अध्याय
80
छोटा
आदर्श राज्य
छोटी
आबादी वाला
छोटा सा देश
हो,
जहां
जिन्सों
की पूर्ति दस
गुनी या सौ
गुनी है--
उससे
ज्यादा जितना
वे खर्च कर
सकते हैं।
लोग
अपने जीवन को
मूल्य दें, और
दूर-दूर
प्रव्रजन न
करें।
वहां
नाव और गाड़ियां
तो हों, लेकिन
उन पर चढ़ने
वाले न हों।
वहां
कवच और शस्त्र
तो हों, लेकिन
उन्हें
प्रदर्शित
करने का अवसर
न हो।
गिनती
के लिए लोग
फिर से रस्सी
में गांठें
बांधना शुरू
करें,
वे
अपने भोजन में
रस लें; अपनी
पोशाक सुंदर बनाएं;
अपने
घरों से
संतुष्ट रहें; अपने
रीति-रिवाजों
का मजा लें।
पास-पड़ोस
के गांव
एक-दूसरे की
नजर में हों,
ताकि
वे एक-दूसरे
के कुत्तों का
भौंकना और मुर्गों
की बांग सुन
सकें;
और
लोग अपने
अंतिम दिनों
तक भी अपने
देश से बाहर न
गए हों।
लाओत्से
आदर्शवादी
नहीं है। यही
उसका आदर्श है।
इस मूलभूत बात
को पहले समझ
लें।
आदर्शवादी
का अर्थ है
जिसने जीवन की
सहजता और निसर्ग
के पार, जीवन
की सहजता और
निसर्ग से ऊपर,
जीवन की
सहजता और
निसर्ग के
विपरीत, कोई
आदर्श नियत
किया है; जो
मनुष्य से
कहता है, तुम्हें
ऐसा होना
चाहिए; जो
मनुष्य को
जैसा वह है
वैसा स्वीकार
नहीं करता; जो मनुष्य
के जीवन में
एक द्वंद्व
पैदा करता है।
तुम जैसे हो, निंदित; तुम्हें
कुछ और होना
चाहिए, तभी
तुम स्वीकार
योग्य हो
सकोगे। आदर्श
का अर्थ है
मनुष्य के
जीवन में एक
कलह का सूत्र।
आदर्श का अर्थ
है मनुष्य की
प्रकृति की
गहन निंदा, और कहीं दूर
आकाश में ऐसी
प्रतिमा का
निर्माण, जैसा
मनुष्य को
होना चाहिए।
लाओत्से
आदर्शवादी
नहीं है।
लाओत्से
मनुष्य के
निसर्ग को
उसकी
परिपूर्णता
में स्वीकार करता
है। वह तुमसे
नहीं कहता कि
तुम्हें ऐसा होना
चाहिए, वह
तुमसे कहता है,
यह होने की
दौड़ छोड़ो।
जब तक तुम
अपने से भिन्न
कुछ होना
चाहोगे तब तक
तुम मुसीबत
में रहोगे।
तुम तो वही हो
जाओ जो तुम
हो। दौड़ो
नहीं, अपने
को स्वीकार
करो।
निसर्ग
ही परम
निष्पत्ति है; उसके
पार कुछ भी
नहीं है। उसके
पार मनुष्य के
मन की अंधी
दौड़ है, और
कल्पनाएं हैं,
और सपनों के
इंद्रधनुष
हैं, जिन्हें
न कभी कोई
पूरा कर पाया
है--क्योंकि वे
पूरे किए ही
नहीं जा
सकते--और न कभी
कोई पूरा कर
सकेगा।
क्योंकि उनका
स्वभाव ही
असंभव पर निर्भर
है। आदर्श ही
क्या अगर
असंभव न हो!
आदर्श का
प्राण ही उसका
असंभव होना
है। और वहीं
उसकी अपील है,
आकर्षण है।
क्योंकि
अहंकारी
आदर्श में
इसीलिए
उत्सुक होता
है कि वह
असंभव है; वह
गौरीशंकर
जैसा है, जिस
पर चढ़ना
करीब-करीब
होगा नहीं। और
गौरीशंकर
पर तो कोई चढ़
भी जाए, आदर्श
पर कोई कभी
नहीं चढ़ पाता।
तुम जितने उसके
करीब पहुंचते
हो उतना ही तुम्हारा
अहंकार आदर्श
को ऊंचा उठाने
लगता है।
इसलिए तुम कभी
करीब नहीं
पहुंचते; तुम
में और
तुम्हारे
आदर्श में सदा
उतनी ही दूरी
रहती है जितनी
पहले थी, अंतिम
दिन भी उतनी
ही दूरी रहती
है।
आदर्शवादी
अपने को ही
काटता है, तोड़ता
है, किसी
प्रतिमा के
अनुसार, जो
उसकी कल्पना
ने तय किया
है। ऐसे वह
भग्न होता है,
भ्रष्ट
होता है। ऐसे
धीरे-धीरे वह
प्रतिमा तो कभी
निर्मित नहीं
होती जो उसके
सपनों ने संजोई
थी; लेकिन
जो प्रतिमा
प्रकृति ने
उसे दी थी वह
जरूर खंडित और
खंडहर हो जाती
है। तुम
परमात्मा तो
नहीं बन पाते;
आदमियत भी
खो जाती है।
तुम जो होना
चाहते थे, वह
तो नहीं हो
पाते; तुम
जो थे, वह
भी खो जाता
है। विषाद के
सिवाय हाथ में
कुछ भी लगता
नहीं।
सभी
आदर्शवादी
दुखी मरते हैं, क्योंकि
असफल मरते
हैं। तुम अगर आदर्शवादियों
का जीवन ठीक
से समझने की
कोशिश करो तो
तुम उनसे
ज्यादा
तनावग्रस्त आदमी
न पाओगे। वे
जीवन की हर
छोटी सी चीज
को समस्या बना
लेते हैं; जीवन
को जीने की
कला भूल ही
जाते हैं। वे
जीवन के साथ
शत्रुता का
व्यवहार करते
हैं, मित्रता
का नहीं।
ऐसा
हुआ कि मैं
विनोबा के एक
आश्रम में, बोधगया
में, मेहमान
था। पता नहीं
कैसे
उन्होंने
मुझे आमंत्रित
कर लिया। जो
युवती मेरे
भोजन और मेरी
देख-रेख के
लिए तय की गई
थी, आश्रमवासिनी,
वह मुझे अति
उदास दिखाई
पड़ी, मुर्दा-मुर्दा
मालूम हुई। तो
दूसरेत्तीसरे
दिन मैंने
उससे पूछा कि
तू इतनी उदास
क्यों है? तो
वह रोने लगी, जैसे किसी
ने उसका घाव छेड़ दिया।
उसने अपनी पूरी
कहानी मुझे
कही।
उसने
मुझे कहा कि
मैं बड़ी
पापिनी हूं; मुझसे
बड़ा अपराधी और
कोई भी नहीं; और अपने ही
पाप में दबी
मैं मर रही
हूं। पूछा कि
क्या तूने पाप
किया होगा? अभी तेरी
कोई इतनी उम्र
भी नहीं कि
बहुत पाप तू
कर सके। तू
मुझे कह। उसने
कहा कि मैं इस
आंदोलन में
सम्मिलित हुई
भूदान के, तो
विनोबा ने
मुझे
ब्रह्मचर्य
का व्रत दिलवा
दिया। और वह
मैं सम्हाल न
पाई। और एक
युवक के प्रेम
में पड़ गई। वह
युवक भी
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले
लिया था। तो
प्रेम हमें
पाप जैसा लगने
लगा, क्योंकि
प्रेम के कारण
ही तो
ब्रह्मचर्य
का व्रत टूट
रहा है।
आत्मग्लानि
भर गई। अपराध।
तो विनोबा के
सामने हम
दोनों ने
प्रार्थना की
कि आप ही कुछ
उपाय बताएं, हम बहुत
मुश्किल में
पड़ गए हैं। न
हम प्रेम छोड़
सकते हैं, और
न ही हमारी
तैयारी है कि
हम व्रत को
तोड़ दें, क्योंकि
वह तो जीवन भर
के लिए दुख हो
जाएगा। तो हम
मझधार में उलझ
गए हैं।
विनोबा
पहले तो नाराज
हुए,
क्योंकि
व्रत को तोड़ने
की बात ही
साधु पुरुषों
को बुरी लगती
है। लेकिन कोई
उपाय न देख कर
उन्होंने कहा,
फिर ऐसा करो,
तुम दोनों
विवाह कर लो।
युवक-युवती
प्रसन्न हुए।
उनका विवाह भी
हो गया। वे
विनोबा से
आशीर्वाद लेने
गए। उन्होंने
आशीर्वाद
दिया और
आशीर्वाद
देते समय कहा
कि अब तुम ऐसा
करो,
तुम्हारा
विवाह भी हो
गया, अब
तुम दोनों
आजीवन
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले लो।
भीड़ की करतल
ध्वनि! बड़ी
सभा थी।
विनोबा का प्रवाह
वाणी का, व्यक्तित्व
का प्रभाव! मन
तो उनके सकुचाए
कि यह तो फिर
वही झंझट खड़ी
हुई। लेकिन
अहंकार जागा।
और इतनी भीड़
के सामने कैसे
इनकार करो कि
हम
ब्रह्मचर्य
का व्रत लेने
को तैयार नहीं
हैं! अहंकार
ने सिर उठाया।
प्रेम को दबा
दिया। निसर्ग
को दबा दिया
क्षण के
प्रभाव में।
और इतने लोगों
की नजरें
अहंकार को
बढ़ाने में बड़ा
काम करती हैं।
फिर लोग क्या
कहेंगे कि विनोबा
ने कहा और हम
व्रत न ले सके!
दोनों ने व्रत
ले लिया।
अब और
भयंकर संघर्ष
शुरू हुआ। अब
पति-पत्नी हो
गए। अब तक तो
दूर-दूर थे; अब
एक मकान में
हो गए। और अब
एक चौबीस घंटे
निसर्ग से कलह
की स्थिति बन
गई। तो उस
युवती ने कहा
कि हम रात
सोते थे, तो
युवक दूसरे
कमरे में, मैं
दूसरे कमरे
में। वह ताला
लगा देता और
चाबी खिड़की से
मेरे कमरे में
फेंक देता कि
कहीं रात, किसी
अचेतन प्रवाह
में, किसी
वृत्ति के वेग
में, कहीं
व्रत न टूट
जाए।
सो
सकेंगे? शांत
हो सकेंगे? बेचैनी बढ़ती
गई। युवती को
हिस्टीरिया
के फिट आने
लगे। और युवक
इसको और न सह
सका, इस
अवस्था को, तो पदयात्रा
पर निकल गया।
जब मैं गया तो
पति मौजूद न
था। फिर भी वह
युवती यह नहीं
समझ पा रही है
कि भूल कहीं
विनोबा की है।
कहीं साधु
पुरुष भूल
करते हैं? वे
तो सदा
तुम्हें ऊंचा
ही उठाने में
लगे रहते हैं।
भूल है तो
तुम्हारी ही
है।
तो
आत्मग्लानि
से भरी जा रही
है। और अनेक
बार सोचती है
कि आत्महत्या
कर लूं, क्योंकि
कहीं व्रत न
टूट जाए; उससे
तो बेहतर खुद
ही मिट जाना
है। यह युवती
शांति को, ध्यान
को, समाधि
को उपलब्ध हो
सकेगी? इस
युवती के तो
जीवन की
साधारण
स्वाभाविकता
ही नष्ट हो
गई। अब तो इसके
लिए कोई द्वार
न रहा। यह
सिर्फ ग्लानि
से भरेगी, सड़ेगी।
इसमें आत्मा
का जन्म होगा?
इसका तो
शरीर भी मर
गया।
निसर्ग
के विपरीत ले
जाने वाले
दुश्मन हैं। और
अगर कहीं कोई
परमात्मा है
तो वह निसर्ग
के साथ बह कर
ही उपलब्ध
होता है, विपरीत
चल कर नहीं।
अगर कहीं कोई
ब्रह्मचर्य है
तो वासना की
समझ से ही
उसका फूल
खिलता है, वासना
से लड़ कर
नहीं।
आदर्शवादी
का अर्थ है जो
तुम्हें
तुम्हारी प्रकृति
के खिलाफ
संघर्ष में
उतरवा दे। एक
बार तुम फंस
गए तो उस जाल
के बाहर आना
करीब-करीब मुश्किल
है। क्योंकि
जाल ऐसा है कि
तुम्हें खुद
भी लगेगा कि
बात तो बिलकुल
ठीक है।
ब्रह्मचर्य
में क्या भूल
है?
ब्रह्मचर्य
से सुंदर और
क्या? वासना
से ज्यादा
दूषित और क्या?
