कैद से। यह बहुत आसान है, क्योंकि कोई तुम्हारे पीछे नहीं है। तुम अकेले हो। परिस्थिति ऐसी है कि हर कोई अपनी फिक्र कर रहा होता है—तुम्हारी तरफ कोई नहीं देख रहा होता। यही है घड़ी। चूकना मत इस घड़ी को। बहुत संकट की घड़ियों में लगभग सदा ही बहुत लोगों को बुद्धत्व घटा है। जब समाज बहुत व्यवस्थित होता है और करीब—करीब असंभव ही होता है विद्रोह करना, अतिक्रमण करना, नियमों का अनुसरण न करना, तो बुद्धत्व ज्यादा कठिन हो जाता है—क्योंकि बुद्धत्व है स्वतंत्रता, बुद्धत्व है परम स्वच्छंदता। वस्तुत: वह है समाज से हटना और एक व्यक्ति बनना।
समाज पसंद नहीं करता व्यक्तियों को वह पसंद करता है यंत्र—मानवों को जो लगते तो हैं बिलकुल व्‍यक्‍तियों की भांति, लेकिन व्यक्ति होते नहीं। समाज प्रामाणिक व्यक्ति को पसंद नहीं करता है। उसको पसंद आते हैं मुखौटे, चालबाज, पाखंडी, लेकिन प्रामाणिक व्यक्ति पसंद नहीं आते हैं क्योंकि प्रामाणिक व्यक्ति तो सदा एक झंझट होता है। एक प्रामाणिक व्यक्ति सदा मुक्त होता है।
तुम जबरदस्ती उस पर चीजें आरोपित नहीं कर सकते, तुम उसे कैदी नहीं बना सकते, तुम उसे गुलाम नहीं बना सकते। वह अपना जीवन गंवाना पसंद करेगा, लेकिन वह अपनी स्वतंत्रता खोना पसंद नहीं करेगा। स्वतंत्रता उसके लिए जीवन से भी ज्यादा कीमती है। स्वतंत्रता का मूल्य उसके लिए परम है। इसीलिए भारत में हमने परम अवस्था को कहा है—मोक्ष, निर्वाण। उसका अर्थ है : मुक्ति, आत्यंतिक मुक्ति, परम मुक्ति।
तो जब भी समाज में उथल—पुथल होती है और हर कोई अपनी फिक्र में होता है—स्थिति ही ऐसी होती है—तो बच निकलना। उस घड़ी कारागृह के द्वार खुल जाते हैं, दीवारों में सधे हो जाती हैं, पहरेदारों का कहीं पता नहीं होता—तुम आसानी से भाग सकते हो।
पच्चीस सौ साल पहले यही स्थिति थी बुद्ध के समय। ऐसा सदा वर्तुल में चलता है। पच्चीस सौ साल में एक वर्तुल पूरा होता है। जैसे एक वर्तुल पूरा होता है एक वर्ष में—फिर गर्मियां आ जाती हैं, एक वर्ष का वर्तुल और गर्मियां लौट आती हैं—वैसे ही पच्चीस सौ साल का एक बड़ा वर्तुल होता है। हर बार पच्चीस सौ साल बाद पुराने आधार गिरते हैं; समाज को नए आधार बनाने होते हैं। सारा भवन व्यर्थ हो जाता है, उसे गिरा देना होता है। फिर आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सारे व्यवस्था—तंत्र अस्तव्यस्त हो जाते हैं। नए का जन्म निकट होता है; एक प्रसव—पीड़ा होती है।
दो संभावनाएं हैं। एक तो संभावना है कि तुम शायद गिरते हुए पुराने ढांचे को ठीक—ठाक करने लगो. तुम समाज सुधारक बन सकते हो और तुम चीजों को ज्यादा मजबूत बनाने में जुट सकते हो। तब तुम चूक जाते हो, क्योंकि कुछ किया नहीं जा सकता. समाज तो मर ही रहा है।
प्रत्येक समाज की एक जीवन—अवधि होती है और प्रत्येक संस्कृति की एक जीवन— अवधि होती है। जैसे एक बच्चा पैदा होता है और हम जानते हैं कि वह जवान होगा, का होगा और मरेगा—सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष, ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष। उसी तरह प्रत्येक समाज का जन्म होता है, वह जवान होता है, का होता है और फिर मर जाता है। प्रत्येक सभ्यता जो पैदा होती है, मरती है। ये संक्रांति घड़ियां पुराने की, अतीत की मृत्यु और नए के जन्म की घड़ियां होती हैं। तुम्हें पुराने की फिक्र नहीं करनी है; तुम्हें पुराने ढांचे को सहारा नहीं देने लगना है—वह तो जाने वाला ही है। यदि तुम उसे सहारा दे रहे होते हो, तो तुम उसके नीचे कुचल जाओगे। तो यह एक संभावना है कि तुम पुराने ढांचे को सहारा देने लगो। उससे काम न बनेगा। तुम अवसर चूक जाओगे।
फिर एक दूसरी संभावना है कि तुम नए को लाने के लिए शायद कोई सामाजिक क्रांति शुरू कर दो। तो भी, तुम फिर चूक जाओगे अवसर, क्योंकि नए को तो आना ही है। तुम्हें उसको लाने की जरूरत नहीं है। नया तो आ ही रहा है—उसकी चिंता मत लेना, क्रांतिकारी मत बन जाना। नया आएगा ही। यदि पुराना जा चुका है तो कोई उसे जबरदस्ती बनाए नहीं रख सकता है। और यदि नया मौजूद है और समय आ गया है और बच्चा गर्भ में तैयार है, तो बच्चा पैदा होगा ही। तुम्हें बच्चे को गर्भ के बाहर खींचने की जरा भी जरूरत नहीं है। बच्चा तो पैदा होगा ही, उसकी कोई फिक्र मत करना।
क्रांति अपने से ही होती है; वह एक स्वाभाविक घटना है। किसी क्रांतिकारी की जरूरत नहीं है। तुम्हें किसी को मारने की जरूरत नहीं है, वह स्वयं ही मरने वाला है। यदि तुम सामाजिक क्रांति में लग जाते हो—तुम कम्युनिस्ट हो जाते हो, समाजवादी हो जाते हो—तो तुम चूक जाओगे।
ये दो संभावनाएं हैं जहां तुम चूक सकते हो। या फिर तुम संकट की इस घड़ी का उपयोग कर सकते हो और रूपांतरित हो सकते हो। उपयोग कर लो इसका अपने व्यक्तिगत विकास के लिए। इतिहास की संकटकालीन घड़ी जैसा अवसर दूसरा नहीं होता; हर बात तनावपूर्ण होती है और बदल रही होती है, और हर बात एक निश्चित घड़ी तक, एक शिखर तक आ चुकी होती है, जहां से घूमेगा चक्र। उपयोग कर लेना इस द्वार का, इस अवसर का, और रूपांतरित हो जाना। इसीलिए मेरा जोर व्यक्तिगत क्रांति के लिए है।

 तीसरा प्रश्न :

इन दिनों जन्म से लेकर मृत्यु तक हर बात राजनीति द्वारा नियंत्रित निर्देशित आदेशित प्रभावित प्रशासित और परिचालित की जा रही है। तो जब तक राजनीति ठीक नहीं हो जाती सारे धार्मिक और वैज्ञानिक प्रयास व्यर्थ हो सकते हैं क्योंकि यदि आज संसार में अराजकता और अव्यवस्था है पीड़ा और दुख है तो केवल गंदी राजनीति के कारण ही; क्या ऐसा नहीं है?

