(‘योग:
दि अल्फा एंड
दि ओमेगा’
शीर्षक से ओशो
द्वारा
अंग्रेजी में
दिए गये सौ
अमृत
प्रवचनों में
से चतुर्थ बीस
प्रवचनों का
हिंदी
अनुवाद।जो दिनांक 1 जनवरी 1976 तक ओर 11 अप्रेल 1976 से 20 अप्रेल 1976 तक ओशो आश्रम पूूूूना में दिये गये थे )
आज हम पतंजलि
के योग —
सूत्रों का
तीसरा चरण 'विभूतिपाद'
आरंभ कर रहे
हैं। यह बहुत
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
चौथा और अंतिम
चरण 'कैवल्यपाद'
तो परिणाम
की उपलब्धि
है। जहां तक
साधनों
का संबंध है, प्रणालियों
का संबंध है, विधियों का
संबंध है
तीसरा चरण 'विभूतिपाद'
अंतिम है।
नौ था चरण तो
प्रयास का
परिणाम है।
केवल्य
का अर्थ है.
अकेले होना, अकेले
होने की परम
स्वतंत्रता; किसो
व्यक्ति, किसी
चीज पर। नर्भरता
नहीं — अपने से
पूरी तरह
संतुष्ट यही योग
का लक्ष्य है।
चौथे भाग में
हम केवल परि'गाम के विषय
में बात
करेंगे, लेकिन
अगर तुम तीसरे
को चूक गए, तो
चौथे को नहीं
समझ पाओगे।
तीसरा आधार
है।
अगर
पतंजलि के
योग—सूत्र का
चौथा अध्याय
नष्ट भी हो
जाए, तो
भी कुछ नष्ट
नहीं होगा, क्योंकि जो
भी तीसरा
प्राप्त कर
लेगा, उसे
चौथा अपने आप
प्राप्त
होगा। चौथा
अध्याय छोड़ा
भी जा सकता
है। वस्तुत:
एक ढंग से तो
वह अनावश्यक
ही है, उसकी
कोई जरूरत
नहीं है, क्योंकि
वह अंतिम की, लक्ष्य की
बात करता है।
जो भी कोई भी
मार्ग का अनुसरण
करेगा, वह
मंजिल तक
पहुंच ही जाता
है, उसके
बारे में बात
करने की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
ओशो
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