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रविवार, 4 जनवरी 2015

ताओ उपनिषद--प्रवचन--127

प्रेम और प्रेम में भेद है—(प्रवचन—एकसौसत्‍ताईसवां)

प्रश्न-सार

01-क्या प्रेम और प्रेम में भेद है?



02-क्या विपरीत मिल सकते हैं?



03-क्या अति पर ही रूपांतरण है?



04-भगवान सामने हो तो क्या मांगो?

पहला प्रश्न:

एक प्रेम कारागृह बन जाता है और एक प्रेम मंदिर। क्या प्रेम और प्रेम में भी भेद है?
प्रेम और प्रेम में बहुत भेद है, क्योंकि प्रेम बहुत तलों पर अभिव्यक्त हो सकता है। जब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में प्रकट होता है--अकारण, बेशर्त--तब मंदिर बन जाता है। और जब प्रेम अपने अशुद्धतम रूप में प्रकट होता है, वासना की भांति, शोषण और हिंसा की भांति, ईष्या-द्वेष की भांति, आधिपत्य, पजेशन की भांति, तब कारागृह बन जाता है।

कारागृह का अर्थ है: जिससे तुम बाहर होना चाहो और हो न सको। कारागृह का अर्थ है: जो तुम्हारे व्यक्तित्व पर सब तरफ से बंधन की भांति बोझिल हो जाए, जो तुम्हें विकास न दे, छाती पर पत्थर की तरह लटक जाए और तुम्हें डुबाए। कारागृह का अर्थ है: जिसके भीतर तुम तड़फड़ाओ मुक्त होने के लिए और मुक्त न हो सको; द्वार बंद हों, हाथ-पैरों पर जंजीरें पड़ी हों, पंख काट दिए गए हों। कारागृह का अर्थ है: जिसके ऊपर और जिससे पार जाने का उपाय न सूझे
मंदिर का अर्थ है: जिसका द्वार खुला हो; जैसे तुम भीतर आए हो वैसे ही बाहर जाना चाहो तो कोई प्रतिबंध न हो, कोई पैरों को पकड़े; भीतर आने के लिए जितनी आजादी थी उतनी ही बाहर जाने की आजादी हो।
मंदिर से तुम बाहर न जाना चाहोगे, लेकिन बाहर जाने की आजादी सदा मौजूद है। कारागृह से तुम हर क्षण बाहर जाना चाहोगे, और द्वार बंद हो गया! और निकलने का मार्ग न रहा!
मंदिर का अर्थ है: जो तुम्हें अपने से पार ले जाए; जहां से अतिक्रमण हो सके; जो सदा और ऊपर, और ऊपर ले जाने की सुविधा दे। चाहे तुम प्रेम में किसी के पड़े हो और प्रारंभ अशुद्ध रहा हो; लेकिन जैसे-जैसे प्रेम गहरा होने लगे वैसे-वैसे शुद्धि बढ़ने लगे। चाहे प्रेम शरीर का आकर्षण रहा हो; लेकिन जैसे ही प्रेम की यात्रा शुरू हो, प्रेम शरीर का आकर्षण न रह कर दो मनों के बीच का खिंचाव हो जाए, और यात्रा के अंत-अंत तक मन का खिंचाव भी न रह जाए, दो आत्माओं का मिलन बन जाए।
जिस प्रेम में अंततः तुम्हें परमात्मा का दर्शन हो सके वह तो मंदिर है, और जिस प्रेम में तुम्हें तुम्हारे पशु के अतिरिक्त किसी की प्रतीति न हो सके वह कारागृह है। और प्रेम दोनों हो सकता है, क्योंकि तुम दोनों हो। तुम पशु भी हो और परमात्मा भी। तुम एक सीढ़ी हो जिसका एक छोर पशु के पास टिका है और जिसका दूसरा छोर परमात्मा के पास है। और यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम सीढ़ी से ऊपर जाते हो या नीचे उतरते हो। सीढ़ी एक ही है, उसी सीढ़ी का नाम प्रेम है; सिर्फ दिशा बदल जाएगी। जिन सीढ़ियों से चढ़ कर तुम मेरे पास आए हो उन्हीं सीढ़ियों से उतर कर तुम मुझसे दूर भी जाओगे।
सीढ़ियां वही होंगी, तुम भी वही होओगे, पैर भी वही होंगे, पैरों की शक्ति जैसा आने में उपयोग आई है वैसे ही जाने में भी उपयोग होगी, सब कुछ वही होगा; सिर्फ तुम्हारी दिशा बदल जाएगी। एक दिशा थी जब तुम्हारी आंखें ऊपर लगी थीं, आकाश की तरफ, और पैर तुम्हारी आंखों का अनुसरण कर रहे थे; दूसरी दिशा होगी, तुम्हारी आंखें जमीन पर लगी होंगी, नीचाइयों की तरफ, और तुम्हारे पैर उसका अनुसरण कर रहे होंगे।
साधारणतः प्रेम तुम्हें पशु में उतार देता है। इसलिए तो प्रेम से लोग इतने भयभीत हो गए हैं; घृणा से भी इतने नहीं डरते जितने प्रेम से डरते हैं; शत्रु से भी इतना भय नहीं लगता जितना मित्र से भय लगता है। क्योंकि शत्रु क्या बिगाड़ लेगा? शत्रु और तुम में तो बड़ा फासला है, दूरी है। लेकिन मित्र बहुत कुछ बिगाड़ सकता है। और प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नष्ट कर सकता है, क्योंकि तुमने इतने पास आने का अवसर दिया है। प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नीचे उतार सकता है नरकों में। इसलिए प्रेम में लोगों को नरक की पहली झलक मिलती है। इसलिए तो लोग भाग खड़े होते हैं प्रेम की दुनिया से, भगोड़े बन जाते हैं। सारी दुनिया में धर्मों ने सिखाया है: प्रेम से बचो। कारण क्या होगा? कारण यही है कि देखा कि सौ में निन्यानबे तो प्रेम में सिर्फ डूबते हैं और नष्ट होते हैं।
प्रेम की कुछ भूल नहीं है; डूबने वालों की भूल है। और मैं तुमसे कहता हूं, जो प्रेम में नरक में उतर जाते थे वे प्रार्थना से भी नरक में ही उतरेंगे, क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही एक रूप है। और जो घर में प्रेम की सीढ़ी से नीचे उतरते थे वे आश्रम में भी प्रार्थना की सीढ़ी से नीचे ही उतरेंगे। असली सवाल सीढ़ी को बदलने का नहीं है, न सीढ़ी से भाग जाने का है; असली सवाल तो खुद की दिशा को बदलने का है।
तो मैं तुमसे नहीं कहता हूं कि तुम संसार को छोड़ कर भाग जाना; क्योंकि भागने वाले कुछ नहीं पाते। सीढ़ी को छोड़ कर जो भाग गया, एक बात पक्की है कि वह नरक में नहीं उतर सकेगा; लेकिन दूसरी बात भी पक्की है कि स्वर्ग में कैसे उठेगा? तुम खतरे में जीते हो, संन्यासी सुरक्षा में; नरक में जाने का उसका उपाय उसने बंद कर दिया। लेकिन साथ ही स्वर्ग जाने का उपाय भी बंद हो गया। क्योंकि वे एक ही सीढ़ी के दो नाम हैं। संन्यासी, जो भाग गया है संसार से, वह तुम्हारे जैसे दुख में नहीं रहेगा, यह बात तय है; लेकिन तुम जिस सुख को पा सकते थे, उसकी संभावना भी उसकी खो गई। माना कि तुम नरक में हो, लेकिन तुम स्वर्ग में हो सकते हो--और उसी सीढ़ी से जिससे तुम नरक में उतरे हो। सौ में निन्यानबे लोग नीचे की तरफ उतरते हैं, लेकिन यह कोई सीढ़ी का कसूर नहीं है; यह तुम्हारी ही भूल है।
और स्वयं को न बदल कर सीढ़ी पर कसूर देना, स्वयं की आत्मक्रांति न करके सीढ़ी की निंदा करना बड़ी गहरी नासमझी है। अगर सीढ़ी तुम्हें नरक की तरफ उतार रही है तो पक्का जान लेना कि यही सीढ़ी तुम्हें स्वर्ग की तरफ उठा सकेगी। तुम्हें दिशा बदलनी है, भागना नहीं है। क्या होगा दिशा का रूपांतरण?
जब तुम किसी को प्रेम करते हो--वह कोई भी हो, मां हो, पिता हो, पत्नी हो, प्रेयसी हो, मित्र हो, बेटा हो, बेटी हो, कोई भी हो--प्रेम का गुण तो एक है; किससे प्रेम करते हो, यह बड़ा सवाल नहीं है। जब भी तुम प्रेम करते हो तो दो संभावनाएं हैं। एक तो यह कि जिसे तुम प्रेम करना चाहते हो, या जिसे तुम प्रेम करते हो, उस पर तुम प्रेम के माध्यम से आधिपत्य करना चाहो, मालकियत करना चाहो। तुम नरक की तरफ उतरने शुरू हो गए।
प्रेम जहां पजेशन बनता है, प्रेम जहां परिग्रह बनता है, प्रेम जहां आधिपत्य लाता है, प्रेम न रहा; यात्रा गलत हो गई। जिसे तुमने प्रेम किया है, उसके तुम मालिक बनना चाहो; बस भूल हो गई। क्योंकि मालिक तुम जिसके भी बन जाते हो, तुमने उसे गुलाम बना दिया। और जब तुम किसी को गुलाम बनाते हो तो याद रखना, उसने भी तुम्हें गुलाम बना दिया। क्योंकि गुलामी एकतरफा नहीं हो सकती; वह दोधारी धार है। जब भी तुम किसी को गुलाम बनाओगे, तुम भी उसके गुलाम बन जाओगे। यह हो सकता है कि तुम छाती पर ऊपर बैठे होओ और वह नीचे पड़ा है; लेकिन न तो वह तुम्हें छोड़ कर भाग सकता है, न तुम उसे छोड़ कर भाग सकते हो। गुलामी पारस्परिक है। तुम भी उससे बंध गए हो जिसे तुमने बांध लिया। बंधन कभी एकतरफा नहीं होता। अगर तुमने आधिपत्य करना चाहा तो दिशा नीचे की तरफ शुरू हो गई।
जिसे तुम प्रेम करो उसे मुक्त करना; तुम्हारा प्रेम उसके लिए मुक्ति बने। जितना ही तुम उसे मुक्त करोगे, तुम पाओगे कि तुम मुक्त होते चले जा रहे हो, क्योंकि मुक्ति भी दोधारी तलवार है। तुम जब अपने निकट के लोगों को मुक्त करते हो तब तुम अपने को भी मुक्त कर रहे हो; क्योंकि जिसे तुमने मुक्त किया, उसके द्वारा तुम्हें गुलाम बनाए जाने का उपाय नष्ट कर दिया तुमने। जो तुम देते हो वही तुम्हें उत्तर में मिलता है। जब तुम गाली देते हो तब गालियों की वर्षा हो जाती है। जब तुम फूल देते हो तब फूल लौट आते हैं। संसार तो प्रतिध्वनि करता है। संसार तो एक दर्पण है जिसमें तुम्हें अपना ही चेहरा हजार-हजार रूपों में दिखाई पड़ता है।
