अध्याय—11
सूत्र—
यथा
प्रदीप्तं
ज्वलनं पतंगा
विशन्ति
नाशाय
समृद्धवेगाः।
तथैव
नाशाय
विशन्ति
लोकास्तवायि
वक्ताणि समृद्धवेगाः।।
29।।
लेलिह्यमे
ग्रसमान:
समन्ताल्लोकान्समग्रान्त्रदनैर्ज्वलदभि:।
तेजोभिरायर्य
जगत्ममग्रं
भासस्तवोग्रा: प्रतयन्ति
विष्णो।। 3०।।
आख्याहि
मे को
भवागुग्ररूपो
नमोउख ते
देववर प्रसीद।
विज्ञखमिच्छामि
भवन्तमाद्यं
न हि
प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।
3।।
अथवा
जैसे पतंग मोह
के वश होकर
नष्ट होने के
लिए प्रज्वलित
अग्नि में अति
वेग से युक्त
हुए प्रवेश करते
हैं वैसे ही
ये सब लोग भी
अपने नाश के
लिए आपके
मुखों में अति
वेग से युक्त
हुए प्रवेश करते
हैं।
और
आप उन संपूर्ण
लोकों को
प्रज्वलित
मुखों द्वारा
ग्रसन करते
हुए सब ओर से
चाट रहे हैं।
हे विष्णो आपका
उग्र प्रकाश
संपूर्ण जगत
को तेज के
द्वारा
परिपूर्ण
करके तपायमान
करता है।
हे
भगवन— कृपा
करके मेरे
प्रति कहिए कि
आप उग्र रूप
वाले कौन हैं!
हे देवों में
श्रेष्ठ आपको
नमस्कार होवे।
आय प्रसन्न
होड़ए।
आदिस्वरूप
आपको मैं तत्व
से जानना
चाहता हूं
क्योंकि आपकी
प्रवृत्ति को
मैं नहीं
जानता।
एक
मित्र ने पूछा
है कि महाभारत
युद्ध शुरू
होने के पहले
ही अर्जुन
देखता है कि
परमात्मा के
विराट स्वरूप
के अंदर सब
योद्धा
मृत्यु—मुख
में प्रविष्ट
हो रहे हैं।
तो क्या यह
महायुद्ध उस
क्षण एक
अपरिहार्य नियति
थी, जिसे
संपन्न करने
के लिए सब
मजबूर थे?
जीवन को देखने
के दो
दृष्टिकोण
हैं। एक दृष्टिकोण
है कि भविष्य
अनिश्चित है
और परिवर्तनीय
भी। मनुष्य
चाहे तो
भविष्य वैसा
ही हो सकता है, जैसा वह
चाहता है।
भविष्य पूर्व
से निश्चित
नहीं है, मनुष्य
के हाथ में है
कि भविष्य को
निर्मित करे।
यह जो
दृष्टि है, इसका
अपरिहार्य
परिणाम
मनुष्य की
अशांति होता
है। यदि
भविष्य
अनिश्चित है,
तो अशांत
होना होगा, बेचैन होना
होगा, असंतुष्ट
होना होगा।
उसे बदलने की
कोशिश करनी
होगी। यदि
बदलाहट हो सकी,
तो भी
तृप्ति नहीं
मिलेगी, क्योंकि
भविष्य का कोई
अंत नहीं है।
एक बदलाहट
पचास और
बदलाहट की आकांक्षा
पैदा करेगी।
अगर बदलाहट न हो
सकी, तो बहुत
गहन पीड़ा, उदासी,
विपदा घेर
लेगी। मन
संतप्त हो
जाएगा, हारा
हुआ, पराजित
हो जाएगा।
दोनों ही
स्थितियों
में, भविष्य
अगर अनिश्चित
है और आदमी के
हाथ में है, तो आदमी
परेशान होता
है।
पश्चिम
ने यह
दृष्टिकोण
लिया है।
पश्चिम मानकर
चलता है कि
अतीत तो
निश्चित है, हो गया।
वर्तमान हो
रहा है। आधा
निश्चित है, आधा
अनिश्चित है।
भविष्य पूरा
अनिश्चित है,
अभी बिलकुल
नहीं हुआ है।
अगर
भविष्य
अनिश्चित है, तो मुझे
आज वर्तमान के
क्षण को
भविष्य के लिए
अर्पित करना
होगा। आज ही
मुझे काम में
लग जाना होगा
कि भविष्य को मैं
अपनी आकांक्षा
के अनुकूल बना
लूं।
इसके
दो परिणाम
होंगे। एक तो
वर्तमान का
क्षण मेरे हाथ
से चूक जाएगा।
उसे मैं
भविष्य के लिए
समर्पित कर
दूंगा। मैं आज
नहीं जी
सकूंगा। मैं
आशा रखूंगा कि
कल जब मेरे
मनोनुकूल
स्थिति बनेगी, तब मैं
जीऊं—गा। आज
को मैं भविष्य
के लिए
कुर्बान कर
दूंगा, पहली
बात। और कल की
चिंता मुझे आज
सताएगी, खींचेगी,
परेशान
करेगी।
पश्चिम
ने इसका
प्रयोग किया
है और परिणाम
में पश्चिम को
गहन अशांति
उपलब्ध हुई है।
लेकिन भौतिक
अर्थों में
पश्चिम अपने
जीवन को नियत
करने में बहुत
दूर तक सफल भी
हुआ है। यह
बड़ी उलझन की
बात है, इसे थोड़ा
गौर से समझ
लेना चाहिए।
पश्चिम अपनी
भौतिक स्थिति
को मनुष्य के
मन के अनुकूल
बनाने में
बहुत दूर तक
सफल हो गया है।
तो एक अर्थ
में तो उनकी
जो धारणा है, सत्य सिद्ध
हो गई है कि
वर्तमान को
अगर हम भविष्य
के लिए अर्पित
करें, तो
भविष्य को मन
के अनुकूल कुछ
दूरी तक
निश्चित ही
निर्मित किया
जा सकता है।
इस मामले में
पश्चिम की
सफलता साफ है।
बीमारी कम हुई
है। लोगों की
उम्र बढ़ी है।
भौतिक
समृद्धि बढ़ी
है। साधन बढ़े
हैं। वैभव की
सुविधा बढ़ी है।
उन्होंने
अपने मन के
अनुकूल जो कल
भविष्य था और
आज वर्तमान हो
गया है, उसे
निर्मित करने
में सफलता पाई
है।
लेकिन
दूसरे अर्थों
में वे हार गए
हैं। यह सब हो
गया है और
आदमी इतना
अशांत हो गया
है, इतना
भीतर
विक्षिप्त हो
गया है कि अब
विचार होने
लगा है कि
इतनी कीमत पर,
आदमी को
खोकर, इतनी
व्यवस्था
करनी क्या
उचित है? और
अगर आदमी की
भीतर की सारी
शांति और आनंद
ही खो जाता हो,
तो हम बाहर
कितनी
समृद्धि
अर्जित कर
लेते हैं, उसका
प्रयोजन क्या
है? क्योंकि
अंततः सारी
समृद्धि
मनुष्य के लिए
है, मनुष्य
समृद्धि के
लिए नहीं है।
और अंततः बाहर
जो भी हम बना
लेते हैं, वह
आदमी के लिए
है कि उसके
काम आ सके।
लेकिन अगर
आदमी ही खो
जाता हो बनाने
में, तो यह
बहुत महंगा
सौदा है और
मूढ़तापूर्ण
भी।
पश्चिम
इस बात में
सफल हुआ है कि
भविष्य को आदमी
प्रभावित कर
सकता है।
लेकिन
प्रभावित
करने में आदमी
नष्ट हो जाता
है।
पूरब
ने दूसरा
दृष्टिकोण
लिया है। पूरब
कहता है, भविष्य को
आदमी निश्चित
निर्मित कर ही
नहीं सकता।
भविष्य नियति
है, अपरिहार्य
है। जो होना
होगा, वह
होगा।
इसका
दुष्परिणाम
हुआ कि बाहर
के जगत में हम
गरीब हैं, दीन हैं,
दुखी हैं, बीमार हैं, परेशान हैं।
हम कोई भौतिक
समृद्धि
अर्जित नहीं
कर पाए। यह
परिणाम हुआ।
क्योंकि जब
भविष्य को हमने
छोड़ ही दिया
नियति पर, तो
हम भविष्य के
लिए कोई श्रम
करें, यह
बात ही समाप्त
हो गई।
लेकिन
इसका एक गहरा
लाभ भी हुआ।
और वह लाभ यह
हुआ कि भविष्य
की चिंता से
जो विक्षिप्तता
मनुष्य में
पैदा हो सकती
थी, उससे
हम बच सके। और
कुछ लोग सब
कुछ भविष्य पर
छोड्कर परम आनंद
के क्षण को भी
उपलब्ध हो सके।
अभी
पश्चिम को
बुद्ध पैदा
करने में देर
है। अभी
पश्चिम को कृष्ण
पैदा करने में
देर है। अभी
पश्चिम चेतना
की उन
ऊंचाइयों को
छूने में
असमर्थ है, जो हमने
छुई। उसका
आधार सिर्फ एक
था कि हमने
कहा, भविष्य
तो निश्चित है,
जो होना है,
होगा। इसका
परिणाम हुआ।
अगर
भविष्य में जो
होना है, होगा, तो
मुझे भविष्य
के लिए चिंतित
और परेशान
होने का कोई
भी कारण नहीं
है। दूसरा
परिणाम यह हुआ
कि अगर भविष्य
निश्चित है, तो वर्तमान
को भविष्य पर
कुर्बान करना
नासमझी है। तो
मैं अभी जीऊं,
यहीं। इस
क्षण को पूरा
जीऊं।
मजे की
बात यह है कि
वर्तमान ही
हमारे हाथ में
होता है, भविष्य कभी
हमारे हाथ में
होता नहीं। आज
ही हमारे हाथ
में होता है, कल हमारे
हाथ में होता
नहीं। और अगर
मन की ऐसी आदत
हो जाए कि आज
को कल पर
कुर्बान कर
दूर तो कल जब
आएगा, वह
भी आज होकर
आएगा। उसे भी
मैं आने वाले
कल पर कुर्बान
करूंगा। वह कल
भी जब आएगा, तब आज होकर
आएगा। उसे भी
मैं आने वाले
कल पर कुर्बान
करूंगा। तो
जीवन निरंतर
पोस्टपोन
होता रहेगा, जी नहीं
सकेंगे हम कभी।
कल तो
कभी आता नहीं
है, आता
तो सदा आज है।
मिलता तो सदा
वर्तमान है, भविष्य तो
कभी मिलता नहीं।
आपकी भविष्य
से कोई
मुलाकात हुई
है? कभी
नहीं हुई है।
कभी होगी भी
नहीं।
मुलाकात तो
वर्तमान से
होती है।
लेकिन अगर मन
की यह आदत हो
जाए कि
वर्तमान को भविष्य
के लिए नष्ट
करना है, तो
यह आदत आपका
पीछा करेगी।
मरते दम तक आप
जी नहीं
पाएंगे, सिर्फ
जीने का सपना
देखेंगे, सोचेंगे
कि जीऊंगा।
तो
पश्चिम ने
जीवन के साधन
जुटा लिए, लेकिन जो
जी सकता है, वह
अनुपस्थित हो
गया। हम जीवन
के साधन न
जुटा पाए, लेकिन
जो जी सकता है,
वह उपस्थित
रहा है। और
दोनों बातें
एक साथ नहीं
हो सकती हैं।
दोनों बातें
एक साथ नहीं
हो सकती हैं।
सत्य क्या है?
