दिनांंक 2 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न—सार:
प्रश्न—सार:
1—सत्संग—सदगुरु
की उपस्थिति में
होना—अत्यंत
महत्वपूर्ण
है, तो
यदि संभव हो
तो क्या आप
विश्व भर के
अपने सन्यासियों
को साथ ही
रखना पसंद
करेंगे?
2—आप विवाह के
पक्ष में नहीं
है,
फिर भी आप
अनेक लोगों को
विवाह का
सुझाव क्यों
देते हैं?
3—आश्रम
में आपके निकट
मैं शांत और
सुखी हो जाता
हूं, लेकिन बाहर
निकलते ही सड़क
पर बैठे
भिखारियों को
देख कर दुःखी
हो जाता हूं, इस दुख के
लिए मैं क्या
करूं?
4—एक
साथ आप इतने
अधिक शिष्यों
पर कैसे काम कर
पाते है?
5—अगर मैंने
आपसे संन्यास
न लिया होता
तो मैंने आपको
छोड़ दिया होता।
बहरहाल, मैं आप
में श्रद्धा
नहीं खोना
चाहता। अगर आप
मुझे आपने
चरणों में
बांधे रख सकें
तो मुझे लगेगा
कि आपने गुरु
के रूप में
अपना कर्तव्य
पूरा किया।
6—कोई
कैसे चिंता
करना छोड़े?
7—क्या
मूल्यांकन
करने और विवेक
करने के बीच
कोई अंतर है?
8—पद्यसंभव
की भविष्यवाणी
है कि जब पृथ्वी
पर लोहे का
पक्षी उड़ेगा, तब धर्म
का अवतरण
होगा। क्या
इस वचन को
पूरा करना
आपके काम का
हिस्सा है?
पहला
प्रश्न:
आपने
बहुत बार हमें
बताया है कि
सत्संग— किसी
बुद्ध पुरुष
की किसी मुक्त
पुरुष की उपस्थिति
में होना—
कितना अधिक
महत्वपूर्ण
है फिर
भी आपके बहुत
से संन्यासी
अपना अधिक
जीवन आप से
दूर ही व्यतीत
करते हैं अगर
आप पर निर्भर
होता तो क्या
आप हम सबको
यहां पूना में
हर समय अपने
साथ रहने देते?
नहीं।
क्योंकि
सदगुरु की
उपस्थिति में
बहुत अधिक जीना
भी एक अति हो
सकती है। मदद
देने की बजाय
वह तुम्हें
हानि पहुंचा
सकती है। हर
चीज सदा एक
अनुपात में और
संतुलन में
होनी चाहिए।
इसकी संभावना
है कि जब कोई
चीज मीठी हो
तो तुम उसे
जरूरत से
ज्यादा खा लो।
तुम भूल जाओ
अपनी
आवश्यकता; तुम खूब
ठूंस—ठूंस कर
भर लो अपना
पेट। और
सत्संग मधुर
होता है—वह
संसार की सबसे
मधुर चीज है।
वस्तुत:
सत्संग मादक
होता है, तुम
मदहोश हो सकते
हो। तब वह
तुम्हें
मुक्त नहीं
करेगा; वह
एक नया बंधन
निर्मित कर
देगा।
तो
सदगुरु के पास
होना बंधन भी
हो सकता है, मुक्ति
भी, यह
निर्भर करता
है। केवल पास
होने से जरूरी
नहीं है कि
तुम मुक्त हो
ही जाओगे.
तुम्हें
बदहजमी हो
सकती; और
तुम आदी हो
सकते हो
मौजूदगी के।
नहीं, वह
ठीक नहीं है।
जब भी मुझे
लगता है कि
किसी को जरूरत
है अकेले होने
की, जब भी
मुझे लगता है
कि किसी को
मुझ से दूर
चले जाना
चाहिए, तो
मैं उसे दूर
भेज देता हूं।
अच्छा है एक
प्यास
निर्मित करना,
तब तृप्ति
भी गहरी होती
है। और अगर
तुम बहुत
ज्यादा मेरे
साथ रहते हो
तो तुम मुझे
भूल भी सकते
हो। केवल
बदहजमी ही
नहीं, हो
सकता है तुम
मुझे बिलकुल
ही भूल जाओ।
अभी कल
ही शीला कह
रही थी कि जब
वह अमरीका में
थी तो वह मेरे
ज्यादा निकट
थी। अब जब कि
वह यहां है तो
उसे लगता है
कि वह दूर हो गई
है। कैसे होता
है ऐसा? वह बड़ी
परेशान थी, बहुत उलझन
में थी। बात
सीधी—साफ है।
जब वह अमरीका
में थी तो वह
निरंतर सोच
रही थी मेरे
बारे में, यहां
आने और मेरे
पास होने के
बारे में, वह
जी रही थी एक
स्वप्न में।
उस स्वप्न में
उसे लगता होगा
कि वह मेरे
निकट है। अब
जब कि वह यहीं
है, तो
कैसे सपना देख
सकती है वह? मैं सामने
मौजूद हूं; सपनों की अब
कोई जरूरत
नहीं है। और
मैं इतना
उपलब्ध हूं
यहां कि वह
भुलने लगी है
मुझे —इसीलिए
वह अनुभव कर
रही है कि वह
मुझ से दूर हो
गई है।
चीजें
जटिल हैं। कई
बार मैं
तुम्हें दूर
भेज देता हूं
ताकि तुम मुझे
ज्यादा अनुभव
कर सको। उसकी
जरूरत होती है।
एक पृथकता
चाहिए, ताकि तुम
फिर निकट आ
सको। सदगुरु
के पास होने
और सदगुरु के
पास न होने की
एक लय चाहिए।
उस लय में
बहुत सी
संभावनाएं
खुलती हैं, क्योंकि
अंततः
तुम्हें
निर्भर होना
है स्वयं पर।
गुरु
तुम्हारे साथ
सदा—सदा के
लिए नहीं रह
सकता। एक दिन
मैं अचानक खो
जाऊंगा—मिट्टी
मिट्टी में
गिर जाएगी, तुम मुझे
कहीं नहीं खोज
पाओगे। तब, अगर तुम
मेरे प्रति
बहुत आसक्ति
बना लोगे और तुम
मेरे बिना रह
ही न सकोगे तो
तुम दुख पाओगे,
नाहक पीड़ित
होओगे। और मैं
यहां तुम्हें
पीड़ा देने के
लिए नहीं हूं :
मैं यहां
तुम्हें और
ज्यादा
आनंदित होने
में सक्षम बनाने
के लिए हूं।
कई बार यह
अच्छा होता है
कि तुम दुनिया
में कहीं दूर
चले जाओ, अपने
साथ रहो, अपने
एकांत में रहो,
भीतर उतरो,
अकेले में
जीओ।
और जो
कुछ भी तुमने
मेरे साथ यहां
पाया है, उसे संसार
में कसौटी पर
कसो, क्योंकि
आश्रम संसार
नहीं है।
आश्रम ज्यादा
से ज्यादा एक
सीखने की जगह
हो सकता है, वह कोई
वैकल्पिक
संसार नहीं है।
अधिक से अधिक
यह एक स्कूल
हो सकता है
जहां तुम्हें
थोड़ी झलक
मिलती है। फिर
तुम उस झलक के
साथ जाते हो
संसार में—वहां
होती है कसौटी,
वहां होती
है परीक्षा।
अगर वे अनुभव
वहां भी खरे
उतरते हैं, केवल तभी वे
वास्तविक हैं।
आश्रम
में रहते हुए, बुद्ध
पुरुष के साथ
रहते हुए, उसके
ऊर्जा—
क्षेत्र में
रहते हुए, बहुत
बार तुम्हें
धोखा हो सकता
है कि तुम्हें
कुछ उपलब्ध हो
गया है। हो
सकता है कि वह
तुम्हारी
उपलब्धि न हो;
हो सकता है
कि केवल उस
चुंबकीय
शक्ति के कारण
तुमने छू लिए
हों नए आयाम।
लेकिन जब मैं
पास नहीं होता
और आश्रम का वातावरण
मौजूद नहीं
होता और तुम
साधारण दैनंदिन
जीवन में गति
करते हो—बाजार
के, आफिस
के, फैक्टरी
के जीवन में
गति करते हो—अगर
तुमने जो यहां
पाया है उसे
साथ लिए रहते
हो और वह
डांवाडोल नहीं
होता, तब
सच में तुमने
कुछ पाया है।
वरना तो तुम
यहां एक
स्वप्न में, एक भ्रम में
जी सकते हो।
नहीं, अगर मेरे
लिए तुम सब को
यहां रखना
संभव भी होता,
तो भी मैं
तुम्हें दूर
भेजता। मैं
बिलकुल यही
करता जैसा कि
मैं अब कर रहा
हूं; कोई
अंतर न होता।
जैसा अभी है
बिलकुल ठीक है।
तो जब मैं
तुम्हें दूर
भेजूं तो खराब
अनुभव मत करना—तुम्हें
जरूरत है उसकी।
और जब
मैं तुम से
यहां रहने को
कहूं तो बहुत
गर्व अनुभव मत
करना—वह भी एक
जरूरत है।
दोनों बातें
जरूरी हैं। और
कोई जड़
सिद्धात मत
बना लेना, क्योंकि
चीजें जटिल
हैं और हर
व्यक्ति
अनूठा है। कई
बार मैं किसी
को यहां रहने
देता हूं
क्योंकि वह
इतना मुर्दा
होता है कि
उसके विकसित
होने में बहुत
समय लगता है।
कोई बहुत
जल्दी विकसित
हो जाता है, तो कुछ
सप्ताह के
भीतर ही मैं
कह देता हूं
कि जाओ। तो
यहां होने से
ही गर्व अनुभव
मत करना; और
अगर मैं
तुम्हें दूर
भेज दूं तो
चोट अनुभव मत
करना। कई बार
मैं किसी को
यहां रहने
देता हूं
क्योंकि वह
बहुत संतुलित
होता है और
कोई डर नहीं
होता कि वह
जरूरत से
ज्यादा ग्रहण
कर लेगा, या
कि अति भोजन
का शिकार हो
जाएगा; तो
मैं रहने देता
हूं उसे।
कई बार, जब मुझे
लगता है कि
किसी ने कुछ
उपलब्ध कर लिया
है, तो भी
मैं उसे दूर
भेज देता हूं;
क्योंकि
केवल संसार हो
इसकी कसौटी हो
सकता है कि
तुमने सच में
कुछ पा लिया
है या नहीं।
आश्रम के
एकांत में, एक अलग
वातावरण में,
तुम्हें
पार की एक झलक
मिल सकती है, क्योंकि तुम
एक हिस्सा बन
जाते हो उस
सामूहिक मन का
जो यहां मौजूद
है। तुम मेरी
तरंगों पर
यात्रा करने
लगते हो, वे
तुम्हारी
नहीं हैं।
लेकिन जब तुम
वापस घर जाते
हो, तो
तुम्हें अपनी
ही तरंगों पर
यात्रा करनी
होती है—चाहे
वे छोटी हों, किंतु बेहतर
हैं, क्योंकि
वे तुम्हारी
अपनी हैं, और
अंततः उन्हें
ही ले जाना है
तुम्हें
दूसरे किनारे
तक। मैं तो
केवल राह दिखा
सकता हूं।
गुरु को
बंधन नहीं बन
जाना चाहिए; और बहुत
आसान होता है
गुरु का बंधन
बन जाना।
प्रेम सदा बदल
सकता है बंधन
में। वह सदा
ही बन सकता है
कारागृह।
प्रेम को होना
चाहिए
स्वतंत्रता, उसे
तुम्हारी मदद
करनी चाहिए
तमाम बेड़ियों
और बंधनों से
मुक्त होने
में। इसलिए
मुझे सतत
देखते रहना
पड़ता है कि
किसे दूर
भेजना है, किसे
यहां रहने
देना है, और
कितनी देर
रहने देना है।
एक लय
चाहिए—कभी
मेरे साथ रहो
और कभी मुझसे
दूर चले जाओ।
एक दिन आएगा, तुम एक
जैसा ही अनुभव
करोगे। तब मैं
प्रसन्न
होऊंगा
तुम्हारी
स्थिति से।
चाहे मेरे साथ
रहो चाहे
मुझसे दूर रहो,
तुम वैसे ही
रहते हो; चाहे
यहां आश्रम
में ध्यान करो
या बाजार में
काम करो, तुम
वैसे ही रहते
हो—कोई बात
तुम्हें छूती
नहीं; तुम
होते हो संसार
में लेकिन
संसार नहीं
होता तुम में.