जब तुम किसी को गुलाम बनाते हो तब तुम भी गुलाम बन रहे हो; प्रेम कारागृह बनने लगा! यह मत सोचना कि दूसरा तुम्हें कारागृह में डालता है। दूसरा तुम्हें कैसे डाल सकता है? दूसरे की सामर्थ्य क्या? तुम ही दूसरे को कारागृह में डालते हो तब तुम कारागृह में पड़ते हो; यह साझेदारी है। तुम उसे गुलाम बनाते हो; वह तुम्हें गुलाम बनाता है। पति-पत्नियों को देखो, वे एक-दूसरे के गुलाम हो गए हैं। और स्वभावतः, जो तुम्हें गुलाम बनाता है उसे तुम प्रेम कैसे कर पाओगे? भीतर गहरे में रोष होगा, क्रोध होगा; गहरे में प्रतिशोध का भाव होगा। और वह हजार-हजार ढंग से प्रकट होगा; छोटी-छोटी बात में प्रकट होगा। क्षुद्र-क्षुद्र बातों में पति-पत्नियों को तुम लड़ते पाओगे। प्रेमियों को तुम ऐसी क्षुद्र बातों पर लड़ते पाओगे कि यह तुम मान ही नहीं सकते कि इनके जीवन में प्रेम उतरा होगा। प्रेम जैसी महा घटना जहां घटी हो वहां ऐसी क्षुद्र बातों की कलह उठ सकती है? यह क्षुद्र बातों की कलह बता रही है कि सीढ़ी नीचे की तरफ लग गई है।
जब भी तुम किसी पर आधिपत्य करना चाहोगे, तुमने प्रेम की हत्या कर दी। प्रेम का शिशु पैदा भी न हो पाया, गर्भपात हो गया; अभी जन्मा भी न था कि तुमने गर्दन दबा दी।
प्रेम खिलता है मुक्ति के आकाश में; प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता के परिवेश में। कारागृह में प्रेम का जन्म नहीं होता; वहां तो प्रेम की कब्र बनती है। और जब तुम दूसरे पर आधिपत्य करोगे तब तुम धीरे-धीरे पाओगे, प्रेम तो न मालूम कहां तिरोहित हो गया और प्रेम की जगह कुछ बड़ी विकृतियां छूट गईं-र्-ईष्या। जब तुम दूसरे पर आधिपत्य करोगे तबर् ईष्या पैदा हो जाएगी।
अगर तुम्हारी पत्नी किसी के साथ थोड़ी हंस कर भी बोल रही है; प्राण कंपित हो गए। यह तो पत्नी तुम्हारे कारागृह के बाहर जाने के लिए कोई झरोखा बना रही है। यह तो सेंध मालूम पड़ती है; दीवाल तोड़ कर बाहर निकलने का उपाय है। तुम्हारी पत्नी और किसी और के साथ हंसे? तुम्हारी पत्नी और किसी और से बात करे? तुम्हारा पति किसी और स्त्री के सौंदर्य का गुणगान करे? नहीं, यह असंभव है। क्योंकि यह तो प्रथम से ही खतरा है। यह तो स्वतंत्र होने की चेष्टा है। इसको पहले ही प्रेमी मार डालते हैं।र् ईष्या का जन्म होता है।
और ध्यान रखना, अगर तुम एक स्त्री को प्रेम करते हो तो वस्तुतः उस स्त्री के द्वारा तुम सभी स्त्रियों को प्रेम करते हो। वह स्त्री प्रतिनिधि है, वह प्रतीक है। उस स्त्री में तुमने स्त्रैणता को प्रेम किया है। जब तुम किसी एक पुरुष को प्रेम करते हो तो उस पुरुष में तुमने सारे जगत के पुरुषों को प्रेम कर लिया जो आज मौजूद हैं, जो कभी मौजूद थे, जो कभी मौजूद होंगे। व्यक्तित्व तो ऊपर-ऊपर है, भीतर तो शुद्ध ऊर्जा है पुरुष होने की या स्त्री होने की। जब तुम एक स्त्री के सौंदर्य का गुणगान करते हो तब यह कैसे हो सकता है कि सौंदर्य को परखने वाली ये आंखें राह से गुजरती दूसरी स्त्री को, जब वह सुंदर हो, तो उसमें सौंदर्य न देखें? यह कैसे हो सकता है? यह तो असंभव है। लेकिन इस सौंदर्य के देखने में कुछ पाप नहीं है। यह कैसे हो सकता है कि जब तुमने एक दीये में रोशनी देखी और आह्लादित हुए तो दूसरे दीये में रोशनी देख कर तुम आह्लादित न हो जाओ?
लेकिन एक स्त्री कोशिश करेगी कि तुम्हें अब सौंदर्य कहीं और दिखाई न पड़े। और एक पुरुष कोशिश करेगा, अब स्त्री को यह सारा संसार पुरुष से शून्य हो जाए, बस मैं ही एक पुरुष दिखाई पडूं। तब एक बड़ी संकटपूर्ण स्थिति पैदा होती है। स्त्री कोशिश में लग जाती है इस पुरुष को कहीं कोई सुंदर स्त्री दिखाई न पड़े। धीरे-धीरे यह पुरुष अपनी संवेदनशीलता को मारने लगता है, क्योंकि संवेदनशीलता रहेगी तो सौंदर्य दिखाई पड़ेगा। सौंदर्य का किसी ने ठेका नहीं लिया है; जहां होगा वहां दिखाई पड़ेगा। और अगर प्रेम स्वतंत्र हो तो हर जगह हर सौंदर्य में इस व्यक्ति को अपनी प्रेयसी दिखाई पड़ेगी, और प्रेम गहरा होगा।
लेकिन स्त्री काटेगी संवेदनशीलता को; पुरुष काटेगा स्त्री की संवेदनशीलता को; दोनों एक-दूसरे की संवेदना को मार डालेंगे। और जब पुरुष को कोई भी स्त्री सुंदर नहीं दिखाई पड़ेगी तो तुम सोचते हो घर में जो स्त्री बैठी है वह सुंदर दिखाई पड़ेगी? वह सबसे ज्यादा कुरूप स्त्री हो जाएगी। उसी के कारण सौंदर्य का बोध ही मर गया। तो तुम सोचते हो जिस स्त्री को कोई पुरुष सुंदर दिखाई न पड़ेगा उसे घर का पुरुष सुंदर दिखाई पड़ेगा? जब पुरुष ही सुंदर नहीं दिखाई पड़ते तो इस भीतर का जो पुरुषत्व है वह भी अब आकर्षण नहीं लाता।
तुम ऐसा ही समझो कि तुमने तय कर लिया हो कि तुम जिस स्त्री को प्रेम करते हो, बस उसके पास ही श्वास लोगे, शेष समय श्वास बंद रखोगे। और तुम्हारी स्त्री कहे कि देखो, तुम और कहीं श्वास मत लेना! तुमने खुद ही कहा है कि तुम्हारा जीवन बस तेरे लिए है। तो जब मेरे पास रहो, श्वास लेना; जब और कहीं रहो तो श्वास बंद रखना। तब क्या होगा? अगर तुमने यह कोशिश की तो दुबारा जब तुम इस स्त्री के पास आओगे तुम लाश होओगे, जिंदा आदमी नहीं। और जब तुम और कहीं श्वास न ले सकोगे तो तुम सोचते हो इस स्त्री के पास श्वास ले सकोगे? तुम मुर्दा हो जाओगे।
ऐसे प्रेम कारागृह बनता है। प्रेम बड़े आश्वासन देता है--और आश्वासनों को पूरा कर सकता है--लेकिन वे पूरे हो नहीं पाते। इसलिए हर व्यक्ति प्रेम के विषाद से भर जाता है। क्योंकि प्रेम ने बड़े सपने दिए थे, बड़े इंद्रधनुष निर्मित किए थे, सारे जगत के काव्य का वचन दिया था कि तुम्हारे ऊपर वर्षा होगी; और जब वर्षा होती है तो तुम पाते हो कि वहां न तो कोई काव्य है, न कोई सौंदर्य; सिवाय कलह, उपद्रव, संघर्ष, क्रोध,र् ईष्या, वैमनस्य के सिवाय कुछ भी नहीं। तुम गए थे किसी व्यक्ति के साथ स्वतंत्रता के आकाश में उड़ने; तुम पाते हो कि पंख कट गए। तुम गए थे स्वतंत्रता की सांस लेने; तुम पाते हो गर्दन घुट गई।
प्रेम फांसी बन जाता है सौ में निन्यानबे मौके पर; लेकिन प्रेम के कारण नहीं, तुम्हारे कारण। तुम्हारे धर्मगुरुओं ने कहा है, प्रेम के कारण। वहां मेरा फर्क है। और तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें ज्यादा ठीक मालूम पड़ेंगे, क्योंकि जिम्मेवारी तुम्हारे ऊपर से उठा रहे हैं वे। वे कह रहे हैं, यह प्रेम का ही उपद्रव है; पहले ही कहा था कि पड़ना ही मत इस उपद्रव में, दूर ही रहना। तो तुम्हारे धर्मगुरु प्रेम की निंदा करते रहे हैं। तुम्हें भी जंचती है बात; जंचती है इसलिए कि तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें दोषी नहीं ठहराते, प्रेम को दोषी ठहराते हैं। मन हमेशा राजी है, दोष कोई और पर जाए; तुम हमेशा प्रसन्न हो।
मैं तुम्हें दोषी ठहराता हूं, सौ प्रतिशत तुम्हें दोषी ठहराता हूं। प्रेम की जरा भी भूल नहीं है। और प्रेम अपने आश्वासन पूरे कर सकता था। तुमने पूरे न होने दिए; तुमने गर्दन घोंट दी। सीढ़ी ऊपर ले जा सकती थी; तुम नीचे जाने लगे। नीचे जाना आसान है; ऊपर जाना श्रमसाध्य है। प्रेम साधना है। और प्रेम को कारागृह बनाना ऐसे ही है जैसे पत्थर पहाड़ से नीचे की तरफ लुढ़क रहा हो; जमीन की कशिश ही उसे खींचे लिए जाती है।
ये दोनों यात्राएं समान नहीं हैं, क्योंकि ऊपर जाने में तुम्हें बदलना पड़ेगा। क्योंकि ऊपर जाना है तो ऊपर जाने के योग्य होना पड़ेगा; प्रतिपल तुम्हारे चेतना के तल को ऊपर उठना पड़ेगा, तभी तुम सीढ़ी पार कर सकोगे। नीचे गिरने में तो कुछ भी नहीं करना पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटों के लिए एक साइकिल खरीद लाया था। दो बेटे। तो उसने कहा कि दोनों आधा-आधा साइकिल से खेलना; कोई झगड़ा खड़ा न हो। एक दिन उसने देखा कि बड़ा बेटा बार-बार ऊपर टेकरी पर जाता है और वहां से साइकिल पर बैठ कर नीचे आता है। कई बार उसे टेकरी से साइकिल पर बैठे हुए देखा। तो उसने बुला कर कहा कि मैंने कहा था, छोटे बेटे को भी आधा-आधा। उसने कहा, आधा ही आधा कर रहे हैं। छोटा बेटा ऊपर की तरफ ले जाता है साइकिल; हम ऊपर से नीचे की तरफ लाते हैं--आधा-आधा।
अब पहाड़ी पर साइकिल को ले जाना, चढ़ने का तो सवाल ही नहीं। किसी तरह हांफता हुआ छोटा बेटा ऊपर तक पहुंचा देता है। और बड़ा बेटा उस पर बैठ कर नीचे की यात्रा कर लेता है। समान नहीं है; आधी-आधी नहीं है यात्रा। नीचे की यात्रा यात्रा ही नहीं है; गिरना है, पतन है; तुम जहां थे वहां से भी नीचे उतरना है।