दोनों ही
सत्य हैं।
भविष्य
निर्मित किया
जा सकता है, अगर मनुष्य
अपने को कीमत
में चुकाने को
राजी है।
भाग्य बदला जा
सकता है, अगर
आप अपने को
मिटाने को
राजी हैं। अगर
आप अपने को
बचाने की
इच्छा रखते
हैं, और
अपने होने का
आनंद लेना
चाहते हैं, तो फिर
भविष्य नहीं
बदला जा सकता।
फिर भविष्य
नियति है।
पश्चिम
का विचारशील
व्यक्तित्व
आज अनुभव कर रहा
है कि शायद
पूरब के लोग
जो कहते रहे
हैं, वही
ठीक है। और यह
उचित भी है।
अनुभव के बाद
ही यह बात
अनुभव की जा
सकती है। अब
पश्चिम को
अनुभव हो रहा
है कि
उन्होंने जो पाया,
वह ठीक। लेकिन
जो गंवाया!
हम भी
परेशान हैं, क्योंकि
हमने भी कुछ
गंवाया है।
चुनाव जब भी
करना होता है,
तो कुछ
गंवाना भी
होता है। हम
भी आज परेशान
हैं। इसलिए एक
बड़ी अनूठी
स्थिति पैदा
हो गई है।
पूरब
पश्चिम की तरफ
हाथ फैलाए खड़ा
है, भिक्षापात्र
लिए; और
पश्चिम पूरब
की तरफ भिक्षापात्र
लिए खड़ा है।
पश्चिम पूछ
रहा है पूरब
से मन की
शांति के उपाय—
ध्यान, योग,
तंत्र, जप,
पूजा, प्रार्थना
क्या है? और
पूरब पश्चिम
से मांग रहा
है—रोटी, कपड़ा,
अन्न, भोजन,
मकान, इंजीनियर,
डाक्टर।
दोनों भिक्षा
मांग रहे हैं!
यह होने वाला
था।
लेकिन
पश्चिम का अनुभव
नया है अभी।
पश्चिम पहली
दफा समृद्ध
हुआ है। और
समृद्ध होकर
उसने भीतर की
दरिद्रता
जानी है। और
समृद्ध होकर
उसे पता चला
कि कितनी ही
समृद्धि हो
जाए, भीतर
की दरिद्रता
उससे घटती
नहीं, बल्कि
बढ़ जाती है।
पूरब
बहुत बार
समृद्ध हो
चुका है। पूरब
बहुत बार यह
अनुभव कर चुका
है कि सब मिल
जाए, जब
तक आत्मा न
मिले, तब
तक सब मिलना
व्यर्थ है। आज
जहां पश्चिम
खड़ा है, पूरब
बहुत बार इस
जगह खड़ा हो
चुका है। पूरब
की कथा बहुत
पुरानी है।
गीता
जिस क्षण घटित
हुई होगी, उस क्षण
पूरब करीब—करीब
उसी विज्ञान
के शिखर पर था,
जहां आज
पश्चिम है।
क्योंकि
महाभारत में
जिन अस्त्र—शस्त्रों
की चर्चा है, उन अस्त्र—शस्त्रों
को हम आज पहली
दफे समझ सकते
हैं कि वे
क्या रहे
होंगे।
क्योंकि हमें
आज हाइड्रोजन
और एटम बम की
प्रक्रिया
पता है। आज हम
पहली दफा समझ
सकते हैं कि
महाभारत में जो
घटित हुआ होगा,
वह क्या था,
और आदमी ने
क्या खोज लिया
था। आज हमने
फिर पश्चिम
में उसे खोज
लिया है। उस
समृद्धि के
शिखर पर खड़े
होकर महाभारत
घटित हुआ।
जब भी
समृद्धि बहुत
बढ़ जाती है, तो युद्ध
अनिवार्य हो
जाता है। उसके
कारण हैं।
क्योंकि
जितना ही आदमी
बाहर समृद्ध
हो जाता है, भीतर दरिद्र
हो जाता है।
और जितना ही
भीतर दरिद्र
हो जाता है, घृणा, वैमनस्य,
क्रोध
उसमें बढ़ जाते
हैं। प्रेम, करुणा, दया,
ममता कम हो
जाती है।
प्रेम और
करुणा और दया
और ममता तो
भीतर की समृद्धि
के लक्षण हैं।
जब भीतर आदमी
दरिद्र होता
है, तो
हिंसा बढ़ जाती
है। जब भी
आदमी भीतर दरिद्र
होगा, तो
हिंसा बढ़ेगी।
हिंसा का
अंतिम परिणाम
युद्ध होगा, विनाश होगा।
समृद्धि
शिखर पर थी, आदमी
भीतर दरिद्र
था। वह आदमी
भीतर जो
दरिद्र था, वह हिंसा के
लिए तत्पर था।
आज
पश्चिम पूरी
तरह उसी हालत
में है, जहां
महाभारत के
समय पूरब था।
और कुछ
आश्चर्य न
होगा कि पश्चिम
को तीसरे
महायुद्ध से न
बचाया जा सके।
कोई आश्चर्य न
होगा। बहुत
संभावना तो यह
है कि पश्चिम
विनाश को करके
ही रुकेगा।
आदमी भीतर
दरिद्र है, दीन है, हिंसा,
क्रोध से
भरा है, विनाश
से भरा है।
अभी रोम में
एक पागल आदमी
ने, कुछ
दिन पहले, आपने
खबर पढ़ी होगी,
जीसस की एक
मूर्ति को
जाकर तोड़ दिया।
अब जीसस की
मूर्ति को तोड़
देने का कोई
भी प्रयोजन
नहीं है। और
जब उस आदमी से
पूछा गया कि
क्यों उसने
तोड़ दिया? तो
उसने कहा कि
मुझे तोड्ने
में बहुत आनंद
आया। अगर मेरी
जान भी ले ली
जाए अब इसके
बदले में, तो
मुझे कोई
चिंता नहीं है।
जीसस
की मूर्ति तोड्ने
में! मूर्ति
तोड्ने में
क्या आनंद मिला
होगा? लेकिन
उस मूर्ति को
लाखों लोग
प्रेम करते थे।
वह अपने तरह
की अनूठी
मूर्ति थी। उस
मूर्ति को
तोड़कर उसने
करोड़ों लोगों
के हृदय को
तोड्ने की
कोशिश की है।
यह कहता है, इसे आनंद
मिला! अगर आज
हम पश्चिम में
देखें, तो
विनाश का आनंद
बढ़ता जाता है।
विनाश रुचिकर,
आनंदपूर्ण
मालूम हो रहा
है। सैकड़ों
हत्याएं हो
रही हैं, सिर्फ
इसलिए कि
हत्या करने
में लोगों को
मजा आ रहा है।
सैकड़ों लोग
आत्मघात कर
रहे हैं, सिर्फ
इसलिए कि
मिटाने का एक
रस; एक थिल
तोड़ देने की, समाप्त कर
देने की।
सार्त्र ने
कहा है, आदमी
जन्म होने के
लिए तो
स्वतंत्र
नहीं है, लेकिन
अपने को मार
डालने के लिए
तो स्वतंत्र है।
तो जब
कोई अपने को
मारता है, तो
स्वतंत्रता
का अनुभव होता
है। पैदा आप
हो गए, आपसे
कोई पूछता
नहीं। आपकी
कोई राय नहीं
ली जाती। आप
पाते हैं कि
आप पैदा हो गए,
बिना आपकी
मर्जी के। यह
परतंत्रता है
निश्चित ही।
स्वतंत्रता
कहां है फिर?
सार्त्र
को मानने वाला
वर्ग कहता है
कि स्युसाइड, आत्महत्या
में ही
स्वतंत्रता
मालूम पड़ती है;
बाकी कुछ भी
करो, परतंत्रता
मालूम पड़ती है।
एक चीज कम से
कम आदमी कर
सकता है, अपने
को मिटा सकता
है। और मिटाकर
अनुभव कर सकता
है कि मैं
स्वतंत्र हूं।
अगर
विध्वंस
स्वतंत्रता
बन जाए और
आत्मघात स्वतंत्रता
बन जाए, तो सोचना
पड़ेगा कि आदमी
भीतर गहन रूप
से रुग्ण और
बीमार हो गया
है, विक्षिप्त
और पागल हो
गया है।
आज
वियतनाम में
जो हो रहा है, बिलकुल
अकारण है। कोई
भी कारण नहीं
सूझता कि
वियतनाम में
क्यों आदमी की
हत्या जारी
रखी जाए। न
अमेरिका को
विजय से कोई
प्रयोजन है कि
वियतनाम की
विजय कोई
अमेरिका में
चार चांद जोड़
देगी।
वियतनाम का
कोई मूल्य भी
नहीं है
अमेरिका के लिए।
पर यह युद्ध
क्यों जारी है?
विध्वंस
अपने आप में
सुख दे रहा है।
अकारण! अब कोई
आवश्यकता
नहीं कि कोई
कारण हो।
जैसे
एक मूर्तिकार मूर्ति
बनाता है। हम
उससे पूछें, क्यों
बना रहा है? तो वह कहता
है, बनाने
में आनंद है।
एक चित्रकार
चित्र बनाता
है। हम उससे
पूछें, क्यों?
तो वह कहता
है, निर्मित
करने में आनंद
है। एक मां
अपने बेटे को
बड़ा होते
देखकर खुश
होती है। हम
पूछें, क्यों?
तो सृजन, एक जन्म
विकसित हो रहा
है उसके हाथों;
वह आनंदित
है।
ठीक
ऐसे ही
विध्वंस का भी
आनंद है, रुग्ण, बीमार।
और जब आदमी की
आत्मा दरिद्र
होती है, तो
विध्वंस का
आनंद होता है।
महाभारत ऐसे
ही घटित नहीं
हुआ। वह घटित
हुआ समृद्धि
के शिखर पर, जब भीतर
आत्मा बिलकुल
दरिद्र हो गई।
और जब हिंसा
में रस रह गया।
और तोड़ने—फोड़ने,
मिटा डालने
की उत्सुकता
इतनी बढ़ गई कि
दुर्योधन
राजी न हुआ एक
इंच जमीन देने
को। चाहे सारी
मनुष्य—जाति
नष्ट हो जाए, इसके लिए
राजी था।
लेकिन एक इंच
जमीन देने को
राजी नहीं था!
