प्रश्न—सार:
1. क्या आप भी
कभी किसी
दुविधा में
पड़े हैं?
2. बुद्धि,
अंतर्बोध और
प्रतिभा के
प्रासंगिक
महत्व को
समझाएं।
3. इस
शइक्त को,क्ष्मैं'j'.
समझाएं—'योगियों
और
सार्धुंक्ती
बुरी संगत
में।'
4
अहंकार सभी
परिस्थितियों
में पोषित
होता मालूम
पड़ता है। तो
ऐसे में क्या
करें?
5. हम अपने मन
को कैसे गिरा
सकते है, जबकि
आप प्रवचनों
में दिलचस्प बातें
सुनाकर मन में
खलबली मचाते रहते
हैं!
6 मेरे
प्यारे—प्यारे
भगवान, जब
मैं बुद्धत्व
का अनुभव करूं;
क: क्या
मैं आपसे कहूं?
ख: क्या
आप मुझसे
कहेंगे?
ग: क्या
यह प्रश्न
मेरा अहंकार
पूछ रहा है?
7 कहीं मैं
इतना न खो
जाऊं कि आपको
धन्यवाद भी न
दे सकूं,
तो कृपया,
क्या मैं अभी
आपको धन्यवाद
कह सकता हूं, जबकि आप अभी
मेरे लिए
मौजूद है?
पहला
प्रश्न:
प्यारे
भगवान आप इतने
अदभुत रूप से
कुशल और हाजिर
जवाब हैं कि
कभी— कभी मुझे
आश्चर्य होता
है कि क्या आप
भी कभी किसी
दुविधा में
पड़े हैं?
पहली तो बात, दुविधा
में, असमंजस
में होने के
लिए व्यक्ति
को तर्क पूर्ण
होना पडेगा।
चूंकि मैं
तर्क पूर्ण
नहीं हूं इसलिए
तुम मुझे किसी
दुविधा में
नहीं डाल सकते।
मैं इतना
अतार्किक हूं
कि मुझे किसी
भी भांति
दुविधा में
डालना असंभव
है।
इसे
खयाल में ले
लेना, अगर
व्यक्ति
बुद्धि से
चिपका रहे, बुद्धि को
पकड़े रहे, तो
कभी न कभी उसे
किसी दुविधा
में, किसी
असमंजस में
डाला जा सकता
है, क्योंकि
उसके पास
चिपकने को, पकड़ने को
कुछ होता है।
अगर एक बार भी
यह सिद्ध हो
जाए कि वह बात
गलत है, तार्किक
रूप से गलत है,
तो फिर
दुविधा में
पड़ना
स्वाभाविक
है। और अगर तुम
अपने
पूर्वाग्रह
को तर्क से
प्रमाणित नहीं
कर सके, तो
फिर दुविधा
में पड़ना ही
होगा। लेकिन
मैं पूर्ण रूप
से अतार्किक
हूं —मेरे पास
प्रमाणित
करने को कोई
पूर्वाग्रह नहीं
है, मेरे
पास प्रमाणित
करने को कुछ
भी नहीं है।
तुम मुझे
दुविधा या
असमंजस में
कैसे डाल सकते
हो?
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा
एक बार
एक आदमी
परमात्मा
होने का दावा
कर रहा था। तो
उसे खलीफा कै
पास ले जाया
गया। खलीफा ने
कहा, 'पिछले
साल किसी ने
पैगंबर होने
का दावा किया
था—उसे फासी
पर चढ़ा दिया
गया। क्या तुम
इस बारे में
जानते हो?'
वह
आदमी बोला, 'उसे अपनी
करनी का ठीक
फल मिला।
मैंने उसे
नहीं भेजा था।’
अब ऐसे
आदमी को किसी
दुविधा में या
परेशानी में
नहीं डाला जा
सकता है। ऐसा
करना असंभव है, क्योंकि
अतार्किक
दृष्टि, बिना
तर्क वाली
दृष्टि एक
खुली दृष्टि
होती है। खुली
दृष्टि के साथ
कोई दुविधा
नहीं हो सकती
है, क्योंकि
कोई सीमा नहीं
है, कोई
दीवारें नहीं
हैं। यह तो एक
खुला आकाश है,
जहां
व्यक्ति
बिलकुल
स्वतंत्र है।
तुम्हें
दुविधा में
तभी डाला जा
सकता है अगर
तुम बंधे —बंधाए
तर्क में जीते
हो। अगर तुम
खुले आकाश के
नीचे बिना
किन्हीं
पूर्वाग्रहों
के जीते हो, तो कैसे
तुम्हें
दुविधा में
डाला जा सकता
है? फिर
दुविधा में
पड़ने का कोई
कारण ही नहीं
है।
और
इसीलिए मेरी
देशना है.
पूर्वाग्रहों
को क्यों
पकड़ना, उनसे क्यों
चिपकना? अगर
तुम हिंदू हो
या मुसलमान हो
या ईसाई हो तो
तुमको दुविधा
में डाला जा
सकता है।
लेकिन अगर तुम
इनमें से कुछ
भी नहीं हो, तो फिर किसी
प्रकार की
दुविधा में
डालने का कोई
सवाल ही नहीं
उठता है, वह
अपने से ही
समाप्त हो
जाती है। फिर
तो संपूर्ण
आकाश
तुम्हारा है।
और जिस क्षण
तुम्हें आकाश
के सौंदर्य और
उसकी
स्वतंत्रता
का भान हो
जाएगा, उसी
क्षण तुम अपने
सभी
पूर्वाग्रहों
और सभी सिद्धातों
को छोड़ दोगे।
मेरा
कोई सिद्धांत
नहीं है, न ही मुझे
कुछ प्रमाणित
करना है। मैं
तो यहां पर
केवल मात्र
तुम्हें अपनी
एक झलक देने
के लिए हूं।
और सच में अगर
देखा जाए तो
मेरे यहां पर
होने का कोई कारण
भी नहीं है।
असल में तो
मुझे बहुत
पहले ही चले
जाना चाहिए
था।
अनुराग
ने पूछा है, 'कल अचानक
सुबह आप रुक
गए और आपने
अपना हाथ अपने
सिर पर रख
लिया! क्यों?'
ऐसा कई
बार होता है
मैं अपना
संपर्क शरीर
से खो बैठता
हूं। सच तो
मुझे बहुत
पहले चले जाना
चाहिए था।
मेरे यहां पर
होने का कोई
कारण भी नहीं
है —किसी भी
तरह से मेरा
प्रयास यह है
कि मैं थोड़ी देर
और शरीर में
रह सकूं? ताकि मैं
थोड़ी
तुम्हारी मदद
कर सकूं।
तुम्हें शायद
मालूम भी न
होगा, लेकिन
ऐसा पहले भी
बहुत बार हुआ
है।
मन एक
यांत्रिक
प्रक्रिया है, मैं उसका
उपयोग कर रहा हूं, कई बार मेरा
मन के साथ
संपर्क टूट
जाता है। शरीर
एक यांत्रिक
प्रक्रिया है,
मैं उसका
उपयोग कर रहा
हूं। कई बार
मेरा शरीर से
संपर्क टूट
जाता है। कई
बार मैं इतनी
तीव्रता से
अपनी ही अथाह
गहराई में
उतरने लगता
हूं कि एक
क्षण के लिए
मुझे रुक जाना
पड़ता है।
मैं
केवल
अतार्किक ही
नहीं हूं
बल्कि बिना किसी
कारण के, अतर्कयुक्त
ढंग से मैं यहां
मौजूद हूं।
वरना तो मेरे यहां
पर होने का
कोई कारण नहीं
है।
और जो
लोग मेरे साथ
तर्क में पड़ना
चाहेंगे, वे कुछ खो
बैठेंगे। वे
मुझे पराजित
नहीं कर सकते,
क्योंकि मैं
उनसे कुछ
मनवाने का
प्रयास नहीं
कर रहा हूं, और मैं कुछ
प्रमाणित
करने की कोशिश
भी नहीं कर
रहा हूं।
तुम्हारे
विचारों को
परिवर्तित करने
में मुझे जरा
भी रस नहीं
है। मेरा रस
तो केवल इतना
ही है कि मेरे
पास कुछ है, मैंने कुछ
पाया है, मैं
तुम्हें भी
देना चाहता हूं।
अगर तुम तैयार
हो, तुम
मेरे प्रति
खुले हुए हो, मेरे प्रेम
में हो, मेरे
साथ एक आत्म
घनिष्ठता में
हो, तो तुम
उसे ग्रहण कर
सकते हो।
अन्यथा बाद
में तुम बहुत
पछताओगे।
एक बार
ऐसा हुआ:
एक
शराबी अपनी
मस्ती में
लड़खड़ाते
कदमों से शराबघर
में पहुंच गया, ग्राहकों
को धक्का—मुक्की
करते —करते वह
बार तक पहुंच
गया। अपने
रास्ते में आए
हुए एक स्त्री
—पुरुष को
देखकर उसने
बड़ी तेजी से
स्त्री को एक
ओर धकेला, और
काउंटर तक
पहुचने के लिए
अपना रास्ता
लोगों को
कोहनी से
धकेलते हुए
बनाता गया। और
काउंटर पर
पहुंचते ही उसने
बहुत जोर से डकार
ली। एक आदमी
को जिसे वह
धक्का मारकर
पीछे छोड़ आया
था। वह गुस्से
में भरा हुआ
उसके पास आया।
वह
आदमी क्रोध
में लाल—पीला
होकर बोला, 'तुमने
मेरी पत्नी को
धक्का देने की
हिम्मत कैसे
की? और फिर
मेरी पत्नी के
सामने तुमने
इतनी जोर से
डकार कैसे ली?'
वह
शराबी उस आदमी
से क्षमा
मांगने लगा।
वह
बोला, 'मुझे
बहुत अफसोस है
कि आपकी पत्नी
के सामने मैंने
डकार ली। मैं
भूल गया कि
डकार लेने की
उसकी बारी थी।’
मैं
उसी शराबी की
तरह हूं। तुम
मुझे किसी
दुविधा में
नहीं डाल सकते
हो।
यही तो
मैं तुम्हारे
प्रश्नों के
साथ कर रहा हूं।
जो उत्तर मैं
दे रहा हूं वे
उत्तर
महत्वपूर्ण
नहीं हैं—इसे
समझने की
कोशिश करो —मैं
तो तुम्हारे
प्रश्नों को
ही मिटा डाल
रहा हूं। मेरे
उत्तर कोई
उत्तर नहीं
हैं, बल्कि
तुम्हारे
प्रश्नों को
मिटा डालने के
आयोजन हैं।
बहुत
से ऐसे लोग
हैं जो
तुम्हारे
प्रश्नों के उत्तर
देते हैं, और वे
तुम्हें कुछ
सुनिश्चित
धारणाओं, सिद्धांतों,
मताग्रहों,
और धर्म —सिद्धांतों
से भर देते
हैं —मैं उस
ढंग से
तुम्हारे
प्रश्नों का
उत्तर, नहीं
दे रहा हूं।
अगर तुम ध्यान
से देख सको, और अगर तुम
जागरूक रह सको,
तो तुम समझ
जाओगे कि मेरा
पूरा प्रयास
यहां पर
तुम्हारे
प्रश्नों को
मिटा देने का
है। ऐसा नहीं
है कि तुम्हें
उत्तर मिल
जाता है, बल्कि
तुम्हारा
प्रश्न ही मिट
जाता है।
अगर
किसी दिन तुम
प्रश्न —शून्य
या विचार—शून्य
हो जाते हो, तो वही
तुम्हारे लिए
आत्मबोध हो
जाएगा। ऐसा नहीं
है कि तुम्हें
कोई उत्तर मिल
जाएगा
तुम्हारे पास
प्रश्न ही न
बचेंगे, बस
इतना ही होगा।
तुम इसी को
उत्तर कह सकते
हो —जबकि कोई
प्रश्न ही
नहीं बच रहता
है।
संबुद्ध
वह नहीं है
जिसके पास सभी
चीजों के उत्तर
होते हैं; संबुद्ध
वह है जिसके
पास प्रश्न ही
नहीं हैं।
जिसका प्रश्न
करना मिट चुका
है —जिसके लिए
प्रश्न करने
की बात ही
व्यर्थ, अप्रासंगिक
हो चुकी है।
वह तो बस बिना
किसी प्रश्न
के मौजूद होता
है। और जब मैं
कहता हूं कि वह
अ—मन होता है, तो मेरा यही
अभिप्राय है।
मन तो हमेशा
प्रश्न करता
रहता है, या
इसे ऐसा कह लो
मन प्रश्न है।
जैसे पत्ते वृक्षों
में उगते चले
जाते हैं, ऐसे
ही मन से
प्रश्न उठते
ही चले जाते
है। पुराने
पत्ते गिरते
रहते हैं, नए
पत्ते उगते
रहते हैं, पुराने
प्रश्न मिटते
हैं, नए
प्रश्न आते
चले जाते हैं।
मैं इस मन के
पूरे के पूरे
वृक्ष को ही
जड़ से उखाड़
देना चाहता हूं।
अगर
मैं तुम्हारे
किसी प्रश्न
का उत्तर दे
भी देता हूं
तो उस उत्तर
से ही
तुम्हारे मन
में और न जाने
कितने प्रश्न
उठ खड़े होंगे।
तुम्हारा मन
उस उत्तर को भी
बहुत से
प्रश्नों में
बदल लेगा।
मैं तो
बिलकुल ही
असंगत हूं —मैं
कोई दार्शनिक
नहीं हूं —एक
कवि हो सकता
हूं एक शराबी
हो सकता हूं।
तुम मुझे
प्रेम कर सकते
हो, लेकिन
मेरा अनुसरण
नहीं। तुम मुझ
पर श्रद्धा कर
सकते हो, लेकिन
मेरा अनुसरण
नहीं।
तुम्हारे
प्रेम और तुम्हारी
श्रद्धा से ही
तुममें कुछ
अदभुत और मूल्यवान
जुड़ जाएगा। इस
प्रेम और
श्रद्धा का जो
कुछ मैं कहता
हूं उससे कुछ
लेना—देना
नहीं है, इसका
संबंध तो जो
कुछ मैं हूं
उससे है। यहां
जो संप्रेषण
घटित हो रहा
है, वह
शास्त्रों के
पार का
संप्रेषण है।
तो
मुझे कभी भी
अपने जीवन में
किसी प्रकार
की दुविधा या
असमंजस का
सामना नहीं
करना पड़ा। यह असंभव
है—तुम किसी
पागल आदमी को
कभी दुविधा
में नहीं डाल
सकते हो।
दूसरा
प्रश्न :
कृपा
करके बुद्धि
अंतर्बोध और
प्रतिभा के प्रासंगिक
महत्व को उनके
समुचित
परिप्रेक्ष्य
में समझाएं।
और
आपसे
प्रार्थना है
कि इसे विशेष
रूप से समझाएं
कि जीवन क्यों
और कैसे
प्रतिभा की ओर
उन्मुख हो
सकता है? और इस
प्रकार की
प्रतिभा जीवन
के लिए और
जीवन के
उच्चतम व
श्रेष्ठतम
विकास के लिए
कैसे उपयुक्त
हो सकती है?