तो जो व्यक्ति प्रेम कोर् ईष्या, आधिपत्य, पजेशन बना लेगा, वह जल्दी ही पाएगा, प्रेम तो खो गया; आग तो खो गई प्रेम की, आंखों को अंधा करने वाला धुआं छूट गया है। घाटी के अंधकार में जीने लगा, पहाड़ की ऊंचाई तो खो गई और पहाड़ की ऊंचाई से दिखने वाले सूर्योदय-सूर्यास्त सब खो गए। अंधी घाटी है; और रोज अंधी होती चली जाती है। तुम्हारे भीतर का पशु प्रकट हो जाता है सरलता से; उसके लिए कोई साधना नहीं करनी पड़ती।
जिसको प्रेम को ऊपर ले जाना है, उसे प्रेम को तो वैसे ही साधना होगा जैसे कोई योग को साधता है। क्योंकि दोनों ऊपर जा रहे हैं; तब साधना शुरू हो जाती है। प्रेम तप है; जैसे कोई तप को साधता है वैसे ही प्रेम की तपश्चर्या है। और तप इतना बड़ा तप नहीं है, क्योंकि तुम अकेले होते हो। प्रेम और भी बड़ा तप है, क्योंकि एक दूसरा व्यक्ति भी साथ होता है। तुम्हें अकेले ही ऊपर नहीं जाना है; एक दूसरे व्यक्ति को भी हाथ का सहारा देना है, ऊपर ले जाना है। कई बार दूसरा बोझिल मालूम पड़ेगा। कई बार दूसरा ऊपर जाने को आतुर न होगा, इनकार करेगा। कई बार दूसरा नीचे उतर जाने की आकांक्षा करेगा। लेकिन अगर हृदय में प्रेम है तो तुम दूसरे को भी सहारा दोगे, सम्हालोगे; उसे नीचे न गिरने दोगे। तुम्हारा हाथ करुणा न खोएगा; तुम्हारा प्रेम जल्दी ही क्रोध में न बदलेगा। कई बार तुम्हें धीमे भी चलना पड़ेगा, क्योंकि दूसरा साथ चल रहा है। तुम दौड़ न सकोगे। इसलिए मैं कहता हूं, तप इतना बड़ा तप नहीं है; क्योंकि तप में तो तुम अकेले हो, जब चाहो दौड़ सकते हो। प्रेम और भी बड़ा तप है।
लेकिन प्रेम के द्वार पर तो तुम ऐसे पहुंच जाते हो जैसे तुम तैयार ही हो। यहीं भूल हो जाती है। दुनिया में हर आदमी को यह खयाल है कि प्रेम करने के योग्य तो वह है ही। यहीं भूल हो जाती है। और सब तो तुम सीखते हो, छोटी-छोटी चीजों को सीखने में बड़े जीवन का समय गंवाते हो। प्रेम को तुमने कभी सीखा? प्रेम को कभी तुमने सोचा? प्रेम को कभी तुमने ध्यान दिया? प्रेम क्या है? तुम ऐसा मान कर बैठे हो कि जैसे प्रेम को तुम जानते ही हो। तुम्हारी ऐसी मान्यता तुम्हें नीचे उतार देगी, तुम्हें नरक की तरफ ले जाएगी।
प्रेम सबसे बड़ी कला है। उससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है। सब ज्ञान उससे छोटे हैं। क्योंकि और सब ज्ञान से तो तुम जान सकते हो बाहर-बाहर से; प्रेम में ही तुम अंतर्गृह में प्रवेश करते हो। और परमात्मा अगर कहीं छिपा है तो परिधि पर नहीं, केंद्र में छिपा है।
और एक बार जब तुम एक व्यक्ति के अंतर्गृह में प्रवेश कर जाते हो तो तुम्हारे हाथ में कला आ जाती है; वही कला सारे अस्तित्व के अंतर्गृह में प्रवेश करने के काम आती है। तुमने अगर एक को प्रेम करना सीख लिया तो तुम उस एक के द्वारा प्रेम करने की कला सीख गए। वही तुम्हें एक दिन परमात्मा तक पहुंचा देगी।
इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम मंदिर है। लेकिन तैयार मंदिर नहीं है। एक-एक कदम तुम्हें तैयार करना पड़ेगा। रास्ता पहले से पटा-पटाया तैयार नहीं है, कोई राजपथ है नहीं कि तुम चल जाओ। चलोगे एक-एक कदम और चल-चल कर रास्ता बनेगा--पगडंडी जैसा। खुद ही बनाओगे, खुद ही चलोगे।
इसलिए मैं प्रेम के विरोध में नहीं हूं, मैं प्रेम के पक्ष में हूं। और तुमसे मैं कहना चाहूंगा कि अगर प्रेम ने तुम्हें दुख में उतार दिया हो तो अपनी भूल स्वीकार करना, प्रेम की नहीं। क्योंकि बड़ा खतरा है अगर तुमने प्रेम की भूल स्वीकार कर ली। तो यह मैं जानता हूं कि तुम साधु-संतों की बातों में पड़ कर छोड़ दे सकते हो प्रेम का मार्ग, क्योंकि वहां तुमने दुख पाया है। तुम थोड़े सुखी भी हो जाओगे; लेकिन आनंद की वर्षा तुम पर फिर कभी न हो पाएगी। कैसे तुम चढ़ोगे? तुम सीढ़ी ही छोड़ आए! गिरने के डर से तुम सीढ़ी से ही उतर आए। चढ़ोगे कैसे? गिरोगे नहीं, यह तो पक्का है।
जिसको हम सांसारिक कहते हैं, गृहस्थ कहते हैं, वह गिरता है सीढ़ी से; जिसको हम संन्यासी कहते हैं पुरानी परंपरा-धारणा से, वह सीढ़ी छोड़ कर भाग गया। मैं उसको संन्यासी कहता हूं जिसने सीढ़ी को नहीं छोड़ा; अपने को बदलना शुरू किया, और जिसने प्रेम से ही, प्रेम की घाटी से ही धीरे-धीरे प्रेम के शिखर की तरफ यात्रा शुरू की।
कठिन है। जीवन की संपदा मुफ्त नहीं मिलती; कुछ चुकाना पड़ेगा; अपने से ही पूरा चुकाना पड़ेगा; अपने को ही दांव पर लगाना पड़ेगा। और प्रेम जितनी कसौटी मांगता है, कोई चीज कसौटी नहीं मांगती। इसलिए कमजोर भाग जाते हैं। और भाग कर कोई कहीं नहीं पहुंचता। प्रेम के द्वार से गुजरना ही होगा। हां, उसके पार जाना है, वहीं रुक नहीं जाना है। वह सिर्फ द्वार है।
जापान में एक मंदिर है--वैसे ही सब मंदिर होने चाहिए--वह मंदिर सिर्फ एक द्वार है। उसमें कोई दीवाल नहीं है और भीतर कुछ भी नहीं है; सिर्फ एक द्वार है।
मंदिर एक द्वार है; किसी अज्ञात लोक की तरफ खुलता है; अतीत पीछे छूट जाता है, भविष्य की तरफ खुलता है; समय पीछे छूट जाता है, कालातीत की तरफ खुलता है; क्षुद्र, क्षणभंगुर पीछे छूट जाता है, शाश्वत के प्रति खुलता है। लेकिन सिर्फ एक द्वार है। जो मंदिर में रुक गया वह नासमझ है। मंदिर कोई रुकने की जगह नहीं; पड़ाव कर लेना, रात भर के लिए विश्राम कर लेना, लेकिन सुबह यात्रा पर निकल जाना है।
प्रेम को कैसे मंदिर बनाओगे? आधिपत्य मत करना जिससे प्रेम करो। जिससे प्रेम करो उस प्रेम के आस-पासर् ईष्या को खड़े मत होने देना। जिसको प्रेम करो उससे अपेक्षा मत करना कुछ; दे सको, देना, मांगना मत। और तुम पाओगे, प्रेम रोज गहरा होता है, रोज ऊपर उठता है। और तुम पाओगे कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे नये पंख उगने लगे तुम्हारे जीवन में; चेतना नयी यात्रा पर जाने के लिए समर्थ होने लगी। लेकिन इन भूलों के प्रति सजग रहना। ये भूलें बिलकुल सामान्य हैं और तुम प्रेम में पड़ते भी नहीं कि ये भूलें शुरू हो जाती हैं। तुम अपेक्षा शुरू कर देते हो। जहां अपेक्षा की वहां सौदा शुरू हो गया; प्रेम न रहा।
तुम जिसको प्रेम करो, उसे स्वयं होने की पूरी स्वतंत्रता देना। कई बार मौके होंगे, बहुत सी बातें होंगी जो तुम न चाहोगे। लेकिन तुम्हारी चाह का सवाल क्या है? दूसरा व्यक्ति पूरा व्यक्ति है अपनी निजता में; तुम हो कौन? वह जैसा है तुम उसे प्रेम करने के अधिकारी हो, लेकिन तुम उसे काट-छांट मत करना। तुम यह मत कहना कि तू ऐसा हो जा, तब हम तुझे प्रेम करेंगे।
एक महिला मेरे पास आती है। प्रेम-विवाह किया था; लेकिन एक छोटी सी बात पर सब नष्ट हो गया कि पति सिगरेट पीते हैं। वह यह बरदाश्त नहीं कर सकती; उनके मुंह से बास आती है। रात उनके साथ सो नहीं सकती; दूसरे कमरे में पति सोते हैं। बीस साल इस छोटी सी बात की कलह में बीत गए हैं कि पति पर जिद्द है कि वह सिगरेट छोड़े। पति की भी जिद्द है कि पत्नी चाहे छूट जाए, सिगरेट नहीं छूट सकती। और दोनों प्रेम में थे, और मां-बाप के विरोध में शादी की थी। शादी बड़ी मुश्किल थी; दोनों अलग-अलग जाति के हैं, अलग धर्मों के हैं। दोनों के परिवार विरोध में थे। सब दांव पर लगा कर शादी की थी, और सब दांव सिगरेट पर लग गया। मैंने उन्हें कहा, तुम कभी यह भी तो सोचो कि तुमने किस छोटी सी बात के लिए सब खो दिया है! लेकिन अहंकार प्रबल है। और पत्नी कहती है कि मैं अपनी शर्त से नीचे उतरने को राजी नहीं हूं। बीस साल गए, और जिंदगी चली जाएगी।
लेकिन जब तुम किसी एक व्यक्ति को प्रेम करते हो, समझ लो उसे पायरिया हो जाए तो क्या करोगे? उसके मुंह से थोड़ी बास आने लगे तो क्या करोगे? क्या प्रेम इतना छोटा है कि उतनी सी बास न झेल सकेगा? समझो कि कल वह आदमी बीमार हो जाए, लंगड़ा-लूला हो जाए, बिस्तर से लग जाए, तो तुम क्या करोगे? कल बूढ़ा होगा, शरीर कमजोर होगा, तो तुम क्या करोगे?
प्रेम बेशर्त है। प्रेम सभी सीमाओं को पार करके मौजूद रहेगा--सुख में, दुख में, जवानी में, बुढ़ापे में।