तब तुम मुझे
प्रसन्न करते
हो। तब तुम
संतुष्ट होते
हो, तृप्त
होते हो।
दूसरा
प्रश्न :
आप
विवाह के पक्ष
में नहीं हैं
और फिर भी आप
लोगों से
विवाह करने के
लिए कह देते
हैं ऐसा क्यों
है?
पूछा है
अनुराग ने।
मेरे देखे, विवाह एक
मुर्दा चीज है।
यह एक संस्था
है, और तुम
संस्थाओं में
जी नहीं सकते;
केवल
विक्षिप्त
व्यक्ति रहते
हैं संस्थाओं में।
विवाह प्रेम
का विकल्प है।
प्रेम खतरनाक
बात है : प्रेम
में जीना
निरंतर तूफानों
में जीना है।
तुम्हें
जरूरत होती है
साहस की, और
तुम्हें
जरूरत होती है
सजगता की, और
तुम्हें
तैयार रहना
होता है किसी
भी चीज के लिए।
प्रेम में कोई
सुरक्षा नहीं
होती; प्रेम
असुरक्षित
होता है।
विवाह है
सुरक्षा :
रजिस्ट्री
आफिस है, पुलिस
है, अदालत
है। राज्य, समाज, धर्म—ये
सभी उसे
सम्हाले हैं।
विवाह एक
सामाजिक घटना
है। प्रेम
होता है
व्यक्तिगत, वैयक्तिक, अंतरंग।
क्योंकि
प्रेम खतरनाक
होता है, असुरक्षित
होता है.. और
कोई नहीं
जानता कि प्रेम
कहां ले जाएगा।
वह बादल की
भांति होता है—बिना
किसी मंजिल के,
बस हवाओं
में तिरता हुआ।
प्रेम है
रहस्यमय बादल,
जिसका कोई
गंतव्य नहीं।
कोई नहीं
जानता कि वह
किस क्षण कहां
होगा। जिसकी
कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती—कोई
ज्योतिषी
भविष्यवाणी
नहीं कर सकता
प्रेम के बारे
में। और विवाह
के बारे में? उसमें तो
ज्योतिषी
बहुत मददगार
होते हैं; वे
भविष्यवाणी
कर सकते हैं।
मनुष्य
को विवाह की
ईजाद करनी पड़ी
क्योंकि मनुष्य
अज्ञात से
भयभीत है।
जीवन और
उस्तित्व के
हर तल पर
मनुष्य ने
विकल्प निर्मित
कर लिए हैं.
प्रेम के
स्थान पर
विवाह है; असली
धर्म की जगह
संप्रदाय हैं—वे
विवाह जैसे ही
हैं। हिंदू
धर्म, मुसलमान
धर्म, ईसाई
धर्म, जैन
धर्म — वे असली
धर्म नहीं हैं।
असली धर्म का
कोई नाम नहीं
होता; वह
प्रेम की
भांति होता है।
लेकिन
क्योंकि
प्रेम खतरनाक होता
है और तुम
अज्ञात से
इतने भयभीत
होते हो कि
तुम कोई न कोई
सुरक्षा खड़ी
कर लेना चाहते
हो। तुम जीवन
की अपेक्षा
बीमा
कंपनियों में
ज्यादा
विश्वास करते
हो। इसीलिए
तुमने विवाह
की ईजाद कर ली
है।
प्रेम
की अपेक्षा
विवाह ज्यादा
स्थायी होता है।
प्रेम अनंत—असीम
हो सकता है, लेकिन वह
स्थायी नहीं
होता है। वह
बना रह सकता
है हमेशा—हमेशा,
लेकिन
जरूरी नहीं है
कि वह हमेशा
बना रहे। वह
एक फूल की
भांति है :
सुबह खिलता है,
सांझ खो
जाता है। वह
चट्टान की
भांति नहीं है।
विवाह ज्यादा
स्थायी होता
है; तुम
निर्भर कर
सकते हो उस पर।
बुढ़ापे में वह
मददगार होगा।
यह एक ढंग है
कठिनाइयों से
बचने का।
लेकिन
जब भी तुम
कठिनाइयों से
और चुनौतियों
से बचते हो तो
तुम विकसित
होने से भी बच
जाते हो।
विवाहित
व्यक्ति कभी
विकसित नहीं
होते। प्रेमी
विकसित होते
हैं, क्योंकि
उन्हें हर
क्षण चुनौती
का सामना करना
होता है—और
कोई सुरक्षा
नहीं होती।
उन्हें एक आंतरिक
सजगता
निर्मित करनी
पड़ती है।
सुरक्षा हो तो
तुम्हें
सजगता की
चिंता नहीं करनी
पड़ती; समाज
मदद करता है।
विवाह
एक औपचारिकता
है, एक
कानूनी बंधन
है। प्रेम
हृदय की बात
है विवाह
बुद्धि की।
इसीलिए मैं
विवाह के
बिलकुल पक्ष
में नहीं हूं।
लेकिन
प्रश्न ठीक है, प्रासंगिक
है, क्योंकि
कई बार मैं
लोगों से
विवाह करने को
कह देता हूं।
विवाह नरक है,
लेकिन कई
बार लोगों को
नरक के अनुभव
की जरूरत होती
है। करो क्या?
तो मुझे
उनसे विवाह
करने के लिए
कहना पड़ता है।
उन्हें जरूरत
है उस नरक में
से गुजरने की,
और वे नहीं
समझ सकते उसकी
नारकीयता को
जब तक कि वे
उसमें से
गुजरें नहीं।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि विवाह
में प्रेम का फूल
नहीं खिल सकता
है; वह
खिल सकता है, लेकिन
आवश्यक नहीं
है कि ऐसा हो।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
प्रेम से
विवाह नहीं
पैदा हो सकता
है; वह हो
सकता है पैदा,
लेकिन उसकी
कोई जरूरत
नहीं है; उसकी
कोई तर्कसंगत
अनिवार्यता
नहीं है।
प्रेम बन सकता
है विवाह, लेकिन
तब वह बिलकुल
अलग ही तरह का
विवाह होता है.
तब वह कोई
सामाजिक
औपचारिकता
नहीं होती है,
तब वह
संस्थागत बात नहीं
होती है, तब
वह कोई बंधन
नहीं होता है।
जब प्रेम
विवाह बनता है,
तब उसका
अर्थ है कि दो
व्यक्तियों
ने साथ रहने
का निर्णय
लिया—लेकिन
पूरी
स्वतंत्रता
के साथ, एक—दूसरे
पर मालकियत
जमाए बिना।
प्रेम
मालकियत नहीं
जमाता, वह
स्वतंत्रता
देता है।
और जब
प्रेम विकसित होता
है विवाह में, तो विवाह
कोई साधारण
बात नहीं रह
जाती। वह एकदम
असाधारण बात
होती है। उसका
रजिस्ट्री
आफिस से कोई
लेना—देना
नहीं होता।
शायद तुम्हें
रजिस्ट्री
आफिस जाना भी
पड़े, सामाजिक
औपचारिकताएं
भी निभानी पड़े;
लेकिन वे
बातें केवल
परिधि पर ही
रहती हैं, वे
केंद्रीय
नहीं होतीं।
केंद्र में
होता है हृदय,
केंद्र में
होती है
स्वतंत्रता।
और कभी—कभी
विवाह में भी
प्रेम पैदा हो
सकता है, लेकिन ऐसा
कभी—कभार ही
घटता है।
दुर्लभ बात है
विवाह में
प्रेम का पैदा
होना। अधिकतर
तो यह एक
परिचय मात्र
होता है। अधिक
से अधिक एक प्रकार
की सहानुभूति
होती है—प्रेम
नहीं। प्रेम
में ऊर्जा
होती है; सहानुभूति
ठंडी होती है।
प्रेम होता है
जीवंत; सहानुभूति
होती है
औपचारिक, कुनकुनी!
लेकिन
मैं क्यों
कहता हूं
लोगों से
विवाह करने को? जब मैं
देखता हूं कि
वे सुरक्षा के
पीछे भाग रहे
हैं, जब
मैं देखता हूं
कि उन्हें
सामाजिक
समर्थन की
फिक्र है, जब
मैं देखता हूं
कि वे प्रेम
में उतर ही
नहीं सकते अगर
विवाह न हो, तो मैं उनसे
विवाह करने को
कह देता हूं—लेकिन
मैं उनकी मदद
करता रहूंगा
उसके पार जाने
में। उसका
अतिक्रमण
करने में मैं
उनकी मदद करता
रहूंगा।
विवाह
का अतिक्रमण
होना चाहिए; केवल तभी
वास्तविक
विवाह घटित
होता है।
विवाह पूरी
तरह से भुला
दिया जाना
चाहिए। असल
में जिसे तुम
प्रेम करते हो
उसे सदा अजनबी
बने रहना
चाहिए और कभी
भी उसे पूरी
तरह परिचित
नहीं मान लेना
चाहिए। जब दो
व्यक्ति
अजनबियों की
भांति रहते
हैं, तो
उसमें एक
सौंदर्य होता
है—बहुत सहज, निर्दोष
सौंदर्य होता
है। और जब तुम
किसी के साथ
अजनबी की तरह
रहते हो...।
और हर
कोई अजनबी ही
है। तुम किसी
व्यक्ति को
नहीं जान सकते।
सब जानना बहुत
ऊपर—ऊपर होगा; व्यक्ति
बहुत विराट
घटना है।
व्यक्ति एक
असीम रहस्य है।
इसीलिए हम
कहते हैं कि
हर एक के भीतर
परमात्मा है।
कैसे तुम जान
सकते हो
परमात्मा को?