वासना तो
गंदगी है और
ब्रह्मचर्य
तो फूल है! लेकिन
तुम्हें पता,
कमल कीचड़
में खिलता है।
माना कि वासना
कीचड़ है, लेकिन
कमल कीचड़ के
खिलाफ नहीं
खिल सकता। और
माना कि
ब्रह्मचर्य
कमल है, लेकिन
कमल कीचड़ से
ही उपजता है।
कमल कीचड़ का ही
रूपांतरण है।
कमल कीचड़ ही
है अपनी
परिपूर्ण नैसर्गिक
अवस्था में
खिल गया; कीचड़
में जो छिपा
था वह प्रकट
हो गया।
आदर्शवादी
कीचड़ और कमल
को लड़ाता
है। और जैसे
ही लड़ाई शुरू
हो जाती है, तुम कीचड़ ही
रह जाते हो।
कमल फिर पैदा
ही नहीं होगा।
क्योंकि कमल
तो कीचड़ का ही
प्रवाह है। कमल
तो कीचड़ से ही
आता है। कीचड़
और कमल के बीच
कोई दुश्मनी
नहीं है; बड़ी
गहन दोस्ती
है। वासना से
ही खिलता है
ब्रह्मचर्य
का कमल। करुणा
का कमल आता है
क्रोध से ही।
त्याग भोग का
सार है।
उपनिषद कहते
हैं: त्येन
त्यक्तेन
भुंजीथा।
उन्होंने ही
त्यागा जिन्होंने
भोगा। भोगोगे
ही नहीं, त्यागोगे कैसे? भोग
को ही न जाना, त्याग को
तुम जानोगे
कैसे? त्याग
तो बहुत दूर
है। भोग तो
मार्ग है; त्याग
मंजिल है।
मार्ग का ही
त्याग कर दिया;
मंजिल कैसे
मिलेगी?
तो
दुनिया में दो
तरह के लोग
हैं। और बड़ी
समझदारी की
जरूरत है
चुनाव करने की, अन्यथा
तुम किसी न
किसी जाल में
उलझ ही जाओगे।
एक तरह के लोग
हैं जिनको हम
कहें
आदर्शवादी, आइडियलिस्ट। उसमें
दुनिया में
जितने सौ प्रसिद्ध
लोग हैं, उनमें
से निन्यानबे
आ जाते हैं।
निन्यानबे महापुरुष
आदर्शवादी
हैं।
उन्होंने ही
तो नरक बना
दिया पृथ्वी
को। उनके ही
पदचिह्नों पर
चल कर तो तुम
भटके हो।
लेकिन गणित
ऐसा है कि
तुम्हें यह
कभी समझ में न
आएगा कि
महात्मा ने डुबाया; तुम्हें यही
समझ में आएगा
कि तुम खुद ही
डूबे, क्योंकि
तुमने
महात्मा की
मानी न।
महात्मा की
मान कर ही
डूबे हो तुम।
लेकिन भीतर
तर्क यही कहेगा
कि अगर मान
लेते और
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
जाते तो क्यों
डूबते? डूबे
इसलिए कि तुम
माने नहीं!
अब यह
बड़ा जटिल जाल
है। जटिल
इसलिए है कि तुम्हारा
मन कहेगा कि
जो महात्मा ने
कहा था वह कर
लेते और फिर न
पहुंचते तब
महात्मा का
दोष था। तुम
पूरा किए ही
नहीं तो
पहुंचोगे
कैसे? और
महात्मा ने जो
कहा था वह ऐसा
था कि वह पूरा
किया ही नहीं
जा सकता।
इसलिए जाल
भयंकर है।
महात्मा
ने कहा था, प्रकृति
से लड़ो।
तुम प्रकृति
के पुतले हो; लड़ोगे कैसे? रोआं-रोआं
प्रकृति का है,
धड़कन-धड़कन
प्रकृति की है,
श्वास-श्वास
प्रकृति की है;
जिस ऊर्जा
से तुम लड़ने
चले हो, वह
भी प्रकृति की
है। प्रकृति
में ही छिपा
है परमात्मा।
परमात्मा कोई
प्रकृति का
शत्रु नहीं है;
प्रकृति
में ही छिपा है,
प्रकृति का
ही गहनतम
रूप है। अगर
प्रकृति
मंदिर है तो
परमात्मा विराजमान
प्रतिमा है उस
मंदिर में ही।
असंभव
को जब तुम
करने में लग
जाओगे तो एक
कठिन जाल पैदा
होगा। वह कठिन
जाल यह है कि
असंभव पूरा न
होगा, और जब
पूरा न होगा
तब तुम कैसे
कह सकोगे कि
जो बताया गया
था वह गलत था।
तब तुम्हें
ऐसा लगेगा कि
पूरा न कर
पाया, यह
मेरी कमजोरी
है। तब तुम
आत्मग्लानि
से भरोगे।
तब तुम निंदा
से भरोगे।
तब तुम स्वयं
को घृणा करने
लगोगे; स्वयं
को ऐसा देखोगे
जैसे पाप की
खान। बड़े मजे
की बात है, महात्मा
तुम्हें
आत्मा तो नहीं
दे पाते, तुम्हारी
आत्मा को
कलुषित कर
देते हैं।
मैं
उन्हें
महात्मा नहीं
कहता। मेरे तो
महात्मा की
परिभाषा यही
है कि जिसके
पास तुम्हें आत्मा
उपलब्ध हो।
लाओत्से मेरे
अर्थों में महात्मा
है। सौ में
कभी एक
महापुरुष
लाओत्से जैसा
होता है जो
प्रकृति को
स्वीकार करता
है,
और उसी गहन
स्वीकार में
से सूत्र को
खोज लेता है
जिसके सहारे
तुम धीरे-धीरे
बिना किसी
असंभव प्रक्रिया
में उतरे
मंजिल को
उपलब्ध हो
जाते हो। और
गुरु तो वही
है जो तुम्हें
ऐसा मार्ग दे
दे जो सुगमता
और सहजता से
जीवन के परम
निष्कर्ष को निकट
ले आए।
तुम
बहुत चकित
होओगे, क्योंकि
लाओत्से जो
आदर्श बता रहा
है, वे
तुम्हें
आदर्श जैसे ही
न लगेंगे।
लाओत्से ब्रह्मचर्य
की बात ही
नहीं करता, क्योंकि
लाओत्से
जानता है कि
अगर तुमने
सहजता सीख ली
और सहजता से
कामवासना को
जी लिया तो ब्रह्मचर्य
अपने से पैदा
हो जाएगा।
उसकी चर्चा की
कोई जरूरत नहीं
है।
ब्रह्मचर्य
की चर्चा तो
वहां चलती है
जहां वह पैदा
नहीं हो पाता।
वहां
ब्रह्मचर्य का
बड़ा गुणगान
चलता है, बड़ी
स्तुति चलती
है। वह स्तुति
इसीलिए चल रही
है। वह धुआं
है, जिसके
भीतर दबी हुई
वासना पड़ी है।
और जीवन भर लोग
संघर्ष करते
हैं, कुछ
भी तो उपलब्ध
नहीं कर पाते।
फिर भी तुम
नहीं जागते।
महात्मा
गांधी ने जीवन
भर
ब्रह्मचर्य
के लिए चेष्टा
की;
अंत तक
उपलब्ध नहीं
कर पाए। फिर
भी तुम नहीं जागते।
और महात्मा
गांधी नहीं कर
पाए तो तुम सोचते
हो, तुम कर
लोगे? तुम्हें
यह खयाल ही
नहीं आता कि
महात्मा गांधी
जितना श्रम
तुम कर सकोगे?
अथक श्रम
किया; उनके
श्रम में कोई
जरा भी कमी
नहीं है।
लेकिन श्रम
करने से ही
थोड़े मंजिल
पास आ जाती है;
दिशा भी तो
ठीक होनी
चाहिए। तुम
कितना ही दौड़ो,
दौड़ने से
थोड़े ही मंजिल
पर पहुंच
जाओगे। कभी-कभी
धीमे चलने
वाला भी मंजिल
पहुंच सकता है,
अगर दिशा
ठीक हो; और
दौड़ने वाला
भटक जाए, अगर
दिशा गलत हो।
सच तो यह है, दिशा गलत हो
तब तो धीमे ही
चलना ठीक है; दौड़ने से तो
बहुत दूर निकल
जाओगे। दिशा
गलत हो तब तो
बैठे रहना ही
बेहतर है।
जल्दी मत करना
दौड़ने की, क्योंकि
नहीं तो वापस
लौटने का फिर
श्रम उठाना
पड़ेगा।
महात्मा
गांधी ने बड़ा
श्रम किया।
अगर उनके श्रम
पर ध्यान दो
तो वह चेष्टा
अनूठी है, बहुत
कम लोगों ने
की है। लेकिन
उस श्रम के
कारण कुछ
उपलब्ध नहीं
हुआ। गांधी
आदमी ईमानदार
थे; तुम्हारे
हजारों
महात्मा उतने
ईमानदार भी नहीं
हैं। क्योंकि
गांधी को जो
उपलब्ध नहीं
हुआ, उन्होंने
स्वीकार भी
किया कि
उपलब्ध नहीं
हुआ। तुम्हारे
हजारों
महात्मा
स्वीकार भी
नहीं करते। वे
तो कहे चले
जाते हैं कि
उन्हें
उपलब्ध हो गया
जो उन्हें
उपलब्ध नहीं
हुआ है। वे
उसकी घोषणा
करते रहते हैं
कि उन्होंने
पा ही लिया जो
उन्होंने
बिलकुल नहीं
पाया है, जिसकी
गंध भी उन्हें
नहीं मिली है।
तो गांधी
ईमानदार हैं,
लेकिन गलत
हैं। कोई
ईमानदारी से
ही तो ठीक नहीं
हो जाता।
ईमानदारी ठीक
है अपने आप
में। इसलिए
मुझे आशा है
कि अगले जन्म
में गांधी
रास्ते को पकड़
लेंगे, क्योंकि
ईमानदारी का
एक सूत्र उनके
हाथ में है।
तुम्हारे
महात्माओं को
तो अनेक-अनेक
जन्मों तक
भटकना पड़ेगा।
उनके पास तो
ईमानदारी का
सूत्र भी नहीं
है।
गांधी
ने स्वीकार
किया है कि
सत्तर साल की
उम्र में भी
उनको
स्वप्नदोष हो
जाता है। हो
ही जाएगा।
इसमें कसूर
वासना का नहीं
है;
इसमें कसूर
गांधी का
वासना के
खिलाफ लड़ने का
है। तुम जिस
चीज से लड़ोगे
वही तुम्हारे
सपनों को घेर
लेगी। तुम जिस
चीज से दिन भर जूझोगे, तो दिन भर तो
तुम जूझ सकते
हो, क्योंकि
चेतन मन काम
करता है।
लेकिन रात
चेतन मन सो
जाएगा; जिसने
व्रत लिया, संकल्प किया,
वह मन तो सो
जाएगा। रात तो
दूसरा मन
जगेगा जिसे
तुम्हारे
व्रत का कोई
पता ही नहीं
है। रात तो
नैसर्गिक मन
जगेगा।
सांस्कृतिक, सामाजिक, सभ्यता का
दिया हुआ मन
तो थक गया दिन
भर में, वह
सो जाएगा। वह
तो बहुत छोटा
सा है, दसवां
हिस्सा है
तुम्हारे मन
का; वह
जल्दी थक जाता
है, दिन भर
के काम में, व्यवसाय में
रुक जाता है।
रात तो तुम्हारा
जो नौ गुना
बड़ा मन है
प्रकृति का, वह जागेगा।
उसको पता ही
नहीं कि तुम
महात्मा हो; उसको पता ही
नहीं कि तुमने
ब्रह्मचर्य
का संकल्प ले
लिया है; उसने
यह खबर ही
नहीं सुनी।
तुम्हारे
चेतन मन और
अचेतन मन के
बीच बड़ा फासला
है; खबर तक
नहीं पहुंचती,
संवाद का
साधन भी नहीं
है। और
तुम्हें पता
भी नहीं है कि
तुम कैसे खबर
पहुंचाओ।
लड़ाई भी कोई
संवाद की व्यवस्था
है? खबर
पहुंचाने का
मतलब होता है
कि चेतन और
अचेतन करीब
आएं। लड़ाई से
तो दूरी बढ़ती
जाती है। जिससे
भी तुम लड़ोगे
उससे दूरी बढ़
जाती है।
दुश्मन से
कहीं निकटता
हो सकती है?
तो
गांधी के
चेतन-अचेतन मन
में जितना
फासला है उतना
तुम्हारे
चेतन-अचेतन मन
में भी नहीं
है;
भारी फासला
है! उन्होंने
तो अचेतन को
बिलकुल दूर
फेंक दिया है
जैसे उससे कुछ
लेना-देना
नहीं है। उससे
तो घबड़ाहट
है, दुश्मनी
है; उसी से
तो लड़ाई है; उसी के कारण
तो बार-बार
कामवासना मन
को पकड़ती
है। रात चेतन
मन तो सो गया, अचेतन जागा।
अब इस अचेतन
को न महात्मा
होने का पता
है, न
सभ्यता-संस्कृति
का कोई पता है;
यह तो
नैसर्गिक मन
है। यह तो
वैसा ही है
जैसा पशुओं का
है, साधारण
आदमियों का है,
पक्षियों
का है। इस
नैसर्गिक मन
की वासना तो
अछूती, अदम्य
है; वह
उठेगी, सपने
बनाएगी। जिसे
तुम जीवन में
जागते में नहीं
भोग पाए, अचेतन
मन उसे निद्रा
में सपने बना
कर भोग लेगा।
स्वप्नदोष
स्वाभाविक
है।
तुम्हारे
सौ में से
निन्यानबे
महात्मा स्वप्नदोष
से पीड़ित
होंगे। लेकिन
कौन कहे? और कह
कर कौन झंझट
ले? वे
राजी भी नहीं
होंगे। लेकिन
गांधी
ईमानदार हैं;
उन्होंने
स्वीकार कर
लिया। इस
स्वीकृति में ही
उनके अगले
जन्मों की
संभावना है कि
वे रूपांतरित
हो जाएं।
लेकिन गांधी
के पीछे बहुत
से अनुयायी
पैदा हो
जाएंगे। ये
अनुयायी बड़ी
मुश्किल में
पड़ेंगे, और
ये अनुयायी
ऐसी स्थिति
में आ जाएंगे
जिसको कि
करीब-करीब
विक्षिप्तता
कहा जा सकता
है।
अब
गांधी कहते
हैं,
अस्वाद
व्रत है!