सिगरेट को पत्नी नहीं झेल पाती। प्रेम सिगरेट से छोटा मालूम पड़ता है, सिगरेट बड़ी मालूम पड़ती है। उसके लिए प्रेम खोने को राजी है, लेकिन प्रेम के लिए सिगरेट की बास झेलने को राजी नहीं है। पति पत्नी से दूर रहने को राजी है, लेकिन सिगरेट छोड़ने को राजी नहीं है। धुआं बाहर-भीतर लेना ज्यादा मूल्यवान मालूम पड़ता है, पत्नी कौड़ी की मालूम पड़ती है। यह कैसा प्रेम है? लेकिन अक्सर सभी प्रेम इसी जगह अटके हैं। सिगरेट की जगह दूसरे बहाने होंगे, दूसरी खूंटियां होंगी; लेकिन अटके हैं।
अगर तुमने चाहा कि दूसरा ऐसा व्यवहार करे जैसा मैं चाहता हूं; बस तुमने प्रेम के जीवन में विष डालना शुरू कर दिया। और जैसे ही तुम यह चाहोगे, दूसरा भी अपेक्षाएं शुरू कर देगा। तब तुम एक-दूसरे को सुधारने में लग गए। प्रेम किसी को सुधारता नहीं। यद्यपि प्रेम के माध्यम से आत्मक्रांति हो जाती है, लेकिन प्रेम किसी को सुधारने की चेष्टा नहीं करता। सुधार घटता है, सुधार अपने से होता है। जब तुम किसी को आपूर प्रेम करते हो, इतना प्रेम करते हो जितना कि तुम्हारे प्राण कर सकते हैं, रत्ती भर बाकी नहीं रखते, तो क्या प्रेमी में इतनी समझ न आ सकेगी तुम्हारे इतने प्रेम के बाद भी कि सिगरेट छोड़ दे? इतनी समझ न आ सकेगी इतने बड़े प्रेम के बाद? तब तो प्रेम बहुत नपुंसक है। और प्रेम नपुंसक नहीं है; प्रेम से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। तुम्हारा प्रेम ही छुड़ा देगा। लेकिन अपेक्षा मत करना। अपेक्षा की कि घाटी की तरफ तुम उतरने लगे। अपेक्षा की और सुधारना चाहा कि बस मुसीबत हो गई।
छोटे-छोटे बच्चे तुम्हारे घर में पैदा होंगे। उनको तुम प्रेम करते हो, लेकिन प्रेम से ज्यादा उनकी सुधार की चिंता बनी रहती है। बस उसी सुधार में तुम्हारा प्रेम मर जाता है। कोई बच्चा अपने मां-बाप को कभी माफ नहीं कर पाता, नाराजगी आखिर तक रहती है। पैर भी छू लेता है, क्योंकि उपचार है, छूना पड़ता है; लेकिन भीतर? भीतर मां-बाप दुश्मन ही मालूम होते रहते हैं। क्योंकि ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर उन्होंने बच्चे को सुधारने की कोशिश की। बच्चे को क्या समझ में आता है? उसे समझ में आता है कि जैसा मैं हूं वैसा प्रेम के योग्य नहीं; जैसा मैं हूं उतना काफी नहीं; जैसा मैं हूं उसको काटना-पीटना, बनाना पड़ेगा, तब प्रेम के योग्य हो पाऊंगा। बच्चे को इसमें निंदा का स्वर मालूम पड़ता है। निंदा का स्वर है।
ध्यान रखना, प्रेम सिर्फ प्रेम करता है, किसी को सुधारना नहीं चाहता। और प्रेम बड़े सुधार पैदा करता है। प्रेम की छाया में बड़ी क्रांतियां घटती हैं। अगर मां-बाप ने बच्चे को सच में प्रेम किया है, बस काफी है। बस काफी है, उतना प्रेम ही उसे सम्हालेगा; उतना प्रेम ही उसे गलत जाने से रोकेगा; उतना प्रेम ही, जब भी वह राह से नीचे उतरने लगेगा, मार्ग में बाधा बन जाएगा। याद आएगी मां की, पिता की, उनके प्रेम की--और उनके बेशर्त प्रेम की--बच्चे के पैर पीछे लौट आएंगे।
लेकिन तुम प्रेम नहीं करते, तुम सुधारते हो। जब तुम सुधारते हो तब तुम्हारे सुधारने की आकांक्षा ही बच्चे के पैरों को गलत मार्ग पर जाने का आकर्षण बन जाती है। बच्चे झूठ बोलेंगे, सिगरेट पीएंगे, गालियां बकेंगे, अभद्रता करेंगे, सिर्फ इसलिए कि तुम सुधारना चाहते हो। तुम उनके अहंकार को चोट पहुंचा रहे हो। वे भी अहंकार से उत्तर देंगे। एक संघर्ष शुरू हो गया। और संघर्ष बड़ा मूल्यवान है, क्योंकि मां-बाप से बच्चों को पहली दफा प्रेम की खबर मिलती थी, वह विषाक्त हो गई।
जो लड़का अपनी मां को प्रेम नहीं कर सका, वह किसी स्त्री को कभी प्रेम नहीं कर पाएगा, हमेशा अड़चन खड़ी होगी। क्योंकि हर स्त्री में कहीं न कहीं छिपी मां मौजूद है। हर जगह हर स्त्री मां है। मां होना स्त्री का गहरा स्वभाव है। छोटी सी बच्ची भी पैदा होती है तो वह मां की तरह ही पैदा होती है। इसलिए गुड्डियों को लगा लेती है बिस्तर से और सम्हालने लगती है, घर-गृहस्थी बसाने लगती है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बाहर गई थी। और छोटी लड़की ने, जिसकी उम्र केवल सात साल है, उस दिन भोजन की टेबल पर सारा कार्यभार सम्हाल लिया था और बड़ी गुरु-गंभीरता से एक प्रौढ़ स्त्री का काम अदा कर रही थी। लेकिन उससे छोटा बच्चा पांच साल का, उसे यह बात न जंच रही थी। तो उसने कहा कि अच्छा मान लिया, मान लिया कि तुम मां हो, लेकिन मेरे एक सवाल का जवाब दो कि सात में सात का गुणा करने से कितने होते हैं? उस लड़की ने गंभीरता से कहा, मैं काम में उलझी हूं, तुम डैडी से पूछो।
छोटी सी बच्ची! लेकिन हर लड़की मां पैदा होती है और हर पुरुष अंतिम जीवन के क्षण तक भी छोटा बच्चा बना रहता है। कोई पुरुष कभी छोटे बच्चे के पार नहीं जाता। हर पुरुष की आकांक्षा स्त्री में मां को खोजने की होती है और स्त्री की आकांक्षा पुरुष में बच्चे को खोजने की होती है। इसलिए जब कोई एक पुरुष एक स्त्री को गहरा प्रेम करता है तो वह छोटे शिशु जैसा हो जाता है। और प्रेम के गहरे क्षण में स्त्री मां जैसी हो जाती है। उपनिषद के ऋषियों ने आशीर्वाद दिया है नव-विवाहित युगलों को कि तुम्हारे दस बच्चे पैदा हों और अंत में ग्यारहवां तुम्हारा पति तुम्हारा बेटा हो जाए। उन्होंने बड़ी ठीक बात कही है।
लेकिन मां से अगर बच्चे को प्रेम की सीख न मिल पाई--बेशर्त प्रेम की--फिर कहां सीखेगा? पहली पाठशाला ही चूक गई। और अगर लड़की को अपने बाप से प्रेम न मिल पाया, वह किसी भी पुरुष को प्रेम न कर पाएगी। कुआं पहले झरने पर ही जहरीला हो गया। और फिर जब तुम प्रेम से उलझन में पड़ते हो तब तुम्हारे साधु-संन्यासी खड़े हैं सदा तैयार कि जब तुम उलझन में पड़ो, वे कह दें, हमने पहले ही कहा था कि बचना कामिनी-कांचन से, कि स्त्री सब दुख का मूल है। वे कहेंगे, हमने पहले ही कहा था कि स्त्री नरक की खान है।
तुम्हारे शास्त्र भरे पड़े हैं स्त्रियों की निंदा से। पुरुषों की निंदा नहीं है, क्योंकि किसी स्त्री ने शास्त्र नहीं लिखा। नहीं तो इतनी ही निंदा पुरुषों की होती, क्योंकि स्त्री भी तो उतने ही नरक में जी रही है जितने नरक में तुम जी रहे हो। लेकिन चूंकि लिखने वाले सब पुरुष थे, पक्षपात था, स्त्रियों की निंदा है। किसी तुम्हारे संत-पुरुषों ने नहीं कहा कि पुरुष नरक की खान। स्त्रियों के लिए तो वह भी नरक की खान है, अगर स्त्रियां पुरुष के लिए नरक की खान हैं। नरक दोनों साथ-साथ जाते हैं--हाथ में हाथ। अकेला पुरुष तो जाता नहीं; अकेली स्त्री तो जाती नहीं। लेकिन चूंकि स्त्रियों ने कोई शास्त्र नहीं लिखा--स्त्रियों ने ऐसी भूल ही नहीं की शास्त्र वगैरह लिखने की--चूंकि पुरुषों ने लिखे हैं, इसलिए सभी शास्त्र पोलिटिकल हैं; उनमें राजनीति है; वे पक्षपात से भरे हैं।
तब तुम्हारे साधु-संन्यासी तैयार हैं, अपनी बंसी में आटा लगाए बैठे हैं कि कब तुम घबड़ा जाओ कि फंस जाओ। जैसे ही तुम घबड़ाए गृहस्थी से, उनका राग जारी ही था, वे तैयार ही थे कि आ जाओ, भागो; हम पहले ही कहते थे; अब तक भटके, अब भागो, छोड़ दो सब।
लाखों-करोड़ों लोगों को प्रेम के जीवन से खींच लिया लोगों ने। और उससे उन्हें कुछ मिला नहीं। हां, इतना जरूर हुआ कि नरक खो गया; लेकिन सीढ़ी भी खो गई जो स्वर्ग तक ले जा सकती थी।
मैं चाहता हूं, तुम अपने जीवन को ठीक से पहचानो; यही जीवन सीढ़ी बनेगा स्वर्ग की। तुम जहां हो वहीं से मार्ग है। कहीं और भाग कर जाना नहीं है। नरक अभी है; वह तुम्हारे कारण है। जरा सी समझ, और नरक की हवाएं स्वर्ग की हवाओं में रूपांतरित हो जाती हैं, नरक की लपटें स्वर्ग की शीतलता में रूपांतरित हो जाती हैं। जरा सी समझ। जरा सा होश।
होशपूर्वक प्रेम मंदिर बन जाता है; मूर्च्छापूर्वक प्रेम कारागृह बन जाता है। इसलिए अगर तुम प्रेम के साथ ध्यान को जोड़ सको--प्रेम + ध्यान--फिर सब ठीक है। प्रेम + मूर्च्छा--सब गलत है।
प्रेम से नहीं बचना है; प्रेम में ध्यान और जोड़ देना है। ध्यानपूर्ण प्रेम का नाम ही प्रार्थना है। और तब तुम्हारा छोटा सा बच्चा जिसे तुम प्रेम करते हो तुम्हें छोटा बच्चा नहीं दिखाई पड़ेगा; तुम्हें छोटे से बालकृष्ण के दर्शन उसमें होने शुरू हो जाएंगे। तब उसके ठुमक-ठुमक कर चलने में तुम्हें सूरदास के पदों का अर्थ दिखाई पड़ने लगेगा; तब उसके नन्हे-नन्हे पैरों में बजती पैजनिया उस परम परमात्मा का संगीत हो जाएगा।
जहां तुम हो, प्रेम से मत भागना, प्रेम में ध्यान को जोड़ लेना, इतनी ही मेरी शिक्षा है। और प्रेम मंदिर बन जाएगा।