ज्यादा से
ज्यादा तुम
परिधि को छू
सकते हो। और
जितना ज्यादा
तुम जानते हो
किसी व्यक्ति
को, उतने
ही ज्यादा
विनम्र तुम हो
जाओगे—उतना ही
ज्यादा तुम
अनुभव करोगे
कि रहस्य छूट—छूट
जाता है। असल
में रहस्य और
गहरा हो जाता
है। जितना
ज्यादा तुम
जानते हो, उतना
ही तुम अनुभव
करते हो कि
तुम कम जानते
हो।
अगर
प्रेमी सच में
ही प्रेम में
हैं, तो
वे कभी एक—दूसरे
को नहीं
कहेंगे कि जान
लिया; क्योंकि
केवल चीजों को
जाना जा सकता
है—व्यक्तियों
को नहीं। केवल
चीजें ही
जानकारी का
हिस्सा बन
सकती हैं।
व्यक्ति तो एक
रहस्य ही रहता
है—गहनतम
रहस्य।
तो
विवाह के ऊपर
उठो। यह कोई
कानून की, औपचारिकता
की, परिवार
की बात नहीं
है—वह सब कोरी
बकवास है।
इसकी जरूरत है
क्योंकि तुम
समाज में रहते
हो, लेकिन
उसके ऊपर उठो;
उसी पर समाप्त
मत हो जाना।
और किसी
व्यक्ति पर
मालकियत करने
की कोशिश मत
करना। ऐसा मत
सोचने लगना कि
दूसरा
व्यक्ति पति
है—तब तुमने
व्यक्ति के
सौंदर्य को एक
असुंदर चीज
में बदल दिया :
पति। कभी मत
कहना कि यह
स्त्री
तुम्हारी
पत्नी है—फिर
वह अजनबी नहीं
रह जाती, तुमने
उसे बहुत
भौतिक तल तक, चीजों के
बहुत साधारण
तल तक उतार
लिया होता है।
पति और पत्नी
सांसारिक
संबंध हैं।
प्रेमियों का
संबंध दूसरे
जगत का संबंध
है।
तो
दूसरे की
पवित्रता और
दिव्यता को
याद रखना। कभी
अतिक्रमण मत
करना उसका, कभी दखल
मत देना उसमें।
प्रेमी सदा
झिझकता है। वह
तुम्हें सदा
एक खुला आकाश
देता है स्वयं
होने के लिए।
वह कृतज्ञ
होता है; वह
कभी अनुभव
नहीं करता कि
तुम उसके
अधिकार में हो।
वह अनुगृहीत
होता है कि
कभी—कभी
किन्हीं
अदभुत घड़ियों
में तुम उसे
आने देते हो
अपने
आत्यंतिक
मंदिर में और
अपने साथ होने
देते हो। वह
सदा अनुगृहीत
होता है।
लेकिन
पति—पत्नी तो
सदा शिकायतो
से भरे होते
हैं, कभी
अनुगृहीत
नहीं होते—सदा
लड़ते —झगड़ते
रहते हैं। और
अगर तुम देखो
उनकी लड़ाई, वह कुरूप
होती है।
प्रेम का पूरा
सौंदर्य ही खो
जाता है। केवल
क्षुद्र
बातें ही रह
जाती हैं.
पत्नी है, पति
है, बच्चे
हैं, और
रोज — रोज की
कलह है। वह
अनजाना, अपरिचित
अब स्पर्श
नहीं करता।
इसीलिए तुम
पाओगे कि एक धूल
सी जम जाती
है—पत्नी
थकी— थकी
दिखाई पड़ती है; पति
बेजान दिखाई
देता है। जीवन
ने खो दिया
होता है अर्थ,
जीवंतता और
उल्लास। अब
जीवन एक काव्य
न रहा; वह
एक बोझ बन चुका
होता है।
प्रेम
काव्य है।
विवाह है
साधारण गद्य, अच्छा है
साधारण लेन—देन
के लिए; अगर
तुम्हें
सब्जी खरीदनी
है तो अच्छा
है; लेकिन
यदि तुम आकाश
की तरफ देख
रहे हो और
बातचीत कर रहे
हो परमात्मा
से तो
पर्याप्त
नहीं है—तो
जरूरत है
काव्य की।
साधारणतया तो
जीवन गद्य
जैसा होता है।
धार्मिक जीवन
काव्यमय होता
है : एक लय होती
है, एक छंद
होता है, उसमें
कुछ अज्ञात, अपरिचित
रहस्य उतर आता
है।
मैं
विवाह के पक्ष
में नहीं हूं।
और मुझे गलत
मत समझ लेना—मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
अविवाहित रह
कर साथ—साथ
रहो। वह सब
औपचारिकता
पूरी कर लो जो
समाज चाहता है, लेकिन
उसे ही सब कुछ
मत मान लेना।
वह तो ऊपर—ऊपर
की बात है; उसके
पार जाना है।
और अगर मुझे
लगता है कि
तुम्हें
विवाह की जरूरत
है मैं तुमसे
विवाह करने को
कहता हूं।
असल
में यदि मुझे
लगता है कि
तुम्हें नरक
के अनुभव से
गुजरने की
जरूरत है तो मैं
तुम्हैं जाने
देता हूं—मैं
तुम्हें और
धक्का दे देता
हूं —कि नरक से
गुजर ही लो, क्योंकि
उसी की जरूरत
है तुम्हें, और उससे
गुजर कर ही
तुम विकसित
होओगे।
तीसरा
प्रश्न :
मुझे
यहां आए अब
चार हफ्ते हो
गए हैं और मैं
अभी भी सड़क पर
दिखती दीनता—
दरिद्रता को
नहीं झेल पाता
उस ओर से आख
बंद कर लेने 'के सिवाय
कोई उपाय नहीं
बचता। तो
जितना मैं
आश्रम में
खुलता हूं जब
मैं साइकिल से
घर लौटता हूं
तो उतना ही
बंद हो जाता
हूं। कृपया इस
विषय में कुछ
कहें।
मैं पहले
ही कह चुका
हूं और मैंने
पहले ही इस
प्रश्न का
उत्तर दे दिया
है। अगर तुम यहां
किसी भीतर की
खोज के लिए हो, तो कृपा
करके कुछ
दिनों के लिए—जब
तक तुम यहां
मेरे साथ हों—संसार
को भूल जाओ।
लेकिन ऐसा
लगता है कि यह
कठिन है। तो
अब केवल एक ही
रास्ता बचता
है—दुखी हो
जाओ, जितना
दुखी हो सको
हो जाओ। जाओ
और बैठ जाओ
सड़क पर
भिखारियों के
साथ और रोओ और
चीखो और दुखी
होओ—और खतम
करो बात। अगर
तुम नरक चाहते
हो, तो
गुजरो नरक से।
यह एक
बड़ा अहंकारी
दृष्टिकोण है।
तुम सोच रहे
होओगे कि यह
करुणा है।
लेकिन यह
नासमझी है—क्योंकि
तुम्हारे
दुखी हो जाने
से ही सड़क के किसी
भिखारी को मदद
नहीं मिल जाती
है। अगर सौ
व्यक्ति दुखी
थे, तो
तुम्हारे
दुखी होने से
एक सौ एक हो
जाते हैं।
दुखी होकर तुम
कैसे किसी की
मदद कर सकते
हो? लेकिन
यह एक सूक्ष्म
अहंकार होता
है जो अच्छा महसूस
करता है : 'मैं
कितना दयालु
हूं कितना
करुणावान हूं।
मैं दूसरे
कठोर
व्यक्तियों
की तरह नहीं हूं, पत्थर जैसा
नहीं हूं; मेरे
पास हृदय है।
जब मैं गुजरता
हूं सड्कों से
तो मैं दुखी
हो जाता हूं, क्योंकि
मैं इतनी
गरीबी देखता
हूं चारों तरफ।’
यह एक
पवित्र
अहंकार है—बहुत
पवित्र मालूम
होता है, लेकिन
कहीं गहरे में
बहुत ही
अपवित्र होता
है।
लेकिन
अगर तुम्हें
गुजरना ही है
इससे, तो
गुजरो। मैं
क्या कर सकता
हूं?
तुम
यहां अपने
अंतस की खोज
के लिए हो। यह
अवसर मत गंवा
देना। भिखारी
तो सदा रहेंगे; तुम बाद
में भी दुखी
हो सकते हो।
वे इतनी जल्दी
संसार से विदा
नहीं हो
जाएंगे—डरो मत।
तुम उन्हें
सदा पाओगे।
अगर और कहीं
नहीं, तो
भारत में तो
तुम उनको सदा
ही पाओगे।
चिंता मत करो.
तुम सदा भारत
आ सकते हो और
दुखी हो सकते
हो; इसके
लिए जल्दी
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन मैं
यहां नहीं
रहूंगा सदा, यह स्मरण
रखना। अगली
बार जब तुम
आओगे, तो
भिखारी
रहेंगे—मैं
शायद न रहूं।
तो यदि
तुम जरा सा भी होश
रखते हो, तो मेरे साथ
होने के अवसर
का उपयोग कर
लेना। इसे
गंवा मत देना
किसी मूढ़ता
में। लेकिन
अगर तुम्हें
लगता है कि
तुम इसे नहीं
भूल सकते, तो
केवल एक ही
रास्ता है कि
भूल जाओ मुझे
और बैठो
भिखारियों के
साथ और दुखी
होओ—जितना हो
सकते हो दुखी
होओ। शायद इसी
तरह तुम इसके
बाहर आ सकते
हो। तुम्हें
मदद की जरूरत
है, गुजरो
इससे। मैं
प्रतीक्षा
करूंगा। जब
तुम्हारे लिए
यह बात खतम हो
जाए, तो आ
जाना।
चौथा
प्रश्न:
आप एक
ही साथ हम सब
लोगों पर कैसे
काम करते हैं? इसका राज
क्या है?
