मन चालाक है—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक 2 जनवरी 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
दिनांक 2 जनवरी 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
प्रश्नसार:
1—एक भिखारी के लिए मैं क्या कर सकता हूं?
और आपने कहा है कि हमें विपरीत ध्रुवों को समाहित करना है। तो क्या मैं एक साथ क्रांतिकारी और संन्यासी हो सकता हूं?
2--भगवान, आप योगी हैं, या भक्त हैं, या ज्ञानी हैं, या तंत्रिक हैं?
3—अगर मैं स्वयं से ही भयभीत हूं तो समर्पण कैसे करू? और मेरे ह्रदय में पीड़ा हो रही है कि प्रेम का द्वार कहां है?
4—जब भी मैं आपके प्रवचनों को ध्यान पूर्वक सुनने की कोशिश करता हूं, तो प्रवचन के पश्चात में स्मरण क्यों नहीं रख पाता हूं, कि प्रवचन में आपने क्या कहा?
5—मैं आपसे कुछ छोटे—छोटे मजेदार प्रश्न पूछना चाहता हूं, जैसे आप प्रवचन के अंत में लेते है, और आपसे यह सूनना चाहता हूं कि ये प्रश्न धीरेन्द्र का है।
पहला प्रश्न:
एक भिखारी के लिए मैं क्या कर सकता हूं? मैं उसे एक रुपया दूं या न दूर वह तो भिखारी का भिखारी ही रहेगा।
भिखारी समस्या नहीं है। अगर भिखारी ही समस्या होता, तब तो भिखारी के पास से गुजरते हुए प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा अनुभव होता। अगर भिखारी ही कोई समस्या होता, तो भिखारी बहुत पहले ही बिदा हो चुके होते। समस्या तुम्हारे भीतर है, तुम्हारा हृदय उसे अनुभव करता है। इसे समझने की कोशिश करना।
मन तुरंत बाधा डाल देता है जब कभी हृदय प्रेम से भरता है, तो मन तुरंत बाधा डाल देता है। मन. कहता है, 'चाहे तुम उसे कुछ दो या न दो, तुम्हारे देने न देने से कुछ न होगा, वह तो भिखारी का भिखारी ही रहेगा।’ वह भिखारी रहता है या नहीं रहता, इसके लिए तुम जिम्मेवार नहीं हो। लेकिन अगर तुम्हारा हृदय कुछ करने का भाव रखता है, तो जरूर करना। उससे बचने की कोशिश मत करना। मन उस समय बचने को कोशिश करता है। मन कहता है, 'क्या होगा इससे? वह तो भिखारी ही रहने वाला है, इसलिए कुछ भी करने की कोई जरूरत नहीं है।’ अगर तुम मन की सुनते हो, तो ऐसा अवसर चूक जाते हो जहां प्रेम बह सकता था।
अगर भिखारी ने भिखारी ही बने रहने का निर्णय कर लिया है, तो तुम कुछ भी नहीं कर सकते हो। तुम उसे कुछ दो तो वह उसे फेंक भी सकता है। यह उसके निर्णय की बात है।
मन बहुत चालाक है।
प्रश्न में आगे पूछा है ' भिखारियों का अस्तित्व ही क्यों है?'
क्योंकि मनुष्य के हृदय में प्रेम नहीं है।
लेकिन फिर मन बीच में बाधा डाल देता है 'क्या अमीरों ने गरीबों से कुछ छीना नहीं है? क्या गरीबों को वह सब वापस नहीं ले लेना चाहिए जो अमीरों ने उनसे छीन लिया है।’
अब तुम भिखारी को तो भूल रहे हो, हृदय की उस पीड़ा को तो भूल रहे हो जिसे तुमने अनुभव किया था। अब पूरी बात ही राजनीतिक और आर्थिक होने लगी। अब हृदय की बात न रही। अब वह मन की समस्या हो गयी। और अब मन ने भिखारी को निर्मित कर लिया। यह मन का ही गणित और चालाकी है जिसने भिखारी को निर्मित कर लिया। इस दुनिया में जो लोग चालाक और कुशल हैं, वे लोग ही धनी हो जाते हैं। और जो लोग निर्दोष हैं, सरल हैं, चालाक और धोखेबाज नहीं हैं, वे गरीब रह जाते हैं।
तुम समाज को बदल सकते हों—सोवियत रूस में उन्होंने ऐसा करने का प्रयास किया है। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अब पुराने वर्ग मिट गए हैं —जैसे गरीब और अमीर के वर्ग —लेकिन शासक और शासित, यह नए वर्ग बन गए। अब जो लोग चालाक हैं वे शासक हैं और जो लोग निर्दोष हैं वे शासित हैं। पहले निर्दोष और सरल व्यक्ति गरीब हुआ करते थे और चालाक लोग अमीर हुआ करते थे। तुम क्या कर सकते हो? जब तक मन और हृदय के बीच का भेद नहीं मिटता, जब तक मनुष्यता मन से न जीकर हृदय से जीना प्रारंभ नहीं करती, वर्ग बने ही रहेंगे। वर्गों के नाम बदल जाएंगे, और पीड़ा वैसी की वैसी बनी रहेगी।
प्रश्न बहुत ही प्रासंगिक, अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण है 'एक भिखारी के लिए मैं क्या कर सकता हूं?'
प्रश्न भिखारी का नहीं है। प्रश्न तुम्हारा और तुम्हारे हृदय का है। कुछ करो, जो कुछ भी तुम कर सकते हो करो, और अमीर लोगों पर इसकी जिम्मेवारी डालने की कोशिश मत करना, इतिहास पर इसकी जिम्मेवारी डालने की कोशिश मत करना, आर्थिक ढांचे पर इसकी जिम्मेवारी डालने की कोशिश मत करना, क्योंकि वे बातें गौण हैं, सेकेंडरी हैं। अगर मनुष्यता चालाक, कुशल, स्वार्थी और धोखेबाज बनी रहती है, तो यही बार—बार दोहराया जाता रहेगा।
तुम इसमें क्या कर सकते हो? तुम तो समग्र के एक छोटे से अंश हो। तुम जो कुछ भी करोगे उससे परिस्थिति तो नहीं बदल सकती—पर तुम बदल सकते हो अगर भिखारी को तुम कुछ देते हो, तो इससे भिखारी तो शायद न बदल सके, लेकिन तुम्हारा प्रेम, तुम्हारे देने का भाव कि जो कुछ भी तुम दे सकते थे तुमने दिया, वह देने की भावदशा तुम्हें जरूर बदल देगी। और यही बात महत्वपूर्ण है। और अगर इस पृथ्वी पर प्रेम बढ़ता चला जाए—लोगों के हृदय में क्रांति हो जाए—लोग एक — दूसरे को अनुभव कर सकें, मनुष्य मनुष्य का एक साधन की तरह उपयोग न करे, अगर यह बात पूरी पृथ्वी पर फैलती चली जाए, तो एक दिन गरीब मिट जाएंगे, गरीबी मिट जाएगी, और शोषण करने वाला कोई नया वर्ग उसका स्थान न ले सकेगा।
अभी तक सभी क्रांतिया असफल हुई हैं, क्योंकि क्रांतिकारी गरीबी की जड़ को ही नहीं समझ पाए। वे केवल ऊपर—ऊपर से कारणों की छान —बीन करते रहे हैं। और उनके पास कहने के लिए यही होता है, 'कुछ लोगों ने गरीबों का शोषण किया है, इसीलिए उनके पास धन है। यही गरीबी का कारण है, इसीलिए इस दुनिया में गरीबी है।’
लेकिन वे कुछ थोड़े से लोग शोषण कर कैसे सके? वे क्यों नहीं देख सके? वे क्यों नहीं देख सके कि उन्हें कुछ भी मिल नहीं रहा है और किसी का सब कुछ खोया जा रहा है? वे धन भला इकट्ठा कर लें, लेकिन अपने आसपास जीवन को नष्ट कर रहे हैं। उनका धन गरीबों के रक्त के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वे इसे क्यों नहीं देख पाते?
चालाक मन इसमें भी व्याख्याएं ढूंढ निकालता है। मन कहता है कि 'लोग अपने कर्मों के कारण गरीब हैं। पिछले जन्म में उन्होंने जरूर कुछ गलत और खराब कर्म किए होंगे, इसीलिए वे इस जन्म में कष्ट भोग रहे हैं। मैं धनी हूं, अमीर हूं। क्योंकि मैंने पिछले जन्म में अच्छे कर्म किए हैं, इसीलिए मैं अच्छे फल भोग रहा हूं।’ यह सब कहने वाला भी मन ही है। और ब्रिटिश म्यूजियम में बैठा हुआ मार्क्स भी मन ही है, जो गरीबी का मूल कारण उन लोगों को मानता है जो लोगों का शोषण करते हैं।
लेकिन शोषण करने वाले लोग तो हमेशा मौजूद रहेंगे। जब तक मन की चालाकी पूरी तरह से नहीं मिट जाती, जब तक शोषण करने वाले लोग हमेशा मौजूद रहेंगे। यह प्रश्न कोई समाज के ढांचे को बदलने का नहीं है। यह समस्या मनुष्य के व्यक्तित्व के पूरे ढांचे को बदलने की है।
तुम क्या कर सकते हो? तुम ऊपरी बदलाहट कर सकते हो, अमीरों को हटा सकते हो —लेकिन वे पीछे के दरवाजे से फिर वापस आ जाएंगे। वे बहुत ही चालाक हैं। सच तो यह है कि जो क्रांतिकारी उन्हें हटाते हैं, वे उनसे भी चालाक होते हैं, अन्यथा वे उन्हें हटा ही न सकेंगे। अमीर तो शायद किसी दूसरे दरवाजे से वापस न भी आ पाएं —लेकिन वें लोग जो स्वयं को क्रांतिकारी कहते हैं, कम्युनिस्ट कहते हैं, समाजवादी कहते हैं—वे सिंहासनों पर बैठ जाएंगे और फिर से नए ढंग से शोषण करना प्रारंभ कर देंगे। और ये लोग ज्यादा खतरनाक ढंग से शोषण करेंगे, क्योंकि अमीरों को हटाकर वे अपने को ज्यादा चालाक सिद्ध कर देंगे। अमीर को हटाकर, उन्होंने एक बात तो सिद्ध कर ही दी कि वे अमीरों की अपेक्षा अधिक चालाक हैं। इस तरह समाज ज्यादा चालाक लोगों के हाथ में चला जाता है।
और ध्यान रहे, अगर किसी दिन दूसरी तरह के क्रांतिकारी पैदा हो गए—जो कि होंगे ही, क्योंकि लोग फिर से महसूस करेंगे कि शोषण तो मौज़ूद है ही, बस अब उसने नया रूप ले लिया है —तो फिर से क्रांति होगी। लेकिन पुराने क्रांतिकारियों को कौन हटाएगा? फिर पुराने क्रांतिकारियों को हटाने के लिए और ज्यादा चालाक लोगों की जरूरत होगी।
जब भी कभी किसी व्यवस्ता विशेष को हटाना होता है, तो उन्हीं साधनों का उपयोग किया जाता है जिनका उपयोग वह व्यवस्था अपने लिए कर चुकी है। तो फिर केवल नाम बदल जाएंगे, झंडे बदल जाएंगे, समाज वैसा का वैसा ही बना रहेगा।
बहुत हो चुकी यह बकवास। सवाल भिखारी का नहीं है, सवाल तुम्हारा है। यह चालाकी छोड़ो। यह मत कहो कि यह उसके कर्म हैं —कर्म के संबंध में तुम कुछ भी नहीं जानते हो। कुछ बातें जो समझाई नहीं जा सकती हैं, उन्हें समझाने का यह एक तरीका है, जो बात हृदय को पीड़ा देती है, उसे समझाने का यह तरीका है। एक बार तुम यह सिद्धांत स्वीकार कर लेते हो तो तुम जिम्मेवारी से मुक्त हो जाते हो। फिर तुम अमीर बने रह सकते हो और गरीब गरीब बना रह सकता है, कोई अड़चन नहीं रह जाती है। यह सिद्धांत बफर का काम करता है।