दूसरा प्रश्न:

हम हैं झूठे लोग और लाओत्से हैं सहज और सरल। क्या ये विपरीत छोर कभी मिल पाएंगे?

विपरीत छोर सदा मिल सकते हैं; गहरे में मिले ही हुए होते हैं। क्योंकि विपरीत छोर एक ही चीज के दो छोर हैं; अलग हैं नहीं। इसलिए तुम मिलाने की कोशिश मत करना; मिलाने की कोशिश में मुश्किल होगी; तुम समझने की कोशिश करना कि मिले ही हुए हैं।
जटिलता और सहजता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सत्य और झूठ भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रात और दिन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मिले ही हुए हैं। तुम्हारे मिलाने की कोई जरूरत नहीं है। जागने की और जानने की जरूरत है कि मिले ही हुए हैं। और जैसे ही तुम जाग कर जानोगे कि मिले ही हुए हैं, तुम तत्क्षण सरल हो जाओगे।
लाओत्से होने के लिए तुम्हें अपनी जटिलता से संघर्ष नहीं करना है, नहीं तो छोर कभी न मिल पाएंगे। क्योंकि जटिलता से जितना संघर्ष करोगे, उतने और जटिल होते जाओगे। यह बड़े सोच लेने की जरूरत है कि जटिल आदमी जब जटिलता से लड़ता है तो और जटिल हो जाता है; जटिलता दुगनी हो जाती है। पहली जटिलता तो मौजूद ही होती है, अब एक लड़ाई की और जटिलता पैदा हो जाती है। और फिर अगर ऐसा ही तुम करते चले जाओ तो जिसको तर्क-शास्त्री कहते हैं इनफिनिट रिग्रेस, फिर तो तुम अनंतकाल तक करते चले जाओ, कुछ भी न होगा। एक झूठ से लड़ोगे; तुम्हें दूसरा झूठ खड़ा करना पड़ेगा। क्योंकि झूठ से लड़ना हो तो झूठ से ही लड़ा जा सकता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में बैठ कर घर आ रहा है। उसने ऊपर की सीट पर एक टोकरी रखी है, जिस टोकरी के ऊपर कई छेद बने हैं। एक आदमी उस टोकरी में उत्सुक हो गया खास कर छेद क्यों हैं। उसने पूछा कि माफ करें, ऐसी टोकरी मैंने कभी देखी नहीं; इसमें इतने छेद क्यों बने हुए हैं?
नसरुद्दीन ने कहा कि इस टोकरी में एक नेवला है, उसको हवा लेने के लिए सांस की जरूरत है न।
वह आदमी और हैरान हो गया। उसने कहा, नेवला किसलिए है? कहां ले जा रहे हो?
तो नसरुद्दीन ने कहा, अब तुम पूरी बात ही समझ लो, अन्यथा तुम्हारी उत्सुकता बढ़ती चली जाएगी। मेरी पत्नी को रात सपने में सांप दिखाई पड़ते हैं, तो नेवला ले जा रहा हूं सांपों को डराने के लिए।
उस आदमी ने कहा, हद कर दी! सपने में दिखाई पड़ते हैं तो नकली हैं सांप।
तो नसरुद्दीन ने कहा, यह नेवला कोई सच है? है थोड़े ही; बस, खयाल लिए जा रहे हैं। क्योंकि झूठे सांपों को डराने के लिए असली नेवले की थोड़े ही जरूरत है। और झूठे सांप से असली नेवले को मिलाओगे कैसे? झूठे सांप से तो झूठे नेवले की ही लड़ाई हो सकती है।
अगर तुम्हें कोई झूठी बीमारी पकड़ जाए तो असली चिकित्सा की जरूरत है? तो और मुश्किल में पड़ोगे। झूठी अगर बीमारी पकड़ जाए तो एलोपैथ डॉक्टर के पास मत जाना, नहीं तुम बहुत झंझट में पड़ोगे। क्योंकि उसकी दवाई और जटिलता पैदा करेगी। अगर झूठी बीमारी पकड़ जाए तो उसके लिए ही संत हैं, साधु हैं, साईंबाबा हैं, वहां जाना। क्योंकि झूठी बीमारी के लिए झूठी राख की जरूरत है; वह काम करती है। असली बीमारी के लिए असली दवा की जरूरत है; झूठी बीमारी के लिए झूठी दवा की जरूरत है।
जब तुम एक झूठ से लड़ते हो तब तुम दूसरा झूठ खड़ा करते हो। फिर तुम और घबड़ा जाओगे कि दूसरा भी झूठ है तो इससे भी लड़ना है, तो तीसरा झूठ खड़ा करते हो। फिर इसका कोई अंत नहीं है। फिर दर पर्त, पर्त दर पर्त झूठ बढ़ता चला जाएगा। तुम अपने ही उपद्रव में ग्रस्त हो जाओगे।
नहीं, झूठ अगर है तो लड़ना नहीं है उससे, सिर्फ जानना है, जागना है। जागते ही झूठ गिर जाता है। तुम्हारी जटिलता झूठ है, वास्तविक तो नहीं। वस्तुतः तो तुम उतने ही सरल हो जितना लाओत्से। तुम्हारे प्राणों के प्राण में तो तुम उतने ही सरल हो जितना कि कोई बुद्ध पुरुष। जरा भी भेद नहीं है, रत्ती भर भेद नहीं है। क्योंकि अगर वहां भेद हो गया होगा तो फिर कोई सुधारने का उपाय नहीं है। वहां तो तुम वैसे ही सरल हो जैसे नवजात शिशु, सुबह पड़ी ओस, सांझ को निकला पहला तारा, एकदम ताजे। लाओत्से, बुद्ध और महावीर और कृष्ण की ताजगी में और तुम्हारी भीतर की ताजगी में रत्ती भर फासला नहीं है, फर्क नहीं है। तुम वही हो जो वे हैं। फासला है तो तुम्हारे ऊपर की पर्तों में है। वह तुमने जो झूठ के वस्त्र पहन रखे हैं।
उन झूठ के वस्त्रों से लड़ने की कोई जरूरत नहीं; सिर्फ समझ लेना है कि वे झूठ हैं। उनको उतारना भी न पड़ेगा, क्योंकि उतारने का तो मतलब तब होता जब वे सच्चे होते। तुम हो तो नग्न ही; झूठ के वस्त्र पहने हुए हैं। उनको उतारना थोड़े ही पड़ेगा; जान लोगे, देख लोगे, उतर गए। होश काफी है। सजगता काफी है।
इसलिए तो सारे बुद्ध पुरुष एक ही बात कहे चले जाते हैं: ध्यान, ध्यान, ध्यान। ध्यान का अर्थ है: तुम जाग जाओ, बस। तुम जरा होश से अपने को देखो।
समझो तुम घर आए, पत्नी के लिए तुम द्वार पर ही तैयार होने लगे, तुमने ओंठों पर मुस्कान खींच ली, जो कि झूठ है। ओंठों का अभ्यास कर लिया है तो ओंठ खींच लेते हो तुम। कुछ लोग तो इतना अभ्यास कर लेते हैं कि नींद में भी उनके ओंठ ढीले नहीं होते, खिंचे ही रहते हैं। अभ्यास ज्यादा हो जाए तो हंसने की जरूरत ही नहीं रहती, बस ओंठ खिंचे ही रहते हैं। तुमने ओंठ खींच लिए हैं। अब क्या करना पड़ेगा इस झूठी मुस्कान से हटने के लिए?
जरा होश करो, ओंठ वापस लौट जाएंगे अपनी जगह। होश आते ही कि तुम्हारे भीतर कोई हंसी नहीं तो क्यों ओंठ पर ला रहे हो? और तुम किसे धोखा दे रहे हो? पत्नी को? दुनिया में कोई कभी नहीं दे पाया; तुम असंभव करने की कोशिश कर रहे हो। तुम्हारे खिंचे हुए ओंठ से कुछ अंतर न पड़ेगा। बल्कि तुम्हारे खिंचे ओंठ सिर्फ इतनी ही खबर पत्नी को देंगे कि जरूर कोई अपराध करके आ रहे हो। नहीं तो हंस क्यों रहे हो? मुस्कुरा क्यों रहे हो? किसको धोखा देने की कोशिश कर रहे हो? तुम्हारी मुस्कुराहट झूठी है। तुम अपने को ही धोखा दे रहे हो। थोड़े जागो। कुछ करो मत, मुस्कुराहट को खिंची रहने दो; तुम सिर्फ जाग कर देखो कि यह झूठ है। और तुम पाओगे कि ओंठ अपनी जगह आ गए।
यह मुट्ठी मैं बांधे हुए हूं जबरदस्ती। इसको खोलने के लिए कुछ करना थोड़े ही पड़ेगा; सिर्फ मुझे इतना समझ लेना जरूरी है कि मैं जबरदस्ती बांधे हूं, अकारण बांधे हूं, इसका कोई सार नहीं; मुट्ठी खुल गई। खोलना थोड़े ही पड़ती है, सिर्फ बांधना पड़ती है। और जब समझ आ गई तो बांधना छूट जाता है, खुल जाती है।
समझ सरल है; नासमझी जटिल है। ज्ञान बिलकुल सरल है; अज्ञान बहुत जटिल है।
तो तुम यह मत पूछो कि लाओत्से जैसे सरल होने के लिए तुम्हें क्या करना पड़ेगा। तुम हो ही; बस जाग कर देखना है अपने स्वभाव को। संपदा तुम्हारे पास है, कहीं खोजने नहीं जाना; सिर्फ आंख खोलनी है। तुमने खोया कुछ भी नहीं है; सिर्फ खयाल है कि खो दिया है। स्मरण ले आना है। खो तो तुम सकते ही नहीं, क्योंकि अगर खो सकते तो फिर पाने का कोई उपाय न था। कौन खोएगा? तुम्हारा स्वभाव है सरलता।
जटिल होने के लिए तुम्हें चेष्टा करनी पड़ती है। जटिल होने के लिए तुम्हें सदा अपने पहरे पर रहना पड़ता है। तुम खयाल करो: जटिल होने के लिए कुछ करना पड़ता है। सरल होने के लिए क्या करना है? ऐसे ही समझो कि किसी आदमी को कहीं जाना हो तो चलना पड़ता है। और कहीं न जाना हो, घर में ही बैठना हो, तो चलना पड़ता है? आदमी बैठ जाता है। घर में तो है ही। जब भी तुम्हें कुछ करना पड़ता है, उसका अर्थ है: कुछ तुम पाने चले हो जो तुम्हारे स्वभाव में नहीं है।
ऐसा हुआ, बोधिधर्म के पास चीन का सम्राट मिलने आया। और उस सम्राट ने कहा कि मैं बड़ा क्रोधित हो जाता हूं और कुछ क्रोध के लिए उपाय बताओ, कैसे इससे छुटकारा पाऊं? तो बोधिधर्म ने पूछा, तुम चौबीस घंटे क्रोध में रहते हो या कभी-कभी? उसने कहा कि चौबीस घंटे तो कौन क्रोध में रहता है? कभी-कभी! तो बोधिधर्म ने कहा, बहुत फिक्र मत करो। क्योंकि जो कभी-कभी है, वह स्वभाव नहीं हो सकता; स्वभाव तो चौबीस घंटे होता है।
स्वभाव का मतलब है कि सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते, खाते-पीते, पुण्य करते, पाप करते, चोरी में, साधुता में, सदा साथ है। स्वभाव यानी तुम। स्वभाव को कुछ करना थोड़े ही पड़ता है। स्वभाव कोई कृत्य थोड़े ही है; स्वभाव तो तुम्हारा बीइंग है, तुम्हारा अस्तित्व है।
इसलिए यह पूछो ही मत कि हम क्या करें कि विरोधी छोर मिल जाएं; विरोधी छोर मिले ही हुए हैं। तुम कृपा करके कुछ करो मत; थोड़ा न-करने में ठहरो; थोड़ी देर के लिए कुछ मत करो। थोड़ी देर तुम चुप बैठ जाओ और कुछ मत करो। रोज अगर तुम एक घड़ी भर चुप बैठ जाओ और कुछ न करो। विचार आएंगे, आने दो, जाने दो। उनको रोको भी मत, क्योंकि वह भी करना है। यह भी मत करो कि इनको न आने देंगे, क्योंकि वह भी करना है। तुम कुछ करो ही मत; जो हो रहा है होने दो। पाप के विचार उठ रहे हैं, उठने दो। तुम कौन है? आया है धुआं, चला जाएगा अपने आप; अपने आप आया है, अपने आप चला जाएगा। तुम जरा चुपचाप बैठे रहो, देखते रहो।
अगर तुम इतना ही कर लो, घड़ी भर खाली बैठना, तुम अचानक एक दिन पाओगे लाओत्से भीतर अपनी पूरी गरिमा में प्रकट हो गया है; बुद्ध विराजमान हैं, तुम बोधिवृक्ष बन गए; तुम्हारी छाया में बुद्धत्व विराजमान है; तुमने पा लिया परम। उसे तुमने कभी खोया न था। सारी कठिनाई मूर्च्छा की है।
जो तुमसे कहता है, ईश्वर को खोजना है, कहीं ईश्वर आकाश में है, वह तुम्हें भटकाएगा। मैं तुमसे कहता हूं, ईश्वर को खोजना नहीं; तुमने कभी खोया नहीं; ईश्वर तुम्हारे भीतर है, तुम हो। तुम्हारे भीतर कहना भी ठीक नहीं, तुम हो। जरा धूल जम गई है यात्रा की; स्नान की जरूरत है, बस। लंबी यात्रा करके आ रहे हो, धूल-धूसरित हो गए हो। बहुत झूठ जीए हैं, झूठ की पर्तें तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठी हो गई हैं। लेकिन झूठ की ही पर्तें हैं, कुछ भय का कारण नहीं है। सत्य बलशाली है। झूठ की पर्तों का क्या बल है? सत्य का दीया जला, झूठ की पर्तें तिरोहित हो गईं; जैसे अंधेरा मिट जाता है दीये के जलते।
इसे अगर तुम स्मरण रख सको तो यह समस्त शास्त्रों का सार है कि तुम परमात्मा हो; थोड़े सोए हुए, थोड़े अलसा गए हो, थोड़ी झपकी खा गई; बस। थोड़ा आंखों में पानी मार लो, एक कप चाय पी लो, थोड़ा होश सम्हालो। कुछ कभी खोया नहीं है। किसी ने कभी कुछ खोया नहीं है। क्योंकि खोना संभव ही नहीं है।