प्रश्न दो भागों में है। मनुष्यता गंदे राजनीतिज्ञों के कारण गंदी नहीं है, गंदे राजनीतिज्ञ हैं गंदी मनुष्यता के कारण। तुम्हें इसे ठीक से समझ लेना है। जिम्मेवारी राजनीतिज्ञों पर मत डालना, वे तुम्हारा ही प्रतिनिधित्व करते हैं—और कुछ नहीं। यह बड़ी नासमझी की बात है कि पहले तो तुम उन्हें चुनते हो, फिर तुम उन्हें गंदा कहते हो; और जब तुम उन्हें चुनते हो, तो तुम गंदे से गंदे को चुनते हो। तुम वोट देते हो उनको, और फिर तुम उनको गंदा कहते हो। कैसे टपक पड़ते हैं वे? कहा से आते हैं वे? वे आते हैं तुम्हारे द्वारा। वे तुम्हारे समर्थन, तुम्हारे सहयोग से आते हैं, अगर तुम्हारा उनको समर्थन न मिले, तो वे खो जाएंगे।
तो उनको गंदा मत कहना। यह एक पुरानी तरकीब है मन की : हमेशा दूसरे पर जिम्मेवारी डाल दो और खुद अपराध— भाव से मुक्त हो जाओ। तुम्हीं हो वास्तविक अपराधी। यदि गंदे राजनीतिज्ञ हैं, तो वे तुम्हारे गंदे मन के कारण हैं; कहीं तुम्हारे मन में हैं उनकी जड़ें; वहीं से उन्हें पोषण मिलता है। तो राजनीतिज्ञों को बदलने मात्र से कुछ नहीं बदलेगा। हजारों—हजारों वर्षों से आदमी और कुछ नहीं कर रहा है, केवल राजनीतिज्ञों को बदल रहा है; तो भी कुछ हल होता नहीं—क्योंकि व्यक्ति स्वयं को नहीं बदलता है। तुम बदल सकते हो इन राजनीतिज्ञों को, लेकिन फिर आने वालों को कौन चुनेगा? फिर तुम्हीं तो चुनोगे न!
और जब भी कोई राजनीतिज्ञ सत्ता के बाहर हो जाता है, तो वह बड़ा सुंदर, भला, निर्दोष लगता है, क्योंकि बिना सत्ता के तुम गंदे नहीं हो सकते। गंदे होने के लिए तुम्हें सत्ता चाहिए। इसलिए जब भी कोई राजनीतिज्ञ सत्ता में नहीं रहता तो वह बड़ा विनीत, बड़ा पुनीत जान पड़ता है। जरा उसे सत्ता में पहुंचा दो और तुरंत वह रूपांतरित हो जाता है, वह वही व्यक्ति नहीं रह जाता है। क्योंकि राजनीति है सत्ता की दौड़। वह व्यक्ति सत्ता के पीछे भाग रहा है, तो उसे विनीत होना पड़ता है तुम्हें विश्वास दिलाने के लिए, तुम्हें फुसलाने के लिए, कि वह विनम्र आदमी है, साधु आदमी है। एक बार वह सत्ता में आ जाता है, तो फिर वह तुम्हारी फिक्र नहीं करता।
असल में, उसने कभी की ही न थी फिक्र, वह तो मात्र एक खेल खेल रहा था तुम्हारे साथ।
वह फुसला रहा था तुमको, शोषित कर रहा था तुमको। अब उसने पा लिया अपना लक्ष्य तो क्यों करेगा वह तुम्हारी चिंता? कौन हो तुम? वह तुमको पहचानता भी नहीं! अब इतने दिनों से संजोया स्‍वप्‍न, यह सत्ता उसके हाथ आई है, वह उपभोग करता है उसका। तब तुम उसे गंदा कहने लगते हो। और तुम सदियों से बदलते आ रहे हो राजनीतिज्ञों को—और कुछ भी बदला नहीं। अब स्वयं को बदलों। बहुत हुआ—ऐसे ही बहुत समय हुआ—अब तुम्हें समझ लेना है कि कोई सामाजिक क्रांति क्रांति नहीं हो सकती। ज्यादा से ज्यादा वह तुम्हें एक कामचलाऊ मुक्ति दे सकती है, लेकिन वह कुछ भी नहीं है, किसी मूल्य की नहीं है। जब तक तुम न बदलों, कुछ नहीं बदल सकता। मनुष्य को, व्यक्ति को ही बदलना है।
और प्रश्न का दूसरा भाग। तुम सोचते हो कि आजकल, इन दिनों जन्म से लेकर मृत्यु तक हर बात राजनीतिज्ञों द्वारा नियंत्रित, निर्देशित, आदेशित, प्रभावित, प्रशासित और परिचालित की जा रही है।
क्या तुम कोई ऐसा समय जानते हो, जब कि ऐसा नहीं था? तुम इसे क्यों कहते हो, 'इन दिनों?' ऐसा सदा ही था; सदा ही मनुष्य को निर्देशित किया गया है, नियंत्रित किया गया है। असल में आजकल तो नियंत्रण इतना मजबूत नहीं है, इसीलिए प्रश्न उठा है। राम के समय में प्रश्न भी नहीं उठ सकता था—नियंत्रण पूरा था। और पीछे जाओ, और इतना नियंत्रण था कि तुम प्रश्न भी नहीं पूछ सकते थे। अब तुम प्रश्न पूछ सकते हो, क्योंकि नियंत्रण थोड़ा शिथिल हुआ है। तुम प्रश्न उठा सकते हो; कम से कम इतनी स्वतंत्रता तो संसार में आई है। और पीछे जाओ तुम, लोगों को और ज्यादा बंधा हुआ पाओगे।
अतीत में कभी कोई स्थिति ऐसी नहीं रही है, जैसी कि आज है। अभी तक तो यही सर्वश्रेष्ठ है। अब तक की घड़ियों में यह घड़ी सर्वश्रेष्ठ है जिसे तुम जी रहे हो। और ऐसा ही होना भी चाहिए। अतीत कुछ बेहतर न था वर्तमान से—हो नहीं सकता। अब कम से कम स्वतंत्रता का एक दिखावा तो है संसार में. कम से कम तुम्हें बोलने तो दिया जाता है; कम से कम तुम्हें इजाजत तो है प्रश्न उठाने की। यह बड़ी से बड़ी मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि समझ लेने जैसी है।
उदाहरण के लिए, भारत में शूद्रों का, अछूतो का हजारों वर्षों से अस्तित्व है, लेकिन पिछला इतिहास बताता है कि कभी कोई प्रश्न नहीं उठाया गया उनकी गुलामी के विरुद्ध। क्यों? क्योंकि नियंत्रण पूरा था। नियंत्रण इतना पक्का था, संस्कार इतने गहरे थे, कि वे अनुभव भी न कर सकते थे कि वे बंधन में हैं। कौन करेगा अनुभव? कैसे करोगे तुम अनुभव यदि गुलामी परिपूर्ण हो? तुम सोचोगे. यही जीवन है, तुलना करने के लिए किसी और जीवन की कोई संभावना नहीं है। शूद्रों ने स्वीकार कर लिया कि यही एकमात्र संभावना है। वे इस पृथ्वी पर सर्वाधिक भद्दा जीवन जीए, लेकिन कभी इसके प्रति सजग न हुए। संस्कार बहुत गहरे थे।
संस्कारित करने में ब्राह्मण अति कुशल हैं; और वे अति कुशल होंगे ही, क्योंकि वे इस धंधे के सब से पुराने खिलाड़ी हैं। वे इस व्यवसाय को बहुत पहले से जी रहे हैं। कोई और नहीं जानता उतनी तरकीबें जितनी वे जानते हैं। सारे संसार को ब्राह्मणों से सीखना चाहिए कि मन को कैसे संस्कारित किया जाता है। वे सबसे पुराने ब्रेन—वाश करने वाले लोग हैं। उन्होंने इतने परिपूर्ण रूप से संस्कारित किया कि शूद्रों ने, लोगों के एक बडे समूह ने बिलकुल मान ही लिया कि उनके पिछले जन्मों के बुरे कर्मों के कारण वे दुख भोग रहे हैं; तो कहीं कोई प्रश्न ही नहीं उठता किसी विद्रोह का—तुम्हें दुख भोगना ही है। यदि तुम दुख भोग लेते हो चुपचाप, तो संभावना है कि अगले जन्म में तुम शायद शूद्र न बनो; यदि तुम झंझट खड़ी करते हो, तो अगले जन्म में भी तुम शूद्र बनोगे, इससे भी बदतर। वे केवल एक ही जन्म को संस्कारित नहीं करते थे, जन्मों की पूरी श्रृंखला को संस्कारों में जकड़ देते थे। और शूद्रों को पढ़ने की इजाजत न थी, क्योंकि जब तुम पढ़ने—लिखने लगते हो, तो तुम प्रश्न उठाने लगते हो। उन्हें वेदों के विषय में, शास्त्रों के विषय में कुछ जानने नहीं दिया जाता था, क्योंकि यदि तुम्हें भी वे रहस्य पता चल जाएं जो कि शोषण करने वाले जानते हैं, तो कठिन होगी बात। उन्हें किसी तरह की कोई बुद्धि विकसित करने की इजाजत न थी। वे जीते थे पशुओं की भांति।