इसमें राज
जैसा कुछ भी
नहीं है।
क्योंकि मैं
तुम सबको
प्रेम करता
हूं तुम बहुत
नहीं रहते।
मेरा प्रेम
तुम्हारे
चारों ओर छाया
रहता है; उसमें तुम
एक हो जाते हो।
असल में मैं
एक—एक व्यक्ति
पर काम नहीं
कर रहा हूं
अन्यथा तो बहुत
कठिन हो जाए।
जब मैं तुमको
देखता हूं तो
मैं तुम्हें
अलग—अलग नहीं
देखता। मैं
तुम्हें
संपूर्ण के
हिस्से की
भांति देखता
हूं। मेरे
प्रेम की छांव
में तुम एक हो।
जिस क्षण तुम
समर्पण करते
हो, तुम
अहंकार की तरह
मिट जाते हो—तुम
एक विराट घटना
का हिस्सा हो
जाते हो। तुम
हो बूंद की
भांति. जब तुम
समर्पण करते
हो, तब तुम
सागर का
हिस्सा हो
जाते हो। मैं
काम करता हूं
सागर पर—बूदों
पर नहीं।
इसमें रहस्य
जैसा कुछ नहीं
है।
और असल
में यह कहना
कि मैं काम
करता हूं ठीक
नहीं है। यह
मेरे होने का
ढंग है। यह
कोई काम नहीं
है; यह
केवल मेरे
होने का ढंग
है। यह एक 'होना'
है। इससे
अन्यथा मैं हो
नहीं सकता। एक
बार तुम धड़कने
देते हो अपने
हृदय को मेरे
साथ, तो वह
काम करने लगता
है। असल में
यह बात
तुम्हारे
निर्णय की है।
अगर तुम चाहते
हो कि मैं कुछ
करूं, तो
बस उसे होने
दो। मैं तो कर
ही रहा हूं
काम। शायद तुम
पूरी दुनिया
में पच्चीस
हजार हो—या
शायद पच्चीस
लाख, उससे
कुछ अंतर न
पड़ेगा। मेरा
काम वही रहता
है। अगर पूरा
संसार भी
संन्यास ले ले,
तो भी मेरा
काम वही रहता
है।
यह ऐसा
ही है जैसे कि
एक दीया जल
रहा हो कमरे
में. कोई
व्यक्ति भीतर
आता है—तो एक
को प्रकाश
मिलता है; फिर दस
व्यक्ति आ
जाते हैं कमरे
में, तो
ऐसा नहीं होता
कि दीए पर
बहुत बोझ हो
जाता है। जब
वहा कोई न था
तो भी दीए से
प्रकाश झर रहा
था उस नितांत
मौन और एकांत
में। कोई एक
प्रवेश करता
है, वह देख
सकता है। अब
दस भीतर आएं, वे देख सकते
हैं। लाखों
भीतर आएं, और
वे देख सकते
हैं। प्रकाश
वहा बरस रहा
है, जब वहा
कोई नहीं होता
है, तो भी
वह बरस रहा
होता है।
अगर यहां
कोई न हो, तो भी मैं
इसी तरह काम
करता रहूंगा।
यह गिनती का
प्रश्न नहीं
है, और
इसमें कोई राज
नहीं है। और
असल में यह
काम नहीं है; यह प्रेम है।
जब तुम प्रेम
की अवस्था को
उपलब्ध हो
जाते हो, तो
तुम प्रकाश से
भर जाते हो।
वह प्रकाश तुमसे
बरसता रहता है,
एक ज्योति
जलती रहती है :
जो भी अपनी आंखें
खोलने को
तैयार हो, वह
उस प्रकाश का
लाभ ले सकता
है।
पांचवां
प्रश्न:
अगर
मैने आपसे
संन्यास न
लिया होता तो
मैने आपको छोड़
दिया होता और
मेरे पहले
गुरु भी शायद
अब मुझे
स्वीकार नहीं
करेंगे क्योंकि
मैने उनको छोड़
दिया और अपनी
श्रद्धा खोई।
बहरहाल मैं आप
में श्रद्धा
नहीं खोना
चाहता। अब मैं
बुद्धत्व की
भी आकांक्षा
नहीं करता हूं।
अगर आप मुझे
अपने चरणों
में बांधे रख
सके तो मैं
सोचता हूं कि
आपने गुरु के
रूप में अपना
कर्तव्य पूरा
किया।
इसमें बहुत
सी बातें
समझने जैसी
हैं; उनसे
मदद मिलेगी।
पहली
बात : मेरा
किसी के प्रति
कोई कर्तव्य
नहीं है जिसे
मुझे पूरा
करना है।’कर्तव्य'
एक गंदा
शब्द है, मेरे
देखे एक भद्दा
शब्द है, सर्वाधिक
भद्दा शब्द है।
प्रेम कोई
कर्तव्य नहीं
है। अगर लोगों
की मदद करना
तुम्हारा
प्रेम है, तो
तुम आनंदित
होते हो। यह
कर्तव्य नहीं
है, यह कोई
बोझ नहीं हैं।
कोई मुझे
जबरदस्ती
मजबूर नहीं कर
रहा है कुछ करने
के लिए। ऐसा
करने के लिए
किसी भी ढंग
से मैं बाध्य
नहीं हूं—यह
बस प्रेम का
एक प्रवाह है।
जब
प्रेम मर जाता
है, तो
कर्तव्य आता
है। तुम लोगों
से कहते हो, 'यह मेरा
कर्तव्य है कि
मैं आफिस में
काम करूं क्योंकि
मेरे पत्नी—बच्चे
हैं और
कर्तव्य तो
निभाना ही
होता है।’ तो
तुम प्रेम
नहीं करते
अपने बच्चों
से—इसीलिए यह
शब्द 'कर्तव्य'
अर्थपूर्ण
हो जाता है।
तुम्हारी की
मां मर रही है
और तुम कहते
हो, 'यह
मेरा कर्तव्य
है कि मैं मां
की सेवा करूं।’
तुम मां से
प्रेम नहीं
करते। अगर तुम
प्रेम करते हो,
तो कैसे तुम
प्रयोग कर
सकते हो यह
शब्द— 'कर्तव्य'?
एक
पुलिस वाला
सड़क पर खड़ा
हुआ अपना
कर्तव्य पूरा
कर रहा होता
है। ठीक है
बात, वह
प्रेम नहीं
करता उन लोगों
से जो कि
ट्रैफिक में अव्यवस्था
पैदा कर रहे
हैं। जब तुम
अपने आफिस
जाते हो, तो
तुम एक
कर्तव्य पूरा
कर रहे हो, एक
नौकरी। किंतु
यदि तुम कहते
हो कि दुम
अपने बच्चों
के प्रति अपना
कर्तव्य पूरा
कर रहे हो, तो
तुम इस शब्द
का प्रयोग
करके पाप कर
रहे हो। तुम
प्रेम नहीं
करते बच्चों
से : तुम बोझ ढो
रहे हो।
नहीं, मेरा कोई
कर्तव्य नहीं
है जिसे पूरा
करना है। मैं
तुमको प्रेम
करता हूं? इसलिए
बहुत सी बातें
होती हैं।
मेरे प्रति
कृतज्ञ होने
की भी जरूरत
नहीं है, क्योंकि
मैं कोई
कर्तव्य नहीं
निभा रहा हूं।
यदि मैं
कर्तव्य पूरा
कर रहा होऊं, तो तुम्हें
मेरे प्रति
कृतज्ञ होना
होगा। यह तो
बस प्रेम की
बात है।
असल
में मैं
तुम्हारा
कृतज्ञ हूं कि
तुमने मेरे
प्रेम को अपने
ऊपर बरसने
दिया। तुम
इनकार कर सकते
थे। और यही है
प्रेम का राज :
जितना ज्यादा
तुम प्रेम
बांटते हो, उतना
ज्यादा वह
बढ़ता है।
जितना ज्यादा
तुम बांटते हो,
उतने
ज्यादा जीवंत
स्रोत फूट
पड़ते हैं और
वह ज्यादा
बरसता है और
उपलब्ध होता
है बांटने के
लिए। जितना
ज्यादा तुम
देते हो, उतना
ज्यादा तुम पर
बरस जाता है।
मैं थका नहीं
हूं। मैं किसी
भी ढंग से
उससे बोझिल
नहीं हूं। यह
बात सुंदर है।
पहली
तो बात : मेरा
कोई कर्तव्य
नहीं है
तुम्हारे
प्रति पूरा
करने के लिए।
यदि तुम ऐसा
गुरु चाहते हो
जिसका कोई
कर्तव्य हो, तो तुम
गलत आदमी के
पास आ गए हो।
कहीं और जाओ।
बहुत से गुरु
हैं जो बड़े—बड़े
कर्तव्यों को
पूरा कर रहे
हैं। मैं तो
बस आनंदित हूं
स्वयं में।
क्यों पूरा
करूं मैं कोई कर्तव्य?