तीसरा प्रश्न:

आप बहुधा कहते हैं कि अति पर ही रूपांतरण घटित होता है; लेकिन लाओत्से कहते हैं कि शुरू में ही रुक जाना, बात छोटी हो तभी उसे सुलझा लेना। दोनों बातों को सुन कर साधक की उलझन बढ़ जाती है। कृपया इसका समाधान करें।

लझन बढ़ाना ही चाहते हो तो हर चीज सुन कर बढ़ जाएगी। ऐसा लगता है उलझन की तलाश में हो, खोज रहे हो कि कहां उलझन बढ़ जाए। अन्यथा बात बिलकुल सीधी है, उलझन का कोई सवाल ही नहीं है।
दोनों में कोई विरोध नहीं है। पहला कदम भी अति है और अंतिम कदम भी अति है; दोनों एक्सट्रीम हैं। पहला कदम उठाने के पहले ही रुक जाना, यह एक अति। और अंतिम कदम उठाने के बाद ही रुक सकोगे, यह दूसरी अति। इसमें भेद जरा भी नहीं है। लाओत्से भी कह रहा है कि अति पर ही रूपांतरण होगा; मैं भी कह रहा हूं, अति पर ही रूपांतरण होगा। लाओत्से कह रहा है, पहले कदम के पहले ही रुक जाना। और तुमने पहला कदम उठा लिया है, इसलिए मैं कह रहा हूं, अब आखिरी कदम उठा लो। अब तुमको लाओत्से काम नहीं आएगा, मैं काम आऊंगा। क्योंकि लाओत्से का अब तुम क्या करोगे? तुम पहला कदम तो कब का उठा चुके। कितना चल चुके संसार में! अब कोई पहला कदम उठाने का सवाल है? हजारों कदम उठा लिए, हजारों मील की लंबी यात्रा पर तुम आ चुके। तो अब मैं तुमसे कहता हूं, देर मत करो; अब पूरी ही कर लो यात्रा और आखिरी कदम उठा लो।
क्रांति या तो पहले कदम के पहले होती है या आखिरी कदम के बाद होती है, मध्य में नहीं हो पाती। क्योंकि मध्य में तुम अधकचरे होते हो। वहां क्रांति कैसे हो सकती है? या तो तब जब तुम बिलकुल सरल बालक की तरह थे, कि जटिलता तुम्हें छुई ही न थी, तुम बिलकुल कुंआरे थे, तुमने वासना जानी ही न थी, तब। और या फिर वासना को जान ही लो पूरा, उसके सब रूपों में जान लो, ताकि मन में अटका हुआ कहीं कोई भाव न रह जाए कि कुछ अनजाना रह गया। उसे जान लो सब रूपों में, शुभ-अशुभ, ताकि भर जाए मन, ताकि तुम ऊब जाओ, ताकि तुम अपनी पीड़ा से ही जागने लगो; आखिरी कदम उठा लो। कुनकुने-कुनकुने क्रांति नहीं होती।
लाओत्से बिलकुल ठीक कहता है; जरा भी भूल नहीं है। लेकिन किसके काम पड़ेगी लाओत्से की बात? तुम्हारे काम पड़ेगी? तुमने काफी कदम उठा लिए हैं। कहां खोज पाओगे तुम वह आदमी जो पहला कदम नहीं उठाया है? कैसे खोजोगे उस आदमी को?
लाओत्से की बात ठीक है, लेकिन काम की नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह काम की है। मैं तुम्हें देख कर कह रहा हूं। मैंने अभी तक एक आदमी नहीं देखा जिसने पहला कदम न उठाया हो। क्योंकि वैसा आदमी मेरे पास भी कैसे आएगा? मेरे पास आने के लिए भी काफी कदम उठा लिए हों तभी तो आ पाओगे। तो इसलिए कहता हूं, आखिरी कदम उठा लो। और बहुत देर हो गई, ऐसे भी बहुत चल लिए; कुछ ज्यादा बचा नहीं है, थोड़े कोने-कातर में कहीं पड़ा रह गया है, उसको भी निबटा लो। मेरा आग्रह यह है कि कहीं तुम आधे मन से क्रांति में मत चले जाना, नहीं तो वह जो आधा मन पीछे रह गया है, बार-बार खींचेगा।
हमारे पास एक शब्द है: योगभ्रष्ट। उसका कुल मतलब इतना ही होता है कि किसी आदमी ने आधे में कदम उठा कर योगी हो गया। अभी संसार से परिपूर्ण रूप से तृप्त न हुआ था या अतृप्त न हुआ था। अभी संसार कुछ रह गया था मन में, कहीं वासना दबी थी, कहीं रस कायम था; अभी सोचता था, कुछ जानने को बातें बाकी रह गईं, समय के पहले उठा लिया गया; कच्चा था, पका न था। कच्चा फल किसी ने तोड़ लिया; घाव रह गया वृक्ष में भी और फल भी अधूरा रह गया। अभी रसधार बह रही थी। अभी वृक्ष से टूटने का समय न आया था। अभी परिपक्वता न हुई थी। ऐसा कोई बीच में कोई दुर्घटना के कारण हो गया।
दुर्घटनाएं संभव हैं। पढ़ लिया कोई शास्त्र, हो गए प्रभावित क्षण भर को; क्षण भर में कर बैठे कोई गलती, निकल पड़े घर से। अब लौटना मुश्किल; लोग हंसेंगे। और साधु-संन्यासी तरकीब जानते हैं। जब भी वे किसी को दीक्षा देते हैं तो भारी बैंड-बाजा बजवाते हैं, ताकि सबको पता चल जाए कि यह आदमी ने संन्यास ले लिया। कोई मेरे जैसा चुपचाप थोड़े ही दे देते हैं कि किसी को पता ही नहीं चलता। तुमको ही पता नहीं चलता कि तुम कैसे संन्यासी हो गए, दूसरे की तो बात अलग। न कोई बैंड-बाजा बजता, न कोई हाथी पर यात्रा निकलती, शोभायात्रा। वह तरकीब है। उसके पीछे कारण है। वह बड़ा ट्रेड सीक्रेट है। क्योंकि जब हाथी पर निकल गई यात्रा तो अहंकार चढ़ गया हाथी। अब आसानी से लौट न पाओगे। खुद पत्नी हाथ जोड़ेगी
ऐसा हुआ। मेरे एक मित्र जैन संन्यासी हैं। समझ आई कि यह तो आधे में भाग खड़े हुए। तो मैंने कहा, छोड़ दो। उन्होंने कहा, छोड़ दो? अपने बाप को पूछता हूं कि घर आ जाऊं? वे कहते हैं, अब हमारी बदनामी करवाओगे। पत्नी को पूछता हूं। पत्नी कहती है, भूल कर इस घर में कदम मत रखना। पहले छाती पीट-पीट कर रोती थी। और अब कहती है, अब बदनामी होगी।
वे हाथी पर चढ़ गए। अब अपने ही लोग लेने को तैयार नहीं हैं। अब कोई लेने को तैयार नहीं है। अब जहां जाएंगे वहां पदभ्रष्ट, पतित समझे जाएंगे। वह चढ़ाना एक तरकीब है। वह तरकीब है जिससे लौटना संभव न रहे। इसलिए खूब बैंड-बाजे बजते हैं, स्वागत-समारंभ होता है, कोई बड़ी भारी घटना घट रही है।
हो क्या रहा है? क्या घटना घट रही है? एक आदमी घर छोड़ कर जा रहा है; इतने शोरगुल की क्या जरूरत है? अगर समझपूर्वक जा रहा है तो खुद ही कहेगा, यह शोरगुल किसलिए? अब तक नासमझ था, अब समझ आ गई, बात खत्म हो गई! अब तक नाली में पड़ा था, क्योंकि होश न था, अब होश आ गया। शराबी रात नाली में गिर गया, सुबह होश आ जाता है तो तुम बैंड-बाजा बजा कर जुलूस निकालते हो कि अब इसको होश आ गया? अब यह नाली से उठ गया? होश आ गया, अपने आप खुद घर पहुंच जाता है।
लेकिन शोरगुल मचाने के पीछे कारण है। वह कारण यह है कि तुम्हारे अहंकार को इतना फुला दिया जाए कि जब तुम खुद ही घर में जाना चाहो तो दरवाजा छोटा मालूम पड़े और कोई तुम्हें लेने को राजी न होगा फिर। खुद तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे हाथ जोड़ेंगे कि अब तुम ऐसी भूल--एक भूल तो यह की कि भाग गए, अब यह दूसरी भूल और न करो। सारा संसार तुम्हें रोकेगा। अब तुम्हारे अहंकार का सवाल है, इज्जत का सवाल है।
तो उन संन्यासी को उनके पिता ने कहा कि आत्महत्या कर लो, लेकिन घर मत आना। हमारा भी तो कुछ सोचो।
अब वे संन्यासी पड़े हैं बेमन से। वासना घर की तरफ भाग रही है; परमात्मा की याद नहीं आती, पत्नी की याद आती है। पढ़ते हैं शास्त्र; मन में संसार चलता है। और दूसरों को भी समझा रहे हैं। वे मुझसे कहते थे, मेरी तकलीफ यह है कि अब मैं दूसरों को भी यही समझा रहा हूं कि छोड़ो, कहां पड़े हो! और मैं खुद मुसीबत में हूं कि क्यों छोड़ा। यहां आकर न तो कुछ आनंद मिल रहा है, न कोई मोक्ष का स्वाद आ रहा है। और अब ऐसा लगता है कि जो मिल रहा था, शायद वही मिल सकता है, और ज्यादा मिल नहीं सकता।
न घर के न घाट के। कहते हैं न: धोबी का गधा, न घर का न घाट का। वैसी दशा हो जाएगी, कच्चा कोई टूट जाएगा तो। तो मैं नहीं कहता कि तुम कच्चे लौट जाना। इसलिए मैं कहता हूं, अति से क्रांति होती है। तुम जी ही लो, तुम भरपूर जी लो। तुम्हें जितना भोजन में रस हो उसे पूरा कर लो; वमन की स्थिति आ जाने दो। तुम खुद ही अपने अनुभव से परिपक्व हो जाओ। संसार में कुछ बचे ही न--इसलिए नहीं कि शास्त्र कहते हैं--इसलिए कि तुमने जाना। इसलिए नहीं कि साधु-संन्यासी गुणगान करते हैं मोक्ष के आनंद का; उससे कुछ न होगा; उससे तुम लोभ में पड़ जाओगे। बहुत से लोभी उसमें फंस गए हैं। वह दुर्घटना है।