वह गुलामी परिपूर्ण थी; और ऐसा ही होता रहा है संसार भर में। पहली बार ऐसा हुआ है कि मनुष्य को थोड़ी स्वतंत्रता मिली है, थोड़ा आकाश मिला है। इसलिए मत कहना 'इन दिनों', क्योंकि उसी 'इन दिनों' में वर्तमान की निंदा होती है और अतीत की प्रशंसा होती है; वह बात ठीक नहीं। वर्तमान सदा बेहतर है। ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि वर्तमान आता है अतीत से. ज्यादा अनुभवी, ज्यादा समृद्ध। भविष्य और अच्छा होगा। लेकिन गुलामी पहले भी रही है और वह सदा से रही है। समाज जीता है संस्कारों द्वारा, वह प्रत्येक व्यक्ति को संस्कारित करता है! विधियां अलग हो सकती हैं—चीन में वे अलग ढंग से संस्कारित करते हैं; रूस में अलग ढंग से, भारत में और अलग ढंग से—लेकिन संस्कारित सभी करते हैं।
तुम क्या सोचते हो, धार्मिक व्यक्ति क्या कर रहे हैं? क्या तुम सोचते हो केवल राजनेता संस्कारित कर रहे हैं लोगों को? धर्म बड़ी से बड़ी राजनीति रहा है संसार में; उसने भी लोगों को संस्कारित किया है। तुम हिंदू कैसे हुए? हिंदू होना या ईसाई होना या मुसलमान होना क्या है? एक संस्कार है। एक बच्चा पैदा होता है : राजनीति तो बहुत देर से पकड़ पाएगी उस बच्चे की गर्दन, जब बच्चा स्कूल जाएगा तब। तब तक वह सात वर्ष का हो जाएगा। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि सात वर्ष की उम्र तक बच्चे के अस्सी प्रतिशत संस्कार पड़ चुके होते हैं। तो कौन डाल रहा है ये संस्कार? मां—बाप, पंडित—पुरोहित, मंदिर, चर्च। एकदम शुरू से ही वे तुम्हारे मन को संस्कारित कर रहे हैं कि तुम हिंदू हो, कि तुम मुसलमान हो, कि तुम ईसाई हो—या कि तुम कम्युनिस्ट हो।
प्रत्येक धर्म की रुचि है बच्चों में, उनको सिखाने में। जैसे ही वे शब्द समझना शुरू करते हैं, उन्हें सिखाना शुरू हो जाता है। तुरंत—क्योंकि एक बार जल्दी सिखाने का अवसर चूक जाए तो खतरा हो जाता है; तुम्हारे अचेतन को पूरी तरह संस्कारित करना होता है। और वे संस्कार तुम्हारे पूरे जीवन को प्रभावित करते हैं। चाहे तुम कुछ भी बन जाओ, वे संस्कार रहेंगे। तुम्हारे व्यवहार को, तुम्हारे मन को प्रभावित करते रहेंगे। यदि तुम हिंदू हो, जन्म से हिंदू हो, तो अध्ययन द्वारा, बौद्धिक समझ द्वारा, दूसरे लोगों से मिलने से, दूसरे धर्मों को, शास्त्रों को जानने से शायद तुम थोडे सजग हो जाओ कि केवल हिंदू ही ठीक नहीं हैं, दूसरे लोग भी सही हैं—कुरान भी ठीक है, केवल वेद ही ठीक नहीं हैं—लेकिन यदि तुम अचेतन में गहरे देखो, तो तुम सदा पाओगे एक सूक्ष्म पक्षपात वेद हमेशा सब से ऊपर होंगे। तुम प्रशंसा करते हो क्राइस्ट की, लेकिन कृष्ण ही सब से ऊपर होंगे!
बर्ट्रेंड रसेल जैसा आदमी भी, जो कि बिलकुल अज्ञेयवादी हो गया था अपने अंतिम दिनों में, धर्म से हट गया था, ईश्वर में या पुनर्जन्म में विश्वास करना छोड़ दिया था—वह स्वयं कहता है कि उसको भलीभांति मालूम है कि इस संसार में बुद्ध सर्वाधिक महान व्यक्ति जान पड़ते हैं; लेकिन केवल बौद्धिक रूप से ही वह कह सका ऐसा, उसका हृदय तो कहता ही रहा—'नहीं, बुद्ध कैसे इतने महान हो सकते हैं—जीसस से ज्यादा महान? यह संभव नहीं।तो वह कहता है, 'ज्यादा से ज्यादा मैं उन्हें बराबर रख सकता हूं। लेकिन मैं ऊंचे नहीं रख सकता बुद्ध को। और मैं बौद्धिक रूप से जानता हूं कि बुद्ध जीसस के मुकाबले बहुत महान मालूम होते हैं।लेकिन वह बचपन की शिक्षा तुम्हारे हृदय को जकड़े रहती है।
तो धर्म तुम्हें संस्कारित करते रहे, राजनेता तुम्हें संस्कारित करते रहे : तुम एक संस्कारित चित्त हो। केवल ध्यान द्वारा संभावना है तुम्हारे मन को अ—संस्कारित करने की। केवल ध्यान ही संस्कारों के पार जाता है। क्यों? क्योंकि प्रत्येक संस्कार विचारों के द्वारा काम करता है। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम हिंदू हो, तो क्या है यह? विचारों का एक बंडल तुम्हें दे दिया गया, जब तुम जानते भी न थे कि तुम्हें क्या दिया जा रहा है। विचारों की एक भीड़—और तुम ईसाई हो जाते हो, कैथोलिक हो जाते हो, प्रोटेस्टेंट हो जाते हो।
ध्यान में विचार तिरोहित हो जाते हैं—सभी विचार। तुम निर्विचार हो जाते हो। मन की निर्विचार अवस्था में कोई संस्कार नहीं रहते. फिर तुम हिंदू नहीं रहते, ईसाई नहीं रहते; कम्युनिस्ट नहीं रहते, फासिस्ट नहीं रहते। तुम कुछ भी नहीं रहते—तुम केवल तुम होते हो। पहली बार सारी संस्कारों की जंजीरें गिर चुकी होती हैं। तुम कैद के बाहर होते हो।
केवल ध्यान ही तुम्हें संस्कार—मुक्त कर सकता है। कोई सामाजिक क्रांति मदद न देगी, क्योंकि क्रांतिकारी फिर तुम्हें संस्कारित कर देंगे—अपने ढंग से। उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई। इससे पहले वह सर्वाधिक रूढ़िवादी ईसाई देशों में एक था। रूसी चर्च सर्वाधिक पुराना चर्च था—वेटिकन से ज्यादा रूढ़िवादी—लेकिन फिर, अचानक, रूसियों ने हर चीज बदल दी। चर्च बंद हो गए—वे स्कूलों में, कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तरों में, अस्पतालों में बदल दिए गए—धार्मिक शिक्षा पर रोक लगा दी गई, और उन्होंने लोगों को कम्युनिज्म के लिए संस्कारित करना शुरू कर दिया। दस वर्षों के भीतर सब नास्तिक हो गए। केवल दस वर्षों में ही! उन्नीस सौ सत्ताईस तक सारा धर्म गायब हो चुका था रूस से; उन्होंने लोगों को एक दूसरे ही ढंग में संस्कारित कर दिया।
लेकिन मेरे देखे बात एक ही है : चाहे तुम किसी व्यक्ति को कैथोलिक के रूप में, ईसाई के रूप में संस्कारित करो या तुम उसे कम्युनिस्ट की भांति संस्कारित करो, मेरे देखे इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि सारी समस्या संस्कारों की है। तुम संस्कारों में बांधते हो, तुम स्वतंत्रता नहीं देते
उसका। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम ईसाई नरक में रहते हो या हिंदू नरक में रहते हो? तुम ईसाई गुलामी में जीते हो या हिंदू गुलामी में जीते हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? कोई फर्क नहीं पड़ता है।
अगर तुम हिंदू जेल में रहते हो तो किसी दिन क्रांति हो जाती है. वे फाड़ देते हैं लेबल, वे नया लेबल लगा देते हैं : 'कम्मुनिस्ट जेल!' और तुम प्रसन्न होते हो और आनंद मनाते हो कि तुम मुक्त हो—उसी जेल में।
केवल शब्द बदल जाते हैं। पहले तुम्हें सिखाया गया : 'ईश्वर है, उसने संसार बनाया'; अब तुम्हें सिखाया जाता है: 'ईश्वर नहीं है, और किसी ने नहीं बनाया संसार को'; लेकिन दोनों ही बातें तुम्हें सिखाई गई हैं। और धर्म सिखाया नहीं जा सकता। वह सब जो सिखाया जा सकता है, राजनीति होगी। इसीलिए मैं कहता हूं : धर्म स्वयं एक बहुत बड़ी राजनीति रहा है अतीत में। और किसी सामाजिक क्रांति की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि सारी क्रांतिया तुम्हें फिर संस्कार देगी।
केवल एक संभावना है : अ—मन को उपलब्ध होने की व्यक्तिगत क्रांति। तुम निर्विचार को उपलब्ध हो जाते हो; तब कोई तुमको संस्कारित नहीं कर सकता, तब सारे संस्कार—बंधन गिर जाते हैं। तब, पहली बार, तुम मुक्त होते हो। तब सारा आकाश तुम्हारा होता है; बिना किन्हीं सीमाओं के, बिना किन्हीं दीवारों के तुम जीवन में गति करते हो। तुम जीते हो, तुम प्रेम करते हो, तुम आनंद मनाते हो, तुम आह्लादित होते हो।