स्वाद मत लो!
तुम्हें
भी बात जमती
है कि क्या
भोजन में स्वाद
ले रहे हो? रखा
क्या है भोजन
में? निंदा
के स्वर बड़ा
तर्क रखते हैं
अपने पीछे, क्या रखा है
भोजन में? कोई
भी निंदा कर
सकता है भोजन
की। और
तुम्हें भी
निंदा जमती है,
क्योंकि
तुम कभी
ज्यादा खा
जाते हो, कभी
पेट में तकलीफ
होती है, वजन
बढ़ता जाता है,
चर्बी बढ़ती
जाती है, बीमारियां
आती हैं।
तुम्हें भी
लगता है कि ज्यादा
भोजन करके तुम
दुख ही तो पा
रहे हो। और इतनी
बार तो भोजन
कर लिया, कुछ
मिला तो है
नहीं। इस
स्वाद में रखा
भी क्या है? जरा सा जीभ
पर स्पर्श हुआ,
स्वाद खो
गया। और
जिंदगी भर तो
यही दोहरा रहे
हो। अस्वाद
व्रत है!
स्वाद मत लो!
बिना स्वाद के
भोजन करो!
अब बड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे। यह
होगा कैसे? बिना
स्वाद के भोजन
कैसे करोगे? और जितना
भोजन बिना
स्वाद के करने
की कोशिश करोगे,
तुम पाओगे,
स्वाद की
आकांक्षा
उतनी ही प्रगाढ़
होती जाती है।
गांधी
अपने भोजन को
बिगाड़ने के
लिए नीम की
चटनी साथ में
रख लेते थे।
अब नीम
की भी कोई
चटनी होती है? लेकिन
अस्वाद जिसने
व्रत ले लिया,
उसके काम की
है। लेकिन नीम
की चटनी भी
स्वाद है; कड़वा
स्वाद है।
उससे तुम
स्वाद को मार
सकते हो, अस्वाद
को उपलब्ध
नहीं हो सकते।
वह तो तरकीब छिपाने
की है, वह
तो भोजन को
बिगाड़ने की
है। ध्यान
रखें, कुस्वाद
अस्वाद नहीं
है, वह भी
स्वाद है।
लेकिन अगर नीम
की चटनी खा ली भोजन
के साथ
बार-बार तो
भोजन का स्वाद
बिगड़ जाएगा; तुम कैसे
अस्वाद को
उपलब्ध हो
जाओगे?
लेकिन
अनुयायी तो
मिल जाते हैं
इन बातों के
लिए भी। और
फिर एक बड़े
महिमाशाली
व्यक्तित्व
का प्रभाव
होता है। लुई फिशर
अमरीका से
गांधी को
मिलने आया। तो
वे तो मेहमानों
के भी भोजन
में चटनी रखवा
देते थे। लुई फिशर साथ
ही बैठा भोजन
करने।
प्रसिद्ध
विचारक, लेखक,
और गांधी पर
उसने बाद में
बड़ी
महत्वपूर्ण
किताब लिखी।
तो गांधी ने
चटनी रखवाई; वह उनका खास,
सबसे
ज्यादा
मनचीता
हिस्सा था
भोजन का। क्योंकि
अस्वाद सधे
कैसे! जीभ को
खराब कर लो।
क्या जरूरत है
रोज-रोज नीम
की चटनी खाने
की! जीभ पर तेजाब
लगवा दो, जल
जाए। स्वाद के
जो छोटे-छोटे
अणु हैं जीभ
पर, कोष्ठ
हैं, जिनसे
स्वाद आता है,
उनको जला
दो। वह भी
लोगों ने किया
है। सूरदास ने
अपनी आंखें फोड़ ली थीं,
सिर्फ
इसलिए ताकि
सुंदर
स्त्रियां
दिखाई न पड़ें।
क्योंकि
सुंदर
स्त्रियां
दिखाई पड़ती
हैं तो वासना
जगती है।
लुई फिशर
को भी चटनी
रखवा दी। लुई फिशर ने
गांधी को चटनी
खाते देख कर
चखा। उसे क्या
पता कि यह नीम
है! वह तो कड़वा
जहर थी। उसका
तो सारा मुंह
खराब हो गया।
लेकिन अब
गांधी से कैसे
कहे?
यही तकलीफ
है। और गांधी बड़े
रस से ले रहे
हैं चटनी को; एक कौर
दूसरी चीज का
लेते हैं तो
चटनी जरूर उसमें
मिला लेते
हैं। तो लुई फिशर ने
सोचा कि होगा
कोई भारतीय
रिवाज, कोई
रहस्यपूर्ण
बात होगी; जब
इतना बड़ा
महात्मा करता
है, तो कुछ
रहस्य होगा!
झंझट में
बोलना ठीक भी
नहीं, कुछ
कहना ठीक भी नहीं।
और पश्चिम के
लोग इस अर्थ
में थोड़े सोच-विचारपूर्ण
हैं कि दूसरे
की संस्कृति
का खयाल रखो; इसका कोई
रहस्य होगा, धार्मिक
अर्थ होगा; गांधी करते
हैं तो
निष्प्रयोजन
तो नहीं करेंगे।
पर उसने देखा
कि अगर मैं भी
इस चटनी को
मिला कर खाऊं
तो सारा भोजन
ही खराब हो जाएगा
और यह तो वमन
की हालत हो
जाएगी। तो
उसने सोचा, बेहतर है इस
चटनी को
एकबारगी
इकट्ठा गटक
जाओ, एक ही
दफे झंझट होगी,
और फिर
शांति से भोजन
कर लो। तो वह
चटनी को गटक गया।
गांधी ने कहा
कि और चटनी ले
आओ; लुई फिशर
को बहुत पसंद
पड़ी मालूम
होता है।
शिष्य
ऐसे ही फंसे हैं!
शिष्य पूरी की
पूरी चटनी
इकट्ठी गटक
जाते हैं। वे
अपना बचाव खोज
रहे हैं।
लेकिन बचाव है
नहीं। लुई फिशर
जैसे
बुद्धिमान
आदमी में यह
कहने का साहस
नहीं है कि
मैं यह चटनी
नहीं खाऊंगा।
बड़े लोगों का
प्रभाव एक तरह
की गुलामी
मालूम पड़ता
है। जैसे तुम
गुलाम हो!
जैसे
तुम्हारे पास
अपनी कोई
अंतस-चेतना न
रही,
कि
प्रभावशाली
लोग जो करते
हैं वह ठीक ही
करते हैं। और
अक्सर
प्रभावशाली
लोग गलत करते
हैं, क्योंकि
उनके सारे
प्रभाव की
गहराई में तो
अहंकार होता
है। उनके
प्रभाव का
कारण ही यही
है कि
उन्होंने
अहंकार को खूब
सजाया है; कभी-कभी
प्रकट हो जाता
है। लेकिन
इतिहास उसको
भी भूल जाएगा।
गांधी
के एक शिष्य
मेरे पास थे।
उनका नाम तुमने
सुना
होगा--स्वामी
आनंद। एक रात
हम साथ ही सोए।
तो उन्होंने
मुझे कहा कि
शुरू-शुरू में
जब गांधी भारत
आए अफ्रीका से
तो वे उनका
प्रेस रिपोर्टर
का काम करते
थे--आनंद
स्वामी। तो
गांधी ने एक
व्याख्यान
दिया जिसमें
उन्होंने बड़े
भद्दे, अभद्र
शब्दों का
उपयोग किया
अंग्रेजों के
खिलाफ, जैसी
कि लोगों को
गांधी से
अपेक्षा न थी।
आनंद स्वामी
ने जो रिपोर्ट
बनाई उसमें वे
भद्दे शब्द, गालियों
जैसे शब्द छोड़
दिए। सोचा कि
उत्तेजना में कह
गए हैं, बाद
में खुद भी पछताएंगे।
गांधी
ने दूसरे दिन
जब रिपोर्ट
पढ़ी,
आनंद
स्वामी को
बुलाया और
बहुत पीठ
थपथपाई और कहा,
तुमने ठीक
किया, ऐसा
ही करना
चाहिए।
क्योंकि
उत्तेजना के
क्षण में जो
निकल गया उसको
जनता तक
पहुंचाने की कोई
जरूरत नहीं
है। तुम जैसा
ही रिपोर्टर
होना चाहिए!
आनंद
स्वामी बहुत
प्रभावित और
प्रसन्न। वे मुझे
इसीलिए सुना
रहे थे कि
गांधी ने
कितनी मेरी
प्रशंसा की।
और मैंने उनसे
कहा कि अगर
मैं गांधी की
जगह होता तो
उसी दिन
तुम्हारा-मेरा
संबंध समाप्त
था,
क्योंकि
तुमने झूठ
फैलाया! गांधी
ने अगर अपशब्द
उपयोग किए थे
तो अपशब्द
रिपोर्ट में
होने चाहिए।
तुम भी बेईमान
हो और
तुम्हारे
गांधी भी बेईमान
हैं जो
उन्होंने
तुम्हारी पीठ
ठोंकी और कहा
कि तुमने ठीक
किया। गांधी
को तो लगा कि
ठीक किया, क्योंकि
उत्तेजना के
क्षण में, जब
अहंकार पहरे
पर नहीं होता,
चीजें निकल
जाती हैं। मगर
वे वास्तविक
हैं, अन्यथा
निकलेंगी
कहां से? वे
भीतर हैं, इसलिए
तो बाहर आ
जाती हैं। अनगार्डेड
मोमेंट, पहरे
पर नहीं थे
गांधी उस वक्त,
बोलने में
बह गए। मगर वह
असलियत है। न
होता भीतर तो
निकलता कैसे?
तुमने झूठ
का प्रचार
किया। मैंने
कहा कि तुम ऐसा
सोचो कि गांधी
ने गालियां न
दी होतीं और
तुमने जोड़ दी होतीं
रिपोर्ट में
तो गांधी क्या
कहते? क्या
तुम्हारी पीठ
ठोंकते? वे
तुम्हें अलग
करते उसी
वक्त। वे कहते,
तुमने यह
झूठ कैसे जोड़ा?
गालियां
न दी जाएं और
जोड़ दी जाएं
तो झूठ; और
गालियां दी
जाएं और निकाल
ली जाएं तो
झूठ नहीं? वह
निषेधात्मक
झूठ। तुम
गांधी की
प्रतिमा को सीधा-सीधा
क्यों नहीं
रखते? फिर
बाद में
इतिहास में
लोग लिखेंगे
कि गांधी ने
अंग्रेजों के
खिलाफ कभी एक
अपशब्द का
उपयोग नहीं
किया! और
गांधी की
प्रतिमा झूठी
होगी। फिर
उससे लोग
अनुप्राणित
होते हैं, प्रभावित
होते हैं।
गांधी
कहते थे कि
मेरा राजनीति
में कोई बड़ा
लगाव नहीं है।
लेकिन सुभाष
के खिलाफ
उन्होंने पट्टाभि
सीतारामैया
को खड़ा किया
चुनाव में।
फिर एक क्षण
में भूल हो गई
उनसे, क्योंकि
सुभाष जीत गए
और पट्टाभि
हार गए, तो
गांधी के मुंह
से निकल गया
कि यह मेरी
हार है। पट्टाभि
सीतारामैया
की हार मेरी
हार है तो पट्टाभि
सीतारामैया
की जीत गांधी
की जीत होती।
निष्पक्ष
नहीं हैं!
सुभाष को
हराने के लिए
पूरी-पूरी
योजना थी, कुशल
राजनीति थी।
लेकिन ये सब
तथ्य
धीरे-धीरे हटा
दिए जाते हैं।
गांधी
के अंतिम जीवन
में उनको खुद
ही शक आ गया कि
जीवन भर का
ब्रह्मचर्य
कुछ सार नहीं
लाया, तो जीवन
के अंत में
तंत्र की तरफ
झुके। जिस तंत्र
की मैं बात कर
रहा हूं उसको
जीवन के अंत
में गांधी
झुके। मुझे
गालियां पड़
रही हैं, पड़ती
रहेंगी; लेकिन
गांधी का पूरा
जीवन कहता है
कि आखिर में
उनको याद आई
कि वह जीवन भर
उन्होंने
व्यर्थ
गंवाया। यह
ब्रह्मचर्य
ऐसे उपलब्ध
नहीं होता!
ब्रह्मचर्य
उपलब्ध होने
के रास्ते और
हैं! तब वे
तंत्र की तरफ
झुके। लेकिन शिष्य
घबड़ाए, क्योंकि
शिष्यों ने तो
पूरी जिंदगी
उनका पीछा
ब्रह्मचर्य
के कारण किया
था कि वे महान
ब्रह्मचारी
हैं। और
उन्होंने भी
ब्रह्मचर्य
के व्रत लिए
थे; अब यह
क्या होने
लगा!
तो तुम
चकित होओगे कि
गांधी के जीवन
का वह हिस्सा
शिष्यों ने
छोड़ ही दिया, उसकी
वे बात ही
नहीं करते।
गांधी के जीवन
लिखे जाते हैं,
किताबें
छापी जाती हैं;
वह हिस्सा
छोड़ दिया जाता
है। तो एक
झूठी प्रतिमा
बनाई जाती है।
जब कि जीवन भर
के अनुभव के
बाद गांधी का
यह खयाल कि
तंत्र में
शायद कोई
रास्ता हो
ब्रह्मचर्य
को पाने का, इस बात की
घोषणा है कि
संघर्ष का
रास्ता कहीं भी
नहीं ले जाता।
गांधी जैसे
महापुरुष को
भी नहीं ले
जाता, तुम्हें
कहां ले
जाएगा!