बुद्धि तुम्हारे
अस्तित्व की
सबसे निम्नतम
क्रियाशीलता
है, क्योंकि
वह सर्वाधिक
निम्नतम
क्रियाशीलता है,
इसलिए
उसमें
सर्वाधिक
सामर्थ्य है।
चूंकि वह सबसे
नीचे है, इसलिए
वह सबसे अधिक
विकसित है।
क्योंकि
निम्न को
प्रशिक्षित
किया जा सकता
है, अनुशासित
किया जा सकता
है। क्योंकि
बुद्धि सबसे
नीचे का तल है,
तो सभी
विश्वविद्यालय,
कालेज, स्कूल,
बुद्धि
प्रशिक्षण के
लिए ही हैं।
और प्रत्येक
व्यक्ति में
थोड़ी—बहुत
बुद्धि तो
होती ही है।
बाहर
के संसार के
लिए बुद्धि का
अदभुत रूप से
उपयोग है।
संसार में बिना
बुद्धि के
किसी उपयोग का
हो पाना कठिन
है। इसीलिए
लाओत्सु अपने
शिष्यों से
कहता है, 'अनुपयोगी हो
जाओ।’ जब
तक तुम
अनुपयोगी
होने को तैयार
नहीं हो जाते,
तुम बुद्धि
को पीछे छोड़ने
को राजी न
होओगे, क्योंकि
बुद्धि तुम्हें
उपयोगिता
प्रदान करती
ही रहती है।
अगर तुम
डाक्टर बन
जाते हो —तो
तुम समाज के
लिए उपयोगी हो
जाते हो। अगर
तुम इंजीनियर
बन जाते हो, प्रोफेसर बन
जाते हो —कुछ न
कुछ बन जाते
हो, तो तुम
समाज के लिए
उपयोगी हो
जाते हो। और
यह केवल
बुद्धि के
द्वारा ही
संभव हो पाता
है कि तुम 'कुछ'
बन जाते हो —और
तब फिर समाज
तुम्हारा
उपयोग साधन की
भांति कर सकता
है। जितने
ज्यादा
उपयोगी तुम
समाज के लिए
होते हो, उतना
ही अधिक मूल्य
तुम्हारा
होता है; उतने
ही तुम समाज
में
प्रतिष्ठित
होते हो।
इसीलिए
ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और
शूद्र की श्रेणियां
हैं। इन चारों
श्रेणियों
में सबसे ऊपर
है पंडित—विद्वान,
जो कि
विशुद्ध
बुद्धि से
जीता है —ब्राह्मण।
उससे कुछ नीचे
है योद्धा, क्षत्रिय, क्योंकि उसे
देश की रक्षा
करनी होती है।
उससे नीचे है
व्यापारी, वैश्य,
क्योंकि वह
संपूर्ण समाज
की रक्त —संचार
व्यवस्था है —समाज
की पूरी अर्थ —व्यवस्था
इन्हीं के ऊपर
निर्भर है। और
सबसे नीचे है
शूद्र, अछूत,
सर्वहारा, श्रमजीवी
वर्ग, क्योंकि
उसका काम
शारीरिक श्रम
का है। उसमें सबसे
कम बुद्धि की
आवश्यकता
होती है, उसमें
कुछ ज्यादा
बुद्धि की
आवश्यकता
नहीं होती है।
शूद्र को अधिक
बुद्धि के
विकास की
आवश्यकता
नहीं होती है,
और
ब्राह्मण को
बुद्धि के
अधिक से अधिक
विकास की
आवश्यकता
होती है।
लेकिन यह पूरा
विभाजन बुद्धि
के कारण है।
बुद्धि
की अपनी
उपयोगिता है, लेकिन
व्यक्ति
बुद्धि से
कहीं अधिक बड़ा
है, बुद्धि
से अधिक विराट
है।’ व्यक्ति
बुद्धि के
माध्यम से
डाक्टर, इंजीनियर,
प्रोफेसर, व्यापारी, योद्धा तो
बन जाएगा, लेकिन
व्यक्ति
स्वयं के होने
को खो बैठता
है। उसका
स्वयं का
अस्तित्व मिट
जाता है। तब
वह कार्य के
साथ इतना अधिक
तादात्म्य
बना ले सकता
है कि अपने
अस्तित्व को,
अपने होने
को भूल सकता
है। तब तुम एक
इंसान हो, यह
भी भूल सकते
हो। —इंजीनियर,
या एक
न्यायाधीश, एक राजनेता
के रूप में
इतना अधिक
तादात्म्य हो
सकता है कि वह
मनुष्य है, यह भी भूल
सकता है।
तब वह
व्यक्ति
स्वयं को दाव
पर लगा रहा
होता है, और तब वह एक
यांत्रिक
प्रक्रिया
बनकर रह जाता है।
समाज व्यक्ति
का उपयोग तब
तक करता है, जब तक उसका
उपयोग किया जा
सकता है। और
फिर जब वह
व्यक्ति समाज
के उपयोग के
लायक नहीं रह
जाता है, तो
समाज उसे
उठाकर एक तरफ
कर देता है।
फिर समाज
प्रतीक्षा
करता है कि कब
तुम्हारी
मृत्यु हो जाए,
क्योंकि अब
तुम्हारी कोई
उपयोगिता
नहीं है।
जो
व्यक्ति
रिटायर हो
जाते हैं, कार्य से
अवकाश—प्राप्त
कर लेते हैं, वे जल्दी मर
जाते हैं। अगर
—उन्होंने
अवकाश ग्रहण न
किया होता तो
शायद वे देर
से मरते, थोड़ी
देर और जिंदा
रहते। अवकाश —प्राप्त
लोग समय से
पहले के हो
जाते हैं।
रिटायर होने
के बाद उनकी
जिंदगी के
करीब दस वर्ष
कम हो जाते
हैं। क्या
होता है?
चूंकि
वे अनुपयोगी
हो जाते हैं, तो
उन्हें ऐसा
लगने लगता है
कि जहां कहीं
भी वे जाते
हैं उनका कोई
उपयोग तो है
नहीं, ज्यादा
से ज्यादा वे
हैं इसलिए लोग
उन्हें सहन
करते हैं, उनकी
आवश्यकता तो
है नहीं। और
मनुष्य की यह
एक बड़ी गहन आकांक्षा
होती है कि
उसकी
आवश्यकता
हमेशा बनी रहे
—उसकी बड़ी से
बड़ी आकांक्षा
यही होती है
कि उसकी
आवश्यकता
हमेशा बनी
रहे। जब
व्यक्ति को
ऐसा लगने लगता
है कि वह
फालतू है, उसका
कोई उपयोग
नहीं है, उसको
कूड़े —कचरे
में फेंका जा
सकता है, अब
समाज के लिए
उसकी कोई
उपयोगिता
नहीं रही है, तो व्यक्ति
मृत्यु की तरफ
सरकने लगता
है। कार्य से
अवकाश—ग्रहण
करने की तिथि,
मृत्यु की
तिथि भी बन
जाता है —व्यक्ति
तेजी के साथ
मृत्यु की ओर
बढ़ने लगता है।
उसे ऐसा लगने
लगता है कि अब
वह घर —परिवार,
समाज के लिए
एक बोझ बन गया
है, अब लोग
उसे चाहते
नहीं हैं। हो
सकता है, कुछ
लोग ऐसे
व्यक्ति के
प्रति थोड़ी—बहुत
सहानुभूति भी
दिखाएं, लेकिन
फिर भी समाज
में, घर —परिवार
में उसका कोई
सम्मान, प्रतिष्ठा
और आदर नहीं
रह जाता है।
उसे कोई भी
प्रेम नहीं
करता है, तब
व्यक्ति अपने
को अकेला और
अलग — अलग महसूस
करने लगता है।
अगर
तुम बुद्धि के
साथ बहुत
ज्यादा
तादात्म्य
बना लेते हो
तो तुम एक
वस्तु बन जाते
हो, एक
यांत्रिक
प्रक्रिया बन
जाते हो। जैसे
एक अच्छी कार
होती है, लेकिन
जब उसकी
उपयोगिता
समाप्त हो
जाती है, तो
उसे कूड़े —कचरे
के ढेर में
फेंक दिया
जाता है। इसी
तरह से समाज
में तुम्हारा
उपयोग किया
जाएg:ग़, और
फिर जब तुम
समाज के लिए
उपयोगी नहीं
रह जाओगे तो
उठाकर एक तरफ
फेंक दिया
जाएगा— और तब
तुम्हारा
अतर्तम, तुम्हारा
ह्दय अतृप्त
ही रह जाएगा, क्योंकि
मात्र वस्तु
की भांति
उपयोग किए जाने
के लिए तुम
यहां पर नहीं
आए हो। तुम इस
संसार में
अपने
अस्तित्व की
खिलावट के लिए
आए हो, और
वही तुम्हारी
सच्ची नियति
भी है।
बुद्धि
से ऊपर
अंतर्बोध है।
अंतर्बोध
जीवन को थोड़ा
प्रेममय, और थोड़ा
काव्यात्मक
बना देता है।
उससे कुछ अपने
अनुपयोगी
होने की
झलकियां मिल
जाती हैं, कि
तुम्हारा
होना एक व्यक्ति
की तरह है, वस्तु
की तरह नहीं।
जब कोई
व्यक्ति
तुमसे प्रेम
करता है, तो
वह प्रेम
तुम्हारे
अंतर्बोध से,
तुम्हारे
चंद्र—केंद्र
से करता है।
जब कोई
तुम्हारी तरफ
मुग्ध होकर, प्रेम से
भरकर देखता है,
या
तुम्हारे
प्रति
आकर्षित होता
है, तो वह
देखना भीतर की
चंद्र—ऊर्जा
को जीवंत कर
देता है। अगर
कोई तुम से कह दे
कि तुम सुंदर
हो। तो तुम
अपने में कुछ
फैलाव, कुछ
वृद्धि अनुभव
करते हो।
लेकिन अगर कोई
तुमसे कह दे
कि तुम बहुत
उपयोगी हो, तुम्हारा
बहुत उपयोग है,
तो तुम्हें
बहुत चोट लगती
है, तुम्हें
बहुत पीड़ा
पहुंचती है —कि
उपयोगी? इसमें
कुछ प्रशंसा
जैसा नहीं
लगता।
क्योंकि अगर
तुम किसी
स्थान के लिए
उपयोगी हो तो
तुम्हारा
विकल्प खोजकर
उस स्थान को
भरा भी जा
सकता है। तब
तुम्हें
हटाया भी जा
सकता है और तब
दूसरा
व्यक्ति
तुम्हारा
स्थान ले सकता
है। लेकिन अगर
तुम सुंदर हो,
तो तुम कुछ
अद्वितीय और
अनूठे हो जाते
हो, तब
तुम्हारी जगह
किसी और को
नहीं रखा जा
सकता है। फिर
तो जब तुम इस
संसार से बिदा
लोगे, तो
तुम्हारे
जाने से एक
रिक्तता, एक
खालीपन आ
जाएगा, तुम्हारी
कमी हमेशा बनी
रहेगी।
इसीलिए
हम प्रेम के
लिए इतने
लालायित रहते
हैं। प्रेम
अंतर्बोध के
लिए आहार है।
अगर व्यक्ति
को प्रेम नहीं
मिले तो उसका
अंतर्बोध
विकसित नहीं
हो पाता है।
अंतर्बोध के
विकास के लिए
जरूरी है कि
व्यक्ति पर
प्रेम की
वर्षा हो जाए।
इसीलिए अगर
मां बच्चे से
प्रेम करती है, तो बच्चा
सहज और अपने
अंतर्बोध से
जीता है। अगर
मां बच्चे से
प्रेम नहीं
करती है, तो
बच्चा
बौद्धिक हो
जाता है, दिमाग
से जीता है।
अगर बच्चे की
परवरिश आनंद से,
प्रेमपूर्ण
और करुणा से
भरे माहौल में
होती है —और
अगर बच्चे को
उसके होने के
कारण स्वीकार
किया जाता है,
न कि इसलिए
कि वह किसी
उपयोगिता की
पूर्ति कर
सकता है —तो
बच्चे का अंतर—विकास
बहुत ही अदभुत
रूप से होता
है और उसकी ऊर्जा
चंद्र —केंद्र
से संचालित
होने लगती है।
नहीं तो चंद्र—केंद्र
निष्कि्रय ही
रहता है, क्योंकि
व्यक्ति को
प्रेम मिला ही
नहीं होता है।
कभी
थोड़ा इस बात
पर ध्यान
देना। अगर तुम
किसी स्त्री
से कहते हो कि 'मैं
तुमसे प्रेम
करता हूं? क्योंकि
तुम्हारी आंखें
सुंदर हैं,' तो वह
आनंदित न
होगी।
क्योंकि कौन
जाने कल वह अपनी
आंखें खो
बैठे। और उसे
कोई रोग भी हो
सकता है जिसके
कारण वह अंधी
भी हो सकती है,
या ऐसा भी
हो सकता है कि
कल को आंखें
सुंदर ही न रह
जाएं — आंखें
तो मात्र
सांयोगिक
घटना हैं। जब
तुम कहते हो, 'मुझे तुमसे
प्रेम है, क्योंकि
तुम्हारा
चेहरा सुंदर
है,' तो
स्त्री
आनंदित नहीं
होती।
क्योंकि
चेहरा तो
हमेशा सुंदर
नहीं रहेगा।
बुढ़ापा तो रोज
—रोज करीब आ
रहा है। लेकिन
अगर तुम कहो
कि 'मैं
तुमसे प्रेम
करता हूं, '
तब वह आनंद
से भर जाती
है। क्योंकि
इसमें कुछ
स्थायी है, यह बात
सांयोगिक
नहीं है, इसे
कुछ नहीं हो
सकता। जब तुम
किसी स्त्री
से कहते हो कि 'मैं तुमसे
प्रेम करता हू
क्योंकि छ ' तब वह कभी
खुश नहीं होती,
यह 'क्योंकि'
बुद्धि को
बीच में ले
आता है। तुम
बस ऐसे ही कह देते
हो, तुम
अपने कंधे
उचका देते हो
और तुम कहते
हो कि 'मुझे
भी नहीं मालूम,
ऐसा क्यों
है, लेकिन
मैं तुमसे
प्रेम करता हूं, 'तो
चंद्र—केंद्र