यह जो
भाव—दशा है, यह भाव—दशा
पश्चिम में
फिर खड़ी हो गई
है। और पश्चिम
किसी भी दिन
फूट सकता है, विस्फोट हो
सकता है। और
सारी तैयारी
है विस्फोट की।
किसी भी क्षण
जरा— सी
चिनगारी, और
फिर पश्चिम को
मृत्यु के
मुंह से रोकना
मुश्किल हो
जाएगा।
ठीक
ऐसी ही घड़ी
भारत में
महाभारत के
समय आ गई थी।
और ऐसी घड़ी
पूरब में बहुत
बार आ चुकी है।
यह दुनिया नई
नहीं है और हम
जमीन पर पहली
दफा सभ्य नहीं
हुए हैं।
अभी
जितनी नवीनतम
खोजें हैं
पुरातत्व की, वे आदमी
के इतिहास को
पीछे हटाती
जाती हैं। अभी
सिर्फ पचास
साल पहले
पश्चिम के
इतिहासविद मानते
थे कि जीसस से
चार हजार साल
पहले दुनिया
का निर्माण
हुआ। तो कुल
इतिहास छह
हजार साल का
था।
हमें
मानने में सदा
कठिनाई रही कि
छह हजार साल
का कुल
इतिहास! हमारे
पास किताबें
हैं, वेद
हैं, जो
पश्चिम भी
स्वीकार करता
है कि कम से कम
छह हजार साल
पुराने तो हैं
ही। हमारे
लेखे से तो वे
कोई नब्बे
हजार साल पुराने
हैं। और हमारा
लेखा रोज—रोज
सही होता जा
रहा है। संभव
है कि वे और भी
पुराने हों।
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा
की खुदाई ने
बताया है कि
सात हजार साल पुरानी
सभ्यता थी।
लेकिन ये अब
पुरानी बातें
हो गईं। अभी
जो नवीन खोजें
हैं, वे
सभ्यता को—सभ्यता
को— पचास हजार
साल पीछे ले
जाती हैं। और
अभी नवीनतम
कुछ ऐसी खोजें
हाथ में लगी
हैं, जिन्होंने
कि सारे
इतिहास की
धारणा को
अस्तव्यस्त
कर दिया।
आस्ट्रेलिया
में कोई सत्तर
हजार साल
पुराने पत्थर
पर खुदे हुए
दो चित्र मिले
हैं। वे चित्र
ऐसे हैं, जैसे
कि जब हमारा
अंतरिक्ष
यात्री चंद्र
पर पहुंचता है,
तो जिस तरह
के कपड़े पहने
होता है, जिस
तरह की ड्रेस
पहने होता है,
जिस तरह का
नकाब लगाए
होता है।
सत्तर हजार
साल पुराना
पत्थर पर खुदा
हुआ चित्र
अंतरिक्ष
यात्री का! जब
तक हमारे पास
अंतरिक्ष
यात्री नहीं
था, तब तक
तो हम समझ भी
नहीं सकते थे
कि यह चित्र
किस चीज का है।
अब हम समझ
सकते हैं।
अब बड़ी
कठिनाई है। यह
सत्तर हजार
साल पुराना
चित्र जिन
लोगों ने
बनाया, उनके पास
अंतरिक्ष
यात्री जैसी
कोई चीज रही होगी।
अन्यथा इसके
बनाने का कोई
उपाय नहीं है।
अगर सत्तर
हजार साल पहले
आदमी
अंतरिक्ष की
यात्रा कर
सकता था, तो
हमें सोचना
होगा कि हम
पहली दफा चांद
पर पहुंच गए
हैं, इस
भ्रम में न
पड़े। और हमें
यह भी सोचना
होगा कि हम
पहली दफा इन
सारी
समृद्धियों
को पा लिए हैं,
इस भ्रम में
न पड़े।
तिब्बत
के एक पर्वत
पर सत्तर
रिकॉर्ड मिले
हैं पत्थर के।
जैसा
ग्रामोफोन
रिकॉर्ड होता
है, वे
पत्थर के हैं।
और ठीक
ग्रामोफोन
रिकॉर्ड पर
जैसे ग्रूब्स
होते हैं, वैसे
यूक उन पत्थर
पर हैं। बीच
में छेद है, जैसा कि
ग्रामोफोन
रिकार्ड पर
होता है। और
अभी
वैज्ञानिक उन
पर अनुसंधान
करते हैं, तो
वे कहते हैं, उन पत्थर के
रिकॉर्ड से
ठीक वैसी ही
विद्युत की
तरंगें उठती
हैं, जैसे
ग्रामोफोन के
रिकॉर्ड से
उठती हैं। फिर
एकाध नहीं, सत्तर! और
अंदाजन कोई
बीस हजार से
चालीस हजार साल
पुराने।
तो
क्या कभी आज
से बीस हजार
साल पहले किसी
सभ्यता ने कोई
उपाय खोज लिया
था पत्थर पर
भी रिकार्ड
करने का! और
अगर खोज लिया
हो, तो
फिर हमें भ्रम
छोड़ देना
चाहिए कि हम
पहली बार सभ्य
हुए हैं।
पूरब
बहुत बार सभ्य
हो चुका है और
पूरब बहुत बार
अनुभव ले चुका
है समृद्धि का।
और हर समृद्धि
के अनुभव के
बाद उसे पता
चला है कि
आदमी चीजें तो
कमा लेता है, अपने को
खो देता है।
मकान तो बन
जाता है, धन
इकट्ठा हो
जाता है; आत्मा
विनष्ट हो
जाती है। इस
कारण पूरब ने
यह विकल्प
चुना कि
भविष्य की चिंता
छोड़ी जा सके, तो ही आत्मा
निर्मित होती
है।
भविष्य
का तनाव ही
पीड़ा है। और
भविष्य की
चिंता छोड़ने
का एक ही उपाय
है, और
वह उपाय यह है
कि अगर आप इस
बात को मानने
को राजी हो
जाएं कि
भविष्य
अपरिहार्य है;
नियत है; जो होना है, होगा। जो
होना है, होगा,
अगर इसके
लिए राजी हो
जाएं, तो
फिर आपको करने
को कुछ नहीं
बचता है। और
जब करने को ही
नहीं बचता, तो बेचैन
होने का कोई
कारण नहीं है।
करने
को कुछ है, तो फिर
बेचैनी है।
करने के पहले
भी बेचैनी
रहेगी, और
करने के बाद
भी बेचैनी
रहेगी।
क्योंकि करने
के बाद भी
लगेगा कि अगर
जरा ऐसा कर
लिया होता, तो परिणाम
दूसरा हो सकता
था। अगर मैंने
ऐसा कर लिया
होता, तो
ऐसा हो सकता
था। तो आप
पीछे भी
परेशान
रहेंगे कि अगर
ऐसा न करके
जरा— सा फर्क
किया होता, तो आज
जिंदगी दूसरी
होती। और
भविष्य के लिए
भी परेशान
रहेंगे कि मै
क्या करूं?
फिर एक
आखिरी परिणाम, जब आप
असफल हो जाते
हैं...। और आदमी
कुछ ऐसा है कि
वह सफल कभी
होता ही नहीं! इसे
थोड़ा समझ लें।
आदमी
के मन का
ढांचा ऐसा है
कि वह सदा अंत
में असफल ही
होता है। उसका
कारण यह है कि
जितने आप सफल
हो जाते हैं, वह तो
व्यर्थ हो
जाती है बात; और नये
लक्ष्य
निर्मित हो
जाते हैं। एक
आदमी को दस
हजार रुपए
कमाने हैं, वह कमा लेता
है। कोई दस
हजार रुपए कमा
लेना मुश्किल
मामला नहीं है।
कमा लेता है।
सफल हो गया।
लेकिन
उसे पता ही
नहीं कि सफलता
की खुशी वह कभी
नहीं मना पाता।
क्योंकि जब तक
दस हजार
इकट्ठे कर
पाता है, तब तक उसकी
आकांक्षा लाख
की हो जाती है।
जब दस हजार पा
लेता है, तो
खुशी से नाचता
नहीं है, केवल
दुख से पीड़ित
होता है कि
अभी यात्रा और
बाकी है; उसे
लाख कमाने
हैं! ऐसा भी
नहीं है कि
लाख न कमा ले।
वह भी हो
जाएगा। लेकिन
जिस मन ने दस
हजार से लाख
पर यात्रा पहुंचा
दी थी, वही
मन लाख से दस
लाख पर यात्रा
पहुंचा देगा।
हर
आदमी असफल
मरता है। कोई
आदमी सफल नहीं
मर सकता।
क्योंकि जो भी
आप पा लेते
हैं, आपकी
वासना उससे
आगे चली जाती
है। मरते वक्त
भी आपकी वासना
अधूरी ही
रहेगी; वह
पूरी नहीं हो
सकती।
एंदू
कार्नेगी, अमेरिका
का सबसे बड़ा
धनपति मरा, तो अपने
पीछे दस अरब
रुपए छोड़ गया।
लेकिन मरने के
दो दिन पहले
का उसका
वक्तव्य है कि
मैं एक असफल
आदमी हूं
क्योंकि मेरे
इरादे सौ अरब
रुपए छोड़ने के
थे, केवल
दस छोड़ जा रहा
हूं। दस अरब
रुपए!
आप
कितना पा
लेंगे, इससे कोई
संबंध नहीं है।
आपका मन उससे
ज्यादा की
मांग करेगा।
मन सदा आपसे
आगे चला जाता
है। आप होते
है वर्तमान
में, मन
भविष्य में
चला जाता है।
यह
नियति की
धारणा भविष्य
का दरवाजा बंद
करने की है।
मैं कुछ कर ही
नहीं सकता हूं
तो भविष्य में
यात्रा करने
का कोई उपाय
नहीं है। दस
रुपए मिलें, कि दस लाख,
कि कुछ भी न
मिले, मै
भिखारी रह
जाऊं; जो
भी होगा, वह
होगा। उसमें
मेरा कोई हाथ
नहीं है। ऐसा
आदमी कभी असफल
नहीं होता है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
ऐसे
आदमी को आप
असफल नहीं कर
सकते, क्योंकि
असफलता को भी
वह स्वीकार कर
लेगा कि यही
होना था। आप
सफल नहीं हो
सकते। आप
सफलता को भी
असफलता कर
देंगे, क्योंकि
जो हो गया, वह
कुछ भी नहीं
है, जो
होना चाहिए, वह सदा आगे
है।
नियति
की धारणा वाला
आदमी असफल
नहीं किया जा
सकता। आप कुछ
भी करें, वह सफल है।
और जो सफल है, वह शांत है; और जो असफल
है, वह
अशांत है। और
जो सफल है, वह
प्रसन्न है; और जो असफल
है, वह
उदास है। और
जो सफल है...। और
एक घटना घटती
है। जब आप
असफल होते चले
जाते हैं अपनी
वासना की यात्रा
में, तो
सिवाय आपके और
कोई
जिम्मेवार
नहीं होता
असफलता के लिए।
आप ही
जिम्मेवार
होते हैं। तो
गहन पीड़ा आदमी
पर टूट पड़ती
है।
अकेला
आदमी इस बड़ी
दुनिया में
लड़ता है, इस बड़ी
दुनिया से।
टूट जाता है।
उसके कंधे पर
बोझ पहाड़ों का
इकट्ठा हो
जाता है। और
आखिर में
सिवाय स्वयं
की निंदा करने
के और कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन
नियति की
धारणा वाला
व्यक्ति अपने
कंधे पर कोई
भार लेता ही
नहीं। वह कहता
है, परमात्मा
की मर्जी।
जीतू तो वह, हारू तो वह, सदा
जिम्मेवार
वही है। वह
जिम्मेवार
नहीं है। और
जो
रिस्पासिबिलिटी,
जो दायित्व
का बोध और भार
है व्यक्ति के
ऊपर, वह
उसके ऊपर नहीं
है।
आप उस
आदमी की तरह
हैं, जो
ट्रेन में चल
रहा हो और
अपना सब सामान
सिर पर रखे हो।
और नियतिवादी
वह आदमी है, जो सब सामान
ट्रेन में रख
दिया है और
खुद भी सामान
के ऊपर बैठा
हुआ है। वह
कहता है, ट्रेन
चला रही है, मैं क्यों
बोझ ढोऊं!
आपको पक्का नहीं
कि ट्रेन चला
रही है। आप
सोच रहे हैं, आप ही चला
रहे हैं सारा;
और जरा ही
भूल—चूक हुई, तो आप ही
जिम्मेवार
हैं; कुछ
भी गड़बड़ हुई, तो आप ही फंस
जाएंगे!