यही कारण है कि भारत में इतनी गरीबी है, और लोग गरीबी के प्रति पूरी तरह संवेदन—शून्य हो गए हैं। इनके पास अपने कुछ निश्चित सिद्धांत हैं, जो उनकी मदद करते हैं। जैसे कि तुम कार में बैठो और कार में शॉक — एब्जाहर्वर हो, तो सड़क के गड्डे महसूस नहीं होते, शॉक एब्जाहर्वर उन धक्कों को झेल लेता है। कर्म का यह परिकल्पित सिद्धांत एक .बहुत बड़ा शॉक एब्जार्वर है। गरीबी का हमेशा विरोध किया जाता है, लेकिन कर्म का सिद्धांत शॉक एब्जार्वर की तरह मौजूद रहता है। अब तुम क्या कर सकते हो? अब इसमें तो तुम्हारा कोई हाथ नहीं। तुम अपने अतीत के अच्छे कर्मों के कारण इस जन्म में धन —संपत्ति भोग रहे हो। और गरीब आदमी अपने बुरे कर्मों के कारण गरीबी की पीड़ा भोग रहा है।
भारत में जैनों का एक विशिष्ट संप्रदाय है, तेरापंथ। वे इसी कर्म के सिद्धांत में विश्वास करते हैं। वे कहते हैं, 'तुम किसी के —बीच में मत आओ, क्योंकि अगर कोई आदमी पीड़ा भोग रहा है तो अपने पिछले जन्मों के कर्मों के फल के कारण भोग रहा है। उसके बीच में मत आओ। उसे कुछ भी मत दो, क्योंकि उसे कुछ देना भी उसके लिए बाधा होगी। क्योंकि हो सकता है कि वह थोड़े में कष्ट से मुक्त हो जाए। उसको सहयोग देकर तुम उसके मार्ग में रुकावट डाल रहे हो। अपने कर्मों का फल तो उसे भोगना ही पड़ेगा।’
उदाहरण के लिए, एक गरीब आदमी को तुम कुछ साल आराम से रहने लायक पर्याप्त धन—राशि दे सकते हो, लेकिन फिर पीड़ा शुरु हो जाएगी उसे इस जीवन में सुख—चैन से रहने के लिए कुछ दे सकते हो, लेकिन अगले जन्म में फिर से वही पीड़ा प्रारंभ हो जाएगी। जहां तुमने उसकी पीड़ा को रोक दिया था, ठीक वहीं से फिर पीड़ा शुरू हो जाएगी। इसलिए तेरापंथी लोग कहे चले जाते हैं कि किसी को भी बाधा मत डालना। अगर कोई आदमी सड़क के किनारे मर रहा हो, तो भी तुम तटस्थ भाव से अपने रास्ते पर चले जाना। वे कहते हैं यह करुणा है. क्योंकि बीच में आकर तुम उसके कर्मों की यात्रा में बाधा डाल देते हो।
यह सिद्धांत कितना बड़ा शॉक एब्जाहर्वर है।
भारत में लोग पूरी तरह संवेदन—हीन हो गए हैं। और ऐसे धूर्त सिद्धांत उनके कवच हैं।
पश्चिम में एक नया काल्पनिक सिद्धांत खोजा गया है अमीरों ने गरीबों का शोषण किया है —इसलिए अमीर को ही समाप्त कर दो।
इसे जरा समझना। किसी गरीब आदमी को देखकर तुम्हारे हृदय में प्रेम उमड़ने लगता है। तुम कहते हो, यह आदमी अमीर के कारण गरीब है। यह कहकर तुमने प्रेम को घृणा में बदल दिया अब तुम्हारे मन में अमीर आदमी के प्रति घृणा उठने लगती है। मन कैसे खेल खेलता है? अब तुम कहते हो, 'अमीर को मिटा दो! उनसे सब कुछ छीन लो। वे शोषक हैं, वे अपराधी हैं।’
अब भिखारी को तुम भूल गए; और अब न .ही तुम्हारे हृदय में प्रेम बचा है। इसके विपरीत मन घृणा से भर जाता है, और घृणा ही उस समाज को निर्मित करती है जिसमें भिखारी होते हैं। अब घृणा फिर से तुम्हारे भीतर काम करना शुरू कर देती है। तुम ऐसा समाज बना सकते हो जिसमें वर्ग और श्रेणियां बदल जाएंगी, नाम बदल जाएंगे, लेकिन फिर भी शासक और शासित, शोषक और शोषित, दमन करने वाले और दमित मौजूद रहेंगे। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा; परिस्थिति वैसी की वैसी ही रहेगी। समाज में मालिक होंगे और गुलाम होंगे।
अगर संभावना है तो केवल एक ही क्रांति की, और वह है हृदय की क्रांति। जब किसी भिखारी को देखो, तो उसके प्रति संवेदनशील रहो। अपने और भिखारी के बीच किसी शॉक एब्जाहर्वर को मत आने देना। हमेशा संवेदनशील रहो। ऐसा थोड़ा कठिन भी है, क्योंकि हो सकता है भिखारी को देखकर तुम रोने लगो। ऐसा कठिन है, क्योंकि यह तुम्हारे लिए बहुत ही असुविधाजनक होगा।
जो कुछ उसके साथ शेयर कर सकते हो, बांट सकते हो बांटना, और इस बात की फिक्र मत करना कि वह भिखारी ही बना रहेगा या नहीं—जो कुछ भी तुम उसके लिए कर सकते हो, वह जरूर करना। तो यह करना ही तुम्हें रूपांतरित कर देगा। यह प्रेम का भाव तुम्हें नया कर जाएगा, जो कि हृदय के अधिक निकट और मन से दूर होगा। और आत्म—रूपांतरण का एकमात्र यही तरीका है।
अगर इस तरह से व्यक्ति रूपांतरित होते चले जाएं, तो संभव है एक दिन ऐसा समाज भी आ जाएगा, जहां लोग इतने संवेदनशील होंगे कि वे शोषण नहीं कर सकेंगे, जहां लोग इतने सजग होंगे कि वे किसी दूसरे के ऊपर अत्याचार कर ही न सकेंगे, लोग इतने प्रेमपूर्ण होंगे कि गरीबी और गुलामी के बारे में सोचना भी असंभव हो जाएगा।
हृदय की सुनना, और जैसा हृदय कहे वैसा ही करना, किन्हीं सिद्धांतों और व्यर्थ के विचारों के जाल में मत उलझ जाना।
प्रश्न करने वाले ने आगे पूछा है:
आपने कहा है कि हमें विपरीत धुवों को समाहित करना है; हमें धर्म और विज्ञान संगति और असंगति, पूरब और पश्चिम, टेक्मॉलाजी और अध्यात्म दोनों को चुनना है। तो क्या मैं राजनीति और ध्यान दोनों को चुन सकता हूं? क्या मैं एक साथ स्वयं को और संसार को बदलने की बात चुन सकता हूं? क्या मैं एक साथ क्रांतिकारी और संन्यासी हो सकता हूं?
हां, मैंने बार—बार कहा है कि विपरित ध्रुवों को स्वीकार करना ही पड़ता है। लेकिन ध्यान कोई ध्रुवता नहीं है। ध्यान है विपरित ध्रुवों को स्वीकार करना, और स्वीकार करने से व्यक्ति दोनों के पार हो जाता है। इसलिए ध्यान के विपरित कुछ है ही नहीं। इसे समझने की कोशिश करना।
तुम एक अंधेरे कमरे में बैठे हो। क्या अंधेरा प्रकाश के विपरीत होता है, या केवल प्रकाश की अनुपस्थिति होता है? अगर अंधकार प्रकाश के विपरीत हो, तब तो अंधकार का अपना अस्तित्व होता? क्या अंधकार अपने आपमें वास्तविकता है या केवल प्रकाश की अनुपस्थिति मात्र है? अगर अंधकार का अपना कोई अस्तित्व होता, तब तुम दीया जलाओगे तो वह उसका विरोध करेगा। फिर तो वह दीए को बुझाने का प्रयास करेगा। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करेगा।
लेकिन अंधकार कभी प्रकाश का विरोध नहीं करता। वह प्रकाश के खिलाफ कभी नहीं लड़ता। वह एक छाँट से दीए को भी बुझा नहीं सकता। विराट अंधकार और छोटा सा दीया, लेकिन फिर भी अंधकार कितना ही विराट हो, छोटे से दीए को हराया नहीं जा सकता। अंधकार का भले ही उस घर में सदियों से राज्य रहा हो, लेकिन अगर छोटा सा दीया ले आओ, तो भी अंधेरा नहीं कहेगा कि मैं सदियों —सदियों से यहां रह रहा हूं तो मैं प्रकाश का विरोध करूंगा।’ अंधकार तो चुपचाप तिरोहित हो जाता है।
अंधकार की कोई विधायक सत्ता नहीं होती है, वह तो केवल प्रकाश की अनुपस्थिति मात्र है। इसलिए जब तुम प्रकाश लाते हो, तो वह मिट जाता है। जब प्रकाश को बुझा देते हो, तो वह मौजूद। हो जाता है। सच तो यह है अंधकार कभी आता—जाता नहीं है। अंधकार और कुछ भी नहीं बस प्रकाश की अनुपस्थिति है। प्रकाश होता है, तो अंधकार नहीं होता, प्रकाश की अनुपस्थिति में वह उपस्थित हो जाता है। अंधकार एक अनुपस्थिति है।
ध्यान अंतर का प्रकाश है। ध्यान के विपरीत कुछ भी नहीं है, केवल अनुपस्थिति है। पूरा जीवन ध्यान की अनुपस्थिति है। जैसे तुम पद—प्रतिष्ठा, अहंकार, महत्वाकांक्षा, लोभ—लालच का सांसारिक जीवन जीते हो। और वही तो राजनीति है।
राजनीति एक बड़ा विराट शब्द है। उसमें केवल तथाकथित राजनीतिक ही सम्मिलित नहीं हैं, उसके अंतर्गत सांसारिक लोग भी सम्मिलित हैं। उसमें वे सभी लोग आते हैं, जो भी महत्वाकांक्षी है, वह राजनीतिक है ही, और जो भी व्यक्ति कहीं पहुंचने के लिए कुछ पाने के लिए संघर्ष करता है, वह राजनीतिक है ही। जहां कहीं भी प्रतियोगिता है वहां राजनीति है।
तीस विद्यार्थी एक ही कक्षा में पढ़ते हैं और वे स्वयं को सहपाठी कहते हैं —वे एक —दूसरे के शत्रु होते हैं। क्योंकि वे सभी एक—दूसरे के प्रतियोगी होते हैं, साथी —संगी नहीं। वे सभी एक—दूसरे से आगे निकल जाने की कोशिश कर रहे होते हैं। वे सभी स्वर्ण —पदक पाने की कोशिश कर रहे होते हैं। वे सभी प्रथम आने की कोशिश कर रहे होते हैं। अगर महत्वाकांक्षा मौजूद है, तो वे राजनीतिज्ञ हैं। जहां कहीं भी प्रतियोगिता है, संघर्ष है, वहा राजनीति है। तथाकथित सामान्य जीवन भी राजनीति से पूर्ण होता है।
ध्यान है प्रकाश की भांति. जब ध्यान का आविर्भाव होता है, तो राजनीति मिट जाती है। इसलिए तुम एक साथ ध्यानी और राजनीतिक नहीं हो सकते, यह असंभव है, तुम असंभव की मांग कर रहे हो। ध्यान का कोई ओर—छोर नहीं है; ध्यान सभी तरह के संघर्ष, द्वंद्व, महत्वाकांक्षाओं, का अभाव है।
मैं तुम से एक प्रसिद्ध सूफी—कथा कहना चाहूंगा। ऐसा हुआ:
एक सूफी गुरु ने कहा, 'मनुष्य को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि उसे लोभ, बाध्यता, और असंभावना के बीच के संबंध का बोध न हो जाए।’
इस पर शिष्य ने कहा, 'यह एक ऐसी पहेली है जिसे मैं नहीं समझ सका।’
सूफी फकीर ने कहा, 'जब तुम अनुभव के द्वारा इसे सीधे ही जान सकते हो, तो पहेली की तरह हल करने की कोशिश मत करना।’
वह गुरु शिष्य को एक वस्त्रों की दुकान में ले गया जहां चोगे मिलते थे।’ आपके यहां का सब से अच्छा चोगा दिखाइए, 'उस सूफी फकीर ने दुकानदार से कहा, 'क्योंकि इस वक्त मेरा मन बहुत पैसा खर्च करने का है।’