क्रियाशील
होने लगता है —और
स्त्री
प्रसन्न हो
जाती है।
जरा
किसी ऐसी
स्त्री को
ध्यान से
देखना जब कोई
उसे प्रेम
नहीं करता हो, और जब उसे
कोई कहता हो, 'मुझे तुमसे
प्रेम है,' तब
उसे देखना।
उसके सौंदर्य
में, उसकी
चाल में तुरंत
फर्क आ जाएगा।
एक अदभुत परिवर्तन—उसका
पूरा चेहरा
किसी नए आलोक
से प्रकाशित
हो जाएगा, उसके
चेहरे पर एक
चमक आ जाएगा।
क्या हो गया? तब —चंद्र—केंद्र
पर जो ऊर्जा
रुकी हुई थी, वह
निर्मुक्त
होने लगती है।
तुम ने
एक महान डच
चित्रकार, विनसेंट
वानगाग का नाम
अवश्य ही सुना
होगा। उसका
व्यक्तित्व
कोई सुंदर न
था, वह
बहुत ही कुरूप
था और कभी भी
किसी स्त्री
ने वानगाग से
नहीं कहा
था कि 'मुझे
तुमसे प्रेम
है।’ निस्संदेह
उसका वह
केंद्र अविकसित
ही रह गया—उसका
चंद्र—केंद्र
कभी
क्रियाशील ही
नहीं हुआ। वह
इतना कुरूप था
कि उसे देखकर
वितृष्णा
होती थी। लोग
उसे देखते ही
उससे बचकर
निकल जाते थे।
वह एक दुकान
में काम करता
था और उस
दुकान का
मालिक उसे रोज
दिन—रात देखता
था। वह इतना
ढीला—ढाला और
सुस्त नजर आता
था जैसे कि
उसके तन —मन पर
धूल ही धूल
इकट्ठी हो गयी
हो। और उसे
किसी भी बात
में कोई रुचि
नहीं थी।
ग्राहक आते तो
वह उन्हें
पेंटिंग्स
दिखाता जरूर
था, लेकिन
दिखाने में
उसे कोई रुचि
नहीं होती थी।
वह हमेशा थका—
थका सा रहता
था। उसे किसी
चीज में कोई
उत्सुकता
नहीं थी, वह
हमेशा तटस्थ
रहता था। जब
वह चलता भी था,
तो उसे
देखकर ऐसा
लगता था जैसे
कि कोई जीवित
लाश चली जा
रही है —चलना
ही पड़ेगा
इसलिए वह चलता
था, लेकिन
उसकी चाल —ढाल
में कोई
उत्साह, कोई
उमंग, कोई
जीवन नहीं था।
एक दिन
अचानक उस
दुकान के
मालिक को अपनी
आंखों पर
भरोसा ही नहीं
आया। जब
वानगाग दुकान
पर आया तो उसे
देखकर ऐसा
लगता था वह कई
महीनों या शायद
कई वर्षों के
बाद नहाया हो।
वह नहा — धोकर, बालों को
ठीक से संवार
कर आया था। उस
दिन वानगाग ने
अच्छे कपड़े
पहने हुए थे, इत्र भी लगा
रखा था और
उसके चलने में
एक तरह की
उमंग थी और
साथ में वह
कुछ गुनगुना
भी रहा था।
दुकान के
मालिक को तो
कुछ समझ ही
नहीं आया। सब
कुछ बदला—बदला
था। दुकान का
मालिक चकित था
कि आखिर वानगाग
को हुआ क्या
है।
मालिक
ने उसे बुलाकर
पूछा, 'वानगाग,
आज बात क्या
है'? वानगाग
बोला, ' आज
बात कुछ बन
गयी है। एक
स्त्री ने कहा
है कि वह
मुझसे प्रेम
करती है।
हालांकि वह
स्त्री एक वेश्या
है, लेकिन
फिर भी क्या
हुआ। हालाकि
उसने ऐसा कहा
तो केवल पैसों
के लिए है, लेकिन
फिर भी किसी
स्त्री ने
मुझसे कहा तो
कि वह मुझसे
प्रेम करती है।’
वानगाग
नें उस स्त्री
से, उस
वेश्या से
पूछा कि 'तुम
मुझसे प्रेम
क्यों करती हो?'
क्योंकि यह
बात उसे हमेशा
परेशान किए
रहती थी। कोई
भी उससे प्रेम
नहीं करता था,
उसे अपनी
कुरूपता का
पता था।’तुम
मुझसे प्रेम
क्यों करती हो?'
उसके लिए यह
स्वीकार कर
पाना असंभव था
कि कोई सिर्फ
उसके लिए ही
उसे प्रेम कर
सकता है—'क्यों?'
और वह
वेश्या कुछ
समझ नहीं पा
रही थी कि वह
क्या कहे।
क्योंकि कहने
को कुछ था
नहीं, और
जो कुछ भी वह
कहेगी वह हंसी
का पात्र ही
लगेगा। वह कह
भी नहीं सकती
थी कि 'तुम्हारी
आंखों के कारण
प्रेम करती
हूं ' वह यह
भी नहीं कह
सकती थी कि 'तुम्हारे
चेहरे के कारण
तुम्हें
प्रेम करती हूं, ' वह यह भी
नहीं कह सकती
थी कि 'तुम्हारे
शरीर के कारण
तुम्हें
प्रेम करती हूं
—वह जो कुछ भी
कहती गलत ही
लगता। वह बोली,
'तुम्हारे
कानों के कारण
मैं तुम्हें
प्रेम करती
हूँ।
तुम्हारे कान
बहुत सुंदर
हैं।’ कान?
क्या तुमने
कभी ऐसा सुना
है कि किसी ने
कानों से
प्यार किया हो?
और वानगाग
तो यह सुनकर
ऐसा मंत्र
मुग्ध हो गया
कि घर जाकर
उसने एक कान
काटा, उसे
कपड़े में
लपेटा, वापस
लौटा और वह
कान स्त्री को
भेंट कर दिया।
वानगाग उस
स्त्री से
बोला, 'कभी
किसी ने मुझ
में कुछ भी
पसंद नहीं
किया। यह एक गरीब
आदमी की भेंट
है, लेकिन
फिर भी तुम
इसे स्वीकार
कर लो।’ वह
स्त्री तो
वानगाग की ऐसी
भेंट को देखकर
चकित रह गयी।
उसे तो भरोसा
ही नहीं आया
कि यह किस तरह
का पागल आदमी
है?
लेकिन
वानगाग को
बहुत ही अच्छा
लग रहा था, वह बहुत
खुश था। वह
अपने एक पत्र
में लिखता है,
'वह मेरी
जिंदगी की
सबसे बड़ी खुशी
थी। किसी ने तो
मेरे में कुछ
पसंद किया और
मैं अपने
अस्तित्व को
बाट सका।’
थोड़ा
ध्यान देना, थोड़ा इस
पर गौर करना।
जब कभी कोई
व्यक्ति तुमसे
प्रेम करता है,
बस प्रेम
करता है, बेशर्त
प्रेम करता है,
तो वह कहता
है, 'मुझे
तुमसे प्रेम
है क्योंकि
तुम तुम हो, मुझे तुमसे
प्रेम है
क्योंकि तुम
हो।’ तब उस
समय तुम्हारी
ऊर्जाओं के
बीच क्या होता
है? उस समय
सूर्य —ऊर्जा
चंद्र—ऊर्जा
की ओर सरक
जाती है। अब
सूर्य का
उत्ताप उतना
नहीं रहता है,
चंद्र उसे. शीतल
कर देता है।
और तब उस
चंद्र—ऊर्जा
की शीतलता का
भव्य सौंदर्य
तुम्हारे संपूर्ण
अस्तित्व पर
बरस जाता है।
अगर इस संसार
में अधिकाधिक
प्रेम हो, तो
लोग अंतर्बोध
से ज्यादा
जीएंगे, बुद्धि
से कम, और
तब वे अधिक सुंदर
होंगे। तब
आदमी वस्तु की
तरह नहीं होगा,
तब आदमी
आदमी की तरह
होगा। तब
व्यक्ति
उत्साह से, उमंग से, सघनता
से जीवन को
जीएगा। तब
उसके जीवन में
एक दीप्ति
होगी, और
तब जीवन आनंद,
उल्लास, उत्सव
से भर जाएगा।
अंतर्बोध
पूर्णतया
भिन्न बात है।
अतबोंध बिना
किसी
प्रक्रिया के
कार्य करता है
—वह तो सीधे
परिणाम पर
छलांग लगा
देता है। सच
तो यह है, अंतर्बोध
सत्य की ओर
खुलने का
द्वार है—उसमें
सत्य की थोड़ी —
थोड़ी झलक आती
है। तर्क को
तो अंधेरे में
ही खोजना होता
है, अंतर्बोध
कभी अंधेरे
में नहीं
टटोलता है, उसे तो बस
झलक आती है।
उसे तो बस
देखा जा सकता
है।
जो लोग
अंतर्बोध से
जीते हैं, वे अपने
से ही धार्मिक
हो जाते हैं।
जो लोग बौद्धिक
ढंग से जीते
हैं, वे
अपने से
धार्मिक नहीं
हो सकते हैं।
ज्यादा से
ज्यादा वे
बौद्धिक रूप
से किसी धर्म —दर्शन
से जुड़ जाते
हैं, धर्म
से नहीं। वे
किसी धर्म —सिद्धांत
से जुड़ जाते
हैं, लेकिन
धर्म से नहीं।
वे परमात्मा
के लिए दिए गए
प्रमाणों. के
बारे में
बातचीत कर
सकते हैं, लेकिन
परमात्मा के
बारे में बात
करना, परमात्मा
की बात करना
नहीं है।
परमात्मा के बारे
में बात करना
लक्ष्य को चूक
जाना है —बारे
में —और इसी
तरह चक्र
घूमता चला
जाता है, उसका
कोई अंत नहीं
है। ऐसे लोग
हमेशा इधर—उधर
की ही बात
करते हैं, वे
सीधे लक्ष्य
की बात कभी
नहीं करते
हैं।
बुद्धि
में धार्मिक
होने की कोई
स्वाभाविक प्रवृत्ति
नहीं होती है, इसी कारण
मंदिरों में,
चर्चों में
स्त्रियां
अधिक दिखाई
पड़ती हैं। चंद्र
स्वभाव, स्त्री
स्वभाव धर्म
के साथ एक तरह
की समस्वरता
का अनुभव करता
है। बुद्ध के
शिष्यों में
पुरुषों से
तीन गुनी अधिक
संख्या स्त्रियों
की थी। यही
अनुपात
महावीर के साथ
भी था, महावीर
के संघ में दस
हजार साधु थे
तो तीस हजार
साध्वियां
थीं। यही
अनुपात जीसस
के साथ भी था।
और जानते हो
जब जीसस को
सूली दी गयी, तो उनके सभी
पुरुष
अनुयायी भाग
गए थे।
जब
जीसस की देह
को सूली पर से
उतारा गया, तो केवल
तीन
स्त्रियां
वहा पर मौजूद
थीं। क्योंकि
पुरुष तो केवल
किसी चमत्कार
की प्रतीक्षा
में भीड़ में
खड़े हुए थे।
वे अपने सूर्य
—केंद्र को, अपने पुरुष
होने को यह
भरोसा दिलाने
की कोशिश कर
रहे थे कि 'ही,
जीसस
परमात्मा के
एकमात्र बेटे
हैं' —लेकिन
कोई भी
चमत्कार घटित
नहीं हुआ। वे
जीसस से
चमत्कार की
मांग कर रहे
थे। वे लोग
परमात्मा से
और जीसस से
प्रार्थना कर
रहे थे, 'हमें
कोई प्रमाण
दें, कोई
चमत्कार
दिखाएं ताकि
हम
भरोसा कर सकें।’ जब उन्होंने
देखा कि जीसस
तो सूली पर एक
सामान्य आदमी
की तरह, एकदम
सामान्य आदमी
की तरह ही
प्राणों को
छोड़ दिए हैं —जब
जीसस को सूली
दी गई वहां पर
दो चोर और भी
थे जिनको जीसस
के साथ ही
सूली दी गयी
थी, और
जीसस की
मृत्यु भी
उनकी तरह ही
हुई थी, उसमें
जरा भी भेद न
था—तो जो लोग
किसी चमत्कार
की आशा में
वहां आए थे, वे लोग
संदेह से भर
गए। वे लोग
कहने लगे, यह
आदमी तो नकली
है —वह सच में
ईश्वर का बेटा
न था, इसलिए
वह ईश्वर न था,
और वे लोग
वहां से भाग
निकले।
लेकिन
ऐसा खयाल
स्त्रियों के
मन में नहीं
आया। उन्हें
किसी चमत्कार
की प्रतीक्षा
न थी, वे
तो बस जीसस को
देख रही थीं।
उनका ध्यान
किसी चमत्कार
की ओर नहीं था,
वे तो केवल
जीसस को देख
रही थीं— और
उन्होंने
चमत्कार देखा
भी कि जीसस
इतने सामान्य
और सरल रूप से
मृत्यु में
प्रवेश कर गए।
और यही था
असली चमत्कार
कि उन्होंने
कुछ भी सिद्ध
करने का प्रयास
नहीं किया।
क्योंकि जो
लोग कुछ सिद्ध
करके दिखाने
का प्रयास
करते हैं वे
सिद्ध करने के
द्वारा अपनी
रक्षा कर रहे
होते हैं।
जीसस अपना
बचाव नहीं कर
रहे थे।
उन्होंने
परमात्मा से
बस यही कहा, 'तेरा
प्रभुत्व रहे,
तेरी मर्जी
पूरी हो।’ यही
था उनका
चमत्कार। और
उन्होंने
परमात्मा से
कहा, 'हे
परमात्मा! तू
इन लोगों को
क्षमा कर देना,
क्योंकि ये
नहीं जानते कि
ये क्या कर
रहे हैं।’ यही
था चमत्कार—कि
वे उनके लिए
भी प्रार्थना
कर सकते थे जो
उनकी हत्या कर
रहे थे।
करुणावश वे
उनके लिए भी प्रार्थना
कर सकते थे।
जीसस ने
परमात्मा से
प्रार्थना की,
'हे
परमात्मा!