 चौथा प्रश्न :

विकास का वह कौन सा बिंदु है जहां रेचन छोड़ा जा सकता है?

 वह स्वयं ही छूट जाता है जब वह समाप्त हो जाता है। तुम्हें उसको छोड़ने की जरूरत नहीं होती। धीरे—धीरे तुम अनुभव करोगे कि उसमें कोई ऊर्जा नहीं रही। धीरे— धीरे तुम अनुभव करोगे कि तुम रेचन कर रहे हो, लेकिन वे रिक्त चेष्टाएं हैं, ऊर्जा मौजूद नहीं है—असल में तुम दिखावा कर रहे हो रेचन का, अभिनय कर रहे हो; रेचन हो नहीं रहा है। जब भी तुम अनुभव करते हो कि रेचन हो नहीं रहा है और तुम्हें उसे जबरदस्ती करना पड़ रहा है, तो वह गिर ही चुका होता है।
तो तुम्हें अपने हृदय की आवाज को सुनना है। जब तुम क्रोधित होते हो, तो तुम कैसे जानते हो कि कब क्रोध चला गया? जब तुम कामवासना से भरे होते हो, तो कैसे पता चलता है कि अब कामवासना खो गई? क्योंकि उस विचार में अब शक्ति नहीं रहती। विचार हो सकता है मौजूद, लेकिन शक्ति नहीं होती; वह एक रिक्त विचार है। कुछ मिनट पहले तुम क्रोधित थे : अब, तुम्हारा चेहरा शायद अभी भी थोड़ा लाल हो, लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि अब क्रोध नहीं है, ऊर्जा जा चुकी है। यदि तुम अपने बच्चे पर क्रोधित हुए हो, तो तुम मुस्कुरा नहीं सकते, अन्यथा बच्चा तुमको गलत समझ लेगा। तो तुम दिखावा करते हो कि तुम अभी भी क्रोधित हो; हालांकि अब तो तुम हंसना चाहते हो और तुम बच्चे को गोद में उठा लेना चाहते हो; चूम लेना चाहते हो बच्चे को, प्यार करना चाहते हो बच्चे को। लेकिन तुम अभी भी दिखावा कर रहे होते हो। वरना सारा प्रभाव खो जाएगा—वह तुम्हारा क्रोध—और बच्चा हंसने लगेगा और सोचेगा. यह कुछ था ही नहीं। तो तुम दिखावा जारी रखते हो; मात्र एक मुखौटा, लेकिन गहरे भीतर तो ऊर्जा खो चुकी होती है।
ऐसा ही कुछ होगा रेचन के साथ। तुम रेचन कर रहे हो; वह अभी बहुत शक्तिशाली है। बहुत सी दमित भावनाएं होती हैं—उनकी गांठें खुलने लगती हैं, वे ऊपर आने लगती हैं, फूटने लगती हैं। तब बहुत ज्यादा ऊर्जा होती है। तुम चीखते हो—ऊर्जा मौजूद होती है। और चीखने के बाद तुम एक मुक्ति अनुभव करते हो, जैसे कोई बोझ उतर गया। तुम निर्भार अनुभव करते हो। तुम चैन अनुभव करते हो; शांत अनुभव करते हो; विश्राम अनुभव करते हो। लेकिन अगर कोई दमित भाव न हो, तो
तुम कर सकते हो ऊपरी चेष्टाएं—उन चेष्टाओं के बाद तुम थकान अनुभव करोगे, क्योंकि तुम व्यर्थ गंवा रहे थे ऊर्जा। कोई दमित भावना थी नहीं, कुछ भी बाहर नहीं आ रहा था और तुम व्यर्थ ही कूद रहे थे और चीख रहे थे; तुम थकान अनुभव करोगे।
यदि रेचन प्रामाणिक है, तो तुम उसके बाद एकदम ताजा अनुभव करोगे, यदि रेचन झूठा है, तो तुम थकान अनुभव करोगे। यदि रेचन प्रामाणिक है, तो तुम उसके बाद बहुत जीवंत अनुभव करोगे—पहले से ज्यादा युवा, जैसे कुछ वर्ष कम हो गए हों—तुम तीस के थे, अब तुम अट्ठाइस के या पच्चीस के होते हो। कोई बोझ उतर गया, तुम ज्यादा युवा अनुभव करते हो—ज्यादा जीवंत, ज्यादा ताजा। लेकिन यदि तुम मुद्राएं भर बना रहे हो, तो तुम थकान अनुभव करोगे। तुम तीस साल के थे, तो तुम अनुभव करोगे कि पैंतीस साल के हो।
तो तुम्हें देखना होगा। दूसरा और कोई नहीं बता सकता कि तुम्हारे भीतर क्या घट रहा है। तुम्हें देखना होगा। निरंतर देखो कि क्या घट रहा है। दिखावा ही मत किए जाना—क्योंकि रेचन साध्य नहीं है; वह केवल साधन है। एक दिन उसे छोड़ना ही है। उसे ढोए मत रहना। वह नाव की भांति है, उस पार ले जाने वाली नाव. तुम नदी पार कर लेते हो और फिर तुम नाव को भूल जाते हो; तुम उसको अपने सिर पर ही नहीं ढोते रहते।
बुद्ध बार—बार एक कहानी कहा करते थे कि एक बार ऐसा हुआ, पांच मूढ़ों ने नदी पार की। फिर वे सोच में पड़ गए, क्योंकि नाव ने उनकी इतनी मदद की थी। वर्षा का मौसम था और बाढ़ आई हुई थी नदी में और नाव की सहायता के बिना नदी पार करना करीब—करीब असंभव ही था, तो उन्होंने कहा, 'यह नाव इतनी मददगार रही है कि हम इसे कैसे यहां छोड़ सकते हैं? हमें अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित—करनी चाहिए।तो वे बाजार में चले उसे सिर पर रखे हुए। लोगों ने पूछा, 'यह क्या कर रहे हो?' उन्होंने कहा, 'इस नाव ने इतनी मदद की है हमारी, अब इसे हम कैसे छोड़ सकते हैं? हम इसे जीवन भर ढोएंगे तो भी कृतज्ञता पर्याप्त न होगी। इस नाव ने हम लोगों का जीवन बचाया।बुद्ध कहा करते थे, 'उन पांच मूढ़ों की भांति मूढ़ मत होना।
धर्म नाव है; जीवन लक्ष्य है। धर्म नाव है, आनंद मंजिल है। ध्यान रहे, सारी विधियां बस 'विधियां' ही हैं—इस बात को भूलना मत। कोई विधि लक्ष्य नहीं है। एक दिन पतंजलि की पूरी बात छोड़ देनी है, क्योंकि पूरी बात विधि की ही है। और जब पतंजलि पूरे छूट जाते हैं तो अचानक तुम पाओगे, पीछे लाओत्सु छिपे है—वह है मंजिल। मंजिल है 'होना'। करना लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य है होना। सारी विधियां हैं कुछ करने के लिए; वे मदद देती हैं तुम्हें घर तक आने में। लेकिन जब तुम घर में प्रविष्ट हो जाते हो, तब तुम वाहन को भूल जाते हो कि तुम बैलगाड़ी में बैठ कर आए, या गधे पर बैठ कर आए, या नाव में बैठ कर आए। सारी विधियां बाहर छूट जाती हैं. तुम घर आ गए।
ध्यान रहे, तुम रेचन को भी पकड़ ले सकते हो। तुम रेचन ही करते रह सकते हो, और तब वह भी एक आदत, एक पैटर्न बन जाता है। तो इसे पैटर्न नहीं बना लेना है। देखना, जब तक जरूरत हो, जारी रखना। धीरे — धीरे तुम सजग होओगे—यह बड़ी सूक्ष्म बात है, क्योंकि घटना बड़ी सुक्ष्म है —कि अब कोई ऊर्जा नहीं है : तुम चीखते हो, पर चीख में दम नहीं है; तुम कूदते हो, लेकिन तने: प्रयास करना पड़ता है। तब इसे छूट जाने देना. नाव को उठाए मत फिरना।
'विकास का वह कौन सा बिंदु है, जहां रेचन छोड़ा जा सकता है?'
वह स्वयं ही छूट जाता है। तुम तो बस सजग रहते हो और देखते रहते हो उसको। और जब वह छूटने लगे तो चिपकना मत उससे, छूट जाने देना उसको।

 पांचवां प्रश्न :

पतंजलि के युग के बाद आदमी ने सब्लिमेशन की ऊर्ध्वगमन की क्षमता क्यों खो दी है?