मैं आनंदित
हूं अपने साथ।
और जो कुछ मैं
करता हूं वह
मेरा आनंद है,
मेरा उत्सव
है।’ अगर
मैंने आपसे
संन्यास न
लिया होता तो
मैंने आपको
छोड़ दिया होता।’
अगर
ऐसा विचार आ
गया है, तो तुम छोड़
ही चुके हो।
शारीरिक रूप
से ही तुम यहां
मौजूद हो, जो
कि अर्थहीन है।
अगर तुम कहते
हो, ' अगर
मैंने आपसे
संन्यास न
लिया होता तो
मैंने आपको
छोड़ दिया
होतां।’ तो
तुम छोड़ ही
चुके हो और
संन्यास का
कोई अर्थ नहीं
है। कृपा करके
इसे वापस कर
दो—क्योंकि यह
तो एक बंधन हो
गया। तुम कहते
हो, 'मैंने
आपको छोड़ दिया
होता'—अब
यह संन्यास तुम्हारी
जंजीर बन रहा
है। गिरा दो
उसे। मैं यहां
तुम्हें
मुक्ति देने
के लिए हूं
तुम्हें बांधने
के लिए नहीं।
भूल जाओ उसे।
'और
मेरे पहले
गुरु भी शायद
अब मुझे
स्वीकार नहीं
करेंगे, क्योंकि
मैंने उनको
छोड़ दिया और
अपनी श्रद्धा
खोई।’
यह
तुम्हारे
अपने निर्णय
की बात है।
अगर पुराना
गुरु तुम्हें
स्वीकार नहीं
करेगा तो तुम
किसी नए गुरु
के पास जा
सकते हो, या तुम
पुराने गुरु
के पास जा
सकते हो और
दोबारा कोशिश
कर सकते हो।
अगर पुराना
गुरु सच में
ही गुरु था तो
वह हजारों बार
स्वीकार
करेगा, क्योंकि
जब कोई शिष्य
धोखा देता है,
तो यह कुछ
ज्यादा
उपद्रव की बात
नहीं होती। यह
करीब—करीब
स्वाभाविक
बात होती है।
अज्ञानी
व्यक्तियों
से इससे
ज्यादा की?, तो अपेक्षा
भी नहीं रखी
जा सकती। तो
जाओ और आजमाओ
पुराने गुरु
को ही। शायद
वह तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा हो। और
यदि वह क्षमा
नहीं कर सकता
तो वह गुरु
नहीं; तो
फिर कहीं और
ढूंढ लेना
किसी को।
और तुम
कहते हो, 'बहरहाल, मैं
आप में
श्रद्धा नहीं
खोना चाहता।’
तुम खो
ही चुके
श्रद्धा। असल
में, तुम्हारे
पास कभी वह थी
ही नहीं।
क्योंकि एक
बार तुम्हें
श्रद्धा हो तो
कैसे उसको तुम
खो सकते हो? कठिन है इसे
समझना, लेकिन
एक बार
तुम्हें
श्रद्धा हो तो
तुम उसको खो
नहीं सकते। यह
कुछ ऐसी बात
नहीं है जिसे
वापस लिया जा
सके। कौन लेगा
उसे वापस? श्रद्धा
का अर्थ होता
है : तुम अपने
अहंकार को समर्पित
कर देते हो।
यह अंतिम
कृत्य हो सकता
है अहंकार का।
एक बार अहंकार
समर्पित हो
गया, फिर
कैसे तुम वापस
ले सकते हो
उसको? यदि
तुम वापस ले
सकते हो उसको,
तो उसका
मतलब समर्पण
समर्पण था ही
नहीं—तुम खेल
रहे थे शब्द
के साथ, तुम्हें
पता ही नहीं
था कि इसका
अर्थ क्या होता
है। अगर तुम
समर्पण करते
हो, तो
समर्पण समग्र
और अंतिम होता
है—आत्यंतिक
होता है। पीछे
जाने का, पीछे
लौटने का कोई
उपाय नहीं
रहता।
'बहरहाल,
मैं आप में
श्रद्धा नहीं
खोना चाहता।’
यह
विचार ही
क्यों उठ रहा
है? तुम्हारे
पास श्रद्धा
है नहीं; तुम
खो ही चुके हो
उसको। असल में
वह कभी थी ही
नहीं
तुम्हारे पास।
यह बात
विरोधाभासी
मालूम पड़ेगी,
लेकिन यह सच
है।
पहली
तो बात केवल
वही श्रद्धा
खो सकती है जो
कभी थी ही
नहीं। अगर तुम
में श्रद्धा
नहीं है तो ही
तुम खो सकते
हो उसको; अगर श्रद्धा
है तो खोने की
कोई संभावना
नहीं है।
बिलकुल असंभव
है उसे खो
देना, क्योंकि
श्रद्धा में
तुमने अपने को
ही खो दिया
होता है, अब
कोई पीछे बचता
नहीं जो इसे
वापस ले सके
और अपने घर
चला जाए।
'अब
मैं बुद्धत्व
की भी आकांक्षा
नहीं करता हूं।’
तुम
आकांक्षा कर
रहे हो, अन्यथा क्या
जरूरत है मेरे
पैरों से
चिपके रहने की?
मेरे पैरों
का क्या मूल्य
है? क्यों
चिपके रहना
चाहते हो उनसे?
वे क्या दे
देंगे तुमको?
कहीं गहरे
में कामना है,
आकांक्षा
है। शायद अब
ज्यादा
सूक्ष्म हो, ज्यादा
परोक्ष हो, उतनी स्थूल
न हो, लेकिन
वह मौजूद है
अभी भी।
'अगर
आप मुझे अपने
चरणों में
बांधे रख सकें..।’
लेकिन
क्यों? मेरे पैरों
ने तुम्हारा
क्या बिगाड़ा
है? क्या
बुरा किया है?
क्यों तुम
मेरे पैरों के
पीछे पड़े हो? जरूरत क्या
है? सार
क्या है?
अभी दो
दिन पहले एक
बड़ी मूढ़
स्त्री मुझ से
मिलने आई। मूड
इसलिए
क्योंकि वह
कहने लगी, 'मैं
परमात्मा की
तलाश में हूं।’
मैंने उससे
पूछा कि वह
क्यों तलाश कर
रही है परमात्मा
की, क्या
बिगाड़ा है
परमात्मा ने उसका!
मैंने उससे
पूछा, 'तुम
जरूर किसी और
चीज की तलाश
कर रही हो—सुख,
प्रसन्नता,
आनंद...?'
उसने
कहा, 'नहीं,
मुझे कोई
रुचि नहीं सुख
में, प्रसन्नता
में। मैं
परमात्मा को
खोज रही हूं।’
लेकिन
किसलिए? वह इतनी
क्रोधित हो गई,
क्योंकि
मैंने पूछा कि
किसलिए। वह
तुरंत चली गई।
क्यों कोई
खोजेगा
परमात्मा को?
सार क्या है?
एकदम
मूढुता की बात
मालूम पड़ती है।
परमात्मा को
कोई खोजता है
आनंदित होने
के लिए। आत्म—ज्ञान
को कोई खोजता
है सुखी होने
के लिए—दुखी
होने के लिए
नहीं। सत्य को
कोई खोजता है
शाश्वत आनंद
पाने के लिए।
वस्तुत:
हर कोई सुख की
तलाश में है, और इसके
अतिरिक्त कुछ
और हो नहीं
सकता—और कोई
संभावना नहीं
है। और जो लोग
कहते हैं कि
वे सुख की
तलाश में नहीं
हैं, वे
मूढ़ होते हैं
किसी न किसी
ढंग से। वे
नहीं जानते कि
वे क्या कह
रहे हैं।
तुम्हारा सुख
इस संसार का
हो सकता है, तुम्हारा
सुख इस संसार
से परे
पारलौकिक
संसार का हो
सकता है—उससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता—लेकिन हर
कोई सुख चाहता
है। हर कोई
तलाश कर रहा
है सुख की, और
हर कोई गहरे
में स्वार्थी
है। इससे
अन्यथा संभव
नहीं है। मैं
निंदा नहीं कर
रहा हूं किसी
की—ध्यान में
ले लेना इस
बात को। ऐसा
ही है जैसा
होना चाहिए।
लोग
आते हैं मेरे
पास और वे
कहते हैं कि
वे लोगों की
सेवा करना
चाहते हैं।
किसलिए? अगर कोई डूब
रहा हो नदी
में और तुम
कूद पड़ो नदी में
और अपना जीवन
दाव पर लगा दो
और उस व्यक्ति
की मदद करो
बाहर आने में,
तो क्या तुम
समझते हो
तुमने उस
व्यक्ति की मदद
की? यदि
तुम सोचते हो
कि तुमने उस
व्यक्ति की
मदद की है और
तुमने उस
व्यक्ति की
सेवा की है और
तुमने अपना
जीवन दाव पर
लगाया है और
तुम महान परोपकारी
हो, तो तुम
गहरे नहीं देख
रहे हो। उस
व्यक्ति की
मदद करके
तुमने बहुत
प्रसन्नता
अनुभव की। मदद
न करके तुमने
अपराध— भाव
अनुभव
किया
होता। यदि तुम
वहां से
उपेक्षा करके
चले गए होते, तो
तुम्हारा
हृदय सदा—सदा
के लिए अपराध
से भरा रहता।
तुम दुखी होते।
बार—बार सपने
में तुम उस
व्यक्ति को
डूबते हुए देखते—और
तुम उसे बचा
सकते थे और
तुमने उसे
नहीं बचाया।
जब तुम
किसी आदमी को
नदी में डूबने
से बचाते हो
तो तुम
प्रसन्नता
अनुभव करते हो।
असल में
तुम्हें
धन्यवाद देना
चाहिए उस आदमी
को : 'तुम
बहुत अदभुत हो।
तुम ठीक उसी
समय पर डूबे, जब मैं यहां
से गुजरा।
तुमने मुझे
बहुत खुशी दी,
बहुत गहरी
खुशी, बहुत
गहरा संतोष कि
मैं किसी आदमी
की मदद कर सका।
मैं किसी के
काम आ सका; मैं
धरती पर बेकार
ही बोझ नहीं
हूं। मैं
कितना अच्छा
अनुभव कर रहा
हूं।’ तुम्हारे
पांवों में
थिरकन आ जाती
है। तुम्हारी आंखों
में रोशनी आ
जाती है। तुम
एक गौरव अनुभव
करते हो। तुम
अपनी ही
दृष्टि में
उठा हुआ अनुभव
करते हो। यह
अपने ही सुख की
तलाश है।
कोई
किसी की मदद
नहीं करता—कर
नहीं सकता। हर
व्यक्ति तलाश
कर रहा है
अपने सुख की, अपनी
खुशी की।
बुद्धत्व वह
परम आनंद है
जो एक बार
उपलब्ध होने
पर खोता नहीं।
उस अवस्था को
उपलब्ध होने
की आकांक्षा
तुम कैसे छोड़
सकते हो? वह
मौजूद है, अन्यथा
क्यों तुम मेरे
चरणों से
चिपके रहना
चाहते हो?