तुम, परमात्मा को मिलने से परम आनंद होगा, इस लोभ में मत पड़ना। क्योंकि जो परमात्मा में आनंद की तलाश में जा रहा है, अभी उसकी सुख की भूख समाप्त नहीं हुई। तुम यह मत सोचना कि मोक्ष में अहर्निश वर्षा हो रही है अमृत की। अमृत की आकांक्षा से अगर तुम जा रहे हो तो अभी मृत्यु का भय तुम्हारा समाप्त नहीं हुआ; अभी तुम मौत से डरे हुए हो। और यह मत सोचना कि स्वर्ग में अप्सराएं नाच रही हैं, जिनकी स्वर्ण-काया है, और जिनकी देह से पसीना और पसीने की बदबू कभी नहीं आती; सदा फूलों की बहार! और जो सोलह साल से ज्यादा जिनकी उम्र कभी होती नहीं, रुक गई हैं सोलह साल पर, रिटार्डेड, वहां से आगे वे बढ़ती नहीं हैं, ऐसी अप्सराएं तुम्हारे आस-पास नाच रही हैं स्वर्ग में। बैठे हैं कल्पतरु के नीचे, जो भी इच्छा है फौरन पूरी हो जाती है।
अगर इस वासना से तुम धर्म की तरफ गए हो तो दुर्घटना होगी। क्योंकि न तो ऐसा कहीं कोई स्वर्ग है--यह तो साधुओं द्वारा फेंका गया जाल है मछलियों को फांसने के लिए--न कहीं कोई ऐसी अप्सराएं हैं, कंचन-स्वर्ण की कोई देह नहीं हैं कहीं, और न ही कहीं कोई कल्पतरु हैं जिनके नीचे बैठ कर सब वासनाएं पूरी हो जाएं। तो फिर तुम अभी वासनाओं से भरे हो। संसार में जो नहीं पूरा कर पाए, वह कल्पतरु के नीचे पूरा करने की चेष्टा कर रहे हो। संसार की स्त्रियों से जो नहीं मिल सका, वह अप्सराओं से आशा बांधे हुए हो। मगर फंसे हो; अभी अनुभव नहीं हुआ।
ज्ञानी तो कहेगा कि अगर स्वर्ग में भी अप्सराएं हैं तो फिर यहीं क्या बुरा? और अगर वहां भी वासनाएं ही तृप्त होंगी कल्पतरु के नीचे तो यहां क्या बुराई है?
मैंने तो एक उलटी ही कहानी सुनी है। मैंने तो सुना है कि एक फकीर रात सोया और उसने देखा कि वह कल्पतरु के नीचे बैठा है। बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है: कल्पतरु। निऑन के अक्षरों में लिखा है, चमक रहा है। अरे, उसने कहा, आ गए स्वर्ग! देखें शास्त्र में जो लिखा है, सच है या नहीं? उसने फौरन आज्ञा दी--कोई वहां दिखाई तो पड़ता नहीं--भोजन! बड़े सुंदर थाल सजे आ गए। उसने कहा, निश्चित है। अप्सराएं! अप्सराएं नाचने लगीं; वाद्य-संगीत बजने लगे।
ऐसा कुछ दिन चला। लेकिन कितनी देर चला सकते हो इसको? इससे भी ऊब आने लगी। जब भोजन कहो तब भोजन आ जाए; जब बिस्तर लगवाओ, बिस्तर लग जाए; जब अप्सराएं कहो, अप्सराएं नाचने लगें; कितनी देर चलाओगे इसको?
आदमी थोड़ा बेचैन होने लगा। उसने कहा कि भई, कुछ काम भी करने को मिल सकता है कि नहीं? आखिर बैठे-बैठे कब तक यह चलेगा; कुछ करना भी!
आवाज आई, यही तो तकलीफ है। यहां काम नहीं है। यहां तो तुम जो चाहो बिना काम के पूरा होता है। काम का कोई सवाल ही नहीं है।
तो उसने कहा, इससे तो नरक में बेहतर।
भीतर से आवाज आई, और तुम समझ क्या रहे हो कहां हो? यह नरक ही है!
तुम्हारे कल्पवृक्ष तुम्हें नरक में ही ले जाएंगे, क्योंकि तुम्हारे कल्पवृक्षों की तलाश ने ही तो तुम्हारे संसार को नरक बना दिया है। तुम्हारा संसार संसार के कारण थोड़े ही नरक है; तुम्हारी वासनाओं के कारण नरक है। वासनारहित होकर जब इसी संसार को कोई देखता है तो परमात्मा को विराजमान पाता है। सब जगह उसी का हस्ताक्षर, उसी के पदचिह्न; पत्ते-पत्ते में वही, कण-कण में वही, हर जगह वही, अनेक रूपों में वही रूपायित, हर आकार में वही निराकार। यह तो तुम्हारी वासना के कारण संसार नरक हो गया है; संसार के कारण संसार नरक नहीं है। संसार तो मोक्ष है। तुम हो नरक का सूत्र।
अधूरे टूट गए, तो तुम जहां भी जाओगे वहीं संसार बना लोगे।
मैंने सुना है। एक सूफी कहानी है। एक आदमी था। गांव के लोग उसको बुद्धू समझते थे, इसलिए उसका नाम बेवकूफ रख लिया था। और वह धीरे-धीरे आदी हो गया था; गांवों में ऐसा अक्सर हो जाता है। बेवकूफ ही उनका नाम हो गया था। और उनकी पत्नी का नाम फजीती था। फजीती, उपद्रव। और बेवकूफ की पत्नी होएगी ही फजीती। इसमें कोई, बिलकुल बात तर्कयुक्त मालूम पड़ती है।
एक दफा फजीती से बेवकूफ का झगड़ा हो गया और फजीती भाग गई। तो उसे खोजने निकला। बड़ी मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि बेवकूफ बिना फजीती के रह भी नहीं सकता। फजीती के साथ भी नहीं रह सकता बेवकूफ और बिना फजीती के भी नहीं रह सकता। तुम्हें भी पता है। पत्नी के बिना भी नहीं रह सकते हो और पत्नी के साथ भी नहीं रह सकते हो। यही तो फजीता है। खोजते हुए एक सूफी फकीर के पास पहुंच गया। और उसने कहा कि महाराज, यहां मेरी पत्नी को तो नहीं देखा? उसने पूछा, तुम हो कौन? उसने कहा कि मेरा नाम बेवकूफ है और मेरी पत्नी का नाम फजीती है, और वह घर छोड़ कर भाग गई है। उस सूफी फकीर ने कहा, नासमझ, बेवकूफ अगर पक्का है तो फजीती कहीं भी मिल जाएगी। तू फिक्र क्यों कर रहा है?
तो संसार तुम्हें कहीं भी मिल जाएगा। तुम फिक्र क्या कर रहे हो? आश्रम में मिल जाएगा, हिमालय पर मिल जाएगा। बेवकूफ होना जरूरी है, फजीती कहीं भी मिल जाएगी। संसार भरा है फजीतियों से; इसमें कहीं खोजने की जरूरत है? कहां भटक रहा है? तू सिर्फ बैठ जा, फजीती खुद आएगी। बेवकूफ होना पर्याप्त है। इसलिए तुम संसार को छोड़ कर न भाग सकोगे; तुम जहां जाओगे वहीं संसार आ जाएगा।
पक कर ही कोई क्रांति घटती है; कच्चे तो तुम नासमझ ही रहोगे। इसलिए कहता हूं, देर न करो; पको। अनुभव में जाओ। प्रत्येक चीज को होश से जीओ। और धीरे-धीरे तुम खुद ही देख लोगे, इस संसार में न तो कुछ पकड़ने योग्य है, न कुछ छोड़ने योग्य है।
इस बात को मैं फिर से दोहरा दूं। अगर तुम कच्चे हो तो तुम समझोगे, संसार में कुछ छोड़ने योग्य है। अगर तुम पके हो तो तुम पाओगे, न तो कुछ पकड़ने योग्य है, न कुछ छोड़ने योग्य है। त्याग करने योग्य भी क्या है यहां? जब भोग करने योग्य ही कुछ नहीं है तो त्याग करने योग्य भी कुछ नहीं है।
तो जो आदमी भोग के विपरीत त्याग करता है उसकी नासमझी बदलती नहीं। जिसके लिए भोग और त्याग दोनों व्यर्थ हो जाते हैं, पकड़ने योग्य, न छोड़ने योग्य। यहां संपदा ही नहीं है, पकड़ोगे क्या और छोड़ोगे क्या? त्याग भी अज्ञानी करता है, भोग भी अज्ञानी करता है; ज्ञानी तो सिर्फ जाग जाता है और पाता है कि भोग-त्याग दोनों सपने के हिस्से थे, गहरी निद्रा में घटते थे, जागने पर नहीं घटते हैं। ज्ञानी तो सिर्फ जीता है; न भोगता, न त्यागता। ज्ञानी तो साक्षी होता है, न तो भोक्ता बनता और न त्यागी बनता, कर्ता नहीं बनता। कर्ता ही तो अज्ञानी होना है।
लाओत्से और मेरी बात में कोई विरोध नहीं है। लाओत्से वह बात कह रहा है जो तुम्हारे बहुत काम की नहीं है। मैं वह बात कह रहा हूं जो तुम्हारे काम की है। बातें दोनों सही हैं: अति पर क्रांति घटित होती है।
आखिरी प्रश्न:

आपने कहा था, परमात्मा सामने मौजूद हो तो सोचो कि क्या मांगोगे? आप हमारे सामने मौजूद हैं और कहते हैं कि पूछना हो तो पूछो। मैं कागज और कलम लेकर बैठता हूं और मेरी मांगें और प्रश्न लिखना चाहता हूं। घंटे निकल जाते हैं तो पाता हूं कि कागज कोरा का कोरा ही रह जाता है; लेकिन कागज और कलम हाथ से गिरते नहीं क्यों?