दुकानदार ने एक सुंदर सी पोशाक उस सूफी फकीर को दिखाई और उस पोशाक की बहुत ज्यादा कीमत बताई।’यह पोशाक! यह तो वैसी ही है जैसी कि मैं चाहता था,' उस सूफी फकीर ने कहा, 'लेकिन मैं चाहूंगा कि कॉलर के आसपास कुछ थोड़ी जरी —सितारे इत्यादि लगे हुए हों और थोड़ी —बहुत फर भी लगी हो।’
'इसमें क्या मुश्किल है, वह तो बहुत ही आसान है, 'वस्त्र बेचने वाले ने कहा, 'क्योंकि ठीक ऐसी ही पोशाक मेरी दुकान के गोदाम में पड़ी हुई है।’
वह थोड़ी देर के लिए वहा से चला गया और फिर उसी पोशाक में फर और जरी—सितारे इत्यादि लगाकर ले आया।
'और इसकी कितनी कीमत है?' सूफी फकीर ने पूछा।
'पहली वाली पोशाक से बीस गुना अधिक,' दुकानदार बोला।
'बहुत अच्छा,' सूफी फकीर ने कहा, 'मैं दोनों ही खरीद लेता हूं।’
अब दुकानदार थोड़ी मुश्किल में पड़ा। क्योंकि यह वही पहली वाली पोशाक थी। सूफी फकीर ने यह प्रकट कर दिया कि लोभ एक तरह की असंभावना होती है : लोभ में असंभावना अंतर्निहित होती है।
अब बहुत लोभी मत बनो। क्योंकि यह सब से बड़ा लोभ है : एक साथ ध्यानी और राजनीतिज्ञ 'दोनों होने की मांग करना। यह बड़े से बड़ा लोभ है, जो कि असंभव है। इधर तुम महत्वाकांक्षी होने की मांग कर रहे हो और साथ ही उधर दूसरी तरफ तुम तनावरहित भी होना चाहते हो। इधर तो तुम लड़ने की, संघर्ष की, हिंसा की, लोभी होने की मांग कर रहे हो और दूसरी तरफ शांत और विश्रांत भी होना चाहते हो। अगर ऐसा संभव होता, तो संन्यास की कोई जरूरत ही नहीं थी, तब ध्यान की कोई आवश्यकता ही न थी।
तुम्हें दोनों चीजें एक साथ नहीं मिल सकतीं। एक बार तुम ध्यान करना शुरू करते हो, तो राजनीति बिदा होने लगती है। राजनीति के साथ ही साथ उसके जो प्रभाव होते हैं, —वह भी बिदा होने लगते हैं। तनाव, चिंता, उद्वेग, संताप, हिंसा, लोभ —वे सभी बिदा होने लगते हैं। राजनीतिक मन की ही उप —उत्पत्ति है, मन की ही बाई—प्रॉडक्ट है।
तुम्हें निर्णय लेना होगा. या तो तुम राजनीतिक हो सकते हो, या तुम ध्यानी हो सकते हो। तुम दोनों एक साथ नहीं हो सकते। क्योंकि जब ध्यान होता है; तो अंधकार तिरोहित हो जाता है। तुम्हारे संसार में ध्यान का ही अभाव है। और जब ध्यान घटित होता है, तो यह संसार अंधकार की भांति तिरोहित हो जाता है।
इसीलिए पतंजलि, शंकर और सभी लोग जिन्होंने भी जाना है, कहते आए हैं कि संसार माया है, सत्य नहीं। अंधकार की तरह उसका कोई अस्तित्व नहीं है। जब होता है, तब वास्तविक लगता है। लेकिन जब भीतर ध्यान के प्रकाश का आविर्भाव हो जाता है, तो अचानक पता चलता है कि अंधकार सत्य नहीं था, उसकी कोई सत्ता न थी।
थोड़ा कभी अंधकार पर गौर करना कि उसकी कैसी वास्तविकता है, वह कैसे वास्तविक मालूम पड़ता है। वह सभी ओर से तुम्हें घेरे रहता है। केवल इतना ही नहीं, तुम उससे भयभीत भी रहते हो। अवास्तविकता तुम्हारे भीतर भय निर्मित कर देती है। वह तुम्हें मार भी डाल सकती है, और जबकि वह है ही नहीं। प्रकाश लाना। और द्वार पर किसी को खड़ा कर देना कि वह अंधकार को द्वार से बाहर जाते हुए देख पाता है या नहीं। कोई कभी अंधकार को बाहर जाते नहीं देख पाया है, और न ही कभी कोई अंधकार को भीतर आते हुए देख पाया है। अंधकार भासता है कि है और होता नहीं है।
इच्छाओं, आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के तथाकथित राजनीति के संसार का होना केवल लगता है कि है और वह होता नहीं है। जब तुम ध्यान में गहरे जाते हो, तो तुम अपनी उन सभी नासमझियों पर, और उन सभी दुख —स्वप्नों पर हंसते हो, जो कि प्रकाश के आते ही तिरोहित हो जाती हैं।
तो फिर कृपा करके ऐसी असंभव बात के लिए प्रयास मत करना। अगर ऐसा प्रयास तुमने जारी रखा, तो तुम द्वंद्व में पड़ोगे, और तुम्हारा व्यक्तित्व एक खंडित व्यक्तित्व हो जाएगा।
'क्या मैं राजनीति और ध्यान दोनों को चुन सकता हूं? क्या मैं एक साथ स्वयं को और संसार को बदलने की बात चुन सकता हूं?'
ऐसा संभव नहीं।
सच तो यह है तुम्हीं हो संसार। जब तुम स्वयं को बदलना शुरु करते हो, तो संसार को बदलना तुमने शुरु कर ही दिया—इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। अगर तुम दूसरों को बदलने के लिए जाते हो, तो तुम स्वयं को न बदल सकोगे; और जो स्वयं को नहीं बदल सकता, वह किसी दूसरे को भी नहीं बदल सकता। वह केवल ऐसा मान सकता है कि वह बहुत बड़ा काम कर रहा है, जैसा कि तुम्हारे राजनीतिज्ञ मानते हैं।
तुम्हारे सभी तथाकथित क्रांतिकारी रुग्ण हैं, तनाव में हैं, पागल हैं, विक्षिप्त हैं—लेकिन उनकी रुग्णता और विक्षिप्तता ऐसी है कि अगर उन्हें अकेला छोड़ दिया जाए तो वे पूरी तरह से पागल हो जाएंगे, इसलिए वे अपनी विक्षिप्तता को किसी न किसी कार्य में उलझा देते हैं। या तो वे समाज को बदलने में लग जाते हैं, समाज को सुधारने में लग जाते हैं, या यह करेंगे, वह करेंगे, कुछ न कुछ करने लगते हैं... पूरे संसार को बदलने निकल पड़ते हैं। और उनकीं विक्षिप्तता ऐसी होती है कि वे उस विक्षिप्तता में छिपी हुई मूढ़ता को नहीं देख पाते : तुमने स्वयं को तो बदला नहीं है, तो तुम किसी दूसरे को कैसे बदल सकते हो?
स्वयं के निकट आने से प्रारंभ करो। पहले स्वयं को बदलो, पहले अपने भीतर का दीया जलाओ, तब तुम योग्य हो पाओगे.. सच तो यह है फिर यह कहना कि दूसरों को बदलने की योग्यता आ जाएगी, यह भी ठीक नहीं है। वस्तुत: जब तुम स्वयं को बदलते हो तो असीम ऊर्जा के स्रोत बन जाते हो, और वह ऊर्जा अपने से ही दूसरों को बदल देती है। ऐसा नहीं है कि इसके लिए श्रम की आवश्यकता होती है या शहीद होना पड़ता है। नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। तुम स्वयं में ही बने रहते हो, लेकिन वह ऊर्जा, उसकी शुद्धता, उसकी निर्दोषता, उसकी सुवास, उसकी तरंग चारों ओर फैलती चली जाती है। उसकी खबर संसार के कोने —कोने तक हो जाती है। तुम्हारे बिना किसी प्रयास के ही एक क्रांति प्रारंभ हो जाती है। और जब क्रांति बिना किसी प्रयास के होती है, तो वह सुंदर होती है। और जब क्रांति प्रयासपूर्ण होती है, तो उसमें हिंसा होती है, क्योंकि, तब तुम अपने विचारों को जबर्दस्ती दूसरों के ऊपर लादते हो।
स्टैलिन ने लाखों लोगों की हत्या कर दी, क्योंकि वह क्रांतिकारी था। वह समाज को बदलना चाहता था। और जहां भी उसे लगता कि कोई भी व्यक्ति उसके मार्ग में किसी तरह की बाधा खड़ी कर रहा है, तो वह उसकी हत्या करके उसे अपने मागें से हटा देता था। कई बार ऐसा होता है कि जो लोग दूसरों की मदद करने की कोशिश करते हैं, उनकी मदद खतरनाक हो जाती है। फिर वे लोग इस बात की फिक्र ही नहीं करते कि सामने वाला व्यक्ति बदलना भी चाहता है या नहीं; उनके पास तो बदलने की धारणा होती है। वे व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध उसे बदल देंगे। फिर वे किसी की नहीं सुनेंगे। इस तरह की क्रांति हिंसात्मक क्रांति होती है।
और क्रांति हिंसात्मक नहीं हो सकती, क्योंकि क्रांति तो हृदय की होनी चाहिए। एक सच्चा क्रांतिकारी किसी को बदलने कभी कहीं नहीं जाता। वह स्वयं में ही स्थित रहता है; और जो लोग रूपांतरित होना चाहते हैं, वे उसके पास आ जाते हैं। वे दूर—दूर के देशों से चले आते हैं। वे उसके पास पहुंच जाते हैं। उसकी सुवास उन तक पहुंच जाती है। जो कोई व्यक्ति स्वयं को रूपांतरित करना चाहता है वह सूक्ष्म रास्तों से, अज्ञात तरीकों से क्रांतिकारी को खोज ही लेता है, उसे पा ही लेता है।
सच्चा क्रांतिकारी स्वयं में थिर होता है, और एक शीतल जल—स्रोत की तरह उपलब्ध रहता है। और जिस व्यक्ति को भी सच्ची प्यास होती है, वह उसे खोज ही लेता है। जल—स्रोत तुम्हें खोजने के लिए नहीं जाएगा और चूंकि तुम प्यासे हो, इसलिए जल—स्रोत तुम्हें अपनी ओर खींच ही लेगा, तुम जल—स्रोत तक पहुंच ही जाओगे। और अगर तुम उसकी नहीं भी सुनोगे तो भी जल—स्रोत तुम्हें अपनी ओर खींच ही लेगा।
स्टैलिन ने बहुत लोगों की हत्या करवाई। क्रांतिकारी उतने ही हिंसात्मक होते हैं जितने कि प्रतिक्रिया करने वाले लोग होते हैं। और कई बार तो क्रांतिकारी उनसे भी ज्यादा हिंसात्मक होते हैं। कृपा करके असंभव को करने की कोशिश मत करना। बस, स्वयं को ही रूपांतरित करो। सच तो यह है, यह इतना असंभव कार्य है कि अगर इस जीवन में ही तुम स्वयं को रूपांतरित कर सको, तो तुम इस अस्तित्व के प्रति अनुग्रह से भर जाओगे। और तब तुम कह उठोगे, 'मुझे मेरी पात्रता से अधिक मिला है।’
दूसरों की फिक्र मत करना। वे भी जीवित प्राणी हैं, उनके पास भी चेतना है, उनके पास भी आत्मा है। अगर वे स्वयं को रूपांतरित करना चाहें, तो उनके मार्ग में कोई बाधा नहीं डाल रहा है। ठंडे, शीतल झरने की तरह बहो। अगर वे लोग प्यासे होंगे तो वे अपने से तुम्हारे पास चले आएंगे। बस, तुम्हारी शीतलता ही उनके लिए आमंत्रण बन जाएगी, तुम्हारे जल की निर्मलता ही उनके लिए आकर्षण बन जाएगी।
'…..क्या मैं एक साथ क्रांतिकारी और संन्यासी हो सकता हूं?'