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि कौन—सी
धारणा ठीक है; खयाल रखना।
मैं सिर्फ यह
कह रहा हूं ये
दो धारणाएं
हैं। इसे थोड़ा
खयाल में ले
लेना।
आमतौर
से लोग जल्दी
करते हैं कि
कौन—सी धारणा
ठीक है। अगर
नियतिवाद ठीक
है, तो
हम मान लें।
और अगर ठीक
नहीं है, तो
हम कोशिश में
लग जाएं।
मैं यह
कुछ भी नहीं
कह रहा हूं।
मेरा वक्तव्य
बहुत अलग है।
मैं ये दोनों
धारणाएं आपको
समझा रहा हूं।
इसमें से फिर
जो आपको चुननी
हो, आप
चुन सकते हैं।
फिर उसका
परिणाम आपके
साथ होगा।
ये
दोनों
धारणाएं ठीक
है। अगर आपको
अशांत होना है, विक्षिप्त
होना है, धन
इकट्ठा करना
है, महल
बनाने हैं, तो आप नियति
को कभी मत
मानें। आपको
शांत होना है,
आनंदित
होना है, और
झोपड़ा भी महल जैसा
मालूम पड़े, ऐसी आपकी
कामना हो; और
ना—कुछ हो पास
में, तो भी
आप सम्राट
मालूम पढ़ें, ऐसी आपकी
कामना हो; तो
नियति आपके
लिए चुनना
उचित है।
ये
दोनों रास्ते
हैं। एक
पागलखाने में
ले जाता है।
ले ही जाएगा।
इसलिए अब सारी
दुनिया एक बड़ा
पागलखाना है।
अब किसी को
पागलखाना
वगैरह भेजना
ठीक नहीं है।
अब तो जो ठीक
हों, उनके
चारों तरफ
घेरा लगाकर
उनको बचाने का
उपाय करना
चाहिए।
क्योंकि बाकी
तो बड़ा
पागलखाना है।
अगर आज
आप मनस्विद से
पूछें, तो वह कहता
है, चार
में से तीन
आदमियों का
मस्तिष्क
गड़बड़ है। चार
में से तीन का!
तो जमीन करीब—करीब
तीन चौथाई
पागलखाना हो
गई है। और जिस
एक को भी वह कह
रहा है कि
इसका ठीक है, कितनी देर
ये तीन उसका
ठीक रहने
देंगे! ये तीन उसके
पीछे पड़े हैं,
उसको भी
डांवाडोल कर
रहे हैं।
आपको
पता नहीं चलता
कि आपका
मस्तिष्क
विक्षिप्त है, क्योंकि
आपके चारों
तरफ पागलों की
भीड़ है।
उन्हीं जैसा
आपके पास
मस्तिष्क है,
इसलिए कोई
अड़चन नहीं
होती। लेकिन
आप जरा बैठकर
एक कागज पर
अपने दिमाग में
जो चलता है, उसे लिखें, और फिर किसी
को दिखाएं। यह
मत बताएं कि
मैने लिखा है।
बता भी नहीं
सकेंगे कि
मैंने लिखा है।
ऐसा बताएं कि
किसी का पत्र
आया है।
वह
आदमी कहेगा, किसी
पागल ने लिखा
है! तब आपको
पता चल जाएगा,
कि आपके
दिमाग में जो
चलता है, ईमानदारी
से दस मिनट एक
कोने में बैठ
जाएं और लिख
डालें, जो
भी चलता हो। उसमें
आप कुछ फर्क
मत करना। जो
भी चल रहा हो।
दस मिनट का एक
टुकड़ा लिख लें
और अपने
निकटतम मित्रों
को बताएं, जो
आपको प्रेम
करते हैं। और
उनसे पूछें कि
यह किसी का
पत्र आया है, थोड़ा समझ
लें। आप एक
आदमी न खोज
सकेंगे पूरी
जमीन पर, जो
आपसे कहे कि
यह किसी ऐसे
आदमी ने लिखा
है, जिसका
दिमाग ठीक है।
जो भी मिलेंगे,
वे कहेंगे,
किसी पागल
ने लिखा है।
क्या
चल रहा है आपके
भीतर? कोई
संगति है वहां?
एक अराजकता
है। आप जैसे
एक भीड़ हैं
भीतर, जिसमें
कुछ भी हो रहा
है। किसी तरह
अपने को
सम्हाले हुए
हैं, बाहर
प्रकट नहीं
होने देते। वह
भी मौके—बेमौके
निकल ही जाता
है। कोई जरा
जोर से धक्का
मार दे, वह
भीतर जो चल
रहा है, बाहर
निकल आता है।
कोई जरा गाली
दे दे, तो
उसने आपके
भीतर छेद कर
दिया, उसमें
से आपके भीतर
का पागलपन
बढ़कर बाहर
निकल आएगा।
क्रोध
क्या है? अस्थायी
पागलपन है।
जरा देर के
लिए आप पागल
हो गए। फिर
सम्हाल लेते
है, अपने
को! बड़ी अच्छी
बात है कि फिर
सम्हाल लेते हैं।
लेकिन वह
घड़ीभर में जो
प्रकट होता है,
उस पर आपने
कभी खयाल किया
है कि क्या
होता है?
यह जो
विक्षिप्तता
है, यह
इस दृष्टि का
परिणाम है कि
जो कुछ किया
जा सकता है, वह हम कर
सकते हैं। हम
जिंदगी को बदल
सकते हैं। हम
जिंदगी जैसी
बनाना चाहते
हैं, वैसी
जिंदगी बन
सकती है, कोई
नियति नहीं है।
भविष्य मुक्त
है और हमारे
हाथों में है।
मैं
नहीं कहता, यह गलत है।
यह हो सकता है।
पश्चिम ने
करके देखा है।
हमने भी बहुत
बार करके देखा
है। लेकिन
इसका परिणाम
यह होता है कि
भविष्य तो हमारे
हाथ में थोड़ा—बहुत
चलने लगता है,
लेकिन हम
बिलकुल पटरी
से उतर जाते
हैं।
भविष्य
को चलाने में
आदमी
अस्तव्यस्त
हो जाता है।
यह बहुत बार
के अनुभव के
बाद भारत ने
यह निर्णय
लिया कि
भविष्य को छोड़
दो परमात्मा
पर। वह
अपरिहार्य है, इनएविटेबल
है। जो होना
है, वह
होकर रहेगा।
आप बीच में
कुछ भी नहीं
हैं।
इसका
चुकता परिणाम
यह होता है कि
आप तत्क्षण
मुक्त हो गए
भविष्य से। अब
कोई चिंता न
रही। सुख आएगा
कि दुख आएगा, अच्छा
होगा कि बुरा
होगा, बचेंगे
कि नहीं
बचेंगे, अब
आपके हाथ में
कोई बात नहीं
है। आप
वर्तमान में
जी सकते हैं—
अभी और यहीं।
बहुत—से
शिक्षक हैं, कृष्णमूर्ति
हैं, जो
निरंतर कहते
हैं, वर्तमान
में जीयो।
लेकिन आदमी
वर्तमान में
जी नहीं सकता,
जब तक उसको
यह खयाल है कि
भविष्य बनाया
जा सकता है।
कैसे जी सकता
है? इसलिए
शिक्षा ठीक
होकर भी अधूरी
है। कैसे जी
सकता है, जब
तक उसे पता है
कि मैं चाहूं
तो कल और कुछ
हो सकता है! और
अगर मैं कुछ न
करूं तो कुछ
और होगा! कल
बदला जा सकता
है, यह
मेरे आज को तो
परेशान करेगा
ही। अगर कल
बदला ही नहीं
जा सकता..।
कल ऐसा
ही है, जैसे
कोई उपन्यास
मैं पढ़ रहा
हूं जिसकी कथा
लिखी ही हुई
है, या कोई
फिल्म देख रहा
हूं। तो मैं
हाल में बैठकर
कुछ भी करूं, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ने वाला।
फिल्म में जो
घटना घटने
वाली है, वह
घटकर ही रहेगी।
फिल्म तो
सिर्फ उघड रही
है। सब नियत
है। वह अगर
शादी होनी है
पात्र की, तो
हो जाएगी।
पीछे बैंड—बाजा
बजेगा, और
शहनाई बज
जाएगी। नहीं
होनी है, तो
नहीं होगी। और
जो भी होना है,
वह एक अर्थ
में हो चुका
है। फिल्म से
सिर्फ मुझे
दिखाई पड़ना है।
अब मैं
हाल में बैठकर
करवटें बदल
रहा हूं कि कोई
उपाय करूं कि
यह जो अभिनेता
प्रेम कर रहा
है, इसकी
शादी हो जाए।
तो मैं नाहक
परेशान हो रहा
हूं। कोई
परेशान नहीं
होता। लेकिन
कुछ लोग
परेशान फिल्म
में भी होते
हैं। कम से कम
थोड़ी देर को
तो भूल ही
जाते हैं।
फिल्म में भी
सोचने लगते
हैं कि ऐसा हो
जाए, तो
अच्छा। ऐसा न
हो, तो
बेचैनी होती
है।
भारतीय
दृष्टि यह है—
और गीता की
दृष्टि है यह—
और बहुत लंबे
अनुभव के बाद
इस नतीजे पर
भारत पहुंचा
कि भविष्य
सिर्फ
अनफोल्ड हो
रहा है। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं यह
सही है या गलत
है। यह कुछ भी
नहीं कह रहा
हूं। यह सिर्फ
एक डिवाइस है, एक उपाय
है।
एक
उपाय है, अगर आपको
वस्तुएं
इकट्ठी करनी
हैं, तो
भविष्य नियत
नहीं है, मानकर
चलें। आत्मा
खो जाएगी। एक
उपाय है कि
भविष्य नियत
है, चिंता
न करें। आप
अपनी आत्मा को
सरलता से
उपलब्ध कर सकेंगे।
इसलिए
अर्जुन ने जो
देखा कृष्ण
में... अभी
योद्धा मरे
नहीं हैं।
समझिए। अभी
योद्धा मरे
नहीं हैं। अभी
भीष्म पितामह
जीवित हैं।
अभी
द्रोणाचार्य
पूरी तरह
जीवित हैं।
अभी हारे भी
नहीं हैं, मिटे भी
नहीं हैं। अभी
तो युद्ध शुरू
नहीं हुआ है।
और उसने देखा,
कृष्ण के
दांतों में
दबे हुए, पिसते
हुए, मरते
हुए, समाप्त
होते हुए।
जैसे फिल्म में
उसने आगे झांक
लिया, या
उपन्यास के
कुछ पन्ने
एकदम से उलट
दिए, और
पीछे का
निष्कर्ष पढ़
लिया। भविष्य
उसे दिखाई पड़ा।
कृष्ण
उसे यही कहना
चाहते थे कि
तू नाहक
परेशान हो रहा
है कि ऐसा करूं, कि वैसा
करूं। जो होना
है, वह
होगा। तेरी
परेशानी
अकारण है, असंगत
है। कृष्ण
उसे यही समझा
रहे थे कि जो
होना है, वह
हो ही चुका है।
तू चिंता छोड़।
कहानी लिखी जा
चुकी है। नाटक
का अंत तय हो
चुका है। तू
सिर्फ पात्र
है। तू नाटक
का रचयिता
नहीं है। तू
लेखक नहीं है।
यह जो कथा है, यह तुझसे
लिखी जाने
वाली नहीं है।
तू लिखने वाला
नहीं है।
लिखने वाला
लिख चुका है।
नतीजा तय हो
चुका है। तुझे
सिर्फ काम
पूरा करना है।
यह ऐसे ही है, जैसे रामायण
खेल रहे हैं
लोग। रामलीला
कर रहे हैं।
अब उसमें कोई
उपाय नहीं है।
एक
गांव में ऐसा
हो गया। एक
गांव में एक
ही आदमी हर
बार रावण बनता
था। रावण जैसा
था शक्ल—सूरत
से। तो हर बार
जब रामलीला
होती, वह
रावण बनता। और
गांव की एक
सुंदर स्त्री
थी, वह
सीता बनती।
ऐसा हुआ, धीरे—
धीरे साथ—साथ
काम करते—
करते सच में
ही रावण को
सीता से प्रेम
हो गया, उस
लड़की से। और
उसे बड़ा कष्ट
होता था कि हर
बार प्रेम तो
उसका है और हर
बार शादी राम
के साथ होती
है। कष्ट
स्वाभाविक था।
एक बार
ऐसा हुआ कि जब
स्वयंवर रचा
और रावण भी बैठा।
तो कथा ऐसी है
कि रावण के
दूत आए और
उन्होंने खबर
दी कि लंका
में आग लगी है, इसलिए वह
लंका चला गया।
उसी बीच राम
ने धनुष तोड़
दिया; शादी
हो गई। दूत
आकर चिल्लाने
लगे कि रावण
तेरे राज्य
में आग लगी है।
रावण ने कहा, लगी रहने दे।
इस बार तो
शादी करके ही
जाऊंगा। बहुत
बार देख चुका;
लगी रहने दे।
और उसने आव
देखा न ताव, उठाकर शिवजी
का धनुष तोड़कर
दो टुकड़े कर
दिए।
जनक
घबड़ा गए। सीता
भी घबडाई। राम
भी परेशान हुए।
वशिष्ठ भी
सोचने लगे
होंगे कि अब
क्या हो? यह सारी कथा
खराब हो गई! वह
तो जनक कुशल
आदमी था, गांव
का का आदमी था।
उसने कहा, भृत्यो,
यह तुम मेरे
बच्चों के
खेलने का धनुष
उठा लाए! शिवजी
का धनुष लाओ।
परदा गिराकर,
रावण को अलग
करके, दूसरा
आदमी रावण
बनाना पड़ा। तो
वह सारी कथा...!