सजग
होओ। अपनी आकांक्षाओं
के प्रति सजग
होओ। क्योंकि
जब तुम सजग
होते हो, केवल तभी
तुम समझ सकते
हो; और समझ
के द्वारा ही
रूपांतरण
घटित होता है।
मुझे
पता है कि जब
तक सारी
आकांक्षा न
गिर जाए, बुद्धत्व
संभव नहीं है।
और यही मैं कहता
रहता हूं तुम
से—इसीलिए तुम
अब कहते हो कि
तुम कोई आकांक्षा
नहीं कर रहे
हो। तो फिर
तुम यहां कर
क्या रहे हो? अगर तुम ठीक—ठीक
समझते हो, तो
न तुम कहोगे, 'मैं
आकांक्षा
नहीं करता हूं,
न तुम कहोगे,
'मैं आकांक्षा
करता हूं।’ अगर तुम समझ
लेते हो तो
आकांक्षा
विदा हो जाती
है—कोई चिह्न
तक नहीं बचता।
तब तुम यह भी
नहीं कहते, 'मैं
आकांक्षा
नहीं करता हूं।’
बस, सहज
रूप से आकांक्षा
मिट जाती है।
तुम प्रकाश से
भर जाते हो, आनंद से भर
जाते हो, आकांक्षा
का अंधकार खो
जाता है।
लेकिन
उसके लिए
तुम्हें
निरंतर
होशपूर्ण रहना
है, क्योंकि
आकांक्षा
बहुत से रूप
लेगी और बहुत—बहुत
ढंग से
तुम्हें धोखा
देगी, और
आकांक्षा
इतनी सूक्ष्म
हो सकती है कि
तुम करीब—करीब
भूल ही जाओ कि
वह आकांक्षा
है। वह कुछ और
होने का
दिखावा कर
सकती है। आकांक्षा
दिखावा कर
सकती है
आकांक्षाशून्य
होने का भी, लेकिन तुम पहचान
सकते हो—जब
किसी व्यक्ति
में कोई
आकांक्षा
नहीं बचती, तो पूछने को
कुछ नहीं रहता।
वह तो बस होता
है, और
अस्तित्व
जहां ले जाना
चाहे वहां
जाता है। जब
तुम आकांक्षा
को गिरा देते
हो, तब
संपूर्ण
अस्तित्व
तुम्हें
सम्हाल लेता है,
तुम बहते हो
नदी के साथ।
तब तुम्हारा
कोई अपना निजी
लक्ष्य नहीं
रहता।
अभी
कुछ दिन पहले
मैं तुम्हें 'ईडियट' शब्द का
अर्थ बता रहा
था। वह आता है
ग्रीक मूल से,
ग्रीक शब्द
है—'ईडियाटिकी'। इसका अर्थ
होता है 'विशिष्ट
लक्ष्य'।
वह व्यक्ति
जिसका अपना
कोई विशिष्ट
लक्ष्य होता
है, वह
व्यक्ति
जिसका अपना
कोई विशिष्ट
संसार होता है
—समग्रि के
विरुद्ध—वह 'ईडियट' है,
मूढ़ है।
जब तुम
समष्टि के साथ
बहते हो—धारा
में तैरते तक
नहीं बल्कि
धारा के साथ
बहते हो, जहां भी वह
ले जाए—तो तुम
क्षण— क्षण
बुद्धत्व में
जीते हो। जब
बुद्धत्व की
आकांक्षा मिट
जाती है, तब
बुद्धत्व
घटित होता है।
प्रश्नकर्ता
के लिए अभी वह
घटित नहीं हुआ
है। जरूर कोई आकांक्षा
होगी; जरा
ध्यान से उसे
देखना।
छठवां
प्रश्न:
कोई
कैसे चिंता
करना छोडे?
पूछा है 'पथिक दि
पैथेटिक' ने!
वह नाहक ही 'पैथेटिक' बना हुआ है।
अब, 'कोई
कैसे चिंता करना
छोड़े?' चिंता
छोड़ने की
जरूरत क्या है?
अगर तुम
चिंता छोड़ने
की कोशिश में
लग जाते हो, तो तुम एक नई
चिंता बना
लेते हो : कैसे
चिंता करना
छोड़े! तब तुम
चिंताओं की
चिंता करने
लगते हो; तब
चिंता दुगनी
हो जाती है, तब कोई उपाय
नहीं रह जाता
है।
और अगर
कोई कहता है, जैसे कि
बहुत लोग हैं..
डेल कार्नेगी
ने किताब लिखी
है: 'चिंता
कैसे छोड़े और
जीना शुरू
करें।’ ये
लोग और चिंता
निर्मित कर
देते हैं, क्योंकि
ये तुम्हें
आशा दे देते
हैं कि चिंताएं
छोड़ी जा सकती
हैं। वे छोड़ी
नहीं जा सकतीं;
लेकिन वे खो
जाती हैं—इतना
मैं जानता हूं।
वे छोड़ी नहीं
जा सकतीं, किंतु
वे तिरोहित हो
जाती हैं! तुम
उनके विषय में
कुछ कर नहीं
सकते। यदि तुम
उन्हें आने दो
और जरा भी
परवाह न करो, तो वे
तिरोहित हो
जाती हैं।
चिंताएं
तिरोहित होती
हैं, वे
छोड़ी नहीं जा
सकतीं—क्योंकि
जब तुम कोशिश
करते हो
उन्हें छोड़ने
की, तो तुम
हो कौन? वही
मन जो कि
चिंताएं खड़ी
कर रहा है वह
एक नई चिंता
बना लेता है
कि चिंता कैसे
छोड़े! अब तुम
पागल हो जाओगे।
परेशान हो
जाओगे। अब
तुम्हारी
हालत उस
कुत्ते जैसी
हो जाएगी जो
अपनी ही पूंछ
को पकड़ने की
कोशिश कर रहा
है।
देखना
किसी कुत्ते
को; वह
देखने जैसी
बात है।
सर्दियों में
भारत में तुम
कहीं भी देख
सकते हो
कुत्तों को
धूप सेंकते
हुए, धूप
का मजा लेते
हुए। फिर वह
अचानक ही अपनी
पूंछ के प्रति
सजग हो जाता
है कि यह क्या
है। इतना
आकर्षण, कि
वह छलांग लगा
देता है।
लेकिन पूंछ भी
छलांग लगा
देती है।
निश्चित ही एक
कुत्ते के लिए
यह बात सहना
जरा ज्यादा ही
है, यह
असंभव है। यह
बात चोट करती
है कि यह
साधारण सी
पूंछ और परेशान
कर रही है—इतने
बड़े कुत्ते
को! वह पागल हो
जाता है, गोल—गोल
घूमता है। तुम
देखोगे उसको
हांफते हुए, परेशान, और
वह विश्वास ही
नहीं कर पाता
कि यह क्या हो
रहा है। वह—और
इस पूंछ को
नहीं पकड़ पा
रहा?
अपनी
ही पूंछ को
पकड़ने वाले
कुत्ते जैसा
व्यवहार मत
करो, और
मत सुनो डेल
कार्नेगियों
को। यही है
एकमात्र विधि
जो वे तुम्हें
सिखा सकते हैं
: अपनी ही पूंछ
का पीछा करो
और पागल हो
जाओ। एक
दृष्टि है—विधि
नहीं—एक
दृष्टि से
चिंताएं मिट
जाती हैं : अगर
तुम उनको बस
देखते भर रहो,
तटस्थता से,
अलग— थलग; तुम उन्हें
देखते रहो
जैसे
तुम्हारा कोई
लेना—देना न
हो। वे हैं; तुम उनको
स्वीकार कर लो।
जैसे कि बादल
तिरते हैं
आकाश में :
विचार चलते हैं
मन में, अंतर—आकाश
में। ट्रैफिक
चलता है सड़क
पर : विचार चल
रहे हैं भीतरी
सड़क पर। बस, तुम उनको
देखते रहते हो।
तुम
क्या करते हो
जब तुम सड़क के
किनारे खड़े बस
की प्रतीक्षा
कर रहे होते
हो? तुम
केवल देखते
रहते हो।
ट्रैफिक चलता
रहता है; तुम्हारा
कुछ लेना—देना
नहीं होता
उससे। जब
तुम्हारा कुछ
लेना—देना
नहीं होता, चिंताएं कम
होने लगती हैं।
तुम्हारा
जुड़ाव ही
उन्हें ऊर्जा
देता है। तुम
उन्हें पोषित
करते हो; तुम
उन्हें शक्ति
देते हो; और
फिर तुम पूछते
हो—उन्हें
छोड़े कैसे। और
जब तुम पूछते
हो कि उन्हें
छोड़े कैसे, तो वे तुम पर
हावी हो चुकी
होती हैं।
गलत
प्रश्न मत
पूछो।
चिंताएं हैं, स्वाभाविक
है यह। जीवन
इतनी विराट और
जटिल घटना है
कि चिंताएं होंगी
ही। उन्हें
देखो। साक्षी
बने रहो और
कर्ता मत बनो।
मत पूछो कि
कैसे छोड़े। जब
तुम पूछते हो
कैसे छोड़े, तो तुम पूछ
रहे हो कि
क्या करें।
नहीं, कुछ
नहीं किया जा
सकता है।
स्वीकार करो
उनको—वे हैं।
गौर से देखो
उनको, प्रत्येक
कोण से देखो
उनको, कि
वे क्या हैं।
छोड़ने की बात
ही भूल जाओ।
और एक
दिन अचानक तुम
देखते हो कि
केवल ध्यान देने
से, केवल
देखने से, एक
अंतराल पैदा
होता है।
चिंताएं नहीं
हैं; ट्रैफिक
रुक गया है; रास्ता खाली
है; कोई
नहीं गुजर रहा
है। उस खालीपन
में, उस
शून्यता में
भगवत्ता
प्रकट होती है।
उस शून्यता
में अचानक
तुम्हें झलक
मिलती है अपने
बुद्धत्व की,
अपने आंतरिक
वैभव की, और
हर चीज एक
प्रसाद हो
जाती है।
लेकिन
तुम चिंताओं
को छोड़ नहीं
सकते। तुम
उनको स्वीकार
कर सकते हो; उनको
होने दे सकते
हो; ध्यान
दे सकते हो उन
पर—बहुत ही
उपेक्षापूर्ण,
तटस्थ
दृष्टि से, जैसे कि
उनका कोई
अस्तित्व ही न
हो। और वे बस
विचारों के
बुदबुदे ही
हैं, उनका
सच में ही कोई
अस्तित्व
नहीं है।
जितने ज्यादा
तुम उनसे जुड़
जाते हो, उतनी
ही वे
महत्वपूर्ण
हो जाती हैं।
जितनी ज्यादा
वे
महत्वपूर्ण
हो जाती हैं, उतने ज्यादा
तुम उनसे जुड़
जाते हो। अब
तुम एक
दुध्वक्र
निर्मित कर
लेते हो। इस
दुक्कक्र के
बाहर आओ।
सातवां
प्रश्न:
क्या
मूल्यांकन
करने और विवेक
करने के बीच
कोई अंतर है?
हां, बहुत
अंतर है।
मूल्यांकन
आता है
तुम्हारे
विश्वासों से,
सिद्धांतो
से, धारणाओं
से, मूल्यांकन
आता है
तुम्हारे
अतीत से, तुम्हारे
ज्ञान से।
विवेक आता है
तुम्हारे
वर्तमान से, तुम्हारे
बोधपूर्ण
प्रतिसंवेदन
से।
उदाहरण
के लिए. तुम
किसी शराबी को
देखते हो।
तुरंत एक
मूल्यांकन आ
जाता है. यह
आदमी अच्छा काम
नहीं कर रहा
है—'शराबी'
है। तुरंत
एक निंदा—यह
है मूल्यांकन!