अपने निर्णय
को एक ओर
उठाकर रख दो, अपने निर्णय
को हटा दो और
मेरी बात
सुनो। यह लोग
निर्दोष हैं,
यह लोग नहीं
जानते कि यह
क्या कर रहे
हैं। यह लोग अज्ञानी
हैं। कृपया उन
पर क्रोध न
करें, उन
पर नाराज न
होए, इन्हें
माफ कर देना।’
यही था
चमत्कार।
स्त्रियां
इसे देख सकती
थीं, क्योंकि
उन्हें किसी
चमत्कार की आकांक्षा
न थी। बुद्धि
हमेशा कुछ न
कुछ मांग ही
करती रहती है,
अंतर्बोध
हमेशा खुला
हुआ, ओपन
रहता है। उसे
किसी विशेष
चीज की खोज
नहीं होती, वह तो बस
केवल खुली आख
से देखता है —वहां
तो एक अंतर्दृष्टि
होती है।
अंतर्बोध का
यही अर्थ है।
जब
जीसस तीन दिन
के बाद पुन:
प्रकट हुए, तो पहले
वे अपने पुरुष
शिष्यों के
पास गए। वे उनके
साथ —साथ चले, उन्होंने
उनसे बात की, लेकिन फिर
भी वे लोग
उन्हें पहचान
नहीं सके। उन्होंने
तो यह मान ही
लिया था कि
जीसस मर चुके हैं
—जीसस की
मृत्यु हो गई
है। सच तो यह
है वे लोग दुखी
हो रहे थे कि—'हमने अपने
जीवन के इतने
वर्ष इस आदमी
के साथ यूं ही
व्यर्थ गंवा
दिए।’ और
तब वे निश्चित
ही किसी
चमत्कारिक, किसी बाजीगर
की तलाश में
होंगे, वे
जरूर किसी ऐसे
ही आदमी की
तलाश में रहे
होंगे। और
जीसस उनके साथ—साथ
चले, उनसे
बातचीत की और
वे लोग थे कि
जीसस को पहचान
ही न सके। फिर
जीसस
स्त्रियों के
पास गए और जब वे
उनके पास गए
और मेरी
मेग्दालिन ने
उन्हें देखा
तो वह दौड़कर
आयी—वह जीसस
के गले लग
जाना चाहती
थी। उसने
तुरंत जीसस को
पहचान लिया।
और उसने पूछा
तक नहीं, 'कैसे
यह सब हुआ? —तीन
दिन पहले आपको
सूली लगी थी।’
अंतर्बोध
और अंतर्भाव 'कैसे' और 'क्यों' की
बात ही नहीं
करता है। वह
तो बस स्वीकार
कर लेता है।
उसमें तो गहन
और समग्र —स्वीकृति
होती है।
अगर
तुम प्रेम से
भरे वातावरण
में रहते हो.
और तुम्हें
ऐसा वातावरण
अपने चारों ओर
निर्मित करना
ही होता है —और
दूसरा तो कोई
ऐसा तुम्हारे
लिए करेगा
नहीं। लोगों
को प्रेम करो, ताकि वे
तुम्हें
प्रेम कर
सकें। लोगों
के प्रति
प्रेममय रहो,
ताकि प्रेम
फिर से उनसे
प्रतिबिंबित
हो सके। जिससे
प्रेम की
प्रतिध्वनि वापस
तुम तक लौट—लौट
आए। लोगों से
प्रेम करो, जिससे फिर
से तुम पर
प्रेम की
वर्षा हो। और
जब तुम्हारा
अंतर्बोध
कार्य करना
प्रारंभ कर देगा
तो फिर ऐसी
चीजें दिखाई
पड़ने लगेंगी
जिन्हें
तुमने पहले
कभी नहीं देखा
था। और संसार वही
का वही रहता
है, लेकिन
उसमें नए अर्थ
दिखाई देने
लगते हैं। फूल
वही रहते हैं,
लेकिन
उसमें कुछ नया
ही रहस्य
प्रकट होने
लगता है। वही
पक्षी हैं, लेकिन अब
उनकी भाषा समझ
आने लगती है।
तब अचानक उनके
साथ एक तरह का
संप्रेषण
होने लगता है,
अकस्मात ही
उनके साथ एक
तरह का संवाद
घटित होने
लगता है।
बुद्धि
की— अपेक्षा
अंतर्बोध
सत्य के अधिक
निकट होता है, क्योंकि
वह हमें
मानवीय बना
देता है— अधिक
मानवीय बना
देता है —ऐसा
बुद्धि से
संभव नहीं है।
और फिर
आती है
प्रतिभा, जो उन दोनों
के भी पार
होती है —अति
अंतर्बोध।
उसके विषय में
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता? क्योंकि जो
कुछ भी कहा जा
सकता है वह या
तो सूर्य की
भाषा में, पुरुष
की भाषा में
कहा जा सकता
है, या उसे
चंद्र की भाषा
में, स्त्री
की भाषा में
कहा जा सकता
है। या तो उसकी
व्याख्या
वैज्ञानिक
ढंग से की जा
सकती है, या
उसे काव्य के
ढंग से कहा जा
सकता है।
लेकिन
प्रतिभा की
व्याख्या करने
का तो कोई
उपाय ही नहीं
है। वह इन सब
के पार होती
है। उसे अनुभव
किया जा सकता
है, उसे तो
केवल जीया जा
सकता है, यही
प्रतिभा को
जानने का
एकमात्र
तरीका है।
लोग
गौतम बुद्ध के
पास आकर उनसे
पूछते, 'हमें
परमात्मा के
बारे में कुछ
बताएं।’ और
बुद्ध कहते, 'चुप, शांत
और मौन हो
जाओ। मेरे साथ
हो रहो—और
तुम्हें भी
उसका अनुभव हो
जाएगा।’ यह
प्रश्न कुछ
ऐसा नहीं है
जिसे पूछा जा
सके और जिसका
उत्तर दिया जा
सके। और यह
कोई ऐसी समस्या
नहीं है जिसका
समाधान किया
जा सकता हो।
यह तो ऐसा
रहस्य है जिसे
जीना होता है।
यह तो परम
आनंद की अवस्था
है। यह तो एक
अदभुत और
अपूर्व अनुभव
है।
बुद्धि
इस ढंग से
कार्य करती है
एक दिन
मुल्ला
नसरुद्दीन
गांव की आटे
की चक्की पर
गया था। वहा
पर वह हर किसी
के गेहूं में
से मुट्ठी भर—
भर कर अपना
थैला भरता जा
रहा था।
किसी ने
नसरुद्दीन से
पूछा, 'मुल्ला,
तुम ऐसा
क्यों कर रहे
हो?'
मुल्ला
ने उत्तर दिया, 'क्योंकि
मैं मूढ़ हूं।’
'अगर
तुम मूढ़ ही हो
तो दूसरों के
थैलों में अपना
गेहूं क्यों
नहीं डालते?'