 त्यधिक दमन के कारण। इस प्रक्रिया को समझ लेना है। पतंजलि का युग बहुत आदिम था, प्राकृतिक था, नैसर्गिक था; लोग बच्चों की भांति थे, निर्दोष थे। अब हर कोई सभ्य है, सुसंस्कृत है। तुम्हारे भीतर का वह बच्चा दबा दिया गया है, पूरी तरह कुचल दिया गया है। सभ्यता किसी राक्षस की भांति है : वह तुम्हारे भीतर के बच्चे की हत्या कर देती है, उसे मार डालती है। जो भी प्राकृतिक है, विकृत हो चुका है; जो भी प्राकृतिक है, निंदित हो चुका है।
इसके कारण हैं। उदाहरण के लिए प्रत्येक संस्कृति, प्रत्येक समाज को बहुत से युद्धों से गुजरना पड़ता है। यदि कामवासना का दमन न हो, तो सेना नहीं बनाई जा सकती। सैनिक को अपनी कामवासना का दमन करना ही पड़ता है, केवल तभी वह ऊर्जा लड़ने की ताकत बनती है। कोई देश अपने सैनिकों को उनकी पत्नियों और प्रेमिकाओं को युद्ध के मोर्चे पर साथ ले जाने की आज्ञा नहीं देता है—सिवाय अमरीका के। और अमरीका हर जगह हारेगा। क्योंकि तब भीतर कोई इकट्ठी दमित ऊर्जा नहीं रहती। एक सैनिक को चाहिए बेचैन ऊर्जा। अगर उसके साथ उसकी प्रेमिका है या पत्नी है, तो वह संतुष्ट है। फिर वह क्यों लड़ेगा?
क्या तुमने ध्यान दिया? जब भी तुम कामवासना का दमन करते हो तो ज्यादा क्रोध आता है। जरा जाओ और देखो अपने ऋषि—मुनियों को, अपने तथाकथित साधु—संतो को, और तुम उन्हें सदा क्रोधित ही पाओगे। क्रोध उनकी जीवन—शैली हो गई है, क्योंकि वे कामवासना को दबाते रहे हैं। जब तुम कामवासना को दबाते हो तो ऊर्जा धक्के देती है। अगर तुम एक द्वार बंद कर देते हो तो दूसरा द्वार तुरंत खुल जाता है—और वह दूसरा द्वार विकृत ही होगा। पहला प्राकृतिक था। दूसरा द्वार बंद करो, तीसरा खुल जाएगा; वह तीसरा और भी विकृत होगा। और जब तक तुम चौथा खोलोगे, तब तक तुम पागलखाने में पहुंच चुके होगे।
सभी समाज काम—ऊर्जा का उपयोग करते हैं; इसीलिए सभी समाज कामवासना के विरुद्ध हैं। अगर प्रत्येक व्यक्ति की कामवासना तृप्त हो जाए, संतुष्ट हो जाए, सुंदर हो जाए, तो कौन परवाह करता है लड़ने की? तुम हिप्पियों को युद्ध पर नहीं भेज सकते हो। केवल इसी कारण कि वे इतने प्रसन्न हैं, इतने नैसर्गिक रूप से जी रहे हैं अपना जीवन। न केवल वे नहीं जाएंगे, बल्कि वे प्रदर्शन करते हैं झंडियां लेकर— 'प्रेम करो, युद्ध नहीं।और ठीक कहते हैं वे। अगर लोगों को प्रेम करने दिया जाए, तो दुनिया से युद्ध मिट जाएंगे।
यह बड़ी जटिल बात है। जैन धर्म जैसा धर्म भी जो कि अहिंसा सिखाता है, वह भी कामवासना का दमन सिखाता है। यह पागलपन है। अगर कामवासना का दमन किया गया तो युद्ध होगा, हिंसा होगी, क्योंकि ऊर्जा जाएगी कहां? अगर सच में ही दुनिया से युद्ध मिटाने हैं तो कामवासना को स्वाभाविक ढंग से जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। लेकिन कोई समाज इसकी आज्ञा नहीं दे सकता, क्योंकि युद्ध आवश्यक है; वरना दूसरे झपट पड़ेंगे तुम पर। वे यह नहीं सोचेंगे कि तुम अच्छे लोग हो इसलिए तुम्हें झंझट में नहीं डालना चाहिए।
अगर भारत पूरी यौन—स्वतंत्रता दे दे और एक हिप्पी देश बन जाए, तो चीन चढ़ बैठेगा। इसलिए वह संभव नहीं है। अगर चीन छूट देता है, तो भय है कि रूस चढ़ बैठेगा। अगर रूस छूट देता है, तो अमरीका प्रतीक्षा में बैठा है। तो सब एक—दूसरे की घात में हैं और कोई भी जीवन को सहज—स्वाभाविक ढंग से खिलने नहीं दे सकता है। प्राकृतिक होना, सहज होना संसार की सर्वाधिक कठिन बात हो गई है।
तो अगर तुम एक बच्चे को शिक्षित करना चाहते हो, तो तुम्हें कामवासना को दबाना पड़ता है। क्योंकि तेरह—चौदह वर्ष के करीब बच्चा यौन के हिसाब से परिपक्व हो जाता है। तब प्रकृति ने उसको दे दी होती है टिकट, अब वह बच्चे पैदा कर सकता है—लेकिन कालेज की पढ़ाई पूरी करनी है। अगर वह विवाह कर ले चौदह वर्ष की अवस्था में, तो डाक्टर कैसे बनेगा वह? इंजीनियर कैसे बनेगा वह? नहीं, उसे डाक्टर बनना ही है। लेकिन डाक्टर बनने के लिए उसे प्रतीक्षा करनी होगी। पच्चीस—छब्बीस वर्ष की उम्र तक वह हो पाएगा इंजीनियर या डाक्टर या प्रोफेसर; तब उसे विवाह की अनुमति मिलेगी—क्योंकि उसी ऊर्जा का तो उपयोग करना है पढ़ाई—लिखाई में।
अगर तुम युवक—युवतियों .को एक ही हॉस्टल में रहने दो, तो यूनिवर्सिटिया गायब हो जाएंगी; वे बनी नहीं रह सकतीं। वे बनी हुई हैं दमन की एक सूक्ष्म प्रक्रिया के कारण। कामवासना का दमन करना होता है, केवल तभी किसी दूसरी चीज के लिए ऊर्जा उपलब्ध होती है। तब युवक और युवतियां अपनी ऊर्जा परीक्षाओं में लगा देते हैं। उनको पसंद नहीं है यह, लेकिन करें क्या? भीतर ऊर्जा मौजूद है।
फिर सारे समाज हस्तमैथुन के विरुद्ध हैं, क्योंकि अगर तुम लड़कियों और लड़कों को एक साथ नहीं रहने देते हो, तो लड़के हस्तमैथुन करेंगे, लड़कियां हस्तमैथुन करेंगी। समाजों को विरुद्ध होना पड़ता है इसके, क्योंकि इससे ऊर्जा खोती है। ऊर्जा को तो जबरदस्ती लगाना होता है यूनिवर्सिटी में; उन्हें इंजीनियर बनना होता है। उन्हें आनंदित नहीं होना होता। तो सभी समाज अपराध— भाव पैदा करते हैं हस्तमैथुन के प्रति। और सारे समाज प्रशंसा करते हैं कि यदि तुम काम—ऊर्जा को सुरक्षित रखो तो तुम बहुत महान हो जाओगे।
निश्चित ही, एक अर्थों में तो महान हो ही जाते हों—महत्वाकांक्षा की दुनिया में महान हो जाते हो। यदि तुमने कामवासना का दमन नहीं किया है तो तुम बड़े राजनेता नहीं बन सकते हो, क्योंकि कौन फिक्र करता है? यह इतनी व्यर्थ की बात है कि कौन जाना चाहता है दिल्ली या व्हाइट हाऊस, वाशिंगटन 1: कोई नहीं फिक्र करता। जरूरत ही क्या है? तुम्हारा छोटा सा घर ही है व्हाइट हाऊस। न, '। सूंदर ढंग से जीते हो और तुम आनंदित होते हो। और क्यों तुम अपना जीवन गवाओगे दिल्ली पाने में या वाशिंगटन जाने में? नहीं, तब तुम बड़े .राजनेता नहीं बन सकते।
काम — ऊर्जा का दमन करना होता है, तभी तुम बनते हो बड़े कलाकार। काम —ऊर्जा को होना
होता है कुंठित, तभी तुम बनते हो बड़े वैज्ञानिक। फ्रायड कहता है कि जिन लोगों की काम—ऊर्जा बहुत ज्यादा दमित होती है, वे वैज्ञानिक बन जाते हैं; क्योंकि रहस्य को उघाड़ने की कोशिश एक कामुक जिज्ञासा है—एक छोटा लड़का जानने की कोशिश कर रहा है कि नग्न लड़की कैसी लगती है; उसे जिज्ञासा होती है।
सारे लड़के दुनिया भर में एक खेल खेलते हैं—'डाक्टर।वे बन जाते हैं डाक्टर और लड़की बन जाती है मरीज—छोटी लड़कियां, छोटे डाक्टर, छोटे मरीज—बस यह जानने के लिए कि वस्त्रों के भीतर लड़की कैसी लगती है। और डाक्टर को अनुमति है; उसे जांचना ही होता है शरीर। यह जिज्ञासा वैसी ही जिज्ञासा है जैसी किसी वैज्ञानिक की जिज्ञासा। यदि कामवासना का दमन किया गया है, तो बाद में वैज्ञानिक हर कहीं छानबीन करने की कोशिश करेगा—प्रकृति को निर्वस्त्र करेगा रहस्यों से पर्दे उठाएगा—कि क्या छिपा है। वह चाहता है कि सारा संसार, सारा अस्तित्व नग्न प्रकट हो जाए, ताकि वह प्रत्येक रहस्य, प्रत्येक स्थान, प्रत्येक कोना जान ले।
यदि कामवासना को जीने की स्वतंत्रता हो.. उदाहरण के लिए संसार भर में आदिम समाज हैं, थोड़े से आदिम समाज। उन्होंने कोई बड़ा वैज्ञानिक नहीं पैदा किया। वे कर नहीं सकते। बस्तर में भारत में, मैंने देखा है आदिवासियों के एक छोटे से समुदाय को। उनके यहां एक छोटा निवास—स्थान होता है, समुदाय का घर, एक 'घोटुल' होता है प्रत्येक गांव में। बारह वर्ष की आयु के बाद प्रत्येक युवक और युवती को उस घोटुल में जाकर सोने की आज्ञा होती है। सारी युवतियां वहां सोती हैं, सारे युवक वहां सोते हैं। और कोई बंधन नहीं होता उनकी काम— भावना पर—वे आनंदित होते हैं। केवल एक शर्त होती है, जो कि अदभुत है, कि कोई युवक किसी युवती के साथ तीन दिन से ज्यादा नहीं रहेगा। ताकि वह गांव की तमाम लड़कियों को जान ले जिससे वह निर्णय ले सके, और प्रत्येक लड़की जान ले गांव के प्रत्येक लड़के को। तो वे निर्णय ले सकते हैं कि उन्हें जीवन भर किसके साथ रहना है। यह बात सच में बहुत सुंदर है—सहज—सरल, और बड़ी मानवीय। हर लड़के को पूरी स्वतंत्रता मिलती है, हर लड़की को पूरी स्वतंत्रता मिलती है—कोई दमन नहीं होता।
एक बार वे जान लेते हैं अपने समुदाय के सभी लड़कों को और सभी लड़कियों को तो निर्णय कर सकते हैं। जब निर्णय कर लेते हैं, तब फिर कोई स्वतंत्रता नहीं रहती। असल में तब कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। वे ऐसे सच्चे प्रेमी होते हैं जैसे तुम्हें संसार में कहीं नहीं मिल सकते। एक बार कोई युवक और युवती विवाह करने का निर्णय ले लेते हैं, तो वे दूसरे युवक और युवतियों को भूल जाते हैं बिलकुल। कोई मतलब नहीं रहता; उन्होंने जान लिया सभी को। और यह उनका अपना चुनाव है। उन्होंने खोज लिया है अपना साथी, खत्म हो गई बात! वे कभी विश्वासघात नहीं करते एक—दूसरे के साथ। ऐसा कभी नहीं हुआ उनके इतिहास में कि कोई पति किसी दूसरी स्त्री के साथ प्रेम करता पाया गया हो या किसी दूसरी स्त्री में रुचि रखता हो या स्त्री छुपे तौर पर प्रेमिका बन गई हो किसी दूसरे की। नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं होता। ऐसा होने की जरूरत ही नहीं रह जाती।