यदि तुम्हारे
पास कोई निश्चित
धारणाएं नहीं
हैं कि क्या
ठीक है और
क्या गलत है, तो कैसे तुम
इतनी जल्दी
निर्णय कर
सकते हो! तुम
उस आदमी को
बिलकुल नहीं
जानते, उसकी
परिस्थिति को
नहीं जानते।
उसकी
समस्याओं का
तुम्हें कुछ
पता नहीं, उसकी
पीड़ाओं का
तुम्हें कुछ
पता नहीं। उस
आदमी की पूरी
जिंदगी जाने
बिना तुम कोई
निर्णय कैसे
दे सकते हो? एक हिस्से
से ही कैसे
निर्णय कर
सकते हो तुम? कैसे कह
सकते हो तुम
कि यह आदमी
बुरा है? अगर
वह शराबी न
होता तो क्या
तम सोचते हो
कि वह कुछ
बेहतर आदमी
होता? संभव
है कि वह और भी
बुरा होता।
ऐसा
मेरा बहुत से
शराबियों के
साथ अनुभव रहा
है कि वे
अच्छे आदमी
होते हैं—बहुत
कोमल, बहुत
भरोसे के, चालाक
नहीं होते, सीधे—साफ
होते हैं—बच्चों
जैसा निर्दोष
भाव होता है।
तो क्यों वे
शराब पीते हैं
फिर? संसार
ज्यादा भारी
हो जाता है
उनके लिए; वे
उसका सामना
नहीं कर पाते।
वे इस संसार
के लिए नहीं
बने होते; यह
संसार बहुत
धूर्त है। वे
भुला देना
चाहते हैं इसे,
और वे नहीं
जानते कि क्या
करें—और शराब
आसानी से मिल
जाती है; ध्यान
को तो खोजना
पड़ता है
व्यक्ति को।
मेरे देखे. वे
सब लोग जो
शराबी हैं
उन्हें ध्यान
की जरूरत होती
है। वे ध्यान
की खोज में
होते हैं—आनंद
की गहरी खोज
में होते हैं,
लेकिन
उन्हें कोई
द्वार, कोई
रास्ता नहीं
मिलता।
अंधेरे में
टटोलते हुए
शराब उनके हाथ
लग जाती है।
बाजार में
शराब आसानी से
मिल जाती है; ध्यान इतनी
आसानी से नहीं
मिलता। लेकिन
गहरे में उनकी
तलाश ध्यान के
लिए ही होती
है।
संसार
भर में जो लोग
मादक द्रव्य
ले रहे हैं उन्हें
भीतरी आनंद की
ही तलाश है।
वे एक
संवेदनशील
हृदय निर्मित
करने की बड़ी
कोशिश करते
हैं और उन्हें
ठीक उपाय, ठीक
मार्ग नहीं
मिलता। इतनी
आसानी से नहीं
मिलता है ठीक
मार्ग, और
मादक द्रव्य
आसानी से मिल
जाते हैं। और
मादक द्रव्य
दे देते हैं
झूठी झलकियां.
वे तुम्हारे
मन में एक
रासायनिक
स्थिति
निर्मित कर
देते हैं
जिसमें तुम
ज्यादा
तीव्रता से, ज्यादा संवेदनशील
ढंग से अनुभव
करना शुरू कर
देते हो। वे
तुम्हें
वास्तविक
ध्यान नहीं दे
सकते हैं, लेकिन
फिर भी वे
तुम्हें उसकी
एक झूठी छाया
दे सकते हैं।
लेकिन
मेरी समझ है
कि जो खोज रहा
है, वह
झूठी घटना का
शिकार हो सकता
है, लेकिन
वह खोज तो रहा
ही है। किसी
भी दिन वह
इससे बाहर आ
जाएगा, क्योंकि
यह बात उसे
असली अनुभव तो
दे नहीं सकती
और यह सदा
उसको धोखा
नहीं दे सकती।
किसी न किसी
दिन वह जान
लेगा कि वह
स्वयं को धोखा
देता रहा है
रासायनिक
पदार्थों
द्वारा।
लेकिन उसके
भीतर खोज है।
वे लोग
जिन्होंने
कभी शराब नहीं
पी, वे लोग
जिन्होंने
कभी कोई नशा
नहीं किया, वे लोग जो
बिलकुल बुरे
नहीं हैं—अच्छे
लोग, सम्मानित
लोग—वे ध्यान
की खोज में
बिलकुल नहीं
हैं।
तो
कैसे हो
निर्णय? कैसे उस
व्यक्ति को 'बुरा' कहो
जो खोजी है? और कैसे उस
व्यक्ति को 'अच्छा' कहो
जो बिलकुल
नहीं है खोज
की राह पर? शराबी
तो शायद किसी
दिन पहुंच भी
जाए परमात्मा
तक, क्योंकि
वह उसे खोज
रहा है। और
असल में जब तक
वह परमात्मा
को न उपलब्ध
हो जाए, उसकी
शराब नहीं छूट
सकती—क्योंकि
केवल वही
तृप्ति दे
सकता है। तब
झूठ छूट जाएगा।
लेकिन
सम्मानित
व्यक्ति—जो हर
रविवार को
चर्च जाता है,
शराब नहीं
पीता, सिगरेट
नहीं पीता, बाइबिल पढ़ता
है, कुरान
पढ़ता है, गीता
पढ़ता है—यह
आदमी तो खोज
ही नहीं रहा
है। तो कौन
बुरा है? कैसे
तय करोगे?
अब
संसार भर में
मादक
द्रव्यों को
लेकर नई पीढ़ी
के बारे में
बहुत चिंता है।
युवा पीढ़ी
पूरी तरह मादक
द्रव्यों में
उत्सुक है।
क्या हो रहा
है 2: कैसे
निर्णय करें? क्या
कहें इस बारे
में? यदि
तुम सजग हो तो
निर्णय देना
इतना आसान न
होगा। यदि तुम
सजग नहीं हो, तो तुम
तुरंत निर्णय
दे सकते हो कि
वे गलत हैं या
वे गलत नहीं
हैं। फिर ऐसे
लोग हैं जो
मादक
द्रव्यों के
पक्ष में हैं,
टिमोथी
लिअरी और कई
दूसरे लोग, जो कहते हैं,
'यह सुंदर
अनुभव है।’ और फिर ऐसे
लोग हैं—संसार
की तमाम
व्यवस्थाएं—जो
विरुद्ध हैं;
वे कहते हैं,
'यह बहुत
विनाशकारी
बात है।’
लेकिन
सचाई क्या है? जो लोग
मादक द्रव्य
ले रहे हैं वे
वियतनाम नहीं
बना रहे, कश्मीर
नहीं बना रहे,
मिडिल—ईस्ट नहीं
बना रहे। जो
लोग मादक
द्रव्य ले रहे
हैं वे कहीं
भी कोई युद्ध
खड़ा नहीं कर
रहे। उन्होंने
किसी
मुजीबुर्रहमान
का कत्ल नहीं
किया है; वे
किसी की हत्या
नहीं कर रहे
हैं। अगर तुम
सोचते भी हो
कि वे हानि
पहुंचा रहे हैं,
विनाशकारी
हैं, तो वे
अपने को ही
हानि पहुंचा
रहे हैं, किसी
और को नहीं।
वे किसी के
जीवन में
हस्तक्षेप
नहीं कर रहे हैं।
और ये
सम्मानित लोग,
ये
जिम्मेवार
हैं संसार भर
में हो रही
अत्यधिक
हिंसा के लिए।
ये सम्मानित
लोग हैं। अब
जिन्होंने
मुजीबुर्रहमान
को और उसके
सारे परिवार
को मार डाला—अब
वे
राष्ट्रपति
हो गए हैं और न
जाने क्या—क्या
हो गए हैं, और
वे सम्मानित
व्यक्ति हैं।
तो
वास्तविक
अपराधी कौन है? रिचर्ड
निक्सन ने कोई
मादक द्रव्य
नहीं लिए।
क्या तुम्हें
पता है, एडोल्फ
हिटलर ने कभी
शराब नहीं पी,
कभी सिगरेट
नहीं पी, पक्का
शाकाहारी था।
क्या तुम उससे
बड़ा अपराधी
खोज, सकते
हो? वह
पक्का जैन था—शाकाहारी,
धूम्रपान न
करने वाला, शराब न पीने
वाला, और
वह बड़ा
अनुशासित
जीवन जीता था,
घड़ी के
हिसाब से चलता
था—और उसने
नरक बना दिया
धरती को! कई
बार मैं सोचता
हूं कि अगर
उसने थोड़ी
शराब पी ली
होती तो क्या
बेहतर न होता?
शायद तब वह
इतना
हिंसात्मक न
होता। अगर वह
थोड़ा
धूम्रपान कर
लेता—मूढ़तापूर्ण
है, पर
निर्दोष खेल
है धूम्रपान—तो
वह इतना कठोर
न होता, क्योंकि
धूम्रपान एक
प्रकार का
रेचन है।
इसीलिए
जब भी तुम
क्रोधित
अनुभव करते हो, तो तुम
धूम्रपान
करना चाहते हो;
जब भी तुम
चिड़चिड़ाहट
अनुभव करते हो,
तो तुम
धूम्रपान
करना चाहते हो।
जब भी तुम
अशांत होते हो,
व्याकुल
होते हो, तो
तुम धूम्रपान
करना चाहते हो।
वह मदद करता
है। लेकिन
करने के लिए
बेहतर चीजें
हैं. तुम किसी मंत्र
का प्रयोग कर
सकते हो।
धूम्रपान भी
एक प्रकार का
मंत्र है।
इसकी जगह तुम
कह सकते हो, 'राम, राम,
राम, राम..।’
धूम्रपान
एक प्रकार का
मंत्र है :
तुम धुआं भीतर
खींचते हो, तुम धुआं
बाहर छोड़ते हो;
तुम धुआं
भीतर लेते हो,
तुम धुआं
बाहर फेंकते
हो.. एक
पुनरुक्ति!
धूम्रपान द्वारा
एक प्रकार का
जप करते हो।
तुम कह सकते
हो, 'राम, राम, राम'—वह बात भी
मदद देगी। अब
जब क्रोध आए
तो जरा प्रयोग
करना, दोहराना.
'राम, राम,
राम.।’ वह
धूम्रपान से
बेहतर है।
लेकिन बात वही
है, कुछ
ज्यादा अंतर
नहीं है।
अगर
एडोल्फ हिटलर
किसी की पत्नी
के प्रेम में पड़
गया होता, तो उसकी
निंदा की जाती
कि बुरा आदमी
है, लेकिन
वह इतना
हिंसात्मक न
होता। तब वह
थोड़ा शिथिल, थोड़ा शांत
होता—तो संसार
बेहतर होता।
तो
क्या कहा जाए? कैसे हो
निर्णय? चीजें
जटिल हैं। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
शराबी हो जाओ,
और मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि मादक
द्रव्य लेने
लगो। मैं यह
कह रहा हूं कि
जीवन की
जटिलता ऐसी है
कि किसी को
निर्णय नहीं
लेना चाहिए।
निर्णय
आते हैं
क्षुद्र मनों
से; वे
सदा तैयार
रहते हैं
निर्णय करने
के लिए।
तुम्हारे
निर्णय ऐसे
हैं जैसे कि
तुम्हें एक छोटा
सा टुकड़ा मिल
जाए कागज का
किसी बड़े
उपन्यास के
पन्ने का और
तम पढ़ लो कुछ
पंक्तियां —वे
भी पूरी न हों—बस
थोड़ी सी
पंक्तियां, पन्ने का एक
हिस्सा ही : और
का दे दो
निर्णय। इसी
तरह तो तुम कर
रहे हो। किसी
व्यक्ति के
जीवन का एक
हिस्सा ही आता
है तुम्हारी
निगाहों के
सामने और तुम
निर्णय कर लेते
हो पूरे
व्यक्ति के
संबंध में—कि
वह बुरा है, कि वह अच्छा
है। नहीं, बुद्धिमान
व्यक्ति
निर्णय नहीं
लेते।
ऐसा
हुआ जीसस के
साथ। लोग एक
स्त्री को
लेकर उनके पास
आए; और
सारा शहर पागल
हुआ जा रहा था।
मूढ़ व्यक्ति
सदा पागल होते
हैं; भीड़
सदा पागल होती
है—छोटी—छोटी
बातो के लिए, वस्तुत: ना—कुछ
बातो के लिए।
उन्होंने कहा,
'इस स्त्री
ने पाप किया
है। यह
व्यभिचारिणी
है। तो क्या
करना चाहिए
हमें इसके साथ?