मुल्ला
ने जवाब दिया, 'फिर तो
मैं और भी
ज्यादा मूढ़ हो
जाऊंगा।’
बुद्धि
चालाक और स्वार्थी
होती है।
बुद्धि सदा
दूसरों का
शोषण करने की
कोशिश करती
है। अंतर्बोध
ठीक इसके
विपरीत होता
है; वह
किसी का शोषण
नहीं कर सकता।
अब
मुझे तुम से
एक बात कहनी
है। लोग सोचते
हैं कि एक न एक
दिन ऐसा समय
अवश्य आएगा जब
कोई वर्ग नहीं
रहेंगे, आर्थिक ऊंच —नीच
नहीं रहेगी, किसी तरह का
कोई भेदभाव
नहीं रह जाएगा—कोई
गरीब नहीं
होगा, कोई
अमीर नहीं
होगा। और जिन
लोगों ने इस
सपने को, इस
आदर्श
को पोषित किया
है —उनमें
मार्क्स, एन्जिल
लेनिन और माओ
हैं —ये सभी
बुद्धि से
जीने वाले लोग
हैं, बौद्धिक
लोग हैं और
बुद्धि से कभी
भी इस अवस्था
तक नहीं
पहुंचा जा
सकता है। केवल
अंतर्बोध के
जगत में ही
ऐसा संभव है
कि वर्ग
व्यवस्था समाप्त
हो जाए। लेकिन
ये लोग
अंतर्बोध का
विरोध करते
हैं।
मार्क्सवादी
लोगों का
सोचना है कि बुद्धि
ही सब कुछ है, बुद्धि के
पार कुछ भी
नहीं है। अगर
ऐसा ही है, अगर
यही सत्य है तो
फिर उनके
आदर्श —राज्य
की कल्पना कभी
साकार नहीं हो
सकती —क्योंकि
बुद्धि चालाक
है और वह तो
केवल दूसरों
का शोषण करना
ही जानती है।
बुद्धि हिंसक
है, आक्रमण
करने वाली है,
लड़ाई—झगड़ा
करने वाली है,
विध्वंसक
और विनाशकारी
होती है।
सूर्य —ऊर्जा
बहुत ही उग्र,
हिंसक और
उत्ताप से भरी
हुई होती है।
वह सभी कुछ
जलाकर राख कर
देती है, सभी
कुछ जलाकर
खत्म कर डालती
है।
अगर सच
में ही कभी
वर्ग —विहीन
समाज का, सच्चे
साम्यवादी
समाज का
निर्माण हुआ—तो
वहां पर
कम्यूनों का
अस्तित्व
होगा और किसी
प्रकार के
वर्ग इत्यादि
नहीं होंगे —तब
वह समाज
पूर्णतया
मार्क्स
विरोधी होगा।
और वैसे समाज
को अंतर्बोध
से ही चलना
होगा। और उस
समाज के
निर्माता
राजनेता तो हो
नहीं सकते हैं
—उस समाज का
निर्माण केवल
कवि, कल्पनाशील
और स्वप्नदर्शी
लोग ही कर
सकते हैं।
मैं
कहना चाहूंगा
कि पुरुष उस
समाज का
स्रष्टा नहीं
हो सकता, केवल स्त्री
ही उस समाज की
स्रष्टा हो
सकती है। वर्ग
—विहीन समाज
का निर्माण
स्त्री ही कर
सकती है, पुरुष
नहीं।
उस
आदर्श स्वप्न
को साकार करने
में बुद्ध, महावीर, जीसस, लाओत्सु
तो सहायक हो
सकते हैं, लेकिन
मार्क्स भू:
नहीं, बिलकुल
नहीं।
मार्क्स बहुत
ही हिसाब —किताब
से, गणित
से चलने वाला
है, वह
बहुत ही चालाक
और बुद्धि से
जीने वाला है।
लेकिन अभी तक
इस दुनिया पर
सूर्य —तत्व
का ही, पुरुषों
का ही आधिपत्य
रहा है। यह भी
स्वाभाविक था,
क्योंकि
सूर्य
आक्रामक और
हिंसक होता है
इसलिए वह
संसार पर शासन
करता चला आ
रहा है।
लेकिन
अब इस बात की
संभावना है, क्योंकि
सूर्य अब थक
गया है, रोज—रोज
उसकी ऊर्जा
समाप्त होती
जा रही है, और
मनुष्य—जाति
इस संसार के
संचालन के लिए
दूसरे केंद्र की
खोज कर रही
है। अगर चंद्र—ऊर्जा
क्रियाशील हो
जाती है तो
दुनिया में स्त्रियों
की सच्ची
उन्नति होगी।
लेकिन
मेरे देखे, पश्चिम
में
स्त्रियों
में जो इतना
आक्रोश है, पुरुषों के
खिलाफ जो आंदोलन
है, क्रांतिकारी
और उग्र विचार
हैं —लिब
मूवमेंट, नारी
मुक्ति आंदोलन
—वे सब तो ढलान
की कगार पर
हैं, और वे
बौद्धिक आंदोलन
ही हैं।
क्योंकि वहां
पर स्त्रिया
पुरुषों जैसी
बनने की कोशिश
कर रही हैं।
अगर
स्त्रियां पुरुषों
की
प्रतिक्रिया
करती हैं, तो
उस
प्रतिक्रिया
करने के कारण
वे स्वयं पुरुषों
जैसी बनती चली
जाएगी। और यह
एक खतरनाक बात
है।
स्त्री
को स्त्री ही
रहना चाहिए, तभी केवल
एक अलग ढंग के
संसार की और
अलग ढंग के
समाज की —चंद्र—केंद्रित
समाज की
संभावना है।
लेकिन अगर स्त्री
स्वयं ही
आक्रामक हो
जाए, जैसे
कि वह होती जा
रही है, तब
तो वह भी
पुरुषों की
तरह की
मूढ़ताएं, हिंसा
और उग्रता को
ही सीख लेगी।
हो सकता है स्त्रियां
इसमें सफल भी
हो जाएं, लेकिन
फिर उस सफलता
में सूर्य —ऊर्जा
ही कार्य
करेगी।
जब इस
पृथ्वी पर
संक्रमण का
समय होता है, उस समय
आदमी को बहुत—बहुत
सजग रहना होता
है। जब मनुष्य
चेतना में संक्रमण
का काल होता
है उस समय
आदमी को बहुत
सचेत, सजग
और जागरूक
रहना होता है।
एक छोटा सा भी
गलत कदम—और
सभी कुछ गलत
हो सकता है।
अब इस बात की
संभावना बनी
है कि चंद्र —ऊर्जा
क्रियाशील
होकर संसार पर
शासन कर सकती है,
लेकिन अगर
स्त्री भी
पुरुष की तरह
कठोर और आक्रामक
हो जाएगी तो
वह पूरी बात
को ही चूक
जाएगी, और
इस तरह से
पुरुष स्त्री
के माध्यम से
पुन: विजय हासिल
कर लेगा और इस
तरह से सूर्य —ऊर्जा
ही सत्ता में
बनी रहेगी।
सूर्य —ऊर्जा
ही शासन करती
रहेगी।
तो
हमें बुद्धि
से अंतर्बोध
तक जाना है और
फिर अंतर्बोध
के भी पार
जाना है।
विकसित होने
की सही दिशा
यही है पुरुष
से स्त्री तक, और अंत
में स्त्री के
भी पार जाना
है।
एक
प्रश्न और
पूछा गया है
कि जहां तक
पुरुष का संबंध
है यह बात समझ
में आती है।
स्त्रियों के
संबंध में
क्या? वे
तो चंद्र —केंद्र
में ही रहती
हैं। उन्हें
क्या करना चाहिए?
उन्हें
सूर्य —केंद्र
को आत्मसात
करना होगा।
जैसे कि पुरुष
को चंद्र —केंद्र
को समाहित
करना है, स्त्री को
सूर्य —केंद्र
को समाहित
करना है।
अन्यथा
स्त्री में
किसी न किसी
बात का अभाव
रहेगा, वह
पूर्णरूप से
स्त्री न हो
सकेगी। तो
पुरुष को
सूर्य —केंद्र
से चंद्र—केंद्र
तक बढ़ना है, बुद्धि से
अंतर्बोध तक।
स्त्री को
बुद्धि से जीना
भी सीखना है, जीवन को तर्क
भी सीखना है।
स्त्री प्रेम
जानती है, पुरुष
तर्क जानता है,
पुरुष को
प्रेम करना
सीखना है, और
स्त्री को
तर्क सीखना
है। तभी जीवन
में संतुलन बन
सकता है।
स्त्री
को सूर्य —केंद्र
को आत्मसात
करना होगा— और
वह बहुत ही
सरलता से, आसानी से
उसे अपने में
आत्मसात कर
सकती है, क्योंकि
उसका चंद्र—केंद्र
क्रियाशील
है। बस, चंद्र
को थोड़ा सा
सूर्य की ओर
खुलना है। बस,
थोड़ा सा
मार्ग का भेद
है पुरुष को
अपनी सूर्य —ऊर्जा
को चंद्र—ऊर्जा
तक ले आना है; स्त्रियों
को केवल इतना
करना है कि
उन्हें अपनी
चंद्र—ऊर्जा
को सूर्य —ऊर्जा
की ओर खोल
देना है, और
इससे एक —दूसरे
में ऊर्जा
प्रवाहित
होने लगेगी।
लेकिन
सूर्य — ऊर्जा
और चंद्र—ऊर्जा
दोनों को
समग्र होना
होगा। चेतन को
अपने में
अचेतन को
आत्मसात करना
होगा, और
सभी तरह के
भेद और
विभाजनों को
गिरा देना होगा।
जीसस
जब कहते हैं, पुरुष
स्त्री हो
जाता है और
स्त्री पुरुष
हो जाती है तो
उनका क्या
अभिप्राय है?
उनका यही
अभिप्राय है
कि जब व्यक्ति
अपने अस्तित्व
की समग्रता को
स्वीकार कर
लेता है और अपने
अस्तित्व के
किसी भी अंश
को अस्वीकार
नहीं करता, तब कहीं
जाकर संतुलन
कायम होता है।
और जब भीतर के
स्त्री —पुरुष
संतुलित हो
जाते हैं, तो
वे एक —दूसरे
को समाप्त कर
देते हैं। और
व्यक्ति मुक्त
हो जाता है।
वे दोनों
शक्तियां एक —दूसरे
को व्यर्थ कर
देती हैं और
फिर कहीं कोई बंधन
नहीं रह जाता
है।
व्यक्ति
केवल तभी बंधन
में रह सकता
है, जब
कोई एक ऊर्जा
दूसरी ऊर्जा
से अधिक
शक्तिशाली हो
जाए। अगर
सूर्य —ऊर्जा,
चंद्र—ऊर्जा
से अधिक
शक्तिशाली है,
तब व्यक्ति
का पुरुष से
बंधन रहेगा—पुरुष
मन से। अगर
चंद्र—ऊर्जा
सूर्य —ऊर्जा
से अधिक
शक्तिशाली है,
तो व्यक्ति
का स्त्री से
बंधन रहेगा—स्त्रैण
रूप से। जब
सूर्य —ऊर्जा
और चंद्र —ऊर्जा
दोनों बराबर होते
हैं, संतुलित
होते हैं, तो
वे एक दूसरे
को व्यर्थ कर
देते हैं; और
तब ऊर्जा
मुक्त हो जाती
है। तब कोई
आकार नहीं
बचता है, व्यक्ति
आकार —विहीन
हो जाता है, निराकार हो
जाता है। वही
निराकार
प्रतिभा है।
तब व्यक्ति
अपने अंतस में
ऊपर और ऊपर
उठने लगता है—और
फिर इस विकास
का कहीं कोई
अंत नहीं है।
जब हम
कहते हैं
परमात्मा
असीम है, उसका यही तो
अर्थ है।
व्यक्ति अपने
अंतस में और—
और विकसित
होता चला जाता
है—अधिक पूर्ण,
और — और
परिपूर्ण
होता चला जाता
है. तब हर क्षण
अपने आप में
परिपूर्ण
होता है और हर
आने वाला क्षण,
हर आने वाला
पल उससे भी
कहीं अधिक
परिपूर्ण और
तृप्तिदायी
होता है।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान
कृपया इस
सूक्ति को
विस्तारपूर्वक
समझाएं 'योगियों
और साधुओं की
बुरी संगत में।'
स्वामी योग
चिन्मय।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा:
एक
गांव में एक
युवक रहता था।
गांव वालों ने
उसकी नाक काट
दी थी, क्योंकि
उसने कोई गलत
काम किया था।
लोग उसकी कटी
हुई नाक का
मजाक उड़ाते
रहते थे। तो
जैसा कि स्वाभाविक
है, वह
अपने को बहुत
अधिक अपमानित
अनुभव कर्ता
था। इस अपमान
से बचने के
लिए उसने खूब
सोच —विचार
किया और जल्दी
ही उसे एक ऐसा
उपाय मिल भी
गया जिससे कि
लोग उसका आदर
और सम्मान
करें।
वह
युवक उस गांव
को छोड्कर
दूसरे गांव
में चला गया, और वहां
जाकर उसने
साधु का वेश
धारण कर लिया
और एक वृक्ष
के नीचे जाकर
ध्यानस्थ
होकर बैठ गया।
धीरे — धीरे उस
गांव के
स्त्री और
पुरुष उसके
आसपास जमा
होने लगे।
अंततः जब उसने
अपनी बंद आंखें
खोलीं तो
लोगों ने उससे
पूछा कि वह
कौन है, और
वह उनके लिए
क्या कर सकता
है।
'मैं
तुम्हारे लिए
बहुत कुछ कर
सकता हूं। अगर
तुम अपनी नाक
कटवाने के लिए
तैयार हो जाओ
तो मैं
तुम्हें
परमात्मा के
दर्शन करा
सकता हूं —मैंने
भी परमात्मा
के दर्शन ऐसे
ही किए हैं।
जब से मैंने
अपनी नाक कटवा
ली है, मैं
परमात्मा के
दर्शन सभी जगह
प्रत्यक्ष रूप
से कर सकता
हूं। अब मेरे
लिए सभी जगह
परमात्मा है।’
उसके
आसपास जो भीड़
इकट्ठी हो गई
थी, उसमें
से तीन आदमी
अपनी नाक
कटवाने के लिए
तैयार हो गए.