लेकिन
गांधी के
शिष्यों ने गांधी
की गर्दन पकड़
ली जब गांधी
ने तंत्र के
प्रयोग किए।
शिष्य भी छोड़
कर जाने लगे।
शिष्यों में
भी बात फैल गई
कि यह आदमी
बिगड़ गया है, आखिरी
में पतन हो
गया। वे ही
शिष्य अब
बड़े-बड़े गांधीवादी
हैं
जिन्होंने
अंत में गांधी
को त्याग
दिया। लेकिन
फिर सत्ता आई
गांधी के शिष्यों
के हाथ में।
जो छोड़ कर चले
गए थे वे वापस
लौट आए। अब वे
बड़े-बड़े गांधीवादी
हैं। लेकिन वे
सब गांधी के
अंतिम क्षण
में विरोध में
थे, क्योंकि
गांधी एक ऐसा
काम कर रहे थे
जो उनकी समझ
के बिलकुल
बाहर था।
गांधी एक नग्न
युवती के साथ
एक साल तक
बिस्तर पर
साथ-साथ सोते
रहे। यह उनके
लिए घबड़ाने
वाली बात थी।
मगर वह
प्रयोग भी
गांधी का बहुत
गहरा नहीं जा सका, क्योंकि
जीवन भर का
संस्कार और
जीवन भर की
धारणा। तो
उन्होंने उस
प्रयोग को भी
अपनी ही परिभाषा
दे दी; वह
तंत्र का
प्रयोग न रहा।
लिया
उन्होंने तंत्र
से, ध्यान
उनका तंत्र पर
गया; लेकिन
परिभाषा
उन्होंने
अपनी दे दी।
ऐसे ही तो
सत्य विकृत
होते हैं।
उन्होंने कहा
कि मैं यह
तंत्र का
प्रयोग इसलिए
नहीं कर रहा
हूं कि मुझे
इससे कुछ पाना
है; सिर्फ
एक कसौटी! मैं
जांचना चाहता
हूं कि मेरे
भीतर
ब्रह्मचर्य
अभी तक गहरे
गया है या
नहीं। अगर नग्न
युवती मेरे
पास सोई हो
रात भर तो
मेरे मन में
वासना उठती है
या नहीं, इसकी
मैं जांच कर
रहा हूं।
अगर
वासना न उठती
हो तो जांच
करनी पड़ेगी? जांच
की जरूरत है? तुम्हारे
सिर में जब
दर्द नहीं
होता तो क्या
तुम डाक्टर के
पास जाते हो
कि जरा जांच
करके बताओ, मेरे सिर
में दर्द है
या नहीं? जब
नहीं होता तब
तुम जानते हो;
जब होता है
तब भी तुम
जानते हो।
सारी दुनिया भी
कहे कि
तुम्हारे सिर
में दर्द नहीं
है और तुम्हें
हो रहा है, तो
क्या फर्क
पड़ेगा उस
प्रमाण से? तुम्हें हो
रहा है, सारी
दुनिया कहती
रहे कि नहीं
हो रहा है, इससे
क्या फर्क पड़
रहा है? कौन
जान सकता है
तुम्हारे सिर
के दर्द को
सिवाय
तुम्हारे? कोई
भी नहीं जान
सकता।
तुम्हारा सिर,
तुम्हारा
दर्द! और क्या
इसकी कोई
परीक्षा करनी
पड़ती है, जांच
करनी पड़ती है
कि हो रहा है
कि नहीं हो
रहा? जब
वासना
तुम्हारे मन
में होती है
तो क्या पूछना
पड़ता है किसी
से कि वासना
है या नहीं?
किया
तो तंत्र का
प्रयोग, लेकिन
व्याख्या
अपनी करके
उसको भी खराब
कर लिया।
गांधी
ब्रह्मचर्य
के संबंध में
असफल मरे।
लेकिन इसमें
गांधी का कोई
कसूर नहीं है।
गांधी ने
मेहनत पूरी की;
रास्ता गलत
था। गांधी का
श्रम पूजा
योग्य है, लेकिन
दिशा भ्रांत
थी। जाना था
पूरब, चल
पड़े पश्चिम।
दौड़े बहुत, थका डाला; कुछ उठा न
रखा, सब
किया जो करना
था; लेकिन
दिशा ही गलत
थी।
लाओत्से
निसर्ग को
स्वीकार करके
बढ़ता है। वह तुमसे
यह नहीं कहता
कि तुम्हें
कोई आदर्श पुरुष
होना है; वह
तुमसे कहता है
कि तुम साधारण
हो जाओ, बस
काफी है।
असाधारण नहीं,
तुम बस
साधारण हो
जाओ। तुम इतने
साधारण हो जाओ
कि न किसी को
तुम्हारी खबर
रहे, न
तुम्हें किसी
की खबर रहे।
तुम जीवन में
ऐसे साधारण हो
जाओ कि
तुम्हारे
जीवन में कोई
कलह और संघर्ष
न रहे। प्यास
लगे तो पानी
पीओ। और जब प्यास
लगे तो क्या
जरूरत है
अस्वाद से
पानी पीने की?
पूरे स्वाद
से पीओ! लेकिन
स्वाद को
परमात्मा के
प्रति
धन्यवाद बना
लो, अहोभाव
बना लो। भोजन
ही करना है तो
स्वाद से करो!
ध्यान
रहे,
धर्मगुरु
लोगों को
समझाते हैं कि
भोजन में स्वाद
लेना पशुओं
जैसा है। वे
बिलकुल गलत कहते
हैं। पशु तो
भोजन में
स्वाद लेते ही
नहीं, सिर्फ
मनुष्य लेता
है। वह मनुष्य
की गरिमा है और
ऊंचाई है। पशु
तो भोजन में
स्वाद लेते ही
नहीं। पशुओं
का भोजन तो
बिलकुल
यांत्रिक है।
तुम एक भैंस
को छोड़ दो।
उसका बंधा हुई
घास है, वह
वही घास
चुन-चुन कर खा
लेगी, दूसरे
घास को छोड़
देगी। भैंस
स्वाद लेती है?
कभी भूल कर
मत सोचना। कोई
जानवर भोजन
में स्वाद
नहीं लेता।
भोजन करता है,
बिलकुल
अस्वाद से
करता है; स्वाद
का कोई सवाल
ही नहीं है।
इसलिए तो
जानवर एक ही
भोजन को सतत
करते रहते हैं,
कभी
परिवर्तन
नहीं करते।
स्वाद जहां भी
होगा वहां
परिवर्तन
होगा।
क्योंकि एक ही
स्वाद अगर तुम
रोज-रोज लेते
रहोगे तो ऊब
जाओगे। भैंस कभी
नहीं ऊबती; साफ है कि
उसे कोई स्वाद
नहीं है। तुम
एक ही सब्जी
रोज खाकर
देखो--आज
अच्छी लगेगी,
कल साधारण
हो जाएगी, परसों
ऊब आने लगेगी,
चौथे दिन
तुम थाली पटक
दोगे उठा कर
पत्नी के सिर
पर कि बहुत हो
गया।
स्वाद
का अर्थ ही
होता है
परिवर्तन।
पशु परिवर्तन
नहीं करते, इसलिए
जाहिर है कि
उनको स्वाद का
कोई सवाल नहीं
है। भोजन! तो
पशु तो अस्वाद
व्रत को
उपलब्ध हैं; सिर्फ आदमी
के जीवन में
स्वाद उठा है।
तुमने
कभी देखा
पशुओं को
संभोग करते? उनको
कोई रस नहीं
आता। दो पशुओं
को तुम कभी भी संभोग
करते देखो, तुम उनमें
कोई रस न
पाओगे। वे
संभोग
यंत्रवत करते
हैं--जैसे कोई
मजबूरी है, करना पड़ रहा
है। और संभोग
करने के बाद
तुम उनके
चेहरे पर कोई
शांति न पाओगे;
न कोई आनंद
का भाव पाओगे।
संभोग कर लिया,
निपट गए, चल पड़े
अपने-अपने
रास्ते पर।
सिर्फ
मनुष्य संभोग
में स्वाद ले
सकता है; भोजन
में स्वाद ले
सकता है; गंध
में स्वाद ले
सकता है।
पशुओं को गंध
तो आती है
मनुष्य से
ज्यादा, लेकिन
गंध में स्वाद
नहीं है।
तुमने किसी
पक्षी को फूल
को खोंसे
हुए देखा है? कि किसी
भैंस को कि
फूल को पास
लेकर गंध ले
रही है? पशुओं
की गंध की
शक्ति तीव्र
है, वे मील
भर दूर से भी
गंध ले लेते
हैं, लेकिन
गंध में कोई
स्वाद नहीं
है। पशु
बिलकुल अस्वाद
में जीते हैं।
मनुष्य
के जीवन में
स्वाद पहली
दफा उठता है।
वह चेतना की
ऊपर की सीढ़ी
पर संभव है; नीचे
की सीढ़ी पर
संभव नहीं है।
इसलिए अगर तुम
अस्वाद साधोगे
तो पशुओं जैसे
हो सकते हो, परमात्मा
जैसे नहीं।
परमात्मा
जैसे तो तुम तभी
हो पाओगे, जब
तुम्हारे
छोटे-छोटे
स्वाद में
तुम्हें परम
स्वाद आने
लगेगा। तब तो
उपनिषद के
ऋषियों ने कहा,
अन्नं ब्रह्म!
निश्चित ही, ये अलग तरह
के लोग हैं
गांधी से।
गांधी कहते
हैं, नीम
ब्रह्म! और ये
उपनिषद के ऋषि
कहते हैं, अन्नं
ब्रह्म! कहते
हैं, स्वाद!
इतना स्वाद कि
साधारण अन्न
में से ब्रह्म
प्रकट होने
लगे! पी रहे
हैं जल, लेकिन
इतनी
परितृप्ति कि
कंठ पर जल का
स्पर्श ब्रह्म
का स्पर्श हो
जाए! हवा का एक
झोंका फूल की
गंध ले आया
है। नाक सिकोड़
कर महात्मा बन
कर मत बैठ
जाना, क्योंकि
उस गंध में
परमात्मा
तुम्हारी तरफ
आया है। वह
हवा का झोंका
परमात्मा को
तुम्हारी तरफ
बहा लाया है।
तुम महात्मा
बन कर अकड़ कर
मत बैठ जाना; नाक बंद मत
कर
लेना--अस्वाद।
नहीं, लाओत्से
तुम्हें
आदर्श नहीं
बनाना चाहता,
तुम्हें
नैसर्गिक
बनाना चाहता
है। सौ में एक ही
महापुरुष
तुम्हें
नैसर्गिक
बनाना चाहता है।
क्यों? ऐसा
क्यों हुआ? क्योंकि तुम
नैसर्गिक
बनना नहीं
चाहते। नैसर्गिक
बनने में
तुम्हें कोई
मजा ही नहीं
है, क्योंकि
न कोई संघर्ष
है वहां, न
अहंकार की
तृप्ति है।
इसलिए
तुम्हारे सौ
महात्माओं
में
निन्यानबे वे
हैं जो
तुम्हें अहंकार
की तृप्ति
देना चाहते
हैं--संघर्ष
का मजा, चुनौती,
लड़ाई, जीतने
का मजा; न
सही जीता
दूसरे को, तो
खुद ही को जीतो!
महात्माओं के
वचन हैं कि
दूसरे को क्या
जीतना; असली
जीत तो खुद को
जीतना है। मगर
जीतने का रस
कायम है!
लाओत्से
कहता है, जीतना
ही क्या? न
दूसरे को, न
अपने को।
जीतने की कोई
जरूरत ही नहीं,
क्योंकि
जीतने का मतलब
हिंसा, जीतने
का मतलब
संघर्ष, द्वंद्व,
कलह, तनाव,
बेचैनी, संताप।
दूसरे को जीता
तो, अपने
को जीता तो, लड़ाई तो
रहेगी ही।
लाओत्से कहता
है, लड़ो ही मत; स्वीकार
करो।
जो-जो
व्यक्ति
तुम्हें लड़ने
की सिखाते हैं
उन-उनका तुम
पर प्रभाव
पड़ता है, क्योंकि
तुम लड़ने को
तत्पर खड़े हो।
अगर दूसरे से
न लड़े तो अपने
से ही लड़ना
पड़ेगा। बिना
लड़े तुम्हारा
मन मानता नहीं,
क्योंकि
बिना लड़े अहंकार
निर्मित नहीं
होता।
इसे
ठीक से समझ
लो। इसे मैं
हजार-हजार बार
दोहराता हूं
कि तुम लड़ाई
की उत्सुकता
में हो, तत्पर
हो, खोज
रहे हो कि
कहीं लड़ाई मिल
जाए। और
निश्चित ही, दूसरे से
लड़ना जरा
मंहगा काम है,
क्योंकि
दूसरा ऐसे ही
खाली नहीं
बैठा रहेगा।
इसलिए
बहादुर
दूसरों से
लड़ते हैं; कायर
खुद से लड़ते
हैं। क्योंकि
दूसरे से लड़ने
में खतरा है; खुद से लड़ने
में तो कोई
खतरा ही नहीं
है, निहत्थे।
खुद से लड़ने
का मतलब है
तुम अपने को दो
हिस्सों में
बांट लेते हो:
शरीर, आत्मा;
लड़ाओ! निम्न
प्रकृति, उच्च
परमात्मा; लड़ाओ!
ऊर्ध्वगामी
ऊर्जा, अधोगामी
ऊर्जा; लड़ाओ! तुम अपने
भीतर दो
हिस्से कर
लेते हो। तुम
अपने भीतर
अंधेरा पक्ष
और उजाला पक्ष
कर लेते हो।
यह रही
पूर्णिमा, यह
रही अमावस; संघर्ष
शुरू!
शुभ-अशुभ, हिंसा-अहिंसा,
स्वाद-अस्वाद,
वासना-ब्रह्मचर्य;
लड़ाओ!
सारा
खेल इस बात का
है कि तुम
किसी भांति
अपने से लड़ो।
लड़ो तो
अहंकार
निर्मित होता
है। इसलिए
जैसा अहंकार
तुम्हारे
साधुओं के पास
होता है--जैसा
तीखा, प्रखर, धार
वाला--वैसा असाधुओं
के पास नहीं
होता। असाधु
दूसरों से लड़
रहे हैं।
दूसरे से लड़ाई
कभी भी
निर्णीत नहीं
हो पाती; विजय
कभी आखिरी
नहीं हो पाती।
क्योंकि
दूसरा फिर
तैयार होकर आ
जाएगा। आज हार
गया, कल
फिर तैयार हो
जाएगा। और यह
दूसरा हार गया;
हजार दूसरे
हैं, वे
तुम्हें हराएंगे।
दूसरे से लड़ाई
तो अनंत है; वह कभी तय
नहीं हो पाएगी
कि तुम
निश्चित रूप से
जीत गए। लेकिन
खुद से लड़ाई
तो बड़ा
सुविधापूर्ण
काम है--अपनी
ही छाती पर चढ़
कर बैठ गए।
यह
सबसे कठिन काम
है दुनिया में, अपनी
छाती पर चढ़ कर
बैठना। सोचो,
कैसे
बैठोगे अपनी
छाती पर चढ़ कर?
लेकिन बहुत
बैठ गए हैं।
जो बैठ जाते
हैं वे तुम्हारे
महात्मा हैं।
लेकिन यह लड़ाई
भी कभी पूरी
नहीं होती, क्योंकि
जिसकी छाती पर
तुम बैठे हो, वह भी
तुम्हीं हो।
उसे तुम दबा
लो क्षण भर को,
वह भी प्रकट
होगा आज नहीं
कल। और ध्यान
रखें, जब
भी कभी
महात्मा छाती
पर से उतरता
है अपनी तो
जितना बड़ा
शैतान उसमें
से निकलेगा
उतना शैतान
साधारण आदमी
से नहीं निकल
सकता।
क्योंकि उसका
शैतान बिलकुल
ताजा है, उसका
उपयोग ही नहीं
हुआ। महात्मापन
तो उसका बासा
पड़ गया है, सेकेंड
हैंड है; खूब
उपयोग कर लिया
है; लेकिन
उसका शैतान
बिलकुल ताजा
बैठा है; उसने
उपयोग करने ही
नहीं दिया; वह उसके
भीतर छिपा है।
अस्वाद तो थक
गया, लेकिन
स्वाद की
कामना अनथकी
भीतर पड़ी
है--कुंआरी, ताजी!
ब्रह्मचर्य
तो जराजीर्ण
हो गया; वासना
प्रतीक्षा कर
रही है कि कब
ब्रह्मचर्य को
धक्का देकर
गिरा दे।
इसलिए
मेरे
निरीक्षण में, जवान
आदमी अगर
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले तो
कुछ वर्ष तक
सफल हो सकता
है। लेकिन कोई
चालीस और पैंतालीस
साल के करीब
उपद्रव शुरू
होता है, क्योंकि
ब्रह्मचर्य
की शक्ति थकनी
शुरू हो जाती
है और जवानी
की ताकत जो
दबा रही थी वह
भी क्षीण होने
लगती है।
इसलिए
तुम्हारे महात्माओं
का पतन अगर
होता है तो वह
पैंतालीस साल
के करीब होता
है। पैंतालीस
साल के करीब
महात्मा से
सावधान रहना,
क्योंकि
दबाने के लिए
जिस जवानी की
जरूरत थी, अब
वह शिथिल हो
रही है।
ब्रह्मचारी
बुढ़ापे में
कामवासना से
भर जाते हैं।
अब यह
बिलकुल विपर्य
हो गया। जवानी
में कामवासना
से भरे रहते, कुछ
हर्ज न था।
जवानी में
कामवासना
स्वाभाविक
थी। उसे अगर
ठीक से भोग
लेते, जान
लेते, पहचान
लेते, तो
बूढ़े होते-होते
उसके पार हो
गए होते।
लेकिन जवानी
में ब्रह्मचर्य
से लड़ने का
मजा लिया; फिर
बुढ़ापे में
वासना--अनथकी
और ताजी--हमला
करती है।
इसलिए बूढ़े
आदमियों के
मस्तिष्क
जितने गंदे
होते हैं, उतने
जवान आदमियों
के कभी नहीं
होते।
हां, बूढ़े
आदमी का
मस्तिष्क तभी
ताजा और
स्वस्थ होता
है जब उसने
वासना को जी
लिया हो और
पार हो गया हो;
स्वाद को
भोग लिया हो
और स्वाद
ब्रह्म हो गया
हो; वासना
को जी लिया हो
और अब वासना
अपने आप ही रूपांतरित
होकर
ब्रह्मचर्य
बन गई हो।
अनुभव
के बिना कोई
शुद्धि नहीं
है। इसलिए लाओत्से
तुमसे कहता है, अनुभव!
और जीवन का
सरल अनुभव--न
केवल व्यक्ति
के लिए, बल्कि
समाज के लिए
भी।
लाओत्से
के सुझाव बड़े
नैसर्गिक
हैं। कोई सुनेगा
नहीं। मेरे
सुझाव भी बड़े
नैसर्गिक और
सीधे हैं। कोई
सुनेगा नहीं।
सुन भी लेगा
तो करेगा नहीं; क्योंकि
उनमें अहंकार
की कोई तृप्ति
नहीं है। मैं
सिखा रहा हूं
ना-कुछ हो
जाना; तुम
कुछ होना
चाहते हो। अगर
धन की दुनिया
में न हो पाए
तो धर्म की
दुनिया में हो
जाओ। देखो तुम्हारे
शंकराचार्यों
को बैठे हुए
अपनी-अपनी पीठ
पर! उनकी अकड़
देखो! दुकान
पर बैठे
दुकानदार की
भी कमर झुक गई,
लेकिन शंकराचार्यों
की नहीं
झुकती। राजनीति
में दौड़ने
वाला नेता भी
थक गया है, कभी-कभी
धर्म की बात
भी सोचने लगता
है; लेकिन
शंकराचार्य
शुद्ध अहंकार
के शिखर हैं।
तुम्हारे
अहंकार की
तृप्ति नहीं
है लाओत्से में!
और अगर तुम
लाओत्से को
सुन पाओ तो
तुम्हारे
भीतर छिपे
परमात्मा की
परितृप्ति हो
सकती है।
लाओत्से
के सूत्र को
हम समझें।
"छोटी
आबादी वाला
छोटा सा देश
हो।'
लाओत्से
बड़े देशों के
पक्ष में नहीं
है,
मैं भी नहीं
हूं। क्योंकि
बड़े देश
महामारियों
की भांति हैं।
जितना बड़ा देश
होगा उतनी बड़ी
हिंसा होगी।
जितना बड़ा देश
होगा उतनी बड़ी
राजनीति होगी,
उतना
उपद्रव होगा।
जितना बड़ा देश
होगा उतना
दूसरों के लिए
आतंक होगा। और
बड़े देश का
मतलब यह है कि
विभिन्न-विभिन्न
तरह के लोग, विभिन्न
रीति-रिवाज, विभिन्न
जीवन की शैलियां,
उनको
जबर्दस्ती एक
ही थैले में
बंद करने की
कोशिश। कोई
तृप्त न होगा।
और बड़े
राज्य का
आकर्षण क्या
है?
गांधी का मन
नहीं था कि
भारत बंटे।
अच्छी-अच्छी
बातों में बड़ी
अजीब बातें
छिपाई जाती
हैं। अखंड
भारत! जनसंघी
चिल्लाते
रहते हैं:
अखंड भारत!
जितना बड़ा राज्य
हो, उसके
ऊपर कब्जा
होने पर उतना
ही बड़ा
राजनीतिज्ञ
हो जाता है।
छोटे मुल्क के
नेता की उतनी
ही कीमत होती
है जितना छोटा
मुल्क। इसलिए
कोई
राजनीतिज्ञ
देश को छोटा
नहीं करना
चाहता। इसलिए
तो पाकिस्तान
मुसलमानों को
ही काट दिया
बंगला देश
में। इसलाम का
राज्य है, इसलामी
देश है, और
मुसलमानों को
काट दिया
बंगला देश
में। क्योंकि
बंगला देश अलग
हो, पाकिस्तान
आधा मर गया
उसी दिन अलग
होते ही से।
मियां भुट्टो
आधे हैं अब।
वह ताकत न रही,
वह बल न
रहा। क्योंकि
बड़ा देश हो तो
बड़ी ताकत।
मगर
तुम भेद मत
समझना कि कुछ
भेद है।
नागालैंड में
हिंदुस्तान
वही कर रहा
है। नागा अलग
रहना चाहते
हैं। कश्मीर
में
पाकिस्तान, हिंदुस्तान
दोनों ने वही
किया। कश्मीर
अलग रहना
चाहता है। आज
नहीं कल
तमिलनाडु अलग
रहना चाहेगा।
तुम भी वही
करोगे। तुम भी
हिंदुस्तानी
हो, लेकिन
हिंदुस्तानी
को काटोगे, उसी तरह
जैसा बंगाल
में हुआ।
क्योंकि कोई
नहीं चाहता
राजनीतिज्ञ
कि देश छोटा
हो जाए। देश के
छोटे होने का
मतलब है कि
राजनीतिज्ञ
छोटा होता
जाता है। अगर
देश जिले के
बराबर है तो
प्रधानमंत्री
की हैसियत
डिप्टी
कलेक्टर से
ज्यादा नहीं
है। जितना बड़ा
हो देश उतने
अहंकार का
फैलाव और सुख
है।
फिर
बड़ा देश हो तो
हिंसा होगी, क्योंकि
इतने विभिन्न
लोगों को
जबर्दस्ती एक
ढांचे में
ढालना पड़ेगा।
अब चेष्टा
चलती है कि
हिंदी
राष्ट्रभाषा
हो जाए। यह
जबर्दस्ती है,
क्योंकि
सारे मुल्क की
राष्ट्रभाषा
हिंदी है
नहीं। तमिल
तमिल को चाहता
है, तेलगू तेलगू
को चाहता है, बंगाली
बंगाली को
चाहता है, मराठी
मराठी को
चाहता है। और
इन
आकांक्षाओं में
कुछ भी बुराई
नहीं है। यह
सीधी बात है
कि अपनी
मातृभाषा हर
आदमी चाहता है
बोले, प्रसन्न
हो, गाए, अपने गीत
रचे। अब
जबर्दस्ती एक
भाषा को थोपना
पड़ेगा, क्योंकि
देश बड़ा है, आज नहीं कल।
और हिंदी की
कलह चलती ही
रहेगी। इस तरह
हर चीज में
जबर्दस्ती
करनी पड़ती है।
जहां जितने
विभिन्न लोग
होंगे, उतनी
जबर्दस्ती हो
जाएगी। बड़ा
मुल्क एक बड़ा
हिंसा का
युद्ध हो जाता
है। हर छोटी
बात में कलह
हो जाती है।
और बड़े युद्ध
का आकर्षण
इसीलिए है कि
लड़ना है किसी
और बड़े दुश्मन
से तो बड़े रहो;
छोटे हो गए
तो हार जाओगे।
बड़े होने का
रस लड़ाई के
लिए है।
लाओत्से
कहता है, "छोटी
आबादी वाला
छोटा सा देश
हो।'
उसका
मतलब यह है कि
एक ही तरह के
लोग,
एक भाषा
बोलने वाले
लोग, एक
रीति-रिवाज के
लोग, जो
परिवार की तरह
रह सकें, ऐसा
छोटा सा देश
हो। कोई बड़े
देशों की
जरूरत नहीं
है। वह
राजनीति को जड़
से काट रहा
है। राजनीतिज्ञ
यह बरदाश्त न
करेगा कि देश
छोटे हों।
राजनीतिज्ञ
विस्तारवादी
है, साम्राज्यवादी
है। जितना बड़ा
देश हो, उतना
ही
राजनीतिज्ञ
की प्रतिभा
बढ़ती जाती है और
शिखर बड़ा होता
जाता है।
लाओत्से
कह रहा है, धार्मिक
आदमी चाहेगा
कि देश छोटे
हों, इतने
छोटे हों कि
वहां एक ही
तरह के लोग एक
परिवार को बना
कर रह जाएं।
अच्छी दुनिया
तभी पैदा होगी
जब देश बहुत
छोटे हों।
छोटे देश लड़ न
सकेंगे, बड़ी
लड़ाई न कर
सकेंगे। होगी
भी लड़ाई तो
छोटी-मोटी
होगी--जैसे
हाकी का मैच
हो गया या
फुटबाल का मैच
हो गया, ऐसी
होगी। कोई
लड़ाई बड़ी नहीं
हो सकती। बड़ा
देश बड़ी लड़ाई
करता है। बड़े
देशों के साथ
महायुद्ध आते
हैं। छोटे
देशों के साथ
अगर कभी होगा
भी तो
छोटा-मोटा झगड़ा
होगा--एक गांव
दूसरे गांव से
झगड़ा कर
ले। उसकी भी
जरूरत न पड़े
अगर लाओत्से
की बात सुनी
जाए।
"जहां जिन्सों
की पूर्ति दस
गुनी या सौ
गुनी हो, उससे
ज्यादा जितना
वे खर्च कर
सकते हैं।'
यह
कैसे होगा? आवश्यकता
और वासना का
फर्क खयाल में
ले लेना चाहिए
तो यह हो सकता
है।
आवश्यकताएं
तो बहुत थोड़ी
हैं आदमी की; आवश्यकताएं
तो पूर्ण हो
सकती हैं, कोई
अड़चन नहीं है;
सब की पूरी
हो सकती हैं।
वासना नहीं
पूरी हो सकती,
वासना तो एक
आदमी की नहीं
पूरी हो सकती;
सबका तो
सवाल ही नहीं
है।
वासना
का अर्थ है: जो
तुम्हें नहीं
चाहिए उसकी
मांग। वह कैसे
पूरी होगी? आवश्यकता
का अर्थ है: जो
जरूरत है उसकी
मांग; वह
पूरी हो सकती
है। भोजन
चाहिए, पानी
चाहिए, निश्चित,
कपड़ा चाहिए, छप्पर
चाहिए। पूरा
हो सकता है।
इसमें कौन सी
अड़चन है? और
जब यह पूरा हो
जाए तो तुम
वृक्ष के नीचे
बैठ कर
बांसुरी बजा
सकते हो। इसके
पूरे होने में
अड़चन कहां है?
पशु-पक्षी
पूरा कर लेते
हैं; वृक्ष
खड़े-खड़े पूरा
कर लेते हैं, चल कर भी
कहीं नहीं
जाते; तो
आदमी पूरा न
कर सकेगा--जो
शिखर है, जीवन
के विकास की
सर्वोत्तम कृति
है?
बड़ी
सरलता से पूरा
हो सकता है।
जमीन बहुत
खुशहाल थी; जमीन
फिर खुशहाल हो
सकती है। आदमी
की विक्षिप्तता
रोकनी जरूरी
है। कुछ चाहें
गैर-जरूरी हैं।
जैसे तुम्हें
कोहिनूर
चाहिए। अब
कोहिनूर को
खाओगे, पीओगे,
क्या करोगे?
बच्चा
बीमार होगा तो
कोहिनूर की
दवाई बनाओगे?
भूख लगेगी,
कोहिनूर से
पेट भरेगा? लेकिन तुम
तैयार हो कि
चाहे भूखे
रहना पड़े, चाहे
बच्चा मर जाए,
लेकिन
कोहिनूर होना
चाहिए। पागल
मालूम होते हो।
कोहिनूर को
सिर पर रख कर घूमोगे?
जापान
में ऐसा हुआ।
एक बड़ा फकीर
था। सम्राट उससे
प्रभावित हो
गया। और जब
सम्राट प्रभावित
होते हैं तो
सम्राटों की
अपनी भाषा, अपना
ढंग, अपना
पागलपन।
प्रभावित हो
गया तो उसने
बड़े बहुमूल्य
हीरे-जवाहरातों
जड़ी हुई एक
पोशाक बनवाई
मखमल की, एक
ताज बनवाया।
क्योंकि
सम्राट का
गुरु! ताज और
पोशाक लेकर वह
उस फकीर की
पहाड़ी पर गया
जहां फकीर एक
झाड़ के नीचे
रहता था। और
उसने उसे भेंट
किया।
फकीर
ने कहा, तुम
दुखी होओगे
अगर लौटाऊं,
लेकिन मेरी
भी फजीहत मत करवाओ।
सम्राट ने कहा,
मतलब? उस
फकीर ने कहा, यहां न तो
कोई आदमी आता
न जाता। और
राजधानियों
से तो यहां
कोई आता ही
नहीं, जो
इन कपड़ों को
समझ सकता है
और इस ताज को
समझ सकता है।
यहां तो जंगली
जानवरों से
मेरी दोस्ती
है; हिरण
हैं, मोर
हैं, यही
मेरे पास
आते-जाते हैं।
वे बहुत
हंसेंगे और
मेरी मजाक उड़ाएंगे
कि यह आदमी
देखो, पागल
हो गया। यह
क्या पहने हुए
है! तो मेरी
फजीहत मत करवाओ।
मैं स्वीकार
कर लेता हूं, फिर तुम
इन्हें ले जाओ।
क्योंकि यह
भाषा यहां
बिलकुल बेकार
है। इसका मैं
करूंगा क्या?
और ये पक्षी
हंसेंगे, जानवर
हंसेंगे। बड़ी
बेइज्जती
होगी।
उसने
ठीक कहा।
पशु-पक्षी
हीरे-जवाहरातों
की फिक्र नहीं
करते। लेकिन
क्या उनके
सौंदर्य में
कोई कमी है? जब
मोर नाचता है
तो कौन से
कोहिनूर उसका
मुकाबला कर
सकते हैं!
लेकिन तुम नाच
भूल गए; अब
तुम्हें
कोहिनूर
चाहिए। जब
कोयल गाती है
तो कौन से
कोहिनूर की
जरूरत है? लेकिन
तुम गीत भूल
गए; तुम्हें
कोहिनूर
चाहिए।
जीवन
बड़ा सरल हो
सकता है, जरा
सी समझ होनी
चाहिए।
आवश्यकता
बराबर पूरी करो।
क्योंकि
आवश्यकता पूरी
न होगी तो तुम
जीओगे कैसे? गीत कैसे
गाओगे? नाचोगे कैसे? परमात्मा
का धन्यवाद
कैसे दोगे? आवश्यकता
निश्चित पूरी
करो। लेकिन
थोड़ा समझने की
कोशिश करो कि
आवश्यकता वह
है जो जरूरी है,
वासना वह है
जो बिलकुल
गैर-जरूरी है;
जिसका कोई
उपयोग नहीं है;
जिसका एक ही
उपयोग है कि
वह अहंकार को
भरती है।
जिसके पास
कोहिनूर है, उसका अहंकार
मजबूत होता है;
बस।
वासना
वह है जो
अहंकार को
भरती है; आवश्यकता
वह है जो शरीर
को तृप्त करती
है। तुम
तृप्ति की खोज
करो।
तुम्हारा
निसर्ग तृप्त
हो।
लेकिन
तुम्हारे
महात्मा
तुम्हें उलटा
समझा रहे हैं।
वे तुम्हें
समझा रहे हैं, आवश्यकता
काटो। वे
तुमसे कह रहे
हैं, वासना
को बढ़ाओ
कि मोक्ष छूने
लगे। कोहिनूर
तो दो कौड़ी
का है, मोक्ष
पाओ। धन पाकर
क्या करोगे? परमात्मा को
पाना है। वे
तुम्हारी
वासना को तो
भयंकर रूप से
बड़ा कर रहे
हैं।
क्या
करोगे
परमात्मा का? भूख
लगेगी, खाओगे?
प्यास
लगेगी, पीओगे?
बच्चा
बीमार होगा तो
सिल पर घिस कर
दवाई बनाओगे
परमात्मा की?
क्या करोगे?
मोक्ष का
क्या करना है?
तुम्हारे
तथाकथित
महात्मा
तुम्हारी
वासनाओं को इस
पृथ्वी से
दूसरे लोक में
ले जा रहे हैं, बदल
नहीं रहे। और
कोहिनूर तो
मिल भी जाए; मोक्ष और
उपद्रव हो
गया। कोहिनूर
तो फिर भी पृथ्वी
का हिस्सा है,
मिल सकता है;
मोक्ष को
कहां पाओगे? अब तुम बड़े
बेचैन और पागल
हुए।
तो
दुनिया में धन
के दीवाने हैं
और धर्म के दीवाने
हैं। और मेरे
अनुभव में ऐसा
आया कि धन के दीवानों
को तो
थोड़ा-बहुत
समझा दो तो
समझ में भी
आता है; धर्म
का दीवाना
सुनता ही
नहीं।
क्योंकि वह धर्म
को पहले से ही
महान समझ रहा
है।
निश्चित
ही,
परमात्मा
तुम्हारे
जीवन में आएगा,
लेकिन
कोहिनूर की
तरह नहीं।
परमात्मा
तुम्हारे
जीवन में आएगा
भूख में भोजन
की तरह, प्यास
में पानी की
तरह, आनंद
में एक गीत और
नृत्य की तरह।
मोक्ष
तुम्हें मिल
सकता है; मोक्ष
तुम्हें
मिलेगा जब
तुम्हारी
वासना छूट
जाएगी, क्योंकि
वही बंधन है।
आवश्यकता
मुक्ति है; वासना बंधन
है। जब तुम
सिर्फ
आवश्यकता को
पूरा कर लोगे,
तुम पाओगे,
तुम मुक्त
हो।
कितनी
छोटी सी जरूरत
है जीवन की!
थोड़े से श्रम
से पूरी हो
जाती है। और
श्रम भी एक
जरूरत है। इसे
थोड़ा समझ लो।
थोड़े से श्रम
से आवश्यकता
पूरी होती है।
और उतना श्रम, वह
भी जरूरी है, वह भी
आवश्यकता है,
नहीं तुम
मुर्दा हो
जाओगे। उतना
श्रम तुम्हारे
जीवन को जीवंत
रखने के लिए
जरूरी है।
वासना पूरी
नहीं होती और
इतना श्रम
करना पड़ता है
कि जिसका कोई
अंत नहीं। वह
श्रम भी घातक
हो जाता है।
जिस
आदमी को चालीस
साल के करीब
हार्ट अटैक
का दौरा न हो, समझना
कि जीवन में
असफल रहा। सफल
आदमियों को तो
होता ही है।
सफलता का मतलब
ही तब पता
चलता है जब
हार्ट अटैक
हो। तुमने कभी
किसी भिखारी
को हार्ट अटैक
होते देखा? होने का कोई
कारण ही नहीं
है। इतना तनाव
भी तो होना
चाहिए। हार्ट अटैक तो
उनको होता है
जिन्होंने धन
कमा लिया और
जो सोच रहे थे
कि धन कमा कर
भोगेंगे। जब
भोगने का वक्त
आता है, हार्ट
अटैक हो
जाता है। जब
पद पर पहुंच
गए तब हार्ट अटैक हो
जाता है। जब
सब ठीक होने
के करीब मालूम
हो रहा था तब
खुद गैर-ठीक
हो जाते हैं।
जब भूख थी तब भोजन
न किया; क्योंकि
भोजन कैसे कर
सकते हैं जब
तक महल न निर्मित
हो जाए? फिर
महल निर्मित
हो गया, भोजन
तैयार हो गया,
भूख न रही।
अब खा नहीं
सकते; अब
भोजन कर नहीं
सकते।
क्योंकि इस
बीच खुद नष्ट
हो गए।
यह बड़े
मजे की बात
है। मकान तो
बन जाता है; तुम
खंडहर हो जाते
हो। धन तो
इकट्ठा हो
जाता है; तुम
बिलकुल
निर्धन हो
जाते हो। जिंदगी
का साज-संवार
पूरा
होते-होते-होते
जिसको संगीत
उठाना था, वही
मर जाता है।
सितार तो
तैयार रहती है,
संगीतज्ञ
मर जाता है।
आवश्यकताएं
बहुत थोड़ी
हैं। और जो भी
व्यक्ति ठीक
से पहचान ले
क्या है
आवश्यकता और
क्या है वासना, उसे
मैं
बुद्धिमान
कहता हूं।
उसने वेद न जाने
हों, उपनिषद
न पढ़े हों;
कोई जरूरत
नहीं। और क्या
इतनी छोटी सी
बात के लायक
बुद्धि
तुम्हारे पास
नहीं है? सबके
पास है। इतनी
बुद्धि तो
परमात्मा ने
सबको दी है।
तुम उपयोग
नहीं कर रहे।
तुम चालबाज हो।
तुम खुद को
धोखा दे रहे
हो। इतनी
सीधी-सीधी बात
है। इसके लिए
कोई बहुत गणित
थोड़े ही
बिठाना पड़ेगा
कि क्या वासना
है और क्या
आवश्यकता है?