नहीं, अगर तुम संन्यासी हो तो तुम स्वयं में एक क्रांति हो, क्रांतिकारी नहीं। तुम्हें क्रांतिकारी होने की जरूरत नहीं है : अगर तुम संन्यासी हो तो तुम एक क्रांति हो ही। मैं जो कह रहा हूं उसे समझने की कोशिश करना। तब तुम लोगों को बदलने के लिए कहीं जाओगे नहीं, और न ही किसी क्रांति की आवाज बुलंद करोगे। तब तुम क्रांति की कोई योजना नहीं बनाओगे, तब तो तुम स्वयं ही क्रांति को जीने लगोगे। तब तुम्हारी जीवन—शैली ही एक क्रांति हो जाएगी। फिर जहां भी तुम्हारी आंख उठ जाएगी, या जहां कहीं भी स्पर्श हो जाएगा, वहीं क्रांति हो जाएगी तब जीवन में क्रांति श्वास की भांति सहज —स्फूर्त हो जाएगी।
एक और सूफी कथा मैं तुमसे कहना चाहूंगा :
एक जाने —माने सूफी फकीर से पूछा गया, ' अदृश्यता क्या है?' उस सूफी फकीर ने उत्तर दिया, 'मैं इसका उत्तर तब दूंगा जब कोई ऐसी घटना घटेगी, क्योंकि तब प्रत्यक्ष रूप से मैं तुम्हें बता सकूंगा।’
सूफी फकीर ज्यादा बोलते नहीं हैं। वे परिस्थितियों का निर्माण करते हैं। वे ज्यादा कुछ कहते नहीं और परिस्थितियों के द्वारा वे सब बता देते हैं। इसलिए उस सूफी फकीर ने कहा, 'जब कभी कोई अवसर होगा, तो मैं तुम्हें उसके स्पष्ट दर्शन करा दूंगा।’
कुछ समय बाद, वह सूफी फकीर और वह व्यक्ति, जिसने प्रश्न पूछा था—उन्हें कुछ सिपाहियों ने रोक लिया। उन सिपाहियों ने उनसे कहा, 'हमें आज्ञा हुई है कि सभी सूफी फकीरों को जेल में बंद कर दें। क्योंकि इस देश के राजा का कहना है कि सूफी फकीर उसकी आशाओं का पालन नहीं करते और वे इस तरह की बातें करते हैं जो आम जनता के सुख —चैन के लिए अच्छी नहीं हैं। इसलिए हमें सभी सूफी फकीरों को जेल में बंद करना है।’
जब कभी कोई सच्चा धार्मिक होता है, सच्चा क्रांतिकारी होता है, तो सभी राजनीतिज्ञ उससे भयभीत हो जाते हैं। क्योंकि उसकी मौजूदगी, उसकी उपस्थिति ही उन्हें विक्षिप्त और क्रुद्ध कर देने के लिए पर्याप्त होती है। उसकी मौजूदगी ही पुराने समाज को नष्ट कर देने के लिए, पुरानी शासन—व्यवस्था को मिटा देने के लिए पर्याप्त होती है। और एक नया संसार बनाने के लिए उसकी मौजूदगी, उसकी उपस्थिति ही पर्याप्त होती है।
उसकी मौजूदगी तो बस माध्यम होती है। जहां तक अहंकार का संबंध है, वहां अहंकार जैसा कुछ बचता ही नहीं है, वह तो परमात्मा का माध्यम बन जाता है। जो भी शासन करने वाले लोग हैं, या चालाक लोग हैं, वे हमेशा से धार्मिक लोगों से भयभीत रहते हैं। धार्मिक लोगों से वे इसलिए भयभीत रहते हैं, क्योंकि धार्मिक आदमी से बड़ा और कोई खतरा उनके लिए नहीं हो सकता। वे क्रांतिकारियों से इसलिए भयभीत नहीं होते हैं, क्योंकि उनकी नीतियां, चालबाजियां एक जैसी होती हैं। वे क्रांतिकारियो से इसलिए भयभीत नहीं होते, क्योंकि वे उसी भाषा, उसी शब्दावली का उपयोग करते हैं; वे भी उनके जैसे ही लोग हैं; उनसे कुछ अलग नहीं।
कभी दिल्ली जाकर राजनेताओं को देखो। वे राजनेता जो सत्ता में हैं और वे राजनेता जो सत्ता में नहीं हैं, वे सब एक जैसे ही लोग हैं। जो सत्ता में हैं वे प्रतिक्रियावादी मालूम होते हैं, क्योंकि उन्हें सत्ता मिल गई होती है। अब वे किसी भी तरह से अपनी सत्ता को बचाकर रखना चाहते हैं। अब वे साम —दाम —दंड से सत्ता को अपने हाथ में रखना चाहते हैं, इसलिए वे व्यवस्था का हिस्सा जान पड़ते हैं। और वे लोग जो कि सत्ता में नहीं हैं, वे क्रांति की बातें करते हैं, क्योंकि वे उन्हें हटा देना चाहते हैं जो कि सत्ता में हैं। जब वे स्वयं सत्ता में आ जाएंगे तब वे प्रतिक्रियावादी बन जाएंगे, और वे लोग जो सत्ता में थे, जिन्हें राजसत्ता से हटा दिया गया है, वे क्रांतिकारी बन जाएंगे।
एक सफल क्रांतिकारी मृत होता है, और एक शासक जिसे सत्ता से हटा दिया गया है, वह क्रांतिकारी बन जाता है। और इस तरह से ये लोगों को धोखे पर धोखा दिए चले जाते हैं। चाहे जो सत्ता में होते हैं उन्हें चुनो, या जो कि सत्ता में नहीं होते हैं उन्हें चुनो, उनमें कुछ भेद नहीं होता है। तुम एक जैसे लोगों को ही चुन लेते हो। बस ऊपर के लेबल अलग— अलग होते हैं, लेकिन उनमें जरा भी भेद नहीं होता।
धार्मिक व्यक्ति खतरनाक होता है। उसका 'होना' ही खतरनाक होता है, क्योंकि वह अपने साथ एक नए जगत और एक नई हवा को ले आता है।
तो सिपाहियों ने उस सूफी फकीर और उसके शिष्य को घेर लिया और कहा कि वे सूफी फकीरों की खोज में हैं, और सभी सूफी फकीरों को कैद करना है, क्योंकि यह राजा की आशा है। राजा का कहना है कि सूफी फकीर ऐसी बातें करते हैं जो आम जनता के लिए हितकर नहीं हैं, और वे इस इस तरह की बातें करते हैं जो आम जनता के सुख —चैन के लिए अच्छी नहीं हैं।
उस सूफी फकीर ने कहा, 'तो तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए '
उस सूफी फकीर ने उन सिपाहियों से कहा कि तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए।
'…….तुम्हें अपना फर्ज पूरा करना चाहिए।’
'तो क्या आप लोग सूफी नहीं हैं?' सिपाहियों ने पूछा।
'पहले हमारी जांच —पड़ताल कर लो,' सूफी फकीर ने कहा।
एक आफिसर ने एक सूफी ग्रंथ निकालकर उनके सामने रख दिया और पूछा, 'यह क्या है?' सूफी फकीर ने उस ग्रंथ के मुख —पृष्ठ को देखा और कहा, 'तुम इसे जलाओ, उससे पहले मैं ही तुम्हारे सामने इसे जला देता हूं।’ और ऐसा कहकर उसने उस ग्रंथ में आग लगा दी। यह देखकर 'वे सिपाही संतुष्ट होकर वहां से चले गए।
फकीर के साथी ने उससे पूछा, ' आपके द्वारा इस तरह से ग्रंथ को जला देने का क्या मतलब?' सूफी फकीर बोला, 'मेरे इस कृत्य से हम लोग बच गए। क्योंकि सांसारिक आदमी के सामने हप्तेने का मतलब है कि तुम्हारा आचार — व्यवहार, तुम्हारा तौर —तरीका ढंग, तुम्हारा उठना —बैठना ऐसा हो, जिसकी वह तुमसे आशा रखता है। अगर वह उससे कुछ अलग हो, तो तुम्हारा सच्चा स्वरूप, सच्चा स्वभाव प्रकट हो जाएगा, और जो उसकी समझ के बाहर होता है।’
धार्मिक व्यक्ति के जीवन में अदृश्य रूप से क्रांति होती है —क्योंकि प्रकट होना स्थूल होना है, प्रकट होना अंतिम सीढ़ी पर खड़े होना है। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति, एक संन्यासी स्वयं में ही एक क्रांति होता है और फिर भी अप्रकट होता है। लेकिन फिर भी उसकी अदृश्य ऊर्जा का स्रोत चमत्कार करता चला जाता।
अगर तुम संन्यासी हो तो क्रांतिकारी होने की कोई जरूरत नहीं है तुम क्रांति हो ही। और मैं क्रांति इसलिए कहता हूं, क्योंकि क्रांतिकारी तो पहले से ही जड़—विचार और निश्चित धारणा का व्यक्ति होता है, और उसी में वह जीता है। मैं इसे 'क्रांति' कहता हूं. क्योंकि यह एक गतिमान प्रक्रिया है। संन्यासी के कोई पहले से बने —बनाए जड़ —विचार नहीं होते हैं, वह तो क्षण— क्षण, पल—पल जीता है। वह जिस क्षण, जिस पल जैसा अनुभव करता है, वैसा ही करता है, वैसे ही जीता है—वह किन्हीं बंधी —बधाई विचारों और धारणाओं के साथ नहीं जीता है।
थोड़ा खयाल करना। अगर किसी कम्मुनिस्ट से बात करो, तो तुम पाओगे कि वह बात को सुन ही नहीं रहा है। वह यूं ही हा —हूं में सिर हिला रहा हो, लेकिन वह सुन नहीं रहा है। किसी कैथोलिक से बात करो, वह नहीं सुन रहा है। किसी हिंदू से बात करो, वह नहीं सुन रहा है। जब तुम उनसे बात कर रहे होते हो तो वह अपना उत्तर अपने पुराने सड़े —गले, जड़—विचारों में से ही तैयार कर रहा होता है। उसके चेहरे के हाव— भाव से देख सकते हो कि उसके भीतर कहीं कोई संवेदना नहीं हो रही है, उनके चेहरे पर एक तरह की जड़ता और मायूसी छाई है।
अगर किसी बच्चे से बात करो तो वह बात को ध्यानपूर्वक सुनता है। जब बच्चा कुछ सुनता है, तो पूरी एकाग्रता और ध्यान से सुनता है। और अगर नहीं सुनता है तो फिर वह बिलकुल ही नहीं सुनता है, लेकिन जो भी करता है पूरी समग्रता से करता है। किसी बच्चे से अगर बात करो, तो उसमें एक निर्दोषता और ताजगी होती है।
संन्यासी भी बच्चे की भांति सरल और निर्दोष होता है। वह अपनी किन्हीं बंधी—बधाई धारणाओं से नहीं जीता; और न ही वह किसी विचारधारा का गुलाम होता है। वह अपनी चेतना से जीता है, वह होशपूर्वक, बोधपूर्वक जीता है। वह पल—पल जीता है। वह न तो भूत में जीता है, न भविष्य में, वह केवल वर्तमान के क्षण में जीता है।
जब जीसस को सूली दी जा रही थी, तो एक चोर जो उनके पास ही खड़ा हुआ था, उसे भी सूली दी जा रही थी। वह जीसस से बोला, 'हम अपराधी हैं, हमें सूली पर चढ़ाया जा रहा है, यह तो ठीक है —इसे हम समझ सकते हैं। लेकिन आप तो बिलकुल निर्दोष मालूम होते हैं। लेकिन मैं इस बात से खुश हूं कि मुझे आपके साथ सूली पर चढ़ाया जा रहा है, मैं बहुत ही खुश हूं। मैंने अपने जीवन में कभी कोई अच्छा काम नहीं किया है।’
वह एक घटना बिलकुल भूल ही गया था। जब जीसस का जन्म हुआ था, उस समय जब जीसस के माता—पिता देश छोड्कर भाग रहे थे, क्योंकि उस देश के राजा ने एक सुनिश्चित अवधि में पैदा हुए बालकों का सामूहिक वध करने की आज्ञा दी हुई थी। राजा के भविष्यवक्ताओं ने राजा को यह बताया था कि इस सुनिश्चित अवधि में जो बच्चे जन्म लेंगे, उनमें से एक बच्चा क्रांति करेगा, और वह क्रांति खतरनाक सिद्ध होगी। तो पहले से ही सतर्क और सावधान रहना अच्छा होगा। इसलिए राजा ने उस समय पैदा हुए सभी बच्चों की सामूहिक वध की आज्ञा दे दी थी। जीसस के माता—पिता भी जीसस को लेकर बचने को भाग रहे थे।