हत्वपूर्ण है। समझना जरूरी है।
तीन दशाएं हैं। एक तो तुम कागज-कलम लेकर बैठो कि क्या मांगना है, क्या पूछना है, और तत्क्षण हजारों प्रश्न उठ आएं, हजारों मांगें उठ आएं, जैसा कि सौ में निन्यानबे लोगों के लिए घटेगा। तुम यह तय न कर पाओगे कि अब क्या छोड़ें और क्या मांगें। हजार-हजार मांगें उठ आएंगी। तुम बड़ी बिगूचन में पड़ जाओगे कि क्या चुनें और क्या छोड़ें। कागज छोटा मालूम पड़ेगा, मांगें ज्यादा मालूम पड़ेंगी। कलम की स्याही पर्याप्त न मालूम पड़ेगी। प्रश्न बहुत उठेंगे, अनंत उठेंगे। एक तो यह दशा है।
साधारणतः जिस व्यक्ति ने जीवन में कभी ध्यान का कोई अनुभव नहीं किया है, उसकी यह दशा है। अगर जीवन में ध्यान की थोड़ी झलक आनी शुरू हुई तो यह स्थिति पैदा होगी कि तुम कागज-कलम लेकर बैठोगे, हाथ रुके रहेंगे; कुछ भी सूझेगा न क्या पूछें! कुछ पूछने योग्य न लगेगा। कुछ मांगने योग्य न लगेगा। मन खाली रहेगा और मन की तरह ही कोरा कागज कोरा रह जाएगा। लेकिन हाथ से कलम-कागज गिरेंगे भी नहीं।
फिर एक तीसरी दशा है जो समाधिस्थ की दशा है। उसके हाथ से कागज-कलम भी गिर जाएंगे। क्योंकि ध्यान की अवस्था मध्य में है। तुम सोच भी नहीं पाते, क्या पूछें! कुछ उठे भी पूछने योग्य तो लगता नहीं पूछने योग्य, व्यर्थ मालूम पड़ता है, कूड़ा-कर्कट मालूम पड़ता है।
ध्यान की थोड़ी सी झलक ने सब प्रश्न व्यर्थ कर दिए; ध्यान की थोड़ी सी झलक ने सब मांगें व्यर्थ कर दीं। लेकिन अचेतन में ऐसा लगता है कि शायद कुछ पूछने जैसा बाकी हो; शायद कोई प्रश्न जो खयाल में न आ रहा हो, अभी बाकी हो। इसलिए हाथ में कागज-कलम पकड़े रह जाते हो। संदेह है। ध्यान अभी समाधि नहीं बनी। अभी असंदिग्ध नहीं हो कि सच में ही कोई सवाल नहीं रहा; हो सकता है यह सवाल ठीक न हो, लेकिन कोई सवाल भीतर छिपा हो और पीछे आता हो। माना कि ये मांगें व्यर्थ हो गईं, लेकिन शायद कोई मांग हो अंतरतम में छिपी, जो कतार में बहुत पीछे खड़ी हो और आ रही हो पास। इसलिए छोड़ भी नहीं पाते कागज-कलम; शायद कोई ठीक-ठीक प्रश्न, कोई ठीक-ठीक मांग उठ ही आए। प्रतीक्षा करते हो!
तीसरी अवस्था है समाधिस्थ की, जिसका चेतन और अचेतन एक हो गया। अब वह सब तरफ देख पाता है। अचेतन छिपा नहीं है अंधेरे में; प्रतीक्षा की कोई जरूरत नहीं है; रोशनी है भीतर। कोई प्रश्न नहीं है, कोई मांग नहीं है; कागज-कलम गिर जाते हैं।
ये तीन दशाएं हैं। साधारण चित्त की दशा: प्रश्न ही प्रश्न, इतने कि कहां सम्हालो! मांगें ही मांगें, इतनी कि अंत नहीं मालूम होता! फिर ध्यान की मध्यस्थ अवस्था है: जब विचार थोड़े शांत हो गए; मन थोड़ा तल्लीन होने लगा; उखड़ा वृक्ष थोड़ा-थोड़ा जमने लगा, जड़ें पकड़ने लगा। अभी पकड़ ही नहीं लीं पूरी जड़ें, आश्वस्त नहीं है, लेकिन अब चंचल भी नहीं है। अभी बिलकुल मिट नहीं गया, लेकिन शांत हुआ। विक्षिप्तता चली गई है; विमुक्ति आने को है। जो व्यर्थ था वह जा चुका है; सार्थक के आने की प्रतीक्षा है। घर अभी खाली है। संसार हटने लगा पीछे मन से; परमात्मा अभी विराजमान नहीं हो गया है। सिंहासन संसार से तो खाली हो गया है; लेकिन प्रभु के पदार्पण की थोड़ी देर है।
तीसरी अवस्था है जब कि सिंहासन फिर भर गया। एक तो चंचल मन है--भरा हुआ मन, व्यर्थ कचरे से, कूड़े से। फिर ध्यानस्थ का मन है--शून्य मन, खाली मन। फिर समाधिस्थ का मन है--फिर भर गया, सार्थक से, सार से, परमात्मा से।
तो एक तो भरे हुए तुम हो, संसार से; फिर एक भरे हुए संत हैं, परमात्मा से। और तुम दोनों के बीच में साधक है; संसार से खाली, परमात्मा से अभी भरा नहीं। इसलिए ऐसा होगा: कोरा कागज कोरा रह जाएगा, फिर भी हाथ से कलम छूटने की हिम्मत न आएगी। लगेगा, शायद! शायद! अब आता हो, अब मांग उठती हो, कौन जाने? क्योंकि बहुत अंधेरा है भीतर। थोड़ा सा कोना प्रकाशित हो गया है। उस प्रकाशित में तो तुम आश्वस्त हो कि कोई मांग नहीं, कोई प्रश्न नहीं। लेकिन अंधेरे में जो दबे कोने हैं, उनके संबंध में कौन भरोसा दिलाए? शायद कोई तरंग उठ आए। इसलिए।
लेकिन कीमती दशा है। इतना भी कुछ कम नहीं। विक्षिप्तता से इतना भी छूट जाना बहुत है, आधी मंजिल पूरी हो गई। और जब आधी पूरी हो गई तो शेष आधी भी पूरे होने में कोई देर नहीं है; वह भी जल्दी पूरी हो जाएगी। जिसने पहला कदम उठा लिया उसका आखिरी कदम भी उठ ही गया।
कहता है लाओत्से, एक-एक कदम चल कर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
बीज हाथ में आ गया तो वृक्ष को कितनी देर लगेगी? बीज आ गया तो वृक्ष आ ही गया, संक्षिप्त में, सार में। अव्यक्त में आया है अभी, जल्दी ही व्यक्त हो जाएगा; अंकुरित होगा, शाखाएं निकलेंगी, पल्लवित होगा, फूल लगेंगे। पर बीज हाथ में आ गया।
ध्यान बीज है; समाधि वृक्ष। जल्दी ही, जल्दी ही, अगर कोई सम्यकरूपेण चलता जाए अपनी ऊर्जा को सम्हाल कर, व्यर्थ से बचा कर, राह से यहां-वहां ज्यादा न उतरे, समय और शक्ति को व्यय न करे; सम्हाल कर--क्योंकि अभी तुम्हारे पास ऊर्जा भी थोड़ी है--संचित किए हुए, संयमित किए हुए चलता जाए, जल्दी ही मंजिल आ जाती है। फिर कुछ सम्हालने की जरूरत नहीं रहती। फिर बहो बाढ़ आई नदी की भांति; फिर लुटाओ, फिर बांटो। और जितना कोई बांटता है उस संपदा को उतनी ही बढ़ती चली जाती है। परमात्मा को कोई कभी बांट कर चुका पाया? फिर अनंत के द्वार खुल गए।
लेकिन तब तक बहुत सम्हाल-सम्हाल कर एक-एक कदम रखना है; ऊर्जा कम है, शक्ति सीमित है, मार्ग लंबा है। मंजिल जब तक नहीं मिली, दूर ही समझना। है तो बहुत पास; लेकिन अगर पास समझ ली तो यह डर है कि तुम ऊर्जा को यहां-वहां व्यय कर दो कि इतने पास है, पहुंच ही जाएंगे। नहीं, मंजिल दूर है, ऐसा जानना। जब तक मिल ही न जाए तब तक मंजिल बहुत दूर है। जिसको मिल जाती है, वह कहता है, एकदम पास थी। साधक के लिए यही समझना उचित है कि मंजिल बहुत दूर है, राह लंबी है, चलना काफी है; और ऊर्जा कम है, सीमित है; संरक्षित करना है। पहुंचे हुए सिद्ध सदा कहते हैं, मंजिल मिली ही है। वे भी ठीक कहते हैं; वह दूर कभी थी ही नहीं। लेकिन यह मिल जाने के बाद का बोध है।
इसलिए सिद्धों के वचन भी बहुत सोच-विचार कर लेना। कभी-कभी सिद्धों के वचन भी तुम्हें भटकाने का कारण बन सकते हैं, क्योंकि तुम भटकने को इतने उत्सुक हो कि तुम उनके सहारे भी भटक सकते हो। अपने भटकने की उत्सुकता को ध्यान में रखना सदा और अपनी आकांक्षा को ध्यान में रखना कि तुम उलझन में पड़ने के लिए तत्पर हो। सम्हालना। अगर सम्हाले चले, अगर ध्यान आ गया है, जल्दी ही समाधि भी द्वार पर दस्तक देगी।
और एक बात खयाल रखना, आखिरी बात, कि ध्यान तो तुम्हें करना पड़ता है, समाधि तुम्हें करनी नहीं पड़ती; वह आती है। तुम तो ध्यान किए चले जाओ। तुम तो कोरे कागज की भांति होते चले जाओ। तुम तो यही फिक्र करो कि सब समाप्त हो जाए--प्रश्न, मांग, आकांक्षाएं, अपेक्षाएं--सब समाप्त हो जाए; तुम तो कोरे कागज हो जाओ। जिस दिन तुम पूरे कोरे कागज हो जाओगे, अचानक पाओगे, उसी कोरे कागज पर परमात्मा का वेद उतरना शुरू हो गया है।

आज इतना ही।
 ( ताओ उपनिषद समाप्‍त)

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