आवश्यकता
को पूरा करो; भूल
कर मत काटना।
और वासना की
दौड़ को पहले
कदम पर ही रोक
देना।
क्योंकि बाद
में रुकना
मुश्किल हो
जाता है; दौड़
पकड़ जाती है
तो ज्वार आ
जाता है दौड़
का, बुखार
आ जाता है। फिर
रुकना
मुश्किल हो
जाता है। पहले
कदम पर समझ कर
रुक जाना। मत
मांगना
व्यर्थ की
चीजें, क्योंकि
उनको पाकर भी
क्या करोगे? सार्थक वही
है जो तृप्ति
देता हो। और
तब तुम निश्चित
पाओगे कि
जिंदगी में
चैन की
बांसुरी बजने
लगी।
लाओत्से
कहता है, "जहां
जिन्सों
की पूर्ति दस
गुनी या सौ
गुनी है।'
अगर
लोग
आवश्यकताओं
से जीएं
तो हजार गुनी
पूर्ति है।
तुम्हारी
प्यास से पानी
बहुत ज्यादा
है। तुम्हारी
भूख से भोजन
बहुत ज्यादा
है। तुम्हारे
तन को ढंकने
से बहुत ज्यादा
कपड़े हो सकते
हैं,
कोई अड़चन
नहीं है।
लेकिन अगर तुम
वासना का तन ढंकना
चाहते हो तो
सारी दुनिया
के कपड़े
तुम्हारी वासना
के तन को भी न
ढंक सकेंगे।
तुम सारी
दुनिया को
नंगा कर दो तो
भी तुम नंगे
रहोगे; तुम्हारी
वासना का तन न
ढंक सकेगा।
इसे पहचानो।
यह जीवन में
क्रांति का
सूत्रपात है।
"लोग
अपने जीवन को
मूल्य दें, और दूर-दूर
प्रव्रजन न
करें।'
लाओत्से
कहता है, जीवन
को मूल्य दो।
अहोभाग्य है
कि तुम जीवित
हो। और कोई
चीज मूल्यवान
नहीं है; जीवन
मूल्यवान है।
जीवन को तुम
किसी चीज के
लिए भी खोने
के लिए तैयार
मत होना, क्योंकि
कोई भी चीज
जीवन से
ज्यादा
मूल्यवान नहीं
है।
लेकिन
तुम जीवन को
तो किसी भी
चीज पर गंवाने
को तैयार हो।
एक आदमी ने गाली
दे दी; तुम
तैयार हो कि
अब चाहे जान
रहे कि जाए! इस
आदमी ने किया
ही क्या है? एक गाली पर
तुम जीवन को
गंवाने को
तैयार हो? धन
कमा कर रहेंगे,
चाहे जान
रहे कि जाए।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के घर में चोर घुसे और
उन्होंने छाती
पर उसके बंदूक
रख दी और कहा
कि चाबी दो, अन्यथा
जीवन! मुल्ला
ने कहा, जीवन
ले लो; चाबी
न दे सकूंगा।
चोर भी थोड़े
हैरान हुए; कहा, नसरुद्दीन! थोड़ा सोच लो,
क्या कह रहे
हो? उसने
कहा, जीवन
तो मुझे मुफ्त
मिला था; तिजोड़ी
के लिए मैंने
बड़ी ताकत लगाई,
बड़ी मेहनत
की। जीवन तुम
ले लो; चाबी
मैं न दे
सकूंगा। और
फिर यह भी है
कि तिजोड़ी
तो बुढ़ापे के
लिए बचा कर
रखी है। जीवन
भला ले लो, चलेगा;
तिजोड़ी असंभव।
कहां-कहां
तुम जीवन को
गंवा रहे हो, थोड़ा
सोचो। कभी धन
के लिए, कभी
पद के लिए, प्रतिष्ठा
के लिए। जीवन
ऐसा लगता है, तुम्हें मुफ्त
मिला है। जो
सबसे ज्यादा
बहुमूल्य है
उसे तुम कहीं
भी गंवाने को
तैयार हो।
जिससे ज्यादा
मूल्यवान कुछ
भी नहीं है, उसे तुम ऐसे
फेंक रहे हो
जैसे तुम्हें
पता ही न हो कि
तुम क्या फेंक
रहे हो। और
क्या कचरा तुम
इकट्ठा करोगे
जीवन गंवा कर?
लोग
मेरे पास आते
हैं। उनसे मैं
कहता हूं, ध्यान
करो। वे कहते
हैं, फुर्सत
नहीं। क्या कह
रहे हैं वे? वे यह कह रहे
हैं, जीवन
के लिए फुर्सत
नहीं है।
प्रेम करो!
फिर फुर्सत
नहीं है। कब
फुर्सत होगी?
मरोगे तब
फुर्सत होगी?
तब कहोगे कि
मर गए; अब
कैसे ध्यान
करें?
जीवन
के लिए
तुम्हारे पास
फुर्सत ही
नहीं है। कभी
बैठते हो दो
घड़ी,
जैसे कोई भी
काम न हो? उठाई
बांसुरी, बजाने
लगे; कि
कुछ न किया, बैठ गए अपने
बच्चों के साथ,
खेलने लगे;
कि कुछ न
किया, लेट
गए वृक्ष के
तले, आने
दी धूप, जाने
दी छाया, पड़े
रहे, कुछ न
किया। नहीं, तुम कहोगे
कि फुर्सत
कहां है? तब
तुम जीवन का
स्वर सुन ही न
पाओगे।
क्योंकि जीवन
के स्वर को
केवल वे ही
सुन सकते हैं
जो बड़ी गहरी
फुर्सत में
हैं; काम
जिन्हें
व्यस्त नहीं
करता।
और काम
व्यस्त करेगा
भी नहीं, अगर
तुम
आवश्यकताओं
पर ही ठहरे
रहो। काम की
व्यस्तता आती
है वासना से।
कमा लीं दो
रोटी, पर्याप्त
है। फिर तुम
पाओगे फुर्सत
जीवन को जीने
की। अन्यथा
आपाधापी में
सुबह होती है
सांझ होती है,
जिंदगी
तमाम होती है।
मरते वक्त ही
पता चलता है
कि अरे, हम
भी जीवित थे!
कुछ कर न पाए।
ऐसे ही खो गया;
बड़ा अवसर
मिला था!
"लोग
अपने जीवन को
मूल्य दें।'
और
लाओत्से बड़ी
अनूठी बात
कहता है, "और
दूर-दूर
यात्रा न
करें।'
लोग
दूर-दूर की
यात्रा क्यों
करते हैं? दूर-दूर
की यात्रा
अंतर्यात्रा
से बचने का साधन
है। भीतर न
जाकर, यहां-वहां
जाते हैं। चले
काशी। कहां जा
रहे हैं? तीर्थयात्रा
पर जा रहे
हैं। भीतर
जाते, वहां
है काशी। चले काबा।
हज करने जा
रहे हैं, हाजी
होना है। भीतर
जाते, वहां
है काबा। वहां
मोहम्मद भी, वहां कृष्ण
भी, वहां
बुद्ध भी, वहां
तुम्हारा
जीवन का
सर्वोत्तम
रूप विराजमान
है। वहां
पुरुषोत्तम
बैठा है।
लाओत्से
कहता है, लोग
दूर-दूर
प्रव्रजन न
करें, यहां-वहां
न जाएं। क्योंकि
बाहर की
यात्रा में
समय खो जाता
है; भीतर
की यात्रा के
लिए मौका नहीं
मिलता। और जाकर
करोगे भी क्या?
पक्षी वहां
भी यही गीत
गाते हैं; वृक्ष
वहां भी यही
फूल खिलाते
हैं; आकाश
वहां भी ऐसा
ही है और ऐसे
ही तारे हैं।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं सारी
दुनिया से
यात्रा करते।
वे कहते हैं
कि बस एक दिन
यहां, फिर
नेपाल जाना
है। तुम यहां किसलिए आए?
कि बस आना
था। लंदन से
यहां आना था; यहां से
नेपाल जाना
है! नेपाल से
कहां जाओगे? काबुल जाना
है। तो ऐसे ही
जाते-जाते-जाते
चले जाओगे? रुकोगे कहीं? नहीं,
वे कहते हैं
कि बहुत दिन
की अभिलाषा है
कि नेपाल जाना
है। बहुत दिन
की अभिलाषा थी
कि मेरे पास
आना है। वे
कहते हैं, वह
अभिलाषा पूरी
हो गई, आ
गए। अब चले।
ऐसे ही नेपाल
में जाओगे; क्या पाओगे
वहां? आकाश
यही है सब जगह;
चांदत्तारे यही हैं; यही
आदमी हैं; यही
रंग-रूप हैं; यही संसार
है। दूसरे चांदत्तारों
पर भी अगर
आदमी होगा तो
सब यही होगा!
कहां जाना है?
लाओत्से
कहता है, "लोग
अपने जीवन को
मूल्य दें, और दूर-दूर
प्रव्रजन न
करें। वहां
नाव और गाड़ियां
तो हों, उस
राज्य में, लेकिन उन पर चढ़ने वाले
न हों। वहां
कवच और शस्त्र
तो हों, लेकिन
उन्हें
प्रदर्शित
करने का अवसर
न हो। गिनती
के लिए लोग
फिर से रस्सी
में गांठें
बांधना शुरू
करें।'
गणित
ने लोगों को
बहुत नुकसान
पहुंचाया है।
तुम एक थोड़ा
सोचो, अगर तुम
अंगुलियों पर
ही गिन सकते
हो या रस्सी
में गांठ बांध
कर गिन सकते
हो तो तुम
कितने धन की कामना
करोगे? सोचो!
रस्सी पर
कितनी गांठें
बांधोगे?
थक जाओगे।
लेकिन गिनती
ने बड़ी सुविधा
बना दी है--शंख,
महाशंख, जो
भी तुम्हें
सोचना हो।
गिनती ने
वासना को बड़ी
गति दी।
जिंदगी का काम
तो अंगुलियों
पर गिनने से
चल जाता है।
और बड़ी गिनती
की जरूरत नहीं
है। वासना का
काम नहीं
चलता। वासना
के लिए बड़ी
संख्या चाहिए,
बड़ा फैलाव
चाहिए। सब संख्याएं
छोटी पड़ जाती
हैं; वासना
का फैलाव सब
संख्याओं से
बड़ा है।
लाओत्से
कहता है, लोग
फिर से गांठें
बांधने लगें
रस्सियों पर,
क्योंकि
गणित लोगों को
चालाक बनाता
है।
असल
में,
सब शिक्षा
लोगों को
चालाक बनाती
है। शिक्षित
आदमी और
सीधा-सादा, जरा कठिन
है। क्योंकि
शिक्षा आदमी
को कुटिल, होशियार,
चालबाज
बनाती है।
शिक्षा लोगों
को, दूसरों
का शोषण कैसे
किया जाए अपनी
वासना के लिए,
इसकी कला
देती है।
लाओत्से
कहता है, लोग
फिर से
अशिक्षित हो
जाएं, क्योंकि
शिक्षा ने कुछ
दिया नहीं।
लोगों का जीवन
खो गया शिक्षा
में; कुछ
पाया नहीं।
"गिनती
के लिए लोग
फिर से रस्सी
में गांठें
बांधना शुरू
करें। वे अपने
भोजन में रस
लें।'
तुमने
सुना है किसी
महात्मा को
कहते कि वे
अपने भोजन में
रस लें?
"अपनी
पोशाक सुंदर बनाएं।'
तुमने
सुना है कभी
किसी महात्मा
को कहते?
"अपने
घरों से
संतुष्ट
रहें। अपने
रीति-रिवाज का
मजा लें।'
लाओत्से
यह कह रहा है, कर
लो सब चीजें
सरल; कुछ
हर्जा नहीं
है। भोजन में
रस लो। न लेने
में हर्जा है।
क्योंकि अगर
भोजन में रस न
लिया तो वह जो
रस लेने की
वासना रह
जाएगी, वह
किसी और चीज
में रस लेगी।
और वह रस
तुम्हें अप्राकृतिक
बनाएगा। और वह
रस तुम्हें
विकृति में ले
जाएगा।
स्वाभाविक रस
ले लो; अस्वाभाविक
रस के लिए
बचने ही मत दो
जगह। छोटी-छोटी
चीजों में रस
लो, उसका
अर्थ है।
स्नान करने
में रस लो। वह
भी अनूठा
अनुभव है, अगर
तुम मौजूद
रहो। गिरती जल
की धार, किसी
जलप्रपात के
नीचे। बहती
नदी में, बहती
जल की धार, उसका
शीतल स्पर्श।
अगर
तुम मौजूद हो
और रस लेने को
तैयार हो तो
छोटी-छोटी
चीजें इतनी
रसपूर्ण हैं
कि कौन फिक्र करता
है मोक्ष की? मोक्ष
की फिक्र तो
वे ही करते
हैं जिनके
जीवन में सब तरफ
रस खो गया।
कौन चिंता
करता है
मंदिर-मस्जिदों
की? अपने
छोटे घर में
संतुष्ट रहो;
वही मंदिर
है। संतोष
मंदिर है।
अपने छोटे से
घर को मंदिर
जैसा बना लो; संतुष्ट
रहो। उसे बड़ा
करने की जरूरत
नहीं है। बड़े
से तो वासना
पैदा होगी। उस
छोटे में
संतोष भर देने
की जरूरत है।
तब आवश्यकता
तृप्त हो
जाएगी। कितना
बड़ा घर चाहिए
आदमी को? छोटा
सा घर और
संतोष, बहुत
बड़ा घर हो
जाता है। और
बड़े से बड़ा घर
और असंतोष, बड़ा छोटा हो
जाता है।
महलों में तुम
पाओगे इतनी
जगह नहीं है
जितनी छोटे घर
में जगह होती
है।
मैंने
सुना है, एक
फकीर हुआ। वह
रात सोने जा
ही रहा था कि
किसी ने द्वार
पर दस्तक दी।
बड़ी छोटी झोपड़ी
थी; पति और
पत्नी सो सकते
थे, बस
इतनी ही जगह
थी। पति ने
पत्नी से कहा,
द्वार खोल।
बाहर तूफान
है। शायद कोई
भटका हुआ यात्री।
पर पत्नी ने
कहा, जगह
कहां? उसने
कहा कि दो के
सोने के लायक
काफी है, तीन
के बैठने के
लिए काफी है।
यह कोई महल
नहीं है कि
यहां जगह कम
हो जाए। यह तो
गरीब का घर है;
यहां जगह की
क्या कमी? दरवाजा
खोल दिया गया;
मेहमान
भीतर आ गया।
वे तीनों बैठ
गए। थोड़ी ही देर
बीती होगी कि
फिर किसी ने
द्वार पर
दस्तक दी।
फकीर ने कहा
मेहमान से, जो कि द्वार
के पास बैठा
था, कि
द्वार खोल। तो
उस मेहमान ने
कहा, जगह
कहां? फकीर
ने कहा, यह
कोई महल नहीं
है, पागल!