लेकिन उन्होंने कोई बड़े वैज्ञानिक या बड़े कवि या बड़े कलाकार या बड़े योद्धा पैदा नहीं किए। नहीं, उन्होंने किसी तरह के कोई बड़े आदमी नहीं पैदा किए। उन्होंने पैदा किए साधारण सीधे—सादे, सहज आदमी।
असल में सभी तरह की महानता एक तरह की अस्वाभाविकता है, और कहीं न कहीं काम—ऊर्जा का ही उपयोग करना पड़ता है, क्योंकि वही एकमात्र ऊर्जा है।
पतंजलि के समय में लोग सीधे—सादे थे, सहज थे। रेचन की कोई जरूरत न थी : किसी चीज का दमन न था। रेचन के चरण की जरूरत न थी। लेकिन अब हर कोई दमित है। और हर कोई इतने तरीकों से दमित है कि रेचन के कई वर्ष चाहिए, केवल तभी तुम फिर से सहज होओगे। तुमने अचेतन मन में इतना ज्यादा कूड़ा—करकट इकट्ठा कर लिया है कि उसे फेंकना जरूरी है। अभी तुम मार्ग पर नहीं चल सकते—पहले तुम्हें स्वयं को निर्भार करना होगा।
तुम्हें ठीक से समझ लेना है. कि समाज की अपनी जरूरतें हैं, देश की अपनी जरूरतें हैं। जरूरी नहीं है कि वे व्यक्ति की भी जरूरतें हों—यही समस्या है। व्यक्ति की जरूरत है कि वह सुखी हो, आनंदित हो, उसे जो छोटा सा जीवन मिला है उसे आनंद से जीए। यह व्यक्ति की जरूरत है, लेकिन यह समाज की जरूरत नहीं है। समाज को इससे मतलब नहीं है कि तुम सुखी हो कि दुखी हो; समाज चाहता है कि तुम उपयोगी हो, समाज चाहता है कि तुम महान सैनिक बनो ताकि समाज की सुरक्षा के काम आओ, समाज चाहता है कि तुम बड़े वैज्ञानिक बनो क्योंकि विज्ञान शक्ति है। समाज की अपनी जरूरतें हैं। और व्यक्ति की जरूरतें बिलकुल भिन्न हैं।
एक आदर्श समाज में कोई समाज न होगा—केवल व्यक्ति होंगे। एक आदर्श राज्य में कोई राज्य न होगा, कोई शासन न होगा—केवल व्यक्ति होंगे। ज्यादा से ज्यादा एक कामचलाऊ शासन व्यवस्था हो सकती है। उदाहरण के लिए, डाक—व्यवस्था की देख— भाल की जा सकती है किसी केंद्रीय एजेंसी द्वारा। या रेलवे को संचालित किया जा सकता है एक केंद्रीय एजेंसी द्वारा। बस इतना ही। रेलगाड़ियां समय से चलें, डाक—व्यवस्था ठीक से काम करे, बस ऐसी चीजों के लिए सरकार होनी चाहिए। और सरकार को एक नकारात्मक शक्ति होना चाहिए।
जब मैं कहता हूं नकारात्मक शक्ति, तो मेरा मतलब है. सरकार को ध्यान देना चाहिए कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के काम में दखल न दे और दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता में और उसके जीवन में दखल न दे। बस इतना ही। सरकार को अपने नियम नहीं थोपने चाहिए लोगों पर। इतना पर्याप्त है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता हो, अपना काम करने की स्वतंत्रता हो और कोई दखलंदाजी न करे। अगर कोई दखल दे, तो सरकार बीच में आए, अन्यथा नहीं।
लेकिन यह तो एक आदर्श स्थिति, यूटोपिया की बात मालूम पड़ती है। यह शब्द 'यूटोपिया' बहुत सुंदर है। इसका अर्थ है. 'जो कभी होता नहीं।यूटोपिया का अर्थ है ऐसी बात जो कभी होती नहीं, जिसका होना संभव ही नहीं लगता है। बात ही असंभव मालूम पड़ती है।
तो मैं तुम्हें किसी यूटोपिया की कामना करना नहीं सिखा रहा हूं। जो किया जा सकता है, और जो व्यावहारिक है, वह है—होशपूर्ण हो जाना, ताकि तुम इस उपद्रव के बाहर आ जाओ। और तुम कृपा करके दूसरों की चिंता में मत पड़ो, क्योंकि कोई उन्हें उनके उपद्रव से बाहर नहीं ला सकता है अगर वे स्वयं ही बाहर नहीं आना चाहते। अगर वे आनंद ले रहे हैं तो लेने दो उनको आनंद। अगर उन्‍हें सूख मिल रहा है अपने दुख में, तो रहने दो उन्हें दुखी; यह उनकी स्वतंत्रता है। किसी पर कोई चीज थोपने की कोशिश मत करना—यह अनधिकार चेष्टा है, जबरदस्ती है, हस्तक्षेप है।
मेरे देखे, यह हिंसा है। प्रत्येक को अपने जैसा होने दो और अपनी स्वतंत्रता से जीने दो; तब रेचन की कोई जरूरत न रहेगी।
लेकिन अभी तो हर कोई दखल दे रहा है दूसरों के जीवन में; कोई तुम्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहता। और ऐसी सूक्ष्म तरकीबें उपयोग की जाती रही हैं कि जब तक तुम बहुत ही ज्यादा सजग न होओ तुम जान न पाओगे कि किन—किन तरकीबों से तुम्हें गुलाम बनाया गया है।
धर्म कहते हैं कि तुम कहीं भी हो, ईश्वर तुम्हें देख रहा है। इसका अर्थ हुआ : कहीं कोई संभावना ही नहीं अकेले होने की और स्वयं होने की। यह ईश्वर तो पीपिंग टाम मालूम पड़ता है! तुम कहीं भी हों—स्नानघर में भी—वह मौजूद है, तुम्हें देख रहा है। वहां भी तुम गुनगुना नहीं सकते; वहां भी तुम दर्पण में मुंह नहीं बिचका सकते; वहां भी तुम नाच नहीं सकते; नहीं, ईश्वर देख रहा है। और 'ईश्वर' का अर्थ है बहुत गंभीर, कोई बूढ़ा—सफेद बाल, सफेद दाढ़ी, और सदा का उदासीन और गहन—गभीर—और वह देख रहा है!
मैंने सुना है एक नन के बारे में जो बिना कपड़े उतारे ही स्नान किया करती थी। तो किसी ने पूछा, 'यह क्या करती हो तुम? स्नान करते समय तो तुम अपने कपड़े उतार सकती हो।लेकिन उसने कहा, 'ईश्वर हर जगह देख रहा है, तो कैसे मैं नग्न हो सकती हूं? वह बात तो अपमानजनक होगी।लेकिन यदि ईश्वर सब जगह देख रहा है, तो वह तुम्हारे वस्त्रों के भीतर भी देख रहा होगा! तो क्या मतलब हुआ? इसका तो मतलब हुआ कि तुम कहीं भी नग्न हो सकते हो। ईश्वर सब जगह देख रहा है. तुम बच नहीं सकते। भूल जाओ उसके बारे में।
ये सूक्ष्म तरकीबें हैं। समाज ने तुम्हारे भीतर एक अंतःकरण निर्मित कर दिया है, तो कुछ भी तुम करते हो, वह अंतःकरण काम करता रहता है—समाज की सेवा में। और समाज ने तुम्हें सिखा दिया है, 'यह तुम्हारे भीतर की आवाज है।यदि तुम मुसलमान परिवार में पैदा हुए हो, तो तुम चार पत्नियां रख सकते हो और तुम्हारा अंतःकरण कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा—चार तक। पांचवीं के साथ ही खतरा पैदा होगा। पांचवीं पत्नी के साथ ही तुम्हारा अंतःकरण बेचैन होने लगेगा और वह कहेगा, 'यह ठीक नहीं।लेकिन अगर तुम हिंदू हो या ईसाई हो तो केवल एक पत्नी की इजाजत है। दूसरी पत्नी के साथ ही झंझट खड़ी हो जाएगी। तुम्हारा अंतःकरण कहने लगेगा, 'यह गलत है, यह ठीक नहीं, यह अनैतिक है। क्या कर रहे हो तुम? तुम्हें केवल एक ही स्त्री से प्रेम करना चाहिए—और सदा—सदा के लिए करना चाहिए।
यह अंतःकरण क्या है? मुसलमान का अंतःकरण क्यों अलग होता है? हिंदू का अंतःकरण क्यों अलग होता है?
मेरे बचपन में मेरे घर में टमाटरों की मनाही थी, क्योंकि मैं एक जैन परिवार में पैदा हुआ, और टमाटर मांस जैसा लगता है। बस लगता ही है, होता तो उसमें ऐसा कुछ नहीं। टमाटर तो इतना निर्दोष और किसी को नुकसान न पहुंचाने वाला है। लेकिन बचपन में मैंने टमाटर कभी नहीं खाए थे, क्योंकि मेरे परिवार में इजाजत न थी। और जब पहली बार एक मित्र के घर में मेरे सामने खाने में टमाटर आया तो मैंने वमन कर दिया। पूरा अंतःकरण...! मैं मान ही नहीं सकता था कि लोग टमाटर खाते हैं। टमाटर तो कितनी खतरनाक चीज है, मांस जैसा लगता है। कैसे उसको तुम खा सकते हो?
अंतःकरण सिवाय समाज की एक चालबाजी के और कुछ नहीं है। तुम्हारे अंतःकरण में कुछ धारणाएं भर दी जाती हैं और वहां से वे काम करना शुरू कर देती हैं। वे हैं देलगादो के इलेक्ट्रोड्स की भांति। बहुत सूक्ष्म... जहां भी तुम जाते हो, समाज तुम्हारे साथ आता है, तुम्हारे पीछे छिपा होता है; तुम्हारे भीतर ही होता है। अगर तुम समाज के विपरीत कोई काम करते हो, तो अंतःकरण कचोटने लगता है। यह वास्तविक अंतस की आवाज नहीं है—क्योंकि वास्तविक भीतरी आवाज हिंदू के लिए और मुसलमान के लिए, और जैन के लिए, और ईसाई के लिए अलग— अलग नहीं हो सकती है। वास्तविक भीतरी आवाज तो एक ही होगी, क्योंकि सच्ची भीतर की आवाज समाज के सिखावन से पैदा नहीं होती। सच्ची भीतर की आवाज तो आती है तुम्हारे अस्तित्व के आत्यंतिक केंद्र से। लेकिन उस तक पहुंचने के लिए ध्यान की सारी अवस्थाओं से गुजरना होता है।
जब तक सभी विचार तिरोहित नहीं हो जाते, तुम अपनी भीतर की आवाज नहीं सुन सकते। समाज ने तुम्हारे मन को इतना ज्यादा भर दिया है कि तुम जो भी सुनोगे, वह समाज द्वारा तुम्हें भीतर से नियंत्रित करने की कोशिश ही होगी। बाहर से समाज नियंत्रण करता है पुलिस द्वारा और अदालतो द्वारा। भीतर से वह नियंत्रण करता है ईश्वर द्वारा, अंतःकरण द्वारा, नैतिकता द्वारा, स्वर्ग—नर्क द्वारा और ऐसी ही हजार चीजों द्वारा।
इसीलिए रेचन की जरूरत है। तुम नैसर्गिक नहीं हो, और केवल रेचन द्वारा ही तुम स्वयं को निर्भार कर पाओगे समाज के बोझ से; तुम मुक्त हो पाओगे समाज से। समाज से मुक्त होकर तुम प्रकृति के प्रति खुले हो जाते हो। प्रकृति के प्रति खुलने से तुम अस्तित्व के प्रति खुले हो जाते हो। और मेरे देखे, अस्तित्व ही ईश्वर है।