कृष्ण
अर्जुन को कह
रहे हैं कि वह
जो होने वाला
है, वह
तेरे हाथ में
नहीं है; तू
नाहक चिंता ले
रहा है। वह
लिखा जा चुका
है, वह हो
चुका है, वह
नियत है, वह
बंधा हुआ है।
तू निश्चिंत
हो जा। और तू
अपना पार्ट
ऐसे कर ले, जैसे
एक अभिनय में
कर रहा है। हो
जाती है भूल।
यह अभिनेता
भूल गया कि
मैं सिर्फ
अभिनय कर रहा
हूं। मुसीबत
में पड़ा।
मुसीबत में
पड़ा।
ऐसा
मैंने सुना कि
अभी निक्सन के
इलेक्यान में
हुआ अमेरिका
में। निक्सन
के चुनाव में
एक अभिनेता
हालीवुड का, निक्सन
का प्रचार करने
गया। एक मंच
पर खड़े होकर
व्याख्यान दे
रहा है।
अभिनेता का
व्याख्यान।
वह तैयार करके
लाया था। जैसा
फिल्म में
देता है, वैसा
सब तैयार था।
सब—हाथ कब
हिलाना, सिर
कब हिलाना—सब
तैयार था। जोश
से भाषण दे
रहा था।
तभी एक
आदमी, जो
निक्सन के
खिलाफ है, बीच
में खड़े होकर गड़बड़
करने लगा। इस
अभिनेता को भी
जोश आ गया।
इसने कहा, क्या
गड़बड़ करते हो।
अगर हो ताकत, तो आ जाओ।
दोनों कूद पड़े।
कुश्तमकुश्ती
हो गई। उस
आदमी ने दो—चार
हाथ जोर से जड़
दिए। अभिनेता
ने कहा, अरे!
यह क्या? तुमको
अभिनय नहीं
करना आता! इस
तरह कहीं मारा
जाता है!
वह असली
हाथ मारने लगा।
यह बेचारा
अभिनेता था।
यह भूल ही गया
कि यह सभा
असली है और
यहां मार—पीट
असली हो जाएगी।
वह समझा कि
कोई फिल्म का
दृश्य है, और यह सब
हो रहा है।
ठीक है।
आदमी
के भूलने की
संभावना है।
हम भी, जो
असली नहीं हैं,
उसे असली
मान लेते हैं।
जो असली है, उसे नकली
मान लेते हैं।
तब जीवन में
बड़ी असुविधा
हो जाती है।
तब जीवन में
बड़ी उलझन हो
जाती है।
कृष्ण
का सूत्र ही
यही है अर्जुन
को कि तू बीच में
मत आ। जो हो
रहा है, उसे हो जाने
दे, तू
बाधा मत डाल।
और तू निर्णय
मत ले कि मैं
क्या करूं।
तुझसे कोई पूछ
ही नहीं रहा
है कि तू क्या
करे। तू
निमित्त
मात्र है। अगर
तू पूरा नहीं
करेगा, तो
कोई और पूरा
करेगा।
एक
बहुत अदभुत
घटना मुझे याद
आती है। बंगाल
में एक बहुत
अनूठे
संन्यासी हुए, युक्तेश्वर
गिरि। वे
योगानंद के
गुरु थे।
योगानंद ने
पश्चिम में
फिर बहुत
ख्याति पाई।
गिरि अदभुत
आदमी थे। ऐसा
हुआ एक दिन कि
गिरि का एक
शिष्य गांव
में गया। किसी
शैतान आदमी ने
उसको परेशान
किया, पत्थर
मारा, मार—पीट
भी कर दी। वह
यह सोचकर कि
मैं संन्यासी
हूं क्या
उत्तर देना, चुपचाप वापस
लौट आया। और
फिर उसने सोचा
कि जो होने
वाला है, वह
हुआ होगा, मैं
क्यों अकारण बीच
में आऊं। तो
वह अपने को
सम्हाल लिया।
सिर पर चोट आ
गई थी। खून भी
थोड़ा निकल आया
था। खरोंच भी
लग गई थी।
लेकिन यह
मानकर कि जो
होना है, होगा।
जो होना था, वह हो गया है।
वह भूल ही गया।
जब वह
वापस लौटा
आश्रम कहीं से
भिक्षा
मांगकर, तो वह भूल ही
चुका था कि
रास्ते में
क्या हुआ।
गिरि ने देखा
कि उसके चेहरे
पर चोट है, तो
उन्होंने
पूछा, यह
चोट कहां लगी?
तो वह एकदम
से खयाल ही
नहीं आया उसे
कि क्या हुआ।
फिर उसे खयाल
आया। उसने कहा
कि आपने अच्छी
याद दिलाई।
रास्ते में एक
आदमी ने मुझे
मारा। तो गिरि
ने पूछा, लेकिन
तू भूल गया इतनी
जल्दी! तो
उसने कहा कि
मैंने सोचा कि
जो होना था, वह हो गया।
और जो होना ही
था, वह हो
गया, अब
उसको याद भी
क्या रखना!
अतीत भी
निश्चिंतता
से भर जाता है,
भविष्य भी।
लेकिन एक और
बड़ी बात इस
घटना में है
आगे।
गिरि
ने उसको कहा, लेकिन
तूने अपने को
रोका तो नहीं
था? जब वह
तुझे मार रहा
था, तूने
क्या किया? तो उसने कहा
कि एक क्षण तो
मुझे खयाल आया
था कि एक मैं
भी लगा दूं।
फिर मैंने
अपने को रोका
कि जो हो रहा
है, होने
दो। तो गिरि
ने कहा कि फिर
तूने ठीक नहीं
किया। फिर
तूने थोड़ा
रोका। जो हो
रहा था, वह
पूरा नहीं
होने दिया। तूने
थोड़ी बाधा
डाली। उस आदमी
के कर्म में
तूने बाधा
डाली, गिरि
ने कहा।
उसने
कहा, मैंने
बाधा डाली!
मैंने उसको
मारा नहीं, और तो मैंने
कुछ किया नहीं।
क्या आप कहते
हैं, मुझे
मारना था!
गिरि ने कहा, मैं यह कुछ
नहीं कहता।
मैं यह कहता
हूं जो होना
था, वह
होने देना था।
और तू वापस जा,
क्योंकि तू
तो निमित्त था।
कोई और उसको
मार रहा होगा।
और बड़े
मजे की बात है
कि वह
संन्यासी
वापस गया। वह
आदमी बाजार
में पिट रहा
था। लौटकर वह
गिरि के पैरों
में पड़ गया।
और उसने कहा
कि यह क्या
मामला है? गिरि ने
कहा कि जो तू
नहीं कर पाया,
वह कोई और
कर रहा है। तू
क्या सोचता है,
तेरे बिना
नाटक बंद हो
जाएगा! तू
निमित्त था।
बड़ी
अजीब बात है
यह। और
सामान्य नीति
के नियमों के
बड़े पार चली
जाती है।
कृष्ण
अर्जुन को यही
समझा रहे हैं।
वे यह कह रहे
हैं कि जो
होता है, तू होने दे।
तू मत कह कि
ऐसा करूं, वैसा
करूं, संन्यासी
हो जाऊं, छोड़
जाऊं। कृष्ण
उसको रोक नहीं
रहे हैं
संन्यास लेने
से। क्योंकि
अगर संन्यास
होना ही होगा,
तो कोई नहीं
रोक सकता, वह
हो जाएगा।
इस बात
को ठीक से समझ
लें।
अगर
संन्यास ही
घटित होने को
हो अर्जुन के
लिए, तो कृष्ण
रोकने वाले
नहीं हैं। वे
सिर्फ इतना कह
रहे हैं कि तू
चेष्टा करके
कुछ मत कर। तू
निश्चेष्ट
भाव से, निमित्त
मात्र हो जा
और जो होता है,
वह हो जाने
दे। अगर युद्ध
हो, तो ठीक।
और अगर तू भाग
जाए और
संन्यास ले ले,
तो वह भी
ठीक। तू बीच
में मत आ, तू
स्रष्टा मत बन।
तू केवल
निमित्त हो।
ऐसी
अगर दृष्टि हो, तो आप
कैसे अशांत हो
सकेने? ऐसी
अगर दृष्टि हो,
तो कौन आपको
परेशान कर
सकेगा? ऐसी
अगर दृष्टि हो,
तो चिंता
फिर आपके लिए
नहीं है। और
जो परेशान
नहीं, चिंतित
नहीं, बेचैन
नहीं, उसके
भीतर वे शांति
के वर्तुल बन
जाते हैं, जिनसे
भीतर की
यात्रा होती
है और परम
स्रोत तक
पहुंचना हो
जाता है।
एक
और प्रश्न।
परम सत्ता को
परम चैतन्य और
परम प्रज्ञा
कहा गया है।
लेकिन उसमें
घटित सृजन, फिर
विनाश, फिर
सृजन, फिर
विनाश के
वर्तुल को
देखकर बड़ा
अजीब—सा लगता
है। क्या आप
समझा सकते हैं
कि इस वर्तुल
के पीछे कोई
कारण, कोई
अर्थ, कोई
मीनिंग, कोई
सार्थकता है?
इसको थोड़ा
खयाल में लेना
जरूरी होगा।
क्योंकि गीता
को समझना बहुत
आसान हो जाएगा।
न केवल गीता
को, बल्कि
भारत की पूरी
खोज को समझना
आसान हो जाएगा।
यह
सवाल उठना
स्वाभाविक है
कि क्या है
कारण इस सबका
कि आदमी को
जन्म दो, मृत्यु दो, स्रष्टि
बनाओ, प्रलय
करो। इधर ब्रह्मा
बनाए, उधर विष्णु
सम्हाले, वहां
शंकर विनिष्ट
करें। यह सब
क्या उपद्रव
है? और
इसका क्या
प्रयोजन है? यह बनाने—मिटाने
का जो वर्तुल
है, अगर यह
गाड़ी के चाक
की तरह घूमता
ही रहता है, तो यह जा
कहां रही है
गाड़ी? यह
जो चाक घूम
रहा है, यह
कहां ले जा
रहा है? इसकी
निष्पत्ति
क्या होगी? अंतत: क्या
है लक्ष्य इस सारे
विराट आयोजन
का? इसके
पीछे क्या राज
है? यह
सवाल गहरा है
और आदमी
निरंतर पूछता
रहा है कि
क्या है
प्रयोजन इस
जीवन का? इस
विराट आयोजन
में निहित
क्या है? क्यों
यह सब हो रहा
है?