एक रात कुछ चोर और डाकुओं ने जीसस के माता—पिता को घेर लिया—यह चोर उसी दल का था— और वे चोर —डाकू उन्हें लूटने और मारने को तैयार ही थे, कि उसी वक्त इसी चोर ने जब जीसस की ओर देखा, और वह बालक इतना सुंदर, कोमल और शुद्ध था, जैसे कि शुद्धता स्वयं ही उसमें उतर आई हो, और एक अलग ही आभा उसे घेरे हुए थी। और उस बालक को देखकर उसने दूसरे चोरों को रोक दिया और कहा, 'इन्हें जाने दो। जरा इस बालक को तो देखो।’ और जब उन्होंने बालक को देखा, तो सभी के सभी चोर—डाकू चकित और सम्मोहित रह गए। वे डाकू जो जीसस के माता—पिता को लूटना और मारना चाहते थे, कुछ न कर सके। और उन्होंने उन्हें छोड़ दिया।
यह वही चोर था जिसने जीसस को बचाया था। लेकिन उसे पता नहीं था कि यह वही आदमी है, जिसे उसने बचाया था।
वह जीसस से कहने लगा, 'मैं नहीं जानता कि मैंने क्या किया है, क्योंकि कोई मैंने कभी अच्छा काम तो किया नहीं है। आप मुझ से बड़ा अपराधी कहीं नहीं खोज सकते हैं। मेरी पूरी जिंदगी पाप और अपराधों से भरी हुई है ऐसे सभी पाप से जिनकी कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन फिर भी मैं प्रसन्न हूं। परमात्मा के प्रति अनुगृहीत हूं कि मुझे इतने सरल और निर्दोष आदमी के निकट मरने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है।’
जीसस ने उससे कहा, 'इसी अनुग्रह के भाव के कारण ही आज तुम प्रभु के राज्य में मेरे साथ होओगे।’
जीसस के इस कथन के पश्चात ईसाई तत्वज्ञानी निरंतर विचार —विमर्श करते रहे हैं कि 'आज' से उनका क्या तात्पर्य था। उनका केवल इतना ही तात्पर्य था 'अभी।’ क्योंकि धार्मिक व्यक्ति के पास कोई बीता हुआ कल नहीं होता, न ही कोई आने वाला कल होता है, वह केवल आज में जीता है। उसके लिए यह पल, यह क्षण ही सब कुछ होता है। जब उस चोर से जीसस ने कहा कि ' आज तुम प्रभु के राज्य में मेरे साथ होओगे,' तो वे यह कह रहे थे, 'देखो! तुम पहले से ही वहीं हो। इस क्षण तुम्हारे अनुग्रह के भाव के कारण, और निर्मलता और निर्दोषता को पहचानने के कारण—तुम्हारे पश्चात्ताप के कारण—तुम्हारा अतीत समाप्त हो गया है। हम प्रभु के राज्य में हैं।’
धार्मिक व्यक्ति पहले से बनी हुई निश्चित धारणाओं, विचारों, सिद्धांतों द्वारा नहीं जीता है। वह तो क्षण— क्षण जीता है। उसका प्रत्येक कृत्य उसके बोध और होश से आता है। वह हमेशा तरो —ताजा, निर्मल, निर्झर की भांति स्वच्छ रहता है। उसके ऊपर अतीत का बोझ नहीं होता है।
इसलिए, अगर तुम संन्यासी हो तो तुम एक क्रांति हो। क्रांति किसी भी क्रांतिकारी से ज्यादा बड़ी होती है। क्रांतिकारी वे होते हैं, जो कहीं रुक गए हैं नदी ठहर गई है, अब वह बहती नहीं है। संन्यासी तो सदा प्रवाहमान है उनकी नदी कभी ठहरती ही नहीं है —वह आगे और आगे बहती ही चली जाती है, संन्यासी तो एक प्रवाह है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान आप योगी हैं या भक्त हैं या ज्ञानी हैं या तांत्रिक हैं?
इन मूर्खताओं में से कुछ भी नहीं।
मेरे ऊपर किसी भी तरह के लेबल लगाने की कोशिश मत करना; न ही मुझे किसी कोटि में रखने की कोशिश करना। तुम्हारा मन मुझे किसी कोटि में रखना चाहेगा, ताकि तुम कह सको कि यह आदमी इस तरह का है और ताकि फिर तुम निश्चित हो जाओ। बात इतनी आसान नहीं है। मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। मैं तो पारे की भांति हूं, छलक—छलक जाऊंगा जितना अधिक मुझे पकड़ने की कोशिश करोगे, उतना ही छूट—छूट जाऊंगा। जितना अधिक मुझे जानना चाहोगे, उतना ही मैं बिना जाना रह जाऊंगा। या तो मैं सभी कुछ हूं या मैं कुछ भी नहीं हूं —केवल मेरी यही दो कोटियां हो सकती हैं, और मैं बीच की किसी अन्य कोटि में नहीं आता हूं, क्योंकि और कोई सी भी कोटि सत्य की खबर न दे सकेगी। और जिस दिन तुम मुझे या तो सब कुछ की भांति, या फिर कुछ नहीं की भांति जान लोगे, वह दिन तुम्हारे लिए परम अनुभूति का दिन होगा, परम सौभाग्य का दिन होगा।
मैं तुम से एक कथा कहना चाहूंगा जिसे मैं कल ही पढ़ रहा था
अपनी एक कहानी 'दि कंट्री ऑफ दि ब्लाइंड' में एच जी. वेल्स ने बताया है कि कैसे एक यात्री एक अजनबी वादी में जा पहुंचा, वह वादी जो कि ऊंचे —ऊंचे पहाड़ों से घिरी हुई थी, शेष सारे संसार से अलग— थलग हो गई थी। वहां पर सभी लोग अंधे थे—वह अंधों की वादी थी। भूल से एक यात्री वहां पहुंच गया। वह उस विचित्र वादी में कुछ दिन रहा, लेकिन वहां के जो मूल निवासी थे, वे उसे बीमार और अस्वस्थ समझते थे। उस वादी के जो विशेषज्ञ थे, उन्होंने कहा, 'इस आदमी का दिमाग, जिन्हें कि ये आंखें कहते हैं, उसके कारण अस्वस्थ हैं। ये आंखें इसे लगातार उत्तेजक और अशांत रखती हैं।’ और उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि जब तक इस. आदमी की आंखें न निकाल दी जाएंगी यह कभी स्वस्थ और स्वाभाविक न हो पाएगा। इसकी 'शल्य —चिकित्सा की सख्त जरूरत है,' उन विशेषज्ञों ने कहा।
वे सभी लोग अंधे थे। वे सोच भी न सकते थे कि कैसे किसी आदमी के पास आंखें भी हो सकती हैं। यह आंखें तो अस्वाभाविक हैं, इस आदमी को स्वाभाविक बनाने के लिए इसकी आंखों को निकाल देना चाहिए।
वह यात्री उस वादी में एक अंधी युवती के प्रेम में पड़ गया। उस स्त्री ने उससे निवेदन किया कि वह अपनी आंखें निकलवा दे जिससे कि वे दोनों सुखपूर्वक रह सकें।
'क्योंकि, 'उस युवती ने कहा, ' अगर तुमने अपनी आंखें न निकलवाई, तो मेरा समाज तुम्हें स्वीकार न करेगा। तुम अस्वाभाविक हो, तुम मेरे समाज के लिए इतने अलग, इतने अजनबी हो कि तुम आंखें निकलवा दो। किसी दुर्भाग्य की मार तुम पर आ पड़ी है। हमने तो कभी इन आंखों के बारे में किसी से कुछ सुना नहीं है। और तुम लोगों से पूछ सकते हो. किसी ने कभी देखा नहीं है। इन्हीं दो आंखों के कारण तुम मेरे समाज में अजनबी हो, और यह समाज के लोग मुझे तुम्हारे साथ रहने की आज्ञा न देंगे। और मुझे भी तुम्हारे साथ रहने में थोड़ा भय लगता है, क्योंकि आंखों के कारण तुम कुछ अलग हो।’
उस युवती ने उस युवक पर बहुत जोर डाला, उसकी बहुत खुशामद और मिन्नतें कीं कि वह अपनी आंखें निकलवा दे, ताकि वे दोनों सुखपूर्वक साथ—साथ रह सकें। और उसने यह प्रस्ताव करीब —करीब स्वीकार कर ही लिया था, क्योंकि वह यात्री उस अंधी युवती के प्रेम में पड़ गया था —उसी प्रेम के वशीभूत होकर और उसके मोह में फंसकर वह अपनी आंखें तक खोने के लिए तैयार हो गया था —लेकिन जब वह निर्णय लेने ही वाला था कि एक सुबह उसने पहाड़ों के बीच में से सूर्योदय होते देखा, और सफेद फूलों से भरी सुंदर हरी — भरी वादियों को उसने देखा उसके बाद फिर वह अपनी आंखें गंवाकर उस वादी में संतुष्ट रहता, यह उसके लिए संभव न था। वह वापस अपने देश लौट आया।
बुद्ध, जीसस, कृष्ण, जरथुस्त्र, ये लोग अंधों की वादी में आंख वाले लोग हैं। फिर चाहे किसी भी नाम से तुम उनको पुकारों —योगी कहो, बुद्ध कहो, जिन कहो, क्राइस्ट कहो, या भक्त कहो। चाहे किसी भी नाम से पुकारो, लेकिन तुम्हारी सारी कोटियां केवल इतना ही कहती हैं कि वे तुम से अलग हैं, कि उनके पास दर्शन की, देखने की क्षमता है, कि उनके पास आंखें हैं, कि वे ऐसा कुछ देख सकते हैं जिसे तुम नहीं देख सकते हो।
और ऐसे आंख वाले लोगों से तुम नाराज होते हो, प्रारंभ में तो तुम उनका विरोध करते हो और फिर चाहे बाद में, उनका अनुसरण करने लगो, उनकी पूजा करने लगो। क्योंकि उनकी अंतर्दृष्टि, तुम्हारे विरोध के बावजूद, तुम में एक गहन आकांक्षा और अभीप्सा निर्मित कर देती है। अचेतन रूप से तुम्हारा स्वयं का ही स्वभाव तुम से कहता रहता है कि इस दृष्टि को, इस दर्शन को पाने की तुम्हारी भी संभावना है। फिर ऊपर—ऊपर से तो तुम इनकार करते चले जाते हो, और गहरे में एक अचेतन धारा तुम से यह कहे चली जाती है कि तुम ठीक नहीं हो। शायद इस दृष्टि का ही होना स्वाभाविक है, और तुम अभी जैसे हो अस्वाभाविक हो। संभव है तुम्हारे जैसे दृष्टि—विहीन लोगों की संख्या अधिक हो, लेकिन इसका सत्य से कोई लेना—देना नहीं है।
बुद्ध, जीसस, कृष्ण, जरथुस्त्र इन लोगों का स्मरण उसी भांति रखना होता है, जैसे कि अंधों की वादी में आंख वाले व्यक्तियों का स्मरण किया जाता है।
मैं यहां पर तुम्हारे बीच हूं। मैं तुम्हारी कठिनाई समझता हूं, क्योंकि जो मैं देख सकता हूं, तुम नहीं देख सकते हो, जिसे मैं अनुभव कर सकता हूं, उसे तुम अनुभव नहीं कर सकते हो, जिसका स्पर्श मैं कर सकता हूं, तुम उसका स्पर्श नहीं कर सकते हो। मैं भली— भांति जानता हूं कि अगर किसी तरह तुम मेरे प्रति आश्वस्त हो भी जाओ, तो भी गहरे में तुम्हारे कहीं कोई संदेह बना ही रहता है। संदेह—कि कौन जाने? यह आदमी कल्पना ही कर रहा हो —कौन जाने? यह आदमी धोखा ही दे रहा हो —कौन जाने? क्योंकि जब तक यह तुम्हारा ही अनुभव न बन जाए, तुम कैसे भरोसा कर सकते हो?