 छठवां प्रश्न :

आप क्यों जोर देते हैं कि हमें सीधे सातवें चरण— ध्यान— पर छलांग लगा देनी चाहिए और फिर दूसरे चरण पूरे करने चाहिए ताकि समग्र समाधि उपलब्ध हो?

 क खास कारण है। मैं जोर देता हूं कि पहले ध्यान में छलांग लगा दो और फिर दूसरे चरण पूरे करो, क्योंकि तुमने ध्यान का स्वाद बिलकुल ही खो दिया है। इस कदर खो दिया है कि जब तक तुम एक बार स्वाद को अनुभव न कर लो, तब तक तुम दूसरी चीजों को पूरा करने का कष्ट ही नहीं उठाओगे।
पतंजलि के समय में ध्यान एक अनुभव की बात थी। प्रत्येक व्यक्ति ध्यान करता था। प्रत्येक बच्चे को भेजा जाता था गुरुकुल में, जंगल के आश्रमों में। वहां बुनियादी शिक्षा ध्यान की थी; शेष सब गौण था। जब वह पच्चीस वर्ष का होता तो समाज में वापस आ जाता, मगर उसने ध्यान की कला सीख ली होती। वह रहेगा बाजार में, पर ध्यान के साथ। पचास वर्ष की उम्र तक वह फिर तैयार हो जाता वापस जंगल जाने के लिए। और पचहत्तर वर्ष की अवस्था तक आते—आते वह ध्यान के लिए ही पूरा समय समर्पित करने लगता।
तो अगर तुम पूरी जीवन— अवधि को देखो, अगर सौ वर्ष की उम्र मानें : तो पहले के पच्चीस वर्षों में, आरंभ में, ध्यान का स्वाद दे दिया जाता था—तुम जान लेते थे उसके सौरभ को, उसकी सुवास को। तुम जान लेते उसके सौंदर्य को, उसके अहोभाव को, आनंद को—और तब तुम आते संसार में। अब तुम कभी न बनोगे संसार का हिस्सा। तुम जानते हो, वहां जंगल में कोई सुंदर चीज अस्तित्व रखती है। तुमने जान लिया होता है एकांत को; अब भीड़ में, संसार में रहते हुए, तुम कभी पूरे चैन से न रहोगे। तुमने चख लिया परम स्वाद. अब बाकी के सारे स्वाद मूल्यहीन हो गए। तुम रहोगे संसार में एक कर्तव्य की तरह।
ऐसा ही हिंदू—शास्त्र कहते हैं कि व्यक्ति को संसार में जीना चाहिए कर्तव्य की तरह। तुम्हारे माता—पिता ने तुम्हें पैदा किया : तुम्हारे ऊपर एक कर्तव्य है, तुम्हें दूसरों को जन्म देना है, ताकि समाज और उसकी श्रृंखला निरंतर चलती रहे और धारा बहती रहे—तुम्हें धारा पर रोक नहीं लगानी है।
लेकिन भीतर एक पुकार उठती ही रहती है। व्यक्ति काम करता है दुकान में, जाता है बाजार, बच्चों को बड़ा करता है, विवाह करता है, हजार चीजें करता रहता है वह, लेकिन किसी बुलावे की अनुगूंज उठती रहती है। किन्हीं घड़ियों में, सुबह—सुबह जब बाजार में सन्नाटा है और संसार अभी भी सोया ही हुआ है—वह उठ आता है.. वह डुबकी ले लेता है उस ध्यान में जिससे कि उसका परिचय हुआ था अपने पहले पच्चीस वर्षों में। रात को, जब सब सो जाते हैं तो वह बैठ जाता है अपनी शय्या पर......किसी निमंत्रण की पुकार उसके पीछे—पीछे चलती रहती है छाया की भांति।
पचास वर्ष की अवस्था आते—आते वह संसार से हटने लगता, क्योंकि अब उसके बच्चे करीब—करीब पच्चीस वर्ष के हो जाते, वे जंगल से लौट आए होते। अब वे सम्हालेंगे संसार, अब उसका कर्तव्य पूरा हुआ। लेकिन पचास वर्ष की अवस्था में वह सचमुच ही नहीं चला जाता जंगल। संस्कृत का शब्द है 'वानप्रस्थ'. वह मुंह कर लेता जंगल की ओर। वह घर को छोड़ता नहीं है, क्योंकि कुछ वर्ष अभी उसकी जरूरत होगी उन बच्चों को जो अभी गुरुकुल से आए हैं, ताकि वह उन्हें अपने जीवन का अनुभव दे दे, उन्हें व्यवस्थित होने में मदद करे। अन्यथा यह उन बच्चों के लिए बहुत अराजकता हो जाएगी—कि वे घर आएं और बूढ़ा पिता जंगल चला जाए। तब तो संसार के साथ कोई संबंध ही न जुड़ेगा उनका। उन युवा बच्चों ने कुछ सीखा है, जाना है अस्तित्व के विषय में; अब उन्हें संसार के संबंध में कुछ सीखना है पिता से।
लेकिन अब पिता पीछे होगा, बच्चे आगे आ जाएंगे। पिता पीछे हट जाएंगे, मां पीछे हट जाएगी—बहू आगे आ जाएगी, बेटा आगे आ जाएगा। अब वे हैं असली मालिक, और माता—पिता सिर्फ इसलिए हैं कि अगर उन लोगों को किसी सलाह—मशवरे की जरूरत पड़े तो सलाह ली जा सकती है। लेकिन अब उनका रुख होता जंगल की तरफ; वे तैयार हो रहे होते।
और जब वे पचहत्तर वर्ष के होते तो उनके बच्चे हो गए होंगे करीब पचास वर्ष के। अब माता—पिता तैयार होते जंगल वापस जाने के लिए—वें लौट जाते, वे फिर चले जाते जंगल।
भारतीय जीवन शुरू होता जंगल से, फिर समाप्त होता जंगल में; शुरू होता स्वात से, समाप्त होता एकांत में; शुरू होता ध्यान से, समाप्त होता ध्यान में। असल में पचहत्तर वर्ष ध्यान के लिए होते, केवल पच्चीस वर्ष संसार के लिए होते; संसार कभी हावी नहीं हो पाता, एक अंतर्धारा ध्यान की बनी रहती। वस्तुत: सारा जीवन ही ध्यानमय था—केवल पच्चीस वर्षों के लिए व्यक्ति संसार को कर्तव्य की भाति जीता था।
उन दिनों कोई जरूरत न थी तुम्हें ध्यान का स्वाद देने की, तुमने जाना ही होता था उसको। लेकिन अब चीजें बिलकुल भिन्न हैं। तुम नहीं जानते कि ध्यान क्या है। जब मैं कहता हूं ' ध्यान' तो बस एक शब्द गूंजता है तुम्हारे कानों में, कोई प्रतिसवेदन नहीं होता। यदि मैं कहता हूं 'नींबू' तो तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है, लेकिन जब मैं कहता हूं 'ध्यान' तो कोई संबंध नहीं बनता। जब मैं कहता हूं 'परमात्मा' तो रूखा—सूखा ही रहता है मुंह। तुमने स्वाद ही नहीं लिया, वह शब्द अर्थहीन है।
इसीलिए मैं कहता हूं. पहले ध्यान करो। यानी थोड़ा स्वाद लो, थोड़ी झलक लो। तब तुम अपने से चलने लगोगे, और फिर तुम दूसरे चरण पूरे करने लगोगे। तुम्हें चाहिए एक झलक, पहले उसकी कोई जरूरत न थी; इसलिए मेरा जोर है सीधे ध्यान पर। एक बार तुम ध्यान में उतर जाओ, फिर सब कुछ पीछे—पीछे चला आएगा। मुझे उसके बारे में कहने की जरूरत नहीं; तुम स्वयं ही वैसा करने लगोगे।
जब तुम ध्यान में उतरते हो, तो तुम मौन और शात बैठ जाना चाहोगे ही : आसन सध जाएगा। जब तुम ध्यान में उतरते हो, तो तुम देखोगे कि श्वास की एक मौन लय होती है. प्राणायाम सध जाएगा। जब तुम मौन होते हो, ध्यानपूर्ण होते हो, आनंदमग्न होते हो अपने एकांत में, तो तुम्हारा चरित्र बदल जाएगा; तुम किसी के जीवन में दखलंदाजी न करोगे : तुम अहिंसक हो जाओगे। तुम प्रामाणिक हो जाओगे, क्योंकि जब भी तुम अप्रामाणिक होओगे तो तुम्हारा आंतरिक संतुलन खो जाएगा। झूठे होकर, बेईमान होकर तुम शायद बचा लो पांच रुपए, लेकिन झूठे होकर तुम भीतर का बहुत कुछ खो दोगे। अब तुम्हें एक नया उपलब्ध हुआ धन खोना पड़ेगा। और मैंने ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो इतना मूढ़ हो कि मात्र पांच रुपए के लिए वह भीतर का खजाना खोने को राजी हो, जो कि ज्यादा मूल्यवान है, अपार मूल्यवान है। फिर चला आता है 'यम'। जब तुम और—और मौन, और— और शात हो जाते हो तो जीवन स्व—स्फूर्त हो जाता है : 'नियम', एक आंतरिक अनुशासन अपने आप चला आता है। बस जरा सी तुम्हारी मदद और थोड़ी समझ, तो चीजें एक कम में उतरने लगती हैं। लेकिन पहली बात है यह जानना कि ध्यान क्या है; शेष सब पीछे चला आता है।
जीसस ने कहा है, 'पहले प्रभु का राज्य खोज लो, फिर सब कुछ पीछे—पीछे चला आता है।वही मैं तुम से कहता हूं।