इसके
दो उत्तर हैं।
और जो उत्तर
भारत ने दिया
है, वह
बड़ा अदभुत है।
एक उत्तर तो
कोई प्रयोजन
खोजना है।
जैसे कुछ धर्म
कहते हैं कि
आत्मज्ञान को
पाना इसका
प्रयोजन है।
जैसा जैन कहते
हैं कि इस
सारी यात्रा
के पीछे, इस
सारे भवजाल के
पीछे
आत्मसिद्धि, आत्मज्ञान,
कैवल्य को
पाना लक्ष्य है।
या जैसे
ईसाइयत कहती
है कि
परमात्मा का
अनुभव, उसके
राज्य में
प्रवेश, किंगडम
आफ गॉड, उसके
साथ उसके
सान्निध्य
में रहना, उसकी
खोज इसका
प्रयोजन है।
लेकिन
ये बातें बहुत
गहरी जाती
नहीं।
क्योंकि पूछा
जा सकता है कि
अगर सिद्धि और
आत्मज्ञान
पाना ही इसका
प्रयोजन है, तो इतनी
बाधाएं खड़ी
करने की क्या
जरूरत है सिद्धि
और आत्मज्ञान
में? और
आत्मा तो मिली
ही हुई है। तो
इतनी लंबी
यात्रा, इतना
कष्ट का जाल, इतना उपद्रव
क्यों है? यह
सीधा—सीधा हो
जाए। अगर कोई
परमात्मा यही
चाहता है कि
हम आत्मज्ञान
को उपलब्ध हो
जाएं, तो
वह हमें आशीर्वाद
दे दे और हम
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हो जाएं;
वह प्रसाद
बांट दे, हम
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएं। उसके
चाहने से घटना
घट जाएगी। यह
इतना जाल किस
लिए? जन्मों—जन्मों
का इतना कष्ट,
यह किस लिए?
अगर यह
परमात्मा ही
कर रहा है, तो
परमात्मा
बहुत
विक्षिप्त
मालूम पड़ता है।
यही काम करना
है कि सभी लोग
सिद्ध हो जाएं,
तो वह सभी
लोगों को
सिद्ध इसी
क्षण कर सकता
है।
इसलिए
जैनों ने
परमात्मा को
नहीं माना।
क्योंकि अगर
परमात्मा को
मानते हैं, तो बड़ी
कठिनाई खड़ी
होगी। वह
क्यों नहीं
अभी तक लोगों
को मुक्त कर
देता है? तो
जैनों ने कहा
है कि संसार
में कोई
परमात्मा
नहीं, जो
तुम्हें
मुक्त कर सके।
तुम्हीं को
मुक्त होना है।
मगर
क्यों? यह अमुक्ति
क्यों है? और
आदमी अमुक्त
क्यों हुआ? इसका कोई
उत्तर जैनों
के पास नहीं
है। वे कहते
हैं, अनादि
है। मगर क्यों?
वे कहते हैं
कि मुक्त होना
है और मुक्त
होने की
संभावना है, मुक्त लोग
हो गए हैं।
लेकिन आदमी की
आत्मा बंधन
में ही क्यों
पड़ी? इसका
कोई उत्तर
नहीं है। वे
कहते हैं, निगोद
से पड़ी है, अनंत
काल से पड़ी है।
लेकिन क्यों
पड़ी है? कितने
ही काल से पड़ी
हो, आदमी
अमुक्त क्यों
है? इसका
कोई उत्तर
नहीं है।
अगर
ईश्वर के
राज्य में
पहुंचना ही
लक्ष्य हो, तो ईश्वर
ने हमें पटका
क्यों है? वह
हमें पहले से
ही राज्य में
बसा सकता था!
अगर ईसाइयत
कहती है कि
चूंकि आदमी ने
बगावत की ईश्वर
के खिलाफ, अदम
ने आशा नहीं
मानी और आदमी
को संसार में
भटकाना पड़ा।
तो भी बड़ी
हैरानी की बात
लगती है कि
अदम अवज्ञा कर
सका, इसका
मतलब यह है कि
ईश्वर की ताकत
अदम की ताकत से
कम है। अदम
बगावत कर सका,
इसका मतलब
यह होता है कि
अदम जो है, वह
ईश्वर से भी
ज्यादा ताकत
रखता है, बगावत
कर सकता है, स्वतंत्र हो
सकता है।
और बड़ी
कठिनाई है कि
अदम में यह
बगावत का खयाल
किसने डाला? क्योंकि
ईसाइयत कहती
है कि सभी कुछ
का निर्माता
ईश्वर है, तो
इस आदमी को यह
बगावत का खयाल
किसने डाला? वे कहते हैं,
शैतान ने।
लेकिन शैतान
को कौन बनाता
है?
बड़ी
मुसीबत है।
धर्मों की भी
बड़ी मुसीबत है।
जो उत्तर देते
हैं, उससे
और मुसीबत में
पड़ते हैं।
शैतान को भी
ईश्वर ने
बनाया। इबलीस
जो है, वह
भी ईश्वर का
बनाया हुआ है,
और उसी ने
इसको भड़काया!
तो
ईश्वर को क्या
इतना भी पता
नहीं था कि
इबलीस को मैं
बनाऊंगा, तो यह आदमी
को भड़काका! और
आदमी भड़के—गा,
तो पतित
होगा। पतित
होगा, तो
संसार में
जाएगा। और फिर
ईसा मसीह को
भेजो, साधु—संन्यासियों
को भेजो, अवतारों
को भेजो, कि
मुक्त हो जाओ।
यह सब उपद्रव!
क्या उसे पता
नहीं था इतना
भी? क्या
भविष्य उसे भी
अज्ञात है? अगर भविष्य
अज्ञात है, तो वह भी
आदमी जैसा
अज्ञानी है।
और अगर भविष्य
उसे ज्ञात है,
तो सारी
जिम्मेवारी
उसकी है। फिर
यह उपद्रव क्यों?
नहीं।
हिंदुओं के
पास एक अनूठा
उत्तर है, जो जमीन
पर किसी ने भी
नहीं खोजा। वह
दूसरा उत्तर
है। वे कहते
हैं, इस
जगत का कोई
प्रयोजन नहीं
है, यह
लीला है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
वे
कहते हैं, इसका कोई
प्रयोजन नहीं
है, यह
सिर्फ खेल है—
जस्ट ए प्ले।
यह बड़ा दूसरा
उत्तर है।
क्योंकि खेल
में और काम
में एक फर्क
है। काम में
प्रयोजन होता
है, खेल
में प्रयोजन
नहीं होता।
आप
सुबह मरीन
ड्राइव से जा
रहे हैं, घूमने। अगर
कोई आपसे पूछे
कि कहां जा
रहे हैं? तो
आप कहते हैं, सिर्फ घूमने
जा रहे हैं।
आप कोई लक्ष्य
नहीं बता सकते
कि वहां जा
रहे हैं। आपसे
पूछें, आपका
दिमाग खराब
है! क्यों
नाहक चल रहे
हैं जब कहीं
जाना ही नहीं
है? तो आप
कहते हैं, मैं
घूम रहा हूं।
इस घूमने का
क्या मतलब? जा कहां रहे
हैं? आप
कहेंगे, जा
कहीं भी नहीं
रहा हूं। बस, घूमने का
आनंद ले रहा
हूं। बस, यह
जो पैरों का
उठना, और
यह हवा की
टक्कर, और
यह गहरी श्वास,
और यह जो
होने का मजा
है, बस यह
ले रहा हूं।
मैं कहीं जा
नहीं रहा हूं।
यह कहीं जाने
के लिए निकला
भी नहीं हूं।
सिर्फ आनंदित
हो रहा हूं।
यह
घूमना एक खेल
है। इसकी कोई
मंजिल नहीं, कोई
प्रयोजन नहीं।
फिर
उसी रास्ते से
आप दोपहर
दफ्तर जा रहे
हैं। रास्ता
वही है, पैर वही हैं,
आप वही हैं,
लेकिन सब
कुछ बदल गया।
अब आप कहीं जा
रहे हैं।
दफ्तर जा रहे
हैं! कहीं
पहुंचना है।
कोई लक्ष्य है।
यह काम है।
फर्क
आप अनुभव कर
लेंगे। सुबह
आप उसी रास्ते
पर उन्हीं
पैरों से वही
आदमी घूमता है, और घूमने
में एक आनंद
होता है। और
वही आदमी थोड़ी
देर बाद उसी
रास्ते से
उन्हीं पैरों
से दफ्तर जाता
है, और
दफ्तर जाने
में कोई भी
आनंद नहीं
होता। सिर्फ
एक जबरदस्ती,
एक बोझ, पूरा
करना है।
लक्ष्य है, उसे पूरा
करना है। सुबह
इसी आदमी की
पुलक दूसरी थी।
इसकी आंखों की
रौनक और थी, इसके चेहरे
पर हंसी और थी।
यही दफ्तर जब
जा रहा है, तब
वह सब रौनक खो
गई, वह
हंसी खो गई।
रास्ता वही, आदमी वही, पैर वही, हवाएं
वही, सब
कुछ वही है।
फर्क क्या पड़
गया है?
इस
आदमी के मन
में एक लक्ष्य
है अब, लक्ष्य
से तनाव पैदा
होता है। सुबह
कोई लक्ष्य
नहीं था, बिना
लक्ष्य के कोई
तनाव नहीं
होता। अब इस
आदमी के मन
में एक भविष्य
है, कहीं
पहुंचना है।
भविष्य से
तनाव पैदा
होता है। सुबह
कहीं पहुंचना
नहीं था। चाहे
बाएं गए, चाहे
दाएं गए। चाहे
इस तरफ गए, चाहे
उस तरफ गए।
चाहे यहां
रुके, चाहे
वहां रुके।
कोई फर्क नहीं
पड़ता था। कोई
मंजिल न थी।
चलना ही मंजिल
थी।
खेल
बच्चे खेलते
हैं। क्या कर
रहे हैं वे? हमें
लगता भी है
बड़ों को कभी—कभी,
कि क्या
बेकार के खेल
में पड़े हो!
हमें लगता है कि
खेल में भी
कोई कार, कोई
काम होना
चाहिए। बेकार
है! हम तो अगर
खेल भी खेलते
हैं, बड़े
अगर खेल भी
खेलते हैं, तो खेल नहीं
खेल पाते।
अगर वे
ताश खेल रहे
हैं, तो
थोड़े—बहुत
पैसे लगा
लेंगे।
क्योंकि
पैसे लगाने
से प्रयोजन आ जाता
है। नहीं तो बेकार
है। बेकार ताश
फेंट रहे हैं, फेंक रहे
हैं, उठा
रहे हैं, क्या
मतलब! कुछ दांव
लगा
लो, रस आ
जाता। क्यों?