मैं जानता हूं तुम मुझे किसी न किसी कोटि में रखना चाहोगे। वह कम से. कम कोई नाम तो दे देगी, कोई लेबल तो लगा देगी, और फिर तुम चैन अनुभव करोगे। तब तुम अगर मुझे किसी कोटि में रख सके तो यह जानोगे, कि ये योगी हैं। फिर कम से कम तुम्हें यह तो लगेगा कि तुम जानते हो 1 कोई नाम देकर लोग समझने लगते हैं कि वे जानते हैं। यह एक तरह की मानसिक रुग्णता है।
एक बच्चा तुम से पूछता है, 'यह कौन सा फूल है?' वह फूल को लेकर बेचैन है, क्योंकि वह उस फूल से अपरिचित है —वह फूल उसे उसके अज्ञान के प्रति सचेत करता है। तुम उसे बता देते हो, 'यह गुलाब है।’ वह खुश हो जाता है। वह उस नाम को दोहराता रहता है : यह गुलाब है, यह गुलाब है। वह बहुत ही प्रसन्न और आनंदित होकर दूसरे बच्चों के पास जाएगा? और उन्हें बताएगा कि देखो, 'यह गुलाब है।’
उसने क्या सीख लिया है? एक नाम! लेकिन अब वह निश्चित है कि अब वह अज्ञानी न रहा। अब कम से कम वह अपने अज्ञान को अनुभव तो नहीं कर सकता—अब वह जानकार हो गया है। अब वह फूल उसके लिए अपरिचित नहीं रहा, जानकारी की दुनिया में अब गुलाब उसके लिए किसी अनजान की भांति नहीं रहा, अब गुलाब उसकी जानकारी का हिस्सा बन गया। उसे नाम दे देने से, उसे 'गुलाब' कह देने से, तुमने क्या कर लिया?
जब कभी तुम किसी अजनबी से मिलते हो, तो तुरंत पूछते हो, ' आपका नाम क्या है?' क्यों? तुम बिना किसी नाम के क्यों नहीं रह सकते? जबकि इस दुनिया में हर कोई बिना नाम के आता है। कोई अपने साथ नाम लेकर नहीं आता हर कोई बिना किसी नाम के जन्म लेता है। जब घर में कोई बच्चा आने वाला होता है, तो परिवार के लोग पहले से ही सोचना शुरू कर देते हैं कि उसे कौन सा नाम दिया जाए। तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? क्योंकि तुम्हारे संसार में फिर से कोई अनजाना और अजनबी आ रहा है। कोई न कोई लेबल उस पर तुरंत लगाना है। जब तुम बच्चे पर लेबल लगा देते हो, तब तुम संतुष्ट हो जाते हो तब तुम जानते हो कि यह राम है, कि रहीम है—कुछ तो है।
सभी नाम निरर्थक हैं। और जब कोई छोटा बच्चा जन्म लेता है, तो उसके पास कोई नाम नहीं होता। वह परमात्मा की भांति अनाम होता है। लेकिन फिर भी उसे कोई नाम देना पड़ता है मनुष्य के मन में नाम के लिए एक खास तरह का आकर्षण और एक तरह की बंधी —बधाई धारणा होती है कि जब किसी को कोई नाम दे दिया गया, तो जैसे कि उसको हमने जान लिया। तब हम पूरी तरह से संतुष्ट हो जाते हैं।
लोग मेरे पास आकर मुझसे पूछते हैं, 'आप कौन हैं? हिंदू हैं, जैन हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं —कौन हैं आप?'
अगर वे मुझे हिंदू की कोटि में रखते हैं, तो वे संतुष्टि अनुभव करते हैं —कि वे मुझको जानते हैं। अब यह 'हिंदू' शब्द, उन्हें यह जानने की एक झूठी अनुभूति दे देगा कि वे मुझे जानते हैं।
तुम मुझसे पूछते हो, 'आप कौन हैं? आप भक्त हैं, योगी हैं, ज्ञानी हैं, तांत्रिक हैं?'
अगर तुम मेरे ऊपर किसी तरह का लेबल लगा सके, या मेरे लिए कोई नाम खोज सके, तो तुम निश्चित हो जाओगे। तब तुम्हें चैन और शांति मिलेगी, तब फिर कहीं कोई समस्या नहीं रहेगी। लेकिन क्या मेरे ऊपर किसी तरह का लेबल लगा देने से तुम मुझको जान लोगे?
सच तो यह है अगर तुम सच में ही मुझे जानना चाहते हो, तो कृपा करके मेरे और अपने बीच कोई नाम मत लाना। सभी तरह की कोटियां गिरा देना। और मुझे बिना किसी नाम और कोटि के आंखें खुली रखकर सीधे देखना। मुझे बिना किसी जानकारी के, सीधी —सरल, निर्दोष दृष्टि से देखना, ऐसी दृष्टि से जिसमें कोई धारणा, सिद्धांत और पूर्वाग्रह न हों। और तब तुम मुझे समग्ररूपेण देख सकोगे। फिर तुम मुझे सीधे देख सकोगे। यही एकमात्र ढंग है मुझे जानने का, यही एकमात्र ढंग है सत्य को जानने का।
गुलाब की तरफ देखना, लेकिन 'गुलाब' शब्द को भूल जाना। वृक्ष की तरफ देखना, लेकिन 'वृक्ष' शब्द को भूल जाना। हरियाली को देखना, लेकिन 'हरा' शब्द भूल जाना। और शीघ्र ही तुम परमात्मा की अदभुत उपस्थिति के प्रति जागरूक हो जाओगे जो कि तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है।
अगर परमात्मा को नाम दे दौ, तो वह संसार बन जाता है। अगर संसार को कोई नाम न दो, तो वह फिर से परमात्मा बन जाता है। तुम्हारे मन में जिस परमात्मा की धारणा है, वह संसार का ही रूप है; संस्कारमुक्त, असीम, अज्ञात संसार ही परमात्मा है।
मेरी ओर बिना किन्हीं शब्दों के शून्य और मौन होकर देखो।
तीसरा प्रश्न:
अगर मैं स्वयं से ही भयभीत हूं तो समर्पण कैसे करूं? और मेरे हृदय में पीड़ा हो रही है कि प्रेम का द्वार कहां है?
समर्पण करने के लिए कहीं कोई 'कैसे' नहीं होता। अगर तुम अहंकार की मूढ़ता, अहंकार के अज्ञान, अहंकार की पीड़ा को जान लो, तो तुम अहंकार को गिरा दोगे। कहीं कोई 'कैसे ' नहीं होता है। अहंकार की इस पीड़ा को अगर तुम ठीक से देख लो तो तुम उसे सिर्फ दुख, पीडा और नर्क से भरा हुआ पाओगे, फिर तुम अहंकार अपने से गिरा दोगे।
तुम अहंकार को अभी भी इसीलिए पकड़े हुए हो, क्योंकि अहंकार के माध्यम से तुमने कुछ स्वप्न संजोकर रखे हुए हैं। तुमने उसकी पीड़ा, उसके नरक को अभी जाना नहीं है, तुम अभी भी आशा कर रहे हो कि उसमें कोई खजाना छिपा हो सकता है।
स्वयं में गहरे उतरकर देखो। मत पूछो कि अहंकार को गिराना कैसे है। बस, देखो कि तुम उससे कैसे चिपके हो, कैसे उसे पकड़े हो। अहंकार को पकड़ना ही समस्या है। अगर तुम अहंकार को नहीं पकड़ते हो, तो वह अपने से ही गिर जाता है। और अगर तुम मुझसे पूछते हो कि अहंकार को कैसे गिराएं और तुम यह नहीं देख रहे हो कि तुमने ही अहंकार को पकड़ा हुआ है, तो मैं तुम्हें कोई विधि दे सकता हूं; तो तुम अहंकार को तो पकड़े ही रहोगे, और मैं जो विधि दूंगा उसको भी पकड़ लोगे। क्योंकि तुम किसी भी चीज को पकड़ने की प्रक्रिया को नहीं समझते हो।
मैंने एक कहानी सुनी है। दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर बहुत भुलक्कड़ किस्म के व्यक्ति थे, जैसा कि दार्शनिकों की आदत होती है — भुलक्कड़ होने की। ऐसा नहीं है कि वे मन के पार चले गए हैं, या अ —मन को उपलब्ध हो गए हैं; क्योंकि उनका मन तौ साधारण आदमी से भी अधिक व्यस्त रहता है, उन्हें तो किसी बात का खयाल ही नहीं .रहता। दार्शनिक लोग केवल मस्तिष्क में जीते हैं। तो वह जो प्रोफेसर थे, सब चीजें इधर —उधर रख देते थे, 'हर चीज को गलत जगह पर रख देते थे। एक दिन वे कहीं अपनी छतरी भूल आए। उनकी पत्नी अनुमान लगाने का प्रयास कर रही थी कि वे छतरी कहां छोड़ आए हैं। तो उनकी पत्नी ने उनसे पूछा, ' आप मुझे ठीक —ठीक बताएं, आपको किस समय मालूम हुआ कि छतरी आपके पास नहीं है?'
अब पहली तो बात भुलक्कड़ आदमी से यह पूछना ही गलत है; ' आपको किस समय मालूम हुआ कि छतरी आपके पास नहीं है?' यह प्रश्न पूछना ही गलत है उस आदमी से, क्योंकि जो आदमी छतरी कहीं भूल आया है, उसे अब तक यह भी भूल गया होगा कि कब!
उनकी पत्नी ने पूछा, 'आप मुझे बताएं कि किस समय आपको पहली बार छतरी न होने का खयाल आया?'
'प्रिय,' उन्होंने उत्तर दिया, 'बारिश बंद होने के बाद जब मैंने छतरी बंद करने के लिए हाथ ऊपर उठाया, तब मुझे पता चला कि छतरी तो है ही नहीं।’
तुम ही अहंकार को पकड़े हुए हो और पूछते हो कि अहंकार को कैसे गिराना। और पकड़ने वाला मन तो विधि को भी पकड़ना शुरू कर देगा।
कृपा करके मत पूछना 'कैसे?' बल्कि इसके विपरीत अपने भीतर खोजना—कि तुम क्यों अहंकार को पकड़ रहे हो। अब तक तुम्हारे अहंकार ने तुम्हें क्या दे दिया है? क्या वायदों के —अतिरिक्त कुछ और भी दिया है अहंकार ने कभी? क्या अहंकार ने कभी कोई वायदा पूरा किया है? क्या अहंकार के द्वारा तुम्हें हमेशा इसी तरह से छला जाता रहेगा? क्या अहंकार के द्वारा तुम अभी तक पूरी तरह से छले नहीं गए हो? क्या तुम्हें अभी तक संतुष्टि नहीं हुई है? क्या तुम्हें अभी तक पता नहीं चला है कि यह तुम्हें कहीं ले नहीं जा रहा है, उन्हीं पुराने सपनों में चक्कर लगाते जाते हो, लगाते जाते हो। जब —जब हताशा और निराशा हाथ लगती है, क्या तुम्हें नहीं मालूम होता है कि एकदम आरंभ से ही वायदा झूठा था। अगर तुम निराश भी होते हो, तो तुम उसी क्षण फिर से नई आशा के सपने संजोने लगते हो। और अहंकार तुम्हें आशा पर आशा दिए चला जाता है। अहंकार नपुंसक है। वह केवल वायदे कर सकता है, वायदों को पूरा नहीं कर सकता। अहंकार को जरा गौर से 'जरा ध्यान से देखना। पहले वायदे और फिर वायदों की पूर्ति न होना, इन दोनों के बीच बहुत अधिक पीड़ा, हताशा, और दुख होता है।
जिस नरक के बारे 'तुमने सुना है वह किसी भूगोल का हिस्सा नहीं है, वह कहीं पृथ्वी के नीचे कहीं पाताल में नहीं। वह तुम्हारे अहंकार में ही है। जब सच में तुम अहंकार की पीड़ा को ठीक से जान लोगे, तो अहंकार के ऊपर से तुम्हारी पकड़ छूट जाएगी। और अहंकार के बिदा होते ही समर्पण अपने से हो जाता है। समर्पण अहंकार की अनुपस्थिति है।
लेकिन तुम यह नहीं पूछते हो कि 'मैं अहंकार को क्यों पकड़ता हूं?' तुम पूछते हो, 'समर्पण कैसे करूं?'