 अंतिम प्रश्न :

स्पष्ट है कि मैं पिछले सभी बुद्ध पुरुषों से बचता रहा जिनसे मेरा पहले मिलना हुआ। लेकिन अब मैं जानता हूं कि जब तक मैं इस शरीर में हूं मैं इस बुद्ध को नहीं छोडूंगा लेकिन फिर एक छिपा— छिपा भय बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि अभौतिक मिलन होने के पहले ही मैं देह छोड़ हूं या आप विदा हो जाएं।

 य स्वाभाविक है, और एक तरह से अच्छा ही है। इससे घबड़ाने की कोई बात नहीं, यह भय मदद करेगा। सारे भय बुरे नहीं होते और सारी बहादुरी अच्छी नहीं होती। कई बार बहादुरी केवल मूढ़ता होती है और कई बार भय एक बुद्धिमानी होता है। इस भय को मैं बुद्धिमानी कहता हूं क्योंकि तुम जानते हो कि ऐसा संभव है। अतीत में तुम चूकते रहे हो बहुत से बुद्ध पुरुषों को—ज्यादा संभावना इसी बात की है कि तुम मुझे भी चूक जाओगे, क्योंकि तुम चूकने में बहुत कुशल हो चुके हो। तो अच्छा है भय। यह मदद करेगा। यह भय बुद्धिमानी है; यह तुम्हें चैन से न बैठने देगा और असजग न रहने देगा—यह तुम्हें फिर से न चूकने में मदद देगा।
धन्यवाद दो इस भय को और याद रखो : भय सदा ही बुरा नहीं होता। जब तुम्हें रास्ते पर सांप मिल जाता है, तो तुम क्या करते हो? तुम छलांग लगा कर हट जाते हो। क्या तुम डरपोक हो? क्या तुम कायर हो? कोई मूर्ख कह सकता है कि तुम कायर हो। लेकिन तुम क्या सोचते हो, बुद्ध क्या करेंगे? वह तुम से ज्यादा तेज छलांग लगाएंगे; इतना ही करेंगे। लेकिन क्या बुद्ध भयभीत हैं सांप से? नहीं, सवाल भयभीत होने या न होने का नहीं है। वे होशपूर्ण हैं, और वे होश से जीते हैं।
यह भय एक तरह की सजगता है। इसे 'छिपा भय' मत कहो; बल्कि इसे 'नई सजगता' कहो क्योंकि तुम किसी चीज को जिस ढंग से कहते हो, उससे बहुत अंतर पड़ता है। अगर तुम इसे ' भय' कहते हो, तो तुमने इसकी निंदा कर दी। अगर तुम इसे 'नई सजगता' कहते हो, तो तुमने इसे स्वीकार किया, इसकी प्रशंसा की।
और अगर तुम सजग हो, तो इस बार तुम चूकोगे नहीं। सारी बात है—सजगता। यदि तुम सजग हो तो तुम नहीं चूकोगे। तुम अतीत में चूकते रहे क्योंकि तुम गहरी नींद में थे, एक सम्मोहन में थे। तुम्हारी आंखें बंद थीं। तुम चूकते रहे क्योंकि तुम बुद्ध को पहचान न पाए। एक बार तुम पहचान लेते हो कि बुद्ध सामने मौजूद हैं, तो कैसे चूक सकते हो तुम? एक बार तुम जान लेते हो कि यह हीरा है, तो तुम उसे फेंक नहीं सकते। तुमने दूसरे हीरे यह सोच कर फेंक दिए होंगे कि वे कंकड़—पत्थर हैं।
मैंने एक सूफी कहानी सुनी है। ऐसा हुआ : एक फकीर, एक गरीब भिखारी एक छोटी सी झील के किनारे टहल रहा था। उसे अचानक एक थैला मिल गया। ब्रह्ममुहूर्त का समय था। सूर्योदय नहीं हुआ था, अभी भी अंधेरा था। उसने थैला खोला, टटोल कर देखा कि भीतर क्या है; पत्थर ही पत्थर भरे थे उसमें। झील के किनारे बैठे—ठाले करने को कुछ था नहीं, वह उन पत्थरों को फेंकने लगा झील में। वे पानी में गिरते, छपाक की आवाज होती, तरंगें उठतीं—उसे मजा आने लगा। फिर धीरे— धीरे सुबह हुई, अंधकार कम हुआ। जब पर्याप्त रोशनी हुई और उसने देखा कि वह क्या कर रहा था, तब एक अंतिम पत्थर ही बचा था। वह हीरा था। वह तो रोने—चीखने लगा। वे सभी हीरे ही थे। लेकिन अब वह इसे नहीं फेंक सकता था।
तुमने शायद फेंक दिया होगा पत्थरों के पूरे थैले को—और बुद्ध पुरुषों को। इस बार अगर थोड़ी सी सजगता तुम्हें मिली है और प्रकाश की एक किरण उतरी है, तो कैसे तुम उसे फेंक सकते हो? यह असंभव है।

 आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें