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गुरुवार, 8 जनवरी 2015

दीया तले अंधेरा--(झेन कथा) प्रवचन--04

मृत शब्दों से जीवित सत्य की प्राप्ति असंभव—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 सितंबर, 1974.
श्री ओशो आश्रम, पूना।


भगवान!
एक घुमक्कड़ साधु ने एक बूढ़ी स्त्री से तैजान का रास्ता पूछा। तैजान एक प्रसिद्ध मंदिर है और समझा जाता है कि वहां पूजा करने से विवेक की उपलब्धि होती है।
बूढ़ी स्त्री ने कहा: 'सीधे आगे चले जाओ।'
जब साधु कुछ दूर गया था तो बुढ़िया ने स्वयं से कहा: 'यह भी एक साधारण मंदिर जाने वाला है।'
किसी ने यह बात जोशू से कह दी।
जोशू ने कहा: 'रुको, जब तक मैं जांच-पड़ताल न कर लूं।'
दूसरे दिन जोशू गया, उसने वही सवाल पूछा और बुढ़िया ने वही उत्तर दिया।
जोशू ने कहा: 'मैंने उस बुढ़िया की जांच कर ली।'

भगवान! इस पहेली जैसी झेन-कथा का अभिप्राय क्या है?


स बोध कथा के पहले कुछ भूमिका समझ लेनी जरूरी है। पहली बात, झेन की दृष्टि है कि सत्य को दुहराया नहीं जा सकता। उसकी पुनरुक्ति संभव नहीं है। उसे पुनरुक्त वही करता है जो नहीं जानता। सत्य प्रतिपल नया हो रहा है। वह कभी पुराना नहीं। पुराने को दुहरा सकते हैं। प्रतिपल नये होते को कैसे दुहरायेंगे? इसलिए जिन-जिन शब्दों को हम दुहराने लगते हैं, उन-उन का सत्य से संबंध टूट जाता है। सिद्धांत दुहराये जा सकते हैं, सत्य नहीं। सत्य की उदघोषणा में यह बात अंतर्निहित ही है, कि सत्य प्रतिपल नया होगा।
एक तो सत्य की धारणा है दार्शनिकों की। उनकी धारणा है, जैसे सत्य कोई थिर वस्तु है। तुमने उसे खोज लिया, खोज लिया। दूसरी धारणा है धार्मिकों की। सत्य कोई स्टैटिक, थिर वस्तु नहीं है। सत्य तो इस जगत की जो गत्यात्मकता है, डायनेमिज्म है, वही है। सत्य कोई पत्थर की तरह नहीं, बहती हुई नदी की धार की तरह है। सत्य कोई चट्टान की तरह नहीं, खिलते हुए फूल की तरह है। सत्य जीवंत है, मुर्दा नहीं।
विज्ञान मुर्दा सत्यों को खोजता है, इसलिए एक बार खोज लिए, सदा के लिए खोज लिए। फिर बार-बार उन्हें खोजने की जरूरत नहीं। इसलिए विज्ञान की शिक्षा दी जा सकती है। जो सत्य एक बार पता चल गया--न्यूटन ने खोजा, आइंस्टीन ने खोजा, या किसी और ने खोजा, फिर अब दूसरे को खोजना नहीं है; केवल समझ लेना है। बच्चे स्कूल में पढ़ लेंगे। जिसको न्यूटन को खोजने में जीवन भर लगा होगा, बच्चे को घड़ी भर न लगेगी समझने में।
लेकिन धर्म का सत्य ऐसा नहीं है। वह रोज बदल रहा है। रोज कहना देर हो गई, प्रतिपल बदल रहा है। क्योंकि धर्म का सत्य जीवन की खोज है। इसलिए बुद्ध ने खोजा, महावीर ने खोजा, कृष्ण ने खोजा, उनके उधार शब्दों को तुम मत दुहराते रहना। वह तुम्हें खोजना पड़ेगा। तुम्हारे खोजे बिना वह तुम्हें न मिलेगा। इसलिए धर्म के सत्य को कोई किसी दूसरे को हस्तांतरित नहीं कर सकता, ट्रांसफर नहीं कर सकता। धर्म का सत्य अत्यंत निजी है। और हरेक को अपना ही खोजना होता है। इसलिए मैं कहता हूं, कोई राजपथ नहीं है जो तैयार हो, जिस पर तुम सब चल जाओ। और कोई नक्शा नहीं है, जो तुम्हें दे दिया जाये। जिसके अनुसार तुम परमात्मा के मंदिर तक पहुंच जाओ। तुम्हारी खोज से ही रास्ता बनेगा। खोज खोज कर, गिरकर, उठकर, हारकर, जीतकर, तुम्हारी जीवन की ऊर्जा ही उसका द्वार बनेगी। सत्य अनुभव किया जायेगा, शब्द से दिया नहीं जायेगा।
लेकिन हमने भ्रांति से धर्म को भी विज्ञान की तरह समझ लिया है। तो हम सिद्धांत सीख लेते हैं और दुहराते चले जाते हैं। जिन्होंने उन सिद्धांतों को खोजा होगा वह उनके लिए सत्य रहे होंगे, तुम्हारे लिए नहीं। तुम्हारी पुनरुक्ति ही बताती है कि तुम तोतों की भांति हो। तुम्हें ज्ञान नहीं, स्मृति है।
अगर बुद्ध आज पैदा हों और फिर सत्य को खोजें, तो वे उन्हीं शब्दों में नहीं बांधेंगे, जिनमें उन्होंने ढाई हजार साल पहले बांधा था। वे शब्द भी जा चुके हैं। गंगा का बहुत पानी बह गया तब से। उन शब्दों में अब सार न रहा। उन शब्दों का सब सार निचुड़ गया और वे शब्द तोतों के हाथ में पड़ गये। उन्होंने उनको कंठस्थ-कंठस्थ करके बिलकुल जड़ कर दिया। कीमती से कीमती शब्द बहुत बार दुहराये जाने पर अर्थहीन हो जाता है।
तुम देखो, तुम कहते हो कि आम मुझे बहुत प्रिय है। पत्नी मुझे बड़ी प्यारी है। बेटे से मेरा बड़ा प्रेम है। कार से मेरा बड़ा प्रेम है। इस मकान के पीछे तो मैं दीवाना हूं प्रेम में। तुम प्रेम शब्द को मारे डाल रहे हो। तुम्हें मिठाई भी प्रीतिकर है, पत्नी भी प्रीतिकर है, कार भी प्रीतिकर। तुम प्रेम शब्द को निचोड़े डाल रहे हो। तुम उसको इतना दुहरा रहे हो कि वह करीब-करीब अर्थहीन हो जायेगा।
'परमात्मा' शब्द ऐसे ही मार डाला गया। उसे इतना दुहराया लोगों ने कि अब उसमें कोई सार नहीं रहा। आज उसे कहने से कुछ भी प्रतिध्वनित नहीं होता। हृदय की वीणा का कोई तार नहीं छिड़ता। कोई कितना ही 'परमात्मा, परमात्मा' कहता रहे, तुम्हारे भीतर न तो हवा का कोई झोंका आता है, जो तुम्हें ताजगी से भर दे; न कोई अज्ञात की सुगंध उतरती है कि तुम पुलकित हो जाओ; न तुम्हारे पैरों में घूंघर बंध जाते हैं शब्द को सुनकर कि तुम नाचने लगो। 'परमात्मा' इतना बासा शब्द हो गया कि उससे कुछ भी नहीं होता। उससे तो साधारण शब्द भी ज्यादा सार्थक है। कोई कहे 'नींबू', तो कम से कम मुंह में थोड़ा पानी तो आता! कोई कह दे 'आग' तो कम से कम तुम भागते तो हो। घबड़ा तो जाते हो। लेकिन परमात्मा के साथ वैसी हालत हो गई, जैसी पुरानी बच्चों की कहानी में है।
एक गड़रिये का लड़का रोज-रोज चिल्लाने लगा, 'भेड़िया-भेड़िया।' पहले दिन चिल्लाया, गांव के लोग पहुंचे और वहां कोई नहीं था। वह लड़का हंसने लगा। उसने लोगों को बुद्धू बनाया था। वह मजाक कर रहा था। दो चार दिन बाद वह फिर चिल्लाया, 'भेड़िया-भेड़िया।' लोग गये; उतने नहीं, जितने पहली बार गये थे। लोगों ने समझा शायद मजाक करता हो। लेकिन जो निकट प्रियजन थे, परिवार के थे, उन्होंने सोचा, 'कौन जाने आज भेड़िया आ ही गया हो!' लेकिन लड़का फिर मजाक कर रहा था। तीसरी बार जब वह चिल्लाया तो कोई भी न गया, लेकिन भेड़िया आ गया था। शब्द अर्थहीन कर दिया उसने दुहरा कर। उसकी त्वरात्तेजी चली गई।
जिन-जिन शब्दों को हम बहुत दुहराते हैं, उनकी त्वरा और तेजी चली जाती है। उनके भीतर का प्राण ठंडा हो जाता है। यहूदियों में एक नियम है, और बहुत प्रीतिकर है, कि परमात्मा का नाम मत लेना। क्योंकि तुम्हारे होंठ उसे गंदा कर देंगे। इसलिए यहूदियों में परमात्मा का कोई नाम नहीं है। 'याह वे', परमात्मा का नाम नहीं है, सिर्फ प्रतीक है, इशारा है। और वे कहते हैं, परमात्मा का नाम कोई न ले। क्योंकि तुम अच्छे से अच्छे, कीमती से कीमती शब्द की बखिया उखेड़ दोगे। तुम उसे खराब कर दोगे। और तुम उसे ऐसी-ऐसी जगह दुहराओगे कि जिसका कोई हिसाब नहीं।
एक छोटा बच्चा कह रहा था, स्कूल में उससे पूछा गया, 'परमात्मा कहां है?' तो उसने कहा कि 'मेरे घर के बाथरूम में।' वह शिक्षिका बहुत हैरान हुई, 'यह तुझे किसने बताया?' उसने कहा कि 'बताया किसी ने नहीं, मेरी मां रोज पूछती है। जब मेरे पिता स्नान कर रहे होते हैं, तो रोज कहती है, हे परमात्मा, क्या अभी तक स्नान चल रहा है? इससे मैं समझा कि परमात्मा मेरे घर के बाथरूम में रहता है।'
यह जो हम शब्दों का उपयोग करते हैं बिना जाने, बिना अनुभव किये, उनको सुन-सुनकर हम इतने आदी हो जायेंगे, कि उनसे हमारे भीतर कोई तरंग न उठेगी। उठ भी नहीं सकती। हर व्यक्ति को अपना परमात्मा खोजना पड़ता है, अपना शब्द खोजना पड़ता है, नये को खोजना पड़ता है जिससे हृदय नाच उठे। इसलिए दुनिया में इतने धर्मों का जन्म हुआ। अगर तुम इस बात को समझ सको, तो दुनिया में इतने धर्मों के जन्म का माौलिक कारण समझ में आ जायेगा।
महावीर पैदा हुए, हिंदुओं के शब्द मर चुके थे। वेद मुर्दा हो चुका था। लोग इतना दुहरा चुके थे, पंडित इतना कंठस्थ कर चुके थे, गलत मुंह से वेद-मंत्रों का उच्चार इतना हो चुका था, कि अब वेद उच्छिष्ट था। अब उसे कोई भी खोजी सिर पर ढोने को राजी नहीं हो सकता। अब उसमें कोई सार न था। और महावीर ने कहा, 'छोड़ो; वेद में कुछ भी नहीं है।' इसका यह अर्थ नहीं कि वेद में कुछ भी नहीं है। इसका कुल इतना अर्थ है कि महावीर के समय तक आते-आते वेद में कुछ न बचा। तुमने वेद मार डाला। महावीर को नये शब्द खोजने पड़े। उन नये शब्दों के कारण नया धर्म शुरू हुआ। लेकिन अब वही गति उस धर्म की हो गई। लोगों ने महावीर को मार डाला। लोग तो किसी को भी मार डालेंगे, क्योंकि लोग मुर्दा हैं। वे जिस चीज को भी छूते हैं, वह मर जाती है।
बुद्ध, महावीर के समय में ही जिंदा थे। थोड़ी ही उम्र कम थी उनकी। महावीर से कोई बीसत्तीस साल का फर्क है। लेकिन महावीर के जिंदा रहते ही लोगों ने महावीर के शब्द मार डाले। वे बासे मालूम पड़ने लगे। लोगों ने दुहरा दिया उनको बहुत। बुद्ध को नये शब्द महावीर के जिंदा रहते खोजने पड़े।
नये धर्म इसीलिए पैदा होते हैं क्योंकि सत्य रोज नया होता जाता है। पुराने धर्म पुराने शब्दों से जकड़ जाते हैं। और जहां शब्दों का जाल खड़ा होता है, वहां से सत्य बाहर हो जाता है। वह ऐसी मछली है, जिसे जालों में नहीं पकड़ा जा सकता। वह परम स्वतंत्रता का नाम है। उसे जालों में पकड़ा कैसे जायेगा?
इसलिए जहां भी तुम किसी को दुहराता हुआ पाओ, समझना कि वहां आत्मा नहीं है, केवल स्मृति है। वहां पंडित है, ज्ञानी नहीं। ज्ञानी सतत बहते हुए एक झरने की भांति है। तुम उसे कभी एक रंग में न पाओगे। तुम उसे रोज बदलता हुआ देखोगे। तुम पाओगे कि वह जीवित धारा है।
एक नदी के किनारे बैठ कर तुम अध्ययन करो नदी का, तुम उसे हर घड़ी बदलते हुए पाओगे। कभी वह मौज में बहती है, नाचती है, कभी गुरु-गंभीर हो जाती है। कभी तूफान, आंधी, बाढ़, और तब उसका रूप बड़ा विकराल हो जाता है। तांडव शुरू होता है। कभी वह इतनी धीर गंभीर होती है, कि तुम सोच ही नहीं सकते कि यह नदी और इतने तांडव में उतर जायेगी। कभी वह इतनी शांत होती है, कि एक तरंग भी नहीं, जैसे ध्यानस्थ हो। कभी गर्मियों में सूख कर नववधू जैसी हो जाती है। इतनी दुबली-पतली, क्षीणकाय! कभी वर्षा है, कभी शीत है, कभी गर्मी है, नदी बदलती रहती है।
हरमन हेस की किताब 'सिद्धार्थ' पढ़ने जैसी है। सिद्धार्थ एक नदी के किनारे बैठा-बैठा, नदी का अध्ययन करते-करते, ज्ञान को उपलब्ध होता गया। नदी के मूड, नदी की बदलती हुई भाव-दशायें, भाव-भंगिमायें...।
लेकिन नदी जिंदा है। एक सड़े हुए डबरे के पास तुम ये भाव-भंगिमायें न पाओगे। वह एक सा है। वही दुर्गंध वहां सदा उठती रहती है। वह सड़ता रहता है। उसके आस-पास सब जीवन सिकुड़ गया है।
एक छोटे बच्चे जैसा है सत्य, एक मरी हुई लाश जैसा नहीं। लेकिन पंडित मरी हुई लाशों के बड़े प्रेमी हैं। कारण है; क्योंकि मुर्दे के साथ तुम जो व्यवहार करना चाहो, कर सकते हो। जीवन तुम्हारी नहीं सुनता। और जीवन किन्हीं बंधन को नहीं मानता। और जीवन सीमाओं को तोड़ता है। जीवन बड़ा बगावती है।
सत्य से बड़ी कोई बगावत नहीं है।
कोई भी ढांचा तुम बनाओ, तुम पाओगे वह उसे तोड़ देता है। क्योंकि सत्य बहुत बड़ा है। तुम उसे छोटा नहीं कर पाते। और तुम्हारे ढांचे कितने ही बड़े हों, इतने बड़े नहीं होते कि सत्य को बांध सकें। तुम जो भी कपड़े बनाते हो, वे सदा छोटे पड़ जाते हैं बच्चे के लिए। मुर्दे के लिए तुम जो कपड़े बनाओगे वे कभी छोटे न पड़ेंगे।
बच्चा बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा है। तुम जब कपड़े बना रहे हो, तभी बच्चा कपड़ों के बाहर हुआ जा रहा है। और पंडित कोशिश करता है बचपन में जो कपड़े सीये थे, वे जवानी में भी पहनाने की।
इसलिए धर्म जब पंडित के हाथ में पड़ता है, तो कारागृह बन जाता है। ज्ञानी के हाथ में मोक्ष, पंडित के हाथ में वही कारागृह। ज्ञानी जिसे परम स्वतंत्रता का आधार बना लेता है, पंडित उसे ही तुम्हारी कैद में परिवर्तित कर देता है। ज्ञानी का असली दुश्मन पापी नहीं है, असली दुश्मन पंडित है। यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है।
इसलिए तुम अगर ज्ञानी के पास जाओगे, कुछ पूछोगे, आज वह कुछ और कहेगा, कल उसने कुछ और कहा था, परसों कुछ और कहेगा। क्योंकि वह जो कह रहा है, वह किसी स्मृति को नहीं दुहराता। वह प्रतिपल जो संवेदित होता है उसके भीतर, सहज--वही निवेदन कर रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा चला और मजिस्ट्रेट ने पूछा 'तुम्हारी उम्र क्या है नसरुद्दीन?' उसने कहा, 'चालीस वर्ष।' उस मजिस्ट्रेट ने कहा, 'हद हो गई! झूठ की भी एक सीमा है। तीन साल पहले भी तुम पर मुकदमा चला था, तब भी तुमने चालीस वर्ष ही बताया था।' नसरुद्दीन ने कहा, 'आपने सवाल भी तब यही किया था, कितनी उम्र? मैं संगत आदमी हूं; जो जवाब एक दफे दे दिया, अब अदालत में मैं झूठ न बोलूंगा। तुम हजार बार पूछो, तुम मुझे धोखे में न डाल सकोगे। मैं चालीस--जो जबाब दे चुका, दे चुका; उस पर मजबूत रहूंगा।'
ज्ञानी को तुम इस हालत में न पाओगे। पंडित सदा इसी हालत में है। तुम उससे कभी भी सवाल पूछो, उसके जवाब बंधे हुए हैं। उसके जवाब रेडीमेड हैं। वह तुम्हें जवाब नहीं देता। उसके प्रश्न-उत्तर तय हैं। तुमसे उसे मतलब नहीं है, तुम जो सामने खड़े हो--जीवित। तुमने जो सवाल पूछा है, वह अगर तोता भी पूछता तो भी यह वही जवाब देता। तुमसे उसे मतलब नहीं है। लेकिन ज्ञानी तुम्हें देखता है। और यह जरा बारीक बात है, कि चाहे शब्द एक ही हों प्रश्नों के, हर आदमी का प्रश्न अलग होगा; क्योंकि हर आदमी अलग है। तुम वही शब्द क्यों न उपयोग करो!
तुम आकर मुझसे पूछो, 'ईश्वर है?' और घड़ी भर पहले किसी और ने भी पूछा था, 'ईश्वर है?' और घड़ी भर बाद कोई और भी पूछेगा, 'ईश्वर है?' लेकिन ये तीनों प्रश्न एक नहीं हो सकते। तीन आदमी एक ही प्रश्न पूछ कैसे सकते हैं?
आदमी अलग हैं। शब्द एक से हैं, लेकिन उन शब्दों में जो उंडेला गया है, वह व्यक्तित्व अलग है। बोतलें समान हैं, लेकिन शराब भिन्न है। बोतल थोड़े ही शराब है! शब्द थोड़े ही प्रश्न हैं! शब्द तो खोल है, वह तो कैपसूल है। उसके भीतर की दवा तीन आदमियों की अलग-अलग है।
एक नास्तिक पूछता है कि 'क्या ईश्वर है?' तब उसका अर्थ और है। वह यह पूछ रहा है कि 'है तो नहीं, लेकिन फिर भी आपका क्या खयाल है?' वह इस तलाश में है कि तुम भी कह दो, 'नहीं है,' ताकि वह प्रसन्न हो। अगर तुम कहो कि 'है' तो वह विवाद करे।
आस्तिक भी पूछता है, 'ईश्वर है?' बड़ा भिन्न है। वह चाहता है, 'कहो, हां।' हां की अपेक्षा है उसके प्रश्न में। वह जानता तो है ही कि ईश्वर है; सिर्फ तुमसे और गवाही चाहता है। तुम भी उसके साथी हो जाओ, उसका विश्वास सघन करो, उसकी आस्था मजबूत हो। और अगर तुम कहो, 'है' तो वह प्रसन्न होता है। उसका अहंकार भरता है, कि जो मैं कहता था वह ठीक है। यह आदमी भी साथ है। उसने अपने भीतर के विश्वास को और बढ़ा लिया। एक गवाह और मिल गया। तुम कहो, 'नहीं' तो वह विवाद करेगा।      
एक तीसरा आदमी है, जो न आस्तिक है, न नास्तिक है। जिसे कुछ पता नहीं कि ईश्वर है, या नहीं। वह भी पूछता है कि 'क्या ईश्वर है?' उसकी जिज्ञासा शुद्ध है। उसकी जिज्ञासा के पीछे कोई सिद्धांत विकृत करनेवाला नहीं है। उसकी जिज्ञासा में न आस्था है, न अनास्था है। उसकी जिज्ञासा, सिर्फ जिज्ञासा है। वह तुमसे उत्तर पाकर अपने भीतर कुछ भरने के लिए नहीं आया है। तुम्हारे उत्तर से उसे कोई अपेक्षा नहीं है।
ये बड़े भिन्न प्रश्न हैं। और ज्ञानी इन तीनों के अलग उत्तर देगा। पंडित तीनों का एक उत्तर देगा। क्योंकि पंडित प्रश्न को देखता है, ज्ञानी प्रश्नकर्ता को देखता है। ज्ञानी उसे देखता है, जो सामने खड़ा है। जिसके भीतर यह प्रश्न लगा है। इस प्रश्न को तो प्रतीक मानता है। इसके पीछे छिपा हुआ पूरा व्यक्तित्व भिन्न है। यह प्रश्न तो आखिरी चोटी है, जिससे वह कुतूहल से भर गया है। लेकिन जो कुतूहल से भरा है, उसका इतिहास अलग है। तीनों के इतिहास अलग हैं। तीनों की आत्मकथा अलग है। उनका प्रश्न एक जैसा कैसे हो सकता है? असंभव है।
आधुनिक चिकित्सा-शास्त्र इस खोज पर धीरे-धीरे आता जा रहा है, कि एक ही बीमारी हो, तो भी एक दवा काम नहीं करती। क्योंकि बीमार अलग-अलग, उनका इतिहास अलग-अलग। इसलिए बहुत बार यह होता है, कि तुम बीमार हो, वही बीमारी है, सब सिंपटम वही हैं, निदान वही है, तुम्हें भी पेनिसिलिन दी जाती है; दूसरे आदमी के भी प्रतीक, सिंपटम वही हैं, रोग वही है, तुम बिलकुल रोग की दृष्टि से एक जैसे हो। यंत्रों की जांच, एक्सरे, खून की परीक्षा, सब बराबर एक जैसी हैं। जैसे तुम एक ही मरीज हो, दो नहीं। फिर भी एक को पेनिसिलिन ठीक करती है, दूसरे को मुश्किल में डाल देती है।
पहले चिकित्सा-शास्त्र बहुत हैरानी में था कि यह मामला क्या है? धीरे-धीरे समझ में आना शुरू हुआ कि दोनों का इतिहास अलग है। बीमारी एक है, लेकिन बीमारी की आत्मकथा अलग। दोनों अलग घरों में जन्मे, अलग तरह से बड़े हुए, अलग तरह के भोजन किए, अलग तरह का वातावरण रहा, अलग तरह का वंश, खून, हड्डी, मांस, सब अलग। बीमारी एक कैसे हो सकती है?
इसलिए पुराना सूत्र था चिकित्सा का--बीमारी का इलाज। अब वे कहते हैं--बीमार का इलाज। डोंट ट्रीटडिजीज, ट्रीटपेशंट। बड़ा कठिन है! क्योंकि तब तो हर मरीज को अलग से अध्ययन करना पड़ेगा। बीमारी काफी नहीं है, बीमारी के पीछे छिपे हुए व्यक्ति की खोज करनी पड़ेगी। और हर मरीज को विशिष्टता से देखना पड़ेगा। क्योंकि कोई भी मनुष्य इकाई नहीं है। वह पृथक, निजी व्यक्तित्व है। वह एक स्वतंत्र अस्तित्व है। उसकी बीमारी, उसके प्रश्न, सब अलग हैं।
पंडित बीमारी देखता, प्रश्न देखता; ज्ञानी बीमार को देखता, प्रश्नकर्ता को देखता है। और उत्तर तब अलग होते हैं। इसलिए बड़ी कठिनाई है। ज्ञानियों के वचन को जब तुम इकट्ठा करोगे, तो बहुत असंगति पाओगे। क्योंकि तुम यह तो भूल ही जाओगे कि किसको ये उत्तर दिए गये थे? इसलिए तुम बुद्ध से ज्यादा असंगत आदमी न पा सकोगे। आज कुछ कहते, कल कुछ कहते, परसों कुछ कहते हैं। चालीस साल में अपने आप का इतना खंडन किया है उन्होंने कि बुद्ध के मरते ही अनेक स्कूल पैदा हो गये। अनेक संप्रदाय बन गये बुद्ध के वचनों पर। सभी ने अपने-अपने हिसाब से चुन लिए। और जो-जो बातें असंगत थीं, वे काट दीं। वे बाहर कर दीं।
मन संगति बनाता है, आत्मा स्वतंत्रता है।
संगति भी एक बंधन है। जब तुम संगति बनाते हो, तब तर्कयुक्त हो जाते हो। लेकिन जीवन चूक जाता है। इसलिये संप्रदायों में धर्म नहीं है, संप्रदायों में संगति है। धर्म बड़ा असंगत है। बड़ा पैराडाक्सिकल है। धर्म सभी अंतर्विरोधों को समाये हुए है। बुद्ध का व्यक्तित्व एक दर्पण की भांति है। तुम दर्पण से यह तो नहीं कहते कि मैं बीस साल पहले आया था तब तूने मुझे बच्चे की तरह दिखाया, अब मैं आया हूं तो तू मुझे जवान की तरह दिखा रहा है। तेरा कोई भरोसा नहीं। बीस साल बाद आऊंगा, क्या तू मुझे बूढ़े की तरह दिखायेगा?
बुद्ध दर्पण की तरह हैं। पंडित फोटोग्राफ है। तुम बीस साल बाद आओ, तब भी वह वही रहेगा। पचास साल बाद आओ, तब भी वह वही रहेगा। फोटोग्राफ मरी हुई चीज है। दर्पण जीवित है। दर्पण वही दिखलाता है, जो सामने है। अब तुम ही बदल गये तो दर्पण क्या करे? जीवन ही बदल गया।
सत्य गत्यात्मक है, डायनेमिक है, तो बुद्ध क्या करें?
कल वसंत था और फूल खिले थे, अब पतझड़ है और पत्ते गिर रहे हैं, तो अब बुद्ध क्या करें? कल नदी में बाढ़ थी और अब सब सूख गया, मरुस्थल हो गया, तो बुद्ध क्या करें? जो जीवन है उसी को वे प्रतिफलित करते हैं। वे शुद्ध दर्पण हैं।
पंडित को जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। वह लकीर का फकीर है। वह आंख बंद किए बैठा है। वह चारों तरफ देखता नहीं है कि क्या स्थिति है। वह अपने शास्त्र में खोजता है। वह वहां देखता है, जीवन में नहीं। उसकी खोज शास्त्र की है, सत्य की नहीं। इन बातों को खयाल रखें तब यह छोटी सी घटना बड़ी अर्थपूर्ण मालूम पड़ेगी।

एक घुमक्कड़ साधु ने एक बूढ़ी स्त्री से तैजान का रास्ता पूछा। तैजान एक प्रसिद्ध मंदिर है। और समझा जाता है कि वहां पूजा करने से विवेक की उपलब्धि होती है।
मंदिर वही है, जहां विवेक की उपलब्धि हो। जहां पूजा मूर्च्छा न बने; जहां पूजा जागरण बने। मंदिर का अर्थ ही वही है। अगर ऐसा न होता हो, तो वहां कुछ और होगा, मंदिर नहीं। और तुम अगर ऐसी जगह पहुंच जाओ जहां विवेक न जगता हो, तो तुम कहीं भी पहुंच गये, लेकिन मंदिर में नहीं पहुंचे। मंदिर कोई भौगोलिक, बाह्य घटना नहीं है; आंतरिक घटना है। तुम अगर वृक्ष के नीचे बैठ कर, या दूकान के छप्पर के नीचे बैठ कर भी विवेक को उपलब्ध हो जाओ, तो वहीं मंदिर है। और तुम मंदिरों में घंटे बजाते रहो, क्रियाकांड करते रहो, और विवेक उपलब्ध न हो, तो वहां भी दूकान है।
समझा जाता था कि वहां पूजा करने से विवेक की उपलब्धि होती है। बूढ़ी स्त्री से इस साधु ने पूछा, घुमक्कड़ साधु ने, कि उस मंदिर का रास्ता कहां है?
उस स्त्री ने कहा, 'गो स्ट्रेट अहेड, बिलकुल सीधे चले जाओ।'
यह 'गो स्ट्रेट अहेड, बिलकुल सीधे चले जाओ' एक झेन सूत्र है। यह एक विधि है। अगर तुम बिलकुल सीधे चले जाओ, बांये मुड़ो, दांये; अर्थात बिलकुल मध्य में चले जाओ, न इधर देखो, न उधर; न इस अति पर, न उस अति पर, 'म)जिम निकाय' बन जाये तुम्हारी जीवन यात्रा, तो तुम मंदिर पहुंच जाओगे, जहां विवेक उपलब्ध होता है। 'गो स्ट्रेट अहेड'--बिलकुल सीधे चलते चले जाओ। इसका मतलब है न बांये, दांये; न यह, न वह, ठीक मध्य को चुन लो।
बुद्ध और महावीर दोनों ने 'सम्यक' शब्द पर बड़ा जोर दिया है। बुद्ध तो बिना सम्यक शब्द को लगाये किसी चीज को बोलते ही नहीं। वही सम्यक की तरफ इशारा है--गो स्ट्रेट अहेड
सम्यक शब्द बड़ा अर्थपूर्ण है। सम्यक का अर्थ है, न इस तरफ झुके, न उस तरफ झुके--सम। जैसे तराजू के जब दोनों पलड़े बराबर हो जाते हैं, न इस तरफ झुके, न उस तरफ, और बीच का कांटा सीधा नब्बे का कोण बनाता है, वह सम्यकत्व है।
उपनिषदों में कथा है, कि एक आदमी सत्य की खोज करते-करते थक गया। बहुत द्वार खटखटाये, खाली हाथ लौटा। बहुत गुरुओं के चरण दबाये, आत्मा न भरी, न भरी। बहुत शास्त्र सीखे, सिद्धांत, उल्टे-सीधे आसन लगाये, वर्षों बिताये, लेकिन जैसा खाली था, खाली ही रहा। और विषाद घना हो गया। असफलता ने और विषाद ला दिया। आशा भी मर गई। तब उसने जो उसका आखिरी गुरु था उससे पूछा कि 'अब मैं क्या करूं?' तो उस गुरु ने कहा कि 'ऐसा कर! जहां तू खोज रहा है, वहां तुझे नहीं मिलेगा। क्योंकि वहां है नहीं। लेकिन इस नगर में एक वैश्य है, एक बनिया है। तुलाधर उसका नाम है। तू उसके पास चला जा।'
उस आदमी ने सिर पीट लिया। उसने कहा, 'वह मेरा पड़ोसी है--तुलाधर। उससे ज्ञान मिलने वाला है? हद हो गई! मजाक की भी एक सीमा होती है। उसे मैं भलीभांति जानता हूं। सिवाय तराजू तौलने के उसने जिंदगी में कुछ किया नहीं, इसीलिए तो तुलाधर नाम है। बस, वही करता रहता है सुबह से रात तक। उसको क्या सत्य का पता होगा?'
उसके गुरु ने कहा, 'तू और जगह तो खोज ही चुका, अब पड़ोसी में भी कोशिश कर ले। कई बार ऐसा हो जाता है कि जो पड़ोस में है, उसके लिए हम दूर खोजते रहते हैं। और जो भीतर है, उसके लिए हम बाहर खोजते रहते हैं। और जो निकट था, उसको हम दूर खोजने की वजह से चूक जाते हैं। तू जा; परमात्मा सदा ही पड़ोस में है।'
तुम खोते हो क्योंकि दूर खोजते हो। कहा गुरु ने, और सब और यात्रा असफल हो गई थी, तो वह आदमी गया। आंख पर उसे भरोसा न आया। अपने पर भी भरोसा न आया, कि तुलाधर के पास किसलिए जा रहा है? वह बनिया, जो दिन रात सिवाय तौलने के कुछ करता नहीं है!
फिर भी जब गुरु ने कहा, तो वह गया। बड़े संकोच से, बड़ी झिझक से; और इस आदमी की ख्याति थी कि यह बड़ा सत्य का खोजी है। तुलाधर की तो कोई ख्याति न थी। सिवाय तराजू तौलने के और कुछ था ही नहीं। वही उनका नाम हो गया था। वही उनका तादात्म्य था एक मात्र। वही उनकी पहचान थी। फिर भी यह गया जिज्ञासु भाव से। इसने बैठ कर कहा कि मेरे गुरु ने कहा है, कि तुलाधर से पूछ। तो क्या है राज?
वह तराजू तौल रहा था। उसने बस तराजू सामने कर दी और कहा, कि बस कांटा बीच में रहे। न बांये झुके, दांये। यही राज है। और यही मैंने सीखा और ऐसा मैं बाहर भी कर रहा हूं, और ऐसा ही भीतर भी। बस, बाहर भी तराजू, भीतर भी तराजू। न बांये झुकने देता, दांये। बस, मध्य में रहता हूं। और ज्यादा मैं नहीं जानता, मैं साधारण दूकानदार हूं। बस इतना! और इसमें मैं शांत हूं और आनंदित हूं। और जो मुझे पाना था, मिल गया।
सम्यक का अर्थ है, 'तुलाधर'। कहीं झुकाव नहीं। अतियों में झुकाव नहीं, मध्य में थिरता। तो बुद्ध तो, कोई भी वचन बोलते हैं--अगर वे कहते हैं विवेक, तो वे कहते हैं 'सम्यक विवेक।' क्योंकि विवेक भी इधर-उधर ज्यादा झुक जाये, तो मुसीबत में डाल सकता है। दवा भी ज्यादा खा लो, तो जहर बन सकती है। 'सम्यक' हर चीज में जोड़ते हैं। बुद्ध का अष्टांग मार्ग है, तो उसमें हर शब्द के साथ सम्यक जोड़ा है।
सम्यक व्यायाम; इतना भी मत कर लेना कि थक जाओ। और खाली भी मत बैठे रहना कि आलस्य से भर जाओ। न आलस्य, न व्यायाम। दोनों के मध्य में बिंदु खोज लेना; उसका नाम सम्यक-व्यायाम।
सम्यक स्मृति। सम्यक हर चीज में लगाये जाते हैं। अंतिम सम्यक-समाधि। बुद्ध कहते हैं, वह भी सम्यक। उसमें भी अति मत कर देना। क्योंकि समाधि में भी अति हो सकती है, उससे ज्यादा स्वादिष्ट इस जगत में और कुछ भी नहीं है। और हमारा मन ऐसा लोलुप है कि समाधि लग जाये, तो फिर हम बाहर ही न आना चाहें।
तो बुद्ध वहां भी स्मरण के लिए कहते हैं कि सम्यक। भीतर जाना और बाहर आना, भीतर जाना, बाहर आना, दोनों तराजुओं को, दोनों पलड़ों को बराबर रखना। तुम मध्य में रहना। न तो बाहर से जकड़ जाना, न भीतर से जकड़ जाना। बुद्ध कहते हैं, बाहर भी सुख नहीं है, भीतर भी सुख नहीं है, मध्य में सुख है। तुम दोनों के मध्य में हो, जहां बाहर और भीतर मिलते हैं। न तो भवन के भीतर तुम हो, न भवन के बाहर तुम हो, तुम ठीक देहली पर खड़े हो। वहीं तुम हो।
नहीं तो क्या होता है कि साधक कहता है, कुछ काम न करूंगा। मैं तो आंख बंद करके बैठा रहूंगा। मैं समाधि...ऐसी समाधि भी रोग हो जायेगी। ऐसी समाधि ने हिंदुओं को मारा। क्योंकि हिंदुओं में जो भी प्रतिभावान व्यक्ति था, वह समाधि में डूब गया। जो आइंस्टीन बन सकता था वह समाधि में डूब गया। जो न्यूटन बनता, वह समाधि में डूब गया। उन सबने आंखें बंद कर लीं। बुद्धुओं के हाथ में मुल्क पड़ गया। असम्यक-समाधि ने हिंदुओं को मारा। अन्यथा हमारे पास प्रतिभा की कोई कमी न थी। हम वह सब कर लेते, जो पश्चिम में हुआ। और हम उनसे बेहतर करते, क्योंकि हमें भीतर का भी स्वाद था। हम असम्यक-समाधि से मरे।
वे असम्यक-संसार से मरे जा रहे हैं। बाहर...बाहर...बाहर...। इतने लीन हो गये हैं, कि भीतर जाने का न समय है, न सुविधा है, न खयाल है। जैसे ही बाहर से खाली होते हैं, वे पूछते हैं, 'अब क्या करें?' बस दौड़ रहे हैं। वे दौड़-दौड़ कर मरे जा रहे हैं, हम बैठ-बैठ कर मर गये। बुद्ध कहते हैं, मध्य में है ज्ञान। न तो बाहर से आसक्त हों और न भीतर से। न तुम्हें संसार पकड़े, न मोक्ष; तब सम्यक-समाधि। तो बुद्ध के लिए सम्यक शब्द इतना प्यारा है कि वे उसे अंत तक खींचते हैं--मोक्ष तक। वहां भी वे कहते हैं, तुम अति कर सकते हो। तुम्हारी पुरानी आदतें हैं अति की। अति कहीं मत करना। अति सर्वत्र बुद्ध वर्जित करते हैं। और मध्य को वे कहते हैं, वही स्वर्ण-मार्ग है; वही स्वर्ण-पथ है।
'सीधे चले जाओ', इसका अर्थ है, मध्य में चलते रहो। नाक की सीध में। दोनों तरफ खाई-खड्ड है। इधर गिरे खाई, उधर गिरे खड्ड। कोई चुनाव करने जैसा नहीं है। गो स्ट्रेट अहेड, सीधे चले जाओ। उसका अर्थ है, चुनाव रहित। जिसको कृष्णमूर्ति ने 'च्वाइसलेसनेस' कहा है। चुनो मत; चुना कि भटके। क्योंकि चुनोगे क्या? यह तो तलवार की धार की तरह पतला मार्ग है।
इसलिए ज्ञानी कहते हैं, खड्ग की धार। इधर तुम झुके, कि गिरे। उधर तुम झुके, कि गिरे। और क्या फर्क पड़ता है कि तुम कुंए में गिरे, कि खाई में गिरे, कि खड्ड में गिरे? नाम का फर्क है। कोई खाई में गिरता है, उसको हम कहते हैं संसारी। कोई खड्ड में गिरता है, उसको हम कहते हैं संन्यासी। नहीं, दोनों में कोई भी संन्यासी नहीं है। दोनों अतियों पर चले गये। संन्यासी तो मध्य में चलता है। इसलिए संन्यास खड्ग की धार है। वह न तो संसार को छोड़ता, पकड़ता। न वह मोक्ष को भूलता, न मोक्ष को जकड़ता। सिर्फ मध्य में चलता है।
उस स्त्री ने वचन तो बड़ा कीमती कहा था। इसलिए जोशू को चिंता हुई कि परीक्षा कर लेनी जरूरी है। पूछने वाले ने तो साधारण सी बात पूछी थी कि वह तैजान का मंदिर कहां है? लेकिन ख्याति थी तैजान के मंदिर की, कि वहां विवेक उपलब्ध होता है। उस बूढ़ी स्त्री ने कहा, 'चले जाओ बिलकुल सीधे। और तुम उस मंदिर में पहुंच जाओगे, जहां विवेक उपलब्ध होता है।'
वह मंदिर तैजान का हो या न हो, यह बड़ा सवाल न था। तैजान से क्या लेना-देना है? वह मंदिर चाहिए, जहां विवेक उपलब्ध हो जाये। लेकिन उस आदमी को कुछ समझ में न आया होगा कि इस स्त्री ने क्या कहा! उसने तो तैजान के मंदिर के लिए ही पूछा था। वह जो दिखाई पड़ता था मंदिर, मिट्टी-पत्थर का बना हुआ। उसने समझा कि यह कह रही है, 'सीधे चले जाओ', मतलब कि यही रास्ता है, वह चल पड़ा होगा। उसने धन्यवाद भी न दिया। उसने एक क्षण रुक कर सोचा भी नहीं कि स्त्री ने क्या कहा है! और इसीलिए जब वह सीधा चलने लगा बिना कुछ कहे, उसके चेहरे पर कोई रौनक, कोई झलक! इतना क्रांतिकारी वचन सुनकर भी उसके भीतर कोई झनकार न हुई, तो जब साधु कुछ दूर चला गया, तो बुढ़िया ने स्वयं से कहा कि वह भी एक साधारण मंदिर जाने वाला है।
किसी ने यह बात जोशू से कह दी।
जोशू एक निर्वाण को उपलब्ध, ज्ञान को उपलब्ध, जीवन-मुक्त, ज्ञानी था। जोशू तैजान के मंदिर के पास ही रहता था। किसी ने जोशू को कह दी।
जोशू ने कहा, 'रुको। जब तक मैं जांच पड़ताल न कर लूं, तब तक कुछ कैसे कहूं?'
जोशू तक को लगा कि जांच पड़ताल कर लेने जैसी है। क्योंकि स्त्री ने बात तो बड़ी गजब की कही है। वह आदमी साधारण ही मंदिर जानेवाला होगा। साधारण मंदिर का ही पता पूछ रहा था। स्त्री ने कुछ और आगे का पता बता दिया।
बात तो स्त्री ने गजब की कही। क्योंकि यही तो सारभूत है, कि सीधे चले जाओ, बिना झुके यहां-वहां। आंखें अडिग हों, नाक की सीध में यात्रा हो और तुम मोक्ष पहुंच जाओगे। द्वार बिलकुल सामने है। तुम चूकते हो, क्योंकि तुम बांये झुकते हो, दांये झुकते हो। द्वार बिलकुल सामने है।
प्रतीक लेकिन बड़े कठिन हैं, क्योंकि प्रतीक को हम भूल जाते हैं। हिंदुओं ने निरंतर कहा है कि नासाग्र पर ध्यान करने से तुम वहां पहुंच जाओगे। मगर उसका भी मतलब यही है। अनेक बैठे हैं नाक पर ध्यान लगाये। लेकिन नासाग्र प्रतीक है। नासाग्र का अर्थ है कि दोनों आंखों के मध्य में होना। न बांये, दांये। तुम्हारी दृष्टि थिर हो जाये, सम्यकत्व आ जाये, तो तुम पहुंच जाओगे। वह एक प्रतीक है--'गो स्ट्रेट अहेड। नाक की सीध में चले जाओ।' तुम्हारा ध्यान नाक के बिंदु पर हो।
लेकिन प्रतीक भटक जाते हैं। और कचरा हाथ में रह जाता है। सूत्र खो जाते हैं, शरीर जकड़ में, हाथ में आ जाता है। लाखों लोग बैठे हैं अपनी अपनी नाक पर ध्यान लगाये। कहीं नहीं पहुंच रहे हैं। नाक पर ध्यान लगाने से कोई कहीं पहुंचता है? तुम चूक ही गये।
तुम्हारी हालत ऐसी है कि मैंने सुना है, कि एक ईसाई मिशनरी नया-नया अफ्रीका के एक आदिवासी कबीले में गया। वह डाक्टर भी था और उनकी सेवा करना चाहता था। पहला मरीज आया, तो उसने प्रिस्क्रिप्शन लिखा, उसमें दवा का सारा--सारी जांच पड़ताल की, मेहनत की, घंटा भर लगाया। प्रिस्क्रिप्शन लिखा, प्रिस्क्रिप्शन दिया। पंद्रह दिन बाद वह बाजार में उस आदमी को देखा, तो वह हैरान हुआ। उसने कहा कि 'यह तुमने क्या किया?' वह प्रिस्क्रिप्शन को गले में लटकाये घूम रहा था। क्योंकि वह समझा, यह ताबीज है। जंगली आदमी! वह समझा कि यह ताबीज है। इसको गले में लटकाने से सब ठीक हो जाएगा।
ऐसे ही लोग नाक पर ध्यान लगाये बैठे हैं। प्रिस्क्रिप्शन को ताबीज बना लिए हैं।
ऐसा ही तृतीय नेत्र भी एक प्रतीक है। उसका भी मतलब यह है कि दो आंखों के मध्य में। 'गो स्ट्रेट अहेड' ये दोनों आंखों में से तुम चुनोगे, तो भटकोगे। क्योंकि एक बांये ले जायेगी, एक दांये ले जायेगी। दोनों के मध्य में। और ये प्रतीक बड़े कीमती हैं। इसे थोड़ा समझ लें।
तुम्हारे पास दो मस्तिष्क हैं; एक मस्तिष्क नहीं है। इसीलिए तो सीजोफ्रेनिया जैसी बीमारी पैदा होती है। बांये में अलग मस्तिष्क है, दांया अलग मस्तिष्क है। क्योंकि शरीर में प्रत्येक चीज दो हैं। स्पेयर पार्ट्स का खयाल रखा गया है। एक गुर्दा खराब हो जाये, दूसरा गुर्दा काम करे। एक फेफड़ा काम न करे, तो दूसरा काम कर सके। एक मस्तिष्क अगर काम न करे, तो दूसरा काम कर सके। प्रकृति ने बड़ा इंतजाम किया है। वे स्पेयर पार्ट्स हैं। शरीर में सब चीजें दो हैं, ताकि एक से भी चल जाये। तो मस्तिष्क भी दो हैं। और अभी शरीर-शास्त्रियों, मनस्विदों ने बड़े प्रयोग किए हैं। अगर दोनों मस्तिष्क के बीच का जोड़ तोड़ दिया जाये, तो एक ही आदमी, दो आदमी हो जाता है। वह दो आदमी की तरह व्यवहार करने लगता है; तुम उसके बांये मस्तिष्क को जो सिखाओ, वह दांये को पता नहीं चलता। और दांये को जो सिखाओ, वह बांये का पता नहीं चलता।
कुछ बिल्ली और कुत्तों के मस्तिष्क विभाजित कर दिए गए; वे दो व्यक्ति हो गए और यही घटना सीजोफ्रेनिया जैसी बीमारी में घटती है। कई दफा ऐसा हो जाता है कि एक आदमी कभी तो अच्छा व्यवहार करता है, कभी बुरा व्यवहार करता है। कभी तो एक तरह का आदमी होता है...तुमने कई ऐसे लोग देखे होंगे कि चार-छः महीने बिलकुल शांत और अच्छे और चार-छः महीने बिलकुल अशांत और क्रोधित।         
तुम्हारे भीतर भी रोज यह घटता है--छोटी मात्रा में सीजोफ्रेनिया। सुबह तुम बड़े प्रसन्न, सांझ तुम बड़े परेशान। तुम खुद ही हैरान होते हो कि क्या करें? सांझ तय करते हो, ब्रह्ममुहूर्त में उठना है। ब्रह्ममुहूर्त में तय करते हो, क्या फायदा उठने का? क्या पा लोगे? सोओ मजे से आज! ऐसा लगता है कि तुम्हारी पहली, जो तुमने निर्णय किया था, वह एक मस्तिष्क से किया था। दूसरा निर्णय तुम दूसरे मस्तिष्क से ले रहे हो। दोनों को एक दूसरे की ठीक-ठीक खबर भी नहीं है। कसम खा लेते हो कि अब झूठ नहीं बोलेंगे और दूसरे ही क्षण झूठ बोलते हो। और जब तुम झूठ बोलते हो, तब बिलकुल भूल जाते हो कि कसम खाई है। और फिर जब याद आती है, तब तुम फिर कसम खा लेते हो।
तुम्हारे भीतर दो मस्तिष्क हैं। और दोनों मस्तिष्क, एक बांया, एक दांया--उल्टे हाथों से जुड़े हैं। तुम्हारा दांया हाथ, बांये मस्तिष्क से जुड़ा है। तुम्हारा बांया हाथ, दांये मस्तिष्क से जुड़ा है। और चूंकि तुम दांये हाथ का ही उपयोग करते हो निरंतर, तुम्हारा बांये हिस्से का मस्तिष्क ही सक्रिय है। दूसरा हिस्सा निष्क्रिय पड़ा हुआ है।
इसलिए अक्सर जो लेफ्ट-हैंड के लोग हैं, जो बांये हाथ से चलाते हैं काम जिंदगी में, उनके साथ तुम्हें मेल बिठाने में बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि उनका दूसरा मस्तिष्क काम करता है, तुम्हारा दूसरा। उनके और तुम्हारे बीच तालमेल बैठना बहुत मुश्किल होगा। और वे कम नहीं हैं, काफी हैं। दस प्रतिशत तो निश्चित हैं। हर दस आदमी में एक आदमी बांये हाथ से काम चला रहा है। और स्कूल, युनिवर्सिटी और समाज चूंकि दांये हाथ वाले लोग चलाते हैं, वे बांये हाथ वाले को बचपन से ही बाधा डालते हैं। वे उससे कहते हैं, तू भी दांये हाथ से लिख। दांये हाथ से खाना खा। तो बहुत से बांये हाथ से चले होते लोग, वे भी दांये से चल रहे हैं। वे जिंदगी भर के लिए मुसीबत में पड़ गये। क्योंकि उनके पास बढ़िया मस्तिष्क बांया था, और सबने उनको जबरदस्ती करवा-करवा कर दांये हाथ से लिखवाना शुरू कर दिया, काम करवाना शुरू कर दिया। तो दांये से वे काम कर लेते हैं, लेकिन वह उनका स्पेयर पार्ट है, सेकेंडरी है। वे प्रतिभा में पिछड़ जायेंगे। वे कुछ भी कर लेंगे। पत्थर भी फेंक सकते हैं वे दांये से, लेकिन वह ताकत न आयेगी, जो बांये से आती। क्योंकि उनका बांया ही उनका दांया था।
तृतीय नेत्र का अर्थ है, दोनों मस्तिष्कों का उपयोग नहीं। तुम दोनों के मध्य में खड़े हो जाओ। वह मन के बाहर होने की तरकीब है। एक ऐसी थिर दशा में आ जाओ, जहां न बांया काम करता, न दांया। तुम दोनों के बीच में हो।
इसलिए समस्त ध्यान के जो प्रयोग हैं, उनमें दोनों हाथों को थिर कर देना है। पूरा शरीर चाहे थिर हो या न हो, लेकिन बुद्ध की प्रतिमा में जैसे दोनों हाथ रखे हैं, वैसे दोनों हाथ बिलकुल थिर कर देने हैं। तुम बड़े चकित होओगे। रास्ते चलते वक्त अगर तुम दोनों हाथ थिर करके चलो, तो तुम पाओगे मन ज्यादा शांत है। हाथ मत हिलाओ। हाथ के हिलाने की कोई जरूरत भी नहीं है; उसके बिना तुम चल सकते हो। वह तो सिर्फ शरीर की पुरानी आदत है। जब जानवर की तरह हम थे, और चारों हाथ-पैर से चलते थे। अब भी वही आदत है, बांया पैर आगे जाता है तो दांया हाथ उसके साथ आगे जाता है। वह जानवर के लिए ठीक है, अब तुम्हारे लिए कोई जरूरत नहीं है। लेकिन कोई लाखों साल की पुरानी आदत भी पीछा करती है। संस्कार हैं।
तो जब भी तुम चलोगे, अभी भी वह संस्कार काम करता है। दोनों हाथ रोक कर चलकर देखो, तुम बड़े हैरान होओगे। जैसे ही तुम दोनों हाथ रोकोगे, विचार रुक जायेगा। क्योंकि दोनों हाथ विचार को प्रभावित कर रहे हैं। हाथ जो हैं, वे मस्तिष्क के फैले हुए भाग हैं। इसलिए समस्त ध्यान की प्रक्रियाओं में दोनों हाथों का वर्तुल बना कर शांत कर देना है। अगर हाथ बिलकुल शांत हो जायें, तो मस्तिष्क शांत होने लगता है। जब तुम क्रोधित हो जाते हो, तो तुम किसी को घूंसा और थप्पड़ मारना चाहते हो। तुम्हें पता नहीं, वह मस्तिष्क है, जो क्रोध से भरा है। वह हाथ से बाहर जाना चाहता है।
तृतीय नेत्र का अर्थ है दोनों मध्यों के बीच में जो संधि है, जहां वे दोनों जुड़े हैं, तुम वहां संधि पर रुक जाओ। दोनों तराजू के पलड़ों के बीच में जहां कांटा है। तुम तुलाधर हो जाओ। पर ये प्रतीक हैं। अब कई लोग बैठे हैं, वे यही सोच रहे हैं कि एक तीसरी आंख भीतर है। वे कल्पना कर रहे हैं। तीसरी आंख भीतर है, यह प्रतीक है। तीसरी आंख का मतलब है कि ऐसा संतुलित दृष्टिकोण, जहां न बांया प्रभावित करता है, न दांया। जहां कोई खाई-खड्ड तुम्हें प्रभावित नहीं करते। जहां तुम सीधी आंख चले जाते हो।
जोशू को भी लगा कि बुढ़िया की जांच पड़ताल कर लेनी जरूरी है, क्योंकि बात उसने गजब की कही है। बात में सभी कुछ कह दिया है। जो कहने योग्य है उसने छोटी सी बात में कह दिया। और वह मंदिर जाने वाला जरूर चूक गया। और दूसरी बात भी उसने बिलकुल ठीक कही कि यह भी एक साधारण ही मंदिर जाने वाला है।
जोशू ने कहा, 'रुको, जब तक मैं जांच पड़ताल न कर लूं।'
इससे एक बात और समझ लेनी चाहिए कि ज्ञानी पुरुष बिना जांच पड़ताल किए कोई भी निर्णय नहीं लेता। अज्ञानी, बिना जांच पड़ताल किए निर्णय लेते हैं। तुमसे किसी ने कहा, 'फलां आदमी बुरा है।' निर्णय ले लिया कि बुरा है। तुम कान से जीते हो। ज्ञानी पुरुष आंख से जीता है। कान बड़ी कच्ची दुनिया है। उस पर बहुत भरोसा मत करना। जिंदगी में तुम्हारी अधिक भटकन कान के कारण होती है। किसी ने कुछ कहा, मान लिया, चल पड़े। देख कर ही मानना। बिना देखे कोई निर्णय मत करना। जोशू ने कहा, 'जांच पड़ताल न कर लूं, तब तक कुछ न कहूंगा।'
दूसरे दिन जोशू गया। उसने वही सवाल पूछा--पूछा तैजान का रास्ता--और बुढ़िया ने वही उत्तर दिया, 'गो स्ट्रेट अहेड। बिलकुल सीधे चले जाओ।'
जोशू लौटा और उसने कहा, 'आई हैव इनवेस्टिगेटेड दैट ओल्ड वूमन। मैंने उस बूढ़ी स्त्री की जांच पड़ताल कर ली।'
कई बातें समझने की हैं। एक तो, जोशू बुद्ध-पुरुष है। वह बुढ़िया उत्तर में फर्क न कर पाई। यह तो बिलकुल और तरह का आदमी सामने खड़ा था। यह तो खुद तैजान का मंदिर सामने खड़ा था। अगर बुढ़िया का पहला उत्तर बोध से आया था, समझ से आया था, तो वह जोशू के चरणों में सिर रख देती। वह कहती, 'तुम खुद ही तैजान के मंदिर हो। कहां जाते हो?' इस आदमी को वही उत्तर नहीं दिया जा सकता, जो पहले आदमी को दिया था। यह आदमी और है। लेकिन बुढ़िया का उत्तर बंधा-बंधाया था। वह ऐसा सभी को देती रही होगी। वहीं रहती होगी नीचे तैजान के मंदिर के आसपास। लोग उस रास्ते से पूछते ही रहते होंगे रोज, 'तैजान का रास्ता कहां है?' और वह कहती होगी, 'सीधे चले जाओ।' ये शब्द उसने किसी से सुन लिए होंगे। जरूर किसी ज्ञानी से ये शब्द उसको मिल गये होंगे। ये शब्द उधार थे। जोशू के पूछने पर तो उत्तर दूसरा होना चाहिए था। जोशू के पूछने पर तो...।
अगर बुढ़िया को जरा भी बोध होता कि वह जो कह रही है, उसका अर्थ क्या है, तो बात ही खतम हो गई थी। तैजान का मंदिर सामने खड़ा था। विवेक जागे, वही तो मंदिर है, वही तो ख्याति थी। यह विवेक खुद सामने खड़ा था। बुढ़िया झुक गई होती चरणों में और हंसती, और कहती कि 'मजाक करते हो?' बुढ़िया भागी होती, पास-पड़ोस के लोगों को चिल्लाई होती कि 'आ जाओ। तैजान का मंदिर यहां आ गया।' बुढ़िया ने खबर की होती लोगों को कि अब तक तैजान के मंदिर को पूछते लोग आते थे, आज तैजान का मंदिर खुद आया।
मगर बुढ़िया जोशू के तरफ देखी भी नहीं। उसने वही बंधा हुआ उत्तर दे दिया।
बंधे हुए उत्तरों का एक खतरा है कि वे तुम्हारी आंखों को अंधा कर देते हैं। चाहे किसी ज्ञानी से ही वे उत्तर क्यों न आये हों। गीता तुम्हें अंधा कर रही है, कुरान तुम्हें अंधा कर रहा है, बाइबिल तुम्हें अंधा कर रही है। महावीर और बुद्ध से तुम्हारी आंखों का निखार नहीं आया, आंखें और मंदी हो गई हैं। उन पर धूल पड़ गई है। क्योंकि तुम दुहरा रहे हो। तुम पुररुक्त कर रहे हो। तुम सत्य को भी कचरा कर लेते हो पुनरुक्त कर करके। आज बुद्ध भी तुम्हारे सामने खड़े हो जायें, तो तुम न पहचानोगे। कृष्ण तुम्हारे सामने आ जायें, तुम अपनी गीता पढ़ते रहोगे। और कृष्ण अगर बांसुरी वगैरह बजाने लगें, तुम कहोगे 'बंद करो। गीता में बाधा मत डालो' तुम बिलकुल अंधे हो।
इस बुढ़िया के पास शब्द तो थे, जो कहीं से आये थे। इसने किसी ज्ञानी से सुना होगा--'गो स्ट्रेट अहेड। सीधे चले जाओ।' और बस, यह दुहरा रही है।
एक धनपति बहुत व्यस्त था और उस दिन चाहता था, कि किसी से मिल-जुले न। कुछ बड़ा अहम सवाल था, उलझन थी। तो उसने अपने सेक्रेटरी को कहा कि कोई भी फोन करे, कहना कि मालिक आज न मिल सकेंगे। आज असंभव। शायद कोई यह भी कहे कि बहुत आवश्यक है मेरा काम। एकदम जरूरी है। तो कहना कि सभी यही कहते हैं। कोई कहे, 'मित्र हूं, प्रियजन हूं, फलां, ढिकां हूं, कहना कि सभी यही कहते हैं।' फोन आया। सेक्रेटरी इनकार करता गया कि 'नहीं, नहीं।' लेकिन दूसरी तरफ से महिला जिद करने लगी। और उसने कहा कि मुझे मिलना ही है। और जब वह नहीं माना, तो उसने कहा कि तुम समझते नहीं हो, मैं उनकी पत्नी हूं। उसने कहा, 'यह तो सभी कहती हैं। जो देखो वही यही कहती है।' एक बंधा हुआ उत्तर है।
इससे तो बेहतर वह नौकर था--एक दवाई के दूकानदार को बाहर जाना पड़ा। और उसने अपने नौकर से कहा कि अगर कोई फोन आये तो जवाब दे देना। फोन आया, और किसी ने पूछा--जैसे ही फोन आया तो उसने कहा, 'हलो' तो किसी ने पूछा, 'एरोमाइसिन मिल सकेगी?' तो उस नौकर ने कहा, 'महानुभाव, जब मैंने कहा हलो, तब जो भी मैं जानता था, सब कह दिया। उससे ज्यादा मेरी कोई जानकारी नहीं है। जब मैंने कहा हलो, तो मैं जो भी जानता था, वह मैंने सब कह दिया।'
यह नौकर ज्यादा समझदार है। इसे अपने अज्ञान का पता है। तुम ज्ञान से भरे हो। तुम जो भी उत्तर दोगे वह भूल-चूक भरे हो जायेंगे। तुम उस पहले सेक्रेटरी की तरह हो, जिसे पता ही नहीं है। जिसके पास सिर्फ बंधा हुआ एक उत्तर है। जो सभी को देता चला जायेगा बंधा हुआ उत्तर। बिना देखे, कि किसको दे रहा है। शास्त्रीय ज्ञान की यही असुविधा है।
जोशू को भी उसने वही कह दिया है--'गो स्ट्रेट अहेड। सीधे चले जाओ।' उस आदमी को, जो पहुंच गया है, जिसे अब जाने को कहीं नहीं बचा। उस आदमी को, जो बिलकुल सीधा है। तुलाधर को, जिसका कि तराजू बिलकुल ठहर गया है, कांटा नब्बे का कोण बता रहा है। उस आदमी को भी यह देख न पाई।
जोशू ने लौट कर कहा कि 'मैंने उस बूढ़ी स्त्री की जांच कर ली।'
यह भी बड़ी मजेदार बात है कि जोशू ने कुछ और नहीं कहा। बस इतना, कि उस बूढ़ी स्त्री की जांच कर ली। निर्णय नहीं दिया कि अज्ञानी है, मूढ़ है। इतना भी नहीं कहा। इतना भी क्या कहना! इतना पर्याप्त है कि जांच कर ली।
इसलिए कहानी अधूरी लगती है। तुम्हारा मन चाहेगा कि जोशू कुछ कहे तो। निर्णय दे, कि देखा, जांच किया, गलत पाया। उसे कुछ पता नहीं। किसी का सुना हुआ शब्द दुहराती होगी। तोता रटंत--इतना भी नहीं कहा। इतना ही कहा कि बस, जांच कर ली।
ज्ञानी पुरुष, हो सके तो श्रेष्ठ को स्वीकार करता है। हो सके सत्य की प्रशंसा करता है। हो सके, ज्ञान की गरिमा का गुणगान करता है। और जहां तक हो सके, विपरीत को सिर्फ इतना कहकर छोड़ देता है कि जांच पड़ताल कर ली। बस, इतना काफी है। उस विपरीत की उदघोषणा करनी भी उचित नहीं।
लेकिन तुम इससे उलटा करते हो। अगर जांच पड़ताल करने से तुम्हें पता चले कि कोई आदमी सच में ही महिमायुक्त है, तो तुम चुप रहते हो। और पता चल जाये, बिना जांच पड़ताल किए भी पता चल जाये, कि कोई आदमी निंदा योग्य है, तो तुम्हारी मुखरता का अंत नहीं। तब तुम्हें हजार पंख लग जाते हैं। तब तुम ऐसी निंदा करते हो...।
एक स्त्री किसी दूसरी स्त्री की निंदा कर रही थी। और जिस स्त्री से कर रही थी, वह रस ले रही थी। बड़ा रस ले रही थी। आधे घंटे के बाद जब निंदा का स्वर रुका, तो दूसरी स्त्री ने कहा कि और भी थोड़े विस्तार से बताओ। तो पहली स्त्री ने कहा, 'अब यह मत पूछो। जितना मुझे पता था, उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी। अब और बताने को कुछ नहीं। जितना मैंने कहा है, उतना भी मुझे पता नहीं है। जितना पता था, उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी।'
निंदा पर तुम जल्दी से आतुर हो जाते हो। कोई किसी की बुराई कर रहा हो कि तुम्हारा मन बड़ा रस से भर जाता है। कोई किसी की प्रशंसा कर रहा हो, तो तुम बड़े विषाद से भर जाते हो। प्रशंसा सुनने में तुम्हें आनंद नहीं आता, निंदा सुनने में आनंद आता है। क्यों? क्योंकि जब भी तुम किसी की निंदा सुनते हो, तुम्हारे अहंकार को लगता है, तुम बेहतर। इससे भी सिद्ध हो गया कि तुम इससे भी बेहतर। जब तुम किसी की प्रशंसा सुनते हो, तब तुम्हें बड़ी पीड़ा होती है कि कोई तुमसे बेहतर। और ऐसा कहीं हो सकता है कि कोई तुमसे बेहतर?
इसलिए निंदा को तुम बिना विवाद स्वीकार करते हो। प्रशंसा के साथ तुम बड़ा विवाद करते हो। कोई कहे फलां आदमी पापी, तो तुम कभी नहीं पूछते कि कोई कारण? कोई प्रमाण? कोई नहीं पूछता कि कोई प्रमाण? बस, तुम जाकर दूसरे को खबर देते हो। उसमें तुम काफी मिलाते हो। जितना तुम जानते हो, उससे ज्यादा तुम कहते हो। वह भी नहीं पूछेगा।
लेकिन कोई अगर कहे कि फलां आदमी महात्मा, तो तुम हजार सवाल उठाते हो। और फिर भी भीतर संदेह बना रहता है, कहीं-न-कहीं भूल हो रही होगी। तुम्हारी नजर में पापी सभी हैं। और अगर कोई महात्मा समझा जा रहा है, तो छिपा हुआ पापी है। अभी पोल-पट्टी खुली नहीं है, इसीलिए! आज नहीं कल खुल जायेगी, तब पता चल जायेगा दुनिया को। लेकिन सब पापी हैं, यह तुम्हारा स्वीकृत सत्य है। क्योंकि यही एक तरकीब है जिससे तुम्हारा अहंकार भरता है। सब को छोटा करो, सब को बुरा करो, तो तुम्हें अच्छा लगता है। अच्छे लोग हों चारों तरफ, तो तुम्हें पीड़ा होती है।
यह जो स्थिति है अज्ञान की, इससे ठीक उलटी स्थिति होगी ज्ञान की। जोशू ने इतना ही कहा कि जांच पड़ताल कर ली। कोई निर्णय न दिया। बस, इतना ही निर्णय काफी है। क्योंकि अगर जोशू ने एक भी किरण पाई होती प्रकाश की, तो उसकी महिमा का गान करता। जरा सा भी स्वर मिल गया होता उस बूढ़ी स्त्री में, तो उसे सिंहासन पर विराजमान करता। लेकिन बड़ी उदासी से उसने इतना ही कहा कि जांच पड़ताल कर ली। कोई वक्तव्य न दिया। यह भी न कहा कि वह मूढ़ है। यह भी न कहा कि अज्ञानी है। न, इतना भी कहना उचित नहीं समझा। इसलिए कहानी हमें अधूरी लगती है। ऐसा लगता है कि कहानी में कुछ पीछे छूट गया, कुछ पूरा नहीं है। निर्णय नहीं है।
ज्ञानी पुरुष निर्णय तभी देता है, जब वह निर्णय सत्य की तरफ ले जानेवाला हो। अन्यथा वह निर्णय को रोक लेता है। क्योंकि बुरे को बुरा कहना उसे और बुरा बनाने की व्यवस्था देना है। इसे भी थोड़ा समझ लो। भले को भला कहना, उसे भले की तरफ सहारा देना है। अगर एक बुरे आदमी को भी उसका सारा समाज भला कहने लगे, तो उसे बुरा होना मुश्किल हो जायगा। अगर एक बुरे आदमी को भी तुम भला मानने लगो, तो तुम उसे बुराई से रोकते हो। क्योंकि बुरा कोई भी नहीं होना चाहता। और अगर एक आदमी भी किसी बुरे आदमी को भला मानने को मिल जाता है, तो उसके भीतर नये बीज टूटने शुरू हो जाते हैं। वह भी कोशिश करता है कि कम से कम एक आदमी की आंख में भला बना रहे। और जब तुम सभी लोग मिल कर किसी आदमी को बुरा कहने लगते हो, तब तुम उसे धक्के दे रहे हो। और धीरे-धीरे तुम उसे विश्वास दिला दोगे कि वह बुरा है। न केवल विश्वास दिला दोगे बल्कि उसे तुम आश्वस्त कर दोगे कि बुरे होने के अतिरिक्त उसका कोई उपाय भी नहीं है। और तब न केवल वह बुरा होगा, बल्कि जब कभी वह पायेगा कि बुरा नहीं; तब उसको भी बेचैनी होगी। क्योंकि तुमने जो प्रतिमा उसकी बनाई है, उस प्रतिमा के साथ वह भी तादात्म्य कर लिया है। वह भी सिद्ध करेगा कि मैं बुरा हूं।
मनस्विद कहते हैं कि जिन बच्चों को स्कूल के शिक्षक, घर में मां-बाप परिवार के लोग कहते हैं, 'तुम गधे हो'; पचास प्रतिशत गधापन इनके वक्तव्यों से पैदा होता है। वह लड़का धीरे-धीरे मान लेता है कि ठीक है। जब सभी कहते हैं, तो ठीक ही कहते होंगे। फिर वह गधा होने को राजी हो जाता है। फिर अगर उसे कभी समझदारी की भी कोई किरण आये, तो वह उसे दबाता है। क्योंकि यह उसकी प्रतिमा के बिलकुल विपरीत है। वह डरता है। उसका जो ढंग बन गया है, उस ढंग के बाहर की बात है यह। इस पर बहुत प्रयोग किए गये हैं।
एक मनस्विद एक ही कक्षा के पंद्रह विद्यार्थियों को एक कमरे में, पंद्रह को दूसरे में बिठाया। और पहले वर्ग को, पंद्रह के टुकड़े को, उसने एक सवाल लिखा। और कहा कि यह सवाल बहुत सरल है। यह इतना सरल है कि तुमसे नीची कक्षा के विद्यार्थी इसे हल कर सकते हैं। तुम्हें तो सिर्फ इसलिए दिया जा रहा है कि हम यह जानना चाहते हैं, कि क्या तुम पंद्रह में एकाध भी ऐसा विद्यार्थी है, जो इसे हल कर न पाये!