तुम गलत प्रश्न पूछ रहे हो।
और फिर हजारों बातें लोग तुम से कहते हैं। और तुम उनको पकड़ने लगते हो। तुम दुनिया भर की तथाकथित विधियों, प्रणालियों, सिद्धांतों, धर्मों, मंदिरों —चर्चों को पकड़े हुए हो। केवल मात्र एक अहंकार को गिरा देने के लिए दुनिया में तुमने तीन सौ धर्म बनाए हुए हैं। केवल एक छोटे से अहंकार को गिराने के लिए! और इसके लिए हजारों तरह की विधियां और प्रणालिया बनाई गई हैं, किताबों पर किताबें लिखी गई हैं —कि अहंकार को कैसे गिराएं। और जितना अधिक पढ़ते हो, उतने ही जानकार होते चले जाते हो, उतनी ही अहंकार को गिराने की संभावना कम होती चली जाती है —क्योंकि अब पकड़ने के लिए तुम्हारे पास बहुत कुछ है। क्योंकि अब तक तो अहंकार
प्रतिष्ठित भी हो चुका होता है...।
मैं एक जाने —माने प्रसिद्ध उपन्यासकार की आत्मकथा पढ़ रहा था। अपने जीवन के '' समय में सभी से यही कहते रहे और यही शिकायत करते रहे, कि मेरा पूरा जीवन बर्बाद हो गया।’ कभी भी उपन्यासकार नहीं बनना चाहता था —कभी भी नहीं।’
किसी ने उससे पूछा, 'तो तुमने उपन्यास लिखना बंद क्यों नहीं कर दिया? क्योंकि कम से कम बीस साल से तो मैं यही बात सुन रहा हूं, और मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं जो तुम्हारी इस शिकायत को और भी पहले से सुनते आ रहे हैं, तो तुमने उपन्यास लिखना बंद क्यों नहीं कर दिया? वे बोले, 'मैं ऐसा कैसे कर सकता था? क्योंकि जिस समय मुझे मालूम हुआ कि उपन्यास लिखना मेरे अनुकूल नहीं है, उस समय तक तो मैं बहुत प्रसिद्ध हो चुका था। जिस समय मैंने
कि उपन्यास लिखना मेरे अनुकूल नहीं है, तब तक मैं एक प्रसिद्ध उपन्यासकार हो चुका था।’
अगर अहंकार को सजाते और संवारते ही चले जाओ, तो उसे गिराना मुश्किल है। तुम्हारा ज्ञान और तुम्हारी जानकारी तुम्हारे अहंकार को सजाती—संवारती चली जाती है। तुम्हारा चर्च जाना अहंकार को सजा —संवार देता है —क्योंकि फिर तुम धार्मिक कहलाने लगते हो। बाइबिल या गीता पढ़ लेना, अहंकार को संवार देता है।’मैं औरों से अधिक पवित्र हूं' —इस दृष्टि से तुम दूसरों को देखने लगते हो। पूरे संसार को तुम इस निंदा के भाव से देखने लगते हो कि बस, तुम्हारे अतिरिक्त और पूरा संसार नरक में पड़ने वाला है।
तुम ऊपर से विनम्र बनने की, सीधे —सरल बनने की कोशिश करते हो, लेकिन कहीं गहरे में तुम्हारी सरलता में भी अहंकार छिपा बैठा होता है, वह तुम पर सवार रहता है। और इसके लिए तुम बहुत से तर्क और कारण खोज लेते हो। और सभी तर्क और कारण अहंकार को सजाने के आभूषण ही होते हैं।
भारत में एक सम्राट था, हैदराबाद का निजाम, अभी कुछ वर्ष पहले ही उनकी मृत्यु हुई। वह पूरी दुनिया में सर्वाधिक धनी व्यक्तियों में से एक था। उसके सामने राकफेलर और फोर्ड तो कुछ भी नहीं हैं। वह दुनिया का सबसे धनी आदमी था। सच तो यह है कि उसके पास कितना धन था, कोई भी नहीं जानता। क्योंकि उसके पास अनगिनत हीरे —जवाहरात थे। सात बड़े —बड़े कमरों में उन हीरों को रखा गया था वे कमरे पूरे हीरों से भरे हुए थे। यहां तक कि निजाम को तो यह भी न मालूम था कि कितने हीरे हैं।
लेकिन फिर भी हैदराबाद का जो निजाम था, वह बहुत ही कंजूस था—तुम भरोसा भी न कर सकोगे, इतना कंजूस। तुम्हें यही लगेगा कि मैं गलत कह रहा हूं। वह इतना कंजूस था कि जब उसके महल में मेहमान आते और वे अपनी अधूरी जली सिगरेटें ऐश—ट्रे में छोड़ जाते, तो वह उन जली हुई सिगरेटों को इकट्ठी करके, उनको पीता था। शायद तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं आएगा लेकिन यह सच है।
जब वह हैदराबाद का निजाम बना, जब से वह गद्दी पर बैठा, चालीस वर्षों तक वह एक ही टोपी का उपयोग करता रहा। वह दुनिया की सब से गंदी टोपी थी। उस टोपी को कभी भी धोकर साफ नहीं किया गया था, क्योंकि उसे भय था कि धोने से कहीं टोपी खराब न हो जाए। वह एक गरीब आदमी की तरह जीया। और वह अपनी प्रजा से कहा करता था कि 'मैं एक सीधा—सादा आदमी हूं। शायद मैं सबसे ज्यादा अमीर आदमी हूं दुनिया का, लेकिन मैं गरीब आदमी का जीवन जीता हूं।’
लेकिन वह गरीब नहीं था, वह कंजूस था। वह कहता था, चूंकि उसे दिखावे में रस नहीं है इसलिए वह इतना सीधा—सरल जीवन जीता है। वह अपने को फकीर समझता था। लेकिन वह ऐसा था नहीं। उस जैसा कंजूस कभी कोई हुआ नहीं सबसे ज्यादा अमीर और सबसे ज्यादा कंजूस। लेकिन अपनी कंजूसी के लिए, वह सभी प्रकार के तर्क और कारण ढूंढ लिया करता था।
वह बहुत ही भयभीत, और अंधविश्वासी भी था. वह प्रार्थना करता था और ऐसा दिखाने की कोशिश करता था कि वह बड़ा महान धार्मिक है। लेकिन ऐसा था नहीं। वह तो केवल डरा हुआ भयभीत आदमी था। रात्रि को जब वह सोता था, तो एक बड़ी ही अजीब चीज को साथ लेकर सोता करता था। उसके पास एक बड़ा सा पात्र था, जिसे वह नमक से भर लेता था, और उस नमक के पात्र में अपना एक पैर रख लेता था—रात भर वह ऐसे ही सोता था। क्योंकि मुसलमानों में एक धारणा है कि अगर तुम्हारा पैर नमक को छू रहा हो, तो भूत—प्रेत तुम्हें नहीं सता सकते।
इतना डरा हुआ आदमी कैसे प्रार्थना कर सकता है त्र: जिसे भूत—प्रेतों का इतना भय हो, वह परमात्मा को कैसे प्रेम कर सकता है? क्योंकि जो परमात्मा से प्रेम करता है, उसका भय मिट जाता है। लेकिन उसने बहुत लोगों को धोखा दिया। और अगर उसने बहुत लोगों को धोखा नहीं भी दिया तो भी कम से कम स्वयं को तो धोखा दिया ही।
ध्यान रहे, हमेशा शुरुआत से ही प्रारंभ करना। इसे देखना कि तुम्हारी पकड़ कहां है और तुम क्यों पकड़ रहे हो।
यह मत पूछो कि 'कैसे समर्पण करूं?' बस, देखना और पता लगाना कि अहंकार को क्यों पकड़ रहे हो, क्यों तुम अहंकार को पकड़ने की जिद किए हुए हो।
अगर तुम्हें अभी भी लगता हो कि अहंकार तुम्हारे लिए कोई स्वर्ग ले आएगा, तो प्रतीक्षा करना—फिर समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि सभी आशाएं व्यर्थ और झूठ हैं और अहंकार से भी सिवाय पीड़ा और दुख के कुछ नहीं मिलता, तब फिर यह पूछने की जरूरत क्या है कि समर्पण कैसे करूं?
किसी पर भी अपनी पकड़ मत बनाओ। सच तो यह है कि जब तुम यह जान लेते हो कि अहंकार आग है तो वह अपने से ही गिर जाता है। फिर उसको पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता है, फिर तो वह गिर ही जाता है। जब घर में आग लगी हो, तो किसी से पूछना नहीं पड़ता कि घर से बाहर कैसे आएं, छलांग लगाकर तुम अपने — आप बाहर आ जाते हो।
एक बार ऐसा हुआ, मैं एक घर में मेहमान था, और उस घर के सामने जो घर था, उसमें आग लग गई। वह तीन मंजिल का मकान था, और एक मोटा आदमी जो तीसरी मंजिल पर रहता था, वह खिड़की से कूदने की कोशिश कर रहा था। और नीचे जो भीड़ खड़ी थी वह चिल्ला रही थी, कूदना मत, छलांग मत लगाना; हम सीढ़ी लेकर आते हैं।
लेकिन जब घर में आग लगी हो, तो कौन सुनता है? वह आदमी कूद पड़ा। वह सीढ़ी के आने तक इंतजार नहीं कर सका। और उस समय तक कोई खतरा भी नहीं था, क्योंकि आग केवल पहली मंजिल पर ही लगी थी, तीसरी मंजिल तक पहुंचने में तो समय लगता। और भीड़ में से कुछ लोग सीढ़ी लेने के लिए गए थे। और लोग चिल्ला —चिल्ला कर उससे कह रहे थे, ठहरो, कूदो मत। लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी। वह तीसरी मंजिल से कूद पड़ा और उसका पांव टूट गया।
बाद में जब मैं उसे देखने के लिए गया तो मैंने उनसे पूछा, ' आपने' तो कमाल कर दिया। आपने तो पूछा भी नहीं कि कैसे छलांग लगाऊं। क्या आपने पहले भी कभी तीसरी मंजिल से छलांग लगाई है?'
वे कहने लगे, 'कभी नहीं लगाई।’
'क्या कभी इसका अभ्यास किया था?'
वे बोले, 'कभी नहीं।’
'कोई प्रशिक्षण लिया था?'
वे कहने लगे, 'क्या कह रहे हैं आप! ऐसा तो पहली बार ही हुआ है!'
'क्या किसी पुस्तक से सीखा है? या किसी शिक्षक से इस बारे में कुछ पूछा था? या इस बारे में किसी व्यक्ति से कुछ पूछा था?'
वे कहने लगे, 'आप कैसी बातें कर रहे हैं? मैं तो अपने पत्नी —बच्चों के आने का भी इंतजार न कर सका, और मेरी समझ में ही नहीं आ रहा था कि लोग क्यों चिल्ला रहे हैं। बाद में, जब मैं जमीन पर गिर गया, तब मेरी समझ में आया कि वे लोग सीढ़ी लेने के लिए जा रहे थे।’
जब घर में आग लगी हो, तो तुम तुरंत छलांग लगा देते हो। तुम यह नहीं पूछते कि 'कैसे' छलांग लगाएं। और जब मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे घर में आग लगी है, तो तुम तुरंत पूछने लगते हो कि 'इसके बाहर छलांग कैसे लगाएं?' नहीं, तुम बात को समझे ही नहीं। तुम्हें अभी भी नहीं लगता कि तुम्हारे घर में आग लगी है। मैं कहता हूं, इसलिए मेरे कहने के कारण तुम्हारे मन में एक विचार उठता है कि 'इसके बाहर कैसे छलांग लगाएं?' अगर सच में ही तुम्हारे घर में आग लगी हो तो भला मैं कितना ही चिल्लाऊं कि मैं सीडी लेने जा रहा हूं। ठहरो! तो भी तुम प्रतीक्षा न करोगे, तुम छलांग लगा ही दोगे। चाहे फिर पांव ही क्यों न टूट जाएं।
लेकिन तुम तो बड़े ही आराम से, बिना किसी फिकर के पूछ लेते हो कि 'समर्पण कैसे करूं?' कहीं कोई 'कैसे' नहीं है। केवल उस पीड़ा को देखना और समझना है जिसे अहंकार निर्मित करता है। अगर तुम उस पीड़ा को अनुभव कर सको तो तुम अहंकार के बाहर आ जाओगे।
'और मेरे हृदय में पीड़ा हो रही है।’
ऐसा तो होगा ही। अहंकार के साथ तो पीड़ा होगी ही।
और तुम पूछते हो, '. प्रेम का द्वार कहां है?'