पुराने
शास्त्र कहते
हैं कि इसे
पत्थर मार—मार
कर मार डालना
चाहिए।’
वे एक
तीर से दो
शिकार करना
चाहते थे—उस
स्त्री और
जीसस दोनों को
मुश्किल में
डालना चाहते थे।
क्योंकि अगर
जीसस कहते, 'ही, पुराना
शास्त्र सही
है। इस स्त्री
को मार डालो।’
तो वे पूछते,
'आपके
सिद्धात का
क्या हुआ—कि
अपने शत्रु से
भी प्रेम करो?
आपके
सिद्धात का
क्या हुआ—कि
दूसरा गाल
सामने कर दो? अगर कोई
तुम्हारे एक
गाल पर मारता
है तो उसे दूसरा
गाल भी दे दो? आपके क्षमा
के सिद्धात का
क्या हुआ? क्या
आप उसे बिलकुल
ही भूल गए?' और
अगर जीसस कहते
हैं कि पुराना
शास्त्र गलत है,
तो वे
अधार्मिक हैं,
धर्मद्रोही
हैं—वें
विरुद्ध हैं
शास्त्रों के।
उन्हें मार
डालना चाहिए।
लोग तैयार ही
थे। असल में
स्त्री में
उन्हें ज्यादा
रस न था; उन्हें
जीसस में
ज्यादा रस था।
स्त्री तो
केवल बहाना थी
जीसस को घेरने
के लिए।
जीसस
सोचते रहे कुछ
देर। निर्णय
में देर नहीं
लगती है, क्योंकि वह
बना—बनाया
तैयार होता है।
वह तैयार ही
होता है, रेडीमेड
होता है : बंधा—बंधाया
होता है। एक
सजग व्यक्ति
थोड़ा ठहरता है,
देखता है
चारों तरफ, अनुभव करता
है, अपने
बोध के स्पर्श
से टटोलता है
पूरी बात—कि
स्थिति क्या
है? उन्होंने
देखा वहां
बैठी हुई उस
गरीब स्त्री को।
आंसू बह रहे
थे। उन्होंने
देखा इन
क्रोधित
व्यक्तियों
को। उन्होंने
अनुभव किया
पूरी स्थिति
को, फिर
उन्होंने कहा,
'हां, शास्त्र
की आशा है कि
इस स्त्री को
पत्थर मार—मार
कर मार डालो, लेकिन पहला
पत्थर वह आदमी
मारे जिसने
कभी कोई पाप न
किया हो। अगर
तुमने कभी
व्यभिचार
नहीं किया, अगर तुमने
कभी व्यभिचार
का सोचा भी
नहीं, तो
उठाओ पत्थर।’
वे नदी
के किनारे
बैठे हुए थे, बहुत
सारे पत्थर
पड़े थे आस—पास।
जो लोग बिलकुल
आगे—आगे खड़े
थे—शहर के
सम्मानित
व्यक्ति—वे
पीछे हटने लगे।
वे भयभीत हो
गए; अब यह
खतरनाक बात थी।
धीरे— धीरे सब
लोग वहा से
चले गए। केवल
जीसस और वह
स्त्री रह गए।
उस स्त्री ने
जीसस को बहुत
श्रद्धा से
देखा। बहुत
अदभुत बात है :
वे सम्मानित
व्यक्ति नहीं
पहचान सके
जीसस को और
पापी ने पहचान
लिया!
वह
स्त्री जीसस
के चरणों में
गिर पड़ी, और उसने कहा,
'मैंने पाप
किया है। मुझे
क्षमा करें।’
जीसस ने कहा,
'यह बात
तुम्हारे और
तुम्हारे
परमात्मा के
बीच की है।
मैं कौन होता
हूं निर्णय
करने वाला? अगर तुम
सोचती हो कि
तुमने कुछ गलत
किया है तो याद
रखना और उसे
फिर मत करना, बस इतना ही।
लेकिन मैं कौन
होता हूं
निर्णय करने
वाला और कहने
वाला कि तुम
पापी हो। यह
तुम्हारे और
तुम्हारे
परमात्मा के
बीच की बात है।’
समझदार
व्यक्ति
प्रतिसंवेदित
होता है—निर्णय
के साथ नहीं, बल्कि
विवेक के साथ।
जीसस ने बहुत
विवेक से काम
लिया।
उन्होंने कहा,
'हा, यह
बात ठीक है, शास्त्र ठीक
कहता है। मार
डालो इस
स्त्री को।’ फिर
उन्होंने
विवेक से थोड़ा
भेद किया, 'अब,
जो स्वयं
पापी नहीं हैं,
उन्हें ही
अपने हाथों
में उठाने
चाहिए पत्थर और
वही मारें
स्त्री को।’ यह है विवेक—सम्मत
निर्णय। यह
आया बोध से; यह कोई
मुर्दा
निर्णय नहीं
था। उन्होंने
किसी शास्त्र
का अनुसरण
नहीं किया।
उन्होंने खुद
बनाया अपना
शास्त्र—सजगता
के उस क्षण
में।
सजग व्यक्ति
लकीर का फकीर
नहीं होता; सजग
व्यक्ति की
सजगता ही उसका
मार्गदर्शक
होती है। और
वह सजगता कभी
गलत नहीं होती,
मैं यह कहता
हूं तुम से।
वह कभी गलत
नहीं होती। और
वह सदा
प्रामाणिक
होती है, सच्ची
होती है—वर्तमान
क्षण के प्रति
सच्ची होती है।
अंतिम
प्रश्न :
पद्यसंभव
का कहना है 'जब लोहे
का पक्षी
उड़ेगा तब धर्म
लाल मनुष्य की
भूमि में
पहुंचेगा।’ क्या इस
भविष्यवाणी
को पूरा करना
आपके काम का हिस्सा
है?
मैं यहां किसी
की
भविष्यवाणी
पूरा करने के
लिए नहीं हूं।
और क्यों करूं
मैं पूरा? यह
पद्यसंभव की
अपनी कल्पना
हो सकती है, लेकिन वह
अपनी कल्पना
मुझ पर
जबरदस्ती
क्यों लादे? मैं यहां
स्वयं होने के
लिए हूं। मैं
कोई प्रोफेट
नहीं हूं,
और मैं यहां
किसी को उसके
पापों से
मुक्ति दिलाने
के लिए नहीं
हूं। मैं यहां
धर्म का कोई
युग लाने के
लिए नहीं हूं।
ये तमाम बातें
एकदम व्यर्थ
और मूढ़ता भरी
हैं।
मैं तो
अपना आनंद
मनाता हूं।
अगर तुम भी
आनंद मनाना
चाहते हो तो
तुम मेरे आनंद
में सम्मिलित
हो सकते हो, बस इतना
ही। मेरे देखे,
जीवन कोई
गंभीर बात
नहीं है।
प्रोफेट जीवन
को बड़ी
गंभीरता से
लेते हैं। संत
सरल होते हैं।
प्रोफेट सदा
खतरनाक होते
हैं।
बुद्ध
कोई प्रोफेट
नहीं हैं; असल में
भारत ने
प्रोफेट पैदा
नहीं किए।
प्रोफेट
यहूदी धर्म की
विशेष देन हैं।
हमने संत पैदा
किए—लाखों —लाखों
संत—लेकिन वे
सरल व्यक्ति
हैं। जैसे तुम
फूलों के साथ
खुश होते हो—वे
किसी खास
उपयोग के नहीं
होते। असल में
प्रोफेट धर्म
के
राजनीतिज्ञ
हैं। उन्हें
बदलना होता है
सारे संसार को;
उन्हें एक
लक्ष्य पूरा
करना होता है,
और बहुत कुछ
करना होता है।
मेरा
कोई लक्ष्य
नहीं है। मैं
कोई मिशनरी
नहीं हूं। मैं
एक ऐसा संसार
चाहता हूं
जिसमें न कोई
प्रोफेट हों, न कोई
मिशनरी हों, ताकि लोग
अपना जीवन
जीने के लिए
स्वतंत्र हों।
प्रोफेट और
मिशनरी ऐसा
कभी नहीं होने
देते। वे सदा
तुम्हारे
पीछे पड़े रहते
हैं—अपने
निर्णय सहित।
वे सदा
तुम्हारी
छाती पर बैठे
रहते हैं—अपनी
धारणाओं और
तुलनाओं के
साथ। वे सदा
तैयार रहते
हैं तुम्हें
नरक में फेंकने
को या तुम्हें
स्वर्ग का
पुरस्कार
देने को।
मेरे
पास कुछ नहीं
है—न तो कोई
नरक है जिसमें
तुम्हें
फेंकना है और न
कोई स्वर्ग है
जिसे तुम्हें
देना है—सिर्फ
होने का आनंद
है। और यह
संभव है, बिलकुल संभव
है। अगर तुम
उसे होने दो
तो यह अभी
संभव है।
मेरे
देखे, जीवन
कोई गंभीर चीज
नहीं है। असल
में जीवन
अस्तित्व की
शाश्वतता में
होने वाली एक
कहानी, एक
गुफ्तगू के
सिवाय और कुछ
नहीं है। मैं
गुफ्तगू कर
रहा हूं यहां;
तुम सुन रहे
हो, बस
इतनी सी बात
है। यदि तुम
आनंदित हो तो
तुम यहां हो।
यदि मैं
आनंदित हूं तो
मैं यहां हूं।
यदि परस्पर
आनंदित होना
कठिन हो जाए, तो हम अलग हो
जाते हैं—और
कोई बंधन नहीं
है।
और मैं
किसी को इजाजत
नहीं देता—चाहे
वह पद्यसंभव
ही क्यों न हो—कि
वह अपने जाल
का लक्ष्य
मुझे बनाए।
आज इतना
ही।
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