वही सवाल दूसरे पंद्रह विद्यार्थियों के लिए दिया गया। और उनसे उलटी बात कही गई। कहा गया कि यह सवाल बहुत कठिन है। यह इतना कठिन है, कि हमें कोई आशा नहीं है कि तुममें से एक भी इसे हल कर पायेगा। तुमसे ऊंची कक्षाओं के विद्यार्थी भी इसको हल नहीं कर पाये हैं। हम तो सिर्फ यह जानने के लिए दे रहे हैं, कि क्या यह संभव है कि तुममें से एकाध हल करने के करीब भी पहुंच सकता है या नहीं।
और तुम चकित होओगे, परिणाम बड़ी हैरानी का है! पहले पंद्रह विद्यार्थियों में से तेरह विद्यार्थियों ने हल कर लिया। दूसरे पंद्रह विद्यार्थियों में से केवल एक विद्यार्थी हल कर पाया।
तुम्हारी धारणा, तुम्हारे जीवन को बनाती है। और तुम्हारी धारणाओं को तुम्हारे आसपास के लोग बनाते हैं। अगर तुम बुद्ध-पुरुषों के पास जाओगे, तो उनके पास तुम एक ही स्वर पाओगे कि तुम्हारे भीतर परमात्मा है। इससे कम उनकी कोई उदघोषणा नहीं है। वे तुम्हें यही याद दिला रहे हैं कि तुम ब्रह्मस्वरूप हो। और यह स्मृति तुम्हारे भीतर घनी होने लगे, यह बात तुम्हारे भीतर गहरे में बैठ जाये, तो तुम हो जाओगे। तुम हो ही! सिर्फ तुम्हें किसी ने स्मरण नहीं दिलाया। और जिनने भी तुम्हें स्मरण दिलाया है, गलत स्मरण दिलाया है। किसी ने कहा कि तुम शरीर हो। किसी ने कहा कि तुम बुद्धि हो। किसी ने कहा कि तुम धन हो। किसी ने कहा तुम मकान हो। किसी ने कहा कि तुम पद, प्रतिष्ठा हो। तुम उन्हीं के साथ जुड़ गये हो। और उनमें से तुम कोई भी नहीं हो। इसलिए कितने ही जुड़े रहो, तुम पाओगे कि कुछ न कुछ गड़बड़ है।
एक दूकानदार ने; जूते के दूकानदार ने एक नये आदमी को नौकरी पर रखा। पहला ही ग्राहक आया और उस नये आदमी ने उसे जूते बांधकर दिये। मालिक ने आकर पूछा जो पीछे बैठा था कि 'कैसा निपटा?' क्योंकि पहला ही ग्राहक था और नौकर नया था। उस नौकर ने कहा कि 'बिलकुल ठीक निपटा। पचास रुपये की जोड़ी थी, लेकिन उसके पास केवल बीस रुपये थे। तो मैंने बीस रुपये रख लिए डिपॉजिट की तरह और जूते उसे दे दिए।' मालिक ने सिर पीट लिया। उसने कहा कि 'नासमझ! अब वह कभी नहीं लौटेगा।' उसने कहा, 'वह लौटेगा। उसका बाप लौटेगा! क्योंकि मैंने दोनों बांये पैर के जूते बांध दिए। लौटना ही पड़ेगा।'
तुम्हें जो भी सिखाया गया है, वे दोनों बांये पैर के जूते हैं। उनसे कभी राहत न मिलेगी। मुसीबत ही बनी रहेगी। तुम शरीर नहीं हो। शरीर बहुत छोटा है, तुम बहुत बड़े हो। तुम शरीर के साथ हमेशा बेचैनी अनुभव करोगे। इतने बड़े हो तुम, और इतने से छोटे में तुम्हें बना दिया गया है कि तुम हमेशा पाओगे कि कुछ बंधा-बंधा है।
तुम्हें कितना ही धन मिल जाये, तुम्हें लगेगा कि अभी और चाहिए। क्योंकि परम-धन जब तक न मिल जाये, परमात्मा न मिल जाये, तब तक तुम गरीब ही रहोगे। उससे छोटे में कोई राजी होनेवाला नहीं है। इसलिए अमीर से अमीर आदमी भी गरीब ही रहता है। और भीतर भिखमंगा बना रहता है।
तुम शरीर को कितना ही सुंदर और स्वस्थ बना लो, तुम तृप्त न हो पाओगे। तुम्हें एक ही पैर के जूते मिल गये हैं। क्योंकि शरीर कितना ही स्वस्थ हो जाये, वह स्वास्थ्य टिकने वाला नहीं है। जिस शरीर को मरना है, वह स्वस्थ रह नहीं सकता। उसे बीमार होना ही पड़ेगा। नहीं तो मरोगे कैसे? जिस शरीर को मरना है, उसमें बीमारी घर करती ही रहेगी। शरीर तो बीमारियों का घर रहेगा ही। खींचतान कर तुम चला लोगे। एक ही पैर के जूते दोनों पैर में पहन कर थोड़ी देर चला भी सकते हो, लेकिन हमेशा जूते काटते रहेंगे। और मुसीबत बनी रहेगी और बेचैनी जारी रहेगी।
जिसे मरना है उसे परिपूर्ण स्वास्थ्य नहीं दिया जा सकता। परिपूर्ण स्वास्थ्य तो सिर्फ अमृत का ही हो सकता है। जिसकी कोई मृत्यु नहीं, वहीं परम स्वास्थ्य। इसलिए हमारा जो शब्द स्वास्थ्य है, बड़ा अदभुत है। ऐसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। उसका मतलब होता है, जो स्वयं में स्थित हो गया है। शरीर से उसका कोई संबंध ही नहीं है। स्वस्थ का अर्थ है, स्वयं में जो स्थित हो गया। तभी स्वास्थ्य है। उसके पहले तो बीमारी जारी रहेगी ही। किसी तरह सम्हाल लोगे इधर से उधर। एक बीमारी हटाओगे, दूसरी; दूसरी से बचोगे, तीसरी। इस पैर का जूता उसमें पहनोगे। उसका इसमें पहनोगे। लेकिन दोनों पैर के जूते, एक ही पैर के हैं। अड़चन जारी रहेगी। राहत मिल सकती है, बस! आनंद नहीं मिल सकता। कितने ही बड़े पद पर पहुंच जाओ, तुम पाओगे, मुसीबत जारी है। क्योंकि कोई भी पद तुम्हारे योग्य नहीं। जब तक तुम परमात्मा ही न हो जाओ, तब तक शांति का कोई उपाय नहीं।
जोशू ने कोई वक्तव्य न दिया। सिर्फ इतना ही कहा, 'जांच पड़ताल कर ली।' पर इतना वक्तव्य जोशू का काफी है। उसने यह कह दिया कि उस स्त्री के पास कुछ भी नहीं है। बंधे हुए शब्द हैं। किसी से सुन लिए होंगे। कहीं से उधार पा लिए, इसलिए हरेक को एक ही जवाब दिए जाती है।
ज्ञानी के जवाब हर उत्तर पूछनेवाले के साथ बदल जाते हैं। ज्ञानी कोई दार्शनिक नहीं है। उसने कोई जवाब, सवाल तय नहीं कर रखे हैं। ज्ञानी एक दर्पण है। तुम जैसे हो, वह तुम्हें वैसा ही प्रकट कर देता है। इसलिए पंडित से तुम्हें सूचनायें मिल सकती हैं। ज्ञानी से बुद्धत्व मिलता है। पंडित से जानकारी मिल सकती है, ज्ञानी से ज्ञान मिलता है।

आज इतना ही।


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