तीन के बैठने
के लिए काफी
है; चार के
खड़े होने के
लिए काफी है।
गरीब का घर है,
यहां बहुत
जगह है। हम
जगह बना
लेंगे।
उस
फकीर ने बड़ी
अनूठी बात कही
कि यह कोई महल
नहीं है कि
जगह कम पड़
जाए। महल में
कितनी जगह
होती है, मगर
सदा कम होती
है। वासना
जहां है, असंतोष
जहां है, अतृप्ति
जहां है, वहां
सभी छोटा हो
जाता है। जहां
तृप्ति है, वहां सभी
बड़ा हो जाता
है। छोटा सा
घर महल हो सकता
है--तृप्ति से
जुड़ जाए। बड़े
से बड़ा महल झोपड़े
जैसा हो जाता
है--अतृप्ति
से जुड़ जाए।
तो तुम क्या
करोगे? महल
चाहोगे कि
छोटे से घर को
तृप्ति से जोड़
लेना चाहोगे?
लाओत्से
कहता है, "भोजन
में रस लें।
अपनी पोशाक
सुंदर बनाएं।'
लाओत्से
बड़ा नैसर्गिक
है। यह बिलकुल
स्वाभाविक
है। मोर नाचता
है,
देखो उसके
पंख! पक्षियों
के रंग!
तितलियों के रूप!
प्रकृति बड़ी
रंगीन है।
आदमी उसी
प्रकृति से
आया है। थोड़ी
रंगीन पोशाक
एकदम जमती है।
इतना स्वीकार
है। जब
पशु-पक्षी तक
रंग से आनंदित
होते हैं।
पुराने
दिनों में
आदमी सुंदर
पोशाक पहनते
थे,
थोड़ा-बहुत
आभूषण भी
पहनते थे।
शानदार
दुनिया थी।
फिर बात बदल
गई। आदमी नहीं
पहनते अब
शानदार पोशाक;
औरतें
पहनती हैं। यह
अप्राकृतिक
है। क्योंकि
स्त्री तो
अपने आप में
सुंदर है।
उसके लिए सुंदर
पोशाक की
जरूरत नहीं
है। प्रकृति
में देखो। मोर
के पंख हैं; मादा मोर के
पंख नहीं हैं।
वह नर है जो
पंख फैलाता
है। जो कोयल
गीत गाती है
वह नर है।
मादा कोयल के
पास गीत नहीं
है। उसका तो
मादा होना ही
काफी है। नर
को थोड़ी जरूरत
है; वह
उतना सुंदर
नहीं है।
इसलिए
पुराने दिनों
में लोग थोड़ा
आभूषण पहनते, थोड़ी
रंगीन पोशाक।
कोई बड़ी मंहगी
नहीं, रंगों
का कोई बड़ा
मूल्य थोड़े ही
है। सस्ते रंग
हैं, जगह-जगह
मिल जाते हैं,
सरलता से
उपलब्ध हैं।
और कोई
हीरे-मोती
थोड़े ही लगा
लेने हैं; फूल
भी लगाए जा
सकते हैं।
लकड़ी के टुकड़ों
से भी आभूषण
बन जाते हैं।
लाओत्से
कहता है, "अपनी
पोशाक सुंदर बनाएं।'
तुम्हारे
साधु पुरुष इन
छोटी-छोटी बातों
में तुम्हें
सुख नहीं लेने
देते। तुम्हारे
साधु पुरुष
बड़े कठोर हैं।
वे जीवन में
रस लेने के
दुश्मन हैं।
लाओत्से कहता
है,
जो सहज है
वह ठीक है।
सहज यानी ठीक।
यह बिलकुल सहज
है।
मुर्गा
देखो; कलगी
है। मुर्गी
बिना कलगी के
है। क्या शान
से चलता है
मुर्गा! सारा
जगत मात है!
लोग सुंदर
पोशाक पहनें,
शान से चलें,
गीत गाएं, नाचें, भोजन में रस
लें। छोटा
छप्पर हो, लेकिन
संतोष का बड़ा
छप्पर हो!
अपने
रीति-रिवाज का
मजा लें। इस
चिंता में न
पड़ें कि कौन
सी रीति ठीक
है, कौन सा
रिवाज गलत है।
कोई
रीति-रिवाज
ठीक-गलत नहीं
है, मजे में
सारी बात है।
तुम्हें आनंद
आता है तो
बिलकुल ठीक है,
होली मनाओ!
इस फिक्र में
मत पड़ो कि
मनोवैज्ञानिक
क्या कहते
हैं। इस चिंता
में पड़ने की
जरूरत क्या है?
ये
मनोवैज्ञानिकों
से पूछने की
आवश्यकता कहां
है? और
कहीं
मनोवैज्ञानिकों
से पूछ कर कुछ
निर्णय होगा?
मनोवैज्ञानिक
कहेगा कि होली
का मतलब है कि
लोग दमित हैं, लोगों
के भीतर दमन
है, दमन को
निकाल रहे
हैं।
उन्होंने
होली का मजा भी
खराब कर दिया।
अब तुम किसी
पर पिचकारी
नहीं चला सकते,
क्योंकि
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
इसका मतलब तुम
दमन निकाल रहे
हो। तुम किसी
पर रंग नहीं फेंक
सकते, गुलाल
नहीं फेंक
सकते।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, तुम
किसी पर पत्थर
फेंकना चाहते
थे, वह तुम
नहीं फेंक पाए,
यह बहाना
है। तुम
जबर्दस्ती
किसी के मुंह
पर रंग पोत
रहे हो, यह
हिंसा है।
मनोवैज्ञानिक
होली तक न
करने देंगे; दीवाली
पर दीये न
जलाने देंगे।
वे कोई न कोई
मतलब निकाल
लेंगे।
मनोवैज्ञानिकों
का एक ही काम
है: बैठे हुए
मतलब निकालते
रहें और चीजों
का रहस्य खराब
करते रहें।
उनकी जिंदगी तो
खराब हो ही गई;
वे दूसरों
की जिंदगी
खराब कर रहे
हैं।
लाओत्से
कहता है, इसकी
फिक्र मत करो
कि रीति-रिवाज
का क्या अर्थ
है। रीति-रिवाज
मजा देता है, बस काफी है।
मजा अर्थ है।
होली भी मनाओ,
दीवाली भी
मनाओ। कभी
दीये भी जलाओ,
कभी
रंग-गुलाल भी उड़ाओ।
लाओत्से यह कह
रहा है, जिंदगी
को सरल और
नैसर्गिक
रहने दो। उस
पर बड़ी
व्याख्याएं
मत थोपो।
"पास-पड़ोस
के गांव
एक-दूसरे की
नजर में हों, ताकि वे एक-दूसरे
के कुत्तों का
भौंकना और मुर्गों
की बांग सुन
सकें। और लोग
अपने अंतिम
दिनों तक भी
अपने देश से
बाहर न गए
हों।'
लाओत्से
यह कह रहा है, गांव
पास-पड़ोस में
होंगे, लेकिन
क्या जरूरत है
दूसरे गांव
में जाने की? वह भी मन की
रुग्ण दशा है
जो भटकती है।
अपना गांव काफी
है। अपना आकाश
बहुत। अपने
फूल पर्याप्त।
तो लाओत्से
कहता है कि
इतने पड़ोस में
गांव होंगे कि
कुत्ते भौंकेंगे
तो आवाज सुनाई
पड़ेगी, मुर्गे
सुबह बांग
देंगे तो भोर
में उनकी आवाज
सुनाई पड़ेगी
पड़ोस के गांव
की, पड़ोस
के गांव में
लोग सांझ को रोटियां बनाएंगे
तो आकाश में
उनका धुआं
दिखाई पड़ेगा।
इतने करीब भी
जो गांव हैं, उन तक भी लोग
क्यों जाएं?
जो
तृप्त है वह
कहीं नहीं
जाता; अतृप्त
भटकता है। जो
तृप्त है वह
ठहर जाता है।
तृप्ति एक बड़ा
ठहराव है; एक
शांत झील
जिसमें लहर भी
नहीं उठती
यात्रा की, तरंग भी
नहीं उठती।
पश्चिम
में लोग बहुत
अशांत हैं तो
बड़ी यात्रा शुरू
हो गई।
एक
मित्र मेरे
पास आए। मैंने
उनसे पूछा, आप
कहां जा रहे
हैं? उन्होंने
कहा, अब
मैं यूनान जा
रहा हूं। सारी
दुनिया देख
डाली है, बस
एक सपना और रह
गया है--यूनान
देखने का।
उम्र उनकी कोई
पैंसठ साल; थक गए हैं।
सारी दुनिया
देख डाली है, एक सिर्फ
यूनान रह गया
है, वह
कहीं बिना
देखा न रह
जाए। मैंने
उनसे पूछा कि
सारी दुनिया
देख कर क्या
पाया? कंधे
बिचकाए
उन्होंने।
कहा, पाया
तो कुछ भी
नहीं। तो
मैंने कहा, वह यूनान
देख कर और
क्या पा लोगे
जब सारी दुनिया
देख कर न पाया?
नहीं, उन्होंने
कहा कि एक बात
अटकी न रह जाए
मन में। पता
नहीं, जो
कहीं नहीं
मिला वह यूनान
में मिल जाए!
लोग
भटक रहे हैं, यहां
से वहां जा
रहे हैं। एक
बेचैनी है
चित्त की।
इसलिए पश्चिम
की बेचैनी के
कारण रोज स्पीड
बढ़ती जाती है।
तुमने कभी
खयाल न किया
हो, अगर
तुम कभी कार
चलाते हो तो
जिस दिन तुम
बेचैन होते हो,
उस दिन एक्सीलरेटर
ज्यादा दबता
है; उस दिन
तुम सीमा के
बाहर गाड़ी को
चलाते हो। बेचैनी
तीव्रता
चाहती है।
इसलिए पश्चिम
में बेचैनी के
कारण नये-नये
साधन खोजे
जा रहे हैं।
चांद पर जाना
है।
यहां
कुछ न मिला; तुम
चांद को खराब
करने और किसलिए
जा रहे हो? कृपा
करो, अपनी
बीमारी को
यहीं जमीन तक
सीमित रखो।
चांद को क्यों
भ्रष्ट करने
का विचार किया?
जहां
तुम्हारे चरण
पड़ेंगे वहीं
उपद्रव शुरू हो
जाएगा। नहीं
लेकिन बेचैनी
है! चांद पर
जाना है। कहां
रुकेगी
यह बेचैनी?
लाओत्से
कहता है, पड़ोस के
गांव में भी
जाने की क्या
जरूरत है?
इसे
थोड़ा समझ
लेना। इसका
मतलब है। इसका
मतलब है कि जब
तुम अपने भीतर
ठहर जाते हो
तो सब बाहरी यात्राएं
रुक जाती हैं, व्यर्थ
हो जाती हैं।
तुम इतने
प्रसन्न हो, जहां हो
वहीं आकाश का
कोना
तुम्हारे लिए
मोक्ष हो गया;
वहीं स्वर्ग
अवतरित हुआ
है। अब और
कहां जाना है?
कहता
है लाओत्से, छोटा
हो देश ताकि
बड़ी राजनीति
के जाल खड़े न
हों। लोगों की
वासनाएं न हों;
आवश्यकताएं
बराबर तृप्त
की जाएं। ताकि
जितनी
आवश्यकताएं
हैं उससे हजार
गुनी पूर्ति
के साधन हों।
कोई
दीन-दरिद्र
अनुभव न करे।
लोग शिक्षा, संस्कार, सभ्यता, गणित
भूल जाएं; फिर
से गिनने लगें
अंगुलियों पर
या बांधने लगें
गांठें
रस्सियों में,
ताकि
चालाकी खो
जाए। सभ्य
आदमी बड़ी बुरी
तरह से छिपा
हुआ असभ्य है।
असभ्य भी इतने
असभ्य नहीं।
असभ्य बड़े
सीधे-सादे लोग
हैं।
लाओत्से
कहता है, लोग
वापस प्रकृति
के साथ दोस्ती
बना लें, दुश्मनी
छोड़ दें। और
जीवन की
छोटी-छोटी
चीजें प्रार्थनापूर्ण
हो जाएं, अहोभाव
हो जाएं। कोई
उनकी निंदा न
करे। उनकी निंदा
करके ही
उपद्रव हुआ
है।
जीवन
अपने आप में
मूल्यवान है; उसकी
इनट्रिंजिक
वैल्यू
है, उसकी
आंतरिक मूल्यवत्ता
है। जीवन किसी
और कारण से
मूल्यवान
नहीं है। जीवन
अपने आप में
मूल्य है, आखिरी
चरम मूल्य है।
लोग जीएं
और लोगों का
जीवन एक नृत्य
और गीत बन
जाए। इस गीत
और नृत्य से
ही परमात्मा
की सुगंध
उठेगी। इस गीत
और नृत्य से
ही, कभी
तुम पाओगे, तुम्हारे
चरण मंदिर के
द्वार पर आ
गए।
जीवन
के अतिरिक्त
और कोई
परमात्मा
नहीं है। जीवन
की गहनता ही
है परमात्मा।
और जीवन के
अतिरिक्त कोई
तीर्थ नहीं
है। जीवन में
ही जो उतर जाता
है वह तीर्थ
पर पहुंच जाता
है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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