क्योंकि
तब खेल नहीं
रह जाता। काम
हो जाता है।
तब उसमें से
कुछ मिलेगा।
तब खेल के
बाहर कोई चीज
पाने के लिए
है, तो काम
हो गई। जुआ
काम है, खेल
नहीं है। खेल
का मतलब ही
इतना होता है
कि बाहर कोई
लक्ष्य नहीं
है, अपने
में ही
रसपूर्ण है।
भारतीय
गहरी खोज है
कि परमात्मा
के लिए सृष्टि
कोई काम नहीं
है, कोई
परपज नहीं है,
कोई
प्रयोजन नहीं
है, खेल है।
इसलिए हमने
इसे लीला कहा
है। लीला जैसा
शब्द दुनिया
की किसी भाषा
में नहीं है।
लीला जैसा
शब्द दुनिया
की किसी भाषा
में नहीं है।
क्योंकि लीला
का अर्थ यह
होता है कि
सारी सृष्टि
एक निष्प्रयोजन
खेल है। इसमें
कोई प्रयोजन
नहीं है।
लेकिन
परमात्मा
आनंदित हो रहा
है। बस। जैसे
सागर में
लहरें उठ रही
हैं, वृक्षों
में फूल लग
रहे हैं, आकाश
में तारे चल
रहे हैं, सुबह
सूरज उग रहा
है, सांझ
तारों से आकाश
भर जाता है।
यह सब उसके
होने का आनंद
है। वह आनंदित
है।
यह
होना, इसमें
कुछ पाना नहीं
है उसे, कि
कल कोई
सर्टिफिकेट
उसे मिलेगा, कि खूब
अच्छा चलाया
नाटक। कि कोई
उसकी पीठ
थपथपाएगा, कि
शाबाश! उसके
अलावा कोई
नहीं है। कि
कोई ताली
बजाएगा, अखबार
में खबर
छापेगा, कि
बड़ी अच्छी
व्यवस्था रही
तुम्हारी! कोई
नहीं है उसके
अलावा, वह
अकेला है। वह
अकेला है।
कभी
आपने अकेले
ताश के पत्ते
खेले हैं? अगर खेले
हों, तो
थोड़ी देर के
लिए ईश्वर
होने का मजा आ
सकता है। कुछ
लोग ट्रेन में
खेलते रहते
हैं अकेले।
कोई नहीं होता,
तो दोनों
बाजियां चल
देते हैं। फिर
इस तरफ से
जवाब देते हैं,
फिर उस तरफ
से जवाब देते
हैं। उसमें भी
पूरा मजा आ
जाता है हार—जीत
का।
लीला
का अर्थ है, वही है इस
तरफ, वही
है उस तरफ, दोनों
बाजियां उसकी।
हारेगा भी, तो भी वही, जीतेगा, तो
भी वही। फिर
भी मजा ले रहा
है। हाइड एंड
सीक, खुद
को छिपा रहा
है और खुद ही
खोज रहा है।
कोई प्रयोजन
नहीं है।
हमें
बहुत घबड़ाहट
लगेगी। इसलिए
भारत की यह
धारणा दुनिया
में बहुत लोगों
तक प्रभाव
नहीं छोड़ती।
भारतीय के मन
में भी प्रभाव
नहीं छोड़ती, क्योंकि
लगता है तब
बेकार! हमारे
मन में भी कुछ
मतलब तो
निकलना चाहिए!
इतनी दौड़— धूप,
इतने
उपद्रव, जन्म—जन्म
की यात्रा, और मतलब कुछ
भी नहीं! यह भी
थोड़ा सोच लेने
जैसा है।
अगर हम
जिंदगी को एक
काम समझते हैं, तो हमारी
जिंदगी में एक
बोझ होगा। और
अगर जिंदगी को
हम खेल समझते
हैं, तो
जिंदगी
निबोंझ हो
जाएगी।
धार्मिक
आदमी वह है, जिसके
लिए सभी कुछ
खेल हो गया।
और अधार्मिक
आदमी वह है, जिसके लिए
खेल भी खेल
नहीं है, उसमें
भी जब काम
निकलता हो कुछ,
तो ही।
धार्मिक आदमी
वह है, जिसके
लिए सब लीला
हो गई। उसे
कोई अड़चन नहीं
है कि ऐसा
क्यों हो रहा
है? ऐसा
क्यों नहीं हो
रहा? यह
बुरा आदमी
क्यों है? यह
भला आदमी
क्यों है?
निष्प्रयोजन
लीला की
दृष्टि से, वह जो
बुरे में छिपा
है, वह भी
वही है। वह जो
भले में छिपा
है, वह भी
वही है। रावण
में भी वही है,
राम में भी
वही है। दोनों
तरफ से वह
दांव चल रहा
है। और वह
अकेला है।
अस्तित्व
अकेला है। इस
अस्तित्व के
बाहर कोई
लक्ष्य नहीं
है। इसलिए जो
आदमी अपने
जीवन में
लक्ष्य छोड़ दे
और वर्तमान के
क्षण में ऐसा
जीने लगे, जैसे खेल
रहा है, वह
आदमी यहीं और
अभी परमात्मा
का अनुभव करने
में सफल हो
जाता है।
लेकिन
हम ऐसे लोग
हैं कि
परमात्मा
पाने को भी एक
धंधा बना लेते
हैं। एक धंधा!
उसको भी ऐसी
व्यवस्था से
चलते हैं पाने
के लिए, कि छोड़ेंगे
नहीं, पाकर
ही रहेंगे! और
उसको भी
भविष्य में
रखते हैं कि
कहीं पाकर
रहेंगे। अभी
यह करेंगे, यह करेंगे, फिर ऐसा
करेंगे।
उपवास करेंगे,
तप करेंगे,
तपश्चर्या
करेंगे—पूरा
धंधा! आप
समझते है.......
आपको
पता है,
वह महान गुरू गोरखनाथ हुआ।
पर उसकी साधना
पद्धति जो
गोरख की थी। साधना
पद्धति यह थी
कि यह क्रिया
करो, और यह
कर्म करो, और
यह करो, और
वह करो।...........अनेको अनेक विधिया निर्मित की जितनी आज तक कोई दूसरा महान गुरू नहीं खोज पाया....सच महान गुरू गोरख नाथ...अदभुत थे.....वह मान से महान्तर से....धर्म के चार सतम्ब में वह एक है....जिसके बिना धर्म खड़ा नहीं हो सकता....
लेकिन
ईश्वर को पा
पाता है वही
आदमी, जो
धंधे में ही
नहीं होता। जो
धंधे में भी
हो, तो भी
खेल ही समझता
है। दुकान पर
बैठा है, तो
भी एक नाटक का
पात्र है। और
युद्ध में खड़ा
है, तो भी
नाटक का एक
पात्र है।
हमने यहां तक
हिम्मत की है
कि अगर वह
आदमी हत्यारा
है, किसी
की हत्या कर
रहा है, या
चोर है और
चोरी कर रहा
है, अगर
वहां भी वह
आदमी सिर्फ
अपने को नाटक
का एक पात्र समझ
रहा हो, तो
चोरी भी नहीं
छूती और हत्या
भी नहीं छूती।
मगर
बड़ा कठिन है।
बड़ा कठिन है
अपने को
निमित्त
मात्र मान
लेना, कि
जो हो रहा है, होने देना।
हम कुछ न
करेंगे। अपनी
बुद्धि को बीच
में न डालेंगे।
अपना निर्णय न
लेंगे। बहे
चले जाएंगे इस
प्रवाह में।
ऐसा जो
प्रयोजनहीन
होकर जीता है,
बच्चे की
भांति, वही
है संत। वह
क्या कर रहा
है, इस पर
निर्भर नहीं
है। उसके करने
में जो दृष्टि
है, वह
घूमने वाले की
है, पहुंचने
वाले की नहीं।
मौज ले रहा है।
जो हो रहा है, उसमें ही
मौज ले रहा है।
अब हम
सूत्र को लें।
अर्जुन
कह रहा है, अथवा
जैसे पतंग मोह
के वश होकर
नष्ट होने के
लिए
प्रज्वलित
अग्नि में अति
वेग से युक्त
हुए प्रवेश
करते हैं, वैसे
ही ये सब लोग
भी अपने नाश
के लिए आपके
मुखों में अति
वेग से युक्त
हुए प्रवेश कर
रहे हैं।
जैसे
दीया जल रहा
हो और पतंगा
चक्कर लगाता
है दीए के, और पास
आता चला जाता
है। उसके पंख
भी जलने लगते
हैं, तो भी
हटता नहीं, और पास आता
चला जाता है।
लपट उसे छूने
लगती है, तो
भी पास आता
चला जाता है।
अंत में वह
लपट में छलांग
लगाकर जल जाता
है। और ऐसा भी
नहीं कि एक
पतंगे को जलता
देखकर दूसरे
पतंगे कुछ समझ
लें। वे भी चक्कर
लगाते हैं, और निकट आते
जाते हैं
प्रकाश के।
जहां भी
प्रकाश हो, पतंगे
प्रकाश को
खोजते हैं।
अर्जुन
कह रहा है, मैं ऐसे
ही देख रहा
हूं इन सारे
लोगों को आपके
इस मृत्यु
रूपी मुंह में
जाते हुए। वे
सब भाग रहे
हैं अति वेग
से और एक—दूसरे
से
प्रतिस्पर्धा
कर रहे हैं कि
कौन पहले
पहुंच जाए।
बड़ा वेग है।
और जा कहां
रहे हैं! आपके
मुंह में जा
रहे हैं, जहां
मौत के सिवाय
और कुछ भी
नहीं है। यह
क्या हो रहा
है! ये सब महाशूरवीर,
महायोद्धा,
बुद्धिमान,
पंडित, ज्ञानी,
ये सब
मृत्यु की तरफ
जा रहे हैं।
और इतनी साज—सजावट
से जा रहे हैं
कि ऐसा नहीं
लगता कि इनको
पता हो कि ये
मृत्यु की तरफ
जा रहे हैं।
इतनी शान से
जा रहे हैं।
शोभायात्रा
बना रखी है
इन्होंने
अपनी गति को।
और जा रहे हैं,
देखता हूं र
आपके मुंह में,
जहां
मृत्यु घटित
होगी।
और आप
उन संपूर्ण
लोकों को
प्रज्वलित
मुखों द्वारा
ग्रसन करते
हुए सब ओर से
चाट रहे हैं।
और आप
हैं एक कि
आपकी अग्नि
लपटें सब तरफ
से छू रही हैं
लोकों को और
उनको लीले चली
जा रही हैं।
हे
विष्णु! आपका
उग्र प्रकाश
संपूर्ण जगत
को तेज के
द्वारा
परिपूर्ण
करके तपायमान
कर रहा है।
सब तप
रहे हैं, जल रहे हैं, भस्म हुए जा
रहे हैं।
हे
भगवन्! कृपा
करके मेरे
प्रति कहिए कि
आप उग्र रूप
वाले कौन हैं?
मानने
का मन नहीं
होता उसका कि
यह आप जो रूप
दिखला रहे हैं, यह सच में
आपका ही रूप
है। सोचता है,
कोई भ्रम
पैदा कर रहे
होंगे। सोचता
है, कोई
प्रतीक! सोचता
है, मुझे
कुछ धोखा दे
रहे होंगे, डरवा रहे
होंगे। सोचता
है, मेरी
परीक्षा ले
रहे होंगे। यह
मानने का मन
नहीं करता है
कि यह आप ही
हैं। तो वह
कहता है, यह
उग्र रूप वाला
कौन है? यह
आप नहीं मालूम
पड़ते!
हे
देवों में
श्रेष्ठ! आपको
नमस्कार होवे, आप
प्रसन्न होइए।
वह
घबड़ा भी रहा
है। बेचैन हो
रहा है। और कह
रहा है, आप प्रसन्न
होइए।
आदिस्वरूप, आपको मैं
तत्व से जानना
चाहता हूं
क्योंकि आपकी
प्रवृत्ति को
मैं नहीं
जानता।
आप
अपनी
प्रवृत्तियां
सिकोड़ लें। कि
आप लोगों की
मृत्यु बनते
हैं, मुझे
प्रयोजन नहीं।
कि आप लोगों
को लील जाते
हैं, मुझे
मतलब नहीं। कि
आप लोगों को बनाते
हैं, मुझे
मतलब नहीं।
आपकी
प्रवृत्ति को
हटा लें। आप
क्या करते हैं,
इससे मुझे
प्रयोजन नहीं।
आप क्या हैं, केंद्र में,
इसेंस में,
सार में, तत्व में, वही मैं
जानना चाहता
हूं। हम सब भी
परमात्मा को
जानना चाहते
हैं, और
उसकी
प्रवृत्ति से
बचना चाहते
हैं। यह सारा
संसार उसकी
प्रवृत्ति है।
यह सारा संसार
उसका खेल है।
हम इससे बचना
चाहते हैं और
उसे जानना
चाहते हैं।
वही अर्जुन कह
रहा है।
अर्जुन की
आकांक्षा
हमारी
आकांक्षा है।
हम भी
कहते हैं, संसार से
छुडाओ प्रभु,
अपने पास
बुला लो। जैसे
कि संसार में
वह पास नहीं
है! हम कहते
हैं, हटाओ
इस भवसागर से,
इस बंधन से
और अपने गले
लगा लो। जैसे
इस बंधन में
उसी ने गले
नहीं लगाया
है! हम कहते
हैं, कब
छूटेगी यह
पत्नी? कब
छूटेगा यह पति?