अहंकार के बाहर आ जाओ। प्रेम का द्वार मौजूद ही है। अहंकार को छोड़ो और हृदय का द्वार मिल जाता है। अहंकार ही प्रेम के मार्ग में रुकावट बन रहा है। अहंकार ही ध्यान में अवरोध पैदा करता है, अहंकार ही प्रार्थना करने से रोकता है, अहंकार ही परमात्मा के मार्ग में रुकावट है, लेकिन फिर भी तुम अहंकार की ही सुनते चले जाते हो। फिर जैसी तुम्हारी मर्जी।
ध्यान रहे, अहंकार का चुनाव तुम्हारा चुनाव है। अगर तुमने अहंकार को चुना है, तो ठीक। फिर 'कैसे' की बात ही मत उठाना। और अगर तुम अहंकार का चुनाव नहीं करते, तो फिर 'कैसे ' का सवाल ही नहीं उठता है।
चौथा प्रश्न:
जब भी मैं आपके प्रवचनों को ध्यानपूर्वक सुनने की कोशिश करता हूं तो प्रवचन के पश्चात मैं स्मरण क्यों नहीं कर पाता हूं कि प्रवचन में आपने क्या कहा?
इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। अगर तुमने मुझे ध्यानपूर्वक सुना है, तो जो मैं कहता हूं उसे स्मरण रखने की कोई आवश्यकता नहीं। फिर वह बात तुम्हारे जीवन का एक अंग बन जाती है। जब तुम भोजन करते हो तो क्या तुम्हें यह स्मरण रखना पड़ता है कि तुमने क्या खाया? स्मरण रखने का प्रयोजन क्या है? वह भोजन तुम्हारे शरीर का अंग बन जाता है, वह भोजन तुम्हारे शरीर का रक्त, मांस —मज्जा बन जाता है। वह भोजन तुम्हारा अंग बन जाता है। जब तुम कुछ खाते हो, तो फिर खाने को भूल जाते हो। वह पेट में जाकर पच जाता है, उसे स्मरण रखने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
अगर तुम मेरे कों समग्रता से सुनते हो, तो मैं तुम्हारे रक्त में घुल —मिल जाता हूं, तुम्हारे साथ एक हो जाता हूं। मैं तुम्हारा रक्त —मांस —मज्जा बन जाता हूं मैं तुम्हारे अस्तित्व में समा जाता हूं। तुम मुझे अपने में आत्मसात कर लेते हो।
मेरे शब्दों को स्मरण रखने की कोई आवश्यकता भी नहीं। जब कभी कोई ऐसी परिस्थिति बनेगी, तो प्रत्युत्तर तुम्हारे भीतर से अपने — आप ही आ जाएगा. और उस प्रत्युत्तर में जो कुछ तुमने सुना है, जिस पर ध्यान दिया है, वह पूरा का पूरा उसमें समाहित होगा—लेकिन फिर भी वह याद की हुई बात नहीं होगी, बल्कि तुम्हारे जीवन से, तुम्हारे अनुभव से आई हुई बात होगी।
और इन दोनों बातों के भेद को स्मरण रखना।
मेरा प्रयास तुम्हें और अधिक जानकार, ज्ञानी या पंडित बना देने का लिए नहीं है। तुम्हें थोडी और अधिक जानकारी दे देने के नहीं है। मेरे बोलने का और तुम्हारे साथ होने का मेरा यह उद्देश्य बिलकुल नहीं है। मेरा यहां पर पूरा प्रयास इस पर है कैसे तुम अपने अस्तित्व को, कैसे तुम अपनी सत्ता को उपलब्ध हो जाओ; तुम्हें और अधिक जानकार बनाने के लिए नहीं। तो मेरे साथ रहना, मुझे समग्रता से सुनना, बाद में मेरी बातों को याद रखने की कोई आवश्यकता नहीं है.। वे तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा हो जाती हैं। जब कभी भी उनकी आवश्यकता होगी, वे जीवंत हो जाएंगी। और तब वे बातें तुम्हारी किसी स्मृति की भांति न होंगी, कि तोते की तरह तुमने उन्हें दोहरा दिया; बल्कि वे तुम्हारी जीवंत प्रतिसवेदना की भांति होंगी, वे तुमसे आएंगी।
वरना तो हमेशा इस बात का भय रहता है कि कहीं वे तुम्हारी स्मृति न बन जाए। अगर तुम रूपांतरित नहीं होते हो, स्वयं को नहीं बदलते हो, तब तो केवल तुम्हारी स्मृति बड़ी से बड़ी होती चली जाती है। तुम्हारे दिमाग का कंप्यूटर और अधिक सूचनाएं एकत्रित करता चला जाता है। और जब कभी किन्हीं परिस्थितियों में तुम्हें उसकी आवश्यकता होगी, तो तुम उन्हें भूल जाओगे। और अगर वह तुम्हारे होने का, तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं, तब तुम स्मृति की तरह कार्य नहीं करोगे, उस समय अपनी समझ का उपयोग करोगे। उस समय मुझे भूल जाओगे। जब —कोई ऐसी परिस्थिति न होगी और तुम लोगों के साथ विवाद या तर्क कर रहे होगे, तो वे बातें तुम्हें स्मरण रहेंगी।
थोड़ा ध्यान देना। अगर मेरी बातें केवल तुम्हारी स्मृति का हिस्सा मात्र हैं, तो फिर वे विवाद के लिए, तर्क के लिए, विचार —विमर्श करने के लिए ठीक हैं। लोगों के सामने तुम्हारे ज्ञान का प्रदर्शन हो जाएगा, और वे समझेंगे कि तुम बड़े ज्ञानी हो, तुम बहुत कुछ जानते हो —तुम अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक जानते हो। दिखावे के लिए, प्रदर्शन के लिए, लोगों को यह बताने के लिए कि तुम बहुत कुछ जानते हो, इसके लिए तो यह ठीक है।
लेकिन जीवन की वास्तविक परिस्थिति में. अगर प्रेम के बारे में बातचीत कर रहे हो, तो जो कुछ मैंने तुमसे कहा तुम अपनी स्मृति का उपयोग करके बहुत कुछ कह सकोगे, लेकिन जब ऐसी परिस्थिति आ जाएगी कि तुम किसी के प्रेम में पड़ गए हो—उस समय तुम अपनी ही समझ से प्रेम कर सकोगे। जो कुछ सुना है, उसके द्वारा नहीं। क्योंकि जब भी कभी कोई ऐसी परिस्थिति आ जाती है, तो कोई भी व्यक्ति मृत—स्मृति के माध्यम से कार्य नहीं कर सकता है, उस समय तो सहज —स्फुरणा ही काम आती है।
मैंने एक कथा सुनी है
एक दिन एक अन्वेषक जंगल में भटकते — भटकते एक नरभक्षी जनजाति से मिला। उस समय वे लोग अपनी पसंद का भोजन करने की तैयारी में थे। आश्चर्य की बात यह थी कि उस आदिवासी
जाति का जो मुखिया था, वह बहुत ही अच्छी अंग्रेजी बोल रहा था। जब उससे इसका कारण पूछा गया; तो उस मुखिया ने बताया कि वह अमरीका के एक कॉलेज में एक वर्ष तक रहा है।
'आप कॉलेज में पढ़ चुके हैं,' वह अन्वेषक थोड़ा आश्चर्य से बोला, 'और फिर भी आप अभी तक मनुष्य का मांस खाते हैं।’
'हां, मैं अभी भी मनुष्य का मांस खाता हूं, 'मुखिया ने स्वीकार किया। फिर वह शांत और संतुष्ट स्वर में बोला, 'लेकिन निस्संदेह, अब मैं मांस खाने में काटे और छुरी का उपयोग करता हूं।’ ऐसा ही होगा, अगर तुम मुझे अपनी स्मृति का हिस्सा बना लोगे तुम फिर भी नरभक्षी के नरभक्षी ही रहोगे लेकिन अब तुम काटे —छुरियों का उपयोग करने लगोगे। केवल इतना ही फर्क होगा एकमात्र अंतर। लेकिन अगर तुम मुझे अपने अस्तित्व के अंतर्गृह में प्रवेश करने देते हो, मुझे समग्र रूपेण सुनते हों—यही अर्थ है समग्ररूपेण सुनने का —तब तुम अपने दिमाग के कंप्यूटर को और स्मृति को भूल जाना, उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है।
किसी विश्वविद्यालय के परीक्षा भवन में जाकर परीक्षा दे आना सच्ची परीक्षा नहीं है। असली परीक्षा तो अस्तित्व के विश्व विद्यालय में ही होगी। वहीं मिलेगा प्रमाण कि तुमने मुझे सुना है या नहीं। अचानक तुम पाओगे कि तुम कुछ बदल गए हो, तुम अब अधिक प्रेमपूर्ण हो गए हो, परिस्थिति तो वही पुरानी की पुरानी है लेकिन प्रत्युत्तर तुम से कुछ अलग ही आ रहा है। अगर कोई तुम्हें परेशान करना भी चाहे, तो तुम परेशान नहीं होते हो। कोई क्रोध दिलवाने की कोशिश भी करे, तो भी तुम मौन और शांत ही बने रहते हो। कोई अपमान भी करता है, तो भी तुम अछूते के अछूते ही बने रहते हो। जैसे कि कमल पानी में होता है, लेकिन फिर भी पानी उसे छूता नहीं है, ठीक ऐसे ही तुम संसार में रहोगे, लेकिन संसार तुम्हें छुएगा नहीं। तब तुम अनुभव कर सकोगे कि मेरे साथ रहने से तुम्हें क्या उपलब्ध हुआ है।
यह अस्तित्व का अस्तित्व से हस्तांतरण है, ज्ञान का संप्रेषण नहीं।
अंतिम प्रश्न:
मैं आप से कुछ छोटे— छोटे मजेदार प्रश्न पूछना चाहता हूं जैसे आप प्रवचन के अंत में लेते हैं और आप से यह सुनना चाहता हूं कि (यह प्रश्न धीरेन्द्र का है।’ अगर मैं ध्यान करना पारी रखूं तो क्या ऐसा हो सकेगा?
कभी नहीं। और तब ध्यान करना बंद कर दो। अगर तुम प्रश्न चाहते हो, तो कृपा करके ध्यान मत करो। क्योंकि अगर तुम ध्यान करोगे, तो सभी प्रश्न समाप्त हो जाएंगे, केवल उत्तर ही बच रहोगे अगर प्रश्न पूछने हैं, तो ध्यान करना बंद कर दो। तब तुम हजारों प्रश्न पूछ सकते हो।
और सभी प्रश्न मूढ़तापूर्ण और हास्यास्पद ही होते हैं, इसलिए उनके बारे में चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन तब तुम्हें केवल एक ही बात का खयाल रखना होगा. ध्यान मत करना। अगर तुम मूढ़तापूर्ण और हास्यास्पद प्रश्न ही करना चाहते हो, तो ध्यान मत करना। और मैं फिर। कहता हूं, सभी प्रश्न हास्यास्पद और मूढ़ता से भरे ही होते हैं। अगर ध्यान करोगे, तो वे सभी प्रश्न खो जाएंगे; केवल मौन ही रह जाएगा। और मौन ही उत्तर है।
ध्यान रखना, या तो तुम्हारे पास प्रश्न होते हैं और या फिर उत्तर होते हैं। दोनों साथ—साथ नहीं होते। जब प्रश्न होते हैं, तो उत्तर नहीं होता है। मैं तो उत्तर दे दूंगा, लेकिन वह उत्तर तुम तक पहुंचेगा नहीं। और जब वह तुम तक पहुंचेगा, तब तक तुम उस उत्तर को फिर से हजारों —हजारों प्रश्नों में बदल चुके होंगे। जब तुम्हारे पास प्रश्न होते हैं, तो प्रश्न ही होते हैं। जब तुम्हारे पास उत्तर होता है, और मैं इसे 'उत्तर' कहता हूं बहुत सारे उत्तर नहीं, क्योंकि सभी प्रश्नों का केवल एक ही उत्तर है —तो जब तुम्हारे पास उत्तर होता है, तो प्रश्न नहीं होते हैं।
अगर तुम्हें वह उत्तर चाहिए, जो कि सभी प्रश्नों का उत्तर है, तो ध्यान करो। अगर तुम प्रश्न ही करते जाना चाहते हो, तो ध्यान करना बंद कर दो।
और एकमात्र उत्तर ध्यान ही है।
आज इतना ही।
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