तुम
कहीं भी अपने
से ज्यादा मूढ़
लोगों को
हमेशा खोज
सकते हो— और वे
लोग तुम्हारे
अनुयायी बनने
के लिए तैयार
ही रहते हैं।
वह
युवक उन तीनों
आदमियों को
कुछ दूर वृक्ष
के पास ले गया
और उन सबकी
उसने नाक काट
दी, और
खून बंद करने
के लिए कोई
दवा लगा दी, और उनके कान
में
फुसफुसाया, 'देखो, अब
यह कहने का
कोई अर्थ नहीं
है कि तुम ने
परमात्मा के
दर्शन नहीं
किए हैं। अगर
अब तुम ऐसा
कहोगे तो वे
तुम पर
हंसेंगे और
तुम्हारा मजाक
उड़ाके। और तुम
गांव भर के
लिए हंसी के
पात्र बन
जाओगे। इसलिए
सुनो, अब
तुम जाकर पूरे
गांव में खबर
कर दो कि जैसे
ही तुम्हारी
नाक कटी, तुम्हें
परमात्मा के
दर्शन होने
लगे।’
वे
अपनी इस
बेवकूफी भरी
गलती पर इस
कदर शर्मिंदा
थे कि
उन्होंने
उसकी बात मान
ली और गांव में
जाकर बड़े ही
उत्साह से
बोले, 'निस्संदेह,
हम
परमात्मा को
देख सकते हैं —परमात्मा
सब जगह मौजूद
है।’
और तब
उस गांव के
रहने वाले हर
व्यक्ति ने
अपनी नाक कटवा
ली और
परमात्मा के
अनुभव को उपलब्ध
हो गए।
तुम्हें
भारत में ऐसे
बहुत से साधु
मिल जाएंगे, जिनकी
नाक किसी न
किसी रूप में
कटी ही हुई
है। जब मैं
कहता हूं, 'साधुओं और
योगियों की
बुरी संगत,' तो मेरा
अभिप्राय ऐसे
ही लोगों से
होता है। जब
मैं कहता हूं उनकी
नाक कट चुकी
है, तो
मेरा मतलब
होता है कि
उन्होंने
अपने किसी न
किसी भाग को
अस्वीकृति दे
दी है।
उन्होंने अपने
को पूरी तरह
से स्वीकार
नहीं किया है —उनकी
नाक कटी हुई
है। किसी ने
अपनी
कामवासना को
अस्वीकार
किया हुआ है, किसी ने
अपने क्रोध पर
नियंत्रण
किया हुआ है, किसी ने
अपने लोभ को
अस्वीकृति दी
हुई है —किसी
ने किसी और
बात को। लेकिन
ध्यान रहे, अस्वीकृत
किया हुआ भाग
बदला लेता है,
और यही साधु
—संन्यासी
तुम्हारी नाक
भी काट लेना
चाहते हैं।
जब मैं
कहता हूं, 'साधुओं
और योगियों की
बुरी संगत,' तो मेरा
मतलब उन लोगों
से है
जिन्होंने
बिना समझ के
बहुत सी बातों
का प्रयास
किया है और
स्वयं को बहुत
तरह से अपंग बना
लिया है। अगर
तुम उनके साथ
रहो, तो
तुम भी अपंग
बन जाओगे।
इन
अर्थों में
चिन्मय अपंग
हो गए हैं। जब
मैं उनकी ओर
देखता हूं, तो मैं
समझ सकता हू
कि वे कहां पर
अपंग हैं। और एक
बार अगर वह
इसे समझ लें, तो वे उसे
छोड्कर उससे
मुक्त हो सकते
हैं, इसमें
कोई अड़चन नहीं
है। नाक फिर
से आ सकती है।
नाक कोई ऐसी
चीज नहीं है
जिसे तुम सच
में ही काट
दोगे। वह फिर
से बढ़ सकती
है। बस, एक
बार वे इसे
जान लें, समझ
लें।
उदाहरण
के लिए, उन्होंने
अपनी हंसी —मजाक
की क्षमता को
खो दिया है।
वे हंस नहीं
सकते हैं। अगर
वे हंसते भी
हैं —तो इसके
लिए उन्हें
बड़ा प्रयास
करना पड़ता है —तुम
देख सकते हो
कि उनका चेहरा
कितना नकली
है। वे एक
ईमानदार और
सच्चे इंसान
हैं, लेकिन
इसमें गंभीर
होने की क्या
आवश्यकता है।
सच्चाई एक बात
है —वे
ईमानदार हैं।
गंभीरता एक
रोग है। लेकिन
गंभीरता और
सच्चाई को एक
समझने की गलती
कभी मत करना।
तुम्हारा
चेहरा लंबा, उदास, लटका
हुआ हो सकता
है, इससे
अध्यात्म से
कोई संबंध
नहीं है, और
न ही इससे
अध्यात्म के
मार्ग में कोई
मदद मिलने
वाली है। असल
में तो अगर तुम
एकदम रूखे —सूखे,
बिना हंसी —मजाक
के जीते हो, तो तुम्हारा
जीवन रूखा —सूखा
और नीरस हो
जाएगा। हंसी —मजाक
तो जीवन में
रस घोलने की
तरह है. वह
जीवन में एक
तरलता और
प्रवाह देती
है।
लेकिन
भारत में सभी
साधु —संत
गंभीर होते
हैं। उन्हें
गंभीर होना ही
पड़ता है, वे हंस नहीं
सकते —क्योंकि
अगर वे हंसते
हैं तो लोग
सोचेंगे कि वे
भी उनके जैसे
ही साधारण हैं—अन्य
दूसरे
लोगों
की भांति वे
भी हंस रहे
हैं। भला एक
साधु कैसे हंस
सकता है? उसे तो कुछ न
कुछ असाधारण
होना ही
चाहिए। यह भी
अहंकार का
अपना एक आयोजन
है।
मैं
तुम्हें साधारण
होने को कहता हूं, क्योंकि
असाधारण होने
की कोशिश करना
बहुत ही साधारण
बात है —क्योंकि
हर कोई
व्यक्ति
असाधारण होना
चाहता है। और
साधारण होने
को स्वीकार
करना बहुत असाधारण
बात है, क्योंकि
कोई भी साधारण
होना नहीं
चाहता है। मैं
तुम्हें
साधारण होने
को कहता हूं, इतना
साधारण कि कोई
भी तुम्हें
किसी विशिष्ट व्यक्ति
के रूप में न
पहचाने, इतना
साधारण कि तुम
भीड़ में खो
जाओ। तुम अपने
से पूरी तरह
स्वतंत्र हो
जाउगे, अन्यथा
तुम हमेशा
स्वयं को कुछ
न कुछ सिद्ध
करने की कोशिश
करते रहोगे।
तब तुम हमेशा
अपने आपको
किसी न किसी
रूप में
दिखाते रहोगे —और
तब यही बात एक
तनाव बन जाती
है, गंभीरता
के रूप में
खड़ी हो जाती
है, और
जीवन में एक
बड़ा बोझ बन
जाती है।
हमेशा
अपने
प्रदर्शन की
कोई जरूरत
नहीं है। तुम
थोड़े शिथिल हो
जाओ, और
थोड़ा हंसो। जो
कुछ भी मानवीय
है उसके लिए मैं
तुम्हें
स्वीकृति
देता हूं। जो
भी मानवीय है
वह सब
तुम्हारा है।
एक मनुष्य
होने के नाते
थोड़ा हंसो भी,
रोओ भी, चिल्लाओ
भी। एकदम
साधारण हो
जाओ। अगर तुम
सहज और साधारण
रहोगे तो
अहंकार कभी
अपना सिर न
उठा सकेगा।
विशिष्ट
होने का विचार
ही अहंकार को
जन्म देता है —इसलिए
जो दूसरे लोग
कर रहे हैं, इसका
मतलब यह नहीं
है कि तुम्हें
भी वही करना है।
अगर वे अपने
पांवों से चल
रहे हैं, तो
इसका मतलब है
कि तुम्हें
अपने सिर के
बल खड़े हो
जाना है। तब
तो लोग आएंगे
और तुम्हारी
पूजा करने
लगेंगे। वे
कहेंगे, तुम
कितने
विशिष्ट हो, तुम कितने
महान हो।
लेकिन तुम मूढ़
के मूढ़ ही बने
रहोगे। उनकी
प्रशंसा की
फिक्र मत करना,
क्योंकि
अगर एक बार भी
तुम लोगों की
प्रशंसा के
आदी हो गए, तो
तुम उनकी
गिरफ्त में आ
जाओगे —तब
तुम्हें
जीवनभर अपने
सिर के बल ही
खड़े रहना
पड़ेगा। तब तुम
चलने —फिरने
का पूरे का
पूरा सौंदर्य
ही गंवा बैठोगे।
और निस्संदेह,
तुम सिर के
बल नृत्य तो
नहीं कर सकते
हो। क्या तुमने
कभी किसी योगी
को नृत्य करते
देखा है? तब
तो तुम ज्यादा
से ज्यादा
मुर्दे की
भांति शीर्षासन
करते हुए, सिर
के बल खड़े रह
सकते हो।
जब मैं
कहता हूं, 'बुरी
संगत,' तो
मेरा मतलब है
कि तुमने
अहंकार की कुछ
चालाकियां उन
लोगों से सीख
ली हैं जो
अपने अहंकार
में डूबे हुए
हैं। जब कोई
आदमी अपने
किसी अहंकार
की पूर्ति में
लगा हो तो ऐसे
आदमी से बचना
और उसके पास
से भाग निकलना,
क्योंकि तब
इसी बात की
संभावना अधिक
है कि वह अपना
कुछ न कुछ रोग
तुम्हें भी दे
जाएगा।
और अधिकांश
लोग नकल के
द्वारा, अनुकरण के
द्वारा ही
जीते हैं।
मैंने
सुना है एक
अधिकारी जो
अक्सर यात्रा
पर रहता था, अपनी
इटली यात्रा
से लौटा तो
न्यूयार्क
में एक मित्र
को उसने दोपहर
के भोजन के
लिए आमंत्रित
किया।
उसके
मित्र ने पूछा, 'जब तुम
इटली में थे
तो वहां तुमने
कोई
उत्तेजनापूर्ण
कार्य किया या
नहीं?'
अमरीकी
अधिकारी ने
लापरवाही से
कहा, 'ओह, तुम ने एक
पुरानी कहावत
के बारे में
सुना है। जब
रोम में रहना
हो तो रोम के
लोगों की तरह
व्यवहार करो।’
मित्र
ने जोर देकर
उससे पूछा, 'ठीक है, तो तुम ने सच
में किया क्या?'
अधिकारी
ने उत्तर दिया, ' और क्या
करता? मैंने
एक अमरीकी
स्कूल टीचर को
बहला —फुसला
कर उसे भ्रष्ट
किया।’
अब
अमरीका से
इटली, अमरीकी
स्कूल टीचर को
बहलाने —फुसलाने
के लिए जाना, लेकिन यही
तो इटली के
लोग कर रहे
हैं, और जब
रोम में रहना
हो तो सब
बातें रोम के
लोगों की तरह
करनी चाहिए।
जब मैं
कहता हूं, 'बुरी
संगत,' तो
मेरा मतलब यही
है कि मन
अनुकरण करता
है। मन अचेतन
रूप से अनुकरण
करता चला जाता
है। और तब तुम
चालाकियां
सीखना शुरू कर
दोगे। और एक
बार जब तुम
चालाकी सीख
लोगे तो फिर
उन्हें छोड़ना
कठिन होगा —और
अगर उन
चालबाजियों
के साथ तुम्हारे
अपने स्वार्थ
जुड़े हों तो
फिर उन्हें छोड़ना
और भी कठिन हो
जाता है। अगर
लोग तुम्हारे पास
आकर तुम्हारी
प्रशंसा करें,
अगर लोग
तुम्हारी
गंभीरता का
आदर—सम्मान
करने लगें, और वे समझें
कि तुम बहुत
नियंत्रित और
अनुशासित
जीवन जीते हो,
और वे आकर
तुम्हारे
पांव छूने
लगें; तो
फिर तुम्हें
गंभीरता की
आदत को छोड़
पाना बहुत
कठिन होगा, क्योंकि फिर
तुम अपनी
गंभीरता में
भी रस लेने लगोगे।
अब तुम्हारे
रोग में
तुम्हारा
स्वार्थ भी
जुड़ गया।
इसे
छोड़ दो, इसे गिरा
दो। तुम्हें
स्वयं के भीतर
का जीवन जीना
है, न कि
बाहर का। इसकी
फिकर छोड़ो कि
लोग क्या कहते
हैं —वे लोग
झूठी प्रशंसा
करते हैं। बस,
यह देखो कि
तुम क्या हो? अगर तुम
अपने होने में
आनंदित हो, प्रसन्न हो,
अगर
तुम्हारी
आत्मा नृत्य
मग्न है —तो
पर्याप्त है!
तब अगर पूरी
दुनिया भी
तुम्हारी
निंदा करे, तो उसे
स्वीकार कर
लेना। लेकिन
अपने आंतरिक
आनंद के साथ
कभी कोई
समझौता मत
करना, क्योंकि
अंत में वही
आनंद तो
निर्णायक
होगा कि तुम
कौन हो। लोग
चाहे कुछ भी
कहें, वह
अप्रासंगिक
है, उसका
कोई बहुत
मूल्य नहीं
है। तुम कौन
हो यही प्रासंगिक
और मूल्यवान
है। हमेशा
अपने भीतर झांककर
देखना कि तुम
स्वय के लिए क्या
कर रहे हो।
और फिर
अगर तुम
प्रसन्न हो, आनंदित
हो तब कोई
प्रश्न ही
नहीं उठता है।
फिर अगर
तुम्हें लगे
कि तुम अपनी
गंभीरता के
साथ आनंदित हो,
तब कोई
समस्या नहीं,
तब तुम इस
ढंग से आनंदित
रह सकते हो, तब वह
तुम्हारा
अपना चुनाव
है। लेकिन
मैंने ऐसा कोई
आदमी नहीं
देखा जो
आनंदित भी हो
और गंभीर. भी
हो। तब तो वह
तो आह्लादित
और
उत्सवपूर्ण
होगा, वह
आनंद मनाएगा
और अपने आनंद
को बांटेगा—और
वह हंसता—नाचता
हुआ होगा, आनंदित
होगा।
हंसना
इतनी बड़ी
आध्यात्मिक
घटना है कि
उसके जैसा और
कुछ भी नहीं
है। क्या
तुमने नहीं
देखा? जब
तुम अपने अंतस
की गहराई से
हंसते हो तो
सारे तनाव खो
जाते हैं।
क्या तुमने
कभी इस पर
ध्यान दिया है?