यह छुटकारा
कब होगा? हे
प्रभु! पास
बुलाओ। जैसे
कि इस पति में
और पत्नी में
वही मौजूद नहीं
है!
बुद्ध
वापस आए हैं, जब वे
बुद्ध हो गए
हैं। और उनकी
पत्नी ने एक
सवाल पूछा है।
पता नहीं, पूछा
या नहीं।
रवींद्रनाथ
ने एक गीत
लिखा है, जिसमें
पूछा है।
रवींद्रनाथ
ने एक गीत
लिखा है। और
रवींद्रनाथ
बड़े आलोचक थे
बुद्ध के, गहरे
आलोचक थे। पर
सवाल बड़ा
कीमती है। न
भी पूछा हो, तो बुद्ध की
पत्नी को
पूछना चाहिए
था।
बुद्ध
वापस लौट आए
हैं। यशोधरा
पूछती है कि
एक ही बात
मुझे पूछनी है।
जो तुम्हें
वहां जंगल में
जाकर, मुझे
छोड्कर मिला,
क्या तुम
हाथ रखकर छाती
पर कह सकते हो,
वह यहीं
नहीं मिल सकता
था मेरे पास?
बुद्ध
निरुत्तर खड़े
रह गए हैं।
पता नहीं, वे खड़े
रहे कि नहीं।
रवींद्रनाथ
ने उनको
निरुत्तर खड़े
रखा है। और
मैं भी मानता
हूं कि उत्तर
है नहीं।
बुद्ध को चुप
खड़े रह जाना
ही पड़ा होगा।
क्योंकि झूठ
वे बोल नहीं
सकते। और सच
यही है कि जो
उन्होंने
जंगल में पाया
है, वह यशोधरा
के पास भी
पाया जा सकता
था। क्योंकि
वह वहां भी
मौजूद है।
संसार
से हटा ले
प्रभु हमें!
क्यों? वही संसार
बना रहा है।
आप प्रार्थना
कर रहे हैं, हटा लो!
अर्जुन
यह कह रहा है, तुम्हारी
प्रवृत्ति
नहीं, तुम्हारा
तत्व। मैं तो
तुम्हें
सारभूत जानना
चाहता हूं।
तुम क्या करते
हो, वह
मुझे मतलब
नहीं है। तुम
क्या हो? तुम्हारा
डूइंग नहीं, तुम्हारी
बीइंग। मैं
तुम्हारे उस
केंद्र को
जानना चाहता
हूं जहां कोई
गति नहीं है, जहां कोई
कर्म नहीं है,
जहां सब
शांत और मौन
है।
प्रवृत्ति को
हटा लो।
लेकिन
वह कह जरूर
रहा है, लेकिन उसे
पता नहीं कि
वह साथ ही
अपना विरोध भी
कर रहा है। एक
तरफ वह कहता
है, हटा लो
यह उग्र रूप
और प्रसन्न हो
जाओ।
प्रसन्नता भी
प्रवृत्ति है।
और दूसरी तरफ
वह कह रहा है
कि प्रवृत्ति
का मुझे कुछ
पता नहीं।
जानना भी नहीं
चाहता। तत्व
जानना चाहता
हूं।
प्रसन्नता
तत्व नहीं है।
प्रसन्नता भी
कर्म है। जैसे
उग्रता कर्म
है, वैसे
प्रसन्नता
कर्म है। जैसे
मृत्यु कर्म
है, वैसे
जीवन भी कर्म
है। लेकिन हम
चुनाव करते ही
चले जाते हैं।
वह कहता है कि
प्रसन्नता, आनंदित हो
जाइए। वह भी
मानेगा कि
शायद आनंदित
होना ही तत्व
है। वह भी
तत्व नहीं है।
तत्व
तो शून्य है।
और शून्य को
देखने की
क्षमता बड़ी
मुश्किल है।
हम प्रवृत्ति
को ही देख
पाते हैं।
शून्य को हम
कहां देख पाते
हैं! शून्य जब
प्रवृत्ति
बनता है, तभी हमारी
पकड़ में आता
है। नहीं तो
कहां पकड़ में
आता है!
मैं
यहां चुप बैठ
जाऊं, तो
मेरा मौन आपको
पकड़ में नही
आएगा। जब मेरा
मौन शब्द बनता
है, तब
आपको सुनाई
पडता है। जो
मैं कहना
चाहता हूं वह
तो मेरे मौन
में है। जब
मैं उसे शब्द
का रूप देता
हूं तब वह आप
तक पहुंचता है।
अगर आप
मुझसे कहें कि
ऐसा कुछ करिए
कि मैं आपका
मौन सुन पाऊं, तो बड़ी
कठिन होगी बात।
क्योंकि उसके
लिए फिर आपके
कान काम नहीं
दे सकेंगे, वे सिर्फ
शब्द सुनने को
बने हैं। और
उसके लिए आपकी
बुद्धि भी काम
नहीं दे सकेगी,
क्योंकि वह
भी केवल शब्द
पकड़ने को बनी
है। फिर तो
आपको भी शून्य
में ही खड़ा
होना पड़े, तो
ही फिर मौन से
सुना जा सकता
है।
एक
अदभुत साधक
कुछ समय पहले
हुआ।
अनिर्वाण उस
साधक का नाम
था। बहुत कम
लोग जानते हैं।
क्योंकि कभी
कोई बहुत
लोगों को पास
नहीं आने दिया।
एक फ्रेंच
महिला
अनिर्वाण के
पास कोई पांच
साल तक रही।
बस, वह
अकेली एक
किताब उसने
लिखी है। वही
जगत को
जानकारी है
अनिर्वाण के
संबंध में।
पांच साल
अनिर्वाण के
पास चुपचाप
बैठी रही। वे
कुछ कहेंगे
नहीं, या
कुछ कहेंगे तो
बहुत अल्प।
पांच
साल बाद उसने
अनिर्वाण से
कहा, आपने
कुछ मुझे कहा
नहीं, हालांकि
मैंने बहुत
कुछ सुना।
अनिर्वाण ने
कहा, यही
मेरी एकमात्र
महत्वाकांक्षा
थी। जब से मैं
जन्मा हूं जब
से मुझे होश
है, तब से
मेरी एक ही
महत्वाकांक्षा
थी कि किसी को
मैं मौन से
कुछ कह पाऊं।
लेकिन मौन
होने के लिए
कोई राजी नहीं
होता।
पांच
साल चुप बैठी
रही। दो साल
निरंतर उनके
पास चुप बैठ—
बैठकर वह
क्षमता आई, जब उनका
मौन थोड़ा—सा
स्पर्श करने
लगा। पांच साल
होने पर सुनाई
पड़ना शुरू हुआ।
पांच साल पूरे
होने पर जब उस
महिला ने कहा
कि अब मैं सुन
पाती हूं जो
आप मौन में
कहते हैं। तो
अनिर्वाण ने
कहा कि बस, तेरा
काम पूरा हो
गया। अब तू
यहां से जा।
क्योंकि अब तू
कहीं भी हो, तो सुन
पाएगी।
क्योंकि मौन
के लिए कोई
बाधा नहीं है।
शब्द के लिए
दूरी बाधा है।
अब तू जा, तेरा
काम पूरा हो
गया।
उस
महिला ने लिखा
है, अंतिम
क्षण विदा
देते वक्त जब
हाथ जोड़कर हम
नमस्कार करके
अलग हो गए, तब
मुझे खयाल आया
कि पांच साल
हो गए मैंने
उनके हाथ का
भी स्पर्श
नहीं किया!
लेकिन पांच
साल तक मुझे
खयाल नहीं आया
कि मैंने
अनिर्वाण के शरीर
को छुआ तक
नहीं है, हाथ
का भी स्पर्श
नहीं किया। यह
विदा होने पर
खयाल आया। और
तब उसे लगा कि
यह खयाल ही
इसलिए
आया कि मौन
में निकटता
इतनी गहन थी
कि और स्पर्श
उससे ज्यादा
क्या निकटता
दे सकता है!
लेकिन
अगर आप कहें, मौन में
सुनना है, तो
फिर मौन होने
की कला सीखनी
पड़े। वह
अर्जुन कह रहा
है कि मैं
आपको देखना
चाहता हूं
आपके तत्व में।
लेकिन तत्व
में केवल वही
देख सकता है, जो स्वयं
तत्व होने को
राजी हो, शून्य
होने को राजी
हो।
शून्य
होने को जो
राजी है, वह इस जगत के
शून्य को देख
लेगा। जब तक
हम शून्य होने
को राजी नहीं
हैं, तब तक
हमें
प्रवृत्ति ही
दिखाई पड़ेगी।
और जब तक
प्रवृत्ति है,
तब तक चुनाव
रहेगा। हम
कहेंगे, उदासी
हटाओ, रुद्रता
हटाओ, यह
कूरता हटाओ, यह मृत्यु
का उग्र रूप
बंद करो।
मुस्कुराओ, प्रसन्न हो
जाओ। हम
चुनेंगे, हमारी
पसंद की
प्रवृत्ति!
ध्यान
रहे, इस
सूत्र में
थोड़ी एक बात
खयाल ले लेने
जैसी है।
संसार को
अक्सर हम कहते
हैं, प्रवृत्ति
का जाल। और
संन्यासी को
हम कहते हैं
निवृत्ति, प्रवृत्ति
से हट जाना।
लेकिन संसार
प्रवृत्ति का
जाल है, यह
तो सच है। और
कोई कितना ही
संसार से भागे,
संसार के
बाहर नहीं जा
सकता, यह
भी ध्यान रखना।
जहां भी जाएं,
वहीं संसार
है। कहीं भी
जाएं, वहीं
संसार है, क्योंकि
सभी तरफ
प्रवृत्ति है
उसकी। कहीं
बाजार की
प्रवृत्ति है।
कहीं वृक्षों
में पक्षियों
की कलकलाहट है।
कहीं नदी में
पानी का शोर
है। कहीं
पहाडों का सन्नाटा
है। लेकिन सब
उसकी ही
प्रवृत्ति है।
प्रवृत्ति के
बाहर जाने का
कोई उपाय नहीं।
प्रवृत्ति
के बाहर जाने
का एक ही उपाय
है कि प्रवृत्ति
में चुनना मत।
यह मत कहना कि
यह विकराल है, हटाओ, प्रसन्न
को प्रकट करो।
यह चुनाव
बांधता है, प्रवृत्ति
नहीं बांधती।
और जो प्रवृत्ति
में चुनाव
नहीं करता, वह अचानक
शून्य हो जाता
है। क्योंकि
चुनाव से ही
भीतर का शून्य
खंडित होता है।
जो शून्य हो
जाता है, वह
उसे तत्व से
जान लेता है।
अर्जुन
कहता है, हे भगवन्, कृपा करके
मेरे प्रति
कहिए कि आप
उग्र रूप वाले
कौन हैं? हे
देवों में
श्रेष्ठ, आपको
नमस्कार होवे।
आप प्रसन्न
होइए।
आदिस्वरूप, आपको मैं
तत्व से जानना
चाहता हूं।
क्योंकि आपकी
प्रवृत्ति को
न मैं जानता
हूं न आपकी
प्रवृत्ति से
मुझे कोई बहुत
प्रयोजन है।
आप क्या हैं, वही मैं
जानना चाहता
हूं।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट रुके।
कीर्तन करें, फिर जाएं।
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