जब तुम अपने
अंतस की गहराई
से हंसते हो
तो अचानक
सामने खुला
आकाश प्रकट हो
जाता है, आसपास
की सभी
दीवारें गिर
जाती हैं। अगर
तुम हंस सको
तो हमेशा
शिथिल और
विश्रांति में
रह सकते हो।
झेन
मठों में
भिक्षुओं को
यही सिखाया
जाता है कि
सुबह उठकर
उन्हें सबसे
पहले हंसना है, दिन की
शुरुआत हंसने
से करनी है।
यह
थोड़ा अजीब सा
जरूर लगता है, क्योंकि
हंसने का कोई
कारण तो होता
नहीं है —बस, बिस्तर से
उठते ही पहली
बात यही करनी
है कि हंसना
है। शुरू में
तो यह थोड़ा
कठिन होता है,
क्योंकि
किस बात पर
हंसो? लेकिन
यह भी एक
ध्यान है और
धीरे — धीरे
उसके साथ ताल —मेल
बैठने लगता है
और तब हंसने
के लिए किसी
कारण की कोई
आवश्यकता
नहीं रह जाती।
हंसना स्वयं
में ही एक
बहुत बड़ी
धार्मिक
प्रक्रिया है,
किसी कारण
की प्रतीक्षा
ही क्यों
करना। और हंसी
पूरे दिन को
विश्रांत और
शिथिल बना
देती है।
मैं
इसे सूर्य —ऊर्जा
और चंद्र—ऊर्जा
की भाषा में
कहूंगा।
सूर्य —ऊर्जा
वाला व्यक्ति
गंभीर होता है, चंद्र—ऊर्जा
वाला व्यक्ति
गैर — गंभीर
होता है।
सूर्य — ऊर्जा
वाला व्यक्ति
हंस नहीं सकता,
हंसना उसके
लिए कठिन होता
है। चंद्र —
ऊर्जा वाला
व्यक्ति
आसानी से हंस
सकता है, वह
सहज और
स्वाभाविक
रूप से हंस
सकता है। चंद्र—ऊर्जा
वाले व्यक्ति
के लिए कोई सी
भी परिस्थिति
हंसने का कारण
बन सकती है, वह हंसता
हुआ ही रहता
है। उसे हंसने
के लिए किसी
बहाने की
जरूरत नहीं
होती। लेकिन
सूर्य —ऊर्जा
से संचालित
व्यक्ति
स्वयं में बंद
होता है। उसके
लिए हंसना
बहुत कठिन
होता है —चाहे
तुम उसे कोई
चुटकुला भी
क्यों न सुना
दो, लेकिन
फिर भी वह हंस
नहीं सकेगा।
वह चुटकुले को
भी ऐसे सुनेगा
और देखेगा, वह उसे भी
यूं देखेगा समझेगा
जैसे कि तुम
उसे कोई गणित
का प्रश्न हल
करने के लिए
दे रहे हो।
इसीलिए
तो जर्मन लोग
चुटकुले को
समझ नहीं पाते
हैं। एक बार
एक चुटकुला
प्रिया ने
हरिदास से कहा—और
हरिदास को वह
चुटकुला अभी
तक समझ नहीं
आया है!
एक
आदमी ने एक
रेस्टोरेंट
में जाकर काफी
मंगाई। वेटर
बोला, ' आप
अपने लिए किस
तरह की काफी
पसंद करते हैं?'
उस
आदमी ने कहा, 'मुझे
अपने लिए वैसी
ही काफी पसंद
है, जैसी
मैं अपने लिए
गरम —गरम
स्त्रियां
पसंद करता हूं।’
वेटर
ने पूछा, 'काली या
सफेद।’
अब अगर
तुम चुटकुले
के बारे में
सोचने लगो, तो बात
बहुत मुश्किल
हो जाएगी, वरना
तो बात एकदम
आसान है। इससे
ज्यादा सरल और
आसान हो भी
क्या सकता है?
लेकिन अगर
इसके बारे में
सोचने लगो, अगर उसके
लिए गंभीर हो
जाओ जैसे कि
कोई वेद इत्यादि
पढ़ रहे हो, तब
पूरी बात ही
चूक जाओगे।
सभी
गंभीर लोगों
की संगत और
साथ को छोड़ दो, ऐसे
लोगों से बचो
जो कुछ न कुछ
बनने की कोशिश
में लगे हुए
हैं। उन लोगों
के साथ अधिक
से अधिक ताल —मेल
बैठाओ, उन
लोगों की संगत
करो जो अपना
जीवन सहज और
सरल रूप से जी
रहे हैं, जो
कुछ बनने की
कोशिश में
नहीं लगे हैं,
जो जैसे हैं
बस वैसे ही जी
रहे हैं। उनके
पास जाओ, वे
इस जगत के सच्चे
आध्यात्मिक
लोग हैं।
धार्मिक नेता
इस संसार में
सच्चे
आध्यात्मिक
लोग नहीं हैं —वे
राजनीतिज्ञ
हैं। उन्हें
तो राजनीति
में होना
चाहिए था।
उन्होंने
धर्म को बुरी
तरह से दूषित
कर दिया है।
उन्होंने
धर्म को इतना
गंभीर बना
दिया है कि
चर्च
अस्पतालों और
कब्रिस्तानों
की तरह मालूम
होते हैंत
वहां पर हंसी —खुशी,
उल्लास और
आनंद पूरी तरह
से खो गया है।
तुम
चर्च में नाच
नहीं सकते, तुम चर्च
में हंस नहीं
सकते। हंसना
चर्च के बाहर
की बात हो गयी
है। लेकिन
स्मरण रहे, जिस दिन
चर्च से हास्य,
गान, नृत्य
बिदा हो जाता
है, वहां
से परमात्मा
भी बाहर हो
जाता है।
मैं
तुम से एक
बहुत ही
प्रसिद्ध
कहानी के बारे
में कहता हूं:
सैम
बर्नज नामक एक
दक्षिणी
नीग्रो, 'ह्वाइट' चर्च
में प्रवेश
करने से रोक
दिया गया। उस
चर्च का जो
संरक्षक था
उसने नीग्रो
से कहा कि वह अपने
चर्च में जाकर
प्रार्थना
करे और ऐसा
करने में उसे
भी अधिक अच्छा
लगेगा।
अगले
रविवार वह
नीग्रो फिर से
उसी चर्च में
आ गया। घबराइए
मत, उसने
चर्च के
संरक्षक से
कहा, 'मैं
जबर्दस्ती
भीतर नहीं आया
हूं। मैं तो
आप से इतना ही
कहने आया हूं
कि मैंने आपका
कहा मान लिया
और एक बहुत ही
अच्छी घटना घट
गयी। मैंने
परमात्मा से
प्रार्थना की
और उसने मुझसे
कहा, 'इस
बात का बुरा
मत मानो सैम।
मैं स्वयं कई
वर्षों से उस
चर्च में
प्रवेश करने
की कोशिश कर रहा
हूं और अभी तक
मैं ऐसा नहीं
कर पाया हूं।’
जब कोई
चर्च ईसाई हो
जाता है, मंदिर हिंदू
हो जाता है, मस्जिद
मुसलमान हो
जाती है, तो
वहा पर
परमात्मा
नहीं मिल सकता
—तब वहां पर
सभी कुछ
.गंभीर हो
जाता है, राजनीति
का प्रवेश हो
जाता है। और
हास्य, विनोद
वहां से बिदा
हो जाते हैं।
हास्य
को अपना मंदिर
बनने दो, और तब तुम
अपने को
परमात्मा के
साथ एक गहन
संपर्क में
पाओगे।
चौथा
प्रश्न:
अहंकार
सभी प्रकार की
परिस्थितियों
में पोषित
होता मालूम
पड़ता है और
इसे सब से
अधिक पोषण और
शक्ति
तथाकथित
आध्यात्मिक
परिस्थितियों
से मिलती है।
मैं
संन्यास लेना
चाहता हूं
लेकिन मैं
अहंकार की सभी
घटनाक्रम को
तीव्र सशक्त
ढंग से घटित
होते हुए अभी
से अनुभव कर
सकता हूं
अहंकार को
चाहे पोषित
करो या इससे
बचने की कोशिश
करो इससे पीछे
हटो या इसका
सामना करो अहंकार
हर ढंग से
पोषण प्राप्त
कर लेता है तो ऐसे
में क्या करें?
प्रश्न पूछा है
माइकल वाइज
नै।
बी
वाइज, 'बुद्धिमान
बनो ' —मेरी
बात समझने की
कोशिश करो।
अपना अहंकार
मुझे दे दो, यही तो
संन्यास है।
अगर तुम
सन्यास लेने
की सोचते हो, तो अहंकार
इसके द्वारा
अपने को भर ले
सकता है। मैं
तुम्हें
संन्यास देता हूं, तुम बस उसे
स्वीकार कर
लो। तुम्हें
केवल इतना ही
साहस करना है
और तब अहंकार
का अस्तित्व
शेष नहीं
रहेगा
क्योंकि
तुम्हारे
द्वारा तो
संन्यास लिया
नहीं गया है।
जब भी तुम मेरे
पास आते हो, तो पहले मैं
तुम्हें
संन्यास देने
का प्रयास करता
हूं। लेकिन
ऐसे बहुत से
मूढ़ लोग भी
हैं जो कहते
हैं, 'हम
सोचेंगे।’ वे
समझते हैं कि
वे बहुत
होशियार हैं।
वे इस बारे
में सोचना
शुरू कर देते
हैं — 'किसी
न किसी दिन वे
आएंगे' —और
वे आते भी हैं
और वे संन्यास
के लिए कहते
हैं और मैं
उन्हें
संन्यास दे
देता हूं।
लेकिन जब पहले
मैं उनको
संन्यास दे
रहा था, तो
वह बिलकुल ही
अलग बात होती।
तब संन्यास
मेरी ओर से एक
भेंट होती है,
तुम्हारी
ओर से लिया
हुआ नहीं
होता। अगर तुम
कुछ भी करते
हो, तब तुम
संन्यास भी
लेते हो, तो
अहंकार उसके
माध्यम से भी
पुष्ट होता
है। और जब
संन्यास. मेरी
ओर से दी गई एक
भेंट होती है,
तब अहंकार
का कोई प्रश्न
ही नहीं उठता
है। लेकिन तुम
मेरी ओर से दी
गई भेंट को
चूक जाते हो
और फिर तुम
दुबारा आकर
संन्यास की मांग
करते हो, तब
उसका सारा
सौंदर्य ही
समाप्त हो
जाता है। तब
तुम अपने
निर्णय से
संन्यास लेते
हो; तब
अहंकार बीच
में खड़ा हो
सकता है। अगर
तुम संन्यास
लेना भी मेरे
ऊपर छोड़ दो, तो फिर कोई
सवाल ही नहीं
है —तब वह मेरी
समस्या है।
तुम्हें उस
बारे में चिंता
लेने की कोई
जरूरत नहीं
है।
अपना
अहंकार मुझे
सौंप दो और
भूल जाओ उसके
बारे में और
जीना शुरू करो, और मैं
तुम्हारे
अहंकार को
सम्हाल
लूंगा।
तो
माइकल वाइज; बी वाइज —बुद्धिमान
बनो।
पांचवां
प्रश्न:
हम
अपने मन को
कैसे गिरा
सकते हैं जबकि
आप प्रवचनों
में दिलचस्प
बातें सुनाकर
मन में खलबली
मचाते रहते
हैं।
अगर तुम मन को
अपने से नहीं
गिराते हो, तो मैं
उसे और भारी
और बोझिल
बनाता जाऊंगा
ताकि वह अपने
से ही गिर जाए —तुम
उसे पकड़ ही न
सको। इसी
आयोजन के लिए
तो यह मेरे
प्रवचन हैं।
मैं तुम पर
रोज —रोज बोझ
डालता ही चला
जाता हूं.. मैं
उस अंतिम
तिनके की
प्रतीक्षा
में हूं? जिससे
ऊंट किसी भी
करवट के सहारे
बैठ ही न सके।
यह
तुम्हारे और
मेरे बीच एक
प्रतियोगिता
है।
आशा
यही है कि
तुम्हारी जीत
नहीं हो
सकेगी।
छठवां
प्रश्न:
मेरे
प्यारे—
प्यारे भगवान
जब मैं
बुद्धत्व का
अनुभव करूं:
क—क्या मैं
आप से कहूं?
ख—क्या
आप मुझ से
कहेंगे?
ग—क्या
यह प्रश्न
मेरा अहंकार
पूछ रहा है?
तीनों के लिए —नहीं।
जब व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता है, तो
बुद्धत्व ही
सब कुछ कह
देता है, सब
कुछ प्रकट कर
देता है।
तुम्हें
मुझसे कहने की
कोई जरूरत
नहीं, मुझे
तुमसे कहने की
भी कोई जरूरत
नहीं।
बुद्धत्व
स्वयं ही प्रकट
हो जाता है, उसके लिए
किसी प्रमाण —पत्र
की कोई
आवश्यकता
नहीं होती है।
वह स्वयं ही
प्रकट हो जाता
है, जैसे
कि अचानक
रात्रि में
कोई प्रकाश की
किरण उतर आए।
उसके लिए कुछ
भी कहने की
कोई आवश्यकता
नहीं होती है।
सच तो यह
है, तुम
कहना भी
चाहोगे तो कुछ
कह न सकोगे —तुम्हारे
सभी विचार रुक
जाएंगे। इतनी
अभूतपूर्व
मौन और शाति
होती है, और
बुद्धत्व
अपने —आप में
इतना प्रगाढ़
होता है कि किसी
से कुछ पूछने
की आवश्यकता
ही नहीं होती
है। इसलिए
मेरी ओर से या
तुम्हारी ओर
से कहने की
कोई आवश्यकता
ही नहीं है।
और, 'क्या यह
प्रश्न मेरा
अहंकार पूछ
रहा है?'
नहीं, अहंकार
कभी बुद्धत्व
के बारे में
पूछता ही नहीं
है। वह उसके
बारे में पूछ
ही नहीं सकता,
क्योंकि
बुद्धत्व तो
अहंकार की
मृत्यु है।
जब तुम
ध्यान और
प्रेम में
डूबने लगते हो, तुम आनंद
से भर जाते हो,
और एक
अनजाने
अपरिचित आयाम
में तुम्हारे
कदम बढ़ने लगते
हैं, तब
स्वभावत: यह
विचार उठ खड़ा
होता है, ' अगर
मुझे
बुद्धत्व घट
गया, तो
कौन बताएगा?' क्योंकि अब
तक जो कुछ भी
हुआ, उसके
लिए कोई चाहिए
था जो तुमसे
कह सके। और यह प्रश्न
एक
संन्यासिनी
का है, मा
प्रेम जीवन का
है। ऐसा चंद्र—ऊर्जा
वाले व्यक्ति
को और भी अधिक
ऐसा लगता है।
जब
स्त्री किसी
के प्रेम में
पड़ती है, तो वह
प्रतीक्षा
करती है कि
पुरुष उससे
कहे कि वह उसे
प्रेम करता
है। वह यह भी
निवेदन नहीं कर
सकती कि मैं
तुमसे प्रेम
करती हूं।
चंद्र —केंद्र
कभी भी इतना
सुनिश्चित
नहीं होता है,
जितना
बौद्धिक —केंद्र
हमेशा होता
है। चंद्र—केंद्र
अनिश्चित
होता है, अस्पष्ट
और धुंधला—
धुंधला होता
है। वह अनुभव
कर सकता है, लेकिन फिर
भी बता नहीं
सकता कि वह
अनुभव क्या है।
स्त्री प्रेम
में भी
अनिश्चित ही
रहती है जब तक
कि पुरुष ही
आकर उससे न
कहे, और
उसे भरोसा
दिलाए कि 'ही,
मुझे तुमसे
प्रेम है।’ इसीलिए
स्त्रियां
कभी भी अपनी
ओर से पहल
नहीं करती हैं,
और अगर कोई
स्त्री पहल
करती भी है, तो पुरुष उस
स्त्री से
बचकर भाग
निकलता है —क्योंकि
पहल करने वाली
स्त्री
स्त्री न होकर
पुरुष ही अधिक
होती है। अगर
स्त्री अपनी
ओर से प्रेम
का निवेदन करे,
तो वह थोड़ा
अशोभन मालूम
होता है।
चंद्र —ऊर्जा,
या स्त्री
कभी भी अपनी
ओर से प्रेम
का निवेदन नहीं
करती, वह
तो प्रतीक्षा
करती है।
तो मैं
जानता हूं कि
यह प्रश्न
क्यों उठा है।
अगर तुम अपने
प्रेम तक के
लिए
सुनिश्चित
नहीं हो, तो जब
परमात्मा से
तुम्हारा
मिलन होगा, तब कौन
तुम्हें
बताएगा? तब
तुम्हें कोई
चाहिए होगा जो
तुम्हें
आश्वस्त कर
सके।
इसकी
कोई आवश्यकता
नहीं, क्योंकि
सूर्य —केंद्र
में परमात्मा
कभी घटित होता
ही नहीं है।
और सूर्य —केंद्रित
लोग इस बारे
में भी अपनी
मूढ़ता के कारण
सुनिश्चित
होते हैं; वह
चंद्र—केंद्र
में भी कभी
घटित नहीं
होता है, और
चंद्र—केंद्रित
लोग इस बारे
में बड़े ही
सुंदर रूप से
अनिश्चित
होते हैं; बुद्धत्व
तो दोनों के
पार घटित होता
है। बुद्धत्व
के लिए पहले
से कुछ नहीं
कहा जा सकता
कि वह कब
घटेगा। लेकिन
जब भी
बुद्धत्व
घटता है तो
एकदम
अनिश्चित और
रहस्यमय ढंग
से घटता है।
जब व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है, तो
उसका पूरा
संसार
रूपांतरित हो
जाता है। केवल
तुम ही नहीं, तुम्हारा
पूरा का पूरा
अतीत खो जाता
है। बुद्धत्व
के उतरने के
साथ ही सब कुछ
ताजा, नहाया
हुआ, नया—नया
हो जाता है।
अंतिम
प्रश्न:
भगवान
पहले तो मैं
यह भरोसा ही न
कर सका कि ऐसा संभव
भी है लेकिन
किसी भांति
मैने आपका
अनुसरण किया
लेकिन मैने यह
नहीं सोचा था
कि वह कभी इतनी
जल्दी भी हो
जाएगा लेकिन
किसी भांति
मैं आपके साथ
जुड़ा ही रहा
और फिर आपके
द्वारा असंभव संभव
हो गया है
दूरगामी
प्रत्यक्षगामी
हो गया है।
हालांकि
मैं जानता हूं
कि मैने
यात्रा के अभी
कुछ चरण ही
पूरे किए हैं
आपके साथ
अधिकाधिक क्षण
मुझे जुड़ने के
मिल रहे हैं
जब कि लगता
ऐसा है कि यही
यात्रा का अंत
है। यह बात
पीड़ादायी भी
है और मधुर भी
है : पीड़ादायी
इसलिए है
क्योकि अब आप
दिखायी नहीं
देते हैं वहां; लेकिन
साथ ही यह
मधुर भी है कि
आप मुझे हर
कहीं अनुभव
होते हैं
कहीं
मैं इतना न खो
जाऊं कि आपको
धन्यवाद भी न कह
सकूं तो कृपया
क्या मैं अभी
आपको धन्यवाद
कह सकता हूं.
जबकि आप अभी
मेरे लिए
मौजूद हैं?
पूछा है स्वामी
अजित सरस्वती
ने।
तुममें
से प्रत्येक
को ऐसा होने
ही वाला है। तुम्हें
किसी न 'किसी भाति' मेरे साथ
होना ही
पड़ेगा। यह 'किसी भांति'
महत्वपूर्ण
है। तुम अपने
से मेरे साथ
नहीं हो सकते,
क्योंकि
तुम्हें
मालूम ही नहीं
है कि तुम्हें
कहां ले जाया
जा रहा है।
तुम सोच —विचार
से, तर्क
से मेरे साथ
नहीं हो सकते,
क्योंकि
मैं तुम्हें
अज्ञात में ले
जा रहा हूं।
मैं तुम्हें
वहां ले जा
रहा हूं जहां
तुम कभी गए
नहीं, जिसका
तुम्हें कुछ
पता नहीं।’किसी
भांति' यह
शब्द सही है —किसी
न किसी तरह
तुम मेरे साथ
हो लेते हो।
प्रेम में या
एक प्रकार के
पागलपन में या
मेरे में
डूबकर तुम
मेरे साथ हो
जाते हो। तब
धीरे — धीरे
चीजें घटित
होने लगती
हैं।
निस्संदेह, तुमने कभी
विश्वास नहीं
किया होगा कि
यह सब इतनी
जल्दी घटित हो
जाएगा 1
जिस
अंधकार से तुम
घिरे हुए हो
वह इतना गहन
है कि तुम्हें
भरोसा ही नहीं
आता है कि तुम
में कभी
प्रकाश भी उतर
सकता है। और
जब वह प्रकाश
तुम में उतरता
है तो लगभग
असंभव ही
मालूम पड़ता
है। तुम्हें
अपनी ही आंखों
पर भरोसा नहीं
आता है, तुम्हें ऐसा
लगता है जैसे
तुम सपना देख
रहे हो। लेकिन
धीरे — धीरे
सपना
वास्तविकता
में बदलने
लगता है और वास्तविकता
सपने में
बदलने लगती
है।
जो
अजित को घटा
है, ठीक
ऐसा ही तुम ' सबको भी
घटित होने
वाला है।
मैं
इसे फिर से
दोहराता हूं 'पहले तो
मैं भरोसा ही
न कर सका कि
ऐसा संभव भी है,
लेकिन किसी
भांति मैंने
आपका अनुसरण
कर लिया।’
जो लोग
मेरे साथ हो
सकते हैं, किसी न
किसी तरह से
वे साहसी लोग
हैं। मैं तुम्हें
अपने साथ होने
के लिए कोई
जबर्दस्ती
नहीं कर सकता,
क्योंकि
जिसके बारे
में तुम जानते
ही नहीं हो, उसके बारे
में मैं क्या
कह सकता हूं।
जिसके बारे
में तुमने कभी
कुछ सुना ही
नहीं है, उसके
बारे में मैं
तुम्हें क्या
कह सकता हूं। तुम्हें
मेरे ऊपर
श्रद्धा करनी
होगी, मेरे
ऊपर भरोसा
करना होगा, तुम्हें
किसी न किसी
तरह मेरे साथ
चलना होगा। मैं
कोई तर्क नहीं
करना चाहता हूं, क्योंकि जो
अनुभव मैं
तुम्हें
संप्रेषित करना
चाहता हूं जो
अनुभव मैं
तुम्हें
हस्तांतरित
करना चाहता हूं, उसके बारे
में कोई. तर्क
नहीं किया जा
सकता। वह
तर्कातीत बात
है। अगर तुम 'राजी नहीं
हो, तो मैं
तुम्हें राजी
कर भी नहीं
सकता। अगर तुम
राजी हो, तो
मैं तुम्हें
अपने साथ ले
चल सकता हूं।
इसलिए
जो लोग थोड़े
पागल हैं, केवल वे
ही लोग मेरे
साथ चलने को
राजी हो सकते हैं।
जो लोग
होशियार हैं,
चालाक हैं,
मैं उनके
लिए नहीं हूं।
उन्हें थोड़ा
और भटकना होगा,
उन्हें
अंधेरे में
अभी और थोड़ी
ठोकरें खानी पड़ेगी,
उन्हें
अंधेरे में
अभी और टटोलना
होगा।
मैं
तुम्हें
अज्ञात की
भेंट दे सकता
हूं, और
वह भेंट देने
के लिए मैं तो
तैयार हूं
लेकिन
तुम्हें उस
भेंट को ग्रहण
करने के लिए
तैयार होना
होगा। और
निस्संदेह, तुम 'किसी
न किसी भांति'
तैयार हो
सकते हो। यह
एक चमत्कार है,
मेरे साथ
होना एक
चमत्कार है।
यह बात
तार्किक रूप
से नहीं हो
सकती, लेकिन
फिर भी घटती
है। इसलिए तो
लोग तुमसे
कहते हैं कि
तुम सम्मोहित
हो गए हो। एक
तरह से तो वे
ठीक भी हैं। तुम
सम्मोहित
नहीं हुए हो, लेकिन तुम
अलग ही जगत की
शराब की मस्ती
में डूब गए
हो।
'.. ….लेकिन
मैंने यह नहीं
सोचा था कि वह
कभी इतनी जल्दी
भी हो जाएगा, लेकिन किसी
भांति मैं
आपके साथ जुड़ा
ही रहा। और
फिर आपके
द्वारा असंभव
संभव हो गया
है, दूरगामी
प्रत्यक्षगामी
हो गया है।’
'हालांकि
मैं जानता हूं
कि मैंने
यात्रा के अभी
कुछ चरण ही
पूरे किए हैं,
आपके साथ
अधिकाधिक
क्षण मुझे
जुड्ने के मिल
रहे हैं, जबकि
लगता ऐसा है
कि यही यात्रा
का अंत है। यह
पीड़ादायी भी
है और मधुर भी
है, पीड़ादायी
इसलिए है, क्योंकि
अब आप दिखायी
नहीं देते हैं
वहां जैसे ही
तुम स्वयं को
देखने में
समर्थ हो जाते
हो, तो तुम
फिर मुझे और
नहीं देख
पाओगे, क्योंकि
फिर दो
शून्यताएं एक
दूसरे के
सामने आ
जाएंगी, दो
दर्पण एक —दूसरे
के सामने हो
जाएंगे। वे एक
दूसरे में से
प्रतिबिंबित
होंगे, लेकिन
फिर भी कुछ
प्रतिबिंबित
न होगा।
'……यह
बात पीड़ादायी
भी है और मधुर
भी है :
पीड़ादायी
इसलिए है, क्योंकि
अब आप दिखायी
नहीं देते हैं
वहां, लेकिन
साथ ही यह
मधुर भी है कि
आप हर कहीं
मुझे अनुभव
होते हैं।’ ही, जिस
क्षण तुम मुझे
इस कुर्सी पर
न देख सकोगे, तुम मुझे सब
ओर देखने में
सक्षम हो
जाओगे।
'कहीं
मैं इतना न खो
जाऊं कि आपको
धन्यवाद भी न कह
सकूं। तो
कृपया, क्या
मैं अभी आपको
धन्यवाद कह
सकता हूं.
जबकि आप अभी
मेरे लिए
मौजूद हैं?'
धन्यवाद
की कोई
आवश्यकता भी
नहीं है। अजित
का पूरा
अस्तित्व ही
मेरे प्रति धन्यवाद
से भरा हुआ
है। इसे कहने
की कोई जरूरत नहीं
है तुम्हारे
कहने से पहले
ही मैं इसे
सुन चुका हूं।
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